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तथापि, स्वर न ही ध्येय हैं, न उपादेय स्वर न ही अमेय है, न सुधा पेय साधक यह जान ले भली-भाँति !"
चिन्तन की मुद्रा में डूबता है शिल्पी"ओ श्रवणा! कितनी बार श्रवण किया स्वर का
ओ मनोरमा ! कितनी बार स्मरण किया स्वर का कब से चल रहा है संगीत - गीत यह ? कितना काल अतीत में व्यतीत हुआ, पता हो, बता दो'''! भीतरी भाग भीगे नहीं अभी तक दोनों बहरे अंग रहे कहाँ हुए हरे भरे? हे नीराग हरे ! अब बोल नहीं, माहौल मिले !
संगीत को सुख की रीढ़ कह कर स्वयं की प्रशंसा मत करो सही संगीत की हिंसा मत करो
रे शृंगार ! संगीत उसे मैं मानता हूँ जो संगातीत होता है और प्रीति उसे मैं मानता हूँ
II :: मूक पाटो