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इससे इस लेखनी का गला भी
भर आता है, माँ का समर्थन करता हुआ -
"कभी किसी दशा पर इसकी आँखों में,
करुणाई छलक आती
और
कभी किसी दशा पर इसकी आँखों में
अरुणाई झलक आती है क्या करूँ ?
विश्व की विचित्रता पर रोऊँ "क्या ""हँसूँ"?
बिलखती इस लेखनी को विश्व लखता तो है
इसे भरसक परखता भी है
ईश्वर पर विश्वास भी रखता है
और
परन्तु,
उस पावन पथ पर
ईश्वर का इस पर गहरा असर भी हैं
पर इतनी ही कसर है कि
वह असर सर तक ही रहा है, अन्यथा
सर के बल पर क्यों चल रहा है,
आज का मानव ? इसके चरण अचल हो चुके हैं माँ ! आदिम ब्रह्मा आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का आज अभाव नहीं है माँ !
मूकमाटी 151