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कभी नहीं करता सिंह ! जब कि स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता .भयान फिरता. है एक रोटी के लिए। सिंह के गले में पट्टा बँध नहीं सकता किसी कारण वश बन्धन को प्राप्त हुआ सिंह पिंजड़े में भी बिना पट्टा ही घूमता रहता है, उस समय उसकी पूँछ ऊपर उठी तनी रहती है अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान को कभी किसी भाँति आँच आने नहीं देता बह ! और श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, पराधीनता-दीनता वह श्वान को चुभती नहीं कभी, श्वान के गले में जंजीर भी
आभरण का रूप धारण करती है। एक और विशेष बात है कि श्वान को पत्थर मारने से पत्थर को ही पकड़ कर काटता है मारक को नहीं ! परन्तु सिंह विवेक से काम लेता है सही कारण की ओर'"ही" सदा दृष्टि जाती है सिंह की, मारक के ऊपर मार करता है वह ।
170 :: मूक माटी