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'म धात् गति के अर्थ में आती है, सं यानी समीचीन सार यानी सरकना" जो सम्बक सरकता है वह संसार कहलाता है। काल स्वयं चक्र नहीं है संसार-चक्र का चालक होता है वह यही कारण है कि उपचार से काल को चक्र कहते हैं इसी का यह परिणाम है कि चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में चक्कर खाती आ रही हूँ। . .. . .. . . . . .लो. साने अन्नान वापर
और रख दी इसे ! कैसा चक्कर आ रहा है घूम रहा है माथा इसका
उतार दो"इसे"तार दो !' फिर से उत्तर के रूप में । माटी को समझाती हुई शिल्पी की मुद्रा :
"चक्र अनेक-विध हुआ करते हैं संसार का चक्र वह है जो राग-रोष आदि वैभाविक अध्यवसान का कारण है; चक्री का चक्र वह है जो भौतिक जीवन के अवसान का कारण हैं, परन्तु
गक पाटी :: 161