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सन्त का अशान्त मन यूँ पूछता है : ओ वासन्ती ! मही माँ ! कहाँ गई
ओ वसन्त की महिमा ! कहाँ गई?
इस पर
कुछ शब्द मिलते सुनने सन्त को,
" वसन्त का अन्त हो अनन्त में सान्त खो चुका है
चुका है
और उसकी देह का अन्तिम दाह-संस्कार होना है
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निदाघ आहूत था, सो आगत है प्रभाकर का प्रचण्ड रूप है चिलचिलाती धूप है बाहर भीतर, दायें-बायें आगे पीछे ऊपर नीचे
धग धगाहट लपट चल रही है बस : बरस रही केवल
तपन' तपन" "तपन ं’!
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दशा बदल गई है
दशों दिशाओं की
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धरा का उदारतर उर
और
उरु उदर ये
गुरु दरारदार बने हैं जिनमें प्रवेश पाती है आग उगलती हवाएँ ये
अपना परिचय देती-सी रसातल-गत उचलते लावा को ।
मूकमाटी : 177