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करुणा कह रही है
कण-कण से कुछ : ''परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में बहुत हुआ, वह गलत हुआ।
मिटाने-मिटने को क्यों तुले हो इतने सयाने हो ! जुटे हो प्रलय कराने
विष से धुले हो तुम ! इस घटना से बुरी तरह माँ घायल हो चुकी है
जीवन को मत रण बनाओ
प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ ! सदय बनो । अदव पर दया करो .... ......... अभय बनो। सभय पर किया करो अभय की अमृत-मय वृष्टि सदा सदा सदाशय दृष्टि । रे जिया, समष्टि जिया करो !
जीवन को मत रण बनाओ
प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ ! अपना ही न अंकन हो पर का भी मूल्यांकन हो, पर, इस बात पर भी ध्यान रहे पर की कभी न वांछन हो पर पर कभी न लांछन हो ।
जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का न मन दुखाओ !
मृक माटी :- 149