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उद्दीपन उतरता-सा गया, अस्त-व्यस्त-सी स्थिति
अब पूरी स्वस्थ-शान्त हुई देख, फिर से निवेदन, कर-जोड़ प्रार्थना : "हे कृपाण-पाणि ! कृपाप्राण ! कृपापात्र पर कृण करो . . . यह निधि स्वीकार कर इस पर उपकार करो ।
इसे उपहार मत समझो यह आपका ही हार है, शृंगार आपकी ही जीत है इसका उपभोग-उपयोग करना हमारी हार है, स्वामिन् !"
बोरियों में भरी उपरिल मुक्ताराशि बाहर की ओर झाँकती कुम्भकार की इस विनय-प्रार्थना को जो राजा से की जा रही है, सुनती-देखती; और समझ भी रही है राजा के मन की गुदगुदी को, सम्मति की ओर झुकी राजा की चिति की बुदबुदी को मुख पर मन्द-मुस्कान के मिष : हे राजन् ! पदानुकूल है, स्वीकार करो इसे
यूँ मानी कह रही है। 220 : मूक माटी