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कई गुणा अधिक साहित्यिक रस को
आत्मसात् करता है
श्रद्धा से अभिभूत श्रोता वह । प्रवचन-श्रवण-कला-कुशल है; हंस - राजहंस सदृश श्रीजीविषेक शीतवा
यह समुचित है कि रसोइया की रसना रसदार रसोई का
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रसास्वादन कम कर पाती है। क्योंकि,
प्रवचन - काल में प्रवचनकार, लेखन - काल में लेखक वह दोनों लौट जाते हैं अतीत में
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उस समय प्रतीति में न ही रस रहता है
न ही नीरसता की बात,
केवल कोरा टकराव रहता है
लगाव रहित अतीत से, बस !
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शिल्पी का आगमन हो रहा है। माटी की ओर !
फुली माटी को रौंदना है
रौंद - रौंद कर उसे
लोंदा बनाना है रौंदन क्रिया भी बह
मूकमाटी : 113