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फिर वह मौन टूटता है, ओंकार के उच्च उच्चारण के साथ ! शीतल जल करतल ले ... . ... ... . मन्त्रित करता है अन्तर्जल्प से मंगल-कुशलता को आमन्त्रित करता है अन्तःकल्प से, मूर्छित मन्त्रि-मण्डल के मुख पर मन्त्रित जल का सिंचन कर।
फिर क्या कहना ! पल में पलकों में हलचली हुई मुंदी आँखें खुलती हैं, जिस भाँति प्रभाकर के कर-परस पा कर अधरों पर मन्द-मुस्कान ले सरवर में सरोजिनी खिलती हैं।
मूर्छा दूर होते ही मण्डली मुक्ता से दूर भाग खड़ी होती, राजा का भी स्थानान्तरण हुआ कहीं पुनरावृत्ति न हो जाय
इस भीति से"! फिर, उत्कण्ठा नहीं कण्ठ में अबरुद्ध-सा कण्ट है दवी-दबी कैंपती वाणी में। सजल लोचन लिये कर मुकुलित किये, विनवावनत कुम्भकार कहता है : "अपराध क्षम्य हो, स्वामिन् !
मूक माटी :: PI