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उभरा इसमें आज ! यह भी सुभगता का संकेत हैं इससे आगे पद बढ़ना सम्भव नहीं। प्रभो ! यही प्रार्थना है पतित पापी की,
कि
इस जीवन में न सही अगली पर्याय में"तो मर, हम 'मरहम' बनें!
चार अक्षरों की एक और कविता "मैं दो गला" इससे पहला भाव यह निकलता है, कि मैं द्विभाषी हूँ भीतर से कुछ बोलता हूँ बाहर से कुछ और पय में विष घोलता हूँ। अब इसका दूसरा डाव सामने आता है : मैं दोगला छली, धूर्त, मायावी हूँ अज्ञान-मान के कारण ही इस छद्म को छुपाता आया हूँ यूँ, इस कटु सत्य को, सब हितैषी तुम भी स्वीकारो अपना हित किसमें है ? और इसका तीसरा भाव क्या हैपूछने की क्या आवश्यकता है ? सब विभावों - विकारों की जड़ 'मैं' यानी अहं को दो-गला-समाप्त कर दो
मूक मारी :: 175