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हिंसा की हिंसा करना ही अहिंसा की पूजा है"प्रशंसा,
और
हिंसक की हिंसा करना या पूजा नियम से अहिंसा की हत्या है 'नृशंसा । धी-रता ही वृत्ति यह धरती की धीरता है और काय-रता ही वृत्ति वह जलधि की कायरता है। "
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मही की मूर्धन्यता को अर्चना के कोमल फूलों से
और जलधि की जघन्यता को तर्जना के कठोर शूलों से पदाचित पुरस्कृत करता प्रभाकर फिर स्वाभिमान से भर आया, जितनी थी उतनी पूरी-की-पूरी उसकी तेज उष्णता वह उभर आई ऊपर। रुधिर में सनी-सी, भय की जनी ऊपर उठी-तनी भृकुटियाँ लपलपाती रसना बनी, आग की बूंदें ही टपकाती हों,
घनी" कहीं... 'नहीं, नहीं, किसी को छोडूंगी नहीं।'
मूक माटी :: 233