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बाहुवन मिला है तुम्हें करी पुरुषार्थ सही पुरुष को पहचान करा सली, परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगतो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा ह !
पर-कामिनी, यह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी मिट्टी हो, सज्जन की दृष्टि में ! हाय रे ! समग्र संसार-सृष्टि में अव शिष्टता कहाँ है वह ?
अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र !" यूँ, कर्ण-कटक अप्रिय यंगात्मक-वाणी सन कर भी हाथ पसारती है मण्डली,
और मुक्ता को छूते ही बिच्छू के इंक की वंदना, पापड़-सिकती-सी काया सबकी छटपटाने लगी करवटें बदलने लगी। अंग-अंग में नयापन-पौदा गाड़ी से लो चोटी तक विष ध्याप्त हा हा सव में मुग्धा मण्डली मन्छिन । मोही मन्त्री समेत पवकी देह-यष्टि नलो एन गई !
:: :: गुम पार