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स्वभाव से ही सुधारता है
स्वपन ं 'स्वपन``"स्वपन अब तो चेतें विचारें
अपनी ओर निहारें
186 : मूक माटी
अपने अपन अपन ।
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यहाँ चल रही है केवल
तपन तपन तपन'!
वसन्त चला गया
उसका तन जलाया गया, तथापि
रूप पर, गन्ध पर, रस पर, परिणाम जो हुआ है परस पर पर्त-पर-पर्त गहरा लेप चढ़ गया है। वह प्राकृत सब कुछ ढक चुका है वह विषय बहुत गूढ़ बन चुका है इसीलिए
वन-उपवनों पर, कण-कणों पर
उसका प्रभाव पड़ा है प्रति जीवनों पर यहाँ:
रग-रग में रस वह रम गया है रक्त बन कर ।
दाह-संस्कार के अनन्तर भी पूरा परिसर यह
स्नपित स्नात होना अनिवार्य है ।
परन्तु यह क्या !
अतिथि होकर भी अति क्यों ? आय नहीं होती, नहीं सही