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पश्चाताप के साथ कंटक कहता है
। 'अहित में हित
और
हित में अहित ...... . . .. भिहित-सालमा इस, ::
मूल-गम्य नहीं हुआ। चूल-रम्य नहीं लगा इसे बड़ी भूल बन पड़ी इससे।
प्रतिकूल पद बढ़ गये वह पीछे बहुत दूर अनुकूल पथ रह गया गन्ध को गन्दा कहा
चन्द को अन्धा कहा पीयूष विष लगा इसे भूल क्षम्य हो स्वामिन् ! एक इसे अच्छा मन्त्र दो, परिणामस्वरूप आमूल जीवन इसका प्रशम-पूर्ण शम्य हो फिर, क्रमशः जीवन में वह भी समय आयेशरणागतों के लिए अभय-पूर्ण शरण्य हो परम नम्ध हो यह भी।"
इस पर शिल्पी कहता है, कि "मन्त्र न ही अच्छा होता है न ही बुरा अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है
108:: मूक मारी