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कौन सहारा ? सो सुनी ! दृढ़ा ध्रुवा संयमालिंगिता यह जो चेतना है
स्वयंभुवा काम करती हैं,
चूँची हुई धरती को विनय अनुनय से कहते हैं कण-कण ये :
"माँ के मान का सम्मान हो
राघव-वंश के अंश हैं ये, लाघव वंश के प्रशंसक भी परन्तु, अहं के संस्कार से संस्कारित गारव - वंश के ध्वंसक हैं, माँ !
242 मूकमाटी
हुए, हो रहे और होंगे
जिस वंश में हंस परमहंस
उस वंश की स्मृति विस्मृत न हो, मा ! वंश-परम्परा की परिचर्या
करने दो इसे,
मात्र परिचर्चा
रहने दो उसे,
श्रम का भाजन रही जो !
सरस भाषण की अपेक्षा नीरस भोजन ही आज स्वादपूर्ण, स्वास्थ्य वर्धक लग रहा है इसे ।"
जगद्द्ििहतैषिणी माँ के मंगलमय चरण-कमलों में मस्तक धरते करते नमन