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जिसे देख कर शृंगार की अज्ञता पर सब रसों की मूल-निका स्रोतस्विनी प्रकृति माँ कुपित हो आई
शृंगार के गालों पर दो-चार चाटें दिये, बाल-लाल के माल ये
प्रवाल-सम लाल हो आयें। सुत को प्रसूत कर विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने मात्र से माँ का सतीत्व वह विश्रुत - सार्थक नहीं होता प्रत्युत, सुत-सन्तान की सुसुप्त शक्ति को सचेत और शत-प्रतिशत सशक्तसाकार करना होता है, सत-संस्कारों से।
सन्तों से यही श्रुति सुनी है। सन्तान की अवनति में निग्रह का हाथ उठता है माँ का
और
सन्तान की उन्नति में अनुग्रह का माथ उठता है माँ का और यहीं हुआप्रकृति मां की आँखों में रोती हुई करुणा,
बिन्दु-बिन्दु करके दृग-बिन्दु के रूप में
148 :: मूक माटी