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खो जाते शून्य में तभी के । और
यह कौन-सी बुद्धिमत्ता हैं
कि
जलती अगरबाती को
हाथ लगाने की आवश्यकता क्या थी?
अगर
अगरबाती अपनी सुरभि को स्वयं पीती,
तो "बात निराली थी,
मगर,
सौम्य सुगन्धि को
आपकी नासिका तक प्रेषित कर ही रही थी
दूसरी बात यह भी है कि 'लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन रावण हो या सीता हो राम भी क्यों न हों
दण्डित करेगा ही !'
अधिक अर्थ की चाह - दाह में
जो दग्ध हो गया है
अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण
यूँ - जान-मान कर, अर्थ में ही मुग्ध हो गया है, अर्थ-नीति में वह
विदग्ध नहीं है ।
कलि-काल की वैषयिक छाँव में प्रायः यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश मेंवेश्यावृत्ति की वैयावृत्य "!"
मूकमाटी 217