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यह चेतना मेरी जाया चाहती है, दर्श में बदलाहट, काम नहीं अब,
"राम मिले ! कितनी तपन है यह । . .. ..... ... .:. : ... ..... : वाहर और भीतर ज्वालामुखी हवाएँ ये ! जल-सी गई मेरी काया चाहती है स्पर्श में बदलाहट. घाम नहीं अब,
'धाम मिले ! इन दिनों भीतरी आयाम भी बहुत कुछ आगे बढ़ा है,
मनोज का ओज वह कम तो हुआ है तत्त्व का मनन-मथन वहुत हुआ, चल भी रहा है। अब मन थकता-सा लगता है तन रुकता-सा लगता है अब झाग नहीं, ""पाग मिले ! मानता हूँ, इस कलिका में सम्भावनाएँ अगणित हैं किन्तु, यह कलिका कली के रूप में कब तक रहेगी ?
14ft :: मुक मारी