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बोध के फूल कभी महकते नहीं,
फिर !
संबंध- स्वाद्य फलों के दल दोलायित कहाँ और कब होंगे...?"
लो सुनो, मनोयोग से ! लेखनी सुनाती है, कि
बोध का फूल जब ढलता - बदलता, जिसमें
वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है I बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है,
फूल से नहीं, फल से तृप्ति का अनुभव होता है,
फूल का रक्षण हो
और
फल का भक्षण हो; हाँ! हाँ !!
फूल में भले ही गन्ध हो
पर, रस कहाँ उसमें !
फल तो रस से भरा होता ही है, साथ ही
सुरभि से सुरभित भी" ।
क्षत-विक्षत शूल का दिल हिल उठा,
दिल का काठिन्य गल उठा शिल्पी के इस शिल्पन से अश्रुतपूर्व जल्पन से ।
सूक माटी : 1617