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मोक्ष का धाम है।" यह सुन कर तुरन्त ! धन्य हो ! धन्य हो ! कह उठा कंटक पुनः ।
आज इसने सही साहित्य-छाँव में
अपने आपको पाया है झिल-मिल झिल-मिल मुक्ता-मोती-सी लगती हैं आपके मुख से निकलती शब्द-पंक्तियाँ ये लक्षणा का उपयोग-प्रयोग विलक्षण है यह, बहुतों से सुना, पर बहुत कम सुनने को मिला यह।
और व्यंजना भी आपकी निरंजना-सी लगती है विविध व्यंजन विस्मृत होते हैं। यदि सुविधा हो, बड़ी कृपा होगी, उदार बन कर अभिधा की विधा भी सुधारूँसुनाओ" तो "सुनूँ स्वामिन् ! 'साहित्य' इस शब्द पर हो तो फिर कहना ही क्या,
सर्वोत्तम होगा सम-सामयिक !" शिल्पी के शिल्पक-साँचे में साहित्य शब्द ढलता-सा !
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सूझ पाटी