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और निराश हो लोटता है यानी भ्रमर से भी अधिक काला है
वह पहला बादल-दल। दूसरा'"दूर से ही विष उगलता विषधर-सम नीला नील-कण्ठ, लीला-वालाजिसकी आभा से ... पकी पीली धान की खेत भी हरिताभा से भर जाती हैं !
और,
अन्तिम-दल कबूतर रंग वाला है। यूँ ये तीनों, तन के अनुरूप ही मन से कलुषित हैं।
इनकी मनो-मीमांसा लिखी जा रही है : चाण्डाल-सम प्रचण्ड शील वाले हैं घमण्ड के अखण्ड पिण्ड बने हैं। जिनका हृदय अदय का निलय बना है, रह-रह कर कलह करते ही रहते हैं ये, विना कलह भोजन पचता ही नहीं इन्हें ! इन्हें देख कर दूर से ही भूत भाग जाते हैं भय से, भयभीत होती अमावस्या भी इनसे दूर कहीं छुपी रहतो वह; यही कारण है कि एक मास में एक ही बार
बाहर आती है आवास तज कर। 221 :: मूक मारी