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विपम - विकृति का वह क्षार-दार संगार अहंकार का हुँकार ले जिसमें जागृत होता है।
और हित स्व-पर का यह निश्चित निराकृत होता है !
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आज इन्द्र का पुरुषार्थ सीमा को छू रहा है, दोन हाथ से भुष की डोर दाहिने कान तक पूर्ण खींच कर निरन्तर छोड़े जा रहे । तीखे सूचीमुखी बाणों से लिदे जा रहे, भिदे जा रहे, विद्रूप-नितीर्ण हो रहे हैं
बादल-दलों के बदन सब। वयंर ममर-सा हो आई स्थिति उनकी दयनीय-सी गति, रुलाई आती है ।।
जहाँ देखें वहाँ भू-कण ही भू-कण थोड़े से ही शेष हैं जल-कण। यही कारण है कि सागर ने फिर से प्रेषित किये जन-भरे लबालब वादल-दल, और साथ ही साथ आगे क्या करना, यह भी सूचित किया है।
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246 :: मूक भाटों