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प्रखर किरणावली फूटतीं जिनसे जिस आलोक से उसका ललाट-तल आलोकित हुआ, जिस पर कुछ पंक्तियाँ लिखित हैं :
"प्रकृति नहीं, पाप-पुंज पुरुष है, प्रकृति की संस्कृति-परम्परा पर से पराभूत नहीं हुई, अपितु
अपनेपन में तत्परा है।" पुरुष को पुरुषार्थ के रूप में कुछ उपदेश और ! "अपने से विपरीत पनों का पूर पर को कदापि मत पकड़ी सहा-सहा परवा लस, ह. पुरुष !: ....... ... ... ... . ...
किसीविध मन में मत पाप रखो, पर, खो उसे पल-भर परखो पाप को भी फिर जो भी निर्णीत हो,
हो अपना, लो, अपनालो उसे ! फिर सूक्ष्माति-सूक्ष्म दोष की पकड़, ज्ञान का पदार्थ की ओर दुलक जाना ही परम-आर्त पीड़ा है,
और ज्ञान में पदार्थों का झलक आना ही - परमार्थ क्रीड़ा है
124 :: मूक माटी