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वीर रस से तीर का मिलना कभी संभव नहीं हैं
और वीर रस से पीर का मिटना त्रिकाल असंभव !
आग का योग पाता है शीतल जल भी वह शनैः शनैः । जलता-जलता,
उबलता भले ही किन्तु सुनो ! धधकती जान को भी नियात्रता : : : :: .. .: बुझा सकता है उसे।
परन्तु, धीर-रस के सेवन करने से तुरन्त मानव-खून खुब उबलने लगता है काबू में आता नहीं वह दूसरों को शान्त करना तो दूर, शान्त माहौल भी खौलने लगता है ज्वालामुखी-सम।
और इसके सेवन से उद्रेक-उद्दण्डता का अतिरेक जीवन में उदित होता है, पर पर अधिकार चलाने की भूख इसी का परिणाम है। ववूल की हँट की भाँति मान का मूल कड़ा होता है
मूक माही :: 11