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और
जो करता है वह कहता नहीं,
226 मूक माटी
यूँ ठहाका लेता हुआ सागर व्यंग कसता है पुनः
"ऊपर से सूरज जल रहा है
नीचे से तुम उवल रहे हो ! और
बीच में रह कर भी यह सागर
कब जला, कब उवला :
इसका शीतल - शील "यह
कब बदला'?
हाय रे !
शीतल योग पा कर भी शीतल कहाँ बने तुम ? तुमने उष्णत्व को कब उगला
दूसरी बात यह भी है कि, तुम्हारी उष्ण प्रकृति होने से सदा पित्त कुपित रहता है तथा चित्त क्षुभित रहता है,
अन्यथा
उन्मत्तवत् तुम
यद्वा तद्वा बकते क्यों ? पित्त - प्रशमन हेतु
मुझसे याचना कर, सुधाकर सम सुधा सेवन किया करो
और
प्रभाकर का पक्ष न लिया करो !"