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गणना करना सम्भव नहीं है, अनगिन बार धरती खुदी गहरी-गहरी वहीं-वहीं पर अनगिन बार अस्थियाँ दधीं ये ! अब तो मत करो हमारा दफन 'दफन 'दफन" हमारा दफन ही यह आगामी वसन्त-स्वागत के लिए वपन "चपन "वपन
यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...
कभी कराल काला राहू प्रभा-पंज भानु को भी पूरा निगलता हुआ दिखा, कभी-कभार भान भी यह अनल उगलता हुआ दिखा। जिस उगलन में पेड़-पौधे पर्वत-पाषाण पूरा निखिल पाताल तल तक पिघलता गलता हुआ दिखा अनल अनिल हुआ कभी अनिल सलिल हुआ कभी
और
जल थल हुआ झटपट बदलता ढलता परस्पर में घुला-मिला कलिल हुआ कभी। सार-जनी रजनी दिखी कभी शशि की हँसी दिखीं
12 :: मूक माटी