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इसकी भीतरी संधि से सुगन्धि कब फूटेगी वह ? उत्त घर के दशा में बाधक है यह गूंघट अब ! राग नहीं,
पराग मिले :* लो, और मिलता है शृंगार को शिल्पी से सम्बोधन रूप धन"है भंगार ! स्वीकार करो या मत करो यह तथ्य है कि, प्रति प्राणी सुख का प्यासा है परन्त, रागी का लक्ष्य-बिन्दु अर्थ रहा है और त्यागी-विरागी का परमार्थ । यह सूक्ष्म अभेद्य भेद-रेखा बाहरी आदान-प्रदान पर आधारित नहीं है, भीतरी घटना है स्वाश्रित अपने उपादान की देन !
सही अलंकार, सही शृंगार
भीतर झाँको, आँको उसे हे शृंगार !" शृंगार की कोमलता को पूछता यह : "किसलय ये किसलिए किस लय में गीत गाते हैं : किस वलय में से आ किस वलय में क्रीत जाते हैं ?
और अन्त-अन्त में श्वास इनके
मूक माटी :: HI