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बस, इसी बीच कुछ उलटी स्थिति उभरती है शिल्पी की मति बिगड़ती हैं
भीतर से बाहर, बाहर से भीतर एक साथ, सात-सात हाथ के सात-सात हाथी आ-जा सकते इतना बड़ा गुफा-सम महासत्ता का महाभयानक मुख खुला है जिसकी दाद-जबाड़ में सिंदूरी आँखोंवाला बाहर बार-बार घूर रहा है भय जिसके मुख से अध-निकली लोहित रसना लटक रही है
और ... ... ... ..बिस य ही है लार
लाल-लाल लहू की बूंदें-सी अगम-अतल पाताल-सम
___“उस मुख में दृष्टि फिसलती-फिसलती लुप्त हुई मेरी पद फिसलते-फिसलते टिक गये
"तीर पर मेरे और प्राण निकलते-निकलते रुक गये
पीर पर मेरे। आँखों में चक्कर आ गया उसने मुझे देखा "कुछ धुंधला-सा दिखा मुझे भी वह भय ! हाँ भय !! महाभय !!!
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16 :: मूक माटी