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न ही चलाता पर को। काल निष्क्रिय है ना क्रय-विक्रय से परे है वह । अनन्त-काल से काल एक ही स्थान पर आसीन है पर के प्रति उदासीन"! तथापि इस भांति काल का उपस्थित रहना यहाँ पर प्रत्येक कार्य के लिए अनिवार्य है; परस्पर यह
निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जो रहा ! मान-घमण्ड से अछूती माटी पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई कुम्भ के रूप में ढलती है कुम्भाकार धरती है धृति के साथ धरती के ऊपर उठ रही है।
वैसे, निरन्तर सामान्य रूप से वस्तु की यात्रा चलती रहती है अबाधित अपनी गति के साथ, फिर भी विशेष रूप से विकास के क्रम तब उठते हैं जब मति साथ देती है जो मान से विमुख होती है,
और विनाश के क्रम तब जुटते हैं जब रति साथ देती है जो मान में प्रमुख होती है उत्थान-पतन का यही आमख है।
164 :: मूक माटी