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एक अपूर्व सुख-शान्ति
संवदित ही खेलती है उसमें । फिर तुम ही बताओ हम शूल कहाँ रहे? बे फूल कहाँ रहे?
उस वासना की क्रीड़ा ने हम पर आक्रमण किया है, हमारी उपासना को बड़ी पीड़ा पहुँचाई है फिर भी क्या वह फूल शूल नहीं है ? लगता है, कि
दृष्टि में कहीं धूल पड़ी है! हमें अपने शील-स्वभाव से च्युत करने का प्रयास करती हैं ललित-लताएँ ये.. हमसे आ लिपटती हैं खुलकर आलिंगित होती हैं तथापि हम शूलों की शील-छवि विलित-विचलित ना होती,
नोकदार हमारे मुख पर आ कर अपने राग-पराग डालती हैं तथापि रागी नहीं बना पाती हमें हम पर
दाग नहीं लगा पाती वह । आशातीत इस नासा तक अपनी सुरभि-सुगन्ध
[१९ :: गृक पाटी