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मेरा संगी संगीत है स्वस्थ जंगी जीत है।"
स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुन कर शृंगार के बहाव में बहने वाली नासा बहने लगी प्रकृति की। कुछ गाढ़ा, कुछ पतला कुछ हरा, पीला मिलामल निकला, देखते ही हो घृणा !
जिस पर मक्षिकाएँ
जो राग की जानकाएँ हैं . .. .. ... ... ... लिपा की रसिकाएँ हैं ..
भिनभिनाने लगीं सो" ऐसा लगता है कि बीभत्स रस ने भी शृंगार को नकारा है चुना नहीं उसे ! अन्यथा सबकी नासिका से अनुनासिक
नकारात्मक ही वर्ण क्यों निकलता है ? उपरिल-अधर पर चिपकता हुआ निचले अधर पर भी उतरता आया
वह मल ! और शृंगार की रसना ने उसका स्वाद लिया
"बड़ी ही चाव से
मूक माटी :: 147