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यूँ ! चिरर् चिर चिल्लाती बचाओ बचाओ बचाओ ! इसकी रक्षा करो, क्या नहीं ? बताओ स्वामिन् !" और शिल्पी की छाती से चिपकती भीति से कैंपती हुई शिल्पी की मति। तुरन्त, मति के सिर पर फिरता है अभय का हाथ शिल्पी का
ब्रम इनाना पर्याप्त .................. हलकी-सी चेतना आती है मति की पलकों में
और हलकी-सी चपलता आती है ललाट-तल पर पड़ी मति की अलकों में।
एक ओर अभय खड़ा है एक ओर भय अड़ा है
और बीच में भयाभयवाली उभयवती
"खड़ी हैं मति देखो किस ओर झुकती सो भय की चंगुल में जा फँसती है या" अभय के मंगल में आ बसती है। कुछ ही क्षण व्यतीत हुए कि अभया बनती है मत्ति
मूक माटी :: 187