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संयम-रत धीमान् को ही 'ओम्' बना देता है। जहाँ तक शान्त-रस की बात है वह आत्मसात् करने की ही है कम शब्दों में निषेध-मुख से कहूँ सब रसों का अन्त होना हीशान्त-रस है। यूँ गुनगुनाता रहता सन्तों का भी अन्तःप्रान्त ब्रह।
रस-राज, रस-पाक शान्त-रस की उपादेयता पर बल देती हुई पूरी होती हैं इधर माटी की रौंदन-क्रिया भी।
और पर्वत-शिखर की भाँति धरती में गड़े लकड़ी की रॉड पर हाथ में दो हाथ की लम्बी लकड़ी ले अपने चक्र को घुमाता है शिल्पी। फिर घूमते चक्र पर लोंदा रखता है माटी का लोंदा भी घूमने लगता हैचक्रवत् तेज-गति से, कि माटी कुछ कहती है शिल्पी को,
10 :: मूक मारी