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... वहीं चल रही
तपन"तपन "तपन"! किस वजह से आती है बस्तु में यह भंगुरता
और किस जगह से आती है वस्तु में यह संगुस्ता , कुछ छुपी-सी लगती हैं यहाँ सहज-स्वाभाविक ध्रुवता वह कौन है ? क्यों मौन है? उसका रूप-स्वरूप कब दिखेगा ? वह भरपूर रसकूप कब मिलेगा ?
और
यह मिलन-मिटन की तरलिम छवि यह क्षणिक स्फुरण की सरलिम छवि पकड़ में क्यों नहीं आती ? इन सब शंकाओं का समाधान अस्थियों की मुस्कान है !
'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' सन्तों से यह सूत्र मिला है। इसमें अनन्त की अस्तिमा सिमट-सी गई हैं। यह वह दर्पण है, जिसमें भूत, भाक्ति और सम्भावित सब कुछ झिलमिला रहा है,
"तैर रहा है दिखता है आस्था की आँखों से देखने से !
LR4 :: मूक पाटो