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गुरु-गर्जन करते कहते हैं कि, "धरती का पक्ष क्यों लेता है ?
सागर से क्यों चिढ़ता है ? अरे खर ! प्रभाकर सुन ! भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर-मण्डल 'देवता-ग्रह'ग्रह-गणों में अन तझमें व्यग्रता को सौमा दिखती है अरे उग्रशिरोमणि ! तेरा विग्रह यानीदेह-धारण करना वृथा है।
कारण,
कहाँ है तेरे पास विश्राम-गृह ? तभी "तो दिनभर दीन-हीन-सा दर-दर भटकता रहता है । फिर भी क्या समझ कर साहस करता है सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ?
अरे, "अब"तो सागर का पक्ष ग्रहण कर ले, कर ले अनुग्रह अपने पर, और सुख-शान्ति-यश का संग्रह कर ! अवसर है, अवसर से काम ले अब, सर से काम ले ! अब"तो"छोड़ दे उलटी धुन अन्यथा,
मूक माटी :: 231