________________
मैं दो-गला'! मैं"दोगला ! मैं दोगला !!!
कम्भ में जलीय अंश शेष है अभी निश्शेष करना है उसे
और तपी हुई खुली धरती पर कुम्भ को रखता है कुम्भकार।
बिना तप के जलत्व का-अज्ञान का, बिलय हो नहीं सकता
और बिना तप के जलव का-वर्षा का, उदय हो नहीं सकता तप के अभाव में ही तपता रहा है अन्तमन यह अनल्प संकल्प-विकल्पों से, कल्प-कालों से। विफलता ही हाथ लगी है विकलता ही साथ चली है किसविध कहें, किसविध सहें
और, किसविध रहें ? कोरी बस, सफलता की बात मिली हैं.
आज तक, इस जीवन में | अनन्त की सुगन्ध में खो जाने को मचल रहा है, अन्त की सीमा से परे हो जाने को उछल रहा है,
1315 :: मृक नाटो