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पहन कपड़ों को नहीं फाइ रहा है हाथ-पैर नहीं पछाड़ रहा है. धरा पर,
और मुख-मुद्रा को विकृत करता हुआ आक्रोश के साश क्रन्दन नहीं कर रहा है, इसी कारणवश उसमें दुःख के अभाव का निर्णय लेना
सही निर्णय नहीं माना जा सकता। “मात्र दुःख का अभिव्यक्तीकरण . ., ..:.:.: नहीं है यहाँ किन्तु दुःख की घटाओं से आच्छन्न है अन्दर का आकाश ! इसका दर्शन यदि अन्तर्यामी को भी नहीं होगा "तो
फिर.. किस की आँखें हैं ये इसे देख सकें
और तुरन्त ही सजल हो सान्त्वना दे सकें ? मां-धरती का मान बच जाय, प्रभो ! जल का मान पच जाय, विभो ! परीक्षा की भी सीमा होती है अति-परीक्षा भी प्रायः पात्र को प्रचलित करता है पध से, पाथेय के प्रति प्रीति भी घटती है। वार-बार दीर्घ श्वास लेने से धैर्य-साहस की बाँध हिलती है दरार की पूरी सम्भावना है।
234:: मृक माटी