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दाह को मिटा कर सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है राह को मिटा कर सुख पाती है।
इस विषय को और उघाड़ना चाहूँगा
धूल में पड़ते ही जल वह दल-दल में बदल जाता है
हिम की डली चो धूली में पड़ी भी हो बदलाहट सम्भव नहीं उसमें ग्रहण-भाव का अभाव है उसमें।
और जल को अनल का योग मिलते ही उसकी शीतलता मिटती है
और वह जलता है, औरों को जलाता भी ! परन्तु, हिम की डली को अनल पर रखने पर भी उसकी शीतलता मिटती नहीं है और वह जलती नहीं, न जलाती औरों को।
लगभग यही स्थिति है
करुणा और शान्त-रस की। करुणा तरल है, बहती है पर से प्रभावित होती झट-सी।
156 :: मूक माटी