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स्वर के बिना स्वागत किसविध सम्भव है.... शाश्वत भास्वत सुख का !
स्वर संगीत का प्राण है संगीत सुख की रीढ़ हैं और सुख पाना ही सबका ध्येय इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ ? निःसन्देह कह सकते हैंविदेह बनना हो तो स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी
हे देहिन ! हे शिल्पिन् !" इस पर साफ़-साफ़ कहता है शिल्पी का साफ़-सुथरा साफा
जो खादी का हैपुरुष और प्रकृति के संघर्ष से खर-नश्वर प्रकृति से उभरते हैं स्वर ! पर, परम पुरुष से नहीं।
दुःस्वर हो या सुस्वर
सारे स्वर नश्वर हैं। भले ही अविनश्वर हों ईश्वर परमेश्वर ये परन्तु, उनके स्वर तो नश्वर ही हैं !
श्रवण-सुख सो. स्वर में निहित क्यों न हो, कुछ सीमा तक-प्राथमिक दशा में अविनश्वर सुख का बाह्य साधन स्वर रहा हो
मूक माटी : 143