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झट-पट झट-पट
उलटी-पलटी जाती माटी ! शिल्पी के पदों ने अनुभव किया असंभव को संभव किया-सम लगा, लगा यह मृदुता का परस पार पर परख रहा है परम-पुरुष को कहीं जो परस की पकड़ से परे हैं
यहाँ पर मखमल मार्दव का मान
भिटा-साः लाय... ... . . .. .. :: .. ::: आम्न-मंजुल-मंजरी कोमलतम कोंपलों की पसृणता भूल चुकी अपनी अस्मिता यहाँ पर, अपने उपहास को सहन नहीं करती लज्जा की बूंघट में छुपी जा रही है,
और कुछ-कुछ कोपवती हो आई है, अन्यथा उसकी बाहरी-पतली त्वचा
हलकी रक्तरंजिता लाल क्यों है ? मोम की मां भाटी की मृदुता चुप रह न सकी गुप रहस रह न सका बोल पड़ी वह"चाहो, सुनो, सुनाती हूँ कुछ सुनने-सुनाने की बातें :
मूक माटी :: 127