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सदा सरकती सरिताओं की सरवर सरसिज सुषमा की आदि शादिः 'यूँ..::........ भाँति-भाँति आभाओं की धरती से सरलिम प्रीति बह और बढ़ती जा रही है और बढ़ती जा रही है
अरे यह कौन-सी परिणति उलटी-सी ! सागर की गलिम रीति है" और चिढ़ती जा रही है धरती की बढ़ती कीर्ति को देख कर ! हे सखे ! अदेसख भाव है यह "वेशक' !
कुम्भ को मिटा कर मिट्टी में मिला-घुला कर मिट्टी को बहाने हेतु प्रशिक्षिता हुई प्रेषिता थी, जो पर-पक्ष की पूजा कर मुक्ता की वर्षा करती धरती के यश को और बढ़ाती हुई लजीली-सी लौटती बदलियों को देख । सागर का क्षोभ पल-भर में चरम सीमा को छूने लगा। लोचन लोहित हुए उसके, भृकुटियाँ तन गईं गम्भीरता भोसता में बदलती है
मूक पाटी :: 223