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कभी-कभी खुशी-हँसी, कभी निशि मषि दिखी कभी सुरभि कभी दुरभि कभी सन्धि दुरभिसन्धि कभी आँखें कभी अन्धी
बन्धन-मुक्त कभी बन्दी कभी कमी मधुर भी वह मधुरता से विधुर दिखा । कभी-कभी बन्धुर भी वह बारता से विशाल दिला . . बन्धु कभी बन्धु-विधुर भाचुकता की चाल चली बाल कभी आगे बढ़ा बबाल बढ़े, बढ़ते चले पालक बना चालक बना बाल हा पलित कभी कभी दमन कभी शमन कभी-कभी सुख चमन कभी वमन कभी नमन कभी कुछ परिणमन"!
अभी रुकती नहीं कहती थकती नहीं अस्थियाँ कुछ और कहती हैं,
इन स्थितियों-परिस्थितियों को देख ये कुछ हैं भी या नहीं ऐसी धारणा मत बनाओ कहीं ! ये सबके सब निशा के निरे, बस स्वपन"स्वपन' 'स्वपन""
पूक माटी :: 183