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अन्धो दियों करे
प्रकाश की गन्ध कब मिलेगी भगवन् यूँ दीर्घ श्वास लेता शिल्पी ।
फिर सम्बोधन के उभरते स्वर
"जो अरस का रसिक रहा है उसे रस में से रस आये कहाँ ?
जो अपरस का परस करता है परस का परस क्या वह चाहेगा ? और
सुरभि दुरभि से जो दूर रहा है उसकी नासा वह
किस सौरभ की उपासना करेगी ?
दूसरी बात यह है कि तन मिलता है तन-धारी को
सुरूप या कुरूप, सुरूप वाला रूप में और निखार कुरुप वाला रूप में सुधार लाने का प्रयास करता है आभरण- आभूषणों श्रृंगारों से । परन्तु
जिसे रूप की प्यास नहीं है, अरूप की आस लगी हो
उसे क्या प्रयोजन जड़ शृंगारों से !
रस- रसायन की यह
ललक और चखन
पर - परायन की यह
परख और लखन
कब से चल रही है
यह उपासना वासना की ?
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मूक माटी : 139