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यहाँ जल रही है केवल
तपन"तपन “तपन"! नील नीर की झील नाली - नदियों ये अनन्त सलिला भी अन्तःसलिला हो अन्त-सलिला हुई हैं, इनका विलोम परिणमन हुआ है यानी, नदी... दीन। जल से विहीन हो दीनता का अनुभव करती है नदी,
और ... ... .. . . . ... .. ना"ली लीना" लीना हुई जा रही है धरती में लज्जा के कारण,
यहाँ चल रही है केवल तपन "तपन तपन !
अविलम्ब उदयाचल पर चढ़ कर भी विलम्ब से अस्ताचल को छू पाता है दिनकर को अपनी यात्रा पूर्ण करने में अधिक समय लग रहा है। लग रहा है, रवि की गति में शैथिल्य आया है, अन्यथा इन दिनों दिन बड़े क्यों ?
यहाँ यही बल है केवल तपन"तपन "तपन"!
178 :: मूक मारी