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केवल धनुष दिख रहा कार्यरत इन्द्रधनुष !
महापुरुष प्रकाश में नहीं आते आना भी नहीं चाहते,
प्रकाश-प्रदान में ही
उन्हें रस आता हैं
यह बात निराली है, कि प्रकाश सबको प्रकाशित करेगा ही स्व हो या पर, प्रकाश्य' भर को ! फिर सत्ता-शून्य वस्तु भी कहां है ? फिर, यह भी सम्भव कहाँ
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कि सत्ता हो और प्रकाशित न हो ?
इन्द्र-सम वही चाहता हे 'यह' भी ।
मैं यथाकार बनना चाहता हूँ व्यथाकार नहीं ।
और
मैं तथाकार बनना चाहता हूँ
कथाकार नहीं ।
इस लेखनी की भी यही भावना है
कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक
जागृत जीवित अजित !
सहज प्रकृति का वह शृंगार - श्रीकार
मनहर आकार ले
जिसमें आकृत होता है । कर्ता न रहे, वह
विश्व के सम्मुख कभी भी
मृक्क पाटी : 245