Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 04
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. - The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ Adamam .ME Sat RAMER PANKRANUARANDRA srcE NEdi S R जैनफेरित्नकोष नाग चोथो. आ पुस्तकमां श्रीश्रावक प्रतिकारण मु अ या बंदिता सूत्र अपर नास या ग्रंय मून तया बाताबोध अने कन्या अदित दारया कोनो ने. Amandane - - - समस्त श्रावकादि गणने अवश्य भणवा तथा वां चवाना उपयोगमां आववा योग्य जाणीने श्रावक, नीमा मत मागक श्रीमोहमयी पत्तन मध्ये नियामागस नामक मुद्रायंत्रमा मदि। कराया . - आ पुस्तकने छपाववा संबंधि सर्व प्रकारनो हक सरकारनी कायदा प्रमाणे छपावनारे पोताने स्वाधीन राख्यो छे. - - Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. था जैनकथा रत्नकोष संझक संग्रहीत ग्रंथना जुदा जुदा पन्नर नाग बापीने प्रसिध्द करवानो जे महारो निश्चय के ते मांहेलो आ चोथो नाग निर्विघ्नपणे नापीने विवेकी वांचनारानी आगल मूकतां जेम माता पिता नी आगल बालक पोतानी नांगीटूटी बोबडी नापामा प्रतिदिवस वातो कस्या करे तेम महारामां ते बालकनी पेठे यथार्थ गुजरातीनाषा लखवानी शक्ति नथी तोपण प्रत्येक नाग बाहेर पाडती वखतें ते वांचनारा साहे बोनी आगल जे कां महारे बोलवानी वा थाय तेने ढुं ते जागनी प्र स्तावनामां जेवी तेवी मिश्रण नापामां लखी जावं . आ जागमां महारे लखवानुं एटझुंज डे के में जे कांश या पुस्तकना चार नाग नापी बाहेर पाड्या ते ऊपरथी हुँ अनुमान करुं बुं के कमें करी महारा बोलवा प्रमाणे समग्र नागो बापी पूर्ण करीश जोपण हुँ अद्यापि सुधीआ पुस्तकना अगाउथी ग्राहको करवा माटे कोइने घेर सही कराव वा गयो नथी तो पण दीर्घविचारवान अने झानना सुखने जाणनारा सऊ नो महारे घेर वेता मने बापवाना काममां कांपण अडचण न नाखतां पोतानी मेले आवी पुस्तकना ग्राहक थइने रूपैया पलीशनी रकम पापी जाय तेवा महारा बापवाना उद्यमने उत्तेजन आपनारा साहेबोनाम नना मनोर्थ सफल थवानी साथें आ ज्ञानवृदिरूप सर्वोत्तम कार्य पूर्ण थ वाथी महारा मनने ढुं महोटो आनंद पमाडीश. अने बीजा पण एवा एवा उत्तम प्रकारना ग्रंथोने बापी प्रसिद्ध करवाने शक्तिमान थइश. वली तेवा ग्रंथो महारे हाथें लखाइने उपायाथी महारामां प्रमादनी न्यूनतां थ वानी साथै ते सर्वग्रंथो महारा वांचवामां पण सारीरीतें अावशे तेथी ते ग्रंथोना विषयोन क्वचित् जाशपणुं पण महारा क्योपशमानु सारें मने थाशे इत्यादि अनेक वातो मने हर्ष ऊपजावनारी थाय दे.. यद्यपि महारी कबुलात मुजब महोटा सुपररांयल कागलें बाउसो स वाघाशो फरमां बापीने हजार पुस्तकपूर्ण करतां तेना पंदर हजार पुगे बंधावतां लगनग बावीश हजार रूपैयानी रकम काहाडवी पडे अने तेनी ऊपर वली व्याज जाडा प्रमुख खरच थाय ते जुदा गणाय अने ग्राहकतो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ प्रस्तावना. श्राजदिवस सुधी लगभग सवाबशो पुस्तकोनां थयेलां बे. तेमनी पासेथी मात्र खरचना चतुर्थाश जेटलांज नाणां महारा हाथमां यावी शको माटे ते विचारमां केटलोएक वखत व्यर्थ गमाववो पडे बे. तो पण महोटा धना ढ्य साहेबोनो शरो जेवाने ज्यां सुधी हुं तेमनी पासें गयो नथी त्यां सुधी महारी धैर्यता मने ए कामथी पाहूं हटवा देती नथी. वाली बीजा पल संसारी जीवोनी पेठे मने. पण शत्रु उत्पन्न संचाना तथा रोग शोकु वियोग जरा मृत्यु यादिक अनेक विघ्नो प्राप्त थवानी हरहमेस चिंता रहेज बे परंतु ज्ञान ने ज्ञानीउनी कृपाथी ते सर्वविघ्नोनो ध्वंस थाशे. या पुस्तकमां श्रावकना बारेव्रतना यतिचारोनुं निरूपण करतां ग्रंथकर्त्तायें अन्यदर्शन ने बोध पमाडवा माटे घणा स्थलें अनेक विषयोनां उदाहरणमां तेमना ग्रंथांना ठेका ठेकाणे घणाएक श्लोको दाखल कीधा बे. तेमज मि यात्व लोकोनां होरी प्रमुख अनेक पर्वोथी उपजता दोष पण देखाड्या बे. वली प्रतिचाररहित व्रत पालन करनारा एवा महापुरुषो जे पूर्वै थइ गयेला बे तेमनी महोटी महोटी कथा विस्तार सहित या ग्रंथमां प्रत्ये कतनी ऊपर श्रावेली बे तथा प्रसंगे प्रसंगे न्हानी न्हानी कथा तो घ जावेली ते सर्व कथा वांचनारा साहेबोने व्रत लेवानी तथा ली घेला व्रतने तिचार रहित पालवानी पुष्टि करवानी साथे विचित्र प्रका ना बनवा रस उत्पन्न करनारी तथा पूर्वला जमानामां थइ गयेला रा जाने व्यापारीनी चालचलगत दर्शावनारी होवाथी अत्यंत आनंदनी साथे चमत्कार, उपजावे एवी ने माटे साधुश्रावकादि चतुर्विध श्रीसंघ ए ग्रंथ वांचवा धर्मी पुष्टि थवानी सोधें बुद्धिनो विस्तार पण बहुज थशे. वली बाल जीवोने अनेक बाबतोमां उपजती शंकाउंनां समाधान पण श्राग मादि महाशास्त्रोने अनुसारें करेलां होवाथी श्रावकना पडिक्कमणादिक पडाव श्यक रूप नित्यकर्त्तव्यनुं स्वरूप निःशं कितपणे यथार्थ समजवामां आवशे. या ग्रंथना बनावनार याचार्य श्रीरत्नशेखरसूरिनुं नाम तेमना गुर्वा दिकनी पट्टावली सुद्धा ग्रंथना अंतमां यान्युं वे अने ग्रंथने बापवा संबंधि नी केट लिएक हकीगत तथा ए ग्रंथ बापतां महाराथी रहेली अशुद्धता प्रमुखनां दोषोनो मिलाक्कड इत्यादिक वाबतो या ग्रंथनी समाप्तिना यंत मां लखी जावी बे' मांडे यांही लखतो नथी किंबहु विलेखनेन. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनकप्यारत्नकोषा ॥अथ वंदितासूत्रना बालावबोधनी अनुक्रमणिका प्रारंनः॥ क्रमांक. विषय. दृष्टांक. १ ग्रंथ प्रारंनमां मंगलाचरण. .. २ स्थापनाचार्य स्थापवानो विधि, आशंका समाधान सहित. २ ३ सामायिक करनारें चरवलो मुहपत्ति अवश्यलेवानो निरधार. ४ ४ वंदितासूत्र कहेवानो श्रावक आश्रयी विधि. .... .... ५ वंदितानी पहेली गाथामां श्रीसिनगवानना पंदर नेद. .... ६ ६ श्रावक शब्दनो तथा अतिचार अने प्रतिक्रमणनो अर्थ. .... G ७ बीजी गाथामां अतिक्रमादिना अर्थ तथा अतिचारनी संख्या. ए ज्त्रीजी गाथामां सर्व अतिचारोनी उत्पत्ति परिग्रहथकी थाय ने. ११ ए चोथी गाथामां झानना अतिचार पडिक्कमतां पांच इंडियने प्रत्येकें प्रशस्त अने अप्रशस्त ने मृगादिकना दृष्टांतें, वर्णव्युं . १२ १० इंडियो वशराखवा बने न राखवा ऊपर बे काचबानी कथा. १५ ११ क्रोधादिक चार कपायर्नु प्रशस्त अप्रशस्त नेदें करी वर्णन त दंतर्गत प्रतिज्ञा करेली होय ते हरिचंदराजानी पेरे न.मूकवी. १५ मनादि त्रणयोगर्नु प्रशस्ताप्रशस्तपणुं दर्शाव्युं . .... .... १३ कामादि त्रणरागनुं स्वरूप तथा रागषर्नु प्रशस्ताऽप्रशस्तपणुं. १४ पांचमी गाथामां दर्शनाचारना अतिचार पंडिकम्या . .... १५ बहीगाथा मूलपावें नूलथी लखाइ के पए तेना अर्थमा सम केतना लक्षणादि सर्व बठी गाथानी हेडींगमा दोवाश्री खरा ने. १६ समकेतनी कपर जय अने विजय राजानी महोटी कथा..... Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. १७ जीवने संसारमा जमतां प्रथम समकेतनो लान केम थाय ते तथा यथां प्रवृत्त्यादिक त्रणकरणनुं स्वरूप कर्मग्रंथिक अने सिक्षांतिक मतें देखाइयु तथा समकेतथी पडवानुअने औप शमादिक पांच समकेतनुं स्वरूप आदिक बीजापण दश प्रकार नीरुचि प्रमुख घणे प्रकारे समकेतना छेद दर्शाव्या बे. .... ६० १७ बही गाथामां समकेतना पांच अतिचार पडिकम्या के ए गाथा धागल त्रेवीशमां पृष्टमां पण नूनथी बपा डे तिहां संदेपथी पांच अतिचारनां नाम मात्र लखी गया इता अने ए ठेकाणे शंकादिक एकेका अतिचारने देशथी तथा सर्वथी सविस्तर वर्णन करीने देखाड्या ने माटे अर्थ आगली गाथाना तथा आ गाथाला सर्वे वांचवा पण मूलपानी गा था वेमांथी एकजवांचवी अने एक नूलथीलखायेली समजवी. ६७ १५ शंकानेविषे हेतु देखाडीने पनी वे पुरुषनी कथा कही ...... ६७ २० कांदानुं स्वरूप दर्शावी पबी चामुंडाना नक्त ब्राह्मणनी कथा कहीले ६ए २१ वितिगिलाना स्वरूपमां देवतानी पदवी पामेला देवो शादी श्रावी आपणने केम स्थिर करता नथी तथा कोई फुःख प्राप्त थाय तो ते धर्म कस्याथीज थयुं इत्यादि असन्य बोलनाराउनी 'शंकाउना समाधान अने तेनी ऊपर अजा साध्वीनुं दृष्टांत. ७१ २२ वितिगिलानी उपर आपाढनूति आचार्य दृष्टांत. . ... २३ वितिगिबानो किहांएक विनति एवो पाठ तेना व्याख्यान मां साधुनों मेलेंकरी मलिन थयेलां शरीर देखी उगंडा करवा थीजे दोप लागे तेनी विवदा करतां तेमां शोच आश्रयी अन्यदर्शनीननां पण केटलांएक शास्त्रोनां दृष्टांत देखाड तां तेनी अंतर्गत एक वाणीयानी पुत्रीनी कथा कही ले..... २४ चोथा कुलिंगिनी प्रशंसाना अतिचारनुं स्वरूप. .... २५ चोथा अतिचारनी उपर लक्ष्मणशेनी कथा. ..... २६ कुलिंगीसाथे परिचय करवाना अतिचारनुं स्वरूप. २७ सत्संग अने कुसंग ऊपर वे सूडानो दृष्टांत. २५ ए शंकादिक अतिचारनेविपे सिमर्षिसाधुनुं दृष्टांत, C ७७ G gu Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. १७ लौकिक देवगतमियात्वना जूदा जूदा ७ नेद कह्या वे..... ३० लौकिक गुरुगत मिथ्यात्वनुं स्वरूप. ३१ मिथ्यात्वना पांच जेद कहीने प्रथमाधिकार समाप्त करो बे. ३२ सातमी गाथामां चारित्रना अतिचार माटे आरंजनी निंदा क रतां संरंन थारंज ने -समारंजनां स्वरूप दर्शाव्या बे. ३३ श्रामी गाथामा सामान्यपणें बारव्रतनां नाम कहां बे. ३४ नवमी गाथामा पहेला पांच अणुव्रतनुं स्वरूप कये बे...... ३५ हिंसाना. २४३ जेद तथा इव्यनावथी हिंसानी चोनंगी. ३६ हिंसानुं स्वरूप अनेकरीतें देखाड्धुं ने, तेमां पांच प्रमाद तथा या प्रमादनां स्वरूप तेमज याकुटी दपदिकनां लक्षण...... ३७ दशमी गायामां प्रथमत्रतना पांच प्रतिचारनुं स्वरूप. ३० यज्ञादिकने विषे यती हिंसानो संभव तथा तेनो निषेध. ३० अन्यदर्शनियो पण यज्ञमां हिंसा कहे ने तेनुं लेख. ४० प्रथमव्रत पालवानुं तथा न पालवानुं फल कह्युं छे. ४१ प्रथमव्रतने विषे दृष्टांतरूपें हरिबलमचीनी कथा.. ४२ गोयारमी गाथामां वीजाव्रतनेविषे मृपावाद केटले कारणे बोलाय वे इत्यादि स्वरूप तथा कन्यानिकादिकनां लक्षण. १३७ ४३ बारमी गायामां मृषावादना पांच प्रतिचार कह्या बे. १४१ ४४ असत्य त्यागवत पालन करवानुं तथा न पालवानुं फल. ४५ असत्य वचननी ऊपर शेठना पुत्रनुं दृष्टांत. ४६ बीजाव्रतने विषे दृष्टांतरूपें कमलशेठनी कथा कही वे. ४७ तेरमी गायामां प्रदत्तत्यागत्रतनो अधिकार चारप्रकारनां प्रदत्त. १६३ ४८ चौदमी गाथामां त्रीजावतना पांच प्रतिचार कह्या ठे. ४५ श्रावकें केवीरीतें व्यापार करवो तथा व्याज जेवुं इत्यादि. · १४२ १४४ १४५ १६३ १६५ १६६ .... ५० चोरनी दार प्रसूतियोनां स्वरूप कह्यां ऐ. ५१ त्रीजावतने पालवानां तथा न पालवानां फल. .... .... .... .... ५ १ ए ८ २ Ե Ա .... Ե Ա ԵՍ ԵՍ o ए დე ए 200 200 ܐ ܘ ܐ १६८ ५२ त्रीजाव्रतनी ऊपर वसुदत्त ने धनदत्त ए वे पितापुत्रनी कथा. १६८ ५३ पंदरमी गाथामां चोथा ब्रह्मचर्यव्रतनुं स्वरूप कयुं बे. ५४ शोलमी गाथामां चोथावतना पांच प्रतिचार कह्या बे. १५० १९० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ अनुक्रमणिका. ५५ शीलनो महिमा अन्यदर्शनियोना शास्त्रमा पण जे इत्यादि..... १९५ ५६ ब्रह्मचर्यपालवानुं फल तथा न पालवाथीरावणादि पुःख पाम्या. १५ ५७ चोथावतनी ऊपर शीलवती सतीनी अत्यंत रसिक कथा..... १ एए ५७ सत्तरमीगाथामां पांचमां परिग्रहपरिमाणवतनुं स्वरूप. ..... २३० ५ए अढारमी गाथामां पांचमाव्रतना पांच अतिचारनुं स्वरूप तेमां प्रसंगे चोवीशजातिनां धान्यं, चोवीशंजातिनां रत्न, थावरपरि ग्रहंना नेद तथा विपद चतुष्पदादिक परिग्रहोना नेद. .... २३० ६० जानिरोधादिकनां स्वरूप आशंका समाधान पूर्वक . .... २३३ ६१ पांचमा व्रतने पालवानां अने न पालवानां फल. .... ६२ पांचमा व्रतनी ऊपर धनशेत तथा तेना पुत्र महानंदनी कथा. ६३ उगणीशमी गाथामां बहा व्रतना पांच अतिचार कह्या ..... ६४ बहा व्रतने पालवानां तथा न पालवानां फल. .... .... २५० ६५ बघा व्रतनेविषे दृष्टांतरूपें महानंदकुमरनी कथा..... ६६ सातमा जोगोपनोगव्रतनुं स्वरूप. .... ..... .... २६३ ६७ वीशमी गाथामां मद्य मांसादिक अनक्ष्यथी थता गेर फायदा. ६७ रात्रिनोजनना दोष अन्यदर्शनमां पण ले माटे ते वर्जवं. .... २६७ ६ए रात्रिनोजनना थाराधन विराधनविपे त्रण मित्रनी कथा. .... ७० बावीश अनदयनो निषेध अन्यदर्शनमां पण . .... ७१ बंत्रीश अनंतकायनां नाम तथा तेनां लक्षण. .... . .... ७२ एकवीशमी गाथामा सातमा व्रतना पांच अतिचार. .... २७७ ७३ बावीश अंने त्रेवीशमी गाथामा कर्मादानना पंदर अतिचार. २०० ७४ ए व्रतने आराधवा विराधवानां फल कह्यां . .... .... २७४ ७५ ए व्रतन, कपर दृष्टांतरूपें मंत्रीपुत्रीनी.कथा कही जे. .... २०४ ७६ आठमा अनर्थदंमवतमा आर्तध्यानादि चारध्याननु स्वरूप. एए ७७ चोवीशमी पञ्चीशमी गाथामां हिंसाप्रदान तथा प्रमादाचरि तमां घणुं सावधपणुं ने एमां जयंती श्राविकाना प्रश्न पण ले. ३०० ७७ धनुषादिक अधिकरणना व्यापारमा जे जीवना शरीरथी ते शस्त्र नीपन्यां होय ते जीवने केटलि क्रिया लागे जे तेनो निर्णय. ३०४ ७ए ए व्रतने आराधतां चूला ऊपर चंदरवा बांधवाथी कहेवा सुख Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ง .... प्राप्त थाय बे ते श्राश्रयी मृगसुंदरीनी कथा. ३०६ ८० कुमारपालना बनेवीने हास्यवचनथी अनर्थ थयो तेनी कथा. ३१० ८१ वीशमी गायामां आठमा व्रतना पांच प्रतिचारनुं स्वरूप. ३१० ८२ आठमा व्रतनेतिषे वीरसेन ने कुसुमश्रीनी कथा. ३१२ ८३ नवमा सामायिकव्रतनुं स्वरूप. ३३७ ३४० ८४ सत्ताधीशमी गाथामां सामायिकत्रतना पांच प्रतिचार. ८५ विधि प्रविधि सामायिक करवानां समाधान तथा सामा यिकना कालनुं समाधान तथा सामायिकनुं फल. ८६ सामायिकंत्रतने विषे व्यवहारी पुत्र धनमित्रनी कथा. ८७ दशमा देसावगासिक व्रतनुं स्वरूप. हावीशमी गायामां देशावका सिकव्रतना पांच प्रतिचार....३५८ ... .... .... ... .... .... ८० देसावगासिकव्रत पालन करवानुं फल. ३५९ ३५० ९० देसावगा सिकव्रतने विषे राजाना जंमारीनी कथा. १ अगियारमा पौषधोपवासव्रतनुं विस्तारें स्वरूप जांगासहित...... ३६० २ गणत्री शमी गाथामां ए व्रतना पांच प्रतिचारकह्या बे. ३७१ ९३ बीज तथा पांचमध्यादिक तिथीनो निरधार करवानी चर्चा..... ३७३ .... .... ४ पोषधवत याराधवानुं फल ...... ३७६ ३०५ p... ५ पोषवत राधवा विराधवा ऊपर शेठना बे पुत्रनी कथा. ३७६ ६ बारमा प्रतिथिसंविभागव्रतनुं स्वरूप कयुं बे. एउ त्रीशमी गाथामां ए व्रतना पांच प्रतिचार कह्या बे. ८ बारमा व्रतनुं आराधन करवानां फल ३८ შდდ ...go बारमा व्रतनेविषे गुणाकर घने गुणधरनी कथा. १०० एकत्रीशमी गाथायें, बारमा व्रतनेविषे केटलाएक बीजा पण प्रतिचार का बे एनां सुखिया दुःखिया साधुना अर्थ बे. ४२४ १०१ बत्रीशमी गाथामां साधुने संविभाग थाश्रयी वात बे एमां चरणसीतरी करणसीतरीमां सत्तर प्रकारनुं संयम कयुं छे. ४२७ १०२ तेत्री शमी गाथामां संजेवणाना यतिचार कह्या बे. १०३ नवनियाणानुं स्वरूप कह्युं छे. १०४ चोत्रीशमी गाथायें यतिचारने त्रण योगीं पडिकम्या बे..... ४३२ ४२८ ४३० .... .... ३४१ ३४३ ३५७ **** .... ४०० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G अनुक्रमणिका. १०५ पांत्री शमी गाथायें अतिचारने विशेपथी त्रण योगें पडिक्क म्या एमां गारव, मद, चारथी शोल संज्ञा तथा कषायादिक नां स्वरूप ने तेनी ऊपर संदेपथी एक एक पुरुषनी कथा ४३३ १०६ बत्रीशमी गाथायें व बेश्यादिनां स्वरूप दृष्टांत सहित वे. ४३७ १०० साडीशमी गाथायें यद्यपि सम्यकदृष्टि जीवोने अल्पबंध पडे ४४२ वे ते पडविध व्यावश्यक करवायी टूटे, इत्यादि विषयो लें..... ४४० १०० डी मी गाथायें यविरा मोसीने दृष्टांतें पूर्वी बात बे. ४४१ १०० जंगलचालीशमी गाथायें पण तेज आलोचवानो अधिकार बे. ११० चालीशमी गाथायें लखमला साध्वी व्यादिकनां दृष्टांतो बे. १११ एकतालीशमी गाथामां पडिक्कमलानुं फल कहां ते. ११२ वेतालीशमी गाथायें वीसरी गयेला प्रतिचार पडिक्कमवानो. ११३ त्रेतालीशमी गाथायें जाविजनने नमस्कार कस्यो वे. ११४ चुम्मालीशमी गायायें शाश्वत अशाश्वतजिनने नमस्कार . ४४ ११५ पीस्तालीशमी गाथायें सर्व साधुने वंदन करयुं छे. ११६ बेंतालीशमी गाथायें अनागतकानें शुन वांग राखवी कही वे. ४५० ११७ सडतालीशमी गाथायें जवांतरें समाधिबोधनी प्रार्थना के ए मां ज्ञान क्रिया बेन तुल्यता तथा सम्यकदृष्टि देवोने समा पवानुं समर्थन याशंका समाधानपूर्वक कयुं ले. ४४८ ४४ • ४५० ११ ११८ खडतालीशमी गाथायें जो व्रत न होय तो पण पडिक्कमणुं करे. ४५३ गणपञ्चाशमी गाथायें चारे गतिना जीवो साथे वैरं खमा aj ने एम चेडामहाराजा तथा कोलिकना युद्धमां केटला मासोनो संहार थयो ने तें कई क गति पाम्या इत्यादि. ०५३ १२० पञ्चाशमी गाथायें श्रावकने पडिक्कमणुं करयुं जगवानें नथी कह्यं इत्यादि विसंवादियोंने सनी लाखे निरुत्तर कथा वे. ४५५ १२१ ग्रंथकर्त्ताना गुर्वादिकनी पट्टावली तथा तेने ठापवानी हकीगत. ४५६ १२२ नोकरवालीनो सधाय तथा प्रस्ताविक दोहा. १२३ गुरुशिष्य प्रश्नोत्तर बत्रीशी. ४६० ४६२ १२४ देवनगरी लीपिर्मा बाला पुस्तकोनी यादी. ४ ६४ .... • .... .... ४४३ ४४५ ४४८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीगौतमादि सशुरुभ्यो नमो नमः॥ अथ श्रीश्रावकस्य वंदित्तास्त्र अथवा प्रतिक्रमण सूत्र अपरनाम अर्थदीपिका तउपरि श्रीरत्नशेखर सूरिकत टीकानो बालावबोध कथा उसहित पारंन करियें .यें. तेमां प्रथम टीका करनारना करेला मांगलिकनें अर्थे उ श्लोको लखे जे. ॥श्लोक ॥ ॥ जयति सततोदयश्रीः, श्रीवीरजिनेश्वरोऽनिनवनानुः ॥ कुवलयबोधं विदधति, गवां विलासा विनोर्यस्य ॥१॥ श्रुतजलजलधीन बदुविध, लब्धी न् प्रणिदध्महे गणधरेंशन ॥ श्रुतदेवतां च विश्रुत, गुणैर्गरिटानिजगुरुच ॥ २ ॥ श्रीसोमसुंदरगुरु, प्रवराः प्रथितास्तथा गणप्रनवः ॥ प्रतिगौतमतः संप्रति, जयंति निःप्रतिममहिमनृतः॥३॥ तेषां विनेयषनाः नाग्यनुवो जुवनसुंदराचार्याः ॥ व्याख्यानदीपिकाधैर्यथैर्ये निजयशोऽग्रंथन् ॥ ४ ॥ ते षामेषोंऽतिषदं, तिमः किमप्यादधाति सुखबोधां ॥ वृत्ति स्वपरहितार्थ, गृहि प्रतिक्रमणसूत्रस्य ॥ ५ ॥ विधिग्रंथकतामहमि, जन्मकोपि नोपदास्यास्यां ॥ खद्योतोपि द्युतिम, पंक्तौ प्रविशनिवार्यः किं ॥६॥ जावार्थः-निरंतर ने उदयनी शोना जेनी,नवीन सूर्यसंमान एवाश्रीवीरनगवान् जय पामे जे. कारण के समर्थ एवाजे नगवान तेनी वाणीना विलासोजे ,ते पृथ्वीतल गतलोकोने बोध करे . अर्थात् था जे प्रसिद सूर्य ,ते मात्र कमलनेज पोताना किरणोथी विकसितं करे , ने वीरनगवान तो अखिी पृथ्वीना व लयने बोध एटले निकसित करे ले ॥१॥ वली श्रुतरूपजलना समुश् तथा अनेक सब्धियोजेने एवा गणधरेंशे तथा उत्तमगुणोयें करी मोहोटी एवी श्रुतदेवता, तथा अमारा गुरु तेने हुँ हृदयमां धारण करुं बुंअर्थात् तेमनुं ध्यानकरुं ढुं॥॥ विख्यात तथा गणना स्वामी,हालना समयमांगौतमगण धरतमान, अत्यंतमहिमाने धारण करनारा श्रेष्ठ एवा जे श्रीसोमसुंदर गु Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श‍ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. रु, ते उत्कृष्ट जयने पामे बे ॥ ३ ॥ तेमना जे शिष्यो तेने विषे श्रेष्ठ अने जाग्यनी नूमिरूप, थने व्याख्यान दीपिका वगेरे ग्रंथोना रचवाथकी जे पोताना यशने गुंथता हवा, एवा जुवनसुंदराचार्य वगेरे जे पांच शिष्यो ते जय पामो ॥४॥ तेन॑ना बेल्ला शिष्य प्रानाविक श्रीरत्नशेखर सुशिष्य थया, तेणें सुखें करी बोध थाय, तेवी गृहस्थना प्रतिक्रमणसूत्रनी वृत्ति, पोता ना तथा पारका हितने माटे करी ॥ ५ ॥' हवे पोताना माननो त्याग करतो तो कषि कहे बे. प्रतिक्रमणसूत्र वृत्तिना करनारनी पंक्तिने इच्छतो मंदमति एवो जे हुं बुं,तो पण हुं हसवा लायक न थाउं, एवी इब्बा राखुं ं. कारण के सूर्य किरणनी पंक्तिमा प्रवेश करतो एवो पतंगीयो, चुं श्रा पणे निवारण करवा लायक बे ? ना नथीज ॥ ६ ॥ " " हवे इहां साधु तो सदा सर्वदा सामायिकवंत बेज ने श्रावकें पण सामायिक उच्चरीने पी पडिक्कमणुं करनुं, ए उत्सर्ग मार्ग बे. हवे सामा विकना करनार श्रावके यवश्यपणे साक्षात् गुरुने नावें स्थापनाचार्य नी स्थापना करीने सर्व क्रिया करवी. जेमाटें सिद्धांतमां सकलधर्मनी कि यानुष्ठाननुं जे करवुं, ते स्थापनाचार्यनी साहीयेंज कर. स्थापना चार्य विना जेटलुं क्रियानुष्ठान करीयें तेनुं कां फल न थाय. जेमाटें शून्य कि या फल पण शून्य थाय. श्रीजिनन गणि क्षमाश्रमणजीयें श्रीविशेषाव श्यकमांकयुं जे जे ॥ यतः ॥ गुरुविरहम्मि य ठवणा, गुरुवरसोवदंस एवं च ॥ जिविरहम्मिश्र जिलबिं, व सेवामंतणं सहजं ॥ १ ॥ रन्नो व पुरिसस्स वि, ज़ह सेवामंतदेवयाएव ॥ तह चेव पुरिस्सवि, गुरुणो सेवा विषयक ॥ अर्थः- गुरुने विरहें स्थापनाचार्य स्थापवा. तेने सा दात् गुरुनी परें गुरुनी सरखा गुरु दर्शन, प्रायः जाणवा. जेम जिनेश्वर श्री तीर्थंकर नगवानने खनावें जिनना बिंबनी सेवा थाय बे, नक्ति थाय बे, स्तुति थाय बे, तेम जाणवुं ॥ १ ॥ तथां जेवारें रन्नो एटले राजा वेगलो होय तेवारें सर्व अधिकार मंतदेवया एटले मंत्रीनो होय राजाने तुल्य प्रधान कहेवाय तेन गुरुने खनावें पण स्थापनाचार्यनो विनयादिक सर्व गुरुनी पेठें करवो. गुरुनी सेवा ते विनयनी हेतु बे ॥ २ ॥ हवे साधुने सामायिकना प्रस्तावने विषे नंते एवो जे शब्द तेनी व्या ख्यामां जाष्यकार कहे बे के गुरुने विरहें स्थापनाचार्य स्थापवा. इत्यादिक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सदित. सर्व साधु थाश्रयीने कमु ,परंतु श्रावक याश्रयी कर्वा नथी माटें युं श्रा वकने स्थापनाचार्यनी स्थापना स्थापवी ते युक्त नथी तथा शिष्य गुरु ने पूछे , हे स्वामी ! तेवारें श्रावक सामायिकदमक नचार करतो थको 'नंते' एवो शब्द कहे किंवा न कहे ! जो श्रावक पण 'ते' एवो शब्द कहे तो साक्षात् साधुनी परेंज गुरुने अनावें श्रावकने पण स्थापनाचार्य नी स्थापना करवी जोश्ये, 'अने जो स्थापनाचार्यनी स्थापना न करे, तो सामायिकनो उच्चार करवों,आदेश मागवो, इत्यादिक संर्घ क्रियानी निः फलतानो प्रसंग थाय. तथा वली 'नंते' एवो शब्द न कहेवो ए पद तो श्रीवीतराग तीर्थकर “करेमि सामाश्यं सावजं जोगं पञ्चरकामि” एवो पाठ कहे परंतु नंते एवो पात न कहे,कारण के नगवान् तो ते पोतेंज डे. क्यांहिक जेम स्थापनाचार्यना अदर, साधु आश्रयीने जे सूत्रने विषे कह्या , तेम श्रावकाश्रयीने पण एमज अदर जाणवा. जेम श्रीश्राव श्यकनियुक्तिमा कतिकर्म वांदणानो थापनारो साधु होय एम वांदणा प्र मुख देवां, देवराववां, ए सर्व साधु नद्देशीने कयुं . ते रीतें श्रावक पण करे. बीजा पण सर्वत्र स्थानकें सिक्षांतने विषे जे धर्मक्रिया अनुष्ठानादिक साधु नद्देशीने कह्यां ,तेनी पेरें यथायोग्यपणे श्रावकने पण सर्व धर्मक रणी जाणवी. पण श्रावक श्राश्रयीने क्याहि सूत्रने विषे जूदा बदर देखा ता नथी. तेम गुरुनी स्थापना पण एमज साधुनीपरें श्रावकें अंगीकार करवी. हवे ए स्थापना यागमने विषे अक्षा दिकज उचित. कह्या डे परंतु नि कटवर्ती वस्त्रादिक काष्ठ, तृण, कूटीर, प्रमुख स्थापनापणे स्थापवां न घ टे,जिहां जे काहि वस्तु मले, तिहां ते वस्तुनी स्थापना करवी उचित नथी. पूर्वाचार्ये कडं जे गुरुना समस्त त्रीश बत्रीशी गुण तेणें करी युक्त एवा गुरु सादात्पणे स्थापवा. अथवा सादात् गुरुने अनावें अदादिकनी स्थापना स्थापवी. ए परंपरा के अथवा झान, दर्शन अने चारित्र ए त्रण अथवा तेना उपकरण स्थापवां ॥ नक्तंच ॥ गुरुगुण जुत्तं तु गुरु, ठग विद्या अहव तब अस्काई ॥ अहवा नाणातियं, विद्यसंस्कं गुरु अनावे ॥ १ ॥ अरके वराड एवा, कहे पुढे य चित्तकम्मेवा ॥ सतावमसजावं, गुरुग्वणा इतराव कहा ॥ २ ॥ शहां अद स्थापवा ते लोक प्रसिद, तथा वराटक ते कोडा प्रमुख Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. स्थापवा तथा काष्ठ ते मांझी पाटली प्रमुख स्थापवी, तथा पुस्तक स्था पवां अथवा लेपमय गुरुमूर्ति स्थापवी. अथवा गुरुमूर्त्तिना चित्रामणरू प स्थापवां. एरीतनी स्थापना स्थापवी बने गुरुने योगें तो गुरुनीज स्था पना करवी. परंतु गुरुने अनावें इत्वर एटले कियत्काल पर्यंत काष्ठादिक नी स्थापना करवी. यावत्कथिक ते जिहां सुधी ते इव्य होय तिहां सुधी गुरुने अनावें व्यनावनी स्थापना याचार्यादिकनी स्थापवी. ते मा टे गुरुने अनायें सामायिकना करनारा जे श्रावक, तेमणे जे प्रमाणे शा स्त्रोमां विधि कह्या ,ते विधियें करीने स्थापना अवश्य करवी. इति सिक्षम्. हवे सामायिकना करनारा श्रावकें चरवलो मुहपत्ति प्रमुख धर्मोपकर ण ग्रहण करवां, तेमज श्रीअनुयोगहार सूत्रने विषे कडं . जे लोकोत्तर नाव आवश्यकने करता एवा जे साधु, साध्वी, श्रावक बने श्राविका ते एक आवश्यकमांज चित्त, तेमांज मन, तेमांज लेश्या, तेमांज अध्यवसा य, तेनाज अर्थनो उपयोग, तेनाज साधन राखतो, बीजा कोइ स्थानकें मनने न राखतो, एवो थको उनयकाल पडिक्कमणुं करे, तिहां तदप्पिय करणे' ए पदनो अर्थ चूर्णिकार आ रीतें कहे . के ते आवश्यकना साध न जे शरीर, चरवलो, मुहपत्ति प्रमुख मुखकोशादि इव्य ते सर्व क्रिया क रवाना साधनने तदप्पियकरण कहीयें. वली तेज पदनी व्याख्या श्रीहरि जइसरिनी तथा हेमाचार्यनी करेली टीकामां कह्यु जे के तदप्तिकरण ते धर्मना सघला साधन जेवां के रजोहरण, चरवलो, मुहपत्ति प्रमुख प्राव श्यकने विषे जे उचितव्यापारने कारणे स्थाप्यां , ते सघलां धर्मनां कार रूप जाणवां. ए सर्व तदप्पिय करणनो अर्थ जाणवो. रूडी रीतें जे जे ठेकाणे जे जे उपकरण जोश्ये, ते ते तिहां स्थापवा अथवा राखवां. तथा आवश्यकचूर्णीने विषे सामायिक अधिकार मांहे कडे , के जे श्रावक होय ते साधुनी पासेंथी चरवलो कांबली मागीले,अथवा घरथकी लावेलो संधारित्रं चरवलो होय ते ले. तेमाटें श्रावकने कांबली मुहपत्ति अने चरवलो जेवां घटसान . एनो विशेषयुक्तिनो विस्तार पूज्य श्रीकुल मंझन सूरिप्रणित सिद्धांतना बालावानो विचारसंग्रह ग्रंथ डे, तेथी जाणवो. तेमज बीजा परा अनेक ग्रंथनी साख , ते माटे श्रावकें सा मायिक करवाने अर्थ चरबलो, मुहपत्ति, संथारीनं. ए सर्व ग्रहण करवां. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सदित. हवे इरियावहिया पडिकम्या विना वांदणां देवां, सबाय करवी, इत्या दिक कोइ पण क्रिया करवी घटे नहीं जेमाटे श्रीमहानिशीथ सूत्रमा कह्यु में, के गोयमा अपडिकंताए दरियाव हियाए णो कप्पश् चेव किंचि चेश्य वंदण सजाइनाणाश्यं काउमित्यादि तथा श्रीहरिजश्नरिकृत दशवैकालि कनी टीकामां कह्यु जे. के इरियावहि पडिक्कमीने रूडा विधियें करी गुर्वादि कनी साखें सामायिक करी; माया रहितपणे षड्विध आवश्यकरूप पडि कमणाने करतां ए रीतें करें। पनी वंदित्तु सूत्र कहे, तिहां माबो ढींचण देतो राखे, अने जमणो ढींचण उंचो राखे, ए रीतें बेसीने वंदित्तासूत्र स्पष्टपणे कहे. अने साधुनी दिनचर्याने विष साधु बेग थकां वंदित्तु कहे, ते पण माबो ढींचण हेगे राखे अने जमणो ढीचण उँचो राखे. पनी पडिक्कमणसूत्र कहे. श्रीयाचा रांगसूत्रना पांचमा अध्ययनना चोथा उद्देशानी टीकाने विषे कयुं , ते रीतें विधिपूर्वक बेसीने प्रथम मांगलिकने अर्थे नवकारमंत्र प्रगट पणे क हे, तेवार पड़ी समतानावें रहीने प्रतिक्रमण सूत्र श्रावक कहे. इहां ते श्रावक सामायिकमा रह्यो बे समतामा परिणम्यो . माटे ते जणाववा ने अर्थे “ करेमि नंते सामाश्यं” इत्यादिक पाठ मुखथी कहे. तेवार षढी प्रथम सामान्य प्रकारें अतिचार आलोववा , तेमाटे “हामि पडिक्कमि जो मे देवसि अश्यारो कन” इत्यादिक कहे, तेवार पबी वली विशेष प्रकारें अतिचार आलोववा , माटे पडिक्कमणासूत्र नो अस्खलित पाठ हस्व, दीर्घादिक गुण सहित पणे कृहे, ए सर्व थ तिचारनो शोधक डे अने कल्याणचूत ले माटें विघ्न रहित पणे ग्रंथ सं पूर्ण थवा निमित्ने पोताना इष्ट एवो जे पंचपरमेष्ठी रूप मंगल अने अनि धेयने सूत्रकार प्रथम गाथायें करी कहे : ॥ वंदित्तु सबसिडे, धम्मायरिए य सबसाढू अ॥ बामि पडिकमित्रं, सावगधम्माश्यारस्स॥१॥ अर्थः-(वंदित्तु के०) वांदीने नमस्कारकरीने सर्व प्राणीने हितना करनार एवा श्रीषनादिक सर्वे तीर्थकर तथा जे ज्ञानावरणादिक स वं कर्म क्ष्य थयाथकी कृतकृत्य थया एवा ( संघसिके के० ) सर्वसिक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. जेहने कोई कार्य करवू नथी एवा तीर्थकरादिक पनर ने सिख थया, ते प्रत्ये मन, वचन अनें कायायें करी (वंदित्तु के०) वांदीने तेमां का यायें करी नमवू, वचने करी स्तुति करवी तथा कायायें करी अने वचने करी स्तवना करवी पण ए सर्व मन सहित होय तो लेखामां गणाय ए म नमस्कार त्रण नेदें जाणवो. हवे ते पन्नरनेदनां नाम कहेजेः१ तीर्थकर सिम ते श्रीषनादिक तीर्थंकरो सिम थया, ते जाणवा. २ अतीर्थकर सिह ते पुमरिक अने श्रीगौतमादिक जाणवा. ३ तीर्थ जे श्रीजिनप्रवचन तेनो धरनार चतुर्विध श्रीसंघ . ते चतु विध संघनी स्थापना थया पढ़ी जे सिह थया ते तीर्थ सिह जाणवा. ४ तीर्थकर, तीर्थ प्रवर्णों न होय, चतुर्विधसंघरूप तीर्थनी स्थापना थ न होय, ते विना मेरुदेव्यादिकनी पेठे जे सिह थया ते अथवा सुवि धिनाथ तीर्थकर आदे दे सात तीर्थकरना सात आंतराने विचालें धर्मवि छेद थयो, तेमां केटला एक जीव जातिस्मरणादिकें कर्मक्ष्य करी सिम थया, ते सर्व अतीर्थ सिम जाणवा. ___कोइ तथाविध बाह्य वैराग्यना निमित्तविना पण जातिस्मरणादिकें पोताना आत्मायकी वीर्योनासें धर्मनी सामग्री पामी पोतानी मेलें प्रति बोध पामी जे सिह थया ते स्वयंबुछ सिम जाणवा. ६ सपन तथा कांकण अने आम्रादिक बाह्यनिमित्त देखी प्रतिबोध पा मीने जे सिह थया ते करकंच्यादिक प्रत्येकबुझ सिम जाएवा. ___७ बुझ जे आचार्यादिक महत्पुरुषा तेनाथी प्रतिबोध पामीने जे सिम थया ते बुधबोधित सिम जाणवा. . जे पुरुषलिंगे सिह थया, ते पुरुषलिंग सिम जाणवा. ए पुरुषवेदें प्रत्येकबु६ पण होय परंतु ते एमां न लेवा. एजे स्त्रीलिंगें सिह थया, ते चंदनबाला प्रमुख स्त्रीलिंग सिम जाणवा. १० जें तीर्थकर, अने प्रत्येकबुझे रहित एवा केटला एक नपुंसकलिंगें सिह थया, ते नपुंसकलिंग सि६ जाणवा. ११ जे जैनसंबंधि उघो मुहपत्ति प्रमुख साधुनो वेष धारण करी सिम थया ते स्वलिंग सिम जाणवा. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सदित. १२ जे वल्कल चीरिय प्रमुख चरक पारिवाजकादिक अन्यदर्शनीयोना लिंगें सिह थया, ते अन्यलिंग सिम जाणवा. १३ जे मरुदेव्या माता अने पुण्याढ्य राजा आदिक गृहस्थलिंगें सिपथ या ते गृहस्थलिंग सिम जाणवा. एने इव्यथकीअन्यलिंग होय पण नावथ की दायिक सम्यक्त्व अने यथाख्यात चारित्रना परिणामें केवलज्ञान पामी यं तगड केवली थश्मोद पामे.कदामि आयु विशेष होय तो साधुलिंग पडिवले. १४ जे एक समयमा एकज जीव सिदि पामे तेने एकसिंह कत्रीये. १५ जे एक समयमां बे आदें देश्ने यावत् १०७ पर्यंत सिह थया ते अनेक सिम जाणवा. ए पन्नरनेदें सिम थया ते प्रत्ये वांदीने. _ तथा (धम्मायरिए के० ) धर्माचार्य एटले जे श्रुतधर्म अने चारित्रध मना आचार आचरवाने प्रवीण निपुण सम्यगधर्मना दातार केशी गण धरनी पेठे, नास्तिकमतना धारक पुरुषोने पण रंजन करी धर्म पमाडनारा एवा धर्माचार्य ॥ यमुक्तं ॥ जो जेण सुधम्ममि, गवि संजएण गिहिणा वा ॥ सो चेव तस्स जायर, धम्मगुरु धम्मदाणा॥१॥ अर्थः-(संज एण के०) संयती एटले साधु (गिहिणावा के०) अथवा गृहस्थ एटले श्रावक (जो के०) जेने (जेण के) जेणे (सुब्धम्ममिठावि के०) शुधर्मने विषे स्थाप्यो होय जोड्यो होय (सोचेव के) ते निश्चयें (त स्स के० ) तेनो धर्मगुरु धर्मनो दातार (जाय के०) होय ॥ १ ॥. तथा सूत्र अर्थना जाण समस्त लक्षणे लदित, गलना मेढीनूत, थंनरूप, गब नी सार संजालना करनार, अर्थना उपदेशक एवा श्राचार्य जाणवा. तथा च शब्दथकी सम्यग्ज्ञान संयमादिकें युक्त,आचार्यपदना स्थानकने योग्य श्रुतना नणनारं नणावनार एवा श्री उपाध्यायजी लेवा. __तथा (सवसादु के०) सर्वसाधुते याचार्य,उपाध्याय प्रवर्तक,स्थविर,गणा वोदकादिक अनेक ने करीने जूदा जूदा मुनिराज मोदना साधकजाणवा. तिहां नविष्यकालने विषेत्राचार्यपदनो अप्रतिबंधक वांडा रहित बे,सू त्र, नण, गण, नणावq करे, प्रतीक एटले श्सक डे,सूत्रवाचना दाने करी अनुग्रहवंत , पोतें तपने विषे संयम योग्यने विष योग्य जे, बीजाने पणतेमां प्रवावे , अगुनथी टव्या ने, गबना चिंतक डे, मार्गना र्तक , तेने प्रवर्तक कहियें. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. जे संयमने विषे स्थिर करे, ते थिविर कहीयें, संयमव्यापाररूप अर्थने विषे प्रवृत्ति करे, जे साधु संयमने विषे सीदातो होय, तेने पोतानी शक्तियें करीने स्थिर करे, दृढ करे, ते थिविर कहियें. अति उतावलो दोडे, सामान्यपणे धाय देत्र तथा उपधि प्रमुख, आ प, तेने विषे विषाद न करे, धैर्य राखे, सूत्रार्थनो जाण होय तेने गणाव ब्लेदक कहीये. विशषार्थ एजे जे गर्नु विशेष कार्य पडे थके अत्यंत दोडीने जाय,यात्माने अनुग्रह बुधिये ते कार्यनी प्रवृत्ति करी उतावलुं ते कार्यनुं जे करवू ते प्रधावन कहीये. तथा जे मोद मार्गना साधनार , ते सर्व साधु सेवा. ए सिह, प्राचार्य, उपाध्याय अने साधु एने वांदीने ए रीतें गाथाना पूर्वा करी विघ्नोपशांतिने अर्थे पंच परमेष्ठीने नमस्काररूप मंगल कह्यु. हवे गाथाना उत्तराई करी अनिधेय एटले या ग्रंथमां जे वात कहेवानी ले ते कहे जे. ( सावग्गधम्माश्यारस्स के) श्रावकधर्मना अतिचारथकी (पडिक्कमि नं के०) प्रतिक्रमितुं एटले निवर्त्तवाने (हामि के) अनिलाषामि एट ले हुँ अनिलाप करुं बुं बुं बुं. शहां श्रावकशब्दनो अर्थ करे जे, जे श्रीवीतरागनी वाणी सांजले तेने श्रावक कहीयें ॥ यमुक्तं ॥ सम्मत्त दंसणाइ, पश्दीयं जइ जणो सुणेश्य ।। सामायारी परमं,जो खन्नु तं सावगं विति ॥१॥ श्रधालुतां यः श्रीजिनेशा सने, धनानिपात्रेषुतपंत्यनारतं ॥ करोति पुण्यानि सुसाधुसेवने, प्रीतिर्हितं श्रावकमादुरुत्तमं ॥ ॥ अर्थः-जे समकेत गुणने पाम्यो , प्रतिदिन साधुनी पासेंथी धर्म सांजले , साधु अने श्रावकनी सामाचारीनो परम जाण ले ते निचे उत्तम श्रावक जाणवो एम ज्ञानी कहे . श्रीवीतरागना शासनने विषे पूर्ण श्रधा राखे, सुपात्रने विषे.धन वापरे, पापने खेरवी नाखे, शुभ सुसाधुनी निर्यथीनी सेवा करे, तेने नत्तम श्रावक कहीयें ॥॥ एवाश्रावक जाणवा तेनो धर्म जे झान, दर्शनादिरूप तेने विपेजे मलिन तारूप अतिचार ते बास्वत तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, त पाचार अने वीर्याचार ए सर्वना मली १२४ अतिचार , तड़प पापथ की निवर्त्तवाने एटले पाप-टालवाने बुं बुं ॥ यउक्तं ॥ स्वस्थानात्तु परस्था नं, प्रमादस्य वशं गतः ॥ तत्रैव क्रमणं नूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सहित. जावार्थः-जीवनुं स्वस्थान ते स्वधर्म अने परस्थान ते अतिचार जाणवो ते प्रमादना वशथकी आत्मा स्वधर्मथी चूकी परधर्म जे अतिचार तेने विषे श्राव्यो जे जीव तेने तेथकी क्रमण एटले पार्बु फरवू जेमाटें “अश्यारा जाणयवा न समायरियवा” एटले ए अतिचार जाणवारूप डे पण आच रवारूप नथी. इति उपासकसूत्रवचनात् तथा पडिक्कमणं मिथ्याःकृतं निं दादयश्च कार्याः तथा “पडिक्कमशं परियरणा,परिहरणा वारणा मियत्तीय ॥ निंदा गरहा सोही, पडिक्कमणं अव्हा हो ॥१॥ तिहां १ प्रतिचरणा ते ज्ञानादिकना आसेवने प्रतिक्रमणमा इरियाव हि पडिक्कमतां अश्मंतकुमारादिकने केवलज्ञान उपन्युं अने मिथ्याकत देतां आत्म निंदादिक करतां मृगावती चंदनबालादिकने केवलज्ञान नपर्नु ए दृष्टांत जाणवां. एवी रीतें दुं पण श्रावकधर्मना अतिचार पडिक्कमवा मिथ्याफुःकत देवा आत्मनिंदा करवे करी विशुदि करवा वांबु . इति नावः॥ इहां जामि शब्द जे जे ते नावनी प्रबलताने सूचवे ने, जेमाटे नाव विना जे क्रिया करे, ते निःफल होय तेनुं फल न होय ॥ नक्तंच ॥ यस्मा क्रियाः प्रतिफलंति न नावशून्याः इति वचनात् ॥ तथा क्रियायें करी शून्य एवो जे नाव अने जावें करीने शून्य एवीजे क्रिया,ए बेनी वच्चमां सूर्य अने खद्योत जेटलो प्रांतरो. जाणवो. नाव ते सूर्य उद्योतरूप ले अने क्रिया ते खजवाना तेजरूप ले. इति प्रथमंगाथार्थः॥ हवे सर्व व्रतना अतिचार पडिक्कमवा ने, तेमां प्रथम सामान्य प्रकारे ज्ञानादिकना अतिचार पडिक्कमवाने अर्थे गाथा कहे : ॥ जो मे वयाश्यारो, नाणे तह दंसणे चरित्ते य॥ सुहमो वा बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥॥ अर्थः-(जोमेंवयाश्यारो के०) जे महारा अणुव्रतादिक वार व्रत तेना मलीनतारूप अतिचार , तिहां प्रथम ( नाणे के०) ज्ञानना अतिचार शहां अतिकम अने व्यतिकम ए बेदु जे जे, ते अतिचारमांहेज अंतर्भूत थाय डे, केम के व्रत नंगाववाने अर्थ कोश्ये निमंत्रणा करे बते तेने नाका रो करे नहीं. ते अतिक्रम कहीयें,अने निषेध करेती वस्तु लेवाने अर्थे जाय एटले सेव्युं नथी अने ते कार्य करवाने चाल्यो ते व्यतिक्रम कही, तथा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० . जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जेवारें निषेध करेली वस्तु लीये, तेवारे ते अतिचार कहेवाय तेमज ते नि षेध करेली वस्तु धापरे, ते अनाचार जाणवो. हां प्रथम व्रतने विषे क्रोधादिकें करीने परवश थयो थको वधबंधादि क करे, तो अतिचार लागे अने जेवारें जीवहिंसा करे तेवारें अनाचार क हेवाय ॥ यमुक्तं ॥ आहाकम्मा मंतण, पडिसुगमाणे अश्कमो हो ॥पय जेया परक्कम, गइए तनिश्रो गलिए ॥ १ ॥ इति ॥ हवे झानाचारें काल, विनय, बहुमान, उपधान,अनिन्दव, व्यंजन, अ र्थ, तनय, ए बाउ आचार झानना, तेने विषे वितब आचरणे यात अति चार थाय तथा मतिझानादिक पांच ने अश्रमादिकें करीने अतिचार लागे. (तह के ) तथा दर्शनाचारें निःशंकित, निःकांदित, अजुगुप्सा, अ मूढदृष्टि, उपहणां, स्थिरीकरण, वात्सल्य अने प्रनावना, ए आठ आचा र, तेने विपे वितब आसेवनारूप या अतिचार लागे. अथवा ज्ञान दर्शने देवगुर्वादिकनीआशातना तथा ज्ञानव्य, देवश्व्य, गुरुव्य अने साधारणश्व्यने विनाशे, उपेदादि करवे करी आशातनारूप अतिचार लागे. सातमांव्रतना वीश अने अगीबारव्रतना पचावन्न. चारित्राचारने विषे पांच समिति अने त्रण गुप्ति मली आठ प्रकारना आचार , तेने विषे अन्य उपयोगरूप पाठ अतिचार जाणवा. च शब्द थकी संलेषणा पांच प्रकारनं। तेना पांच अतिचार आगल कहेशे, तेमज ब प्रकारनो बाह्य अने ब प्रकारनो अन्यंतर मली बार प्रका रें तपाचार , तेने यथाशक्तियें न आराध्यो थको बार अतिचार थाय, तथा वीर्याचारने विपे मन, वचन अने कायायें करी यथाशक्ने शक्ति गो पनरूप त्रण अतिचार लागे अने सम्यक्त्वव्रतना पांच अतिचार सर्व म ली १२४ अतिचार थाय, तेमां ( सहुमंवा बायरंवा के०) जे अनुपयोगें उलखवामां ने आवे, एवा अतिचार लागे.ते सूक्ष्म अतिचार जाणवा थ ने जे प्रगटपणे उलखाणमां आवे ते वादर अतिचार जाणवा. ए सूक्ष्म अथवा बाहर अतिचार ते च शब्दथकी जाणते अजाणते जे अतिचार लाग्यो होय (तं के०) ते प्रत्यें दुं (निंदे के) निंबूं. एटले हा ! में महोटुं अकार्य कयुं ! इत्यादिक पश्चात्ताप आत्मानी साखें करीने, अपरं (तंचगिरिहामि के० ) तेने गुरुनी साखें गहूं दु. एम झाना Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सहित. ११ दिकना चारमा लागेला अतिचारोने निवारवा. एनो विशेष नावार्थ कवि कहे डे के महारा करेला श्राइविधि ग्रंथथकी जागजो ॥ २ ॥ ॥ हवे ए सर्व अतिचार प्रायें परिग्रह अने आरंजयकी उपजे , तेमाटे सामान्यथी परिग्रह आरंन पडिक्कमवाने अर्थे त्रीजी गाथा कहे : ॥विदे परिग्गदम्मि, सावले बदविहे य आरंने ॥कारावणे य करणे, पडिक्कमे देसियं सबं॥३॥ अर्थः- सचित्त अचित्तरूप अथवा बाह्य अने अन्यंतररूप (विहे के) वे प्रकारनो (परिग्गरंमि के०) परिग्रह , तिहां वाह्य परिग्रह ते धन धान्यादिरूप जाणवो अने अन्यंतर परिग्रह ते मिथ्यात्व अविरति आदिक जाणवो. तथा (बहुविहे के०) घणा प्रकारनो पापारंन ते खेती प्रमुख बाह्य व्यापार जाणवो परंतु जिनपूजा, प्रनावना, तीर्थयात्रा, रथ यात्रा, प्रासाद कराववां, संघ काढवा,साहामीवात्सल्य करवां, ते नद्देशं यद्य पि आरंन ने तो पण ते पडिक्कमवा बालोववा योग्य नथी केम के तेमांच डता परिणामधारानी वृध्येि समकेतनी प्राप्ति थाय जे तेमाटे ते गुणकारी (सावले के०) सावद्य ते पाप, ते जे पोताना कुटुंबादिकने अर्थं पाप पणुं सेवे ,ए सावधपणुं ते केटj एक परिग्रहमां ने अने केटबुंएक पारं जमां बे. तेवा केटला एक सावद्य प्रारंन अने परिग्रह विना गृहस्थने पो ताना कुटुंबनो निर्वाह थाय नहीं. तेमाटे ते सावद्य (बहुविहेयधारने के०) अनेक प्रकारनो आरंन निर्दय पणे निःशंक पणे घणा प्रकारनो सावद्य या रंन , एक (कारावणे के०) बीजानी पासें आरंन करावदो बीजो (करणे के०) पोतें करवो तेणें करीने तथा च शब्दथकी पारंजनी अनुमोदना करवे करीने वारंन थाय ते श्रावके निचे मानप्रमाण करीनेज परिग्रह आरनमां वर्तवू,कारण के जो आरंनपरियह घणो सेवे,तो लोनवशे व्याकुलपणाथकी घणा जीवोनो वध,मृषानाषण,अदत्तादानादिक सर्वव्रतोना अतिचारोनो सं जव थाय तेथी सघला व्रतोने अतिचार लागे,तेमाटे बहुविध आरंन परिय ह करवो,कराववो, अनुमोदवो,तेने विषे जे महाराव्रतना अतिचार पूर्वली गाथाने अनुवर्त्तने करीने सूक्ष्म अथवा बादरना ने (देसियं के०) देवसिक संबंधि थयां हां प्रारूतपणा थकी वकारनोलोप थयो जे शहां पडिक्कमणाने Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. अवसरें रात्रिय राइन, परकीयें परकीन, चनमासियें चउम्मासिड, संवत्सरियें संवतरित इत्यादिकपात कहीने (पडिक्कम के०) प्रतिकमामि एटले प्रतिक मुं बु. गुननावें करी फरी ते पापने अणकरवे करीने ते अतिचारथकी प्र तिकूलपणे पराङ्मुखपणे चालुं बुं. अतिचारथकी निवर्तुं बुं इत्यर्थः । ए परिग्रह अने आरंन जे , ते नरकादिक महाकुःखनो हेतु दे ॥ उक्तंच जगवत्यंगे ॥ कहीं नंते जीवा नेरश्यनाए कम्मंपगरंति गोयमा महारंज याए महापरिगहाए कुणिमाहारेणं पंचिंदियवहेणमिति ॥ अर्थः-केम हे जगवन् ! जीव जे , ते नरकनुं आयु बांधे? हे गौतम ! महायारंने करीने महोटा परिग्रहने मेलववे करीने मद्यमांसादिकने थाहारें करीने पंचेंश्यि जीवोने वधे करीने नरकनुं वायु बांधे. वली अन्यदपि एटले बी जा ग्रंथोमां पण कडं . धणसंच अविनलो, आरंनपरिग्गहो अविति नो॥ ने अवस्स मणुस्सं, नरयं च तरिरक जोणिं वा ॥ १ ॥ यत्र दृष्टांतो यथा॥ सुनौमब्रह्मदत्ताद्याः, सप्तमीप्रथिवीं गताः॥ महापरियहारंजे, मम्मणा वास्तु सुखिनः ॥ १ ॥ महापरिग्रहारंन, परित्यागेन निर्वृताः॥ अष्टौ नरत सगर, शांतिकुंथ्यादिचक्रिणः ॥ २ ॥ अर्थः- घणो धननो संचय करे, अत्यंत आरंपरिग्रहमां रहे, पण तेनो विजेद न करे, ते मनुष्य अवश्य न रकगति तिर्यचनी गतिप्रत्ये जाय. ते उपर दृष्टांत कहे जे. सुनीमचक्रवर्ती, ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती, सातमी नरकें गया ॥१॥ घणा परिग्रह अने आरंने करी मुम्मणशेगदिक पग महाकुःखी थया. माटे जे घणो परिग्रह घणो आरंन तेने त्यागीने परिग्रहथी निवां एवा नरतना पाटवी आठ तथा सगर, शांति, कुंथु अने अरथादिक चक्रवर्ती ते सर्व देवगति सिगति पाम्या. एत्रीजी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ ३ ॥ हवे विशेष पणे करीने समस्त बीजा पण अतिचारने प्रतिकमवा बतो थको प्रथम ज्ञानना अतिचारने पडिक्कमे बे. ॥जं बहमिदिएहिं, चउक्साएदिं अप्पसहिं ॥ रागेण व दोसेंण व, तं निंदे तं च गरिदामि॥४॥ अर्थः-श्राहिं झाननो प्रस्ताव , माटे झाननुं अतिचारनूत एवं (जं बई के०) जे अशुजकर्म,बांध्यु तथा कयुं,ते शेणे करीने बांध्युं तथा कयुं ? Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सहित. १३ तो के (इदिएहिं के०) कर्ण,चक्षु आदिक पांचे इंघियोयें करीने तथा (च उक्साएहिं के०) क्रोधादिक चार कषायें करीने उपलपथी मन, वच न अने काया, एत्रणे योगें करीने बांध्यु कयुं, ते अशुन कर्म जाणवू. हवे याहिं शिष्य आशंका करे , के इंडियादिकें करीने दर्शनादिकने अतिचार कर्म बंधाय, जेमाटें नवमा गुणगणानी अवधिसुधी सर्वजीव समय समये सात अथवा घाव कर्मना, बंधक डे, तथा जगवानना वच न ले जे “जीवे अडविह बंधएवा बाग्वयं सत्तविह बंधएवेति” ते मा टें झुं शहां झानने पण अतिचार रूप कर्मबंध कयुं ? हवे आचार्य एनो उत्तर कहे जे. इहां पडिकमणने विपे सघला य तिचारमा प्रथम ज्ञानना अतिचारनो प्रस्ताव ले. तेमाटें ज्ञानने अतिचा रपणुं कह्यु, परंपरायें बीजां पण कर्म बांधे, सम्यग्ज्ञानने अनावें नेद ज्ञानविना जीव कर्मने बांधे , तेमां मुख्यता ज्ञाननी जे. माटें प्रथम ज्ञा नने अतिचार लागे. परंपरायें दर्शनने लागे, जेवारें नेदज्ञान होय, तेवा रें अशुनकर्मनुं करवापणुं न थाय. अनें जे झान बतां पण रागपिनो जोरो वधे, दीपे, तेने ज्ञानपणुं न कहीयें. जेम सूर्यनां किरण उदय पा मे थके अंधकारनी शक्ति न रहे, तेम नेदझानने उदयें रागशेष केम र हे ? माटे जेने पांच इंडियो अने कपायना वर्ग, ए सर्व वश न होय, ते निश्चे अज्ञानी जाणवो. जो पण नव नवां शास्त्र सांनंले जे, तो पण झा ननुं अतिचारपणुं लागे, ते ज्ञान शा कामनुं ? जे ज्ञान बतें तेने पांचेंडि योयें जीत्यो, कपायें जीत्यो, तो तेने ते कहेवा मात्रज झान जाणवू. निश्चे श्रीवीत रागनो धर्म शुदगुरु अने शुरूधर्म रूप , ते शुरुधर्मथी एम केम होय ? शाल, बीज वाव्युं थकुं ज्वार केम नीपजे ? तेम साचा ज्ञानथीज इंडियो, बल घटे, इत्यादिक लोकमार्गानुसारे ज्ञान आशातनाकारी ने. हवे ते इंघिय तथा कषाय ए सर्व प्रशस्त अने अप्रशस्तना ने करी वे प्रकारें . तिहां प्रशस्त ते शुन अध्यवसायरूप जाणवा अने अप्रशस्त ते अशुन अध्यवसायरूप जाणवा ते प्रत्येकें विवरीने कहे . तिहां प्रथम श्रोत्रंडियना बे प्रकार कहे जेः-देवगुरुना गुणनुं वर्णन अ ने धर्मदेशना प्रमुख कानें सांजलवां, ते गुन अध्यवसायनो हेतु दे. एथी श्रोत्रंडियने शुनपणे जोडी जे, माटे तेने प्रशस्त श्रोत्रंडिय कहीयें. तथा जे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. श्ट अनिष्ट शब्द कानें सांजली रागष उपजे, ते रागशेषना वशथकी हीन अध्यवसाय प्रवर्ततो चेतन अशुनकर्म बांधे, तेने अप्रशस्त श्रोत्रेश्यि कहीये. हवे चरिंश्यिना बे प्रकार कहे जेः-देव, गुरु, संघ, शास्त्र, धर्म, ते ना स्थानक जोवे करीने नेत्र पवित्र थाय, तेणे कररी गुज अध्यवसाय प्र वर्ने, तेथी गुनकर्मबंध थाय, तेने प्रशस्त चरिंश्यि कहीयें तथा स्त्रीया दिकना अंगोपांग जोवाथी आत्माना परिणाम मलिन थाय, ते अप्रस्त चकुरिंड्रिय कहीयें. हवे घ्राणेंश्यिना वे प्रकार कहे जेः-तिहां श्रीअरिहंतनी पूजाने निमित्तें फूल, केशर, चंदन, वरास, अगर, कस्तूरी, कर्पर प्रमुख सौगंधिक वस्तुने इतर बीजी परीदा करीने लीये, अथवा गुर्वादिक ग्लानिने माटे पथ्य औ पधादिक लेवा होय, तेनी परीक्षा करीने लीये, तथा साधुने सरस था हारादिक आपे, तेवारें शुन अध्यवसाय प्रवर्ते. माटे तेने प्रशस्त घ्राणेंदि य कहीयें. अने सुगंधे अथवा दुर्गधे करीने गग झेप उपजे, तेथी माते व ध्यवसाय प्रवर्ते, तेने अप्रशस्त घ्राणेंश्यि कहीयें. हवे रसेंघियना वे प्रकार कहे जेः-जे रसेंहियें करीने श्रीतीर्थकर, मि .5, आचार्य, उपाध्याय, साधु, देशविरति, सम्यग्दृष्टि, इत्यादिक गुणीज नोना गुण बोले. पंचविध सद्याय करे, गुर्दादिकनी नक्ति करे, परने धर्म प माडवा माटे उपदेश आपे, पोते शास्त्र नणे, बीजाने नणावे, वंचावे, शि खामण आपे, गुर्वादिकने आहार आपवा माटें नात पाणीने जिव्हायें आस्वादी परीदा करी आपे, अथवा प्रतिष्ठा महोत्सवें अष्टोत्तरी स्नात्र महोत्सवें गोल सांकर मेवा प्रमुख लेवा पडे, तेने परीक्षाने अर्थे जिव्हायें आस्वादे, अथवा बाल, ग्लान, तपस्वी, थिविर इत्यादिकना औपधनी परी दा माटे जिव्हायें आस्वादे, जेथकी शुनपरिणामें वर्त्ततो गुनाध्यवसायी थको रहे तेमांटे तेने प्रशस्तरसेंश्यि कहीयें. तथा जे रसनायें करीने रा जकथा, देशकथा, नक्तकथा, स्त्रीकथा करे अने पापशास्त्र पोतें नणे, बी जाने जणावे, पापोपदेश आपे, गुणीने निर्गुणी कहे, पंचपरमेष्ठीना तया चतुर्विध श्रीसंघना अवर्णवाद बोले, पारकी निंदा करे, इष्ट अनिष्ट थाहा रादिक आस्वादतो इष्टनां वखाण करे अने अनिष्टनी निंदा गर्दा करे,एवा रागषपरिणामें वर्ततो असुन अध्यवसायने योगें अप्रशस्तरसेंख्यि कहीये. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका अर्थ तथा कथा सहित.. १५ हवे स्पर्शेश्यिना बे जेद कहे जे-जे परमेश्वर परमगुणी एवा श्रीवीत रागदेवनी प्रतिमानी पूजा, मात्र अनिषेक यांगीरचना प्रमुख करवे करी परिणामनी विशुद्धतायें निर्धारानुं कारण थाय. तेमज श्रीअरिहंतादिक द शनुं वेयावच्च करतां गुर्वादिकने शरीरे शाता करवा माटें विलेपनादिक क र, इत्यादिकथी तीर्थकर नामकर्म बंधाय, माटें तेने प्रशस्त स्पर्शेडिय क हीयें. तथा स्त्रीयादिकना थालिंगन, चुंबनादिक, कुचमर्दन, अने शरीरना स्पर्श, ए सर्व स्पर्शेड़िये करी थाय, तेमज संसार संबधि 'यापार यु६ सं ग्रामादिक करवां. ए सर्व अप्रशस्त स्पर्शेडिय कहीयें. ए एकेक इंडिय जो वश न होय, तो मृगादिकनी पेरें कुःखदाता था य ,ए महा अनर्थनी हेतु दे. तो जेनी पांचे इंडियो मोकली होय, ते जी व दुःख पामे, तेमां तूं कहेवू ? कह्यु डे के ॥ कुरंग मातंग पतंगनूंगा, मी नाहताः पंचनिरेव पंच ॥ एकप्रमादी स कथं न हन्यते, यः सेवते पंच निरेव पंच ॥ १॥ अर्थः-मृगलाने काननो विषय घणो होय, पतंगने नेत्र नो विषय घणो होय, चमराने नासिकानो विषय घणो होय, मबने जी जनो विपय घणो होय, हाथीने स्पर्शेश्यिनो विषय घणो होय. ए पांचे जा तिना जीवने यद्यपि बीजा इंडियोना विषय तो ले तथापि एकेका इंडिय नी मुख्यता कही देखाडी, एम एक इंडियने वश पड्यो थको जीव प्रमा दवशे हणाय , तो जीव पंचेंशियने वश पड्यो, थको केम छुःख नपामे ? एवं जाणीने इंघिय वश करी राखवी ॥ नक्तंच ॥ मनोनिग्रह नावनाया मपि एटले मनोनिग्रह नावनाने विपे कडं वे ते कहे जेः-इंदियधुत्ताण अहो, तिलतूस मित्तंपि देसुमापसरं ॥ अहदिन्नोतोनीन; जलविणो कोडि वरिस समो॥१॥ अर्थः-तुं इंख्यिरूप धूत्तोंने एक तिल तुषमात्र पण मोकला मूकीश नहीं. हृदपणे जेणे इंघिय वश करी , तेनो एक दण ते पण कोड वर्ष सरखो जाणवो. हवे ए पांचे इंघिय दमवा उपर झातासूत्रमां वे काचबानो दृष्टांत कह्यो ३ ॥ तयुक्तं ॥ विसएसु इंदियाई, इनंता राग दोस. निम्मुक्का ॥ पावंति निबु इसुहं, कुम्मु व मयंगदह सुरकं ॥ १ ॥ अवरेणन परं, पराउ पावंति पा वकम्मवसा ॥ संसार सागर गया, गोमा उयगसियकुमु च ॥ २॥ अर्थःविषयने विषे इंडियादिकने रुंधता रागषथी मुकाणा एवा जे जीव, ते ma Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. निबुसुहं एटले मोदना सुख पामे. ( मयंगदह के) मृदंगनामा इहने विषे जेम (कुम्मुश्व के० ) कूर्म सुख पाम्यो तेनी पेठे जाणवो. अने (थ वर के० ) अपर ते बीजा जीव जेणें इंडिय वश करी नथी, ते जीव अन र्थन। परंपरा प्रत्ये पामे बे. पापकर्मना वशथकी संसार समुश्मां पडे डे. (कुम्मुत्व के ) बीजा कृर्मनी पेरें जेम बीजा काचबायें इंख्यि न गोपवी तो तेने शीयालीयें हण्यो ते महाकुःख पाम्यों ॥ २ ॥ ते वे कूर्मनी कथा कहे जेः-वाराणसी नगरीयें गंगाने विष मृदंगह एवे नामें इह ले. तेमां गुप्तेंश्यि अने अगुप्तेंघिय एवे नामें वे काचबा रहे बे. ते मांसना अर्थीथका स्थलने विषे न्हाना महोटा कीटकादिकनुं जद ण करवाने अर्थे इहथी बाहिर निकट्या ,ते काचबा तिहां वे उष्ट पापी शीयालीयानी दृष्टं पड्या. काचवा पण शीयालीयाने देखी जय पाम्या थका पोताना चारे पग अने कोटने करोटीमांहे गोपर्व। निश्चेष्ट निर्जीवथ का पडी रह्या. हवे ते बे शीयालीया पण तिहां अाव्या, अने काचवाने दांतें करी करडवा लाग्या, पण काचबाने दांत वेसे नहीं, तेवारें नरखें करी लूंदवा लाग्या, तेथी पण काचबाने का इजा थ६ नहीं, तेवारें नंचा नढा लीने वली नीचा नाख्या, वारंवार चोट्या, इहांथी तिहां अने तिहांथी। हां पटक्या, तो पण काचबाने कांइ थयुं नहीं. सर्व नद्यम निरर्थक थयो जाणीने तें पापी शीयालीया जेम ते काचवा देखे नहीं एवी रीतें केटलेए क दूर ज एकांतें लूपी रह्या ते वखत अगुप्तेंघिय काचबायें चपलपणाथी हलवे हलवे पोतानो एक पग बाहेर काढयो, वली बीजो पंग पण बाहेर काढयो, एम यावत् कोट पण बाहिर काढी, एटले शीयालीया ताकी रह्या हता, तेणे आवी काचबाना पग तोडी खाधा अने सर्व शरीरना खंमोखंग करी नदण करी गया. अने बीजो काचबो तो गुप्तेश्यिपणे दृढ थइ रह्यो, चल्यो नहीं. घंणो कालपर्यंत तेवीज स्थितिमा रह्यो. तेवारें ते वे पापीशी यालीया थाकीने पोताने स्थानकें गया. पनी ते कांचवायें कोट काढीचा रे दिशायें शीयालीयाने जोड्ने तिहाथी कुदको मारी शीघ्रपणे इहमांहे जा पड्यो, पोताने स्थानकें पहोतो. सुखीयो थयो. माटे जे पोताना इंडीयोने मोकली मूके ते अगुप्तेंड्रिय काचबानी पेरें फुःखी थाय अने जे मोकली न मूके, ते गुप्तेंख्यि कार्चबानी पेरें परम सुखी थाय. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित.. १७ हवे कपायने प्रशस्त अने अप्रशस्त नेदें करी वखाण तो प्रथम प्रशस्त को ध कहे . उर्विनीत शिष्यने शीखामण आपवाने अर्थे गुर्वादिक क्रोध करे, जेम श्रीकालिकाचार्यजी, प्रमादी शिष्योने सूता मूकी जता रह्या. तेम प्रमादी शिष्यने शिखामण आपवा माटें जे क्रोध करवो, ते प्रशस्त जाण वो. तथा तेतलीपुत्र मंत्री प्रतिबोधवाने अर्थे पोटिलदेवें राजा देखाड्यो ते राजाने को उपनो, तेथीतेनो वध करवा.तत्पर थयो, तेने क्रोधथी.राख्यो. तथा नीतिशास्त्रमा कयुं ॥लालिऊतो दोसा,ताडिऊंतो गुणा बढ़ ढुंति ॥ गय वसह तुरंगाव,ता दुऊ सिरक परिवारो॥१॥ अर्थः-बालकने घणो लालीये तेथी दोष एटले अवगुण थाय अने ताडना करीयें, तेवारें क्रोधप ण नपजे. परंतु तेनाथी घणा गुण उपजे ने, वली हाथी बलद अने घोडा ने बाल्यावस्थायें क्रोधथी ताडना करी शीखवे ने तेथी सुशिक्षित थाय , तेम परिवार कुटुंबने पण शिखामण अपाय . ए सर्वस्थानकें प्रशस्त को ध जाणवो. तथा को उष्ट पुरुष, श्रीजिनशासननो प्रत्यनीक होय तेने शि खामण देवाने अर्थ क्रोध करे, ते पण प्रशस्त क्रोध जाणवो. हवे अप्रशस्त क्रोध कहे जेः-कलहादिकने विषे जे क्रोध करवो, परजी वने दमवो, व्याकुल करवो,पोताना शरीरने तपाववो,एवो जे क्रोध ते ऊर्ग तियें पहोंचाडे, ए अग्नि समान छे. एवो कयो अनर्थ डे के जे क्रोधथी न पामीयें? ते अप्रशस्त क्रोध जाणवो ॥ यतः ॥ उम्मेइ जणंता वेश, नियत पुनेइ डुग्गवि६ि॥ कोहो जलणुव्व जए, किमणब जंन पावे ॥१॥ हवे अप्रशस्त मान कहे :-नमवा योग्य एवा जे श्रीअरिहंतादिक पांच परमेष्ठी तथा गुर्वादिक तथा माता पितादिक तेमने नमे नहीं एवो जे अजिमानी होय ते सर्वने अनिष्ट थाय अथवा सर्वने अनिष्टपणुं पाम वानो हेतु थाय. कोश्ने वचन लागे नहीं ॥ यतः ॥ नासे सुयंविणयं, च उस्स हणेश धम्मकामडे । गनगिरिसिंग लग्गो, नरो न रोएइ पिनणेवि ॥ १ ॥ नावार्थः-जे अत्यंत मानी पुरुष होय तेनुं श्रुत नाश पामे. एटले ते शास्त्रनां रहस्य पामे नहीं. तथा ते विनय गुणने (उस्स के ) उषवे तथा धर्म, अर्थ अने कामने (हणेश के०) हणे, मानरूपपर्वतना शिखरने विषे वलगो एवो जे (नरो के०) पुरुष ते (पिनणेवि के०) माता पिता प्रमु खने पण ( नरोए के) न रुचे वल्लन न लागे. ए अप्रशस्त मान कझुं. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. हवे प्रशस्त माननां लक्ष्णनुं परिमाण कहे जे-जे उत्तम जीवें कोई प्रतिज्ञा करी होय, ते आ जन्मपर्यंत निर्वाह करी तूटे जेम उदयनमंत्री प्रत्ये निर्यापनाने अर्थे वंठ पुरुषने साधुनो वेश पहेरावीने अंत्यावस्थायें निर्याप्या सदुयें प्रणाम कस्यो, तेवार पड़ी ते वंठे साधुवेश मूकी दीयो. हवे प्रतिझा करे, तेनो महिमा कहे जेः-यतः॥ लजागुणौघजननी ज ननीमिवार्या. मत्यंतगुरुहृदयामनुवर्तमानाः ॥ तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजति, नत्यं स्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञा ॥१॥ नावार्थः-लजा प्रमुख जे गुण, तेना समूहनी जणनारी अने अपरमाता समान अत्यंत शुभ हृदययुक्त एवी प्रतिकाने अनुवर्तन करनारा एवा जे तेजस्वी पुरुषो डे, तेणे जे प्रतिज्ञा करी तेज ध्यान राखी यावत् ने संपूर्ण कार्य करवानिमित्तें पोताना सुरखने तथा प्राणने पण त्याग करे चे, परंतु साची स्थितिनुंज जेने व्यसन ने एवा जे पुरुप ते पोतानी करेली प्रतिज्ञाने बोडता नथी. तथा हरिचंराजानी पेरें यापदा प्राप्त थया बतां अदीनपणुं पण न क रे. यदाह॥ विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां,प्रिया न्याय्या वृत्तिमलि नमसुनंगेप्यसुकरं ॥ असंतोनान्याः सुहृदपि न याच्यःकशधनः,सतां के नोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदं ॥ १ ॥ जावार्थः-आपत्ति आवे उते प ग नचनाव राखवो तथा महोटा पुरुपना पदनो आश्रय करवो, न्यायनी वृत्तिने वाहाली रांववी, प्राणनाशने समय पण मलिन कार्य न करवू. असऊन पुरुषनी माचना न करवी, निर्धन बतां पण पोताना मित्रनी या चना न करवी, एवं या विषम असिधाराव्रत सङनजनोने कोणे बताव्यु ने ? अर्थात् कोश्य नहीं. पण तेवो तेनो स्वनावज . तथा दशाना जायें श्रीमहावीरदेवने वांदवा माटे मान कयु. ए सर्व प्रशस्तमान जागवं. हवे अप्रशस्त माया कहे जे-जे व्यनी वांडाने परवंचना करवी वाणिज्य कलामां तथा इजालिकादिकने विपे होय, ते सर्व अप्रशस्त माया जाणवी. हवे प्रशस्त माया कदे :-जे माया करीने आहेडीथकी मृग वगेरेने उ गारवा अथवा कोइरोगीयाने कटुक औषध पीवराववा माटे माया करवी, तेवी रीतनी माया ते पण प्रशस्त . तथा वली कोइक पुरुष दीक्षा लेवा ने तत्पर थयो होय, ते माया केलवीने स्त्रीने तथा माता पिताने कहे, के आज रात्रि में कुस्वप्न दीढं बे, तेथी जाणुं बु. जे महारं आयुष्य थ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. रए ल्प ने माटें दीक्षा लेवानी आझा बापो, एम कहीने पोते दीदा लीये, इत्यादिक जे माया ते पोताने अने परने हितकारी जाणवी. तथा सम्य कप्रकारे यतिनो आचार ग्रहण कराववाने अर्थे श्रीआयरहितजीयें माया प्रयंजीने पोताना पिताने शुरू साधुपणुं पलाव्युं, रखाव्युं, ते माया पण गुज जाणवी ॥ यतः ॥ अमायेनैव नावेन, माययैव नवेत् क्वचित् ॥ प श्येत् स्वपरयोर्यत्र, सानुबंधहितोदयं ॥ २ ॥ जावार्थः-निचे अमायी जावें करीने अने क्याहिक मायीनावें करीने जोवू जे पोताने अने परने जिहां हितना उदयनुं अनुबंधपणुं होय, तो ते धारवं, हितोदय करवो. हवे अप्रशस्त लोन कहे :-धनधान्यादिक नवविध परिग्रहने विपेजे अत्यंत मूर्बा राखवी ते अप्रशस्त लोन जाणवो. लोनने वशयको गुं करे ? ते कहे जे ॥ यतः ॥ वंचा मित्त कलत्तं, ना विरकर माय पीय सयणेयं ॥ मारेबंधवे विदु, पुरिसो जो होइधण लुके॥१॥ नावार्थः-जे पुरुप धननो लुब्ध होय एटले लोनी होय ते पोताना मित्रने, पोतानी स्त्रीने, वंचे, ठ गे, बेतरे तथा माता पिता अने पोताना सजन तेने पण (नाविरक के०) न देखे, न गणे, सर्वने वंचे अने निश्च पोताना सहोदर एटले नाइ सर खाने पण मारे एवा अनर्थ करतां थकां पण कांश विचारे नहीं. हवे प्रशस्त लोन कहे जेः-झान, दर्शन, चारित्रनो लोन करवो, विन य वेयावञ्चनो लोन करवो, शिष्यनो संग्रह करवो, श्रीनमास्वाति वाचकनी पेरें नाना प्रकारना सूत्रार्थनो संग्रह करवो. इत्यादि सर्व प्रशस्त लोन जा णवो. ए चार कपायना नेद प्रतिनेद घणा ले ते आगल पांत्रीशमी गाथा ना अर्थमां कहेगुं. . हवे त्रण योगर्नु प्रशस्त अप्रशस्त पणुं कहे :- तिहां मनने विषे आ ध्यान अने रौऽध्यान- चितवन करे,ते अप्रशस्त मनोयोग जाणवो तथा धर्मध्यान गुक्तध्याननुं ध्यावq, ते प्रशस्त मनोयोग जाणवो. __तथा धर्ममय एवी निरवद्य वाणी मुखथकी बोले, देवगुरुना गुणनुं मु खथी वर्णन करे, ते प्रशस्त वचनयोग जाणवो. तथा ए चोर , ए जार में, इत्यादिक पापमय वाणी बोलवी, ते अप्रशस्त वचनयोग जाणवो. तथा उजमाल थश्ने धर्मनी करणी करे, दानं पुण्य पूजाने विषे उजमा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ल थाय, ते प्रशस्त काययोग जाणवो अने विषयसेवा करवी, जुगटुं रमवू, सात उर्व्यसनादिक सेववां, ते अप्रशस्त काययोग जाणवो. हवे 'रागेणव दोसेणव ' ए गाथाना मूलपाठनो अर्थ करे - तिहां रागें करीने ते रागना त्रण जेद के. कामराग, दृष्टिराग अने स्नेहराग, एवा त्रण राग जाणवा. तिहां काम राग ते स्त्री सेवाने विपे जेम श्रीजंबूस्वामी ना जीव नवदत्ते पोताना नाना दादिमथकी अर्धपरिणीत'नागिलनामा स्त्रीने बोडीने चारित्र ली, पण पाडो कामरांगने वश होवाथी चारित्र बो डी तेज स्त्रीमां यासक्त थयो. माटें कामराग उर्निवार्य . हवे स्नेह राग कहे , ते जेम पोताना स्वजन धन धान्यादिकने विपे स्नेह राग ने, तथा दिगम्बर मतनो प्रवर्नावनार शिवनूतिने पोतानी उत्तरा नामें बहे ननी उपर जे राग ते पण स्नेह राग जाणवो. तथा दृष्टिराग ते शाक्यम तादिक कुदर्शनीयाने विपे जे राग ते दृष्टिराग कहीये. ते दृष्टिराग महाव लवंत , नत्तमपुरुषोने पण पुःखें तजवा योग्य ले. जेम प्रनावती राणीनो जीव देवता थयो , तेणे घणे कटें करी तापसना जक्त उदायीन राजाने प्रतिबोध्यो. तथा चाहुः श्रीहेमाचार्याः ॥ कामरागस्नेहराग, वीपत्करनि वारणौ ॥ दृष्टिरागस्तु पापीयान्, उरुन्जेदः सतामपि ॥ १ ॥ _नावार्थः- कामराग अने स्नेहराग ए वे निवारवा सुलन , पण दृष्टि राग जे जे; ते पापीयो ने, माटे ते सत्पुरुपने पण टालवो कर ले. तेम करीने. एटले क्षेप ते अप्रीति तेणें करीने गोष्ठामाहिलनी पेहें जाणवो तथा “ रागेणव दोसेणव” हां वा शब्द जे जे ते विकल्पार्थवा ची बे, ते वाशदथी विकल्पने अर्थ रागष प्रशस्त अप्रशस्त रूपें . तिहां रागना वे प्रकार कहे बेः-स्त्रीयादिकने विपे जे राग, ते अप्रश स्त राग कहियें अने श्रीअरिहंतादिकने विपे जे राग करवो, ते प्रशस्तराग जाणवो. श्रीगौतमस्वामीनी पेठे ॥ नकं च ॥ अरिहंते सुयरागो, रागो साहसु बंजयारिसु ॥ एस पसबो रागो, अब सरागाण साहणं ॥१॥ नावार्थःश्रीअरिहंतने विषे जे राग राखवो,तथा साधुने विषे अने ब्रह्मचारीने विपे जे राग राखवो, ते राग सर्व प्रशस्त जाणवो, एवो राग राखनार (अब के०) जे आर्य ते सराग संयमी साधु जाणवो ॥ हवे हेपना बे प्रकार कहे ः-तिहां पापाणादिकने विपे जे क्षेष कर Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित.. १ वो, ते तथा दास, दासी आदिकने विषे जे शेष ते अप्रशस्त क्षेप जाण वो तथा माता कर्मप्रमादने जीतवा माटे कर्मक्ष्य करवाने विपे क्षेष कर वो, जेम कर्म प्रमादादिकने जीतवा माटे उजमाल थयेला श्रीवीरजग वाननी पेठे क्षेष करवो, ते प्रशस्त क्षेष जाणवो ॥ __ आशंकाः- राग, क्षेप,ए वेदु प्रथम कहेला चार कपायमां नलेलाज ले, तो वली जूदा शा माटें लीधा ? तिहां कहे , के राग, द्वेष, ए वे विशेष अ नर्थना हेतु , तेमाटें जूदा लीधा , अने वली ते अत्यंत कुःखें जीताय तेवा जे माटें राग पि ले ते नावकर्म के अने क्रोधादिक कपाय तो इव्य कर्म में ॥उक्तं च ॥ जं न लह सम्मत्तं, लदुषंवि जं न ए संवेगं ॥ विस यसुहे सुय रऊर, सो दोसो राग दोसाणं ॥१॥ जावार्थ:-जे रागरोप, जीवने समकेतपणुं पामवा न दीये, अने जो समकेतपणुं पामे तो पण संवेगपणुं पामवा न दीये, कारण के रागी पी जीव होय,ते विषयसुखना सुखमां रक्त रहे, माटे ते (दोसो के०) दोप एटले अवगुण सर्व राग अने हेपनो जाणवो ॥१॥ तथा ॥ राग हेपौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयो जनं ॥ तावेव यदि न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ॥ १॥ नावार्थःजो सत्तामा रागपि , तो तप करवानुं शुं प्रयोजन ? अने जो रागष नथी रह्या तो पड़ी तप करवानुं पण गुं प्रयोजन ? ए राग हेप तथा पू र्वे कह्या जे इंख्यिकपायादिक (तं के० ) ते सर्वने (निंदे के०).नि डं, गर्दु , बालोदुं . इत्यादिक पूर्ववत् कहेवू ।। इतिचतुर्थ गाथार्थः॥४॥ - हवे दर्शनना अतिचार पडिक्कमे बेः-.. ॥ आगमण निग्गमणे, गणे चंकमणे अमानीगे॥ अनियोगे नियोगे, पडिक्कमे देसियं सवं ॥ ५॥ अर्थः-(आगमणे के ). मिथ्यादृष्टियोना रथयात्रादि महोत्सव दे स्ववाने अर्थे कुतूहलें करीने तिहां आवq एमज ते मिथ्यादृष्टि-नाज रथयात्रादिक महोत्सव जोवाने अर्थे पोताना. घरथकी (निग्गमणे के) निकल तथा मिथ्यादृष्टियोना देवगृहादिकना ( ठाणे के० ) स्थान कने विषे उठें रहे तथा उपर चडवू, (चंकमणे के०) तिहांज पुनः पुनः परिचमण करवू,तिहांज नमतुं रहे, उपलक्षण थकी बेसबुं, आसन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. शयनादिकनुं करवं तेथी जे अतिचार दोष लाग्यो होय, ते थालोनं नं. जेमाटें श्रावकने धन्यदर्शनी कुतीर्थींना तीर्थने विषे जोवा जावुं निषेध्युं बे, तेनी उपर दृष्टांत कहे बे ॥ यतः ॥ वेसागिहे सुगमणं, जहा निसि तहा कुलं वदुषं ॥ जाणावि तहा सावय, सुसावगाणं कुतिबेसु ॥ १ ॥ नावार्थ: जेम वेश्याना घरने विषे गमन कर कुलवधूने निषेध बे, तेम श्रावकने पण जाणो. जे श्रावक सुश्रावक होय, नाव श्रावक होय. तेने कुतीर्थीने देहरे जावं निषेध ले ॥ १ ॥ हवे ए आगमन निगमन शाथकी थाय ? ते कहे बे :- (अणानोगे के० ) अनाजोगथी एटने अनुपयोगें प्रमाद वरों करी समकेतने विषे उपयोग नरहे, तेवारें कुतीर्थाने देहरें गमनादिक थाय, तेथी अतिचार लागे. परंतु जो उपयोग बते गमनादिक करे, तो अनाचार थाय. तथा ( नियोगे के ० ) राजादिकना नियोगादिने बलात्कारें कुतार्थे श्रागमनादिक याय, ते रायानि गेणं इत्यादि व प्रागार बे. तेमां एक राजादिकना परवशपणे जवुं पडे, ते रायानिगेणं. बीजो सगासंबंधीना समुदायना परवशथकी जा पडे, ते गाणं. त्रीजो राजथकी व्यतिरिक्त बलवंतना परवशधकी जावुं पडे, ते बलानि गेणं. चोथो इष्टदेवताना परवशथकी जावुं पडे, ते देवानि गेलं. पांचमो गुरु जे माता, पिता, कलाचार्य, प्रमुख वडेराना व लात्कारथी जावुं पडे, ते गुरुनिग्गहेणं ॥ यतः ॥ माता पिता कलाचार्य, एतेषां ज्ञातय स्तथा ॥ वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गो सतां मतः ॥ १ ॥ नावार्थ:- माता, पिता, कलाचार्य, तथा पोतानी ज्ञातिनां जे मुख्य होय ते, तेम वली वृद्धते धर्मना उपदेशक एटला पुरुषने गुरुवर्ग कहियें. ए पां चमो आगार तथा बो डुर्निकादिकने विषे सर्वथा निर्वाह चलाववाने माटे जतुं पडे, ते वित्तिकांतारयागर ए प्रमाणे. अनियोगनो अर्थ कह्यो. हवे ( नियोगे के० ) नियोग ते श्रेष्ठपदवी अथवा प्रधान पदवी प्रा far धिकार वे थके. जे मिथ्यात्व सेवे, ते अतिचार जाणवो. शेप, प डिक्कमे इत्यादिको अर्थ पूर्ववत् जावो. ए रीतें दर्शनना प्रतिचार कह्या. ed सामान्यपणेज व्याख्या करे बेः जेम अनुपयोग पणे घरथकी तथा हाटथकी श्रावनुं, जनुं, अथवा हाटने पगे लागी बेसकुं, तथा काम पडे के अन्यतीर्थीने प्रामादिकनुं करवुं, तेथकी अतिचार अथवा असावधा • Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २३ नपणे कुतीर्थने विषे जq आवद्यु, थयुं होय, तिहां पंचेंश्यिना वधना हेतु नो पण संनव ने माटे सर्वनावें करीश्रावकोने त्यां जq निषि करेलुं .तथा राजादिकना अनियोगपणाथी स्वनियम खंमनादिक थाय तथा नियोग शेठ मंत्रियादिकनी पदवी मले थके जवू पडे,ते दर्शनना अतिचार, शेप आला वो पूर्वपरें जाणवो. एमझानातिचार याश्रयी पाबली गाथायें व्याख्या करी. तथा दर्शनातिचार आश्रयीपण.सामान्यपणे व्याख्या कही ॥ इति ॥ ५ ॥ हवे समकेतना पांच अतिचार पडिक्कमवाने गाथा कहे :संका कंख विगिना, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु ॥ संमत्तसईयारे, पडिक्कमे देसियं सत्वं ॥ ६ ॥ अर्थः-एक धर्मने विषे शंका राखवी, बीजो कांदा ते अपरधर्मने विषे अनिलापा करवी, त्रीजो धर्मना फलनो संदेह राखवो ते वितिगिबा, चोथो मिथ्यात्वीनी प्रशंसा करवी, (तह के०) तथा पांचमो कुलिंगी मिथ्यात्वीनो संस्तव ते परिचय करवो, ए समकेतना पांच अतिचारने पडिक्कमुंडं. दि वससंबंधि इत्यादि पूर्ववत्. तिहां दर्शनमोहनीय कर्मना दयोपशम थकी उदय पाम्यो जे आत्मपरिणाम तेथी वीतरागें कह्या जे जीवादिक तत्त्व तेनी नपर शुक्ष्क्षानरूप जे आत्मानो गुन परिणाम तेने समकेत कहीयें. सिमपंचाशिकासूत्रवृत्ति, तथा सिप्रानृतत्ति, धर्मरत्नवृत्ति, कर्म ग्रंथसूत्रवृत्ति, दिनकतवृत्ति आदिक अनेक ग्रंथोमां कडं जे. तथा पूज्यश्री देवेंसरियें कडं वे ॥ जिय अजिय पुष्मपावा, सवसंवर बंध मुरक निकर णा ॥जे ण सदह तयं, सम्मं खगाइबदुनेयं ॥ १ ॥ अंम्यत्रापि ॥ जीवा ३ नवपयजे, जो जाण तस्स होइ सम्मत्तं ॥ नावेण सदहंतो, अयाण मा णेवि सम्मत्तं ॥ तथा त्रण.तत्त्वना अध्यवसाय ते समकेत कहियें ॥ उक्तं च ॥ अरिहं देवो गुरुणो, सुसादुणो जिणमयं मह पमाणं ॥श्चाइ सुह जावो, सम्मत्तं बिति जगगुरुणो ॥ १॥ नावार्थः-देव श्रीअरिहंत, गुरु सुसाधु, धर्म ते श्रीजिनेश्वर नगवानप्ररूपित. ए त्रण तत्त्व मुझने प्रमाण जे, इत्यादिक गुजनाव होय तेने जगतना गुरु समकेत कहे . समकेत ते श्रीवीतरागना धर्मनु मूलनूत ने, जेमाटे सुविहेणं तिविहेणं इत्यादि नांगे अंगीकार करवे करीने श्रावकना बार व्रत ते समकेतादिक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. उत्तरगुण रूप बे ने करी युक्त तेने श्राश्रयीने तेरशें कोडी उपर चोराशी कोडी ते उपर बार लाख सत्तावीश हजार अने बसें, एटला उत्तरनेद नां गा थाय, ए नांगामांहे केवल समकेत ते प्रथम नांगो जाणवो. पण ए सम केतविना एके नांगानो संनव थाय नहीं. एटला माटें कह्यु के ॥ मुलं दारं पश्हाणं, थाहारो जायणं निहि ॥ उगढकस्सवि धम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तियं ॥ १ ॥ एनुं फल आ प्रमाणे कहे :- अंतोमुदुत्त मित्तंपि, फासियं जेहि हुँऊ सम्मत्तं ॥ तेसिं अवढ पुग्गल, परिघट्टो चेव संसारो॥ ॥ १ ॥ सम्मविही जीवो, गब नियमा विमापवासीसु ॥ जवि नगय समत्तो, अहव न बज्ञान पुत्वं ॥ ३ ॥ जं सक्क त किरई, जं च न सका त यंमि सद्दहणा ॥ सदहमाणो जीवो, पावश् अयरामरं गाणं ॥ ४ ॥ श्रा त्रण गाथामां पदेली गाथानो अर्थ सुखान ने अने बीजी तथा त्रीजी गा थानो नावार्थ कहे जेः- सम्यग्दृष्टि जीव जो समकेतथी पड्यो न होय तो अथवा समकेत प्राप्तिथी पहेलां परनवनुं आनुवं न बांध्यु होय तो निश्चें वैमानिकवासी देवोमां जश् नपजे ॥ २ ॥ जेहवी शक्ति होय तेवी न पः क्रिया करे अने जो क्रिया करवानी शक्ति न होय तो धर्म उपर साची सद्दहणा राखे, सदहणा करतो जीव अजरामर स्थानक पामे ॥ ३ ॥ ६ ॥ हवे ए सम्यक्त्वनी ऊपर जय अने विजयराजानी कथा कहे जेःश्रा जंबुद्दीपना जरतदेवने विषे स्वर्गपुरीनी स्पर्धा करे एवं, विश्वने यानंद उपजावनारुं नंदिपुर नामें नगर , तेने विपे दौःस्थ्य, दोन ग्य,द रिडीपणुं दुःखदौर्निदा दिक सर्व नयना समूह क्य थइ गयां , यने ते सर्व संपदानुं आस्पद केतां स्थान बे. त्यां श्रीधर्म नामें राजा राज करे जे. सर्व शत्रुने त्रास पमाडनार ते राजा न्याय, धर्मे करी राज्य, तथा प्रजाने पाले . याचक लोकने संपदा आपवाथी प्रियमेलक यह सरखो . तेने १ श्रीकांता, २ श्रीदत्ता अने ३ श्रीमती, एवे नामें त्रण पट्टराणीयो . ते मां श्रीकांतानो पुत्र जय अने श्रीदत्तानो पुत्र विजय ए वे अतुल पराक मवाला ने, अने बालपणाथीज जाणीयें पाबला नवर्नु समकित लेता था व्या होय नहिं ? एवा , तेथी पाउला जवने रंगें रंगाणा . सरखा था कारवाला तथा सरखी वयवाला विद्या, कला, आचार तथा गुणें करीस रखी शक्विाला . ते वे नाइजाणीयें वे नेत्रज होय नहिं. कहेलु डे के, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित.. श्य माह्यो पुरुष, हाथने उपकार करवानुं, स्त्रीने सत्त्वपणुं, जागा श्वानने बल, जी ने बोलतां माहापण, श्रांखने सखी पणुं शीखवे, ए सत्पुरुषनां लक्षण होय. वे प्रकृतियें करीने दुर्मति एवी त्रीजी जे श्रीमती नामें राणी हती ते ने पुत्र थयो. ते न्यायमार्गने विषे बुद्धिमान बे, तेनुं नयधीर एवुंनाम स्थायुं, ते जेम कादववाली धरतीने विषे कमल उत्पन्न याय, ते जेवी शोनाने पामे, तेम श्रीमतीने नयधीरू पुत्र शोभतो हवो. वे जय विजयनुं पुण्य अतुल बे, तेणें करी प्रजानो राम विशेष देखीने शोक्यपणाना मत्सरथी ईर्ष्या करती, द्वेष धरती एवी श्रीमती चिंतवती हवी, जे ए वे नाइ नेगा मली रहे बे, तेनी यागल मारा पुत्रने दासीना पुत्रनी तोजें पण कोइ गणतुं नथी, त्यारें वली राज्यनी खाशा तो क्यांथी ज ? जय, विजय बते मारा पुत्रने राज मलवुं दोहिलुं बे, एटलामाटे एवं करुं जे महारा पुत्रने राज्य मजे, पण ज्यांसुधी ए वे जीवता होय, तिहां सुध। न मजे ! एवो विचार करीने ए वेने मारवानो उपाय चिंतवे बे, तेमनां बिशे जुए बे, पण कोइ बि हाथ खावतुं नथी, तेमाटें दिन दिन डुबली थाती जाय े. मुखें अन्न, पाणी न रुचे, रात दिन, निश नावे, मुखें निसासो मूकती, रात दिवस कूरती, दुःख अनुभवती रहे बे. अन्य दिवसें काम टुमण करवावाली एक ताप सिली पारिव्राजिका श्री मती पासें यावी, ते तेने वश करवा माटें कहेवा लागी के, तुमने शुं दुःख बे ? श्रीमती पण तेना खावा पीवानी घणी खबर राखती तथा पारिव्राज काने घरी पाडती वश करती हवी. एम एक एकने वश करती श्रीम तीना कह्याकी तेना मननी वात जाणीने मुखें मधुरं बोलती पारित्रा जिका कहेवा लागी के, हुं एवं करीश के, तारा पुत्रनेज राज्य मलशे. एम कही घणो विश्वास पमाड) पोताने ठेकाणे गइ. वे पारिवाजिका अनेक मंत्र, चेटक, मोहन, उच्चाटन इत्यादिक खने क शक्तियें करी राजाने स्वप्नमध्ये एम कहेती दुवी जे हुं राज्यनी अधिष्ठा यिका देवी बुं, तारा हितने काजें कहुं बुं, माटें तुं सावचेत पणे रहेजे. तारा जय विजय कुमार, तुमने थोडा कालमां दणीने तारुं राज्य लेशे. ए वे तारा वैरी बे, तुमने ए वे दुर्जय बे, जालीयें नवा कोइ दैत्य उदय पाम्या होय नहिं ? एम जाणजे. ते माटें तारें एंवे मारवा घटे बे. वेरी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. यने रोग एवेदुने मूलमाथी नखेडी नाखवा, ए नीति . तारा हितने अर्थे हुँ जणाववासारु.यावी . पनी तुमने जेम सूफे, तेम कर, ढुं तो कहे नारी . एम स्वप्नमध्ये कही गइ, एटले राजा जाग्यो, उच्चाट करतां श्री मती पासें गयो, अने स्वप्ननी सर्व वात मांमोने कही. राणीयें कडं में पण एवं स्वप्न दी बे, ए वात सत्य ले. एवी वात राणीना मुखथी सांजलीने राजा अति खेद करतो थको चित्तमाहे चिंत ववा लाग्यो जे पुत्र तो ए वे उत्तम डे, महासत्त्वना धणी , राम केशव सरखी जोड दे, तेमाटें एनाथी ए अकार्य पण थाय नहीं. तेम ए देवीनुं स्वप्न ते पण जूतुं होय नहिं ! वली पुत्र पण मराय नहीं ! अने मास्या विना चाले पण नहिं! एटला माटें एके तरफनो विचार सूफतो नथी! ते वखत राजाने एक तरफ नदी ने एक तरफ वाघ, एवं उर्घट थयु. माटे हवे केम करवू ? शास्त्रमध्ये एम कर्दा डे के,विपर्नु तद पोतें हाथे वावी महोटुं कर्तुं होय, तो ते पोताने हाथे बेदq घटे नहीं, तो या सादात् कल्पतृद सरखा पुत्र तेने महाराथी केम मराय? अने एनो विश्वास पण कराय नहिं. तत्का ल केटलो एक विचार करी निश्चय कस्यो जे एवे नाइने महारे दशवर्ती करूं, बंदीखाने राखं, लूटा रा नहीं, एटले मुझने कांश जय रहेशे नहीं. हवे प्रनातें राजा सनामांहे आवी वेठो, तेवारें जय विजय वेदु नाइ राजाने प्रणाम करवा पाव्या, तेवाज पोलिये रोक्या, त्यारे दीनमन करी चिंतातुर थया थका, मौनपणुं धारीने तिहाथी पाबा वव्या. वेहु लाइ वि चार करवा लाग्या के, बापणे कशी राजानो अन्याय कस्यो नथी, अवि नय कस्यो नथी, कशी अवज्ञा पण करी नथी, के जेथी राजायें बाप पने अपमान दीg! आपणी अवज्ञा करी, एटलामाटे यापणे शहां रहे, घटतुं नथी ॥ यतः ॥ मा जीवतु परावझा, सुःखदग्धस्तु योजनः ॥ तस्या ऽजननीरेवास्तु, जननी क्लेशकारिणी ॥१॥ नावार्थः-परनी अवज्ञानाना मुःखथी दग्ध थश्ने जीव, ते करतां मरवू सारं अने जे परनी अवज्ञा थया बतां पण जीवे ते पुरुषनी माताने माता न जाणवी अर्थात् माताने क्लेशकारी जाणवी. एटलामाटें यापणने अवश्य स्वेबायें देशांतरें जर्बु, अहीं पराधीन एटले परवशपणे कोण रहे. देशांतर जवाथी गुजागुननी परीक्षा पडे , तेमाटे देशांतर जोवाना मनोरथ आपणा पूरा करवा. वली Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २७ राजा पण पोताना पुत्रना अनिमानपणानो नाव गुं जाणे जे में पुत्रने अपमान दीधुं हतुं ? जेमाडे शास्त्रमा पण कडं बे केः ॥त्रयः स्थानं न मुचंति,काकाः कापुरुपा मृगाः॥ अपमाने त्रयो यांति सिंहाः सत्पुरुषा गजाः॥ अर्थः-अपमान थयाथी त्रण जणा स्थानक न मूके. कागडा, कापुरुष ते मूर्खपुरुपो, अने मृगला. तथा सिंह सत्पुरुप अने हाथी, ए त्रण जणा स्थान सूकी आपे . वली एम विचारता हवा के, कांक अपर मातायें पितानुं चित्त निश्चय फेरव्यु , तेणे करी पितायें था पणो अनादर कस्यो, पण आपणो पिता कांइ एवो ने नहिं. पिता तो सरल डे,कपटरहित ले. परंतु ए उबको तो पितानेज घटे ले. एवं विचारीने सिंहधारें यावीकांक युक्तियें करीअन्योक्तिथी अनुक्रमें त्रण काव्ये करी उतनो लख्यो. ॥ तुजेऽवनेपं सहसें वृथैवं, समं प्रमाणं निखिलानयेऽहम् ॥ गुरूनध स्तादगुरुन्यउच्चान, करोष्यशेषान कुढपत्समांश्च ॥ १॥ रत्नानि रत्नाकर मावमंस्था, महोर्मिनिर्यद्यपि ते बहूनि ॥ हानिस्तवैवेह गुणैस्त्विमानि, ना वीनि नूवननमोलिनांजि ॥२॥ नचैष दोपस्तव किन्तु कस्या, प्यन्यस्य यः दो जकरस्तवापि ॥ गुणोथवाऽयं कथमन्यथास्ति,तेषां गुणैः स्वैर्महिमप्रवृत्तिः॥३॥ अर्थः- हे तुले ! सर्वनुं सर माप दुं करूं टुं, एम अनिमान तुं कर नहिं. कारण के तुं महोटा पदार्थने नीचा करे , अने हलकाने उंचा करे . अने वली ते सारा पदार्थोने कूटपापाणनी समान करे हैं ॥१॥ हे रत्नाकर ! यद्यपि घणां रत्नो होवाथी महोटा एवा तारा तरंगोयें करी अनिमान आणी तुं रत्नोनुं अपमान कर नहिं. जो अजिमान आणीने एम जाणीश जे मारे घणां रत्नो , तो तेमां तारुंज अपमान थाशे, कारण के.ते ताराथी अप मान पामेला रत्नो तो महोटा एवा राजाउना मुकुटमां जश्ने रहेशे ॥ २ ॥ तेमां काहिं तारो दोप नथी. परंतु कोई अन्यकृतदोष जे जे, ते तुने दोन करनारो थयो . नहिं तो गुण जे जे, ते अन्यथा केम थाय ? अने ते रत्नोने तो पोताना गुणोयें करी पोतानी महिमानी प्रवृत्ति थ दे. एवा त्रण श्लोक सिंहछारें लवी सिंहनी पेठे साहसिक थया थका बे दुजणा बाना सांज समे नगरथकी निकलता हवा. एवे नगर बहार जिहां नित्य मणिना दीवानो प्रकाश ने एवा श्रीशांति नाथना प्रासादने विषे आ वी परमेश्वरने नमी, परमेश्वरनी स्तुति करवा लाग्या. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रनकोष नाग चोयो. ॥श्लोक॥ नित्यानंदपदप्रयाणसरणी श्रेयोविनिःसारिणी, संसारार्णवतार गैकतरणी विश्वदिविस्तारिणी। पुण्यांकरजरप्ररोहधरणी व्यामोह संहारिणी, प्रीत्यै कस्य न ते खिलार्तिहरणी मूर्तिमनोहारिणी ॥१॥अर्थः-निरंतर आनं दपदनाप्रयाणना रस्तासमान, कल्याणने विशेपें करी उत्पन्न करनारी, संसार समुश्तारवामां नावसमान,विश्वनी शदिने विस्तार करनारी,पुण्यरूप अंकूर जरना प्रकट करवानी पृथ्वी,व्यामोहने संहार करनारी,अखिलभार्तिने नाश करनारी,मनोहर,एवीअरिहंतनगवाननी जेमूर्ति,तेकोनेप्रीतिनेमाटेनथाय? ए रीतें स्तुति करी आगल प्रयाण कयु. दूर गया थकां थाका, एवामां एक वड याव्यो, ते वड हेग्ल विश्राम कस्यो. त्यां रूडी जगा जो पथारी करी, वेदु जणा सूता. एवामां विजयकुमारने निश आवी ने जयकुमार जागे . एवा अवसरनेविपे ते वड नणर यद अने यदिणी रहेतां हता. तेमांथी यक्षिणी यदने कहेवा लागी के हे प्राणनाथ ! आज आपणे आंगणे प्रादुणा उतस्या , ते उत्तम बे, एमनी घणी नक्ति युक्तिथी करवी घटे . प्रादुणो सर्वने सर्वथा प्रकारे पूजनीय होय. आपणा आज पूर्वनव ना पुण्यनो उदय थयो, त्यारें त्रण जगतमाही जेनी ख्याति , एवा राज कुंवरो आव्या . माटें केम नक्ति करता नथी ? ते सांजलीने यद, यदि णीप्रत्ये रूडी वाणीयें करीने कहे जे के तें रुडुं कर्तुं ? आपणी पासें अमू व्य त्रण दिव्य वस्तुंबे,ते आपीने आप्रादुणानी नक्ति करीयें. एक तो महा मंत्र नित्यप्रत्ये सूत्रमा सात वार जणवो,एम सात दिवस लगण मन,वचन, कायानी शुद्धियें करी गुणे,तो ए मंत्रना प्रनावथी सातमे दिवसें महा राज्य दिनो अधिकारी थाय. बीजो मणि ने तेनो महिमा कहे . एना प्रनाव थी जे वांडे, तेवु रूप थाय, आकाशमार्गे चाल्यो जाय अने वत्ती सर्व जातिनां विष टले,तथा चिंतित दिपमाडे अने वांडित नोजनादिक सर्व आपे. ए मणिनी प्रार्थना करवाथी एटली वस्तु पामे. त्रीजी एक महोटी म हा औषधि ले तेनो महिमा कहूँ . शस्त्रना जय,अग्निना जय,सर्पना जय, तथा नूतपिशाचादिकना दोपनी हरनारी ए औषधी ने तो हे स्त्री! ए त्रणे दि व्य वस्तु ,ते आपीने ए प्रादुणानी नक्ति करीये. हे प्रिये! ए त्रण जगतमां सार वस्तु जे. एवं संनलावीने जयकुमारने हर्षसहित तेत्रण वस्तु आपतो हवो. जेनु नाग्य त्रजगतने विषे आश्चर्यकारी ने तेने झुंलन डे ? एत्रण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए वस्तु पामीने महा औषधीने माहात्म्य करी निरुपश्व थयो थको निश्चिंत था निर्नयपणे सुखथी सूतो, ते संध्यो. अतुल पुण्यना धणीने क्याथकी जय होय ? हवे पाबली रात चार घडी रही तेने ब्राह्ममुहूर्त कहीये ते वखत ते जाग्यो. जेम बाप दिकराने हेत करे,तेम जयकुमरें विजयकुमरने जगाडीने यदना प्रादुणानक्तिनुं वृत्तांत कयुं. विधिसहित राज्य पामवानो मंत्र ते विजयकुमरने जोय. एवं चिंतिवीने मंत्र यापतो हवो. निष्कपटपणे विज यकुमार ते मंत्र लेंग्ने एम चिंतवतो हवो के महोटो नाइंजयकुमार ने माटे जयकुमारने राज्य होवु जोयें. एम विचारीने जयकुमारने अत्यंत वि नय सहित कहेतो हवो,के हे बंधो ! राज्यने योग्य तमें बो अने ढुं तमारी सेवाने योग्य बुं. रामचंजी आगल लागनी पेठे बुं. राज्यनो धार क तो महोटो नाराज होय, ढुंतो तमारो अनुचर माटे मंत्रजाप करो. हवे विजयकुमरने राजनी झदि देवा वांबतो एवो जयकुमर हर्षे करी बोल्यो के हे आर्य ! तुंराज्य योग्य नथी अने दुं राज्य योग्य , ए केम घटे ? आपणे बेदु राज्य योग्य छैयें. एवो न्याय ,माटे आपणे बेदु जण जाप करीयें, जेथी आपण वेदुने राज्य होय. ते वात विजय कुमार अंगीकार करी जयकुमारनीयाज्ञायें विजयकुमार जाप करतो हवो.अने जयकुमार तो मात्र विजयने प्रतीत उपजाववा जाप जपतो हवो. पण हृदयमां मंत्रजप तो नथी. कवि कहे जे के स्नेहनी धीरता जू कहेवी ? विजयकुमार तो महोटा नाश्ना कहेणथी मर्यादा सहित जाप कस्यो. न्हानो होय ते म होटानुं कह्यु करे. एवी सत्थापना करतो थको सात वार मंत्र जप्यो. एम करतां प्रनात काल थयो एटले वेदु जणा चाल्या जायचे, जतां जतां मार्गने विष विजयकुमारने थाकी गयेलो देखीने जयकुमार चिंतववा ला ग्यो जे एवो कोण मूर्ख जे निःकारण कायाने दुःख उपजावे ? वली सुखसामग्री पामे बते चालवाना सुखनो सेवनार थाय ? एम विचारीने ते महामणिने पूजी प्रार्थना करीने विद्याधरनी पेरें आकाश मार्ग स्वे हा चारि गतियें चाल्या. विविधप्रकारनी तीर्थयात्रा करतां पोतानो जन्म कता र्थ मानता हवा. नानाप्रकारनां कौतुको जोता अनुक्रमें बेहु लाइ दूर देशांतरें निकली गया. शुन पुण्यना उदयथकी गुं न संनवे ? एमज ते महा मणि ना प्रनावथकी इडित नोजनादिकने करवे करीने घे ना सर्व स्थानकें Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. सर्वांगें सुख जोगवता स्वेष्ठायें याकाशमार्गे विचरता नानाप्रकारनां था श्वर्य जोता सूर्यनीपेरें चालता सातमे दिवसें प्रजात समयें कामपुर नामें नगरें खाव्या. ते नगर ऋद्धियें करी देवलोकनी स्पर्धा करतु, घणा जिनना प्रा साद तेना शिखरें करी शोजतुं एवं बे, तेने देखीने मार्गने खेदें प्रांबाना वन मां एक फल्याकृल्या यांबाना वृनी नीचें बेगा. जयकुमारनी थाज्ञा मागी विजयकुमार पण तहां बेसतो हवो. त्याऐं जयकुमार चिंतंववा लाग्यो के, जे साने दिवसें जाप पूरो थयो वें, तेथी ए आज अवश्य राज पामशे. एटलामाटें जो हुं इहां रहीश तो मने महोटो नाइ जाली ए रा न्य जेशे नहिं, मुजने बलात्कारें प्रसन्न थइने राज्य देशे; केम के ए नि तिनो जाए बे, एटलामाटें मुऊने एनी पासें रहेतुं घटतुं नथी. एवं विचारी जयकुमार कांक मिप करीने शीघ्रपणे तिहांथी निकव्यो हो ! महोटे रानी निःस्पृहता जून. कहेवी ने जे पोते न लीये अने नाइने पावे ले ? हवे ते नगरनो राजा पुत्रीयो मु, तेथी मंत्री यादि सर्वे मलीने प्रजातें हाथी, घोडा, छत्र, चामर, कलश, ए पंच दिव्य प्रकट करीने नगर मां फेरव्यां. पण राज्यने योग्य कोइ न मढ्यो, त्यारे सर्वे नगर बहार वि जयकुमार पासें याव्या. ते विजयकुमारने पुण्यें प्रेतुं यकुं छत्र विकस्वर a. हाथीयें गर्जारव कस्यो, घोडे हेपारव कस्यो, कलश एनी मेने ढव्यां, बेपासें वामर विजाणां, ते समये नंचा पुरुषने उंचुं स्थानकज योग्य वे ए बुं जालीनेज जाणे होय नहीं ? तेम हाथीये सुंढें करीने पोताना होदा मां बेसाड्यो, शृंगार श्राप्यो, त्यारें सर्व प्रजा प्रणाम करat लागी. " हवे राज योग्य ए राजा बे एम प्रजा हर्षवंत थइने सहु जय जय श व्द करवा लाग्या. एवे पंच शब्द वाजां वाजवे करीने अद्वैतशब्द थया, तथी काने पड्यं पण न संजलाय. एवा अवसरने विषे देवतानी एवी व्याकाश वाणी थइ के, ए विजयकुमारने में राज्य दीधुं छे. ए अतिशय गुणवंत एवो विजयराजा मदरहित बे, माटे जे कोइ राजाना वर्ग एने नहिं माने, नहीं नमे, तेनो हुं निग्रह करीश. अहो राजवीच ! सहु को सांजलो. ने वाली सांजलीने जेम इंनी वाणीयें देवता जय पामे, तेम सर्व सामंत राजा, जय पामीने नमता हवा. हवे विजयकुमार सचिवादिक सर्वने पूब्वा लाग्यो के, मारो महोंटों नाइ जय एवं नामें घाटलामां क्यांहिं बे ?" तेने Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३१ खोल करी हां लावो, अने तेने शीघ्र राज्य आपो; ते सर्व गुणें करी विराजमान बे. राज्यने योग्य ते डे, ढुं नथी. वली ते मारो महोटो नाइ बे, तेथी नानाने राज्य घटे नहि, तेमाटे माराथी केम लेवाय ? ए बुं विजय राजानुं विनीतपणुं देखी, नचितादिक गुण देखी मंत्री वगेरे चमत्कार पाम्या थका, एम कहेता हवा, के हे देव ! जे देवतायें राज्य त मने आप्यु, ते अन्यथा न थाय..माटें हे.प्रनो! अमारा स्वामी तमेज र हो अने नगर पावन करो. एम कहीनेज हाथी नगर नगी चलाव्यो. देव तानी करणी केम ननंघाय ? पनी ते नगरमांहे प्रवेश करतो हवो. ते राजानी कीर्तिपण दिशानां अंतप्रांत लगे विस्तार पामी. नत्सवसहित राजाराज हारने विपे सिंहासने वेगे. सामंत,मंत्रीवगेरे सर्व मलीने वासुदेवनी पेरेय निपेक करता हवा. हवे जयकुमार विजयकुमारने राज्य पाम्यो जाणी पो ताना आत्माने कृतार्थ मानतो त्यांथी आगल जातो हवो, अने मनमा एम चिंतवतो हवो जे रखे एने मुझथकी शंका उपजे! एवं जाणीने, वि जयने मल्या विनाज मणिना महिमाथी विद्याधरनी पेरें याकाशमां ली लायें फरतो हवो. जे कौतुकनो रसीया होय,तेने यालस न होय. एम फरतां अन्यदा जयापुरी नगरीयें गयो. त्यां जोनाराने लंकानगरीनी शंका उपजावे एवां सोनानां घर बे. त्यां जैत्रमन्न एवे नामें राजा , तेनी जैत्री देवी आदिक राणीयो जे, ते राजाने शेकडा गमे पुत्र , तेनी उपर शो नायें करी जगतने जीते एवी जैत्राश्री नामें एक पुत्री दे. हवे ते नगरमां सादात् जाणीय कामनी लताज होय नहिं ? एवी एक कामलता नामें गणिका रहे . तेनाथी जयकुमार आसक्त थयो थको घणा. काल लगण ते गणिकाने घेर रहेतो हवो. हवे उपायविना वंबित धन पूरे जे माटे एने धन प्राप्ति क्याथी थती हशे? एवं विचारी धननी लोनी अक्का ते पोतानी कामलता पुत्रीने कहे ती हवी के हे वत्से ! तुं तहारा धणीने एनुं कारण पूड, के जेथी आपणुं दारिद्य जाय. तेवारें निपुण कामलतायें कडं के आतुब बुधियें करीने सुं थवानुं , आपणने रोटला साथै काम ले पण टपटप साथे काम नथी ? इत्यादि रीतें समजावी तो पण ते लोनणी अक्का जेम कोइने नूत वलग्यु होय तेम तेनी केड केमे न मूके, उष्टस्वनावने लिधे पोतानो कदाग्रह मूकती Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनकया रत्नकोष नाग चोयो. न हवी. त्यारे तेना कदाग्रहथकी जयकुमारने कामलता पूलती हवी. जय कुमार पण प्रीतिनंग न थाय तो सारूं! एवा जयथकी ते वात कहेतो हवो. गुह्यनी वात कोश्नी आगल न कहेवी. तेमां वली स्त्रीने तो विशेष पणेन ज कहेवी. एवू जाणे ने तो पण ते कामलता नणी जयकुमरें वात कही. स्त्रीने वश पज्या गुं न करे ? ॥ यतः॥न कस्यापि प्रकाश्यं स्या, जुह्यं स्त्रीणां विशेषतः ॥ तस्यै तथापि स प्रोचे, स्त्रीवशाः किं न कुर्वते ॥१॥ पड़ी स्त्रीने सर्व वात कही तेबारें कामलतायें पण जयंकुमरने इव्य आव्यानुं कारण सर्व माताने जइ कह्यु. ते सांजली ते उष्ट परिणामवाली अक्का हर्षवंत थश्थकी कुमरनी पासेंथी मणिरत्न ग्रहवानी श्वायें नीतिनो नंग कर नारी ते अक्का एकांतपणुं ताकी जेम दूधने लोनें मांजारी बल जोती रहे, तेम बन जोति चारे दिशायें ते महामणिनी खोल करती रहे पण क्यांहि देखे नहीं. तेवारें जाण्यु जे ए पोतानी पासें राखे , एवं विचारी ते कपटी अक्कायें जयकुमरने चंडहास्य मदिरा, दधिने मि पीवरावी. तेवा रें जयकुमरने मूळ यावी के तरत गुप्तवस्त्रे जे मणि बांध्यो हतो, ते लइ लीधो. ते स्थानकें तेज वस्त्रमा मणि जेवडोज पाषाणनो कटको बांधी मू क्यो. अनुक्रमें मदिरा उतरी के तत्काल कुमर सावधान थयो, तेवारें म णिनी गांठ बांधेली दीठी तेथी विषाद न पाम्यो. केटलाएक दिवसांतरें इव्य याचवाने अर्थे मणिनी पूजा करी गांठ बोडी जो तो केवल पाषा ण दीठो. त्यारें महोटो विषाद करतो हवो. हा मुझने था पापणी अक्कायें वंच्यो !!! कदापि चंइहास्य मदिराना प्रयोगथकी मस्तक कापी लीये तो पण जेवाय एवों संनव , तथापि एणीयें तेम नथी कयुं थोडंज कांडे, फकत मणिज लीधो ले ! एम खेद करतो, अनेक विचार करतो, कामत तामां आसक्त थयो थको, जेम वृक्षनी अंदर अनि लागे, तेनी पेरें अंतः करणने विपे बलतो, व्यसनासक्त थयो थको कामलताने घेर रहेतो हवो. दवे जयकुमार निर्धन ने एम जाणीने अक्का पोतानी पुत्रीने वारंवार कहेवा लागी के, ए निर्धन ने, माटे तुं एने काढी मूक. कडं ने केः-विन वो वित्तसंगीनां, वैदग्ध्यं कुलयोषितां ॥ दाक्षिण्यं वणिजां प्रेम, वेश्यानाममृ तं विषं ॥१॥ नावार्थः-निःस्टहीना वैनव, कुलवंति स्त्रीनुं विदग्धपणुं, व्यापारीनुं दक्षिणपj, भने वेश्यानो प्रेम, ए चारे जो ते अमृतसमान Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित ३३ देखाय, तो पण विषसमान जाणवां. हवे ते कामलता स्नेहवंती कुमरना गुणे खेंचाणी थकी अगुनकर्मथी दूर रहेती पोतानी निर्दयी माताने क हेवा लागी के हवे ढुं एने नहिं बांहुँ, दुं धननी अर्थिनी नथी, हुं तो गु पनी रागी . आपणुं पूर्ण पुण्य दे, तो ए आपणे घरे वे दिवस रहेलो बे, एर्नु कोडो गमे इव्य आपणे खाधुं . ते तुं जाणती नथी के झुं ? कामलताना मुखथी एवी वाणी सांगली तो पण ते अक्काने चित्तमा न आवी अने जयकुमार उपर विरक्त थइ थकी दासीयो पासे अनादर करावती हवी. वेश्याना व्यसनीने निश्चें एमज विडंबना घटे ले. तेवारें जयकुमार पण अनिमानी बतो अपमान पामीने दरीजीनी पेठे लड़ा ने विषाद तेणें करी सहित एवो थको ते स्थानकथी निकलीने शून्य घरने विषे जइबेठगे. एवा अवसरनेविषे ते नगरना राजानी पुत्री सखीयोना परि वारें परवरीथकी नदीय क्रीडा करवा गजे, हंसनी पेठे नदीमां उतरी तेट लामां देवना योगथी तिहां तेने प्रेत वलग्यो. त्यारे जेम तदनी माल बेदी थकीनीची पडे,तेम राजकुंवरीअचेतन थथकीनूमिकायें पडी. ते वात सां नली राजायें घणो खेद धरी कुमरीने घेर तेडी अनेक उपचार कराव्या, तो पण जेम वजने, टांकणे टांकतां टांकणुं लागे नहीं, तेम उपचारे पण कुंव रीने करार न थयो, मंत्रवादीनो महिमा पण निःफल थयो. जेम हिममां बले तेने कोइ उपचार न लागे, तेम एना पण जेम उपचार करे; तेम तेम दोष वधे. त्यारें राजा आर्तध्याने पीड्यो थको दुःख धरतो नगरमध्ये पडहो वजडावतो हवो के,जे कोश्गुणी होय अने,कुंवरीने शाता करे,तो तेने रा जा ते कुंवरी परणावे,ने वली कोड सोनैया आपे. एवं सामनी जयकुमार हर्ष पामी पडहो बबीने राजाने दरबारें आव्यो. राजानी आझा पामी, मं त्रवादिनी पेरें स्नान कयुं. जपादिक मिथ्या आमंबर कस्यो, कारण के म होटे स्थानकें आमंबर करवो जोयें. ते औषधीने पाणीमांत्रण वखत बोली ते पाणी दूरथी बांटीने कुमरीने साजी करतो हवो. दिव्य औ षधीना बलथकी गुं न थाय ? आ को लोकोत्तर, महा नल्लष्ट कलाना प्रजावथी राजा चमत्कार पाम्यो, त्यारें मुदित थयो थको विचारतो हवो के ए कोई उत्तम कुलनो पुरुष . पनी पोतानी कन्याने धरती पर बेठी नागकन्या सरखी देखीने महा माहोत्सवे तेनी संघाते.परणावीने,कोड सो Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. नैया आपतो हवो. सत्पुरुषतुं वचन अन्यथा न थाय. ते दंपतीने रहे वा माटें घर आप्युं. त्यां रह्यां थकां बेदजण दोगंडक देवताना सरखां सुख जोगवतां हवा. ते कुमर महामणि पालो मेलववाने काजें उपाय चिं तवतो हवो. राजानी पुत्रीने साजी करीने पड़ी, ते औषधि गुप्तपणे राखी ने ते गुप्त औषधीनो महिमा कोइक धूर्ते जाण्यो, तेवारे ते धूर्त उपधी ह रवाने वांबतो थको क्षत्रीनो वेश करी कपटथी जयकुमारने वश करवा माटे विनयवंत थइ बहुमान करी विश्वास पमाडी तेनी पासें रह्यो, पनी जे गुप्तस्थानकें औपधि जे ते चोरी लग्ने हर्ष पामतो शीघ्रपणे नातो. ज यकुमार खेद धरतो कहेतो हवो के धिक्कार हो विश्वासने के जेथी अनर्थ नपन्यो? इहां जयकुमारने वे वानां थयां. एक कन्यानो लान अने बीजीयो पधीनी हाण एम शोकने हर्प एबे थया. देवतानी आपी वे वस्तुनी हाण थइ, तेणें करी घणो खेद यतो हवा. देवतायें बापी देवें अपहरी, एटला माटें दैव अपावे तोज जडे,नहिंतर बीजाउँने कहीने वृथा दीनपणुं देखा डवाथी झुं थाय ! एम चिंतवी जेम समुश्मा वडवानल लागे यके समुह जलने बाले, तेम कुमरने पण अंतःकरणने विषे ते पुःख बालवा लाग्युं. हवे जयकुमरने काढ्या पळी ते बकायें मणिनी पूजा करीने घणा प्र कारें याचना करी पण ते महामणियें कां प्राप्युं नहीं. कारण के ना ग्यवंतनेज दिव्य वस्तु वांबितनी करनारी होय , धर्मिष्टने मुखदायी होय, परंतु पापीने तो तेज वस्तु उःखदायी होय जे. अन्यायीने वित वस्तु क्याथी मले? पड़ी ते यकाने कामलतादिक सर्वजनोयें तिरस्कार करीने कह्यु के. जा. फरी पालो ए मणि जयकुमरने आपी आव. वली वि चार कर,जे ते राज्य लीलानो जोगवनारो ,राजानो मानीतो ? एवा सा दात् कल्पवृद जेवा पुरुषने तें घरमांथी काढयो. इत्यादि कामलताना उलं जा सांजव्या. तथा सर्व परिवारनो पण तपको पामी. सर्व परिवार धिक्कार वचन कह्यु. तेवारें कांक मनमां विचारी, ते रत्न लश्,जयकुमार पासें या वती हवी. दंने करीने.रोती पोतानुं सुख देखाडती कहेती हवी के हे व त्स ! केम अमने मूकीने अमारी सार संजाल करता नथी ? जेम को स्वर्ग गयोथको पूर्वनी अवस्था न संजारे, तेम तमें पण अमने गुं करवा संना रो? प्रौढ राजानुं माम पाम्या,राजाना संबंधी थया,तेथी अमने विसारी म Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५ क्यां ! पण अमें तमने केम वीसारी मूकीयें ? कामलता तो तुने विसारती जनश्री.जेम सूर्यविकासी कमल सूर्यविना विकस्वर न थाय,तेम महारी पु त्री कामलता तारा वियोगरूप अग्नियें करी बले ,तेने शीतल कर कामज्व रनुं ओषध तमाराविना बीजो को वैद्य नथी, तमें आवशो तोज जीवशे. वलीमणि देवाडीने कडं के आकांक अपूर्व वस्तु अमने घरमांहेथीमली ने ते वस्तु कोनी हशे? ते अमें जाणतां नथी. पण अमारे तो तमाराथी व हनन बीजो कोण के जेने ए आपीयें ? माटे तमने यापुं हुं, ते व्यो. तम बते जे नवनवी वस्तु घरने विषे नित्य आवती, ते हवे आवती नथी. एट ला माटें अमारा उपर अनुग्रह करीने अमारा घरने विपे आवो. जे उत्तम होय ते प्रार्थनानंग न करे, एम कहीने ते मणि थापती हवी. जेम गयुं पुण्य स्पष्टपणे पावं आवे तेम गइ वस्तु पानी पावती हवी. जूठ कपटनु पटुताप' कहे जेः-यतः॥परिणां वायसो धूनः, श्वापदेषु च जंबुकः ॥ नरेषु द्यूतकारश्च, नारीषु गणिका पुनः ॥ १॥ अर्थः-पंखीयोमां काक धूर्त, चतुष्पदने विषे शीयालीयो धूर्त, मनुष्यने विषे जूगारी धूर्त अने स्त्री जातिने विषे गणिका धूर्त जाणवी ॥ १ ॥ __ हवे अकानुं कपट अने तेनी पुत्री कामलता- स्मरण तथा रत्ननो लान ते समकालें नेलां थयां, पण गणिकानी पुत्री सांजरी तेथी विचास्युं जे हमणां क्रोध करवानो अवसर नथी. एम जाणी क्रोधने संवरी प्रीतिपू वक अक्काने कह्यं के श्रावीश ! पढ़ी जयकुमार कामलताने ध्यातो हवो, जेम हाथी विंध्याचलनी अटवीने ध्यावे,तेम ते राजकुंवरीने,मूकी,कामलता ने घरे जतो हवो.माटे व्यसनीने धिक्कार हो, व्यसननो पास बोडवो मुकर जे. वली पूर्वनी परें त्यां रहेतो हवो. तेनी उपर आसक्त थयो थको केटला एक दिवस मणिना प्रनाउ हित कधि पूरतो सुख नोगवतो रह्यो. पुण्यवंत प्रा णीने गुंजुष्कर में ? महोटा पुरुषनी पण ए स्थिति ,तो सामान्यनुं हुं कहे ? हवे पोतानी कुंवरी जरतारना वियोगने सुखे करी पीडित शोकसमु इमां पडेली तथा वेश्याने घेर रहेला जमाइनो वृत्तांत सांजलीने राजा खेद धरतो विचारे के ए व्यसनथकी निवर्ने नहिं,तो ते लड़का मुझने डे! एवं चिं तवी राजा प्रधानने तेडी तेने कामसताने घरे मोकलतो हवो. प्रधान त्यां का मलताने बारणे रहीने कुमरने बोलावतो हवो तेटलामां राजायें तेडाव्यानी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. खबर सांजलीने तेने लक्रारूप पीडा- कुःख प्रगट थयु. तेने लीधे चिंतातुर थयो थको एम चितववा लाग्यो के हा मुझने राजायें पण विटपुरुपनी पेठे यहां रहेतां जाण्यो, तो हवे हुँ महारू मुख केम देखाईं ! तेमाटे हवे ढुं दूर देशांतरे जावं. एम चिंतवी गरुडनी पेरें उमीने शीघ्रपणे गणि काना घरथकी निकली पोतानुं रूप परावर्तन करीने नगरथकी बहार गयो. जाण्युंजे इहां मुझने को देखनार नथी. एम विद्याधरनी पेठे मणिना प्रना वथकी उंचो उबलीने कांइक दूर गयो. अनुक्रमें आकाश मार्गे अतिशय दूर देशांतरें क्यांश जतो दवो. त्यां शून्य अरण्य मध्ये अवधूत योगीने वेपे न मतो फरे तेवामां ते गश्वस्तु पामवानां सूचक शकुन थयां. ते देखीने म नमां एवं विचारे ने जे महारी औषधी ग . ते ढुं शहां केम पानीश ? ए वामां कोई अवधूत जयकुमारने मल्यो अने जयकुमारने पोता सरखो जा पीने ते महा औषधी प्रत्यें देखाडीने पूबतो हवो के हे स्वामी ! आ औ षधीमां गुण हशे ? जयकुमार पण पोतानी औषधीने उलग्वी, अर्पित थयो थको अवधूतने कहेतो हवो. या औषधी तुं क्यांथी पाम्यो ? ए विपे साचुं बोलीश तो तुमने ए घोषधीना गुण बने थानाय कहीश. ते सांगली अवधूत बोल्यो, कोश्क महापुरुष पासेंथी ए महोटा उद्यम थकी तेनी घणी सेवा करीने घणे प्रयासे महोटी विद्यानी परें ए औषधी हुँ पाम्यो . परंतु एटलुं विशेष ले जे गारुडनी शक्तिनी पेरें ए औषधीने गुप्तपणे राखी तो तत्काल तेज दराने विपे महोटा दोपरूप महाग्रह प्रत्यें ए औषधीने में अनुनवी जे. एमां दोप रहेवानो हेतु शु ने ? माटे हुँ तमने पूडं तुं के, एंना विशेष आम्नाय गुण तमें जो जाणता हो,तो कहो. तेवारें जयकुमार ते चोर प्रत्ये स्पष्टपणे निश्चितपणे रोष करीने कडं के हे अनार्य! जो तुं चोरी थकी या वस्तु पाम्यो हश्श,तो ते दिव्यरूप वस्तु पा म्यानुं फल तो तुमने वेगलुं ने, पण आ ज़वें तथा परनवें तुमने अनर्थ थशे. विश्वासघात करवायकी उदय श्रयुं जे पाप ते पापर्नु तुने गुं फल कहूं? हे धूर्तना धूर्त ! तें जेम. मुझने वंच्यो में तेम जगतने पण वंचतो हश्श, ते माटे तुं को दिवस पापर्नु फल निश्चें पामीश. ते धूर्त जयकुमारना मुखथी ए म सांजलीने धूजतो थको ते औषधिने पृथ्वीमा फेंकी दश्ने जीवोयें फोलेला काष्ठसमान हृदयवालो ते धूर्त जीव लेइने नासतो हवो. कमु ने के दोष Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३७ वान प्राणी कंपायमान थाय जे. पनी समर्थ अने कृतार्थ एवो कुमर गश्वस्तु पामीने रीऊ पामतो थको तेनी पूवें न गयो, कारण के पापी होय ते पापमा प चे. कयुं केः “पापी पापेन पच्यते” हवे जयकुमार एम विचारवा लाग्यो के, घटवीने विषे रहे,प्रवास करवो, इत्यादिक्कशे करी प्राप्त थयेला औषधने पा मीने जेम रोगीबानंद पामे, तेम हुँ क्वेशथी स्वार्थसिम थयो, ते योग्य ,तेमां चिंता नहीं. एवी रीते ते हर्ष थरतो हवो. एकदा विनोदथकी अत्यंत बिन स श्याम वर्ण युक्त एवा वामणानुं रूप करीने नोगनीज करनारी एवी जोगा वती नगरीये ते कुमार आव्यो, तिहां संपदायें करी विद्याधरनी परें शक्विंत एवो सुनोग नामें राजा ने, तेनी जोगवती नामें राणी,अने विश्वने नोग योग्य एवी जोगिनी नामें तेने पुत्री , तिहां कुश्, जयंकर, बिहामणा थं गवालो एवा वामन रूपें जयकुमार चारे बाजुयें कौतुक जोनारा घणा लो के वींटेलो थको जेटले ते नगरनां चदुटामां थाव्यो, तेटलेज एवी उद् घोषणा सांजलतो हवो, जे राजानी कुंवरीने उष्ट सर्प मसी, माटे तेने जे जीवाडी आपे, तेने राजा पोतानी एज कन्या तथा हजार घोडा अने एकसो हाथी आपे. हवे जयकुमार लोकने हांसी कुतूहल उपजावतो, नृ त्य करावतो, विस्मय पमाडतो, ते पडह प्रत्ये फरसतो हवो, तेवारें लो क वामनने कहेतां हवां के हे वामन ! तुं कन्यादिकना लान माटे फो कट मनीषा म कर ? वैद्यादिक मंत्रवादी प्रमुख सर्वे उपचार करी थाकी गया , कोथी सारं ययुं नथी, तो तुं झुं एने सारं करीश ? एवां जला पुरुषोनां वचन सांजलतो वामन सर्वने नवेखतो हवो. तथा वली हीन पुरुषोयें प्रेरणा करी के हे वामनजी ! तमें तो महोटा चतुर देखा हो ? माटे उपाय करो. एम हासी कीधी, तेम मध्यम लोकोयें उपेक्षा करी ए टले हा ना कां न कही, परतें आ जगतनी स्थिति त्रण प्रकारनी ने. हवे कौतुक करतो एवो ते लोकना समूहें परवस्यो. अहो अहो आ पुरुष पणुं !!! इत्यादि बोलता लोकोनां वचन सांजलतो अत्यंत शक्तिनो धणी ते वामन राजसनायें जश, राजाने प्रणाम करी,कहेतो हवो. के ढुं कन्याने साजी करूं ! एम कही, राजादिक सर्वनी आझायें कन्या पासें गयो. तिहां ते वामन पंमितें माहाऔषधीने महिमायें करी पूर्वली परें गुप्त प्रयोगें ते कन्या ने तुरत जीवती करी. सर्वे सनानां लोको विस्मय धरतां कन्याने जीवाडवा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. यकी हर्ष भने वामनरूप जोवायकी विषादने पामतां हवां, वली सर्वे ए म विचार करे ने जे,ए वामन, पुरुषोने विषे उत्तम , माटे गुणेकरी कन्या ने ग्रहवा योग्य ले पण तेमां वामनपणुं ,माटे केम देवाय ? विधातायें जो तेनुरूप सारं कर्यु होत, तो घणुं रुडं! पण जेवा एमां गुण , तेवु रूप नथी. तेथी धिक्कार ने देवने के जेणे रत्नने विषे दूषण निपजाव्यु! एम सर्व लोक खेद धरता हवा. हवे कन्या,राजा तथा कन्याना मातादिकें विंचायुं जे बाप पने व्यर्थ चिंता करवाथी झुं थाय? देवनुं कर्तुं अन्यथा न थाय, जो वामनने कन्या यापुं,तो लोकमां अपवाद थाय एवी चिंतायें झुं थाय ? जेमाटे म होटा पुरुषतुं वचन फरे नहीं, कन्या आपवा माटे कन्याने खेद, माताने शो क,शमनने हर्ष अने वरप्रत्ये वामन पणानो लोकापवाद थाय बे, पण वचन दीधुं ने ते अन्यथा केम थाय ? एम विचारीने राजा जेटने कन्या आपवानु कहे , तेटलामा निःकपट वाणीयी अनिमान मूकीने वामन बोल्यो जे, अावा उ गिया हीनांगने कन्या रत्न आप, ते तमोने पटे न हि. हंसली कागडाने केम देवाय ! माटें ए कन्या वरवाने हुँअयोग्य डं,तमें जो कदाचित् आपशो, तो पण ते कन्या. मुझने केम अंगीकार करशे ने मज सामंत, प्रधान प्रमुख लोक पण अत्यंत अनुचित कार्य केम देखी शकशे ? ॥ कयुं के ॥ यद्यपि न नवति हानिः,परकीयां चरति रासनोदां ॥ वस्तु विनाशं दृष्ट्रा, तथापि परिविद्यते चेतः॥१॥ अर्थः-कदाचित आपणी कांश हानि थती न होय तो पण पारकी शख जो गर्दन चरे. तो ने वस्तु नो विनाश थतो देखीने चित्तमा खेदतो थायज ॥ १॥ तेमाटे ए कन्या दीधी थकी पण महाराथी केम लेवाय ? पोताना वस्त्रने अनुलारें पगर्नु पसारवू थाय. तथा पोतानुं स्वरूप न जाणे ते पुरुप, केरडा, लिंबडा वगेरे पदार्थने विषे रक्त थयेलो अने शदादिक उत्तम वस्तुना वनथी दूर रहेलो एवो जे उंट ,ते थकी पण हीणो डे अर्थात् जे पोतार्नु पराक्रम, तोट्या विना काम करे, ते हीपो जावो. वली श्लेष्म तथा बडखाने सेवन कर नारी अने चंदनथी विमुख रहेली एवी जे मदिका , तेनाथी पण जे पो तानुं स्वरूप न जाणे, ते पुरुष हीणो जाणवो. देवं, लेवू, वंदन, दान, चिकित्सा, घर, जोजन, वेस, सू, वा हन, उबान, स्थापन, प्रार्थना, ध्यान, विधान, मिलाप, युआ, जगाडवं, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३० धन, हानि, मान, अपमान, तेड, विवादनुं जोडवू, उपाडवू, जूउंजू ई करवू, घडवू, खेड, फरवू, विदारकुं, कूटवू, ज्ञान, विज्ञान, सेवा, वन, नण, नणाव,मान, क्रोध, गुप्तपणुं, जोजन, इत्यादिक सर्व स्थानक निविषे जे पोतानुं स्वरूप जाणे, ते माह्यो जाणवो. पोताना घरने विषे अथवा बीजाना घरने विषे सर्वकार्यने विषे जे कर्तव्य , तेने विषे पो तानी प्रतिष्ठाने योग्य जेहवी शक्ति होय तेवो प्रवर्ते. __ ए रीतें ते वामन, उत्तमपणा, अविसंवाद वचन सांगतीने राजादि क सर्व लोक घणो चमत्कार पामतां हवा, जेमाटे गुणना रागी सर्वथी थो डा होय, तेथकी गुणवंत जन थोडा, तेथकी गुणी जनना गुण उपर रक्त थयेला थोडा, तेथकी वली पोताना अवगुणने देखनारा थोडा होय. हवे पोताना मुखरूप रंगनूमिने विषे वाणीरूप नर्तकीने जाणे नचावतो होय नहीं ? तेम राजा कहे ,के जो नए ! तुऊने हुँ कन्या आपीश. एमां कांड विचारणा करवी नहिं पुरुषने जेमाटें प्राणप्रतिष्ठानी पूर्व सत्य वाणी डे, तेज राखवा योग्य डे अर्थात् प्राण जवाथी पण सत्य वाणीनुं रहाण करवू तेमाटें विशे करी महाशयना धणीय पोतानी वाणी सत्य करवाने अर्थे झुं न करवु ? अर्थात् सर्व कां करवं. पिता एवा दशरथना वचन निर्वाहने अ थै रामचंई वनवास कयो, राजा हरिश्चंई नीचने घेर पाणी आण्यु. एम व चन पालवा माटें नीच काम पण कयं. ए रीतें बोलीने राजा अन्यलोकनी अपेक्षा न करतो अन्यलोकना वचनने नवेखतो थको प्रोतानी कन्या वा मन प्रत्ये शीघ्रपणे देतो हवो. वली विचारे ने जे जे आगल नावि लक्ष्मी पण था. हाल हुँ लक्ष्मी तो आपुं! एम मानी वामन नपी लक्ष्मीने पण राजा देतो हवो. तेमज कन्या तथा कन्यानी मातादिकें पण ते वात प्रमा ण करी,अहोइति आश्चर्ये : जेमाटें वचननो निर्वाह ते महोटा पुरुषोने महो टा उत्साहनुं कारण ने शीघ्रपणे संपूर्ण ते कन्यारूप कार्य थवाथी देवता नी पेरें सत्यवादी राजानी परीक्षा वामने करी लीधी. हवे पोतानुं रूप तथा पोतानी शक्तिने प्रगट करवा माटें वामन कहे तो हवो के हे राजन् ! था महारा यावा कुत्सितरूपें करी आ रूपवान् कन्या साथें हाथ मेलावो केवी रीतें दुं करूं? माटे कांहिक स्वरूपपणुं करूं? पण वांनित साध्यकार्यनी सिदि जे थाय ने ते. जीवने साहसपणायकी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. थाय . जे बत्रीशे लक्षणे करी रहित पुरुष होय ते पुरुष पण साहस त था धैर्यने बले बत्रीश लक्षणो थाय . कयुं के ॥ यतः॥ अस्थिस्वर्थाः सुखं मांसे, त्वचि नोगाःस्त्रियोऽक्षिषु ॥ गतौ यानं स्वरे आझा, सत्त्वे सर्व प्र तिष्ठितं ॥ १ ॥ अर्थः-अस्थिने विषे धन अने मांसने विषे सुख, तथा नेत्रने विषे स्त्री,गतिने विषे वाहन, तथा स्वरने विषे आझा,रहीं . ए सर्व सत्त्ववंतने विषेप्रतिष्ठित जे. एरीतें पोतानुं खत्त्व आदरीने ते पुरुष,जात्यवं त सुवर्णनी पेरें शोने जे. जेम सुवर्ण अनियें तपायुं थकुं विशेष शोनाने पामे, तेम ढुं पण साहसिक थश्ने शीघ्रपणे महारा देहने स्वानाविक रूप वालो करीश ! देह कहेवो के ? तो के संदेहरहित उत्कृष्टी शोजानो करनारो . एम कहीने चय रचवानी सङा करी. पड़ी कौतुक जय अने खेदना उदयादिकें करी विचारयुक्त श्रयेला एवां सकल लोकनां देखतां थकां सत्त्व सहित ते वामन दीप्तिवंत ज्वालानीजटा रूप अनिने विषे पतंगनी पेठे पडतो हवो. पडीने तेज कणें तत्काल पाडो अमिथकी बाहिर निकटयो शहां एटली विचित्रता , के पतंग जे दीपकमां पडे , ते पाडगे निकल तो नथी, पण ए वामन पालो निकटयो ? ते आश्चर्य जे. अने महा महोटी औषधीना महिमाथकी एक रंचमात्र पण अमिमां ते बल्यो नहीं, तेमज तेने मणिना महिमाथकी अग्निथी निकलतां पूर्वदूं दिव्यरूप प्रगट थयु. ते जो सर्व लोक अत्यंत विस्मयवंत थयां थकां सर्व दास्यपणुं पाम्यां. तेवारे सर्व राजादिकें अत्यायहें करी कुमरने वामननुं कारण पूढे ते वखत यथार्थ साचेसाची वात कुमरें कही दीधी. मंत्रनी शक्ति कही महामणि तथा औषधीनो महिमा पण कह्यो, ते कहीने पडी ते कुमर औपधीने गो पन करतो हवो. कारण के तेमज ते बेनुं रक्षण करवू, ते योग्यज . दवे राजा अतिशय हर्षे करी, अतिशय महोत्सवें करी, जयकुमार त था जोगवती कन्यानो विवाह महोत्सव करतो हवो. जोगनी उपमावाली जोगवती कन्या तथा एकशो हाथी अने हजार घोडा राजायें कुमर जणी आप्या, तथा महेल, धन, वस्त्रादिक सर्व आप्यां. पडी जेम नोगिनी नाग कन्या साथें शेषनाग जोग करे, तेम महोटा आयहनो धणी जयराजा पण संपदा प्रत्ये पामीने नोगवती कन्यासाथै संसारनां सुख जोगवतो, आश्चर्य करतो, स्वेबायें रहेतो केटलोक काल व्यतीत करतो हवो. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४१ हवे एक दिवसें जयकुमार महा आमंबर संघातें अश्वक्रीडायें निकल्यो. चदुटा वचे आव्यो, तेने जो कोक स्त्री सखीने पूबवा लागी के,या कुंवर क्यांनो रहेनार ? कोण ? अने क्यां जाय ? तेवारे ते सखी ढोल जेवा गाढे शब्द तेने केहेती हवी के हे सखी ! था समे तो तें आश्चर्य उपजाव्युं ? कारण के ए तो आपणा राजानो जमा अश्वक्रीडायें जाय जे, तेने पण तुं जाणती नथी? एबुं लङाकारी वचन जयकुमार सांजली ने बामण दूमयो थ खेद धरतो थको एम विचारतो हवो, जे मानी पुरुषने ससराने घेर रहेवू न घटे केम के शास्त्रमा एम कयुं ॥ उत्त माः स्वगुणैःरख्याता, मध्यमास्तुपितुर्गुणैः ॥ अधमामातुलैः ख्याता, श्वसुरै रधमाधमाः॥१॥ अर्थः-उत्तम पुरुप पोताने गुणे जाणीतो थाय, अ ने मध्यम पिताने नामें उलखाय, तथा अधम पुरुष मोसालने नामें उन खाय अने ससराने नामें जे उत्सवाय तेतो अधमाधम जाणवो. पड़ी जेवो उत्साह सहित अश्वक्रीडायें जतो हतो, तेवो उत्साह रहित थयो. तदनंतर परिवार संघातें पालो पोताने घेर आव्यो. चित्तमा एम चिंत वतो हवो जे, सर्वथा मारे शहां रहेवू घटतुं नथी,अने वली जयपुरीये पण जq घटतुं नथी, शा माटें? के ते तो महोटा राज्यमां जोडाणो में अने में राज्यनी उपार्जना करी नथी माटें जेम ग्रह सूर्यसाथै मले शोना न पामे, तेम महारुं पण जाणवू. तेथी महोटुं राज्य उपार्जी जो नाइ पासें जावं, तो माझं महत्त्व कहेवाय ! ते महारा वशथकी राज्य पाम्यो , पण गुणें महोटो डे माटें कदाचित् ढुं राज्य रहितयको जावं, तो मारो अनादर करे, वली हूं सामान्य बुं माटें में निशाने घा पण देवाय नहीं. एवं विचारीने राज्य पामवानो मंत्र संचारतो हवो,पण प्रमादना वशथकी मंत्र न सांजस्यो, पद पदमां चूक पडवा लागी, प्रमादथकी विस्मरण थयो त्यारे जयकुमार खे द धरतो हवो के हा ! में प्रमादना वशथकी ए गुं कर्तुं ? वांडित राज्यनो आपनार एवो महा मंत्र विसास्यो ? अहो धिक्कार ने मने, के जे में प्रमा दमदें, अंध थश्ने एवी दिव्य वस्तु खोइ! हवे विजय,नाइ पासें जवाविना अन्य स्थलें मंत्रनी प्राप्ति नहिं थाय ! एम चिंतवी ते जयकुमार आकाश मार्गे उतावलो मणिने प्रनावें कामपुर नगरें, जेम मेघ समुपासें जाय, तेम जयकुमार नाश्नी परीक्षाने अथै गयो. अष्टांग मिमित्तियो थश्ने जा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. इना महेल बागल प्रकट थयो. प्रनात कालें जइ नाइ प्रत्ये एम कहेतो हवो, के झाने करीने दुं सर्व जाणुं , के तमो वे ना बो. घरथकी निकव्या, ने दिव्य वस्तु पाम्या, ते सर्व हुँ जाणुं बुं. बीजो पण सर्व संकेत कह्यो. ते सां नलीने विजयकुमार याश्चर्य पामतो, चित्तने विषे चमत्कार पामतो, नाश्ना वियोगनुं कुरक संजारतो, नेत्रने विपे आंसु धरतो, एम कहेतो हवो, के हे नै मित्तिक ! कहो के ते महारो नाइहमणां क्यांदशे? अने मुझने क्यारें मलशे? निमित्तियो बोल्यो तहारो ना देवतानी परें स्वेनायें परम सुखीयो थश्ने पृथ्वीनेविपे विचरे ,ते क्या हमणां तुमने मले? नित्य कलायें वधतो जे चश्मा तेनी साथें किरण- मलबुं जेम दूर ने, तेम ए वात पण पुष्कर डे, तो पण देवतानी परें दिव्य शक्तिना धणीने कांश बार्नु नथी. जेमात्रै विद्या ना उद्यमयी तत्काल मल पण थाय, परंतु तुमने नाश्नी संगत रूडी नहीं, ताहारे तो वेगलूंज रहे सारं. केम के ते महोटो ने तुं नानो. नाना नानी प्रौढ दि देखी ते सही नहीं शके, एटलामाटें तुं ए वात जवा दे ! निमि तियाना मुखथी एवी वाणी सांजली विजयकुमार कहेतो हवो, के तमें कहो बो तेवी वाणीयें तो बेदु नाश्ने त्रूट पडे? हे नइ ! ए बात तुं मुझने न कही श,ए मुझने नथी गमती. हुं कोई रीतें राज्य आपवा माटेज नाइने मलवा डं डं, पण ते निःस्टह ,स्नेहवंतो, वालकरूप जाणी मुझने नोजननी पेरें पोतार्नु राज्य यापीने गयो. ए महोटानो न्यायज . अने ढुं तो एने पुत्रनी पेठेज ,राज्य एनुज डे,मारे राज्यनो खप नथी,में राज्य पामवाने समे सर्व ठेकाणे तेने खोल्यो, पण ते क्यांहि न जज्यो. जेम पापीना हाथ मांथी निधान जाय,तेम ते महारा हाथमांथी गयो बे. माटे एवो अनियह ने के,ज्यारें नाइ मलशे,त्यारेज बत्र धरावीश, त्यारे चामर विंजावीश, त्यारें ज राजचिन्ह धरीश! एटलामाटे तुझमां जो शक्ति होय तो ते आर्यने शीघ्र पणे लाव. त्यारें तेणे कडं के कहो तो आकर्षण विद्यायें खेंचीने लावू ! एम कही हर्ष धरतो क्यांहि अदृश्य थ गयो. तेनी खबर पण न पडी. ए टलामां जेम वादल थकी सूर्य प्रगट थाय, तेम जयकुमार प्रगट थयेलो, पोताना मुख आगल आवी उनो रहेलो दीगो. हवे राजा जयकुमारने देखीने हर्ष पामतो विस्मित चित्तें साडात्रण कोड रोमराजी विकस्वर प्रये संत्रमपणे जय जय शब्द कहेतो जयकुमारने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४३ नमतो हवो. जयकुमारे तेने पोतानुं वृत्तांत कही, विजयकुमारने राज्य आपतां निषेधीने राज्य पामवानो मंत्र लेतो हवो. मंत्र लेने आकाश मार्गे थइ जोगवती नगरीयें यावीने सात दिवससुधी मंत्रनो जाप कयो, एटले सातमे दिवसें राजानी सनाने विषे निमित्तियो आवी राजाने एम कहेवा लाग्यो के हमणांज जो ताहारो पट्टहस्ती बलें करीने आलानस्थंन उन्मलीने नगरमा फरतो, लोकोने नपश्वकरतो थाय, तो तुं एम जाण जे जे आजथी पांच दिवस पर्यतज मारुवान ने ! माटे हे राजन् ! तुं परलो क योग्य नातुं बांधजे. ते सांनलीने राजा उद्देगित थयो, वैरास्य धरतो, निमित्तियाने तुष्टिप्रदान आपीने पुत्रने अनावें जयकुमारने राज्य आपीने तेज दिवसें सद्गुरु पासें जश्, चारित्र लेश, चारे थाहार बांमी, प्रमादनो परिहार करी, एकाग्रध्याने कायोत्सर्ग मुशयें रह्यो. पांचमे दिवसें घाति कर्म क्य करी, अंतगड केवली थइ, मोदें पहोतो. हवे जयकुमार प्रधानने राज्य सोंपी चतुरंगिणी सेना साथें पृथ्वी अचल जे तेने सेनाचक्रे चल विचल करतो थको जयपुरीयें यावतो हवो. तिहां चर पुरुप साथें कहेवराव्युं जे तमारो जमाइ जयकुमार आव्यो जे. एस माचार सांजली ते राजा महोत्सवथी पोतानां जमाइने नगरमा प्रवेश कराव तो हवो. राजा पोताना पुत्रने अयोग्य जाणीने जयकुमारने राज्य सोंपी पोतें चारित्र लश्ने मोदरूप राज्यलक्ष्मीनो नोक्ता थयो. हवे जयकुमारने, कामलता गणिकासाथें पूर्व नवनो प्रेम ते प्रेम मूक्यो न जाय तेमाटे वे राणीनी साथें त्रीजी कामलताने पण राणी करतो हवो. राजाना पुण्यथी गुं न थाय ? अनर्थ उपजावनारी ते अक्काने देशथी बाहेर काढतो हवो. जेमाटे महोटानो संतोष, अने राग, ते निष्फल न थाय. त्यांपण प्रधानने राज्य जलावी,त्रण प्रियासहित प्रेमरूप रागें वहेंचागो थको ते पोताना नाइ विजय पासें जतो हवो. पडी ते जयराजा पोतानी त्र ण स्त्रीयें करी,प्रनुशक्ति, मंत्रशक्ति, नत्साहशक्ति, तेणे करी जेम राजा शोने, तेम शोनतो हवो. तथा पराक्रमें करीने जेम न्याय शोने,तेम जयें करीने विज य शोजतो हवो. पनी त्यां विजयकुमारने औषधि अने महामणि, नेटणुं या पतो हवो. हवे विजयकुमार स्वप्न देखतो हवो के, रूपें करीने जगतने जी तती तथा विजया एवे नामें करीनेज विजयनी करनारी एवी जयंती नग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. रीना राजानी पुत्री विजयायें स्वयंवर मंरुपने विषे मुऊने वस्यो. एवं स्वप्न दे खीने प्रजातें जयकुमारने राज्य सोंपी मणिने प्रजावें आकाश मार्गे विद्याधर नी पेरें जयंती नगरीयें जड़, कौतुकथी यति कुरूप एवं कुबडानुं रूप करीने गोल जेम माखीयें वींटाय, तेम कौतुकी लोकोथी वट्यो थको स्वयंवर मंम पें जड़ ऊंचा शासन उपर वेगे. लांबा दांत, लांबा होठ, वांकी यांख, वांकुं नाक, हाथ पग वांका, एवा रूपनी चेष्टा देखीने कोने हास्य न उपजे ? हवे स्वयंवर मंरुपने मांचें बेठा एवा रूपवान् राजा मध्ये जेम श्वनी श्रेणिमां मांकडुं शोने, तेम ते विजयकुमर शोजतो हवो हवे स्वप्नमां गोदेवी कुंवरीने अधिकपणे कयुंके या विश्वमध्ये गुणें करी सर्वथी उत्कृष्ट वरने बरवानी तुं इक हो, तो स्वयंवर मंरुपमा जे कुबडो वेठो बे, तेनेज तुं पोतानी मेले वरजे. पी ते कुमरी राजवीयोनां मन हरती बत्ती सुखासने वेसी स्वयंवर मं hi यावी. एटले वेत्रधारिणीयें त्यां स्वयंरमां रहेला राजकुमारोना रा ज, देश, नगर, वय प्रमुखना वर्णन करयां, यद्यपि ते सर्व राजकुमरो एक न्याने वरवा माटें वे बे, तो पण जेम निर्गध कुसुमने नमरो तांगे, तेम ते कन्या, तेने गंमती हवी. त्यारें दासीयें विचायुं जे, राजकुमर तो सर्व में वर्ण व्या बे, परंतु बाकी एक कूबडो रह्यो बे. जो तेने नहिं वर्णयुं, तो पंक्ति दनुं पाप लागशे ! एवं विचारी खीजी यकी एम कहती हवी के राजानी पंक्ति तो मूकी, बाकी हो तो या एक रूपनुं निधान कूबडो रह्यो ने, जो वरती हो तो या कुबडाने वर. तेवारें ते राजकुंवरीयें वेत्रधारीनुं वचन सत्य करवाने देवयें दीधेला स्वनने अनुसारें उत्सुक थइने कुबडाने कंठें वरमाना नाखी. ते जो कुबडानी उपर ईर्ष्याविंत एवा सर्व राजा बोलता दवा के खरे कुबडा ! तुं वरमाला बांग, जो नहिं बांमीश, तो तारुं मस्तक बेदशुं. ते सांजलीने Fast कवा लाग्यो के इनाग्यो ! तमो तमारा दुर्भाग्य उपर द्वेष केम न थी करता ? महारी उपर शामाटे द्वेष करो हो ? विधातायें तमोने दुर्भागीया कस्या, तो मुफ उपर शुं रुसो बो ? ते सांजली सर्व राजा कुबडाने हवा तथा कन्या हरवाने प्रायुध लेइने साहामा धाता हवा. त्यारे कुबडो जे थ की लोक याश्चर्य पामे एवं कांक पराक्रम देखाडी, जेम सिंह हाथीने नसाडे, ते सर्व राजाने नसाडतो हवो. एथी कन्याना मातापिताने पो Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४५ ताना कार्यनी चिंता था, राजाउने मत्सरनाव थयो, देखनारा लोकोने जय ने याश्वर्य ययुं, एटला वानां सर्वे सार्थेज थयां एवामां तहां एक देव ताना विमान सरखी कांति धरतुं एवं विमान याव्युं, तेमांथी “ विजयरा जा जयवंतो चिरंजीव रहो " एवी बिरुदावली बोलतो एक पुरुष श्राव्यो, विजयकुमरें जाएयुं जे कोइक बंदिजन मागण खाव्यो बे, एवामां तो ते बोल्यो के हे विजय ! तुं राजा मध्ये उत्तम बो. कारण के दक्षिण श्रेणिना राजायें पोतानी कन्या पराववाने हेतुये प्रज्ञप्ति विद्याने वचनें तुने तेडवा माटें मुने मोकल्यो बे, ते कन्या, रूपें करी उत्कृष्ट वे, माटे तेने उत्कृष्टां वर जुवे बे, तेथी में प्रसन्न थइने विमानमा उतावला बेसो. एटली मारी प्रार्थना सफल करो. एवामां वली वीजो तेनो सखाइज याव्यो होय नहीं ? एवा वि मानमा बेसी वैताढ्यनी उत्तर श्रेणिना राजानी कन्या परणाववाने अथ कुमारने तेडवा माटे एक पुरुष याव्यो, तेने जोइ कुमरें विचायुं जे एक प्रा दूष्णो होय तेने जोजनने खर्थे जेम वे नोतरां खावे, तेम पूर्वना पुण्यना उदय श्री गुं न होय ? इहां जाएगवं हतुं ते सर्वे में जाएयुं. एम विचारीने कुबडा पशुं बांकीने मूल स्वरूप प्रगट करीने जेम राम सीताने परणे, तेम पहेलां तो ते स्वयंवरवाली कन्याने परणी, पढी विमानमां बेसी वेदु श्रेणिपति राजा न विजयवती ने जयंती एवे नामें वे कन्याने परस्यो. तिहां जेम कामदेवनी सायें रति ने प्रीति वे शोने, तेम कुमर शोभतो थको ससराना श्राग्रहथी केटोएक काल त्यां रही, नित्य शाश्वता परमेश्वरनी पूजा करतो, पोताना आत्मा कृतार्थ मानतो दिवस निर्गमतो. जेवुं बीज वाव्युं होय, तेवा फल पामीयें एम विचारी बन्ने ससरानी आज्ञा मागी, विद्याधरना सैन्य सं घातें कामपुर नगरें श्राव्यो. तिहां सर्व पुर लोकें महोत्सवें कर कुमरने त्र ए प्रिया सहित नगरमा प्रवेश कराव्या. पती पृथिवीने संकीर्ण करतो थको विद्याधर राजानुं सैन्य सायें लेइ श्राकाशमार्गे विमानमां बेसीने जयकु मार सहित पोताना पिताना नंदीपुर नगरे याव्यो. नंदी पुरनो राजा य न्य राजाना सैन्यनुं खागमन जाली, त्रास पामी, निमित्तियाने पूढीने तेने वचने कल्याण मानतो, पोतानुं सैन्य लइ उत्साहवंतयको महोटा बरें युद्ध करवा सन्मुख धाव्यो. जेम वे नदीनो समागम थाय ते म बे सैन्यनो मांहोमांहे समागम थयो. विजयकुमार सर्वने निवारीने Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. पोतें एकलो संग्राम करतो महिमायें वध्यो. औषधीना महिमाथी कोई श स्व श्रंगें लागे नहिं. पितानी सेनाना सर्व शस्त्र बेदतो, सर्वने शस्त्र रहि त करतो हवो. ए रीतें पिताने तथा सेनाने शस्त्ररहित जेवारें करयां, तेवा रें राजा पाढो फस्यो. राजाने शस्त्र ज्ञान घणुं वे पण शस्त्र नथी तेवारें वि लखो तो हवो. एवामां विजयकुमार ने जयकुमार बेहु पितानी पासें वीने अपराध खमावी नमता हवा. पुत्रोने तिहां उलखीने परम उल्ला स पामतो हमेने वों खालिंगन करी राजा एम कहेतो दवा के हे वत्स ! तमारा वियोग दुःखें करीने तमारां देशाटना शो वर्ष ते सो कल्प सरखां मुने थयां, एम पितायें पुत्रप्रत्यें जेम स्वप्नादिक दीठां हतां तेम सर्व स्व नाकिनी बात कही, खाने वली ते राजा पोताना पुत्रनी मनुष्य बतां देवता जेवी ६ देखीने घणुं रीऊ पामतो हवो हवे जय विजयें पण घरथकी नि कल्या पी पाठा घेर ऋद्धि लइने याव्या त्यांसुधीनुं सर्व वृत्तांत कल्युं एवं पुत्रोनुं प्रतिशयवंत वृत्तांत सांजलीने पिता रीज्यो. पठी महोटा महोत्सवें पुत्रोने घेर तेडी लाग्यो, अने वे पुत्रने राज्यनी प्रार्थना करवा लाग्यो, त्यारें विजयना कहेवाथी जयकुमारने राज्यनो जार सोंपी राजा ऋण रा सहित मोह पामवाने यर्थे दीक्षा जेतो हवो. हवे जयकुमार नयधीर कुमारने राज्यनो नार यापीने विष्णुने बलदेव नी पेठें विजय राजानी पासें जय राजा स्वेच्छायें रहेतो हवो. पती जय वि जय वेडुना देश साधवा निकल्या, जेम रूपियो त्रण योगनुं साधन करे, ते म जयराजा त्रण खंमप्रत्यें साथतो हवो. त्रणे खंममध्ये प्राण वर्त्तावी कामपुर नगरे खाव्या. तिहां विजयराजाना नामथी कामपुरनुं नाम विज यपुर राख्युं, तिहां विजयराजा घणा कालसुधी वासुदेवनी पेठें राज्य जो गवतो घणा राजवीयोयें सेवातो काल निर्गमन करतो हवो. • एकदा जिनकल्पीनी पेरें एकला विहार करता एवा गुणाकर नामें केव ली भगवान् तिहां खावी समोसवा ते जाणीने जयविजय वे जाइ महो टी ऋषि ने पोतानी स्त्रीयो प्रमुख परिवारसहित केवली भगवानने वां दवा याव्या, वांदी यथोचित स्थाने वेसता हवा. पढी केवली जगवानें ध मदेशना प्रारंभी ॥ यतः ॥ अरिहंत देवो गुरुणो, सुसादुलो जिणमयं मह पमा ॥ इच्चाई सुह जावो, सम्मत्तं बिंति जगगुरुणो ॥ १ ॥ सम्मत्तंमि व Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित.. ४७ लक्षे, विमाणवऊनबंधए आउ ॥ जति न सम्मत्त जहा, अहवा न बंधए वुहि॥२॥ इत्यादिक धर्म देशना सांजलीने पडे जय विजय पोताना पूर्वला जव पूबता हवा. तेवारें केवली नगवान कहेवा लाग्या के जूतिलक पुर न गरने विषे शक्विंता एवा नानु अने जामर नामें बेदु नाश् वसता हता. एक दिवसें पोताना पितानुं श्राम, तेमाटे खीर रांधी ते खीर कुतरीये श्रावी अनडावी देखी बेदु जायें कुतरीने मारी, तेथी तेनी कड जांगी गई, तेने सीधे ते नूमियें पडती हवी. एवामां एक पाडो अति थाकेलो, नूरख्यो तर स्यो, आंसु नाखतो ते कुतरीपासे याव्यो. वेदुनी आंखमांथी बांसु जरे जे, तेवार ते पाडोकुतरीनी साथें आलाप करवा लाग्यो अने मनुष्यवाणी महो टेसादें परस्पर वेदु बोलवा लाग्यां. ते वेदुनो शब्द सांजलतां त्यां सर्व कोआ श्चर्य पाम्यां. एवामां तिहां एक शानी मुनि आव्या, तेमने वे नायें पूब्यु त्यारें मुनि कहेवा लाग्या के ए गुनी ! अने महीप! वेदु ए तमारां पाउला नवनां माता पिता ,पाडव्या नवें एमने मिथ्यात्व हतुं,तेना उदयथी सात नव कुतरी अने पाडाना थया. तिहां साते जवने विपे ए रीतें मनुष्यना हाथें मार खाइने मरण पाम्यां . या आठमो नव , ते अकाम निर्जरायें करी, एमने जातिस्मरण झान उपन्यु, तेथी मनमां जाणे जे जे आज अमारे अर्थ श्राम करे , अने अमारी तो था अवस्था पमाडी ? माटे धिक्कार पडो ए मूढपणाने! एम मांहोमांहे बेतु सुख दुःखनी वातो करे . तेमाटे हंत इति खेदे ए मिथ्यात्वने गंमीने आदरसहित समकितने अंगीकार करो, ते विना देवलोकनी गति नथी, ए सर्व धर्मथकी उत्तम धर्म . जेथी मोद पामवो मुलन बे, ए समकितथकी जिननामकर्म पण श्रेणिकादिकनी पेठे पाम सुलन थाय जे. जेने बीजु कोश्वत मात्र पण नथी तो पण एकज समकेत पालवाथकी शीघ्र तीर्थकर पदवी बांधे, जो पूर्वकोटि पर्यंत अत्यंत आकरी तपश्चर्या करे तो पण समकेतविना मिथ्यात्वी जीव पांचमा ब्रह्म देव लोकसुधी जाय. एवी गुरुनी वाणी सांजलीने जानु अने जामर आदें देश्ने सर्व परिवार प्रतिबोध पाम्यो. समकेतवंत थया. वली कुतरी अने पा डो पण समकेत पामी शीघ्र अनशन आराधी सौधर्म देवलोकें गया. ते बेदु देवता देवलोकथी यावीने पोतानी देवता संबंधी कृति देखाडीने नानु तथा नामरने धर्म पमाडी देवलोकें गया. देवतत्व, गुरुतत्त्व अने धर्म Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ज जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. तत्त्वना आराधनने विपे बेदु नाइने एकाग्रता थइ, परंतु संसारसुखना लालची , तेथी धर्मनी क्रियाने विषे ते वे नाइ बालसु ले. तेथी विष्णुने जेम एक सुदर्शनचक जगतने जीतनारं हतुं तेम सुदर्शनरूप एकज समकेतने पाम्या थका रह्या. हवे ते बे नाश्नी बे बे स्त्रीयो ने तेमनी एके कनी वे वे वाहाली सखीयो ,ते वे स्त्रीनी वाणीये ते चारे सखीयो पण समकित पामती हवी. सत्संगतिनो एवोज गुण ॥ दोहो ॥ साधु मल्ये सुख उपजे, जल मले मल जाय ॥ साहमाने पावन करे, पोतें पावन थाय. एकदा अन्य दर्शनीने वचने जानुने त्रण तत्त्वने विषे शंका उपनी, जेम उज्ज्वल वस्त्रने माघ लागे तेम शंका करवाथी माघ लागो पण निंदा करे नही. वली नानुनी स्त्री महोटा कुलनी उपनी हती तेणे स्त्रीनी तुब जाति माटे कुलनो मद कस्यो तेणे करी नीच कुलें उपनी. सर्वे घायुष्य पूरुं करी सौधर्म देवलोकें जई उपन्या. त्यांची चवीने सर्वे तमो इहां आवी उपन्यां बो.त्रण तत्त्वना आराधवाथीत्रण दिव्य वस्तु पाम्यां. वलीावीत्रण स्त्री मली अने त्रण खंमनुं राज्य पाम्यां. नानुने पूर्वजवं त्रए वार त्राणतत्त्वने विपे शंका उपनी तेथी त्रणदिव्य वस्तु गइ. जयराजानी पूर्वनवनी स्त्रीय कुलमद करयो तेथी गणिकाना नीचकुलें आवी नपनी, एवी वाणी सांजली जयादिक सर्वने जातिस्मरण उपन्यु. तेथी सर्व जनो धर्मविपे दृढ थइने श्रावकनो धर्म समकित सहित अंगीकार करता हवा. केवलीयें विहार कस्यो. जयविजयादिक सदु पोत पोताने घेर अाव्या. हवे विजयराजा पृथ्वीने विषे समकित धर्म प्रवर्त्तावता हवा. जनधर्म च लाववे करीने एकत्र पृथ्वी करी. राजानी आझायें सर्व तेम करता हवा. चार श्रमादिक सडसन बोलें करीने शु६ समकितने पालतो, पलावतो थको विषम संकटने विषेपण क्यांही स्खलना पामतो न हवो. नाना प्रका रें करी नानाप्रकारनी चैत्य पूजादिक करतो, देवयात्रा संघनक्ति इत्यादिक नित्य करणीना करवाथी समकितने दीपावतो, सर्व मिथ्यात्वनो नाश कर तो हवो. विजयराजाने विजया देवी प्रमुख त्रणे राणीने १ नंदन, श्या नंदन अने ३ सुंदर, एवे नामे त्रण पुत्र थया. ___ एकदा शकें पूर्व महा विदेहत्रे विहरमान परमेश्वरने प्रबतो वो के, हमणां जरतक्षेत्रे जिनधर्मने विषे दृढ एवो को श्रावक ? जेमस Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए मुश्ने विषे लवण समुनी एलानुं प्रयोजन नही,तेम जरतदेवनी लानु झुं प्रयोजन ? एम को पूजे तिहां कहे , के जरतदेवनी साथें सौधर्मे ने स्वामिपणानो संबंध में, ए प्रयोजन माटें पूज्युं, त्यारें परमेश्वर का के पोताना धर्मने विषे वज सरखो दृढ एवो विजयपुर नगरने विषे विजय राजा जे. जेम वायराथी मेरु पर्वत चलायमान थतो नथी, तेम तेने पण कदापि कोई देवता आवीने पोताना पराक्रमथी चलावे, तो पण ते पोता ना धर्मथकी न चले. एवं परमेश्वरनुं वचन सांजलीने इंश हर्षित थश्ने पो तानी सनामध्ये विजय राजानी प्रशंसा करतो हवो. ते प्रशंसा सांजलीने कोक मिथ्यात्वी देवता एम विचारवा लाग्यो के,दुं जश्ने इंश्नु वचन खोटुं करुं ! हवे ते देवता जैन अवधूतनो वेष करी,विजय राजानी पासें आवी, पोतानी कलाना कुशलपणायें करी,राजाने रीझवी वश कस्यो. जेम विनीत शिष्य गुरु वचन सत्य करी माने, तेम अवधूतना वचन राजायें मान्यां. हवे एकदा राजानी साथें अवधूत धर्मचर्चा करतो, निगोदादिकना सू क्ष्म विचारना संशय देखाडतो राजाने पूवा लाग्यो. तत्त्वप्रकाशमां माह्या एवा राजायें जेम हाथी सुंढे करी वृदने समूल उन्मूलन करे तैम युक्तिरूप सुंढे करी शीघ्रपणे तेनो मूलमाथी सर्व संशय काढयो, त्यारे अवधूत रा जाने कहेवा लाग्यो. अहो ! सर्वज्ञनो धर्म घणो रूडो , जेथी कर्मक्ष्य करीने मोदें जवाय,परंतु विशेषपणे ते धर्मनो कोइथी निर्वाह थाय नहिं, ते घणो कुष्कर , खड्गधारानी गति सरखो ,माटे तेने रूडी रीतें करवाने को ए समर्थ थाय? अपि तु कोइ न थाय. त्यारे राजायें कडं जे ए धर्मना निर्वाहक साधुजन . राजानुं ते वचन सनिलीने ते अंवधूत मस्तक धू गावतो कहेवा लाग्यो के, ए ऋषियो तो आमंबरी जे. एना अंतःकरणनी स्थिति कोण जाणे में ? राजा, अवधूतनुं एवं वचन सांजलीने खेद करतो एम कहेवा लाग्यो के,हे नूंमा ! तुं ए झुं बोले ? जैनमुनि माहानाग्यना धणीने, वीतरागना मुनियोना धर्ममां वो संवाद क्यांय नथी? जेम सर्वत्र नुं वचन तेम जैनमुनिनुं वचन पण जाणवं. त्यारें फ़री ते अवधूत कहेवा लाग्यो के पूर्व हुँ ए कृषियोमा रह्यो बुं,तेथी सर्व जाणुं हुं जे ए कहे जे ए क, अने करे ने बीजं, जो एम न होय तो हुँ केम कहुँ के ए मात्र दर्शन रूप ले पण महारा सर्व जाणेला ये तो हुँ जूतुं कम बोलुं ? माटे हे राज Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. न् ! प्रथम साधुनुं पारखं कस्याविना आदर करवो नहीं. कारण के बुदि यतिउने जितेंश्यिपणुं क्याथी होय? अरिहंतना यतिने यतिपणुं विशेषे हो यज नहीं. तेवारें राजा बोल्यो ऋषिनी परीक्षा ते शी करवी ? में तो सु वर्णनी पेरें रूडी रीतें परीक्षा करेलीज डे, तो पण तुं कहे डे, ने जो तुम ने संदेह होय तो वली पण यथायोग्यपणे आपणे परीक्षा करमु. एवामां देवमायायें करी तिहां कोइ उत्तम गुरु याचार्य घणा साधुना प रिवारें वनमां आवी समोसखा. तिहां अवधूत अने राजा गया ते वखत महारोआ जन्म सफल थयो,एम कहाने राजायें मुनिना गुण वर्णववा मां मया. त्यारे ते अवधूत कहेवा लाग्यो के,मणिनी पेरें परीक्षाने विपे उद्यम करो, पढी गुण वर्णवादिक यथायोग्यपणे जे करवू घटे ते करजो. परीक्षा ते नष्टचर्यायें थाय. त्यारे राजा कहे के तमें कर्तुं एमज करीये. हवे राजा अवधूतनो प्रेयो, परीक्षा करवाने अर्थे अवधूतने लइ अंधारी रात्रं ति हां गयो एवामां राजायें एक मुनिने मदिरा, मांस, वेश्या बासक्त बाल क्रीडा करतो देख्यो ते वखत राजाने रोष, मद, इंडिय, संसारवैराग्य, उद्येग अने विन्रम, धर्मने विषे एकनाव धरतो थयो, तेणें करी तेने सर्व नावनुं मिश्रितपणुं थयु, पनी विशेषनो जाण राजा कहे जे, हे मुन ! या झुं करो बो? ए असमंजस करवू तमने घटतुं नयी ॥ यतः ॥ क क्रीडितं सूरीश्स्य, क विष्टा कीटकस्य च ॥क चारित्रं पवित्रं ते. क्वचे दं उष्टचेष्टितं ॥ १॥ किं ज्ञानं दर्शनं किं वा, किं चारित्रं च किं तपः ॥ कोजापः का क्रिया का झीः, कानीरेवं करोषि किं ॥ २ ॥ धिक् त्वां धिक तां च बुदि, धिक् ते वेषं च दांनिकम् ॥ धिक् ते निःशंकचित्तत्वं. घिग्नवं विषयांश्च धिक् ॥ ३ ॥ अत्रापि च परत्रापि, नविता नवतः क्व तु ॥ स्था नं च तस्य उःखानि, सोढा प्रौढान्यहो कथं ॥॥ निःकलंकस्य धर्मस्य,कलं कोजावनानवान् ॥ अनंतफुःखप्रनवं, ह्यनंतं नमिता नवं ॥५॥ अर्थःहे मुने ! सूरीनु जे क्रीडित ते क्या, अने कीटकनी जे विष्ठा ते क्या ? वली तारुं पवित्र एवं जे चारित्र ते क्या? अने था हमणां तें आदरेलं एवं जे मुश्चेष्टित ते क्या ? ॥१॥ वली हे मुने ! तारूं ज्ञान युं ? तारूंद शंन युं ? तारुं चारित्र गुंडे ? तारूं तप झुंडे ? तारो जाप शुंने ? ता री क्रिया शुं वे ? तारी लड़ा गुं ले ? तारो जय मुंडे ? ए सर्व विचार कर, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ५१ यातुं करे ? ॥ २ ॥ तुने धिक्कार हो, तथा तारी बुद्धिने पण धिक्कार हो. तारा दांनिक मुनिना वेषने पण धिक्कार हो. तारा निःशंक चि तपणाने धिक्कार हो, तथा तारा संसारने अने विषयाने पण धिक्कार हो ॥ ३॥ या लोकमां ने परलोकमां कोइ ठेका पण तारुं दुःखनुंज स्थान बे. अहो इति श्राश्वर्ये ते स्थानकनां प्रौढ एवां दुःखने तुं केम सहन करी श कीश ॥ ४ ॥ वली निःकलंक एवा जिनधर्मने कलंकना उत्पन्न करवाथी तुं नंतडुःखनी जेमां उत्पत्ति बे एवा संसारमां अनंता जव भ्रमण करीश ॥ ५॥ जे ए पतितनुं वचन . पण सर्वे कांइ एम करता नयी. एटला माठें हे तत्त्वना जाए ! ए कुकर्म बांम. तुं शुं तत्त्व जाणतो न थी जे कुकर्म करे बे ? एम कहेते थके राजाने साधु कहे बे. अहो राजा ! तुं तत्त्वज्ञाननो यजा थइने गुं मुऊने कहे बे ? सर्वे यतियो एमज करे बे, ए वस्तु ainवाने कोण समर्थ बे ? तुं यागल जाइश तो अमारां बीजा यतियोनां चरण जोश, तो तारी मेले तुं जाणीश. हवे राजा विचारे बे एम विचारतो या जाय बे, तो एक साधुने स्त्रीलंपट, एकने चोर, एक बहेडी, एक कसाइप शुं करतो, एक माढीनुं कर्म करतो, एवा देख्या. तेवारें राजायें विचायुं जे ए सर्वे ष्ट बे, ए सर्वने गुरुने कहीने शीघ्रपणे ग बहार सूका पान नी पेरें कढावीश ! एम चिंतवतो पोताने वने श्राव्यो. तेटलामां अंतः पुरमाथी गुरु निकल्या तेने राजायें दीग. हवे राजायें उद्वेगने संवेद धरतां जेवो तेने दीठो, तेवुंज अवधूतने कयुं. त्यारे अवधूत बोल्यो हे राजन् ? अमा रुं वचन वेदनी पेरें जुतुं न याय, ते माटे ए सर्वने धूर्त जाणीने विश्वास न करीश. हवे ते राजा पोतें मार्गानुसारी के माटे पोताना चित्तमां विचारवा लाग्यो के ए संाव्य वचन बे एवं संनवेज नहिं. ज्यारें एवं कुकर्म क रे, त्या सूर्यथी अंधकार केम नासे ? तेमाटे युगांतने विषे पण ए वात ब ने नहीं, साधु एवा होयज नहिं. साक्षात् साधु पण लोकमां बे. साधुं अथ वा जुतुं सर्वने विषे एम न होय, सर्वे हीणा बे एम जाणीने नास्ता राख वीए युक्त नहिं . एकवार मार्गे साथ लूंटालो एटलामाटें कुं सदाय साथ लूंटाशे ? एम ज्यारें होय, त्यारें तो कोई मार्गे चालेज नहिं. एटला माटे चारित्रिया तो सदाय पूज्य बे. एने तो कोइ क्रम मत यावी उपनो बे, तेथी निन्द्रवपणानो नाव नजे बे, एवो राजाना मनमां विचार उपन्यो. • Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ບ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. त्यारें राजाने प्रतीति उपजाववा माटे वली व्यवधूत कहे बे के हैं राजन् ! तुमने दृष्टिराग थाकरो बे. कामी नरनी पेठें तुं खोटुं देखीने पण राग ढांग तो नथी, माटें दृष्टिरागीने धर्म न होय धर्म तो तत्त्वनो निर्णय करे. ति हां रहे. राजा कहे में निर्णय कस्योज बे. सर्वज्ञनुं वचन सत्यज बे, ते सर्वझें कयुं बे जे गुरुपणानो नाव तेमां संदेह न राखवो. साधुने तुं जूठो करे बे, तेमाटे तुं मिय्यादृष्टि बो, तेथी तहारी साटें बोलवु युक्त नथी. एवा राजा नां वचन सांजली कपटनुं घर ते अवधूत पोताना प्रयासमां निष्फलताने पाम्यों, तेथी ते धूर्त विलखो थयो थको तिहांथी नवी गयो. राजायें तेने मिथ्या व जाफरी पाटी ते धूर्त्तनी खबर पण लोधी नहीं, धूर्त पण जतो रह्यो. अन्य दिवसें रात्रिने विषे राजा, प्रधान यादें देइने सर्व सनाना लोकोने कोक दिव्य पुरुष स्वप्नमध्ये यावीने कहेवा लाग्यो के या नगर मध्ये के वारें पण न थयो होय एवो खाकरो क्रोधवंत यमनी क्रीडाना खाकार जेवो सर्पनो उपव यशे, तेमाटें नगरने देहरे देदीप्यमान नागनी मूर्तिनी यादर सहित पूजा करो, तो उपव टले, जेम व्याधिने औषधनो उपाय नं, तेम एनो एक एज उपाय बे. बीजो कोइ उपाय उपव टलवानो नथी. वली प्रातःकालें कोइ निमित्तियो राजसनायें यावी, तेमज दिव्यपुरुष ना स्वप्ननी पेठेंज कहेतो हवो. स्वप्न तथा निमित्तियानी वात एकज म ली, जे वरतनी वे निशानी मली, ते वात निःसंदेह थइ एवं समजीने सर्व कोई ते नागराजानी पूजा अनेक प्रकारें विशेष करी करतां हवा. मरवानो जय कोने न होय ? समकितवंत राजाने सर्व प्रजायें नागनी पूजा करवा कयुं, पण राजीयें ते मान्युं नहिं. पूजाने विषे मन स्थाप्युं नहीं. शुद्धबुद्धि थी राजायें विचार के, जे कां थवानुं बे ते सर्व कर्माधीन बे, ते शुभाशुन जोगवेज बूटे, माटें इहलोक सुखनी वांबायें कोण पोताना धर्मने मलीन करे ? एम विचारी निर्भयपणुं कयुं. एवामां राजाना घरमां खाकरा बी हामा सर्प याव्या. ते कलिकालने विषे खल जेवा फूंफाडा मारता, फणा टोप करता, लोकने जय पमाडता, विकराल मुखवाला जाणे पृथ्वीनेज फाड शे के शुं ? एवा सप्पों राजाना अंतःपुरमां पण पेठा. सेने देखीने राजलोक सघतो त्रास पामतो दवो, तेवारें सर्वलोक क्लेशनुं ठेकाणुं जाणीने नागं asi बीजा घरमा गयीं, तिहां पण तेमज जेम जीवने कर्म पाउल था Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ५३ वी लागे, ते सर्प खावी तेमनी पाउल लागा. तेवारें सर्व प्रधानादिकें मली स्थान सनायें खावी राजाने कह्युं के हे राजन् ! तमें माह्या बो, मा टें तमारे कदाग्रह करवो घटे नहिं. धिक्कार पडो तमारा कदाग्रहने पंकि तने श्यो कदाग्रह करवो ? जो नहिं मानो, तो पोतानाज पोतें शत्रु थ ने कदाग्रह रंज्यो कहेवाशे, तेथी थोडा माटें घणो अनर्थ था. एटला माटें क्लेश शांतिने शुं हमयां प्रण नागनी पूजा करता नथी ? पढी जेम वैद्य विना व्याधि वधे तेनी शी गति थाय ? इत्यादिक मंत्रीयें घणुं कयुं, तो पण राजा दृढ थको नागनी पूजा न करतो हवो. त्याऐं क्रोधवंत थयो थको ते नाग स्वप्न मध्ये यावी, राजाने कहेवा लाग्यो के रे रे मूर्खा ! तुं मु वगणे बे, पण तें मारुं पराक्रम दीतुं नयी! हुं रूठो थको साक्षात् यम सरखो बुं, ने वो थको कल्पवृक्ष सरखो बुं, ते माटें तुं मुकने पूज. स कितनो कदाग्रह in अन्वयव्यतिरेकें करी जे बते ते तुं ने जे ते ते तुं, ते करी प्रगट फल प्रत्यें जोतो थको पण तुं महारी पू जा करतो नथी. समकेतरूप कदायतें करी ग्रयुं वे हृदय जेनुं एवा हे राजा ! याज प्रातःकालें नठीने पोतानी मेलें प्रजातें महारी पूजा तुं ज रूर करजे, जो तुं नहिं कर, तो तुमने, तारी जार्याने अने तारा पुत्रने य मने घेर मोकलीश. एम साक्षात् नागें कयुं तो पण समकितना दूषणने नये राजा ते नागप्रत्यें पूजतो न हवो. त्यारे ते काल जेवो नाग यावी ने राजाना पुत्रने मंसतो हवो, तेज वेलायें ते राजपुत्रने - मूर्छा यावी, तेथी भूमिकायें पढ्यो, तो पण राजा पूजा न करतो हवो, पढी राजानो परिणा म फस्यो नहीं, त्यारे ते नाग, पटराणीने पण मस्यो, ते पणं पुत्रनीज दशा पामी. एम बीजा वे पुत्र तथा वे राणीने पण मस्यो तेथी तेनी पण ए ज दशा थइ, तो पण राजा. लगारे न चव्यो ! त्यारे मंत्र, तंत्र, यौषधि प्र मुख उपचार करा, ते सर्वे निष्फल थया. राजादिक सर्वने घणो शोक यतो वो हवे चुं थशे ? शुं करधुं ? एम विकल्प करे बे, एवामां क स्मात् जालीयें कोइक देवतायेंज मोकव्यो होय नहिं ? एवो सर्व गारुडी मां सर एक गारुडी तिहां श्राव्यो. ते गारुडीने देखवा मात्रथीज जो पण जीववानी याशा सर्वने गइ बे, तो पण सर्वे मुदित यता ते गारुडी ने घणी यागता स्वागता करी यादरमान करता हवा. ते गारुडी कहे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. वा लाग्यो के हे पृथ्वीनाथ ! ए सर्पनुं विष घणुं विषम बे, असाध्यनी पेरें बे, तो पण हुं मारी शक्तियें करीने कोइक उपाये करी उतारीश. एम कहीने एक कन्याना हाथमां तनुं पात्र स्थापीने मंत्रित कर, पढी ते खं त जेवा गारुडीयें मंत्रीने ढांट्या, तेवामां तो ते देवता तिहां क न्याना शरीरमां उतरतो हवो. तेवारें ते गारुडी देवप्रत्यें कहेतो हवो के हे फणिपति ! तुं प्रसन्न यइने या दुःख . पामता सर्वने मूकी व्याप. ते वात सांजलीने कन्याना दिलमांथी ते देव बोल्यो के ए राजा निरंतर कदाग्रही बे, घने मने तो जाणतोज नथी माटें दुं तेने नहि मूकुं, मुने घणो एनी उपर रोप वे साहामुं ए राजाने पण जयानक पणे हुं मशीश कारणके देवता ना रोप विषम होय ते सांगली गारुडी कहे जे एटलुं कह्याथी रोषनुं फल थ युं. हवे प्रसन्न था . महोटाना क्रोध, प्रणाम करवाथी उतरी जाय. जो ग्रा गलो नमे, तो महान् पुरुष रोप नतारी नाखें, माटें तुं कहीश ते करावगुं. ते सांजली नागदेव बोल्यो हे गारुडी मुने ! श्राखुं जगत माने बे, पण सूका काष्ठ नी पेरें या राजा तो नमतोज नथी. एटला माटें मुकने एनी उपर क्रोधानि घणो बे. ते केम शमे ? शत्रु सरखाने पण मूके बे तो नम्यानेज केम जीव तान मूके ? एटला माटें तुं मुऊने कहीश मां, हुं नहीं मूकुं, जो नमे, तोज मूकुं. मंत्रवादी कहे ने हे राजन! तुं एने नम, एटले हुं एने कही ए अनर्थ थक नेमूका, बीजा सर्व उपायें सयुं. जो तुं प्रत्यन नमे तो मनथीज नम, एटले तारो नियम पण न जांगे. जीवने पुण्य पापनुं हेतु एक मनज बे. व जीतने विषे देवानियोगादिक यागार पण कह्यां बे, माटे तेमां दोप थोडा ने गुण घणा बे. जोय पण क्यांहि द्वार विना न होय महोटा कार्यने अ र्थे एक अंशमात्र दोष यादरीयें तो व्रतजंग न थाय. ताव यात्र्याना प्रथम दिवसें यन्ननो त्याग करवो ते गुणकारी बे माटे यहीं लांघणो थी उत्पन्न थयुं जे कुशपणुं ते पथ्यादिकथी टले ने माटे याही कदाचि तू दूषण लागे तो तुं प्रायश्चित्त लेजे. हे राजन! यतिधर्मने विषे उत्स ने अपवाद, ए वे धर्म कह्या बे. तो श्रावकने केम नहिं कह्या होय ? एटलामाटे तुं एकांत ताणे बे ते खोढुं करे बे. तुमने एकांत तारावं घंटे न हिं. धर्म तो स्याद्वाद खरो बे. अने स्याद्वादी तो एकांत ते मिथ्या बे. माटे हे राजन् ! कदाग्रह बांमीने तुं नाग राजाने पगे लाग, ताहरां वलन स्त्री पुत्रो Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ५५ ने जीवाड. नहिंतर ए सर्वनी हिंसा थशे. कयो बुद्धिमान् पोतानुं हित न साधे! ए प्रमाणे अर्हतमतने जाणनारो बने मंत्रवादीयें सयुक्तिक गारु डीनां वचनथी उत्पन्न थयु जे ज्ञान जेने एवो अने सत्त्वगुण तथा गौरवें करी गौर ने कांति जेनी एवो जिनमतनो जाण राजा कहेतो हवो के हे गा रुडी! आतारूं कहे सर्व कायर मनवालाने मानवायोग्य , मने तुंए वात कहीशज मां. धर्मने विषेधीर थयेलो एवो जे ढुं ते जो महारां प्राण जातां होतो,जलें जाउ, पण ढुंएने नहिं नमुं. कारण के अल्प अतिचारथकी पण धर्म नुसारपणुं जाय जे.जेम पगमध्ये कंटो वागवाथी प्राणी खोडो थाती नथी सुं? तेमाटे जे दूषण लगाडीने प्रायश्चित्त लेवं, तेथी दूषण न लगाडवु ए जरूडं !जो उत्सर्ग मार्गने विषे शक्ति न होय तो अपवाद यादरवो,पण स मर्थने अपवाद मार्ग सेववो घटतो नथी. वली तुं स्याहाद कहे जे ते परमे श्वरें कां पापकार्यने विषे स्याहाद कह्यो नथी. स्याहाद ते गुंडे ? अने कांत मार्ग . ते स्याहादीने करवा योग्य ,अने संसार संबंधि पुत्रनार्यादि कने तो अनंतीवार ढुं पामी आव्यो बुं, पण धर्म क्याहिं न पाम्यो. तेथी ते पुत्रादिकने माटे धर्मने नहीं उहवं, धर्म नहिं बांसु. स्त्रीपुत्रादिक सर्व व स्तुथकी पण प्राण वन्नन जे. तेनो पण नसें विनाश था, परंतु अंगीकार कस्यो जे धर्म, तेने अल्पमात्र पण ढुं नहिं खंडं, एटला माटें हे गारुडी ! जो तुऊमां बीजी को शक्ति होय, तो जीवाड. नहिं तर तुं तारे मार्गे शीघ्र चाल्यो जा. जाजी प्रार्थना करवी ते पण वृथा . जेमाटें जीवq ते आयुः कर्मने आधीन वे. आयुष्य त्रुटे, जीवाडवानो प्रयास निष्फल ले. एवं रा जानुं बोलवू सांजली गारुडी कोप्यो थको कहे के हे राजन् ! तुमने घि कार जे. तुं कदायहें ग्रस्त बतो महारी अवगणना करे . तो जे प्राणी हि तने अहित करी माने , ते कुर्बुद्धि जाणवो. तेनुं कल्याण न थाय. जेम रोगियो पुरुष नला वैद्यनुं वचन न माने, तो तेनो रोग केम जाय ? तुं कदायहरूप जे विष, तप जे वृद तेनां फलने हमणांज नोगवीश. हे नाग देव! ताहरे वा होय ते तुं कर, हुं हवे जावं .एम कहीने मंत्रवादी गारुडी उग्यो, तेवारें सूर्य पण नदय पाम्यो, ते जागीय विजयराजाना सत्त्वनुं अतिशयपणुं जोवानेज उग्यो होय नहीं ? तेवारें वली सर्प,लूटा मूक्या पाणी ना पूरनी पेरें अत्यंत दूरथी महोटा वेगें करी कोंधे जराणो थको राजानु Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. सत्त्व जोवाने काजें राजाने कहेतो हवो के हे अधम! तुं निःशंकचित्तें नन्म तनी पेठे सर्वने तृण समान गणे ने पण नथी जाणतो जे देवतानी शक्ति अत्यंत दु:सह ! जे मूर्ख होय ते निर्यात कस्या विना तथा अवलो सवलो फेरव्या विना ठेकाणे आवे नहीं. माटें हुँ ताहारा मूढपणानुं फल हमणाज तुमने देखाडं बुं, ते तुं जोजे. एम कहेतांज राजाने सर्व अंगें सर्प विंटाणा ने निर्दय था मंक देवा लाग्या. ते मंकथर्क राजाने कालज्वरनी पेरें सर्व प्रकारे सर्व शरीरें आकरी वेदना प्रगट थइ. सर्व अंग सडीसडीने त्रूटीपडवा लागां,जापीयें कोई बुरीयें करी बेदतोज होय नहिं ? पढी हा हा आउष्टनी चेष्टा जून! एमकतो थको सर्पनोमंसथीमुःख थयुं तेथी राजाबाकरी चीश पाडवा लाग्यो. ते सांजलीने केटलाएक कहे डे के राजाने मूळ आवी बे. पीडामां पण याकरी पीडा पाम्यो , सुःखमां पण करूं दुःख थयुं , बीहामणामां बीहामणो एवो राजा थयो दे. कोई सामुं पण जोइन शके, ते अवस्थानी वेदनायें करी राजायें पूर्वनवने विषे केवारें नरकनी वेद ना अनुनव। हशे, ते विस्मृत थ गयेली हमणां पाली जाणी होय नहि. एवी नावनायें राजा जेटले चिंतवे ने तेटले त्रण राणी त्रण पुत्रनी मृत्यु अवस्था सेवकने मुखें सांजली, तेवारे जेम दाज्या उपर कार मूके, तेम थयु. हवे ते वखत जे राजाने वेदना जे, ते जे जोगवे, तेज जाणे अथवा झानी जाणे! एवी उपमारहित कुःखनी अवस्थायें करी राजा वेदना जोग वे जे. एवामां वली ते मस्तक धूणावतो हृदयमां नम्रपणुं, दीनपणुं प्रगट कर तो राजा उपर दया आणतो एवोगारुडीयावी कहेतो हवो के हजी पण तमें तमारायात्मानु हित विचारी नागराजाने नमो, के जेथी तमारूं तथा तमारा कुटुंबनुं मुःख टले, ए विना बीजो कोई उपाय नथी! ते सांनलीने यद्यपि फुःखरूप वायरे तो कंपित डे तथापि व्रतने विषे मेरुनी पेरें अकंपित के एवा ते राजायें पूर्वनी परें उत्तर याप्यो के सत्पुरुषनीवाणी फरे नही. वलीते गारुडी प्रत्ये कहेतो हवो के हे गारुडी! एवात तुं सर्व प्रकारे मुमने कहीश मां, पण एक वात हुँ पूडं बुं,माटें जो तेनो मर्म जाणतो हो तो तुं कहे के, ए अत्यंत पीडा महाराथी सहेवाती नथी, एटला माटें महारं आयुष्य केटलुं ने ? तथा बीर्जु ए सर्प मारी पेलें बीजा कोइने करडे तो, ते केटलो काल जीवे ? त्यारें गारुडी कह्यु के ब महिना पीडा जोगवीने मरे माटे तुं तेट Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ५७ ला काल केम सुःख जोगवीश? ते कहे. तुं ते शामाटे छःस्व जोगवे ? हवे अतुल्य सत्त्वनो धणी राजा निर्विकल्प थको कहेतो हवो जो पण हुँ फूलनी पेरें उःख सहन करवा असमर्थ डं, तो पण धर्मने हेतुयें हुँ म हारुषिनी पेरें जुःख जोगबुं बु. माटें षट्मास तो गुं ? पण उ युग पर्यंत कां ए फुःख रहेतुं नथी ? सुख ते धर्महेतुयें अवश्य गुण जणीज थशे. जो धर्म खंम्यो होय तो अनंता नव नव नवांकुःख जोगववां पडे, तो तेथी कांश गुण थाय नहीं. अने कुरव जे जे, ते पुष्कृत जे पाप तेनाथी थाय , तेमाटे पापना दय थएज उःखनो क्य थाय ने सुकृतथकी सुख थाय, माटें ते सुकत करवाने विषे कोण दृढ परिणाम न धरे ? एवं राजा बोले , तेवामांज तिहां पंच दिव्य प्रकट थयां. १ वस्त्रनी वृष्टि, २ फुलनी वृष्टि, ३ सुवर्णनी वृष्टि, ४ देवउंनि थवा लाग्यां. ५ आकाशे रह्यो देवता अहोसत्त्वग्रहोसत्त्व एवी वाणी बोलवा लाग्यो, जेम श्रीअरिहंतने दान देतां पंचदिव्य प्रगट थाय, तेम इहां पण पंचदिव्य प्रगट थयां. ए सर्व दृढ धर्मनो महिमा जाणवो. राजाना शरीरने विषे शाता थइ कांइ पण वेदना रही नहिं. राजायें पोताना मुख बागल देदीप्यमान एवो देवता बोलतो थको दीठो, तेवामां स्त्रीयोने तथा पुत्रोना शरीरें शाता थर, ते दे खीने राजाना सेवकोयें आवी राजाने वधामणी दीधी मुखें मांगलिक बो लता हवा. देवता राजानी स्तुति करतो कहे , के हे नरदेव ! जगतमा तारो चिरंजय था. सत्त्वने विषे शिरोमणि एक तुंज डो, तेमाटें तुंने धन्य डे. तुं श्लाघनीयमांश्लाघनीय, तुं माननीयमा माननीय बो. जगतने विपे ताहरा सरखो अन्य कोज नथी. हे जगत्पते ! महा विदेह देत्रमा शकेंड नी बागल परमेश्वरें धर्मने विषे तारी दृढता वर्णवी. ते सांजली इंतहा री प्रशंसा करी, ते दुं अधमथको न मानतो हवो, तेथी तुमने चलाववा आव्यो. में देवमायायें करी सर्वदा शीलवंत साधुने उशीलिया करी देखा ज्या, पण अढीहीपथी बाहिरना समुजेम स्थिर ले तेम में ताहारा अंतः करणने विषे अने बाह्यने विषे धर्ममा स्थिरपणुं दीखें, तथा सादिकना जे में उपश्वो कस्या, ते पण तुमने धर्मथी चलाववा माटें कस्या. वली व गुनाचरण वाला मुनियो देखाड्या, तेथी कोइ पण पुरुषनां चित्त अल्प मात्र पण विकार पाम्याविना रहे नहीं. पण धन्य . तुऊने जे तुं दोन Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ե जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. पाम्यो नहीं. वली स्त्री तथा पुत्रने पण तें धर्मने अर्थे तृण तुल्य गण्यां.बी जो कोई होय तो स्त्री पुत्रने अर्थे माठां कर्म आचरण करे, पण तें ताह रा व्रतने विषे किंचिन्मात्र पण अतिचार लगाज्यो नहीं. माटें धन्य ने त हारा परिणामने ! तथा वली में तुमने वजानि सरखी वेदना करी ते वेदना तो तुंज सहे, बीजं कोण सहन करे ? हे राजन् ! हुँ तुमने चलावी शक्यो नहीं, तो बीजो कोण तुमने चलावी शकवा समर्थ थाय ? में मातुं कयुं. हुँ माहा उश्चेष्टित अमर्षे करी नस्यो . तुं अमर्ष रहित बो. जे महोटा पुरुषों ने, ते सर्व सहन करे , तेमने अवगुण ते साहामा गुणरूप थाय बे, माटे हे राजन् ! हुं तारो अपराधी . हवे मुझने किंकर जाणीने कां श्क कार्य कहे, जे हुँ तत्काल आज्ञाकारी थको करूं. राजा बोल्यो जेथकी सर्व वांनितार्थ सिह थाय, एवो कल्पवृद सरखो जे जैनधर्म, ते महारा हृदयने विषे अत्यंत स्थिरपणे रह्यो , तेने मूकीने गुं माणू? तथा ए उपर बीजी वस्तु शी ने ? जें तमें मुझने पशो ? मा टें जो तमें मुखथी बोल्या बो, तो ढुं कटुं बुं ते मने आपो. तेवारे तेणें क झुं के झुं था ? तेने रे राजायें कह्यु के तमो मिथ्यात्वने बांझीने समकित ने बादरो जेथकी तमारुं देवतापपुं सार्थक थाय ! ए मा{ जे. ते देवता, राजानुं एवं वचन सांजली समकित अंगीकार करी, हर्ष धरतो राजाने प गे लागी, आझा मागी पोताने स्थानकें गयो. ए रीतें विजय राजा समकि तने विपे दृढ थयो थको घणा कालपर्यंत राज्य जोगवतो हवो. हवे एक दिवस राजा एवं चिंतवे जे जे धिक्कार छे मुऊन के जेमात्रै हुँ याजसुधी पांगलानी पेठे चारित्र लेवाने उजमाल थतो नथी. तो तेविना मने मोद क्याथी मल? तथापि श्रदा जे समकेतनी शुद्धि ते जो करूं, तो मुझने तेथी चारित्र सुलन थाय, अने ए सम्यग्दर्शनथी मुझने केवल दर्शननो संनव थाय, तेमाटें उजमाल थश्ने सम्यगदर्शनने आराधुं ! एवं ध्यायीने राजा उजमाल थको देव, गुरु, धर्मना ध्यानने विषे एक ध्या न, एक तान, एकाग्रचित्त थयो थको समकेतर्नु नूषण जे तीर्थसेवा ते क रवाना हेतुयें राजा पोताना ज्येष्ठ पुत्रने राजपाटें स्थापीने श्रीसिक्षाचल जीनी यात्रा करवाने अर्थे जतो हवो, गढ जीतवाने अर्थे जेम को निक ले तेम मोह वैरीना गढने जीतवानी रखा करतो एवो राजा मोतिदि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. यूए नेत्र लोकने विषे उत्कृष्ट तीर्थ जे श्री सिद्धाचलजी जेनो अनंत म हिमा बे, जे नित्य बे, तेनो सर्वांगें करीने जेम विधि कह्यो बे, तेवा विधि सहित सर्व शरीरनी समर्थाइयें करीने ते तीर्थसेवा करतो त्रिकाल परमेश्वरनी पूजा करतो, चैत्यनी आशातना टालतो, पोताना जन्मने सफल करतो हवो. हवे विजय राजा अन्यदा संध्या समयें सुस्थिर श्रात्मायें परमेश्वरनी महो। पूजा करीने अद्भुत एवी सम्यग्दर्शन नामे जावना जावतो हवो. हो परमेश्वर ! तमें सुखें सधाय एवो बोधिधर्म कह्यो. जेना बलयकी तप, दान, क्रियादि कष्टकस्याविना पण संसारनो पार पामीयें, तिहां सर्व दोष रहित परमात्मा देव, सर्व श्राचारवंत एवा गुरु, सर्वज्ञ नापित धर्म, ए जैनमत उपरांत कोई अन्य धर्म ने नहिं. ए व्यवहारथी देव, गुरु तथा धर्म जाणवो. एवी रीतें विजय राजा जावना जावतो यात्मस्वरूपनुं चिंतवन करतो परमात्मपणुं ध्याववुं, जे ए यात्माज शुद्ध देव बे ने परम था चारवंत जे जावात्मा तेज गुरु बे. तथा यात्माना शुद्ध परिणामरूप ते नावधर्म जाणवो. एवी रीतें निश्वयथी देव, गुरु ने धर्मनी नावना जाववाना एकाय विशुध्यानें करीने मोह चढवानी निःश्रेणी एवी पक श्रेणियें चढ्यो. अहो ! जीवनी शक्ति केवी बे ? जून के ते वेला एतिहां रात्रि बे, तो पण राजाने अंधकारना समूहना नाशनुं करनार ए वा केवलज्ञानरूप सूर्यनो उदय थयो, जे वस्तु कष्टें नीपजे, ते कष्ट विना प्राप्त rs. पिता करतां पण पुत्र अधिक थयो, जेमाटे गृहस्थ बतां पण के वलज्ञान पाम्यो. एटले कोइ चारित्र लइ अत्यंत तप किया प्रमुख करे, तो पण केवलज्ञान, कष्टें पामे. ते चारित्रियो तो गृहस्थना पिता तुल्य बे ने पुत्र गृहस्थपणेज केवलज्ञान उपन्युं. ए मोटुं श्राश्वर्य ? ते राजऋषिने दे वतायें वेश खाप्यो, देवतायें पूजा करी, उत्सव कस्बो हवे विजय राजऋषि पोतानी त्रण स्त्री तथा पोतानो जाइ जयराजा ने वे पुत्र ते सर्वने प्रति बोधी शीघ्र दीक्षा लेवरावतो वो घणा कालसूधी पृथ्वीउपर विचरी ला ख वर्षनुं यायुष्य पाली, पोताना सर्व परिवार संघातें मोछें पहोतो. य हो ! जुन रूडा समकितनुं फल ! ॥ यतः ॥ याराधने च दृढता विषये फल स्य, प्राप्तावपीति विजयस्य जयस्य चोच्चैः ॥ श्रुत्वा सुदर्शन निदर्शनमद्भुतं नो, नव्याः सुदर्शनविधौ विधिवद्यतध्वं ॥ १ ॥ नावार्थ:- ए समकेतना या Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. राधनने विषे दृढता ने तेना फलनी प्राप्तिने विषे जय ने विजय राजा नुं दृष्टांत कयुं ते सांजलीने हे नव्यजीवो! तमें समकेतने विषे विधिसहि त यत्न करो ॥ इति सम्यक्त्वविषये जयविजय नृप कथानकं समाप्तं ॥ हवे प्रथम सम्यक्त्वनो जान, चार गतिने विषे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्ता ने थाय, कोइक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व प्रत्ययीया अनंतापुद् गल परावर्त्त संसारमां नमी पर्वतना पाषाणानी तथा नदीना पाषाण ने न्यायें अनाजोगें निपजाव्युं एवं जे यथा प्रवृत्तिकरण परिणाम विशेष रूप, तेणे करी एक त्र्यायुःकर्म वर्जित सात कर्मनी स्थिति पल्योपमने संख्यातमे जागें न्यून एक कोडा कोडी सागरोपमनी करे. इहां जीवने राग पने परिणामें इष्क में करी नीपजावी एवी निविड क केश घा कालनी ग्रंथि गांवनीपरें दुःखे नेदवा योग्य जे पूर्वे क्यारे पण नेदी न हती, ए ग्रंथी देशलगें नव्य पण यथाप्रवृत्तिकरणें करीने अनंती वार यावे. ए ग्रंथिदेशने विषे वर्त्ततो जव्य ग्रथवा अनव्य जीव प्रसंख्या तो काल रहे. त्यां रह्यो थको व्यश्रुत कांक कणा दश पूर्व जणे. यावत् श्री जिनतीर्थंकरनी ऋद्धि देखवाथकी, स्वर्गना सुखनो व्यनिलापी थको दी का जेने उत्कृष्टो यावत् नवमा ग्रैवेयकसुची अनव्यजीव पण जाय. इहां कांइक न्यून दश पूर्व ते मिथ्यात्वीयें ग्रह्मो, माटेंमिप्याश्रुत पण होय एट जे ज्यांसुधी नव पूर्व पूरण ने दशमा पूर्वनी त्रण वस्तुपर्यंत नो तिहां सुधी सम कितनी नजना जाणवी, खने जेहने चौद पूर्व अथवा दश पूर्व सं पूर्ण श्रुत होय तेने समकित श्रुत कहीयें. तेने नियमा समकित होय. शे प कांइक न्यून दश पूर्वधरादिकने सम कितनी नजना जाणवी कोइकने समकेत होय ने कोइकने न होय ॥ यक्तं कल्पनाष्ये ॥ चनदस दस यन्ने, नियमा समत्त सेस जयणा इति वचनात् ॥ हवे ते ग्रंथिने तीक्ष्ण कुहाडानी धारनी परें जीव अत्यंत विशुद्ध ध्यवसायें नेदीने मिथ्यात्वनी स्थितिने अंतर मुहूर्त्त उदय कथकी उपर यतिक्रमीने पूर्व करण ने निवृत्ति करण लक्षण विद्यु६ जनित जे सामर्थ्य तेणे करी अंतर्मुहूर्त कालप्रमाण प्रदेशें वेदवा योग्य दलियाने यावरूप अंतर कर करे . हवे एत्रण कानों अनुक्रम कहे बे. ते कल्प नाष्यमां कयुं बे ॥ जा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ६१ गंविता पढम,गंठी सम इजि नवे बीयं ॥ अनियहि करणं पुण, समत्त पुर रकडेजीवे ॥१॥ नावार्थ:-ज्यां ग्रंथिदेशे आव्यो त्यां (पढमं के०) पहेलं यथा प्रवृत्तिकरण कहीयें तथा ग्रंथिने जेदवाने श्वक ते बीजं अपूर्वकर ण जाणवू अने (अनियट्टिकरणंपुण के) त्रीखं अनिवृत्ति करण ते व ली (समत्त पुररकडे जीवे के०) समकेतने आगल कयुं ,जेणें एटले जेजी वने समकेत इकडं बे, ते जाणQ. . हवे अंतरकरण करे थके मिथ्यात्वनी बे स्थिति थाय : एक तो अं तरकरणथकी पहेली हेग्ली स्थिति अंतर्मुहूर्त प्रमाणनी होय अने ते हथकी उपरती वीजी स्थिति जाणवी. तेनी स्थापना. ०० तिहां प्रथम स्थितिने विषे तो अंतरमुहूर्त कालप्रमाणे मिथ्यात्वनां दलियां वेदवाथकी मिथ्यादृष्टिज कहीयें. वली ते अंतरमुहूर्त काल गयापली अंतरकरणने प हेले समयेंज मिथ्यात्वनां दलियां वेदवाना अनावथी जीव अंतरमुहूर्त का लप्रमाण उपशम समकित पामे. पली ते औषधनत उपशम समकेतना वलें करी शोध्या मीणाला कोदरानी तुव्य मिथ्यात्वदलिकना शुरू,अवि गुरु अने अगुफरूप त्रण पुंज करे एटले नपशम समकेतनो काल पण पूर्ण थाय, तेवारें उपशम समकितथी पज्यो थको जो शुभपुंजनो उदय यावे, तो दायोपशम समकेत पामे, अने जो अई विशुद्ध पुंजनो उदय था वे, तो त्रीजे मिश्रगुण गणे आवे, अने जो अशुभपुंजनो नदय आवे तो पाडो मिथ्यात्वे जाय ॥ उक्तं च ॥ कम्मग्गंथे सुधुवं, पढमोवसमी करे पुं जतियं ॥ तबडि पुण गवर,सम्मे मीसंमि मिळेव ॥ १ ॥ . नावार्थः-क र्मग्रंथने विषे निश्चे प्रथम उपशमवालो त्रण पुंज करे,तेथी पड्यो थको दा योपशमे अथवा मिों अथवा मिथ्यात्वे जाय, ए कर्मग्रंथनो मत जाणवो. हवे सिद्धांतनो मत कहे जेः- कोक अनादि मिथ्यादृष्टि तथाविध सा . मग्रीना वशथकी अपूर्व करणे करीने त्रण पुंज करे ते त्रण माहेला शुद्ध पुद्गल वेदतो थको उपशम समकितने अणपामेज प्रथम दायोपशम सम्य ग्दृष्टि थाय तथा अन्य कोश्क तो यथाप्रवृत्ति आदिक त्रण करण करीने अनुक्रमें अंतरकरणे उपशम समकित पामे, ते जीव त्रणपुंज तो करेज न ही. ते उपशम समकितथी पज्यो थको अवश्य मिथ्यात्वेंज जाय. कल्पना प्ये कह्यु ले के-बालंबण मलहंती,जह संगणं नमुंचए इलिया ॥ एवं अ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. कयतिपुंजी, मिडविय उवसमिए ॥ १॥ नावार्थः- आलंबन अण पा मती एवी इलिका जेम पोतानुं स्थानक न मूके, तेम जेणे त्रणपुंज कस्या नथी एवो जेउपशम समकेती जीव ते पाडो मिथ्यात्वे जाय पोतानुं स्थानक मूके नहीं ॥ १ ॥ प्रथम समकित पामेथके कोक समकित साथेंज देश विरति अथवा सर्वविरति अंगीकार करे . ते शतकनामें पांचमां कर्मग्रंथनी वृहत् चूर्णीने विपे कह्यं ॥ गाथाः-उचसमसम्मबिहि,अंतरकरणे निजी। को॥ देसविरईपि सप्त, कोपमत्तोपमत्त नापि ॥ सासायणो पुणनकि पि सहाति पुत्रय संक्रमणं कल्पनाष्ये नक्तं ॥ ___ मिथ्यात्व पुद्गलना दलियां लेइने समकित दृष्टि जीव प्रवईमान परि पामे समकेत पुंजमां तथा मिश्र पुंजमां संक्रमावे, अने मिश्रना पुजल ल इसमकेतमा संक्रमावे. तथा मिथ्यादृष्टि जीव समकेतना पुजल लइ मिथ्या त्वमा संक्रमावे, पण मिश्रमां संक्रमावे नही. मिथ्यात्व क्षीण कसा विना सम्यगदृष्टि नियमा त्रिपुंजी होय अने मि थ्यात्व वीणे हिजी होय, मिश्र की एक पुंजी होय, समकेत मोहिनी दय थये थके दायिक समकेती थाय. मीणाला कोदरानी कल्पनायें स मकेतना पुजल शोधेला होय तेने विरोधि तैलादिक व्यतुल्य एवा कुती र्थीना संसर्गथी कुशास्त्र सांजलवारूप मिथ्यात्वें करीने मिश्रित थया थ का तेहिज हणने विषे मिथ्यात्वपणुं थाय, तथा समकितथी पड्योथको वली समकित पामे, तेवारें अपूर्वनी पेठे अपूर्व करणे त्रण पुंज करी, अ निवृत्ति करणे करी,सम्यक्त्वना पुंजने विषे जाय. तेवारें पूर्व पाम्युं जे अपू वकरण तेनोज लान थाय, तेथी एने शी रीते अपूर्वपणुं कहीयें ? एवीशं काना निवारण माटे कहे , के अपूर्वनी पेरें अपूर्व थोडी वारज पामे. माटें अपूर्वज कहीयें एम वृक्ष पुरुषो कहे : तथा सिक्षांतने मतें तो समकेत पाम्यानी पेठे जेवारें देशविरति अथ वा सर्वविरतिपणुं पामे, तेवारे पण यथाप्रवृत्तिकरण अने अपूर्वकरण करे, पण अनिवृत्तिकरण न करे अपूर्वकरणनो काल संपूर्ण थये तेना अनंतर स मयेंज देशविरति अथवा सर्वविरतिनो लान थाय. देशविरति सर्वविरति पा मवा अनंतर अंतर्मुहूर्न यावत् अवश्य कोक जीव प्रवर्धमान परिणामे चो चडे, तेने उपर चडवानो नियम नथी तिहां कोश्क वधते परिणामें व Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ६३ धतोज रहे, अने कोइएक स्वनावेंज रहे अने कोइएक दीनपरिणामी थाय. जे कोइ जीव अनानोगे जाण्या विना को कारणें परिणामनी इवता थकी देशविरति अथवा सर्वविरति थकी पज्यो होय, ते जीव अनिवृत्त्या दिक करण कस्या विनाज फरीने दशविरति सर्वविरति पणाने पामे. एमज जे समकेती जीव थानोगें एटले जाणीनेज मिथ्यात्व प्रत्ये गयो, ते जघन्यथकी अंतरमुहूर्त काल रहे अने उत्कृष्टो रहे, तो घणे काले जे पूर्व करण कह्यां , ते करण पूर्वकज ते समकेतना नाव प्रत्ये पामे.ए क म्मपयडीनी वृत्तिमां कह्यु ले तथा सैद्धांतिकने मतें तो विराधित समकेत वालो अथवा समकेत सहित पणे होय, तो पण कोक जीव बही नरक पर्यंत जाय अने कर्मग्रंथने मतें तो समकेत सहित जीव वैमानिक विना अन्यस्थानकें उपजे नहीं. एम प्रवचनसारोवारनी टीकामां कडें . तथा कर्मग्रंथिकने मतें समकेत पामीने फरी समकेतथी पडेलो जीवकर्म प्र कतिनी नत्कृष्टी स्थिति पण बांधे अने सिद्धांतने अनिप्रायें तो जेणे यं थिनेद कस्यो होय ते उत्कृष्टी स्थितिनो बंध करेज नहीं. हवे ते समकेत औपशमिक, दायिक, दायोपशमिक वेदक अने सा स्वादन ए पांच जेदें . तिहां जे मिथ्यारूप दर्शन मोहनीयनो उपशम न स्वरूप ते ग्रंथिनेद करे, ते उपशमश्रेणिना आरंजकने विकल्पं होय. बीजो दायोपशम ते समकेतपुंज, मिश्रपुंज अने मिथ्यात्वपुंज, ए त्रण पुंजरूप दर्शनमोहनीयतुं क्यरूप जाणवु ते पकश्रेणि प्रारंजकने होय. त्रीजा छायोपशमनुं लक्षण कहे जेः-जे नदिरेला मिथ्यात्वंमोहनीय तेने विपाकोदयें करी जोगवी यकस्या तथा अणदिरेला मिथ्यात्वने उपशमा व्युं ते दायोपशम समकेत जाणवू. एने विषे शुरू मिथ्यात्वपुजना पुजलने विपाकोदयें करीने जोगवे तथा प्रदेशोदयें करीने तो अशुद्धमिथ्यात्व पुंजना पुजलने जोगवे. अने उपशमने विषे तो सर्वथा को पण पुंजना पुजल वें दे जोगवे नहीं. सर्व उपशमावी मूक्या , माटें ए.उपशम ते अपोजलिक जे अने हायोपशम पोजलिक . ए रीतें ए वे समकेत, नेदपणुं समजवू. चोथा वेदक समकेतनुं स्वरूप कहे जेः-अनंतानुबंधीनी चोकडी अने मिथ्यात्वना त्रए पुंजमांथी बे पुंज संपूर्ण क्ष्य करे बते अने समकेत पुंज Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ना पण सर्व पुजल क्ष्य करतां मात्र बेहला पुजल क्ष्य करवाने उजमाल थको चरमपुजल वेदनरूप क्योपशमनो हलो समय तेने वेदक समकेत कहीयें. पांचमा सास्वादननुं स्वरूप कहे :-नपशम समकेतर्नु वमन कर, ते सास्वादन कहीये. उपशम समकेतथी पडतो सास्वादनने फरसे. हवे ए पांचे समकेतनी स्थितिमानादिक कहे जेः-उपशमनो काल अं तरमुहूर्तनो, साश्वादननो काल आवलिकानो, वेदकनो काल एक सम यनो, दायिक समकेतनो तेत्रीश सागरोपम जाजेरा अने दायोपशम स मकेतनो काल बासठ सागरोपम प्रमाण जाणवो. सास्वादन अने उपशम, एबे समकेत उत्कृष्ट पणे आवे तो जीवने पांच वार आवे. अने वेदक तथा दायिक ए बे एकज वार आवे तेम वली छायोपशम असंख्यातीवार यावे तथा प्रथम मूक्यो तेनुं वली ग्रह ण करईं तेने आकर्ष कहिये ते एक नव आश्रयी तो श्रुतसमकेतीने उल्लष्टा एक सहस्त्र पृथक आकर्ष होय अने देशविर तिने एकशो पृथक आकर्ष होय तथा जघन्यथी तो सर्वने एकज आकर्ष होय, सास्वादन समकेत बीजे गुणठाणेज होय तथा नमशम समकेत चोथा गुणवाणाथी मामीने अग्यारमा गुणगाणासुधीना आठ गुग्गठाणे होय अ ने वेदक तथा क्योपशम एबे समकेतने चोथाथी सातमा सुधीना चार गु णगणां होय,तथा दायिकने चोथाथी चौदमासुधी अग्यार गुणगाणां होय. ___ समकेत पाम्या पनी उत्कृष्टथी नव पव्योपमें श्रावकपणुं पामे, तथा सर्व विरति नपराम, दयोपशमने असंख्याता सागरोपमना थांतरा होय. __ अप्रतिपाति सम्यग्दृष्टिने देवनव अथवा मनुष्यनवने विषे एक श्रेणि वर्जितने जेणे श्रेणि न करी होय ते सात अथवा आठ नवमां मोदे जाय. तथा दायिक समकेत वालो त्रीजे नवें अथवा चोथे नवें अथवा तेहीज नवें मोदें जाय,ते समकेत देवता, नारकी अने संख्यासंख्याता वर्षायुवाला चरम शरीरी मनुष्यने होय, तिहां जेणे सातप्रकृति क्य कस्यानी पूर्वेज घायु बां ध्यु होय,ते देवगति अथवा नरकगति प्रत्ये जश्ने तिहाथी मनुष्य था मो दें जाय तो त्रीजे नवें सिदि पामे,अने कदापि कोश्ये तिर्यच मनुष्यनुं था यु बांध्युं होय ते अवश्य असंख्याता वर्षायु वाला युगलीयामां जइ उपजे पण संख्याता वर्षना बाउखावालामां न उपजे. पड़ी ते युगलिया मरी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ६५ देवता थाय, तिहाथी मनुष्यपणुं पामी चोथे नवें मोदें जाय तथा जेणे आगला नवर्नु आयु न बांध्युं होय, एवा अबक्षायुवाला तो तेहीज नव मां पकश्रेणि करी मोदें जाय. ए एक जीवनी अपेक्षायें कह्यो. हवे घणा जीवनी अपेक्षायें समकेतनो उपयोग जघन्यथकी अने न त्कृष्टो अंतरमुहूर्त्तकाल अने क्योपशम रूप लब्धि तो एक जीवनी अपे दायें जघन्य अंतरमुहर्त अने नत्लष्टीलब्धि बासठ सागरोपम मनुष्य नवें अधिक जाणवी, एटने वे वार विजयादि विमाने अथवा त्रण वार बारमा देवलोकें जाय, तेवार पनी समकेतथी अणपज्योथको मोदें जाय अने घणा जीवनी अपेदायें तो समकेत सर्वकालें पामीये. हवे समकेतनुं यांतलं कहे जे. जघन्यथी तो कोक जीव समकेतथीप ड्यो थको वत्ती दर्शनावरणीय कर्मना योपशमथकी पाडो अंतरमुहूर्तमां समकेत पामे, तो अंतरमुहूर्त्तनुं अंतर पडे, अने उत्कृष्टथी घणी आशात ना वालो तो अपुजलपरावर्त्तनुं अांतरं नाखीने पनी फरी समकेत पामे,ते तीर्थकरनी, प्रवचननी, छाननी,प्राचार्यनी, गणधरनी, महर्दिकनी एटला नी याशातनावालाने अनंतो संसार थाय. अने घणा जीवनी अपेक्षायें आंतरानो अनाव जाणवो. इत्यादि आवश्यकवृत्तिने विपे कयुं बे.. __ अथवा समकेतना त्रण प्रकार , एक कारक, बीजो रोचक अने त्री जो दीपक. एवा त्रण नेद ने तेमांजे नलीरीतें कयानुष्ठाननी प्रवृत्ति करवी, कराववी, ते कारक समकेत विशुद्ध चारित्रीयाने होय तथा वीतरागना धर्म उपर रुचिमात्र होय पण क्रिया अनुष्ठाननी प्रवृत्ति पोतें न करे,ते रो चक समकेत,श्रेणिक कस्मादिकने जाणवू. तथा जे पोतें मिथ्यात्वी बतां प ण परने जीवादिक पदार्थने यथार्थपणे देखाडे, ते दीपक समकेत अनव्य एवा अंगारमर्दकाचार्यने दृष्टांतें जाणवू. । अथवा समकेत अनेक प्रकारें कहे . तिहांसमकेतने विषे रुचि राखे ते एकविध समकेत,हवे वे प्रकारनुं समकेत कहे जे. निसर्ग ते स्वनावधी अने उपदेश ते गुर्वादिकना उपदेशथकी, ए बे प्रकारें. तथा इव्यथकी ते गुरुपुजलनुं वेदन,अने नावथकी ते तत्त्वरुचिरूप तथा निश्चयथकी ते अपौ जलिक अने व्यवहारथकी ते पौजलिक इत्यादिक सर्व वे जेदें समकेत जाणवू. हवे त्रण नेदें कहे :-उपशम, दायिक अने क्योपशम, ए त्रण ने Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. तथा कारक, रोचक बने दीपक ए त्रण नेदें तथा दायिकादिक. त्रणमा सास्वादन नेलीये तेवारें चार प्रकारनुं समकेत थाय तथा ते चारनी साथें वेदक समकेत जोडीये तेवारें पांच जेदें समकेत थाय. हवे दशप्रकारनी रुचि ते दश प्रकारनुं समकेत जाणवं. तेनां नाम कहे . १ निसर्गरुचि, २ उपदेशरुचि, ३ आज्ञारुचि, ४ सूत्ररुचि, ५ बीजमचि, ६ अनिगमरुचि, '७ विस्ताररुचि, ८ किरियारुचि, ए संदेप रुचि, अने १० धर्मरुचि. हवे एनां स्वरूप कहे जेः १ जीव अजीवादिक नवपदार्थ ते बता ने एवी पोतानी बुधिये करी ते नी उपर स्वनावें रुचि धरे, ते निसर्ग समकेत जाणवू. एटले जीवादि पदा र्थ बता ने अबता जथी एवी जातिस्मरणरूप बुध्येि करी अथवा मति श्रुत झानने बलें करीने एवं जाणे जे श्रीवीतरागें दीला नाव ते एमज बे. ए रंचमात्र पण जूता नथी तेनी सुपर स्वयमेव पोतानी मेलें चार प्र कारनी सदहणा कराय ते निसर्गरुचि जाणवी. २ जीवादि पदार्थने इव्य, क्षेत्र, काल, नाव, ए चार ने करी तथा नाम, स्थापना, इव्य, नाव, ए चार निदेपे करी सदहे,बद्मस्य तथा बीत रागना उपदेश सांजलीने तेनी नपर रुचि रवाय, ते उपदेश रुवि जाणवी. ३ राग, क्षेप, मोह अज्ञानपणुं जेथकी नाश पाम्युं , तेनी आझा उप र रुचि धराय, ते आझारुचि जाणवी. आज्ञा ते आचार्य संबंधिनी जाणवी. ४ जीवादिक पदार्थने पडिवतो थको मापतुष झपिनी पेरें सूत्रने जणतो थको अग्यार अंग तथा अंगबाह्य सूत्रने अवगाहवे करी समकेत प्रत्ये पमाय, ते सूत्ररुचि जाणवी. __५ समकेत पामवाने माटे पाणीने विपे जेम तेलनो बिंड पसरे,तेम रह स्य ग्रहण करवाने अर्थ शाक्यनो नक्त कपट साधुनूत गोविंद वाचकनी पेरें एक पद लीधाथी अनेक पदनो प्रसार थाय गुण वधे,ते बीजरुचि जाणवी. ___६ जीवादिक एक पदनी रुचियें करी जीवादिकना अनेक पदने विषे रुचिवंत थाय ते अनिगमरुचि जाणवी. ___७ अगीयार अंग तथा पयन्नादिक, दृष्टिवादादिक प्रकीर्णक ते पयन्ना उत्तराध्यन प्रमुख. इत्यादिकने श्रुतझाने करीने जेणे सर्व इव्यना समस्त Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ६७ नावने सर्व प्रमाणे करीने जाण्या , सातनय प्रमुखनो विधि जाण्यो , ते विस्ताररुचि जाणवी. ___दर्शन शान चारित्रने विषे, तप तथा विनयने विषे, समिति गुप्तिने विषे, एम समस्त क्रियाने विषे नावथी रुचि रखाय,ते कियारुचि जाणवी. ___ एजेणे करी कुदृष्टि पाखंमीनी कुदृष्टि ग्रहण कराय नहिं, ते संदेपरुचि. १० आगमना जाणपणायें करी बीजा-शेष पदार्थ जे सांख्या दिकनां प्रवचन शास्त्र, तेने विषे चिलायति पुत्रनी पेरें अननिग्रहीत ,अनिग्रहीत नथी वली अस्तिकायधर्म, श्रुतधर्म,चारित्रधर्मने विषेज वीतरागना वचन प्र माणेज सद्दहणा करे, ते समकेतरुचि जाणवी. ए समकेतनुं स्वरूप कह्यु. हवे ए परमरहस्यनूत समकेत ले तेने विपे शंकादिक पांच अतिचार नं मवा, ते कहेवा माटें बही गाथा कहे . ॥ संका कंख विगिना, पसंस तह संयवो कुलिंगी सु॥सम्मत्तस्स श्यारे, पडिक्कमे देसियं सवं ॥६॥ अर्थः-प्रथम (संका के०) संदेह ते वे प्रकारनो , एक सर्वथकी सं देह अने बीजो देशथकी संदेह. तिहां सर्वथी संदेह ते गुं? तो के धर्म के के नथी? अथवा जैनधर्म सत्य ले के असत्य के ? इत्यादि सार्वविपयि क शंका जाणवी. अने देशविषयिक शंका, ते एकेक वस्तुना धर्मगोचर,ते जेम जीव तो डे परंतु ते सर्वगत डे के असर्वगत डे ? अथवा पृथ्वी आदि कने विषे जीवपणुं केम घटे? तथा निगोदादिक केम घटे ? तथा हमणां ने कालें चारित्रियाने विषे चारित्र ने किंवा नथी ? इत्यादिक बे प्रकारनी जे शंका ते श्रीवीतरागोक्त जे तत्त्व,तेने विषे अप्रतीति असदहणारूप समकित ने दूषण पमाडे ले. इहां केटलाएक हेतुगम्यनाव जे. जेम के वनस्पतियादि कने विषे सजीवपणाना प्रयोग कहे . वनस्पति सचेतनवंत ले जलादिक आहारें वृद्धि पामे जे आहार विना सूकाइ जती देखाय , मनुष्यादिकनी पेरें चय अपचयने पामे . तेनुं दृष्टांत श्रीआचारांगसूत्रमा कयुं . ते जेम केः- मनुष्यनो पण उत्पत्ति धर्म , अने वनस्पतिनो पण नत्पत्तिधर्म . मनुष्यना शरीरनो वृद्धि पामवानो स्वनावडे, तेम एनो पण ,मनुष्यनुं श रीर सचेतन , तेम एनुं पण शरीर सचेतन , तथा मनुष्यना शरीरने में Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. दवाथी तेमा रहेला हस्तादिक कुमलाय , तेम वनस्पतिनां पण शाखा दिक वेदवाथी ते पण कुमलाइ ज सूका जाय , मनुष्यनुं शरीर अन्न पानादिक थाहार लीये , तेम वनस्पतिनुं शरीर पण उदकादिक आहार लीये . तथा मनुष्यनुं शरीर अनित्य अशाश्वत , उस्कृष्टुं त्रण पत्योप मायु जोगव्या पनी अवश्य नाश पामे , तेम वनस्पतिनुं शरीर पण थ नित्य अशाश्वतुं . तथा मनुष्यतुं शरीर श्ट आहारें वृद्धि पामे अने अ निष्ट आहारें हानि पामे , तेम वनस्पति, शरीर पण थाय ने तथा म नुष्यना शरीरें रोगोत्पत्ति पांमुरपणुं पामवानो स्वनाव होय , तेणें करी विविध परिणाम नजे . तेम वनस्पतिनुं शरीर पण विविध रोगना वशथ की विविधपरिणामने नजे ,तेमाटे वनस्पतिमा सचेतनादिनाव हेतुगम्य . वली यतिने चारित्रनो पण तो जाव ले. जेमाटें दुप्पसह आचार्यसुधी चारित्र ने, जगवत्यादिकसूत्रने विष कह्यु , के आज्ञा सहितने चारित्र हो य अने आज्ञा रहितने चारित्र न होय माटें व्यामोह न करवो. तथा निगोदादिक संबंधि केटलाएक नाव केवनिगम्य , कह्यु ले के लो कमां असंख्याता गोला बे, ते एकेक गोतामां असंख्याती निगोद , वली एक निगोदने विषे अनंता जीव ,को पण कालें केवली जगवाननें कोई पूडे, तो एक निगोदमां जेटला जीव जे तेनो अनंतमो नाग मोदं गयो ने, एवं केवली कहे, माटे हां हेतुदृष्टांतादिक नथी. आझायें ग्रहवा योग्य पदार्थ डे ते आदायेंज ग्रहण करवा. श्रीजिननगणि क्षमाश्रमण पण कहे , के किहांएक मतिने पुर्वलप णे जो तथाविध आचार्यनो विरह होय, अथवा झानावरणीय कर्मना उद यथी जिहां हेतु उदाहरण न पामे, वारंवार पूछे थके प्रतिबोध न पामे,तो पण जाणे जे श्रीसर्वझनो मत खरो . तथा तेमज बुहियें करी चिंत जे परमाणुरूप परने अनुग्रह करवाने तत्पर, जगतने विपे प्रधान, राग शेष मोहने जीतनारा एवा जे जिनेश्वर ते अन्यथावादी नज होय सत्यनापीज होय. माटे श्रीजिनेश्वरना वचनमां शंका न करवी. हां शंकाने विपे दृष्टांत कहे जेः- कोक वे पुरुषं घणा कालसुधी सि ६ पुरुषनी सेवा कीधी, त्यारें तेणें प्रसन्न थश्ने, बन्नेनी कोटमा एकेकी मंत्राधिष्टित कंथा नाखीने कह्यु के, माससुधी निरंतर रात्रिदिवस ते कं Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ६ मांजराखवी, पढी काढीने जेवारें खंखेरशो, त्यारें पांचों सोनैया पडशे, ते माटे ए कंथा कंठमांज राखजो, काढशो मां. पढी तेमांथी एक जणे तो लोकनी शंकायें काढ़ी नाखी ने बीजायें पहेरी राखी, ते सुखियो थ यो ने जेणें काढी नाखी ते दुःखियो थयो. माटे शंका न करवी ॥ वे बीज कांदा नामें अतिचार कहे बे. अन्यदर्शनीनो कुमादिक गु ए लेशमात्र देखीने, तेना दर्शननी अभिलाषा वांबा करे, ते याकांदा कहि यें. ते पण एक सर्वयकी कांदा खने बीजी देशथकी आकांक्षा बे. तेमां सर्व पाखंमीना धर्मनी वांबा. ते सर्वथकी याकांक्षा जाणवी खने देशथकी कांदा ते सौगतादिक कोइ एकज दर्शननी वांडा रूप जाणवी. जेम के सौगत निरूप धर्मउपदेश्यो बे, जे धर्मने विपे कष्ठ नथी, नहावं. खावं, वस्त्र पहेरनुं, सुकुमाल शय्यायें सूतुं, इत्यादि सुख जोगववां एले करी धर्म माने ॥ यदाह ॥ मृद्दी शय्या प्रातरुवाय दुग्धं, पेयं मध्ये पानं पराह्ने ॥ शाखंमं शर्करा चार्धरात्रौ, मोक्षश्चांते शाक्यसिंहेन दृष्टः ॥ १ ॥ नावार्थ:- श्रतिसुकुमाल शय्यामां सूइ रहेनुं, प्रजातें उठी कढेलुं दूध पीतुं, मध्यान्हें पंचामृत जोजन करवां, पाउले पहारे शखनुं खा बुं, अर्धरात्रें साकर प्रमुख खावां, एम करवायी मराने अंतें मोह पामे. एम शाक्यसिंह, धर्म कहे बे. तेमज पारिव्राजक तापस जौतवादिक ब्राह्म गादिक जे बे, ते पण न्हावुं, धोतुं, स्वच्छ रहेतुं, संसारना विषय जोगववा प्रमुखें करी परलोकने विषे इति सुखसायें जोडाय, एबी रीतनो धर्म सा धवा उद्यम करावे बे. वली जेम उंची तथा नीची भूमीनुं क्षेत्र होय, तेवुंज बीज तथा तेवोज खेड करनारो पण तेने मजे. पठ। तेनुं फलतो ते भूमि, बीज, कर्षक वगेरे जेवां होय, तेवुं प्राप्त याय. तेम मुग्धबुद्धिवाला जीवो नीच उंच सर्वदर्शन प्राराधन करे बे तो तेने पूर्वोक्त क्षेत्रादिक वगेरेनी पेठें थाय बे. माटेवा पण परमार्थथी राखवी.एम जगवत्प्रणीत श्रागम तेनी अनास्था प्रतीतिरूप जे समकेतने दूषण लगाडे बे. ते उपर एकदृष्टांत कहे :aise धाराधि एवं नामें ब्राह्मण गोत्रदेवीनो याराधक हतो, ते वली चामुंमानो प्रनाव सांजलीने चामुंमादेवीने याराधतो हवो, एकदा ते ब्राह्म नदीना पूरमांहे तणालो, तेवारें बोल्यो के हे चामुंमादेवि ! मुकने राख, राख. वली हे गोत्रदेवि ! मुऊने राख, राख. एम वेडुंनां नाम पोकारतां बन्ने Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. देवीयो आवी अने बेतु देवीय मांदोमांहे ईर्ष्या पाणी तेथी तेमां एके पण ते ब्राह्मणने काढ्यो नही, तेथी ते पाणीमां मुबी मूवो. माटे नवनवा धर्म उपर वांबा न करवी.ए बीजो अतिचार. हवे त्रीजो वितिगिजा नामा अतिचार कहे . तपस्या करवी, तडके बेसवू,महाकष्ट करवू, इत्यादिक धर्मकार्यने विषे जे फलनो संदेह करवो,म नमां एवं जाणे जे आ धर्मकार्य करुं बुं, एनुं फल बागल थाशे के नहीं थाय ? ते विनिगिला, ते एक सफल अने बीजी निःफल ए वे देखाय जे. जेम कृषिकरनारने सफल अने निष्फलता देखाय ने ? तिहां एवं चिंतवे के श्रीजिनधर्मने विपे महोटा कष्टक्रिया अनुष्ठानादि क क्वेश , वेलुना कवलनी पेरें स्वाद रहित , वली ते धर्म आगल फ ल थापशे के नहि आपे ? चली ते मूर्ख एवं विचारे के साधुधर्म तथा श्रावकधर्मने नली रीतें आराधन करीने महोटा तपस्वीयो जे अंत अव स्थायें अनशन करी पंमित मरणें अंतसमये संकेत करीने कालधर्म पाम्या ते जो देवता थया होय तो इहां आवी आपणने पोतापणुं केम देवाड ता नथी? जे अमें धर्मने प्रजावे देवरूपें थया यें ? माटे तपस्या करवी, ते क्लेशमात्रज फल पामे. एवी संनावना करीयें बैयें. एवीरीतना विकल्पो ते मूर्ख कस्या करे, पण ते तत्त्वप्रत्ये जाणे नहिं. जे जलीरीतें धर्मना आ राधक जीव परनवें देवता थाय. ते तिहां विमानमां देवांगनादिक अने दिव्यमहर्दिकना तानें करी पूर्वनव संबंधना जे संबंधी होय. तेने क्यारे पण संनारे नहिं. कदापि स्मरण पण करे जे हमणांज ढुं महारा पूर्वनव ना संबंधीयोने जइ मझुं अने तेमने महारुं देवपणुं देखाडं! एवं चिंतव तो थको पण देवतासंबंधि जोगनी दिने विपे आसक्तपणे घणो काल व्यतीत थ जाय, तेटलामां तो पूर्वनव संबंधिया मनुष्यना आनखां पण पूर्ण थइ जाय, माटें एवी अडचणथी कोण आवीने पोतापणुं देखाडे ? तथा क्यां एक देवता प्रगट थक्ने पोतापणुं देखाडे पण जे. अने देव सं बंधि नोगनी झदि पण पूरे . तिहां अत्यंत स्नेहादिकें खेचाणो थको आवे , जेम गोनशेतनो जीव देवता थयो हतो, तेणें पोताना पुत्र शा लिनश्ने इहित पूर्ण कत्युं. तथा संग्रहणीकार कहे जे के देवता प्रेममां, तथा विषयमा संसक्त , अने करवा योग्य कार्य संपूर्ण जेणे करुयां ले ते Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १ थी मनुष्यना कार्यमां मनुष्यनवना अशुनने खता नथी, चारशे अथवा पांचशे योजन मनुष्यलोकनो गंध उंचो उबले , चंचो दुर्गध जाय , ते थी देवता मनुष्यलोकमां ावता नथी. मात्र तीर्थकरना पांच कल्याणिक ने विषे तथा महोटा ऋषिना तपना महिमाथकी अथवा पूर्वनवना स्नेह थकी देवता इहां मनुष्यलोकने विषे आवे ने. मात्रै प्रजुना वचनने विपे अ विश्वासरूप विचिकित्सा पण न करी. ए समकेतमां दोष उपजावनारी जे. हां आशंका करे , के शंका जे जे, ते पण संदेह वाचकज , तथा पि ए शंकाथकी विचिकित्सा जुदी कही, तो तेमां झुं विशेष ? इहां गु रु उत्तर कहे :-के शंका जे , ते इव्यविषयी तथा गुणविषयी बने विचिकित्सा ते क्रियाविषयीज , जे कोइ जीव अत्यंत विपरीतमतिवालो होय अने रूडा धर्म, आराधन पण करतो होय, तो पण पूर्वकत अगुन कर्मना उदयथकी कांक कष्ट पामे, तेवारें एम कहे जे धर्म करवाथी या मने दुःख प्राप्त थयुं, एवी चिंतवणा जे करवी ते विचिकित्सा जाणवी. हवे तेवी विचिकित्सा करनारने बांधलानी पेठे समकेतज क्याथी होय ? कारण के तेने धर्मना स्वरूपनुज अजाणपणुं ने, अने ते धर्मने जाणतोज नथी. का रण के अमृत पीवाथी को वखत मरण निपजे नहीं सूर्यथकी अंधकार प सरे नहीं, चश्माथकी अंगारा वरसे नहीं, कल्यवृदयकी दारिनो उप व न थाय, अमिथकी शीतल परानव न थाय, ते पण कदापि कोश्वखत दैवयोगें पूर्वोक्त अकस्मातो बने, तथापि धर्मकरणी करवाथकी कोई दिवस माणु थायज नहीं ! कारण के एवा विरूपनो संनव क्यारे थयो पण नयी, थातो पण नथी अने थाशे पण नहीं. वास्ते जो कोइ सामान्यजनने बाल देवं ते पण महोटा दोषजणी थाय ,तो वलीत्रणलोकने विपे अतिशयवंत, समस्तकल्याणनो करनारो नत्कृष्टो निमित्तनूत एवो जे धर्म ने तेना क्षेषकर नारा, वली परने पण बोधबीजना नाशना करनारा जे जे, ते पोतें उर्लन बोधी अनंतसंसारी होय ते जीवोनुं या नवें अने परजवें पण क्याथकी क व्याण थाय? अपितु नज थाय ॥ यतः ॥न निमित्तहिषां देमो,नायुवद्यकवि हिषां ॥ न श्रीर्नीतिक्षिा मेकमपिधर्महिपां नहि ॥१॥ जावार्थः- कयुं के नैमित्तिकना पीने कुशल न होय, वैद्यना षीने बान न होय, नी तिना षीने लक्ष्मी न होय अने धर्मना देषीने तो एमांथी एक पण Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. न होय. यहां महानिशीथमां रजा साध्वीनुं दृष्टांत कयुं जे ते कहे . नशचार्यना गहमां पांचशे साधु अने बारशे साधवी , तेना गहने विषे एक कांजीनुं पाणी, बीजुं जातनुं उसामण, त्रीजुं त्रण उकालानुं पा णी, ए त्रण मूकीने बीजां पाणी को वावरतुं नथी. एम करतां दैवयोगें रजा साध्वीनुं शरीर गलतकोटें बगडयुं, तेवारें बीजी साध्वीयें कह्यु के उक्करकार ! उक्करकार!! एवा प्रश्नोत्तरें रजायें कह्यु के ए शुं मुजने कहो बो? ए प्राशुकपाणीयें करीज महारुं शरीर बगडधु , एवां तेनां वचन सांजलीने साध्वनिनां हृदय दोन पाम्यां,जे हवे आपणे पण उमपाणी न पीवु, ते मां पण एक साध्वीयें एबुं चिंतव्युं जे हमणां अथवा पनी महाहं शरीर सडी सडीने कटका थइ जाय तो जलें थान, पण महारे तो नम जलज पी Q. नमपाणी पीवाथी शरीरनो विनाश न थाय,परंतु पूर्वनवकृत अशुजकम करीज विनाश थाय. एम विचारी खेद करवा लागी के हा धिक्कार हजो ए पापणीने के एणे न कहेवा योग्य असमंजस एवं आ वचन कह्यं ॥ यतः॥ किंकेण कस्स दिङ, विहियं को हरऽ हीरएकम्स ॥ स्यमप्पामाविदत्तं, अलिअ सुहंपि पुरकंपि ॥ ए रीतनुं ध्यान करतांज ने साध्वीने केवलज्ञान उपन्युं तेथी तेणे सर्व साध्वीयोना संदेहने टाल्यो.पडी र आर्यानो संदेह पूब्यो जे एने शाथकी रोग थयो? तेवारें केवलीयें कडं के रक्तपित्तने दूपणे द्रपित थ एणे करोलियांसहित स्निग्ध आहार कस्यो. तेथकी एने रक्तपि तनो रोग थयो, वली सचेतपाणी संघट्टीने श्रावकनी दीकरीनु मुरव धो युं, तेथी शासनदेवीये ते रकुत्रार्यानीनपर रुष्ट यश्ने शिखामण आपवा मा टें कांक चूर्ण, तेना याहारमा नारख्युं, तेथी एनुं शरीर बगडधु, पण प्रा शुक पाणीथी बगडयुं नथी. एवं सांजलीने रजायें कह्यु के हे नगवति ! मुजने यालोयणा आपो, तो ढुं शुम था ? तेवारें केवलीयें कह्यु के तुं शुभ था,एवं को प्रायश्चित्त नथी,कारण के तें एवां उर्वचन कह्यां,तेथी तुने . निकाचित कर्मनो बंध थयो. ते कर्मे करीने कुष्ट, नगंदर, जलोदर, श्वास, अतिसार,गंम्माला आदि महा दुःखो अनंत नवसुधी तारे जोगववां पडशे? एम कही. बीजी आर्याउने केवलीयें आलोयणा आपी तेथी सर्व गुम था. माटे अगीतार्थपणाना आकरा दोष जाणीने धर्मविरु६ वचन बोलवू नहिं. ए वितिगिडानेविणे आषाढनति आचार्य- दृष्टांत कहे जे. जे आ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३ षाढाचार्ये घणा शिष्यो निजाम्या. अन्यदा एक शिष्यने रूडी रीतें निजाम्यो, तेनी साथें संकेत कयो, के तुं देवता थश्ने मुझने दर्शन देजे. ते शिष्य म री देवता थयो. पण देवांगनाना विषय सुखमां पासक्त थयो तेथी शीघ्र श्रावी शक्यो नहि. त्यारें आचार्ये चिंतव्युं जे में फोकट चारित्रनुं कष्ट सयुं. तेमाटे हवे हुँ ए चारित्र बाहुं ! एम विचारी गब मीने निकल्यो एटले ते शिष्यें उपयोग दीधो. गुरुने पतित देखी शीघ्रपणे भावी मार्गने विषे ना टक देखाड्यु, ते नाटक जोतां न महिना थया पण थाक्या नहिं. पड़ी ते आषाढाचार्य नाटक जोश्ने आगल चाव्या. मार्गने विपे पृथिवीकायादिक उ राजकुमार बानरणे सहित देखी,था चार्ये ते बये राजकुमारोने मारी, आनरण लेश, जोली जरी. बोहोलो नार थवाने लीधे हलवे हलवे चाल्या जाय डे, एवे ते शिष्यदेवतायें कटक सहित श्रावक राजा देखाड्यो, ते देखी आचार्य नय ब्रांत थयाथका ना सवा लाग्या, पण नासीने जाय क्यां? ते कोइएक वृद हे जइ जना र ह्या, एवामां राजायें यावी याचार्य ने वांदी,थाहारनी घणी विनति करी, पण आचार्य मान्युं नहिं. त्यारें बलात्कारें राजायें जोली मांहीथी पात्रां काढवा निमित्तें हाथ घाल्यो, ते जोली मांहे अलंकार देखीने राजा कोप्यो, अने तेने लीधे आचार्यने नय, ला, विस्मय अने खेद मनमांही उपन्या, विचायुं जे पाप, फल प्रत्यक्ष दीसे जे. एवी प्रास्ता थये थके, ते शिष्य देव तायें पोतानुं स्वरूप प्रगट करी, आचार्यने प्रतिबोध्यो. देवता पोताने स्था नकें गयो. आचार्य चारित्र पाली स्वर्ग गया. इति विचिकित्सा स्वरूपं ॥ हवे किहां एक विउन्नति एवो पण पाठ ॥ विउन्नत्तिपाते तु विघदुगंडा विठकु गुप्सा, विहांसोविदा झाततत्त्वतया ये युक्ताः साधवस्तेषां जगुप्सा ॥ नावा र्थः-पंमितजननी निंदा ते विष्कुगुप्सा कहीयें. तथा तत्त्वना जाण जे साधु तेनी जे निंदा ते विकुगुप्सा तेज देखाडे जे. जे साधुना मलमलिन गा त्र उपरथी देखीने,मूढ बुद्धियें करी एम चिंतवे जे ए नाय नहीं, वस्त्र धोवे नहिं, परसेवाथी तथा मेलथी गंधाय ने शरीर जेनुं एवा ,माटे जो ए मु नियो फासु पाणीये नाय, वस्त्र धूवे, तो एने शो दोष ? एम चिंतवे पण ते मूढ एम न जाणे जे, मुनि कपट रहित ब्रह्मचर्यनी विशुदिने अर्थे अलं कारादिक शोनायें रहित, एवा बता पण अन्यंतरथी मलरहितज . विशेष Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. शोना गुणना हेतु जे. शास्त्रमा पण का ने, के ॥ मलमश्लपंक मश्ला, धूनी मश्ला न ते नरा मश्ला ॥ जे पावपंक मश्ला, ते मश्ला जीवलोगंमि ॥१॥ नावार्थः-मेलें करी मलिन, कादवें करी मलिन, रजें करी मलिन जे होय ते पुरुषने मलिन न कहियें परंतु जे पापरूप कर्दमें करी मलिन होय ते जीवो, लोकने विषे मलिन जाणवा. ___ तथा लौकिक शास्त्रमा पण कह्यु बे ॥ यतः ॥ शुचि नूमिगतं तोयं, शु चिर्नारी पतिव्रता ॥ शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः ॥ १ ॥ स्नानमुहर्तनान्यंगं, नखकेशादिस क्रियां ॥ गंध माल्यं च तांबूलं, प्रदीपं तु मुनिस्त्यजेत् ॥ २ ॥ सत्यशौचं तपःशौचं, शौचमिन्श्यिनिग्रहः ॥ सर्व नूतदया शौचं, जलशोचं च पंचमं ॥ ३ ॥ स्मृतिरपि ॥ ब्रह्मचर्य स्थितोनैव, मन्नमद्यादिनिंदितं ॥ दन्तधावनगीतादि, ब्रह्मचारी विवर्जयेत् ॥॥ मनुस्मृता वपि पंचमाध्याये ॥ दात्या शुध्यति विज्ञांसो, दानेनाकार्यकारिणः ॥ पापिनश्चतु जापेन, तपसा वेदवित्तमाः॥ ५ ॥ अभिर्गात्राणि शुधति, म नःसत्येन शुक्ष्यति ॥ विद्यातपोन्यां नूतात्मा, बुद्धिानेन शुक्ष्यति ॥ ६॥ नित्यं शुमः कारुहस्तः, पएवं राज प्रसारितं ॥ ब्रह्मचारिगतं नैन्यं, नित्यं शु मिति स्थितिः॥ ७॥ नावार्थः- नूमिने विपे रहेलु पाणी पवित्र, पति व्रतास्त्री पवित्र, धर्मवंतराजा पवित्र, ब्रह्मचारी सर्वदा पवित्र ॥१॥ स्नान, उवटण, तैलमर्दन, नखकेशनी शोना, सुंगधिवस्तु, पुष्पमाला, तांबू लादिक, एटला बानां ब्रह्मचारी त्यागे ॥ ५ ॥ प्रथम सत्य ते पवित्र, बी जुं तप ते पवित्र, त्रीजुं इंडियनुं जीतq ते पवित्र, चोथु सर्वजीवने विपे दया राखवी ते पवित्र,अने पांचमुं पापीयें करी शौच ते पवित्रपणुं जागवू ॥३॥ तथा याज्ञवल्क्यस्मृतिने विषे कयुं बेः ब्रह्मचर्यमा रह्यो थको जीव अनिंद्य जोजन करे, एकवार जमे बीजी वार न जमे, घणुं अन्न न जभे, दातण न करे, गीतगान न सांजले, एटली वस्तु ब्रह्मचारी वऊँ ॥३॥ तथा मनुस्मृ. तिने पांचमे अध्यायें कह्यु डे के, पंमित दमायें शुक्ष थाय, हीणाकार्यनो करनार दानें शुद्ध थाय, पाप कयुं होय ते जाप करवे करी शुरू थाय, वेद तत्त्वना जाण तपस्यायें करी शुद्ध थाय ॥५॥ शरीर, पाणीथी शुद्ध थाय, सत्यवचन बोलवे, मन शुद्ध थाय, विद्या तथा तपें करी पंचनूत आत्मा शुभ थाय, अने बुद्धि, ज्ञानें करी शुरु थाय ॥६॥ कारिगरनो हाथ नित्य Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ७५ शुक्ष थाय, किरियाणे मांमधु हाट सर्वदा शुभ , ब्रह्मचारीने हाथे गये ली निदा नित्य शुम जे. एवी शास्त्रमा स्थिति ॥ ७ ॥ ___ माटे शौचपणुं ते लोकने विषे जेहवो निर्वाह थाय, तेहज व्यवहारें जाणवू. पण बीजो प्रकार समजवो नहीं. जेमाटे बालक, स्त्री, गोप्रमुख, मलिन, धोयुं समायुं कोरुं वस्त्र आदें देश पटकूलवस्त्र, कर्वत, चर्मनी कुम ली, चरणत्राण, नसें बांध्युं सूपडं, शस्त्रनो कोष, ते मीयान, हस्तिदंत, र जकरणी, चामर, कांबलादिकनुं ग्रह, कस्तूरी, जबादी, पोश्सडो, गोरुचं दन, नख, धूप, अशुचिने स्थानकें हि पामे एवा केतकीनां पत्रादिक, सोपारी, सेलरा, खजूर, गोल प्रमुख, जूदा जूदा स्थानकना स्मशानने विषे मृतकना मलमूत्रादिकें नल्युं एवं नदी प्रमुख, पाणी, स्तनपानादिक, ए सर्वने विपे पवित्रपणानोज व्यवहार . ___ मनुस्मृतिने विपे कमु डे के अशुभ एवो वायस शेरीना कादवें करी स्प शित थको शुभ थाय . वली पाकेली इंट, चिता, ए सघलां पवनें करी स्पर्श करयां थकां शुद्ध थाय .तथा माखी, विछाननी बाया, गाय, अश्व, सू यनां किरण, नृमिनुं रज, वायु,अमि,एटलावानानो जे स्पर्श ते पण पवित्र जा पवो. तथा मितादराने विषे कह्यु के, चंयने सूर्यना किरणथी तथा वा युथी मार्ग शुद्ध थाय, दाढीमूबना केश, मुखमा रहेला दांत पण पवित्र जाण वा. एमाटें विवेकीने तेमज माह्याने जुगुप्सा सर्वथा बमवी. इहां कथा कहे जे. _ विवाहने कारणे कोई व्यवहारियानी बेटीयें सर्व अंगें विनूषित थकां सा धुने प्रतिलान्या,तेवारें साधुना अंगना मेलनो पुगंध देखीने ते विचारती हवी जे रूडो जैनधर्म निरवद्य ,पण फासु पाणी मुनिने जो स्नान कराव्युं होय तो तेमां श्यो दोष ने ? इत्यादिक गंडा करी, ते पापने आलोया विनाम रण पामीने राजगृही नगरीयें गणिकाने पेटे पुत्री थर, ते गर्नमां बते मा ताने घणुं दुःख थयुं, माताना मनने विषे अरति उपनी. पनी पुत्रीनो जन्म थया नंतर मातायें नकरडे नारवी दीधी, तेनो अति दुर्गध जोड्ने श्रेणिक राजायें ते दुर्गधबालिकाना दुर्गधनुं कारण श्रीवीरने वांदीने पूज्युं. तेवारें श्रीवीरें पूर्वनव कहीने राजा श्रेणिकने कयुं के, सुपात्रदानना माहात्म्ये ए तारी नार्या थशे. क्रीडा करतां तारा वांसा उपर चढशे. एवी ए वनन स्त्री थशे. तेथी तुं जाणजे के, ए उन्धानो उर्गध एक मुहूर्त. पड़ी गयो, Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. दवे एक आजीरणीये ते ऽगंधाने पोताने घरे लश्ज,पाली पोषी महोटी करी, यौवनावस्थायें आवी, त्यारे कौमुदी महोत्सवने विषे श्रेणिकराजाने उन्धाना स्पर्शथी राग उपन्यो. राजा श्रेणिकें लघु लाघवी कलायें स्वना मांकित मुश तेना वस्त्रने बेहडे बांधीने अनयकुमारने कयुं के, में नामां कित मुश खोइ जे. पनी अनयकुमारे तेहिज देवकुलझारें जश, एकेका मा एसने जोतां जोतां उगंधाना वस्त्रने डेडे मुश्किा जोइने, उगंधाने अंतःपु रमां मूकी. राजा हर्षवडे तेनी साथे परण्या. पड़ी क्रीडा करतां र जानां वांसा उपर ते कन्या चढी बेती, तेवारें राजा हस्यो. ते जो आजीरीयें दसवानुं कारण राजाने पूयुं, त्यारें श्रेणिकराजायें सर्व पूर्वनवानिकनो संबंध कह्यो. ते सांजली वैराग्य पामी, प्रनु.पासेंथी चारित्र लेइ, पाप श्रा लो स्वर्गे गइ. इति तृतीयोऽतिचारः ॥ ३ ॥ हवे चोथो कुलिंगीनी प्रशंसानो अतिचार कहे जेः-कुलिंगीजे शाक्या दिक तेने विषे एम कहे के अहो! ए माहा तपस्वी जे ! इत्यादिक मिथ्या दृष्टिनी प्रशंसा करतां जोला प्राणी सांजलीने मिथ्यात्वनुं आदर बहु मा न करे, अने ते बहु मानतां समकितने दूपण उपजावे जे ॥ नुकं च ॥ मि बत्त थिरीकरणं, अतत्तसका पवित्ति दोसो य ॥ तह तिबकम्मबंधी, पसंस इह कुदंसपीणं ॥१॥ नावार्थः-मिथ्यात्वने स्थिर करवाथी अतत्त्व श्रमाननी प्रवृत्तिरूप दोष थाय, तेमज तीव्रकर्मबंध थाय. एम कुदंसणीनी प्रशंसाथकी एवा गुण नीपजे ॥ १ ॥ जेमाटे सम्यग्दृष्टि जीव तो, मिथ्या त्वीनां महातप देखी अहो आ महोटुं अज्ञान कट ? इत्यादिक मनमां चिंतवन करे, तथा मुखथी पण एमज कहे के ॥यतः॥ जं अन्नाणी कम्म, खवेबदुयाई वासकोडीहिं॥तं नाणी तिहिं गुत्तो,खवेनस्सास मित्तेणं ॥१॥ सहि वास सहस्सा, तिसत्तखुत्तो दएण धोएणं ॥ अणुविन्नं तामलीणा, अ नाण तवृत्ति अप्पफलो ॥ २ ॥ तामलित्तण इतवेणं, जिणमा सिके अन्न सत्त जणं ॥ ए अन्नाण वसेणं, तामलि ईसाणिंद ग ॥ ३ ॥ जावार्थ:-जे घणा वर्षनी कोडीयें करीने अज्ञानी जीव कर्म खपावे, ते त्रण गुप्तियें स हित थको ज्ञानी एक श्वासोवासमा खपावे ॥१॥ शाठ हजार वर्षमांसा डत्रीश वखत मुख धोक्ने अन्नपाणी लीधुं एवं तप, तामली तापसे याचघु Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. งง ते ज्ञान तपथी अल्पफल पाम्यो ॥ २ ॥ जेटलुं तामली तापसें तप करयुं एटला तपथी जनमती बीजा सात जण मोछें जाय, पण ज्ञान दोषें करीने तामली, ईशान देवलोकें गयो ॥ ३ ॥ ed ए परदर्शनीनी प्रशंसारूप अतिचार उपर दृष्टांत कहे बे:- सिंहपु रवासी लक्ष्मणश्रेष्ठ नामा श्रावक जैनधर्मने विषे परमार्थनो जाए, गीता निष्ठायें रहेनारो हतो. एकदा तेथे सजाने विषे बेठे थके मासखमण तपस्वी परिव्राजकनी प्रशंसा करी, ते सांजली बीजा वे श्रावक ते तापसने यादरसहित वांदवा गया. ते जोइ पारिव्राजकें तेनां चित्त व्युद्धाहित करयां. ते जैननी अवज्ञा करता थका मरण पामी नरकादिकमां बहु जव रजव्या लक्ष्मणश्रेष्ठ श्रावकनो धर्म पाली, सौधर्मे देवता थयो, अने तेो व्य वन समये श्रीवीरने पूढयं, के माहारा केवा जव थाशे ? तेवारें श्रीवीरें क के सातव तिचना करी, तुं मनुष्यपणुं पामीश, पण पूर्वजवें मि य्यात्वनी प्रशंसा करी बे, माटे बोधवीज तुमने दुर्जन थशे ? त्यार पछी के टला एक नव संसार चमण करी श्रीपद्मनान तीर्थकरने वारे तुं सिद्धि पा मी. समकितने दूपणे उपलक्षणथी निन्हवादिकनो पण परिचय न करवो. वे कुलिंगी सायें परिचय करवानो पांचमो प्रतिचार कहे बे. कुलिंगी संघातें संवास एटजे वसवुं, जोजन करवुं, बोलवुं, बोलावनुं, परिचय, संस्तव करवो, ते विवरीने कहे बे. मिय्यादृष्टि संघातें परिचय तथा एकां वासे न रहे. केम के तेनां अनुष्ठान देखवाथी तथा तेनां शास्त्र सांगलवाथी अने तेन क्रिया देखवाथी मंदबुद्धिवालाने नवा धर्मनी प्राप्ति डुर्लन थाय. दृढ सम्यक्त्ववंतने पण तिचार लागे. प्रसंगथी निन्द्रवादिकना परिचयथकी पण समकेतने प्रतिचार लागे ॥ यतः ॥ अंबस्सय लिंबस्स य, डुन्हं पि समा गयाई मूलाई || संसग्गेण विराहो, वो निंवत्तणं पत्तो ॥ १ ॥ जोजारी . सं मित्तं, करे वरेण तारिसं होई ॥ कुसुमेहि यवसंता, तिलावि तं गंधिया ति ॥ २ ॥ नावार्थ:- यांबानां तथा लींबडाना फाडना मूल सायें होय, तो खांब पण नष्ट याय बे, बो लींबडा पणाने मजे बे ॥ १ ॥ जे जेनी सायें मित्रता करे, ते तेना जेवो होय, जेम के पुष्पना संगें रहेता एवा तिल पण सुगंधयुक्त थायने ॥ २॥ इहां शिष्य गुरुने पूढे बेः सुचिरं पि माणो, वेरुनि काच मणिश्र उम्मीसो ॥ न उवे काचजावं, पाहस्मि गुणे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9G जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ए नियएल ॥ ३ ॥ सुचिरंपि श्रवमाणो, नलथंनो इछुवाडंमि ॥ कीस न जाय मदुरो, जइ संसग्गी पमाणंते ॥ ४ ॥ नावार्थ:- घणोकाल समारी तेजवंत को एवो मूर्य मणि, तथा काच होय, परंतु तेमां वैमूर्यमणि arayer पामे नहिं, कारण के पोतानो मणिपलाना पाषाणनो गुण बे माटे ॥ ३ ॥ एरडानो वृक्ष कदाचित् समारीने शेरडीनी वाडीमां घणो व खत राख्यो होय, तो पण ते शेरडीपएं पामे नहिं. तेम जो कोई मिथ्यात्वी साथै संसर्ग थाय तोपण जातिस्वनाव जीव बोडे नहिं ॥ ४ ॥ aataa hd a के सत्पुरुष साधु संसर्गथी साधुपणुं न बांदे अने सत्पुरुष साधु संसर्गथी साधुपणुं न बांगे. यहीं मणि नोरिंगनो दृष्टां त कयुं बुं ते सांगतो. नोरिंग ने मणि, बेनी उत्पत्ति सायें ने, खाने ते व ने एकता रहे बे, वेदुनो परस्पर जन्मपर्यंत संबंध बे, तो पण मलिनो गुण नोरिंगमां नयी यावतो ने नोरिंगनो अवगुण मणिमां नथी आवतो. यत्रोत्तरं ॥ नाग अनावुगाणी य, लोए डुविहाइ हुति दवाई | वेरुलिनं मणि, नागो अन्नदद्वेहिं ॥ १ ॥ जीवो यणाइनिहणो, तप्नावराना विप्र संसारो ॥ खिष्पं सो नाविक, मेलणदोसाणुनावेणं ॥ २ ॥ जहनाम मदुरसलिलं, सागरसलिलं कमेण संपत्तं ॥ पावेइ लोणनावं, मेजणदोसाणु नावे ॥ ३ ॥ एवं सुसीलवंतहि, असीलवंतेहिं मेलिन संतो || पाव गुणपरि हाणी, मेल दोसानावेलं ॥ ४ ॥ नावार्थ:- नावुक ने अनावुक, ए लोकने विषे वे प्रकारनां इव्य वे, तेमां यजावुक ते वैमूर्यमणिसमान ले, का र के ते अन्य व्ययकी अन्यगुणने न फरसे बे ॥ १ ॥ श्रने जीव अनादि निधन बे, संसारने विषे ते ते जावमां जावित बे, ते शीघ्रपणे जे नाव जे जवे पामे, ते मिलापादिक दोषना प्रजावें करी ते जीव ते जावने पामे बे, ॥ २ ॥ मितुं पाणी ते सागरना पाणीने मलेयके लूणपणाने पामे बे, ते केवल मेलन दोपने प्रजावें जाणवुं ॥ ३॥ ए प्रमाणे निवें शीलवंत पुरुष कुशीलि यानो संग करे, तो तेना गुणनी हाणी थाय छे, ए सर्व मेलनदोपनो प्रना व जावो. माटे मिथ्यात्वीनो संसर्ग करवो नहिं. ए गुरुयें उत्तर को. हां सत्संग कुसंग उपर वे सूडानो दृष्ठांत कहे बे ॥ श्लोक ॥ माताप्येका पिताप्येको, मम तस्य च पक्षिणः ॥ श्रहं मुनिनिरानीतः, सच नीतो गवा शिनिः ॥ १९ ॥ गवाशनांनां स गिरः शृणोति, यहं च राजन्मुनिपुंगवानाम् ॥ प्र Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए त्यक्षमेतभवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा नवन्ति ॥ २ ॥ आस्तां सचेतस त्संगः, सदसत्स्यात्तरोरपि ॥ अशोकः शोकनाशाय, कलये तु कलिजुमः ॥३॥ जे माटें वृदने पण जलो अने जूमो संग ने, जुवो अशोकवद ते शोकनो नाश करनार ने अने बेहडानो वृक्ष बे ते क्लेशकारी ने एटला माटे कुलिंगि धादिकनो परिचय सर्वथा प्रकारें बांसवो. संवेगी, गीतार्थ, साधु अने सा धर्मिकनो परिचय, विशेपें करी करवो. ज्यां एटली सामग्रि होय, त्यां श्रा वकने रहेवं, अन्यस्थानकें न रहे. जेस्थानकें पोताना धर्मनो निर्वाह थाय अने स्थिरतानी वृद्धि थाय इत्यादि गुणसंनवे अन्यथा नंद मणियारनी पेठे अंगीकृत धर्मथी भ्रष्ट थाय. कह्यु केः- श्रावकने रूडे ठेकाणे रहे, ॥ नक्तं च ॥ जबपुरे जिगनुवर्ण, समय विउसादु सावया जब ॥ तब सया वसियत्वं, परं जल इंधणं जब ॥ १ ॥ आद्यपंचाशकेपि ॥ निवसेज तब स हो, सादणं जब होश संपान ॥ चेश्यघरा जंमिय, तयन्नसाहम्मिया चेव ॥॥ नावार्थः-जे नगरने विषे श्रीजिनेश्वरनां प्रासाद होय, तथा ज्यां सदा आगमना जाण साधु श्रावक होय, तिहां सर्वकाल वसवू. जिहां प्र चुर जल अने इंधण मले तिहां रहेवू ॥१॥ वली आद्यपंचाशक ग्रंथने विपे पण कडं बे के. जिहां साधुनु आवागमन होय, वली जिनप्रासाद जे गामने विषेहोय,ज्यांतत्त्वना जाण साधर्मिक होय त्यां श्रावकें निवास करवो. हवे ए मिथ्यात्वीना परिचयने विषे श्रीहरि नश्सरिना शिष्य सिमर्पि साधुनो दृष्टांत कहे . ते साधु बौदना मतना रहस्य यदवाने अर्थे गया, ते वखते गुरुयें वचन लीधुं जे जणीने पाचं आवq, शिष्ये पण ते कबूल कीg. पनी तिहांबोधनी श्रमा थर, पण वचननो खेंचाणो पाडो गुरु पासे आव्यो. गुरुये बौक्षमतनी श्रमा फेरवी, त्यारपती पानो बौचना मतनुं रहस्य ग्र हवा गयो. वली पाडो गुरु पासें याव्यो, त्यारें गुरुयें वली पण बौनी श्रा फेरवी. एम एकवीश वार गयो ने आव्यो. तेवारें गुरुयें प्रतिबोधने अ थै शकस्तवनी ललितविस्तरा नामें टीका करी. तेणें करी तेने प्रतिबोधीने दृढ कयो, पड़ी श्रीगुरु पासेंज रह्यो. पांचमो अतिचार कह्यो, एम समकि तना अतिचार संबंधी जे पाप बंधा' होय, ते सर्व निंउं इत्यादि पूर्ववत्. ___ए सम्यक्त्व ते सर्व प्रकारे सर्व रीतें मिथ्यात्वने परिहारपणे निष्कलंक नावें आदर, ते मिथ्यात्व बे प्रकार- जे. एक लौकिक मिथ्यात्व अने Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. बीजुं लोकोत्तर मिथ्यात्व. तेमां लौकिकना वे नेद ले. अने लोकोत्तरना पण बे नेद . एक देव वैपयिक अंने बीजुं गुरुवैषयिक. ए रीतें मिथ्यात्वना चार नेद ले. तिहां लौकिक देवगत मिथ्यात्वनां स्थानक कहे जेः १ हरि, हर थने ब्रह्मादिकना नवनने विषे जवु, प्रणाम पूजादिकनुं करवं. २ कार्यने प्रारंने दाटे वेसती वखतें लानने अर्थे गणेश प्रमुखनुं नाम लेवु. ३ चश्मा रोहिणीनां गीत गावां. ४ विवाहने विषे गणेशनी स्थापना करवी. ५ पुत्र जन्मे त्यारें उत्सव करवो, बहीने दिवसें बही देवतानी पूजा करवी. ६ विवाहमांहे मातानु स्थापन करवू. ७ चंडिका नवानी प्रमुख देवीयोने मा नवी. " तोतला मातानी तथा ग्रहादिकनी पूजा करवी. ए सूर्यग्रहण,चं न्श्यहणने दिवसें तथा व्यतिपात हादशी प्रमुखने विपे विशे धर्म जा पीने स्नान करवू. दान देवू, पूजनादिक करवू. १० पूर्वजने पिंम आपवा. ११ रेवतपंथदेवता, पूजन करवू. १२ रुपिने प्रारंने हलदेवतार्नु पूजन करवू. १३ पुत्रादिकना जन्म मातृकानुं पूजन करवू. १४ सोनेरी रूपेरी रंगे रंगित वस्त्रने पहेरवाने दिवसें सोनानी रूपानी रंगिणी देवता विशे पनी लाहाणी करवी. १५ मृतकने अर्थे जन नढालयां. तिल, दर्न, पाणी ना घडानुं दान देवू. १६ नदी प्रमुख तीर्थादिकने विषे मृतकने दाह देवा. १७ मृतकने अर्थे वाबडा वाबडीना विवाह करवा तथा ढींगला ढीगली परणाववां. तथा १७ धर्मने अर्थ शोक्यनुं पगर्नु पूर्वज पितृनी प्रतिमानुं स्था पन करी राख..१ ए नूतादिकने सरावलां नरी देवां, २० श्राम करवू, बा रमुं करवू, मासीसो करवो, उमासी करवी, वरसी करवी, २१ पाणीना पर्व मंझाववां, २२ कुमारिकाने नोजन देवां, वस्त्र देवां, २३ धर्महेतुयें पारकी कन्याना पाणिग्रहण कराववां. २५ अश्वमेध, अजामेध यज्ञ याग करवा. २५ लौकिक तीर्थनी यात्रा करवी, तिहां ब्राह्मणने दान देवू,केश उतारवा, मुंमन कराववां,आंक देवराववा, बाप प्रमुख लेवी. २६ वली घेर आवीने ते. यात्रा निमित्तें जोजन कराववां. ५७ धर्महेतुयें कूवा वाव्य खणाववा. २७ देवादिकने विषे गोचरण दान करवू. २५ पितृनिमितें जोजन कराव्या प बी काग मांजरादिकने पिंम करी मेलवा. ३० पिंमदान देवु. ३१ पिंपलो, लीबडो, वड, आंबो, इत्यादिक कृदना आरोपण करी सेवनादिक करवां, ३२ पुण्यने अर्थ श्रांकेला सांढनी पूजा करवी, ३३ गायना पुबनी पूजा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. करवी.३४ शीतकालादिकने विषे धर्मार्थे अग्नि वालवो, अंगीती करवी.३५ उंबरो, अांबली, चूली इत्यादिकनुं पूजन कर९. ३६ राधाकृष्मादिकनां रू प करी तेनां नाटकादिक करवां, तथा जोवां. ३७ सूर्य संक्रांतिने दिवसें विशेषे पूजा स्नानदानादिक करवां. ३७ उत्तरायणने दिवसें विशेषे स्ना नादिक करवां. ३॥ आदित्यवारें तथा सोमवारें एक वार जोजन करवू. ४० शनिवारें पूजाअर्थे विशेषे तेलतुं दान देवं. तथा स्नाना दिक करवां. ४१ कार्तिक मासें स्नान करवं. ४ माघमासें स्नान क रवं, घृतकांबलनुं दान देवू. ४३ धर्महेतुयें चैत्रमासें सांवत्सरिक दान या प, गरबो मानवो. ४४ आजा पडवाने दिवसें गोहिंसादिक करवां. ४५ जाबीज करवी, ४६ शुक्तपदनी बीजने दिवसें चंश्दर्शनें दशिका दान देवं, एटले तांतणो देवो, ४७ माघशुदि त्रीजें गौरीनिमित्तें नोजन क राववां. ४७ अखात्रीजने दिवसें कांतवू, लाहाणी आदिकनुं दान कर g, Hए नाश्पद मासना कमपदनी कळालतृतीया तथा शुक्तपदनी हरि तालिका, ए वे दिवसें कहानी देवतार्नु पूजन करवू. ५० आसो महि नानी शुक्ल त्रीजें गोमय तृतीया. ५१ मागशिर महिनाना अने महा म हिनाना कमपत्नी चतुर्थीये चंशेदयें जोजन करवू, ते गणेश चोथ जाण वी. ५२ श्रावण शुदि पंचमीये नागपांचमने दिवसें नाग देवतानी पूजा करवी. ५३ पंचमी आदिक तिथियें दूध वावरवा वसोव, कांत, आ दिक न करवू. ५४ माघशुदि बहने दिवसें सूर्यना रथनी यात्रा करवी. ५५ श्रावण शुदि ब चंदन बह जूलणा बह करवी. ५६ नादरवा शुदि बहें सूर्य षष्ठी. ५७ श्रावण शुदि सातमें शीयल सातमी शीतल नोजन क रवू, वासी अन्न खावं. ५७ नादरवा शुदि सातमने दिवसें वेजनाथ महा देवनी सातम ,तेनी पूजा करवी, नपवास करवो, स्त्रीयें सात घरनी त्र ण त्रण कणनी निदा लेवी. इत्यादि लोकरूढी करवी. एए बुधाष्टमीने दि वसें केवल एक गोधूमादिक अन्न, नोजन करवू. ६० नादरवा वदि अष्ट मी जन्माष्टमीने दिवसें जागरण नत्सवादिक करवां, जादरवा शुदि अष्टम। ते दूर्वाष्टमीयें पलालेला धान्य, अंकुरित धान्य खावां. ६१ आशो चैत्रना शु क्लपदने विषे नवरात्रं बेसबु, शक्तिदेवी, पूजन नागादिकनी पूजा उपवा सादिक करवा. ६२ चैत्र अने यासोनी गुदि बातमी नवमीने दिवसें गो ११ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. त्रदेवता विशेषनी पूजा, गोत्रिजारणां करवां. ६३ नादरवा बुद्धि नवमी ते नवमी तेने दिनें खाखा धान्यनुं जोजन करवुं. ६४ जादरवा शुदि दश मी ते विधव्य दशमीने दिवसें जागर करवां. ६५ विजयदशमीयें खीज डीना वृनी प्रदक्षिणादि पूजा करवी. ६६ देवपोढी एकादशी तथा दे वी एकादशी तथा फाल्गुन शुद्ध एकादशि यामली अग्यारश त था ज्येष्ठ युक्त यगीयारश ते पांगवी ग्यारस इत्यादि सर्व महीनानी एकादशीने दिवसें उपवास करवो, फलाहार करवो, ६७ संतानादिकने जादवा वदि बारशे करे ते वत्स वारस तथा वली उद्धवद्वादशी. ६० जेठ मासनी तेरशें ताकनुं दान देवु. ६५ धनतेरों धन धोवां, धननी पूजा करवी. ७० फागुण वदि चौदों शिवरात्रियें उपवास रात्रिजागरण करवुं. ७१ चैत्र वदि चौदों नवरात्रनी यात्रा करवी. ७२ जादरवा वदि चौदों पवित्र करणादि. १३ अनंतचादरों अनंतना दोरा बांधवा. ७४ अमावा स्याने दिवसें जाणेज जमाइने जमाडवां. ७५ सोमवती ते सोमवारी श्रमा वास्यायें तथा वर्षेनी पहेली प्रारंजी श्रमावास्यायें नदी तजावने विषे वि शेषं स्नानादिकनुं कर. ७६ दीवालीनी अमावास्यायें पितृ निमित्तें दीवा करवा. 99 कार्त्तिक पूर्णिमायें स्नानादिक विशेषपणे करवां. ७८ फाल्गु न शुद्धि पूर्णिमायें होली प्रगट कराववी, होलीने प्रदक्षिणा देवी. ७९ श्राव नी पूर्णिमायें बजे करवी, ते देशप्रसिद्ध अनेक प्रकारें बे. ए सर्व लौकिक देवगत मिथ्यात्व जाणवां. Ta aौकिक गुरुगत मिथ्यात्व कहे बेः- लौकिक गुरु ते ब्राह्मण ताप सादिकने नमस्कार करवो, ब्राह्मणनी आागल पार पाड. एवं कहेनुं, तापसादि कनी यागल नमः शिवाय इत्यादिक कहेवुं ब्राह्मणादिकना मुखथी क था सांजलि तेमने गोतिलादिकनुं दान देवु ब्राह्मणादिकना घरने विषे बहु मानार्थे गमनादिक कर, ए सर्व लौकिक गुरुगत मिथ्यात्व जाणं. " GJ वे लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व कहे :- परदर्शनीयें ग्रहण कर जे जिनबिंब तेनां पूजादिक करवां. समाजाविक श्रीशांतिनाथादिकनी प्रतिमाने इहलोकना सुखने महोटी यात्रायें जावुं मानतादिक करवी, ए सर्व लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व जाणं. ラ वे लोकोत्तर गुरुंगत मिथ्यात्व कहे बे:- लोकोत्तर लिंग ते पासबादि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३ कने गुरुबुधियें वंदनादिक करवां,गुरुनाथूनादिकनी इहलोकना फलने अ थे यात्रा करवी, मानता करवी. ते लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व जाणवं. इहां वादी युक्ति कहे , के जेम वैद्यादिकने व्याधि रोग मटाडवाना नपायने अर्थे धन, जोजन, वस्त्रादिकें करीने बहुपरें मानीय बैयें, तेम स प्रानाविक यद यहणीने इहलोकना फलादिकने अर्थ पूजा वेयावच्च करी मानीयें तो तेमां शो दोष ? जे माटे ते देवोने मोक्ने अर्थ मानीय पूजीयें तो मिथ्यात्व थाय, पण तेवी बुधियें तो आराधता नथी, कर्यु ले, के कुदेवने देवनी बुद्धि,कुगुरुने गुरुनी बुदि,अधर्मने विपे धर्मनी बुद्धि, तेने मिथ्यात्व कहीये. ते मिथ्यात्वनो जे विपर्यय एटले उलट,तेने समकेत कही ये. अने सांनलिये पण वैये.जे निर्मलदृढ समकेत पालनारा एवा रावण श्रीकृष्ण,श्रेणिकराजा,अनयकुमार आदें हता, तेणे पण शत्रुने जीतवा पुत्र प्राप्ति आदिक इहलोकनां महोटां कार्य साधवाने अर्थे विद्यासाधन, देव तानुं आराधन, ते प्रत्ये करेलुं , तेमाटे इहलोकना सुखने अर्थे यदादि कना आराधनने विषे मिथ्यात्व न कहेवाय? हवे आचार्य कहे , के तमें साचं कर्तुं तत्त्वथी विचारीयें तो कुदेवने देवबुधियें करी आराधq तेज मिथ्यात्व डे, तोपण यदादिकनुं आराधन इहलोकना सुखनें अर्थे पण श्रावकें वर्जबुज.कारण के कुदेवने प्रसंगें अने क दोषोनो संनव थाय माटे निषेध्यु . प्रायः सांप्रतकालने धिपे मंद बुद्धि, मुग्ध, जोला, वक्रबुदिना धणी घणा बे, एवी परिणतिना धणी एवं विचारे के जो विशुः६ समकेतवंत महोटा परिणामना धणी तेणे यदादि कना आराधन कयां , तो निचे ए देव पण मोदने दायक देखाय , मा टे तेने नली रीतें आराधवा. इत्यादिक परंपरायें मिथ्यात्वनी वृद्धि थाय, मिथ्यात्वना स्थिरीकरणादिक दोपनो प्रसंग थाय, मिथ्यात्वनो वधारो था .य, तेमज इहलोकना फलने अर्थे यदादिकना आराधनारा धणीने परन वने विपे बोधीनी प्राप्ति उर्लन थाय. कह्यु के ॥ यतः ॥ अन्नेसिं सत्ता णं, मिबत्तं जो जणेश मूढप्पा ॥ सो तेण निमित्तेणं, न लहर बोहिं जिणा निहयं ॥ १॥ नावार्थः-ते मूढधात्मा बीजा प्राणीने मिथ्यात्वनो उदय करे, ते मिथ्यात्व निमित्तें करीने परनवें बोधिपणुं न पामे, एम श्रीवीतरागें कह्यु बे. अने ते रावण कृमादिक तेणे ते समयमा प्रजुना धर्मने विषे बी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जा धर्मथी अतिशयपणे साची प्रतीति राखी छे, तेमां कोइक कारणें जो कोइ विद्या प्रमुख याराधन करूं, तो पण ते महोटा पुरुषनुं श्रालंबन लइने यादिकने प्राराधवं घटे नहीं. ॥ यतः ॥ जाणिद्य मित्र दिहि वि, जे पडणा लंबाई धिप्पंति ॥ जे पुल सम्मद्दिहि, ते सिं पुणोचडापयडीए ॥ १ ॥ तथायावश्यक निर्युक्तिमा कयुं बे के साधुनो सेवाकार श्रावक प्रथ मज मिथ्यात्व पडिक्कमे, वोसिरावे, समकेत पडिवो. तिहां कहे के श्राजथी मांमीने मुकने न कल्पे. शुं न कल्पे ? ते कहे बेः श्रन्यदर्शनीने तथा श्र यदर्शनी ग्रह्मा जे श्री अरिहंतना चैत्य देहरा ते प्रत्ये वांदवा, नमस्कार करवा, तथा तेमनी सार्थे बोलवं, बोलावतुं श्रालापसंलाप करवो, न कल्पे. तथा तेमने यशन, पान, खादिम, स्वादिम, देवां न कल्पे, तेमने मान श्रा पवा माटे तेमनी पाउल जावुं न कल्पे, तेमां राजाने परवश पणे करी, गण समुदायना परवशपणे करी देवादिकने परवशपणे करी, गुर्वादिकने परव शें करी, बलवंत चोरादिकने परवशपणे करी, डुर्निकादिकने जीधे या जीविकाना निर्वाह करवे कररी सेववुं पडे. ते मिथ्यात्व तथा पहेला स्नेह रहितपणे लोकापवादना जयथी बोलाववा पडे, के तुं क्यांथी आव्यो ? इत्या दि. ए रीतें गुरुनी समक्ष समकेतनो खाजावो संपूर्ण कहीने आलावे, ते वारे तेनुं शुद्ध समकेत थाय पढी समकेतनो निर्वाह पण तेमज थाय. नहीं तो प्रतिचार अनाचार दोष लागे. इहां शिष्य याशंका करे बे, के जो एम कहो हो तो ब्राह्मण तथा वी जानिकाचरने प्रशनादिकनुं देवं सर्वथा नज घटे, अने घणाकालना मे लापी ब्राह्मणादिक ने तेने देवानो निषेध करणाथी लोकापवाद लोक विरु 5 करवाथी धर्मनी नितादिक घणा दोष थाय ? ते पात्र हवे प्राचार्य उत्तर कहे बे केः-तेने जे दान प्रमुख व्याप, नी बुद्धियें न आप, दीन हीन उपर दयानी बुद्धियें आप. जेमाटे ती करादिक पण उचित, कीर्त्यादि दान क्यांहि पण निषेधता नथी. तीर्थ करें पोतें पण दान दीघां बे. तथा श्रीरायप्पणी सूत्रमां ज्यां परदेशी राजाने नवो धर्म पमाड्यो, तेवार पढी शिक्षा व्यवसरें केशीगणधरें कयुं बे, के हे परदेशी ! तु पहेला रमलिक ने पी रमणिक थाइश नहीं. एटजे प्रथम ब्राह्मणादिकने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. न्य विषे दाता थइने श्रीजिनधर्म पाम्या पनी अदाता थश्श मां. एथकी अंत रायकर्म बंधाय तथा श्रीजिनधर्मनी अपनाजना एटले निंदानो संनव थाय. तेवार पड़ी कहेलुं जे मिथ्यात्व ते सर्व प्रकारें बांझq. तथा दर्शनशुद्धि प्रकरणें कह्यु ॥ यतः ॥ विहं लोश्य मिल्छ, देवग यं गुरुगयं मुणेयत्वं ॥ लोउत्तरंपि सुविहं, देवगयं गुरुगयं मुणेयवं ॥ १ ॥ देवगत अने गुरुगत, ए बे प्रकारनुं लौकिक. मिथ्यात्व ले. तथा लोकोत्तर मि थ्यात्व पण एम वे प्रकार जे. ए चार प्रकारना मिथ्यात्वने त्रिविध त्रिविधं जे वऊँ, तेनुं निष्कलंक समकेत होय. हवे ए मिथ्यात्वना पांच नेद कहे जेः-तिहां जे पाखंमी पोतपोताना शास्त्रने विपे गुंथाणा ने ते पोतपोताना धर्मने साचो मानता परना पढ़ने तिरस्कार करवा माह्या , तेने आनियहिक मिथ्यात्व कहीयें. २ सामान्यजनने मनें सर्व देव, सर्व गुरु तथा सर्व धर्म सत्य , माटे सर्वने आराधवा पण कोश्ने निंदवा नहीं ते अनानियहिक मिथ्यात्व. ३ जे यथार्थपणे वस्तु तत्त्वने जाणे , पण गोष्ठामा हिलनी परें कोई क कदाग्रहने आरोपणे करी बुद्धि विपर्यास पामे, ते यानिनिवेशिक मिथ्यात्व. ___४ जे देव गुरु धर्मनेविपे आ सारं के या सारं ? इत्यादिक संशयमां रहे, ते चोयुं सांशयिक मिथ्यात्व जाणवू. ५ विचार रहित एवा एकेडियादिक जीवने जे विशेषे झानरहित , तेने मिथ्यात्व जाणवामां आवतुं नथी ते अनाजोगिक मिथ्यात्व. एम सर्व प्रकारे करीने मिथ्यात्वनो परिहार करवो तेवारे समकेत, चार सद्दहणादि क सडशन नेदे करीने निर्मल थाय ते सडशठ बोलनो विस्तारें अर्थ एज पुस्तकना त्रीजा नागमां दर्शनसित्तरी ग्रंथमां बाप्यो जे तेथी जाणवो. इति तपागबनायक श्रीसोमसुंदरसूरि तनिष्य श्रीनुवनसुंदरसूरि तनि ष्य उपाध्याय श्रीरत्नशेखरगणियें करेली अर्थदीपिका एवे नामें अपरनाम श्रामप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, तेने विपे प्रथम समकेतनो अधिकार समाप्त थयो ? हवे चारित्रना अतिचार प्रतिक्रमवाने श्वतो थको प्रथम सामान्यपणे पारंनने निंदवा माटे गाथा कहे . बक्काय समारंने, पयणे य पयावणे य जे दोसा ॥ अतहा य परहा, जनयहा चेव तं निंदे ॥७॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रनकोष नाग चोथो. अर्थः-(नकायसमारंने के०) बकायना समारंजने विषे ते कया? (पय गेयपयावणे के० ) पचव, पचावq एटले रांधवं अने रंधावq (य के) वली अनुमोद, तेने विपे (जेदोसा के) जे दोप थया ते (अतहायप रहा के०) पोताना आत्माने अर्थे अथवा परने अर्थे अथवा (उनयत के०) वेहुने अर्थे दोष लागा (तं निंदे के०) तेने निउँ . इत्यादि. तिहां बकाय ते पृथ्वी, अप, तेज, वान, घनस्पति तेनो अने त्रसकायनो समारंन ते परितापादिकनु नपजावईं. इहां शिष्य पूढे ले के, शास्त्रमा तो सं रंन समारंन ने आरंन, ए त्रण कह्या ,तो तमें एक समारंनज केम लीधो? त्यां गुरु उत्तर कहे :-मध्यना ग्रहणथी श्रादि अंतनुं पण ग्रहण थयु तुलाना दंमने न्यायें समारंजना ग्रहणथकी संरंन अने आरंजनुं ग्रहण थ युंज, एम जाणवू. तिहां संरंज ते प्रावधादिकनो संकल्प, विचार कस्यो होय ते. अने समारंज ते प्राणीने परितापनादिक किलामणा नपजावी हो य ते. अने आरंज तेप्राणीना प्राण हरवां जीवनी हिंसा करवी ते ॥ यतः॥ संकप्पो संरंनो, परितावकरो नवे समारंनो ॥ आरंनो नदवन, सबवयणं वि सुकाणं ॥ १ ॥ ते काणमाटे एत्रणेने विशे पाप आचरणादि जे दोप लागा होय ते पाप जाणवू पण अतिचार न जाणवा. केम के श्रावके उ कायना आरंजनुं टालवू अंगीकार कयुं नथी. माटे जे आदयं न होय ते ने अतिचारनो अनाव जाणवो. हवे समारंन ते पोतें रसोड करे, अने परनी पासें रंधावे, च शब्द थकी आरंजनी अनुमोदना करे, शेने अर्थे ? तो के पोताना आत्माने अर्थे तथा पर प्रार्णादिकने अर्थ अथवा पोता ने अने परने वेहुने अर्थे तथा च शब्दथकी अर्थ विना रांधे, अथवा ई करी रांधे, रंधावे, पचन पाचनादिक करे, करावे, रसोश्यानी वृत्ति करे,अने निरर्थक पाकादिक करवा ते तो लोकनेविषे पण निंदवा योग्य वे. का ले के, ॥ श्लोक ॥ पंक्तिनेदी वृथापाकी, नित्यं दर्शननिंदकः ॥ मृतशय्याप्रति. ग्राही,न नूयः पुरुषोजवेत् ॥ १ ॥ जावार्थः-पंक्तिनेद करे,निःकारणे रांधे, निरंतर दर्शननी निंदा करे, मूथानी शय्या लीये, मृतकनुं दान लीये, ते फरीने पुरुषनो अवतार न पामे ॥ १ ॥ हां शिष्य पूजे जे के "विहे परिग्गहम्मि” ए गाथायें पूर्वे आरंजनी निंदा करी हती, तेम बतां फरी या गाथामां शा कारणे आरंजनी निंदा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. कही जे ? तिहां गुरु कहे जेः-पूर्व जे कमु ते तो सामान्यपणे अनेक प्रका रना आरंन ते उद्देशीने कह्यु, अने इहां तो पोतानो निर्वाह थाय, एटलो ज आरंन लेवो, ते पण पूर्व आरंजनुं पडिक्कमवू कह्यु , अने हां तो आ रंजनी निंदा मात्रज कही . वली सम्यग्दृष्टि तो निश्चं पापरूप आरंजने विपे रह्यो जे जे आरंज वि ना तेनो निर्वाह न थाय ते सर्वेमा प्रवर्ते. परंतु मनमां विचार करे जे धि कार पडो मुफने बकायनो आरंजी बुं ! पापी इत्यादिक मनने विषे नावना नावे ॥ यतः ॥ हिए जिणाण आणा,चरियं महएव रिसं अनन्न स्स ॥ एवं आलप्पालं, अच्चो दूरंवि संवय ॥ १॥ अथवा पदांतरें अर्थ कहे जेः-तिहां आत्मार्थ ते मुफने पुण्य श्राशे एवा नोलपणे करीने साधुने अर्थे साधु उद्देशीने अन्न रांधे पाक करे, त था पर ते माता, पिता, पुत्रादिकना पुण्यने अर्थे साधुने दान आपरां, ए वा हेतुथी पाक करे, ते परार्थ जाणवो. एमज पोताना तथा परना वे पु एयने अर्थ पाक करे, ते उनयार्थ कहियें. च शब्दथकी करी साधुनो नियम जांगवा नणी कोक पचन पाचनादिक करीने आपे. इत्यादि क अनेक नेद जाणवा. अथवा बकायनो समारंजादिक ते यत्नविना अणगल पाणी वावरे, अणशोध्यां एवां इंधण धान्य प्रमुखने वापरवे करी जे दोष कस्या-होय, ते दोपने ढुं निंबुं, ए सार्थकता जाणवी. __ श्रावकें तो सादि जीवें रहित स्थानकें संखारो रूडी रीतें जालववादि के करी विधिसहित बिइ रहित काठा वस्त्रे गालेला पाणीयें करी वर्तवं ते मज सूकां काष्ठ ते घणां जूनां न होय, तेमज तेमां पोल न होय,कीटका दिकें खाधां न होय, एवा काटें करी धान्य, पक्वान्न, सुरखडी, शाक, स्वादि म, पत्र, फूल, फलादिक ए सर्व त्रसजीवादिके रहित नजरें जो करीने स र्व वस्तु वापरवी रांधवी, अने पाणी प्रमुख थोडं वावर. रूडी रीतें शुरू करीने श्राचरवां. जो एम न करे, तो निर्दयपणुं थाय, अने समता संवे गादिक लक्षणे सहित एq जे समकेत तेनां पांच लक्षण माहेला अंतर्गत अनुकंपा लदानो नाश थाय ॥ यतः॥ परिसुदं जलगहणं, दारु अध नाइ याण तहेव ॥ गहियाणय परिनोगो, विहीइ तस ररकणघाए ॥१॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. जावार्थ::- जल गली शुद्ध करी जेवुं ने काम धान्य प्रमुखपण गुंडकरी जेवा, ते काष्ठ धान्यनो परिजोगनो विधि सजीव राखवाने खर्थे श्रावकने कह्यो ने १ तथा अन्यदर्शनने विषे महाभारतमां पण कयुं बे:- श्लोक ॥ संवत्स रेण यत्पापं, कैवर्त्तस्य हि जायते ॥ एकाहेन तदाप्नोति, अपूतजलसंग्रही ॥ १ ॥ विंशत्यंगुलमानं तु, त्रिंशदंगुलमायतौ ॥ तदस्त्रं द्विगुणीकृत्य, गाल येलमा पिवेत् ॥ २ ॥ तस्मिन वस्त्रे स्थितान जीवान, स्थापयेऊनमध्यतः ॥ एवं कृत्वा पिवेत्तोयं, स याति परमांगतिं ॥ ३ ॥ नावार्थ:- माबीगर जेटलं एक वर्ष पर्यंत पाप करे तेटलुं पाप एकदिवसमां णगल पाणी वावरना रने या ॥ १ ॥ वीश यांगुल पहोलुं यने त्रीश यांगुल लांबु, एवात्र बेव करीने ते व गाली गलीने पीव्रं ॥ २ ॥ पाणी गव्या पती ते वस्त्रमां जे जीव रहे, ते फरी तेज जलस्थानकमां स्थापवा. एम करीने जे पाणी पीये, ते सदा परमगति जे मोह तेने मे ॥ ३ ॥ तथा गममां पृथिव्यादिकने विपे पण जीवपणुं कयुं वे ॥ यतः ॥ यद्दामलय पमाणं, पुढवीकाए हवंति जे जीवा ॥ ते पारेवय मित्ता, जंबू दीवे न मायंति ॥ १ ॥ एगंमि उदगबिंदुमि, जे जीवा जिणवरेहिं प मत्ता ॥ ते जइ सरिसव मित्ता, जंबू० ॥ २ ॥ नावार्थ:- ( श्रद्दामलय के ० ) नीला यामला प्रमाण एक माटी पापालनो कटको होय तेमां प्र ये जे जीव कह्या बे, ते एकेका जीवना शरीर जो सरशव जेवडा करीयें, तो याखा जंबूद्वीपमा समाइ शके नहीं ॥ १ ॥ एक पाणीना विंडुमांहे जे जीव भगवानें कह्या ते एकेका जीवनी काया पारेवा प्रमाण करीयें, तो ते जंबूदीपमांहे समाय नहीं ॥ २॥ इत्यादि जारावं. तथा उत्तरमीमांसा दिने विषे पलक बे ॥ श्लोक ॥ लुतास्यतंतुगलिते, ये बिंदौ संति जत वः ॥ सूक्ष्मात्रमरमानास्ते, नैव मांति त्रिविष्टपं ॥ १ ॥ कुसुमकुंकुमांनश्च, निर्मितं सूक्ष्मजंतुनिः ॥ तद्घट्टेनापि वस्त्रेण शक्यं शोधयितुं जलं ॥ २ ॥ नावार्थ:- करोलीयाना मुखयकी जे तंतु गजे बे, तेना बिंदुना जे न्हाना जीव बे, ते एकेका जीवनी चमर जेवडी काया करीयें, तो त्रण लोकमां हे पण समाय नहीं ॥ १ ॥ कसुंबाने विषे, कुंकुने विषे, पालीने विषे, सू काजी वो नखाने अर्थात् ते सर्व पदार्थ जीवमय बे, तेमाटे काठा वस्त्रे पाणी गलीने शुद्ध करी वावर, ते युक्त बे ॥ २ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. नए तथा जगवतजीताने विषे पण कह्यु :-श्लोक ॥ दृथिव्यामप्यहं पा र्थ, वायावनौ जलेऽप्यहं ॥ वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वनूतगतोऽप्यहं ॥ १ ॥ योमा सर्वगतं झावा, न विहिंसेत्कदाचन ॥ तस्याहं न प्रणश्यामि, न च मां स प्रणश्यति ॥ ५ ॥ जावार्थः- हे अर्जुन ! पृथ्वीने विषे पण ढुं g, वायुने विषे, अग्मिने विषे पण हुँबु, वनस्पतिमां पण ढुं बु. सर्व प्रा णिमात्रमा ढुंडं ॥ १ ॥ जे मुफने सर्व व्यापी जाणीने कदापि हिंसा न हिं करे, तेनो हुँ नाश करीश नहिं. ते मारो पण नाश नहिं करे,अर्थात् तेने मारे परस्पर प्रेम पूर्ण रहेशे ॥२॥ तथा वनस्पति आदिकमां सचेतनपणुं ने, तेनी युक्ति तो प्रथम कही पाव्या बैयें. ए सातमी गाथानो अर्थ थयो ॥७॥ . हवे सामान्यपणे चारित्रना अतिचार प्रत्ये पडिक्कमे ले. पंचमह मणुबयाणं, गुणवयाणं च तिन्दि मश्यारे॥ ॥ सिरकाणं च चनपहं, पडिक्कमे देसियं सवं ॥७॥ अर्थः- पांच अणुव्रतना त्रण गुणवतना अने चार शिक्षाव्रतना जे अतिचार, एथी जे कर्म बांध्यु होय,ते पडिक्कमुं. इत्यादि पूर्ववत् ॥ ॥ जे कारण माटे समकेत पाम्या पनी साधुना माहाव्रतनी अपेदायें (अणु के० ) सूझ एटले न्हानां व्रत जाणवां. ए पांच अणुव्रत ते श्राव कने मूलगुण रूप ,तथा ते पांच अणुव्रतनेज विशेष गुणनां कारण एवां जे व्रत, ते दिगविरमण आदें देश्ने त्रण गुणवत जाणवां. तथा ते गुणवत शिक्षारूप जे. ते शिष्यने विद्या ग्रहण करवानी पेरें फरी फरी अन्यास करवा योग्य एवां ए सामायिकादिक चार शिदा व्रत जाणवां, ते व्रतना अति चार बाश्रयीने जे कर्म बांध्यु, ते पूर्वनी पेरें पडिक, बु. यहां पांच अणुव्रत अने त्रण गुणव्रत ए आठ प्रायः जावजीवनां ने, अने चार शिदाव्रत जे , ते तो वारंवार सेवाय में अने मूकाय जे जेवा रें अवसर होय तेवारें अन्यास करवा योग्य ॥ ७ ॥ हवे जेम उद्देश्या , तेमज निर्देश करवा माटें प्रथम पांच अणुव्रत मांदेला पहेला अणुवतने गाथायें करी कहे जे. ॥ पढमे अणुवयम्मि, थूलग पाणाश्वाय विरई॥ आयरिय मप्पसने, श्वपमाय प्पसंगेणं ॥ ए॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए - जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. अर्थः-प्रथम अणुव्रत स्यूलथी प्राणातिपात विरमण आश्रयीने जे आचयुं होय, (अप्पसबे के०) अप्रशस्त क्रोधादिक नाव बते. ते इहां प्रमादना प्रसंगें करीने अतिचार लागे. हवे प्राणीयोनी हिंसा २४३ नेदें थाय,ते था प्रमाणे केः-पृथ्वी,थए, तेज,वायु, वनस्पति,ए पांच स्थावर तथा एकेंझ्यि, बेंझ्यि, तेंहिय, चौरिंशि य अने पंचेंश्यि. ए नवप्रकारना जीवने मन, वचन अने कायायें करी हणातां पत्त्यावीश नेद थाय, तेने करवू, कराव_ अने अनुमोदq एम त्रणे गुणतां एकाशी थाय, ते एकाशीने अतीत, अनागत अने वर्तमान ए त्रण कालें गुणतां १४३ नेद, पहेला व्रतना थाय. तथा इव्यथी अने नावथी हिंसानी चौनंगी थाय,ते कहे जेः-एक तो हुँ आ मृगलाने मारुं ! एवे परिणामें परिणम्यो जे आहेडी तेने जावथी हिं थर, अने ते मृगलाने हणे, तेवारें व्यथी हिंसा थाय. ए व्यघी पण हिंसा अने नावथी पण हिंसा थ, ते प्रथम नांगो जाणवो. बीजो इव्य थी हिंसा के पण नावथी हिंसा नथी ते र्यासमितिवंत साधुने जाणवी. ए बीजो नांगो ॥ यदाह ॥ विक्रेमिति परिणा,संपत्ती एवि मुच्च ए वेरी ॥ अवहंतेवि ण मुच, कलिम जावो श्वाजस्त ॥ १ ॥ ए बीजो नांगो. त था त्रीजो नांगो ते जेमां नावथी हिंसा डे पण इव्यथी हिंसा नथी ते जेम अंगारमईकाचार्य जीवनी बुध्येि महावीरना कीडा कचराय ने एम कहेतां रात्रिये अंगारानुं मर्दन कयुं. तेमज अंधारामां दोरडं पडयुं होय, तेने सर्पनी बुद्धियें हणतां थकां नावथी हिंसा थाय. पण इव्यथी हिंसा न थाय. ए त्रीजो नांगो जावो. तथा इव्यथी पण हिंसा न थाय बने नावथी पण हिंसा न थाय. ए चोथो नांगो ते मन, वचन अने कायानी शुकतायें शुम उपयोगें वर्तता एवा साधुने जाणवो. - ए चार प्रकार कह्या. तेथी अन्यरीतें प्राणीनो वध वे प्रकारनो कह्यो डे ते कहीयें बैयें ॥गाथा॥ जीवा सुदुमा थूला,संकप्पा रंजन नवे उविहा ॥ सावराह निरवराह, साविरका चेव निरविरका ॥ १ ॥ जावार्थः-जीव नो वध बे प्रकारनो के. तिहां एक स्थूल ते वेंझ्यिादिक बादर जीव अ ने बीजा सूक्ष्म ते एकेंझ्यिादिक पांच स्थावर जे दृष्टि गोचर यावे, तेवा जीव समजवा पण सूझनामकर्मना उदयवाला समस्त लोकव्यापी दृष्टि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १ गोचर न आवे, ते जीवोने वधनो अनाव , ते कांs कोइना मास्या मर ता नथी परंतु पोतानी मेलेंज आयुना ये मरण पामे डे. यहां साधुने तो बेहु प्रकारना वधथकी निवर्तवं कर्तुं जे. एणे त्रस अने स्थावर बेदुनी हिंसा टाली ,तेथी साधुने तो वीश विश्वानी दया जा रावी. अने गृहस्थने तो स्थूल बेंझ्यिादिक जीवोना वधथकी निवृत्त कहे लुंजे, पण सूक्ष्मना वधयकी निवृत्त कर्तुं नथी कारण के तेनी पृथ्वी ज लादिकना आरंजने विषे निरंतर प्रवर्त्तना ले, तेना आरंजथी टलq बनतुं नथी माटे वीशमांथी अर्श दश विश्वा गया, बाकी दश विश्वानी दया रही. हवे बे इंडियादिक जीवोनो वध पण वे प्रकारें . एक संकल्पथकी अने बीजो आरंनथकी. तेमां आ अमुक जीवने ढुं माझं! एवो जे मनमां संकल्प नपजे, ते संकल्पथकी श्रावक टल्या ,पण आरंजयकी टल्या नथी. जेमाटे कपिादिक आरंनने विपे बेझ्यिादिक जीवने हणवानो संनव थाय ने, जो ते न करे, तो शरीर कुटुंबादिकनो निर्वाह थाय नहीं, एम करवाथी फरी दशमांथी अर्दा गया बाकी पांच विश्वा दयाना रह्या. हवे संकल्पथी उपनी जे हिंसा तेना बे जेद में. एक सापराध ते अपरा धसहित अने बीजी निरपराध ते अपराध रहित. तेमां गृहस्थ निरपराधी जीवनी हिंसाथी तो टल्यो ,अने सापराधने विषे तो न्हाना महोटा अ पराधनो विचार करीने पढ़ी जे शिदाकरवा योग्य होय ते करे माटे पां चमांथी अडधा गया, बाकी अढी विश्वा दया रही. . हवे निरपराधी जीवनो वध बे प्रकारें . एक अपेक्षा सहित अने बी जो अपेक्षा रहित तेमां निरपेदाथकी तो श्रावक निवर्त्या , पण अ पेदा सहितयकी निवर्त्या नथी, केम के चालतां हालतां जीवनी हिंसा थाय ने, तथा पाडा, वृषन अश्वादिकने चाबका प्रमुखनो मार मारे डे, तेमज प्रमादि पुत्रादिकने पाठ जणाववा माटे शिखामण आपवी पडे बे. एम अपेदा सहितने विषे वधबंधादिक कराय, ए गृहस्थनो व्यवहार . तेवारें वली अढीमांथी अई गया, बाकी सवा विश्वानी दया श्रावकने रही ते पण आनंद कामदेव सरखा शुक्ष श्रावकने सवा विश्वानी दया रही. एवा श्रावकने प्रायः प्रथम अणुव्रत होय ते प्रथमव्रत, सकलव्रतमाहे सारनूत , ए पहेला व्रतने विषे जे स्वरूप कह्यु, ते स्यून महोटा जीव Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एस जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जे चाले, दाले, जेने जीवपणानुं प्रगट चिन्द , एवा बेंघिय, तेंघिय, चौरिश्यि, पंचेंशियादिक जे जीवो,तेनां इंडियादिक जे प्राण, तेनो संकल्प थके दाम, चर्म, नख, दंतादिकने अर्थे अतिपात एटले जे विनाश करवो, ते हिंसा जाणवी ॥ यतः ॥ पंचेंख्यिाणि त्रिविधं बलं च, उहासनिःश्वा सस्तथैवमायुः ॥ प्राणा दशैते जगवनिरुक्ता,स्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥ जावार्थः-पांच इंघिय, त्रण बल, श्वासोवास, अने आयु, ए दश प्राण नगवाने कह्यां. ते दश प्राणनो जे वियोग करवो, ते हिंसा जाणवी. __ अथवा वेश्यिादिक स्थूल महोटा जीवनो जे अतिपात एटले विनाश करवो, ते स्थूलप्राणातिपात जाणवो. तेनी जे निवृत्ति ते स्थूलप्राणाति पा त विरमण व्रत कहीये. माटे प्राणातिपातविरमणव्रत आश्रयीने आचां जे आगल कहेशे एवं वधबंधादिक मातुं कर्म कयुं अथवा प्राणातिपात विरमणना समीपथकी अतिचघु अतिचार लाग्यो होय अतिक्रांत अतिक म व्यतिक्रमादिकें करीने मलीन कयुं होय. इहां शिष्य पूछे ले कोइक मंदवाडना दोषनी उपशांतिने अर्थ वधबंधादि क आचर, पण रूडं होय ? कोइ गाम जवाने अर्थे अतिचयुं जे अन्यत्र ग मन कयुं जे अतिचार, ते कोने कहीयें ? जे पोताना स्थानक थकी परस्था नकें जावं. तेने अतिचार कहिये ते अतिचार देश विरतिने होय अने सर्व विरतिने. पण होय पण ते पडिक्कमवा योग्य न होय ? । हवे गुरु उत्तर कहे जेः-अशुननाव तो अप्रशस्त क्रोधादिकने औदयिक जावें थाय, वधबंधादिक अतिचार क्रोधादिक अशुननावेंज होय, अने मृ पावाद प्रमुखने छारें करीने पण पहेला व्रतने अतिचार संनवे,जेम स्नेह नी परीदाने अर्थ देवतायें कडं जे रामचंजी मरण पाम्या, एटलुकहेतां मात्रज लक्ष्मण मरण पाम्या. तथा कुमारपाल राजायें कौतुकथकी लंदरना एकत्रीश रौप्यक अपहवा, तेथी गंदर मरण पाम्यो, एटले अदत्तादान थ की पण प्रथम व्रतने विषे अतिचार लागे पण ते अतिचार बीजुं व्रत आ दे देने तेमांज बालोववां परंतु प्रथम व्रतमां आलोववां नहीं, तेमाटें ते अतिचारने टालवाने अर्थे हवे कहे . हां प्राणातिपातविरमणने विषे प्रमादने प्रसंगें करीने पाप थाय ने. हवे ते प्रमाद पांच प्रकारें ॥गाथा ॥ मऊं विसय कसाया, निहा विक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३ हाय पंचमी नलिया ॥ ए ए पंच पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥ १ ॥ जावार्थ:- १ मदिरापान, २ विषय सेवन, ३ क्रोधादिक कपायनुं करवुं, ४ निशकरण, पांचमी विकथा, ए पांच प्रमाद बे, ते जीवने संसारमांडे पाडे बे. बीजा पक्षांतरथी या प्रमाद पण का बे ॥ गाथा || अन्नाणं संस चैव, मिवाना तहेव य ॥ रागो दोसो महिनं सो, धम्मंमि अयणा हरो ॥ १ ॥ जोगाएं डुप्पणीदारां, पमा हा नवे ॥ संसारुतार कामे, सहा वयव ॥ २ ॥ जावार्थ:- १ अज्ञाननाव धरवो, २ संदेह घणो राखवो, निवें ( तवय के० ) तथैवच एटले तेमज वली ३ मिथ्याज्ञान नुं पोतें जावं, बीजाने जणाववुं, ४ घणो राग राखवो, ५ द्वेष करवो, ६ मतिश करवो, धर्मने विषे व्यादर न करवो, ॥ १ ॥ ८ मन वचन खने कायाना योगनां दुःप्रणीधान करवां, एटले मनादिकने मागं प्रवर्त्ताविवां, ए या प्रमाद बे, ते संसारसमुड् उतरवाने अर्थे सर्वथा वर्द्धयां ॥ २ ॥ ए पूर्वोक्त पांच तथा यात जे प्रमाद बे, तेने विषे अतिशय पणे करी जे प्रवर्तननो प्रसंग होय, ते प्रमादप्रसंग कहियें, ते कषाय तथा विषयादिक प्रमादने प्रसंगें करीनेज प्रायः जीव, व्रतने यतिचार लगाडे. अर्थात् प्रमा दने वशथको जीव कषायने वश थाय ने कषायने वश थयो थको नवा अतिचार लगाडे. प्रमाद प्रसंग जे बे, ते श्रुतकेवलीने पण अनर्थनो हेतु बे, तो बीजानुं तो गुंज कहेतुं ? कयुं ने के ॥ चचदस पुवियाहा, रगाय म नाणि वीरागावि ॥ हुंति पमाय परवसा, तयांतर मेव चन गइया ॥ १ ॥ जावार्थ:- चौद पूर्वधर याहारक शरीरना धणी, मनः पर्यवज्ञानी, उपशांत मोही वीतराग पण प्रमादने परवश थका तदनंतर चारे गतिमां जाय ॥ १ ॥ तथा श्रीयाचारांग सूत्र ने विषे कयुं बे || पमत्तस्स सव जयं, अप्पमत्तस्स वि न कुतोवि जयमित्ति || एटले प्रमादने वशथी जय होय पण अप्रमादी ने क्यांहि पण जय न होय. इति प्रमादस्वरूपं ॥ उपलक्षणथी कुटी दप्पदिकें करीने जे अतिचार ते पण जाणवा. तिहां जे निषेध करयुं वे ते आतुरतायें करी तेवाने एश्रुतविहित ने एम जाली प्रतिषिद्धाचरणें उत्साह युक्त खात्मानो संकल्प होय, तेने व्याकु ट्टि कहियें तथा जे वलगवं दोडवुं जमवुं इत्यादिक उन्माद ते दर्प जावो. ॥ यतः ॥ श्राचट्टिया व विच्चा, दुप्पो पुरा होइ वग्गलाईन || कंदप्पाई पमान, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ जैनकथा रत्नकोप जाग चोथो. कप्पो पुल कारणे करणं ॥ १ ॥ उन्मत्ततायें करीने वलगवुं, दोडवुं तथा थश्वने शकटने उत्सुकपणे खेडवां इत्यादिकने विषे वृथा पंचेंयिनो वध थाय आत्मोपघातादिक दोष थाय. ए रीतें जे याच होय ते निंडुं बुं. अथवा इहां जे श्राच होय एम जे कयुं, तेनुं जे थालोव ते आागली गाथायें प्रगट देखाडशे. इति नवमगाथार्थः ॥ ए ॥ हवे जे याच सेव्युं तेज प्रगट पांच व्यतिचारपणे देखाडे बे: ॥ वद बंध विवेए, इनारे नत्तपाण कुठे ॥ पदम वयस्यारे, पडिक्कमे देसियं सवं ॥ १०॥ अर्थ :- प्रथम ( वह के० ) वध ते चतुष्पदादिक जीवने निर्दयपणे ता ना तर्कना करवी, बीजो बंध ते दोरडे करी गाढे बंधने बांधी मूकदरां, जो बविच्छेद ते शरीर तथा चामडी तेनुं बेद, एटले कान छेदवा, ना सिका बांधवी, गलकंबल बेदवी, पुंबडाप्रमुखनुं कातरखुं. चोथो ( नारे के ० ० ) यतिनार ते जनावरनी शक्ति जोया विना घणा नारनुं खारोपण क खं, पांचमो जत्तपाल एटले रीशवरों करीने जात पाणीनो विछेद करवो, ए सचला प्रतिचार प्रबल कषायना उदयश्री थाय परंतु कषाय विना प्रति चार न लागे, श्रावकें विनय शिखववाने माटें पुत्रादिकने पल यादेपस हितत्वें करी व बंधादिकनुं याचरखुं. तिहां सकारण वधबंधनादिक कर वे करी अतिचार न होय, केम के तेमां परिणामे हितनी बुद्धि बे, तथा लाड करवायी घणा यवगुण थाय. अने ताडन करवायी घणा गुण था य, माटें पुत्रने ने शिष्यने ताडवा, पण लाड करवां नहीं ॥ यतः ॥ लाल नाहवो दोषा, स्ताडनाद्दहवो गुणाः ॥ तस्मात् पुत्रं च शिष्यं च, ताडयेन्न तु लालयेत् ॥ १ ॥ ए पांच प्रकारें पहेला अणुव्रतने प्रतिचार बते जे कर्म बांधयुं, ते निंडुं बुं. तथैव तेमज आलोतुं हुं अथवा पडिक्कमे इत्यादि पूर्ववत् ॥१०॥ इहां आवश्यकनी चूर्णमध्ये तथा योगशास्त्रनी टीकाने विषे ए विधि को बे, ते जेम केः- प्रथम तो श्रावके बीहीतां रहेवुं, एटजे जय राख तांज रहेतुं, जे रखेने मुकने कोइ पण प्रतिचार लागे ! जेम पुत्रादिक तथा दासदासी प्रमुख कर्मकरादिकनी उपर एवी क्रूर ह ष्टि राखवी के जेथी ते जय पामता थकाज रूडे मार्गे प्रवर्ते, इहां कर्मकरादि Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. कमां आदिशब्दं करी पदी, अने दास प्रमुख दीपदजाति, तथा गोमहिष अश्वादिक ते चतुष्पदनी जाति, ए सर्वे लेवां. तथा क्रूर दृष्टिथीज जे वध बंधनादिक विना पण सर्वदा पोतपोतानां कार्य करतां रहे . तो तेने व धबंधनादिक न करवां, परंतु जो ते क्रूरदृष्टिथी वश न रहे रूडे मार्गे न प्रवर्ने, मर्यादामां न रहे, तेवारें कदापि सापेक्षपणे वधबंधादिक पण करे,पण अन्यथा न करे. कदापि जो ताडना करे,तो पण मर्मस्थानक मू कीने वेलडी तथा रासडी प्रमुखें करे. एक स्थानकें वे वार ताडना न करे, जो बांधे, तो पण लांबे दोरडे ढीली गांठ देश बांधे, केम के कदाचित् जो अग्नि प्रमुखनो उपश्व थाय, तो तत्काल बूटी शके, एवां बांधे,जो आकरी गांठ होय, तो तत्काल लूटी शके नहीं तथा अंग उपांगादिक सारी पढ़ें फेरवी हेरवी शके, सुखसमाधियें फरी हरी शके एवा बूटा बांधे. __ तथा ब विजेदने विषे विचारवू जे लोहि विकार गडगुंबडादिक विकारें ले दवु पडे तो पण दयासहितपणे प्रवर्ते, पण निर्दयता न राखे. तथा वि पद चतुष्पदनी नपर नारवहन करवा विषे पोतीया गाडा अधोवाइ प्रमु खें आजीविका करवानुं तो श्रावकने मुख्यत्तियें वर्जबुज कहेलुं ,कार ए के जे नाडीकर्म ले ते तो घणादोषy घर , माटें एणे करी आजीवि का तो नज करवी, पण कदापि बीजी बाजीविका न मले, तेवारें नाडिक में करे, तोपण ते हिपद मनुष्यादिक होय ते जेटलो नार पोतानी मेलें सुखें उपाडीने पोताना माथा उपर राखी शके तथा मस्तकथी.हेठो उतारीने नू मियें मेली शके, तेमज तेने पूढे के अटलो नार तहाराथी उपडशे? ते कहे के हा महाराथी उपडशे तेटलो नार उपडावे पण अधिक जार उप डाववाथी दया रहे नही. तथा चतुष्पदनी उपर पण यथाशक्ति नार मूकवा योग्यहोय तेथी कांक कणो नार नरे. तथा हलशकटादिकें बलद न चाले, गलियो थइ पडे, तेवारें खेदें करी अन्न पाणीनो निपेध करे, कहे के तुं अ पराधकारी बो, वक्र बो, माटे आजे तुमने जोजन नहीं आपीलं! इत्या दिक वचन मात्र कहे पण तेम करे नहीं. कदाचित् तेम करवू पडे तो पण जोजनने अवसरें तेने जमाडीने पती पोतें जमे, पण ते नव्युं होय तिहां सुधी पोतें जमे नहीं. कदाचित् रोगादिकनी शांति थवाने अर्थे तेने नूरव्यु राखवू पडे, तोपण जेम पहेला अणुव्रतने दोष न लागे, तेम यत्न करे. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ए रीतें चोरी प्रमुखनो करनार महा अपराधकारी होय, तेने पण वध बंधादिक करवू पडे,तो पण सापेक्षपणे करे,पण निर्दयपणे न करे,कह्यु के ॥ यतः ॥ वह मारण अप्नरकाण, दाण परधण विलोवणाईण ॥ सब जहन्न उदउ, दसगुणि कसिकयाणं ॥ १॥ तिबयरे परसेसय, गुणिन सय सहस्स कोडिगुणोय ॥ कोडा कोडि गुणो वा, दुऊविवागो बदुतरोवा ॥ २॥ नावार्थः- वध ते मार मारवो, जुहूं बाल देवू, परधन हरण करवू, चोरी कराववी, ते सर्व, जघन्यथी दशगुणा उदय आवे, अर्थात् जो एक वार कयुं होय, तो ते दशगुणुं थाय ॥१॥ वली तेथी आकरे पें कह्यु होय, तो शतगुणुं नदय आवे, तेथी वली तीव्रपणे कयुं होय तो सहस्त्र गुणुं उदय आवे, तेथी कोडीगुगुं, तेथी कोडाकोडी गुएं, एम एक वार, क युं होय, तेनो बदुरीतें विपाक जोगववो पडे ॥ २ ॥ तथा पामा, बोकडा वगेरेनी जे उत्पत्ति के ते बहु दोपनी हेतु , माटे महिष, बकरी प्रमुखनो संग्रह करवो नहीं. नपलदाणथी कोषादिक ने वशे करी हिंसाना कारण एवा जे मंत्र, तंत्र, औषधादिकना प्रयोग , ते पण वर्जवा. ए रीतें बीजा पण अतिचार इहां व्रतने विपे जाणवा. __अहींयां शिष्य आशंका करे , के यहां तो प्राणातिपातनुं व्रत , पण वध बंधादिकनुं तो व्रत नथी तेवारें श्रावकने वध बंधादिक अतिचार केम कहो बो? त्यां आचार्य उत्तर कहे . के प्राणातिपात पञ्चरकाण करे थके मुख्यपणे जो विचारीयें तो अपेदार हित पणे ते वध बंधादिकनु पच्च रकाण थयुंज,कारण के ए पण प्राणातिपातना हेतु ने. इहां शिष्य कहे जे के, तेवारें तो वध बंधादिक करवे करी व्रतज जंग थाय पण अतिचार न थाय अने वली एथी तो नियमनुं पालनज न थयु. एवी संनावना थाय ने ? तिहां गुरु उत्तर कहे , के व्रतना बे प्रकार , एक अन्यंतर त तिथी अने बीजुं बाह्यत्तिथी. तेमां जेवारें क्रोधादिकने वशे अपेक्षा र हितपणे वधादिकने विष प्रवर्ने तेथी को वारे ते जीव मरण पण पामे, तेवारें निरपेक्षपणे निर्दयपणे करीने अंतर्वत्तिथी व्रतनो नंग थयो कहेवाय. कदापि हिंसाने बनावें बाह्यत्तियें पाल्युं, तेवारें देशथी व्रतनंग थयुं क हेवाय. अने देशथी पाल्युं तेने अतिचारनुं आरोपण कहेवाय. ॥ तमुक्तं ॥ श्लोक ॥ न मारयामीति कतव्रतस्य, विनैव मृत्यु कश्हा तिचारः॥ निगद्यते Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. g " यः कुपितो वधादीन, करोत्यसौ स्यान्नियमेऽनपेक्षः ॥ १ ॥ मृत्योरना वान्नियमस्ति तस्य, कोपाद्दयाहीनतयानुजग्नः ॥ देशस्य लंघादनुपालनाच्च, पूज्या अतिचारमुदाहरति ॥ २ ॥ नावार्थ:- जीवने मारुं नहीं, एवं व्रत जेणें कस्बे ने ते जीव मरण न पाम्यो, तेवारें तेने शा अतिचार कहीयें ? जे प्राणी क्रोधवशें वध बंधादिक करे, तेवारें व्रतनी अपेक्षा नर हे. ने जीव मरवाने बनावें नियम रह्यो पण तेनी उपर कोपें करीने दयाहीण थयो, तेणे व्रतजंग थयो कहियें, देशथी नांगो खने देशथी पाल्युं तेने पूज्य जनो अतिचारज कहे बे. अथवा श्रनाजोगें सहसात्कारपणे अविचारवापणुं थाय, तिहां श्र नाजोग ते अनुपयोगपणें सावधानपणे अने सहसात्कार ते यवि मृ श्यकारीपणें ॥ यतः ॥ पुत्रं पासिकणं, तूढे पायम्मि जं पुणो पासे ॥ न तरतिय ते, पायं सहसा करणमेयं ॥ १ ॥ ए व्रत जे बे, ते सघला व्रता दिक धर्मनुं परम रहस्यनूत बे. कयुं बे के ॥ यतः ॥ धन्नाणं रस्कछा, की रंति व जह नव ॥ पढमवय ररकणा, कीरंति वयाई सेसाई ॥ १ ॥ किं ताइ पढिया, पयकोडीए पलालनूयाए ॥ जं इतियं न नायं परस्स पी डा न काया ॥ २ ॥ किं सुरगिरिलो गुरुगं, जलनि दिएगो किं व हुक गंजीरं ॥ किं गया विसालं, कोय अहिंसा समो धम्मो ॥ ३ ॥ नावार्थ:-ध नने राखवाने श्रर्थे जेम वाड करे बे, तेम इहां पहेला व्रत रखवाने अ " बीजा सघला व्रत ते वाडरूप जाणवां १ ॥ जेणे एटलुं न जाएयुं जे परने पीडा न करवी. तो तेणे शास्त्रोनां क्रोडो गमे पद जयां, तो पण ते सर्व तेने पराभूत जावां ॥ २ ॥ सुरगिरि जे मेरुपर्वत तेथकी म होटुं चुं ? समुझ्यकी बीजुं गंजीर नंरुं चुं ? खाकाशथकी बीजो विस्तारवा लो पदार्थ कयो ? हिंसारूप धर्मसमान बीजो महोटो धर्म कयो ? ॥३॥ तथा इतिहास समुच्चयने विषे कयुं बे ॥ श्लोक ॥ सर्वे वेदास्तु तै ताः सर्वे यज्ञाश्च नारत ॥ सर्वतीर्थानिषेकाश्व, कृता यैः प्राणिनां दया ॥ १ ॥ महाभारतादावपि ॥ योदद्यात्कांचनं मेरुं कृत्स्नां चैव वसुंधरां ॥ एकस्य जीवितं दद्यान्न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥ २ ॥ इत्यादि ॥ तथा शतेषु जा यते शूरः, सहस्त्रेषु च पंमितः ॥ वक्ता शतसहस्त्रेषु, दाता जवति वा न वा ॥ ३ ॥ न रणे निर्जिते शूरा, विद्यया न च पंमितः ॥ न वक्ता वाक्पटुत्वे , 2 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. न, न दाता धनदायकः ॥ ४ ॥ इंडियालां जये शूरो, धर्मं चरति पंमितः ॥ सत्यवादानवेक्ता, दाता नूतानयप्रदः ॥ ५ ॥ जावार्थ:- सघला वेद तो तेणें नएया, सघला यज्ञ यागादिक पण तेणेंज करया, सघला तीर्थना अनिषेक पण तेज करया, के जेणें सर्व प्राणी उपर दया राखी ! ॥ १ ॥ महाभारतने विषे कयुं ने के, हे युधिष्ठिर ! सुवर्णना मेरुनुं दान दीये, सक ल पृथ्वीनं दान दीये, ते सहुथी वधारे गुं बे ? तो के जे एक जीवने जीवि तव्य यापे, अर्थात् ते जीवितदाननी बरोबर कोइ पण दान यावेज न ह्रीं ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ तथा शतपुरुषने विषे शूरवीर तो एकज होय, ने हजार मनुष्यमां पंमित पण एकज होय, लाखोजनमां वाचाल पण एकज होय, अने दाता तो होय अने न पा होय ॥ ३ ॥ जे रण संग्राममां जीत करे ते शूरवीर न कहीयें, विद्या जणे ते पंमित न कहीयें, वचननी पटु ता वालाने वाचाल न कहियें, धनना यापनारने दाता न कहीयें ॥ ४ ॥ पण जे इंडियने जीते, ते शूरपुरुष कहीयें, धर्मन यादरे, ते पंमित कहि यें, सत्यवचननुं नाषण करे, तेने वक्ता कहीयें, अने जीवने अनयदान यापे, तेने दाता कहियें ॥ " ॥ अजयदाननो दातार तो तेनेज कहीयें के जे यूको लीख वगेरे हुए जीवने इहवे नहीं, हणे नहीं. ते इतिहास समुचयादिकने विषेकयुं बे के जे मंशमशकादि जीवने पाने, पुत्रनी परे तेमनुं रखोपुं करे, ते प्राणी, स्वर्ग प्रत्यें जनारा जाएवा. एक विष्टानो कीडो, ने बीजो स्वर्गलोकने विषे देवतानो इं, ते बेडुने जीवितनी वांडा तो सरखीज होय बे, घने मरणनो जय पण बेहुने सरखोज होय वे, द याविना सघलाय धर्म निःफल जाणवा. केनी पेठें ? तो के पंचामि सा धक कम तापसादिकनी परें. कह्युं बे के ॥ मय मंमणं व तुस, खंमणं व यम व सर्वपि ॥ कासकुसुमं व वणगा, इथं व वियल इमाइविला ॥१॥ कृपानदी महातीरे, सर्वे धर्मास्तृणांकुराः ॥ तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नंदंति 'पुनः ॥ १ ॥ नावार्थ : - (मय के० ) मृतकने (मंगांव के० ) अलंकार पहेराववानी पेरें, तुस एटले कुशकाने खांमवानी पेरें, (गयमकां के० ) हाथीना स्नाननी पेरें, अर्थात् जेम हाथी नाइने रह्यो होय तो पण पाठो हतो तेमज थाय. तथा कासना फूलनी पेरें, ( वरागाइयंव के० ) अरण्य मां जे गावं, तेनी, पेरें, अर्थात् ए जेम विफल बे, तेम (इमाइविला के०) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. एए ए एक दयाविना सघखं ( वियल के) विफल जाणवु ॥ १ ॥ दया रूपी नदीना महोटा तीरने विषे समस्त धर्म, तृणना अंकूरा समान ले. अने ते कपारूप नदी सूकाये थके तो वली धर्मरूप तृणना अंकूरा क्यां सुधी रहे ? अर्थात् नज रहे ॥ ॥ एम उतां पण कहे जे के यज्ञादिकने विषे हिंसा जे , ते देवपूजानी पेरें धर्म जणी थाय , एम वेदमां कडं . ते सर्व प्रलापमात्र जागवू. कारण के हिंसा तो सर्वत्र निंदित . जो हिंसाथकी धर्म डे, एम क हियें तो विषमांथी अमृतनुं उपजतुं ? पाषाएनी नूमिकाथकी शीतलजल नुं निकलवु ? अग्निना स्पर्शथकी शीतलता थवी ? सर्पना मुखथकी अमृत नो उद्गार ? खलपुरुषना मुखथकी रूडा पारका गुणनो उपचार थवो? खीरसमुश्ना स्नेहल दूधमांथी पूरानुं निकलq ? कादवमांथी कर्पूरनो समूह निपजq ? इत्यादिक सर्ववातो कदापि केवारे देवसहायथी थाय तो पण हिंसाथकी धर्मनो संनव थाय नहीं. ॥ यतः॥ अहिंसासंनवो धर्मः सहिंसातः, कथं नवेत् ॥ न तोयजानि पद्मानि, जायंते जातवेदसः ॥ ॥१॥ नावार्थः-अहिंसायकी धर्म संनवे,धर्म , ते अहिंसाधीज उत्पन्न थयो , ते धर्म हिंसाथी केम थाय? कारण के जलथी कमल उत्पन्न थाय, पण ते अग्निथकी केम नुत्पन्न थाय? हिंसा परदर्शनमां पण निषेधी बेः-॥ यतः ॥ अग्निषोमीयमिति या, पश्वालंबनकारिका ॥ न सा प्रमाणं झातृणां, नामिका सा सतामिह ॥ १ ॥ यावंति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु नारत ॥ तावर्षसहस्राणि, पच्यंते पशुघातकः ॥२॥ अंधे तमसि मऊंति, पशुनिर्येयजत्यहो ॥ हिंसा नैव नवेधर्मो, न नूतो न नविष्यति ॥३॥ नावार्थः-अनिषोममां पशुनी हिंसा करवी एम कहेनारी कारिका ज्ञाताज नने भ्रम करनारी ॥ १ ॥ जेटला पगुना गात्रने विपे रोम डे,हे नारतः तेटला हजार वर्ष पशुधात करनार प्राणी नरकमां पचे २ ॥ २॥ पशुनी हिंसायें करी देवतार्नु जे यजन करे , ते अंधतामिस्त्र नरकमां पडे .अने हिंसा तेज धर्म एम को ठेकाणे होय नहिं.थयो पण नथी ने थाशे पण नहिं. हवे यज्ञने विषे हणेला प्राणी स्वर्ग जाय ने माटे याने विपे हिंसा जे जे, ते दोष नणी न थाय? ए वचन उन्मत्तनां तेनीशी प्रतीति थावे? कारण के जीवने कुमरणें मारवो तिहां मारतां थकां ते जीव महा बाते Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ध्यान रौऽध्याने मरीने स्वर्गने बदले मुर्गतियें जाय एवो संजव थाय जे. शहां धनपालपंतिनी कथा जे एज पुस्तकना त्रीजा नागमां आवेली ले तिहां नोजराजाने प्रत्युत्तरना संबंधे यथाश्रयी उपदेश दीधो ले ते वांचवो. तथा श्रीहर्ष कवियें पण यज्ञने विषे हिंसा डे ते दोषनी हेतु कही , तथा वली नैषधमाहाकाव्यना बावीशमा सर्गना बहोंतेरमा काव्यने विषे पण यझनेविषे हिंसानो निषेध कह्यो ने. यज्ञहिंसाने विषे रुशर्मा वि प्रनो दृष्टांत कहे . रुदत्तना पुत्रं यझने अर्थे गग बांध्यो , ते बागने जातिस्मरण उपन्युं तेना जातिस्मरणनी वात साधुयें यावी कही, जे त हारो पिता जे रुशर्मा ते था बाग थयो , तेनो तुं वध करें , ए तदारो पिता हतो, तेणे ए सरोवर कराव्युं, तेनी पाल उपर वृदोने रोपाव्यां, पड़ी शहां वर्ष वर्ष प्रत्ये अजनो वध करीने यज्ञ करवो प्रवर्त्तव्यो, तेथी ते रु इशर्मा मरण पामीने बाग थयो , एने ते पांच जवसुधी तो यझने विषे शहां हण्यो में. हमणां ए बहो नव पाम्यो . ए सांजली बागने काम निर्जरायें जातिस्मरण झान उपy , तेथी पुत्र प्रत्ये कहे बे के हे पुत्र ! तुं शुं मुझने मारे जे ? हुँ तहारो पिता मुं, जो प्रतीत न आवे, तो निशा नी देखाईं? तेवार पडी बागें घरमां जश्ने निधान दाटी राखवानुं स्थानक देवाडयु. ते निधानने पामे थके प्रतीत उपनी, जैनधर्म सत्य करी जाण्यो, बीजा जीव पण दयारूप धर्म पाम्या. तेमाटे सर्वथा हिंसा वर्जवी. हवे ए प्रथमवत पालवानुं फल कहे . दयाथकी महोटुं नीरोगपणुं पामीयें, कोनुं हण्यु हणाय नहीं एवं झार्नु औश्वर्यपणुं प्राप्त थाय, स वथी अधिक रूप पामीयें, निर्मलकीर्ति पामीयें, धन यौवन दीर्घायु पा मीयें, सर्व परिवार तेने वशवर्ती थाय, घणा पुत्र पौत्रादिक पामियें, तथा समस्त सचराचरमां विजय पामियें, ए निथें दयानां फल जाणवां. __ हवे ए व्रतने अंगीकार न करे, अथवा अतिचार लगाडे, तो ते पांग लो, सूंठो, कोढीयो, काणो थाय, वामन थाय, कुष्टादि महोटा रोगवालों थाय, शोक, वियोग, अल्पायु पामे. कुःख, दौ ग्य, उर्गत्यादिक पामे ॥ यतः ॥ पाणिवहे वता, नमति नीमासु गावसहीसु ॥ संसार मंगल ग या, नरग तिरिरकासु जोणीसु ॥१॥ नावार्थः-प्राणीना वधने विषे व नता एवा जीव संसार मंगलमा रह्या थका नयंकर गर्नरूप वसतिने विषे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १०॥ नरक तिर्यंचादिक योनिमां नमे ॥१॥ए दशमी गाथानो अर्थ कह्यो ॥१०॥ हवे ए प्राणातिपात व्रतने विषे हरिबल माहीनी कथा कहीये .यें: रौप्य सुवर्णादिक लक्षिायें करी विराजमान एवं कंचनपुर नामें नगर ,तिहां वसंतसेन नामें राजा दे. ते सर्व वैरी राजाना सैन्यने त्रास पमाडे एवो . ते राजानी वसंतसेना नामें पटराणी , ते रूपें करीने रुक्षणीने जीते एवी. ते राजा राणीने कां पुत्रादिक डे नहीं तेमाटे मानतां, वतां बतां घणे मनोरथें गुण- पात्र एवी वसंतश्री एवे नामे एक पुत्री थइ ते केहेवी में ? तो के युवानजननामनने उन्मादनी करनारी जाणी वसंतऋतुनी मूर्तिज होय नहीं ! ते वसंतश्रीने योग्य एहवो वरराजा घ | ए जुवे ने पण मलतो नथी. हवे एज नगरमा जश्क जावें हरिबल एवे नामें पाणीमां जाल नाख वामां निपुण एहवो माली वसे डे. तेहने अनार्यमां शिरदार एहवी सत्या नामे नार्या ने परिणामे उष्ट . तेनाथी नित्य बीहितो उग पामतो रहे . सुख तो स्वप्नमांहे पण नथी ॥ यतः ॥ कुग्रामवासः कुनरेंइसेवा, कुनोजनं क्रोधमुखी च नार्या ॥ कन्याबदुत्वं च दरिश्ता च, षड् जीवलो के नरकानि संति ॥१॥ एकदा ते माडीयें नदी कांते एक मुनिने दीठो, ते ने देखीने नमतो हवो. ते मुनियें पूब्युं कां धर्म जाणे ले ? तेणें कर्तुं स्व कुलाचार ते धर्म के ए टुं जाणुं बु. उपरांत बीजो कोई धर्म नथी. ते धर्म हुँ एकाग्रचित्तें पाराधुं बुतेवारें मुनि कहे के ते तो मात्र वचनथी धर्म कहे बे, तेटलोज धर्म तुं माने जे, पण ए धर्म नथी. कुलधर्म ते तो सांजल. हे नइ ! जेहनो पिता उर्जागी, उराचारी उर्विनीत दासपणुं इत्यादिकथी माहानिंदित एहवो हीणो कुलाचार सेवतो होय, ते दीकरो बांझे नहीं ते झुं जाणे ने ? नाना एवो कुलाचार ते धर्म न जाणीश. धर्म तो जीवदयाने कहीये, जेमाटे जीवने राखवो. तेज धर्म, वांछितनो आपनार कल्पवृद सरखो . जे जीवने हणे , ते निरंतर महा पुरंत फुःखनी श्रेणीने जो गवे . एक जीवदया ते अनेक सुःख श्रेणिनी टालनारी अने अनेक सुख श्रेणीनी आपनारी जे. जो तुं कुःखथकी उछेग पाम्यो हो, अने : ख टालवा वांडतो हो ? सुरखपामवानी अनिलाषा राखतो हो. तो हे धीव र! हे गुणवंत! तुं जीवदया पालवानो उद्यम कर. ते वात सांजलीने धीवर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. प्रीति पायो थको मुनिने कहेतो हवो के दया तेज सत्यधर्म व पण माह रुं कुल माबीनुं बे माटे जेम रांकना घरने विषे जोजन न घटे, तेम धीवरना घरने विषे जीवदया केम घटे ? मुनि कहे बे के तुं सर्वथी बांमी न शके, तो मात्र तहारी जालमा पहेलो मत्स्य जे पडे तेने तुं जीवतो मूकजे, ए टलो नियम रूडी रीतें पालीश, तो वडना अंकुराने पाणी सिंचवाथी जेम वडनो विस्तार थाय, तेम व्रतरूप वृक्ष पण रूडा नावरूप जजें सिंच्यो यको अनंत अतुल फलनो आापनार थाशे, ए नियम पालवो सुलन जाली मा हीयें दपैं करीने ते व्रत अंगीकार करयुं. पी ते पोताना यात्माने कृतार्थ मानतां थको नदीना उंमा जलमां जाल नाखतो हवो. ते नाखतां वेंतज एक महोटो मत्स्य यावीने तेह नि यमनुं अतुल फल देखाडवा निमित्तें जालमांहे पड्यो, तेवारें लोजना को जना समूहने रोकता एवा हरिबलें, जेवे ते मत्स्य जालमां यावी पड्यो, ते ज समयें पोताना नियमना राखवा माटें ते मत्स्यने कंठें एक कोडी वां धी दीधी, ने वली पाठो जलमांहे नाखी दीशे वली पाठी जाल नाखी के तुरत तेज मत्स्य निर्भयपणे ते जालमां श्राव्यो, तेने पाठो जलमांहे नाखी दधो, एम घणी वार तेनो तेज मत्स्य जालमां यावतो जोइ तेणे ते स्था नक बोडी दीधुं. अने पाढो वली बीजे ठेकाणे जाल नाखवा लाग्यो, तो पण पाठो तेनो तेज मत्स्य जालमां श्राववा लाग्यो, एम करी ठेका बदलत बदतां तेने सायंकाल थइ गयो. तो पण तेनो तेज मत्स्य धाववा लाग्यो, परंतु तेने लगार पण पश्चात्ताप थयो नहिं. घने पोताना नियमनो बे दृढ आशय जेहने एहवा धीर धीवरें श्रापदामां पण धीरता न मूकी. सांक समये ते मत्स्यने पाठो पाणी मां मूक्यो, तेवारें ते मत्स्य मनुष्यनी वाणी यें बोलतो हवो, के हे साहसिक ! ताहरे साहसें करीने डुं तहारा उपर तुष्टमान थयो बुं, माटे वर माग. ते सांजली हरिबल वि. स्मय पामतो थको ते मत्स्यने कहेतो हवो के तुं मत्स्य थइने मुऊने गुं यापीश ? ते कहे. तेवारें मत्स्य बोल्यो के, तुं मुऊने मत्स्य म जाए, हुं ल समुाधिष्ठित देवता बुं, यहीं समय विचारीने तहारा नियमनी मर्या दा में दीवी, कारण के घणा जन तो व्रत बेताज नथी घने केटलाएक जेबे, तो लइने पालता नथी, परंतु जे नियम लइने तेने बराबर पाले, एवा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १०३ ताहरा सरखा पुरुष तो घणाज उठा बे. माटे या तारा नियमनी दृढता देखीने हुं तुष्टमान थयो बुं. तेथी तुं जे वरदान मागीश, ते दुं प्रापीश. तेवारें हरिबल हर्ष पामीने कहेतो हवो के जेवारें मने कांहि पण आपदा पडे, तेवा तत्काल तेमांथी मुऊने तुं बोडावजे. हुंए वर मागुं बुं. वली ते वात तेणें अंगीकार करी वरदान यापी देवता अदृश्य यर गयो. हवे ते हरिबल मत्स्यना अलानथी पोतानी जार्याथी बीहितो थको न गरनी बहार को देवकुलने विषे खावी रह्यो घने त्यां विचारवा लाग्यो के महारे वे प्रकार शंका नरेला थया, तेमां एक तो हुं धीवर बुं ? बीजुं वरतां मुने वतुं नियमनुं फल मल्युं ? ते केनी पेठें ? तो के जेम चक्री, प्रजातें शाल वावे, अने सांफे लुणे ? तेम मात्र एकज जीव नगा स्वाथी, मुजने देवतायें तुष्ट थइ वर खाप्यो, तो जो हुं सर्व जीवनी दया पालुं, तो वली केटलुं फल प्राप्त थाय ? " माटे धन्यां धन्य तेने बे के जे सर्व जीवने उगारता हशे ? खरे ! धि कार हजो मुकने, जे निरंतर जीवने हणुं बुं. जो कोई उपायें महारी या जीविकानो निर्वाह थाय तो सुकतनी नाश करनारी एवी हिंसाने विषल तानी परे हुं तत्काल बाहुं ! जेणें या नवने विषे धर्मनुं फल दीतुं बे, ने प्रकृतियें करी नक बे, तेवानुं कल्याण थाय छे ! हवे जेवामां एवी रीतें हरिबल चिंतवे बे तेवामां तिहां शुं ययुं ? ते कहे बे. एकदा राजानी पुत्री गौखने विषे बेठी हती, एवामां रूपें करीने जेणें ने जीत्यो बे एषा हरिबल एहवे नामें एक व्यवहारीयानो पुत्र बे ते गोंख नी नीचें चाल्यो जतो कुमरीयें दीठो. ते देखीने कुमरीने तेनी उपर राग उपन्यो. ने मनमां चिंतववा लागी के जो ए महारो जरतार थाय, तो मा हरां वांवित मनोरथ फजे ! एम विचारी तेणीयें पोतानो मनोगत नावा र्थ पत्रमां लखीने ते व्यवहारीयो ज्यां चाव्यो जाय बे, त्यां ते पत्र नाख्यो. पत्र पडतो देखीने ते व्यवहार। पुत्रे जेवामां चंचुं जोयुं, तो त्यां ते कन्या नीने तेन दृष्टि दृष्टि मली पछी ते कन्याने कंदर्पनी स्त्री रतिज जापो होय नहिं ? अथवा काम दीपाववानी जाणे औषधिज होय नहिं ? एवी दीवी. पी परस्पर बेहुने राग उपन्यो ने मांहोमांहि संकेत पण को के कालिचौदशने दिवसें यापण बेदुयें मली दूर देशांतर जरूर जनुं खने Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ . जैनकथा जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. कन्यायें कह्यु के हुँ कालिचौदशने दिवसें रातें देवीना दर्शननो मिष लेख्ने देवीना मंदिरमा आवीश. तमें पण त्यां आगल जश्ने रहेजो. एम यथा स्थित ठेराव कस्या, पढी कामरागें विनीत शिष्यनी पे जे कांश कुमरीयें कडं ते मानीने पोताने घेर गयो. पनी तेना संकेतनो दिवस अने हरिब ल माजीना नियमनो दिवस एकज आव्यो. ते दिवसें देहराने विषे चिंतायें पीडित थको माही जा रह्यो ने. हवे जे मति ते कर्मने अनुसारेंज आवे , तेमाटे ते व्यवहारी पुत्र हरिबल चिंतवे जे जे ए कन्या तो कामयहें करी घेली थ बे, पण कां तेवो घेलो नथी. वली स्त्री जातें प्रसन्न कार्य नी करनारी होय , अने रात्रि मे ते पण पाप कार्यनी सहायक ने. व ली आगल मुने सुख थाशे, ते कोणें दीतुं छे ? पण हमणां तो ढुं अपरा धनो करनार थानं! अने वली मुने माबापनो वियोग पण थाय? तेमज राजाने खबर पडे, तो मने मारी पण नाखे? एवी आशंका उपनी तेथी जवानो अभिलाष तो तेने घणो हतो, पण मनमां जय आणी घेरज बे सी रह्यो, गयो नहिं. जाते वणिक बे, माटे बीकण जे ॥ यतः॥ स्त्रीजा तो दांनिकता, नालुकता नूयसी वणिग्जातौ ॥ रोषः क्षत्रियजातो, हिज जातौ स्यात् पुनर्लोनः ॥ १॥ नावार्थः-स्त्री जातने विषे कपटनाव घणो होय, वणिकने नय घणो होय, दत्रियने रोष घणो होय अने ब्राह्मणने विषलोज घणो दोय ॥१॥ जे घणो बीकण होय ते हि लोकनां सुख नो गवी न शके, परलोकें यात्मानु हित पण करी न शके,तेमज एवं जाग्य ए नुं किहांथी होय ? जेहनु पूर्ण नाग्य हशे तथा ते कन्या साथे पूर्वजन्मनो जेने संबंध दशे ते ए कन्याने परणशे ? हवे ते कन्या पोता, कार्य साधवा निमित्ने मा संघातें कारमो कलह करीने जुदी रही. पड़ी ते कन्या, संकेत ने दिवसें जातजातनां रत्न, आनरण, वस्त्र इत्यादिक सारी सारी वस्तु ल घोडा उपर बेसीने दरवाजे आवी अने प्रथम दरवानने मुश्किा रत्न आ पी पोल उघडावी कालिकादेवीने मंदिरें गइ. पली निर्विघ्नपणे हर्ष पामती हरिबलने बोलावती हवी के, कोइ पुण्यवंत एहवो दरिबल नामें इहां ? देवीनी परें दिव्य अलंकारें नूषित अने तुरंगें बेठी एवी कन्याना अमृत सरिखां वचन कानमांही पञ्यां, ते सांजलीने माजी हर्ष पाम्यो, अने पो तानी स्त्रीची उधेग पामेलो एहवो ते हरिबल विस्मयपूर्वक हर्षित चित्तें Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. १०५ देहरामांहि रह्यो थकोज ते कन्याना संतोष निमित्ते ढुंकार एवो शब्द बो लतो हवो. ते ढुंकार सांजलीने ते कन्या बोली के वेहला तश्यार था वो, आज देशांतर जवानो आपण वेहुनो मनोरथ फल्यो. हवे हरिबलें नि श्चय कस्यो के माहरे नामें कोई बीजो हरिबल हो, तेनी साथै संकेत , पण वगर प्रयासें स्त्री मली ने मुझने ते प्रीतियें करीने तेडे , तो हुँ शा माटे तेनी संघातें न जावं ? पुण्य उदयथी योग बन्यो ? एह विचारी देहरामांहिथी निकली ते कन्यना मुख पागल थश्ने आगल चालतो हवो. हवे हरिबलें चिंतव्युं जे ए सर्व एक जीवनी हिंसा न करवी, तेना नियम नुं फल , एहवू जाणीने निर्वाह माटे जे हिंसा करतो हतो तेने बांमतो हवो. कोक रांकने जेवारें राज्य मले तेवारें तेजीख मागवानुं तीकरूं जेम बांकी दीये तेम ते पण तेनी माला पकडवानी जाल तिहांज गंमतो हवो. हवे ते हरिबलने नागो तथा वाहन रहित देखीने ते कन्याने शंका उप नी, तेथी ते कुमरी हरिवलने पूबती हवी, के तुं आम केम बो ? कोणे त हारी पासेंथी वस्त्र तथा वाहन अपहरयां ले ते सांजलीने माजी विचारतो हवो के माहरुं कर्मयाजज अपहयुं माटे बोलवू नहिं. एवं मनमां चिं तवीने ते रूडी बुझिनो धणी हरिबल, ते कुमरी प्रत्ये उत्तरमा ढुंकारमात्र ज करतो हवो. तेवार ते कन्यायें एहवोज निश्चय कस्यो के एणे सर्व व्य स्खोयुं देखाय , माटे तेहनो खेद करीने ढुंकार मात्रज उत्तर करे . एह विचारीने रूडां वस्त्र, अलंकार, तेने पेहेरवाने थापती हवी. वली कहेती हवी के कीथी गणी न शकाय, एटच॑ इव्य महारीपासें ने, माटे तुं फिकर करीश नहिं आपणुं वांडित सिम थशे. बते धने माह्यो होय ते जेम हिणुं स्वप्न न संजारे, तेम तुं खेद न संजार. एम कहीने हरिबलनी साथें विनोद माटे प्रेमरसनी वार्ता करवा मांमी. ते कन्या जे कहे ,ते हरिबल सांजलीने विचारे जे जे हमणां तो सर्वत्र एक ढुंकारज फलदाथी जे.एq चिंतवीने फरी फरीने ते एक ढुंकार मात्रज उत्तर देतो हवो. तेवारें शंका पामती एवी कुमरी विचारे ,जे कांश जणातुंनथी के गं ए अहंकारी जे, जे एक हुंकारज करे !!! ते ढुंकार पण वली नाठो थको वेगलो रही बोले ने ! कांश महारी उपर कोप्यो दशे ! श्यामाटे महारी साहमुं पण जोतो नथी. वली ते कन्या एम पण विचारे ,जे.आ उहत गतियें १४ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. चाले , माटे रखे ने हरिबलने काणें कोईवीजो तो न होय ? एहवी शं कानी व्यथायें पीडाणी थकी जेवे पागल चाले , तेवामां चंमानो उद य थयो, तेवारें पासें जश्ने जोयुं तो वांवित वरथकी अन्य पुरुष दीठो, त्यारें अति हाहाकार करती हवी,जेम कोइने आकरो वजनो घा वागे ने व्यथा पामे,तेम ते कुमरी दुःख पामती ती विचारे के धिर धिग होजो विधाताने के जेणे वेदुथकी मने भ्रष्ट करी ! हवे ढुं कादवमां खूतेला हा थीनी पेरें था बुं ॥ यतः॥ निदाघे दाहालः प्रचरतरतृष्णातर लितः, सरः पूर्ण दृष्ट्वा त्वरितमुपयातः करिवरः ॥ तथा पंके मनस्तटनिकटवर्त्तिन्यपि यया,न तीरं नो नीरं यमपि विनष्टं विधिवशात् ॥ १॥ नावार्यः-नुष्ण कालने विष दाहें पीड्यो अत्यंत तृष्णायें आकुल एवा को हाथीयें पा पीनुं नरेलुं सरोवर दातुं, तेवारं उतावलो तेमां पेडगे, अने कादवमांहे खू तो, तेने कांतो पण समीपवर्ती ने, अने पाणी पण पासे , तथापि ते हाथी कादवमां पड्यो थको पाणी पण न पाम्यो, अने कांठो पण न पा म्यो, कर्मने वशे बेदुथकी चष्ट थयो ॥॥ नेम मने पण माबापनो विरह, राज्य लक्ष्मीनु बांमवं, अने लोक विरुक्षादिकने आचरवे करीने पूर्व हस्ती समान थयु. वली मने मणिने ठेकाणे माटी हाथ श्रावी, ए फल सर्व मु ऊने स्वबंदपणा, थयुं ! माटे पुरुष अथवा स्त्री जे कोइ स्वबंदाचारी होय, तेहने आवां फल मले ने ! तेमां पण स्त्री जातिने तो विशेपें फल मले, ते में को, माटे मुझने मुदिनी धणीयाणीने धिक्कार ले जे वली पहेलांज में एने नागो निर्धनीयो जाण्यो तो पण अन्य जे एम जाण्यो नहिं, हवे मा हरी शी गति थाशे ! अरे हुं जीवितपर्यंत खेदनुं कारण थ! अरे एनाथी जो दुं मुश् होत तो सारं थात ॥ यतः ॥ उर्विध पुर्नग उप्कुलउष्टनिष्ठादिद यितसंयोगात् ॥ नित्यं जीवन्मरणात्,श्रेयःकरणं सकन्मरणम् ॥१॥ हवे ते कन्या अत्यंत वार्तपीडित मरवू वांडती मूढपणे करी मार्गमां अचेतन थ पडी. मूळ उतस्या पली धरतीये आलोटती हवी. हां हरिबल चिंतवे ने,जे एनी साथें गृहवासादिकनी आशा करवी ते फोक ट,अने तेतो मुझने देखीने अग्निमां पज्यानी पेठे थइ! हवे शहां मारे गुंक र ? जो देवता,महारा व्रत नियमना फलयकी माहरुंसान्निध्य करे,तो कार्य बने,एम मनमांहि चिंतवे डे एटले कुमरी विचारवा लागीजे गया पुरुषनो शो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १०७ शोचकरवो ? पोतानी प्रशंसा करवी, एहथी पोतानो अर्थ बगडे, तेमाटे जे मूर्ख होय ते शोचना करे ॥ यतः ॥ गतं न शोचामि कृतं न मन्ये ॥ एटला माटे हवे तो एहज जरतार देवें प्राप्यो ! एहनेजपे विशेष प्रकारें जोनं, जे ए कोण बे, एनीशी जाति बे ? गुं एनुं स्वरूप बे ? अने ते तो जेगयो तेहने ठे काणे एहज आागल नाग्यवंत थशे अथवा ढुंज मंदनाग्यवान् होइश, जे ए हनी पूर्वे चाली, पूर्वे कांइ धायुं जोयुं नही. एउलामाटे एहने पूढीने निर्णय तो करूँ ? एम जेवामां विचारे बे, तेवामां आकाशें देववाणी य३ के, हे कुमरी ! जोतुं समृद्धिने ती हो तो तुं एने वरजे, ताहरो खने एनो बेदुनो होटो उदय थ ने ताहरो महोटो भाग्य फल्युं माटे तुं एहने अंगीकार कर. एहवी काशी देवतानी वाणी सांजलीने हृदयने विषे यानं पामीथकी स्नेहें कर संयुक्त नम्रनावें मीठी वाणी यें करी हरिबलने बोलावती हवी. खने पूर्वे गलामां शोप उपनो हतो तेथे करी तृषाने माटे पाणीनी याचना कर ती हवी, ते पण शीघ्रपणे जइ रात्रिने विषे जलनुं स्थानक शोधी पाणी लावीने प्रतिशयपणे पीवरावतो हवो. प्रीतिना वरों जे कार्य कष्टें निपज तुं होय, तो पण ते कार्य करतां कष्ट जगाय नहीं. हवे कन्या विचारे बे जे रात्रिनी वेलायें अंधारामां रत पाणी लाव्यो वार पण न लागी, तेथी ए पुरुष साहसिक देखाय बे ! एहवो कुमरीयें निश्चय कस्यो, जे हवे कार्य निपजशे ! एम वेढुं जल मार्गे विचार करे बे. त्यां प्रजात य j, हवे जालीये सूर्य पण वेनो स्नेह जोवामाटे व हेलोज बग्यो होय नहिं ? तथावली जालीयें वेदुनी प्रीति वधारवानेज उदय थयो होय नहिं ? हवे ते कन्या प्रात काल थयो एटले हरिबलनुं अत्यंत रूप देखीने सुप्रसन्न य वारंवार हरिवलनां रूप सौभाग्य अतिशय जोड़ने केहेती हवी के हे सुनग ! हवे अवसर थयो या लग्न वेला बे, एटलामाटे मारुं पाणिग्रहण करो. पूर्वे में निर्धार को हतो, ते अवसर हमला थयो छे. हवे हरिबल विचारे बे जे हो ! नियमनो महिमा केहवो बे !! एम विचारी हर्षसहित ते कन्याने गांधर्व विवाहें हर जेम लक्ष्मीने वरे, तेम परणतो हवो. तेहज दिव सथी हरिबलने पुण्यें लक्ष्मीनो उदय थयो. " हवे खागल जातां कोई गाम श्राव्युं, तेवारें ते कन्याने वचने ग्राम म जाणे मार्गे जइने तु बलिष्ट, पराक्रमी, अने हरिवजें पस जाएयुं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ध्ये जश्ने लक्ष्णवंतो एहवो घोडो लीधो,अने दास दासी प्रमुख सर्व नवां माणस राख्यां. बते इव्ये कोण शरीरने क्लेश उपजावे ? पढी दास्यादिक स हित चालतां बहु देश संघतां उलंघतां अनुक्रमें लक्ष्मीयें करीने विशाल एह Q विशालपुर नगर आव्यु,एहवे रूडे शकुनें नगरमांहि प्रवेश कस्यो,एटले एक व्यहारियो मव्यो. तेवारें हरिबलें तेनी पासेथी सात नूमिनो आवास नाडे लीधो, ते मध्ये रूडे मुहूर्ते वास कस्यो, तिहां सुखें रहे तो हवो अनेक न्याने इव्ये करी सर्व घरनी सामग्री नवी करतो हवो. हवे हरिश्चल विचारे जे नीच माबी किहां बने पुण्यवंती ए कन्या किहां ? वली आ धननी सामग्री किहां ? तथा ढुं निर्धन किहां? पण ए सर्व मुझने देवना योगथी बन्युं ,तो हवे एहवी लक्ष्मी पामीने टुं श्यामाटे लक्ष्मीनुं फल न लहुँ ? एह विचारीने दीन फुःखीजनने दान देतो हबो तथा लक्ष्मीने जोगवतो हवो, तेणे करी तेनुं अतिशय सौजाग्यादिक यश विस्तरतो हवो. नगरने विषे एहवी वार्ता विस्तरी के कोई एक परदेशी राजपुत्र याव्यो बे,ते अस्ख लित दान आपे , माहा गुणवंत डे, उदार चित्तनो डे, दानथकी झुं न थाय ? ॥ यतः॥ पात्रे धर्मनिबंधनं परजने प्रोद्ययाख्यापकं, मित्रे प्रीति विवर्धनं रिपुजने वैरापहारदमं ॥ नृत्ये जक्तिनरावहं नरपतौ सन्मान पूजाप्रदं, नद्यादौ च यशस्करं वितरणं न काप्यहो निःफलं ॥ १ ॥ जामर्थः-दान जे , ते पात्रने दीधुं थकुं धर्मनुं कारण थाय बे, पा त्रविना अन्य जनने दी● थकुं दयानुं सूचक थाय ,मित्रने देवाथी प्रीति वधारवानुं हेतु थाय ,शत्रुने दीधाथी वैरनो अपहार करनारुं थाय ,चा करने दीधाथी ते नक्ति करे , राजाने दीधाथी जला मान पूजा सत्कार नुं आपनासं थाय डे, नट्ट प्रमुखने देवाथी यशोवादनुं करनारूं थाय बे, माटे दान दीधुं ते क्याहि पण निःफल थतुं नयी ॥१॥ ___ए वात राजायें सांजलीने सनामध्ये महोटा बहुमाने तेडीने, बहु स न्मान दश्ने, पोतानी पासें बेसारी गोष्टि करी. हरिबल ते दिवसथी मां मीने नित्य राजानी सेवा करतो हवो. जेहने पुण्य पांशलं होय, तेने सर्व पांशरुंज . एटला माटे हरिबलने राजायें रूडो प्रसाद कस्यो. हरिबलने ते राजा कहेवो थयो ? तो के जेवी कामधेनु होय, तेवो थयो. हवे हरिबलें विचायुं जे राजा साथें नवी प्रीति थर, एटला माटें रा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए जाने जमाडवो जोयें,एहवं विचारी घणे बहुमाने राजाने पोताने घेर तेडीने घणी नक्तियें जमाडतो हवो. राजा जमतां जमतां पक्कान्नादि पीरसती एवी हरिवलनी नार्या वसंतश्रीने देखीने कामातुर थको चिंतवे ,के शीघ्र एह रिवलने हणुं तो ए स्त्री महारे हाथ आवे. धिक्कार के कामी पुरुषने ! हवे एहवा कामातुर थयेला राजाने प्रधान पण वारतो नथी, उलटो राजानो अभिप्राय देखीने ईर्ष्यायें राजाने प्रेरतो हवो. माटे धिक्कार ते प्र धानने के जे राजाने अनर्थनी खाणमां नाखे जे ? ॥ यतः॥ सर्वत्र सुल ना राजन,पुमांसः प्रियवादिनः ॥ अप्रियस्य तुपथ्यस्य, वक्ता श्रोता च उर्ल नः॥१॥ नावार्थ:-हे राजन् ! मीठा वचनना बोलनारा पुरुष मलवा तो सर्वत्र सुलनज डे, पण कटुक वचनना कहेनारा रोगीने पथ्यना कहे नारानी पेरें तथा सांजलनारा एवा मलवा उलन . हवे प्रधाननी बुधियें हरिबलने मारवा निमित्तें राजा बोल्यो.माहरे वि वाह महोत्सव उत्कृष्ट मांमवो के ? एटला माटे एवो कोइ सत्त्ववंत ले जे सर्व परिवारसहित विनीषणने संकायें जश्ने तेडी लावे. एहवो राजानो अघट तो आदेश सांजलीने सर्व नीचं मुख करी रह्या, पण कोश्ये राजा सामु न जोयु, तेवारें कपटनो नंमार एहवो प्रधान बोल्यो, के हे राजन् ! ताहरा सेवक केवा जे जे स्वामीनो आदेश पामी असमर्थ थका नीचं मुख करी रह्या छ ? पण कोइ साहमुंज जोता नथी,पण ढुं जाणुं बुं जे साहसिकमां शिरोमणि एवो एक हरिबल डे, बीजो कोइ नथी. ए तमारुं कार्य अवश्य करशे? ए तमारो मानीतो ,तमें पण एने मानो बो ते सांजलीने राजायें हरिबल साहमुं जोश्ने कयुं, तेवारें हरिबलें लगायें करीने हा कही, जे माटे लजा ते महोटी वात . लजायें पुरुष विषम कार्य होय ते पण अंगीकार करेज. लजायें मरवू पण कबुल करे. हवे ते वात हरिबलें वसंतश्री ने संनलावी. ते वसंतश्री सांजलीने विषादधरती, राजा, उष्ट चित्त जाण ती हरिबलने ठबको देती हवी. के हे स्वामी ! राजाने घेर तेड्याथी तुमने केवो अनर्थ थयो? तेणे तुमने हणवाने अर्थे ए अनर्थ मांड्यो ,एटलामाटे तमें विचास्याविना उतावल करीने हा केम कही ? अणविचास्या कामथी पतं गीयानी पेठे तमे अनर्थ पामशो ॥ यतः॥ सहसा विदधीत न क्रिया,अविवे कः परमापदां पदं ॥ वृणुते हि विमृश्यकारिणं,गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. नावार्थः- विवेक रहित पुरुष जो अकस्मात् उतावलो थर कार्य करे बे, तो अत्यंत आपदानुं स्थानक पामे . जे निश्चें विचार करीने करे , ते पुरुषने गुणनी लोनी एवीजे संपदा ते पोतानी मेलेंज वरे ॥१॥ ए दाक्षिण्य शा कामर्नु! ए लगा पण शा कामनी ! जेथी पोतानो अर्थ विणसे ? हजी कांबगडयुं नथी, कांक मिप करीने राजाने उत्तर आपो. एवी वसंत श्रीना मुखथी वात सांजलीने हरिबल कहे जे के हे प्राणप्रिये ! साहसिक पुरुचे जे प्रतिज्ञा करी, ते पानी न फरे, प्राण जाय तो जाट, पण प्रतिझा नंग न करे चश्माने आपदा पडे ने तो पण ते मृगनुं लांबन नथी बांगतो? ॥ यतः ॥ अलसायंतेण विस, ऊणेण जे अरकरा समुन्नविया ॥ ते पर टंकणकरी, अवनहुँ अन्नहा हुँति ॥१॥ बिऊ उसीसं अह हो, बंधणं चय न सबहा नबी॥ पडिवन्न पालणेसु, पुरिसाणं जं होतं होन ॥ ॥ नावार्थ:- जला सजन सत्पुरुचे तो जे पोताना मुखथी अदर उच्चस्या बोल्या होय, ते अदर पबरनी उपर टांकेला सरखा थया ते अन्यथा वी जा अदर न याय ॥ १ ॥ चाहो तो मस्तक लेदाउँ, चाहो तो वंधनमां प डो अथवा सर्वया लक्ष्मीनो नाश था जेम था होय तेम ना था, पण अंगीकार करेली वात ते फरे नहीं. जे अंगीकार करीने निर्वाह न करे, ते कायर पुरुष जाणवा. तेहनो जगतमां अपयश , एटला माटे ए कार्यने अर्थे अवश्य जq पडशे, जे यनार होय ते था. मुझने महारी पोतानी तो कांई चिंता नथी, पण ताहारी चिंता रहे , जेम सिंह हर गीने हरे, तेम राजा तुमने रखेने हरे ? ए चिंता जे. एहवी वाणी सांन लीने वसंतश्री हर्ष पामीने जरतार्नु उत्तमपणुं निर्धारती हवी. अने विर हाकुलथकी गदगद वाणी एम कहेती हवी जे तमने पंथने विपे कल्या ण था. कार्य करीने वहेला आवो. माहरी चिंता राखशो नहीं. उत्तम स्त्री जीव जाय, तो जवादे, पण पोतानुं शील राखवाने सर्वथा माहीज होय, परंतु एक तमने ढुं कहुं बुं, जे तमें पोतानुं जीवितव्य राखजो. अ विचास्युं कार्य करवाथी पतंगनी पेठे मरवू नही. कह्यु के के ॥ यतः ॥ जीवन्नाण्यवाप्नोति, जीवन्पुण्यं करोति च ॥ मृतस्वदेहनाशस्य, धर्माद्यु परमस्तथा ॥ १ ॥ जावार्थ:-जीवतो पुरुष कल्याण पामे, जीवतो जीव पु एय करे अने मरण पाम्या पली शरीरनो नाश थाय तेम धर्मथी पण वेगलो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १११ थाय ॥ १ ॥ हे प्राणनाथ ! माह्या पुरुषने स्त्रीनी शीखामण शी ! पण स्नेहें करीने घेलीथकी रहेवातुं नथी तेणें करीने हुँ जेम तेम कई बं. स्नेहवती एवी जोली स्त्रीनी अमृतसरखी वाणी घणी वार पीने हरि बल,दक्षिणदिशायें जतो हवो. साथै एक सत्यरूप मित्रज ,निःसंगीनी परे ग्राम, देश तथा विकट अटवी वगेरे सर्वने मूकतो समुश्ने तटें आव्यो,स मुश्अति बीहामणो देखीने मनमांहि चिंतवतो हवो, जे एहवो समुह के म उलंघाशे ? केम लंकायें जवाशे ! नाव तो यहां कोई नहिं अने कार्य कस्या वगर पालो पण केम वलु ! माटें दुं धीवर हतो तेमांथी अटली म होटी पदवी महोटुं स्थान पमाडवानो सान्निध्यकारी देवता थयो . मा हरूं माठीपणुं जेणे हयुं , ते देवताज मुझने संकायें पहोंचाडशे ! एवी रीतें हरिबल समुश्ना समागमें दणेक वार विचारमाही पज्यो, जे हवे गुं करवु ! एवामां धैर्य अवलंबन करीने चिंतवतो हवो के हे जीव! कायरता करवी, ते तुमने घटे नहिं ! एहवं विचारीने जे मरूं बु के जीवं ! जे थ नार होय ते था, मरवु एकज वार जे. जे अंगीकार कऱ्या कार्य, ते न थ ये मरवुज रूडं! एह निर्धारीने उतावलो समुश्मां ऊंपापात करतो हवो.जेट से ऊंपा दीधी तेटले समुज्ञाधिष्टित देव तिहां पुर्वनी परें वरदाननो खेंच्यो थको आवी प्रणाम करीने कहेवा लाग्यो के मुजने तहारा नियमनुं फल तो विसऱ्या हतुं, पण निधाननी परें आपदायें दुं मारी मेलेंज तुमने सहाय करीश! ए व चने तुो थको तुं कहे ते करवा तैयार .तेवारें हरिबलें कयुं. मुझने लंकायें मु कवो अंगीकार कस्याथीज कार्यनिर्वाह थाय. पनी हरि सरखो हरिवल अ ने कालिनाग सरखो देवता, ते महोटा मत्स्यनुं रूप करी वांसा उपर हरिबलने बेसारीने समुश्मार्गे चाल्यो, ते समुश्पतियें पवनना प्रेस्या वा हानी पेठे थोडी वारमां लंकाना उद्यानमा जइ मूक्यो, ते हरिवल थो डीक वार मध्ये विद्याधरनुं वन, सर्व ऋतुनां फूल, वृद वगेरेने जोतोग म गम फरतो फरतो सुवर्णमय लंकामांहे प्रवेश करतो हवो. ते लंका न गरीनी शोनाने जोतो थको लंकानगरीनां कौतुक जोतो जोतो तृप्तिज पा म्यो नहिं. एवामां कोश्क शूनुं कनकनुं नुवन आव्युं,ते देखीने आश्चर्य पा मतो हवो ते नुवन केहq ? तो के किहां एक तो मेरुसरखा अण घड्या सोनाना ढगला पड्या , किहां एक टेकरा जेवा सोनैयाना ढगला ,दा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. णाना ढगलानी पेठे किहांक मोतीना ढगला , चमोतीना ढगलानी पेकिहां एक परवालाना ढगला,खडीना ढेफाना ढगलानी पेठे किहांएक स्फ टिक रत्ननां ढगला, लीला घांसना ढगलानी पेठे किहांक नील रत्नना ढग ला, जांबुफलना ढगलानी पेठे किहांक रिष्ठ रत्नना ढगला, बोरना ढगला नी पेठे किहांक रातामाणिक्यना ढगला, काचना कटकाना ढगलानी पेठे किहांक हीराना ढगला, बीजा पण विविधप्रकारना मणिना ढगला, कांक रानी पेठे घणा पड्या ने. लाकडां जेम बालवाने माटें खडकी मूक्यां हो य तेम बावनाचंदनना ढगलाने ढगला खडकी मूक्या बे, तेणे करीने सु गंधमय बे, बहु मूल्यवान वस्त्रना गांउडा, देवडुष्य वस्त्रना गांउडा बांधी मू क्या , जाडा जीणा रत्न कंबल प्रमुख अनेक जातिनां जननां वस्त्रना गांउडा बांधी मूक्या ,वली माटीना वासणनी पेठे मणिना सुवर्णना नाजन नी उत्रेडो खडकी मूकियो .बीजा पण घणा घरने योग्य आसन सकादिक जे,एहवा पदार्थो घरने विपे देखीने विस्मय पामतो हवो. एह दिसमृद्धि सहित घर शूनुं केम डे ? एम विचारतो घरना उरडामांहि पेतो. तिहां जेम कमल करमाणु होय, तेम सौजाग्यादिक गुणे सहित एहवी स्वरूपवंती नवयौवना कन्या मुइ सरखी पडी देखीने, विस्मय पामीने चिंतवतो हवो. के अरे ! दैवनी गति कोण जाणे!!! घर तो था शदियें करी संपूर्ण ने कन्या एकली शब सरखीज डे. ते देखीने कांक खेद धरतो थको एक तुंबडं अमृतें नहुं देखीने विस्मय पाम्यो. तेमांथी अमृत लइ ते कन्याना सर्व शरीरें सिंचतो हवो. जेटले अमृतना बांटानो स्पर्श तेना शरीरें थयो, तेज वेलायें जेम संघमांहिथी ती वेती थाय,तेम ते कन्या उठी वेठी थइ. अने जेटलामा जुवे डे, तेटलामां तो तेणे हरिवलने दीठो, तेवारें प्रणाम करी स्नेहने वधारती एहवी वाणीयें करीने बोलावती हवी. के हे उत्तम ! ताहरा उत्तमपणानो में निश्चय कयो, जे तें मुझने नपगार कस्यो, तेणें करीने ढुं जाणुं हुं जे तुं उत्तम बो तो पण तुं कोण गे? केम वहां आव्यो हो ? किहां रहे ले ? ते कहे. हवे हरिबल कहे जे के विशाला न गरीनो मदनवेग राजा , तेहनो हुँ सेवक बुं. माहरूं नाम हरिबल डे, राजाने अति वन्नन . लंकानगरीनो राजा जे विनीषण डे, तेने नोतर वाने अर्थे मुजने मोकल्यो . अहिंसाधर्म प्रनावें देवतायें मत्स्यरूप धा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ११३ रण करीने मुझने हां मूक्यो . हवे यथास्थित तुं ताहाँ वृत्तांत कहे. ते सांजलीने हर्ष पामी थकी, ते कन्या पोतानुं वृत्तांत कहेती हवी. विनीषण राजानो माली पुष्पबटुक एहवे नामें माहरो पिता ने परि णामें हीणो ने, हीणा कामनो करनारो बे. कुसुमश्री एवं मारुं नाम ने विषधरना विषनी हरनार एवा विषधरना मणि जेवी मने जोस्ने अन्यदा म दारा पितायें कोइएक सामुश्किना जाणने माहारां लगने मेले पूज्यु, के आने केहवो जरतार थाशे? त्यारे तेणें कह्यु के एहनो जरतार राजा थवो जो ये.ते सांजलीने राज्यनो लोनी थको बोकडा सरखो ते मूर्ख मुज्ने परणवा जमाल थयो, लोनें करी अंध एवो जीव गुंअनर्थ न करें?॥ यतः ॥ रत्तिं धा दीहंधा, जचंधा मायमाण कोवंधा॥कामंधा लोहंधा,श्मे कमेणं विसेसं धा॥१॥ नावार्थः-रात्रिअंध, दिवसअंध, जात्यंध, क्रोधांध, मायाध, मान अंध , ए पांच थकी कामांध अने लोनांध ते विशेषांध जाणवा ॥१॥ माटें एह तेनुं उष्ट कर्म जाणीमाहरी मा वगेरे सर्व स्वजन परिजन याकरो नछेग पाम्यां ,ते सर्वजनोयें मारा पितानो जेम पथिक, स्मशान वृदने वेगलो करें तेम तेनो त्याग कस्यो .ते चंमाल कर्मनो करनार चंमालनी पेठे नित्ये मुझने मुःख दे . अति पापकारी एहवो ते, विद्यायें करी इहां घर करीने रह्यो ने.जे वारे ते अनार्य को कार्यने अर्थ बाहिर जायजे,तेवारें मुझने मूसरखी करीने जाय जे. आव्या पढ़ी अमृत बांटीने साजी करे , ए फुःखें करीने ढुं मरवाने उजमाल थडं, ए अकार्यथी मरवू रूडं! हवे तुमने ढुं एक प्रार्थना करुंडं के तुं निश्चय वांछित आपवाने कल्पवृद सदृश समर्थ बो ।यतः॥ उरकाण एउ उरकं, गुरुयं गुरुयाण हियय मनमि॥जंपिपरोपनिऊ,जपि यरोपवणा नंगो। एटलामाटे तुं मुज अनुरागिणीनुं विधियें करी पाणिग्रहण कर. माहरा पूर्व पुण्यने उदयें तुं हां ाव्यो बो. मुझने जीवाड्यानो ए सार . हमणांल ननी वेला ,माटेविलंबे समु, विलंब म कर. एहवं ते कन्यानुं वचन सांन लीने हरिबल सम्यक् प्रकारे विचार करतो हवो जे ए महोटो महिमा एक जीव गारवानो ,जेणे देवांगनाने पण हेती करी ले तथा रूपें करीने विद्या धरी अने इंशणीने तिरस्कार करती एवी था कन्या बे! ते विद्याधरने बां मीने मुझने अंगीकार करे ,माटे माहीं महोटुं नाग्य ! मुझने देवता प्र सन्न ! एम विचारी तेहy वचन मानीने तेनुं पाणिग्रहण करतो हवो. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. · स्नेहें करीने ते कन्या केहेती हवी के हैं प्राणेश! जो जीववानी इष्ठा होय तो था पापस्थानक हमणांज मूको ? इहां रहेवुं युक्त नथी. जो पुष्प बटुक जाणो, तो कोपें करीने अनर्थ करशे ? एहवं जाणीने या स्थान hai alary are लग जायें, विभीषणने नोतरवानुं बंध राखो. ते विद्याधरना इंनी परें किहांये पोतानुं ठेकाणुं मूकीने नहिं थावे ! तमे इहां याव्या एटले तेने नोतस्याज पढी नीशानीने माटें ते कन्यायें जइने राजानुं चंद्रहास्य खड्ग लावीने हरिबलने खाप्युं. यापीने कयुं के ए खङ्गे करीने बल वंत वैरं | साध्य थाय. तेहनी बुद्धियें करीने याश्वर्य पाम्यो यको ते हरिबल खड्ग ले कुसुमश्रीने तथा घरनी सारसार वस्तु तथा श्रमृतनुं तुंबडं इने योग निदानी पेरें प्रति श्रद्भुत शक्तियें ते नगरथकी नीकलीने यनिमिप दृष्टियें वृषन उपर जेम गौरीने शिव शोने तेम वेतो. देवतायें वृपन रूप करी बेहुने वांसा उपर वेसारी मार्गना कुतूहल देखाडतां विशाला नगरीना वनने विपे यावी तारखां. ते स्त्री पुरुष जाणीयें नवां प्रगट थयां एम सहुयें लायं. हवे हरिबल पोताना घरथकी लंकायें जमा पढी जे कांइ थयुं, ते कहे बेःराजा विकारसहित हरिबलन | स्त्री जेवाने यर्थे प्रजातें दासी प्रमुख साह खिलने घेर खबर मोकलतो हवो. तेने प्रसन्न करवाने श्रर्थे नवनवी वस्तु मोकल्या करे, ते जोइ एकदा हरिवलनी स्त्री राजा शामाटे माहरे घेर नव नवी वस्तु मोकले बे ? तेनुं कारण दास दासीने पूजती हवी. ते दास दा सीने पण राजायें पूर्वै शीखवी मूक्युं बे, तेथी कहती हवी के. हे नड़े ! तुं न श्री जागती जे ताहरो जरतार राजानुं प्रसादपात्र बे, राजायें पोताने कार्ये मोकल्या बे. तेमाटे ताहरा घरनुं जे उचित कार्य ते राजाज करे बे, ते करीने सारासार वस्तु मोकले बे, तेवारे वसंतश्रीयें विचाखुं जे राजानो प्रिय इष्ट बे, तो पण राजानी मोकलेली सर्व वस्तु लइने दासीने मीठे वचनें कहे जे मारी उपर राजानो महोटो प्रसाद बे. कामांध राजा पण नवनवी वस्तु मोकलावे, एम सार संभाल जेवे करीने केटलाएक दिवस गया. एकदा राजा कंदर्पने वश थयो थको दासीने मुखें वंसतश्री ने कहेवरा वतो दवो के में तारा स्वामीने कपटें करीने लंकायें मोकलेलो बे माटे तुं मुकने जज हो वृद्धिपाम्युं एवं जे कंदर्पनुं पूर ते शुं अनर्थ न करे ? हवे दूतीना मुखथी तेवां वचन सांजलीने कानने विषे जाणे दाह थयो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ११५ होय नहिं ? तेम तेनाथी सहेवाएं नही. तोपण बुधिने बलें करी ते कष्ट रूप समुश्ने तरवा माटे दूतीने कां पण ना हा कही नही. तेवारें दूती पानी श्रावी राजा आगल सर्व हकीगत कहती हवी. राजायें विचायुं जे तेणे नाकारो न कस्यो, ते उपरथी समजाय डे के ए वातमां ते राजी हो. एम विचारी प्रमुदित थको कामीजनने कामदेवना धनुष्यनी समान एवी रात्रि ने विषे राजा चोरनी पेठे हरिबलना नुवनने विपे आव्यो. अत्यंत कामात एवो राजा ते वसंतश्रीने देखीने परमहर्ष धरतो हवो. हवे ते सती पण पोतानो विषाद अंतःकरणमां गोपवी राजाने देखीने युक्तायुक्त करती हवी. अने ससंघमपणे आशनादिक उचित सर्व राजानुं साचवती हवी. वली कहेती हवी के हे राजन्! तमारा पधारवाथी मुजने महोटो हर्ष थयो . ते वचन सांजलीने राजा मनमा अत्यंत खुशी थयो. हवे जगतमां एवी रीत के सती स्त्री मन, वचन, कायायें करीने पोतानुं शील राखवाने असतीने पेठे आचरण देखाडे ? ते प्रमाणे वसंतश्री असतीनी पेठे याच रण करवा लागी. राजा कृतार्थताने मानतो थको कहे जे के,हे वसंतश्री ! ढुं तुमने तेडवा माटे आहिं आव्यो बुं, तेथी तुं जलदी चाल. कांचन वि ना जेम रत्न शोने नहिं, तेम तारा विना मारूं अंतःपुर शोनतुं नथी. ते सांनली माही एवी वसंतश्री युक्तियें करीने राजाने समजावे ,के हे देव! तमें मुझने जे कह्यु, ए प्रिय ,रूडं ,हितकारी ,अने साचुं डे,पण तमो मारा रिना स्वामी अने अमारा घरनी चिंताना करनार होइने तमने एवं बोलq घटे नहीं ? जुवो जिहां सुधी सूर्यनो उदय होय, तिहां सुधी कोइ चश्माने वांडे नहीं. ते वात सांजलीने राजा हसीने कहेतो हवो के तारे अर्थे ताहरा स्वामीने मारवा काजें विपम संकटने विपे में मोकटयो बे, तिहाथी ते केम जीवतो आवशे ? समुश्मां पड्युं मनुष्य केम जीवतुं आवे? कदाचित् प्रतिदा भ्रष्ट करीने जीवतो आव्यो,तो पण ढुं तेने हणीश! कवि कहे जे के धिक ने कामांधने जे पोतानो गोप्य अभिप्राय होय ते पण क ही दे ले ? ॥ उक्तं च ॥ कुवियस्स आनरस्स य,वसणासत्तस्स आयरत्तस्स ॥ मं तस्स मरंतस्सय, सप्नावा पायडा ढुंति ॥ १ ॥ नावार्थः-कोपायमान थये लानो, थातुरनो, व्यसनमा अति आसक्त होय तेनो, रागें रातो होय तेनो, तथा उन्मत्तनो, मरण पामतानो, एटलानो स्वनाव स्वतः प्रगट थाय ॥१॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. हवे वसंतश्री विचारे , जे अशुजनो विलंब करवो कालदेप करवो ते शुजनुं कारण ,अने एथी आगल गुन थाय,एम चिंतवीने कहेती हवी के, हे राजन् ! हुँ ताहरे आधीन , पण ज्यां सुधी मारा जरतारनी शुदिन आवे, त्यां सुधी तुं महेरबानी करीने अटक. तेवारें राजायें विचायुंजे आ स्त्री थापणा हाथमाथी क्यां जाय एम ले ? एम विचारी का टवृत्तियें रह्यो थको ते वसंतश्रीनुं वचन मानीने पालो पोताने नुवनें गयो. एवी युक्तियें करी वसंतश्रीयें पोतानी बुदिना पराक्रमें करीने पोतानुं शील राख्यु, पबी ते शील रणनो हर्ष धरती अने पोताना जरतारना वियोग उखधरती बती जरतारनी वाट जोती वेती जे. त्यां केटलाएक दिवस व्यतीत थया. हवे माह्यो एवो हरिबल मन्त्री पोतानी नविन परणेली कुसुमश्रीने उ द्यानने विपे मूकीने पोताना घरनुं स्वरूप जोवाने अर्थे बानो मानो या वीने पोताना घरने ढकडो जेवामां एकांतमा रह्यो थको सांबले ने तेवा मांज वसंतश्री पोतानी सखीने पोताना अनिप्रायनी वात कहे , के हे सखी ! जरतार घणो काल थयो संकायें गयो , पण हजीसुधी सुरवसमा चार कांहिं याव्या नहिं,तो तेमनुं श्रावq तो क्याथोज थाय? हवे जो ते नहिं आवे,ने राजानुं करेलु कपट प्रकट थाय एटले मारो स्वामी नाश थ यो, एवं अमंगल वचन कदाचित् संजलाय, तथा राजा इहां आवे, तो मा री शी वले थाय !!! अने ढुं राजाने पण शो उत्तर आपुं ? अरे महारूं शील केम रहे ! एटलामाटे शील राखवासारु मुमने मरणतुं शरण , ते ज श्रेय जे! ते वचन प्रियानुं सांजलीने हरिबल सतीपणानो निश्चय करी अति तुष्ट थईने प्रगट थतो हवो,ते जाणे ते वसंतश्री सतीने शीलना प्रना वें गुजनोज उदय थयो होय नहिं ? हवे पोताना स्वामीने देखीने, रोमराय विकस्वर थयां ले जेनां एवी ते वसंतश्रीयें स्वामीनी आगता स्वागता करीने, कुशल देम पूबीने राजानुं सर्व वृत्तांत कह्यु. अने हरिबले पण पोतें घरथी निकल्यो तिहाथी मामीने पालो घेर आव्यो तिहांसुधीनुं सर्व वृत्तांत वसं तश्रीने कमु. ज्यां खरो प्रेम होय, तिहां झुं गोप्य होय ? __ हवे वसंतश्रीयें कुसुमश्रीनी वात पूर्वी ने कह्यु जे ते माहरी बेदन किहां ले ? तेवारें दरिबलें कडं के हुँ वनमां मूकी श्राव्यो , वसंतश्री क हे ले के केम आंदी आणी नथी ? हरिबल कहे के ताहरा नयथी आहीं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ११७ लाव्यो नहिं. वसंतश्री कहे तमारे मारो जय न राखवो कारण के मुजने तेने मलवानी उत्कंठा बे वली हुं हमणांज ते बेहेननी सन्मुख जश्श ! ए बुं वसंतश्रीनुं बोलकं सांजलीने हरिबलने मनमां संशय उपन्यो, जे वसंत श्री जे कहे बे ते साधुं कहे बे के खोटुं कहे ले ? कारण के शोक्योनो स्नेह खरो होय नहिं, देखाडवानोज होय ? एवो संशय थयो. एवी जातनो पोता जरतारनो संशय टालवाने माटे वसंतश्री कहे बे, जे हे स्वामी ! हे प्राणना थ ! तमारा हृदयमा हाल उत्पन्न थयेलो संशय तमें बांमो. मुजने तो ते बेननो स्नेह घोज बे, खने हे स्वामी ! जे मूढ होय, तेज हृदयने वि पे शोक्यपर द्वेष राखे, सुख अथवा दुःख पोताने विपाकेंज यावे बे. कहने वसंतश्री हरिबलनी सायें पढवाडे पढवाडे वन मध्यें कुसुमश्रीनी साहमे इ. ते वसंतश्रीने यावती देखीने कुसुमश्री पण हर्ष पामी, अने तेनी पण रोमराय विकस्वर थर. हवे ते कुसुमश्री पण यथायोग्य उचित सर्व साचवती हवी. ए प्रमाणें ए बेहुने परस्पर व्यानंद उत्पन्न यतो हवो. एम हवे हरिलें पोतानी वेदु प्रियासायें पोतानो कांइक विचार करीने को एक पुरुषने तेडावीने तथा समजावीने राजानी पासें मोकल्यो. ते पुरुष राजा पासें जश्ने हरिबलना श्राव्यानी सघली वात कही संजलावी. राजा ते वात सांजलीने हतबुद्धि तथा विषादयुक्त थयो थको विचारवा लाग्यो के हो ! धिक् बे विधिने ! के जे चिंतवे कां ने याय कांइ ! व ली राजा विचार करे बे, जे अरे! ते हरिबल लंकायें जइने विजीपणनी पुत्री परणे ! ए वात ते साची केम होय ? चाल, हुं ते वातन सत्यासत्य निर्णय तो करूं ! एम अनेक कल्पना करतो थको धैर्यावलंबन करीने राजा हरिबलनी साहामो गयो ने जश्ने महोटी ऋद्धिसिद्धिसंघातें तेने नग मां प्रवेश करावतो वो लोकोने जणावतो हवो जे माहरूं विषम कार्य, एक बे. हवे हरिबल ने बेदु प्रिया जेवारें चहूटा वच्चें व्यां ते वारे हरिबलें बेदु प्रिया ने अमृतनुं तुंबई, तेने पोताने वने मोकल्यां ने पोतें राजसनायें श्रावीने राजाने नमतो हवो. त्यार पढी राजा बहु सन्मान दइने पूतो हवो अने तेनो हरिवल पोतें स्पष्टवाणी यें करीने रा जाने उत्तर देतो हो . के हे राजन् ! हुं तमारी पासेंथ कष्टें करी जेवे समु कांठे गयो, तेवामां एक राक्षस खाउँ ! खावं ! करतो मारी सामो श्राव्यो, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. तारे में कयुं जे माहारा स्वामीनी श्राज्ञायें माहरे लंकायें विभीषणने नो तरवा जावं ले, ते माहरी प्रतिज्ञा बे, तेथी जो तुं मने खाइश तो खरो पण एथी मादी प्रतिज्ञानो जंग थशे, एटला माटे मुंफने लंकायें जवानो उपाय बताव ? तेवारें राक्षसें कयुं के तुं जो काष्ठ नक्षण कर, तो परिक मायें करी ताराथी लंकायें जवाय. अने लंकामां प्रवेश पण थाय, अन्यथा लंकायें जवामां बीजो कोइ पण उपाय नथी. एवी ते राक्षसनी वात सांन लीने में निश्चय को जे स्वामीना कार्य माटें मरण जो थाय, तो मरकुंज. नेमुवा विना लंकायें पण नहिं जवाय. वली अवश्य स्वामीनुं कार्य कस्या विना नहिंज चाले! एम केटलीक वार सुधी विचार उपन्यो वली पा बो विचार थयो जे मरखं, ते ठीक नहिं ! वली विचार थयो के धिक् धिक् सेवरूप मने जे स्वामीनुं कार्य करवा निकल्यो बुं, ने वली मरवा थकी बीहुं हुं ! माटे मर, पण लंकायें जनुं ! एम विचारीने एक चिता रचीने एम मारुं शरीर में पडतुं मूक्युं तेज वेलायें हुं बली नस्म थयो. एटजे ते जम्म राक्षसें लइ पोटलो बांधीने विजीपण पासें मूकीने मारुं सर्व वृत्तांत विभीषणने कयुं. ते सांजलीने विजीपणे तुष्टमान या पोतानी शक्तियें करी अमृत बांटयुं, एटले हुं तेज बखतें उठीने वेतो थयो पढी विजीपण माहरु अद्भुतरूप देखीने अतिशय प्रशंसा करवा लाग्यो अने तेणें उत्कृष्ट यादें करीने मुऊने पोतानी पुत्री परणावी. ते वेलायें महो टो विवाह महोत्सव कस्यो, ते विनिषणे हथेवालामां घणां देवकुष्य वस्त्र, यानरणादिक, घणो उपस्कर दीघो. घणा हाथी घोडा मने श्रापवा मांयो, पण में ते न लीधा, कारण के हाथी घोडा सहित इहां खाववुं इष्कर य‍ पडे. विजीपणे कयुं, तुं इहांज रहे, अने नव नवां सुख जोगव, नव नवी स्त्रीयो जोगव. तेवारे में कयुं जे माहरा स्वामी राजा मदनवेगें पोतानी पु जीना विवाहार्थे मुने तुऊने तेडवा मोकल्यो बे, ते कार्य राजानुं बगडे, मा टे माहाराथी इहां न रहेवाय ! कारण के उत्तम होय, ते परकार्य जो यतुं होय तो पोतानुं कार्य बांगे. वली में कयुं जे तमो मुऊने शीघ्रपणे विसाल पुर मूको. तेवारें विजीपरों कयुं जे तुं जा. खने हुं तो जे दिवस लग्रनो हो, ते दिवसें यावी पोहोंचीश. एम ज्यारें बिजीपणें कयुं, त्यारें में तेने कयुं जे तमें मुफ्ने निशानी खापो ? त्यारे तेणें पोतानुं दिव्य एवं चंद्रहा ور Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १९ए स्य एवा नामर्नु खड्ग आप्यु, थने तेणे मुफने मारी स्त्री सहित शीघ्रपणे इहां मूक्यो. एवी जातनुं सर्व वृत्तांत हरिबलें राजाने कहीने चहास्य ख ङ्ग हतुं ते आप्युं, ते जोइ खगनी निशानीयें राजायें सर्व वात साची मा नी. एप्रमाणे हरिबलें कहेलु सर्व वृत्तांत जो पण असत्य हतुं तो पण राजा यें तेना पुण्यना बलें सर्व सत्य करी मान्यु,परंतु एक प्रधान कांणा कागडा नी पेलें असत्य मानतो हवो. अने मने वचने करीने एम चिंतवतो हवो जे ए हरिबल कोइक स्थलथी बल करीने या स्त्री तथा खड्ग लाव्यो , पण ए कोनी आपी वस्तु लागती नथी. हवे प्रधान घणो इष्ट डे पण बल विना युं करे ! ॥ यतः॥ नृपसर्प पिशुनचौर, दुइसुरपारदारिशाकिन्यः ॥ उष्टारपि किं कुर्युश्चलं, विना निष्फलारंनाः ॥१॥ नावार्थः-राजा, सर्प, खल, चोर, दुइ,हीणो, देवता, परस्त्रीगमनकरनार तथा शाकिनी प्रमुख जे उष्ट होय ते पण बल विना शुं करें ? बल जो मले, तो ते जोर करे, नहि तो तेनो आरंन निःफल थाय ॥ १ ॥ हवे राजा विचारे , जे माह्या एवा हरिबलने कपटथकी कुबुध्येि क रीने में विकट संकटमां नांख्यो हतो पण एतो महारा कार्यने अर्थ नस्म नूत थयो, माटे जूठ एर्नु उत्तमपणुं ए हरिबल अतिशय मानवा योग्य . एम चिंतवतो राजा हरिवल माजीनी सना समद प्रशंसा करतो हवो. अहो जे उत्तम होय, तेज पोतानी प्रतिज्ञानो निर्वाह करे ! बीजो कोई न करे ! ते प्रतिज्ञा एक हरिबलेंज पाली. अहो ए सौनाग्यनाग्यनो निधि ने ! अहो एनी पोताना अर्थनी निःस्टहता केवी ! एनुं माहापण केवू ने ? एनी स्वस्वामीने विपे नक्ति केवी ? तेथी एना जेवो परम मित्र को माहरे नथी. एम दोष रहित प्रशंसा करी घणो आदर सत्कार दर, सा र सार वस्तु, सार सार वस्त्र, सारां सारां बाजरणादिक दश्ने महोटा म होत्सवसहित राजायें, हरिबलने पोताने घेर पहोंचाज्यो. हवे धर्मी पु रुपने जो कोई कार्य विषम होय, तो पण ते सहेलथी थइ जाय. धर्म कहे वो जे ? तो के कामधेनु सरखो . हवे राजा हरिबलनी शदि देखीने पोतें जे हरिबलनी स्त्री साथे अकार्य करवा विचार धास्यो हतो, तेमां तेणे पोताना यात्मानी अत्यंत निंदा करी. ते दिवसथी मामीने सनाने विपे तथा आखा नगरमा हरिबलनो यश वि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. स्तस्यो, अने लोको कहेवा लाग्यां जे एह विषम कार्य जे करे,ते राजानो प्रसादपात्र थायज. हवे राजाने कामग्रह नडतो हतो ते, तथा स्त्री उपर जे स्नेह हतो ते, हरिबलना आचरण कौतुकरसें करीने दिन दिन प्रत्ये ह लवे हलवे मंद थातो गयो. हवे हरिबलने पोतानी वे प्रियासाथै संसारनां सुख जोगवतां घणो काल व्यतीत थ गयो, तो पण ते सुखमांजातो काल जाणतो नथी. जेम रति अने प्रीतिनी संघातें कामदेव शोने, तेम हरिबल पोतानी वे प्रिया साथें शोजतो हवो. उष्ट प्रधान हरिवलनी झदि तथा तेज देखीने ते अणसहेतो थकोई ायें करीने हरिवलने त्यां जमवानी प्रेरणा राजाने करतो हवो. हवे हरिबलें एवो राजानो जमवानो नाव जाणीने प्रियायें वास्यो, तो पण ते प्रियानुं वचन ननंघीने पोताने घेर रसवती श्रादि सर्व सामग्री तैय्यार क रावीने बागल अनर्थ थाशे तेने न जाणतां राजानी साथे प्रधान तथा सा मंतादिक सर्वने जमवा माटे तेड्या. जोजनने समय हरिवलनी वेदु स्त्रीयो सारश्रृंगार करीने नव नवी चतुराश्यें जोजन- पीरसवं प्रमुख करती राजा दिक सर्वने पोतानुं माहापण देखाडती हवी. ते वखत जेम कोइकने प्रेतनो बल थाय, जेम दरिदीना मनमां चिंता रहे, जेम कुपथ्यथी रोगवृद्धि थाय, जेम अन्यायथी अपयश थाय, जेम कटुक वचनथी क्रोधधि पामे,जेम व बननां मरणथी शोक वधे, जेम मेघना गरिवयकी तथा पाणी दीवाथी जेम हडकाया कुतरानुं विष प्रगट थाय, जेम पवनना योगी अग्नि वृद्धि पामे, तेम ते बे स्त्रीने देखवाथकी राजाने कंदर्प प्रगट थतो हवो. जे श मी गयो हतो ते फरीने बतो थयो. तेथी राजानी मति फरी अने विचार करवा लाग्यो के महानिपुण एवा हरिबलने जेवारें दुं हणुं, तेवारें ए वे स्त्री महारे वशवी थाय. एम चिंतवी राजा कठण नावने गोपवतो थको बा ह्यथी हरिबलने सत्कार करी पोताने घेर गयो. ___ पड़ी उर्मतियोनो अग्रेसर एवो जे उष्ट प्रधान ते राजाना मननो या शय जाणीने राजाने कहेतो हवो, जे एबे स्त्रीयो तमारी नपर राजी ते णें करीनेज जमती वरखतें रागें करीने तमारी नवनवी चतुराश्यें वे जणीये नक्ति करी. एवां प्रधाननां वचन सांजलीने राजा बमणो कामातुर थ घ णी रीज पाम्यो को हरिबलने मारवानो उपाय मंत्रीने पूछतोहवो. तेवा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १३१ रें जेम खलपुरुष अवसर पामीने दर्षित थाय,तेम प्रधान पण अवसर पा मीने राज्यो थको दरिबलने मारवानुं कारण राजाने बतावतो हवो के हे राजन ! हरिबलने यम राजाने तेडवानेमिषे अग्निमां प्रवेश करावो. जेथी ते फरी जीवतोज न आवे,ने आपण देखतां बलीने नस्म थाय. राजायें ए प्रधाननो कहेलो उपाय रूडो जाण्यो. पुर्बुदिना धणी जे परने कुबुद्धिापे बे एवा निःकारण वैरी उष्ट जीवडाने धिक्कार . __ अन्यदा हरिबलने राजायें सनावचे तेडीने कयुं जे तमें महारा मित्र बो माटे तमने कहे, तो योग्य नथी पण एक कार्य असाध्य ते तमारा थीज सधाय तेम डे माटे तमने कहुं बु जे मारी पुत्रीनो विवाह ते उपर यम राजाने किंकरादिक सर्व परिवार संघाते नोतरवो ले तो अग्निमां पेठावि ना यमराजा पासें जवाय तेम डे नहीं.ए कार्य तुं करीश बीजाथी नहीं थाय. ॥ यतः ॥ सिंहस्य साहसजुषः, सुजनस्य धनस्य शशिनश्च ॥ नानोश्च वृह मानोरनन्यसाधारणी शक्तिः ॥१॥ नावार्थः- सिंहनी, धैर्यवंतनी, सऊ ननी, मेघनी, चश्मानी, सूर्यनी तथा अमिनी, एटलानी असाधारण शक्ति जे बीजानी एवी शक्ति न होय माटे तमें सत्त्ववंतमा मुकुटसमान बो तो महारुंए कार्य पूर्वनी पेरें साधो. तमारे स्वामीनुं वचन प्रमाण करवुज जोश्यें. एबुं राजानुं वचन सांनतीने हरिबल चित्तनेविषे विचारे ले जे पूर्वनी पेठे प्रधाननी कुबुधियें करीने राजायें ए सर्व प्रपंच कस्यो ने एहवो निश्रे करीने कहे , के धिक्कार ए कुपात्रने में जे नोजन कराव्युं अने सन्मान कयुं तेनुं ए फल ढुं पाम्यो. कुपात्रने दान देवं, ते फुःखदायी थाय, खलनो उपकार करवो, ते महोटा अवगुणनो हेतु थइ पडे, जेम रोगी पुरुपने मन गमतुं जोजन करावियें, तेथी रोग वधे अने अवगुणतुं हेतु थाय, तेम थयुं. दवे जो हुँ राजानो थादेश न करूं, तो पूर्वे लंका गमननी महारी वात सर्व मि य्या थाय ? एम विचारी राजानी वात प्रमाण करी. पली हरिबल राजानो विषम आदेश पोतानी वे प्रियाने कहेतो हवो. ते वे स्त्रीयो हरिबलनुं वचन सांजलीने उलंजो देती कहेवा लागीयो के हे स्वामिनाथ ? पूर्वे अमें तमने वास्या हता तो पण तमोयें राजाने जमवा तेज्या, तेथी जुवो आ केवो अनर्थ थयो ? वली स्त्रीयो कहे जे के तमोने देमकुशल रहो, तमो चिरंजीवी रहो अने तमो तमारी बुधियें करीने ए सर्व Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. कार्य साधशो ! हवे राजायें नगर बहार एक महोटीचय खडकावी ने अनियें प्रज्ज्वलित करी. तेथी जाणीयें राजा पोताना यश रूप सर्व धनने बालवा माटेज हरिबलना शरीरने बालवा बतो होय नहि ? पड़ी हरिबलने बहु मान देखाडवा माटे राजा, पोताना सर्व परिवार तथा प्रधानादि संघातें हरि बलने घेरथी तेडीने चिता समीपें बायो. हवे नगरनां सर्वे लोकोयें कोलाहल करतां राजा तथा प्रधानने उनो देतां, हाहाकार करतां, कौतुक जोते थके हरिबलने अग्निमां प्रवेश करतो दातो. ते चयमां पडतां वेंतज सर्वना दे खतां जस्म थइ गयो. ते दरिबलना बलि जवाथी सर्वे नगरनां लोकोने अ त्यंत शोक थयो, अने राजा तथा प्रधानने अति हर्ष थयो. हवे लोक सर्वे हरिवलनी प्रशंसा करे , अने राजा तथा प्रधाननी निंदा करे ने. हरिवल एटले सिंहना सर बल तथा हरिबल एटन्ने वि ष्णुना सरखं बल तेमज इंइना सरखा तेजने धारण करनार हतो, एवा प्र तापी पुरुषने राजा तथा प्रधाने कपटथी मास्यो, ते बहुज खोटुं काम कत्यु !! ! ते अतुल स्वरूपवान् एवी ललनानी रूपलक्ष्मीनी लालचें राजायें एहवं क यु. माटे एना सरखो अधर्मी बीजो कोई नहीं जेम सडी गयेला कलेवरमां थी दुर्गध विस्तरे ले,तेम राजाना अधर्मनो अपकीर्तिरूप उन्ध विन्तरतो हवो. हवे हरिबलें अग्निमांहे पडतां थकांज सुस्थित देवताने संनायो,तेना सा निध्य थकी लगारमात्र पण शरीरें पीडा थइ नहिं जेम सुवर्ण तपाव्युं दीप्ति पामे,तेम हरिबल पण कांतियें करी दीपतो हवो.अंजन सिधिनी पेठे तत्काल चयमांथी नीकलीने अदृश्य थको एकांतें रह्यो. अने रात्रि पडी,एटले पोताने घेर आव्यो. हरिबलने देखीने तेनी बेदुस्त्रीयो प्रमुदित थइ,विस्मय पामी थकी पोताना आत्माने धन्य मानती तुंबडामांहीथी अमृत बांटती हवी. तेणे क रीने हरिबलनु शरीर देवता सरिझुं यतुं हवं. पुण्यना नदयथी झुं न संनवे ? पुण्यवंत पुरुषने उर्जन लोक, कष्टना समुश्मा नाखे, तेज सुखनो समु थाय. ए रीतें पुण्यवंतने यापदा ते संपदा रूप थाय, जेम अगरने आगमां नाखीयें तो उलटी सुगंधता विस्तारे. हवे हरिबल, पोतानी वे प्रिया साथें प्रेमबालाप करे . तेटले राजा कंदर्पज्वरें पीड्यो थको अत्यंत मदोन्मत्त थइने हरिबलना घरने विषे या व्यो. तेने आवतो जोइने ते बे स्त्रीयो हरिबलने कहेती हवी. के तमें घरमां Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १३३ गुप्त रहीने अमारी बेजणीयोनी चतुराई तथा महापण जुवो. जे स्त्रीयो युं करे ? हरिबले पण तेमज कमु एटले राजा आव्यो, अने ते वे जणीयो राजाने आदर सन्मान तथा बासन आपवादिक सर्व नचित साचवती हवी. अने राजाने पूबती हवी. के हे स्वामी ! या अवसरें आपने यांहीं याव्यानुं गुं प्रयोजन हतुं ? तेवारें राजा घेलानी पेठे हसतो अतिशय उ हवास पामतो कहेवा लाग्यो के हे कामिनीयो! तमें झुं नथी जाणतीयो जे हुं तमने माहरे घेर तेडी जवा आव्यो लु ? माटे चालो पधारो. एहवं राजानुं वचन सांजलीने ते बन्ने जपीयो कहेती हवी. के हे राजन् ! ए ता हरं बोलq उचित नथी तुं सेवक जननो बाप सरखो बो. जे लोक अनर्थ करता होय, तेने तुं वारी राखे तो तुं पोतेंज अनर्थ करे . ते तुमने को ण वारे ! परस्त्री जो देवतानी स्त्री सरखी स्वरूपवाली होय, तो पण शीघ्र परहरवी ! तेमां वली सेवकनी स्त्री तो पुत्रीनी पेठे तथा पुत्र वदनी पे में विशेपें डांमवी जोश्ये. राजा जे ,ते प्रजाने अन्याय करतां देखी दंगक रीने वारी राखे, पण जेवारें राजा पोतेंज अन्याय करे, तेवारें तेने कोण वारवा समर्थ थाय ? जे चोकी करे, तेज चोरी करे ? जे वलावीया हो य, तेज धाडी थइने संघने खुंटे ? पाणीथकी जेवारें अनि उठे, सूर्य थ की जेवारें अंधकार व्यापे, तेवारें शो उपाय थाय ? तेमाटे तुमने ए शी घेलबा थडे, जे तुं अमारी वांडा करे ले ? था तारी वताकथी. अमा रां प्राण जाशे, तो जावा देणुं तो पण अमें अमारा शीलने मलिन कर झुं नहीं ? ॥ यतः॥ वरं शृंगोत्तुंगाशुरु शिखरिणः कापि विषमे, पतित्वायं कायः कनिषदंतर्विदलितः ॥ वरं न्यस्तोहस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्ण दशने, वरं वन्ही पातस्तदपि न वरः शीलविलयः॥ १ ॥ नावार्थःचां ने शिखर जेनां एवा महोटा जे पर्वत तेना विषम प्रदेशने विषे पडी ने आ कायाने कठिण पाषाणमांहे दली नाखवी ते श्रेष्ठ , वली तीखा दांतवाला शेषनागना मुखमां हाथ घालवो, ते श्रेष्ठ , तथा अग्मिने वि पे पडवं ते श्रेष्ठ , पण शीलनो लोप करवो, ते श्रेष्ट नथी ॥१॥ ते कारण माटे हे राजन् ! अत्यंत कटुक में विपाक जेना एवा पर स्त्री संजोगना पापथकी तुं विराम पाम. ॥ तक्तं ॥ सुकते सत्यपि कर्म णि,उर्नितिरेवांतरे श्रियं ॥ हरति तैलेझुझुक्तेऽपि हिदीपशिखां हरति वाता Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. ली॥१॥ नावार्थः-जेम दीवानी शिखाने तेल पोहोचे जे तो पण तेने वायरो हणी नाखे , तेम मनुष्यने सुकत रूप कर्म बते पण वचमां अन्याय आवीने तेनी लक्ष्मीने हणी नाखे ॥१॥ ___ माटे हे राजन् ! मांगलिकने अर्थ अन्याय मार्ग बांवो में न्याय मा गें वर्तवं. कारण के न्यायमार्ग जे , ते सर्व संपदानुं मूल २ ॥ यतः ॥ मेषु सलिलं सर्पि, नरेषु मदने मनः॥ विद्यास्वन्यसनन्यायः, श्रियामा युः प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥ श्रुतेन बुद्धिः सुकतेन विज्ञता, मदनेन नारी सलि लेन निम्नगा ॥ निशा शशांकेन धृतिः समाधिना, नयेन चालंक्रियते नरेंड ता ॥॥ नावार्थः-वृदने विषे पाणी, पुरुषने विषे घृत, कामने विपे मन, विद्यान्यासमां न्याय- जाणवू, लक्ष्मीने विषे पूर्ण बायु शोनाकारी ने ॥ १॥ झाने करी बुद्धि शोने , सुकृतपणे निपुणता शोने से, कंदर्प करी स्त्री शोने , जलें करी नदी शोने , चंश्मायें करी रात्रि शोने जे. समाधिपणे संतोष शोने , अने न्यायें करी राजा शोने के ॥२॥ एवी रीतें हरिबलनी स्त्रीयोयें नव नवी युक्तियें करीने राजाने सम काव्यो, पण जेम महाज्वरने विषे औषध मिथ्यानूत थाय तेम राजा स मजयो नहि. हवे राजा कंदर्पनी पीडायें पीडाणो थको कहेतो हवो. के हे प्रिया! हुं राजा बतां तमने आटली प्रार्थना करूं तो पण तमें नथी मा नतीयो. पण हवे तमारोजरतार जीवतो यावे, एवीपाशा तमारे करवीज नहीं. तमारे अर्थ में तेने बाली जस्म कस्यो . एटला माटेनमे मुझने त स्थानापन्न स्वामीरूप मानो ? तमारा सुख फुःखनो हेतु हवे ढुं लु.अने तमें महारे वश बो, जो तमें महारुं कर्तुं नहीं मानो तो बलात्कारें पण त मने ग्रहण करीश, अमें अमर्षवंत होये बैयें.माटे तमो तमारी श्बायें मारी पासे जो आवो तो घणुंज रूंडं , तमारे अमारे महोटो स्नेह था ! ___ एवां राजानां वचन सांजलीने स्त्रीयो कहेती हवी के धिक्कार पडो तु जने जेमाटे धीठा कागडानी पेठे कटुक वचनें निषेध्यो थको पण कपट मां निपुण थइ साहामो एम बोले ? माटे जा पापी ! अमाराथी दूर रहे ! नहीं तो तुं तहारा महोटा पापर्नु फल हमणांज पामीश !!! एवां स्त्रीयोनां कटुक वचन सांजलीने जेवामां राजा बालात्कार कर वा जाय , एवामां तो कुसुमश्री विद्याने बलें राजाने तत्काल चोरनी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १२५ पेठे आकरा बंधने बांधी लीयो, अने बांधीने जेम तेना दांत त्रूटी पडे, तेवी रीतें धरतीने विषे तेने पाडी नाल्यो. तेथी तेज वखत राजाना दांत पण पडी गया. अहिं कवि उत्प्रेक्षा करे . के-ते दांतोयें विचायुं जे अमें निर्मल बैयें, वली सर्वदा उपकारी बैये, अने था राजा तो मलिन , बीजाने कष्टनो करनार , माटे थापणे मलिनजननो संग न करवो. एम चिंतवी राजाने बोडी जूदा पडी गया ! वली बीजी पण उत्प्रेक्षा करे , के कुःखे निग्रह करवा योग्य एवो कामरूप जे ग्रह, ते पण तत्काल राजा ना अहंकाररूप ग्रहनी सायेंज जाणे अत्यंत जय पाम्यो न होय? तेम राजाना दांतनी साथें ते पण तत्काल नाश पामतो हवो. हवे आकरा पाशनुं बंधन तथा दांतनुं पडवू, ते वे वानाथी उदय पा मी जे पीडा, तेणे करीने सुःखनी अवस्थाने प्राप्त थयो एवो राजा अत्यं त मूर्खनी पेठे हलवे हलवे आक्रंद करतो हवो. ते कालें राजा, मुखमां थी लालनुं पडवू, आकंद करवू, दांतनुं पडवू, शोनारहितपणुं, इत्यादिक अवस्थायें करी तरुण बतां पण जागीयें वृक्षपज पाम्यो होय नहिं ? एवो देखावा लाग्यो. जेम को लान मेलववाने तो बतो मूल पोतानी पुंजीनो पण नाश करी आवे ! तेम राजाने थयुं. ॥ उक्तं च ॥ कति पयदिवसस्थायिनि मदकारणयौवने उरात्मानः ॥ विदधति तथाऽपराध, जन्मैव यथा वृथा नवति ॥ ११॥ नावार्थः-मद अहंकारनुं करनालं एवं रूप, यौवनपणुं ते सर्वथोडा कालसुधी रहे , तेने विषे जे उष्ट बुद्धिवाला अपराध करे , ते पोतानो अवतार मिथ्या करे रे ॥ १ ॥ जे परस्त्रीना नोगने विषे जीवे , ते आकरी विंटबना पामे ले. वि करीने उष्ट थयेलो एवो जे विषधर तेनी दृष्टिथी पण झुं जीवने मरण न थी थतुं ? अपि तु थायज बे. . हवे दीनदयामणा मुखें करी आक्रंद करता एवा राजाने देखीने दया ना घररूप स्त्रीयोने दया उपनी, तेवारे ते बेमांथी कुसुमश्रीयें राजाने कह्यु के जो पण तुं पापने विपे तत्पर बो, तो पण अमो अपार दयायें करीने कोमल बैयें, तेथी आलोकना उःखथी मुक्त करवा माटे तो अमें तुमने बंध नथी मूकीयें बैयें. पण परनवने विषे ए पापकर्मे करीने वारंवार तुं नरका दिकमां जश्श, ते कुःखथी अमें मूकाववाने समर्थ नथी. माटे हवे फरीथी तुं Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. एवं काम करीश नही. एम कही विद्याने बलें कुसुमश्रीये वेगे करी राजाने बंधनमुक्त कस्यो. ते मूर्तिमंत महोटा कर्मोथीज जाणे मूकाणो होय नहीं? पली राजा शीघ्रपणे स्वस्थ अंग करी सावधान थ पृथ्वी उपर बेगे थको कहेतो हवो के हरिबलनी स्त्रीयोना प्रसादथकी गुं उष्प्राप्य था य ? अर्थात् सर्व प्राप्त थायज अने कुःख पण टले. एम कही अतिश यपणे बदुशोच करतो थको क्रांश्क पोतानी आंख्यो ढांकीने मंदमंदगति यें राजा तिहाथी निकल्यो, अने मार्गमां घणो पश्चात्ताप करतो हवो केःअरे हुँ घणो वगोवाणो! एम विचारतो गुप्तपणे पोताने घेर आव्यो. तिहां बाह्य सुखना आपनारा एवा अनेक उपाय करीने रात्रि निर्गमन करी. प्रनातें दांत जवाथी लजा पामतो थको कांक मिष करी मुख ढांकी राज सनायें यावी बेतो. अने बानी रीतें सर्व पोतानी वात मंत्रीने कही, तेथी मंत्री पण सर्व समाचार जाण्या. तेवारें जेम तत्त्वनो जाणपुरुप संसार नुं स्वरूप विचारे, तेम मंत्री पण विचारतो थको कांश्क नय, कांक को तुक अने कांक करुणा, ए त्रणवाना समकालें पामतो हवो. हवे हरिबलें पोतानी स्त्रीयोनुं करेलुं अत्यंत विचित्र चरित्र जोयु,राजा घरथकी गया पड़ी स्त्रीयो प्रत्ये कहेतो हवो के तमारे अघटितकार्यना क रनार राजाने एमज कर उचित हतुं. कारण के मूर्ख होय, ते प्रास्फाल्या विना अने अरहो परहो कस्याविना पाधरो थायज नही ! जेमहीणो सार थि रथने उन्मार्गे चलावे,तेम कपटी मंत्रीयेंज राजाने पुर्बुद्धि देइने उन्मार्गे नाख्यो ॥ यतः ॥ नृपतिर्नरश्च नारी, तुरगस्तंत्री च शास्त्रमथ शस्त्रं ॥ चा रुत्वाचारुत्वे, स्यातामेपां परायत्ते ॥ १॥ वल्लीनरिंद चित्तं, वरकाणं पाणियं च महिला उ ॥ तब य वच्चंति सया, यबय धुत्तेहिं निऊंति ॥ २ ॥ नावा र्थः-राजा, पुरुप, स्त्री, अश्व, वीणा, शास्त्र, तथा शस्त्र, एटलानुं सुंदरपणुं अने हीनपणुं ते सघलुं परने वश होय ने एटले जेवा तेने सोबती मले, ते वा ते शोना पामे ॥ १ ॥ वली कह्यु के के वेलडी, राजा, मन, व्याख्यान तथा पाणी अने स्त्रीयो एटला जन तिहांसुधी पोताने मार्गे चाले, के ज्यां सुधी तेने धूर्त नथी मल्या. अर्थात् ते सर्व, नीच, जडनी सोबतें हीनपणा ने पामे , तथा उत्तमनी संगतिथी उत्तमपणुं नजे जे ॥२॥ माटे जेम विषमज्वर विषम सन्निपातें करी मल्यो थको प्रतिकार Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १२७ थाय,तेनो उपाय जेम उलर्न थाय,तेम उष्टमंत्री ए राजाने कष्टमांनाख्यो . माटे प्रथम ते प्रधाननो कांक उपाय करवो युक्त . जिहांसुधी ए5 टपरिणामी मंत्री जीवतो हशे, तिहांसुधी ते पोतानी प्रकृति मूकशे नहीं माटे ए अनर्थना मूलने समूलुंज काढी नाखवो जे दया करनारनो घात करे, तो तेनी नपर शी कृपा करवी? माटे अन्याय कारक ए प्रधान हणवा योग्य जे. कडं ले के उष्टने दमवो अने शिष्ट नला जननी प्रतिपालना कर वी, ए न्याय मार्ग ले. एटला माटे ते प्रधाननो निग्रह करवाने कांक कपट रचना करवी. ए मंत्री, करेलुं कपट , तेज मार्गे यापणने चालवू यो ग्य जे. कारण के कपटीने तो कपटथीज वश करवो. कविपण कहे २ ॥ व्रजति ते मूढधियः परानवं, नवंति मायाविषु ये न मायिनः ॥ प्रविश्य निघ्नंति शास्तथा विधा, नसंतागान्निशिताश्वेषवः ॥१॥ नावार्थः- जे क पटी पुरुषने विपे कपटपणुं नथी करता, ते मूर्खबुदिना धणी परानव प्र त्ये पामे . अने ते पुरुषना हृदयमा प्रवेश करीने तेने हणे ने तेनी उ पर दृष्टांत कहे जे. जेम तीक्ष्ण बाणो, जेणे बखतर प्रमुख पहेयुं नथी एवा पुरुषना हृदयमांहे पेसीने प्राण लें ? विचार करनारानो विचार चार कानथी थाय जे, तो सघले प्रशंसवा योग्य थाय .अने जो बकाने थाय, तो वली विशेष प्रशंसनीय थाय . सिरफलने आपे ॥३॥ पड़ी ते बकाननो मंत्र करवाने अर्थे हरिबल समुश्देवताने संनारतो हवो; जेटले संजायो के ते देवें आवीने हरिबलनो अतिशत वेश बनाव्यो. देवता सं बंधि वस्त्राचरण पहेरावीने दिव्यस्वरूपवान कस्यो, तेमज बीजो एक नयं कररूप वालो यमराजानो बडिदार बनाव्यो, तेने साथें लश्ने प्रनातें हरि बल राजसनाने विषे गयो. तिहां हर्ष सहित राजाने नमस्कार करी उनो रह्यो. इंइसरखा एवा हरिबलने स्वर्गथी आव्यो देखीने राजा तथा सर्व पर्ष दानां लोको विस्मय पामतां हवा. राजा पोताना अंतःकरणमा विचार क रवा लाग्यो के धिक्कार ले पापसहित मंत्रीना वचनने जेमाटे में आ हरि बलने सादात् बाली राख कस्यो हतो, ते क्याथी आवी उनो रह्यो. हवे राजा हरिबलने पूजे जे जे तुं यमना घरथी आहीं केम आव्यो ? ने तारी साथें था पुरुष कोण ले ? एम पूबवाथी हरिबल कहेतो हवो के हे राजन ! जेवो ढुंचयमां पडीने बली नस्म थयो. तेवोज हुँ यमराजाना Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. दरवारमां गयो, ने त्यां यमराजानां किंकरें मारो सर्व व्यतिकर यमराजाने कह्यो, ते सांजलीने यमराजायें महारी उपर तुष्टमान थइने तरत जीवतो कस्यो, ते यमना प्रभावथी माहरु प्रति अद्भुत रूप थयुं. एक कष्ट ने बीजुं सत्त्व ते वे थकी शुं दुर्लन बे ? सत्त्ववंतना कष्टें करी तुष्टमान थयेला देवता की सत्पुरुषने मनोवांबित केम न होय ? होयज. हवे यमराजायें मारा श्री कवाय पण नहिं तेवी, तथा मनने पण अगोचर एवी जात जातनी ऋषि मुऊने देखाडी पण हुं कइ जोनं ने कइ न जोउं ! एक जोनं त्यां बीजी जुली जावं, त्रीजी जोनं तो बीजी जुली जाउँ, चोथी जोनं तो त्रीजी जुली जावं ! एवो हूं थइगयो. वली हे राजन! अहंकारें करीने इंडनी नगरीने जीते एवी संयमनी नामें यमराजानी नगरी बे, तिहां धर्म राजा राज्य करे बे, तेमां पुण्यवंत लोक वसे बे, तेनी तैजसी एवे नामें गुनका री सजा . ते सनामां ताम्रचूड एवं नामें दंमधर बे, ते लेखण, शाई, ने पुस्तकने चार हाथने विषे धरे बे. इंड्रादिक सकल देवता पण ते ध मैराजानी सेवामां सावधान रहे बे. विष्णु, ब्रह्मा खने महेश, ते पण य मराजाने संतोष राखवा माटे घणुं कष्ट सहे बे. परमयोगीं सरखा पण हनी बी योगाच्यासने नजे बे. ऋण लोक जे बे, ते नेहनां वननी पेरें सत्कार करे बे, माग अंधकारना नाशनो प्रसवनार एवो सूर्य तेनो पिता बे, तथा संज्ञावंत जे जीवमां मुख्य एवी संज्ञावती नामें तेमनी मा ताबे, ने शनिश्चर एहवे नामे जाइ बे, जे वजनी पेरें जगतने विषे प्रति दुःसह बे, तथा श्याम बे तो पण नूलोकने पवित्र करनारी एवी यमुना नामें तेनी एक वेन ले सर्वने छेपकारी धूम्रमुखी एवी धूमोर्णा नामें तेनी पटराणी बे. मरण पामेलाने उत्तम ने धीरपुरुषाने खंधने विषे उपाडवा योग्य एटजे जगत्मां जेने लोको ठाउडी कहे बे, ते जेनुं वाहन ने त्र जगतना लोक जेने घणो श्रादर पे बे एवो वैद्युत एवं नामें तेनो परोलीयो बे, चंम धने महाचंम एवे नामें वे तेना दासो बे, चित्र गुप्त नामें तेनो लेखक बे, जे त्रण लोकना जननुं रूडुं तथा मातुं कर्म वेगे बेटो लखें बे, एवी दिनो धणी यम राजा त्रूठो थको कल्पवृक्ष स रखोबे, ने रूठो तो यम ते यमज बे, एम लोको पण कहे बे ॥ यतः ॥ यस्मिन्रुष्टे नयं नास्ति, तुष्टे नास्ति धनागमः ॥ निग्रहानुग्रहोनास्ति, स Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. १० जातः किं करिष्यति ॥ १ ॥ जावार्थ:-जेने रूठे थके जय न होय, खने जेने ठे थके धननुं आगमन न थाय, जेने निग्रह यने अनुग्रह एबेदु नथी ते उत्पन्न थने गुंकरशे ? तेथी कांइ न थाय ॥ १ ॥ एहवी यमराजानी देखीने में महारी दृष्टिने सफल करी मानी. लोक पण एम कहे बे के घणुं जीवयें तो घणुं देखीयें. हवे हे राजन् ! में यमराजाने घणी युक्तियें करीने प्रापना नोतरानी निमंत्रणा करी, वारें ते मने प्रीतियें पूस्यो थको कहेतो हवो जे राजानो यति खादर बे, तो हुं खावीश, पण एक वात तुने कहुं बुं जे तारो रा जा मारो मित्र बे, मारो मुरबी बे, ने मारे ते घणी वात बे, माटे ते जो तेना कुटुंबपरिवार तथा मंत्री प्रमुख सकल सेना सहित मारी पासें खावे, तो ढुं तेनी नक्ति करूं ! एवी मने होंश बे. तेमाटे यमराजायें मने वारंवार घ करीने कयुं बे, केतुं एक वार मारा मित्रने कुटुंबसहित मारी पासें ज रूर मोकलजे, एम कहीने मने दिव्य अलंकार तथा वस्त्रादिक दइने घणा यादर सहित घणी दिव्यरूपनी धरनारी एवी अनेक देवांगना परणाव वामांमी. पण ते परवा में नाकारो कह्यो तेवारें यमराजायें बेवट एवं कायुं के एमांथी एक कन्यानुं तमें पाणिग्रहण करो के जेथी हुं कृतार्थ थानं. तो पण में तेने कह्युं के मारे एकेनो पण खप नथी, मात्र महारा स्वामीनुं विवा हसंबंध कारण वे माटे तमने तेडवा सारु खाव्यो बुं. ने ते देवांगना राजा तथा प्रधानने देशो, एटले मारे संतोष बे, कारण के ए कन्या तेनेज योग्य बे. वली शत्रुयें करेला बंधनने विषे, वधने विषे, युद्धने विषे, कोट लेवाने विषे, घरने विषे, उत्सवने विषे, जिहां सेवक कष्ट भोगवे, ते कष्टनुं फल सघलुं स्वामीने होय. एह में कयुं, त्यारें यमराजा बोल्या जे तुं राजा प्रमुखने इहां उतावले मोकल, एम कहीं घणु मान दइ मने विदाय को. वे यमराजायें नमने तेडवाने माटे तथा मार्ग देखाडवाने तथा तमा रा 'बहु मानने व वैद्युत नामें पोताना बडीदारने मार सायें मोकल्यो बे. माटे तमें हवे तेनी साधें शीघ्रताथी जाउ, तमारे त्यां जनुं घटे बे. पी हरिबलना बोलवा प्रमाणें ते वैद्युत बडीदारें पण विशेषपणे एमज कल्युं तेवारें राजा प्रमुख सर्व सनायें विचायुं जे एमां कांइ खोदुं नथी सर्व सत्य बे. महाधूर्त्त एवो जे मंत्री ते तो बली देवनी पेरेंज सत्य करीने १७ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० , जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. मानतो हवो. पाकलं कपट , तेने ब्रह्मा पण जाणे नहिं. हवे राजा थ ने प्रधान यादे दे घणा लोक यमने घेर जवाने जमाल थयां. यमरा जानुं नाम लेतां पण नय उपजे पण ते समयें तो सहुने कौतुक जोवानुं ज्ञान थयु. लोनीया प्राणी गुं न करें? सर्व कोइमां एके कयुं पहेलो ढुंजावं बीजायें कह्यु पहेलो ढुंजा एम एक एकथी बागल यमने घेर जवा माटे तै यार थया राजाने पूर्व जे दांत पड्याथकी पीडा उपनी ले ते यमराजा पासें थी मुझने म६ि मतशे एवा लोनना वशथकी ते समग्रवेदना किहांए दूर जती हवी अने राजा यमने घेर जवामाटे सङ थयो तथा राजाथकी पण पहेला प्रधान तैयार थयो. तेमज सनानां लोक तथा नगरना लोक पण मांहोमांहे जवाने उत्सुक थयां. सर्वनी मति देवताना प्रनावथी दणाती हवी ! केटलाएक देवकन्या परणवा तथा घणुं व्य बने घणां बानूपण ना लोनथकी, केटलाएक कौतुकजोबाने अर्थे एम नगरनां लोक राजानी साथै नगरथी वाहेर निकलता हवा. जू लोननी राजधानी कहेवी ? हवे राजाना आदेशथी अत्यंत जयंकर वाहामाणी एवी महोटी चय र चावी अग्नि सलगावी.शदिमलवी तो वेगनी डे परंतु नस्मथवाना तो नि श्चय ने तथापि ते कालें एकाग्रचित्तें सर्व कोइ जस्म थावाने नजमाल थता हवा जुवो संसारनुं स्वरूप कहेवू ? ॥ यतः॥जा दवे होइमई,यहवा तरु णीसु रूपवंतीसु ॥ ताजई जिपवर धम्मे, करमलयऊंाि सिद्धी॥१॥ नावार्थ:- जेवी इव्योपार्जनने विपे बुझि रहे ने, अथवा रूपवंती स्त्रीने विषे जेहबुं मन रहे , तेवी मति जो वीतरागना धर्मन विषे रहे, तो हाथनी हथेलीमां मोच जागवो ॥१॥ जाणे मदिरा पीधी होय नहि गुं ? तेम संसार सुखना अनिलाषी एहवा ते लोनना वशथकी नवनवे व चनें करीने गर्जना करता हवा, केटलाएक नाचता हवा, केटला एक गाता ह वा, केटलाक हसता हवा, अने चयमां पडवाने एकएकथी उतावला थ या, ते जो हरिबलने दया उपनी तेवारें विचारवा लोग्यो जे में कुबुड़ियें करी महोटो अनर्थ मांझयो ने ए अपराधे करीने मुफ पापीने नरकमां पण क्यां ठेकाएं मलशे नहिं ? शिक्षा देवी,ते अपराधीने देवी एज उत्तमनु ल हण ,नला मुंमानो जे विनाग समजे नहीं तेनुं जाणपणुं कांश रहे नहीं. हवे इहां श्यो उपाय करूं, के जेथी ए सर्वलोक उगरे ? एवो हरिबल Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १३१ विचार करे , तेटलामां कारिमो यमराजानो बडीदार बोल्यो जे जेटला अग्निमां पडवाने तैय्यार थया बो, ते सर्व थंनो, हे नाश्च ! जो तमे फल ना अनिलाषी हो, तो उतावला न था, कारण के अमारो स्वामी विषम ३. तेमाटे प्रथम जे को राजानो अतिमानीतो होय, ते आगलथी माहरी साथे पडे. त्यारपडी राजा पडे, त्यारपडी सर्व प्रजा पडे, एहवं सांजलीने प्रधाने मनमां विचार कखो जे ढुं आगलवी पहुं, तो मुफने निश्चय इष्ट फल थाय, कवि कहे जे के, जे मूर्ख होय ते संपदाने अनिलायें प्रथम आ पदामध्ये पडवू पण न विचारे. एवो विचार तो कोश्क बुद्धिमंत होय,तेने ज होय, के हुँ अग्निमां केम पहुं? घणाने मतिनो विपर्यास होय जे संप दानी प्राप्तिने विषे आगल जश्ये, विपदानी प्राप्तिने विषे पळवाडे रहीयें, पण बुद्धिवंत जे होय,ते बुधियें करी पुरुषार्थ साधे, दानने विषे वाहनपर बेसवाने विपे, शय्याने विषे,आख्यानने विषे, जोजनने विपे, सजाना स्था नकने विषे,लेवाने विपे,देवाने विषे, माधुर्यने विपे, राज कुलने विषे, एट लाने विषे आगल पडनारने पूर्ण फल थाय. तथा वली शून्यने विषे,अर एयने विषे, पाणि प्रवेशने विषे, संग्रामने विषे, नवनने विषे, गाम उपर चढवाने विषे, हेते उतरवाने विषे, मार्गने विषे, रात्रिने विपे, एटले ठेका णे आगल जनारोकुखी थाय. हवे ते मूर्ख प्रधान एम मनमां चिंतवतो रा जाने कहेतो हवो के, हे स्वामिन् ! कहो तो पहेलां दुं बडीदारनी संघाते जावं ? राजायें कीधुं के जा. एम राजानी आझा थयाथी जाणीयें स्वर्ग सुख जोगववाज जतो न होय ? तेम कृतार्थपणुंज मानतो मनमां हर्ष धर तो थको ते प्रधान, बडीदार देवतानी साथें विकराल एवी अमिमां ऊंपा पात करतो हवो, पडतावेंतज नस्म थइ गयो. ते पापबुझिनो धणी प्रथा न पोताना मनोरथें यमना घरने विषे महोटे कप्टें जातो हवो. . हवे राजा पण रंगसहित पतंगनी पेरें अमिमां पडवा जतो हतो, तेट जामां करुणावंत जे हरिबल तेरों राजानो हाथ जाली राख्यो, पडवा न दीधो. तेवारें राजा कहे जे जेतुं कां मुजने अंतराय करे ले ? ए सांजली हरि बल राजाप्रत्ये कहेतो हवो, के हेराजन् ! हुँ जे तमने कहूं, ते स्वस्थ थश्ने सांजलो. अणविचायं जे कार्य करे , तेहने अत्यंत आलोकें अने परलो के अनर्थ थाय ने. माटे जे निपुण होय तेणे रूडीरीतें जो विचारीने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ . जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. काम करवू. हे स्वामी यमने मलवानी वात साची म जाणो. तमें क्या पण मुवा जीवता थया एबुंसांजल्यु ? मृत्यु पाम्यो,तेहने देवता पण जी वाडवाने समर्थ नथी तो वली बीजो तो क्याथीज होय ! ए सघ में नि पुणतानुं कपट प्रगट की , कारण के कुबुद्धि एवो मंत्री तेणें कूडी प्रपंच रचना करीने वारंवार प्राणांत संकट मांहे मुमने नाख्यो हतो, तेमज तम ने पण फुःखमांही नाख्या, तमारा दांत पडाव्या,तेनी तमोने महोटी वेदना थ. इत्यादिक हेराजन् ! ते पापीयें महापुःख दीधुं. तुम सरखा प्राणीने कुर्बुदि दीधी,तम जेवा सुजनने परडोह, परस्त्रीना लालची कस्या. कारण के मुष्ट मंत्रीथी राजा कुःख पामे, ने सुमंत्रीथी राजा सुख पामे, एटला माटे कपट रचना करीने उष्ट प्रधानने में अग्निमांहे नाखी नस्म कीधो ले कह्यं जे. के व्याधि बने वैरी ए बे न्हाना होय त्यांथीज दवा पण वधवा देवा नहीं, तमें तो मारा स्वामी बो! माटे ढुं तमने अनि मांहे केम पडवा दलं ? हंत इति खेदे जेमाटे कडुं ने जे, स्वामीनो शेह करवो,ते महोटुं पाप . बीजा नो पण करेलो शेह उखना समूहने पमाडे ले तो मित्र, स्वामी अने गुरु नो शेह कस्वाथी महाकुःख पामीयें,एमां तो गुं आर्य ने ? एहवी वाणी हरिबलना मुखथकी सांजलीने राजा अत्यंत शंका पाम्यो, अने लाग्यो थको विचार करतो हवो के हा!! ए हरिबल महारं सवलुं मुश्चेष्टित जाणे ने ? राजा तेज वेलायें घणी लजाथी नीचं मुख करी शून्य मनथको उनो रह्यो. जाणे मूळ आवी होय नहीं ? एवो थइ गयो. पड़ी हरिबल मीठा वचन रूप औषधे करी राजाने समजावी तेनुं मुःख टालतो हवो. राजा पण हरिबलना मुखथकी देवतानुं सान्निध्य अने तेनुं अद्भुत चरित्र सांजलीने विस्मय पाम्यो थको मस्तक धूणावतो हवो. अने मनमां विचारवा लाग्यो जे एवो महोटो अपराध करनार जे ढं तेने या महोटी शक्तिना धणीय बलवा दीधो नहिं ! वली ए महा सा मर्थ्यवान बतां एणे महारुं राज्य पण न लीधुं ? ने दुं असमर्थ ते एहनी लक्ष्मी लेवाने नजमाल थयो. एटला माटे हुँअधममां अधम बूं. या पर म नपगारीना रणमांथी हुँ क्यारे ! लूटीश ? इत्यादिक ते दरिबलनी प्रशं सा तथा पश्चात्ताप अने पोताना आत्मानी निंदा करतो नवथी नवेग पा भ्यो थको घणीवारे अने घणे कष्टें राजा पोताने घेर आयो. तथा यमरा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १३३ जाने घेर जवानी निःफलताये करी विस्तार पाम्यो ने शोक जेहने एवां,घणा लोको ते सर्व कौतुकवंत एह जे दरिबलनुं चरित्र, तेहर्नु वर्णन करतां थका पोताना घर प्रत्यें जातां हवा. तिहां तेदिज अकस्मात् निमित्त कार ए थये थके ते राजाने वैराग्य नपन्यो जेमाटे महोटा पुरुषोनी एवीरीत ने. हवे राजा पोतानुं देवू वालवा माटे हरिबलने पोतानी बेटी अने पो तानुं राज्य गुजमुहूर्ते बापतो हवो. जुवो ए राजानी आश्चर्यता कहेवी ने ? के जेणे राज्यकहि सर्व हरिबलने यापीने पूर्वला मुकत क्य करवाने काजे सजुरुपासें ज दीक्षा लीधी दीक्षा लश्ने मोद प्रत्ये जातो हवो. हवे कंचनपुरना राजायें पोतानी पुत्री नाशी गयानुं वृतांत जाणी,खेद पामी, देशोदेश खबर कढावी. त्यारे पंथीजनना मुखथकी हरिबलनु त त्तांत सांजल्यु. कर्वा केः- ॥ वार्ताच कौतुकवती विशदाच विद्या, लोकोत्तरः परिमलश्च कुरंगनानेः ॥ तैलस्य बिंडरिववारिणि उर्निवारः, मे तत्रयं प्रसरतीति किमत्रचित्रम् ॥ १ ॥ नावार्थः-कौतुककारी वार्ता, निर्म ल तात्कालिक विद्या, मृगनी नानिनो लोकोत्तर परिमल एटले सुगंधमय कस्तूरी, ए सर्व पाणीने विषे जेम तेलतुं बिंऊ, विस्तार पामतुं उखें वारवा योग्य थाय ने एम एत्रणे विस्तार लोकोमा पामे ,तेमां आश्चर्य गुं ? ॥१॥ पडीअति हर्षवंत थहरिबलने पोतानो जमाइजाणीने प्रधान आदि महोटा पुरुषोथकी निश्चय करीने, कार्यना जाण एवा राजायें बहुमान थकी पुत्रनी पेरें हरिबलने तेडावी लीधो, ते हरिवल पण पृथ्वीने विषे इंश् सरखो सकल दिसेनायें परिवस्यो, पोतानी त्रण स्त्रीयो सहित, सर्व लोकोने कौतुक अने हर्ष करतो कांचनपुर नगरें घाव्यो. राजा तथा राणी पुत्रीने कहेवा लाग्यां के हे वत्से ? तें खडायें वर वस्यो, ते अघटतुं कगुं, पण तहारां नाग्यथकी तुं विश्वने पूजनीय एवो जरतार पामी, ते तहारं महोटुं नाग्य ? एम मातापितायें पुत्रीनी घणी प्रशंसा करी. प्रेमने ठेकाणे पोतानुं ठेकाणुं आपq एम जाणी राजा पोतानुं राज्य पण हरि बलने आपी पोतें राणीसहित दीक्षा लश्ने मोद जातो हवो.. हवे शत्रु- कटक, तथा शत्रुनुंबल, अने दर्प, जे अहंकार तप सर्पने टातवाने विषे गरुड सरिखो तथा नाग्यना उदयथकी महोटा राज्य पालतो, थको प्रजाने प्रीतिवंत यतो एवोजे हरिबल,ते त्रणे राणीने पटराणी करी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. थापतो हवो. तेमज बीजा राजाउनी कन्याउनु पण पाणिग्रहण करतो हवो. जेमाटे श्रीतीर्थकर जे अतुल दान आपे ,तेनां फल तेमने ते नव ने विषे एवा अभुतकारी नथी मलता,परंतु परनवें मले ने अने हरिवलने तो अल्प जीवहिंसाना नियमनुं तेज नवमां अतुल फल थयुं. अमृत,कन्या, सूत्र, चरमरत्न, उत्ररत्न, आदि चक्रवर्तीनां जे रत्न, वड तदनुं बीज, वी जनो चश्मा, सिंहy बालक, तंतु, जीव,जात्यवंत रत्नचिंतामणि प्रमुख, सु वर्ण सिदिनो रस, रसांग विद्या, एकादरी महोटी विद्या, ए सर्वेनी उ पमा हरिवलने लागु पडे . कारण के सुकत थोडु ने फल तो अत्यंत म होटा थयां. हवे हरिबल पोताना नियमने पालतो थको एम विचारे , जे उखनुं कारण एवं किहां माहं माडीनुं कुल, अधम दरिइपणं. अने क्यां या राज्य कति ? आ सर्व संपदा अने सुख तेने आपनारी एक था जीव दयाज थइ एम नीरंतर नियमनी अनुमोदना करतो थको नियमने विसारतो नथी. बीजी सामान्य वात पण क्यारे वीसरे नहीं, तो नवा तलाल फलने अनुनवमां लादतो एवो नियम ते केम वीसरे ? एकदा हरिबल, पोताना हृदयमां विचार ,केजे गुरुनी देशनारूप अ मृतथकी जाणुं बुजे मुजने देवता सरिखी रुचि पण दासी थइ रही, ते गुरु जो अहींबा पधारे, तो पूढे ने वली कृतार्थ थानं ! जन्म सफल क री मार्नु ! एम ज्यां विचारे जे तेवामां जाणे हरिबलना ध्यानना आका थकाज आव्या न होय ? तेम ते गुरुजी पधायानी वनपालके आवीने वधा मणी आपी. ते सांजली राजा हर्षवंत थयो यको वनपालकने वधामणी पापी महोटा आमंबरे करी गुरु पासें जश् वांदीने तेमना मुखथी धर्म देश ना सांजलतो हवो ॥यतः॥ यदियावा तोये तरति तरणिर्यादयति,प्रतीच्या सप्तार्चिर्यदि ह्यजनि शैत्यं कथमपि ॥ यदि दमापीठं स्याउपरि सकतस्यापि जगतः, प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधः कापि सुकृतं ॥ १ ॥ एहवी गुरुनी देशना सांजलीने मुदित थको विनति करतो हवो, के हे पुण्यनिधे ? तमा रा प्रसादथकी हुँ तत्कालपणे अभुत लक्ष्मीनो जोगवनार थयो. पण हे म हाराज! दुतो निंदा करवा योग्य बुं, अने पापी डं, मादे मुजउपर करुणा करो. हे करुणानिधे ! हे दयाना निधान ! मुझने मोद प्रतें पमाडो,मारु हितपणुं तमारा चित्तने विषे धारो, मुफ उपर संतोषित करो, एम कहेतो Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १३५ हरिवल गुरुने प्रणाम करतो हवो. सुकतने विषे एकाय राखतो एवा हरिब लने जो विचारीने सत्य वापीयें करी गुरु कहेता हवा के हे राजन् ! तुने धन्य जे, जे ताहरी बुद्धि एक धर्मने विषेज दृढ डे ॥ नक्तंचः केचिनोजन नंगिनिर्नरधियः केचित् पुरंध्रीपराः, केचिन्माल्य विलेपनैकरसिकाः केचिच्च गीतोत्सुकाः ॥ केचिद्यूतकथामृगव्यमदिरानृत्यादिदत्तादराः, केचिछा जि गजोदयानरसिका धन्यास्तु धर्मे रताः ॥ १ ॥ जावार्थः- केटलाक अनेक प्रकारना नोजनमां तत्पर डे. तथा केटलाएक स्त्रीना नोगने विषे तत्पर ने, केटलाक फूलनी मालामां तथा शरीरें चंदन विलेपन कर, तेहमांज एक रसीया डे, केटलाएक गीतगान सांजलवाने उत्साहवंत , केटलाएक जूगटुं रमवू, आहेडो, मदिरा, नाटक इत्यादिकने विषे बांध्यो ने आदर जेणे एवा बे, केटलाएक तो घोडा, हस्ती, वृषन, सुखपाल तेना रसीया , पण धन्य , तेने के जे धर्मने विषे राता ? हवे ते धर्म बे प्रकारनो बे. तेमां एक साधुनो धर्म ने,बीजो श्रावकनो धर्म,तेहमां निश्चे धर्मनुं मूल तो जीवदयाज दे. बाकी जे धर्म ते तो सघनो जीवदयानो विस्तार . ते जीवदयाने पालवाने निपुण जे , ते सर्व विरति साधुपणुं नजवाने रति करे . ते चारित्रविना दयानुं पालवू रूडी रीतें न थाय,अने जे मनुष्य साधुनो धर्म पालवा समर्थ नथी,ते गृहस्थ धर्म पाल वाने प्रवीणता राखे, तेने समकित सहित श्रावकनो दयाधर्म बारव्रतरूप जीवने राखवामाटे वीतरागें कह्यो . लोक पण लक्ष्मीने विषे विविधप्र कारना जला उपाय प्रत्ये झुं नथी करता? जेम नागरवेलथी पान वेगलां बे, पण नागरवेल दवाथी पान तुरत सुकाइ जाय , तेमदया विना स घला धर्म अवश्य थोडा कालमांहि नाश पामे जे. एटलामाटें जो जव्या ? बीजुं सर्व बांमीने दयाधर्मनुंज बाराधन करो, प्रमाद मूकीने दयाधर्म आ राधो. एवी गुरुनी देशना सांजलीने हरिबल पोताना गुरुपासेंथी समकित सहित श्रावकनां अणुव्रत आदरतो हवो. तेमज शेष बीजां व्रत पण यथाशक्तियें लश्ने पोतानी स्त्रीयो सहित घेर गयो. जेम दरिडी, क पझने पामे, ने हर्षवंत थाय तेम हरिबल श्रावकना धर्मनी प्राप्ति थ वाथी हर्षित थयो. पोताना देशने विषे अमारीनो पडह वजडावतो हवो. वली सात व्यसनने बांकतो हवो. हवे ते सात व्यसन. कहेवां ? तो के Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जगत् जे व्यसनोमां सर्व रची रधुं बे. एवा सात व्यसन ते सात नरक ना यापनारां दे तेने पोताना देशमांथी बाहार काढतो हवो. वली श्रमृत ने तुंबडें करीने घणा जगतना जीवना रोग टाली पगार करतो हवो ॥ यतः ॥ मेहाणजलं चंदा, चंदणं तरुवराण फलनिवहो ॥ सप्पुरिसागंजीवितं, सा फलं सयललोय ॥ १ ॥ जावार्थ:- वर्षानुं पाणी, चंड्मानुं तेज, बाव नांचंदन, वृनां फल, फूल, सत्पुरुषनुं जीवितव्य, ते सामान्यपणे सकल लोकने उपगारी बे ॥ १॥ इत्यादिक गणित पुण्यें करी, न्याय निपुणतायें करी धर्मनं जे एक छत्र राज्य तेने हरिबल पालतो हवो. माटे जातथी, करणीथी, संगतिथी, कुलमर्यादाथी जो पण ए हरिबल हलको हतो, तो पण जुवो एक द याधर्मना प्रतापथी राजा थयो, माटे कुलजात वगेरेनुं कांइ पण कारण नथी. कयुं वे केः ॥ यतः ॥ कौशेयं कमिजं सुवर्णमुपला, दूर्वापि गोलोमतः ॥ पंका तामरसं शशांकनदधे, रिंदीवरं गोमयात् ॥ काष्टादमिरहेः फणादपि मणि गशीर्षगोरोचनः ॥ प्राकाश्यं स्वगुणोदयेन गुणिनो गवंति किं जन्मना ॥ १ ॥ नावार्थ:- हिरागलवस्त्र ते कमीजीवथी उपजे बे, माटीथकी सुवर्ण, गाय नारोमथकी दूर्वा, कादवथकी रातुं कमल, समुझ्यकी चंद्रमा, बारामां हिथी श्याम कमल, काष्ठमांहीथी अग्नि, सर्पना मुखथी मणि, गायना मस्तकथी गोरोचंदन, उत्पन्न याय बे. एटले एवा हलका पदार्थथी पूर्वो सर्व उत्पन्न याय बे, पण पोताना गुणने उदयें करीनें विख्यातिने पामे " विख्यातिमांकां जन्म कारण नथी. ऐश्वर्य, शौर्य, उत्तमपणुं, तेणें करीने हरिबल सिंह जेवो थातो हवो था एटले एवा गुणो हरिबलें, सिंहना लीधा, माटे सिंह सरखो ते थयो. परंतु चपलपणुं कर्दमादिकमां खासक्त पणुं, इत्यादि अवगुण सिंहमां बे, ते हरिबलें लीधा नहिं वली ते धीवर ते निल्न जात जोवामां बे, परंतु ते निल्ल नथी पण ते निल्लनी नीति बोडीने धीवर ते धी जे बुद्धिमान् पुरुषो तेहने विषे वरप्रधान बे एटले प्रथमनुं धी वर पशु मूकीने हाल जे धीवर शब्दनो अर्थ कह्यो एवो ते धीवर थयो. तथा ते राज्यसंपदाने विषे पण दयाव्रतने न बांगतो हवो हवे हरिबलें पो तानी पहेली स्त्री माढाने तेडावीने शीखामण दइने प्रतिबोधी. पी संसा नां सुख जोगवतां घणो काल गयो. एटले वली गुरु सांजय्या तेथी सुस म समय सरिखो एवो घणो उत्तम समय ए हरिबलने थये थके ते · Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १३७ वसरने जाणीने आगमना जाण जे गुरु ते पण वरखतें ते पुरमां श्रावता हवा. ते महोटा पूजनीयर्नु आगमन सांजलीने हरिबल घणो खुशी थतो थको चतुरंगिणी सेना लश्ने गुरुने वांदवा गयो. त्यां गुरुने वांदी यथोचित स्थानकें उपदेश सांजलवा वेतो. हवे गुरु कहे , के हे राजन् ! तुं जीव दयाथकी या सर्व कति पाम्यो, एम एक जीव उगायाथी एटलुं फल तुने थयुं. तेवारें जो सर्व जीवने उगारे, तो तुं मोदनु सुख पामे. ते सर्व थकी जीवदया तो केवारें पले ? तो के ज्यारे चारित्र लीये, त्यारें पले. अने श्रावकधर्मने विषे तो मात्र सवाविशानी दया कही डे परंतु साधुने वीशवीशानी दया कही . ते अधिकार पूर्वे कह्यो जे. एटलामाटें तुं हवे यतिधर्म अंगीकार कर, के जेथकी मुःखें जीतीयें, एहवो जे मोह, तेहने हणीने पोतानुं आत्मिक राज्य ले, एवो गुरुनो उपदेश सांजलीने परमवै राग्यवंत एवो हरिवन, घेर आवीने वडा पुत्रने राज्यपाटें थापी, पोतें त्र ण राणी संघातें दीदा जश्ने सदाकाल जयणाने विपे मन जोडीने, कुकर तप तपी कर्मक्ष्य करीने, शाश्वतां जिहां सुख ले एवामोदप्रत्ये जातो हवो. एटलामाटेनो नव्यो ! ए जीवदयाने विष हरिवलन चरित्र सांजलीने विशेष प्रकारे जीवदया पालवाने उजमाल थाशो, तो पारमात्मिक सुख पामशो॥ ए पहेला अणुव्रत उपर हरिवलमाहिनो दृष्टांत कह्यो । ॥ अथ द्वितीय अणुव्रत प्रारंजः ॥ ॥बीए अणुवयंमि, परियूलग अलिय वयण विरई॥ आयरिय मप्पसने, श्च पमाय प्पसंगेणं ॥ ११ ॥ अर्थः- बीजं अणुव्रत कहे जे ? तोके (परि के) समस्त पणे (यूल के०) महोटा अलीक वचननुं विरमणरूप में ? तेमांहे इहां अप्रशस्त एट ले माठा परिणामें जे आचमु प्रमादने प्रसंगें करीने इत्यादि पूर्ववत्. हवे मृपावाद केटले कारणे बोलाय ले ? क्रोधथी,मानथी,मायाथी अने लोनथी, ए चार प्रकारें बोलाय डे. तथा मन, वचन, कायायें करी राग थी शेषथी, अने हास्यथकी ए त्रण प्रकारे जुतुं बोलाय. वली बीजा त्रण प्रकार कहे जे. जयथी, सहाथी, अने क्रीडारसथी, ए त्रण प्रकार तथा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ - जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. रतिथी, अरतिथी, दाक्षिण्यथी, वाचालपणाथी अने विकथादिकें करी जुतुं बोलाय. अर्थात् ए पूर्वोक्त सर्व प्रकारे करी जूतुं बोलाय ले. जेषकी जीवने पीडा उपजे, ते जो सत्यवचन होय तोपण ते जूठं जा गवं. कह्यु के ॥ अलियं न नासियवं, अनि दु सबंपि जं न वत्तवं ॥ सचंपि तं न सचं, जं पर पीडाकरं वयणं ॥ १ ॥ नावार्थः- जूटुं वचन बोलवू नहीं, तथा ते साचुं पण न बोलवू, के जे साचुं बोलवाथी परजी वने पीडा उपजे, तेवू साचुं पण न बोलवू ॥ १ ॥ ते मृषावाद व्रत वे प्रकारें , एक तो स्थूल महोटु जे अत्यंत उष्टपरि पामे मृषावचन नांख के जेथकी लोकविरु६ राज दंमादिक नय उपजे, ते स्थूल जूठ कहियें अने तेथी विपरीत जेथकी राजदंमादिक लोक विरु नही उपजे, ते सूक्ष्म जूठ कहीयें. ___ वली प्रकारांतरें मृपावाद कहे जे ॥ यतः॥ उविहोय मुसावान, सुह मो थूलो अ तब इह सुहमो ॥ परिहासाश्प्पनवो, थूलो पुण तिव संकेसो ॥१॥ नावार्थः- मृपावाद वे प्रकारनो . एक सूक्ष्म अने बीजो स्थल, तिहां हास्यादिकें मृषावचन बोलवू ते सूक्ष्म मृपावाद जाणवो. अने जे अ त्यंत आकरा तीव्रसंक्वेशे करी बोलवं, ते स्थूलमृषावाद जाणवो. यहां श्रावकने सूक्ष्म मृपावादनी जयणा , तेनुं पञ्चरकाण नथी अने स्थूल नृपावादनुं पञ्चरकाण .जेमाटे आवश्यकनी चूर्णीमां कह्यं ॥यतः॥ जेण नासिएण अप्पणो परस्स वा अश्ववाघा ॥ अश्संकलेसोथ जा यते तं अहाए अपहाए वा ण वयकत्ति ॥ नावार्थः-जे वचन बोले थके पोताने अने परने अत्यंत व्याघात थाय, अत्यंत संक्लेश थाय तेवा वचन पोताने स्वार्थे बोले अथवा स्वार्थ विना बोले. हवे सूत्रनी गाथानी व्याख्या करियें बैयें. मृपावादविरमण रूप वीजें अणुव्रत परिस्थूल ते अति महोटुं स्थूल एटले बादर ते लोकने विषे पण अपकीर्ति प्रमुखy कारण एवं अलीक वचन बे. हवे तेना पण पांच नेद में, एक कन्यालीक, बीजुं गवालीक, त्रीजुं नूम्पनीक, चोथु परनी थापण उलववी, पांचमुं कूडी सादी जरवी, ए पांच नेद जाणवा. १ तिहां प्रथम कन्यालीक ते जे विष कन्या होय तेने रागथी एम कहे के ए विषकन्या नथी, तथा जे विषकन्या न होय तेने षथी विष कन्या Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १३ए कहे, तेमज वली जे कन्या शीलवती होय व्यनिचारणी न होय तेने सुशीला कहे अने जे उःशीला होय तेने सुशीला कहे, ते सर्व कन्यालीक जाणवं. ___२ बीजुं गवालिक ते जे गाय थोडं दूध करती होय तेने रागें करीने कहे के ए घणुं दूध करे , अने जे घणुं दूध करती होय तेने हेपें करीने कहे, के ए थोडं दूध करे , इत्यादिक जूतुं बोलq ते गवालिक जाणवं. ३ त्रीजुं नौम्यलीक ते जे पोतानी नूमिका होय तेने रागथी पारकी कहे अने पारकी नूमिका होय तेने औषयी पोतानी कहें तथा जे उखर नूमि दोय तेने रागथी उत्तम खेत्र कहे अने जे उत्तम क्षेत्र होय तेने हे पथी उखर नूमि कहे.इत्यादिक जूतुं वोलवाने नूमि संबंधि अलीक कहियें. ए उलखाववा माटें कह्यां, परंतु उपलदणथी कन्यालीक, गवालीक, नू म्यातिकनी पेरें सघलाए हिपदालीक चतुष्पदालीक पण वङवां. कहेलुं में यतः॥ कन्ना गहणं उपयाणं,सूयगं चनप्पयाण गोवयणं ॥ अपयाणं दवाणं, सवाणं नूमिवयणं तु ॥ १ ॥ नावार्थः- कन्यालीक पदे सर्वे पिदनुं अ लीक जाणवू, अने गवालीक पर्ने सर्व चतुष्पद गाय घोडादिकनु अलीक जाणवू, तथा अपदें करीनूमि, इव्य एटले धन प्रमुख इत्यादिक संघला ए पद जाणवां ॥१॥ इहां आशंका करे , के जो तमे एम कहो हो तो पिद, चतुष्पद अने अपद ए त्रणना ग्रहणथकीज सर्व संग्रह केम न कस्यो? के जे माटें ए त्रणमां सर्व आव्युं ? हवे इहां गुरु उत्तर कहे जे. जे तमें कहो बो ते सत्य पण कन्या लीक आदें देने लोकने विषे अत्यंत निंदनीय जे तेथी तेने विशेपें वा माटें जूदां जूदां करी कह्यां . वली कन्यालीकादिकथकी नोगांतराया दिक अनेक प्रकारना रागषादिकनी वृद्धि प्रमुख दोष प्रगट थाय बे. ४ हवे पारकी थापण उलववी ते पण महापातकनी हेतु . ते महा पापी विश्वासघातनो करनार के कारण के ए वात वे जज जाणे त्रीजुं कोई जाणे नहीं जेमाटे बिचारो थापण मूकनारोधणी ते एम जाणे जे म हारो ए अंतरनो परमवलन , एम धारीने कोश्नी सादी विना पण पो तानुं धनधान्य, तेने घेर मूके, पनी ते राखनार धणी महालोनें पराजव्यो थको विश्वासघात करीने उत्सवी नाखे, तो एना जेवो बीजो कोइ उष्ट पा पिष्ट समजवोज नहीं. इहां जो पण ए थापणमोसो जे जे ते अदत्तादा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. नज वे एवी बाशंका, निवारण करवा माटे कहे जे के हां आ व्रतने विपे वचननुंज प्रधानपणुं वांब्युं ,कारण के थापण राखीने पढ़ी ना कबूल थवा थी जुटुं बोल्युं तेथी अलीक वचन थ\ माटे तेने आ बीजा व्रतमां कडं डे. ____५ पांचमुं कूडी सादी जरवी ते लेवडदेवडने विष कोइने सादी कयो होय, तेने लांच आपे अथवा क्षेषने वशे करी पोतें जूठी सादी जरे, ते था लोकने विपे अने परलोकने विपे पण अनर्थनो हेतु , जेम वसु रा जायें अज अदना अर्थनी जूनी सादी जरी, तेथी तत्काल मरण पामीने नरकें गयो ॥ लौकिकशास्त्रेप्युच्यते ॥ ब्रूहि सादयं यथावृत्तं, लंबतेपितरस्तव ॥ त्वदीयवचनस्यांते, पतंति न पतंति च ॥ १ ॥ नावार्थः-लौकिक शास्त्र मां पण कहे , के जेहवू ले तेहबुज कहे, तहारा पितरी , ते अधर रह्या , तहारा ते वचनने अंतें पडे, अथवा न पडे, एम जे तेमां कूड। सादीथी पितरीयो पडशे नरकें जाशे ? माटें कूडी सादी नरीश मां ॥१॥ यहां पारकी थापण उलववी अने कूडी सादी नरवी, ए वे प्रकार, जुठं बोलवू, ते यद्यपि पिदादिक संबंधि अतीक वचनमांहे अंतत थाय बे, तो पण लोकने विपे थापण मोसो अने कूडी सादी अति निंदनीय ब. माटे जूदां जूदां कह्यां. लौकिक शास्त्रमा का डे ॥ कूटसादी सुहवाही, कृतघ्नोदीर्घरोपवान् ॥ चत्वारः कर्मचांमालाः, जातिचांमालपंचमः ॥ १ ॥ तथा च ॥ हस्ते नरकपालं ते, मदिरामांस नदिणि ॥ जानुः टनति मातंगि, किं तोयं दक्षिणे करे ॥२॥ चांमाली प्राह ॥ मित्रशेही कृतघ्नश्च, स्तेय। विश्वासघातकः॥ कदाचिच्चलितोमार्गे, तेनेयं दिप्यते बटा ॥३॥ कूटसा दीमृपावादी, पक्षपाती जगढके ॥ कदाचिचलितो मार्ग, तेनेयं लिप्यते उ टा ॥ ४ ॥ नावार्थः-कूडी साख नरे, मित्रशेह करे, कस्यो गुण न जाणे, दीर्घ रोष राखे, ए चार, कर्म चांमाल जाणवा अने पांचमो जाति माल जाणवो ॥ १ ॥ तथा जानुपंमित पूछे ले के तहारा हाथने विपे मनुष्यनी तुंबडी , परंतु मदिरामांसनी नक्षण करनारी, एवी हे चांझालि ! ताहारा दक्षिण हाथने विपे जे पाणी डे ते शा माटेने ? ॥ २ ॥ तेवारें चांमाली कहे जे-जे मित्रशेही, कस्या गुणनो अजाण, चोरीनो करनारो, विश्वास घाती एटला जन मार्गने विपे चाल्या होय तेणे करी धरती अपवित्र था होय तेमाटे आ जलथी हुँ धरतीयें बांट नाखू बुं ॥३॥ कूडी सादी नरे, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १४१ मृषा बोले, जूग ऊगडानो पदपात करे एवा पुरुष धरती उपर चाव्या होय, तेने लीधे अपवित्र थयेली पृथ्वीने बांट नाखीयें बैयें ॥॥ ए पांच प्रकारजूतुं वचन नांखq तेनुं जे विरमण एटले टालवू ते मृषावाद विरमरावत कहियें,तेने विषे “यायरियमप्पसले” एटले अप्रशस्तपणे प्रमादना वशथी जे अतिचार आचयुं होय इत्यादि पूर्ववत् ॥ ए अगीयारमी गाथानो अर्थ कहो. हवे ए बीजा अणुव्रतना अतिचार पडिक्कमे बेः॥ सहसा रहस्स दारे, मोसोवएसे अ कूड लेदे अ॥ बीय वयस्स श्यारे, पडिक्कमे देसियं सत्वं ॥ १२॥ अर्थः-( सहसा के०) अकस्मात् पणे अन्याख्यान, बीजो रहस्याच्या ख्यान, त्रीजो स्वदारा मंत्रनेद, चोथो जूठो उपदेश देवो, पांचमो कूट लेख ते जूतो कागल लखवो, ए वीजा व्रतना अतिचार प्रत्ये पडिक्कमुंबुं ॥१॥ १ पहेलो सहसा शब्दें सहसात्कारें कोइने जुतुं बाल दे, जेम के आ चोर , आ परदारापहारक वे इत्यादिक अणविचाऱ्या, अतुं बाल कहेवू, अबता दोपy आरोपण करवू तेने सहसान्याख्यान कहीयें. . २ वीजो रहस्य ते केटलाएक एकांतें वेग थका आलोच करता होय तेने इंगित आकारें जाणीने ए सर्व राज्यादिक विरुक्ष विचार करे , एवं जे कहेवं ते रहस्यान्याख्यान कहिये, अथवा कोश्नी चाडी करवी, ते पण रहस्यान्याख्यान कहियें. जेम को वे जणने मांहोमांहे प्रीति थये ली जाणीने तेनी प्रीतिने त्रोडवा माटे एकएकने इंगित आकारें जोड्ने एक एकने कहे के तुमने पहेलो ए अमुकप्रकारनी वातो कहेतो हतो एम कहीने वेनी मित्रा रोडावे ते रहस्यान्याख्यान अतिचार कहीयें. ३ पोतानी स्त्रीयें विश्वास राखीने गुह्यनी वात करी होय, ते स्त्रीना गुह्यनी वात पोताना मित्रादिकनें कहे, ते स्वदोरामंत्रनेद कहियें, इहां शिष्य पूजे डे, के रहस्यान्याख्यान अने स्वदारामंत्रनेद ए बेदुमा साची वा त कहेवाय बे, पण तेमां कांइ जुतं बोलातुं नथी, माटे एमां शानो अति चार लागे ? तिहां गुरु उत्तर कहे , के ए वात जे , ते मर्मनी , माटें ते सांजलवाथी कदाचित् स्त्री तथा मित्रादिकने मरणादिकनो अनर्थ थाय? माटें दोष जाणवो ॥ यतः ॥ न सत्यमपि नापेत, परपीडाकरं वचः ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . १४२ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. लोकेपि श्रूयते यस्मात्, कोशिको नरकं गतः ॥ १ ॥ नावार्थः- जे मी पर ने पीडा उपजे, एवं सत्यवचन पण न बोले, जेमाटें लौकिकमांहे पण सांनलीयें बैये. जे सत्यवचन बोलतां पण कौशिक ऋषि नरकें गयो ॥१॥ इहां स्वदाराना ग्रहणनेविषे उपलक्षणथी मित्रादिकनो पण मंत्रनेद जाण वो अने स्त्रीपण जरतारना गुह्यनी वात अथवा पोतानी सखी संबंधी गु ह्यनी वात अन्यने कहे ते पण ए अतिचारमा लेवी. ४ चोथो मृपानपदेश ते कोश्वे जगने परस्पर विवाद थयो होय तेमां जेनी उपर पातानो राग होय तेने वैरी जीतवाना उपायना उपदेश थापे,परने उग वाना नपाय शीखवे,मंत्र,यंत्र बोपधादिकना उपदेश आपे,जेमां निर्दयिपणा नीमुख्यता होय एवां शास्त्र जणावे ते सर्व मृषा उपदेशरूप अतिचार जाणवा. ५ पांचमो कागलमा खोटी मोहोर करवी बीजाना जेवा यदर लखीने जूना अर्थ लखवा ते कूटलेख अतिचार जाणवो. गाथानो शेप अर्थ पूर्ववत्. हां शिष्य पूजे जे के,कूडा कागल लखवा, ते तो महोटुं असत्यज ते,तो ते करवाथी शी रीतें व्रतनंग न थाय? अर्थात् थायज. हवे गुरु केहे ले के हे शिष्य! तें कर्तुं ते सत्य बे,पण एटबुं विशेष के असत्य महारे न बोलवू, एवं पञ्चरकाण करेलुं ने, तेथी खोटा लेख लखवा ते वात लखवामां आवी पण बोलवामां न यावी, एवे अनिप्रायें करीने मुग्धबुधिने व्रतनी अपेक्षा रहे : तेमाटे ए कूटलेखने अतिचारज जाणवो. जो जाणपणे लग्वे, तो अतिचारपणुं जे जे कारण माटे ॥ यतः ॥ सहस्साप्नरकाणाइ, जाणंतो जर करितो नंगो॥ जण पुणणाईनोगा, इहितो तो अश्यारो ॥ नावार्थःविचास्या विना जूतां आल थापे, ते जाणी करीने जो करे,तो व्रतजंग थाय पण जो अनुपयोग पणे लखे, तो अतिचार जाणवो ॥ १ ॥ हवे ए सत्यव्रत पालन करवानुं फल कहे . एनाथी लोकने विश्वास नपजे, जगतमां यश वधे, पोतानो स्वार्थ थाय,सर्वने प्रिय लागे, सर्व को तेनुं वचन मान्य करे, तेनुं वचन अफल न थाय, तेनां वचन सर्वने मधुर लागे,एटला गुण थाय,जेमाटे सघलाए मंत्रादिक योगसिदिपामवी. तथा धर्म,अर्थ अने काम, ए सर्व सत्यनाज बांध्या बे, रोगशोकादिक पण सत्य थकी नाश पामे, जे सत्यवादिपणुं , ते यशचें मूल . सत्यवचन ते पर मविश्वासनुं कारण बे, सत्यवचन ते स्वर्गनुं बारj , सत्यवचन ते मोदें Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १४३ जवानुं पगथी , लोकने विषे पण सत्यपणे धरती रही , सत्यथी या काशें सूर्य तपे बे, सत्यथकी वायु वाय डे, सर्व कांश सत्यने विपे रघु ने. जोश्ये बैयें तो संप्रति कालें पण सत्यवादी धीज करवाने विषे तैयार थाय ने तो पण पालो निर्मल थश्ने निकले , राजासरखा तेनी पूजा करे , जगतमां प्रशंसा थाय ने, सदुको तेने जलो नलो कहे . ' हवे जे पुरुष ए बीजं व्रत नथी लेता,अथवा लश्ने अतिचार लगाडे , अवला चाले , तेनां फल कहीये बैयें. ते जेम जेम बोले थे, तेम तेम अप्रियवादी थाय . ते जो गुनकारी बोलें तो पण तेनुं को सांजलतुं न थी केम के सदु जाणे जे ए जुना बोलो ,माटे ए बोलशे, ते साचुं नहींज होय.अने सत्यवादी एकज वचन बोले,तेने सर्व को सत्य करी माने अने असत्य बोलवाथी परनवें मुर्गध मुख वालो थाय, तेनो मुखपाक थाय. तेनुं वचन सदुने अनिष्ट लागे, ते घणो कटुनाषी थाय, मूर्ख थाय, बधिर थाय, मूंगो थाय, तेनुं बोल्युं समजाय नही, इत्यादि सर्व पूर्व घणा जूगं वचन बोल्यां होय, तेनां फल जाणवां. अने आ नवमां पण जूग बोल नारनी जीन कपाय, घणा वध बंधादिक पामे, अपयश पामे, तेना धननो नाश थाय, एटला वानां जूना बोलवाथी थाय, जे असत्यवादी होय, तेनो को पण विनय न करे,अने ते जो शांत दां तादिक घणा गुणें करी सहित होय, तो पण तेनो को विश्वास करे नहीं लौकिकव्यवहारमांहे तेनो को आदर न करे अने धर्मने विपे पण अधि कारपणाने योग्य न होय ॥ यतः॥ लान अबीअं कं, नास नारं गुड स्स जह सहसा ॥ तह गुण गण असेसं, असञ्च वयणं विणासे ॥१॥ जावार्थ:- जेम कडवी तुंबडी, एक बीज नाखवाथी हजार नार प्रमा ण गोल होय ते तत्काल कटुक विषरूप थइ जाय, तेम समग्र गुणना समूह होय पण एक असत्यरूप अवगुण होय, तो ते सर्व गुणनो विना श थइ जाय ॥ यतः ॥ वायसपयम्मि किंपिदु, सामुदिय लरकणाण लरकं पि॥अपमाणं कुणजहा,तह अलियं गुणगणं सयलं ॥१॥ तालपुडं गरलाणं, जह बहु वाहीण खिचि वाही ॥ दोसाण मसेसाणं, तह अविगिलो मुसा दोसो ॥ ५॥ नावार्थ:- जेम सामुहिक शास्त्रमा कह्या प्रमाणे जेहवां जोश्ये, तेवां सर्व लक्षण उत्तम होय पण जो एक कागडाना पगर्नु अपल Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. क्षण होय तो तेने लीधे सर्व उत्तम लक्षण ते कुलदण जेवां था पडे,तेम मनुष्यमां जो एक मृपावादपणुं होय तो ते सघलाए गुणना समूहने अप्रमा ण करे ॥ १ ॥ तानपुट विष तथा सादिकनी गरल लाल प्रमुख जे डे, ते जेम कोइना उपर पडवाथी तेने अवगुण करनारी थाय ने, तथा श रीरनो क्य पण करे , तेम समस्त दोपमाहे मृपानापा रूप दोष ते महो टो गंगनीय , एथी जीव धर्मना फलने न पामे ॥ २ ॥ __ हवे ए असत्य वचन नपर शेतना पुत्रनो दृष्टांत कहे :- कोई एक साधुनी सेवा करनारो श्रावक हतो, तेनो पुत्र नोधम्मिन हतो, एटने धर्म रहित हतो, तेने तेना पितायें घणुं समजावीने बलात्कारें गुरुनी पासें था एयो, जेवारें गुरुयें तेने धर्मोपदेश दीधो, तेवार ते शेठनां पुत्र धूर्तपणे गुरु नो उपदेश सांजली रोमांचित् थश्ने गुरुनु कह्यं सर्व सत्यकरी मानवानी पेरे सांजलवा लाग्यो. श्रावकना बारे व्रतनुं स्वरूप गुरुयें समजाव्यु, ते सां जलीने प्रतिबोध पाम्यानी परें उठी चनो थश्ने गुरुने कहेवा लाग्यो के मने व्रत अंगीकार करावो तेवारें गुरु पण तेने धर्ममां दृढ करवा माटे तेनी घणी प्रशंसा करता हवा,ते सांजली शेना पुत्रं गुरुने कह्यु के हे महाराज ! एक मृपावाद विरमणव्रत मूकीने बीजा अगीयारव्रतनो नियम मुझने आपो, कारण के असत्य त्याग करवानो व्रत हुँ गृहस्थ माटे मुफथी पले नहीं. बाकी बीजां व्रत पण सत्य बोल्या विना पालीश एवो तेनो व्रत पालवाने अयोग्य आशय जाणीने गुरु तथा माता पितादिक सर्व कुटुंबे तेने उदेखी मूक्यो जेमाटे श्रीहेमचंशचार्यजीयें कडं ॥ यतः ॥ पारदा रिकदस्यूना, मस्ति काचित्प्रतिक्रियाः ॥असत्यवादिनः पुंसः, प्रतिकारो न विद्यते ॥१॥ एकनासत्यजं पापं, पापं निशेपमन्यतः ॥ योस्तुला विस्तयो, रायमेवा तिरिच्यते ॥ २॥ नावार्थः- परस्त्री गमन करनार तथा चोरीना कर नार माटे प्रतिक्रिया एटले कोइक उपाय , पण असत्यवादी पुरुपनों प्र तिकार एटले उपाय कोइ नथी ॥ १ ॥ एक स्थानकें जूना बोलवा- पाप राखीयें अने एक स्थानकें बीजा सर्व प्रकारना पापने राखीयें, एवेढुने त्रा जुवामां नाखी साहामा साहामा तोलीयें तो मृषावचन बोलवाना पापर्नु त्राजवू नारे थाशे अने नीचुंनमीजाशे ॥॥ए बारमी गाथानो अर्थ ॥१२॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १४५ हवे ए बीजा व्रतने विषे दृष्टांतरूपें कमलशेतनी कथा कहे जे. विजयपुर नामा नगरने विषे दीनःस्थित जनने आधारजूत एवो नय सार नामें राजा राज्य करे . तेज नगरने विपे सरल स्वनावी, सत्यवा दी, नगरमा महोटी ख्यातिवालो, कमल सरखो सुकुमार, अल्पलोनी, अल्प मोहवालो, परस्त्रीसहोदर, उचितनो जाण, कृतज्ञ, वली सत्य प्र तिझावान्, धर्मिष्ठ एवो, कमलशेत नामें श्रावक वसे . वत्ती ते कमलशे उनी शीलगुणें करीने निर्मल एवी कमलश्री नामें स्त्री जे. तेहने एक विम ल नामें पुत्र, ते नामें तो विमल , पण करणीयें जो जोश्ये, तो सम ल ले. एटले मलिन ले, लोकमां एवी कहेवत ने के “बाप तेवा वेटा" होय, पण ते विमल तो जेम रविनो पुत्र शनिश्चर बे, तेम तेना पिताथ। उलटोज थयो . उक्तं चः-न म्लापितान्य खिलधामवतां मुखानि, नास्तं तमो न च कृतानुवनोपकाराः ॥ सूर्यात्मजोहमिति केन गुणे न लोका न, प्रत्यापयिष्यसि शनेश पटैर्विना त्वं ॥१॥ नावार्थः-समस्त तेजवंत नां मुख पण तें म्लान केहतां मेला नथी कस्यां,तथा अंधकार पण टाल्यो नथी, त्रण नुवनमां उपगार पण कोश्ने कस्यो नथी, अने कहे जे जे हूं सूर्यनो पुत्र ,एम हे शनिश्चर! शमकस्या विना कये गुणे करीने तुं लोकने विश्वास उपजावीश ? हवे ते विमल जे जे, ते धर्मने नामें तो नाशी जाय, अने धनने नामें उजमाल थाय अने वली तेमां पण पोतानुं पंमितपणुंमाने, तथा पोतानी प्रशंसा करे. एम करतां थकां एक दिवसें पुत्रने पिता कहे तो हवो के हे पुत्र ! धननी उपार्जना करे गुं थाय ? माटे गुणर्नु उपार्ज न तुं कर. कडं ने के ॥ यतः॥ आत्मायत्ते गुणाधानं, नैर्गुण्यवचनीयता ॥ देवायते पुनर्वित्तं, पुंसः को नाम वाच्यता ॥ १ ॥ नावार्थः- गुण, जेरा खवू, ते आत्माने वश , अने निर्गुणपणुं ते निंदनीय , वित्त ते नाग्यने याधीन डे, नाम इति कोमलामंत्रणे एथी पुरुष एह नाम ते झुं कहीयें ? एटला माटे गुणर्नु उपार्जन करे थके धननु उपार्जन स्वतः रूडी रीतेंज निपजे , जो गुण न होय तो गृहस्थपणानो जे उद्योत ते निचे पलेवणा सरखोज जाणवो, एटला माटे हे पुत्र ! तुं गुणर्नु उपार्जन कर. कयुं केः- ॥ गुणेष्वेवादरः कार्यः, किमाटोपैः प्रयोजनं ॥ विक्रियते न घंटा निर्गावः दीर विर्वजिताः॥१॥ नावार्थः- गुणने विषेज आदर करवो, घणे १९ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. · खामंबरे गुं प्रयोजन ? जो दूधरहित एवी गाय होय तो ते कांई घंटा दिकनी शोनायें करीनें मूल्य न पामे. पण तेमां जो दूध होय, तो मूल्य पामे, एम विविध प्रकारनी युक्तियें करीने समजाव्यो, तेवारें लगायें करीने पितानुं वचन मान्युं, पण ते वचन, मने करी याद नहिं. त्यार पढ़ी धूर्तनी पेरें ते कलशेठनो पुत्र विमलकुमार धूर्तताथी घणुं धन उपार्जन करीने पो ताना पिताने देखाडे ने एम कहे जे हे पिताजी ! जुन ! में धूर्तकला ये करीने घणुं धन उपार्ज्जु. गुण उपायै शुं थाय ? जे तमें मने गुण नपा यनुं ने धर्म उपायनुं फल देखाडो हो ? एम पिताने समजावीने वली कहे ले जे हे पिताजी ! नीति शास्त्रमां कयुं ने के:- जातिर्यातु रसातलं गुणगुणास्तस्याप्यधोगतां शीलं शैलतटात्पतत्वनिजनः संह्यतां बन्द ना | शौर्ये वैरिणि वज्रमाणु निपतत्वर्थेस्तु नः केवलं येनैकेन विना गुणा स्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ॥ १ ॥ नावार्थ : - जाति जे वे, ते रसातल प्रत्यें जाउ, ने गुणना गण जे बे ते वली तेथी पण हेग जानु, शील जे बे, ते पर्वतना तटकी हे पडो, पोताना परिजन ते नियें करी बलो, बेरीने विषे जे पराक्रम कर तेहने विषे तत्काल वज्र पडो, पण मारे तो केवल अर्थ जे धन, तेज हो, कारण के एक धन विना समस्त जे गुणो, ते तृ नाश सरिखा थाय बे ॥ १ ॥ एहवां पुत्रनां गर्वित वचन सांजनी ने पिता बोल्यो के हे पुत्र ! जेम सोजानुं जाडपणुं जे ठे, ते दुःखदायक बे, ते न्यायें करीने एकतुं करेनुं जे धन वे, ते पण दुःखदायक जावं. अन्याय करनारने या नवनें दिये पण याकरा विपाक जोगववा पडे बे, तेने विपे एक दृष्टांत कहुं बुं, ते सांजन. शोरी पुरनगरने विषे कोई जमतो जमतो महाधूर्त श्राव्यो. ते शाहुकार ने वे एक वालियाने हाटें जोजननो सामान जेवाने अर्थे गयो, ते सामा नना वे पैशा यया, तेथी ते वाणीयाने कहेवा लाग्यो के हे शेठ ! तद्वारा पुत्रने मारी सार्थे मोकल, तो अमारा वालीयानी दुकानेथी हूं पावु, ते सांजली ते पोतानी पासें बेठेला पुत्रने ते धूर्त्तनी साधें शीघ्रताथी मोक व्यो, तिहां थकी ते धूर्त ए वणिक पुत्रने ग्रहीने दोसीने हाटें गयो, ति हां नारे नारे वस्त्र प्रमुख लीधां, ते लइने ते दोसीने कहेवा लाग्यो के या मारो पुत्र तमारी पासें वेगे बे, ने हुं शीघ्र मूल्य लेइने श्रावुं बुं. कार Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १४७ " के मो शाहुकार ढैयें, तेथी घडी एक पण कोइनुं देवं राखीयें नहिं. एम कहने ते हजामनी शालायें गयो. त्यां हजामत करावीने हजामने कयुं के तारी स्त्रीने मारी सार्थे मोकल, एटले दुं हजामत करावाना पै शा श्रापुं, एम कही ते हजामनी स्त्रीने लइने तंबोलीनी झुकाने जातो ह वो. ते हजामनी स्त्रीने बाहार उनी राखी पोतें तंबोलीनी दुकाने तंबोल प्रमुख महीने तेने कहेतो हवो के मारी स्त्री- इहां वेठी बे ने हुं ताहरा मा गला पैशा हमलांज लावुं बुं. वली बाहेर याव्या पठी ते स्त्री प्रत्ये एक क तो हवो के तारूं पण जेणुं हुं न यावुं बुं. तिहांथकी पूर्वोक्त सर्वे वस्तु ग्रहीने एक मोसीने घरे खाव्यो, अने तेने कहेवा लाग्यो के हे मात ! हुं त मारो पुत्र बुं, या सर्व चीजो जे हुं लाव्यो बुं, ते तमे व्यो. मोसीपण ते वस्तु लइने हर्ष पामी की तेहने पुत्रीनी पेरें जाणवा लागी ने इव्य प्रा प्याथी को संबंध, सिद्धि न पामे ? सर्व कार्य सिद्धि पामेज. ते धूर्त ह वे निश्चिंत मन को ते मोसीने घेर सुखथी रहेतो हवो. वे जेनी पासेंथी प्रथम जोजननो सामान लीधो हतो ते वाणीयो पुत्र न आव्यो जाणीने तेनी शोध करवा निकल्यो, त्यां तेने शोधतां पो ताना पुत्रने दोशी वाणीयानी दुकान पासें रमतो देख्यो, तेथी ते दोशी वा याने कवा लाग्यो के या माहरो पुत्र तमारी दुकाने क्यांथी याव्यो ? तेवारें ते दोशी वाणीयो बोल्यो के ए ताहरो पुत्र नथी, पण एहनो बाप तो वस्त्रनुं नाणुं जेवा गयो बे, त्यां सुधी ते बोकराने यांहीं वेसारी गयो बे. एटला माटे जो ताहरो पुत्र होय तो तुं इव्य यापीने लइ जा, तेम के देवाथी ते बन्ने जलने मांहोमांहे घणोज ऊगडो थयो. ते समयमां हजाम पण पोतानी स्त्रीने शोधतो शोधतो तंबोलीनी 5 काने खायो, ने तंबोलीने कहेवा लाग्यो जे या मारी स्त्री तारी दुकाने क्यांथी यावी ? त्यारे ते तंबोली बोल्यो के ए स्त्रीनो धणी तो तंबोलना पैशा जेवा गयो बे, त्यां सुधी या स्त्रीने यांही मेली गयो बे. ते स्त्री जो ताहरी स्त्री होय तो तुं नाएं आपीने सुखेंथी लइ जा. एम तंबोलीना बोल वा ते हजामने पण तेनी साथै घणीज तकरार थइ. एम ते चारे जणां वढतां वढतां राजा पासे गयां, राजा ते चारेनी वात सांजलीने विस्मय पामतो हवो. ने खेद पामी कोप्यो थको कोटवालने तेडावीने कहेतो Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. हवो के शीघ्रपणे चोर पकडी लाव. ते सांजलीने कोटवाले कयुं के ठीक, महाराज! ए चोरने ढुं सात दिवसनी अंदर पकडीने लावू . जो सात दिवसमा न लावं, तो आप मुझने गमे ते दंम करजो.. त्यार पड़ी ते कोटवाल प्रमाद बांमीने चोरने खोलवा निकटयो. ते वात ज्यारे पेहेला धूर्ते जाणी, त्यारे ते धूर्त पण प्रतिझा करी जे सात दि वसमां कोटवालने धृतवो. सातमो दिवस थयो, त्यारे ते धूर्ते कोटवालने घेर जश्ने तेनी स्त्रीने कर्तुं जे ताहरा धणीयें सात दिवसमां चोरने पकडी लाववानी प्रतिज्ञा करी , पण ते चोर न लाव्यो, अने आज सातमो दि वस , तेथी राजायें रोप करीने तहारा धणीने हमणां दृढबंधने बांध्यो बे, बांध्या थका तेणे मुझने संझा करी जे तुं महारे घेर जा, ने मारी स्त्रीने कहे के तुं नासी जा. जो तुं नाशी नहिं जा अने जो मुष्ट राजाने हा थ पकडाइश तो महोटो अनर्थ थशे ! ते कोटवालनी स्त्रीयें धूर्त्तना मुख थी एवी वाणी सांजली के तुरत ते पोतानुं घर पण सूनुंज मूकीने जागी गइ, तेवारे ते धूर्त घरमांहिथी सर्व इव्य लेइने पोताने स्थानकें गयो. त्या र पड़ी ते कोटवाल घेर आवीने घरमा जुवे डे तो पोतानी स्त्रीने न देख तो कहेवा लाग्यो के अरे मारी स्त्री घरमांथी किहां जती रही ? पण कोश्यें का जवाब आप्यो नहिं, तेथी गाममां खोल करवा निकल्यो गा मनां सघलां लोक तेनी हांसी करवा लाग्यां, तेथी ते घणीला पाम्यो. हवे राजसनाने विपे ते चोरने पकडवानुं बीडं कामपताका नामें ग णिकायें काव्यु, ते वात ज्यारें पेला धूर्ते जाणी, त्यारे तेणे पण ते नायकाने तरवानी प्रतिज्ञा करी. हवे ते धूर्त देशांतरीने वे ते कामपताका गणि काने घेर जश्ने केहतो हवो के आज इहां कोई सार्थवाह परदेशी याव्यो बे, तेणे पांचसो सोल टका मोकल्या , ते तुं ले, ने चाल मारी साथे के ते सार्थवाहनी साथै ढुं तुने मेलाप करावं ! ते सांजली ते वेश्या पोतार्नु सघलु काम बोडी धन लेवा माटे (५१६) टका तेनी पासेंथीला घरमां मूकीने ते धूतनी साथें चाली. ते बन्ने जणां गाम बाहिर गयां, त्यारे ते धूर्त बोल्यो के हे पद्मिनि ! सार्थवाह आवे,त्यां सुधी आ परब ने तेनीपासें रहेवानी जगा दे, त्यां वेस, सार्थवाह थोडेक दूर जे, ते हमणां आवशे. एहवामां रात पड़ी, अंधकार थयो भने अर्धरात्रि गइ, तेवार ते वनमां सिं Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २४ए हना नयथी बिहवा लागी,नय पामी थकी धूर्तनी साज रही,तेम करतां ते वेश्यानां निशयें घूर्मित नेत्र जेवारें थयां,अने निज्ञ यावी, तेवारें सुव र्णमय रत्ने जडित एहवा सर्वे अलंकार तेना अंग उपरथी उतारी लश्ने धूर्त नागी गयो. पडी ते वातनी नगरमा खबर पडवाथी गणिकानी हांसी थइ. त्यार पठी कामसेना नामें धूतारी गणिकायें चोरने पकडवानुं बी९ जील्युं. ते वात पण ज्यारे ते धूर्ते जाणी, त्यारे पंमितनी शालायें सांऊ व खतें गयो, त्यां जश् पंमितने कडं के शीघ्र कमाड उघाडो, अने आ पोथी ढुंआ, ते व्यो, ए पोथी घणी रूडी ने. नि. दुं तमने आपवाने आव्यो बुं, ते सांजली पंमित कहेतो हवो के हाल कमाड नहिं उघाडं. त्यारे ते धू तकडं के कमाड न घाडो, तो तमारो हाथ बहार काढीने आ पुस्तक ल्यो. तेवारे ते पंमितें पुस्तक लेवा हाथ बहार काढयो, तेवोज ते धूर्ते पोताने शस्त्रे करीने तेनो हाथ बेदी नारख्यो. ते लश्ने चालतो थयो. कवि कहे के ते महापापीठें कपट अगोचर केरों पण कल्युं जाय नहिं. हवे ते धूर्त ते पंमितनो हाथ पोताने हाथें बांधीने कामसेना गणिकाने घेर गयो. ते ग शिकायें धूतारो उलरव्यो, तेथी तेने कारमो प्रेम देखाडती हवी. ते धूता राये जाण्यु जे मने गणिकायें उलख्यो , तो पण तेनी साथें स्वेदाचारी पणे आपणे रमवू ! एम विचारीने तेनी साथै रमतो हवो. दंने करीने ते गणिकायें जाएयु जे एज धूतारो ने तेथी जेवो जवा लाग्यो तेवोज तेनो हाथ पकड्यो. हवे ते धूर्ते जे पंमितनो हाथ बेदीने पोताने दाथें बांधेलो हतो, ते बेद्यो. पनी ते गणिकाना घरमाथी सार सार वस्तु लइ पोताने स्थानकें चाल्यो गयो. जेवारें प्रजातनो समय थयो, तेवारें राजानी सना ने विषे ते गणिका आवीने ते धूर्तना देला हाथने देखाडती हवी. जेना हाथ देला हो, ते धूर्त जाणवो. एवी वात कहेती हती, तेटलामां ते पंमित देला हस्ते पोकार करतो राजसनायें आव्यो, ने तेणे पोतानुं सर्व वृत्तांत कह्यु, तेथी सघली सनायें ते गणिकानी हांसी करी. त्यार पनी रा जानो धोबी जे महाधून बे, तेणे ते चोरने पकडवा, बीडं जीव्युं. ने क हेवा लाग्यो के ए चोरने दुं पकडी लावं. अन्यायमांहे आसक्त एवा ते धूः ते धोबी, मने खोले , एवी वात जाणी, त्यारें धोबीने घेर रातने समय थाव्यो, ते धोबीयें तेने पूज्युं के तुं परण्यो बो के नहिं ? त्यारे धूर्ते Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. कयुं के हुं वांढो बुं, ने फरतो फरतो कलिंगदेशथी श्राव्यो बुं. एवी वात तेना मुखथी सांजलीने ते धोत्रीयें जाएं जे ए कोइक परदेशी गरीब ले, एम जाली पोताना घरमा तेने राख्यो हवे ते धूने वस्त्र धोवानी कलामां प्र वीण बे, तेथी तेने वस्त्र धोवा थापे. ते शीघ्रताथ। धोइ नाखे छे. ने वली वस्त्र पण सारां धूए बे, तेथी ते धोबी राजी थयो. ए रीतें ते धोवीने वि श्वास माडीने एक वखत धोबी सुतो हतो तेवामां राजाना वस्त्र लइने ते धूर्त्त जागी गयो, तेथी ते धोबीनी पण लोकोमां हांसी थ. हवे ते पुरना बधा माणसो ते धूर्त्तने केम पकडवो ? तेमां मूढ तनी ग यां, त्यारे अन्यायना हरनार राजायें पोतें ते धूर्त्तने पकडवानुं बीडुं जील्युं. हवे राजा द्वारपालने तेडावी कहेवा लाग्यो जे रात्रें दरवाजे तालुं देवं, ने महारा हुकुम शिवाय कोइने ते तालुं नघाडी देवुं नहिं. एम कही नगरना तमाम दरवाजा बंध करावी पोतें घोडे चढीने धूर्त्तने खोलतो हवो. पेलो धूर्त्त राजानां वस्त्र गधेडा उपर नाखी पोतें धोबी या दरवाजे याव । पो लीयाने दरवाजो खोलवानुं कहेतो हवो. तो तेथे दरवाजो उघाडवानी ना कही, नेकयुं के राजानो हुकम नशी. त्यारे पेला धूर्त धोबी क्युं के राजानां लुगडi बगडी जाशे, तो हुं जवाब नहिं दनं, ने नारो वांक का ढीश, त्यारे तुं जवाब देजे. ते धूर्त्तधोबीनी एवी वात सांजलवाथी पोली यो बीतो थको दरवाजो उघाडी देतो हवो. तेथी पेलो धूर्त नगर बाहीर नीकली सरोवरनी पाजें गयो, त्यां महिमारने सरोवरमां जाल नाख तां दीठो, तेथी ने कहेवा लाग्यो के हे मूर्ख ! इहां राजा धूर्त्तने खोल वा माटे यावे बे, माटे तुं जा, नहिं तर तुमने देखतां वैतज बांध. ते धूर्त्तना एवां वचनोयी ते महिमार पाणीमां नागे, तेवारें ते धून ते घेडाने सरोवरनी पानें चरतुं मूकी, जे राजाना वस्त्र हतां, ते पोतें पहेरी ने नगर सन्मुख श्राव्यो, हो ! जुन धूर्त्तनी गूढता कहेवी ले ! हवे राजायें धूताराने नगर बाहिर निकल्यो जाणीने पोलियाने यावी ने क के तें पोल केम उघाडी ? तेवारें पोलिये सर्व वृत्तांत कयुं. तेथी तें ने उलंनो दइने नगर बाहिर आव्यो, तो पेला धूर्त्तने व्यवहारिया रूपे दी ठो, तेथी ने पूढ़ के जो नइ ! इहां कोइ नरने गर्दनसहित तमें दीवो ? तेवारें धूर्ते कयुं हे नाथ! तेतो नाठो थको सरोवरना पाणिमांहे पेवो वे. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १५१ तेवा राजायें कहां के या महारो घोडो तमें पकड़ो, ढूं तरतज तेने केशें प कडीने जगतनुं शल्य का. एम कही तेने घोडो यापी राजा बागल गयो. हवे ते धूतारो घोडे चडीने नगरमा पेठो ने पोलीयाने कलेवा लाग्यो के में चोरने यो बे, माटे हवे दरवाजा बंध कर, बीजो कोइ यावे, तो उ घाडी मां. कारण के या मारो पक्षपातियो बीजो राजा मारी जेवोज बे, माटे तेने धाववा दश नहिं. ते वात सांगली पोलियो सत्य करी मा तो वो धूर्त्तने वृत्तांतें ते राजा धृताणो थको पोले श्रावीनें पोलीयानें कहे के परे दवन ! पोल नघाड. हुं राजा बुं, ते सांगली पोली ये कयुं के, राजा तो हमणां घोडे चडी नगरमां गया, ने तुं राजा नथी पण अ न्य बो. एटले धूतारो बोल्यो के दरवाजा उघाडीश मां ? बहार अन्यधूर्त बे, तेज, एट विलखे चित्तें ते राजा मनमां विचार करवा लाग्यो के ए कोक धूर्त्तमां पण महाधूर्त्त बे, जेणे मुक्त सरखाने पण धूत्यो, माटे एहनुं च रित्र चिंता योग्य बे, विधातानी पेठें लोकने विषे जयपताका निश्चय एवरी. कोइ न जाणे, तेम एहनी प्रशंसा करूं, तो मुकने नगरमा प्रवेश करवा थापे. एवं विचारीने ते राजा धूर्त्तने कहेवा लाग्यो के हे धूर्त ! त हारुं चरित्र उत्तम बे, ने तहारी कला घणी प्रशंसवा योग्य बे, तेणे करीने ढुं तहारा उपर तुष्टमान थयो बुं, माटे तहारे जे वर मागवो होय, ते मा ग. तेवा ते धूर्त्त बोल्यो हे राजन् ! जो तुं वर थाप तो हो तो मुज्ने अन यदान व्याप. तेवारें राजायें प्रमाण कयुं माह्यो माणस पोतानुं बोल्युं पाले. ते धूर्ते पोतापणुं प्रगट करीने द्वार उघडाव्यां ने पोतें राजाने सामो पगे पड्यो. राजायें पण धूर्त्तने वांसे हाथ फेरव्यो, ने तेने प्रशं स्यो. धूर्त्त पोतानो नवो अवतार मानवा लाग्यो, ने राजाने कहेवा लाग्यो के स्वामि ! तमे महोटो प्रसाद कस्यो, महोटानां वचन अन्यथा केम थाय ? हवे धूतारो राजाना प्रसादथी निःशंक चित्त थको सांदनी पेरे मदोन्म ताथी स्वेवायें नगरमां जमतो थको विलास करतो. लोकोने पोतानी क लानो समूह देखाडी हर्ष उपजावतो विचरतो हवो. एकदा ते धूर्त्त, सुखीयो यको विचारखा लाग्यो के इहां तो माहरूं धू पणुं चालतुं नथी, कारण के हुं समां जालीतो थयो बुं, माटे हवे या नगर बोडीने बीजे ठेकाणे जानं तो ठीक. एम विचारी चोरनी पेरें Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनकथा रत्नकोप नांग चोथो. राजाने पण कह्याविना ते धूर्त नगरमांथी नीकलीने नूतनी पेतं पृथ्वीने विषे जमतो जमतो पुर, पाटण ग्रामादिक सर्वेने धूततो धूततो अनुक्रमें जुवनावंत नगरना उद्यानने विपे राजचंपक वृक्ष देवें विसामो लेवा वेतो. ने वृक्ष शाखायें करी प्रति विस्तीरी जोइने खादर सहित ते प्रत्ये जोता हवा. तेना देखवाथी धूर्तना चित्तने विषे नाना प्रकारना मनोरथना कल्लोल बलता हवा. के या वृक्ष घणुं सुंदर बे, माटे इहां सुवर्ण मणिनो सात नू मिनो महोटो प्रासाद करा, ने पासें नाना प्रकारना भुवन करावं. वली सर्व अंतेरने क्रीडाने व्यर्थे वाव्य करावं, प्रासादने फरतो कोट करावुं, ते मज फरतो वनखं करावं. वली इहां हाथीनी शाला, घोडानी शाला, क राखुं नेदुं चक्रवर्तीनी पेरें महर्द्धिक संपदायें युक्त एवो राजा थानं ! एवा संबद ने संभव वचन धूतारानां सांजलीने ते चंपकवृनो अधि छायक देव ते प्रत्यें कहेतो हवो के हे धृतारा ! तें ताहारा पृष्टरित्रें करी घणा देश धृत्या, तुं जे बोले वे, ते सघलुं निविवाद याशे. हे मूढ ! फो कट एवां वचन केम बोलें बे ? हुं तादरी पासें कां देखतो नयी. हे निर्लक ए ! तु मां को सुलक्षण नथी तो ते तुकथी केम निपज ? एहवं ते देवतानुं वचन सांजलीने ते धूर्त्त कहे बे. हे देव! माहरु वचन सांगल. या जयी सात दिवसमां जो हुं कह्या प्रमाणे कदापि न करूं तो ताहरी सन्मु ख मां प्रवेश करूं. त्यार पढी ते नगरना पोलनी रहेनारी देवीना दहे रामां गयो. ते त्यां घणा कोमाकोमी भेला कखां ने मनयी अथवा व चन कल्पना करीने गणेश, क्षेत्रदेवता, यह, यक्षिणी प्रमुख यादि देने द्वारपोली रहेनारी देवीनी साथे जुबदं रमवा वेठो, तेमां ते लाखो टका जीत्यो. खडीना कटकाथी यांकडा मेली राखेला तेनो सरवालो करी गणे शने कहेवा लाग्यो के महारुं धन जे तहारी उपर जहेणुं वे ते तुं मने थाप, नहिंतर खुणवालो तीखो पाषाण लइने तेनी अणीथी शीघ्रपणे तारुं महोटुं पेट फोडी नाखीश. हे लंबोदर ! तुं हास्यो बो, माटे केम नहिं आप ? एम कन्हीने ते धूर्त जेटले महोटो पाषाण तेने मारवाने वास्ते उपाडे बे, ते जे लंबोदरे पण लय पामीने बे लाख टका धूर्त्तने याप्या, एम बीजा पण सघना देवता व्यंतरादिक पासेंथी ते धूर्ते पोतानुं लेणुं लीधुं. जेमाटे निः सूक मनुष्यना व्यंतरादिक पण चाकर थाय. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १५३ हवे ते धूतारो धनें करीने तिहां यावासादिक शीघ्रपणे करावतो हवो. इव्यथकी क्युं काम सिम न थाय? सर्व थायज. महोलात तथा आवासस घला कराव्या पती स्त्रीमाटें हजारो टका खरची त्यांगणिकानुं टोलुंलाव्यो. तेमां मुख्य अनंगसेना नामें गणिका , ते केवी के ? तोके कामनीज से ना , तेने पटराणी कीधी. ते संघातें विलास करतो थको, ते वृदेवता नु पूर्वे कहेलुं जे वचन,तेने वारंवार संचारतो,गर्वे करीने ते देव उपर रोष चढावतो हवो. त्यार पनी निरुष्ट एवी ते गणिका रीसाणी थकी ते धूर्त्तने माथे उपाडीने नगरने विषे लइ जती हवी. ने नगरमां तेधूर्त्तनुं सघटुंब त्तांत कडं तेथी राजायें जाण्यु जे ए महाधूर्त जे. देवता सरिखाने धूत्या तो मनुष्यनुं तो झुंज गजुं ? तेथी राजायें ते धूर्त्तने अनेक विडंबनायें करी नारकीनी पेरें विडंब्यो.ने तेने नगरमा फेरवीने उपाडीने दूर नाखी दीधो. कुमरणे मायो थको ते उष्ट निर्जाग्य मरीने उर्गतियें गयो, घणा नव जम शे. ए रीतें ते पापीना पापनां फल केवां प्रगट थयां ? कमलशेठ कहे ले के हे पुत्र ! एधून सर्व धूर्त्तमांही शिरोमणि हतो ते पण एवी विटंबणा पा म्यो, तो धूर्तपणुं केम नळ होय ? ते सांजलीने विमल पोताना पिताने एहवं कहेतो हवो के, हे तात ! अन्याय करनारने ए दृष्टांत युक्त , पण ढुं हस्त कलायें करीने धन उपार्जु बुं, अन्यायें कोन इव्य लेतो नथी. त्यारे पिता कहे जे, हे पुत्र! तुं जे कार्यमां इव्य पेदा करे ले तेमां गूं कांइ अन्याय नथी ? गुं ते न्यायज ? जेमाटे कपटें करीने परतुं धन लेवं, तेतो अन्यायज ,हस्तकला ते वंचना ले. तेमाटे सर्वथा व्यवहार शुद्धि येंज इव्य उपार्जq, Dj देवू नहिं, अधिक लेवं नहि,जे कपट करीने व्य नपार्जे ते प्रगटपणे नरकें जाय. ए रीतें शेठे पुत्रने अनेक वार कर्पु, पण तेनो स्वनाव टल्यो नहिं, जेमाटे पोत पोतानो स्वनाव मूकवो ते घणो कुक र., कुःखें मूकाय. कडं जे के ॥ परीक्षणीयोयत्नेन, स्वनावोनेतरे गुणाः ॥ व्यतीत्य हि गुणान् सर्वान, स्वनावोमूर्ध्नि वर्तते ॥ १॥ जावार्थः- यत्ने करीने स्वनावनी परीक्षा करवा पडी बीजा गुण खोलवा, कारण के संघ ला गुणने डांमीने स्वनाव ते सर्व गुणने माथे आवे ने ॥१॥ एकदा ते विमलशेठे घणां करियाणां नयां, ने त्यांथी देशांतर जवानो वारंन कस्यो, त्यारे तेनो पिता कहेवा लाग्यो के हे पुत्र! ए देशांतर गम Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. न जे ,ते उरवनुं कारण ने. इत्यादिक बीजी पण घणी युक्तियो कहीने पि तायें वास्यो तो पण विविध वस्तु यहिने वेपार करवामाटे ते सार्थवाहनी पेरें हजार पोतीया लेइने स्थलमार्गे चाल्यो,ते सोपारापुर पाटणनी पासें म लयपाटणमां गयो. त्यां रही सर्व करियाणां वेच्या,तेमां अघावीश हजार सो नश्यानो लान थयो,तेवारें घणो खुशी थतो चिंतववा लाग्यो॥कडं ने के। वाणियाणं वणिऊमि, माहणाणं मुहंमि अ॥ खत्तियाणं सिरी खग्गे,कारुणं सिप्पकम्मसु ॥ १॥ नावार्थः-वणिकनें व्यापारने विषे,ब्राह्मणने मुखने विषे, कृत्रियने खड्गने विपे, कारुनारुने शिल्प कर्मने विषे, लक्ष्मी हाय ॥ १ ॥ वली अधिक लानने अर्थे तिहाथी करियाणां लेइने पोताना नगर जणी पालो वट्यो. तेटलामा वाटें वर्षाकाल थयो,ते पंथीजनने काल सरिखो ने ते गरिव सहित वीजली रूप में करी सर्वने नय पमाडवा लाग्यो तिहां घणो कादव थयो तेवारें पामर जनविना कादवमां कोण चाले? एवो विचार करी ते बावणी करी त्यां रह्यो एवे अवसरें विजयपुरनो वासी महाबुदिनिधान गुणनो तो जाणे समुज होय नहिं ? एवो सागरनामा व्यवहारीयो बुझिनो सागर बे,ते पहेला धन उपार्जवा माटे परदेश गयो हतो, ते पण घणी सार वस्तु लेश्ने ज्यां विमल डे त्यां आव्यो. विमल अने सा गर बेदु एक नगरनाज वासी ने तेथी विमलें तेने उत्तख्यो,अने कुशलादिक पूज्यां; अने तेने आग्रह करी राख्यो. वली कह्यु के,आपणे बन्ने साथै नग रमां जश्युं. ते सागर पण त्यां रह्यो थको, दिव्य जे जली मनोवांडित व स्तु ते त्यां वेचीने बीजी नवी वस्तु सेतो हवो. हवे ते महाधूतारो विमल पोतें तेना काममां वच्चे पडीने तेनो माल वेचावे,तथा बीजी वस्तु लेवरावे, तेमां चोर कलायें करीने तथा दलाली प्रमुख हस्तकलायें करीने दशहजार सोनश्या उपाया॑ अने मनमां विचारवा लाग्यो जे महारो पिता महोटो मूढ जे जे मुझने वारे डे,में तो हमणांपण ए कपट युक्ति थीज धन मेलव्यू ! हवे ते वे जणा पोत पोतानुं इव्य तथा करियाणां सर्व लेश्ने वर्षाति कमें घोडे चड्या थका तिहाथी चाव्या, ते पोतानां नगर समीप आव्या. तेवामां ते कमलशेठे पोताना पुत्रनुं आगमन सांजव्युं जेथी साहामो आव्यो, उचितना जाण होय, ते नचितपणुं केम उलंघे ? तेथी ते बे जणे शेग्ने प्रणाम कस्यो. तेवारें स्नेहें करीने माहोमांहे कुशल देमादिक यां, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २५५ तेत्रणे जणा घोडे चड्या थका साथनी आगल जाय ,तेटले हवें विमल प्रत्ये सागर कहे , के हे मित्र ! चित्तने चमत्कार उपजे एहq हुँअणदीतुं अणसांजव्युं, कांक तुमने कडं. ते सावधान चित्तें करी सांजल. इहां थ की आगल पाकेल आंबानुं नरेलु गाडं हलवे हलवे चाल्युं जाय , तेह नो सारथि ब्राह्मण डेवली तेनी पासे पाणीनो नरेलो करबडो ,ते गाडा नी पनवाडे लाकडीमां जराव्यो ,ते ब्राह्मण कोढीयो ने तेना शरीरमांथी रक्तपित्त वहे ने वली पाणी निकृष्ट कष्टं करी हाले , तेणे करी पाणी गले में गाडाना हालवाथी मोहोलु डे, जे बलद जोतस्या दे, तेमां जमणे पासें जे बलद ले ते गलीयो , वली माबी बाजुनो बलद मावे पगे खोडो ,वली ते बलद माबी आंखे काणो जे. अने ते वेडियुं गाउं ने तेने पूठें रह्यो थको चांडाल यादेप करतो अगलातो थको हांके जे. वली ते गाडानी प बवाडे कोकनी वढू रीसाइने आवे , ते स्त्री मावा पगने विपे सर्वथा प्र धान लक्षणे करी सहित डे, पगे अणुाणी , तेना शरीरने विषे घणा यानरण , निश्चे ते स्त्री वणिकनी बे,ते गर्नवंती , इकडो प्रसव थनार बे,अने ते वली पुत्र प्रसवशे, ते स्त्रीना सकल शरीरने विपे कुंकुमनो रंग , अने चोटलो बकुलना फूलें गुंथ्यो बे,फूल वेणीमां गुंथ्यां डे,ते बहु मूव्यवालां बे, ने ते स्त्री, पहेरवा, वस्त्र कसुंबी नवु रंग्युं . वली ते गाडा उपर वेती ते पण सांगने स्थानकें वेठी .पण गाडामां बेठी नथी. गाडानो खेडुचेडीया उपर बेठो . सागरना मुखथी एहवी वात सांजलीने विमल कहे .या तुं हुं असत्य बोले ? एवी अकल्पित वात तो सर्वझविना बीजो कोई प ए कही शके नहीं माटे ए तहारी वात कोण सहहे ? तुं श्रावी वातो क्यांथी जाणी शके ? पण तहारी जीन घणी लांबी, तेणे करीने तुं यहा तहा लवारो कस्या करे ? ते सांजलीने सागर बोल्यो, कल्पांतें पण हुँ अ सत्य न बोलु,में तो गुरु पासेंथी सत्यव्रत लीधुं ,अने सत्यमांज महोटा रहेली, माटे महारं बोल केवारें मिथ्या न थाय. जो तुमने प्रतीति न होय,तो हाथमां कंकण बतां आरिसो शोधवानी जरूर नथी तेनी पेठे आ तहारा मुख आगल गाडं जाय , ते जश्ने जोइ थाव. कवि कहे ,के ए वात खरेखरी साची हती तो पण अनव्यनी पेठे सर्व प्रकारे ते विमलने सदहणा न ावी, जेमाटें सुबुधियानुं वचन र्बुधियाना मनमां केम उतरे ? Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. वे धीगमांहे शिरोमणि एवो विमल बोल्यो के, हे मित्र ! तुं याज था लुं बधुं धीठा पणानुं धवलंबन केम कररी रह्यो बो ? ते सांजली सागरें कयुंके, धीगना सार्थे धीठाइ करवीज युक्त बे, वांका साथें वांकुं था, सर जन साधें सरल था, प्रवीणनी साधें प्रवीण था. जेम के लोक पण कहे के खाडे लाकडे थाडो वेर, तेम वांके वांको ने समे समो. तेवारें वि मल लोचनें वरों करी उतावलो हलफल करतो थको कहेतो दवो के हे विमल ! जो ताहारी वात असत्य याय, तो तारी सर्व वस्तु माहरी थाय. तेवारें क्रोध चढावीने सागर कहे बे के, तें कही ते वात महारे प्रमाण बे, जो ए बात साची थाय तो तारी वस्तु इत्यादिक जे ने तेनो धणी पण ढुं था ! तेनुं कहेतुं विमजें पण मान्युं, हाकारो को एक एकना हा मां ताली पाडी सावेत करी पढी कमलशेवप्रत्यें सागर कहेतो हवां के, मो बन्नेनातुमें इहां साक्षी था. तेवारें कमलशेठ कोमल वचने करी सागर प्रत्यें कहे वे के, हे सागर ! तुं पण एहना जेवो केम याय के ? तुं तो माह्यामां मुख्य बो. ते सांगली विमल पोताना पिताने कहेतो हवा के, हे तात! तमें शुं हमणां पण मुऊ पुत्रने दलको पाडो बो ? एम करवाथी कां महोटाइ पामशो ? तेवारें कमलशेठें कयुं के इहां उतावलानुं काम नथ तुं तो न्हानो थइ बूटे पण मुकने जोगववुं पडे ! वली सागर कहे बे के हे कमलशेठ ! जो तारो पुत्र माहरे पगे यावी पडे, तो में जे होड करी बे ते हमणांज हुं मूकी खापुं, हजी कांइ बगडधुं नथी. तेवारे विमल बोल्यो एताहरु समय धन में लीधुं एम नकी जायजे. हवे तुं निदा माग निक्षा समयें तने कूतरा श्रावी पगे लागशे. ए रीतें घणा वाचाल था विवाद करता ते वे जण गाडानी पासें याव्या, तिदां विमल म र धरतो को जुए तो ते शकटनो सारथि चांमाल प्रमुख सागरें कह्यो ह तो तेवो त्यां न दीवो, तेथी विमल जेटलामां उल्लासवंत थयो थको सा गरने पूढे ने तेटलामां यादर सहित सागरें सारथिने पूब्धुं जे ते गर्भवती स्त्री क्यों बे ? त्या ते सारथियें कह्युं के ते गर्भवती स्त्री नजीकना वनमां प्रसववा गइ बे. इहां पासेंना नगरमां ते स्त्रीनां माबाप रहे बे, तेथी ते स्त्रीनी माताने तेडवामाटें चांकालने मोकव्यो बे. हुं ब्राह्मण बुं ? अने ए तो वकिनी वढू बे. रे मार खाप्याथी एमनाथी रिसाइने हुं पाडोसी Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १५७ बुं तेनीप्रीतियें करीने मारी पूढे आवी ,माटे महाराथी शी रीतें काढी मूका य? विषम वेलायें बीजा को अलखिताने पण राखवो घटे, तो वली उलखीतानुं तो गुंज कहेवू? एटलामां तिहां ते स्त्रीनीमाता पण यावी,अने ते चांमाल पण आव्यो. तेने ब्राह्मणे पण पुत्र अाव्यानी वधामणी दीधी एम सघलो संवाद साचो थयाथी सागर बोल्यो के,हे विमल ! हवे ए तमारा सर्व माल करियाणां प्रमुख जे ,ते महारा घरने विपे मोकलो,हवे ते वधां माहारां . तेवारे ते धूर्त विमल धूर्तपणानी धीरता राखीने कहेतो हवो के, हे नाइ ! ढुं तो तमारी साथै हसतो हतो. तमें मने हसो ने ढुं तमने हसुं. तेवारें सागर कहे ले के,फोकट क्वेश करे गुं थाय ? हमणां तो पोता ने घेर जाउ, मुऊने जेम नचित करवू घटशे, तेम ढुं करीश. इत्यादिक वि चार करतो सघलां विमलनां करियाणां पोतानी वाडीमां उतारीने सागर पोताने घेर आव्यो. तेवारें लूंटायानी माफक शून्य थर गयानी रीतें,मूर्डि तनी पेरें,जाणे हणी नाख्यो होय नहिं ? एवा विमलने महोटे कष्ठं करी ने कमलशेठे पोताने घेर बाण्यो. ते विमल जेवो मुखें ले तेवोज चित्तने वि पे पण अति मलिन ,वली ते विमल पोताना पिता कमलशेठने विमलनी पेरें अति नम्र थइ विनति करे जे के, हे तात ! था यापदारूप समुह केम तरवो? जो वली तमे बुधिरूप नाव प्राणो,तो निस्तार थायमें तो आहा स्यपणे कयुं हतुं ने ते सागर धूर्ते तो प्रमाणज करी लीधुं,तेमाटे हे तात! तमें ते सागरना घरने विपे जश् तेने जेमतेम मनावो, कोई बीजी युक्तियें करी वश करो, समुनी पेरें कुःखें ग्रहवा योग्य एहवा ते सागरने तमे प्रतिबोधो, जेथी करी आपणुं धन तेन लीये,अथवा विविधप्रकारनी चिंता ये गुंथाशे ? इहां एकज नपाय . ते उपाय पण तमाराथीज सिदि पामे, तेम , बीजायकी सिदि पामशे नहिं. सागरें त्यां तमने सादी कख्या , माटे तमें राजानी सनाने विषे अवलुं बोली पोतानुं इव्य राखो. कडुं के ॥ यतः॥ नित्र गेहस्स कमि, नियहवस्स ररकणे ॥ निपुत्तकए कूड, सुरकेसु नविषिंदियं ॥ १ ॥ जावार्थः-पोताना घरना कार्यने विषे, पोता नुं व्य राखवाने विपे,पोताना पुत्रने अर्थे,एटला कारणे जूटुं बोल्यामां दू पण नथी. कह्यु डे के ॥ यतः॥ न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति,न स्त्रीषु राजन्नवि वाहकाले ॥ प्राणात्यये सर्वधनापहारे, पंचामृतान्याहुरपातकानि ॥ १ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नावार्थ:- नर्मयुक्त वचन हो नहिं, स्त्रीने साधुं न कहेवुं, हे राजन् ! विवाह यवसरें साधुं होय ते जतुं कहेतुं प्राणांत कष्टें प्राण जाते जुतुं बो लवं, सर्व धननो नाश थातो होय तो जूटुं बोलवं, ए पांच जूतानां पातक नहिं. एम पंमित कहे बे. तेवारें धर्मरूप कमला जे लक्ष्मी तेनो खागर एवो जे कमलशेठ ते विमलनुं वचन सांजलीने कोमल वाणीयें करीने समजा वतो दवों के, हे पुत्र ! तुं नीतिमार्ग मूकीने उन्मार्गे मजा. तुं तहारा चि विषे चिंतन करीने तहारुं वचन संचार सत्पुरुष तो जे हांसीयें करी ने वचन बोल्युं होय तेनो पण सर्वथा प्रकारें निर्वाह करे, पण तो कां इ हास्यथी कह्युं नथी परंतु सागरनुं इव्य लेवाना लोनथकी होड करी बे, ते माटे हवे गुं खेद पामे बे ? हे वत्स ! साधुं बोलतां कांइ पण दूपण नथी. हे मृढ ! असत्य बोलवाथी दूषण कांइ नथी. एवं हुं केम करूं ? धुंवाडाथी श्यामता न थाय ? हे वत्स ! क्यांश एकतो साधुं वचन पण अनर्थकारी थाय बे. केम के जे वचन सांगलीने यागलो प्राणी जय पामे, त्रास पामे, अथवा मरण पामे, एवी रीतनुं साधुं होय तिहां मौनपणुं धा रण कर जेमाटे थोडं असत्य बोलवा थकी पण अनेक जीव या जाने विषे दुःख पाम्या ने नवांतरें दुर्गति पाम्या तो धनने लोनें करीने जे कूडी साख जरवी, तेहना विपाक कडवा होय, तेहमां तो कहेवुज गुं ? ते सांजलीने विमल बोल्यो के हे पिताजी ! परमेश्वरें जैनमार्गने विपे अपवाद नथी कह्यो गुं ? सर्व प्रकारें उत्सर्गज को बे ? परमेश्वरें तो वे प्रकारai मार्ग को बे, तेमां एक उत्सर्ग ने बीजो अपवाद. जेमाटें जिहां महोटं कार्य होय तिहां असत्य बोलवु कयुं बे, ने पढी तेनुं प्रायश्चित्त लगु थइये. ते सांजलीने कमलशेठ पुत्रने कहे बे के हे वत्स ! धन पाम तो सुजन बे, पण धर्म पामवो डर्लन ने. एटला माटें एवो मूट को जे धनने धर्मनुं खंमन करे ? महोदुं कोई धर्मनुं कार्य होय, तिहां अपवाद को बे, पण पापने विषे जैनधर्ममां क्यांही अपवाद कह्यो नथी. व्रतजंग करीने प्रायश्चित्त लीधे कां शुद्ध न थाय. जे मनुष्य जाणीने व्रत जंग करे तेने प्रायश्चित्त ते वली गुं खपाय ? ते कारणमाटे सर्व धननो नाश थाय तो नजें था, जीवितव्यनो नाश थाय तो नजें था, परंतु जो कल्पांत थाय तो पण हुं थोडं पण जूनुं न बोलुं. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १५ए एह पितानुं वचन सांगली कोप्यो थको विमल कूतरानी पे थाने बोलवा लाग्यो के में निश्चय तहारो पाखंमधर्म जाग्यो ? जे में महेनत करी ने इव्य उपायु ते तुं गुं महारा वैरीने आपीश ? वृक्ष थयो एटले तुं घेलो थयो बो धिक्कार ने तुमने ? रे मूढ ! बेसी रहे घरने खूणे. एवां वचनो पिताने कहीने विमल घरमांथी घणी नेट लश्ने राजापासें गयो. त्यां जय राजाने नेट मूकी नमस्कार करी विनति करवा लाग्यो के, हे राजन् ! में देशांतरें जइ घणे कष्टें लक्ष्मी उपार्जी, ने घरतरफ सागर साथै आवतां हां सीने वचनें करी महारी लक्ष्मी तेणें पडावी लीधी, ते सांजली राजायें सा गरने तेडावीने सर्व वृत्तांत पूर्वा,सागरें कह्यु के में मात्र हास्य वचनें ते ली, नथी,पण ए होडमां हास्यो त्यारें लीधुं . पनी तिहां तेणे जे वृत्तांत बन्यु हतुं, ते सर्व राजानी आगल कह्यु, तेथी राजायें तेने पूज्युं के तें बलद प्रमु खनां लक्षण केम जाण्यां? त्यारे सागर कहेतो हवो के, हे राजन ! में महा री बुदियें करी जाण्यां. ते कौतुक सांजली राजा नन्नासवंत थयो थको बो व्यो के तें तारी शी मतियें करीने जाण्यां? ते तुं मने कहे. हवे सागर कहेतो हवो के,हे राजन् ! सावधान पणे सांजलो. पाका यां बाना फलनी वासें वासित एवो कोई पदार्थ तिहां नूमिकायें पज्यो हतो, तेना गंधे करीने में जाएयुं जे हांथी आंबा गाडं गयुं . तथा धूडमांहे पगना प्रतिबिंबें करी जाण्यं जे ते बलद गलीयो . तथा पगलाने अनु सारे करी जाण्युं जे ते बलद मावे पगे खोडो . तथा दक्षिण दिशानुं घास चयो हतो.अने माबी बाजुनुं घास पडि रह्यं हतुं तेथी जाण्यु जे ते बलद माबी आंखे काणो . तथा मुतरवाने नग्यो ने पाणी लीधुं तेथी जाण्यु जे ते ब्राह्मण . तथा नूमिकाने विषे मार्गे जातां पाणी नखा| देखीने में जा एयुं जे करबडो पाणीनो गाडानी पाबले लाकडी वलगाड्यो . तथा गा डुं हांकतां परोणो नांग्यो, ते नोंये नाखी दीधो, ने चंमाल पासें लाकडी मागी ते तेणे नोंये नाखी दीधी; ते लाकडी पाणी बाटीने ब्राह्मणे लीधी पण हाथो हाथ न लीधी,तेना प्रतिबिंबें में जाण्युं जे ते चांमाल ले. तथा ब्राह्मण लाकडी लेवाने गाडाथी हेठो उतस्यो,त्यां रसी जघु तेनी गंधथी घणी माखीयो बण वणती दीठी तेथी में जाण्यं जे ते कोढीयो बे, अने ला कडी विना चाली शके नहि तेमाटे हाथमां लाकडी , एम में कह्यु. तथा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. शकटनी पनवाडे पगलाने अनुसारें धृडमां पगला पडेला जोश में लक्षणवं ती स्त्री जाणीने कयुं जे पाउल लघु स्त्री ले तथा पाडे पगें मुख करती जोती हती ते पाढा पगलांने अनुसारें में जाएयुं जे ए स्त्रीरीसाणी थकी पीयरमां जाय ,तेथी वहूज होय. वली रीसाणी थकी कूवामां पडे ने ए कूवामांप डवं मूंकी दश्ने जो गर्नवती ने तो पीयर जाय . एवं जाणीने में तेने गर्न वती कही तथा देह चिंताने अर्थे गाडाथी उतरीने वोरडीना वनमां जर वेवी ते जमला हायनो टेको देने घणे कष्टें उठी, तथा जाण्यु जे तेने ग जने विपे पुत्र ,अने तें इडको प्रसवशे. तथा ते स्त्री पाणीथी मुख धोयु, ते रातुं देखीने कुंकुमनुं विलेपन जाएयु. तथा ते स्त्रीना केशमाथी फूल नू मियें पडयुं ते देखीने में जाण्यु जे एहना चोटलामध्ये बकुलदनां फूल गुं थ्यां . तया बोरडीने कांटे रातो तांतणो वलगेलो देखीने में जाण्यं जे तेणे कसुंबल वस्त्र उढयुं . तथा आंबानी निकट गाडां हांकनारने ठेकाणे वेठी,ते ने अनुसारे जाण्यं जे ते वेडियुं गाडं जे.चोकीयुं गाडुन हतुंने वेडीयुं गाई हतुं तेथी सारथिने तेकाणे वेठी. एम सपली वात सागरना मुखथी सांजली राजा चित्तने विपेचमत्कार पामीने सागरने पूबवा लाग्यो के तमारा ये विना त्रीजो कोइसादी ? तेवारें सागरें कडं हा त्रीजो पण सादी डे ते सादी जगतमांवि ख्यात अने घणो माह्यो तथा परिणामें निर्मल एवो विमलनो बाप कमल शेठ बे,ते सांजली राजायें कह्यु के घणुंज रुडुं! एतो सत्यवादी , जो पण वि मलनो बाप ने तो पण पुत्रने अर्थे ते जूतुं नहि बोले. तथापि तुंनूव्यो बो,जेमा टेंशास्त्रमांहि ना कही जे ॥यतः॥ सयणो उऊणो विदे, सीन लोही तहा ॥ गहिलो विह्मिसो नीरू,सरकी नूणं न किऊए ॥ १॥ नावार्थः स्वजन, 3 र्जन, वली पी, महालोनी, तेम घेलो, कौतुकी अने जयानक एटलाने निश्चे सादी न करी ॥ १ ॥ एटला माटे तें विमलना बापने सादी रा ख्यो ए तुमने घटे नहि. त्यारें सागर बोल्यो, हे राजन् ! एतो महोटो धर्मा त्मा , सत्य बोलनार , माटे ते जे कहेशे, ते महारे प्रमाण . तेवारे राजायें कमलशेग्नें तेडावीने मीठी वाणीथी पूब्युं के तुं आ वात जाणे बे? जाणतो हो, तो कहे ? एवी राजाना मुखथी वाणी सांजलीने विमल ने धास्को पज्यो. जे महारं सर्व इव्य गयुं, तेणे करी अति आकुलव्याकु ल थइने विचारवा लाग्यो जे हमणां महारो पिता सत्य कहेो, एटले Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १६१ माहरू सर्व इव्य सागर लइ खेशे. ते श्व्य गयानी चिंता रूप समुश्मा जा पियें बूड्योज होय नहिं गुं? एम विमल नीचं मुंख करी रह्यो. हवे बे पदनां लोक सर्व जोवा आव्यां बे,तेथी राजसनामां तिल पडे एटली पण जग्या खाली नथी. ते बधानी वचमा रह्यो थको कमल शेठ सादी आपवामाटे उनोरही कहेतो हवो के हे राजन् ! महोटुं कार्य ,तो पण ढुं जूतुं नहिं बोलुं, जे जूलै बोल्यो ते जिनधर्मने उलखतोज नथी. सो नु नेमाणस वे सरखां ,तेमां सोनुं कसवटीयें चडधुं परीक्षाने प्राप्त थाय बे बने माणसने महोटं कष्ट पडे थके पण असत्य न बोले त्यारे तेनी परीक्षा थाय . हे राजन ! धनने यर्थे जूतुं बोलीयें,ते धन तो पाम, सु लन ,पण धर्म पामवो दो हिलो खे. वली हमणां तो जे कारणे ढुं सादी पूरीश तेथी तो महारो पुत्र उहवाशे, उर्जन हसशे, तेम कदापि सऊन पण हसशे तो पण ढुं असत्य नहिं बोलूं. कयुं के ॥यतः॥ निंदंतु नीति निपुणा यदि वा स्तुवंतु,लक्ष्मीः समाविशतु गहतु वा यथेष्टं ॥अद्यैव वाम रणमस्तु युगांतरे वा, न्यायात्पथः प्रविचलंति पदं न धीराः ॥ १॥ ना वार्थः- न्यायमार्गमां निपुण जे पुरुष तेनी कोश निंदा करो. अथवा स्तवन करो, गमे तो स्वेबापणे लक्ष्मी श्रावो, अथवा लक्ष्मी जाउ, आज मरण था, अथवा युगांतरें था, पण जे धीरपुरुप होय ते न्यायमार्गथकी पदमात्र पण चलायमान थाय नहीं. तेमाटे हे राजन् ! जेवू ले तेह तम ने कहुं के जे सागरें कडं ते सर्व सत्य करी मानजो. एवां कमलशेठ नां वचन सांजली ते राजा तेने आशीष देतो अति विस्मय पामतो मा धुं धुणावतो हवो, तेवामां राजाना कंठमां पडेलो विशिष्ट हार उबलीने कमलशेठना कंठमां पड्यो, एटले जाणे राजायेंज संतुष्ट थइने तेना गलामा हार नाख्यो होय नहिं मु? तथा प्रत्यक्ष पुण्यनो समूह अने जला यशनो विस्तार,तेज जाणीयें गलामा पज्यो होय नहिं ? एम लाग्युं. हवे तेम रमणिक दिव्य मणियें करी अत्यंत सुंदर हार ते कमलशेठने कंठे घणुंज शोजतो हवो. ते वखत राजा अति प्रशंसा करी कहेतो हवो के अहो ! ताहारी सत्यता जाणे साधु सोनुंज होय नहिं झुं ? अहो ! तहा री साधुनी पेरें लोकने विपे उत्कृष्टी निर्लोनता, अहो ! ताहारी निर्मोहता जे पुत्रने तृणखला सरिखो जाण्यो ? अहो ! ताहारं चित्त एकाय धर्मने २१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२- जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. विषेज तें तत्त्वकरीने ग्रहुं , अहो ! तारी दृढ प्रतिज्ञा सत्यवंती, अहो ! तुमने सत्यवंतमां सत्यवादिनी रेखा ने माटे राजानी पेरें तुजने पण मुकु ट जोयें,ते माटें तुजने शेगद पणानो पबंध हो. एम कही राजा अति शय प्रीतिने समूहें करीने शेठ पदवीनो मस्तकें पट्ट बंधावतो हवो. पापने धुंवाडे करीने श्याम थयेला एहवा विमलने राजायें कह्यु के रे उष्ट ! रे धीष्ट ! ताहरी जीन दवा योग्य ,पण तुं कमल शेठनो पुत्र ,ते माटे ढं तुमने मूकं . कमलना कांटा को उखेडी शके नहि. हवे सागर पण क मल शेठ उपर संतुष्ट थश्ने विमलना करियाणां हतां, ते लोन रूप मेज़ बांड्यो ,जेणे एवा कमल शेठने पापी दीधां. प्रत्यद सत्य वचननो प्रनाव कोक एवो उत्कृष्टो डे के जे थकी गयुं श्व्य पण पावं याव्यु ने वली निर्म ल कीर्ति पण विस्तार पामी तथा कमला जे लक्ष्मी ते पण विस्तार पामी. हवे कमल शेठने राजा कहेतो हवो के तमें महोटो पसाय कस्यो जे न्याय पाल्यो. सत्यवचन केहेवू ? तो के प्रत्यक्ष कल्पवृद सरि ने. एट ला माटें सत्यवचनथी झुं न संजवे ? सत्यवचन सर्व पंमित लोकने मान नीय . सत्यवचन बोलनारना वचनने सर्व लोक, मानवा योग्य थाय. सर्व लोकने विशेष प्रशंसवा योग्य थाय. अने जूतुं बोलनारो जे विमल ते सर्व लोकमां निंदनीय थयो. विमल सुश्रावकनो वेटो हतो पण जूढं बो व्याथी उर्गतियें गयो. हवे राजा सागरनी बुधियें करी रीज्यो थको,तेने सर्व प्रधानोमा मुख्य प्रधानपणे थाप्यो. अहो ! लोको एबुदिनुं फल जून कहे वु ! हवे कमलशेठ घणा कालसुधि गृहस्थनो धर्म पालीने अंते उत्तम साधुनो धर्म ग्रहण करी रूडी रीतें विशेषपणे नाषा समितियें युक्त थको क मल साधु मोक्ष प्रत्ये पामतो हवो. सकल कर्म क्ष्य करीने परम पद वस्यो. ए रीतें वखाणवा योग्य तथा रसें करी सहित एवं जे कमल शेउनु चरि त्र तेने सांजलीने हे पंमित लोको ! तमे धननी तृष्णा मूकी अकृतकरण त्यागी असत्य वचन बांकी नित्य उजमाल थइ धर्मने पादरीने परमपदने वरो ॥ उक्तंच ॥ चिरं चरित्ता गिहबधम्मं, सुसादुधम्मं गहिसेण सम्मं ॥ वि सेसनासा समि पनत्तो, जत्ताणुपत्तो कमलोगलोगं ॥१॥ श्वं पसबं कमल स्स सेती, सरस्स वित्तं निसुणित्तचित्तं ॥चिच्चा अ किच्चं विबुहा असचं, किच्चं व निचं पि सरेह धम्मं ॥२॥इति हितीय अणुव्रते कमलश्रेष्ठि कथा समाप्ता ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. १६३ ॥ अथ तृतीयव्रत प्रारंनः ॥ ॥ तइए अणुवयंमि, थूलग परदत्व हरण विरई॥ आयरिय मप्पस, ब पमायप्पसंगणं ॥ १३ ॥ अर्थः-त्रीजु अणुव्रत ते स्थूलथी पारका इव्यतुं हरण करवु तेथी वि रम, तेने विषे अप्रशस्त इत्यादिनो अर्थ पूर्वनी पेठे कहेवो ॥ १३ ॥ अदत्तादान चार प्रकारनुं . एक कनकादिक वस्तुना स्वामी जे हो य तेना दीधा विना ते वस्तु उपाडी लेवी, ते स्वाम्यदत्त कहियें. बीजूं फलादिक सचेत वस्तु ३ ते फलना जीवें विदारवानी आज्ञा दीधी नथी अने सचेत फल विदारे, दे, नेदे, तेने जीव अदत्त कहियें.त्रीजुं गृहस्थें आधाकर्मादिक दोष सहित आहार साधुने दीधो, ते देवानी श्रीतीर्थकर नी आशा नथी माटे एने तीर्थकर अदत्त कहीयें. एम श्रावकें पण अचित्त करेलु अनंतकाय अनदादिक जे लेवं, ते पण तीर्थकर अदत्त कहीये. चो धुं गृहस्थना घरथी निर्दोष आहारादिक वस्तु वहोरी थाव्या पली गुरुने निमंत्रण कस्याविना जो शिष्य पोतें वावरे, तो ते गुरु अदत्त कहीयें. ए चार. तेमां इहां स्वाम्यदत्तनो अधिकार दे, ते स्वामी अदत्त एक सूक्ष्म अने बीजुं स्थूल, एवा बे प्रकारें . तेमां जे कांश पारकी वस्तु लीधाथी लो कमां चोर कहेवाय, राजा दंमे, ते स्थूल एटले बादर अदत्तादान कहिये. चोरीनी बुध्येिं खेत्र खलादिकने विषे थोडं वाथी पण जेथी चोरी मा थे चडे, ते बादर जाणवो. तथा तृण पाषाणादिक जेवी तुब वस्तुनु पण तेना स्वामीनी आझा विनानुं जे लेवू, ते सूक्ष्म अदत्त कहीये. इहां श्रावकने सूक्ष्मनी तो यजणा , तेनो नियम नथी अने स्थूलथी पञ्चरकाण , एटले जेथकी राजा दंमे. एवं पारकुं श्व्य लेवं तेनुं पञ्चरका ए डे, शेष पदनो अर्थ पूर्ववत् ॥ ए तेरमी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ १३ ॥ हवे ए व्रतना पांच अतिचार , ते पडिक्कमे ले. ॥ तेनादडप्पन्गे, तप्पडिरूवे विरुइगमणे अ॥ कुड तुल्ल कूडमाणे, पडिक्कमे देसिअं सवं ॥१४॥ अर्थः-एक स्तेनाहत अतिचार, बीजो प्रयोगातिचार, त्रीजो तत्प्रति Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. रूप अतिचार, चोथो राज्यविरुधगमनातिचार, पांचमो कूडां तोलां अने कूडांमापनो अतिचार ले. ढुं ते पांचे अतिचारोने पडिक्कमुंडं. इत्यादि ॥१४॥ १ हवे ते विवरीने कहे जे. प्रथम स्तेनाहत ते स्तेन जे चोरी तेणे करी बीजा स्थानकथी चोरीने आहत एटले आण्यो एवा जे केशर प्रमु ख पदार्थ जे घणा मोघा नावना होय तेने सोंचा जाणीने व्यापारनी बु दिये अथवा नोलपणाथी लीये, ते प्रथम स्तेनाहत अतिचार. २ बीजो तस्कर जे चोर तेने प्रयोग आपी एटले प्रेरकपणुं करी चोरी कराववी, ते जेम के चोरने कहे के कालें अमुक गामें गया हता, तिहाथी कां लाव्या बो के ? अथवा हमणां केम क्यांश जता नथी? फोकट वे सी केम रह्या डो? कां वस्तु खपती नथी के सूं? जो खपे तो ठीक डे अगर न खपे तो तेवी सर्व वस्तु अमे राखीगुं? इत्यादिक वचने करी प्रेर रणा करे. तथा कोश, कातर,दोरडादिक, शस्त्रादिक,घुघुरकादिक चोरी क रवाना उपकरण आपे. वली मार्गमां खावाने माटे जोश्य ते संबल आपे ते प्रयोगातिचार कहिये. एवी रीतें चोरने चोरी करवामां प्रेरणा करे, ते पण जो तत्त्वथी विचारीयें तो चोरीज . जेमाटें शास्त्रमा सा त प्रकारना चोर कह्या ॥ यतः॥ चौर चौरापको मंत्री, नेदज्ञः काणक यी॥ अन्नदः स्थानदश्चेति, चौरः सप्तविधःस्मृतः ॥ १ ॥ नावार्थः-१ चोर, ५ चोरनी पासे रहेनारो, ३ चोरथी विचार करनारो, ४ चोरनो ने दज्ञ, ५ चोरीनी वस्तु लइ वेचनारो, ६ चोरने खावा माटे आपनारो, ७ चोरने स्थानक आपनारो, ए साते चोरज जाणवा. ३ तत्प्रतिरूप ते वेचवानी वस्तुमांहे प्रतिरूप वस्तु ते तेना सरखी ज वस्तुनो चेल संजेल करी वेचवी, जेम व्रीहिमां पलंजी नामा धान्य, घृ तमां चरबी, तेलमां मूत्र, हींगमा खदिर ते खेरनो नूको नेलवो, तथा चणानो लोट गुंदरथी चोपडीने नेले, कुंकुममां कर्त्तव्य कुंकुम नेले, के सरमां कसुबो नेले, मजीठमांहे जात्यवंत चित्राबास नेले, एमज कपूर, मणि, मोती, सुवर्ण, रू', इत्यादिकने विषे तेवीज कीम वस्तु नेलीने सारी वस्तुना मूल्य करी वेचे, एटले व्रीही वगेरे मोंघा मूलनी होय ते मां सोंघा मूल्यनी पलंजी वगेरे वस्तु नेलीने मोघामूल्ये वेचे. अथवा चोरें चोरी आणेली गाय प्रमुखने सोंघानावमा लड्ने पड़ी तेना सींगडां जो Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १६८ वांकां होय, तो पाका कलिंगडाना फलनो रस चोपडी तेने नियें रोकी में पांशi करे अथवा पांशरां होय तो वांकां करें, जेम कोइ उलखे न हीं तेवां करे. ए सर्व तत्प्रतिरूप व्यापार अतिचार जाणवो. ४ राज्यविरुद्ध गमनातिचरा. ते जे विरोधि राजाना राज्यने विषे एटले पो ताना राजानो डुशमन जे राजा होय, तेना राज्यने विषे पोताना राजायें व्या पार करवाने जावा माटे निषेध्यो होय तो पण तिहां जइ लोनना arel व्यापार करे. उपलक्षणथी राजायें निषेघेला एवा दांत, लोह, करिया यादिक वस्तु पण जाणवी तेने ग्रहण करे, ते विरुद्ध गमनातिचार कहियें. ५ कूडां तोलां ने कूडां मापां तेमां तोलां तो प्रसिद्ध बे, घने जे गजा दि तथा हस्तादिकें करी रेशम कापड प्रमुख नरीयें, तेमज जेथी अन्ना दिक वस्तु मवियें ते माप कहीयें. तिहां माल लेवाना अधिकां तोल तथा माप राखेने माल बेचवाना बां तोल माप राखे, तेने कूट तोल कूड माप अतिचार कहियें ॥ यदाह ॥ लौल्येन किंचित्कलया च किंचित मापे न किंचितुलया च किंचित् ॥ किंचिच्च किंचिच्च समाहरंति, प्रत्यक्षचोरा वणि जा जवंति ॥ १ ॥ धीते यत्किंचित्तदपि मुषितुं ग्राहकजनं, मृड ब्रूते या तदपि विवशीकर्तुमपरं ॥ प्रदत्ते यत्किंचित्तदपि समुपादातुमधिकं, प्रपं चोयं वृत्तेरहह गहनः कोपि वणिजां ॥ २ ॥ जावार्थ:- केटलुंएक लौल्य तायें करी केलुं एक कलायें करी, केटलुं एक मापें करी, केटलुं एक वाजवायें करीने, कां कां हरण करी लीये. तेमाटे वणिकने प्रत्यक्ष चोर ज जावा ॥ १ ॥ तथा वलिक जे कां जणे, ते पण ग्राहक लोकोने बेतरवा माटे जावं. ने मीठं बोजे ते तेने वश करवा माटे जारावं, तथा लोकने जे गोल प्रमुख खापे ते अधिक नाव जेवा माटे जाणवुं, एम वणिकना व्या पारनो प्रपंच कोक प्रतिगहन नंको बे. एम श्रावकने कर घटित नथी. " cara hai रीतें व्यापार करवो ? ते कहे बे ॥ यतः ॥ उचियमु तु फलं दवाइकमायं च वक्करिसं ॥ निविविश्रमवि जातो, परस्स सं तं नगि रिहा ॥ १ ॥ नावार्थ:- उचित व्याजनुं सेंकडे चार अथवा पांच नी वृद्धिरूप जेवुं. कयुं बे के व्याजें बमणा थाय तेम कर. हवे इव्य वली बे प्रकारें वे एक नालिकेरादिक गणीने वेचाय ते गणिम कहियें बी जी तोलीने वेचाय यदि शब्दयकी एमां तत बीजा पण अनेक भेद बे Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. तेमा जो कोइ पण सोपारी प्रमुख वस्तुनी अबत थ गई होय कोश्नी पा सें मली शकती न होय तेवा, पण श्रावक जे होय ते पोताना घरमांक मागत रही गयेनुं जे सोपारी नालिकेरादिक इव्य विशेष तेमां पाम्यो जे (नक्क रिसं के०) उत्कर्षनी वृद्धि एटले उत्कृष्ट लान ते चार गुणो पांच गुणो थवा रूप तेने मूकीने गुन परिणामें करी बमणा लाजेंज ते वस्तु श्रा पे, पण मनमां एवी चिंतवणा न करे जे आ वस्तुनी अबत थ६ गइ, ते घणी सारी वात था. हवे हुँ चार गुणा दाम लश्श तो पण चालशे ! एवो विकल्प न करे. परंतु बमणा नाणाथीज मनमां संतोष पामी रहे. तेम वली रस्तामां पडेला परसंबंधि इव्यादिकने जाणतो थको ग्रहण करे नहीं. तथा व्याज लेवामां क्रय विक्रयमां पण देश कालादिक जोश्ने जिहां जेम उचित होय तिहां तेम करे,जे थकी उत्तम लोक कोई निंदा न करे, एवा लान लेवानुं करे, नहीं कां पांचमो अतिचार जाणवो. ए पांच अतिचारने विषे पण में व्यापारादिकें करी वाणिक कला करी जे, पण कोश्च॑ खात्र पाडी चोरी कीधी नथी एवा अनिप्रायें करीने जोयें तो व्रत नांगतुं नथी, लोकमांहे ए चोर ने एवं नाम थापवानो अनाव डे, तेमाटे अतिचार जाणवो केम के नियम लेती वखतें कोने घेर खात्र पाडी चोरी न करूं एवं पञ्चरकाण लीधुं ने माटे. अथवा ए स्तेनाहृतादिक पांच अतिचार जे जे, ते राजादिकना निय हना हेतु . प्रकट चोरी रूपज ले परंतु केवल अनाजोगादिक अतिकमा दिकें करी पागलें अतिचारपणे जाणवा. अतिचार बमवाने अर्थे चोरनी अढार प्रसूतियो , तेने श्रावकें जाणीने त्याग करवो, ते अढारनां नाम कहे जे ॥ श्लोक ॥ जलनं कुशलं तर्जा, राजनोग्याऽवलोकनं ॥ अमार्गदर्शनं शय्या, पदनंगस्तथैवच ॥१॥ विश्रामपादपतनं, चासनं गोपनं तथा ॥ खंमस्य खादनं चैवं,तथान्यन्महि राजिकं ॥ २॥ पट्यम्युदकरना, प्रदानं ज्ञानपूर्वकं ॥ एताः प्रसूतयोझेया, अष्टादश मनीषिनिः॥३॥ नावार्थ:-जलनं एटले नेनुं जल, ते चोरने कहे के तुं जय राखीश नहीं हुँ पण तहारा नेलो जलीश, इत्यादिक वचने करीने चोरने उत्साहवंत करे, २ कुशल ते नेला थाय तेवारें सुख दुःख पूजे, शाता पूजे, कुशल पूने, ३ तो ते हस्तादिकनी संज्ञा करीने चो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १६७ रने चोरी करवाने अर्थे मोकजे, ४ राजनोग्य ते राजनोग्य इच्यने उल वे एटले सार सार वस्तु उंची मूके थने असार वस्तु देखाडे, ए अवलो कनं एटले चोरी करवानां ठेकाणां देखाडे अवलोकन करी चोरने चोरीनी बुदिनी अपेक्षायें ठेकाणां देखाडे, ६ अमार्गदर्शनं एटले को श्रावी पूडे के अमुक चोर कया मार्गे जतो हतो? तेवारे ते चोर जे मार्गे गयो दोय ते मार्ग न देखाडे, अने जलतोज मार्ग देखाडे. जेम चोर अने जेनी वस्तु गइ होय ते धणी वे एकता मलें नहीं एवो मार्ग देखाडी थापे. अर्थात् चोर पूर्व दिशायें गयो होय तो पश्चिम दिशायें गयो , एम कही दीये, ७ शय्या एटले कोश् चोर चोरी करीने पोताने घेर आव्यो होय तो तेने सू वाने शय्या आपे, पदनंग एटले चोरना पग नांग्या होय तो चतुष्पदा दिक वाहन बेसवाने आपे, ए विश्राम एटले चोर चोरी करी थाव्यो हो य, तेने विशामा माटे पोताने घेर वास करवाने जगा आपे, १० पादपत नं एटले चोरी करी थावनार चोरने पगे लागे तथा तेना गौरवने अर्थे नक्ति करे, ११ आसन एटले चोरने बेसवामाटे मांची प्रमुख बासन थापे, १२ गो पन एटले चोरने बानो राखे संताडी मूके, लोकोने कहे के शहांचोर नथी, १३ खंभखाद एटले चोरने खममांमादिक नातुंबापे, १४ माहाराजिकं ते लोक प्रसिद, १५ पट्टी, अमि, उदक,रकुनुं ज्ञानपूर्वक प्रदान कर, एटले जे चोर दूरदेशांतरथी चोरी करी आव्यो होय तेने पग धोवाने अर्थे पाणी थापे, दूरथी आव्यानो थाक टालवा निमित्तें पग चोलवाने अर्थे तेलादिक आपे, जेथकी तेनो थाक उतरी जाय. जिहां मुःखतुं दोय तिहां सेकवाने अर्थे अनि बाणी यापे, श्रम टालवाने अर्थ नष्पापीयें करी स्नान करा वे, १६ रसोई करवाने अर्थे अनि आणी थापे, १७ तडकामांथी तरस्यो थको आव्यो होय तेने शीतल पाणी आपे, १७ चोरें चोरी करीने आणे ला चतुष्पदादिक जीवोने बांधवा माटे पाटी दोरी आपे, तेमां ज्ञानपूर्व कए पद सर्व ठेकाणे जोडवू अज्ञानपूर्वकने निरपराधपणुं , माटे ए अढार चोरनी प्रसूति जाणवी. ए जाणी होय तो व्रतनो निर्वाह थाय. व्रतनो निर्वाह ते व्यवहारशुद्धियेंज थाय तो व्यवहारशुक्षि तो मन, वचन, का यानी सरलतारूप अवक्रतारूप जाणवी. तेना उपायादिकनो विचार म हारा करेला श्राविधियंथनी वृत्तियकी जाणवो. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. हवे ए व्रतनुं फल कहे ने. जे प्राणी चोरीनुं पञ्चरका करे, तेनो वि श्वास सर्व लोकने विषे होय, घणो यश होय, घरमां घणी लक्ष्मी होय, घी ठकुराइ होय, या जवने विषे एटला वानां पामे, खने परजवने वि पे स्वर्ग देवलोकन सुख जोगवी अनुक्रमें मोदें जाय. जे माटे कयुं बे, के खेने वि, खलाने विषे, दिवस होय तथा रात्रि होय सथवारो बधो लं टातो होय एटला स्थानकें इव्य नाख्युं थकुं विणसे नहीं शामाटे ? जे चोनुं पञ्चरकाण कर बे, तेना पुण्यना उदयें करीने ते वृत्तिनुं इव्य पूर्वो क्त स्थानकोमां पण नाश पामे नहीं. ए महोटो प्रभाव जाणवो. वली चो रीना व्रतनुं फल कहे बे: - गाम, खागर, नगर, शेण, मुख, मंरुप, पाटण एटला स्थानकनो घरला कालपर्यंत राजा थाय. हवे जे पुरुष ए व्रतने न पाले अंगीकार न करे, अथवा व्रत लइने तिचार लगाडे खंमन करे ते पुरुष दुर्भागी थाय, दासपणुं पामें, शरीरवे दादिकपणुं दारिीपणुं दुर्गति व्यादिक घणा दुःखनो जोगवनार थाय. ॥ उक्तंच ॥ इहएव खरारोहण, गिरहा धिक्कार मरण पतत्तं ॥ डुरकं तक्क र पुरिसा, लहंति निरयं परजवम्मि ॥ १ ॥ निरया न वर्द्धता, केवट्राकुक्कु ट मंट बहिरंधा || चोरिक्क वसण निया, ढुंति नरा नव सहस्सेसु ॥ २ ॥ नावार्थ:- या नवें गर्छनारोहण थाय, गिरहा एटजे निंदा पाने तथा मर पर्यंत सर्व कोइ धिक्कार करे, तस्कर एटले चोर पुरुष होय ते एवा दुःख या जवने विषे पामे खने परजवने विषे नरकगतिने पामे ॥ १ ॥ वली ते चोर पुरुष नरक थकी निकलीने टूटा, मूटा, बहेरा, प्रांधला, थाय चो री रूप एकज व्यसने ( निया के० ) हलाला थका एवा ( नरा के० ) पुरुषो ते ( नवसहस्से के ० ) हजारो जवने विषे टुंटा मुंटा प्रमुख (हुंति के० ) थाय ॥ २ ॥ ए चौदमी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ १४ ॥ हवे ए वीजा अणुव्रत उपर पिता पुत्र एवा वसुदत्त ने धनदत्त नी कथा कहे बेः - न्याय मर्यादाये पामेनुं जे वित्त, तेणे नरेलुं एवं पोतन पुर नामें एक नगर बे. ते नगरमां घणा गुणें करी युक्त एवो जितशत्रु नामें राजा राज्य करे बे. त्यां सर्वश्रेष्ठी मांहे विख्यात, सरल खनावनो, चंडमानी पेरें शीतलतावालो, संपदायें करीने देवता सरिखो, एवो सोमदेव नामें शेठ र हे . तेने धनदत्त नामें पुत्र बे, ते युवावस्थामां व्यसनने विषे श्रासक्त थ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १६५ येलो ले. तेथी अविनीत थको गुरुजनने तथा माता पिताने लगारमात्र पण गणकारतो नथी. तेज नगरने विपे एक बीजो वसुदत्त एवे नामें शेठ वसे बे, ते सोमदेवनो मित्र ले. ते वसुदनने घणे गुणे सहित नश्क नावि, झड़ियें करी प्रसिह, अने गुणे युक्त एवो धनदत्त नामें पुत्र . बेदु शेठने व्यापार घणो तेणे करी बेदु कहिये प्रसिभ दे. ते बेदुने सरखापणा माटें परस्पर प्रीति . परंपरागत कोक पुण्य योगें करी लक्ष्मी पण परंपरागत चाली अावे . हवे सोमदेव शेठने धन तो घणुं , तो पण धन उपार्ज वाने पोताना पुत्रने अयोग्य जागी पोतेंज परदेश जवानो विचार करतो हवो. कडुं ने केः-तृमारवानिरगाधेयं, उप्पूरा कैर्न पूर्यते॥ या महभिरपिदि तैः, पूरणैरेव खन्यते ॥ १ ॥ नावार्थः-तृमारूप खाण अति उंमी , ते फुःखें करी पण कोथी पूराय नहिं. जे तृमा खाणमांहि महोटा महोटा उने नारख्या ने तो पण ते खणातीज जाय , पण पूराती नथी॥ हवे ते शेठ पोताना पुत्रने शत्रु सरिखो गणतो, अने पुत्र व्यसनी , तेथी तेनी नपर अविश्वास आणतो यको, संसारमा सार, तथा सर्व व्र त थकी अधिक एवा जाणियें पंचमहाव्रतज होय नहिं गुं? एवा कोडि मूल्य नां एकेका एवां पांच रत्न गुप्त पोतानी नाम मुश करीने, रूडे यत्ने करी, रूडी रीते वांधी, प्रशस्त वस्तु मध्ये मूकी, जीवनी पेरें गोपवीने, तेनी न पर रू', सोनुं अने सार वस्तु नरीने, करंमियो तैयार करी, पोताबा मित्र वसुदत्तने घेर मूकतो हवो. ने तेने रूडी रीतें वारंवार नलावीने, घणी वस्तु लेइने ते दूर देशांतर गयो. त्यां न्यायमार्गे व्यापार करी सर्व वस्तु वेची, जेम थोडाकालें आपाढ मासमां वर्षा करी घणुं जल जराय, तेम सोमदेवशेठने धननो जरावो थोडा वखतमां थतो हवो. तेथी ते शेत वि चारे जे ढुं हांथी अनेक प्रकारनां करियाणां नरीने ते पोताने देश जर वेचि नाखीश, तो मने सहस्त्रगणो लान थाशे, एवा मनोरथ धरतो करियाणां लश् पोताना नगरनणी चाल्यो मार्गने विपे अटवीमां आव्यो, त्यां निन्न लोको दाथमां विविधप्रकारना हथियार लेइने, मारो, मारो, हणो, हणो, एवं मोढेथी बोलता एकदम आवीने साथनें लूंटवा लाग्या, शेठनो पण सर्व माल खुंटी गया. धिक्कार हो ! कर्मने जे मनुष्य चिंतवे कां ३ ने थाय कां. जीव विविधप्रकारनां मनोरथ करे डे पण धारेखें थातुं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नथी जे माटे ते जीव पोते एक विचारे में तो देव वली बीजुंज कांश वि चारे . ते वातने ते रांक वली कांइ जाणता नथी. माटें जे कोइ माण स लोननो अनितापी होय ते लोनने विपाकें करीने पोतानुं मूल व्य खुवे . अति क्रोध, अति लोन, अति शेह, अतिमद, अति मोह, एटला परनवने विपे तो वेगला सुख दीये डे, परंतु ते जीवने या नवने विपे पण दुःखना हेतु थाय ने, तो पण ते अबज लोको कां पण समजता नर्थी, हवे ते लोमदेव शेउनुं सर्व इव्य गजु तेथी शोक सहित, जेना चित्तनो उत्साह लोपाणो ने एवो, केवल पोतानी सुजानी सहाय सहित पोताने घेर याव्यो,तेवारें वसुदत्त तेने मलवा आयो,तेने शेवें पोताना फुःखनी वा त कहीने पनी पूडवा लाग्यो के करंमियो तो कुशल ले ? कवि कहे जे अहो ! इव्यउपर केवो मोह ले ? हवे वसुदत्त चित्तमां विचारवा लाग्यो जे रूपा दिक असार वस्तु नपर एहवो मोह होय नहिं,माटे घेर ज जोलं. कारण के करंमियामांही कांक सार वस्तु लागे . एवं विचारी घेर ज वसुदलें करंमियो बोड्यो तो साक्षात् जाणे महादेवना पांचनेत्रज होय नहि ? एवां पांच रत्न तेणे जोयां, जेथी तेनुं हृदय लोनं हणाणुं विवेकरूपनेत्र देवा पां. तेथी तेणे मित्राय पणानी कीर्ति मूकी दीधी बने राजानो नय पण अवगणीने, मित्रने विपे शेह करवो धास्यो. हवे तेणे था जवने अने परन बने विषे शेहना समूहना मूल कड़वां बे, एवं पोताना आत्मामां अणवि चारीने करंमियामांथी पांच रत्न काढी लश् चोरी किधी ते चोरी केवी ने ? तोके श्रा नवने अने परजवने विपे फुःखनी हेतु . तो थापण उत्सववी तेतो वली जेम संस्कारथी वधारेलु महा विप, अहंकारथी वधेलो सर्प होय, तथा जेम पवन युक्त अनि होय तेम ते उलवेली थापण जाणवी. वली ते पूर्वोक्त पदार्थो तो तेनो अवधि पूरण थये शांत पण थाय. परंतु लोनियानी धिमा पणानो तो पार आवेज नहिं. एटला माटे लोनी प्राणीने धिक्कार हजो. हवे एकदिवसें सोमदेव शेठ वसुदत्त शेठ पासेंथी थापण पाणी पोताने घेर ावी करंमियो संनाली जूए ने तो ते मांहे पांच रत्न दीनां नहिं,तेवारें ते शून्यमने दणेकमांहे मूळवंतनी पेरें, थंनाणानी पेरें, सत्यवंतमां अधि क , तोपण शोचना करतो थको विचारवा लाग्यो के मित्रनुं ने महारं एक चित्त ने,कार्यनो जाण ,माटे ए अकार्य काम केम करे ? अथवा लोनरूप स Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १७१ मुड्ने तरवाने तो जे कलामांही माद्या होय ते पण बुडे . माटे लोकमांस पवाद थयाथी लजायें करीमानशे नहि, तेथी बानो एकांतें जश् तेनी पासे मागु.जे सऊन होय ते हीj काम न करे,एम करतां करे तो पश्चात्ताप करे, अने जो लोकमांहि वात उघाडी पडे,तो मरण पामे. पण लीधी वस्तु माने नहिं ! एवं विचारी वसुदत्तने घेर जश् युक्तियें करीने जेटले मागवा जाय डे, तेटले वसुदत्त धीरजयी कहेवा लाग्यो के अरे घेला! रत्न तें गुं? पण ढुंजा | बुं जे तुं निर्धन थयो ,तेथी तुमने लवरी थर आवी ने अथवा वायरे सू ताथी तुजने वायु थयेलो जणाय , जेमाटे जेम तेम लवे . कर्यु ले केः॥प्र पलपति रहसि प्रत्तं,प्रत्ययदनेऽपिसंशयं कुरुते ॥ क्रय विक्रये च खंति, तथापि लोके वणिक् साधुः ॥१॥ नावार्थः- एकांतें प्राप्युं होय ते उलवे, प्रत्यद पणे दीधुं होय तेहनो संदेह करे,लेतांअने देतां लूटे, तो पण लोक कहे जे वा लियो गरिब . सोमदेव प्रतिहत वचने दीनमुख थको तीने पोताने घेर गयो. तेने चिंतारूप अग्नियें करी हृदयने विपे ताप प्रज्ज्वलित थतो हवो, ते थी शेत विविध प्रकारना धृत्ताराने बुद्धि पूबतो अने अनेक प्रकारना धू तारानां वचन सांजलतो हवो. एकदा कोई धूत्तारो वाणियाना वे पुत्रनी मित्रानो दृष्टांत सोमदेव शेठने कहेतो हवो. ते जेम के कोइएक वे वाणि याना पुत्रोने मित्रा घणी हती तेथी ते धन उपार्जवाने परदेश गया,त्यां कांश्क इव्य कमाणा, ते वेमांथी एकने घेर जवानी नत्कंठा थ,त्या मित्रने कहेवा लाग्यो जे ढुंतो घेर जश्श. माटे तारे का घेर मोकल छे ? तेवारें वीजे पोतानी स्त्रीने निर्वाह चलाववासारु ते मित्रने एक रत्न यापी कह्यु जे आ एक रत्न मारी स्त्रीने हाथोहाथ बापजे. ते घणुं अल्पमूल्यनुं ,ते थी तेने को अवसर काम बावशे, तेथी तेणे हा कही. आदर सहित ते रत्न लइ घर तरफ चाल्यो. ते अनुक्रमें पोताने मंदिर आव्यो तेवारें लोनने वश थइ ते रत्न मित्रनी स्त्रीने आप्युं नहिं. हवे ते बीजो मित्र घणा रत्नो उपार्जिने हर्षित वदनथयो थको पोताना न गर तरफ चाल्यो. एम करतां पोताना नगरनी नजिक आव्यो,तेटले सांज पडी गश्ने असुर थ गो. तेथी एम विचारवा लाग्यो के असुरी वेला बे, ने रखे ने कोई पडावी शे तेथी कोइ धनाढ्य वृक्ष ब्राह्मणने घेर रत्ननी गांसडी मूकीने पोताने घेर आव्यो. हर्षित हृदयथको स्त्रीने पूबवा लाग्यो, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. मित्र साथें में रत्न मोकल्युं,ते तेणे तुने आप्यु ? ते सांजलीने स्त्री बोली के मने तो कांश आप्यु नथी, तेथी ते विपाद पाम्यो थको विचारवा लाग्यो जे एक रत्नमां मित्र, लोनमां पज्यो, तो घेर घेर नीख मागनार माणसनुं मन एटलां बधां रत्नो देखीने केम नहिं चले ? अने तेने हाथ आवेलुं धन मने पा केम आपे ? एम आर्तध्यान धरतो क्रोध सहित घणे तेणें कप्टें रात्रि गुजारी, ने एकरात तेने एक वरस जेवडी महोटी थइ. प्रनात थयो के तुरतज ते वालणनें घेर गयो,ने पोतानी थापण मागी, त्यारे ते ब्राह्मणने जाणिये रोग ययो दोय नहि गुं? तेम वेहेरानी पेठे पूले कांई ने जवाब दीये कां? तेथी ते वणिक अाशा रहित थयो फुःखेसहवा योग्य एवा रखने धरतो यको लोक आगल कहेतो फरे पण उपाय पामे नहि. एकदा श्रीजि ननुवनने विपे गयो, त्यां को श्रावकना पुत्रं बोलाव्यो तेवारें तेणें ते पोतनुं सर्व वृत्तांत कयुं ते सांजली श्रावकपुत्रे उपाय बतायो जे इहां धूर्त मध्ये प्रधान एहवी फंफा नामें गणिका बे,तेहथी ताहरु कार्य थाशे. ते वात सांन ली ते फुफाने मंदिर गयो,ने तेने धन आपीने वश कर। त्यारेते शेग्नू काय सा धवा तैयार थइ ते व्यवहारीये पोतानुं सर्व वृत्तांत तेनीपासें कह्यं ते सांजली कहेवा लागी के हे शेत! ताहारं कार्य नतावलथी हुँ करीश.तुं कांश चिंता करी शमां. हवेते फुफा गणिका चार पेटीयोने विचित्र जातना चित्रामण करावी, तेने तालां दश्ने घरमा मूकीने विप्रने घेर जइ,तेने एकांते तेडीने कांखू मोढुं करी कहेवा लागी के माहरे एकज पुत्र हतो ते समुश्मार्गे व्यापारने अर्थे ग यो हतो, ते घेर आवतां रस्तामा वाहाण नांगवाथी समुश्मां मुबीने मरण पाम्यो, तेने चार स्त्रीयो , पण तेमां एकेने पुत्र नथी, अने घणा रत्नं न रेली एहवी चार पेटी तथा बीजी पण सार सार वस्तु प्रमुख घणुं व्य अमारी पासें . ने अमें तो हवे अनाथ थयां, तेथी हवे अमारी गति कोण जाणे केवी थाशे ? पुत्र नथी तेथी अमा सघटुव्य राजा ल ले शे, माटे राजा न जाणे ते पेहलां जे कांई उपाय होय, ते तमें कहो, के जेथी अमारूं इव्य रहे. तमे पोताना बो तेमाटे तमोने कटुंबं के जेम को इन जाणे तेम बानी रीतें ते चार पेटीयो तमारे घेर मूकीयें. एवी तमे अाझा आपो. एवं ते गणिकानुं बोल सांजली ते ब्राह्मण हृदयमां हर्ष धरतो यको जाणे घेलो थयो होय नहिं ? जाणे नूत वलग्युं होय नहि ? Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १७३ एवो इव्यने लोनें परवश थयो. तेथी जेम नव्यने उपदेश सांजव्याथी प्रती त उपजे तेम ते ब्राह्मण पण वेश्यानी कहेली वातने सत्य करी मानतो हवो. अने गणिकाने केहेवा लाग्यो जे जेटलुंधन होय,तेटलुं तुं लावी अहीयां मूक, या घर तारुं ,इहां कांड विणससे नहिं. महारा घरने विपे महारी कायानी पेरें यत्नथी ते ऽव्यने ढुं राखीश. सघलुं तमारुंज ने, जे वारें तमारे जरूर पडे, तेवारें लेजो. माटे एमां पूq झुं बे ? अने विचारवं झुंने ? अने वली विलंब पण श्यो करवो ? माटे जे धन होय ते उतावले ला वो. कवि कहे व् अहो ! धूर्त्तनी धूर्तता जुवो केहवी ने ? एम कही ते गणि का पोताने घेर जश् चार दासीयोने माथे चार पेटीयो मूकी रात्रिने समये ते वाणिया साथे संकेत करी ते विप्रने घेर अावी. तेने देखी विप्र पण संतु ट थइ नतीने ते गणिकाने घरमां लइ गयो अने जेवामां ते पेटीयो अंदर मूकवा जाय , तेवामां ते वाणियो पण तिहां आवीने ब्राह्मण प्रत्येक हेवा लाग्यो जे में जे रत्ननी गांसडी ताहरे त्यां अगान मूकीने, ते मने आप. ते सांजली विप्र विचारवा लाग्यो जे जो हमणां नहिं आपुं, तो क्ले श थाशे अने अवश्य धन पण नहिं मूके ! माटे ए थोडे रत्ने झुं थवावानुं ! एम चिंतवी ते रत्ननी गांसडी ते वणिकने आपी दीधी अने कह्यु के तुने ता रा रत्नो सोंप्यां , हवे ताहरे माहरे कांश लेवादेवा नथी. हवे तुंबा वात को आगल कहीश मां,एहवामां पूर्वे करी राखेला संकेतवाला कोक पुरुषे आवीने ते गणिकाने वधामणी आपी के तहारो पुत्र कुशलदमें घेर आव्यो बे,एवी वधामणी सांजलवाथी ते कारमोज हर्ष देखाडती चार दासीयो सा थें नाचवा लागी, तेटले ते वाणियो पण पोतानी थापण पानी थाववा थी तेनी साथै नाचवा लाग्यो, ते सर्वने नाचतां जोश्ने विप्र पण नाचवा लाग्यो, त्यारे ते गणिकायें पूज्यु जे हे ब्राह्मण ! तुं केम नाचे जे ? ते सांन ली ते बोल्यो के या धूत्तारो धितो ,तेणे दुं नाचुं . ए प्रकारे ते बाणियो ग शिकाना पसायें करीने ब्राह्मण पासेंथी पोतानां रत्न पाम्यो, तेमांथी गणि काने देवायोग्य दश्ने हर्षवंत हृदयें पोताने मंदिरें गयो. हवे मित्रने जे रत्न आप्युं हतुं, ते मागवाने ज्यारे ते वणिक गयो, त्या रे ते धूर्त मित्र कहेवा लाग्यो के में तो तारी स्त्रीने हाथोहाथ ते रत्न आ प्यु जे. ते सांजली ते वणिकें पूब्युं के तें रत्न आप्युं, ते वखत को सादी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. दतो? तेवारें तेणे कमु के दा हतो. एम कहीने ते धूर्ते कोइएकने कांक लोन देखाडी, तेने साचो सादी बोले, तेवू शीखवीने जूतो सादी उनो करीने तेडी लाव्यो. तेने जोड्ने पहेला वणिकने कांश नपाय नहि जडवा थी खेद पामतो ते कुमित्रने तथा जूतासादीने अने पोतानी स्त्रीने साथै लश्ने नजटिकना गाममां एक घणो बुद्धिवंत अने न्याय करवामां अतिनि पुण एवो कोई पुरुप हतो, तेनी पासें न्याय कराववा गयो. त्यां जतां कोई ये खबर आपी के ते न्याय करनार तो परलोक गयो ने तेमना बोकरा जे.ते सांजली तेने घेर जाघरमांजोवा लाग्यो,तो ते न्याय करनारना बोकरा ने तेनी मातायें जमवा बेसाड्यो ने, ने नाणामां उनी उनी राब पिरसी ने, पण बोकरो घी मागवाने मिशे जमवाने विलंब करतो हतो ने विचारतो हतो के जो माहरी माता घी यापशे, तो नीक, नहिंका पनी ए राबडीज उपाडीने ढुंपी जश्श ? एवी ते बालकनी बुद्धिजाणी विस्मय पामी तेवणि के तेनी पासें पोतानुं सर्व वृत्तांत कयुं. त्यारे तेणे चारेने जूदा ज़दा बोला वी पूब्युं. पली ते वणिकने कडं जे ताहरा रत्न जेवो कणकनो नमुनो क रीने लाव, ते प्रमाणे बीजाने पण नमुनो करवानुं कर्तुं तेथी बन्ने जण नमुनो करी लाव्या अने वणिकनी स्त्रीयें कडं जे में तो ते रत्न दीतुंज नयी तो नमुनो क्याथी बनावी शकुं ? वली जुती सादी आपनारे कडं के मुने ते रत्नोनो आकार सारी पेठे सांचरतो नथी, पण रत्न बहु मूल्यवानुं हतुं, तेमज घणुं रूडं हतुं, कांति सारी हती. तो पण न्याय करनारे तो कह्यु के तुं पण जेवू जोयुं होय, तेवो तेनो नमुनो करी लाव. ते चारेमाथी जूतो सा दी जे हतो तेनाथी ते रत्ननो बरोबर नमुनो थइ शक्यो नहिं. तेथी तेनुं कूड प्रगट थयुं, ने ते रत्न ते वणिकने तेना मित्र पासेंथी पालूं अपायुं. हवे ते न्याय करनार, उमरेतो बालक , पण बुद्धिमां कांई बालक नथी, जुवो बुझिये कयुं कार्य सिम न थाय ? सर्वे कां थायज. . एहवी वात सांजली सोमदेव शेठे पण माही गणिकाने, तेमज ते बुद्धि मान न्यायना करनारने पूजवाथी पण का कार्य सयुं नहिं,त्यारें तेणे नि श्चय कस्यो जे मारा अनाग्यना योगथी रत्न गयां, तेमज मार्गमां पण दुखू टाणो तेथी निराश थश्घेला सरिखो बनवानुं विचारी घेलो बनी,जेम तेम लवतो राज दरबारें गयो. त्यां दैवयोगथी राजानी नजरें पड्यो,तेवारेंराजायें Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १७५ वकने पूधु के ए कोण ले अने युं लवे ने ? ते एने जपून. सेवकें शेग्ने भावी पूब्यु के तुं कोण जे ? त्यारे तेणे पोतानुं सर्व वृत्तांत कह्यु. सेवकें आ वी राजाने कयुं, राजायें ते शेतने पोतानी पासें तेडावी सघळु वृत्तांत पूर्षु. ते शेवें पोतानुं सघलुं कुःख राजा आगल कही विनति करी जे हे रा जन् ! तमें सेवकजनना आधार बो, तेमज मारे तो एक तमारोज आधार जे. तेवारें राजा कहेने के तुं स्वस्थ था विश्वास राखी ते रत्ननां नाम, प्रमा ए मूल्य प्रमुख सर्व कहे. तेथी तेणे ते रत्ननां नाम, मान तथा मूल्य था दि सर्व कह्यां ते प्रमाण मूल्य सांजलीने राजायें जाण्यु जे आ कहे जे ते सत्य , जूठो नथी. एम विचारी राजायें कडं हे नए! कांक उपाय वि चारी ताहरूं कार्य करीश, एम कहीने शेठने ।वसर्जन कस्यो. हवे एकदा राजायें सर्व रत्नना वेपारीने तेडावी कडं जे महारे रत्नज डित मूकट घडाववो , तेमज राणियोनां आनरण पण रत्नजडित घडा ववां ने, माटे देशमा अथवा परदेशमा जेनी जेनी पासें रत्न याव्यां होय अथवा पोताना घरमां होय ते सघलां मंगावीने जे मारा माणसोने सोंपरों तेने दुं मो माग्यं मूल्य आपीश ? ते सांजली सर्व व्यवहारिया विचारवा ला ग्या जे राजानो दुकुम केम लोपाय ? तेथी सदु पोतपोताना रत्नना करं मिया घेरथी लावी राजाने सोंपता हवा. तेवारें वसुदत्त मनमां विचारवा लाग्यो जे मारां रत्नो घणां किम्मती डे, तेथी राजा पासेंथी मो माग्युं धन लाश, एवं विचारी रत्ननो करंमियो घे रथी मंगावतो हवो. ते सर्व करंमिया परीक्षक पासें बोडाव्या. हवे राजा ना दुकमथी ते परीक्के वसुदत्त शेठनो करंमियो बोड्यो तो तेमां सोमदे वनां पांच रत्न राजायें दीठां, तेथी पूर्वे सांकेतिक करेलो पुरुष बोल्यो के सदु सदुना करंमियाने निशान करी मूकी जाउ, कालें मूल्य ठेरावीने लेा. एम कहीने सर्वेने राजायें विदाय कस्या. सर्व पोतपोताने ठेकाणे गया. पाउलथी राजायें ते वा व्यापारीयोना रत्नोने एकठा मेलवी जेल से ल करी सोमदेवने तेडावी कडं के आ रत्नोमांहे जो ताहारां रत्न होय तो तुं उलखीने जूदां काहाडी आप. ते सांजलीने जेम पंखिणी पोतानां व चांने उजवी काढे, तेम सोमदेवें पोतानां पांचे रत्नोने उलवी काढ्यां. ते समयें सर्वजनोयें जलो जलो एम कर्दा राजाने पण सत्यवादीनो दृढ प्रत्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. य थयो,अने कह्यं के काले ढुं तेडा, त्यारे बावजो, एम कही रजा आपी. बीजे दिवसें रत्नना व्यापारी तथा परीक्षक अने सोमदेव सर्व मली राजसनायें श्राव्या, त्यारे राजायें परीक्षकने कह्यु के बा रत्नोमां जे ना रेमां नारे रत्नो होय तेनुं मूल्य कहो. तेवारें परीक्षक वसुदत्तनो करंमियो बोडीने अपूर्व पांच रत्नोनुं जेवामां मूल्यकरवा लाग्यो तेवामां राजायें पू र्वे शीखव्याप्रमाणे सोमदेव शेठ तिहां आवीने बोल्यो के हे स्वामिन ! ए पांचरत्न ता माहरां . ए पांच रत्न में वसुदत्तनी पासें थापणे मूक्यां हतां, तेज आ रत्नो ले ते सांजली राजा जाणे अजब थयो होय नहि ? ए वीरीतनी मुखमुश करीने वसुदत्तने कहेवा लाग्यो के हे वसुदत्त ! त्रासो मदेव झुं कहे जे ? ते सांजली वसुदत्तने तो हृदयमा अणचिंत्यो धामको पज्यो. तो पण धिमाश्ये करी कहेवा लाग्यो के हे स्वामिन् ? ए सोमदेव नुं धन गयुं, तेथी घेलो थयो थको यहा तछा फंखे , तेनुं चिन तेकाणे नथी. तेने सोमदेव कहेतो हवो के पारका रत्न उलव्यां दे.तेथी तुमने लव री थावी ने अने तारी बुद्धि हणाणी. एम बने जणा कलह करवा लाग्या, त्यारें राजा वसुदत्तने पूजवा लाग्या के ए रत्नो तुने क्याथी मल्यां ने ? तेवारें वसुदत्त कहेवा लाग्यो के हे स्वामिन ? ए पांचे रत्न अमारे पे ढीगत चाव्यां आवे . राजायें कडं के ए रत्नो पूर्वं तमारा घरमा हता तनो कोइ सादी ने ? त्यारें वसुदन कहे हा ले, ने ते सादी सारी पढ़ें जाणे , जे मारे घेर पा रत्न परंपरा चाव्यांज आवे जे, ते सांजली रा जा अति कोपायमान थयो थको कहेतो हवो के कुलने विपे प्रमाण नूत एटले कुलीन अने प्रामाणिक एवा सादीने शीघ्रपणे हजार कर. तेटले ते वसुदत्त सादीने तेडवा माटे निकल्यो. तेने एक पापिष्ट अने विधाताना कोपथी जेना दांत पडी गयेला , जेनुं सर्व धन कोश्ये हरी लीधेलुं अति दुःखथी शरीरे उर्बल थयेलो , तथा जेना मुखमांथी लाल पडे ने वली मोढा उपर घणा पत्ती , एवो दरिड़ी जीर्ण शेठ म व्यो, तेने देखीने एकांते तेडी जश्ने कयुं के जो तुं मारी सादी पूरीश, तो हुँ तने एक रत्न आपीश! ते सांगली मात्र व्यना लोनें करी ते उष्टें जूठी सादी पूरवानी हा कही. याशारूप पिशाचीयें हणाणो एवा लोनीने माथे वज पडो. का डे केः-यौवनं जरया ग्रस्तं, शरीरं व्याधिपीडितं ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. '१७७ मृत्युराकांति प्राणान, तृष्णे किं निरुपवा ॥१॥ नावार्थः-यौवनपणुं जरायें लीडूं, शरीर व्याधियें करी पीडयुं, मरण तो प्राणने वांडे , पण हे तृप्मे ! तुं कां निरुपश्व रही हो? ॥१॥ हवे वसुदत्त हर्ष पामतो,लोनें करी दोन पाम्यो थको विचार रहित, धित जे हृदय जेहनुं एहवो थको जीर्ण शेठने सादी जरवा माटे साथें तेडीने राजा पासें गयो. तेवारें राजादिक सर्वे कहेवा लाग्या के हे दरिड़ी! तुंव ,माथे पली आव्यां ,माटें जूतुं बोलीश मां. सत्यवचन बोलजे. तेवारें शीघ्रपणे सत्यवादीनीपेरे ते उष्टात्मा राजाने पगे बबतो कल्पित जूती वाणी करीने कूडी साख चरतो हवो. तेथी राजा हृदयने विषे उस्सह क्रोध करीने अत्यंत नमर चढावतो थको बोल्यो के हे लोको ! जून ए वेहुनुं उष्टपणुं. जेमाटे पापें करी दृढ थको एहवो ए वृक्ष तेहनी उष्टता जून, कहेवी चे ? अहो ! एनी नयनी अघटता, अ हो ! एनी निकटता, अहो एनी पापिष्टता, केवी ने ? ते तमें जुन. जे कारण माटें सजा पण एगेन उतरवी, असत्य बोलवामां ते जरा पण न लाज्यो, मारी पण एने बीक न लागी, एहने देवनी पण शंका न उपनी. वली पोताना आत्मानो वैरीजे वसुदत्त,ते धूर्तनी धीठापणानुं धैर्य तो जूठ, ए पण केवु आश्चर्य कारक , जे मारा मुख बागल अन्यायनो करनार बे. शेहने विपे मित्रशेह करवो. तेमां महोटुं पाप , ते प्रमाणे एणे मि वनी साथें विश्वासघात करी तेनी थापण उजवी, वली बीजुं कूउने वि पे अग्रेसर यह कूडी साख जरावी, एम कपट करी विश्वासघात करवो ते वे महोटां पाप जाणवां. माटें ए वे पापी अधिक पापना करनारा ले. जे माटें ए महाराथी पण शंकाणा नहिं, एहना चित्तनी उष्टता जू. एम ते बेदुनु मातुं चरित्र उच्चरीने नाम प्रमुख प्रत्यय देखाडीने राजा का रुणिक पुरुषोने कहेतो दवो के था वे जणे अन्याय कस्यो ने, तेहने श्यो दंक देवो ? तेवारे कारुणिक न्याय करनारा कहे जे के,जेम स्वामी दुकम करो तेम करीये. तेवारें राजायें क्रोध रहित थ दुकम कस्यो जे जेणे कुडी सादी जरी ले तेनी कूडी साख नरनारी जे जिह्वा , तेने पंखीनी पांखनी पेरे बेदी नारखो. अने वसुदत्तना हाथ वेदो, ते वसुदत्तने हाथ बेदातो थको सो मदेवे पोतानो मित्र जाणी मूकाव्यो.अहो जून ! वे मित्रमा अंतर केटलो छे. लेवारेंराजायें अन्यायकारी जाणीने वसुदत्त शेतनुं सर्व इव्य लूंटी लश् तेने Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७G जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. देशनिकाल कस्यो. ते वसुदत्त कोया काननो कीडे खाधेला कूतरा सरिखो किं हायें पण रहेवार्नुकाणुं पाम्यो नहि. धिक्कार हो हतबुद्धि पापिष्ट उष्ट अघोर पापना करनारने ! जेम हां क्यांही पण एने रहेवानुं ठेकाणुं नथी तेमज परनवने विपे पण ठेका' नथी, धिक्कार पडो गृह,मुग्ध, लुब्ध अणविचास्या कामना करनार,कष्ट अनुष्ठाने करी सर्व लक्ष्मीना दयना करनारने ? प्रत्यद अनर्थनो उपजावनार,माहानयनो उपजावनार एवं अग्नि सरिखो,गले फांसी सरिखो, सर्प सरिखो जे आकलं विष तेने परिणमावीने तेज नवने विपे ः सह मुख जोगवतो थको पुत्रादिक सहित दूर देशांतरेंगयो. त्यां कोक गामने विपे पूर्वनो मित्रहतो ते तेने मल्यो, तेने करुणा उपजवाथी पोताना मंदिरने विषे राख्यो, ने हृदयने विपे विविध प्रकारचें अःख जोगवतो हवो. कडं ले केः-दहई सयण वियोगो,दहअणाहत्तणं पर विएसे॥दहश्य अप्नखाणं,दह अकङ कयंपना ॥१॥ नावार्थः-मनुष्यने स्वजननो जे वियोग ,ते दहे जे. परदेशने विपे अनाथ पणुं होय,ते पण दहे ,कोइने खोटुंबाल दी, होय ते दहे ,अने अकार्य कयुं होय,ते पश्चात्तापें करी दहे ॥१॥ हवे ते वणि क विचारे के जो ए पोताने पाहणाणो बे,तो पण ढुं एने सुखियो करूं ! प्रापढ़वरखतें दुःखियाने उदारवो, ते महोटुं पुण्य . कह्यु केः-विहलं जो अवलंबर,आवश् पीडिअंच जो समुघर ॥ सरणगयं च ररकर, तिस्सुत्ते सुलकीया पुहवी ॥१॥ नावार्थः-निर्बलने बालंबन दे, पोतें आपदा मां पड्या बतां पण वीजानो नदार करे, शरणागतने शरण आपे, एवा त्रण पुरुषो पृथ्वीने अलंकृत करे ले ॥ १ ॥ एवं चिंतवीने ते वणिक वसुदत्तने जेम नवं जीवितव्य आपे, तेम मूडी आपीने व्यवहारने विपे प्रवर्त्तावतो हवो. कवि कहे जे अहो ! संसार तो असार , परंतु तेमांजे कोइने काहिं पण नपगार करवो ते सार . हवे वसुदत्त शेठ पापकर्मे कुः खियो धर्म रहित थ मरीने कर्मने अनुसारें जेवी गति घटे तेवी गतियें गयो. हवे शोकें करी गलित डे नेत्र जेनां, दीन जेनुं वदन ने एवो वसुद त्तनो पुत्र, पिताना मरणथी पोकार करतो अति शोकें करी पोताना पिता ने अग्रिसंस्कार करतो हवो. अने ते ठेकाणे तेणे पोताना पिताना नामनो विस्तीर्ण चोतरी कराव्यो. अने ते मध्ये वरस, मास, तिथि, वार, नत्र, सर्व लखाव्यां, लखीने पोताने घेर व्यो. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए तेवार पड़ी केटलेक दिवसें ते गतशोक थयो, त्यारे वणजन अखाडे पज्यो, एटले तो सर्व दुःख विसरीज गयु. ने विचारवा लाग्यो जे हा ! माहारा पितायें अन्याय करीने अनेक अनर्थ कस्यां, तेथी सर्व इव्य खोयुं, देशमाथी देश निकाल थयो,इत्यादिक फुःसह उःख पाम्यो. सऊनपणानो प्रेम हण्यो. फोकट मनुष्यनो जन्म पण खोयो, माटे ते महारो पिता थयो तो पण गुं थयुं माहरें तो सघले मारा अने परनां कार्योने विपे एक न्यायमार्गमा यत्न करवू के जे न्यायमार्गे चाव्याथी सर्व ठेकाणे माहरो यशोवादज थाय. कडं ने केः-अरुत्वा परसंताप, महत्वा खलनम्रतां ॥ अनुसर्य सतां मार्ग, यत्स्वल्पमपि तदु ॥ १॥ नावार्थः-बीजाने संताप न करीने, खल सा थें नम्रता न करीने, नला मनुष्यना मार्गने अनुसरीने जे करवं, ते थोडं पण घणुं थाय. ढुंएकलो बुं, माहरु कोइ इहां स्वजन संबंधी नथी, कोई सखाइ नथी,धन नथी, अने तेधनविना अरण्यनी पेरें सघलुं शून्य दे. कर्दा बे केः-अपुत्रस्य गृहं शून्यं,दिशःशून्याह्यबांधवाः।। मूर्खस्य हृदयं शून्यं, सर्व शून्यं दरिश्ता ॥ १ ॥ जावार्थः-अपुत्रिया, घर शून्य बे, जेने नाश्यो नथी, तेने सघली दिशा शून्य , थता मूर्खनुं हृदय शून्य ले. अने दरिडीने तो सघनुं शून्यज .एवं घये विचारीने आपदामां सुमति आपे,न्यायमार्गे वेपार करवानो उपदेश करे, तेवो मित्र करवानो निर्धार कस्यो अने तेवो मित्र मेलव्यो. हवे ते सुगुरुनो योग पामी, धर्मनो उपदेश सांजली, पारकुं व्य लेवानो पञ्चरकाण करी, समकितसहित गृहस्थनो धर्म अंगीकार करी, सार जावसहित पालवा लाग्यो.अने वली रूडो याचार राखे, व्यापारमा कोइने उद्धं आपे नहिं, अधिकुं लिये नहिं, कूडां तोलां मापां सर्व जमीने व्यवहार शुदियें चाले, एम अति उष्कर पणे व्यापार करवा लाग्यो. कडे ने केः-आहारे खलु सुछि, मुलहासमणाण समण धम्ममि ॥ ववहारे पु एसुद्धि, गिहिधम्मे डुक्करा जणीया ॥ १ ॥ नावार्थः-साधुमार्गने विषे साधुने,चार प्रकारना थाहारादिकनी जेम चार शुदि पालवी मुलन , ते म गृहस्थने पण धर्मने विषे शुक्षि पालवी उर्जन ने. हवे धनदत्त ए रीतें व्यवहारशुध्येि वणज करतो थको सर्व लोकने विश्वासनुं नाजन थयो. व्यापारी लोक सर्व घणाकालनां परोचित्तने मूकीने धनदत्त संघातें वणज मांमता हवा. देशी परदेशी ग्राहक लोक सर्व प्रख्यात ठेकाणां मूकीने सर्व Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ០ जैनकथा नकोष नाग चोथो. धनदत्त संघातें लेवड देवड करता हवा. अहो जुन व्यवहारशुदि केवी ने ? सर्व शदिसमृधिनु कारण जे. जेहना महिमाथी या नवने विपे लक्ष्मी पामे बे, परनवने विषे परमपदनी प्राप्ति थाय दे. हवे ते नगरमां धन दत्तनो यश वधवा लाग्यो, तथा व्यापारमा लान थवा लाग्यो तेथी ते नगरना कूड कपटना करनार तुब बुद्धिवाला वेपारीयो, धनदत्तनी साथें शत्रुनी पेरें देष करवा लाग्या. ते एवी रीने के जाणे तेना नेत्रने विषे फेरज वरसतुं होय नहिं ? जेमाटे पारकी झदि देखी जे मनुष्य मत्सर धरे, ते पापी याने धिक्कार होजो. तं मनुष्यो इहां पण खिया थाय, अने परनवे द रिडी थाय. एटला माटे को गुणिजन उपर जरा पण मत्सर धरवो हिं. कह्यु के-वरं प्रज्वलिते वन्हा, वन्हाय निहितं शिरः ॥ न पुनगुणसंपन्ने, कृतः स्वव्योऽपि मत्सरः ॥ १॥ नावार्थःजलदी अमिमां मूकेलु शिर बले ते सारं, पण गुणवान् पुरुपने विपे थोडो एवो पण मत्सर करवो ते घ पोज जूमो जाणवो. हवे धनदत्तने दंमाववाना हेतुथी कष्टमांनांखवाने ते व्यापारियो तनां निशे जोता हवा. पण ते सत्यवंतनुं तिल जेटलुं पण विश् तेउने जड्युं नहिं. केहवत ने के दूधमां पूरा ते क्याथीज होय ? अमृ तमां विप क्याथी होय ? हवे ते उष्ट वाणियो धनदत्तना घर तेमज हाटनी आगल बहु मूल्यवाला मणिनी मुश नाखी चालवा लाग्यो, त्यारें धनदत्त जे पारका धनने विपे निःस्टह चित्तनो धणी , ते तेने महोटे सादे कहे वा लाग्यो के ना? आ मणिनी मुश कोनी पडी ? ते सांनली जेणेते मुश नाखि हती, ते आवी कहेवा लाग्यो के मारी जे. एम कही ते पोतानी मुश उपाडी लीधी. एवी रीतें ते घणुं कपट करे, पण कांई फावे नहिं. __ वली वचमां केटला एक दिवस जवा दश्ने पानी कपटनी रचना ते ये मांमि, पण सत्यवादी धनदत्त पोताना कार्यमां सावधान रहे, तेथी को इ पण बलथी फसायो नहिं, पनी घणाएक दिवसनुं बेटुं नाखिने कोइक आकरो कपटी धूत्तारो तिहां धनदत्तनी पेढीयें वी बेगे. ते धनदत्तने को इएक कार्यमां एकाग्र चित्तवालो देखी पोतानी मुश्किारत्न धनदत्तना पान रणना करंमियामां नांखिने चाल्यो गयो, ने ते एवो विचार करवा लाग्यो जे हवे तेना उपर चोरीनुं तहोमत नाखी आपणे दंमावगुं, ने राजा सर्व व्य लूंटी शे. हवे दैवयोगथी तेज दिवसें धनदत्तने करंमियानुं काम प Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ११ ड्युं तेथी ते उघाडिने जूए तो बहु मूल्यवाली रत्ननी मुश्किा दीवी देखी ने विचारवा लाग्यो जे आ ते कोनी हशे ? केम इहां श्रावी हशे ? एम विस्मय पामतो निरिह चित्त थको कांकरानी पेठे पारकुं धन गणतो लोकोने जाहेर करे ले तेटलामां तेनो एक मित्र कहेवा लाग्यो जे था एक मुनि का अनेक सुवर्णनी कोडिना मूल्यनी ने, जेम नूख्याने जोजन ने तरस्या ने पाणी मले तेम तारा पुण्यना योगथी तुमने ए मली , ते तुं लोकमां केम प्रकाशे ? को पूर्व सांजलशे,तो ते लेवाने प्रगट थशे,त्यारे तेतारी पासें रहे नहिं, ने तुं खोइ बेशिश जो के, इव्यने अर्थे तो लोको अनेक कष्ट सहन करे , अटवीमा जाय , विदेश जाय , स्मशान सेवे जे, ज लमध्ये, असिमध्ये प्रवेश करे , पर्वत उपर चढे , नीचनी सेवा करे , इत्यादिक अनेक दुःख धनने अर्थ सहन करे , एटला माटे हे बांधव ! जीवितव्यसरिखी ए मुश तुं राख. हुँ कोइने नहिं कहुं. एवा मित्रनां वचन सांजलीने धनदत्त कहेतो हवो के हे ना? मुझने चोरीनो नियम ,तेथी बे वात रहे नहिं, जो मुश रहे तो नियम न रहे, ने जो नियम रहे तो मुश न रहे तेमाटें ए वस्तु मारा कामनी नथी. पूर्वे पण दिव्यरत्न, मा रा हाटनी पासें पडयुं हतुं, ते हाथें चड्युं देखीने में प्रगट कयुं हतुं, ने ते रतन, तेना धणीने आप्युं हतुं. जे लीधाथकी या नवमां अने परन वमां अनर्थ थाय, ते अनर्थ जाणतां बतां एवो कोण मूढ प्राणी होय के पारकी वस्तु लीये? एवां धनदत्तनां वचन सांजली तेनो मित्र कहेवा ला ग्यो के हे मित्र ! तें कोनी वस्तु लीधी नथी, त्यारे ते चोरी केम कहेवा य? ताहरा पुण्यना नदयें कोई मूकी गयुं ,ते तुं कांइ जाणतो नथी. अ रे नाइ! मने तो एम लागे डे के तहारा पुण्यनी खेंचाणी ते मुश, तहा रा करंमियामां आवी पडी , अथवा तहारी गोत्रदेवीयें प्रसन्न थश्ने तुऊ ने दीधी , नहितर तहारा करंमियामां किहांथी आवी पडे ? आवां मि त्रनां वचन सांजलीने धनदत्त कहे के के जो एहनो धणी थइ कोइ पण आवी प्रगट थइने ते रत्न मुमने थापे, तेवार हुँ रा. त्यारे ते मित्र कहे के तुं बीजा सर्व विकल्प मूकी दे अने जा में ते तुमने आपी. हवे तहा। शहा आवे, ते प्रमाणे कर. वली ते रत्न तुं लश्ने जो धर्म अर्थ खरचीश तो तेथी तहारा धर्मना नियमनो लोप नहिं थाय. एटलामाटे हे मित्र! तुं Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. एवो खोटो हा मूकीदे. वली जो पारकुं इव्य लेवानी तुमने शंका उत्पन्न थाती होय,तो ते व्य तुं मुफने आप,तेथी पण तुमने धर्म थशे.अने मि त्रतानुं तुने फल थशे, वली तुमने ढुं को दाडे अनर्थ थवा नहिं दउँ,तुं कांड पण वीहीशमा.एवां मित्रनां वचन सांजलीने धनदत्त कहेतो हवो के हे मित्र! एबुं कस्वाथी लान तो वेगला रह्या, पण या नवने विषे अने परनवने विपे प्रत्यद अनर्थ थाय जे, माटें पारकुं धन जाणतां तथा अ जाणतां दूरज बांझ. कह्यु के केः-पतितं विस्मृतं नष्टं, स्थितं स्थापित माहितं ॥ अदत्तं नादर्दीतवं, परकीयं क्वचित्सुधीः ॥ १ ॥ नावार्थः-पडि गयेखें, वीसरी गयेलु, खोवाइ गयेखें, पडधुं रहेखें, थापण मूकेढुं, एवं जे पारकुं धन, तेने क्यारे पण माह्यो पुरुप नलीये. तेमाटे हे मित्र! हूँ तु ऊने घणुं शुकढुं, जो देवता अथवा बीजो कोई ए मालनो धणी प्रगट थइ मने लेवानुं कहे, तो हुँ लहुँ नहिंतर उस्सह अग्निना जालनी पेरें दूं एने जोवं. पण नहीं अने अडकुं पण नहिं. कुर्लन एवो पोतानो नियम कोण मूकें ? कोण एवो मूरख होय जे सूतरना दोरासारु मोतीनो अमुल्य हार त्रोडे ! एक खीला माटे जाजुं शव्य खरचीने चणावेलो एवो महोटो प्रासाद कोण त्रोडी पाडे ? वली इंधण काजें बावना चंदन कोण बाले ? व ली तीकरी माटे कामकुंनने कोण जागे? माटें तुं याप, तो पण ढुं न ल दं. कारण के तुं ए धननो धणी नथी. तेमज तुं कहे जे जे मुने यापो पण ए तुमने पण महाराथी न थपाय! कारण के हुँ ते धननो कांश धणी नथी. वली ते धन ज्यारे आपणुंज नथी, त्यारे ते बीजाने पण याप्याथी झुं पुण्य के ? न्याये उपाा धन, थोडं पण दान आप्युं होय तो पुण्य थाय, परंतु अन्यायें उपाया धनघणुं दान आपीयें, तो पण पुण्यवि ना पापरूपज थाय. वली पारकुं धन लेइ दान देवानुं पाप तो दावानल नी पेरें विस्तार पामे डे, कारण के ते दान थोडा जलना जेवू दे, तेथी ते पापरूप दावानलने नपशमावी शके नहिं, माटें अदत्तव्यतुं दान करवं, ते अप्रमाण जे. तेथी हे मित्र ! तुमने पण एमां चित्त प्रववियूँ युक्त नथी. कारण के पारका धननो जे अनिलाष दे, ते सुःखना समूहनोज आवास दे. कयुं केः-प्राणेहिंतो वि पिन, अबो पुरिसाण तो कुणं तेणं ॥ परथ एहरणं मरणं, मरणं विहिवं तेसिं न संदेहो ॥ १॥ नावार्थः-पुरुषने प्रा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. १७३ णयकी पण अर्थ केतां जे धन ते वल्लन बे, तेमाटें पारकुं धन लेवाय न हिं ? पारकुं धन हरवं ते तेना प्राण हरवा बराबर बे.तेमां कांइ पण संदे ह नथी. कारण के कोइ पण पुरुषने हणतां तो तेने दणमात्रज दुःख थाय, एटले ते प्राणीने हणियें, तेटलीज वार कुःख थाय डे पण मुवा प बी थतुं नथी. परंतु जेनुं धन जाय , तेहने तो आखा नवनुं जन्मपर्य त कुःख थाय बे, अने ते पड़ी पण तेना पुत्रना पुत्र,तेना पुत्र लगे आक रुं फुःख वेगवू पडे बे, वली सुविवेकी अने सुबुझिनो दातार एवो जाणी तुजने में माहरो मित्र कीधो , तो तुं मुफने कुबुद्धि केम आपे ? कोइने कुबुदि आपवी, ते तो महोटुं पाप बे, ते विषे शास्त्रमा एक कथा कही डे. एक अटवीमध्ये पाराधिना पाशमां एक हरणीावी, तेवारे ते दीन मुखी थइ पाराधिने कहेवा लागी के माहरां बच्चां सर्वे नूखें मरतां हशे, माटें बच्चांने धवराववा सारु एक वखत मुझने जवा दे. दुं तेने धव रावीने जरूर तहारी पासें पानी अावीश. त्यारे पाराधियें कडं के तुं पाबी थावे एवी मने प्रतीत केम आवे ? ते सांजली हरणीय बालहत्या दिकना आकरा सम खाधा, तो पण ते पाराधियें मान्युं नहीं, तेने हर पीयें कह्यु के केमे करतां तुं मने बोड त्यारें पाराधीयें कह्यं के जेहनी नपर विश्वास राखीने आपणे सुबुद्धि पूबीयें अने ते पाढो आपणने कुबुदि आपे, सुमार्ग पूढे थके ? उन्मार्ग बतावे, तेहनुं जेटलुं पाप थाय, तेटलुं पाप जो हुँ नावं तो मुमने हजो,एवा सम जो तुं खाइश तो ढुं तुंने जावा दश्श. ते सांजली ते हरणीये तेवाज सम खाधा तेवारे ते पाराधि ये मान्यु, अने तेने जवा दीधी. हवे ते हरणी पोताने ठेकाणे जर बाल कने धवरावी तरत पाढी आवीने पारधिनी सामें उनी रही, तेथी ते पाराधि विस्मय पामीने हरणीने आणिने वाडमां घाली. अने तेने हएावाने सऊ थइ कहेवा लाग्यो के ताहरे माहरा हाथमांथी नास हो य तो जलदीथी नाशि जा. त्यारे ते हरणी बोली के हुँ क्यां नासुं ? तुज थी उगरुं एवो तुं मुफने मार्ग देखाड, एटले त्यां नासि जावं. तेवारें पारा धियें विचाङ्गु जे एहने ढुं हणी न शकुं एहवो मार्ग बतावतुं जोश्ये. एम विचारी पापथी बिहितो थको हरणीने नासवानो मार्ग बतावतो हवो,तेथी मार्गे नालीने ते हरणी पोताने ठेकाणे गइ. पाराधि महापापनो करनार, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. तेणे पण उन्मार्ग न बताव्यो, तो तुं जे मुझने आवो उन्मार्ग बतावे जे, ते तुने केम घटे ? माटे हे मित्र ! संतोषरूप शस्त्रे करीने लोनने हणीने ए मुश्किा इहां केम आवी! अने एनुं गुं करवु ? ते तुं मुझने हवे कहे. एवां धनदत्तनां वचन सांजली हृदयथा लोननी मति बांझीने विचारीने पोताना आत्माने विषे सत्य परिणमावीने ते मित्र कहेतो हवो. हे मित्र ? तें युक्त कयुं, में ताहरा सत्यनी ने ताहरा चित्तनी परिदा करवाने था बधुं कह्यु. हवे ढुं जे कढुं बुं, ते तुं सांजल. आ बधुं धूर्त्तनुं कपट . आ गापना केटलाएक वाणियायें ताहरो घणो व्यापार देखि ने देष ध। बलथी ए कपट रचना करी .. का डे केः-पोपकाः स्वकुल स्यैते, काककायस्थ कुर्कुटा ॥ स्वकुलं नंति चत्वारो, वणिक्वानो गजा हिजाः ॥ ॥ नावार्थः-कागडा, कायस्थ, कुकडा एत्रण पोताना कु लना पोपक डे, अने वणिक, श्वान, हस्ती अने हिज, ए चार पोताना कुलना हणनारा . ते माटे तुझने कष्टमां पाडवाने ए धूतॊयें मुश्चरित्र रच्युं , कह्यु डे केः-मुनिरस्मि निरागसः कुतोमे, नयमित्येष न जूतये निमानः ॥ परवृद्धिषु बह मत्साराणा, किमपि ह्यस्ति उरात्मनामलंघ्यम् ॥ १ ॥ नावार्थः-दूं मुनि साधु बँ, निरपराधी बता, अमने जय श्यो? एवं अनिमान संपदा अर्थ न करवू कारण, के पारकी वृद्धि देखीने मत्स र, देष जेणे बांध्यो के एवा उष्ट परिणामीने नहिं करवा योग्य कांइ न थी. माटे रुडं थयुं जे तुमने लोन न थयो. अने मारी बुद्धिने धिक्कार प डो, जे पूर्वे लोनने वशे मारी सुवृद्धि गइ ? वली ते वणिक कहे जे जे लो कोयें तने ठगवा धास्यो बे,ते लोको प्रगट कपटना निधान ले. कूडा चरित्रनां धणी . माटे तेमने पण राजा पासें दंझाववा शिक्षा कराववीज घटे बे. एवां मित्रनां वचन सांजली धनदत्त कहे ,के हे मित्र! आपणने एम कर घटे नहिं अन्योऽन्य एटले मांहे मांहे ज्यारे आपणे अनर्थज करीयें, त्यारे सऊन अने उऊन वचे फेर श्यो ? तेमाटे हे मित्र ! ते उष्टोनें एकां ते नय देखाडीयें, के जेथी ते नयनीत थइ बीजा कोइ पण वखतें एवं कपट न करे. धनदत्त मित्र सहित एवं विचारीने ते इष्ट वणिकने को कामने विषे तेडीने कहे डे के, हे ना! एक मारुं वचन सांजल. को इने चोरीनुं कलंक जे माणस दीये अगर बीजा पासें कपटथी देवरावे, ते Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. न्य ने गुं दंम देवो योग्य में ? ते तुं कहे. एवीवात सांजलीने यद्यपि ते वणि क मनमा शंका पाम्यो तो पण अशंकित जेवी मुखमुश करीने कहेतो हवो के हे नाइ एवो जे होय तेने तो अवश्य दंमावीयें. इहां कवि कहे , केजून तेनी विच केवी ? ते सांजली मुश्किा प्रगट करीने धनदत्त कहे तोहवो के था मुश्किा कोनी ले ? ने माहरा करंमियामां कोणे नाखि ? ते सत्य केहेजो, नहिंतर दुं हमणां राजाने कहि दश्श. ते सांजली ते वणिक ने पेटमां ध्रासको पज्यो तेवारे विचार मूकिने पाजो प्रत्युत्तर देवा समर्थन थयो. खीलाइ गयेला सापनी पेठें तेने का उत्तर द न शक्यो, कणेक नीचं मो घालीने रह्यो पनी कह्यु के हा? में आ काम अणविचायुं कयुं. चिंतव्युं परने अने थयुं घरने ! तेवारे ते बिहीतो थको, बीजो मार्ग सर्व था अणपामतो धनदत्तने पगें लागीने विनयवंत शिष्यनी पेरें पोतानुं कपट चरित्र कबुल करीने, मागण लोकनी पेरें दीनपणे तेना गुणनुं वर्ण न करीने कहेतो हवो, के हे सऊन ? ए मुडिका मारी , ते तमें ग्रहो, पण मने मूको. महोटा अपराधनो निधान एवो हूं तेनी उपर प्रसन्न थ जीवितदान आपो, अने आ धननी निदाने पण आपो, हवे पनी एवं कदि पण हुँ नहि करूं तेवारें! मित्रसहित धनदत्ते अति गाढ तर्जना करीने तेने मूक्यो अने मुश्किा पण पानी आपी. इहां कवि कहे जे, अ हो उत्तमनो मार्ग तो जून ? के जे पोतानी उपर अत्यंत खोटी चोरीरूप क लंक चडावनार हतोते वणिकने पण तेणे तेमज बोडी मूक्यो. माटे तेवा उत्तम गुणना निधानजनने मारो वारंवार नमस्कार हो. जे गृहस्थाश्रम मां रह्या थका पण परवस्तुथी वेगलाज रह्या बे. हवे ते दिवसथी ते पण विहीता थका सुविनीत अथवा व्यवहारनी शु दि सहित चालनारा एवा थया. जेमाटे व्यवहार शुद्धि जे ले ते जगत्मां उलन ने, अने ते व्यवहार शुद्धिथी शी सिदि न संपजे ? सर्व संपजे. ह वे धनदत्त न्याय गुड़ियें व्यापार करतां घणी लक्ष्मी पुण्यना उदयथी उपा र्जतो हवो. कडं ले केः-दानमौचितविज्ञानं, सत्पात्राणां परिग्रहः ॥ सु कृतं सुप्रनुत्वं च, पंच प्रतिनुवः श्रियः ॥ १ ॥ नावार्थः-दानदेवू, नचित पणुं जाणवू, सुपात्रनो आदर करवो, सुकत करणी करवी, अने प्रनुप', ए पांच वस्तु जे जे ते लक्ष्मी पामवानी नूमिका ने. . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हवे पोतनपुरना धणीने घणे काळें वस्तुदत्त उपरथी कोध विस्मृत थ यो, तेथी धनदत्तनी चर पुरुष अवसर पामीने राजाने विनति करेरी के हे स्वामिन ! ते वसुदत्त इष्ट चरित्रनो धणी पायें करी वगवाणो, देवें हो देशमांथी को को मरण पाम्यो,पण तेनो पुत्र घणेगु करी युक्त म होटो न्यायवंत धनदत्त एवे नामे वे, तेणे हमलां घणुं धन वधायुं ले. ते मा टे हे स्वामिन ! जो आप ग्राझा करो, तो ते धनदत्त इहां नगरने विषे ऋ वे. ते सांगली राजायें आज्ञा दीधी, ने धनदत्त तेडवाने माणस मोक ल्युं. ते पुरुपें जइ धनदत्तने कर्तुं के राजा तमने तेडावे वे, त्यारे धनदतें कहां के ढुं शीघ्रपा बुं. पण मने हिंयां पांच दिवसनो विलंब ले कारण के मारे घराणी देवी ले, बीजी कांइ वार नथी, माटे जा हुं परवारीने यावीश, एम कही ते पुरुषने विदाय को गाममां वातचाली जे धनदत्त स्वदेश जाय ले, तेथी ते गामना सर्व देवी प्रधान प्रमुख एकता मर्जी विचारवा लाग्या जे ए शरीर मात्र लइ पूर्वे निर्धन एवो थको इहां थाव्यो हतो एनी पासें कां फुटी कोडी पा न हती, अने हवे तो धनवान् थयो, मा ते हिंया ऋषि लइ जशे ? ना एने जवा नज देवो. कांइ पण यपणे उपाय करी तेने दंमावियें. इहां कवि कहे बे, हो जू कुमंत्रीनी कुमं त्रिताने. कयुं वे के:- मृगमीनसकनानां, तृण जलसंतोषविहितवृत्तीनां ॥ लुब्धकधीवर पिशुना निष्कारणवैरिणो जगति ॥ १ ॥ जावार्थ : - मृगनी जिविका तृण बे, मनी श्राजीविका जल बे, घने सत्पुरुषनी थाजीवि का संतोष बे. तेनी उपर पण निष्कारण वैर धरनारा बे. ते जेम के मृग उपर पाराधि, मत्स्य उपर मानी, अने सत्पुरुष नपर चाडीया, निष्का रण द्वेष धरनारा बे, तेम ते द्वेषी वणिको, सर्व वातें शुद्ध एवो जे धनदत्त तेनुं कis fasतो देख्युं नहिं, तेवारें ते कुष्ट प्रधानने एक जूना कागल उपर खत लखी धूवाडे जूनुं करीने राजाने देखाडीने बोल्या के हे. रा जन् ! पोतनपुरथी पेहेलां वसुदत्त नामें शेठ इहां याव्यो हतो, तेणे व्यापारने अर्थे श्रापणा जंमारमाथी दस हजार सोनइयां लीधा हता. ते वसुदत्त तो मरण पाम्यो बे, पण तेहनो पुत्र घणा धननो धणी धनदत्त एहवे नामें इहां बे ते हाल पोताने स्वदेश जवानी वा राखे बे, ते माटेंतेने ते डावी पूर्वनुं मागणुं धन मागी व्यो. एम कही ते खत त्यां रा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. '१७ जाने देखाड्यु, राजायें वरस, मास, दिवस प्रमुख दश सहस्त्रना क स हितनुं जीर्ण खत जोयु, तेथी ते सर्व लेणुं सत्य करी मान्यु, अने धनदत्त ने तेज वखत तेडाव्यो. ते पण आवी प्रणाम करी राजा समद उनो र ह्यो, एटले राजायें ते जीर्ण खत तेने देखाडीने कह्यु के हे नक ? पिता नुं देणुं होय, ते पुत्र अवश्य आपकुंज जोश्ये, माटें ए देणुं तमे जलदी यापो. जगतमां देणुं कहेवू ? तो के परानवनुं करनालं. वली शास्त्रमा पण कण तो देवुज कडं ,तेथी ते झपना देवाने विपे सत्पुरुषने विलंब करवो घटे नहिं. वली विशेषे कह्यु ले केः-धर्मारने झणजेदे, कन्यादाने ध नागमे ॥ शत्रुघातेऽनिरोगे च, कालदेपं न कारयेत् ॥ १ ॥ नावार्थः-ध मना कार्यने विषे, कणना कापवाने विषे, कन्यादानने विषे, धन आव तुं दोय तेने विषे, शत्रुना घातने विपे, अमि तथा रोगने विपे, कालविलं ब करवो, ते युक्त नथी. त्यां प्रत्यद अनर्थ जोइने धनदत्त हृदयमा त्रास पामतो थको ते खतपत्रने जोक्ने विचारवा लाग्यो के अहो! आ महा अन्याय श्यो ? एवं विचारी व्यापारने विषे माह्यो एवो धनदत्त कहेंतो हवो के हे राजन् ! ढुं तपासीने आपने धन आपीश. जो आपने विश्वास न धावतो होय तो घेर जर जेटली बार चोपडा मारा तपासं तेटलीवार का आपने त्यां मुकी जालं, ते राखो. ते सांजली राजा कहे के कांड नही,जा तपासी घावो. त्यार पनी धनदत्तं पोताने मंदिर जर सर्व चोपडान पानां जोयां, परंतु चोपडामा कांइपण नाम के निशान दीतुं नहि, तेथी राजाने जर कह्यु के चोपडामां तो कांश देखातुं नथी. तेवारें राजा कहे डे के नर वाडनी पेठे कां राजा बेतराय नहिं, अने वणिक तो धूत्तारा होय ते इंद सरिखाने पण उतरे. ते सांजली धनदत्त बोल्यो हे महाराज ढुं व्यवहारमा शुम बु. परने बेतरवामां अने पारकुं धन लेवामां दुं कां जाणतोज नथी, मुग्ध , निरंतर घणो लोनी नथी, माटे हे स्वामिन् ? तेणें करी सर्व वात विचारवा योग्य वे. काने सांजलीनेज साचुं न मानवं, अने प्रगटपणे जे दीतुं होय तेहनी पण प्रतीत करवी नहिं, तेमज प्रगटपणे जे दीवामां आ व्युं होय, तेनो पण युक्तिथी विचार करवो, एवं सांजली वली उपगारमां ही तत्पर एवा व्यवहारिया पण जेगा मलीने राजाने विनंति करता हवा पण राजायें कोर्नु कां पण मान्युं नहिं. कुमंत्रियें राजानुं मन अधिक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. फेरवी नाख्युं. कारण के न्यायमार्गमांहि निपुण एवो राजा तो घणो सा रो वे पण जिहां प्रधान महोटो डुर्जन ने त्यां राजा शुं करे ? जेम घरनो धणी घणो उत्तम होय, पण घरनी स्त्री महा कूहाड होय, त्यारे घरना ध नुं धायुं शुं थाय ? पढी राजायें कह्युं के जेम शुक्लध्यानविना मोह नथी तेम तुजने पण पितानुं कल आप्याविना तृटको नथी. ते सांन ली धनदत्त चिंतातुर थको मित्रसहित जामिन यापी पोताने घेर गयो. शुद्ध चरित्रमांहे मुकुटसमान एवो धनदत्त विविध उपाय चिंतवतो, वृद्ध बुद्धिवंतने पूजनो, सहस्रदेव मूलदेवादिनां श्राख्यान सांजलतो थको जिहांसुधि उपाय कशो जड्यो नथी त्यांसुधि यति दुःसह दुःख धरतो हवो. खाशा सहित प्रति दुःसह दुःख होय तो माणस सहे, पण याशा रहित जे दुःख होय, ते तो महोटा लोकोने पण सेहवं यति दुस्सह थाय बे. वे धनदत्तने पोतानो मित्र कहेवा लाग्यो हे मित्र ! ताहरु धन देवाने ते धूर्त व्यापारीयोयें खोटं खत करी राजाने देखाड्युं वे, एटला मा टें तुं खेद कर मां प्रायः पुष्यथी सर्वथा नाहरो जय थाशे. पूर्वे पण अनुनयं बे, जे धर्मे जय ने पापें य, ते माटे ते पापीनो दय थागे. एवां उत्तम सुकतनी पेरें ते मित्रनां वचन सांजलीने याशा सहित आप दारूप समुइमां पडेलो ते धनदत्त जेम समुइमां पडेलाने प्रवहणनुं पाटि युं मजे तेवारें तेने यानंद प्राप्त थाय. तेम खानंदने प्राप्त थयो. वे एकदा year प्रेो थको ते धनदत्त वनमां स्मशान भूमिका ने विषे गयो. त्यां पूर्वनां पुण्यना उदययी एक वांदरो थाव्यो ने ते वांदराने खरज श्राववाथी स्मशानमां पडेला कुंन संघातें तेणे शरीर घस्युं तेथी ते कुंनमां धनदतें पोताना पिताना यर दीवा, ते वांच्या, तेथी जाएयुं जे ए राजानुं खत तो खोडुं बे, हमणानुं लखेलुं छे. कारण के तेमां तेना पितानां मरणतिथि विगेरे नोंघेलां हतां खने ते खत तो मुवा पठीनी मितिनुं हतुं ते जोइने जेम कोइ नव निधान पामे तेने जेटलो हर्ष उपजे तेटलो हर्ष धनदत्तने उपन्यो हवे हर्षनो जस्यो मित्र सहित राजा पासें जइ, वनवतो हवो के हे राजन! ते खत खोटं नवुं धूर्ते कल्पित करी लखीने आपने दीधुं बे, ए मारा बापनुं लखेलुं नथी. हे राजन् ! मारा पिता मू वा पीना वरसनुं या खत बे. न मानता हो तो मारी साथै स्मशान Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. नए मिमां चालो, ने दाघस्थानकनो घडो नखेडी पोतानी मेले,ते दिवसनो निर्धा र करो. ते सांगलीने ते न्यायवंतोराजा विस्मय पाम्यो थको तेनी साथै स्मशा ननूमियें जश्वरस, मास,तिथि वार वांचीने प्रधान पासेथी पेलु खत मंगावी जूए , त्यारे ते खतमां तफावत पडवाथी खोटुंजाणी घणो कोप्यो थको कहेवा लाग्यो अरे उष्टो ! निर्दयीयो ! घिष्टो ! पापिष्टो ! माहरा राज्यने विषे तमे एवा अन्यायचें कार्य करवाने केम सजा थया बो ? हवे कोइ एवं फरी करे नहिं, ते माटे सर्वेने राजायें मारवानो हुकम कस्यो. ते जो धनदत्त रा जाने पगें लागी विनति करतो हवो के हे राजन ! ते सर्वेने माहारा खातर माहरी उपर उपकार करी मारो नहि. अने अनयदान आपो तो पण राजा यें मान्युं नहिं. बेवट घणो आग्रह करी राजाने मनावीने सर्वेने मूकाव्या, परंतु राजायें सर्व- इव्य लूंटी, दंमिने निर्धन कस्या, ने तेने देशमाथी काढी मूक्या. धनदत्तनी राजायें घणा मानथी, आदर सत्कारथी प्रशंसा करी, ने दाण जगात माफ करी. तेवारें धनदत्तनी सर्व लोक मध्ये सत्यवादीपणानी यश कीर्ति विस्तरती हवी. त्यांथी नृत्सवसंघातें मित्र सहित पोताने मंदिर आव्यो. इहां कवि कहे जे अहो ! अहो ! धर्मनुं फल जूठ ? राजाने प्रासादें पोतानु लेणुं प्रमुख लोकोपासेंथी सुखे समाधे लेइने, धनदत्तें राजापासे स्व देश जवानी रजा मागी, राजायें मित्रनी पेरें तत्कंठा सहित घणे आग्रहें रजा आपी. त्यांथी पोतनपुर नगरने विषे याव्यो. तिहां पोताना स्वजन तथा राजाना अनुचर पुरुप सहित उन्नसित प्रेमें सर्वने मल्यो. अने धन्यपणाने माने करी राज वर्गने पण मल्यो. तिहां पण प्रशंसवा योग्य एवो जे व्यापार तेहनी उत्कृष्टी शुक्षतायें करी ते घणो प्रसिथयो. वली सर्व लोकमांहि पा रकुं धन ले तेहनां लोनने गंमी न्यायमार्गे प्रधान दिने उपार्जिने सर्व ने प्रमाणनूत थयो. ए धनदत्तना पिता, मातुं चरित्र अने ते सुपात्र धनद त्तनु अति आश्चर्यकारि चरित्र सांजव्याथी कयो पुरुष मस्तक न धूणावे ? सर्व तेने नलो जलो कहे. तेज नवनेविपे श्रावकनो धर्मपुत्रनी परें पोपीने धनने उत्तम बीजनी पेरें सात देवें वावरे जेम अनंति संपदा थाय एम त्रीजा व्रतने सम्यक प्रकारे आराधिने देवलोकनां सुख पाम्यो. अनुक्रमें मोद पण जशे. एह पिता पुत्रनुं चारित्र सांगली नो नव्यो ! तमे अदत्तने बां मशो, तो परमपदने पामशो. इति श्रीतृतीयव्रते वसुदत्त धनदत्त कथा स० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. ॥ अथ चतुर्थ ब्रह्मचर्यव्रत प्रारंभः ॥ वयंमि, निचं परदार गमण विरइन ॥ यरिय मप्पसचे, व प्पमाय पसंगेणं ॥ १५ ॥ अर्थः- चोथा अणुव्रतने विषे नित्यें परस्त्री गमनथी विरमवुं तेमां प्रशस्त जावें जे याच होय इत्यादि पूर्ववत् मैथुन वे प्रकारनं वे एक सूक्ष्म ने बीजुं स्थूल तिहां जे कामना उदयथ इंडियनो कांइक अल्प विकार करवो ते सूक्ष्म मैथुन तथा मन वचन अने कायायें करी श्रदारिक ने वैक्रिय शरीरवाली स्त्रीवनी सायें संजोग करवो ते स्थूल मैथुन जावं. अथवा मैथुननी विरति करवी तड़पजे ब्रह्मचर्य तेना वे नेद बे. एक सर्वथी ने बीजो देशथी तिहां जे मन वचन ने कायायेंकरी सया सर्व प्रकारनी स्त्रीसार्थे संजोग करवानो त्याग करवो ते सर्वथी ब्रह्मचर्य जाणवुं यने तेथी इतर ते जे श्रावक सर्वथी ब्रह्मचर्य पालवाने समर्थ होय ते देशकी ब्रह्मचर्य अंगीकार करे तेहज देखाडे बे. चोथा अणुव्रतने विषे नित्यें एटले सदाइ जे पोतानी स्त्रीथी जिन्न ते प स्त्री कहिये ते मनुष्यनी तिर्यचनी यने देवतानी जे स्त्री ते एक परजी ने वीजी संग्रहित एवा ने करी निन्न निन्न जे स्त्री तेमनी साथे गमन यासेवन तेनी विरति इत्यादिक तेमज अपरिग्रहित देवी एटले कोइ देव तानीं परली न होय एवी देवी तेवीज तिर्यंचणी जेने कोइयें राखी पण नथी ते गणिका तुल्य जाणवी कोइकनी कल्पित वेश्या जे या अमुक वेश्या तोय पण ते प्रायें परजातनी परजातने नोग्य माटे ते परदाराज कहि यें तेने वर्द्धवी जेमाटे स्वदारा संतोपीने तो पोतें परोली स्त्रीथी जे जिन्न ते सर्व परस्त्रीज जाणवी इहां दार शब्दना उपलक्षणथकी स्त्रीये पण एक पो ताना परणेला स्वामीथकी बीजा पुरुष सर्व वर्द्धवा एम जाणवुं ॥ १५॥ हवे चोथा व्रतना प्रतिचार पडिक्कमे बे. ॥ परिग्गढ़िया इत्तर, अपंग विवाद तिव पुरागे ॥ चचवयस्स या रे, पडिक्कमे देसियं सवं ॥ १६ ॥ १०० ॥ च ॥ ॥ अर्थः- १ अपरिग्रहिता गमन, २ इत्वर, ३ अनंगक्रीडा, ४ परविवा ह करण, ५ तीव्रानुराग धरवो ए चोथा व्रतना अतिचार दिवसना पडिक्कमुं बुं ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २०१ १ aिsi प्रथम परिग्रहिता ते विधवास्त्री तथा कुमारिका कन्या या दि दइने जे स्त्री ने तेने जाणे जे एतो परस्त्री नथी एवी बुद्धियें करी तेनी साथे गमन करे ते परिग्रहितागमन प्रतिचार कहियें. २ बीजो इत्वर ते अल्पकाललगें नाडु दइने कोइ एकें पोताने वश्य करी एवीजे गणिका तेने जाणेजे एतो साधारण स्त्री ने एने माथे कोs स्वामी नयी एवी बुद्धियेंकरी तेनी सार्थे गमन करे ते बीजो इत्वरपरिय हितागमन यतिचार जाणवो. ३ त्री जो अनंग जे काम कंदर्प ते संबंधि जे क्रीडा अधर चुंबन, कुचम र्दन चुंबन तथा श्रालिंगनादिक परस्त्रीने विषे करता एवा श्रावकने अनंग क्रीडा प्रतिचार लागे कारणके श्रावकने परस्त्रीना अंग विकार सहित जो वाकल्पे नहीं कह्युं बेके ॥ यतः ॥ उन्नंग सोफा, सग्गो मुत्त गहणं कुसुमि || जयास कार, इंदिय अवलोय तह ॥ १ ॥ इत्या पंचाशक वृत्त्याद्युक्ता ॥ नावार्थ:- स्त्रीनां ढाकेलां अंग प्रत्यें रागनी बु द्वियें दृष्टि थापीने जोवां नही एने सुग उपजवानां कारण जेवां समजवां तथा स्त्रीने दीठे के स्पर्श करे थके कोइपण प्रकारें राग न करवो ॥ यतः॥ सुशक्यं रूपमुद्दष्टुश्चकुर्गोचरमागतं ॥ रागद्वेषौ तु यौतत्र, तौ बुधः परिवर्ज येत् ॥ १ ॥ नावार्थ:- दृष्टिगोचर श्राव्यं जे रूप ते देखवाने समर्थ ने दृष्टिये पदार्थ जोवामां थावे पण पंमित तेमां रागछेप नकरतां दुरथी तजी देवे ? तथा जो गोमुत्र जेवुं पडे तोपण योनि मर्दन करीने न जेवुं कदाचि तू घणुंज करूं श्रवश्यकार्य पडे तो योनि मसली मूत्रावीने लेवं पण aai पियानिलापा राग न करवो थने स्वप्नमांहे स्त्री सेवन थइ जाय तो तेनी जया राखे कदाचित् एवं कुस्वप्न यावे तेवारे श्रावक एवी ना वना जावे ते कहे बे ॥ यतः॥ सहनं कामा विसं कामा, कामा यासि विसोव मा ॥ कामे पमाणा, थकामार्जति डुग्गई ॥ १ ॥ खियमित्तसुरका बहु काल डरका, पगाम डुरका निकाम सुरका | संसार मुरकस्स विपरक नू या, खाणी अणबाणन कामनोगा ॥ २ ॥ नावार्थ :- कामते महोढुं राज्य a. काम ते महाविष बे. कामते नाग सरखो बे. कामनी घणी प्रार्थना करतां दुर्गतियें जाय ॥ १ ॥ दलमात्र सुख वे ने घणोकाल दुःख ले, निष्कारण सुखकरी जाणे बे, कामते संसारमांहे मोह पामवामां शत्रुनूत बे, वली Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. कामनोग जे जे ते अनर्थनी खाण जे ॥२॥ इत्यादिक वैराग्र नावना ना वीने मुखथी नवकारगणी पड़ी शयन करवू तो कुस्वप्न दोय ते सुस्वप्न था य कुस्वप्ननो लान नथाय एम करतां बतां पण जो कोश् मोहना नदयथी स्त्री सेवनादिक कुस्वप्न साधे तो तरत उठी इरियाव हिया पडिक्कमीने एक सोने आठ श्वासोडासनो कानसग्ग करवो. तथा स्त्रीनां इंडियोनुं अवलोकन अने स्त्रीनी साथें बोल पडे तिहां सर्वत्र दृष्टि निवर्त्तनरूप यत्न करवो. यदाद ॥ जेमके कह्यु डे गुजोरूवयण करको, रवंतरे तहथणंतरे दिकं ॥ सादर ननदिहि, नयबंधइ दिहिएदिति ॥१॥ नावार्थः- कामगर्नित वचन जांखवां तथा कारखना अंतर, जं घाना अंतर,तथा स्तनना अंतरमाहे जोड्ने तिहाथी दृष्टि संहरीलेवी अने स्त्रीनी साथें दृष्टियें दृष्टि बांधवी नही. एमज परस्त्री आश्रयी गृहस्थने ब्रह्मचर्यनी नवगुप्ति पालवानो उद्यम करवो तेनां नाम कहे :- १ स्त्रीनी वस्तिमाहे न रहेवं. स्त्रीनी कथा न करवी, ३ स्त्रीने आसने न वेस, ४ स्त्रीनी इंडियो न जोवी, ५ जीत ने अंतरे न रहेg, ६ पूर्वे करेली कामक्रीडा न संभारवी, ७ घाj स्निग्ध जोजन न करवु, ७ घणुं चांपी पेट नर। जमवू नही ए शरीरनी विनूपा न करवी. ए नव वाड जाणवी या ज्योतिषने विषे वात्स्यायन शास्त्रने विपे क ह्यां ने कामनां चोरासी आसन तेनु सेवन करे अतृप्त थइ नपुंसकादिकनुं सेवन करे, हस्तकर्म करे तथा काष्ट, पाटीयुं स्त्रीना रूपनुं माटी, तथा चर्मादिकनुं घडयुं इत्यादिक जे कामनां उपकरण तेणेकरी जे कंदर्पनी क्रीडा करवी ते त्रीजो अनंगक्रीडा अतिचार जाणवो. ४ चोथो विवाह ते पारका पुत्र पुत्रिकादिकने कन्यादान फलनी लाल चें अथवा स्नेहादिकें करीने विवाह करवू तेने पर विवाह करण अतिचा र कहियें. इहां स्वदारा संतोषी सुश्रावकें पोतानी स्त्री थके परदारा वर्ज नादिकें पोतानी स्त्री तथा गणिकाथकी अन्यस्थानके मन वचन कायायें करीने मैथुन न करवू, न करावq एवीरीतें जेवारें व्रत अंगीकार कस्यो होय तेवारें अन्यना विवाह करवानेविषे तत्त्वथकी जो जोश्ये तो मैथुनज करा व्युं होय ए नांगो ते श्रावके लीयो अने ते एम कहे के ए विवाह में कस्यो करूं पण मैथुन करतो नथी एवी नावनायें तो व्रत रहे जे परंतु नंग थ पा. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. . १९३ तो नथो एम नंग तथा अनंग रूप अतिचार जाणवो. तेमाटे सुश्रावकें तो पोताना पुत्रादिकना विवाहकार्यविषे पण जो बीजो कोई चिंतानो करनारो होय तो तेमनो विवाह करवानो पण पोतें नियमज करवो नला श्रावकने ए वात उचितले. जेम कृष्ण वासुदेव तथा चेडामहाराजाने बीजो कोश विवाह नी चिंतानो करनार न हतो,तेमजो होयतो तेवारें तेनो निर्वाह करवा माटे वि वाहनी संख्यानो नियम राखवो, जे महारे वर्ष प्रत्ये अथवा जन्म पर्यंत पांच किंवा पचाशनी संख्या जेटला पारका कुटुंब संबंधि अथवा महारा पोताना कुंटुंब संबंधि विवाह जोडवा, एवी संख्या राखीने पञ्चरकाण करे ए वात युक्त ने अथवा स्वस्त्री संतोषना अनाव थकी वारंवार पारका विवाह अने पोताना विवाह करे. स्वदारा संतोषीने ए अतिचार जाणवो ॥ ४ ॥ पांचमो तीव्रानुराग ते काम एटले शब्द अने रूप तथा जोग एटले गंध,रस अने स्पर्श एम काम अने जोगनेविषे अत्यंत आकरो अनुराग धरे ए कामनोगनेविपे तीव्रानिलाषनो अध्यवसाय पामीने आत्माने कृतार्थप गुं मानतो अतृप्त थको जाणे क्यारे ए मल्योज नथी एम मानतो थको स्त्री, मुख जूवे तथा कादा गुह्यादिक स्तनादिकनु चिरकाल पर्यंत वारंवार सेवन करे. केशपाश ताणे, प्रहार दीये, दांत नख तथा तादिकें करी कामने नद्दीपन करे तथा जेथकी कामनी वृद्धि थाय एवां औषधादिक सेवे. जेमाटे पापनीरु एवो जे व्रतधारी श्रावक ते पापथी बीतो रहेतो हो य तो पण वेदनो उदय तेनाथी सहन न थ शके तेथी स्वदार संतोपा दि व्रत अंगीकार करे तेटला मैथुनमात्र पणे करी वेदनी उपशांति करे प रंतु पोतानी स्त्रीनेविपे पण अधिक कामनो विस्तार करे नहीं पोतानी स्त्रीनेविषे पण अनंगक्रीडादिक तीव्रानुरागादिकनो सर्वथा परिहार करे कारण के अनंगक्रीडादिक करवाथी कांइ गुण थातो नथी पण उलटा व लक्ष्यादिक अनेक अनर्थ उपजे ॥ यतः ॥ कंपः स्वेदः श्रमोमूळ, चमि ग्लो निर्बलक्ष्यः ॥ राजयक्ष्मादयश्चापि, कामाद्यासक्तिजारुजाः॥ जावार्थःकंपवायु थाय, प्रस्वेद थाय, श्रम उपजे, मूळ आवे, चमित थाय, शरीरें ग्लानि थाय, बलहीन थाय तथा क्षयरोग विगेरे एवा रोग कामनी अति आसक्तिथी उपजे ए पांचमो तीव्रानुराग अतिचार जाणवो. शहां परस्त्रीना त्यागीने तो ए पांचेय अतिचार होय अने जे स्वदारा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ०४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. संतोषी होय तेने बेला त्रण अतिचार होय ने श्रागता पहेला बे नेद ते अतिचार पणे रहे नही. प्रथमना वे प्रतिचारें करीने तो तेनो व्रतजंग ज थाय तेथी ते प्रतिचारमां गणाय नहीं. एम स्त्रीने पण जे स्त्रीयें परपु रुपनो त्याग कस्यो ने ते स्त्रीने पांचेय प्रतिचार जाणवा ने जे स्त्रीने स्व पुरुषनो संतोष ने ते स्त्रीने बेला त्रण प्रतिचार होय ने प्रथमना वे अ तिचारथी तो ना तनो नंग याय माटे त्रणज प्रतिचार कहेवाय यथ वा पांच विचार पण लागे ते कही देखाडे ले. + तिहां नापयोगपणे परपुरुष ब्रह्मचारीनी अथवा पोताना स्वामी चानी सार्थे गमन करे तो तेने पहेलो यतिचार लागे ने जेवारें पोता ना स्वामीना वारानो दिवस सोक्यो प्रमुखें लीधो होय तेवारें सोक्यनो वारो लोपीने पोतें पोताना स्वामीने जोगवे तेने बीजो अतिचार लागे त या त्रण अतिचार तो बेला लागेज ने एम पांचय यतिचार पणे कहेवाय ॥ उक्तंच ॥ परदारा वकिलो पंच, दुतितिन्निन सदार संतुहे ॥ इत्रिति ति नि पंचव, जंग विगप्पेहि नायवा ॥ १ ॥ जावार्थ:- परदारा वर्जनारने पांच अतिचार होय ने स्वदारासंतोपीने त्रण प्रतिचार होय एमज स्त्रीने पण त्रण ने पांच नांगाना विकल्प जालवा ॥ १ ॥ जेम पोतें जाडुं दइने स्वल्पकाल सुधी अंगीकार करेली जे गणिका तेनेविषे पोतानी स्त्रीनी बुद्धि यें गमन करे ते इत्वर परियहितागमन प्रतिचार कहियें, तेम स्वदारासं तोषीने पण ए बीजो अतिचार लागे ने नानोगें अतिक्रमादिकें करी प्रथम प्रतिचार पण याय एम स्वदारासंतोपीने पांचे प्रतिचार संनवे सि पण के स्वदारा संतोषीने पांच प्रतिचार जाणवा पण याचरवा नहीं. इति एनेविषे जे पाप बांधयुं होय ते खालोनं बुं इत्यादि क अर्थ सर्व पूर्वनी पेठें जावो. शक्ति त गांगेयादिकनी पेठें बाल्यपणाथीज विशुद्ध श्रावकें शील पालवानेविषे यत्न करवो जेनां मोटां फल के विशेषेकरी गृहस्थने इःखें पालवा योग्य बे. कह्युं बे के | जो देई कायकोडिं, हवा कारे कणय जिणनवणं ॥ तस्स एा तत्तिय पुष्पं, जत्ति बंजवए धरए ॥ १ ॥ देव दाराव गंधवा, जरक ररकस किन्नरा ॥ बनयारिं नमसंति, डुक्करं जं करंतितं ॥ २ ॥ श्रालाई सरियंवा, इही रऊं च काम जोगाय ॥ कित्तियबलंच सग्गो, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. एप आसन्नासिविंनाउ ॥३॥ कलिकारवि जणमा, रवि सावज जोग वि रवि ॥ जं नारनवि सिधई, तं खलु सीलस्स माहप्पं ॥ ४ ॥ नावार्थःजे नित्यप्रत्ये सुवर्णनी कोडी दान दीये अथवा सुवर्णमय जिनप्रासाद क रावे तेने तेटलुं पुण्य न होय, जेटलुं ब्रह्मचर्यव्रत धरनारने पुण्य होय माटे ब्रह्मचर्यव्रत धारकने तेथी पण अधिक पुण्य ३ ॥ १ ॥ देवता, दानव, गां धर्व, यद,राक्षस, किन्नर,ए सर्व ब्रह्मचारी पुरुषने नमस्कार करे ने माटे जे शील पाले ले तेने पण शील पुष्कर वे ॥२॥ ए ब्रह्मचर्यव्रत पालवा थकी अखंम आझा, ईश्वरपणुं, घणी ऋति, राज्य, कामनोग, कीर्ति, बल, स त्संग एटलां वानां तो सहेज मले अने मोद पण समीपज प्राप्त थाय ॥३॥ क्वेशनो करनारो, लोकने हणनारो पण सावद्ययोगथी विरम्यो एवो जे नारद ते पण मोदें गयो, ते निचे शीलनो महिमा जाणवो॥॥ ए शीलनो महिमा अन्यदर्शनीना शास्त्रोमां पण कह्यो २ ॥ श्लोक ॥ एकरात्र्युषितस्यापि, यागतिब्रह्मचारिणः॥न सा ऋतुसहस्रेण, वक्तुं शक्या यु धिष्ठिर ॥१॥ एकतश्चतुरोवेदा,ब्रह्मचर्य तु एकतः ॥ एकतः सर्वपापानि,मद्य मांसं तु चैकतः ॥२॥ यजुर्वेदेपि मोइरुचि प्रोक्तं ॥ सत्येन तपसा ब्रह्मचर्ये ए वैषति ॥ नावार्थः-हे युधिष्ठिर ! एक रात्रि पण ब्रह्मचर्यव्रतमा रहेना रने जे गति मले ले ते गति हजारो यशो करवाथी मले एम कही शकातुं नथी. एक बाजु चारेय वेद,एक तरफ ब्रह्मचर्य, अने एक तरफ सर्वे पाप, तथा एकतरफ मद्यमांस विगेरेथी थयेलां पाप जूदा मुकीयें, नावार्थ एके, ए सर्व पुण्य पण ब्रह्मचर्यव्रत पालनारनां पुण्य करतां चडतां नथी. तथा पाप पण ब्रह्मचर्यवानने स्पर्श करतां नथी. यजुर्वेदनी मोदश्चीमां कडं जे जे सत्यथी, तपथी अने ब्रह्मचर्यथी या मोद प्राप्त थायजे. वली हमणां पण दिव्यादिकनेविपे तथा धीज करवाने विषे विशुम शील नो महिमा देखीयें यें. माटे या बाल अवस्था थकी जो ब्रह्मचर्यव्रत धा रण करवानी शक्ति न होय तो सुदर्शन शेनी पेरें पोतानी स्त्रीनेविषे संतो प करवो, एवो पण जे शीलवंत गृहस्थ होय ते पण ब्रह्मचारी बरोबर जा एवो. कदापि स्वदारा संतोषीपणामां पण असमर्थ होय एटले तेवी पण शक्ति न होय तो पण परस्त्रीनू वर्जन तो अवश्य करवुज. ॥ यतः॥ वह बंधणनबंधणे, नासिंदि य य धण खयाश्य ॥ परदा Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. राउ बहूहा, कयणा शह नवेवि ॥ १॥ परलोए संबलितिरक, कंटगालि गगाई बहुरूवं ॥ नरयंमि ऽहं उस्सहं, परदाररया लहंति नरा ॥२॥ विनि दियानपुंसा, कुरूव दोहग्गिणो नगंदरिणो ॥ रंमकुरंमाविंजा, निंऽध विस कन्न ढुंति इस्तीला ॥३॥ तथा ॥ नरकणे देवदहस्स, परिनि गमणेणय ॥ सत्तमं नरयं जंति,सत्तवारा गोयमा ॥ ४ ॥ नावार्थः-वधबंधादिक पामे, चंचा बंधाय, नासिकानुं बेदन थाय, धननो क्ष्य थाय,एरीतें परदारा गम नथकी या लोकनेविषे पण घणी कदर्थना पामे ॥ १ ॥ अने परलोकने विपे जे संबल मले ते कहे जे. परलोकने विपे संबलना तीखा कंटकनुं आ लिंगन करावq इत्यादिक अनेकरूपें नरकनेविपे घणुं दुःस्सह फुःख ते परदारागमन करनारा पुरुष पामे वे ॥ २ ॥ इंडियबेद बिनश्यिपणुं, नपुंस कपणुं, कुरूपपणुं, उ गीपणुं, नगंदर,नोगतरंम, रंमापj, कुत्सितविंध्या, एकज बालक प्रसवे एवी निंद्य स्त्रीपणुं, विषकन्यापणुं,ए सघलां वानां पूर्व जन्मांतरें कुशील सेव्यां होय तेथी थाय ॥ ३ ॥ तेम जे पुरुप देवश्व्यनुं नक्षण करे, परस्त्री गमन करे. हे गौतम! ते पुरुष सात वार सातमा नर कने विपे जाय ॥ ४ ॥ अन्यदर्शनी पण कहे जेः-श्लोक ॥ तस्माचार्थि निस्त्याज्यं, परदारोपसेवनं ॥ नयंति परदारास्तु, नरकानेकविंशतिः ॥ १॥ नावार्थः-परदारानुं सेवन जे जे ते एकवीश वार नरके पमाडे माटे धर्मा र्थी पुरुचे परस्त्रीनुं सेवन बांझg ॥ १ ॥ वली जू के परस्त्रीनी मात्र अनिलाषा करवाथकीज रावण बने गई निनादिक था जब अने परजव एम वेदु नवनेविषे महोटा अनर्थ ने पा म्या तो जे सादात् परस्त्रीने जोगवे ते अनर्थ पामे तेमां तो कहेवूज गुं? एटलामाटे उत्तम जीवें परस्त्रीनो त्याग करवो, स्वदारा संतोषीयें तो साधा रण स्त्रीजे गणिका के तेने पण त्यागवी. ते गणिका केहवी ने तो के लो जनेवशे मद्यमांसमाहे रक्त डे तथा लोननेवरों करी कुष्टी पुरुषोने पण के दप्पावतार करी जोगवे एवी ने तथा निःस्नेही, निर्लङ, निंदवा योग्य अने वींटपुरुषे वींटीथकी एवी गणिका, तेने वर्जवी. ___ तथा जो नित्य शील पालवाने असमर्थ होय तो पर्वतिथिनेविषे तथा श्रीतीर्थकरना कल्याणिकादिकनेविषे तथा अधाश्ना दिवसोनेविषे तो अ वश्य शील पालवू तेमज दिवसनेविषे तो सर्वदा शील पालवं अने रा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १७ त्रिनेविषे पण एकवार अथवा बे वारनी संख्या राखवी. वली लौकिक शास्त्रमांहे पण मनुस्मृतिने विषे पर्वदिवसें ब्रह्मचर्यनो निषेध करेल ने ॥ यतः ॥ श्रमावास्या श्रष्टमीच, पूर्णमासी चतुर्दशी ॥ ब्रह्मचारी नवेन्नि त्य, मतौ स्नातको हिजः ॥ १ ॥ विष्णुपुराणेपि ॥ चतुर्दश्यष्टमीचेव, मावास्याच पूर्णिमा || पर्वास्येतानि राजेंड़, रविसंक्रांतिरेवच ॥ १ ॥ तैल स्त्री मांस संजोगं, पर्वस्वेतेषु वै पुमान् ॥ विएमूत्रनोजनं नाम, प्रयाति नरकं मृतः ॥ २ ॥ नावार्थः - श्रमावास्या, ग्राम, पूर्णमासी, चतुर्दशी एटले दि बसें नित्य ब्रह्मचारीपणुं राखे, ते स्नातक द्विज जाणवो ॥ १ ॥ तथा विष्णुपुराणने विषे पण कयुं ले के हे राजें ! चतुर्दशी, अष्टमी, श्रमावा स्याने पूर्णिमा पर्व जालवा तथा संक्रांति बेसे ते दिवस पण पर्व जाणवो तेनेविषे तेल, स्त्री, मांस, संजोग एटलांवानां पुरुषने विष्टा श्र ने मूत्रना जोजन करा जेवां जाएगवां ते पुरुष मरीने नरकें जाय ॥ २ ॥ ए वली अवसरें पोतानी स्त्रीने विषे पण शील अंगीकार करवुं जेमाटे पु रूप लेते जोगने नथी गंमतो पण जोगतो पुरुषने बांदे बे एवं जाली ने जोगनो त्याग करवो. जेम फलरहित वृक्षने पंखी तजे बे तेम काम जोगने पण पोतानी मेजेज बांधाथका नजा जाएवा. जेमाटे नर्तृहरि पण कहे ने के, विषय जे बे ते घणाकालपर्यंत जोपण जीवनी साधें जेला रहीने पण अवश्य जता रहेशे. सहेजे विषयनो वियोग थाय तेवारें कोइ जन बांदे पण ते विषय तो अवसर यावे तेवारें पोतानी मेलेंज ते जननें माटे पी स्वाधीनपणें जाता थकां ते जनने अतुल्य ताप थाय तेथी पोतानी मेसेज बांवा थकी अनंत समतारूप सुखने निपजावे ॥ १ ॥ हवे वली मैथुनथी यता दोषने दर्शावे बे. मैथुन संज्ञायें यारूढ यये ला पुरुषने सूक्ष्म नव लाख जीवोनी हिंसा थाय इत्यादि वार्त्ता स्वसिद्धां तने विषे प्रसिद्ध छे तेमज परदर्शनीना शास्त्र नागवत पुराणनेविषे पण ॥ यतः ॥ यास्ता मित्रांधतामिस्रा, रौरवाद्यास्तुयातनाः ॥ चुक्तेनरोवा ना रीवा, मिथः संगेन निर्मिताः ॥ १ ॥ नावार्थः - नर अथवा नारी तामिस्र, श्रं धतामित्र ने रौरवयादि नरकनी पीडाने मैथुन करवायी जोगवे ठे. तथा महाभारतना यादिवर्वने विषे कयुं बे के श्लोक || जरत्कालकपिर्वा लए वातपाः संतानदक्ष्यात्पितृन्नारकेऽधोमुखान पितृन दृष्ट्वाः खितः पितृव Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. चनाहार परिग्रहं प्रतिश्रुत्य वासुकिस्खसारंनाग कन्यापरिणी तवान् । श्राप नसत्वांचतां निरपराधामपिविरहवाहिलपंतीमपिच । पुनस्तपसेतत्याज क वयोपियतिकल्पतया अल्पबंधकएवेति ॥१॥ नावार्थः-जरत्कारपि बालक अवस्थाथीज तपधारी हतो तेथी तेने तेना संतानना अनाव यी पितृ नरकमां नीचेमुखें पड्या दता, तेउन जोइ पोते पुःखी थयो तथा ते पितृनना वचन थीदार परिग्रह करवो एवी अाझा सांजलीने वासुकीनी वेहिन नागकन्याने पोते परण्यो ते ज्यारे गर्जिगी थत्यारे ते निरपराधी अने विरहना मुख थी विलाप करती एवी ते नागकन्यानो त्याग करीने पोते वनमा गयो. वली उपनिषदमां का डे के जे दिवसे वैराग्य थाय ते दिवसेज प्रव्रज्या लेवी. घरमांधी अथवा वनमाथी निकलीज संन्यास न करवाथी ब्रह्मना स्थानमां जाय ॥१॥ एरीत श्रावक पण यति मुनिने तुल्य होवाश्री अल्प प्रतिबंध वालो ने. ए सोलमी गाथानो अर्थ थयो ॥१६॥ हवे चोथा अणुव्रत उपर दृष्टांत रूपें शीलवतीनी कथा कहिये य. घणी शहियें करीनरेलुं नंदनवन सर नंदनपुर नामें एकनगर ने तेमां जेवू नाम तेवांज गुणवालो अरिमर्दन नामें राजा राज्य करे . ते नगर मां बधा व्यवहारिमां मुख्य, अने जेने जडपणानो शपण नथी, एवो र नागर, नामें शेत वसे जे. ते शेठने सोनाग्य लक्ष्यीयें करी सादात लक्ष्मीज जागियें होय नहिं ? एवी श्री नामें स्त्रीले. ते स्त्री नागरवेलनी पेरें जले गुणें करी जगतने मानवा योग्य ने. परंतु तेने पेटे पुत्र नथी तेथी ते पोतें पोताना जन्मने निष्फल माने जे. तेम शेठ पोते पण श्रीजिन धर्मनो जाण बे,तथा घरमा झदिनो पारनयी एवो ने तोपण पूत्रना अनावथी घणी संप त्तिथी जरेला एवा पोतानां घरने शून्य अरण्य सरखं माने जे. कह्यु के ॥ यत्र न स्वजन संगति रुन्चै, यत्र संति न लबू निशि शूनि ॥ यत्र नैव गुण गौरवचिंता, हंततान्यपि गृहाण्य गृहाणि ॥ १॥ नावार्थः- ज्यां अत्यं त पोताना स्वजननी संगति नथी, जेहना घरने विपे नाहनां नाहनां बा लको नथी, जेहना घरने विपे गुणनी मोटाइनी कालजी अने आदरनी चिंता नथी,दंत इति खेदें तेहना घरने घर न कहीये. हवे आ प्रमाणे पुत्र रहित घर होवाथी ते शेठनी स्त्री कह्यु के गमे तेम करी आपणे घेर पुत्र Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. थाय तेवो उपाय करवो जोये, एवो पोतानी स्त्रीनो अत्यंत हठवाद देखी ते रत्नागर शेठ स्त्रीयें प्रेो थको एकदा ते नगरना उद्याननेविषे अजित नाथ भगवानना प्रासादनें बारणें गयो. तिहां अजितबला एवे नामें एक देवीनं स्थानक बे, ते देवीनो प्रभाव पण घणो बे, एवी प्राजाविक देवी जाणीने देवीनी पासें पुत्रनी प्राप्ति सारु शेठ, विधियुक्त उपवासो करवा लाग्यो. कवि क के प्रत्यंत क्रिया याय तो ते काळें करी फलदायक थाय बे. अने जो शुनकर्मनो उदय यावे तो ते तत्काल फले. हवे देवीनी नक्ति करवायी शेवनी स्त्रीने कल्पवृक्ष सरखा पुत्रनो जन्म थयो. शेतें दश दिवसपर्यंत पू ना जन्मनो महोटो उत्सव कस्यो, बारमें दिवसें देवीये ते पुत्र याप्यो तेथी पुत्रनुं नाम सर्व कुटुंवें मली देवीना नाम उपरथी अजितसेन एवं नाम पाड्युं. अनुक्रमे ते अजितसेन पुत्र, महोटो यतो गयो ने प्रयासविना सर्व कला शिख्यो. कविकले के ते सर्व कलानुं जे जाणवुं, ते तेने युक्तज बे, त्यां कवि उत्प्रेक्षा करे वे के जे रत्नाकरनो पुत्र होय तेतो सकलकलायें युक्तज होय ? माटे जेनो बाप रत्नाकर नामक बे, तेथी तेनो पुत्र पण सर्व गुण संपन्न यो . हवे ते बालकने युवावस्था प्राप्त यइ जाणीने रत्नाकर शेठ वि चार करवा लाग्यो जे हवे या महारा पुत्रने योग्यज कन्या जोइयें. माटे शोध करवो, जेम कविश्वर नवा नवा प्रयोनो विचार करे, तेम ते शेठ कन्या नी खोल करवा लाग्यो ने मनमां विचार करवा लाग्यो जे या मारा पुत्रना जेवी गुणवाली, स्वरूपवाली एवी कन्या कइ ने किहां मलशे ? जो या पुत्र समान कन्यानो योग क्यांही पण नहि याय तो या लोकमां विधातानो सघलो उपक्रम, उद्यम, ते निष्फल था. कल्युं वे के :- सामी विसेसन्नु, अ विलीन परि णो परवसत्तं ॥ नकाय पुरुवा, चत्तारि मस्स सलाइ ॥ १ ॥ नावार्थः - स्वामी जे होय ते गुणनो जाए न होय, पोतानो परिवार विनीत होय, पराधीनपणुं होय, स्त्री होय ते पोताना समान स्वरूपवंत न होय, ए चार वानां मनुष्यने महोटा शव्यसमान बे ॥ १ ॥ एवो विचार रे, त्यां एक कनो पुत्र आव्यो, तेणे रत्नाकर शेठने प्रणाम कस्यो. त्यारे शेठें कुशलादिक पूठ्यां यने कयुं के तारो व्यापार केवोक चाव्यो ? वारे तेणें कयुंके हे शेठजी ? तमारी आज्ञा लइने हुं देशांतरें गयो, त्यां फरतो फरतो जिहां निरंतर मंगलज व बे एवी कयंगला नामें नग Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. रीने विषे ढुं गयो. त्यां जइ मे जिनदत्त नामें कोई एक व्यवहारियो हतो तेनी साथे घणो व्यापार करचो. तेथी तेनी साधें मारे अत्यंत प्रीति थइ. ए कदा ते जिनदतें जोजनने खर्थे मुजने निमंत्रणा करी त्यारें हुं पण तेने घर जमवा गयो. त्यां त्रण जुवननो सार जाऐ विधातायें एकठो को होय नहि ? नेत्र वनमां रूप तथा गुणोयें करीने प्रति अद्भुत कन्या एना जेवी बीजी को नहिज होय, एवी मनोहर कन्या में दीवी. तेने देखीने में जिनदन शेठने पृयं के या पुत्री कोनी वे ? त्यारे तेणें कयुं के ए अतुल गुणवाली माहरी पुत्री ने अने तेने लायक वर शोधी परणाववानी मने चिंता रहे बे, ते दुःखे करी हुं दुःखी बुं. कारण के पुत्रीना बापने घणीज चिंता रहे वे. तेमां एम न जाणवुं जे ए कन्याने योग्य वर सायें पाणिग्रहणनीज चिंता बे ? परंतु तेमां प्रथम वरनी, पढी प्रीतिनी, पढी सासरियानी, पढी स्वज ननी, पढी शोक्यनी, पढी शील पालवानी, पढी गुण अवगुणनी, पढी स्वामिना सुखनी, पठी संताननी, इत्यादिक चिंतायें करी दीकरीनो पिता सदाय दुःखियोज जाणवो. वली ए कुमरी विशेष थकी समग्र गुण पामी ठे, जेहनुं मुख सुंदर बे, नामें पण शीलवती विख्यात ले, ते परि या पण शीलवती वे, तथा सौभाग्यने रहेवानुं तो ए स्थानकज ले. चो शत कलानी जाए ले, वली तेमां पण शकुनशास्त्रने विषे तो तं धणीज काही ने, के जेम कागडो, घुड, मोर, डुग्गी, कपि, तित्तर, नैरव, शीयाल, इत्यादिक जानवरनी नापा जाणे बे. शकुनशास्त्रमां क ले केः - विविध मिहनवति शकुनं, देत्रिकमागंतु यात्रिकं चान्यत् ॥ देत्रे स्थाने वर्त्मनि, शकुन विभागाच्च शुनमशुनं ॥ १ ॥ नावार्थः - शकुन त्रण प्रकारे होय. क्षैत्रिक, बीजुं यात्रिक, त्रीजुं यागंतुक. हवे पेहेलुं क्षेत्रने विपे, बीजुं स्थानकने विषे, त्रीजुं मार्गने विषे, ए शकुनना त्रण नाग बे, तेमां गुना शुभ शकुननो विचार करवो हवे प्रथम क्षेत्रिकशकुन ते क्षेत्रने विषे जे श कुन एटले तोरण थाय तार बांधे तेमां पृबकने निश्रयफलना कालनुं कहेतुं. तथा क्षेत्रने विषेक्यांक वृक्ष उपर कोइ पण शास्त्रमां कहेला पक्षी वगेरेने बैठा देखी तेनुं फल कहेतुं ते दैत्रिक शकुन कहीयें. बीजुं यागंतुक शकुन ते जे कस्मात् गम ाम दिशाने विजागें शकुन याय एटले जे दिशें शकुन याय तेनो विचार करवो, के या दिशायें थावां शकुन थयां, तथा शांतता एक Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २०१ अने दीप्तता इत्यादिक ने करी विस्तारपणे प्रगट फल कहे, ते श्रागंतुक शकुन कहीये. त्रीजें यात्रिक शकुन ते माबी जमणी, सन्मुख, अने पूवें, एटली दिशायें मार्गमां चालतां जो, के गामनां, वस्तीनां, अने वननां जे जीवो ने ते संबंधि धावां शकुन थयां, तेमां वली स्वर, अने चेष्टाना नाव जोवा, तेहलुं नाम यात्रिक शकुन कहियें. एवा शकुननी पूर्ण जाणनारी दे. ___ एम सर्व कलामां निपुण एवी ए पुत्री अपरिमित गुणे करी सहित जे. तेमाटे तेने योग्य वर साथें वराववानी चिंता मने हृदयमां अत्यंत वे. एह, ते जिनदत्तनुं वचन सांजली ने में कह्यु के हे बुदिनिधान ! तुं वरनी चिंता म कर. जेणे एने उत्पन्न करी ,तेणेज निचे तेना सारु वर पण उत्पन्न कस्यो हशे. कडुं केः-तत्तिन्नो विहि राया, जाण दूरेवि जोजहिं वस३ ॥ जंज स्स होइ जुग्गं,तं तस्स विजयं दे ॥१॥ नावार्थः-जे ज्यां वसतां होय, तथा जेहने जे योग्य होय तेने तेज धारीने जो तेनाथी राजा तथा विधाता वेगला होय तो पण आपे जे ॥१॥ ते माटे हे शेठ ? ढुकढुं ते तुं सांजल. नंदनपुर नगरने विपे रत्नाकर शेनो पुत्र घणा गुणनी नूमिकानो धणी अजितसेन नामे अमितकांतिवंत जे. चंजेम रोहिणीने वरवा योग्य ,तेम तेतारी कुमरीने वरवा योग्य ले. ते सांनली जिनदत्त शेठ प्रमुदित चित्त थ को केहेतो हवो के वाह ! रत्नाकर शेठना पुत्रनो संबंध ते केने वनन न होय? माटे एमज था. ा शुजकार्यमां पंमित पण विलंब न करे, एम कही पोतानी पुत्रीने आपणा अजितसेनने देवा माटे तेणे तेना जिनशे खर नामें पुत्रने मारी नेलो मोकव्यो , ते जिनशेखर मारी साथें इहां आव्यो , माटे जेम आप आझा करो, तेम अमें करीये. ते सांजली शेठ हृदयमा अति हर्षित थइने कहेतो हवो के बहु सारं काम कडे? एम कही जिनशेखरने घणा मानथी पोताने मंदिरे तेड्यो. पली ते पवित्र मनवालो जिनदत्त शेतनो पुत्र जिनशेखर पण पोतानी बेन- घणा आदरपूर्वक शेतना पुत्रनी साथें वेशवाल करतो हवो. हवे अ जितसेन पण सारां जन जोइ जिनशेखर साथेंज जान सजीने घणा महो त्सवें त्यां जश्ने शीलवतीनुं पाणिग्रहण करी महोटी शदि सहित पोताने घेर आव्यो. ते शीलवती वहुमां घरना सर्व कारनार नपाडवानुं समर्थ पणुं जे एम जाणी रत्नाकर शेत, घरनो सर्व कारनार तेने सोंपतो हवो. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. तेमज एवी स्त्रीथी अजितसेन पण जेम पूर्ण मासीनी कांतियें करीने चं श्मा शोने तेम अत्यंत शोलतो हवो. एक दिवसें ते शीलवती स्त्री, रात्रिने विषे सुखशय्यामां सूती थकी शी यालीयानो शब्द सांजली विचार करवा लागी के निश्चं ए शियालीयुं एमकहे ले जे, या नदीनो प्रवाह वह्यो आवे , तेमां मनुष्यनुं शब तणातुं आवे , तेहनी केडने विषे पांच कोडीनां पांच रत्न , वली ते शब नदीमां या राने नजीक ठे, माटे जेहने रत्न लेवानी ना होय ते ए मडाने ताणी व्यो, अने ढुं नूरव्यो बुं तेथी मने ते मडानुं नदण आपो अने पांच रत्न लइ व्यो. ___ एवा शदो वारंवार सांजव्याथी शीलवती मनमा विचार करा लागी जे ढुं ते शीयालीयाने नाग देवं, अने इव्य ल ! कारण के ए शकुन व चन जूटुं होय नहिं. तेमज आपणा घरमां पण एहवू धन नथी, माटे हुँ जश्ने जोश्ने निर्णय करूं, जो साचुं होय तो ते शीयालीयाने जद देने इव्य लइ लवं, या वात, जो हमणां कोइने जगाडीने हुँ कहूं तो. कोई माने नहि. एवं विचारी शय्यामाथी उठी घडो ला पाणी जरवाने मिशे नदीयें गइ. अने त्यां जइ जूए ,तो नदीमा तरतुं एक शव आवतुं दी, ते जो तुरत नदीमां पडी थने ते शबनी केडथी पांच रत्न तेशने ते शब शीयालने आपी दीधुं,पबी नाही पाणीनो घडो जरीने पोताने मंदिर बावी. त्यां रत्ननी गांसडी शय्या उपर गुप्तपणे मूकीने विचारवा लागी के प्रातः कालें मारा स्वामीने रत्नो देखाडी सर्व वात हुँ कहीश. एम विचारीने सूई गइ. ते शीलवतीनुं जवु आवq जाणीने अजितसेन चिंतववा लाग्यो के ए स्त्री, निश्चें स्वेजाचारिणी, असति ने. एणियें अमारां निष्कलंक कुलने या वा कामथी कलंक लगाइयु,वली ए स्त्री निश्चे अनर्थथी नरेली . ए स्त्रीनुं मुष्ट चरित्र ते केवु आश्चर्यकारी ? वांबित पदार्थ आपवामां कल्पवृक्ष जेहवो ढुं तेने मूकीने अन्यसंघाते आसक्त थर, माटे तेने धिक्कार हो. अ हो जूउ ए स्त्रीनुं हृदय के छ ? कह्यु डे केः-न स्नेहेन न विद्यया नच धिया, रूपेण शौर्येण वा, नेपोचाटुनयार्थ दानविनय, क्रोधश्मामार्दवः ॥ लजायौवननोगसत्यकरुणा, सत्वादिनिवागुणै, गुह्यंते न विनूतिनिश्चलल ना, उःशील वित्ताय्हते ॥ १ ॥ नावार्थः-स्नेहेथी, विद्यायथी, बुद्धिथी, रूप थी, पराक्रमथी, ईर्ष्याथी, मीनां वचनथी, जयथी, अर्थश्री, दानथी, विनय Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा साहत. २०३ थी, क्रोधेथी,माथी, नम्रताथी, लहाथी, यौवनथी, जोगथी, सत्यपणाथी, करुणाथी, सत्त्व, इत्यादिकनी संपत्ति रूप गुणोयें करीने पण ग्राह्यमांही आवे नहिं. जे स्त्री व्यभिचारिणी थर, ते पोतानी केमे न थाय. एम विचारी तेनो पति विरक्त थको प्रनातें उठी शीलवतीनुं सर्व वृत्तांत पोताना पिता में जश्ने कहेतो हवो, ते सांजली जेटलुं तेने कुःख थयुं हतुं, तेटलुंज ते ना पिताने पण थयुं. हवे पुत्र तथा पिता ए बेहुयें विचार कस्यो जे सुगंध सरिखो लोकापवाद न थाय ते पेहेलां तेने पियर मोकलीये, तो घणुं सारु ! एम धारी शीलवतीने कह्यु के तुमने मोकलवानो तारा पितानो कागल आ व्यो ? त्यारेंशीलवती पोताना पति तथा ससरानुं चित्त जाणी विचारवा लागी जे, में खोटुं कर्तुं ! जे, में मारा जरतारने कर्तुं नहिने एमज नदीपर ढुं चाली गइ. हवे ढुं गुंकलं !!! हवे खेद कस्याथी झुं थाय ? हवे विचार क यो पण गुं कामनो? कह्यु ले केः-या मतिर्जायते पश्चा, त्सा यदि प्रथमं न वेत् ॥ न विनश्येत्तदा कार्य, न हसेत्कोपि उर्जनः ॥१॥ नावार्थ:-जे बुद्धि पली उपजे जे, ते बुद्धि जो प्रथम उपजे, तो तेहy कार्य तिहां न विणसे, अने उर्जन पण कोश् हसे नहि ॥१॥ माटे हवे एमां संकल्प विकल्प करवो, तेथी झुं थाय ? ए कुमित्रना वचननी पेरे निष्फल जे.जो माहरूं शील निर्मल बे, तो कां थवानुंज नथी, एम चिचारी शकुन जूए ने तो शकुन रुडांपा व्यां. कवि कहे जे के शकुन जे ले ते धापत्तिमां पडेलाने सङननी पेरें म होटु अवलंबन . हवे सागरशेठ रथ तैयार करावी शीलवतीने रथमां वे साडी तेनो पोते सारथी थश्ने तेने नगर बाहिर आणी. एवामां पोताना स्थानकथी नडी केटलीक नूमिका दूर जा जेना मुखमां जद ने, एवी दुर्गा पदिणी त्यां पाढी आवीने बोली, तेमां तेणे तिहां दिशिनुं प्रमाण कह्यु के “प्रियने घणी वाहली” एवी तेछुर्गा पक्षिणीनुं बोलवू सांजलीने ते मादी शीलवती विचार करी निर्णय करती हवी के, मुफने लान घणो थाशे, अने अर्धपंथे जपायं वलवू थाशे, अने बदु मान सहित पानी म हारे घेर यावीश. मुर्गा शकुनमां कडं में केः-दर्शनचेष्टा स्वरगति, नदय ग्रहणेषु अधिकमधिकं म्यात् ॥ क्रमशोबलमे तेषां, समुदायः सकलफलहे तुः ॥ १ ॥ नावार्थः-उर्गाना शकुनने विषे मुर्गा, दर्शन चेष्टा, स्वर, गम न, मुखमां नगनुं ग्रहण इत्यादिक अधिक अधिक फल आपे. अनुक्रमें Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ए सानो समुदाय जेलो थाय, तो संपूर्ण फल थापे. धने जो शकुन बराबर न होय तो जे कार्य श्रारंन्यु होय, ते सिद्धि न पामे, प्रस्तानुं कथुं होय ते पण प्रमाण न थाय, अने जीवजनावरना शकुने कर बगड कार्य होय तो पण ते शकुने सिद्ध थाय तथा ते जीवादिकना शकुन जो शास्त्र थथयां होय तो सिद्ध वस्तुने बिगाडे वली विघटित अर्थ नीपजे, शुभशकुनी जे कार्यनो संशय होय ते थोडा कालमां साधे, खने शु शकुनी थयुं कार्य पा फेरवे, तिहां दिशाने प्रमाणे शकुनना उदयथी श्र गुन ते रान थाय. माटे विघ्नमां पड्याने तथा दिग्मूढने तथा जसतामां पीड्याने, जय विव्हलने प्रायें शकुन, ते प्रमाण साधवो. हवे ते शीलवती ने बीजां पण शकुन घणां उत्तम थयां तो पण ते हृदय व ःखने वहती हवी. कारण के कलंक दीधुं ते रूप शंकाना वि धिनुं दुःख ते दुस्सह ले. हवे पोतानो ससरो सारथी वे, ते जेम स्वार, घो डाने दोडावे ते ते रथने अत्यंत चलावतो हवो. तेवामां एक मार्गयां ति फल्युं मगनुं क्षेत्र श्रव्यं तेने देखीने ससरो बोल्यो के या क्षेत्रनाथ लिनें धान्य धणुं याशे. एटले शीलवती बोली के ते साचुं. पण ए ते धान्य खाशे नहिं. एवां वचन सांजनी ससरो विचारवा जाग्यो जे ए दे नोधी बतां ते केम नक्षण न करे ? थोडं पण ते खायज. माटे या बो नारी विनीत वे, अने निवें या अवलाबोली पण बे. वे ससरो कहे बे के ग्रागल घष्णा कादववाली नदी यावे ते तेथी रथ पाणीमां चाली शकशे नहिं, माटे हे बहु तमें हेां उतरीने मोजई। हाथ मां लइ नदी उतरी, एम कही मोजडी उतारी पोते नदी उतस्यो ने शी लवती तो मोजडी सहितज नदी उतरवा लागी, ते जोइ तेना ससरायें कह्युं के ए मोजडी कादवमां बगडशे ! एम घणुं कह्युं तो पण तेथे मोजडी न तारी नहिं ने मोजडी सहित उतरी. त्यारे ससरो विषादवंत यतो. मन मां देवा लाग्यो के धिक्कार पडो ? ए स्त्रीने में बारी तो पण एणे कं मा न्युं नहिं. वली श्रागल चालतां एक सुनटने घणा घा वागेला वे, एवो नाशी जतो दीठो, ते देखीने ते शेठ प्रशंसवा लाग्यो के ते सुनट वासुदेव स रिखो पराक्रमी बे. ते सांगली वदु बोली के कूतरानी पेरें तेने कोइयें कू यो वे. उत्पात सरिखा दुःखे सहवा योग्य एवा घा एणे केम सह्या बे ? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. २०५ माटे ए सुनट नथी. एम कहेवाथी ते शेठ पोताना मनमा अत्यंत खेद धरतो विचारवा लाग्यो के अहो ! जूठ ए उष्ट परिणामी स्त्री माराथी अव लूंज बोले . वली आगल चालतां एक स्वर्ग जेवं मोटुं देवल आव्युं ते देखीने शेठ कहे के आ देवल घणुं श्रेष्ठ , ते सांजली शीलवती कहे ने के ए श्रेष्ठ नथी, अने आपणा कामर्नु पण नथी. एवं सांजली शेठ मनमां चिंतववा लाग्यो के सर्व काणे ए उन्मत्तमी पेरें बोले ले. वली पागल चालतां घणी वस्तिवालुं दिये संपूर्ण एवं एक सुंदर नगर आयुं. ते नगरनी वचमां रथ निकल्यो, ते देखीने शेठ कहेवा लाग्यो के केतुं सारं, महोटुं वस्तिवालु, रुदियी संपूर्ण एवं था शहेर जे ? माटे यापणे इहां ए क रात वासो रहीये. त्यारे शीलवती कहे बे के श्रा नगर, अरण्यनी पेरें शुन्य नासे . ते सांजलीने वली पण ससराने खेद थयो, वली आगल चालतां एक गामडं आव्युं तेमां प्रवेश कस्यो, ते गामडुं देखी शेठ कहेवा लाग्यो जे आ नजड गामडंडे. त्यारे शीलवती कहेवा लागी जे, आ गामनो वास घणो श्रेष्ठ जे. आवां वचन सांजली ते शेठ कोमल हृदयने विपे खेद धरतो मनमां विचरतो हवो के अरे ! ए वन विपरित शिक्षिक अश्वनी परें उविर्नीत , अने उट हृदयवाली सर्पिणी सरखी . आ व हूनुं मातुं चरित्र मारा पुत्रं कर्तुं ते समग्र निश्चें साचुंज जे. कयुं, न कयुं ते तो कोण जाणे में ? पण बाबु वाकुं बोलवाथी ए प्रत्यद जूतुं बोलनारी जे. हवे तेनो रथ गाममां चाल्यो जाय ले तेवामां शीलवतीनो मामो ते गाममां बसे , तेने खबर मट्याथी त्यां आवीने घणा आदरथी ते शेठने पोताने घेर तेडी गयो. अने नली युक्तियें करी तया बदु नक्तिथी बनेने नोजन कराव्यु, अने घणुं सन्मान कयु. अवसरें बीजो कोइ मले तोपण घणां वानां करे,तो वली सऊन मजे तेनुं तो गुंज केहे ? हवे बपोरनो व खत.होवाथी ताप घणो हतो तोपण शेठे रथ अागल चलायो. कवि कहे डे के,अथिर चित्तनोधणी गुनस्थानकने विपे पण घणी वार केम रहे? तेथी केटलीक नूमि आगल चाव्या त्यां एक सारो वड श्राव्यो, एटले ते शेठ रथथी उतरी तो बेटो,अने शीलवती पण रथथी उतरीने रथनीज बया ये बेठी. तेवारे शेते कह्यु के हे वदु, तमे वडनी बायां नीचे आवी वेशो. पण जाणे ते रीसाणी होय नहिं ? तेम ते वडनी बांया बांझीने वेगली Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. योगिनीनी पेरें जाणे संसार असार डे एकुंज चित्तमां विचारती होयनी ? एवी थकी बेती. तेवामां पासें केरडानां झाड उपर एक कागडो बेगे ,ते जाणे झानीज न होय? तेम अतिशय शब्दें करी वारंवार बोलवा लाग्यो. तेथी तेनो शब्द सांजली शीलवती अर्थने अणश्वती,बे प्रकारचें यथास्थित समजीने नियंथ सरिखी, अर्थने अनर्थरूप विचारती, संसारना कुःखना खेद युक्त थकी कागडाने पाठो नत्तर देती हवी के, एक अन्याय कस्याथी घेरथी निकली, अने हवे जो बीजो अन्याय करूं तो पियरे पण ढुं न पहोंचं. ए वां शीलवतीनां वचन सांजलीने, निपुण बुदिनो धणी ते शेत वहुने पूब तो हवो, के हे वद् ! ए तमें झुं कर्तुं ? त्यारे शीलवती बोली के हे तात? कांइ नहिं. तो पण शेने घणो हठ करी पूबतां निसासो नावीने शीलवती कहेती हवी के हे पिताजी ! ढुं कहूं? माझं मंदनाग्य जे. जेहने गुण करीये ते कर्मना वशथी दोपरूप थायडे. मजीठ, सुघाट वृद, पापणनी खाण, कपास, वांस, शेलडी, माटी, मोती, परवालां, वावनाचंदन. रेश म,सुवर्णादिक, दक्षिणावर्तशंख, मधुमक्षिका, मृग, उंट, अश्व, हस्ती, तृप न, ए सर्व सुखरूप, तो पण मनुष्यने माता कर्मना योगथी पुःखरूप था यजे. तथापि तमे घणा आग्रहथी वारंवार पूडो डों तो हुँ कटुं बुं ते सांजलो. ___ रात्रिने विषे शीयालना शब्दना शकुनथी ढुं नदिये गइ, ने त्यांथी पां च रत्न लावी, ते में माहरी शय्यानपर गुप्तपणे मूक्यां ,इत्यादिक सर्व र तांतो शीलवतीयें घरथी बहार काढी त्यां सुधी नां कह्या. ते रत्नना प्रनावे माहरे घर मूक, पडद्यु,अने मार्गमा वली आ कागडो पण मूकाववायूँ कहे जे. तेएम कहे जे जे, श्रा केरडाना वृद्ध हेते दश कोडी सोनेयां ले ते, जे हने लेवानी ना होय ते व्यो अने हुँ घणो नूरख्यो , माटे मुझने नद आपो. तेवारें मुमने मुःख सानलावाथी में कडं के माहरे सोनेयानो खप नथी अने हुँ जद पण नहि दवं. आवां वचन सांजली ते शेत हर्प पाम तो हृदयमा विचार करवा लाग्यो जे ए वदु विशेष विज्ञानवंती , एनां विझानपणानी मर्यादाज नथी. तो पण ए साचुं कहे , के जूतुं कहे ! तेनी इहांज हमणां दुं परीक्षा करूं ! एम धारी नजिकना गाममां जश् कोश कोदाली प्रमुख बाणीने तेज दणे जाणे त्यां पूर्व पोतेज धन मूक्युं होय नहिं ? तेम खोदवा लाग्यो. तेवारें तेमांथी निधान प्रगट थयु. पड़ी ते Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २०४ कागडाने नद आपी सुवर्णमणि अने माणिकें नघु एवं दशकोटी निधान गुप्तपणे हर्षवंत थको रथने विषे शीघ्रताथी मूकतो हवो. हवे शेत खेद धरतो विचारवा लाग्यो के अहो ! ए शीलवती वदु तो महारा घरने विषे प्रत्यक्ष कामधेनुं बे,अरे ! धिक्कार पडो मुझने तथा मारा पुत्रने जे मूढपणे एने घरमांथी बाहार काढी ! ए अमेंमा कयुं. हवे पढ़ी जे उचित करवु घटे, ते कर. अणविचायुं जे कार्य होय तेनो प्रतीकार न पाय रूप कार्यथी करवो. एम चिंतवी शेठ तुरत रथने पाडो वालतो हवो. हवे शीलवती सारा शकुन थया तेथी खेद टालीने अत्यंत हर्ष पामी. ते शेत पण रथमां बेठो यको पालो घेर जणी रथ हांकतो निर्मलबुदिवाली शीलवतीने पूबतो हवो के तुं यावी माही ने तो पण अवधूं केम बोली ? त्यारे शीलवती कहेती हवी के तमे कयुं ते सत्य, पण ढुं कढुं ते सांजलो. पेहेलां देवना धणीयें पारकुं धन लश् मोढा बमणा कढारा काढी महेन त करीने देत्र तैयार कयुं ,तेमां जे माल नीपजशे ते तो लेणियात लइ जशे, धणीने थोडं पण नहि रहे,तेथीमें कह्यु हतुंजे देत्रनो धणी ए माल खाशे नही. वली पग सहिसलामत राखवा सारु में नदी उतरती वखत मो जडी पगमांथी काढी नहिं,कारण केजेमा मार्ग दीगमां न आवे एवी नदी ने विपे गमन करतां कंटकादिकनो अनर्थ थाय. वली मोजडी जीजाय तो सूकवीयें तथा मोजडी तो नवी पण थाय,परंतु पग नवा न थाय. एटलमा टे हे तात! में पगमांथी मोजडी काढी नहिं. तथा ते सुनटनी पूंठे प्रहार थया हता ते सामे मुखें प्रहार थया न हता,पण पाबो नासतां ते कूटाणो हतोतेथी ते नलो कूटाणो एम मे कह्यु. वत्ती वगडामां देवल तमे कह्यु के घणुं श्रेष्ठ बे, पण त्यां कोक चोर जारादिकने रहेवानुं ठेकाणुं तेथी में कह्यं के ते आपणे झुं कामर्नु ? ते सारं नथी. तथा नगरने विपे पोतानो कोइ स्वजन अथवा मित्रादिक न होवाथी को बोलावे नहिं तेथी में कडं के ए नगर शुन्य ने ? कह्यु के के॥ इक्केणं विणा पिमा,सेण सप्ताव नेद नरिएण॥जणसंकु लाविपूहवी,अबोसुन्नवपडिहाइ ॥१॥ नावार्थः-जे नगरमा एक पण मनुष्य सनावना नेहे करीनस्यो न होय थने ते सिवाय बीजा लोकोथी नगर लघु होय तो पण ते नगर शून्य सरखं जाणवू ॥१॥ तथा जोजन प्रमुखना याद रनो करनारो,खेदनो हरनार,एवो ते गामडाने विपे माहरो मामो निचे रहे Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०G जैनकथा रत्नकोप नाग चाथा. बे,तेमाटे ते गामडं ने तो पण नगररूप ने उत्तम वास एम में कत्युं. ज्यांग याथी घणुं मान पामीयें, ते गामडुं होय तो पण नगर जाणवं, अन ज्यां बोलाववानो पण संदेह होय ते नगर पण गामडं जाणवू. वली वडना वृद हेत तमे वेसवानुं कर्तुं अने में ना पाडी तेनुं कारण ए हतुं जे वृदनी ऊपर कागडा प्रमुख जीवोनी विष्टा साखायें पडी होय ते माथा उपर पडे तेथी जरतारादिकनो अनाव थाय, अने लदिननो नाश थाय. ते कारण सारु ज्यां विष्टा प्रपुरख पडवानो संनव नथी एवी रथनी बांयाने विषे ढुं बेली. __आवां युत्तियें युक्त शीलवतीना वचन सांजलीने तत्वरूप ते वदुना वच न धारीने कौतुकवंत थको हर्षथी ननसित एवो ससरो विचारे ले के जेम कोश्क बुद्धिवंत पुरुपनी बुदिना विषयनो परिमित न थाय एवी जेनी बुद्धि ना विपयनी मर्यादा न होय,अशवा अवधियी मूकाणी एवी मोटा जननी मती होय,योगेश्वरना ज्ञाननी पेरें मोटुं ज्ञान होय, तेम ए वदुनी बुद्धि पण मोटी जे. कयुं ले केः-नूमिनुं मान के तेमज ते नूमिमां सराय ने तेहर्नु पण लप्रमित मान . तथा शास्त्रना जाण जे माह्या पुरुपो ने,ते निरंतर चालनारो एवो जे सूर्य तेना गमननुं परिमाण जाणे ने. जे मर्य वर्षमा एटलुं चाले ,इत्यादिक प्रायें नाव ते सर्व बुद्धिमान जाणे . ते देदीप्यमान, अवधिज्ञाने विकसित एटले ते सर्वनी अवधि मर्यादा ,पण सत्पुरुपनी बुदिनो जे प्रागनार , तेना विपयनी मर्यादा नथी. ___ एम शेठ हर्षित थको पोताना नगर समीपे आव्यो एटले चणे उंचे तेकाणे तेतर जनावर बोल्युं,तेथी नवितव्यतानो अधिक निश्चय करती थ की पोतानो महिमा घणो वधशे एवी जे शीलवती तेणे युक्त थको विवेक सं पदा सहित नली संगते अनुक्रमे पोतानें घेर आव्यो. त्यारे ते शेतनो पुत्र पोताना पिताने पोतानी स्त्रीसहित पाडो आवतो देखीने कोप्यो थको क हेवा लाग्यो के हे तात ? तुऊने धिक् ,ए पातिकनुं ठेकाणुं जेहनु चरित्र मातुं ने एवी ने तमें गुं करवा पाबी लाव्या ? तुजने तेणे ठग्यो. अरे तमे माह्या बतां पण तेनाथी केम गाणा? एवा पुत्रनां ननंत वचन सांजलीने शेठ बोल्यो के हाहा तुं झुं जाणे ले ? एवा तोबडाश्ना वचनन बोल नहीं. ए तो सादात् सरस्वती ने, तथा लक्ष्मि जे. शय्याउपर पांच रत्न , ते जश्ने जो? तेमज रथने विपे दश कोड़ी निधान थाप्युं , ते पण जश्ने जो. ते वदु Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा साहत. २० ये पंदर कोडी सोनैया घरमां यास्या तेथी कुलदेविनी पेरे ए वहु कुल मां साक्षात् मि सरखी बे. ते पुत्रे एवां पितानां वचन सांगली शय्या मां जश्ने जोयुं तो पांच रत्न दीगं, तेमज रथमां दश कोडी. सोनैया जो यां तेी ते पंदर कोडी सोनैया एकता करी हर्ष पामतो शीघ्रपणें नंमारगृ हने विषे स्थापतो हवो धन ग्रहणकरवामां को विलंब करे ? कोइ न करे. हवे जितसेने पोतानी स्त्रीनुं आश्चर्यकारि वृत्तांत पोताना पितानें पूवाथ तेणे सविस्तरपणे सर्व वृत्तांत कयुं, ते सांगली तेने लका, प श्वात्ताप, प्रति कौतक ने हर्ष ए चारे प्रकार विस्तारपणे नेजां थयां ते थी ते निवें ला पामी नीचुं मुख करी रह्यो कवि कहे बे, के यावे वख ते मोटाउने अपराधीपणानी ला घणी यावे. हवे जितसेन विचारता लाग्यो के धिक् ! मुजने तथा महारी निपु एताने, के जेम सत्कवि पोतानी कवि चतुराइयें पंमितपणुं करी मानें, तेम ढुं मानुं बुं, कारण के निष्कलंक स्त्रीने में जू कलंक दीधुं लोकोत्तर चरित्र नीलियाली एवीए स्त्रीने में इहवी बे, तो तेनी रीस हुंशी रीते टालीश ? एवो खेद करतो हतो तेवामां तेना पिताये बोलाव्यो ने कयुं के तुं शुं क रवा खेद करे बे ? खेद धरीश नही, कारण के जे अज्ञानपणें कयुं होय ते हनों पराध कहेवाय नहिं. हवे ते स्त्री तारो अपराध खमशे. एम कही न्यायमां निपुण एवा ते बन्ने जणे शीलवतीने खमावी ने कह्युं पी एवं नहिं करीयें. एवां जरतार तथा ससरानां वच न सांजलिने प्रीतियें करी विनीत एहवी शीलवती कहे बे के हे स्वामि ? हे तात ? एमां तमारो एकनोज दोष नथी ? कारण के में पूर्वै रत्ननी वात तमने न कही, तेथी ए प्रविनीतने शिखामण बे. ते दिवसथी मांगीने ते म होटी बुद्धिना एवा पिता पुत्र वेदु जणां वाणोतरनी पेरें जेम विनीत शिष्य जो के पोतें महोटी बुद्धिनो धणी होय तोय पण गुरुने पूठीने सकल कार्य करे, तेम ते पूर्व बुद्धिवाली शीलवतीने पृढीने कार्य करे. तेमज विपम आपदा रूप अंधकारमां पडेला एवा बीजा जनाने पण अंधकारना पूरने विषे जेम दीवी प्रकाश करे तेनी पेठें शीलवतीनी बुद्धि तेमने दीवी रूप यइने यापदानी टालनारी इ. जू बुद्धिनुं सफल पशु कहेतुं ने ? कहां बे के: - श्रियं प्रसूते विषदंरुहि, श्रेयांसिसूते मलिनंप्रमार्ष्टि ॥ संस्कार योगाच्च परं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. पूनीति, गुडादिबुद्धिः किलकामधेनुः ॥ १ ॥ जावार्थ:- रुद्धिने प्रसवे, विप तिने रोके, मलिनपणुं टाले, बुद्धिना संस्कार योगयी बीजाने अत्यंत पवित्र करे, ते माटे शुद्ध बुद्धि ते निधें कामधेनु जेवी ने ॥ १ ॥ रत्नाकर शेठना घरने विषे शीलवती विषम एवी श्रार्त्ति जे पीडा तेहनी टालनारी थ5. वयें करी लघु होय पण गुणे करी ज्येष्ट होय ते केम न पूजाय ? कयुं ने केः-गु ta Hai स्वा. नांगेन वयसापि वा ॥ दजेषु केतकी नैव, लघीयस्तु सुगंधता ॥१॥ नावार्थ:- गुणेज मोटापणुं थाय, मोटा अंगथी तथा मोटी वयथी कांइ मोटाइ यावे नहिं, जेम के केतकीना मोटां पांदडांमां सुगंध होती नथी, ने नाना पांदडामां सुगंध घणी होय ते ॥ १ ॥ हवे रत्नाकर शेठ देवलोकनी वस्तीनो प्रादुणो थयो पढी घरनो स्वामि यजितसेन थ यो, तेथी राजडवारे ते मोटी व्यवहारी को हमेशा जाय. " एक समय राजाने चारमें नवाएं प्रधान वे पण तेमां को मुख्य प्रधा न नथी तेथी मुख्य प्रधान स्थापना सारु राजायें सर्व सजाने एवो सवा ल पूछयों के जे मुजने पाठ मारे तेहने गुं करीयं ? तेवारे सर्व सनाजनो ते राजाना बोलनो अभिप्राय जाएया विना केहेता हवा के तेहने ढंग या पीये. पक्षी राजायें जितमेनने पूयं त्यारे तेथे कयुं के हे राजन् ! ढुं विचारीने कहीश. एम कही घेर यावीने चार प्रकारनी जेने बुद्धि बे एवी शीलवतीने तेथी तेणे कल्युं के, जे राजाने पाटू मारे तेने नि मोह टो सत्कार, यादरमान देवो घटे. पुरुष होय तो राज्य यापवुं जोइयें, स्त्री होय तो सोन शणगार श्रापवा जोइयें. आवां स्त्रीनां वचन सांजलीने जितसेने पूछ के ते केम ? त्यारे शीलवती कहती हवी के, राणी तथा पुत्र सिवाय बीजो कोई राजाने पाहू मारि शके नहिं. एवी रीतें प्रश्ननो संदेह दल्यो. पठी बीजे दिवसे जिनसेन राज्यसनामां जइ राजानी या गल ते वात केहेतो हवो. ते सांजली वली राजायें कह्युं के आपणो या य मुक हाथी ने तेने जेम तेम करी तोलो ते पण अजितसेने पोतानी स्त्रीनी बुद्धिथी हाथीने नावमां चढावी जल प्रमाणनुं पंधाण करी हाथीने बहा र काढी ते नावां पूर्वै करेलां एंधाणसुधी पथरा नया, पढी ते पथरा तोव्या एटजे हायीना तोलनुं प्रमाण थयुं जे वाटला मल हाथी थयो. ते जितमेननी वृद्धि, पराक्रम जालीने राजायें घणी प्रशंसा करी. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ११ एकदा एक वणिक आवी राजाने नमस्कार करी कहेवा लाग्यो के हे राजन ! एक वणिक, किंपाकवदना फलनी पेरें, मोढे मीठो अने परिणा मे उष्ट बे, ते धूर्त साथें मुग्धपणे में कुर्बुदिनां धणीय कर्मने वशे करी जे म बोरडी साथे केल- जाड मित्राई करे तेम में मित्रा करी. कडुं ले के, योवनपणामां जूवटुं रमे, दासी साथें अने धूर्त साथै प्रीति करे, एवो म नुष्य कोण उदवेग नथी पाम्यो ? जे एनाथी वगोवाणो नयी ते मोटो नाग्यवंत जाणवो. हवे ते धूर्त मित्रने माहरूं घर जलावी ढुं व्यापार अर्थे परदेश गयो. पनी जेम फल्या खेतरनी रक्षा करवा सारुं रक्क मूदत्यो होय अने ते रक्क जेम खेतरमांहेली सघली वस्तु खाय तेम ते धूर्ते माझं सघ लुं स्व खाधुं. अवसर मलवें माहर। स्त्री साथे पण लोनायो तेथी ते पापी पा पकमें कम न करे ? करेज. एम करतां विदेश थकी हुँ याव्यो अने धन न पाऱ्यांनी बधी वात मित्रने कही. ते सांजली ते धूर्त मित्रे कडं के तें कांश आश्चर्य दीतुं होय तो कहे. तेथी में कडं के अहिंथी ढूंकडं एक उद्यान , तेमां जलें नस्यो एक कूवो डे, ते कूवामां एक फल रसे सहित, पांदडा स हित, नारी हतुं तो पण ते पत्रनी पेरें तरतुं में दी. ते सांजली ते धूर्त मित्र बोल्यो के जो ते वात सत्य होय तो मारा घर नी दिमांथी ताराथी वे हाथे लेवाय तेटली कदि तुं लेजे अने जो ते वात खोटी होय तो तारा घरनी झधिमाथी माराथी बे हाथे जेटली उपडे ते टली कदि ढुं जनं, एम कही ते धूर्त गयो, अने रात्रे बानो मानो एकलो जर ते फलने कूवामांथी काढी लाव्यो. प्रनाते मने अावी कहेवा लाग्यो के चाल ते बताव ? तेवारें अमे बन्ने जणायें त्यां जश्ने जोयुं तो कांइफ ल दीतुं नहिं. एम ते धूर्ते बल करी मुजने ठग्यो, हवे ते मारी झदि तथा स्त्री शे. तेटला माटे हवे गुं उपाय करवो ? ते मुझने कहो. हे राजन् ! जेम नमरो कमलमां होय,ने सूर्य अस्त पामवाथी कमल मिंचाय तेथी न मरो बंदीखाने पडे, ते ज्यारे सूर्यनो उदय थाय अने कमल उघडे त्यारे जमरो बूटे, तेम मूजने तमे गमे तेम करी बोडावो. हे प्रनो ! विषम वख ते राजानु शरण होय ! कयुं ने केः-धुर्बलानामनाथानां, बाल वृक्षतप स्विनां ॥ अनारनिनूतानां, सर्वेपां पार्थिवो गतिः ॥ १॥ कुर्बलने, अना Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. थने, वालने, वृक्षने, तपस्विने, अने कोई अनार्यथी परानव पामेलाने, ए सघलाने राजानी रीते राजा सार संजाल करे. ते वात सांजली राजायें ते कार्यनी अजितसेनने आशा आपी. सरल बुदिना धणी अजितसेने पण कूलदेविनी पेरें पोतानी स्त्रीने पूर्वीने ते व णिकने का के तुं ताहरे घेर जइ ताहर। स्त्रीने मेडाउपर चडाव तथा सर्व धन, माल,वस्तु पण मेडानपर चडाव,अने दादरो बंध कर,तथा दादरे च डवाने ठेकाणे एक मोटी नारे निसरणी लावी मूक. पढ़ी ज्यारे ते धूर्त तारा घरने विपे झदि नेवा अावशे,त्यारे ते कोइने देखशे नही तेथी मेडा उपर च डवा माटे नोसरणीने बे हाथें जातशे त्यारे तेने कहेजे के तारा टेराव प्रमाणे तें बेहाथे नीसरगी ग्रहण करी माटे तेने तुं लश्ने ताहरे स्थान के जतो रहे, त्यारे ते धूत नीसरणीने पडती भूकी खेद पाम्यो थको,हला एगीले बुद्धिजेनी एवो थइ पोताने घेर जाशे. एवं पोतानुं हितकारी वचन सांजलीने ते वणिके धूर्त्तने तेडाचीने तेमज का. एवं। अजितसेननी बुद्धि देखी राजा हरित थऽसर्व प्रधानोमा महोटो प्रधान करीअजितसेनने याप तो हवो. अहह ! जूठ एवी गुणवाली स्त्री केने होय ? पुण्यवंतनेज होय. हवे शीलवती कांक विचार करीने अजितमेनने कहे ले के हे प्राणना थ! माहरूं शील इंश्सरखो पुरुप जे होय ते पण खंमवाने समर्थ नथी, तो पण हे आर्यपुत्र! राज कार्यना परवशपणा थकी तमारूं घग्नेविपे थोडं रहेवानुं थाय ने अने अहियां पोतपोताना कार्यने अर्थे वणां जोक आवे बे, माटे दुर्दैवना वश थकी पूर्वनी पेठे तमने कुविकल्प उपजे अथवा बी जा कोइने पण कुविकल्प उपजे तेमाटे शीलनी परीक्षाने अर्थे एक कमल तमनें आपु . जो परपुरुप उपर माहरं मन बगडशे तो ते कमल तुरत करमाइ जाशे, अने ज्यां सुधी माहहं मन इढ हशे त्यांसुधी विकसित रहे शे, एम कही परमेश्वरनी पूजा करी परमेश्वरनी साख्यें कमल अजितसेन ने आप्यु. अजितसेने पण विस्मय पामी ते कमल लीधुं. हवे ते कमलनु परिमल घणुं विस्तरे, नित्य जोगि थको रहे. ते कमलने सर्वदा विकस्वर थ येलो देखीने सर्व नगरनां लोक पोताना चित्तमां चमत्कार पाम्या अने वि चारवा लाग्या के बीजा कमल तो मात्र श्वासोवासथी पण तरत करमाइ जाय अने आ कमल तो सर्वदा विकस्वर रहे ,ते सर्व शीलनु माहात्म्य डे. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सादत. १३ एकदा राजा पोताना वैरी राजाउने वश करवा सारु कटक करी अजि तसेनने साथें लश्ने चाल्यो. जेम सूर्यनी साथे बुध रहे ले तेम राजानी पासे सर्वदा प्रधान जोश्ये अनुक्रमें चालतां थकां मार्गमा ज्यां मरुधरनी पेरेंजल उर्लन मले में, ज्यां फूलनुं नाम पण नथी, तो त्यां वली कमलनी वात झुं करवी? त्यां अजितसेनना हाथनेविषे अत्यंत पणे विकसित कमल देखीने राजायें निर्बधपणे तेनुं कारण पूब्युं, तेवारे अजितसेने यथार्थ वात कही. ते स्वरूप जोइने राजा असंजाव्यपणे अनव्यनी पेरें श्रदा न धारण करतो थको केहेतो हवो के ए तहारं बोलवू साधु केम मनाय? तेवारे वीजा चार कपटी प्रधान दे तेहने राजा गुप्तपणे पूडे दे जे ए झुं हो? ते चारे जणा क हेता हवा के हे नरेश ! एहने स्त्रीयें ठग्यो जे. एहवी कोण स्त्री शीलवती होय, जेहनुं विशु६ शील निर्मळु होय. जे स्त्री जन्मथी मुग्धा, शुद्ध स्नेह वंती ने वली माहिएची पातालसंदरी,ते पण पंमित स्नेही जयवंतसेन रा जाने वंच्यो हतो, तो वली बीजी स्त्रीयोनो श्यो विश्वास करवो ? ते सांगली राजायें पूज्यु के पातालसुंदरी कोण? अने तेणे राजाने केम वंच्यो? तेवारेंते चार प्रधानमांहिथी एक जण बोव्यो के हे नरेश ! सावधानपणे सांजलो. जेहनी मोटी पाल , तथा न्याय अने लक्ष्मीनी शाला , एवा विशा लपुर नामना नगरने विपें कलामां घणो प्रवीण, तथा शत्रूनी सेना जे णे जीती जे एवो जयवंतसेन नामे राजा राज्य करे . ते राजा एकदा ग वथी सर्व सनाना लोकप्रत्ये कहे ले के एवी को कला रही जे के जे दूं नथी जाणतो? ते सांजली सनाना लोक सर्व कहेता हवा के हे महाराज! आप सघली कलामां प्रवीण बो. तेवामां एक माह्यो पुरुष बोल्यो के तमे सर्व कला तो जाणो बो. पण एक स्त्रीचरित्र जाणता नथी. कह्यु ले के ॥ देवाणदाण वाणं,मंतंमंतति मंतनिनणाजे ॥ विचरिथं निनो, ताणविमं ता कहिंनहा ॥१॥ जावार्थः-देव, दानवने मंत्रादिके करी वश करेने एवा मंत्रमांहि निपुण जे मंत्रवादियो तेना जे मंत्र तेपण स्त्रीना चरित्र पागल क्यांही नाशि जाय ॥१॥ जालंधरेहिंनूमि, हरेहिंविविहे हिंअंगररकेहिं ॥ न विररिक आवि रमणी, दीस पप्नध्मजाया ॥२॥ नावार्थः-जालंधर ए वां नूमिगृह नोंयरामा विविधचंग रदक सहित राजायें स्त्रीने राखी तोपण ते नष्ट मर्यादावंत देखाणी ॥२॥ मज पयंजल मऊ, यागासे परिकाप Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. पंती | महिलाहि श्रयमग्गो, तिन्नवि लोए न दीसंति ॥ ३ ॥ जावार्थ:जलमांहि महना पगलानां जाए बे, श्राकाशमांहि पक्षिना पदनी श्रेणिना जाणले, पण स्त्रीना हृदयना मार्गनो जाणनार कोइ त्रण लोकमांहे देखा तो नथी ॥३॥ एवा पंमितना वचन सांजली राजा माधुं धूणावतो विचा रवा लाग्योजे, ए साधुं छे. स्त्रीयो गुप्त हृदयवंत एवीज दीसे बे, तो महा रा अंतरपुरनी स्त्रीयो निश्रे सतियो नथी, एवी मनमां शंका उपनी. अने संबंध तो वली निर्मल शीलनी धरनारी होय तेनी साथेंज करवो ने. माटे ढ़ं कोइएक राजानी पुत्री हो तेने जन्मतांज परणी नृयरामां राखी मोटी सती करीने जोगवीश. घणुंकरीने प्रायः स्त्रीने ने पुरुषने कुसंग तिथी दोष उपजे वे, माटे जयरामां रह्याथी दोपनी शंका केम याशे ? एवो निश्वयकरी गजायें पोताना सेवकोंनें कहीने कोइक राजानी कन्या अत्यंत रूपति लक्षणे करी सहित एहवीने मंगावी लइने तेनी साथे जन्ममात्र परणीने पोताना वास नुवननी हेते नूयरांमां विश्वासु धाव राखी ते धावे तेने लाली पाली मोटी करी. तेवारें ते धावने पण राजायें तिहांथी काढी मूक पण मात्र तेना केश समारवा नृपणादिक पहेराववा शरीरनी शो ना करवा जाय परंतु धाव तेनीसार्थे वार्ता करे नही, तेपण जेवारें ते यु वावस्था पामी वारे बावने पण जवानुं बंध करयुं. तेहनुं पातालसुंदरी ए हवं नाम राजायें पाडं. कारणके एकतो पातालमां रही, यने वजी तेनुं रूप घणुं मनोहर ने तेणे करी पातालसुंदरी एवं यथार्थ नाम थायुं. जन्मयकी ते मुग्धास्त्री, विशुद्ध, स्नेहवती बे, एवी पाताजसुंदरी सा राजा स्नेह सहित विविध विलासे जोग जोगवतो वो. ते स्त्री परपुरुष नुं नाम पण न जाणे, तेमज मनथकी शुद्धशीलनी धरनारी एवी जालीने राजा नल्लासवंत स्नेह धरतो त्यां नृमिगृहमांज घणो वखत रहे, जरुरनुं काम होयतोज बहार यावे. हवे मणिद्वीपथकी अनंग जेवुं जेनं रूप बे, तेवो अनंगदेव नामनो कोइक सार्थवाह घणो सथवारो तेमज घणीवस्तु सायें लइने ते नगरमां प्राव्यो. ते खामला प्रमाण एवो निर्मल मोति नो एक हार जे त्रणे जगतमां सार नूतने ते लइ राजाने नेट कस्यो. ते मज बीजी पण केट लिएक सारवस्तुनुं राजाने नेटणुं कथं तेथी राजा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २१५ पण तेनी उपर तुष्टमान थने तेह- दाण मूकतोहवो. हवे ते अनंग देव मोती, मणि, परवाला, सोनु, पटकुलादिक सर्व वस्तु वेचीकोट्यावधि धननो धणी थयो. तेणे पोताने रहेवासारु मणि, नुवन कराव्युं अने रा जाने चामरनी धरनारी काम पताकानामे गणिका हती तेने घणु इव्य आपीने पोताने वस्यकरी. एकदा अवकाश पामीने अनंगदेव गणिकाने पूज्वालाग्यो के राजा पोते तो सिथिल मन वालो जाणियें बीजुंज चित्त या गयुं होय नहिं तेम राजकार्यने विपें रहे , अने सनामां पण असूरो आवेडे, तेपण वली तत्काल पाडो उतावलो जतोरहे डे,जूगटानुं तथा पर स्त्रीनुं व्यसन पण कांइ एहमां प्रगट दीवामां आवतुं नथी,तेमजतां राजानुं एवं व्ययचित्त केम जणाय ? तेवारे ते गणिका पण सम्यकपणे सार्थवाहने कहे ले के बीजं तो कांइ जाणती नथी पण एक वात जाणुं बु. जे अंतः पुरमा एक एवी वात ले जे ए राजा एक स्त्रीथीज रति सुखमां प्रीतिवंत रहे ले. ते जन्म मात्र पर गेली स्त्री ,जेहने जन्मथकी जूमिगृहमा राखी ,तेथी एकलो तेनी साथें ज विलास करे ने. एवां गणिकानां वचन सांजली अनंगदेव विचारतो ह वो के जे स्त्री सूर्यने पण देखति नथी तथा जेहनी पासे राज्यनुं सर्व कार्य बांमीने राजा तिहांज पड्यो रहे तो ते स्त्री केवी दशे ? तेहनुं दर्शन थर्बु पण उर्लन ? तो तेना शरीरनो स्पर्श तो क्याथीज थाय. एमकामयदे पी ड्यो थको, कंद जेहनु हृदय हण्यं ,एवो अनंगदेव पातालसुंदरीने मल वानो नपाय विचारवा लाग्यो. कयुं वे के जे स्त्री मनवी मुतन होय ते कामीपुरुपने उत्कृष्ट रतिसुखनुं कारण , तेमाटे विशे निवारवं. हवे ते सार्थवाहे फरी घणुं नेटणुं राजाने कर्तुं अने बहु माने कर। राजाने वश कस्यो. तेथी ते सार्थवाह अंतःपुरमां जाय आवे तो कोई तेने मना न करे. एमकरतां एकदा ते नोयरानुं ठेका' जाण्यु. तेवारें पोता ना विश्वासु माणस पासे पोताना घरथी ते जूमिग्रहसुधी सुरंग खोदावी ते नोयरानी जीतने को न जाणे तेवी रीते सलीसंच कस्यो. ते जाणियें सा दात् नरकनोज मार्गहोयनी ? एवो सुरंगनो मारग ले. एकदा ते सलंग हारे नोयरानी जीते आवी सार्थवाह ननो रह्यो, अने जेवो राजा पातालसुंदरी पासेथी बहार निकल्यो के तुरत ते सार्थवाह सुरंगथकी नूमीगृहने विषे Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. गयो. तिहां पातालसुंदरी सुखशय्यामां सुती बेतेने रतीनी पेरें जोड़ने वि चारवा लाग्यो के रूपे करीरीने पातालनी स्त्रीयो जेणे जीती बे, बली एराजा न स्त्रीने वर राजानी पुत्री बे जेनां जन्म मात्रशुद्ध चरित्र बे, तो ते प्र न्यायकारी माहरा वचन केम मानशे ? तेनां हृदयनी वात हुं केम पामुं ? एम विचारी ते स्त्रीने जगाडीने स्नेहथी बोलावी. तेवारें ते स्त्री श्राश्वर्य पामीने घणुं चासवंत थाने जालिये घणा दिवसनो एनीसार्थे परिचयज होय नहिं ? तंवीतं शीघ्रपणे तेनी साथै हास्य करती मली गइ ने कामनोग विलास पण कस्यो. हह ! जू अनादि जवनो अन्यास, ए हमला एने कोणे शीखच्यो ? ए तो जीवनो सहज स्वभाव वे. कने के:-गगदोसक साया, हार जयरुन्न नि मेदुनं ॥ पुवनवनासा, नन त्र्यं दिपि ॥१॥" जावार्थ:- राग, द्वेष, कपाय, याहार, जय, रुदन, निश, मैथुन, एसघलां अणसांनव्या तेमज प्रण दीगं पूर्वजवना अन्यासी जीव पामें ॥ १ ॥ एम चित्तने विषे शंकातो हतो तो पण निशंक चित्त थको ते स्त्री सायें सु ख विजशे तेयें ते सुरंगमां श्राववाने माटे एक मोटी दोरी कर मूकी. ते जेवारें राजा रमीने सनामां जाय के तुरत पेली स्त्री दोरीने खेचे एट जे सार्थवाह त्यां यावे. एम निरंतर चोरनी घेरें ते सार्थवाह गमना गम न करतो विलास जोगवतो वो अने ते स्त्री प्रति धूत्तारी ने तो पण रा जाना मुख प्रागल वली शुद्ध थर चालवा लाग।. ad नंगदेव सार्थवाहने पातालसुंदरीयें कयुं के तुं लगार मात्र बीक राखीश नहीं. तुं मुने ताहरे घेर रेडी जइने बधूं नगर देखाड, एम वारं वार कवाथी ते बीहितो थको पातालसुंदरीने पोताने घेर तेडी जइ नग रनी बधि शोना बतावी. हवे ते पातालसुंदरी एक दिवस गोखे बेठी थकी नगरनी सोना जोती हती तेवामां मोटी इद्धि सहित राजाने रेवाडीयें जतो देखीने विचारवा लागी जे, राजा पोतें एकलो बहुप्रकारनी क्रीडा क रेने मुकने या जन्मपर्यंत गुप्त गृहने विषे बंदीखाने नांखी बे. तेथी ते राजा ऊपर विरक्त थर थकी अनंगदेवने कहेवा लागी के राजायें मुज बंदीखाने राखी, एटला माटे हुं राजाने महा विशुद्धपणुं देखा. ते माटें तुं कपटथी थोडा दिवस आजारी पड यने पाठो सारो थयो बुं एवो ढोंग करी राजाने जमवाने बोलाव, ते बखत हुं राजाने जमवानुं पिरसीने Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा साहत. १७ चमत्कार देखा९. बाबुसानली अनंगदेव सार्थवाह कहे जे के हे मुग्धे ! ए अनीती माराथी केम थाय ? राजाने केम नोतराय ? वली तुं पण राजाने केवीरीतें पारसी सके ? ए प्रत्यक्ष अनर्थ केम थाय ? ते सांगली पातालसं दरी बोली के वाणीया जातें बीकाज होय,निरंतर नय विना बीहीतो रहे, पण तुं अमारुं चरित्र जाणतो नथी. अमे स्त्री जाति बैये ते इंश सरखाने पण नेतरियें, तो वली ए राजा, जे पोतामा व्यर्थ पंमित पणु मानी रह्यो डे, तेनो श्यो नार ? घणुं झुं कहुं तेमाटे जो तुं महारं कर्तुं नहीं करीश तो जीवतो पण केम बूटीश ? आई स्त्रीनुं वचन सांजली ते सार्थवाह नयनांत चित्त थको ते वात तत्काल अंगीकार करीने घणा दिवसनो मांदो थाने अनुक्रमे फरी कप टे करीने साजो थयो. अने सर्व नोजननी सामग्री तैयार करीने राजाने जमवानुं नोतरं देवा गयो. त्यां राजापासे जश् बोल्यो के हे राजन् ! मने घणो मंदवाड हतो, पण हवे तमारा पसायथी सारीरीते करार थयो डे, तो तेनो हवे आजे मारे घेर उडव ने माटे तमे कुटुंब सहित मारे घेर ज मवा पधारो,एम घणो आग्रह करी राजाने जमवानी हाजणावी. हवे राजा कुटुंबसहित जमवाने आव्यो, तेवारें अनंगदेवे घणो आदरसत्कार करी रा जाने जमवा बेसाड्यो. नोजन पीरसवाने पातालसुंदरी आवीने घणि युक्तियें करी राजाने पिरसती हवी. कवि कहे डे के अहह जूठ स्त्रीनु धूर्त पणुं ? राजा वली ते पातालसुंदरीने जोतो थको विस्मयवंत थइने विचार वा लाग्यो के ए पातालसुंदरि हां क्याथी बाव। ? पण नहिं हूं जुलुं ? ए अहियां क्यांथी आवे ? हमणाज हुँ एनीपासेथी आq बुं ? तेतो जन्म थकी नोली, अने आतो एनीज स्त्री , पण निपुणतायें तो तेना जे वीज , अने नेत्रथी जोश्य तो एक रति मात्र पण आंतरं देखातुं नथी. वली.ए बेदुनु आवु बरोबरीपणुं पण केम आवे ? इहां तत्वनी वात को ण जाणे? एनुं निर्णय पण केम थाय ? एमधारी तेने उत्लखवाने अर्थे जेवी ते पातालसुंदरी पीरसीने पानी जती हवी तेवांज राजायें तेनां वस्त्र उपर घीना बांटा नांख्या. ते धूर्त पातालसुंदरी ये जाणी लीधा अने विचायुं जे मारा मो आगलतुं कोणमात्र ? मुजने तुं शुरू जाणे , तेमाटे तें घृतना बिंदु नांख्या. एवो मनमां गर्व धरी हाथमां वीं Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. जो लइ जर्नारिने वायरो नांखती केहेती वी के हे राजन! जेम विषने मुखमा न घालीयें तेनी पेठे ए जोजन तमे केम मुखमां नथी घालता ? ए जोजन तो नक्षण करवा योग्य बे. पण वणिकना नोजन राजाने केम ग मे ? तेथी तमे आरोगता नथी. अथवा हे प्राणनाथ ! मारुं जवन देखि त मारा चित्तने चमत्कार उपन्यो ? तेथी शून्यचित्त ययुं वे, माटे केम जमो ? थवा मोटा माणसनें कुधा अल्प होय, तेथी तमे खाता नथी, एम धीठाइ नां वचन कहती हवी. कवि कहे बे, हो जुन एह स्त्रीनी चेष्टा ? हवे रा जाना चित्तने संशय ने विस्मय ते स्त्री तथा सार्थवाह उपर थयो ने सार्थवाह हास्यपणाना जावनें याश्रय करतो थयो . ते स्त्रीयें राजाने साक र नांखेनुं ध श्रायुं पण राजाने व्यग्र चित्त होवाथी विष सरखुं लाग्युं. तो पण मुनिनी पेरे निःस्वादयंत ते दूध पीधुं यने सार्थवाहे तंबोल वस्त्रादि कानूपण प्रमुख श्राप्यां ते लइ उतावले राजा घरतरफ गयो. इहां ते पातालसुंदरी पण तरत ते राजाना करावेला पर वस्त्र पहेरि मुखने ढांकी पूर्वी पेरें भूमि गृहमां जइ शय्यामां निश्चिंत थकी सूतं . पालथी दवे राजा सर्व तालानी कुंचीयो लेइ नघाडीने नोंयरामां श्रावी जूबे तो जेवीरीतें पोतेसुति मूकि गयो हतो तेवी रीतेंज तेने सूति देखी. त्यां राजा तेने जगाडी, तेवारें ते स्त्री बगासां खाती, खालस मोडती नवी नेवी इ. ते जो राजा विचारवा लाग्यो जे ते स्त्री तो बीजी हती, वस्त्र तथा रत्नजडित यानूषण, जे कांइ जोइयें ते सर्व दीगं. जे मने करी ते राजा स्त्रीने जोतो हवो, पण ते स्त्रीने विषे कलूपतापएं लेश मात्र पण न दीतुं. तेथी निःशंकहृदयें ते पातालसुंदरी साथै पूर्वनी पेरें जोग विलास करे. धू र्त्तनुं चरित्र ते धूर्नज जाणे. साचं होय ते खोट्टं करे बने खोट्टं होय ते साचूं करे. एकदा ते पातालसुंदरी गर्व करती सार्थवाहने रीजवीने कहेवा लागी के हवे सक थाउ, चालो आपणे देशांतर जायें. ते वचन सांजलीने उत्त र देवा समर्थ एवो सार्थवाह केलेतो हवो के हुं राजा पासे रजा जेवा जानं तो राजा केम जाणे नहिं ? तेवारे पातालसुंदरी केहती हवी के वा लिया जातनां बीकण कह्या बे ते वात खरी बे. पणे हवे तुं मारुं माहापण जो राजा मने बोलाववा यावे ते पेहेलां था समुड् लंघि जयें एवा घणा वाहाण तैयार करो. तमारो व्यापार Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २१ सघलो समेटो, उघराणी जेहेणुं प्रमुख जे जेवा योग्य होय ते सधनुं व्यो, माटे जेम हूं बुद्धिथी विस्तारुं तेम तमे प्रतिबंधरहित था. ते सार्थवाह ति कायर एवो पण जालिये बंदीवान बंदीखाने पढ्यो होय तेम, जय जीत थको तेनी सायें चालवा सऊ थयो. कवि कहे बे के कामिनीना सुखना अर्थ एवा जे कामि पुरुषो ने तेने धिक्कार पडो. कयुं ने केः-स्या वेत्रावे मातृमुख, तारुण्ये तरुणीमुखः ॥ वार्द्धकेतुपुत्रमुखो, मूढो नात्ममुखः क्वचित् ॥ १ ॥ नावार्थ : - बाल्यावस्थामां माता सादमुं ए, युवावस्थामां स्त्रीनां मुख साहमुं जूए, वृद्धावस्थामां पुत्रनां मुख साहमुं जूए, पण ते मूढ पुरुष पोताने विषे तो क्यारे पण जूए नहिं. हवे पातालसुंदरी यें सार्थवाहने कयुं के तमे राजाने जश्ने कहो के म द्वारा पितायें मुजने तेडाव्यो बे, एटला माटे हे राजन् ! हुं ताहरी खाज्ञा लेवा थाव्यो ठं, तेथी तमे प्रसन्न हो तो हूं जावं. एवां पातालसुंदरीनां वचन सांगली ते सार्थवाहे विनीत शिष्यनी पेरें तेना कह्या मुजब सर्व हकिगत राजा पासे जइ कही. ने विनंति करवा लाग्यो के हे राजन ! माहरां मातपिता वृद्ध बे, तेमने माहरा विरहनुं दुःख घणुं वे, तेथी तेमनो कागल याव्यो बे, माटे तेमनी पासें जवा सारु तमने पूठवा थाव्यो बुं. त मारे प्रसादे में घी लक्ष्मी उपार्जन करी, ते तमारो उपकार महारी उपर बे माटे खुशी यइने कृपा करी रजा यापो. ते सांगली राजा बोल्यो के तुज सरखा पुरुषने चालवाने रजा केम यपाय ? अने ना पण केम कहे वाय ? कांबे के :- मामाइत्यपमंगलं व्रजइति स्नेहेन हीनंवच स्तिष्टेति प्रभु तायथारुचि कुरुष्वेत्यप्युदासीनता ॥ किंते सांप्रतमाचरामचचितं तत्सोप चारंवचः प्रस्थानोन्मनसीत्यनीष्टमनुजे वक्तुंनशक्तावयं ॥ १ ॥ नावार्थः - जा उमा एम कहीयें तो अपमंगलिक वात थाय, जाउ एम कहीयें तो स्नेहें हीणुं वचन थाय, रहो एम कहीयें तो प्रभुताइनुं वचन थाय, जेम इवा मां यावे ते करो एम कहीयें तो उदासीनुं वचन थाय, शुं तुजने हम ri उचितपणुं करूं एम कहीयें तो सोपचारक वचन थाय, तेमाटे प्रस्था नाने सन्मुख जे वहालुं मनुष्य थाय तेने कहेवा मे समर्थ नयी ॥ १ ॥ जो तुमने जवानुंज मन बे तो तुं कांइ कार्य मने कहे, जो हमलां कहेतुं होय तो हम कहे ने पी कहेतुं होय तो पढी कहेजे. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. आवां राजानां वचन सांजली सार्थवाह बोल्यो के हे राजन् ! तमारा पसायथी माहरूं संपूर्ण कार्य नीपतुं ने तो पण जो तमें मारा ऊपर प्रस न हो तो मने कांगसुधी चालती वखत वोलावा श्रावो. कारण के तेथी करी देशांतरने विपे माहरी कीर्ति कांक आचर्यकारी पसरे, यशवाद घणो थाय. राजायें तेनुं वचन अंगीकार कत्युं. कवि कहे जे के अहह ? जून मोटा पुरुषनी अनुवृत्ति केवी ले ? के जे कांश साहामो धणी कहे ने ते सर्व प्रमाण करे . हवे ते सार्थवाहे गुज मूदुनै घणां वाहाण करियाणांथी जरीने समुह मां तैयार राख्यां अने पोते सुखपाले बेसी समुश् कांते गयो. त्यां राजा पण सुखपालें बेसी तेने वोलावा आव्यो, पातातसुंदरी पण सुरवपाले वेठी पोतानी बुद्धिथी श्रा कार्य नीपन्युं तेथी हर्ष पामती राजा पासें जा कहेती हवी के हे स्वामिन् ! अमोने प्रनुयें मोहोटो पसाय कस्खा. हे रा जन् ! तमारा पसायथी महारा स्वामी मोटी कि उपार्जी. तमारा पता यथी अमारां सघलां कार्यनी सिदि थ. हे राजन ! बदु मानथकी अथ्वा अज्ञानथकी जे कांमाहरो अपराध थयो होय ते दमा करजो. हे गजन : अमने तमारा सेवक जाणीने कोई वार पण संजारजो! अमने वणिकने कोण संनारे ? तो पण अमारे कहेवू नचित्त ने. कवि कह डे के जूस सतीनुं धीश्पणुं. आवां वचन सांजली राजा विचार करतो हव के धिक्क था ? ए स्त्री पातालसुंदरीज डे. वली विचारवा लाग्यो के पातालसुं दरी इहां क्याथी होय ? पूर्वे पण मुजने नर्म उपनो हतो तेम आ हम णा पण नर्म पडे . समशीर्षपणे विधात्रानी स्पीयें जागीय राजानो, शेतनो अने पातालसुंदरीनो एत्रणेनो सुखपाल बराबर चालते थके थोडीवा रमां समुश्कांते सहु परिवार संघाते आव्या. ते सार्थवाह राजाने नमीने पातालसुंदरी सहित मोटा वाहाणमां शीघ्रपणे बेगे. हवे कदाच पाबल थी आपणी शोध करवा माटे राजा आवशे एवी शंकायें पातालसुंदरीयें सार्थवाहने कर्यु के बीजे मार्गे वहाण चलावो. तिहां नयन, मन अने प वनना वेगनी पेरें तथा कनोलहणांतानी पेरें ते वाहण चालता हवा. हवे ते पातालसुंदरी, वाहाणमां महीना सुधी तो सार्थवाहनी सा थें आशक्त रही. त्यार पड़ी ते सार्थवाहनो नाबंध सुकंठ नामें यथार्थ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २१ नामनो धणी हतो तेनी साथें देवरना संबंधथी हास्य करती, तेना सुस्वरे करीने पातालसुंदरी तेनी साथें रक्त थइ थकी गुप्तपणे रमण करे. अहो! जून स्त्रीयोनुं चंचलपणुं कहे जे ? कयुं डे केः-कबोलादपिबुडुदाहपिच लहिद्युदिलासादपि, जीमूतादपिमारुतादपितरत्ताक्ष्योर्ध्वपदादपि ॥ चित्रं चित्रमयंचलात्रिनुवनेकिंश्रीनतेशेमुखी, नैवंकिंखलसंगतिर्ननननुस्त्रीजातिर स्यैनमः ॥ १ ॥ नावार्थः-पाणीना कनोलयकी पाणीना पर्पोटा चपल बे, तेथकी वीजती चपल ने, तेथकी वीजलीना चलत्कार चंचल , तेथ की वर्षाद चपल छे, तेथकी वायु चपल , तेथकी वली गरुडनी नई पांख चपल , ते गरुडनी नई पाखनी पेरें, आश्चर्यमांहि आश्चर्यकारी एवी त्रण लोकमां वस्तु नथी. लक्ष्मी पण चपल डे, खलनी संगति ते पण चपल , एवी रीतें निचे स्त्री जात चपल दे, ते स्त्री जात नणि नमस्कार थान ॥१॥ हवे सुकंठ संघाते विलास करतां अनंगदेवने अंतरा यनूत जाणीने पातालसुंदरी मनमां चिंतववा लागी के जो हुँ अनंगदेवने मारूं तो सुकंठ संघाते प्रगटपणे जोगविलास करूं. __एकदा अक्षरात्रीने समयें अनंगदेव शरीर चिंतायें उपयो, तेवारें पा तालसुंदरीये शीघ्रपणे पबरनी पेठे तेने समुश्मा नांख्यो. कयुं केः-जंचि ने चित्तंनं, जन सुविणेवि पिथी सक्का॥ लीलावश्ण लीला, वावारोतमि कर्कमि ॥ १ ॥ नावार्थ:-जे चित्तने विषे विचास्यामां न आवे तथा जे स्वप्नमां पण जोयामां न आवे, ते वात, लीलानी करनारी एवी स्त्रीनी लीलानो व्यापार ते कार्यमां आवे ॥ १ ॥ हवे ते असती केटलोक वखत उंचे स्वरे पोकार करती, विषाद करती हवी के धान! हे लोको धान? मा हरो स्वामि इहां समुश्मां पडी गयो. जेम रांकना हाथमाथी रतन खोवा य तेम मनें थयु. एवां पातालसुंदरीनां मुखथी विलापनां कटुक वचन सांनलिने सर्व साथना लोक दुःख धरवा लाग्यां. जेम पुण्यहीनना हाथ माथी रत्न गयुं होय तेने शोधे पण जडे नहिं तेम अनंगदेवने सघला स थवारायें मली घणोयें समुश्मा खोल्यो पण क्यांहि जड्यो नहिं. पड़ी ते पातालसुंदरी कुलटा सतीनी पेरें महोटे स्वरें नव नवां विलाप करती मर वाने वास्ते तैयार थइने कहेवा लागी के हुँ पण हवे मरीश. कवि कहे ले के अहो ! जून कपटनी उत्कृष्टी मर्यादा कहेवी के ? Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श्श जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हवे एवं सांजली सुकंगदिक सर्व सथवाराना लोक पातालसुंदरीने वा रवा माटे दोज्या, अने सर्व कोइ कहेवा लाग्या के तुं ताहरुं अकस्मात पणे मरण केम करे ले ? उष्ट दैवना उष्ट व्यापारथकी अनंगदेव आपणने मले एवो कोई हवे नपाय नथी, तो हवे ते सार्थवाह अमारोस्वामी गयो ते स्वामीने ठेकाणे तमेज अमारा स्वामी हो. ते सांजली सुकंठ मौन्य ध रीने रह्यो. अने पातालसुंदरी तो बाह्यनावें शोक धरती पण अंतरजावे हर्ष धरती हवी जे सुकंठ संघाते सुखविलास करवानी निर्नयता थइ. धि कार ! ए उष्टाने के जेणे शठपषु करी तीक्ष्ण बुदिना धणी सार्थवाह ने समुश्मा नांखी दीधो, तेथी जो ढुं तेनी साथै विलास करूं तो मारा प ण एवा हाल करे. धिक्कारने ए स्त्रीने ? के जेणे धीपणाथी राजाने अने सार्थवाह बन्नेने बांया तो ते मने पण केम नहिं बांझे ? कोण जाणे मुने पण झुं करशे ? एम विचारीने सुकंठ विरक्त चित्त थको ने तोपण नये क रीने ते स्त्रीने अनुजायीयें चाले. जेम माकिणीना बलमां पड्यो होय तेम केटलोक काल ते स्त्री साथें तेणे निर्गमन कस्यो. __ हवे सार्थवाह समुश्मा पड्यो थको तेने कोक पुण्यना उदयने लीधे देवयोगथी क्यांहीथी तणातुं यावतुं एक नांगेला वाहाण- पाटीयुं हाथ आव्युं. ते पाटीयाने अवलंबे नव प्राणी जेम धर्म पामे तेम समुझ्ने क लोचे प्रेयो थको सिंहलदीप प्रत्ये पाम्यो. त्यां स्वस्थ थश्ने विचारवाला ग्यो जे निर्दयी स्त्रीने अर्थे में पापीयें स्वामिशेहादिक अणकरवा योग्य कार्य कयुं, तेहतुं या स्वरूप थयु. पण ते स्त्रीने ए अनुरूपज बे. कयुं ले केः-वंचिऊ निअसामी, दिऊजीयंपिकिङजिस्सा ॥ कङ्गरुअमकङ, हा श्बी सावि विहडे ॥ १॥ नावार्थः-जेनें अर्थे पोताना स्वामिने बेतरे, जेहने माटे जीव सरखो दीये, वलि जेहने अर्थे मोटुं अकार्य करे, हा इति खेदे ? एवी पण ते स्त्री पोताना स्वामिने मूकी आपे तथा हणे ॥१॥.एवी स्त्रीने विपे ढुं आसक्त थयो माटे मूढ,अज्ञानी, कामांध एवा मुमने धिक्कार पडो. आकरा पापनो करनार पापी ढुं माहरा पापथकी हवे केम बूटीश ? एवा नयथी नग पामी चित्तमां वैराग्य उपन्यो तेथी वैराग्य पामी सुगुरु पासे जश्ने चारित्र ले अनुक्रमें निरवद्य चारित्र पालतो हवो. हवे दैवयोगथी ते वहाण पण सिंहलदी आव्या. तिहां सुकंठ पाता Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २२३ लसुंदरीने लइने जिहां अनंगदेव कृषी कासग्गे रह्या ले ते वनमां क्रीडा करवा आव्यो. त्यां ऋषिने अकस्मात् देखीने शंका उपनी, तेथी ते सुकंठ विस्मय अने लजावंत थयो. पडी पोतानुं चरित्र प्रकाशी ते साधुने तेहनुं च रित्र पूबीने विरक्त चित्त थका ते सुकंठे सम्यकपणे पोतानो अपराध खमा व्यो. उत्तमनो एज आचार ले. हवे ते अनंगदेव मुनिने सुकंठ मल्यो एवं जा णीने पातालसुंदरी ते सुकंठने पण मूकीने त्यांथी नाशी एक वहाणमा उता वली चढिने वहाण हंकारीने ते पापणी बीजे हीपे गइ. तिहां पण जाव जीव लड़ा मूकी स्वेदाचारीपणे वेश्यापणुं करीने ते पापणी नरके गइ. घणा नव संसारमा रमलशे. हवे संपूर्ण वैराग्यनी उत्कंठा जेहने के एवो सुकंठ पण चारित्र ले, तेने निरतिचार पणे पाली बन्ने जणां देवलोकें गया. ते वेदु जाइ थोडा कालमां मोद पण पामशे. हवे जयवंतसेन राजा सार्थवाहने वोलावी मननी शंका टालवा माटें नू मिगृहमां गयो. त्यां पातालसुंदरीने नहिं देखवाथी अत्यंत विपाद धरतो,मंत्री सामंत प्रमुखने तेडावीने कहेवा लाग्यो के ते सार्थवाह धूतारो अहह जूठ ? मारी समद माहरी स्त्री हरी गयो,माटे कोई एवो धीरवीर कोटायुधार डे, जे वेगे करीने ते अत्यंत माता चरित्रना धणी बेदु पापीने शहां लावे,के जे थी हुँ ते बन्नेने सना समद शिक्षा आपुं? ते सामंतादिक सर्व सांजलीने य ण सदहता थका ते नोयरूं जोवा लाग्या, त्यां चोमेर जोवाथी एक मुरंग नजरे दीती. ते देखी विस्मय अने विपाद तेणे करी दोलायमान मन थ का एम केहेता हवा के हे राजन् ! ते स्त्रीने जाती वखते तमे पण केम उ लखी नहिं ? राजा कहे जे के तमे पड्या उपर पार्टी गुं करवा मारो बो ? चांदा उपर खार झुं मूको बो ? हमणा महारो वांक न काढो, पण शीघ्र पणे उपाय करी तेने पकडी लावो. एम सर्वनी साथे वातो करतो राजास मुश्ने कांते जोवा आव्यो, ने कहेवा लाग्यो के वाहाण शीघ्रपणे सङ करो, त्यारे प्रवहण सऊ करवाने विषे निपुण एवा पुरुष कहे डे के ए कांश वैद्यनी गोली नथी ? के कांइ गांधीनी पुडी नथी ? ए वहाण तो घणे काले सङ थाय. तेमज ते वाहाण गयाने घणी वार थइ ते क्या जश्ने लावीये? अने वाहाण पण को आंही सिलिक रह्यं नथी के तैयार करीने जाश्य. सर्वे वाहाणो सार्थवाहनी साथें गयां जे. राजा हृदयमां निराश थइ विचारे डे Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. के हा हा जूठ ? महाधूर्तपणायें ते पापीयें मुजने प्रत्यक्ष तस्यो. जन्मथ की नूमिगृहने विषे रही अति मुग्धा, माहरी उपर घणुं हेत रावती तेणे मुजने बेतरीने एवं केम कयुं ? धिक्कार पडोस्त्रीचरित्रने ? एम ते राजा सं शय, विषाद, खेद, विस्मय, निर्वेद्य तप आपत्तिमां पड्यो एवे सम ये घणा राजायें तथा घणा देवतायें पूज्या एवा केवलि जगवान जेम वादलां थया विना अकस्मात् वरसाद आवे तेम त्यां अकस्मात् आव्या, ते देखीने राजा घj रीज्यो अने केवलि नगवानने नमस्कार करीने पाताल सुंदरीनुं चरित्र पूडतो हवो. तेवारे ते केवलीनगवान तेनुं चारित्र कहेता हवा. कान दर तेनुं सर्व वृत्तांत सांजली राजाना हृदयमां वैराग नरा णो तेवारें दीक्षा लइ सातमे दिवसे केवलज्ञान पामिने केटलो एक काल केवलीपणे विचरीने मोके गयो. तेमाटे हे राजन् ! एवी पातालसुंदरी कू सती थइ तो वाणियानी स्त्री रखोपाधिनानी कूसती थाय तेमा केहेवू युं ? एहवां चार मंत्रियोनां वचन सांजली राजा तत्वार्थथी वेगलो थको चार प्रधानने कहे जे, ए सर्व प्रत्यद कपट डे एटला माटे कोइ पण प्रकारे त नुं कुशीलपणुं जोइ एकपट प्रगट करो, ते वात चारे प्रधाने पण कबूल करी। केम के प्रपंचमांहे चतुर में एवा ते चार प्रधान परस्त्रीमां लंपट हताअने वली ते ने राजानी आझा थइ. एक तो मार्जार अने वली तेने उध जना व्यु होय तो केवी खुशी थाय, ते प्रमाणे ते चारे खुशी थया. थका ते चारे जणा शीलवतीनुं शीलरूप जल शोषवाने अर्थ सादात वडवानल सरखा थर, कांक मिस करी घर तरफ पाढा वव्या. हवे ते चारे जणा उनट वेष धरीने शीलवतीनी पासे दूतीने मूरखे का मीपणाना नाव प्रत्ये जणावी अने सार सार वस्तु मोकलावी विषयनी प्रार्थना करे. ते जाणीने शीलवती मनमां विचारवा लागी के धिक्कार पडो? ए मूढोने के जे मारुं शील लेवाने तत्पर थया , अरे ? ते तुन मतिना धणीयो सिंहणतुं सुध लेवानी पेरें मारुं शील लेवाने श्वे. कयुं ने केःकिविणाण धणं नागाण, फणमणी केसर। सीहाणं ॥ कुनबाली आण सी लं, कत्तो धिप्पंति अमुत्राणं ॥१॥ जावार्थः-कृपणतुं धन, नागनी फ एनी मणि, सिंहना मस्तकनी केसरा, अने कुलवती स्त्रीनुं शील एटली वस्तु ज्यां सुधी ते जीवतां होय त्यां सुधी कोथी लइ शकाय नहि ॥१॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २२५ माहरा स्वामिना दाथमां कमल देखीने श्रधा न धरतो एवो राजानो कयो ए अनर्थ डे, नहिंतर निःशंक हृदय थयानी पेरें ए आवा अकार्यने विपे केम सक्त थाय, तेमाटे एने कांइक चमत्कार देखा९. एवो विचार करी शील वती दूतीने कहे के हे सखि ! आवडो स्नेह श्यो ? वली सनिल, कह्यु डे के साधुने इव्यनी संगत करवी न घटे, उत्तमने मदिरानो संग करवो न घटे, तेम कुलवती स्त्रीने परपुरुषनो संग करवो घटे नहि. तो पण जेम चोपडेलानी लालचे एवं अन्न खायें तेम जो मों माग्यु इव्य पामीयें तो परपुरुपनो संग पण करीये. तेमाटें जो लाख सोनैया कबुल करे तो सुखे पांच रात्रि पड़ी एक रात्रिना चारे पहोर चारे जणा महारी पासें आवे, एम कही दूतीने विदाय करी. दूतीयें जश्ने ते हकीक त ते चारे जाने कही. हवे शीलवतीयें उरडा मध्ये पव्यंक प्रमाणे एक मोटी नंमी खाड करावी. पांचमा दिवसनी रात्रे आत्माने कृतार्थ मानता लाख सोनैया लश्ने शीलवतीने घेर ते चारे जण अनुक्रमें चारे पोहोरे याव्या. हवे जे पेहेले पोहोरे आव्यो तेने शीलवतीयें घणो श्रादर दक्ष, ने खाड उपर पाटीया नया विनानो पलंग राख्यो हतो, तेनी उपर लुगडं ढांकी राखेखें हतुं, ते उपर बेसवानुं कर्तुं. तिहां जेटले ते पलंग नपर वे शवा गयो तेटले ते कामांध खाडमां जा पड्यो. एम चारे पोहोरे चारे जणां खाडमा पड्या. जे अपघटतुं काम करे तेने तेज कर जोश्यें. हवे ते चारे जणां खाडमां पड्या थका विचारवा लाग्या के, अहो ? एणियें सारु कयं जे आपणां हाडकां न नांग्या? उष्टोनां हाडकां जांगवा ज जोश्ये? पण तेने दया उपनी. हवे ते प्रधानो तिहां कूप स्वरूपने विपे पोताने कर्मे करी नारकीनी पेरें बंदीवानाना उख जोगवतां, पोतानां वि पाक संजारतां, विविध प्रकारे हृदयमां फूरता रहे बे. __ शीलवतीने पण दया नपजवाथी कोदरा प्रमुख निःस्वादवंत अन्ननु ए केकुं सरावद्यु, अने एकेको पाणीनो करबडो दोरी बांधीने खाडमां मूके, ते खाइने ते चारे जणां पड्या रहे. एम बुधियें करीने वैद्यनी पेरें जेम वैद्य मोटो रोग टाले तेम तेउनो अंतरंग रोग महोटो हतो ते टालती हवी. एम करतां महिना गया, तेवारे ते जीवता पण मुवा सरिखा रह्या. माटे विषयनी तृष्णाने धिक्कार हो कह्यु डे केः-विपस्य विषयाणांच, दृश्य Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनकया रत्नकोप नाग चोथो. ते महदंतरं ॥ उपचुक्तं विपंदंति, विपयः स्मरणादपि ॥१॥ जावार्थःविषमां अने विषयमा मोटुं अंतर मालुम पडे ,केम के विष जे ले तेतो खाधाथकी मरण नीपजावे रे पण विपय तो स्मरण थकी पण मारे ले ॥ १ ॥ चके विपेण नीतत्व, मात्रं कंठे महेशितुः ॥ विषयैस्तु तदंगाई, हतेमेश महोमहः ॥ २ ॥ नावार्थः-विप जे ने तेणे महेशना कंचने विपे नीला पणुं कस्युं, अने विपयें तो शिवनुं अर्धाग हयुं ॥ ॥ हवे ते राजा समुश्नी पेरें शत्रुने जीतीने सार वस्तु लइ अजितसेन सहित पोता ने नगरे आव्यो. अजितसेन पोताने मंदिर बायो त्यारे शीलवतीयें पो तानुं चरित्र तथा चार प्रधाननुं स्वरूप सर्व जेम बन्युं हतुं तेम कही संन लाव्यु. अजितसेने पण पोतानुं वृत्तांत कडं. जली प्रीतिनुं एज लवण . हवे राजायें पोताने मंदिर याव्या पनी चार प्रधाननो शोध करतो पण क्यांइ पत्तो न लाग्यो. त्यारे हसिने अजितसेनने कडं के, तमे अमने ज मवाने पण निमंत्रणा करता नथी ते गुं? अजितसेने ते वात शीलवतीने कही तेथी तेणे कडं के हे स्वामि? सुखें राजाने जमवाने नोतरो,विपयना फल आ नवने विपे प्रधानो पाम्या ने ते देवा९. एवं सांजली अजितमेने स्त्रीना कहेवाथी राजाने जमवानी निमंत्रणा करी. तेथी राजा हर्पित थ यो के हवे ते चार प्रधाननी शुद्धि अजितमेनने त्यां पामीश, माटे तेने घेर केटलाक परिजननी साथे जयें तो माझं जर्बु उचित कहेवाय. एम विचारीने राजायें चर पुरुपने अजितसेनने घेर जमवा माटे रसोश्नी खबर काढवा मोकव्यो. ते जर पालो बागी उंचे स्वरे राजाने केहेतो दवो के हे स्वामिन् ! कशी पण रसोश्नी सामग्री देखाती नथी, वीजें तो रा? परंतु धूम्र पण तेहना घरने विपे देखाता नथी. एवी वात सांनतीने राजा वि स्मय पामतो चिंतववा लाग्यो के, आ गुं आर्य ? जो हुँ घणो परिवार साथे लश्ने जमवा जश तो त्यांए मुजने झुं जमाडशे ? हवे मोटा तपस्वीनी पेरें जेहनां शरीरमा हाड ने चामडां मात्र रह्यां ने, एवा चार प्रधानने ते शीलवती कहेवा लागी के जो तमे मारुं कर्तुं मानो तो ढुं तमने बहार काटुं. अन्यथा करशो तो पाबा खाडामां नांखी दश? तेवारें बीहीना थका जेम शीलवतीयें कडं तेम ते चारे जणे अंगीकार क घु. पनी कूपरूप बंधीखाणामांथी ते ने शीलवतीयें बाहार काढी नवरावीने Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २२७ सघलाने अंगे रातुं चंदन चोपडधुं श्रने ते चारेने यह सरखा दाढी, मूल, कुसम पूजित यह करीने घरमा राख्या धने कयुं के जे मागीयें ते याप जो पण चक्कु मात्र जरा हलावशो नहि. जो तेम करशो तो हुं तमने पाठा खाडमां नाखी दश. एम कही घर मध्ये बानी विविध जातना पक्वान प्र मुख रसोइ करावीने घणा नह नोजन सक करी ते सर्व योनापासें मूकी aala aai जितसेन राजाने तेडवा सारु गयो. राजा घणा परिवार संघाते जितसेनने घेर थाव्यो. तेवारें स्नानादिकनी सामग्री, पाणी, श्रा सन, नोजन, पक्कान, शाकादिक प्रमुख जे जे वस्तु जोइयें ते सर्व यह या पे. राजा जमतो जमतो विचार करवा लाग्यो के चरडामा कोइक यक्ष ने ते पेढे, पण अंधकारे कांइ खबर पडती नथी, तथापि प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष सरखा ते यक्ष . माटे सर्व पुरुषने वांबितना आपनार एवा ए यो माह रे घेर जोइयें ? केमके जो ते माहरा घरमां होय तो हुं वांछित सकल क fa करीने कृतार्थ यानं इत्यादिक ते यने विषे एकांत चित्त एवो ते राजा चार प्रधाननी शुद्धिनुं नाम पण वीसरी गयो खने नोजन पण शू न्य मने करीने उठ्यो, एटले जितसेने वस्त्र आभरणादिके करी घणो स त्कार करो. त्यारे राजायें लका बोडीने दीननी पेरें घष्णा मनुहारे करी य को माग्या. ते सांगली अजितसेन पूर्वे स्त्रीना शीखव्या प्रमाणे कहेतो वो के हे स्वामिन्! बीजो कोइ मागे तो न श्रापुं पण तमने स्वामिने ना केम कवाय ? तमे ज्यारे माग्या त्यारे हवे तो आापवाज जोइये. अरे स्वामि ! एमां गुं विशेष बे ? बधुं घर पण तमारूंज बे. माटे तमे मंदिर पधारो, ढुं हमणां ते यकोने तमारी पढवाडे मोकलुं बुं. केमके ते चार यहोनें चार पेटीयोमां घालिने तमोने हुं नेटणुं करीश. अने ते पेटीयो मोहोटे उत्सवे करीने सनामां उघाडजो. एवा अजितसेननां वचन सांजलीने राजा रीज पायो को पोताने मंदिर जातो हवो. तेटजे अजितसेने पण ते चार य कोने पेटीमां घालिने राजदरवारमां राजानी पाउल पेटीयो मोकली पी. हवे राजसनामां राजा हर्षथी जेटले पेटीयो उघाडे ने तेटले, ते पेटीयो मां चार प्रधान विकराल वैताल सरिखा देखीने, कांइक जय, कांइक विस्मय, वली प्रीतिथी, ते चारे अनिमिषनेत्रं राजाने जोइ रह्या यने ते चारेने देखी राजा पण अनिमिषनयले जोइ रह्यो. चपलशरीर मनुष्यनी पेरे तेने देखी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. ने, राजायें कूतूहले करी उल्लासवंत थइ तेने बोलावीने कयुं के,तमे कोण बो? तेवारे ते शीलवतीना नयथी अने लहाथी मौन रह्या. घणीवार जो रह्याथी राजायें तेमने उलख्या जे ए तो चारे महारा प्रधान डे, बीजा कोइ नथी. त्यारे विस्मय विषाद,लका,अने प्रीतियें करीने राजायें ते चार प्रधा नने पूर्वा, तेथी ते लाजता थका पण सर्व वात यथार्थपणे जेम नीपनी तेम सर्व पूर्व वृत्तांतनी कही. जेम घेलो माणस धूड उडाडे ते पोताना म स्तकनी नपर पडे तेम अमे शीलवतीने करवा गया तो तेवू अमे थोडा काल मां पाम्या. ते चारे शीलवतीना शीलनी कला संबंधी प्रशंसा करता हवा. ते शीलवती सर्व लोकने प्रशंसवा योग्य थइ. एहवं कोई नयी के जे शीलव तीना शीलनी प्रशंसा न करे ? शरीरे करी शील पालवू तेनां करतां वचने करी विशुम शील पाल, ते पुक्कर ले, अने तेथी मनेकरी शील पालवं ते वली घणुज मुक्कर . ए शीलवतीनां पुष्कर चरित्र . दीदा पालवाणी जेम साधु परीक्षायें उत्तरे, अमियकी तपाव्युं जेम सुवर्ण तेजवंत थाय, तेम ते शीलवतीनो परीक्षायें करीने सनामां माहो महिमा थयो, राजायें त था प्रधाने ते शीलवतीने खमावी. शीलवतीये ते प्रधानोनुं लीधखं धन ने उने पाळू यापी प्रतिबोधीने परदारा गमन करवाना नियम लेवराव्या. अ हो जून के सतीनो मार्ग केवो उत्तम ? हवे गुनकर्मना उदयथी त्यां दमघोप नामे मुनि आव्या ते सांजलीने अ जितसेन स्त्री सहित गुरुने वांदवा गयो. त्यां गुरुने वांदीने अजितसेन पाल ला नव पूडतो हवो. तेवारे चार ज्ञानना धणी गुरु कहेले,के पूर्वे पुष्पपुरनगर ने विपे पाप करवाने आलसु एवो सुलसा नामे वणिक रहेतो हतो,जली सुय शा नामे तेनी स्त्री हती,तेहना घरने विषेऽर्ग अने मुगा नामे नकि परिणा म वाला स्त्री अने नार वेदु जण दास हता. एकदा शुक्ल पंचमीने दिवसे सुयशानीसाथे उर्गा पण साधवीनीपासें उपाश्रये गइ. त्यां सघलाने झान, पूजा, करता देखीने उर्गा जे जे ते साध्वी पत्ये पूबती हवी के बाज कयी तिथी ? साध्वीयें कर्तुं शुक्त पंचमी . तेवारे उर्गाये पूब्युं शुक्ल पंचमी, गुं फल ? त्यारे साध्वी कहे जे. कडं बे केः-इह पुरयाइ जे वन,गंधकुसुमञ्च एहिं अचंति ॥ ढोति नाण पुरन,नेवऊं दीपवर्दिति ॥१॥ सत्तीकुणंती, तवं तेढुंति विसु बुद्धि संपन्न ॥ सोहग्गा गुणवा,सबन्नुपयंच पायंति ॥२॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए नावार्थः-इहां पुस्तकने विंटाघणा वस्त्रादिकना करे अने सुगंध धूपादिक, पुष्पादिकना समुच्चयें करीने अ. एटले पूजे अने ज्ञानना मुख आगल नैवेद्यने दीप प्रमुख थापे ॥ १ ॥ शक्ति सहित तप करे, ते निर्मल बुद्धि वाला थाय. अने सौनाग्यादिक गुण सहित थका सर्वपद पण पामे ॥२॥ एवं सांजलीने दुर्गा पूछे ले के, हे जगवति ? नाग्यवंतने धर्मनो संयोग होय, पण अम सरखाने वली किहां यकी संयोग होय ? तेवारें गुरुपी कहे के यथाशक्ति प्रमाणे दान करवू, शक्तिने अनुसारें तप कर तथा शी ल पालवू ते तो पोताने वश्य ले. जे परपुरुषनें त्यागोने निर्मल शील पा ले ? अने सघला पर्वदिवसोने विपे तो वली पोताना स्वामिनी साथें नोग करवानो पण त्याग करे,एवं ब्रह्मचर्यव्रत पालवू. एवा गुरुनां वचन सांजली ने उर्गायें परपुरुषनो त्याग तथा पर्वदिवसनेविपे पोताना स्वामीने त्याग क रवानुं शीलवत अंगीकार करी समकित पार्जिने पोताने घेर आवी. जे सघली अपूर्व वस्तुनी प्राप्ति ते निश्चें प्रीतिने ठेकाणे केहेवी जोश्ये, एम धारीने दुर्गायें पोताना धणीने धर्मनी, शीलनी सर्व वात कही तेथी तेना स्वामिये पण निश्चयथकी शील पडिवज्यु. ते दुर्गे पण प्रशंसा करवा यो ग्य पोतानी स्त्रीना वचनथी सर्व स्त्रीनां जाव जीव सुधी पचरकाण कस्या अने पर्वदिवसें तो पोतानी स्त्रीने सेववानुं पण पञ्चरकाण कऱ्या. एम स्त्री नी पेरें सर्वथा शील धरवु तेनुं पञ्चरकाण दुर्गे कयुं. ते नियमना आराधया थी अनुक्रमें ते उर्ग पण समकित पाम्यो. जेम दीवाथकी दीवो करीयें तेम धर्मथकी धर्म थयो. जेमने स्वनावे अधिक धर्मनी रुची चे एवां मुर्गा अने ऊर्ग वेदु जण ज्ञान पांचमीना दिवसें छाननी पूजा करे, शील पाले. ए रीतें सम्यक् प्रकारें धर्म आराधी मरण पामीने बने जणां सौधर्म देवलोकें जइ उपना. त्यांची चवीने उगनो जीव तमें अजितसेन थया अने मुर्गानो जीव-ते ताहरी शीलवती नामें स्त्री थइ. जे माटे पूर्वनवें ते ज्ञान आराध वाथी इहां मतिज्ञान पामी अने पूर्वनवना अन्यासथी शील पालवाने प ण दृढ थइ अने पूर्व ए स्त्रीना वचनथी तुमे धर्म बाराध्यो तेना प्रनावथी आ नवने विषे घणी लक्ष्मी, प्रतिष्ठा, बदु मान्यता प्रमुख तमे पाम्या. एम गुरुनां मुखथी पाउलो नव सांजलीने ते बन्ने स्त्री जरतारने जाति स्मरण उपन्यु, तेथी कहेवा लाग्यां के हे नाथ ! तमे जेटलु कयुं तेटवू अमें प्र Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. गटपणे दीतुं. तेवारें गुरु बोल्या के ए तो तमें देशथी शीयल पाव्युं तेहy ए फल पाम्या माटे हवे दीक्षा लेने सर्वथी ब्रह्मचर्यपणुं पालो. एवा गु रुना वचन सांजली ते स्त्री जरतार वेतु जणे दीक्षा लीधी. ते शीलवतना प्रनारथी ते वेदु ब्रह्मनामा पाचमें देवलोके गया. तिहाथी चवी मनुष्यनो नव पामी निर्मल शील पालीने मोदे जशे. एहवी शीलवतीनी कथा सां नलीने जे नव्यप्राणी शील पालशे ते या नवनेविपे सर्व संपदा जोगव ने परनवने विपे स्वर्ग, अपवर्गना सुरखनो जोक्ता याशे. ॥ इति चोथा अणुव्रतने विपे शीलवतीनी कथा समाप्तः ॥ ॥ अथ पंचम परीग्रह परिणामव्रत प्रारंजः ॥ ॥त्तो अगवए पंच, मंमि आयरिय मप्पसमि ॥परिमाण परिए, श्वपमाय प्पसंगणं॥१७॥ अर्थः- (इत्तो के० ) ए चोथुव्रत कह्या पली दवे एथी पागल पांचमा अणुव्रतने विपे अप्रशस्त परिणामें आचयुं होय जे इहां परिग्रह परिमाण व्रतने विपे लोनना उदयथी प्रमादना प्रसंगें करीने दूपण लाग्युं होय । त्यादी. हवे परिग्रहना वे नेद बे. एक वाह्य अने बीजं अन्यंतर. तमां बाह्य ते धन धान्यादिक नव प्रकारे जाणवू अने अन्यंतर ते राग पादिक चौ द प्रकारे जाणवू. तेमां हां बाह्यनो अधिकार में ॥ १७ ॥ हवे ए व्रतना पांच अतिचार आलोवे ने. ॥धणधन्न खित्तवनु,रूप सुवरमेय कुविय परिमाणे॥ मुपए चनप्पयंमि, पडिक्कमे देसिअं सत्वं ॥ १७ ॥ अर्थः- धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, रु', सोनु, कुप्य, हिपद, चतुष्पदना परिमाणने विपे जे दोप लागो होय ते पडिक्कमुं हुं इत्यादि पूर्ववत्॥१८॥ श्री नवादुस्वामी कृत दशवेकालिकनी नियूक्तिमां गृहस्थने अर्थे परि ग्रहना ब नेद कह्या रे ? धान्य, २ रत्न, ३ थावर, ४ पिद, ५ चतुष्पद अने ६ कुप्य एक प्रकारतो सामान्ये कह्या अने विशेषथी एना नेद चो सत थाय. तेमां प्रथम धान्यना चोवीश नेद कहे जेः- १ जव, २ गहुँ ३ शालि, ४ वीही, ५ शाठीचोखा, ६ कोदरा, ७ युगंधरी, G कांग, ए रा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २३१ ल धाननीजाति, १० तिल, ११ मुंग, १२ अडद, १३ अलसी, १४ च पा, १५ त्रिपुटक ए धान्य मालवामांहे थाय ने, १६ वाल, १७ मठ, १७ चोला, १ए बरटी, २० मसूर, २१ तूयर, २२ कुलथ, २३ मणची, २४ वटाणा, ए चोवीश धान्य प्रसि कह्यां . हवे चोवीश जातिनां रत्न कहे . १ सोनुं, २ तरुन, ३ त्रांबु, ४ रू' ५ लोहादिक, ६ सीसुं, ७ जात्यकांचन, हीरानीजाति, पाषाण, पारस, ए वजहीरा, १० मणिनीजाति, ११ मोती, १५ प्रवाला, १३ दक्षिणाव शंख. १४ तिन्निसो ते कोइएक जातिनुं वृद, १५ अगर, १६ चंदन, बा वनाचंदन, १७ रक्तचंदन अथवा वस्त्रनी जाति, १७ उर्णिका उननावस्त्र नी जाति, १ ए काटतेसाग, शीसम प्रमुख, २० सिंहादिकना चर्मनी जाति, २१ गजादिकना दंतनी जाति, २२ चमरी गाय प्रमुखना वालनी जाति, २३ गंधादिक वस्तु, २४ औपधीना इव्य ते पिंपर, पिंपरीमूल इत्यादिक जाणवा. ए रत्नना चोवीश नेद कह्या. हवे थावर परीग्रह त्रण प्रकारनुं ते कहे . एक खेत्रनी नूमी,बीजें घर प्रासाद प्रमुख ते प्रसि६ ले अने त्रीजें वरना समूह ते नालियरी प्रमु ख आरामवाडी प्रमुख ए त्रण प्रकार कह्या. हवे पिद परीयह वे प्रकारनुं . तेमां एकतो चकने आरे बांधेला ए वा गामलांप्रमुख जाणवा अने बीजा मनुष्य ते दासदासी प्रमुख जाणवा. हवे चउपद परीग्रह दश प्रकारनुं वे ते कहे . १ गाय, ५ नेंस, ३ गंट, ४ बकरी, ५ गामर, ६ जात्यवंत वाल्हिकदेशना नपना घोडा, ७ अ जात्यवंत घोडा ते वेसर प्रमुख, ७ स्वदेशी घोडा, ए गर्दन, १० हाथी. तथा कुप्य ते नाना प्रकारना कोसी कुटनो एकज नेद गणवो. ए सर्व बनेदना परिग्रहसंबंधी नत्तरजेदजे कह्या तेने एकता करिये तेवारें चोशठ नेद थाय. ते नवविध परीग्रहमां अंतर्भूत थाय एटला माटे इहां अतिचा रने अनुक्रमें करी नवविध परीग्रहज देखाड्यो. हवे धनधान्यातिचार तिहां धनना चार नेद कहे . एक गणिम,बीजो धरिम, त्रीजो मेय, चोथो पारिजेद. तेमां जे जायफलादिक गणीने वेचाय ते गणिम तथा कुकुम केसर गोल प्रमुख तोलीने वेचाय ते धरिम जाणवो, तथा घृतादिक लवणादिक मापें जरीने उचाय ते मेय जाणवो तथा वस्त्रा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. दिक परीक्षायें वेचाय ते पारिन्जेद जाणवो. ए प्रथम धन परीग्रह कह्यो. अने धान्यना चोवीश नेद प्रथम कह्या जे. वली सत्तर जातिना धान्य पण कहेवायचे अथवा धान्यना अनेक नेद , ते प्रथम श्रीप्रवचनसारोवार तथा बार व्रतनी टीपमा सविस्तर लवाइ गया . इहां धन अने धान्य ए बेहुनुं मलीने एक अतिचार जाणवू. कारण के धननु तथा धान्यनुं परिमाण कयुं चे, ते उपरांत कालांतरादिके जेवारें व ध्यु, अधिक युं जाणे, तेवारें पूर्वे जेनी कपर लहेणुं होय ते ग्राहकने कहे के हमणा टुं तहारे बेरज राखी मूक, जेवारें महारे खपशे तेवारें हूं तहा री पामेंथी लग. अथवा संचकार आपीने तेनेज घेर राखी मूके अने तेने कहे के आ महारो थको पड्यो ,तुं बीजा कोश्ने आपीश नहीं. अथवा महोटा न्हाना कोठारादिक होय तो ते सर्वने महोटानी गणती करी राखे, ते धन धान्य प्रमाणातिकमरूप प्रथम अतिचार जाणवो. बीजो खेत्र वास्तु प्रमाणातिकम अतिचार, तिहां खेत्र त्रण प्रकारना ने. एक सेतु,वीजा केतु यने त्रीजा सेतु तथा केतु ए उनयात्मक जाणदा. तिहां अरहट्टादिकने जलें करीने ने धान्य नीपजे तेने मेतु कहिये अन वरसातना पाणीयें करी जे धान्य नीपजे तेने केतु कहियें तथा जे वरसा तना जानें अने वाव्यना जलें ए वेदुथी ज्यां धान्य नीपजे ते त्रीजो उन्नया त्मक कहियें. एत्रण नेद कह्या. तथा वास्तु जे ग्रह ग्रामादिक तिहां घर ना त्रण नेद . एक खात, बीजुं ननित अने त्रीजुं खातोत्रित. तेमा खा त ते मुंशरा प्रमुख अने नबित ते प्रासाद शिखरब६. तथा खातोलित ते मुंइरानी नपरें प्रासादादिक करवा ते जाणवू. ए खेत्र वास्तुनुं एक अथवा वे इत्यादिक परिमाण कयुं होय थने तेथी अधिक अनिलापा थाय तेवारें पोतानुं खेत्र अथवा घरनी पासेनुं खेत्र अथवा घर वेचातुं लश्ने पनी व्रतनं गना नयथा वाड तथा नीतादिकने ब्रोडी पूर्वला घर अथवा खेत्रसाथै ने ली वेदुनु एक करी मूके ते खेत्रवास्तु प्रमाणातिकमरूप बीजो अतिचार. । त्रीजो रुप्य तथा सुवर्णर्नु पूर्व प्रमाण कमु ले तेथी अधिक थतुं देखे तेवारें लोनने वशे स्त्री पुत्रादिकने थापे ते त्रीजो रुप्य सुवर्णातिकमरूप अतिचार. चोथो कुप्य ते रुप्य बने सोनाविना शेष कांसुं, लोहोहूँ,त्रांचं, पीतल, सीसुं अने माटीनां वासण तथा वांसना, काष्ठना हल,गाडा, शस्त्र,मांचा, Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रापा. अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २३३ मांची, मसूरकादिक सर्व घर वखरीना उपकरण तेना स्थाल कचोलादिक नी संख्यार्नु परिमाण कयुं होय पनी जेवारें तेथकी अधिक राखवानी अ निलाषा थाय तेवारे पूर्वकत परिमाणनी संख्या कायम राखवा माटें न्हा ना स्थाल कचोलादिक जे होय तेने जाडा स्थूल करावे, ते कुप्यप्रमाणाति क्रमरूप चोथो अतिचार जाणवो. पांचमो हिपद ते स्त्री, दास, दासी प्रमुख मनुष्य तथा हंस, मोर,कुर्कु ट, सूडा, सारिका, मेना,चकोर, पारेवा,प्रमुख पदी जाणवा. अने चतुष्प द ते गाय महीषी आदिक पूर्व दश नेद कह्या ले ते जाणवा. तेमां को गाय प्रमुख गर्नवाली होय तेवारें एवं विचारे जे ए गर्न तो बाहिर जोवा मां नथी पावतो माटे तेने गणनामां गणे नहीं, इत्यादिक हिपद चतुष्पद प्रमाणातिकमरूप पांचमो अतिचार जाणवो. __ अथवा धन धान्यादिक, खेत्र वस्तु आदिकना चार मासना नियम क स्या होय अने बागलानी साथें निश्चय करे के महारो नियम पूरण थशे तेवारें आ वस्तु ढुं तहारी पासेंथी लाश, तिहांसुधी तुं वीजा कोइने आ पीश नहीं एम कहेवाथी थापणरूप अतिचार जाणवो ॥५॥ शेप सुगम विवेकी प्राणीयें धन धान्यादिक नवविध परीग्रह जे पोतानी पामें होय तेनो पण संदेपीने अवश्य परिमाण करवो. ते करवानी जो अशक्ति होय तो पण जेटली पोतानी इबा होय तेटलो नापरिमाण तो निश्चयें क रवोज. जेमाटे पोताना अनिप्राय प्रमाणे अंगिकार करतुं सर्वने शुलन ने. यहां शिष्य पू के घरमां तो शो सोनैयानो पण संदेह होय अने जेवा रे परिग्रह परिमाण लीये तेवारें हजारो लारवो अने कोडो आदिकनो प रिमाए करी लीये एवी रीते शबानी वृद्धि करे तेमां श्यो गुण थाय ? इहां गुरु उत्तर कहे जे के, श्वानी वृद्धि तो सर्वकाल सर्व संसारी जीवो ने प्रथम पण ले ते कांड पूरी पडती नथी. नेमीराजपीनी पेरें ॥ यतः॥ सुवन रूपस्सय पुवया नवे, सिया दु केश्लास समा असंखया ॥ नरस्त लुस्स नतिहिं किंचि, शबा दु आगास समा अणंतया ॥१॥ जावार्थःजीवें पूर्व कैलास सरखा सोनाना अने रूपाना असंख्याता पर्वत कथा पण लुब्धनरने ते किंचित्मात्र बा पूरण माटेन थया. ला जे मननी दोड ते थाकाश सरखी अनंती जाणवी ॥१॥ पण इहां परिमाणने विपे एटलुं वि Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. शेप वे के बीजानें इवानी वृद्धिनो विस्तार हणालो नयी अने इष्वापरिमा करनारने तो अंगिकार करेलां परिमाण सुधीज इवा रहे परंतु तेथी व परांत वा बधे नहीं तेमाटे तेथकी अधिक इवा तो निषेध थ. इबानी वृद्धि हणवाने परिमाल करे तेवारे परिणामें संतोषज थयो. जेम जेम इवानुं अधिकाधिकपणुं थाय तेम तेम तेने दुःखनी वृद्धि जा एवी. डुःखनं मूल ते वा बे जो सुखें घरनो निर्वाह यतो होय तो पण अधिक अधिक धन उपार्जवानी आशायें ते प्राणी अनेक क्लेश सहन क रतो निरंतर दुःख जोगवतो मरीने दुर्गतियें जाय ॥ यतः ॥ यदुर्गमटवी मति विकटं कामतिदेशांतरं गाहंते गहनं समुइमत क्वेशां कृषीं कुर्वते ॥ सेवते कृपणं पतिंगजगटा संघट्ट संचरं, सर्पति प्रधनं धनांधितधिय स्तनो न विस्फुर्जितम् ॥ १ ॥ नीचस्यापिचिरं चटुनिरचयं त्यायांतिनीचैर्नत, श चोरप्य गुणात्मनोपिविदधत्त्युचैर्गुणोत्कीर्त्तनं ॥ निर्वेदं नविदंतिकिंचिदरुत इस्यापि सेवाकते, कटंकिंनमनस्वीनोपिमनुजाः कुर्वेति वित्तार्थिनः ॥ २ ॥ जावार्थ:- जे धननो अर्थी होय ते विषम वीमांहे फरे बे, विकटदेशांत र प्रत्ये अतिक्रमें बे, महोटा समुइने अवगाहे ले, जेमां घणुं कष्ट बे ए बी पी करे वे, कृपण स्वामीनी सेवा करे बे, जिहां गजनी घटाने संघटे, डुःखे संचार थाय एवो स्वामी बे ? धबुद्धि ने जेहनी एवा पुरुष धनने फरे बे, ते लोचनो पराक्रम जाणवो ॥ १ ॥ नीच पुरुषनी आागल पण घणा कालसुधी नम्रतायें करी मीगं वचन बोले तथा नीचो वलीने नीचने नमस्कार करे, शत्रुना पण अतिशय गुण वखाणे, जे कष्टने नीपजावे पण कस्यो गुण न जाणे तेनी सेवा करे, तेमाटे मनस्वी जे निपुण मनुष्य 5 व्यना अर्थी होय ते गुं न करे ? अर्थात् सर्व कांइ करेज ॥ २ ॥ कदाचित् पुण्यने योगे इति धननी प्राप्ति यइ तो वली तेने साचवी खवानी चिंता याय. कामजोगादिकनी याशायें मनोवांबित स्त्रीनो संयो ग मलवानी चिंता रहे, तेनी पण प्राप्ति थाय तो वली सिद्धराज जयसिंघ नी पेरें पुत्रादिक अपत्यनी वांठायें दुःखित थको रहे. ते पुत्रादिकनी प्राप्ति या पीवली ते पुत्रादिकना जीववानी चिंता रहे, कदाचित् जीवता र ह्या तो रोगादिकना औषध वैद्यादिकनी चिंता रहे, एम करतां महोटा था Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १३५ य तेवा जणाववानी चिंता, जला गुणवान पणानी प्रतिष्ठा पमाडवानी चिंता रहे पछी नली रुडाकुलनी कन्या परणाववानी चिंता रहे. एम करतां कदाचित् पूर्वजन्मना सुकृतें करे सर्व वांछित संयोगनं सु ख पामे तो वली ते पामेला सुखनी चिंता रहे, के रखेने ए पामेली वस्तु नो महारे वियोग थाय ? कदापि ते वियोग पण न थाय तेवारे वली ए वी चिंता था के रखे महारा शरीरे रोगादि पीडा उपजे ? रखे मुजने जरा अवस्था यावे ? रखे हुं मरण पामुं ? एवी याश्यायें पीड्या थका परीग्रह वंत मनुष्य ते सदाकाल दुःखीया जाणवा. जेमाटे सुखनिर्वाहने विषे प ए सुख न जाणवुं. जे घणोज परीग्रह पाम्यो होय एवा धनवंत पुरुषने पण पोताने वापरवामां तो थोडोज परीग्रह उपयोगी थाय बे. शेष थाकतो परि ग्रहतो परने जोगमां खावे, तथापि निःकेवल तेवा परीग्रहनी चिंतादिकें क री याकुव्याकुल यातो रहे तेथी परिग्रह जे बे ते मूर्द्धादिकें करी इनवे ने परनवे दुःखनोज हेतु बे. जो शो गायो घरमां होय तोपण एकज गायनुं दूध जोगमां यावे तथा जो शो मुडा धान्य घरमां पड्युं होय तोपण जीवने जोगमांहे तो सेर य थवा मोढ से वे बे, तथा गमे एटलुं घर रहेवाने महोयुं होय तो पण मांचो ढालीयें एटलुंज नोग्यमां आवे छे, अनेक वस्त्र घरमा होय तोपण परवा माटे वे वस्त्रज जोगमां यावे बे. तेमज स्त्री पण प्रतिदि न एकज जोगमां यावे बे, एक दिवसमां वधारे जोगवाय नहीं. तेमज श य्या, श्रासन, हाथी, घोडा, रथ इत्यादि सर्व चीजो एकेकी जोगमां श्रावे बे. ते उपरांतनां बीजाने खर्थे जाएवां एटला माटे अल्पपरीग्रह राखे थके ज स्वल्प चिंता रहे ने निर्भयपणुं पण थाय. इत्यादिक गुणनी वृद्धि जा एगवी ॥ यतः॥ जहजह अप्पलोहो, जहजह अप्पोपरिग्गहारो ॥ तह तह मुह पव, धम्मस्य होइ संसिद्धि ॥ १ ॥ नावार्थ:- जेम जेम थो डो लोन होय, जेम जेम थोडो परीग्रह आरंभ होय, तेम तेम सुख प्रव ईमान थाय ने धर्मनी पण जली सिद्धता थाय ॥ १ ॥ कारण माटे मननी इष्वा संधीने संतोष पोषवाने अर्थे यत्न करवा. सु खनुं मूल ते संतोष ने कयुं बे के ॥ यतः ॥ श्रारोग सारिश्रं मालु, सत्त णं सचसारिन धम्मो ॥ विद्या निलय सारा, सुहाइ संतोस साराई ॥ १ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. नावार्थः-मनुष्यपणानुं सार ते निरोगतापणुं ने अने सत्यनुं सार ते धर्म ,तथा विद्या जे ले ते निश्चलपणे सार ने अने सुख जे जे ते संतोपें सार ले ॥ १ ॥ तेथी जिहां तिहां जेम तेम करीने संतोषनी साथै तहाहं चित्त बां धीश तो दुःखनुं नाजन थइश नहीं. माटे संतोषरूप पाल बांधी करीने लोनरूप जे महोटो समुह तेना उबलता कल्लोलना विस्तारने वारीने ए व्र त अंगिकार करी रूडीरीतें पालवं. निरंतर वली संजारवं, अवसर पामीने वली ते व्रतनुं संदेप करवू इत्यादिक रीतें अंगिकार कडे जे परीग्रह परिमा गवत तेथकी जेवारें धन धान्यादिक संपदा वधे तेवारें श्रावके शुं कर ? ते कहे . अंगीकार करवाथी उपरांत धनादिक थाय तो ते सर्व धर्मस्था नकें खरचवो पण व्यापारने विपे तथा नोगादिकने अर्थ जोडवो नही. एम करवाथी कां दोप नथी अने एथी व्रतने थोडं पण अतिचार लागे नहीं. दान प्रमुख सुरुतने आराधवाथी चंचल एवी जे लक्ष्मी तेनुं नियंत्रण कयं होय तो ते लक्ष्मी स्थिर रहे, जाय नहीं. जेमाटे पूर्व पुण्यना वैनवना व यथकी वांधी एवीजे संपदा ते विचारीयें तो आपदाज .. हवे ए व्रतनुं फल कहे जेः- इह नवेतो शंतोष, सुख, लक्ष्मी स्थिर रहे, लोकमांहे प्रशंसा वधे, अने परनवने विपे मनुप्पनी संपदा, देवतानी ज्ञ ६, यावत् मोदना सुरखनो नोक्ता थाय. तथा जे प्राणी अतिलोने करीने ए व्रत नथी लेता अथवा लश्ने विराधे ने तो ते प्राणी दारीही, दास, 5 नांगी, उर्गत्यादिकनां कुःख पामे . ए आढारमी गाथानो अर्थ थयो॥१॥ हवे ए पांचमां अणुव्रत उपर धनशेठनी कथा कहे . अत्यंत सूवर्णनी शदियें करीअाश्चर्यकारी एवं कंचनपुर नामे नगर जे, तेमां प्रकृति स्वनावे धणो सुंदर एवो सुंदर नामे शेठ वशे , तेहने सुंदरी नामे स्त्री, सऊन लोकनें आनंदकारी लक्ष्मीवंत एवो धनशेठनामे तेनो पुत्र , तेने धनश्रीनामे स्त्री जे, तेने वली धनसार आदि पुत्रो जे. एकदा सुंदरशेठ परलोक प्राप्त थया तेवारें जेम गुर्वादिक बतें शिष्य निश्चित रहे, तथा जेम शेठ बतें वाणोतर निश्चित रहे,वली जेम बाप बतें पुत्र निश्चित रहे,तथा सासु बतें वहु निश्चित रहे, तेम ज्यांसुधी सुंदरशेठ जीवता हता त्यांसुधी तो धनशेत निश्चिंत रहेतो हतो पण सुंदरशेठ मरण पाम्या पली घरनी तेमज धन उपार्जवानी सर्व चिंता धनशेठने उपनी. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. २३७ एकदा धनशेते पोतानीपासें धन केटलुं ने तेनो मेल काढयो तो सरवा ले नवाणुं लाख टका थया. तेमां पंचावन लाख तो पूर्वला वडेराउना उपा जेल ले अने चुमालिश लाख पोताना बापना उपार्जेल जे तेवारें धनशे म नमा विचारांके जो एक लाखटका वधेतो महारा घरने विषे कोटीनी ध्वजा बांधु. तेमाटे एकलाख टकाने अर्थे ते शेठ अनेक प्रकारना व्यापार विस्ता र पणे करतो हवो. एम एकवर्ष पर्यंत कसु, वली ले करीने जोयुं तो तेटलाज नवाणु लाख टका थया, तेवारे विचारवा लाग्यो जे महारे खर च घणुं , तेथी करी धन कां वध्यु नहि. एम धारीने खरच उजु करवा माटे निर्दय पणे कृपणनी पेरें रेहेतो थको जूना वस्त्र पेहेरे, सोंधु धान वापरे. एम कुटुंबसहित घणा कालसुधी दारीहीनी पेरें रह्यो तोपण धन वध्यु नहि. त्यारें वली विचारवा लाग्यो जे वाणोत्तर प्रमुख बधुं इव्य खाइ जाय , माटे तेने सर्वेने रजा आपी,अने पोते अतिशय उद्यमथी व्यापा र करवासारु घणा करियाणां लेइने दूर देशांतर गयो. चित्तमां लाख सोन या उपार्जवानो अनिलाषी थको दूरथकी पण दूर एवां देशांतरने विपेज इन्द्यम करवाथी घणुं व्य नपाज्युं, तेथी संतोष पामी पाडो पोताने घे र आव्यो, एटले सांजव्युं जे चोरोये धाड पाडी घरमांथी सघनुं धन लूंटी लीधुं. ते सांजली घणुं खेद धरतो कुटुंबना माणस जे पोताना स्त्री पुत्रा दिक ते सर्वनी साथै वढतां सर्व कुटुंबने ते अनिष्ट थयो. अति लोनियो होय ते गुंफुःख न पामे ? कह्यु के केः- अतिलोनो न कर्त्तव्यो,लोननैव प रित्यजेत् ॥ अतिलोनानिनूतस्य, चक्र चामति मस्तके ॥१॥ नावार्थःअतिलोन नकरवो,तेम लोनने बांमवो पण नहि,अति लोने जे परानव्या , तेने माथे चक्र नमे ॥ वली शेठे ले कयुं तो पण नवाणुं लाखज थया. कारणके धन ले तेपण नाग्यने वस डे. तेथी ते फुर्बुदि शेठे विचार कस्यो जे बधा इव्यने नूमिमां दाटुं के जेथी चोरादिकना हाथमां कोई वखत न जाय. एवं विचारी ते शेते मध्य रात्रिने समये नगरनी बहार जश्ने पोतानां स्त्री पुत्रादिक पण जाणे नहि तेम यत्नथी सारसारवस्तुने धरतीमा दाटीने पूर्वली पेरें लक्ष्मि नपार्जवाने पाडो जातो हवो. पाबलथी ते शेवें नोयमां थाप्युं जे धन ते कोक धूर्ते जाण्यु तेथी ते शेठ गया पड़ी तेणे धरती खो दीने अंदरथी धन काढी लीधुं अने त्यां ते धूर्ते कांकरा जरी मूक्या. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ___ हवे ते शेव परदेश जश् घणी वस्तून लघणा हर्षसहित घj धन उपा र्जिने घेर याव्यो. अने रात्रिने समय ज्यां नूमिमां इव्य दाटयुं हतुं तिहां आवी खोदीने जोवा लाग्यो तो त्यां कांकरा देखीने विलखो थयो. पनी जे करियाणां लाव्यो हतो ते सर्व वेचीने हीसाब गण्यो तो फरीपण नवा | लाख टका यया, कांश वधारे थयां नहिं. जेम घणो वरसाद वरसे तो पण पलास खाखरानां पत्र त्रणज रहे वधे नहिं एवीस्थिति , तेम एने पण नवाणु लाख टकाज थाय वधारे थाय नहिं. वली एकदा प्रस्तावे घर ना सघला माणसोनो अविश्वास करतोथको सघलु इव्य साथे जश्ने प रदेश गयो. त्यां जइ वांबित धन उपार्जतो हवो. पड़ी हर्षित थइने पोता नु कतार्थपणुं मानतो मोहटा सथवारायें सार्थवाहनी लीलायें करी पा बो वलतो थको पोताना देश तरफ आवतो हतो त्यां मार्गमां सर्व साथने चोर लूटवा लाग्या. तेथी जेम आहेडीना हाथमांथी मृगली नाशि जाय तेम ते शेठ घणे कष्टें चोरोनी नजर चकावी देवयोगथी शून्य अटवीमां नाशिगयो. त्यां जमतो जमतो पोतानी पासे जे जात्यवंत रत्न ने तेने यत्नथी गखीने पोताने घेराव्यो. तिहां सर्व रत्न तथा बीजी वस्तून वेची पालो मेल काढयो, तोपण तेटलुंज इव्य थयुं,त्यारे तेने हर्ष अने शोच थयो. एम ते जो लोने परानव्यो कोटीधन पूरण करवानी बायें अनेक व्यापार कस्या तोपण कोड पूरा न थया तेमज तेनो उद्येग पण न टव्यो. कवि कहे ने अहो ? तृष्णारूप मोटो ग्रहते जून कहेवो ले ? एकदा ते शेठ विचार वा लाग्योके जो ढुं ठेकाणुं फेरवु तो मारुं जाग्य फले,अने महारुं धायुं था य. एवं विचारी सर्व इव्य लश्ने समुह यात्रायें वाहाणना अधिकारीनी पे रें घणां वाहणो हंकारीने रत्न हीपे आव्यो. त्यां अनेक जातनां घणा व्या पार करतां कोडी धन उपायु. मननो जाण अने पोताना अशुन कर्म थ की नयनीत एहवो ते शेठ विचारवा लाग्यो जे में पूर्व पाप उपाना , ते पापना उदयथी कदापि वाहाण नांगशे तो समूलगुं सर्वधन जाशे अने कांइ रहेशे नहिं,माटे महारी जंघा चीरीने तेमां कोडीमूल्यनुं एक रत्न घालूँ तो गमेतेवी आपदायें पण ढुं जीवतां सुधी ते रत्नकायम रहेशे पनी हुँ ज्यारे घेर जश्ने ते रत्न काढी वेचीश त्यारे कोटीध्वज था ? एवं विचारी पोतानी जंघा चीरीने ते शेठे कोडी मूल्यनु रत्न जंघामध्ये Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २३ए घाली व्रणरोहणी औषधियें घारुकवी वाहाणमां बेगे. नरदरिये वाहाण थाव्या एवामां तोफान थयुं, तेथी जेम मुष्टियें पापड जांगीये तेम सर्व वाहाण नांगी चकचूर थया. हवे तृष्णानी विडंबनाज जापीयें हाथ आवी होयनी तेम एक पाटीयुं ते शेग्ने हाथ आव्यु, तेना आधारथी ते शेठ अनेक पीडा सहतो दस दिवसे कांवे आवी मूर्बित थयो थको पड्यो, ते जाणियें मृतक होय नहिंगुं ? एदो थइ गयो. पण आयुष्य दृढ ने तेथी करी म नहिं ॥१॥ अने पोतानी मेले शेतनी मर्जा वली. हवे मननी अने शरीरनी महोटी पीडा जोगवतो ते मंदबुझिनो धणी एवो शेठ निन्ननी पेरें अरण्यमां नमवा लाग्यो. पण ते रत्नने विषे जीव लाग्यो ने ते थोरांकनी पेरें नीदा मागी गामो गाम फरतो घणां कष्ट सहेतो पोताना न गरना उद्यानमां आव्यो. तिहां तेना पुत्रने खबर पडवाथी स्नेहथी सामो जई घेर तेडी लाव्यो. ते शेठ व्यना नाशनुं दुःख अने जंघामध्ये रघु जे रत्न तेनो हर्ष एम शोक हर्षे मिश्रितपणाने विपे रह्यो थको गोपवेला रत्नथकी कोटी ध्वज थवानी बायें शस्त्रे बेदी जंघामांथी रत्न काढीने परीक्षकोने देखाड्युं. तेवारे ते सघला परीक्षको जाणीये ते शेतनां कर्मथी प्रेस्या थकाज बोलता होय नहि ? तेवीरीते ते बोल्या के ए रत्ननी कि म्मत नवाणुं लाख ,पण अधिक नथी. केम के ते रत्न असल तो एक कोटी मूल्यनुं डे परंतु जंघानी नष्णतामा रह्यं तेना योगथी तेजें करी हीन थग युं वे माटे एनु मूल्य छं थयु. एवं सांजली कोटीनी आशायें रहित थयो थको ते शेठ घणो खेद धरतो विचारतो हवो जे धिक हो? एटलुं मोटुं मर एगांत कष्ट सयुं तो पण कोटीधन न थयु.जे माटे में मोटो व्यापार करी घणी हिंसा करी, पण सामो अनर्थज थयो, अने कोई कार्यनी सिदि थइ नहिं, माटे हवे कोश्क बीजो उपाय चिंत. घणीवार सुधी एवी चिंतायें व्याकुल रहेला.एवा शेठने जोश्ने एकदा एक धातुरवादी धूर्त प्रावीने शेठने कहेवा लाग्यो के, तुं फोकट चिंता गुं करे ले ? व्यर्थ खेद झुं धरे ले ? हे शेत : धा तुरवादना प्रसादथी हुँ तुजने वांछित करीश ? तेवारें जेम नव्य जीव केव लीनुं वचन सत्य करी माने तेम ते शेत ते धूर्त्तनां वचन सत्य करी मानतो थको ते धूर्तना कह्यायकी सर्व धानूनी सामग्री प्रत्ये एकाग्र चित्त थने ते करतो हवो. तेवारे ते धूर्त केटलुक कारिमुं सूवर्ण कपटे करी निपजावीने Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. ते शेतने आपतो दवो. हवे ते सूवर्ण साचु ले के नहिं तेनी परिक्षा सारु शेठे चार जपने बताव्युं तेणे साचुं कर्तुं तेथी ते शेठ हृदयमां संतोष पामीने साची वात मानतो दवो. ते शेने जाणे पोतानोज जाणिने ते धूर्त घणुं क त्रिम सूवर्ण करतो हवो. ते जाणियें मोटा पाषाणनाज कटका होय नहि ? एवा कटका करीने देखाडे,तेने शेव खुशि थतो निरंतर नूमिगृहने विषे गुप्त पणे थापे. अहो ! कोक व्य. कमावानो उपाय कायाने कष्ट आप्या विना पण थाय , एम हर्ष पामतो थको ते शेठ ते धूर्त्तनी मोटी नक्ति करतो हवो. जगतमां परने उपकार करवो तेज सार , बीजं कां सार नथी, एवं निस्टहीपणानुं मोल घालतो ते दंनी, कपटी पण शेठने विश्वास पमा डतो हवो. कडं ले केः-व्रतदनः श्रुतदनः, स्नातकदनः समाधिदंनश्च ॥ निः स्टहदनस्यतुला, व्रजतिनतेशताशतः ॥ १ ॥ नावार्थः-व्रतनो दंन, ज्ञाननु दंन, स्नातकनो दंन, समाधिनो दंन, एटला दंन ,पण निस्टहना इंजनी आगल ते दंन तेना शोमां नाग प्रमाणे पण आवे नहि ॥१॥ ए रीते वि श्वास पमाडीने एकदा घर मध्ये सार सार जे रत्नादिक वस्तु हती ते लेइने ते उष्टबुझिनो धणी धूर्त नाशी गयो. शेठने खबर पडी जे ते धूर्त्त जागी गयो तेथी कष्ट पामतो शंकायें आकुलव्याकुल थश्ते सोनाना कटका सर्व जोवा लाग्यो तो ते सर्व त्रांवाना दीठा. तेवारें लूट्यो रे खूट्यो ? एम मुखथी पोका र करतो,घणा लोक नेलां करतो,मस्तक तथा हृदय कूटवा लाग्यो,तेथी ते शेठ उपरें नगरना लोको हसवा लाग्यां. अने मूल्य जे नवाणु लाख दिद ती ते पण घणे लाखें न्यून थयेली जोक्ने ते शेत घणो दुःखी थयो. दैवयो गें एकदा ते शेव नदीतटे गयो त्यां महोटुं निधान पाम्यो,तेथी घणो प्रीति वंत थयो. पनी त बानुं पोताने मंदिर लावीने घरना धन साथें ते धन एकतुं करी मेल काढयो तो नवाणुं लाख थया. तेवारें लोनी शेठ हर्ष पामतो वि चारतो हवो के जो एक लाख मले तो कोटी थाय तेवारें आत्माने कता र्थ करी मानु माटे तेनो का उपाय खोलवो जोयें. एवं विचारी ते शेव निधानना कल्पना जाण प्रत्यें पूबतो हवो, अने तेनी घणी नक्ति करवा लाग्यो तेथी ते कल्पना धणी कहेता हवा के नाग्यवंतने तो पगले पगले निधान ले. कर्दा केः-अमंत्रमदानास्ति,नास्तिमूलमनौपधं ॥ निना पद वी नास्ति, आम्नायाः खलुलनाः ॥१॥ नावार्थः-मंत्रविना अदर नथी, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २४१ औषध विना मूल नथी,धन विना पदवी नथी,पण आम्नायो पाम निश्चे उर्सन डे ॥ १ ॥ ते माटे विशेषे करी ते व्यना ठेकाणानुं कोक निशान शोधायें. कोक प्रस्तावे अश्व तथा गर्दन चारे पगें करी साहमा उना रहे ते इव्यनी निशानी जाणवी. वली ज्यां घणा पंखिना पगलां होय अथ वा आदित्यवारें खंजरीट, दीवाली, घोडो, जिहां चरक करे, ज्यां बाणमांहे एरंमबीजनो अंकूर निकले, ते ठेकाणे पण धन होय. जिहां खंजरीटनुं मैथुन देखाय ते स्थानकें पण निधान होय. पुपाडनो अंकुरज्यां पल पलमां पाधरो वधे,तिहां पण धन होय,श्वेत पलाश तथा श्वेत बीतीने ठेकाणे वृद ना पलोइयां पातलां होय तो तिहां थोडं धन होय, अने जाडां होय तो धन घणुं होय,जेवू ते तदनुं दूध तेहने अनुसार तेवो निधान सार होय. __एवं सांजली निधान मलवाने माटे ते शेठ पूर्वे कहेला वृदादि खोलतो ह वो. एकदा खोल करतां क्यांएक धोला पलाशने देखीने शीघ्रपणे हर्षित थयो थको ते शेठ वलि बाकूलना विधिनो मंत्रोच्चार करतो हवो. उनमो धरणेश य, नमो धनदाय, इत्यादिक मंत्र जणीने प्रथम धरती खोदतो हवो. त्यां जाणिये नाग्यना नदयथी निकल्युं होय नहिं ? तेम त्यां मोटुं निधान प्रग ट थयु. कोटिध्वज थवानी इनायें शीघ्रपणे हर्ष धरतो ते निधान रथमां गोपवीने जेटले घर समीपे याव्यो तेटले पोताना घरने आग लागेली देखतो हवो. ते जोतां जोतामां थोडीवारमांज समग्र घर बलि जस्म थयु. तेवारें ते शेठने मूळ आवी. मूळ नतस्या पडी ते मंदबुझिनो धणी आकंद करवा लाग्यो के, हाइति खेदे ! हे दैव ! में ताहरो कोइ पण अपराध कस्यो नथी तो पण तुं उष्ट शोक्यनी पेरें खार करतो फोकट झुं करवा मुझने कुःख दीये ? एम घणीवार विलाप करी निशासा मूकी पापीनी पेरें उगवंत थइ कष्टमांहे निमन के हृदय जेहन एडवो जे शेत तेणे अनुक्रमे निधानमां थी प्रवेलु तथा घर बलतामांथी जे धन रयुं हतुं ते सर्व घरमां नेचु करीने मेल काढयो तो फरीपण नवाणुं लाखटकाज थया. ते देखीने शेठ विस्मय, आनंद, खेद अने नगे करी विचार करवा लाग्यो के निष्कारण कायक्वेश उस्सह घणो में सह्यो, पण जाग्यहीनने कोटिध्वजनो मनोरथ केम सिम थाय ? कह्यु डे के वन- फूल, कपणनी लक्ष्मी, कूपनी बाया, सलंगनी धू ल, ते तिहांज विलय पामे, तेम नाग्यहीनना मनोरथ पण एमज विलय पा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. मी जाय, इत्यादिक चिंता मनमांधरतो ते शेत थाकानी पेरें अधीर थइने बेठो. ___ वली केटलेक काले एक कोटिध्वजने जो एक लखेसरी उठी उनो थ यो, तेने घासन बेसणादिक आपी तेनुं बदु मान कयुं ते देखीने ते धन शेतने कोटिध्वज थवानी फरीथी बाथ. एवामां एक योगीने देखीने ते ने पोपीने घणी नक्ति करीने पूजतो हवो के,हे दद ! हे निपूण ! ढुं आगल कोटिध्वज थइश के नहिं था ? ते तमे जोने कहो. त्यारे ते योगी ध्या न धरीने स्पष्टपणे कदेतो हवो के हे सत्पुरुप ! तुजने धनदनी पेरें अनेक कोडी धन बागल थाशे. ते सांजली ते शेठ चमकीने योगीने पूबवा ला ग्यो के तेवो हुँ केवी रीते थश्श ? तेवारे योगी कहेतो हवो के पृथ्वीमां ए नो एक उपाय . बीजाने विषे तो अनर्थ देखें , पण तारे विषे अन र्थ देवतो नथी. अहो ? जोपण ए कार्य घणुं विपम ने तोपण ज्यारें ताह रुं पूर्व जन्मनुं जे उष्ट कर्म ने तेहनो क्य थशे त्यारे ए कार्य सिदि थशे. ते सांजली शेठ रीज्यो यको केहेतो हवो. के हे स्वामिन् ? प्रसन्न थश्ने मने,जलदी तेनो उपाय बतावो? ते शेठनो अति आग्रह देवीने योगी बो लतो हवो के एक पर्वतमां रस कूपिका ने ते रसना एक बिंउमा एक हजा र नार लोहने तपावीने अंदर नाखीये तो ते सर्व लोह कण एकमां सुवर्ण थाय. ते सिझरस प्रायें देवताने पण मलवो उर्जन ने तो मनुष्यने तो क्यां थीज मले ? ते तो घणे कष्टे मले. ते सांजलीने ते शेठ विशे हर्पित चित्त थको योगीप्रत्ये कहेतो हवो के हे स्वामिन् ? निष्फल कष्ट तो में पूर्व घणांज सह्यां , तो जेमांथी फल थाय एवा कष्टने सुखेथी सहीयें तेमां झुं ? ते सांजली ते योगी, मदोन्मत्त थयेला एवा एक पाडानु पुबडं शेठ नी पासेथी मगावीने तेने कह्यु के एने माससुधी तेलमा नांव. ते शेठे योगीना कहेवाथी तेमज कल्यु. तेवारपनी रसकूपीकानो कल्प तेहना पुस्तको तथा पाडानुं पुडुं अने लांबी वे दोरियो तथा मांची अने वे तुं बडां तथा वलि बाकुलादिक सर्व सामग्रि लश्ने योगीनी साथे ते शेठ अनुक्रमे परवतमां जिहां गुफा ले तेने बारणे याव्यो. ते बारणे रहेलो एवो जे यद तेने पूजीने,पुस्तकने अनुसारे ते बन्ने जणा गुफामा पेठा. ते जागीय नरकवास मांज पेठा होय नहिं ? पनी त्यां जे नूतप्रेतादिक उठे ने तेहने बलि वाकुला आपतां पाडाना महोटा पूंबरूप दीवाना उद्योत थकी अजूालु करतां Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २४३ शीघ्रपणे चाल्या जाय , ते बे योजनसुधी गया. तिहांसुधी तो पो तपोतामां प्रीतिवंत देखाता हता. हवे त्यां चार हाथ लांबो पोहोलो चो खूणालो सिघरसनो कूवो दीठो. तेमां ते योगिये ते शेठने वे बाजु तुंब डा बांधी मांचीऊपर बेसारी अदृश्य बेतलीयुंजेनुं एवी रस कूपिकामां न तास्यो. तिहां ते दिव्यरसें नयो कूवो देखिने खुशी थतो थको तेणे वे तुंब डा नरीने दोरी हलावी, एटले योगीयें दोरी नपर खेंची लीधी. जेटले ते उपर कूवाने कांठे आव्यो तेटले ते योगियें तूंबडा मांग्या. तेवारे ते शेतेपण नोलपणाथी ते योगी जण। तुंबी आपीदीधी के तरतज ते सर्पजेवा महा पुष्टात्मा योगायें न्याय अने धर्म बेहुने जेम को बेदे तेम ते योगियें वेदु दोरी बेदी नाखी तेथी शेठ मांची सहित कूटातो पीटातो रसने अणलागतो रसने कांठे आवी तप्तहृदयथको कूपमां पडयो. तिहां विचारवा लाग्यो के, अहो ! धिक्कार हो धिक्कार हो ए लोनिया कपटीने ? जू ए कपटीनू पराक म? हा देव ! हवे हुँ युं करीश ? ढुं हांज रह्यो थको मरी जश? माटे धिक्कार पडो मुझ लोनांधने ? जे में कांश पण विचार न कस्यो ? एम आर्त्ति ने वश पड्यो ठुधा, तृपायें पीडित थको केटलाएक दिवस तिहांज अंध काररूप बंदीखानामां बंदीवान सर छुःख जोगवतो रह्यो. हवे केटलाएक दिवस वीत्याबाद देवयोग्यथी एकदा तिहां कोइएक चं दनघो रस पीवाने आवी, ते जाणीये शेतने प्रतिबोध देवानेज आवी दोयनी ? एम शब्द करती रस पीने पाली वली एटले ते शेठ तेहने पून डे वलगतो हवो. तिहां नवितव्यताना योगें करीने जाणियें खेंचापोहोय नहिं एवो ते शेठ कटे जोडाणो, जेम को जीव निगोदमाथी निकले तेम ते रसमांथी निकलीने बाहेर आव्यो. तिहां जमतो जमतो कोइक सथवारा ने मल्यो, ते सथवाराने मार्गमां चोरोयें खूटयो तेवारें तिहाथी ते शेत ना सतो थको अरहो परहो जातो थको ते चोरने हाथें बंदीवान पणे पकडा पो. ते चोरोयें कोई एक नगरमां लइ ज तेने वेच्यो, तिहां कोक सार्थ वाहे वेचातो लीयो. ते सार्थवाहें वली धनना लोनथी बब्बर कुलने विपे वेच्यो, त्यां बाकरां कुःसह फुःख सहेतो हवो. ते फुःख कहीये बैयें. मनु ष्यादिकने पोषी ते मनुष्यना सकल अंग गाली तेहना शरीरना रुधीरनी कुंमी जरीने ते उष्टो रुधीरने तिहां जमावे पड़ी ते रुधीरमां तेवाज वर्ण सर Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. खा तेमां क्रमि पडे तेनो किरमजी रंग थाय, ते रंगमाहे ते लोको वस्त्र रंगे, तेथी करी ते रंग अधिक दृढ थाय. ते वस्त्रमा विशेष रक्तता थाय वली प ण ते पुरुपने पोपीने फरी तेनुं रुधीर काढीने तेने गाले, पोपे ने पावं ते नुं रुधिर काढे, एम निर्दय चिन थका ते पापी किरमजी रंगने लोने करी पाप कर्म करे. एम ते शेवें नारकीनी पेरें बार वरस सूधी त्यां उख जोगव्यां. ___ एकदा देवना योगयी ते शेग्नुं रुधिर काढीने मार्गमांनांखी मूक्यो ने, तेथी शेठने मूर्बा यावी ,एवामां नारंगपंखी आवी तेने नद जाणीने आ काशमां लइ जतो हतो, त्यां वाटमां बीजो नारंमपंखी तेने मल्यो. नक्षण अर्थ ते बन्ने नारंमने मांहोमांहे युद्ध थयुं तेथी ते शेठ चांचमांथी जमीन नपर तो पड्यो, दूखियो ने तेथी मूठ नहि. पनी जेम कोइ नव्य जीव मनुष्यनो नव पामे तेम ते शेत दैवयोगथीनमतो जमतो घणे कटे पोता ने नगरे आवी पहोच्यो. तिहां स्त्री पुत्रादिकने दुःखनुं करनारूं एहवं पोता नुं चरित्र कहीने अत्यंत फुःखमां लय पामतो दीन वचन नाखतो ते शेठ सनीने कल्याणपणुं प्रबतो हवो. त्यारे न्यायमांहे मेरु सरखो एवो ते हो उनो पुत्र , ते पुत्रं कर्तुं के हे तात ! वित्ततो दैवतुं दीधेनुं ने तेमांथी में महा। बायें धननो व्यय पण घणो कखो तथापि वाव्य तथा कूपना पा गीनी पेरें ते धन का उलु थयुं नही. दैवी वित्तने खाता, वावरतां,खरचतां, पण खूटे नहिं, तो तमे शावास्ते मिथ्या खेद करो हो ? माटें संतोप करो. हवे लोन मूको धनना अधिकपणायें सयुं. हवे तमे चित्त धर्ममार्गे व्य खरचो, इत्यादिक घणी युक्तियें समजाव्यो पण ते शेठ समज्यो नहि. __ एकदा प्रस्तावें ते शेवें कोई ज्ञानी मुनिने पोतानो पालो नव पूख्यो त्यारे ते मुनि कहेता हवा के चंपुर नामे नगरने विपे निर्धनमां शिरोम णि एवो चंइनाम वणिक रहेतो हतो, ते एकदा जिनेश्वरने प्रासादें गयो. त्यां पूजारा पासेथी सो कोडीनां फूल उधारे लश्ने परमेश्वरनी जति रागें पूजा करी. ते पड़ी पूजाराने फूलनी नवाणुं कवडी आपी तेथी ते पूजा रे कडं के एक कोडी उनी कां आपो हो? तेने शेते कह्यु के प्रजातकाले या पीश. पण कार्यना व्ययपणाथी पूजाराने एक कवडी आपवी वीसरी गइ. पडी ते वणिक थोडा कालमां गूलना रोगथी तत्काल मरण पाम्यो. ते जि नपूजाना प्रनावथी मध्यमनावें करी तुं धनदत्त थयो. पूर्वले नवे जे तें न Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २४५ वाणुं कवडीनां फूल चडाव्यां हतां तेना योगें नवाणुं लाख धन ताहरूं स्थिर रह्यं पण एक कवडी मात्र देवश्व्य आपी शक्यो नहि तेथी ताहरूं अधिक धन न थयु. जो एक कवडी आपी होत तो कोटी टका धन थात. ते माटे ते पूर्व- दैविकरुण आपवानी बुद्धि तारी जो थाय ने ते आपे तो तुंने बागलें धन घj थाय. नहीं तो जेम तपावेली धरतीने विषे पाणी नारख्यु रहे नहीं तेम तुजने पण अधिक धन नहिं थाय,तेमाटे संतोष कर. एवं सां जली ते निपुण शे जे देवनुं धन शेप रयुं हतुं तेथी हजारगणुं फूलनुं देवू आपीने परिग्रहनो परिमाण कस्यो. तेमां नवाणुं लाख सोनश्या, आठ घर, आठ हाट, सर्व जातिनां करियाणां आठ जार, आठ घोडा, चोवीश गाय, आठ दास, आठ दासीनो नियम राख्यो. तेमज घी तेलनी चार घडी यो, तथा विशेप दोषरूप जीवनी हिंसानुं ठेकागुंजापी धान्य अधिक न राख्युं. मात्र वे मूढक एटलेमूडा मोकला राख्या. वीजा सर्व धान्यनो त्याग कस्यो. एरीतें राया निगेणं इत्यादि बबिमि अने चार आगार सहित पांच मुं अणुव्रत गुरु पासेंथी लेइने तेने रुडीरीतें पालतो हवो. ते दिवसथी मां मीने शेतने घेर लक्ष्मी स्थिर रही, दिन दिन प्रत्यें वृद्धि पामवा लागी, अ त्यंत स्थिरपणे रहेवा लागी. माटे लक्ष्मीनी प्राप्ति, तेहनी वृद्धि, तेहनी स्थिरता, ए सघलां वानां प्राणीने धर्मथकीज थाय. हवे ते धनशेत धर्म मां अधिक अनिग्रह धरवा लाग्यो, तेम लक्ष्मी पण धर्ममार्गे वावरतो ह वो. ए लक्ष्मी पाम्यानुं मुख्य फल . शेप धन जे जे ते निश्चे संबंधे . ___ एक दिवसें नदीने तटे वेगलुं सुवर्णरत्नादिकनुं निधान दीतुं पण ते शेठ व्रतने विपे दृढमुनि सरखो निस्टह ने तेमाटे तेणे कांकरा सर गणी तेमांथी एक कवडी मात्र पण उपाडवा इबानी कीधी नहीं. पनी रात्रे स्त्रीने ते निधाननी वात शेनें कही, अने तेनुं काणुं पण संनलाव्यु. ते वखत शेठने घेर चोर लोको चोरी करवा माटे घरमां गुप्त रह्या हता तेणे ते वात सांगली, तेथी ते चोरो धन लेवाने हर्षवंत थका ते स्थानकें गया, त्यां जड जूए ने तो दुर्दैवना योगयी वीडी अने कोयला दीता, ते देखीने खोज्या थका विचारवा लाग्या के वाणिये आपणने ठग्या, माटे वाणि याने घेर था वींनी लइ जश्ने नांखियें के तेना कुटुंबने विंडी खा जा य. एवं धारी विंबीयो ने पोताना मस्तक उपर उपाडीने ते शेठनी खडकी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नी निंत उपर चडीने शेतनां घरमां जश्ने उलव्या. पण ते शेठना लाग्योदय थी ते विडीयो सुवर्ण रत्नमय जाणिये देवतायेंज आकाश थकी प्रगट वृष्टि करी होय नहिलं ? तेम रत्नमय थ खडखड करता पडता हवा. संतोषरूप सुरूतथी कमायेचुं जे धन तेजनखं जाणवू पण बीजं धन नखं नहि. हवे ते शेत ते सर्वधन श्रीजिन चैत्यादिक धर्मकार्यने विषे मोपदनी वाहायें वावरवाने काममां श्रावशे एबुं धारी तेधन घरमा थापतो हवो अने गुन कार्यमां ते धनने वावरतो हवो. एकदा राजानी सनाने विपे ज्ञानवंत निमित्तियायें आवीने कां के था गल बार वरस लगण काल कल्पांत सरखो मुर्निद दुष्काल पडशे,तेमा मात्र थोडाज जीव जीवता रहेशे तेमाटे सघला जनो अव्ययपणे धानने संग्रह क रवानी वा निरंतर रावो. ते सांजली सर्वलोकोयें अगणित धान्य, तेल, मीतुं, पाणी, इत्यादिक सकल वस्तु समुश्ना पाणीना वेगनी पेरें वेगथी लीधां पण धनशेठने पोतानां सऊन लोकोयें तथा बीजा लोकोयें अतिशय प्रेयो तो पण ते धैर्यवंत यात्मानो धणी पोताना अनिग्रहमाटे व्रत परि माणथी किंचित् मात्र पण अधिकधान्यादिकने न संग्रहतो हवो. हवे अनुक्रमे दुष्काल पड्याथी शेतने घेर दिन दिन प्रत्ये धान्य उतूं थ तुं जाय तो पण ते शेठ पोताना अनिग्रहमांहे दृढपरिणामी थको जेट लुं धान्य उ, थाय तेटलुंज पालुं वेचातुं लइ नियमप्रमाणे राखीने ते स त्यवंत शेठ पोताना अनियहनो अने कुटुंबनो निर्वाह करतो हवो. तथा व ली दानमां प्रीतिवंत एवो ते शेव एहवा कालमां पण को दीन मुःखी अ नाथने अन्नादिकनुं दान थापे. एम थोडामाथी थोडं पण आपे. हवे दिवसें दिवसें समुना पूरनी पेरें धान्यनुं मूल चढतुं जाय तो पण पोताना व्रतने विषे दृढ परिणामनो धणी एवो ते शेट जे हवे झुं करीश ? एवो पश्चात्ताप न करतो हवो. एम करता करतां अनुक्रमें सामान्य धान्यनी एक हांमली लाख सोनैया होयतो चडे, एवी महर्घ्यता थ. पुःखें पामवा योग्य एवो इव्य मले पण धान्य पाणी न मले. एवो वखत आव्यो तेवारें साव धान एवो ते शेठ विचारवा लाग्यो के हवे युं थाशे ने झुं करीशुं ? एवी चिंता उपनी,एवामां दैवना वशथकी तिहां जाणियें देवतायेंज आपी होय नहि ? तेम ते शेउनां मुख आगल कोश्क पंखीना मुखमांथी कालि चित्रावे Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २४७ ल अकस्मात् पडती हवी. ते चित्रावेलनां चिन्हे करी लखीने शेते नपाडी लीधी, पड़ी हर्षेकरी तेना कटका करी अन्नादिकने विपे नाखतो हवो. ते चित्रावेल जाणियें अक्ष्य लक्ष्मीज बीज होयनहिं ? तेम तेना प्रनावथी धा न्यादिकसर्व अखूट थयां. चक्रवर्तीना धान्यनी पेरें अहोरात्र तेमांथी गमे एटलुं धान्य वावरे,तोपण तेधान्यप्रमुख खूटे नहि. पुण्य अने कीर्ति तेहनो संचकारज जाणे आपतो होय नहि गुं? एवी-शत्रगार जे दानशाला ते शेठे घणी मंमावीने पृथ्वीने विषे जयंकर एवो जे पुर्निद तेने विषे कलियुगमां जेम कल्पवृक्ष शोने तेम ते शेठ शोनतो हवो. अहो ! संतोषरूप व्रतने पु ष्ट करवानुं शहां पण महोटुं फल मले ले. जूठ के एकमात्र पोताना कुटुंबनो निर्वाह करवानो जेने संशय हतो, एवा ते धनशे- दानशाला मंमावीथ ननुं दान आपीने आखाजगतनो निर्वाह कस्यो. हवे एकदा राजायें धनशेठमां निःस्टहपणानो नाव जो तेनी उपर तु टमान थइ धनशेठने कह्यु के,तमे विश्वास करवा योग्य बो एम समस्त ज गत तमने जाणे , तेमाटे हे शेत! तमें मारा नंमारी थान. ते सांजली धन शेते कह्यु के,हे राजन् ! ए व्यापार अंगीकार करवानो माहरे नियम ,माटे हुँ नहि थावं. जेथकी मारुं व्रत लोपाय तेवा पसाये करीने सयुं, जे जोजन जमवाथी रोग पेदा थाय, जे नोजन करवाथी नोजनना करनारने अाशात नानो उदय थाय ते नोजन शा कामर्नु ? ते कारणमाटे हे देव ! नंमार, जे अधिकारी पणुं वे ते पापसमूहनो नंमार ले तेने दुं देवनिर्माल्यनी पेरें अं गीकार नहि करूं. हवे राजाने तो जे आझा ने तेज प्रधान महोटो धर्म डे तेथी ते वात सांजली राजाने कोध चड्यो ने कहेवा लाग्यो के दोपरहित एवा ए कार्यने विषे तुं दोप केम देखाडे ले ? वली माहरी घाझा नांग्याथी ताहरुं व्रत केम रहेशे ? माहाकै नंमारीपणुं पाखा जगतने उपकारीपणुं बे, ते तुं जाणतो नथी ? ते उपरांत बीजो को नियम नथी. माटे कदायह बांझीने माहरूं नंमारी पणुं अंगीकार कर. दुं तारा उपर प्रसन्न थइने कहूँ बु, माटे तुं फोकट विचार का करे . आवां राजानां वचन सांजली ता त्त्विकमां शिरोमणि एवो ते शेत चित्तमां विचारवा लाग्यो के संसारमा परा धीनता रूप अनिथी वलता प्राणीने धिक्कार . में जो पूर्वेज दीक्षा लीधी होत तो आ पराधीन पणानी वीटंबणा न देखत. धन्य ते मूनियोने के Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. जे राजानी आझाथी पण मरे नहि ? एटला माटे हजी पण काइ बगडयु नथी, उचित होय तेज करूं. एवं विचारी ते धनशे पंच मुष्टिक लोच क रीने दीदा सीधी एटले देवतायें तेने साधुनो वेष आप्यो, साधु थया. रा जानी आगलज पण जून के शेतना नियमना निर्वाहनुं धैर्यपणुं कहे, जे ? हवे राजायें प्रणाम करीने अनुक्रमें ते धन साधुने पोतानो अपराध क्षमा व्यो. शेत पण घणो काल चारित्र पाली केवल ज्ञान पामीने मोदे गयो. एटला माटे जो जव्यो ! पांचमा व्रतने विपे धनशेउनु चरित्र सांजलीने त्रण जगतने पण दोननो करनार एवा लोजरूपि समुश्ने तरो, इति पांचमां अणुव्रतने विपे धनशेतनी कथा समाप्त ॥ इति श्रीतपागचे श्रारूप्रतिक्रम ण सूत्र रत्तिनेविपे ए पांच अणुव्रतनो बीजो अधिकार समाप्त थयो ॥२॥ ॥अथ पष्ट दिगतिरमण व्रत प्रारंजः ॥ ए पांच अणुव्रत ते श्रावकधर्मरूप जे कल्पद तेनुं मूल के तेमाटे ए पांचेने मूल गुल कहिये. हवे ए पांच अणुव्रतने पुष्टाना करनारा एवा दि गविरमणादि सात व्रत जे ले तेंपण शाखा प्रतिशाखा तव्य जे तेमाटे र ने उत्तर गुण कहिये. हवे ए सात व्रतमां पण पहेला त्रण गुणव्रत के अने पा बला चार शिदावत जे. ते गुणवतमाहे पहेलुं गुणव्रत अने वारव्रत मांहे बहुं दिगविरमणव्रत तेना अतिचार निंदवाने अर्थे गाथा कहे जे. ॥गमणस्सन परिमाणे,दिसासु नटुं अदे अतरिअं च। बुद्धिसइ अंतरघा, पढमंमि गुणवए निंदे ॥ १५ ॥ अर्थः-गमनस्स एटले गमननु परिमाण जे आटला योजन जावू ते नो नियम लीधेलो ने तेने विपरीत करे थके च शब्द थकी अतिकमवे क रीने, ते शेने विपे अतिक्रमवे करीने ? तोके (दिसासु के) दिशिने विपे एहज विशेपे कहे . ( नर्से के०) चीदिशि ते ऊर्ध्वपणे पर्वतनां. शिखर ने विषे जवानुं वे योजन प्रमुखनुं प्रमाण ग्रयुं , तेनुं अनानोग पणे क री अधिक गमन कयुं होय ते ऊर्ध्व दिशि प्रमाणातिकमरूप प्रथम अतिचा र जाणवो. तेमज अधोदिशी जे नीची दिशी अने तिर्यगदिशि जे तीर्थी दिशि. ए वे दिशिना पण वे अतिचार जाणवा. एवं त्रण अतिचार यया. इहां आवश्यक चूर्णीमांहे ए विधि कह्यो के नवंदि शिगमननो प्रमा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४ए ण कस्यो तेथकी उपर जो वृक्ष अथवा गिरिनां शिखरने विषे कोई वानरो अथवा पंखीयादिक जीव होय ते वस्त्र आनरणादिक लश्ने चुं चडी जा य तो तेने सेवा जावं कल्पे नहीं. परंतु जो ते पंखी अथवा वानर प्रमुख ना मुखमांथी पडी जाय अथवा बीजो कोई आणी आपे,तो ते लेवं कल्पे, केमके पोताने तो धारणा प्रमाणेज जावं कल्पे, उपरांत जावं कल्पे नहीं. ए नवंदिशि आश्रयी अष्टापद, समेतशिखर,अर्बुदाचल, चित्रकूट, अंजनगि रियने मेरु प्रमुखें संनवे अने अधोदिशि आश्रयी तो मुंशरा मांहे, रसकू पिका विवरादिकने विषे जाणवं. तथा तिर्यगदिशि आश्रयी तो पूर्वादिक चारेदिशिने विपे जेटलुं गमनागमन धायुं होय तेथकी अधिक गयेथके अतिचार लागे तेमाटे नियमित देवथकी आगल ढुं न जानं तथा बीजा ने न मोकलुं. इहां कोई नियमित देवथी बाहिरला देवमां जिहां बीजा पुरुषे जावानो नियम लीधेलो नयी एवो पुरुष जो पोतानी मेलेज कोई चीज वस्तु लश् याव्यो होय तो तेवी वस्तु लेवामां कांश दोप नथी एवं योगशास्त्रनी टीकामां कडं . ४ चोधुं देवदि ते सर्व दिशाउने विपे योजन शतादिकनुं परिमाण क घु जे तेमां एक दिशायें शो योजनथी उपरांत जावानुं काम पडयुं तेवारें लोने करीने केटलाएक योजन बीजी दिशाना परिमाणमां ना करी उक्त दिशामां वधारे, ते दिशिवृद्धि कहिये. एम करवा थकी प्रमाणनुं अतिक्रम थाय. पाडली दिशियें बोज अने आगली दिशियें वधारे जावे दिशिना योजन एकता करे तेवारे वे दिशिनी संख्या बराबर थाय,ए बाह्यवृत्तियें अ तिचार कहेवाय पण अंतरवृत्तियें तो व्रतनंगज थयु. ए रीतें अधिकदिशि जवानी ना करनारा जनने दिशाबाश्रीने अंगीकृत प्रमाणने अतिक्रमी दिशि तेणे नंग पण थयो वली दिशा उलंघ्यो नहीं, तेणे नहीं पण थयो, ए नंगानंग रूप चोथो अतिचार जाणवो. ५ पांचमो सश्यंतरक्षा स्मृत्यांतही ते स्मरणनो नाश थाय, ते जेम के पूर्वदिशियें शो योजन जावानुं परिमाण का ले, तेने गमनने अवस रें अति व्याकुलपणे प्रमादने वशे मतिनंशादिके करीने निश्चय रहे नहीं जे शो योजन किंवा पञ्चास योजन- परिमाण कयं जे एम संदेह रहे,तेम स्पष्टपणे योजननुं मान अगसंजारते पचास योजननी उपर गमन करे तो Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. पांचमो अतिचार जाणवो. अने जो शो योजननी उपर गमन करे त्यारे तो ते व्रतनंगज थयो जाणवो. ए पांचमोअतिचार जे कह्यो ते अतिचार जो पण सर्व व्रतोने विषे साधारण बे तोपण ए व्रतने विषे पांच अतिचारनी संख्या पूरवाने अर्थ इहां थाप्यो , माटे अंगीकार करेला व्रतने वारंवार संचार केमके सर्व अनुष्टान क्रियानुं मूल ते स्मरणज जे. स्मरणनो ना श थयो तो व्रतनो पण नाश थयो एम जाणवू. ___ कदाचित् अनापयोगथकी देत्रनुं परिमाण उलंघी जवाय तो ते वखत नी सफरमा जे व्यादिकनो लान थयो होय ते सर्व इव्यादिकनो परिहार करवो. अने जे स्थानकें सांनरी आवे ते स्थानकथीज पावू वलदुं परंतु या गल एक पगलुं पण चालवू नही. जे देत्रनुं जिहां सुधी परिमाण कां होय तेथकी आगल बीजाने पण मोकलवं नही. कदाचित बीजा कोड्ने मोकलवाथी ते इव्यादिकनुं जे लान पामी आवे ते लान सर्व परिहरवो. तीर्थयात्रादिक धर्म निमित्ने जे नियमित खेत्रथकी आगल गमन कर पडे अथवा कोइने मोकलवो पडे तो तेनो दोष नही अने धननी उपाऊ ना जे ले ते इहलोकना फलनी हेतु वे माटे तेने अर्थे अधिक गमन करवा नु नियम करवू पडे बे. ए व्रतथी जे लान थाय ते कहे जेः-प्रथमतो नियम करेला योजन शतादिक प्रमाण जे केटलोएक नूमी नाग ते मूकीने शेष चौदराज लोकमांहे रह्या जे समस्त जीव तेनी हिंसानो बारंन चाल्यो आ वेने ते ए व्रत लीधाथी तेमने हणवानो नियम थयो. ते जीवोनो रणरूप गुण करणने अर्थ ए व्रत डे माटे ए गुणव्रत कहेवाय . ते दिगविरमण नामे व्रतमाहे जे अतिचार थयो ते निंबु बुं, उपलक्षणथी वली गहुँ बु. ए व्रत अंगीकार करवाथी त्रस थावर जीवोने अजयदान आप्युं, लो जरूप समुश्नी नियंत्रणा थर इत्यादिक महा लाननं कारण ने.महोटो अनि सरखो दीप्तीवंत एवो तपावेलो जे लोहनो गोलो ते सर नित्य अ व्रतिपणा, पाप जे. केमके अविरति जीव जे जे ते, सर्व दिशाने विषे रहे ला समय जीवोने गोलानी पेरें बाले , हणे ने, जोपण ते मनुष्य कांस र्व स्थले पोतें जातो नथी तोपण अविरति अव्रतपणाना बंधने लीधे ते मनुष्य इहां थको पण नित्यप्रत्ये शरीरें करी हिंसा करे ३ ॥ १५ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २५१ बठा अणुव्रतने विपे महानंदकूमरनी कथा कहे . समस्त वस्तुने विस्तारे करीने इंश्पूरीने पण हरावे एवी लक्ष्मीवंत अवं ती नामनी नगरी जे. ते रूडा वर्णेकरी वर्णववायोग्य बे. सुखमकालपुरी स रखी मनोहर ,मारगनी पंक्तियें करी शोनित ,विविधजातना अर्थ तेहने समूहे पूरी एवी ते नगरी चंपानगरीनी पेरें शोने ले. ते नगरीमांत्रण ज गतनुं जेहमा पराक्रम के एवो विक्रमादीत्य नामे राजा राज्य करे . ते राजा नुं सत्वपर्यु, दातारपणुं, उपकारीपणुं अतिशयवंत जे. जाणे गायत्रीनुं तथा ब्रह्मानुं करेलुं नूलोक, नुविलोक अने स्वर्गलोक ए त्रणेना सारनोज उदा र करीने विधातायें ते राजा निपजाव्यो होय नही ? ते नगरीमां कोटीध्व ज एवो धनदत्त नामें जिनधर्मी श्रेष्टि वसेजे. ते शेठने उदार तथा विकसि त कमल जेहवा जेना हाथ डे, पद्मसरखा जेना पग डे, एवी पद्मावती नामे स्त्री जे. पण तेने पुत्र न होवाथी अत्यंत उरखी होवाने लीधे कूलदेवी प्रमुखनी घणी प्रार्थना करी जेथी देवयोगें एक सौनाग्य लक्ष्मी अतिशय वंत एवो जयकुमार नामें पुत्र थयो. ते बालकनां गर्न समये,जन्म समयें, रदा विधार्नु, चंसूर्यनुं दर्शन देखाडवा वरखते,षष्टीना जागरण वखते,नाम स्थापन करती वखते, देवगुरुने वांदवा जतीवरखते,अनस्वाद कराववा वरखते, केश उतराववा वखते, दांत आववाने वखते, कणदोरो बांधती वेलायें, बो लवु शीखवाने अवसरे,गमन करवा अवसरे,चोटी राखवा अवसरे, वस्त्र या जरण पहेराववां वखतें,राखडी बांधती वखते, वरसगांठ करवा वखते,बहोत र कला ग्रहण कराववा वखते, श्रावक धर्मनो विधि शिखववा वखते,मोटा व्यवहारियानी कन्या साथे पाणीग्रहण कराववा वखते,व्यापार कला शीख वती वखते इत्यादिक सर्व कार्याने विपे तेना पितायें महोटा महोत्सवो करी ने महोटा उत्साहथी अत्यंत घणु इव्य खरच्यु. कह्यु के के रागने स्थानके, प्रेमने स्थानके, लोनने स्थानके, अहंकारने स्थानके, पोतानुं ठेकाणुं राख वाने स्थानके, प्रीतिने स्थानके, कीर्तिने ठेकाणे,कोणे इव्य व्यय कीधुं नथी? __ हवे ते शेग्नो पुत्र पण पाडोशीनी नली संगतें करी नली शिदादिक ना योगथी बालक थको पण बीजना चश्मानी पेरें कलंकरहित एवो यौ वन तथा कलायें करी वृद्धि पामतो हवो. तोपण जेम चश्मा कलंकित कहेवाणो ने तेम ते पुत्रपण कलावंत चंमानी पेठे कलाये करी वृदिपा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. मेलो उत पण जुवटाना व्यसनरूप कलंके करी कलंकित होतो दवो. ते थी निंदा करवा योग्य थयो. मदिरा थकी पण हीनलोकने वर्जनीय थयो, ते जो तेना माता पितादिक कहेवा लाग्या के, हे वत्स! गुणोनो नास क रवानो हेतु तथा पुर्मति अने उर्गतिनो दूत अने सर्व व्यसननो समुह ए, ए यूतरमण ने, तेने तुं मूकी आप, इत्यादिक घणो समजाव्यो तोपण पूर्व कत असुनकर्मना योगथी ते पुत्र व्यसनने कोइरीतें मूके नही. .. हवे व्यसनी पुरुपर्ने, धन टकी शके नही तेम ते शेतनां पुत्रने अनुक्रमें विटल पुरुषोनी कुसंगति थकी गणिकानुं व्यसन पण होतुं हवं. कवी कहे डे के, अहो जून पडिवाइपणाना जावनुं शील ते जीवने समकाले उपजे ? वित्तरूप जे घृत तेनी आहूतिनी पूर्तियें करीने व्यसनरूप अग्नि अधिक वृद्धिने पामे ने अने दारीरूपी पाणीना योगथकी वली तेहजहणे उप शमे डे, ए, जाणतां बतां पण पिता विचारवा लाग्यो के पूत्रने शिखाम ण देवाथी एनुं चित्त विपाद पामशे माटे तेम न थवासारु अहोनिश तेने वांडित धन देतो हवो. जून मोहथी जीव केवो मूढ थजायते ? एम व्यस नमां आशक्त एवा पूत्रं जेम ग्रीष्मकालने सूर्ये सरोवरनुं पाणी शोषी जवाय तेम शेतन कोडीबह समय धन तेणे थोडाज दिवसमां शोषवी नारख्यु. क ह्यु बे केः-सेवा सुखाना, व्यसनं धनानां, याचा गुणानां कुनृपः प्रजानां ॥ प्रनष्टशीलश्च सुतः कुलानां, मूलावपाती कठिनः कुठारः ॥१॥ नावार्थ:सुखना मूलने, पारकी चाकरी दे , व्यसन, धनने टाले , याचना, गु पने टाले , अन्यायी राजा,प्रजानो क्ष्य करे , कूशीलवंत, अनाचारी, व्यसनी, एवो पुत्र, ते कुलनो दय करे , ते कारण माटे एटलां इष्टांत मूल बेदवाना कठिन कुठार . हवे पोताने घेर इव्य खूटयुं तेवारे धननी अप्राप्तिये ते जयकुमार उष्ट कर्मे घेखो थको चोरी करवा माटे कोइक धनवंत व्यवहारीयानां. घरमां खातर पडवाने पेठो. तिहां खात्रना मुख आगल तेने सर्प मस्यो तेथी अक्तकरणीनी लजायेंज जाणे प्राण गंमया होयनी ? तेम ते शेठना पुत्र पोताना प्राण त्याग कस्या. जेमाटे द्युतादिक व्यसना वशयकी चोरीनो धं धो शीखे अने चोरी करवाथकी जीवनो नाश थाय,तेथी आनवमां मरण नुं कुःख थाय अने परजवें उर्गतिनां अनंत मुख जोगववा पडे. हवे प्रनाते Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २५३ सघलाये जाण्यु जे ए धनदत्तशेठनो पुत्र तेवारे राजायें ते धनठन महा अपराधी जे एवं जाणी तेने आकरे बंधने बांधीने सर्व अंगे बीडी दशकला नांख्या, सर्व व्य लूंटीने केदमांनाख्यो. तेवारें शेत विचारतो हवो के घणे मनोरथे पूत्र थयो, ते माठां विलासथी पोताने अने परने अहितकारी थयो. हवे कोश्क रीते करीने ते धनदत्त शेठने विषे तेनां मित्र, नाइ, ज माइ अने सेवको, स्त्री अने सादन तथा महाजनो ए सर्व मलीने विनय पूर्वक राजाने वीनंति करीने तेना पुत्रनुं स्वरूप कहीने ते धनदत्तशेठने म् काव्यो. ते दिवसथी मांमीने धनदत्तशेठ तेवा पुत्रनुं मातुं चरित्र तेणे करी त्रासवंत चित्तें अत्यंत मोटुंदरिश्पणुं अने अपमान बगेरेने पामतो हवो, तेमज पूत्रना जन्मवाथी अत्यंत हानी थइ एम धारतो हवो. वली पण पूर्व जवने पुण्यकरी व्यापारनी निपुणतायेंकरी पूर्वनीपेरें वाणिज्य करतां तेणे बोहोलो धन उपायो. उत्तम आचारथी शोना वधी, राजानु मान थयुं. तेथी ते धनदत्त शेठ पोते नवो अवतार पाम्यो एम मानतो हवो. वली ते या गली स्त्रीने बीजो पुत्र न थयो,स्त्रीपण वये युक्त थइ,तेमज ते शेठने पुत्रादि क जो पण अत्यंत अनिष्ट थया ने तोपण स्त्री विचारवा लागी के जो महारे शोकनो पण पुत्र होय तोपण एधननो धणी तो थाय,अने महारे पण आधार थाय. एम अत्यंत पुत्रनी आर्तियें अाक्रमी एवी स्त्री तथा हितना वांब क जे स्वजनादिक तेणे मलीने बीजी कन्या परणवा माटे ते शेठने अत्यंत प्रेरणा करी, पण पुत्रना विपाक जोगवे ने तेणे करीने कदाच कुपुत्रनी प्राप्ति थाय तेमाटे ते शेत निर्विकारीनी पेठे परगवानी वात अंगीकार न करतो हवो. कह्यु डे केः- पुर्जनःखितमनसां, पुंसां सुजनेपि नास्ति वि श्वासः॥ बालः पयसा दग्धो, दध्यपि फुत्कृत्य खलु पिबति ॥१॥ नावार्थःउर्जने उखव्युंठे मन जेनुं एवा पुरुषने सङननो पण विश्वास आवे नहि, जे बालक एक वखत दूध पीतां बव्यो होय ते वीजी वखत दही पण फु कीने पिये ॥ १॥ हवे एकदा कोई इश्वरदत्त शेतनी पुत्री परणवा योग्य थइ पण तेने लायक वर मलतो नथी एवी पोतानी पुत्रीतुं पाणिग्रह ण करवाने माटे इश्वरदत्तशेने धनदत्त शेठने कहेवराव्यु, के हे शेव? विश्व मां प्रशंसवा योग्य, पूर्व पुण्यथी पामवा योग्य एहवा पुत्ररत्न तेनी उत्प तिथी तुं उत्पातनी उत्पत्तिनी पेरे निष्फल जयगुं पामे ले ? बोकरा जण्या Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनकथा रनकोप नाग चोथो. एटला सर्व कुजातज होय के गुं ? सर्व वृदने विषे कांटाज होय शुं ? सर्व तलावने विषे कादवज होय गुं? एकवार अजीर्ण मात्र थयाथी फरीने बीजीवार जज नहि गुं ? एकवार जे रस्ते धाड पडी होय त्यां हमेशा धाड पडसे, ए, धारी ते रस्ते नज चालवु के गुं? माटे हे शेठ ? उखे निग्रह करवा योग्य एवो जे तमारो कदाग्रह तेने बांमीने उत्तम लक्षणे युक्त एवी कुमुहती नामे माहरी पुत्री के तेने तमे अंगीकार करो. तेनां स्वामीप णानां नावें तमारो बीजना चश्मांनी पेरें कोश्क मोटो उदय थशे, एम ते नां लक्षणोथी में निश्चय कस्यो ,माटे ए कार्यने विपे हवे विचार करोमां. हवे निपुणतायें करी गृढ ले चित्त जेनुं एवो धनदत्त शेत पण कहेतो हवो के हे मोटा आयुष्यना धणी ? तमारा दाक्षिण्य थकी ए वात पण क रीये. परंतु जो तमे संताननी वात प्रत्ये ते कुमुक्ष्तीने कांइन कहो,अने देव योगथी कदाच संतान थाय तो माझं नथी एम ते गए, जो एवी निर्मोहता होय तो ढुं अंगीकार करूं. ते सांजनी जेम हिमाचलें पार्वती शिवने अंगी कार करावी तेम ते शेतनी पासे जो पण बीजापणा जनायें उत्कंठा सहित तेनी पुत्रीनी मागणी करी तोपण ते शेने पोतानी कन्या अन्य जनने न था पी अने धनदत्तनेज आपी. कुमुक्ष्तीये पण जे प्रमाणे शेते कह ते प्रमाणे अंगीकार कल्यं, तेथी ते धनदत्त शेठ तेने महोटा नत्सवथी परण्यो. अनु क्रमे ते स्त्रीजरतारने मांहो मांहे प्रीति थइ, तेथी प्रीतिनुं निधान एवं जे उधान ते जो के शेतने अनिष्ट ने तोपण तेने रघु. ते स्त्रीयें स्वप्न दी],ते जा णे पोताने कोई वाहाले आवीने मांहे बदरीफल मूकेचं एवं एक कांसार्नु कचोलुं प्राप्युं अने तेज कासा, कचोलुं वली कोइके पालुं लश्लीधुं, ए बुं स्वप्न आववाथी कुमहतीयें पोताना स्वामिने स्वप्नानी वात जणावी ते थी शेठेपण पोतानी मतिने अनुसारे बाह्यथी सुंदर एवो पुत्र था. ने ते पुत्र केटलाक इव्यसहित परगृहने विपे रह्यानी स्थिति इत्यादि स्वप्नानुसा रे अनुमान करी चित्तनेविषे विचारतो हवो के ते पुत्र माहरूं कांश नहि ली ये तेम दुं करीश. एम अनुक्रमे रूपवंत पुत्रनो जन्म थयो एटले तुरत ते शेठ पुत्रने लेश्ने पूर्वला वचनना बलथकी जेम निर्जिव होय तेने स्मशान मां मूके तेम जीर्ण उद्यानने विषे जश्ने मूक्यो. कवि कहेजे के, अहो जून निर्मोहता ? कुपुत्रनी कदर्थनायें शेठने उद्येगवंत कस्यो बे. हवे ते शेत जेवा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २५५ मां ते बोकराने मूकीने हर्षवंत थको पाडो वव्यो, तेवामां अकाल मेघना गर्जारवनीपेरें अकस्मात् देवतानी वाणी आकाशमां प्रगट थके, हे शेत! ए बालक तमारी पासे जे लेणुं मागे ते दश्ने पनी जा. एवी देवतानी वाणी सांजलीने ते शेव जय अने कौतुके सहित एवो थको बोल्यो के केट खं इव्य ते बालक मागे ? ते तमे कहो तेटलुं आपुं. त्यारे ते देव बोल्यो के ते बालक एकहजार सोनैया तारी पासे मागेले. ते सांगली शेत पोताने घेर जश् हजार सोनैया लावीने बालकनीपासें मूकी पाडो वट्यो. मार्गमां चिंतव्यु जे घणुं रुडं थयु. देवाथी तूट्यो, एम विचारतो मंदिर आव्यो. हवे जातमात्र पुत्रना विरहथी घणी पीडायेली एवी ते स्त्री शेठना नय थी प्रसवनी वात पण व्यभिचारीणीनीपेरें प्रकाश करती न हवी. पडी प्रना तें इव्य अने ते बालकने मालाकर देखीने हर्ष पामतो पोताने घेर लइ जश पोतानी स्त्री जणी आपतो हवो. ते स्त्रीपण पोताना पुत्रनी पेरें पालती हवी. कझुंडे के जे वस्तुनी श्वान होय ते मनुष्य प्रायें थोडा कालमा घणी पामे, ने जे वस्तुनी इबा घणी होय ते वस्तु लेशमात्र पण थोडाकालमा न मले. तेम कुमुक्ष्ती पण पुत्रनी वात वीसारीने पोतानो धंधो करती रहे ले. एवामां वलीपण थोडाकालमां तें कुमुहितीयें एक स्वप्नुं दीतुं जे सोनाना क चोलामां पाकुं नारंगीनु फल कोयें लावीने याप्युं तेने वली कोश्ये पावू ली, तेवी स्वप्नानी वात तेणे जरतारने कही. पनी अनुक्रमे रूपादिकेकरी पूर्वना सरखोज बीजो पुत्र ते कुमहतीयें प्रसव्यो. ते पुत्रनेपण शेठे स्थान कनी परावर्तना बुधियें बीजा वनमां जश् मूक्यो, त्यां पण आकाश वाणी थ जे ते पुत्र तारी पासे दशहजार सोनैया मागेले ते मूकी जा तेथी ते शेठ दशहजार सोनैयानो ढगलो ते बालकना मोढां आगल करी पोताने मंदिर गयो. काले करी विगतशोक थयो. ते पुत्रने पण दशहजार सोनयास हित कोई व्यवहारियो पोताने घेरल जपोतानी स्त्रीने आपी पालतो हवो. हवे कुमुहती वारंवार पुत्र प्रसवादिकना क्लेपे नछेग पामी तेथी तेने अत्यंत मालु लाग्यु. वली एकदा स्वप्नामां नजातिनो स्वेत हाथी कनो .ल करतो पोताना घरमा पेसतो देखीने जागी उठी अने पोताना जरतार ने ते वात कही. अनुक्रमे आनंदनो संदर्न एवो वली गर्न होतो हवो. पबी घणा उंचाग्रहादि गुणो सहित अईरात्रि समये सकल गुणे शोनित अति Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. यशवंत पुत्रनो प्रसव थयो. ते पुत्र शुन स्वप्नेकरी सूचवित , माटे तेने वनमां न मूको,एम स्त्रीयें घणो वास्यो तोपण शेत विश्वास रहित ते बाल कने त्रीजा नद्यानमां मूकतो हवो. तेवामां बाकाशवाणी थजे तेनीपासे थी लेणुं लीधाविना तुं केम मूके ने ? त्यारे शेतु पूज्यु के केटबुंक लेणुं हुं तेनी पासे मागुंडं ? त्यारे देवे कह्यं के कोडाकोडी सोनैया तेनापासे तारा लेणा बे, ते सांजली अत्यंत प्रीतिवंत थको ते शेठ ते बालकने पाडं घेर आणी ने चिंतामणि रत्ननी परें स्त्रीने आपतो हवो. पुत्रनो अपूर्व जन्म थयो ए म नत कुमुहतीयें स्थापना करीने घणो महोटो जन्मोत्सव कस्यो. ते आनंदनो करनार ने तेथी तेनुं महानंदकुमर एवं नाम पाड्युं. ते कुमर जो के हजी न्हानो ने माटे दांतरहित ने तो पण सर्वथकी गुणनी वृद्धिनो जज नारो, दांतसहित जेवो अनुक्रमे ख्यातवंत तेथी शोनायें अनुतजे. ते वा लक अनुक्रमें वधतो थको कलावंत चंदमानीपेरे कनायो ग्रहण करतो ह वो. अने वली सजुरुपासे बाल्यावस्यामां समकितमूल देश विरतिप्रत्ये ग्र हण करी बहाव्रतनो नियम करतो हवो. ते पोताना वसवाना स्थान कथी मांझीने सर्व दिशीनें विपे तिर्यगपणे सो योजन प्रमाणे जवानुं नि यम अंगीकार करतो हवो. एम करतां यौवन अवस्थामां तेना पितायें यक दत्तनामना व्यवहारीयानी जेवू नाम एवा परिणाम वाली कलावती नामें कन्यासाथे तेने परणाव्यो. ते महा नंदकुमर जनम्यो त्यारथी धनदत्त व्यव हारीना घरमां सर्व प्रकारे पाणीना पूरनीपेनें लक्ष्मी वधती हवी. हवे धनदत्तशेठे अनुक्रमे सर्व वाणिज्यनो नार वर्षाकालना नदीना प्र वाहनी पेरें ते महानंदकुमरने सोंप्यो, तेथी ते वाणिज्य करतां थोडा दि वसमां कल्पवृदनीपेरें महोटा नत्साहथी कोडाकोडी सोनैया उपार्जतो हवो. केटलाएक पुरुष तो जगतमा पोताना निर्वाहने विषे उत्साह रहि त थका जन्मथकी धननी नपार्जना करयां करे ,तथा केटलाक सेहेजमात्र मां इव्य उपार्जे , अने घणानो निर्वाह करे बे, तेम घरनो सर्व निर्वाह महानंदकुमार करतो हवो. ए सघलो लेणां देणांनो संबंध ,ते संबंधनिश्चें व जबंधसरखो बे. इहां धनदत्तशेठनो संबंध त्रण कुपुत्रथी इव्यनो नाश श्रयो, अने एक सुपुत्रथी इव्यनी वृद्धि थ. हवे ते धनदत्तशे पुत्रना वचनथी नि श्चिंत था सुवर्णमय चोमुखो जिन प्रसाद कराव्यो, तिहां महोत्सवथी प्रति Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ५७ ष्टा करावी अने सात क्षेत्रे सात कोडी सुवर्ण वावरतो हवो. त्रिकाल न लीरीतें जिननी पूजादिक,जे श्रावकनी क्रिया ते प्रत्ये करतो हवो तेमज परोपकारादिकमां पण सर्वथकी श्रेष्ठ थयो अहो सुपुत्र पाम्यानुं फल जून ? हवे अन्यदिवसें नलिकति वालो, कोइक विद्यानो साधक एवो पुरुषले तेणे उमास सुधी सेवा नक्तियें करी विधिपूर्वक आकाशगामिनी विद्या सा धवा मांझी ले तेणे विद्यानी सिदिने दिवसें उत्तरसाधकपणानेअथै सर्वना ग्यवंतमां उत्कृष्ट नाग्यवंत एवा महानंदकुमरने अत्यंत प्रार्थना करी. जो के उत्तरसाधकपणुं घणुं कष्टनुं करनारूं ने तोपण दाक्षिण्यवंत परोपकारी महानंदकुमरे तेहy वचन अंगीकार कस्युं. ना न कही शक्यो,कारण के ज गतमां परनपगारपणुं ते सारने. कयुं ले केः- देवं रदति चंचा, सौधं लो लः पटः कणान् रदा ॥ दंतानतृणं प्राणान, नरेण किं निरुपकारेण ॥ १ ॥ नावार्थः-चंचा पुरुप, देवप्रत्ये राखे. चपलवस्त्र, घर प्रत्ये राखे. रदा, ते कणने राखे. दाते यमु जे तृण,ते प्राणने राखे. जून निर्जीव वस्तुपण एट लो उपकार करेले, परंतु नपकार रहित जे पुरुष उपन्यो ते गुंकामनो ? हवे कालीचतुर्दशीनी रात्रिने विषे उत्तर साधकपणे ते पुरुष महानंदकुमारना सहायथी निराबाधपणे मेरुनीपेरें निश्चल थको विद्या साधतो हवो. ते वि यासिद थवा समयें विद्यादेवी सादात् थश्ने कती हवी के, अहो ! तें मोहोटे नत्साहे मुजने साधी, माटे ढुं तुमने सिह थ६. पण एटलुं विशेष जे जे परकार्यनो साधक अने प्राणीने आधारभूत एवो उत्तरसाधक जे आ महानंदकुमर ले ते जणी कुमारिकानी पेठे तुं मुझने श्राप, एटले ढुं ए म हानंदकुमरनी पासें कुमारीनी पेठे रहूं. जो महानंदकुमार मारूं वचन मा नशे तो ढुं कृतार्थपणाने मानीश. कर्मथी नपरांत अधिक फल थापवाने माटे विधात्रापण समर्थ नथी. कहुं ले केः-नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्ते पि वशगा,विधिर्वद्यः सोपि प्रतिनियतकमैकफलदः॥ फलं कर्मायत्तं यदि किम मरैः किंच विधिना, नमस्तत्कर्मन्योविधिरपि न येन्यः प्रनवति ॥ १ ॥ जावार्थः-हुँ जे देवताने नमुंड, ते देवता पण विधाताने वश्य, वली ते विधाता पण निरंतर कर्मनां फल जोगवे, तेमज ते फल पण कर्मने वश्य बे,माटे देवताने तथा विधाताने नम्ये गुं थाय? एम जाणि विधातानो पण जे कर्मथी उदय थयो ने ते कर्म प्रत्ये हुं नमुंबं, एम कहीने विद्यादेवी तत्का Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. ल अलोप थ. तेविद्यासाधकपण निपुण कुमारने ते समये विद्यादेवीना कह्यापूर्वक विद्या आपीने तत्वार्थनो जाण तेज निमित्त पामी विरक्तचित्त थइने तपस्या आदरतो हवो. ते कुमर विद्यायेंकरी विद्याधरनीपेरें आकाश गामी थयो. कवि कहेले के, अहो जूठ जाग्यनुं अधिकपणुं. कह्यु केः-वेपार कोक करे , अने तेनुं फल वली कोश्क जोगवे . तेमाटे उद्यमे सयुं अमारे तो कर्मज प्रमाण ..ते कुमर विद्यायेंकरी आकाशमार्गे विहरमा न तीर्थकर तथा शाश्वता तीर्थकरनी यात्रा करतो, परने उपकारादिक कर तो ते प्राप्त थयेली विद्यानुं सर्वदा काल फल लेतो रह्यो, उन्मत खलनी परें विद्यायें अतिशयवंत शक्तिनोधणी प्रायें पेढालपुत्र नीपेरें अन्यायमा अत्यंत प्रवर्ने, तेम ते कुमर विद्याना लानथकी पण अ न्यायमां नहिं प्रवर्ततां साधुनीपेरें उत्तम संवरनो धणी थयो. तेमज समु इनीपेरें मर्यादानुं उच्नंधन क्यांही एण ते कुमर न करतो हवो. हवे अनुक्र मे ते सौजाग्यवंत महानंदकुमारने एक पुत्र थयो ते पुत्र विष्णुने जेम प्रद्यु न कुमार अनुयायी हतो तेनीपेरें पोताना पिताने अनुयायीज थयो. ए कदा ते कुमरने अशुन दैवयोगथी उष्ट सर्प डस्यो, तेथी तेनुं विष चडवा थी तेहy सर्वथा चैतन्यपणुं नातुं. वैद्यादिकना घणा यत्न कस्या पण कृप गना रत्ननीपेरें निष्फल थया तेथी मातापितादिकने घणुंज दुःख थयुं. पनी तत्काल उपजेली मतिने योगें ते धनदत्तशेठे चोरासी चौटाने विषे पडह व जडाव्यो जे मारा पुत्रने सर्प डस्यो तेथी तेनुं विष उतारीने जे जीवतो क रे तेने दुं एक कोडी सुवर्ण आपुं. ते वात सांजलीने एक परदेशी विप्र वि वेकसहित कहेतो हवो,के हे शेठ ? इहांथी एकसो ने दश योजन उपर श्री निधाननामे नगरनेविपे हुँ रदुर्बु, त्यां माहारा घरनेविषे देवतानी आपेली एवी विषहर नामे औषधी ने, जे माहरी स्त्रीपण जाणे . ते औषधिनु घ पीवार स्पष्टपणे प्रत्यद में पार कयुं जे. ते ढुं मार्गमां गमावी ना एवी बीकथी अहिंया लाव्यो नथी. पण जो ते औषधि दिवस उग्या पेहेलां को ६ इहां लावे तो ते औषधिना महिमाथी निश्चेज अमृतनीपेरें ए बालक जीवतो थाय. अन्यथा जीवे तेम लागतुं नथी. __ एवां विप्रनां वचन सांजली ते शेव हर्षवंत थको कहेतो दवो के जलो जलो हे नूदेव ? तमें रूडी वात कही. हवे सनिलोआ माहरो पुत्र इंद Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. श्याए सरखो अचिंत्य शक्तिवालो , तेज आकाश गामिनी विद्यायें हमणांज वेगथी ते औषधि लावशे, माटे ताहरी स्त्रीने ताहरा हस्ताक्षर लखीने आप के जेथी ते देखाडीने औषधी लावे. तेवारे ते विप्र अतिकौतकथी ह र्षवंत थको जेटले कागल लखवाने तैयार थाय ने तेटले महानंद कुमारे कडं के, सुकतनेविषे एककंद एवा हे तात! माहरे दिगपरिमाण व्रत डे, तेमां प्रत्येक दिशियें मात्र शो योजन मोकलु राख्युं . ते उपरांत मारा थी जवाय नहीं. मुजने पुत्रनो मोह घणोडे पण व्रतनो अंगीकार करुगथी ते औषधि त्यांथी हुँकेम आणी शकुं? अंगीकारनो निर्वाह तत्पूर्वकज जेवू धायुं होय तेवु पालतुं ते माटे हे तातजी ! तमे ए ब्राह्मणने बीजो कोइन पाय पूडो. आ, सांजलीने धनदत्त बोल्यो के हे वत्स ! आकाशमार्गे जतां जीव हिंसा नथी, माटे तुं सुखे जश्ने औषधि लाव,विचार म कर अने व ली धरतीयें सो योजन सुधी जवानुं तें व्रत लीधुं दे अने आ धरती जे अाहींथी एकशो दश योजन दूर कहे जे तेतो खांचाची झाडं अवद्यु चालवू पडे ते सर्व गणिने एकसो दशयोजन थायले पण तुजनेतो आका शमार्गे पांसरा जवाथी सो योजन पूरा नहि थाय ? तेमाटे तुं जश्ने लाव. तुं एम न जाणतो के तेल आववामां मने पाप लागशे ? एथीतो तहारो पुत्र जीवतो थशे तेथी तुजने घणो धर्म थाशे. अने धर्मकार्ये तीर्थयात्रा नि मित्तं तो जो हजार योजन जवाय तोपण गृहस्थने दोष नथी, साहमो अगणित पुण्यनो पोप थाय. तेमाटे हे वत्स ! बालकनी पेरें सरलतानुं आलंबन म कर, ते औषधि आणवामां जरा पण विलंब कर मां. धोयां डे पाप जेमणे एवा मोटा ऋषियो पण जीवदयानेयर्थे उद्यम करे , तो तुं फोकट मुग्धपणानो झुं विचार करे ? प्रावी पितानी वाणी सांजलीने म हानंदकुमारे कयुं के,हे पिताजी ! इहां केवल धर्मनी बुद्धि नथी,पण मुख्य वृत्तियें अत्यंत पोताना पुत्रनी नपर मोहबुधिज . माटे हमणां जो पुत्रने मोहे आकाम करीयें तो तेथी व्रत लोप केम न थाय? नियमतो जेम ग्रह्यो होय तेमज पालवो जोश्य,तेमाटे जो हुं शो योजन प्रमाणथी अधिक गमन . करूं तो व्रतनो नंग थायज, तेमज आकाशमार्गे जq पूर्वे में मोकलुं रा ख्युं नथी. आवां पुत्रनां वचन सांजली कोप्यो थको तेनो पिता कहेतो हवो के, अहो आते वली केवा प्रकारनी ताहरी आस्ता ? जो पुत्रने नि Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. मित्ते कदाचित् तुजने को अतिचार लागे तो प्रायश्चित्त लइने शुद्ध थजे.स र्वथा निरतिचारपणुं तो चारित्रीयाने पण न होय. चारित्रीयाने पण सूक्ष्म अतिचार लाग्या विना रहे नही? सर्व काणे लानालानादिक विचारी जो. कडं वे केः- यतः ॥ एगंतेएनिसेहो, जोगेसु न देसि विहिवावि ॥ दलियंपप्प निरूहो, दुऊ विहिवा जहाजोगे ॥१॥ माटे जेहने हृदयमां कदाग्रह होय तेदने धर्मनुं रहस्य क्याथी होय ? ए, कही पिता उलंना देवा लाग्यो के, अहो जून एy कठोर हृदयगणुं ? जे बालहत्याने विषे पण ए कांड अपेदा धरतो नर्थी, तेमज लोकापवादने विप जय राखतो न थी, एवं एनुं निर्दयपणुं ले ? इत्यादिक वधुं महानंदकुमारनुं स्वरूप जोड्ने शेते राजानें कह्यु,तेथी राजा,मंत्रि,संमतादिके माजी सर्व शक्तियेक ने महानं दने समजाव्यो तोपण तेणे पोतानो कदाग्रह न मूक्यो त्यारे क्रोधे विकराल थइ राजा नकुटी चडाबीने बोल्यो के हे कुमार ! कदाग्रह बांझीने औषध लाव. जो तुं मारी आशा लोपीने औपच नहि लावे अने आ बालक मृत्यु पामशे, तो दु तारा सर्व कुटुंबनुं धन लूंटा नइने, तेमज सर्वने हणीने तारा वंशनो उल्लेद करीश ? ते सांजली महानंदकुमार ते राजादिक सवेने कहेतो हवो के हे राजन ! ए सर्व धन तथा सर्व कुटुंबयी पण अत्यंत व लन ए बालक . ते बालकनी आपदानेविपे पण ढुं अपेक्षा नथी गख तो, तो वली बीजी वीकनी शी अपेक्षा राखवी ? मनेतो माहरा प्राणश्री पण महारो नियम अधिक डे, कारण के इव्य, प्राण, पुत्रादिक ए सर्वने पामवा तो नवनवनेविपे सुलन के पण अनंतानवें जैनधर्म पामवो ए महा उनन ने. माटे कल्पांते पण ढुं महारो नियम नहि मूकुं. केमके सर्व धन, प्राण, पुत्रादिकनो नाश ययाथी एकज नवे घणुं फुःख थायडे, पण धर्मनो नाश ययाथी अनंता नवपर्यत दुस्सह मुख थाय . एम तत्वनो जाण, सात्विकनें विपे मुगटसमान, सर्वमा सार,एवो महानंदकुमार.कहेले. एवामां धर्मनेविपे एकायपणाथी आकर्षणि विद्यानीपेरें याकर्षी जे शास नदेवी ते शासनदेवी प्रगट वाणीयें करी बोली के हे कुमार ! साविकम ध्ये तुंज एक सार , माटे या सर्वलोकने धर्मनेविषे तहारी इढतानो महि. मा देखाड, तुं तहारा मननेविषे एकाग्र धर्मनुं माहात्म्य धारीने ताहरा अमृत रसरूप हाथे करीने ए बालकने पाणी बांट के तरत ए बालक Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २६१ जीवतो था, तत्काल बेठो थशे. एवां ते देवीनां वचन सांजलीने त्यां वे तेला सर्वलोकने ते कुमर विस्मयनो नाजन थयो. हवे महानंदकुमारे नाजनमां पवित्र पाणी ल कुमरने बांटी हाथ के रव्यो एटले बालक उठी बेो थयो. जेम अमृत सिंचवाथी रोग जाय तेम ते कुमरनुं विष उतरी गजु, तेथी सर्व लोकने अतिशय हर्ष थयो. वधामणा दिक महोत्सव प्रवर्तता हवा. सर्ववेकाणे महानंदकुमारनी अभुत प्रशंसा थवा लागी,पुत्र जीव्यो अने धर्मनो निर्वाहपण थयो तेथी धर्मनुं माहात्म्य वध्यु. अहो ! केटलाक जीव थोडामाटे तृणपलानीपेरें धर्मने बांमेले, अने केटलाक जीव विषम आपदा आवी पडे तोपण धर्मने मूकता नथी तेम महानंदकुमारे पुत्रने अर्थे पण धर्म न बोड्यो. हवे एक समये कुमुक्ष्तीने तथा शेग्ने पाडला पुत्रोनो वृत्तांत सांजस्यो तेथी महानंदकुमारने प्रेयाथी आकाशगामिनी विद्यानेबलें महाविदेह दे सीमंधरस्वामीपामें जश् प्रणा म करी शेठ प्रमुखनो पाबला नवनो वृत्तांत महानंदकुमारे पूज्यो. त्यारे न गवान कहेता हवा के धनपुरनगरने विपे सुधन एवे नामे धननो धणी वस तो हतो तेने धनश्री नामें स्त्री हती,धनवाहन नामे तेने बालमित्र हतो ते व नेने सगा जाइ जेटली प्रीति हती. बेदु साथेज व्यापार करता हता,वेदु सु श्रावक डे तेथी शुर व्यवहारें व्यापार करता हता. ते बेमांथी वच वचमां क्रय विक्रय करतां को विटने तथा ब्राह्मणने, बालकने, इत्यादिकने आपवे करीने तेमज पोताने घेर पण कांक लइ जावेकरीने, सुधन पोताना मि चनी वस्तु अरही परही व्यय करे, ते जोइ मित्रं जाण्युं के जो ढुं सुधनने कहीश तो एहने अविश्वास नपजशे, तेनुं चित्त अत्यंत उहवाशे,एम मैत्री नंगना नयथी कां बोले नहि, मनमां जाणि रहे. ते सुधने एवीरीतें करी ने मित्र, इव्य सो सोनैया वणसाड्या. तथा वली एक वणिक संघाते व्यापारादिक करी तेने देवा सेवामां ते वणिकने वीश सोनैया देवा रह्या,ते तत्काल अपाणा नहि, अने ते थोडी रकम होवाथी लेणावाले वणिकेपण माग्या नहिं तेनेलीधे ते दाम सुधन पासे रह्या. वली बीजा वणिकनी साथें व्यापारमा लेवड देवड करतां न लथी दस सोनेया सुधनपासे वधारे पाव्या पण लोकरी सुधने तेने पा बा न आप्या. कडुं केः-लोनः दोनकरः कस्य,न स्याधर्मवतोपि हि ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. सूक्ष्मस्यसंपरायाख्य, गुणस्थानेऽप्यवाप्यते ॥ १ ॥ नावार्थः-लोन ते दो ननो करनार केने न होय ? धर्मवंतने विपे पण लोन जे जे ते सूक्ष्मसंपराय नामें दशमागुण स्थानकनेविपे पमाय जे. पनी सुधने व्यवहार शुध्येि व्यापा र करतां शव्यत्रणगुरुसमी बालोयां नहि, आलोववाने जाणतो थको पण पोतानी बति शक्तियें अजाण थयो समर्थ हतो पण असमर्थ थयो,वि वेकी हतो तोपण अविवेकी थयो. स्थथको धर्मस्थानकें व्य खरचे नहीं परंतु ते सुधने अंत्यममये अत्यंत सीदातो एवो कोइक परमधार्मिक साध मी नाहतो तेनो पुःखी अवस्था जाणीने तेने शो सोनैया आप्या. ते ६ व्यने आपवे कर। ते साधर्मी नाइ जावळीवसुधी मुखमय निर्वाहने ध रतो हवो. जेम ऋतुयें थोडो वर्षाद थाय तो पण तेथी धान घणुं निपजे तेम अवसरे दीधेनुं दान थोडं प्राप्युं होय तोपण वद् फलदायक थाय. कडं ने केः-करचलु अ पाणीएणवि, अवसर दिनेण मुबियं जिअश्॥प बा मुयाण सुंदरि, घडसय दिन्नण कित्तेण ॥ १ ॥ नावार्थः-अवसरे एक पाणीनो चलून आप्याथी पण मूर्जित थयेलो जीव जीवतो थाय पण हे सुंदरि ! मूवा पडी सो घडा पाणी रेडीये तेनाथी झुं थाय ॥ १ ॥ हवे अनुक्रमे आयुष्य पुरुं जोगवीने सुधन, धनश्री, तेहनो मित्र, वली ते वे वणिक, अने साधर्मिक जेने शो सोनैया आप्या हता, ए ये जीव श्रावकनो धर्म अाराधीने सौधर्म देवलोके गया. त्यांथी चवीने ते धनदत्त कुमुझती बे थयां, अने चार तमे तेमना पुत्रो थया. पूर्वे शो सोनैया जे ना सुधने विणसाड्या हता ते तेनो पेहेलो पुत्र थयो, तेणे तेनुं सर्व व्य वणसाडयुं, बीजे हजार सोनैया,त्रीजे दसहजार सोनैया वणसाड्या इत्या दिक इव्यनो नाश थयो. वली पेहेने पुत्रे पूर्वे एक श्रावकने व्यापारनेविषे अतूल मत्सरथी पियकी व्यसनीनुं कलंक दीधुं हतुं तेथी ते पुत्र व्यसनी थयो. वली तेणे विशेपे क्षेषथकी कह्यु के केम ! ए हमणाज मरतो जथी ? एवा छाननी चिंतवणाथी तेणे अल्प आयुष्य बांध्यु. अने मध्यनावे दी करायें तो पूर्वनुं लेणुं लीधुं. तारो पिता तेमने वनमां मूकीआव्योअने ते मुंलेणुं धनपण आप्युं पूर्व साधर्मिने शो सोनैयानो उपगार कस्यो ते मरीतुं महानंदनामे पुत्र थयो,जेणे कोडाकोडी धन पूस्यां अने पिताने सुरखी कस्यो. कमु के-जघन्य रसें जघन्य परिणामे,स्वनावे देणुं तथा लेणुं रहोगयुं हो Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २६३ य तोपण दशगुणुं आपे,तथा दशगुणुं लीये अने जो घातादिक परषे थयु होयतो सोगुणुं, हजारगुणुं, लाखगुणुं, कोडगुगुं, कोडाकोडीगुगुं, तेहथी पण घणुं नोगवq पडे. कुमुहतीयें पोताना घरनी मेंसें पाडो प्रसव्यो ते नेस दोवा अवसरें पाटू मारे दोवा दीये नहि, तेथी कषाये करी एम कर्दा के, कोश आ पाडाने केम लइ जातुं नथी ? जो लइ जाय तो घणुंज सारं थाय, ते ऽानना उदयथी जनम मात्रज बे पुत्रनो वियोग थयो. आनी उपर लहेणुं , या पुत्रनी उपर देणुं ने एवी वाणी जे आकाशथकी थ ते पासेंना वनना अधिष्ठायक देवतायें करी तेमज वचला बे डोकरा आव्या ते कये स्थानकें हमणां वे ते स्थानको पण परमेश्वरें कह्यां. एवी परमेश्वरनी वाणी सांजलीने महानंदकुमारे पोताने घेर आवीने परमेश्वरे कयुं हतुं ते प्रमाणे मातपिताने सम्यक्प्रकारे संनलाव्युं तेथी पुत्रादिक तथा माता पितायें वैराग्य पामी दीदा लीधी. महानंदकुमार पण ते मातपितानें आ दरसहित धन अने धर्म तेहने आपवेकरीने घणां हर्षवंत करीने अवसर पामी दीक्षा लश्माहेश्देवलोके इंइसरखो महर्दिक देवता थयो. तिहाथीच वीने मनुष्यनव पामी सिदि पामशे. एवा दिगविरमण व्रतनेविषे महानंद कुमारनुं चरित्र सांजलीने,नो जव्यजनो! तमे कष्टनेविषे पण धैर्यपणुं राखी ने ए व्रत पालो तो महानंदनीपेरें था जवनेविपे संपदा जोगवी,परनवनेवि पे परमपद पामो. इति बठा अणुव्रतने विषे महानंदकुमारनी कथा समाप्त॥ हवे सातमुं नोगोपनोग नामें बीजं गुणव्रत कहे . ए व्रतना बे नेद . एक जोगथकी अने बीजो कर्मथकी, तेमां पण नोगना वली बे प्रकार , तेमां एक उपनोग अने वीजो परिजोग, तिहां जे एकवारज जोगव्यामां आवे एवी जे आहारादिक वस्तु, तेने उपनोग कहिये. उपशब्द जे , ते एकवार जोगनो बोधकारक ने अने ते उपनोग वस्तु ते कुसुमादिक जाणवी कारण के एकवारजनोगमां आवे ने अने परि जोग ते जे वस्तुने वारंवार पुनः पुनः जोगवी ते जाणवी. ते नुवन स्त्रीया दिक ले तेने परिजोग कहियें. परिशब्द जे जे, ते वारंवार पदने बोध कर नारो . यदाह ॥ उवनोगो विगईन, तंबोलाहार पुप्फ फलमाई ॥ परिनो ग व सुवन्न, माश्यं निगेहाई ॥ १ ॥ नावार्थः-उपजोग ते विगय, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. तंबोल, आहार, पुष्प, फल, फूल आदि देने जाणवां. अने परिनोग ते वस्त्र, सुवर्ण, अादिक तथा स्त्री अने घर आदि देने जाणवां ॥ १ ॥ श्रावकें प्रथम नत्सर्गमार्गे तो फासु निर्दीप एपणीय आहारनुं नोजन करी रहे, जो एरीते न रही शकाय तो सचित्त वस्तुनो तो अवश्य परि हार करवो, तेवी पण शक्ति न होय तो बहु सावद्य जे मदिरा, मांस,अनं तकायादिक, तेनो तो जरूर त्याग करवो. प्रत्येक मिश्र सचित्तादिकनां प रिमाण करवा. नक्तंच ॥ निरवलाहारेणं, निळीवेणं परित्त मीसेणं ॥ अ नाणु संधण पग, सुसावगा एरिसा टुंति ॥ १ ॥ नावार्थः- निरवद्य एट ने दोषरहित एवा अाहारें करीने, निर्जीव आदारे करीने, प्रत्येक मिश्र पणे करीने, प्रात्मानो अनुग्रह करता एवा सुश्रावको होय ॥ एमज वजी नत्सवादिक विशेष विना जपजणाट करता मणि, तथा सुवर्णनी घूघरीयें ग्वंचित एवां जडित मुकूल, पटकूल वस्त्र पहेरवां, नथा नेनरादिक, पहेरवु एटले शब्दवंत झांजरादिकन पहेर, मुकुटादिकनुं व ध, नंचा नारे किमती सिरपेच वांधवा, उंचां बोगां खोसवां, आदिकथी अत्यंत गृक्षता, उन्मादता, लोकापवादादिक थाय,तेथी एवा ननवेश पहें रवा अने उनट अलंकार पहेरवा, तथा ननट वाहननी उपर वेलq ते सर्व श्रावके वर्जवं. जेमाटे कयुं ले के ॥ यतः ॥ अश्रोसो अश्तोसो, अश्हासो उऊणेहि संवासो ॥ अश् नप्पडो य वेसा, पंचवि गुरुबंपि लदुअंति॥१॥ नावार्थः-अतिरोप, अतितोष, अतिहास्य, अतिङननी साथें सहवास, तेनी लुं रहे,अने उनटवेष ए पांचवानां जो विशे करेतो महोटो पुरु प पण लघुताने पामे ॥ १ ॥ तेमज अतिमलिन, अतिजाडां, अतिपातलां, अतिविश्वंत, अत्यंत आबां, अतिफाटेलादिक एवां सामान्य वस्त्र पहेरवा थकी, हीनवस्त्रनो वेप पहेरवाथकी कृपणतायें करी लोकमांहे निंदा अने हांसी थाय, अपवाद उपहाम्यादिक थाय माटे पोताना वित्तने अनुसारें व्यय,निवासस्थान एटले रहेवानुं घर करवं. अने पोताना कुलने योग्य हो य तेवो वेष पहेरवो, तेवली उचित वेषने विपे पण प्रमाणनुं नियतपणुं करवं. एमज दांतण, तेल प्रमुख, मर्दन, वस्त्र, उवटण, स्नान, विलेपन, या जरण, फल,फूल, धूप, आसन, शय्या,नवनादिक, तेमज तांउलादिक नोज न, घृत, शाक, पत्र, खीर, खांम, खाद्यादिक, अशन, पान, खादिम, स्वादि Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १६५ मादिक वस्तुनो त्याग करवो, जो तेने सर्वथा बांमी न शके, तो तेनुं प्रमाण करी राखे, जे या चीज या प्रमाणपूर्वक वापरवी, उपरांत वापरवी नही. तथा यानंदादिक श्रावकोनी पेठें, कर्मथी श्रावकें मुख्यपणे निरवद्य दोष रहित व्यापार करवो. तेवी जो कदाचित् शक्ति न होय तो पण जे व्या पारमां अत्यंत श्रारंभ होय, विवेकीजनोने निंदा करवा योग्य होय एवां त्यंत सावध रूप जे मध मदिरादिकना क्रयविक्रयनुं कर्म ते तो अवश्य वर्द्धकुंज ने शेष चीजना व्यापारनुं पण प्रमाण करी राखतुं ॥ यतः ॥ रंधण खमण पीस, दलणं पयणं च एव माइल ॥ नित्रपरिमाण करणं, विबंध ज गुरुणो ॥ १ ॥ जावार्थ:- रांध, खां, दलवु, नरडवु, इत्यादिकनुं नित्य परिमाण कर, शामाटें जे अविरतिनो बंध महोटो वे ॥ १ ॥ वे सूत्रकार गाथा कदे :॥ ममि मंसंमि, पुप्फे अफले ॥ वनोगे परिभोगे, बीयंमि गुणवएनिंदे ॥ २० ॥ गंधमले अर्थः- मद्यने विषे, मांसने विषे, फूलने विषे, फलने विषे, गंध ने माध्य नेविषे, उपोग ने परिजोगनेविषे, ए बीजा व्रतमांहे दोष लाग्या होय सर्वेने निंबुं इत्यादि पूर्ववत् जाणवुं ॥ २० ॥ हु sai afer a प्रकारनी ले, एक काष्टथी उपजेली अने बीजी पिए ए टले लोटथी उपजेली जालवी. ते मदिरा घणा दोषोनुं स्थानक बे, खने म होटा अनर्थनी हेतु बे, माटे एनुं प्रथममां स्थापन कस्युं बे. यदाह ॥ गु रु मोह कलह निद्दा, परिजव उवहास रोस नयहेकं ॥ म डुग्गर मूलं, हिरि सिरि मइ धम्म नासकरं ॥ १ ॥ जावार्थ:- जेथकी जीवने घणो मोह उपजे क्लेश वधे, निश वधे, घणो पराभव याय, लोकमांहे उपहा स्य पामे, माटे रोप ने नयनो हेतु एवी जे मदिरा ते दुर्गतिनुं मूल ने. तथा झी ते लका ने श्री ते लक्ष्मी तथा मति जे बुद्धि, ने धर्म, तेनो पण नाश करे बे. वली सांगलीयें यें जे मदिरायें करी अंध थयेला एवा साम्बकुमारें हैपायन कपिने हथ्यो, त्यारें हैपायनें नियाएं करी निकु मार देवोमां उपजी द्वारिकानो दाह करी समग्र यादवोनो कय कस्यो. हवे मांसना ऋण जेदबे, एक जलचर, बीजा स्थलचर ने वीजा खे Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. चर,ए त्रजातिना जीव थकी उपजे .तेना वली त्रण बेद ले. चर्म,रुधिर, अने मांस, ए त्रण नेद पण ने. हवे ते मांस अतिउष्ट . यदाह ॥ पंचिंदिय वह नूथं, मंसं उग्गंध मसु बीन ॥ररकपरितुलि अजरकं, मामय जणयं कुग मूलं ॥ १ ॥ आमासु अपक्कासु य, विपञ्चमाणासु मंसपेसीसु ॥ सय यंचिय उववा, जणि निगोय जीवाणं ॥ २ ॥ नावार्थः-पंचेंशियना वध थकी नपर्नु जे मांस, ते केवं तो के जुर्गधक ठे, अशुचि , वीन त्ल एटले वाहामणुं ने, एवं जे मांस तेनुं नक्षण करनारा जे जीव ते रास सरखाज जाणवा. ए मांस जे जे. ते रोगनुं करनारुं ने, अने मुर्ग तियें जावानुं मूल वे ॥ १ ॥ काचा मांसमाहे तथा अपक्क जे मांस रह्यं होय तेमा तया तकाल हणेला जीवनी मांसनी पेसीमांहे निरंत र निगोदीया जीवोनु नपज, अने चव याय , एम कडं में ॥ २ ॥ तथा वली योगशास्त्रमा पण कयु ने के ॥ यतः । सद्यःसंमूर्बितानत, जं तुसंतानदूषितं ॥ नरकाध्वनि पाथेयं, कोऽश्नीयात्पिशितं सुधीः ॥ १ ॥ नावार्थः-तत्काल संमूर्बिम उपजेलायनंत जीव तेना समूहकरी दृपित ए मांस डे, नरकमार्गे जातां जीवने ए पापनु संबल , ते माटे माह्यो जीव कोण एवा मांसनुं नदण करे? ॥१॥ योगशास्त्रनी वृत्तिने विपेपण व्याख्या जे. __ मूलगाथामां चकार तेथी मधु आदिक शेप अनदयव्योनु तथा अ नंतकायनुं पण ग्रहण करवं. तिहां प्रथम बावीश अनदयनां नाम कहे ले ॥ यतः ॥ पंचुंबर चनविगइ, हिम विस करगेत्र सवमट्टीय ॥ रयणी जोयणगंचिय. बहुविय अणंत संघाण ॥ १ ॥ गोलवडा वायंगण, अमू गिय नामाणि फूलफलयाणि ॥ तुलफलं चनियरसं, वह दवाणी बा वीसं ॥ २॥ व्याख्याः-पांच नंबरा तेमां एक वटवृद, बीजो पिंपलो, त्री जो बरो, चोथी पिंपर, पांचमुं काला उंबरानुं फल, ए पांचे नंबर जाति नां वृदनां फलमध्ये मसाने आकारें सूक्ष्म त्रस जीव घणा नया दोय, __ तथा मद्य, मांस,मधु अने मारवाग ए चार, महाविगय ने तेमा ए विग यना रंग सरवाज बीजा घणा संमूढिम जीवो प्रावी उपजे ले अने चवे ने. परदर्शननेविपे पण कह्यु के ।। मद्ये मांसे मधुनि च, नवनीते तक्रतो. बहिर्नीते ॥ नुत्पद्य विलीयंते, ह्यतिसूक्ष्मा जंतुराशयश्चैव ॥१॥ सप्तया मे च यत्पाप, मनिना नस्मसाकते ॥ तदेतजायते पापं, मधुर्विप्रनहाणा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथासहित. २६७ त् ॥ ५॥ नावार्थः-मद्यनेविषे, मांसनेविषे, मधनेविषे, बासथकी बाहि र काढेला मावणने विषे, अत्यंतसूक्ष्म जंतुना समूह उत्पन्न थायले अने लय थ जाय॥१॥वली अग्निये करी सात गाम बाली जस्म कस्याथी जेट लुं पाप उत्पन्न थायडे, तेटलु पाप मधुविंउना नदण करवाथी उत्पन्न थायले. हवे मधना त्रण नेद , ते कहे जे. एक माखीजें बीजं कुंतीनु, त्रीजें चमरानु, तथा मारवण चार जाति, जे. एक गायन, बीजुं महीपीन. त्रीजें बकरी, चोj गामर,,ए पांच नंबरां अने चार महा विगय मनी नव थयां. ___ दशमुं हीम ते असंख्याता अप्काय जीवोनुं पिंकजे. अगीयारमुं विष, ते मंत्रे हण्यु डे बल जेनुं एवं थकुं पण नदरमांहे गया पली तिहां रहे ला गंमोलकादिक जे जीव तेनो घात करवानुं हेतु ने, अने मरण समयें महा मोहने नपजाववानुं कारण ने, तेमाटे निषेध करेलुं जे. तथा बारमा करा ते असंख्याता अप्कायजीवमय ले. इहां शिष्य पूडे , के असंख्या ता अपकायजीवो तो पाणीमां पण , तेवारे पाणीनो पण निषेध थशे, ते पण अजय थाशे ? तेने गुरु नत्तर कहे ले के तुं सत्य कहे , पाणी अनय ने पण पाणीविना निर्वाह थतो नथी माटे निपेध कस्यो नथी अने ए कराविना तो सुखें निर्वाह थ शके . वली पाणी पण जो सा मग्री होय तो श्रावकने फासु पाणी पीयूँ घटे ले. तेरमी सर्वजातिनी माटी अनक्ष्य ने जे खावाथी पेटमांहे विकार था य, पिन याय, पांमु रोग थाय, पंचेंझ्यिादिक जीव पेटमां उपजे तेथी म रणादिक अनर्थ उपजे. इहां सर्व जातिनी माटीना ग्रहणथी खडी पण आवे, ते खडी जदण करवाथी घणा रोग उपजे, श्यामतादिक दोषनो उ दय करनारी थाय. इहां माटीनुं ग्रहण ते उलखवाने सुधादिक पण वर्क वां. वली ते खडी खाधे थके आंतरडां सडी जाय, इत्यादिक अनर्थ उप जे तथा माटी खावावाला व्यसनीने पांसुरोगादिक महा रोग उपजे, तेम ज शरीर उर्वल थाय, अजीर्ण विकार थाय, कास, श्वास, दय रोगादि मर णांत कष्टरूप महा अनर्थ थाय, तथा सचित्त माटी आदिकनुं नहाण . करवाथी असंख्याता पृथ्वीकाय जीवोनी विराधना थाय. इहां शिष्य पूछे , के खूणमांहे पण असंख्याता पृथ्वीकाय जीवो डे, माटे तेनो पण त्याग करवो जोयें. तेने गुरु कहे , के तें साधु कयुं प Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. ण सर्वथा तृणनो त्याग करवाथी गृहस्थनो निर्वाह न थाय, तेटला मा टे सचिन तृण नोजनने विपे बांझg. विवेकी पुरुष नोजन करतां जो लू ण ग्रहे, तो प्रागुकज ग्रहे, पण सचित्त ग्रहण न करे, अने लवणनुं प्रा सुक पगुं तो अनि प्रमुख प्रवलशस्त्रं करीनेज संनवे ले, तेणे पृथ्वीकाय ना जीव हणाय. पृथ्वीकायना जीव असंख्याता अतिसूक्ष्म , एवं श्री नगवती सूत्रना गणीशमा . शतकना त्रीजा उद्देशानेविपे कह्यु बे, जे वजमयी शिलानेवि स्वल्प पृथ्वीकायनो वजमय लोट करीने तेने एक वीशवार वाटे यके पण केटला एक जीव शस्त्रे फरसे, अने केटला एक जीवनो तो शस्त्रे फरस पण न थाय एटला जीव ले. ए तेरमुं तृण कयुं. चौदमुं रात्रिनोजन करतां घणा सजीवो आवीने जोजनमां पडे, मा टे रात्रिनोजन करनारो जीव इह लोकमां दुःख पामे, अने परलोकें नर कादिक उर्गतिमां जाय. जेमाटे जो जोजनमां कीडी आवी जाय, तो बुद्धि हणाय, मदिका आवे, तो वमन करावे, जू प्रावे, तो जलोदर थाय. अने जो करोलीयो आवे, तो कुष्टरोग थाय, केश आवे. तो स्वरनंग थाय, जो कांटो यावे, तो गर्नु, तालवू वींधाय, एटला अवगुण रात्रिनोजनयी थाय. निशीथचूर्णिमांहे कडं डे के, करोलियाना अंगना अवयवें मिश्रित जोजन करवाथी पेटमांहे संमूर्बिम करोलीया उपजे, एम अन्नमांहे पण मिश्रित सापादिकनी लाल मन मूत्र वीर्यने पडवे करीने मरणादिक दुःख नपजे. रात्रिनोजन करतां थकां रात्रे फरता एवा रासादिक आवी बल करे. त था नोजनमां अने नाजनमां कीडी कुंथुवादिक जीवो प्रावी पडे, तथा नाजन धोतां थकां पण कुंथुत्रादिक जीवोनी विराधना थाय न्यादिक रात्रिनोजनमा घणा दोपो ने. रात्रिने विपे नोजन करनारनो अवतार, चूड, काक, मार्जार, गृक्षपदी, संबर, सूकर, सर्प, वृश्चिक, घरोली, घो, एवा जीवोमां थाय. इत्यादिक वली अन्यदर्शनी पण कहे २ ॥ यतः ॥ मृते स्वज नगोत्रेपि, सूतकं जायते किल ॥ अस्तंगते दिवानाथे, नोजनं क्रियते कथं ॥ १ ॥ रक्तीनवंति तोयानि, अन्नानि पिशितानि च ॥रात्रिनोजनसक्तस्य, ग्रासे तन्मांसनणं ॥ २ ॥ उदकं नैव पातव्यं, रात्रावत्र युधिष्ठिर ॥ तप. विना विशेषेण, गृहिणा च विवे किना ॥ ३ ॥ ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयंति सुमेधसः ॥ तेषां पदोपवासस्य, फलं मासेन जायते ॥ ४ स्कंदपुराणे रु Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. शहए प्रणीतकपालमोचनस्तोत्रे सूर्यस्तुतिरूपेप्युक्तं ॥ एक नुक्तजनानां तु, चामि होत्रफलं नवेत् ॥ अनस्तनोजनान्नित्यं, तीर्थयात्राफलं नवेत् ॥ ५ ॥ रात्रिनोजनकारिणां च कथं नामाचमनेपि शुदिः ॥ यतः ॥ त्रयीतेजोमयो जानु, रितिवेदविदोविः ॥ तत्करैः पूतमखिलं, गुनं कर्म समाचरेत् ॥६॥ नैवादुतिन च स्नानं, न श्रादं देवतार्चनं ॥ दानं वा विहितं रात्रौ, नोजनं तु विशेषतः ॥ ७ ॥ आयुर्वेदेपि॥ हन्नानिपद्मसंकोचश्चंडचिरपायतः ॥ थ तोनक्तं न नोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ॥ ७ ॥ नावार्थः-पोताना वज नगोत्रमा मरण थाय, त्यारे सूतक पाले . परंतु दिवसनाथ एवा सूर्य अ स्त थाय त्यारे केम नोजन थाय? ॥१॥ सूर्य अस्त थवापली जल ,ते रु धिर समान थाय . तथा अन्न डे ते मांस समान थायडे,माटे रात्रिनोज न करनारने ग्रास लेतां मांसनदण कस्या जेटलो दोप थाय ॥ ॥ हे युधिष्ठिर ! रात्रिनेविषे उदकपण गृहस्थ कोइने पावु नहि, तेमज तपस्वी ये तो विशेकरीने पण पावू नहिं ॥३॥ जे रुडी बुद्धिवाला पुरुषो रात्रिने विपे एक मासपर्यंत सर्वथा आहारनो त्याग करे , तेने एकपड़ना उपवा सनुं फल प्राप्त थाय .॥॥ वलीस्कंदपुराणमां श्रीरुई करेला कपालमोचन नामा सूर्यस्तुतिरूप स्तोत्रनेविषे कह्यु के के ॥ दिवसमां एकवार नो जन करनार प्राणीने अग्निहोत्र यझसमान फल प्राप्त थाय ने अने सूर्य अस्त यया पेहेलां जमनारा प्राणी तीर्थयात्राना फलने प्राप्त थाय ॥५॥ अने रात्रि जोजन करनारने जलना आचमनथी पण शुद्धि थाय नहिं. क हेलु ले के ॥ वेदत्रयीमय सूर्य , एम वेदना जाणनारा पुरुषो कहे . माटे तेना किरणथी पवित्र थयेलां समग्र गुन कर्मनुं आचरण करवू ॥६॥ रात्रिने विषे आदुति करेली होय ते पण खोटी थाय , खान पण खोटुं थाय जे, तथा श्राम अने देवार्चन ए सर्व खोटुं याय ,अने दान दीधे पण व्यर्थ जायजे. नोजनतो विशेषेकरीनेज व्यर्थ थायजे. ॥ ७ ॥ आयुर्वेदमां पण लखेलु के ॥ ज्यारे सूर्य अस्त थायचे त्यारे हृदयनानिकमलनो संको च थायजे. एमाटे रात्रिनेंविषे जमवु नहिं तथा रात्रिमा सूक्ष्मजीवनुं पण नोजन अज्ञानपणाथी थइ जाय ॥ ७ ॥ माटे विवेकी जीवे रात्रिये चारे आहार बांमवा. कदाचित् चारे थाहा र बांझी न शकाय, तोपण अशन अने स्वादिम तो जरुर बांमवांज. स्वा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 990 जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. दिम जे सोपारी प्रमुख ने ते पण दिवमें रुडी रीतें जयगार्थ व जोड सखे ली होय तेज वावरवी. जो एम न करे, तो सजीवोना हिंसादिक दोन पजे. मुख्यपणे प्रजात ने संध्याकाळें रात्रिनी नजीक वे वे घटिका हे जो जन तजवं, दिवसने मुखें ने दिवसने यंते रात्रिभोजनना दोषनो जाए धने पुण्यनो करनार पुरुष वे वे घडी बांमें. ए कारण माटेज श्रागममांहे सर्वथी जघन्य पञ्चरका अंतरमुहूर्त्त प्रमाण नवकारसीनुं कयुं बे. कदाचि त् केवारेक कोइ कार्यने परवश पणे करीने, कार्यनी व्यग्रतायें करीने, न करी शके तोपण कगता सूर्यनी पछी अने तथा श्राथमता सूर्यनी पहेलांज जमे, जिसुधी तडको देखे तिहांसुधी जोजन करे, नहि तो तेने रात्रि नोजननो दोष लागे. घरमांदे अंधकार यये यके पण लकायें दीवाने प्रण करवेकरीने सादिक जीवनी हिंसा करवाएं। नियमनंग याय मायामुपावादादिक धिक दोष लागे, जेमाटे ढुं न करूं एम कहीने फरी तेहज पापन सेवे, प्रत्यक्ष मृषावादी जाणवो. मायानी कृतिनो प्रसंग थाय पोतें पाप करीने वली पोताना प्रात्माने शुद्धपणे मानतो जे चाले ते बम पाप करे. बीजुं वली ज्ञानपणानो मद ने मूर्खाइ याय. तेनुं पाप जूड़े जाएवं ते ए रात्रिनोजनना प्राराधन ने विराधननी उपर त्रण मित्रनो दृष्टांत कहे वेः- कोइएक गामनेविषे एक श्रावक वे बीजो नकि नेत्री जो मिथ्यात्वी वे, ए त्रणे वालिया मित्र बे, ते त्रणेजण जैनाचार्य पासें ग या. प्राचार्य पण रात्रिनोजनना नियम पालवाना गुण ने नियमविराव वाना दोप तथा रात्रिभोजननां पाप प्रकाश्यां. ते सांजलीने भावकें रात्री जोजननो तथा कंदमूलादिक अजय अनंतकायनो नियम लीधो, ते पण पोते श्रावककुजनो ने माटे बाहें करीने लीधो ने नइकें तो वारंवार विचारीने एक रात्रीभोजननोज नियम लीधो. तथा मिष्यादृष्टितो कदाग्रह लीधे प्रतिबोध पाम्यो नहीं. हवे श्रावक ने जक ए. वे जण कुटुंबसहित रात्रीभोजननो नियम पालेले घरना स्वामीने अनुसारें जे प्र माणे घरनो वडेरो घरमा करे तेप्रमाणे घरनां सर्व माणस तेमज करतां हवां अनुक्रमें प्रस्तावंत श्रावकतो प्रमादनी बहुलतायें पोताना निय मनेविषे शिथिलता करतो हवो. कार्यनी व्याकुलतायेंकरी प्रजातें सांजे जे वे घडी तजवी जोइयें ते वे घडी मांहे पण जोजन करवा Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. १ लाग्यो. एम करतां अनुक्रमें सूर्यनो अस्त थाय तोपण ते जमे. थने ते न इक तो रुडीरीतें जेप्रमाणे नियम लीधुं में तेज प्रमाणे आराधवा लाग्यो. पड़ी ते नक आदिक सर्वजनोये ते श्रावकने वास्यो तोपण ते श्रावक तेने कहे के हमणां दिवसज बे ? क्या रात्री पडी गइ ? ते श्रावकने अनुसारे तेनुं सर्व कुटुंब पण तेवुज शिथिल थयुं. घरनो स्वामी बहुल प्रमादी थवाथी कुटुंबपण बहुल प्रमादी थाय,तेथी ते पापनादि सर्व घरना स्वामीने थाय. अन्यदा ते त्रणेने राजायें कांक कार्य नलाव्युं, ते कार्यनी व्ययताथी प्रनातें तथा मध्यान्हे पण कां जमवानुं बन्युं नहीं, त्रणे जण नूरख्या र ह्या. सांज पडी तेवारें बहुकटें तिहाथी बूट्या ते जेटले जमवाने अर्थे घेर आव्या एटले असुर थइ गइ, तेवारें नश्कनेतो तेना मित्रादिकोयें घणुये क झुं पण जम्यो नहीं. यतः ॥ अप्पहियं कायवं, जइसका परहियंपि कायवं ॥ अप्पहियं परहियाणं, अप्पहिय चेव कायत्वं ॥ १॥ नावार्थः-श्रा त्माने हितपणुं करवं, जो शक्ति होय तो परने पण हित कर, आत्माने हित अने परने हित ते मांहे पोताना आत्माने तो हित करवुज. ॥ १ ॥ हवे श्रावकें तो निःशंकपणायें कांक अंधकार याते थके पण श्वासहि त नोजन कत्युं, तिहां रात्रिना जमतां थकां जाणे पापनो उदयज आव्यो होय नहीं ? तेम ते श्रावकना मस्तकमांथी जूका आवी जमवाना नाज नमां पडी, ते आहार नहाण करतां पेटमा गइ, तेना योगथी जलोदरनो रोग थयो तेथी ते रोगनी याकरी पीडायें मरण पाम्यो, मरीने रात्रीनोज ननो नियम विराधवाना पापथी क्रूर मांजर थयो. तेने कोइ उष्ट कुतरायें कदर्थना कस्यो थको मरणपामीने पहेले नरके नारकी थयो. हवे पहेलो मिथ्यात्वीतो रात्रीनोजननो अनिलापी थको रात्रीनोजन करतो एकदा आहारमांहे कांक सादिकनु विष पडद्यं तेणेकरी आंतर डां त्रुदी पड्यां तेथी मरीने ते मांजर थयो. तेने पण कोक कुतरायें फा डी खाधो तिहाथी मरी ते नारकी थतो हवो. ___ अने नश्कनो जीव तो वली रूडीरीतें नियम आराधवाथकी सौधर्म .देवलोकें महर्दिक देवता थतो हवो. हवे श्रावकनो जीव नरक थकी निक लीने दारिडी ब्राह्मणनो श्रीपुंज एवे नामे दीकरो थयो, अने मिथ्यात्वीनो जीव पण नरकथी निकलीने तेहज दारिडी ब्राह्मणनो वीजो श्रीधर एवे Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 999 जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. नामे पुत्र थयो. हवे सौधर्मदेवलोकें जे नश्कनो जीव देवता थयो , ते पणे नपयोग देऽ अवधिज्ञाने जोड्ने एकांते वेद मित्र पामें आवी तेउना पा बला नवनुं स्वरूप कही समजावीने तेमने रात्रीनोजननुं तथा अनदा दिक, पञ्चरकाण करावीने ते नियम पालवाने विपे बेतु मित्रोने दृढ करतो हवो ॥ यतः ॥ पापानिवारयति योजयते हिताय, गुह्यं निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति ॥ पन्नं च न जहाति ददाति काने, सन्मित्रलदाणमिदं प्रवदंति संतः ॥ १॥ नावार्थः-पापथकी निवारे, हितनणी जोडे, मित्रनुं गुह्य ढांके, मित्रना गुण प्रगट करे, मित्रने आपदा पडेथके त्यजे नहीं, अवसरें आपे, नला मित्रनुं ए लक्षण , एम सत्पुरुप कहे जे ॥ १ ॥ हवे ते वे नाचना माता पितायें तथा स्वजनादिक सद्धयें तेमने रात्री नोजनादिकनो नियम मूकाववाने अर्थ दिवमें कांड पण नोजन वावाने न बापतां हवा. एम करतां ते वे नाश्ने त्रण लांघण थइ त्रीजा दिवस नी रात्रीनेविपे ते जश्क देवतायें यावी रात्रीनोजनना नियमनो महि मा वधारवाने अर्थ ते नगरना राजाना पेटनेविपे अत्यंत आकरी वेद ना विकूर्वतो हवो, ते वेदना मटाडवाने राजायें पोताना नगरमा जेटला वैद्य हता ते सर्व तेडाव्या. ते जेम जेम औपध करे तेम तेम देदनानी ६ थाय. तेवारें राजायें जोशी तेडाव्या,तेमणे जन्मोत्तरी जोड्ने कडं के, हे राजन् ! ग्रह नवता , ते पीडा करे . तेवारें राजा ग्रहनु पूजन करावतो हवो. ते जेम जेम ग्रहनुं पूजन करे तेम तेम राजाने रोगनी पीडा वृद्धि पामती जाय. तेथी राजायें नूवा सर्व तेडाव्या, तेमणे नूतदो प कह्यो, कोयें पूर्वजना दोष कह्या, कोयें कामण दोप कह्या, एम जे श्रावीने जे बतावे ते मुजब सर्व राजा करें तो पण राजाने वेदना वधती जाय, जरापण फेर पडे नहीं. एम करतां राजाना प्राण कंठगत थया, अ निमां घृत होमवाथी जेम अग्निज्वाला वधे तेनीपेठे जेम उपचार करें तेम तेम ते राजाने रोग वधे तेथी मंत्रवादी प्रमुख सर्व को हाथ खंखेरीने पोतपोताने घेर गया. हवे मंत्री प्रमुख सर्व नगरना लोक हाहाकार करवा लाग्या. एवामां आकाशथी देववाणी थइ जे नो नो लोको ! सानलो. रा. त्रीनोजनना व्रतनेविषे दृढधर्मी एवो जे श्रीपुंज ब्राह्मण तेना हायस्पर्शथकी राजानी वेदना समी जाशे. अन्यथा कोइरीतें समशे नही एवी आकाश Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २७३ वाणी सांजलीने सर्व समाजन विचारवा लाग्या के श्रीपुंज या नगर मां को हशे ? एम प्रधानादिक सर्व विचारे बे एवामां को एक पुरुष सनामा बोल्यो, के या नगरने विषे दारि ब्राह्मणनो दीकरो श्रीपुंज एवे नामें बे, ते रात्रिभोजनना नियमनेविषे दृढधर्मा रह्यो बे, चव्यो नथी. आज तेने त्रीजी लांघण थइ बे. एज एक श्रीपुंज बे, बीजो कोइ नथी. एवं सांजलीने प्रधानादिकें ते श्रीपुंजने अत्यंत आदरपूर्वक बहुमान स हित तेंडाव्यो. ते पण तत्काल उत्साह सहित याव्यो ने कहेवा लाग्यो के जो में रात्रिभोजननो नियम त्रिकरण श्राराध्यो होय तो ए निय मना महिमाथकी राजाना शरीरमां उपजेली सर्व वेदना टलो. एम कही राजाने पोताना हायें स्पर्श कस्यो के तत्काल ते राजानी सर्व वेदना टली इ, तेथे राजायें तुष्टमान थइने श्रीपुंजने पांचों गामनुं श्राधिपत्य श्रा युं, ने श्रीपुंजना कहेवाथी राजादिक तथा श्रीपुंजना मातापितादिक सर्व स्वजनोयें मली रात्रिनोजननो नियम लीधो. पढी ते श्रीपुंज घला का लगण श्रीजिनधर्मनी प्रभावना करतो पांचों गामनुं राज्य पाली श्री धरनाइनी साथै सौधर्मदेवलोकें गयो, तिहांथी अनुक्रमें त्रणे मित्र चवीने मनुष्यपणुं पामी सकल कर्म दय करी मोह प्रत्यें पामशे. ए रात्रिनोजन व्रतने विषे त्रण मित्रनो संबंध को || १५ बहुबीज एवां पंपोटादिक ते अन्यंतर पुटादिकें करीने रहित केव बीजनूत जाणवां, ते बहुबीज विवेकी ग्रहस्यें वर्जवां तथा वली अ यंतर पुटादिक तथा बीजादिक सहित जे दाडिम टीमोरादिक पण बे परंतु तेमां व्यवहारथी नक्ष्यपणुं नथी. " १६ अनंतकाय जे ते, ते अनंता जीवना घातपातना हेतु वे माटे जय ने यतः ॥ नृज्यो नैरकायिकाधिकाश्च निखिलाः पंचाकतिर्यग्गणो, घ काद्याज्वलनो यथोत्तरमशी संख्या तिगानापिताः ॥ तेज्योनूजलवायवः सम धिकाः प्रोक्तायथानुक्रमं सर्वेन्यः शिवगा अनंतगुणिता तेन्योऽप्यनंतासगाः ॥ १ ॥ नावार्थ:- मनुष्यथकी नारकी असंख्याता, तेथकी देवता सर्व, तेथ की पंचेंशिय तिर्यच, तेथकी बेंड़ी, तेथकी तेंड़ी, तेयकी चौरिंई, तेथकी निकायना जीव अनुक्रमें एकेक थकी संख्यात गुणा कहेवा. अनिकाय पृथ्वी कायना जीव समधिक सेवा, तेथी जलना जीव समधिक, तेथी ३५. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. वायुना जीव समधिक, ए सर्वथी सिझना जीव अनंतगुणा ने तेथकी नि गोद वनस्पतिना जीव अनंतगुणा जाणवा. ते पागल प्रगटपणे देखाडशे. १७ विलि प्रमुख सर्व बोलानु अथाणुं ते अनदय डे, एमां अनेक त्र सजीव उपजे , व्यवहारवृत्तियें जोश्यें तो, बोलाना अथाणामां त्रण दिवस पर्यंत जीव नपजे नही, त्रण दिवस पनी त्रस जीव उपजे, माटे विवेकी जीवे अथाएं वर्ड: १७ गोलवडा ते काचा गोरस मिश्रित वटकादिक नपलदणथी काचा गोरस मध्ये कोल मग, मापादिक नेले थके अनेक सूक्ष्म त्रसजीव नप जे जे. ते केवलि देखे, बद्मस्थ न देखे. जेम्गटे संसक्त नियुक्तिमध्ये कां ने के ॥ सवेसु विदेसेसु, सवेमुवि चेव तहय कालेसु ॥ कुसिणेसु आम गो रस, जुत्तसु निगोय पंचिंदि ॥ १ ॥ नावार्थः-सघला देशनेविपे तेमज स घला कालनेविपे कोलमा काचुं गोरस नेलवाथी नक्तपणे निगोदीया पं चेंश्यि जीव उपजे, कठोलन लक्षण को ले:-जम्मिकपलिजंते, नेहो नदु हो विति तं विदलं ॥ विलोविदु नप्पन्नं,तेह जुयं दो नोविदलं ॥१॥इति ॥ १ टुंताक एटले वंत्याक अनदय के कारण के ए खाधाथी निशने वधारे, काम दीपावे इत्यादिक दोपनी पुष्टि करे, अन्यदर्शनीना शास्त्रमा प ण कयुं ॥ यस्तु वंताककालिंग, मूलकानां च नदकः ॥ अंतकाले विभू ढात्मा, न स्मरिष्यति मां प्रिये ॥ १ ॥ नावार्थः-वंताक, कालिंगड, अने कंदमूलना नदणथकी अंतसमये ते मूढात्मानो धणी हे स्त्री ! मुझने न ही संजारे. एम जगवान् पोते कहे ॥ २० जेनां नाम जाणीयें नही एवा अजाण्यां फल फूल तथा पांदडां प्र मुख खाधाथी व्रतनंग याय, वली कदापि एमां कोई विपरूप फूलफला दिक होय तो ते खाधायकी वंकचूलपनिपतिना सेवकनी पेरें जीवितव्यनो पण नाश करे माटे ए अनक्ष्य जाणवां. २१ तुम्बफल ते मढुडां, जांबु, विलां आदि देइने उपलक्षणथी तुब एवां करीरनां फूल, अरणी, सरगवो, मदुडां, इत्यादि फल तथा तुल पांदडां ते वर्षा कालें तांडल, नाजी, सर्व जातिनी नाजीमां घणा बीजना स जीव होय माटे ते अनक्ष्य जाणवां. अथवा तुफल ते कुअली चोलानी तथा मग यादि देने सर्व जातिना कगेलनी फली, सिंगादिकनी फली, पडपोपटा Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. २५ चणानाउला,जे खाधाथी पेटनराश न थाय अने हिंसा तो घणा जीवनीथाय. २२ चलितरस ते कोयुं अन्न, वाशी अन्न, वाशी कगेल, वाशी रो टली, ए आदिकनेविषे अनेक त्रसजीव आवीने उपजे , ते श्रीकेवली जगवान् विना बीजा को बद्मस्थ देखे नही. उपलदपथकी पाणीमां रां धेलु एवं वाशीधान तथा जे सुखडीनुं जेटलुं कालमान होय, तेटलो काल वीत्या पनीनी सुखडी. तेमज बे दिवस उपरांतनुं दही तथा बाश, तेमां जीवनी उत्पत्ति कही , ते शास्त्र प्रमाणथकी तथा केवलीना वचनथकी जणाय. जेम मग अडद चणकादिक काचां गोरस साथें जले, तो तेमां जीवोनी उत्पत्ति कही . तेमवे दिवस उपरांतना दहीनेविषे पण जाणवी. श्रीहरिनइस रिकृत श्रीदशवैकालिकनी वृहदत्तिने विपे “रसजास्तक” इत्या दि पावें कह्यु के एमां क्रमिने आकारें अति सूक्ष्मजीव होय, एम धनपाल पंमितने प्रतिबोधवाने अर्थ तेनो नाई शोननमुनि आव्यो हतो,तेणे वे दिव सथी नपरांतना दहीनेविषे अलताना रसने पुंनडेकरी तडके मूकीने जीव देखाड्या, तेथी धनपालपंमित प्रतिबोध पाम्यो. __ अनदयनो निपेध अन्यदर्शनीना ब्रह्मांमपुराणमां पण जे ॥ अनदयन दाणादोपः,कंठरोगःप्रजायते॥ नावार्थः-अनदयना नदणथकी दोप उप जे, कंठरोग थाय, तथा शातातपोक्त शास्त्रने विपे पण कह्युठे. अनदयन कणे चैव, जायंते कमयोहदि ॥ अनदयना नदणथकी हृदयमांहे कृमि जीवादिक नपजे . इति बावीश अनदयस्वरूपं ॥ हवे बत्रीश अनंतकाय आर्यदेशनेविपे प्रसिक्षले ते देखाडे ॥ गाथा ॥ सवा कंदजाइ, सूरणकंदोय वऊकंदोय ॥ अनहलिदा य तहा,अनंतह अन्नकचूरो ॥१॥ सत्तावरी विराली,कुंवारी तह थोहरी गलोइ य ॥ लसण वंसकरिना, गजर चूणा य तह लोढा ॥ २ ॥ गिरिकस्मि किसलपत्ता, खरिसुआ थेग अन्नमुबाय ॥ तह लोणरुरकबली, खिच्नुहडो अमयवनीय ॥ ३ ॥ मूला तह नूमिरुहा, विरुहा तह टंकवि बूलो पढमो ॥ सूयरवलो य तहा, पनको कोमलं बिलिया ॥ ४ ॥ बालू तह पिमानू , हवंति एए अनंत नामेण ॥ अन्नमपंत नेयं, लरकण जुत्ताइ समया ॥ ५॥ ना वार्थः-सर्वजातिना कंद अनंतकाय , तेमां जेटली जातिना वापरवामां आवे वे ते देखाडे जेः- १ सूरणकंद ते अरस नामा रोगनो वायुनो हर Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नार कंद विशेप, २ वजकंद, ३ लीलीहलदर ४ काचं आउँ, ५ नीलो कचू रो, तथा बादानी कचुंबर ६ सतावरी, ७ वरियाली ते नीली वरीयाली कोक वेलनो नेद, ७ कुंभार, एनां पुष्टप्रणाल आकारें पत्र जे. एथोहरी वृद, १० गलोनी वेल थाय , ते ११ लसण कंदविशेष, १२ वंशकारेलां, १३ गाजर, १४ लूणी वनस्पति जेने बाली थकी साजीवार नीपजे, १५ लोढक कमलकंद १६ गिरिकर्णिका वन्नीविशेष, १७ किसलय रूप जे पांदडां एटले जे महोटा पांदडां ययानी पहेलांबीज उग्यांनी अवस्था सम यनां सप्लां पत्र, ते सर्ववनस्पतिनां पत्र नगतिवेलानां अनंतकाय जाण वां १७ खरसूया, १७ थेग कंदमूल, २० लीली मोथ, लीली मूसलीकंद, २१ लूणावृदनी बाल, अपर पर्याय नमरनामा वृदनी बाल जाणवी वी जा अवयव नही २५ विनोडो खिच्नुहडा कंद लोकप्रसिह , २३ अमृ तवेली वन्निविशेप, २४ मूलातो प्रसिद्ध , तेने बांडवानुं महाजारतने वि पे अन्यदर्शनिये पण कर्तुं वे ॥ श्लोक ॥ लशुनं गूंजनं चैव, पांडुः, पिममूलकः ॥ मत्स्यो मांसं सुरा चैव, मूलक स्तुततोऽधिकः ॥ भावार्यःलसण, गाजर, मूंगली, मूलानोकंद, मत्स्यनुं मांस, मदिरा. ए सर्वयी मू लकंद अधिक जाणवो. पुत्रना मांसनुं जहाण करवू ते रुडुं पण मूलाकंदमुं नक्षण रुडुं नही. एना नणथी जीव नरकें जाय अने एना वर्जनयक स्वर्गे जाय २५ नमिरुहा ते उत्राकार वकालमां थाय ने ए नमि कोडी ने बाहेर निकले ले माटे नूमि स्फोटक नामें प्रसिद ने, २६ पलायुधान अंकुर फूट्यापही निकले ते अनंतकाय जाणवो. २७ टांको पथला शाक विशेष ते प्रथम जगतो थकोज अनंतकाय जाणवो नगेलां फल अनंतकाय जीवाकुल होय, तेमाटे अनंतकाय पण एकवार बेद्योथको कगे, ते अनंत काय नही. २० सूकर संझायें वेल ते सूकरवेल अनंतकाय जाणवी. पण धान्यनो वेलो अनंतकाय न जाणवो. २, पल्यंको शाकविशेष,३०.कुअली बांबली वाधरडां जेनुं मीज बंधाणुं नथी एटले लिन बंधाणो न होय त्यां सुधी अनंतकाय जाणवी. ३१ आलूक एटले रतालू ३२ पिंमालू. ए बत्रीश अनंतकायनां नाम कह्यां. ते एटलांज न जाणवां परंतु बी. जां पण ॥ गृढ सिरि संधि पत्वं इत्यादि सिक्षांतनी गाथायें जेनी शिरा सं धि अने गांठ ए त्रण गुप्त होय,देखाय नही अने जांग्युं थकुं सरखं नांगे, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २७ तथा उद्यं थकुं फरी कगे ते साधारण शरीर कहीये. तेथी विपरीत होय ते प्रत्येक शरीर जाणवू. इत्यादिक लदणे युक्त होय ते बांमवां. तथा ॥ चत्वारि नरकधाराणि, प्रथमं रात्रिनोजनं ॥ परस्त्रीगमनं चैव, संधानाऽनंतकायिका ॥ १ ॥ जावार्थः-प्रथम रात्रिनोजन, बीजं परस्त्रीग मन, त्रीजुं अथाणानी जाति अने चोथु अनंतकाय ए अनक्ष्य ते अचि त थयां होय तो पण नरकनां हार कह्यां ने माटे बांमवां. हां शिष्य आशंका करे ले के बाउ आदिक वस्तु पोतें अचित्त करी होय अथवा बीजानी पासे अचित्त करावी होय तो ते वावरतां थकां श्यो दोप ले ? - आचार्य कहे जे ए थकी निशूकपणुं वधे तथा जीतानु लोलतापणुं व धे एटला माटे ते विवेकी जीवे बम तथा अनक्ष्य अनंतकायादिक अ चित्त वावरतां थकां घणी शातानी परंपरायें तप संयमादिकनो पण विजे द थाय तेम एकवार एबुं सचित्त करवानुं अकार्य करे तो वली बीजी वार पण अकार्य करवानुं मन थाय. नक्तंच ॥ इक्केण कयमकऊं, करे तपञ्चपु णो अन्नो ॥ साया बहुल परंपर, वुझे संजम तवाणं ॥ १ ॥ इति बत्री श अनंतकाय स्वरूप ॥ __हवे मूलसूत्रनी गाथानुं व्याख्यान करे :-पुप्फे इत्यादि तिहां फूल फल च शब्दथकी पत्र मूलादिक फलादिक त्रस जीवें सहित होय ते सर्व तुलफलनी व्याख्याने विपे कह्यां में एमां मद्यमांसादिकनेविपे राजाना व्यापारमा प्रवर्त्तवे करी राजाने परवश पणे करी जे कांश विक्रयादिक कस्यो होय जे माटे राज्यव्यापार ले ते, नरकें जवानो हेतु माटे ते धर्मी जीवे बांमवो कह्यु के ॥ नृपव्यापार पापेन्यः,स्वीकृतं सुकृतं न यैः॥ तान् धूलि धावकेन्योऽपि, मन्येमूढतरान् नरान् ॥ नावार्थः-राज्यव्यापारना पापथ की जेणे सुरूत अंगीकार न कयुं तेने धूलिधोश्याथकी पण अत्यंत मूढ पुरुष कहेवो एम जाणियें बैयें ॥ १ ॥ अधिकार स्त्रिनिर्मासै, तापत्यात्रि केदिने ॥ शीघ्रं नरकवांबाये, दिनमेकं पुरोहितः ॥ २ ॥ नावार्थः-कोइ ए क अधिकारथकी त्रण मासे, देवनी पूजाथकी त्रण दिवसें, तेथकी उता . वलें नरकें जवानी वांडा होय तो एक दिवस पुरोहितपणुं आदरे ॥२॥ ए मद्यादिकनो अंतरंगनोग सूचव्यो. हवे बाह्य जोग कहे जेः-गंध ते गंधवास, जे कस्तूरी, कपूर, अगर, Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ जैनकथा रनकोप नाग चोयो. आदिक सर्व जातिना धूपादिक तथा माव्य ने फूलनी मालादिक पुपादि क फूलनी पाखडी उपलदणर्थ। वेशनी शोना आचरण प्रमुख शेप समय जोग्यवस्तु जाणवी ए विषयरूप डे एनां परिमाण करवां. एवा उपनोग परिजोग नामा बीजा गुणवतनेविपे अनापयोगें करीने जे उलंघ्यु होय ते नि बु ए वीशमी गाथानो अर्थ ॥ २० ॥ हवे ए व्रतना वीश अतिचारमाथी प्रथम नोगथकी पांच अतिचार पडिक्कमवाने गाथा कहे :॥सचित्ते पडिब, अप्पोल डुप्पोलिअंच आहारो॥ तुगोसदि परकरणया, पडिक्कम देसियं सवं ॥१॥ अर्थः-जेणे सचित्तनो परिहार कस्यो ने अथवा जेणे सचित्तनुं परिमा ण कयुं ते सचित्तनुं परिमाण कस्या उपरांत अनापयोगे अधिक खवा एं होय अथवा सचित्तनो सर्वत्याग कस्यो होय पती विस्मृत लगें खाएं होय ते सचित्त बाहार नामे प्रथम अतिचार जागवो. २ वृदयकी तत्कालनो उतारयो एवो सुंदर तथा रायण प्रमुख तेमाहे बीज सचित्त ने पण पाकेलां फल ले माटे निर्दीप ले अने एनां बीज स चित्त ने ते काढी नावीश एवी बुद्धियेंकरीने या फल मुखमांदे घाले ते सचित्तप्रतिबद लामा बीजो अतिचार जाणवो. ३ त्रीजो अपक्क ते दाणाने अग्निये संस्कार करवाथी पण कोश्क दा पाने अनि परिणम्यो नथी माटे तेवा दाणा काचा रही गया जे अथवा लोटतो अचित्तज ने एवी बुझियेंकरीने नहाण करतां अपक्कोषधि नामा त्रीजो अतिचार जाणवो. हवे लोट केटलोकाल मिश्र रहे अने केवीरीतें अचित्त थाय ते कहे . चाव्यो आटो अंतरमुहूर्त मात्र पनी अचित्त जा वो. अणचाल्यो बाटो मिश्र कहेवाय केम के तेमां धान्यना नवियां प्र मुख अवयव रहे तथा आखो दाणो रहे तेने शस्त्रे परिणतनो संनव न थी थयो तेमाटे ते मिश्र कहेवाय ते केटलोकाल मिश्र रहे ते कहे जे:श्रावण अने जादरवा मासमां अणचाट्यो बाटो पांच दिवस मिश्र रहे.. अाशु अने कार्तिकमां चार दिवस, तथा मागशिर पोसमांत्रण दिवस, त था माघ अने फागुणमां पांच प्रहर, चैत्र वैशाखमां चार प्रहर, ज्येष्ठ त Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए था बापाढें त्रण प्रहर अने चाल्यो आटो अंतरमुहूर्त सुधी मिश्र जाणवो तथा सचित्त तिल मिश्रित एवा यव धान्यादि रूप ते सर्व सचित्त मिश्र आ हार जे तेपण ए अतिचारमाहेज जाणवो. ४ उपक्क आहार ते धर्म शेकाणा एवा पोहोख, चणाना उला, शेक्या चणा चोखा यव गोधुम स्थूल मंझक फलादिकने प्राशुक बुद्धियें जहण करताने उपक्कौषधि आहार अतिचार लागे, ए थाहारथकी आ लोकमां हेपण अजीर्णादिक रोग थाय वायुनो प्रकोप वधे शरीरे अशाता थाय माटे जेटले अंशेकरी सचित्तपणुं रहे तेथी रसेंश्यिना स्वादथकी परलो कमां पण एनो कटुकविपाक उदय आवे माटे ए बांसवा ॥ ५ तुनौषधि ते जेना खावाथी पेट जराय नही अने पाप घणुं लागे एवी मग तथा चोलादिकनी फली तेने खावानो विवेकी जने त्याग करवो नहीं तो तेथी पांचमो अतिचार लागे जे. हां आशंका करे के सचित्तनो त्याग कस्यो ने अथवा सचित्तनुं प रिमाण को ले तेम बतां नपरांत सचित्तनुं जहण करवाथी अतिचार न लागे परंतु व्रतनंग थवो जोश्यें ? ___ गुरु उत्तर कहे जे के जेने अति पापनो जय होय ते धणी पञ्चरकाण करे तो ते अचित्तजाणीने नक्षण करे अथवा उपयोग सहित खाय तेमा टे तेने अतिचार लागे परंतु जो जाणी बूजीने खाय तो व्रतनंग थाय. - आशंकाः-तेवारें तो अनंतकायादिकने अचित्तकरी करावीने खाय तो अतिचार शानो लागे एमांतो व्रतनंग पण न थाय. __ उत्तरः-एथी अत्यंत जीहा इंडियनी लोलता वधे ते लोलताथकी व तनंग पण थाय, निहंस परिणाम थाय ते परिणामनिहंस थवाथी स चित्तने पण वावरे तथा बीजो आगलो कोइ नक जीव होय ते देखीने न डकी जाय लोकमांहे निंदा थाय एटला माटे विवेकी जीवे अनंतकायादि कने अचित्त करीने तथा करावीने खावां नही ए पांच अतिचार सचित्तप रिहारी श्राश्रयीने अथवा कृत सचित्त परिमाण आश्रयीने कह्या. __ एरीते बावीश अनदय, बत्रीश अनंतकाय, मद्यमांसादिक चार महा विगय ए सर्वे जो अचित्तहोय तोपण व्रतनंगना नयथकी वावरवा नहीं एम वस्त्रादिकना परिमाणने विषे अनाउपयोगें अधिक परिमाण अतिका Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ១០ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. त थयु होय तेने अतिक्रमादिक कहीये ते पोतानी बुधिये जाणीलेजो प डिक्कमे इत्यादिनो अर्थपूर्ववत् जाणवो ॥ २१ ॥ दवे ए नोगोपनोगव्रतनेविपे बहु सावद्य जे अंगारकादिक पन्नर कर्मा दान से जेथकी तीव्रकर्म बंधाय तेमाटे ते श्रावकें जमवा एनेविषे अना पयोगेंवरीने जे आचयुं होय ते पडिक्कमवाने गाथा कहे : इंगाली वण साडी, नाडी फोडी सुवऊए कम्मं ॥ वा पिङ चेवय दंत, लक रस केस विस विसयं ॥२॥ एवं खु जंतपीलण, कम्मं निलं वणं च दवदाणं ॥स रदह तलाय सोसं, असई पोसंच वजिता ॥ २३ ॥ अर्थः-इंगाल एटने अंगारकर्म ते घणां लाकडां एकतां करीने तेना कोयला करी वेचें तेमज चूनानी नही, इंटना नीनाडा, कुंजार, लोहार, सोनारनां कर्म इत्यादि सर्व अंगारकर्म जाणवां. ते अंगारकर्म करवेक रीने आजीविका करे तेम पागल पण सर्वमां आजीविकानुं जाणवू. ५ वीजें वनकर्म ते बेद्या अणजेद्या वननां पत्र, पुष्प, फल कंदमूल तृण काष्ठ कांब वंशादिक तेनुं वेंचवें वेंचाता लश्ने वनगबादिक करावे वा डी बाग बगीचा करावे ते वनकर्म जाणवू. ३ नाडी कर्म ते गामां घडावे गामानां अंग जे बंध, पश्ढूं, पीजणी प्र मुख घडाववां गामा खेडवां क्रय विक्रय करवो, ते शकटकर्म कहियें. ४ शकट, उंट, तपन, महिप, खर, वेसर, अश्वादिक नाडे लइने तेना नपर नार नारखी वहेवरावे तथा पोते नाडे आपे ते नाटिकर्म कहियें. ५ यव, चणा, गोधूम, करडी इत्यादिकने नरडवां साथवो करवो दाल करवी लोट करवो सालमाथी चोखा काढवा, खाण खोदवी, खोदाववी, सरोवर कूपादिकने अर्थे नूमी खोदवी, हल खेडवू, पापाण घडाववा इत्या दिक स्फोटक कर्म कहियें अने योगशास्त्रमा तो कणने दलनादिक करवा ते वनकर्ममां विवक्ष्यां जे. हवे गाथाना उत्तराई पांच वाणिज्य कहे . वाणिज्य शब्द प्रत्येकें जोडवो. ६ आगारनेविपे जश्ने हाथीना दांत वहोरवा एटले जिहां घणा हा थीने मारी तेना दांत एका करीने वेचें तेने दांतनो आगर कहियें ते Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. शर मज घूधडादिकने मारीने तेना नख काढे हंसादिक पदीने मारीने तेनां रोम लीये व्याघ्रादिकने मारीने तेनां चर्म लीये, चामरने अर्थ चमरी गाय ना पूबडां कापे, वली शंख, शिंगडां, बीप, कवडी, कस्तूरी पोसडादिक ए सर्व त्रसजीवोना अंग ने तेने लेवां ते दंतवाणिज्य कहियें. ___ ७ लाख, धावडी, गली, मणशील, हरताल, वज्रलेप तूंबादिक, पड वास,टंकणखार,साजीखार,साबु,खारादिनो विक्रय करवो ते लाख वाणिज्य. G मद्य, मद्यांग, मधु, मांस, माखण, दूध, दही, घृत, तेलादिक रसवा जीवस्तुनो व्यापार ते रसवाणिज्य कहियें. ए दास दासीप्रमुख मनुष्यनुं वेच, गाय, अश्वादिक, पोपट, मेना प्र मुख जीवोनो क्रय विक्रय करवो ते केशवाणिज्य कहियें. १० विप, अफीण, वचनाग, सोमल, शस्त्र, कोश, कोदाली, लोह, यं त्रादिक शस्त्रादिक हलादिक जीवघातक वस्तुनुं वेचq ते विषवाणिज्य क हिये. ए पांच प्रकारनां वाणिज्यने उत्तम विवेकिजनें बांसवां. ११ यंत्रपीलण कर्म ते निसातरो, नखल, मूसल, घरटी, घाणी, अर हट्ट कांकसी प्रमुखना व्यापार तथा तिल इदु सरसव एरंगफलनुं विदा रवू पीलतेल करवू तथा जलयंत्र ते अरहट्ट खेडवा इत्यादिक सर्वने यंत्र पीलन कर्म कहिये. अने योगशास्त्रमा तो घरट्टादिक यंत्रनो जे क्रय विक्रय करवो ते विपवाणिज्यमां कह्यो . १५ गाय, तृपनादिकना कान, कंबल, शिंगडां पूादिकनो बेद करवो, खासी करवा, नाक विंधवां, अांक देवो, गोधो करवो, दाढादिक कापवां, चामडी वालवी, उंटनी पीठ गालवी इत्यादिक सर्वने निलोडनकर्म कहियें. १३ वनमा घास घणुं होवाथी निलादिकथी शंकाइने सुखे फराय न ही माटे जो बाली नाखीयें तो सुखे फराय एवा हेतुथी अथवा जुर्नु घास बाली नाखीयें तो नवु घास घणुं उपजे तेथी गाय प्रमुख सर्व जनावरनां पेट नराय तेनो धर्म आपणने थाय एवा हेतुथी वन वाली नारखे अथवा खेत्र बालवाथी धान्य सारूं नीपजे एम जाणी खेत्रने बाले अथवा कौतु के करी अरण्य बाले एने दवदान कर्म कहियें. एवं सांनलीयें बैये जे नि लादिक पोताना मरण वखते एवं कहे जे के महारा मंगलिकने अर्थे धर्म दीवाली करजो एटले दव लगाडजो ए सर्व दवग्गिदावण्या कर्म जाणवू. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. १४ जे वगरखोद्यं ते सरोवर, तथा इह, अने जे खण्यं होय ते तलाव कहियें इत्यादिकनां शोपण करवां धान्य वाववाने अर्थे तलावादिकमांथी पाणीनी नीक वालवी ते सर इह तलाव शोषण कर्म कहियें. १५ व्यने अर्थ उःशील दासी नपुंसकादिक गुक सारिका मयूर मार्जी र मर्कट ककड़ा श्वान नंम सूवरादिक, पोपण कर ते असतीपोपणकर्म कहियें केटनाएक एम कहे नेके गौडदेशनी पेठे दासीपोषण करीने ते सं बंधि व्यनिचारनुं नाई खाइ आजीविका करे तेपण एमां लेबु. ए पन्नरे कर्मादानना दोप घणा ने माटे उत्तम विवेकी श्रावकें न सेव वां ते सर्व कर्मना दोप देरवाडे . १ अंगारकर्ममां अग्नि सर्वमा मुख्य शस्त्र के अग्नि कायने आरंने का य जीवोनी हिंसा थाय माटे श्रावक ने अंगारकर्म निपि ने. २ वनकर्ममां वनस्पति श्राश्रयीजे त्रसजीवो रह्मा ने तेनी हिंसा थाय. ३-४ शकटकर्म तथा नाडीकर्ममां ताजादिक नपर नार वहन कराव तां मार्गमा नकाय जीवोनी घणी विराधना याय) ___५ स्फोटक कर्ममां दाणा कण दलवा नूमिकान खण, तेमा वनस्प तिकायनी विराधना थाय तथा पृथ्वी कायनी विराधना थाय तेमज ए वे दुने आश्रित रहेता त्रसादिक जीवोनी मोहोटी विराधना थाय ने. .६ अागरें जश्ने हाथीदांत चमरीगायना पूनडांप्रमुख त्रमजीवोनां अंग लेवामाटे ग्राहक आवेलो देखीने निलादिक लोक तरत हाथी नथा गाय आदिक जीवोने मारवा माटे प्रवन माटे दंतवाणिज्य श्रावकने निपिने. __७ लाखमांहे घणा त्रस जीव होय लाखनो रस रुधिर सरखो होय तथा धाउडीनी नाल तथा फूल ए सर्व मदिरानां अंग ले बालमांहे कीडा पडे . तथा गलीतो अनेक जीवोनी घात विना नीपजेज नही तथा म सील, हरताल वनक्षेपमांहे पण घणा संपातिम सजीवो एना फर सथकी मरण पामे तेमज घणा सजीव एमां आवी पडे तुंबरिकामा ट थ्वीकायादिक जीवनो घात थाय . तथा पडवासमांहे घणा त्रसजीव ने तथा टंकणवार, साबु, खारो ए पण वाह्यथी घणा जीवना विनाशना. हेतु ने माटे महादोपरूप तथा लादा दिकना व्यापारनो दोष मनुस्मृति मां कह्यो रे ॥श्लोक ॥ सद्यःपततिमांसेन, लादया लवणेन च ॥ त्र्यदेण Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३ शूडीजवति ब्राह्मणः वीरविक्रयात् ॥१७॥ मांसमां लाखमां लवणमां जीव तरत पडे तथा तेना विक्रयथी ब्राह्मण पण त्रय दिवसमां शूर थाय ने अने मांस मदिरा लाख तथा लवण वेचवाथी ब्राह्मण तरतज पतित थाय जे. ____ रसवाणिज्यमां मधुनेविषे अनेक जीवोनी हिंसा थाय ने वली ए मां अनेक संमूर्बिम जीव उपजे तथा मरण पामे उग्धादिकनेविपे पडेला जीवोनी विराधना थाय तथा वे दिवसनी नपरांत दहीने विपे संमूर्बिम जीवो उपजे तेनी युक्ति पूर्व कही . __ए केशवाणिज्यनेविपे विपद चतुष्पद जीवोने नित्य परवश पणे राख वाना दोष तथा ते जीवोने वध बंधन दुधा तृपादिकनी वेदना जोगववी पडे इत्यादि दोप थाय . १० विपवाणिज्यमां शिंगडी वत्सनाग, हरताल, सोमलवारादिक वि प अने सर्व शस्त्रादिकने विपे जीव हिंसा प्रत्यद देखाय पाणीमां पला खेली हरतालने विपे मदिकादिक जीव मरण पामे ने, सोमल खाधाथी वालकादिक जीव मरण पामे ॥ नक्तंच ॥ कन्या विक्रयिणश्चैव रसविक यिणस्तथा ॥ विपविक्रयिणश्चैवनरानरकगामिनः ॥ कन्याविक्रय करनार, रस विक्रय करनार तथा विपविक्रय करनार ए सघला पुरुपो नरकगामी जे. ११ यंत्रपीलण कर्म तो अनेक त्रस जीवोनुं वधकारि ने. खांम, पी सवं, चुलो, पाणी राखवानुं स्थानक, वासी काढq ए पांच हिंसाश्री गृहस्थने कर्म बंधाय वली घाणी तो महोटा पापनुं हेतु एवं लौकिक शास्त्रमा पण वर्णव्यु जे जे दश कसा जेवो एक घांची, दश घांचीना जेवो एक कलाल, दश कलालना जेवी एक गणिका, तथा दश गणिका सरिखो एक राजा पातकी जाणवो. इति यंत्रपीलन कर्म. १२ निलंबनकर्म ते गाय अश्व नंट इत्यादिक पंचेंश्यि जीवोने कदर्थ ना करवी कष्ट उपजावq ते महापापनुं हेतु बे. १३ दवदेवाथकी अनेक कोट्यावधि जीवोनी विराधना थाय. १४ सरोवरादिकनुं शोषण करतां पाणीना जीवो तथा पाणीने आश्रि त रहेला मजकन्डपादिक अनेक जातिना त्रसजीवोनो विनाश थाय माटे एमां बकायजीवनी हाणी थाय. १५ असतीपोषे दासादिक जे पापकरे तत्संबंधि पापनी वृद्धि थाय. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. एवा प्रकारनां वीजां पण अनेक जातिनां खर कर्म जे जे निर्दयी लो कने उचित ते सर्व वर्कवां. जेम के कोटवाल, गुप्तिपाल, सीमपालादि कना व्यापार ते खु शब्दें करी सुश्रावकें निश्चे बांमवा, ए पन्नरे कर्मादान नेविपे अनाजोग अतिक्रमादिक अतिचार जे लाग्यो होय ते पडिक्कमुं बुं. ए व्रत पालनागे प्राणी सर्व अंगे दिव्य जोग पामे, नीरोगीपणुं अ नीटनो संयोग, मनुष्यनां सुख अने देवतानां सुख तथा चक्रवर्तिनी पद वी, इंश्नी पदवी नोगवी सकल कर्म क्य करीने मोदना सुखनो जोगी थाय. __ वली जे प्राणी ए सातमुं व्रत अंगीकार न करे अथवा अंगीकार करी ने वली विराधे तेने घोर पाकरा रोग नपजे अने इष्टवस्तुनो वियोग था य तथा अनिष्टवस्तुनो संयोग थाय तथा नोगांतराय कर्म बांधे, मरीने नर कादिक मुर्गतिनां दुःख जोगवे,घणो संसार रकने इति द्वाविंशति गाथा २२ हवे ए व्रतने आराधवा अने विराधवा नपर मंत्रिपुत्रीनो संबंध कहे जेः-अंग नामा देशने विपे चंपा नामा नगरीले ते नगरीना लोक अत्यं त दयावंत ने पारका अवगुणने बोलवामां मूंगा ले, पारकं धन लेवाने पांगलां , परस्त्री जोवाने अांधलां ठे, जे नगरीयें बोजी जुनी नगरीयोने दासीरूप करी ते नगरीमा प्रतापे करीने सूर्य सरखो अने राज्यनार उपाडवाने शेषनाग सरखो एवो इंऽ समान सहस्रवीर्य नामे राजा राज्य करे जे. ते राजाने बहुमाननुं पात्र अने जेनी बुद्धि मापी शकाय नही ए वो बहुबुदि नामें प्रधान जे. । अन्यदा त्यां पृथ्वीनो प्रलय करतो एवो प्रजालोकना अनाग्यने योगें करी जाणीयें बो आरोज वेठो होयनी ? एवो अत्यंत आकरो को चडेला सर्पनी माढना विष जेवो अनिष्ट एवा विषनो वर्षाद वर्षतो हवो. तिहां बीजली पण अनिष्ट विप सरवीज थती हवी तेणे करीने धान्यनी संपदानो नाश थतो एवो कराल आकरो जागीय कुष्कालने करतोज हो यनी ? एवं फेर सरखं वर्पादनुं पाणी पडयुं तेथी करीने जेम दावानलें क री वननेविपे वनस्पति सर्व निष्फल थइ जाय घांस प्रमुख सर्व बली जा य तेम वरसादना पापीयें करी धान्य, वनस्पति, घास अने फल प्रमुख. सर्व बलीगयां. लोक तथा ढोर अने पशु पंखी प्रमुख पोताना मुखमां घा ले एवी कांइ वस्तु रही नही. पत्र, पुष्प, फल चरण प्रमुख सर्व फेर जेवां Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कया सहित. न्य हावाथी खावाने अयोग्य थयां. तेमज कूवा, तलाव, वावडी अने नदी प्रमुखनां पाणी पण सर्व फेरनूत थ गया. तेथी लोक अने जनावर प्र मुख कृय पामवा लाग्यां एम सर्व लोक अाकुल व्याकुल थयां कारण के जेवारें दुष्काल पडे ले तेवारें तो लोक तथा ढोर प्रमुख वनफल तथा फू ल पांदडां कंदमूलादिक खाइ पाणी पीने काल काढे अने जीवतां रहे पण आहीं तो पाणी सुधां सर्व फेरनूत थश्गयां अने जे खाय के पिये ते म रण पामे तेथी कोइ जीववानो नपाय रह्यो नही. एम घणालोको तथा जनावरोनो दय थतो देखीने ते वखत जे पुण्य वान गृहस्थ हता ते सर्व लोकनी तथा ढोरनी अने परवी प्रमुखनी ख बर राखवा लाग्या. घर माहेला टांकानां तथा कूवानां पाणी अने घास चूणो प्रमुख के जे घरमां हतां जेनी नपर वर्षादनो बांटो नही पड्यो हतो तेवी निर्विप चीजोथी सर्व जीवोनो निनाव करवा लाग्या. एम करतां के टलोएक काल गयो पड़ी जेवारे ते दुःखे पामवा योग्य घरना टांकाप्रमु खनुं पाणी पण थइ रहेवा याव्युं तेवारें तृपायें पीडायेला लोको ते फल फूलादिक तथा विपमिश्रित पुष्ट जलने पीवा लाग्या के तरतज ज्वर कुष्ट कास श्वास चमादिकना रोगथी मरण पामवा लाग्या. एम घणा लोकोनो संहार थतो देखीने राजायें जोशी, निमितिया, मंत्रवा दी, तंत्रवादी, वैद्य, नूवा, वेदीया, पुरोहित, ब्राह्मण प्रमुख सर्व पाखंमी। ने तेड्या अने तेमने राजा पूबतो हवो. तेवारे ते सर्व कहेता हवा के नवो वर्षाद थायतो कल्याण थाय बीजो कोई उपाय नथी. तेवारें राजा मंत्री प्रमुख सर्वे एकता थइ विचार करवा लाग्या पण कोइ नपाय सूजे नही. केटलाएक लोक तो गलें फांसो खाइने मरवा माटे तैयार थया जीववानी याशा बोडी दीधी एवो उपश्व वत्ताइ रह्यो. ढोर तथा माणसनो यथ वाथी जाणीय कल्पांतकाल तिहां आव्यो होयनी ? एम दीसवा लाग्यु. एम केटलाक दिवस गयानंतर एकदा प्रनातकालनेविषे राजसनामां राजा, प्रधान, सामंत, वागीया, पटाउत, सेनाउत, सेनापति, प्रमुख सर्व वेग . एवामां पूर्व दिशानो वनपाल हर्षनर अावीने सिंहधारें उनो रह्यो बडीदारे जश्ने राजाने कझुके स्वामी! पूर्व दिशानो वनपाल आव्यो बे तेने शी आज्ञा . राजायें मांहे आववानी आज्ञा दीधी के वनपालकें यावी Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. वधामणी दीधी जे हे महाराज! पूर्व दिशानुं वन सर्वक्रतुनां फल,फूल,पांदडां, धान्य, वनस्पतियें करी सर्व फव्युं फूल्यु ने ते एवं गीच थइ गर्यु ले के मांहे सूर्यना किरणो पण प्रवेशकरी शकता नथी अने पूर्वदिशाये सुगाल थयो . एम चारदिशाना वनपालकोये प्रावी सुनिदनी वधामणी आपी. तेमज देत्रोना अधिपतियोयें आवी राजाने कह्यु के महाराज! देवने विपे धान्य बदु नीपज्यु डे एमज खनाना स्वामीयोयें कडं के खलामां धान्यना ढगला थइ पड्या ने एमज जलनां स्थानक जे कूप, वाव्यो, नदी, इह, सरोवर, त लाव,प्रमुखना रखवाला प्रमुख, सदुकोइहर्पनर थका यावी आवीने कहेवा लाग्या के जलने स्थानकें अखूट जलनराऽ गयां जे. एम बीजा गामडांना तथा नगरना लोको सर्वे साथे एकेकालें आवीने राजाने वीनवता हवा. ते सांनतीने राजाने तथा सर्वे लोकोने अतिशय अक्ष्तिीय एवो आ नंदनो रस प्राप्त थतो हवो. जे कोइथी कह्यो जाय नही. तेम रोग योग पण सर्व एक जवारें जतो हवो सर्वलोकने कोई अपूर्व अतिशय शीतलता थती हवी सर्व हर्ष पाम्या थका सर्वने जीवदानी आशा था तेथी सर्व लोक अहितीय महोत्सव करवा लाग्या एवं समृधिसुख प्राप्त अयुं. तेना कारणनी कोइने खवर पडी नही. ए अकस्मात् सुखनुं कारण ते राजा प्रजा सर्व एम समजवा जाग्यां के आपणा सदुना नाग्योदय यो थयु जे. एनो बीजो कोइ हेतु नथी. वली नगरना तपस्वी कहेवा लाग्या के अमारी तपस्याना प्रनावथी सद्ध लोक सुखी थया. केटलाएक कहेवा लाग्या जे अमे धर्म करीयें बैये तेना प्रनावथी सर्वने सुख थयु. एमज ध्यानकरनारा ध्यानना प्रनावथी, योगीश्वर पोता ना योगना माहात्म्ययी, मंत्रवादी मंत्र जापना महिमाथी, तथा देवदेवी योना सेवको पोतानां देवदेवीनां अाराधनथी, जोशियो ग्रहनी पूजाथी, एम सर्वको पारवंमी पोतपोतामा अनिमान धरता थका राजा आगल आवी आवीने कहेता हवा के था अमारा अमुक कर्त्तव्यना माहात्म्यथी सर्वलोकोने सुख ययुं . ते सांनली राजाये सर्वने कह्यु के तमे सर्व बोलो बो तेमां कोण साचं अने कोण जुटुं ने ढुंतो तमो सर्वेने जुठा मार्नु .. पड़ी एवातनो राजाना चित्तमा संशय उपन्यो जे कोइ झानी आवे तो संशय टले, एकदा राजाना तथा प्रजाना नाग्योदयथा वेत्रीयें आवीने क Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. झुं के हे महाराज! कोक वधामणीयुं आव्यु ले एवामां आकाशमार्गथी स जाने विपे उद्योत थयो राजानी आझाथकी वधामणीये आवीने वधाम गी दीधी के हे राजन् ! आपणा देवरमणनामा उद्यानने विषे श्रीश्रुतसा गर नामे केवली जगवान समोसस्था ले घणा देव देवी तेमनी सेवा करे ने देवतायें सोनानां कमलनी रचना करी ने तेनी उपर वेता थका धर्मनी दे शना आपे बे. एवी वाणी सांजली राजानी नतकोडी रोमराजी विकस्वर थइ. वधामणीयाने वधामणीनुं दान आपी संतोपीने चतुरंगी सेना जा सर्व प्रजालोक सहित देवरमण नद्याने आवी केवलीनगवानने विधि सहि त वंदन करी धर्मदेशना सांजलीने पनी राजा संशय पूबवा लाग्यो हे न गवन् ! सर्वलोकने सुखसमृदिनो हेतु शो थयो. केवली वोट्या हे राजन् ! बदुबुद्धि प्रधानने घेर पुत्रीनो जन्म थयो ने ते प्रधाननी पुत्रीना पाउलानवना पुण्यनदयना महिमायकी सर्वलोक सुखी थया बे, एवं सांजली आनंदित थका राजा फरीथी प्रधाननी पु त्रीनो पाउलो नव पूबता हवा. तेवारें केवली कहेता हवा; नश्नगरनेविपे नइ एवे नामे महोटो व्यवहारी रहेतो हतो. तेनी नशनामे नार्यानी सु ना नामे दीकरी हती ते लक्ष्मीना निधाननी पेठे सर्वने माननीय हती. एवी ते श्रावकनी पुत्री जिनधर्मी हती तोपण जेम चश्मा कुरंगने लांब नेकरी कलंकी थयो तेम ते कोक कर्मना नदयथी वालपणाथीज रसेंदि यना लोलुपीपणायेंकरी स्वेबायें सर्व अनदय वस्तु वावरती. पुत्रादिक जो नन्मार्गे जाय अने तेने तेनां मातापितादिक शीरखामण न आपे तो ते मा तापिताने दोप लागे. जेम गायने मार्गे न चडावे तो गोवालीयानो वांक गणाय. तेम तेने मातापितादिकें घjये वारी तोपण बाहेर जश्ने अन क्ष्य खाइ आवे, ते जो मातापिता तेने बाहेर जवा न देतां हवा. तोपण जेम व्यसन पड्यु टले नही तेम ते कुमरी कोइ वाणोतरने हाथे गर्नु मगावीने पण अनय खाधाविना रहे नही अनंतकाय सचित्त अचित्त कांश मूके नही एवी विवेकेंकरी शून्य थइ, धर्मिष्टना घरनेविषे कोइ अ धर्मी होय तो धर्मीनी शोना रहे नही तेम सर्व कुटुंबने अनिष्ट थइ पडी. पड़ी तेनां मातापितायें कोश्क महोटा नाग्यवंत श्रावंत एवा व्यव हारीयाना पुत्रने परणावी तोयपण ते पोतानो स्वनाव न मूकती हवी, ए Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. आत्मारूप राजा तेणे घणाकालनी पीधी एवी जे मोहरूप मदिरा तेथ की मूढथयो यको पोतानुं चाकर जे मन तेना पण चाकर जे इंझ्यिादिक तेणे वली आत्माने पोतानो चाकर कस्यो ने. अहह जू कहेवो आश्चर्य ने! व्यसनी एम जाणेजे हुँ बानुं व्यसन से ते मुजने कोण जाणी श कशे, पडी ते कुमरी श्वसुरादिकथी नानां अनय अनंतकायादिकनां नहाण करे तो पण श्वसुरादिकें नेतुं कपट जाण्युं पापनुं कर्त्तव्य बानुं रहे नही. ते थी तेमने पण अनिष्ट या पडी. सर्व कोने गुण नपरे राग उपजे परंतु गुणविना कोइने गग नपजे नही ॥ यतः॥ गौरवाय गुणाएव, झातेराव रोनतु ॥ वानेयं गृह्यते पुष्पं, अंगजस्त्यज्यते मलः ॥१॥ नावार्थः-गुण बे तेज महोटाइन कारण ने, पण जातिना आमंबरथी गुं थाय ? गुण ने तो वनमाथी पुष्पोने लोको ग्रहण करी आवे ने अने पोताना अंगमां हे नत्पन्न थयेलो मल तेमां गुण नथी तो तेनो त्याग करे ने ॥ १ ॥ पनी कोकरीतें तेनां मातापिता ते पुत्रीने पोताने घेर आणीने गुरु नी पासें तेडी लाव्या. गुरुये तेने अनदय अनंतकायनां पाप देखाडी मा तापितादि सर्वसंघमध्ये कांइक लजा कांक पापनुं जय देखाडी कांक दाक्षिण्यताथी सर्वनी समद गुरुयें तेने अनय अनंतकायनी अगड करा वी. ते व्रतमां तेने दृढ करवामाटे तेनां मातापितादिक तेनी प्रशंसा क रवा लाग्यां अने गुर्वादिक पण अत्यंत प्रशंसा करता हवा. ते पठी ते सु नशने सासरे मोकली तिहां तेने ते पञ्चरकाण महाकष्टनूत थयुं जाणेजे मुजने सर्वे मतीने बंदीखाने नाखी ने एम समजती हवी एम केटला एक दिवस नियम पाल्यु. एकदिवसे ते सुना कोक गृहस्थने घेर कार्य विशेपे गइ तिहां कुअली आंवलीन रुडीरीते मसालामां नाखी सुस्वादिष्ट करीने तैयार करी मूकेली हती तेने देखीने सुनशनुं मन चलायमान थ युं अने विचारयं जे ए अचित्त ने एमां जीव तो कोई ने नही माटे एने वावरतां शो दोप ने, एम जाणती ते आंबली तेणे वावरी पनी जाणे म हारे अगड बेज नही एवीरीते अनंतकाय अनदयने अचित्तकरी निःशंक पणे खावा लागी. रहेते रहेते अनंतकाय अनक्ष्य अने सचित्तने पण निः. शंकपणे वावरवा मांझ्या. अहो अहो जून रसेंडियनी गृछता कहेवी ने !! ॥ यतः ॥ करोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किंचिदशुनं, हितीयं सापेदोविमृश Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. नए ति च कार्य च कुरुते ॥ तृतीयं निःशंकोविगतघृणमन्यत्प्रकुरुते, ततः पापा न्यासात्सततमशुनेषु प्ररमते ॥ पहेलां दयासहित हृदय बतां कांक थोडं अशुन करे,बीजीवार काइक विचार करतां ने अपेक्षा करतां कांक करवा योग्य अने नहीं करवा योग्य एवा कार्यने करे, पडी त्रीजीवार निःशंक थश्ने तमाम दयाने बोडीने अगुन पापात्मक कर्म करे ,त्यार पनी पाप करवानो अन्यास पड़ी जवायी निरंतर अशुनकर्मनेविषे अत्यंत रमण करे . अर्थात् निर्नय थ पापमां रची मची रहे जे ॥ १ ॥ ___ एम ते सुनाये रसेंडियने वश थइ जवाथी, पोतानु अनिग्रहरूप क पद समूल माहेथी नखेडी नारव्यु. वली पण आगलनी पेठे सर्व अन क्ष्यवस्तु वावरवा, चालु कयु. अहो उर्दीत रसलंपटपणुं जुवो. ते सुनश सर्व अनय खावाने राइस सरखी थअथवा दावानल सरखी थइ तेने को वस्तुनी तृप्तिज थाय नही तेणे मर्यादा लजादिक सर्व मूक्यां मावित र तथा श्वसुर ए वेदुपदनेविपे विशुरू तो पण निःशंकपणे धर्मरहित हो वाथी जेम दीवाथकी उपजेली मश सर्वेने श्यामताकरे तेम करती हवी. वली को एक दिवसे सुनश सासरेथी पीयरीये जाती हती त्यारें मा गने विपे क्यांएक वनमांहे अजाण्यां फल पडेलां हतां ते देखी तेने खावा ने माटे जमाल थश्ने ते फलनुं आस्वादन करवेकरीने ते कुमरी तत्काल वेद प्रकारना अत्यंत कटुक विपाक ने जेना एवा किंपाककृदना फेर जेषा फलने नदण करीने ते यौवनवयमांज शीघ्र थकाल मरण पामीने पहेला न रकने विषे गइ पिताना घरसुधी पण पहोची नही एम ते पाहीं पण सर्वने अनिष्ट थइ अने परलोकने विपे नरकें गइ तिहां कटुक विपाकने नोगवी तिहांथी मरीने महोटा मत्स्यपणे नपनी. तिहाथी मरीने बीजा नरकने विपे उपनी. तिहाथी निकलीने ढंग सूकरी थइ तिहाथी रासनी थइ एम घणा नव रजनी सर्वस्थलें नूरख तृषा अने रोगनी वेदनायेंकरी महाकदर्थ ना नोगवती रसनाने वशथवाथी घणा काल रऊलती अनर्थने जोगवीने ए कदा लक्ष्मीपुर नगरनेविषे धनवंतमां मुख्य एवा लक्ष्मीधर नामे शेत तेनी लक्ष्मीवती नामे नार्या तेनी नवानी एवी नामे पुत्रीपणे आवी उपनी. तिहां जन्मतांज तेने नधरस, श्वास, ज्वर, दाह, कुदिशूल, जगंदर, हरस, अजीर्णता, दृष्टिशूल, दृष्टशूल, अरुचि, खरज, जलोदर, माथानी वेदना, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएल जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. काननी वेदना, कोढरोग ए सोल महोटा रोग जे आगममाहे प्रसिद ने ते सर्व तेना शरीरे उपन्या महोटी थ त्यारे ते रोगने लीधे महा पीडा नो गवती हवी तेनां माता पिता घणा उपचार करे पण रोग उपशमे नही. __ एम ते शृंगारना साम्राज्यथी रहित अने निरंतर रोगेकरी शरीरमा सं तापित एवी महा कुरवणी थइ तेना घरनी पासें एक नपाश्रय हतो ते मां अर्याजी हतां तेमनी पासे ते नवानी गइ त्यां साध्वीने वांदीने अ त्यंत आदर सहित पूबवा लागी के महाराज ! महारा जन्मनो रोग जा य एवं को तमारी पासें उसड होय तो मने आपो. तेने आर्यायें कॉम दारी पासे धर्म औषध डे ने पाबले नवें पापरूप वृद वाव्यां ने तेनां फल तुजने हमणां उदय अाव्यांजे, ते कर्मना विपाकनो क्ष्य थवाथी रोगवि पाकनो पण दय था ते जेम अनि इंधणांने बाले ले तेम श्रीजिनधर्मरूप औषधथी रोगनो नाश थाय. जे मन वचन कायानी विशुद्धियें धर्म प्रा राधन करे तो जेम सूर्यथी अंधकार नाल पामे तेम इहनव परनव संबं धि सुःखना राशिनो क्य थ जाय, धिःकार ले रसनानी गृक्षताने के, जेणे करी नियमनंगना कटुक विपाकरसने पण कोई विचारता नथी. एवी साध्वीनी वाणी सांजली जवानीये पुब्युं हे महाराज ! में पूर्वे शां पाप कस्यां हशे के जेथकी आ असाध्य रोगेकरी पीडा . ते सांजली साध्वीजी त्रज्ञाने सहित हतां माटे तेना पूर्वनवनो वृत्तांत सर्व कहीने कह्यु के ते पुष्कृत नोगवतां शेष रह्यं ते आनवमां पण जोगवे ने हे न ! बीजी चार इंडियो तो मात्र यौवन अवस्थामांज जीतवी उर्लन ले परंतु ए क रसेंख्यि तो त्रणे अवस्थामां जीतवी इष्कर ते वक्रशिक्षित घोडानी पेरें अतिशय दुःखे दमवा योग्य ले ते रसेंपियना पाकरा उदय तत्काल फलने देखाडे , माटे अहो नव्यो ! तमे रस इंडियने जीतवाने घणो न द्यम करो जो ए एक रसना इंशी धराश होय अने बीजी चार इंडीयो नुखी होय तो ते सर्वश्यिोने ए रसनाज उन्मादता पमाडे . एवं सांजली जवानीने जातिस्मरण उपन्यु तेवारें प्रतिबोध पामीने स मयपणे जोगोपनोग व्रत लश्ने समस्त सचित्त नोजनने बांमती हवी तथा अचित्त वस्तुमांहे सर्व अनय वस्तुनो त्याग कयो. जदयवस्तुमां पण क लमशालिनी जातिनी शालि तथा कोलमध्ये मग अने अडद एबे मोक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. शप ला राख्यां तथा शाकपण कठोलनुंज खावु बाकी सर्व त्याग कयं घृतमाहे गायनुं घृत तथा गायनी बास मोकली राखी बाकी सर्व त्याग करयां तथा फलमध्ये दूधी आमलां अने सोपारी खावी बाकी सर्वनो त्याग कस्यो. त था त्रण उकाले उकलेढुं पाणी वावरतुं शेष सर्वजलनो त्याग, इव्यमांचार इव्य मोकलां राख्यां एवीरीतें सुखे धर्मपालती पोतानो निर्वाह करे ने तेने नित्य श्रीजिनधर्म आराधतां थकां केटलोएक काल गयो. जैनधर्मने विषे दृढधर्माथइ देवता दानव इंश नागेंइ प्रमुख कोश्नी चलावी चले नही. ___ एकदा कोइ समकेतदृष्टि देवतायें सनामां बेटे थके पोताना मित्र मि थ्यात्वी देवता पासें नवानीनी प्रशंसा करी के बाजने समये जरतदेत्रने विषे कोइ नवानी सरखी दृढधर्मा श्राविका नथी ए पोताना प्राणजतां कबूल करे पण कोश्नी चलावी चले नही ए वातने ते मिथ्यात्वी देवता अगसदहतो थको तेनी परीक्षा करवानेअर्थ एक परदेशी माह्या विचद ण एवा वैद्यनुं रूप धारण करीने ते नवानीने घेर आव्यो तिहां अनुकं पायें सहित थइने कहेवा लाग्यो के दुं व्याधिना समूहनो वैरी हुँ माटेत हारो रोग जडामूलथी काढी नावीश हे वत्से ! ढुं को तहारा नाग्ये बां ध्यो यकोज इहां आव्यो . अने ताहारीमाटे अमृतवृदनां फल लाव्यो बुं तेने तुंआरोगीने वली बीजुं अमृत सरवू अति शीतल मीतुं पाणी मं त्रीने आपुं तेनुं पान करीने मूलथी रोगनो समूलो नाश कस्य. वली पा नवमां फरीने नवो रोग थाशे नही, शरीरमां सुखनी वृद्धि थाशे. एवं वैद्यनुं वचन सांनतीने जवानीनां माता पिता ना प्रमुख सर्व अ धिक आनंद पाम्यां. अने ते जेवामां कांइक बोलवानुं करतां हतां एवा मां तो नवानी बोली हे वैद्य ! आ नवनेविपे ए वे वस्तु माहरे अक ल्पनीय ने माटे ए बे वस्तु मूकीने महारे कल्पनीय वस्तु होय तो तुं क हे एवं सांजली वली वैद्य बोल्यो तें कह्यं ते सत्य ले तथापि औषधने अ अकल्पनीय कांइ नथी औषधने अर्थे तो महोटा ऋषियो पण वापरे जे तो तुजने एमां शो दोपले ? जो स्वादने अर्थे वावरती होय तो दोप लागे. . एवं वैद्यनुं वचन सांजलीने नवानी हसीने धर्मना रहस्यनी वाणी मुनिनी पेठे बोलती हवी के अधर्मथकी नपनी जे व्याधि तेना विनाशने अर्थ सफल डे हेतु जेहनो एवो निचे धर्मज बे. ते बीजरूप धर्मथकी फ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ल पामवानो अर्थी जीव ते केम बीजनो विनाश करे ? एवो मूढ कोण होय ! ते कारणमाटे जेम सूर्य पश्चिमदिशायें उगतो नथी ते कदाचित नगे तो पण ढुंनिषेधी वस्तुने अंगीकार करूं नही एम तुं निश्चयथी जाणजे. तेवारे वैद्य बोल्यो ए स्वेबाचारिणी कदायहें ग्रहीतचित्तवालीने झुं क हीयें ए तो पोताने पण जाणती नथी अने फोकट यात्माने बाले डे. ए तो कांश नत्सर्गमार्ग अने अपवादमार्गनी वात पण जाणती नथी. यतः ॥ सबब संजमं संजमाउ, अप्पाणमेव रस्किजा ॥ मुबच्च अश्वाया, पुणो वि सोही नया विर॥ १ ॥ नावार्थ:-सर्वथी संयमने राखवो अने संय मथी आत्माने राखवो रोगरूप घणे करीने शरीररूप लाकडामा खवाइ गयु ने रुडं अंग जेनुं एवी तुं व्याधियें प्राणने केन धरी शकीश? एवा रोगें करी ने केम पाखो जन्मारो निकलशे ? केम शरीरनो निर्वाह थाशे ? इत्यादिक अनेक प्रकारनां वचने करीने वैयें तथा स्वजनादिकें तेम वली नगरना लोके तेने समजावी तो पण जेम पाणी कल्लोलें करी तटने दवा जाय पण परनो तट नेदाय नही तेम जवानीना पण मनरूप वजनो तट ते वैद्य ना वचनरूप कबोलनी मालातप युक्तियेंकरी नेढायो नही एवी गते जगतने चमत्कार उपजावना एवं जवानीनु दृढ अंतःकरण देखीने ते दे वता तुष्टमान थयो थको पोताना रूपने प्रगट करीने वाह्य तथा अन्यंत रथी नवानीनी प्रशंसा स्पष्टपणे करतो थको देवता पोतानी दिव्याक्तियें करी जवानीना शरीरमांथी सर्व रोगने संहरतो हवो. वली रत्ननी वृष्टि करी पंचदिव्य प्रगट करी समकेत पामीने पोताने स्थानकें गयो. ते वखत वादले रहित एवा शरदकालना चंमानी कांति सरखी नवा नीना शरीरनी कांति प्रगट थइ, ते नवानी धर्मना माहात्म्यथी अतिशय शोनती हवी अहो धर्मनुं माहात्म्य ! जेनुं तत्काल फल प्रगट दीj,अनुन व्युं, प्रतीतिमां आव्युं तेथी ते सादात् धर्मर्नु माहात्म्य जाणीने जाण तथा अजाण एवा सर्व नगरना लोक धर्मने आराधवा लाग्या एवं प्रत्यद माहा त्म्य देखीने कोने प्रतीति न नपजे वारु ? प्रत्यद फल देखीने कोण बालस करे,प्राणनो अंत आवे एवं संकट पडेबते पण ते कुमरी कोश्वार सचित्त व स्तुने न आदरती हवी. ते गुणें करीने ते कुमरी जगत्ना चित्तने हरनारी थ इ,जगत्ने याश्चर्यकारी एवी थर,ते सौजाग्य अने शोनानां घररूप एवी न Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए३ वानीने जाणीने कोइ महेश्वर नामे महोटो व्यवहारीयो तेने परण्यो तेज वानी एवी ठकुराइ पामी बतां पण कांअहंकार न धरती हवी. तेनी संग तथी ते महेश्वर मिथ्यात्वी हतो ते जैनी श्रावक थयो. तेमने एक पुत्र या व्या पड़ी ते स्त्री जरतार बेदुजण ब्रह्मचर्य व्रत धारण करतां हवां जोगना समय अंगनो योग बते पण ते वेदु निःसंग नावे रह्यां, ए तेमनी जगत् मां आश्चर्यकारक वात यश पड़ी एवीरीते जेम ते दिवसेंदिवसें धर्मनेविषे वधते परिणामे थयां तेम ते लक्ष्मी करीने पण दिवसें दिवसें वधतां द वां. ते निःसंगनावनी स्पीयें करीनेज जाणे संपदा वधि होय नहिं ! हवे ते स्त्री जरतार पुण्यना सात देवमांहे इव्य वावरतां हवां तथा दरिड़ी दीन दुःखियाने देतां थकां पोताना वित्तनो जगतना उपकारने अ थे व्यय करतां हवा. जेवारें मुष्काल पडे तेवारें जे दातार होय ते अदाता र थाय अने महेश्वर तो पुर्निमां विशेष दातार थाय अथवा जे था दु दिमां पूर्व संग्रह करेलुं अनाज थापी दश तो पढ़ी ढुं हुं खाश्श! अथवा रोगादिक आवशे तेवारें झुं खाइश ! एम पण न जाणे. यतः ॥ संकुंचंत्यवमे तुबाः, प्रसरंति महाशयाः॥ ग्रीष्मे सरांसि शुष्यंति, कामं वारि धिरेधते ॥ १ ॥ जावार्थ:-तुब खबोचियां थोडामां संकोच पामे डे पण महोटा जलाशयो महाशयनी पेठे थोडामां पण विस्तार पामे . सरोवरो जनालामा सुकाइ जाय ले परंतु उनालामा समु अति वृद्धि पामे डे ॥१॥ __एम ते नवानी अने महेश्वर अंतःकरणथी अंगीकार करेला धर्मने पा लीने आयुष्य पूर्ण करी बारमा देवलोकनेविष देवपणे जइ उपन्यां तिहां देवतानां सुख नोगवीने ते नवानीनो जीव हे राजन् ! तहारा बहुबुदिना मा प्रधाननी पुत्रीपणें यावी उपन्यो ने अने ते महेश्वर श्रावकनो जीव बारमा देवलोकथी चवीने तुं शहां राजा थयो बो. हे राजन ! पाबला नव ने विषे सचित्त रसादिकना त्यागथी तथा दान पुण्यथी तुंआ राज्यशदि पा म्यो अने पूर्वे उर्निदने विपे लोकोने उपकार कस्या तेथी ए जवानीना जन्म मात्रथीज पुर्निद टव्योः एना प्रनावथी लोक सुखी थया. सर्वना रोग ग या. इति निवारी. ते ज्यांसुधी ए जीवती रहेशे त्यांसुधी कोइने रोग उप व थाशे नही माटे हे राजन् ! अतुल्यपुण्यवंत प्राणीना महिमायकी झुं न थाय. एवां केवलीनां वचन सांजलीने राजा प्रधान सर्वना संशय ट Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. व्या. अने सर्वपांखमी जे पूर्वे बकबकाट करता हता तेना गव टल गया. हवे राजा घणो आनंद धरतो घणा लोकनी साथें बहुबुद्धिनामा प्रधा नने घेर गयो तिहां माता सहित प्रधाननी पुत्रीने देखीने तेने पोतानी गो त्रदेवीनी पेरें मानतो हवो. ते पुत्रीनुं एवं माहात्म्य सांजलीने देशांतरथी घणा राजा श्रावीने तेनां दर्शन करी यानंद पामीने वली पोताना वरने विपे जागती देवीनी पेठे ते. नवानीनी मूर्तिने पूजीने संपत्तिने पामता हवा. ते पुत्रीपण जगतमाहे सौजाग्यादिक गुणेकरीने उत्कृष्ट होती हवी. जवानीनी वाणी अमोघ होती हवी केमके पाउले नवे रसना जीत्याय की ते जेहबुं बोले तहकुंज झानीना वचननी पेठे तेनुं बोल सत्य थाय, ते चार बुद्धि अने नोसकलानो नंमार थ६ गुरुतो सादीमात्र हता पण जाणे सर्वे पूर्व जणीनेज आवी होयनी ? एम पूर्वनवना पुण्यना व दयथी झुं उत्तन छे. एरीते ते नवानी जगतमा विद्यायेंकरी प्रतिम था. एकदा समये घणावादीयोमा वडेरो एवो कोऽक धूतवादी ते सा देश देशना वादीने जीततो, घणो अहंकार धरतो, घणा परिवारे परवम्यो यको राजसनामां आव्यो अने शरदऋतुना मेघनीपरे फोटक शब्दकरी वनि करी। कहेवा लाग्यो के हे राजन् ! तमारा राज्यनेविषे कोइ एवो वादी के जे म हारी साथे वादनी क्रीडा करे. अथवा ढुं वादियोने विपे धूमकेतु जंबो बुं. वादिनावंदने पुर्निद सरखो . वादियोनो कालरूप बु. जगतमां को एवो नथी जे महारी साथे वाद करे ? माटे हे राजन ! को प्रतिवादीने तेडावो के जे मने जीतीने महारा जीतेलां पुतला बोडावे अने महार। या गल हारे अथवा मने जीते एवो कोइ नहोय तो जीतनुं पुतलुं बंधावे. एवं सांजली राजायें प्रजातनो वायदो कस्यो तेवारें वादी पोताने नतारे याव्यो. __ पाब्लथी ते पंमित एवा राजायें बदुबुद्धि प्रधानने कह्यु के कोई वादी ने जीते एवो प्रतिवादी लश् आवो नहीं लावशो तो जगतनेविपे महारी अपकीर्ति थाशे एवं राजानुं वचन सांजली प्रधाने नगरमां पडहो वजडा व्यो पण ते पडो कोश्ये फरस्यो नही तेथी प्रधान चिंतातुर थको महोडी रात्रं पोताने मंदिर आव्यो तिहां पोताना बापने चिंतातुर देखीने नवानी पुन्युं हे पिताजी ! आज तमने एवडी आकरी चिंता शी ने ? तमे तो बहुबु ६ बोज. एवं नवानीनुं वचन सांजलीने प्रधानें जवानी आगल ते वादी Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. शशण्य श्राव्यानी वात कही तेवारे जवानी इसी मुख मचकोडीने बोली के कीट समान नर वादीनो महारी बागल शो याशरो बे. तेने प्रधानें कयुं ए धूर्तकलामांहे शिरोमणी बे. तेथी मुजने चिंता बे. जवानी यें कयुं हे पि ताजी ! ए चिंतायें सयुं. ए चिंता मुजने के हुं पडहो फरशुं बुं. एवं पुत्री नुं वचन सांगलीने ते रात्रियें प्रधान सुखें निायें सूतो. प्रातःकालने विषे जवानीने शणगारी सनामध्ये आणी थने ते वादी धूर्त्तने पण तेड्यो ते धूर्त्तवादी प्रधाननी पुत्रीने देखी अवज्ञा करतो विस्म य पामीने बोलतो हवो के गुं केसरी सिंहने मृगलानुं बालक जीतशे के ! हवे ए कौतुक सर्व समाना लोक जोवाने नत्सुक थया. पीते वादी प्र धाननी पुत्री संघातें संस्कृतवाणी यें करी सर्व सनाने याश्वर्य पमाडतो य ति तावजो को बोलतो हवो के तुं बालिका ढो? तेनी सार्थे इहां महारे महोटा शास्त्रोनी वातो करवी युक्त नथी, बालिकानी साथै प्रश्न उत्तरादिक नीशी क्रीडा करवी तो पण हे ददे ! हे निपुणे ! हुं तुजने कांइक प्रश्न करुं बुं जे महिकाना चरणघात थकी त्रण लोक केम कंपायमान थया ते नो उत्तर श्राप्य ? ते सांजली मंत्री पुत्री हसीने कहती हवी के उत्तम जीतने विषे त्रणजुवन चितराय ने तिहां कोई पाणीनुं कुंकुं नयुं होय तेमां ते चित्रामणनो प्रतिबिंब पड्यो ते माखीनी पांखना घातथी पाणी हाल्युं एटले to लोकनो प्रतिबिंब पण हाल्यो ते त्रण लोक कंपायमान थया कहेवाय, ते माटे ए वात युक्त बे. जेम तमारुं चित्त मारा कल्पित यादेपथी कंप्युं तेम एत्र लोको माखीना पगना ने पांखना प्रहारथी कंपायमान थया. एवो उत्तर सांजलीने सर्व आश्चर्य पाम्या. वादी पण चमत्कार पाम्यो थको चित्तमां विचारे बे जे रखेने ए मुजने जीती जाय, तो पण वली त्यंत कठिन एवो प्रश्न पुढं जे तिलधान्यने खूणे एक कीडीयें उंट प्रसव्यो त्यारे जवानी बोली के जो तुं मने जीतीश तो ते वात साची. वली तेणे प्रश्न पुग्यो जे वे स्त्री ने वे पुरुष थकी एक नर उपन्यो ते मांहे कालो ने बाहेर उजलो अने तेनुं देव एवं नाम ले पण ते देव नथी तथापि ते सर्वनो निरवाह साधक ने वली ते समुड् जेवो बे तथापि जलथी जय पा मतो रहे बे. तेनें पग नथी तो पण देशांतरे घणुं भ्रमण करे बे तथा ते मौनी बतां सर्व भाषा बोजे ने वली ते साक्षर बतां जड ने एवं वादीनुं Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ give जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. बोलवू सांजलीने नवानी बोली के ए तो लखेलो कागल लेख जाणवो. वली वादी बोल्यो के एक नर अने चार स्त्री ए पांचथी एक पुरुष । पन्यो ते दीधो थको महोटो शब्द करे, देहने विपे लाग्यो थको दुःख करे, कोने थाप्यो यको वैर करे, ए सानली मंत्रीपुत्रीयें कह्यु के ए वस्तु तमे मिथ्यानिमानी बो माटे तमनेज आपवा योग्य ले. तेवारें सनामांहेला उत्सुक लोके पोताने जाणवा माटे पूब्युं के ए वादीने शी वस्तु देवा यो ग्य कही,तेने कुमरीयें कह्यु चपेटो ए वादीने देवा योग्य ते सांजली स वलोक हस्या. हवे ते कुमरी बोली के हे वादी ! तुं शास्त्रनी रीतें प्रश्न पूब तेना उत्तर महाराथी न देवाय तो ढुं हारी ने तुं जीत्यो, अथवा दूं तुजने प्रश्न पुढे. तेनो उत्तर तुं आपे तोपण तुं जीत्यो अने दुं हारी अने जो त हाराथी उत्तरज न देवाय तेवारें तो तुं हास्यो कहेवाइश एवं कुमरीनुं वच न सांजलीने ते वादी पोताना मनमां अमर्प आणीने एकेवारें अतिविष म एवा बपन्न प्रश्न कुमरी प्रत्ये पूबतो हवो तेनां नाम लखीये .यें. १ स्वजना, २ प्रधान तुरंग, ३ सारथी, ४ झानि, ५ वादीचमांप्रधान, ६ सूपकार, ७ जुधारी, गणिका, ए प्रधानगायन, १० विप्रो, ११ धनवान कुविंदनुं नवन (धनिकवांकानुघर) १२ कण- सुनिद, (धान्यनो सुगाल) १३ ग्रीष्मकालमा जलधिना तट, १४ धूर्त, १५ पुनयमा सक्त, १६ धा र्मिकचित्त, (धर्मनेविषे मतिवाला) १७ वेद वित्, १७ दयालु, १ए शुनवे ला, २० पटह, २१ महासुनट, २२ असतीस्त्री, २३ वणकर, २४ महा वात,२५ वर्षाऋतुमां थयेलो वास,२६ मद्यव्यसनी, २७ अंतिमजलधिस्थि ति, ( स्वयं नरमणसमु,) २७ मबसंकुलतलाव, २ए अनुकूलपवनवाला व हाण, ३० अजापालगृह, ३१ जलधिमुख, ३श्परप्रार्थनापरमनवालो,३३ नित्यदारिश्यवाला, ३४ महासमुश्, ३५ हलवाहक, ३६ वधक, ३७ कुं नार, ३७ गिरिनदी, ३७ मरुनूमि ४० काश्मीरनूमि ४१ सिह ५२ महा जुम ४३ नृपस्थिति ४४ शतपदी ४५ नेरी ४६ फलितशालि ४७ श्रेष्टमंत्रि ४७ धूर्त्तमंत्री ४ए त्रण्यप्रथमनरक ५० नृपकन्यका ५१ प्रजारदक ५२ याचक ५३ सुगृहा ५४ कुपितसुनटो ५५ त्रिखिता ५६ वनोदेशिक ५ दिन ए पुढेला प्रश्नना शब्दो मागधी नापाना व्याकरणना नियम प्रमाणे सिह करी आप्या तथा तेनीअंदरना केटलाएक शब्दोनी अनेक अर्थनेविषे Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. श प्रवृत्ति थायले ते सघलुं स्पष्ट कर सूत्रयी साधी याप्युं तथा ते ५६ प्रश्नो ना नवानवा प्रकारें करी (१४३६) उत्तरो आप्या तेथी सघलाने अपार च मत्कार जेवुं लाग्युं ए रीते ते कन्या ते वादिनो पराजय करीने जरा हसी बी जीवार ते कन्यायें प्रति विषम प्रश्न पूठ्यो जेः- चित्रमत्रपयः पेया एवं व्यं जनवर्जिताः ॥ समीह्यते जनैर्नित्यमपिवर्गत्रयार्थिमिः ॥ अर्थः- पयः पेयाः ए शब्द व्यंजन वर्जित कर णवर्गना यर्थि. एवा जनायें ते निरंतर सारी ते वाय. हे वादि ! या श्लोकनो शो नावार्थ बे. यानो अर्थ करवामां नमास जेटलो काल लागे. त्यारे ते शब्दनो विचार करतां पण ते मतिमू ढ गयो पण अर्थ यथार्थ न थयो त्यारे राजाये कयुं के हे कन्ये ! तुंज तेनो स्पष्ट कर. त्यारे तेणे ते लोकनो अर्थ कस्यो ते सांजलीने ते वाद विवाद पाम्यो. त्यारपढी वली एक अद्भुतवात नवानी बोली के हे वादी ! मारो एक बुद्धिवालो प्रश्न बे हजी तेनो तुं उत्तर खाप्य तो हुं जाएं जे तें मुजने जीती एम कही ते प्रश्न कहती हवी. एक नगरमांहि जेना सर्व अंगनेविषे गुण जखा बे एवी एक राजानी पुत्री हती तेने को एक विद्याधर अपहरि गयो तेवारे राजायें पडह वजडा यो के जे कोइ ए कन्या मने लावी खापे तेने हुं ए कन्या खाएं तिहां कोइएक निमित्तियो बोल्यो के जे विद्याधर ए कन्याने लगयो बे तेनुं ठेकाणुं हुं जाएं बुं, पण महारामां श्राकाशमार्गे जवानी शक्ति नथी, तेवारें एक रथकार बोल्यो जे व्याकाशमार्गे रथमां बेसाडीने ते स्थानकें लइ जवानी महारा मां शक्ति ले पण लडवानी शक्ति माहारामां नथी तेवारें एक सहस्त्रयोधी बोल्यो हुं विद्याधरसायें युद्ध करीने तेने हणीने कन्या लावुं पण तिहां मुजने शस्त्र वागे माटे हुं जाइश नहीं तेवारें एक वैद्य बोल्यो के हुं व्रणसंरो Tata तहारो घा रुजवी नाखीश एम निर्णय करी ते चारे जण रथमां बेशी आकाशमार्गे विद्याधरने स्थानकें जइ युद्ध करी विद्याध रहणीने कन्याने इ याव्या पढी ते चारे जण कन्या परणवा माटे पोतपोतामां वढवा लाग्या माटे हे वादी ! ते चारमांहेथी ए कन्याने को परणे केवी रीते एनी वढवाड मटे तेनो निर्णय करी खापो. उक्तंच ॥ निमित्त रहगारो, सहस जोहि तहेव विद्योय ॥ दिन चहुं कन्ना, परणि या नवर इक्केणं ॥ १ ॥ नावार्थ:- निमित्तियो, रथकार, सहस्रयोधी, अने Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एG जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. वैद्य, ए चारे जगने कन्या दीधी पण ते कन्याने कोण परणे ? माटे जो तुं चतुर बो तो ते विचारीने कहे के ए कन्या कोने परणे? ते सांजली वा दीयें घणी वार विचास्यं पण तेनाथी नत्तर अपाणो नहीं तेवारें राजानी आझाथी कुमरी कहती हवी के हे राजन् ! ते राजानी पुत्री कोइ न जा णे एवी रीतें गूढ अभिप्रायथी ते चारेने कहेवा लागी के जे महारी सा थें अमिमां पडशे तेने ढुं परपीश एम कही चेह खडकावीने तेमां पड़ी ते वारें त्रण जण तो मरणथी बीहीना थका चेहमां पड्या नही मात्र एक निमित्तियोज निमित्नने बसें जाणतो थको घणा लोकोयें वास्यो तो पण कन्यानी साथेंज चेहमां पड्यो, तेने अग्नि सलगावी चेह बलवा लागीप ण कुमरीयें प्रथमथी सलंग करावी राखी हती ते सलंगने मार्ग थाने कु मरी सहित निमित्ति बाहेर निकली आव्यो अने महोटा महोत्सवे कुम रीने परण्यो. एम ते वादीने जीती निरस्कार करीने ते प्रधान पुत्री सघने लोके प्रशंसी थकी उत्सवसहित पोताने घेर गइ. केटलाएक दिवस गयानंतर वली पण एक धूर्त अल्पश्रुतने धारण कर नार रत्नजडित सुवर्णदंम हाथमां ग्रहीने नगरमां फरतो सर्वने कहे के मु जने जे को अपूर्व वार्ता संनलावे तेने आ दंम आपुं ते सांजली दम ले वा माटे घणा लोक तेने गमे तेवी अपूर्व वात कहे तो पण ते कहे के ए तो में सांजली ने एक वरवत तेने प्रधाननी पुत्रियें कह्यु के महारा पिता ये ताहरी पासें कोटी सोया स्थापण मूक्या वे ए वात में सांजली ने माटे ते वात जो तें सांजली होय तो कोडी सोनया आप्य अने नही सां जली होय तो या सुवर्णदं प्राप्य. एम कही तेनी पासेथी दामोल लीधो एवी रीतें अनेक प्रकार, पोतानी बुदिनु कौशल्यपणुं देखाडती ह वी तेथी सर्व कोइ जाणवा लाग्या के ए सरस्वतीज ने गुं! एवी ते कन्या सर्व लोकोने विस्मय पमाडती एक अहितीय आनंद पमाडती अनुक्रमें जरयौवन अवस्थामां आवी तेवारे अतिशय आनरणेकरी शोनती जाणे देव कुमरीज होयनी ! जाणीयें कंदर्पनुं शस्त्रज ले !'जाणीयें त्रण नुवननेविषे अनुत जाग्यनी लक्ष्मी डे झुं! एवी कन्या तेने परणवानी कोण वांबा न करे. एवी महोटी नाग्यवती, जगतना उपकारने करनारी जगतना उदरने जरनारी ते कन्याने राजा प्रधान प्रत्ये याचतो हवो. प्रधाननें पण तेना व Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. शण रनी चिंता हती जे मोंधी वस्तु दोय ते घणी मेनतें हाथ आवे ते जेवारें राजायें मागी तेवारें राजाने मूकी बीजा कोने देवाय एम विचारी शीघ्र ते कुमरी राजाने परणावी दीधी राजायें तेने पट्टराणी करी थापी जेम इने घेर इंशणी शोने तेम राजाने घेर ते शोनती हवी. ते राजा पण राणीना पुण्यप्रनावेंकरीने समग्र पृथ्वीनो स्वामी थयो सर्व राजा वी नमीने तेने ग्रास आपता हवा जेम विरतिपणाथी सर्व उष्ट इंडियो वश थाय तेम सर्व राजा लीलामात्रमा शीघ्रपणे वश थया ते राजा पण सर्व सुखी थया जेम श्राकाश फूलें करीने शून्य होय तेम ते स व राजाना देशो मारी मरकी आदिक सात इतिथेकरी शून्य थया तथा ते स्त्रीना महिमाथकी ते राजा चक्रवर्तिनी पेठे एकत्र राज्य जोगवतो हवो. जेम कपाली महेश्वर थयो, जेम जनार्दन पुरुषोत्तम थयो जेम देवलो कमां रुइ थयो तेम ते राजा एवी उत्तम स्त्रीने पामीने पण जेम नस्यो घट बलकाय नही तेम लगारमात्र अनिमान धारण करतो नथी. पली राजा राणी बेदु जणे विचायुं जे पूर्व आपणे सुकृत कस्यांबे ते थी आ शदि पाम्यां 3यें अने वली पण सुकृत करीशं तो पागल उत्कृष्टी संपदा पामीलं सुखी थश्गुं एम चिंतवी सर्व इंशीयमध्ये रसेश्यि जीतवी उर्लन ने तेम आपणे एनुं फल पण प्रत्यद अनुनव्यु ले एवं निरधारी राजा राणी वेदुयें सातमा व्रतनी दृढप्रतिज्ञा करी तथा ते राजा अने राणीना वचनथी पूर्वे प्रत्यद फल सांजव्यां ने अने वली सादात् नजरे दीवां वे एवा केटलाएक नगरना लोकोयें पण ते सातमुं व्रत अंगीकार कयुं पड़ी ते राजा राणी रुडी रीतें समकित सहित गृहस्थनो धर्म पाली अखंम रा ज्य जोगवी अंते चारित्र लइ तपस्या करी केवलज्ञान पामी मोहें पहोतां एम सातमुंबत पाले ते प्रधान पुत्रीनी पेठे सुरखी थाय. इति सप्तमव्रत कथा॥ ॥ अथाष्टम अनर्थदंम विरमण व्रत प्रारंनः । हवे त्रीखं गुणव्रत कहे जे जेणेकरी प्राणी पुण्यरूप धनने हरवे करीने दंमाय पापकर्मथी विशेषपणे लेपाय तेने अनर्थदंम कहियें. तिहां जे अर्थ प्रयोजने क्षेत्र वास्तु धन धान्य शरीर स्वजन परिवारादिकने अर्थ प्रयोजनें करवू ते अर्थदंम कहेवाय अने तेना अनावें अनर्थदंम कहेवाय, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ते अनर्थदंझना चार नेद ने पहेलो अपध्यान, बीजो पापोपदेश, त्रीजो हिंसाप्रदान अने चोथो प्रमादाचरित तेमां प्रयम अपध्यानना वे जेद ने पहेलु आर्तध्यान,बीजु रोऽध्यान,तेमां जे ध्यानयी चित्तने पीडा उपजे अ समाधि थाय ते आर्तध्यान कहीयें अने जेनाथकी जीवना संक्लिष्ट अध्य वसाय थाय भागला, मातुं चिंतवq थाय ते रोऽध्यान कहियें. हवे वली ते आनध्यानना चार नेद ने एक श्ट संयोग, बीजो अनिष्ट वियोग, त्रीजो रोगनी चिंता, चोयो देवें दानवेंना सुखनी अनितापा ते निया| करवू नया गैइध्यानना चार नेद कहे जेः-एक हिंसानुबंधि, वी जुं मृपानुबंधि, त्रीजुं स्तेयानुबंधि चोथु विषयसंरक्षणानुबंधि. तिहां अतिक्रोधादिकेंकरीने वैरीनो वध करको बंधन करवू नाक कर्णा दिक ले दवां, देशनंगादिक, चिंतन ते प्रथम हिंसानुबंधि रौऽध्यान. तथा बीजुं जूठी चाडी करे, जूनां बाल दे जेषकी अागला प्राणीनो घात थाय ते मृ पानुबंधि.त्रीजुं पारकुं इव्य हरवानी चिंता ते स्तेयानुबंधि. चोथु शब्दादिक विषय साधन धनरदार्थ कोइनो विश्वास न करे, वीजाने विश्वास देने तेनो घात करे तेथी कल्याण थाय एवं पुान ते विपय संरक्षणानुबंधि रौइध्यान कहियें. ए सर्व अपध्यानाचरित अनर्थदंम कहियें. २ बीजो पापोपदेश अनर्थदंम ते देत्र खेडो, उपनने दमो.घोडाने खा सी करो, शत्रुने हागो,यंत्र फेरवो,शस्त्र सङ करो,ए सर्व पापोपदेश कहियें. ३ त्रीजो वर्षाकाल नजीक आव्यो माटे खेत्रमा जाला घणा ने ते वा ली नारखो, हल सज करो, वावणी करवानो काल जतो रहे जे माटे शीघ्र पणे धान वावो, क्यारा जराणा ने साडात्रण दिवसमांहे व्रीही प्रमुख चो खा वय प्राप्ति थ तथा ए कन्या महोटी यएने तरत परणावो तया प्रव हण पूरवाना दिवस जाय के नांगा त्रूटा वाहाणप्रत्ये सऊ करावो इत्यादि सर्व पापोपदेश कहेवाय, अने हिंसाप्रदान तथा प्रमादाचरित रूप वे ने दमां घणुं सावद्यपणुं ते सूत्रकार पोतेंज वे गाथायेंकरी कहे : सनग्गि मुसल जतगं, तणक मंतमूल नेसले ॥दिन्नेदवा वि एवा, पडिक्क० ॥२४॥ पहाणवट्टण वन्नग, विलेवणे सह रूव रस गंधे, वासण आनरणे पडिक० ॥ २५॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०१ अर्थः-शस्त्र, अग्नि मुसल, उपलहाण थकी नखल हलादिक शकट घर टी आदिदेश्ने तथा तृणांना न्हाना महोटा रासडा वणवा दोरी बनाव वी इत्यादिकनुं हेतु दर्नादिक तथा व्रणते चातां क्रमि सोधवानां औषध तेमज सावरणी (बुहारी) अथवा काष्ट ते अरहट्टनी यष्टि लाकडी प्र मुख तथा मंत्र ते विषापहारनो अथवा वशीकरणादिकनो,अने मूल ते ना गदमनिकादिक तथा ज्वरादिकनी शमावनारी मूलिका तथा गर्नशातन पातनादिकने मूलकर्म कहियें. जेमाटे न्हवणो करवो ते मंगल, मूलकर्म बे ॥ यतः॥ मंगल मूलिन्हवणा, ३गप्न विवाह करण घायाई ॥ नव वण मूलकम्ममि, मूलकम्मं महापावं ॥ १ ॥ हवे नैपज्य ते संयोगिकव्यने उच्चाटनादिकहेतु एवां शस्त्रादिक अनेक प्रा गीना प्राणने हणवानां कारणनूत ने ते दादिण्यादिकने अनावे बीजा प्राणी ने देवू देवराव_ तेने विपे जे अतिचार लागा ते पडिक्कमुंडं इत्यादिपूर्ववत्॥२४ ___ स्नान ते अजयणायें संपातिम जीवाकुले संसक्त नूमिये गटणा पू र्वक अंगनुं धोवू अथवा अकालें जलां वस्त्र अणगल पाणीयें धोयां नित स्वां होय तथा त्रसजीवे संसक्त चूर्णादिकेंकरीनगटकां होय तथा अंगथकी उगटणुं करतां त्रसजीवे संसक्त एवा चूर्णादिकें करीने गरेडा ना ख्या होय तेनी उपर राख नाखी न होय तेवारे सुगंधथी तिहां कीटीका दिक घणा जीव यावे तेने वली श्वानादिक आवी नदण करे अथवा को इनो पग उपर आवी जाय तो तेथी ते सर्व जीव हणाय. तथा वर्णक जे कस्तूरिकादिक तेणेंकरी कपालादिकने मंमन करे तथा विलेपन ते चंदन कुंकुमादिकेंकरी ग्रीष्म हेमंतादिक नुष्णकालनेविपे शरी रे विलेपन करे तेमाहे कोई जीव आवीने पडे ए बेदु संपातिम जीवादि कनुं जयणाविना जे नाश कयुं होय ते. तथा शब्द ते वांसली वीणादिकना शब्द कुतूहलेंकरी सांजव्या होय, रात्रे उच्चस्वरेकरी शब्द कस्यो होय ते शब्द करवाथी गरोली प्रमुख मुष्ट जी वो जागीने तेणे मदिकादिक जीवोनी हिंसा करी होय अथवा शब्दथकी जागीने केटलाएक लोक जल अमि आदिकना आरंन करवामां प्रवृत्त, थया होय जेम दलनारी दलवाना कार्यमा प्रवर्ग,पाणियारी पाणी लेवा प्रव ते,व्यापारी व्यापारमा, कृषीकरनार कृषीमां, अरहवाला धरहहमां, तेली Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. घाणी फेरववामां, धोबी धोबीना काममां, लोहार लोहारना काममां, ए म माठी, कसाइ, वाघरी, हिंसक, चोर, कुंजार, चडीमार, थाहेडी, पर स्त्रीगमन करनार, कंदोई, व्यादिक सदु पोतपोताना काममां प्रवर्त्ते, परंपरा यें कुव्यापार प्रवृत्तिनी वृद्धि याय; तेथी महानर्थं उपजे. ए माटेज श्री जगवती सूत्रमां कोशांबी नगरीयें शतानीकराजानी बहेन ने मृगा तीनी नणंद जयंती नामे श्राविका तेथे श्रीवीरजगवान पासे "सुतंनंते साहुजा गिरिप्रत्तं" इत्यादि प्रश्न कस्या ते संबंध इहां कहे बे. हे जगवन् ! स्वापणुं नलुं बे ? के जागवापणुं ननुं वे ? तेवारें प्रभु बो व्या हे जयंति ! केदलाएक जीवने सुतापगुंज ननुं ने, अने केटला एक जी वने जागकुंज ननुं वे, केम के जे जीव अधर्मी वे, जेने धर्म वजन वे, जे धर्मनाज बोलनारा, अधर्मना जोनारा, अधर्मना लक्षणवाला, धर्मना स्वनावने डष्टाचारना समुदायवाला, ग्रधर्मे करीने आजीविका करता वि चरे तेवा जीवाने सुवापणुंज ननुं बे, केम के एवा जीव सुता थका घला जीवने, प्राणीने, नूतने, सत्वने, डुःख न उपजावे यावत् परिताप न उप जावे एवा जीव सुता थका पोताना यात्माने अने परने अथवा पोता नेने परने एटले वेहुने घणा धर्मपणासायें जोड़े तेमाटे हे जयं ति ! ते सुताज जला जाणवा. तथा हे जयंति ! जे धर्मिष्ट जीव यावत् धर्मनी वृत्ति कल्पता का वि चरे एवा जीव जे होय तेने जागवापगुंज ननुं बे ते जीव जागताथका घ एा जीवने, प्राणीने, नूतने, सत्वने दुःख नही देता यावत् परिताप न प माता का वर्ते एवा जीव जागता थका बीजा जीवाने यावत् धर्म सायें जोड़े ने ते जीव जागता थका मध्यरात्रिना समयनेविषे धर्मकरणी ना कार्यनुं जागरण करता होय माटे एमने जागवापशुंज ननुं बे. एम बलियापणामां, दुर्बलपणामां, दक्षपणामां, आलसपणामां इत्यादिक सर्व मां धर्मी जीव जागता नला बने अधर्मी जीव सुता जला जाणवा. एम वदेशना राजानी बहेन जयंतीये पूवेला प्रश्नना प्रभुयें उत्तर कह्याने ॥ इति. तथा स्त्रीयादिकनां रूप ने नाटकादिकने जोइने बीजानी खागल व. व्यां होय, अथवा रसें करी मिष्ट एवां अन्न शाकादिक सूखडी प्रमुख तेना स्वाद बीजाने वर्णवी देखाडे जे सांजलीने बागलाने पण रसगृध्रता • Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०३ थाय कर्मबांधवाना हेतु थाय, एमज गंध, वस्त्र, अशन, आनरणादिकनुं बीजानी पासें वर्णन करवू जेथकी ते सांजलनारने पण तृष्णाना हेतु थाय ए पांच प्रकारनो विषयलक्षण प्रमाद देखाड्यो. ते देखवाथकी तेज जातिना मदिराप्रमुख पांच प्रकारना प्रमादनो परिहार उत्तम जीवें करवो. यदादुः ॥ कुतूहलाजीतनृत्यं नाटकादिनिरीक्षणं ॥ कामशास्त्रप्रसक्तिश्च द्यूत मद्यादिसेवनं ॥१॥ जलक्रीडांदोलनादि विनोदोजंतुयोधनं ॥ रिपोः सुतादिना वैरं ॥ नक्तस्त्रीदेशराटकथा रोगमार्गश्रममुक्त्वा स्वापश्च सकलां निशां ॥ एवमा दिपरिहरेत् प्रमादाचरणं सुधीः॥३॥ विलासहासनिष्ठयूत निकलहष्कथाः ॥ जिनेश्नुवनस्यांत राहारं च चतुर्विधं ॥ ४ ॥ नावार्थः-कौतुकथकी गीत, नृत्य नाटकादिकनुं जोQ कयुं होय, कामशास्त्रनी आसक्तियेंकरी द्यूत म द्यादिक मांसादिकनुं सेवन कयुं ॥ १ ॥ जलक्रीडा करी, हिंचोलें हिंच्या, विनोदे जीव हण्या, शत्रुना पुत्रादिक साथै वेर कयां, नक्तकथा, स्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा करी ॥२॥ रोग मार्गनो खेद ते मूकीने घाखी रात्रिय सुइ रहे,ए बादिक प्रमादाचरण ते सघला पंमितजनें परिहरवां ॥ ३ ॥ विलास करवो, हास्य करवू, युंक, निश करवी, कलह करवो, माती वार्ता करवी ए सर्व श्रीजिनेश्वरना प्रासादमांहे वर्जवां अने अशन पान खादिम स्वादिम ए चार प्रकार पण जिनप्रासादमां टालवा॥ ४ ॥ तथा आलसनेलिधे घृतनां तेलनां अने पाणीनां नाजन रूडीरीतें ढांक्यां न होय, रूडो मार्ग मूकीने हरिकायनी उपर चाल्या होय, हरिकायनी उपर हाथनो फरस थयो होय, बतां निरवद्य स्थानक मूकीने हरिकायनी उपरे बेठा तथा उना रह्या तथा नील फूल अने कंथुआदिके आक्रमी ए वी जीवाकुल नूमीकायें वस्त्रादिक मूक्यां एतां पाणी नाख्यां ननां साम ण परतव्यां तथा अयत्नाथी कमाडनी नोगल दीधी होय, विना कारणे फलफूल पांदडां प्रमुख त्रोड्यां होय, खडी माटी गेरु आदिक हाथमां मसली होय, तापणुं कीg होय, गवादिकना महिषीना घातनेअर्थे शस्त्रा दिकनो व्यापार कस्यो होय नितुर वचन तथा कोइने मर्म वचन जाख्यां होय. हास्य निंदादिक कीधां होय, रात्रे दिवसें पण जयणाविना स्नान कघू, केश गुंथ्या, राध्यु, खाधु, खामधु, दव्यु, नूमी खोदवी, माटी प्रमु खनुं मर्दन अर्थात् गार करी, मर्दन करवू, लींपवू, वस्त्र धोवां, पाणी ग Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. लवाने विपे प्रमाद आचख्यो होय ए आदिक सर्व प्रमादाचरित जाणवां. तथा अयत्नायें लेष्मादिक नारखी तेनी उपर राख नाखी न होय तो अंतरमुहूर्तमां समुर्बिम मनुष्य जीव आवी उपजे ते समुर्बिम मनुष्यनी विराधना थाय तेथी महादोप लागे. श्रीप्रझापना नपांगनेविषे श्रीश्यामा चार्यजी महागजें कह्यं ने “कर्झनंते समुर्बिमामासा समुहंति गोयमा अं तोमणुस्स वित्त पणयालीसाइजोयणसय सहस्सेसु" इत्यादिक पाठनो अ र्थ कहियें बेये. हे नगवन ! समुर्विम मनुष्य किहां उपजे? हे गौतम ! मनुष्यदेवमांहे पीस्तालीश लाख योजननेविपे अढीहीपमां, बे समुह, पन्नर कर्मनुमित्र, बपन्न अंतरद्दीपने विपे गर्नज मनुष्य रह्यां ने ते मनुष्योना अशुचि स्थानके समुर्छिम नपजे ने. ते स्थानकनां नाम कहे :- व डीनीतनेविपे पासवणनेविपे, खेल मात्राने विपे, बडखानेविपे, नाकना प्रक्षेप्मनेविपे वातने विपे मलनेविपे पित्त नाखवानेविपे, वीर्यने विपे, वीर्य अने रुधिरने विपे, वीर्यना पुजल पड्या रह्या होय तेने विपे, जीवरहित क लेवरने विपे, स्त्रीपुरुपना संयोगनेविपे, नगरना वालनेविपे ए सघला अशु चि स्थानकें समुर्डिम मनुष्य उपजे तेनुं एक अंगुलना असंख्यातमो ना ग मात्र शरीर होय. ते असन्नी मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, सघनी पर्याप्तियें करीने अपर्याप्तो अंतरमुहूर्तने आनखेज काल करे ए सर्व स्थानक कह्मां. तेम बीजां पण ए संबंधि स्थानकनेविगे नपजे समुर्बिम मनुष्य अधिकरण जूत शस्त्रादिक तथा मलमूत्रादिक तेने रुडीरीतें जयणायें परतव्युं नही ते प्रमादाचरित अनर्थदंम जाणवो. संसर्गथकी केटला एक अशुचिनां स्था नक ते सर्व तेनी टीकामां कह्यां ने ए अधिकरणरूप पाम्यां एवां शस्त्रादि क तेनुं मेलq नाखवू ते पण प्रमादाचरित कहियें. जेमाटे श्रीनगवतीमां कयुं ले " पुरिसेणं धणुपरामुसइ” इत्यादि या लावानो अर्थः-पुरुष धनुपने स्पर्श करे, ईरकु बाणनो स्पर्श करे, करीने mचुं बाण नाखे ते बाण नाखे थके तिहां जीवने हणे हे जगवन ! तिहां जीवने केटली क्रिया लागे ? हे गौतम । ते पुरुपने पांच किया लागे अने वली जे जीवना शरीरथकी धनुप नीपन्यु जे ते जीवने पण ए पांच कि या लागे ने इहां आशंका करे ले के, कायाना व्यापारमाटे पुरुषने तो पांच किया था तेने कायादिकनो व्यापार पण जे एवं देखीयें बैये पण Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०५ जे जीवोना शरीरथकी धनुष नीपन्युं बे तेना जीवने केम तं क्रिया लागे ! ने जो अचेतन कायामात्रना संबंधथकीज क्रिया लागे एवं कहेशो, ते वारें तो सिद्धना जीवने पण ते क्रियानो प्रसंग याशे जेमाटे तेनी काया पण प्राणातिपातादिकनो हेतु याय बे. हवे गुरु उत्तर कहे बे के ते धनुपादिक जे जीवोना शरीरथी नीपन्यां ते जीवोयें पोताना शरीरने वोसराव्युं नथी ते कारण माटे तेमना शरी रथी यती पापक्रिया ते जीवोने चाली यावे ते. तेवारें शिष्य बोल्यो के जो पापक्रिया चाली खावे ने तो पुष्यक्रिया पण चाली याववी जोइयें. शामाटे जे ए चेतनना शरीरनां पुजलमांथी धर्मो पकरण जे पात्रमादिक बे ते जो बने तो तेवां सर्व उपकरण जीवरक्षा नां हेतु या ते पुण्य क्रिया सर्व जीवने चाली याववी जोइयें. हवे गुरु उत्तर कहे बेः-के हे शिष्य ! सांनव्य चेतननें जे पापबंध याय ते विरतिना परिणामथकी थाय बे ने ते अविरति चेतननुं शरी र े ते शरीरने चेतने वोसराव्युं नथी ने सिद्धना जीवने क्रिया लाग ती नयी केमके ते जीवोयें कर्मबंधना हेतु सर्वे खपावी नाख्या वे माटे ते मने कोई क्रिया लागे नही वली पुण्यतो तेवारें बंधाय के जेवारे पुण्यबंध ना हेतु होय तेवारें वंधाय, ते पुण्यबंधना हेतुतो जेना शरीरथी धनुष नी पन्युं ने ते जीवोने से नहीं. केमके ते विवेकशून्य बे तेमाटे पुण्य बंधाय नही पढ़ी तो श्रीवीतराग वचनथी जेम होय तेम सदहवं. ए जीवने संसारमां परिभ्रमण करतां ए जीवनां शरीर स्थानकें स्थान के मूकाणां ते शरीरोमांथी शस्त्रादिक नीपन्यां अथवा जीव पोतेंज जीव तां तां स्थान स्थानकें नवां नवां विविध व्यधिकरण करीने मूकतो ग यो एम जे जे नवनेविषे मूक्यां ते ते नवनां अधिकरानी तथा शरीरनां शस्त्रादिनी क्रिया ते सर्व, चेतनने चाली यावे . चेतननां शरीर तथा अधिकरण की जेटलो जीवोनो वध थाय ते सर्व चेतन जे वखत जे जव मां होय ते जवमां तेने पापकर्मनो बंध चाल्यो आवे छे. तेटलामाटे विवे की जीवें अंत अवस्थायें शरीर तथा अधिकरण सर्व वोसराववां. वली विवेकी जीव पोताने निघणा दिवादिक बलता होय तेने कार्य थ रह्यापी न उलवे तो तेपण प्रमादाचरित अनर्थदं कहेवाय. ३९ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. इहां शिष्य पूछे ले के अनि तथा दीवो उलवतां तो दोष लागे ने. गुरु कहे जे के एमां दोप स्वल्प ने अने जान घणो न शामाटे के लवतां थकां अमिना तथा पाणीना जीवोनी अल्प हिंसा थाय जे अने जो न उत्सवे तो घणा सजीव यावी अग्निमां पडे तेवारें त्रस तथा था वर जीवोनी हिंसा थाय माटे लान घणो ने एq जाणीने उलववानुं कह्यु जे. श्रीनगवतीसूत्रमध्ये “जेसेपुरिसे अगणिकायं निववि सेणंपुरिसे अ प्पकम्म तराए चेव नि" तथा दीवा उपरें ढांकणुं अवश्य ढांकबू, अने चूलो उघाडो न राखवो. चूला उपरें चंचो वांधवो, जो चंदरवो न बां। ये तो घणा दोपोनु कारण थाय ए पण प्रनादाचरित जाणवो. इहां चूला उपर चंश्वो बांधवो ते पर दृष्टांत कहे :- श्रीपरनगरें श्रीपेण नामे राजा तेने देवराज नामे पुत्र . ते जेवारें यौवनावस्थामां आव्यो तेवारें दैवयोगें तेने कोढगंग ययो ते मटाडवा माटे राजायें सा त वर्ष सुधी घणा औषधोपचार कस्या पण गुण थयो नही वैद्य सर्व थाकी ने वेगला रह्या तेवारें राजायें नगरमां पडह वजडाव्यो के जे महारा कु मरने करार करे तेने दुं अईराज्य बापुं ते सांनती ते नगरनां कोई म होटो श्रीबल्न अपर नाम यशोदत्त एवे नामें व्यवहारी वसे ने तेनी पुत्रः लक्ष्मीवती नामे मे ते शीलादिक गुणेकरी अलंकृत २ ते लीये पडह दव्यो. ते लक्ष्मीना हाथस्पर्शथकी देवराजकुमरनो कोढ गयो, यतः ।। यस्य स्मरणमात्रेण, सर्वाः संसारजारुजः॥ शरिरीणोविशीय॑ते. सोरं शान निपग्नवः ॥ १ ॥ जेना स्मरणमात्रयी सर्व संसारथी उपन्या एवा रोग ते प्राणीना विलय पामी जाय ते महोटो शीलरुप अपूर्व वैद्य जाणवो ॥१॥ ते कुमरनो रोग गयो तेवारे राजायें पोताना कुमरने यशोदत्त शेउनी पुत्री लक्ष्मीवतीनुं पाणिग्रहण कराव्युं अने कुमरने राज्य आपी पोतें दीदा लीधी. हवे देवराजकुमर न्यायें राज्य पाले डे एकदा समयनेविषे ते नगरना नद्याननेविषे श्रीपोटिलाचार्य श्राव्या. तिहां राजा सर्वपरिवार तथा नग रना लोक सहित पोटिलाचार्य ने वांदवा गया. वांदीने देशना सांजलवा माटे सर्व यथोचित स्थानकें वेठा. आचार्ये धर्मदेशना प्रारंनी देशना सांन व्यानंतर राजायें गुरुने पोतानो पाब्लो नव पूज्यो तेवारे गुरु कहेता हवा. वसंतपुर नगरें देवदत्तव्यवहारी रहेतो हतो तेना धनदेव, धनदत्त, Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०७ धनमित्र अने धनेश्वर एवे नामे चार दीकरा मिथ्यात्वी हता. हवे मृगपुर नगरनेविपे जिनदत्तशेठ परमजिनधर्मी वसे ने तेनी मृगसुंदरी नामे पुत्री ने तेने त्रण अनिग्रह ने एक परमेश्वरने पूजीने जमवू बीजो साधुने प्रति लानीने जमवु अने त्रीजो रात्रे न जमवं. अन्यदा ते व्यवहारीयानो चो थो पुत्र धनेश्वर को व्यापारनेअथै मृगपुर नगरनेविषे याव्यो. ते धनेश्वर तिहां स्त्रीयोना द्वंदमध्ये मृगसुंदरीने देखीने व्यामोह पाम्यो पण ढुं पोते मिथ्यात्वी बुं माटे मुजने ए परणावशे नही एवं विचारीने पोतें कपटें श्रावक थश्ने मृगसुंदरीने परण्यो. परणीने वसंतपुर नगरें तेडी आव्यो. तिहां धर्मनी ायें श्रीजिनपूजादिक सर्व करणीनो तेणे निषेध कस्यो तेथी मृगसुंदरीने तिहां त्रण उपवास थया तेवारे मृगसुंदरीयें गुरुने पुब्यु गुरुयें लानालान विचारीने का के हे वत्से ! तुं चूला उपर चंवो बांध्य के जेथकी तुजने प्रतिदिन पांच तीर्थनी यात्रा कस्यानो लान तथा पांच मु निने प्रतिलान्यानो लान घेर वे थशे. पडी ते मृगसुंदरीयें गुरुनां वचनें करी चूना उपर चंवो वांध्यो तेवारे श्वसुरे विचायुं जे ए वदुयें कां का मण कयुंजणाय ने एम चिंतवीने धनेश्वरने तेवात कही धनेश्वरे ते चंवो बाली नाख्यो तेवारें वदुयें बीजो चंवो बांध्यो तेपण धनेश्वरें बाल्यो एम सात चंवा बांध्या अने धनेश्वरें सातेय बाल्या. तेवारें वदुने ससरायें क युं था तमे शामाटे प्रयास करो बो तेने वहुयें कडं जीवदयाने अर्थे करी ये बेये ते सांजली तेनो ससरो रोप सहित कहेतो हवो के हे वत्से ! तमे तमारे पीयरे जाउ तेने वढुयें कयुं जेवीरीतें तमे बदामली मुजने त्यांची तेडी लाव्यां बो तेवीरीते सर्व मती पीयरें मूकवा चालो तो ढुं पीयरें जावं. तेवारे ते सर्व कुटुंब साथे लइ वहेलो तैयार करीने तेने पीयरे मूकवा ससरो पोते चाल्यो मार्गमां को गामे धावतां तेमना सगासंबंधियें तेमने प्रादुणां राख्यां तेणें रात्रं रसोइ तैयार करी तिहां सर्वजन जमवा बेठा व हुने घणुंये कयुं पण जमवा बेठी नही तेवारे सासु ससरादिक तेनां घर नां माणस पण जम्यां नही बाकी सर्व जम्यां ते प्रजातमां सर्व मूवेलां दे खाणां तेवारे तपास करतां ते अन्नना नाजनमांहे सर्पना कटका दीठा ते जोक्ने सर्वे जणें चिंतव्युं जे रात्रं धूवाडे करी अकलायो थको सर्पा रसोश्मां पडीगयो जे एम तिहां वहुयें रसोइ न खावाथी ते कुटुंबना माणसे Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. पण न खाधी ने सर्व बचीगयां तेथी ते बहुने खमाववां लाग्यां वहुयें कयुं के में पण एटलामाटेज चूला उपर चंड्वो बांध्यो हतो अने ते तमें जो चूला उपर चंडो बांधो तथा रात्रें न जमो तो तमोने कोइकाले एवो प राजव थाय नही एवो तेणें प्रतिबोध दीधो तिहां सर्वने जीवितदान मल वाथी ते बहुने मघनां साक्षात् कुलदेवीनी पेरें मानतां थकां पाठां पोता ने घेर याव्या तेना उपदेशयकी ते सर्व परमश्रावक थयां मृगसुंदरी ने धनेश्वर वेदु सम्यकप्रकारें धर्म प्राराधीने स्वर्गे गयां तिहांथी चवीने इहां वेदु राजा राणी यां बो. माटे हे राजन! तें पूर्वजे नवे सात चंड्वा वाल्या aala suit पचात्तापैकरी श्रालोयणायें करी घणां खपाव्यां तां तोपण शेप रयुं हतुं तेना उदययी सात वर्ष कोट रोग जोगव्यो जोगव्या विना कर्म याय नहीं कल्पनी शो कोडीयें पण अवश्यपणे शुभाशुन क कर्म जोगवुं पडे एवो गुरुनो उपदेश सांजली ते वेहुने जातिस्मरण उपन्युं तेवा पुत्रने राज्य देइ पोते चारित्र लइ वेदु जण देवलोकें गयां अनुक्रमे मोह पामशे. ए चंश्वो बांधवा श्राश्रयी मृगसुंदरीनी कथा || . तथा शोध्यां जल इंधन धान्यादिक वावरवां तेपण प्रमादाचरित क हियें तेनी जयला प्रथम पहेलावतनेविषेकही आव्या बैये. ए चार प्रका tata को केमके जो न करीयें तोपण को काम अटके नही ते अनर्थ कहीयें तेनां हेतु जे ध्यान ने रौइध्यान ले जेथी कांई वांबित सिद्धिन या परंतु नलटो चित्तने उद्वेग तथा शरीरनी कीणता तेम शू न्यता याय ने अत्यंत प्राकरा एवा दुष्कर्मनो बंध थाय जेथकी दुर्गति प्रा दिक अनर्थनी प्राप्ति थाय तिहां कटुक विपाक नोगवे नक्तंच ॥ श्रणवहियं मलोजस्स, जाय बहुयाई महाई ॥ तं चिंतियं च न लहर, संचि‍ पावकम्माई ॥ १ ॥ वय काय विरहिणवि, कम्माणं चित्तमित्त वि हित्राणं ॥ ई घोरं होइ फलं, तंडुल मव जीवाणं ॥ २ ॥ नावार्थ:जे अस्थिर मन थको घणा ग्राहट्ट दोहट्ट चिंतवे पण तेथी चिंतित वस्तु ने पामे नहि. उलटो ते जीव घणा पापकर्मने विस्तारे ॥ १ ॥ जे वचनें करी कis कहे नही, कायायें कोने हणे नही, केवल मात्र मनेंकरीनेंज farai कर्म बांधे ते जीव तंडुलमनी पेरे महा दुःख जोगवे ॥२॥ तथा अपध्यान याचरित अनर्थदंग टालवो एक क्षणमात्र पण चित्तने ३०८ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०ए विषे न धारवो. तेने माटे मन वश करवानो उद्यम करवो मनवश करवाने एवी जावना धारवी ॥ नक्तंच ॥ साढूण सावगाणय, धम्मेजो कोई विरो नणि ॥ सो मण निग्गह सारो, जंफलसिदित जणिया ॥ १॥ नावा थः-साधुना धर्मनेविपे, श्रावकना धर्मनेविपे, जे को विस्तार को होय तो तिहां मननो निग्रह करवो मन जीत, एहज सार ले तो तेनुं फल सिम थाय ॥ १ ॥ मन, धर्मध्यान तथा शुक्तध्यानमांहे प्रवर्तन करवू ॥ यतः ॥ यत्नात्कामार्थयशसां, कृतोपिनिष्फलोनवेत् ॥ धर्मकर्मसमारंन, संकल्पोपि न निष्फलः ॥ १ ॥ नावार्थः--काम, अर्थ अने यशनो यत्नेक रीने संकल्प कस्यो थको पण ते संकल्प निष्फल थाय अने धर्मनी करणी ना प्रारंजनो संकल्प ते कस्यो थको पण निष्फल न थाय ॥ १ ॥ ___ पापोपदेश अने हिंसा प्रदाननो नपदेश तो नाइ, पुत्र, स्त्री मित्रादिक ने दाक्षिण्यताथी देवो पडे, अधिकरण पण देवू पडे, तेमाटे एनाथी टल बुं महापुष्कर ने तो पण स्वार्थ विना पापोपदेश तथा पाप अधिकरण न देवां केम के तेथी अनर्थ थाय माटे अनर्थदंमनुं फल जाणवू ॥ यउक्तं ॥ लौकिकैरपि ॥ न ग्राह्याणि न देयानि पंच इव्याणि पंमितैः ॥ अनिर्विपं तथा शस्त्रं मद्यं मांसं च पंचमं ॥ १ ॥ वली लौकिकमां पण कर्तुं वे जे समजु मनुष्यें पांच वानां लेवां नहि तथा देवां पण नहि ते \ के. अग्नि, विप, तथा शस्त्र, मद्य, अने पांचमुं मांस तेटलां लेवां देवां नहि. . प्रमादाचरितने विपे पण फोकट अजयणादिक निमित्तें हिंसादिक दोष लागे ते कहे जेः- जेम पेट नरवामांहे वेदु बरोबर ने पण तेमां एक पं मित अने एक मूर्ख ए वेनुं प्रांतलं जून केटलुं ने तथा एकने नरकनु छः ख ने अने एकने शाश्वतां सुख ने तेम इहां पण जे कार्य करवू तेमां जे जयणा करवी ते पंमित अने शाश्वता सुखनी माफक चडती जाणवी, अने जे कार्य जयणाये रहित करवू ते मूर्ख अने नरकगामी बराबर समजवो; मा टे जयणाविना जे कार्य करवू तिहां सर्वत्र अनर्थदंम थाय तेथी दयावान श्रावकें सर्व व्यापारनेविपे समस्त शक्तियेंकरी जयणानेविपे यत्न करवो केम केजयणा ले ते धर्मनी माता ने, जयणा ले ते धर्मनी पालक , निचे जय एगा ते तपनी वृद्धि करनारी ने अने एकांत सुखनी करनारी पण जयणाले. हास्यपणे वाचालादिकें पण अनर्थदंम थाय ने जेथकी आ नवमां प Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. ण आकरां वैर बंधाय माटे हास्य करीने मुखनुं लबाडपणुं गमवू जेम कु मारपाल राजाना बनेवीने दास्यतुं वचन अनर्थकारि थयुं ते कहे : कुमारपालनी बहेनने तेने वरे जूगटे रमतां हास्यथी कह्यु के मार वि रतियाने माथे अथवा मार मुंमियाने माथे ते वचनथी कुमारपालनी बहे ने रीसाइने प्रतिज्ञा करी के जो ढुं कुमारपालनी बेहेन रबरी हो तो ए वचनथी तहा। जीन कढाईं एवी प्रतिज्ञा करीने कुमारपालने घेरावी रही पनी कुमारपाने बनेवी साथे युछ करी बनेवीने जीती पकडीने जीन काढी एटनो अनर्थ थयो, माटे विवेकी जीवे हांसी न करवी. कारण के प्रयोजनें बोलवानां पाप करतां विना प्रयोजनें बोलतां घणां पापकर्म बं धाय. यतः ॥ अहेणं त न बंध, जमनहेणं तुचव बदु नाव ॥ अठोकाला इआ, निया मग्ग नन अणहाए ॥ १॥ ए कारण माटे विवेकी जीवें चारे प्रकारनो अनर्थदंम सर्वथा त्यजवो. शेप अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ २५ ॥ हवे ए अनर्यदंम विरमणव्रतना पांच अतिचार कहे जेःकंदप्पे कुक्कए, मोहरि अहिगरण नोग अरिते। दंममि अणहाए, तश्यंमि गुणवए निंदे ॥१६॥ अर्थः-१ प्रथम कंदर्प ते काम तेनो हेतु ते संबंधि वचन,जे वचनथ की कामविकार नत्पन्न थाय रागादिक विकारने दीपावे एवं हास्यादिकर्नु वचन बोलq ते प्रथम कंदर्प अतिचार. २ बीजो कौकुच्य ते व्रगुटी, नेत्र, उष्ट, नासिका, हाथ, चरण मुखादि क तेना विकार सहित हास्यनुं जणावनाकै एवं विटलना बोल जेवं कुचे टानुं वचन जेयकी पोताने तथा परने व्यामोहता उपजे एमां पोना, ल घुतापणुं जणाय एवं कुचेष्टानुं कुवचन श्रावकने बोलवू युक्त नही पण शहां प्रमादथी बोलाइ जाय ते प्रमादाचरण थाय एटलामाटे ए अतिचार ने, ए वे प्रमादाचरितरूप अनर्थदंमव्रत त्यागरूप अतिचार जाणवा. ___३ मौखर्य ते वाचालथइ बहु असंबद वचन जाखवं. तेथी पापोपदेश नो पण संनव थाय तेमाटे अतिचार कहेवाय ए मुर्खपणुं प्रायः सर्वने अ निष्ट थाय अने एथी पोताना कार्यनी पण हाणी थाय. वली एथी आप दा पामे माटे एने विशेष अनर्थदंम कहियें. यमुक्तं ॥ बहूनां समवाये हि, Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. 322 सिद्धे कार्ये समं फलं ॥ यदि कार्यविपत्तिः स्यान्मुखरस्तत्र हन्यते ॥ अर्थ:घाना समुदायमा कार्य सिद्ध थाय तो सरखं फल थाय ने जो कदि ते काममां कां विपत्ति यावे तो तेमां जे मुखर (वाचाल ) होय ते पहेलां हाय बे. वली जेनो वोलको स्वनाव होय ले ते मुखर प्रसंग विना पण वखतें बोले तेथी तेनी प्रीति थइ जाय इत्यादि मुखरतामां घणा दोषो बे. अवसरे बोल, अवसर विना बोलवु नही जे अवसरविना बोले ते य कुं थाय तेमां प्रतीतप्रमुख घणा दोष जाणवा. यतः ॥ यवियालिय प वावं, परचित्त मलरिककण जं नयिं ॥ किंपावरय यतत्तो, विदुत यन्नंपि लोमि ॥ १ ॥ जावार्थ:- अवसर जाण्याविना, पारकुं चित्त उलख्या विना, जे कयुं होय, बोल्युं होय, ते अन्यलोकमांहे पण दुःखदायक होय ॥ ३॥ ४ तथा अधिकरणनो संयोग जोडी मुके ते श्रात्माने नरकादिक गतिना हेतु थाय संयुक्त करी राखेला एटले कार्य क्रियामांहे सक करी राखेला अथवा संयुक्त एक अधिकरणें सहित बीजुं अधिकरण जाणवा जेम सांवे लुं ने उखल वे नेलां तैयार करी राखवां तथा उखलानी साथे मुसल, हलनी सायें फाल, धनुपनी सार्थे वाण, शकटनी साथे धोंस, वाटवा नी क्रियाने विषे निसातरो, कुहाडाने विषे हाथो, घंटीने विषे घंटीनुं पड, इत्यादिक संयुक्तनो जे नाव ते संयुक्ताधिकरण कहियें. विवेकी प्राणीयें धु रथीज एवां धिकरण तैयार करी राखवां के जे काममांज न यावे जे ज़े वा यावे तेने नाकारो तो कहेवाय नही तेवारें दाक्षिण्यतानेलीधे तेवां कऊ होय ते देखाडे के जे जोइनेज लेवा यावनारो पाठो वली जाय पोताने नाकारो कहेवोज पडे नही. तथा वली मि पण ज्यांसुधी पोताना घरमां काम होय त्यांसुधी रा खे पछी उलवी नाखे तो कोइ लेवा पामे नही. ने पहेलो प्रज्वलित क वो ते पण बीजा पाडोसी प्रमुख करे त्यारपढी पोते करवो पण आागल श्री करवो नही. चरवाने माटे गोचर मूकवुं तथा हल गाडां खेडवां करवां, गृहादिक बांधवानो आरंभ तथा बाहेरगामे जवं इत्यादि कार्य पण प्रथम पोतें पल करीने न करवां, कारण के अधिकरण प्रवृत्त्यादिकनो प्रारंभ थाय. यतः ॥ कार्येऽशुशुभे वापि प्रवृत्तियैः कृतादितः ॥ ज्ञेयास्ते तस्य कर्त्तारः, प श्वादप्युपचारतः ॥ १ ॥ सुन के कार्यने विपे जेयें पहेलां प्रवृत्ति Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ - जैनकया रत्नकोप नाग चोयो. करी होय ते ते कर्मना कर्ता ने तथा पतीथी नपचार करनाराने पण न शुना गुन कर्मनो पुण्यपापादि नाग लागे ने. ए हिंसाप्रदान परिहारनो अतिचार । ५ नोगातिरिक्तता नपनोग अने परिजोगनी वस्तु ते स्नानमः जांजन मांहे, वस्त्रादिकमांहे, योग्यतायी अधिक करवं ते; जेम सरोवरने । स्नान दिक करवा जाय ते अवसरे तेल, आमलकादिक वस्तु पोतानी सायें वष करतां अधिक लइ जाय जेम तिहां वीजा उनेला होय ते पण याचना करी तेनी पासेथी ते चीज लश्ने स्नानादिक करवामां प्रवर्ने तेथी अनर्थ दंम थाय. श्रीयावश्यकचूर्णिमांहे स्नाननो विधि कह्यो ले ते आवीरी के गृहस्थे प्रथम तो घरने विपेज स्नान करवू कदापि घेर स्नान करवू न बने तो पण तैल आमलादिक मस्तकें घर्षण करीने पनी ते सर्व खंखेरी मारने पडी सरोवरें जइ कांठे वेसीने पाणी गलं अंजलिये करीने स्नान करे अ ने घरनेविषे पण स्नान, नोजन, तांबूल. प्पादिक इत्यादिक जे उसका ते अल्प राखवां तेज गुणनां हेतु . यमुक्त।सकलम पस्करमधिकं,मतिमान स्वगृहेऽपि कारयेन्नैव ॥ मात्राधिकोपकरणे, झेकः पाए समाच लि ।। मतिवाला पुरुषे पोताना उपयोग करतां वधारे कोई उपकरण, राख, न हिं वली पोताने घेर पण तेवी वस्तुनने तैयार न करावे कार के उपयोग करतां वधारे चीजो राखवाथी बीजा लोको पण पापर्नु आचरण कर ले. तथा जे फूल फल पत्रमाहे कंथुथा प्रमुख जीवनी विराधना यती हो य ते फूलादिक परिहरवां. ए प्रमादाचरितनी विरति वालाने पांचमो अ तिचार जाणवो. ए अनर्थदंम नाम् त्रीजा गुणवतने विपे थयेला अतिमा र निउँ बु. बालो बु. इत्यादि पूर्ववत् ए बबीशमी गाथानो अर्थ ॥२६॥ ए व्रतनेविषे दृष्टांतमाटे वीरसेन अने कुसुमश्रीनी कथा कहे :सर्वसमृध्येि सहित एवो कनकशाल नगरनेविपे हरिकेसरी नामें राजा ह तो तेनी प्रीतिमती नामे राणी हती जे शीकरीने सती अने बाला करी प्रिय हती तेने वीरसेन नामें पुत्र थयो,तेना गुण गौरवनो पार नथी. ते कुमर, पुरुषनी बहोतेर कलानो पारगामी ,सर्व कोइने पूज्या योग्य वे ते यौवनावस्था पाम्यो जे हवे रत्नमय एवा श्रीजिनप्रासादें करीने मनोहर एवं रत्नपुर नामे एक नगर हतुं तिहां न्याय अने पराक्रममांहे धीर एवो र Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३१३ णधीर नामे राजा तेनी रत्नावली नामे स्त्री हती ते संताननी चिंतायें करी घणी दुःवी थवा लागी तेथी तेणें संतान प्राप्ति माटे सेंकडो नपायो कस्या तेवारें पूर्वकत सुरूतना योगें तेने कुसुमश्री एवे नामे एक पुत्री थइ. ते रूप लावण्य शीलादिकगुणेकरी अति अभुत थइ, ते चालती थकी जाणे कंद पनी थावर नही पण जंगम राजधानी होयनी तेवी ले ते यौवनावस्था मां आवी एटले तेना पिताने वरनी चिंता- चपनी.. ___ एवामां चरपुरुपना मुखथी सांजव्युं जे रूपेंकरी कंदवतार जेवो वी रसेन कुमार ते कुसुमश्रीने योग्य वर जे ए वात सांजलीने सुरसुंदर नामे निपुण प्रधानने राजायें कनकशाल नगरें वर जोवा माटे मोकट्यो. ते प्र धान पण त्यां कनकशाल नगरमां जश् लक्ष्मीने रहेवाना घररूप एवा वी रसेन कुमरने देखीने रीज पाम्यो अने कन्यानुं वेशवाल कयुं. वीरसेन कु पर पण पितानी आझा लइ प्रधाननी साथें रत्नपुरने विपे याव्यो. तिहां राजा महोत्सव सहित वीरसेनने कुसुमश्रीतुं पाणिग्रहण करावतो हवो तेवारें चोरीमा कुसुमश्रीयें गुप्तपणे वीरसेनने कह्यु के तमे हाथ मूकाववा ने अवसरें देवतानो आपेलो देव अदृश्य अश्व मागी लेजो वीजो पव्यंक अने त्रीजो शुक ए त्रण वस्तु जो बीजा कोश्नी जरुर नथी. ते अश्व कहेवो के के जे स्थानके आपणने जq होय ते स्थानक, नाम देने हं कारी तेवारे देवताना विमाननी पेरें तिहां जश्ने मूके. तथा पट्यंकनी पासेथी जे वांबित मागीये ते आपे, थाक श्रम सर्व टली जाय देवशय्या नी पेठे सुखें निश आवे, स्वामीने अर्थ पवाडे चाल्यो आवे, तथा शुक ने ते चूडामणी प्रमुख शुकनशास्त्रनो जाण, घणो माह्यो, निमित्तशास्त्रनो जाणनार, आपदामां धैर्यने देनारो ने एम ए त्रणेय वस्तु रत्न जेवी जगत मां मलवी उर्जन ने माटे तमे ए त्रण वस्तु मागी खेजो. कुमरें पण तेमज ते त्रणेय वस्तु मागी नीधी तेवारें राजायें विचायुं जे ए त्रणे वस्तुनी वा र्ता निश्चें महारी पुत्री विना बीजो कोई एहने कहे नही ए महारा घरना रहस्यनी वात पुत्रीयेंज कहेली ने माटे में एने पालीने महोटी करी प ण आखर पारकीज जाणवी घरमांथी जतीथकी सर्व पितानी दिलेश्ने जाय एवं चिंतवीने जो पण ते त्रणे वस्तु राखवा योग्य वे तो पण कांड क पुत्रीना स्नेहयकी कांइक लहाथका जेम गुरु नव्य जीवने रत्नत्रयी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. आपे तेम राजायें त्रणे वस्तु वीरसेन कुमरने आपी. पड़ी कुमर केटला एक दिवस तिहां रही ससरानी रजा मागी घेर जवानी सामग्री तैयार करी प्रथम सर्व सन्यने मोकली दीयो अने कह्यु के तमें आपणा नगरना नद्यानमा रहेजो ते संकेते ते पण प्रस्थान करता हवा पालथी कुमर घोडा पर प्रारूद थश्ने तेनी पडवाडे कुसुमश्रीसहित पव्यंक बांध्यो अने हाथमां शुक लीयो पनी वीरमेन हंकारतो हवो त्रण रत्न अने न ली कन्या तेनी प्रामिनी प्रीतिने अतिशय वशवर्तिपणे कुमर ब्रांतियेंकरी कनकशालपुरने वदने एबुं बोल्यो के हे अश्व ! तुं कुसुमपुरना नद्याननेविपे जा एम कहेतांज ते तुरंग गरुडनी पेरें याकारों नमीने तेहज दणमां हजारो योजन पृथ्वी उलंघतो शीघ्रपणे कुसुमपुरना नद्यानने विपे जा रह्यो. ते नद्यान महा विहामणुं देखाय ले जेम अटवीने विपे जनावरोना न यंकर रोड़ श्राकरा बिहामणा शब्द सांजलीये तेनी पेठे त्यां पण एवा शब्द सांजलतो हवो तेवारें गुकने पूडतो हवो के हे शुकराज ! आपणे हां क्यां निकली अाव्या तेने शुकें कह्यु के हे कुमर ! तमे पोते अश्वनी आग ल कुसुमपुरनुं नाम दी, तेथी आ कुसुमपुरना उद्याने आव्या अने आ नगर शून्य रे तेथी जयंकर शब्द जनावरोना संजनाय ने एबुं पोपटर्नु व चन सांजली कुमर पोताना प्रमादने निंदतो हवो. पनी कुमर नूरख्योथको तलाइ रहित एवा पव्यंकनी पासेथी निःशंक एवा शुकना वचनथी चिंता मणीरत्ननी पेरें नोजननी याचना करतो हवो एटले पल्यंक पण तत्काल वांडित नोजन आपतोहवो तेवारे ते कुमर स्त्रीसहित जमीने पान खादिम स्वादिम मागी ते पण आरोगीने वली सूडाने खावा योग्य तथा तुरंगने खावा योग्य मागी सर्वने जमाडीने पव्यंकना प्रनावथी ताजा कस्या. पली कुमर कौतुकथी नगर जोवाने निकटयो पण माहे जतां जयंकर शब्द सांजलीने गयो नही परंतु नगरनी बाहेरज जेनो प्रत्यद महिमा ने एवं पादेवी, नुवन डे तेनी जगतीयें रहीने देवी- देहरु जोतो हवो ते नो सुवर्ण मणिमय गढ , सर्व वस्तुयें परिपूर्ण , सर्वमां सारनृत एवं नगरनी बाहिर देवीनू नुवन देखीने कुमर सुडाप्रत्यें पूजतो हवो के हे शु कजी! शा कारणथी या नगर शून्य थयुं हशे? तेने सूडायें कह्यु के को श्क देवीना कोपथी नगर शून्य थयुं जणाय डे वली ज्यारे ते देवी वसाव Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३१५ शे तेवारें बसशे. पण हुं निमित्तने बजें करी एटलुं जाएं बुं जे या नगर नो राजा तुं थाइश तेवारें ए नगर फरी पाबुं वसशे. त्यांसुधी नजड रहेशे. एवं सूडानुं कौतुक कारी वचन सांजलीने कुमर अत्यंत हर्ष पाम्यो एम सूडासार्थे वातो करतां सूर्य अस्त थयो. अने अंधकारनो प्रसार थयो ते वखत सूडो कनशास्त्राने बजें बुद्धिथी विचारीने कुमरने कहेतो दवो के रात्री अंधारी माटे वे पहोर पर्यंत तमे जागता वेसो ने वे प होर पर्यंत हुं जागीश केम के या नगर शून्य बेखने वली या त्रण वस्तु पामवी पण दुर्लन ले तथा महारा धारवा प्रमाणे आज कांइक तुजने वि न पण थवानुं वे एटलामाटे यापणें सावधानपणे रहेतुं, कारण के जागता ने कोइ जय न होय ॥ यतः ॥ उद्यमान्नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पात कं ॥ मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो जयं ॥ १ ॥ जावार्थः - उद्यम थी दारि नाश पामे, जपथकी पातक नारा पामे, मौन धारण करवायी कलह जाय ने जागतां थकांने कोइ नय न थाय ॥ १ ॥ माटे जागताने उपाय करवो सुलन थाय जो विघ्नमांहे पीड्यो होय तो पण नयने स्थानकें सुतेलो पुरुष घणो वगोवाय. एवं सूडानुं वचन सांजलीने कुमर तथा कुमरी वे प्रहर रात्रि लग सुखें निशमां सूतां ने सूडो वे पहोर पर्यंत जागे बे रूडा काममां को यास करे शय्याना प्रजावें वे प्रहर सुखमां निश करी बेहु जाग्यां ने कुमर सावधान थको रह्यो तेवारें सूडो जेम पंथें थाकेलो नंघे तेम नंध्यो. एवामां पाइदेवीना भुवननेविषे दिव्य नाटक संगीतनो ध्वनि थयो ते सांजली कुमर प्राश्वर्य पामीने जोवाने उजमाल थयो तेवारें पोतानी स्त्री ने तहां सावधान बेसाडी पोतें देहचिंतानो मिश करीने नाटक जोवा यो तिहां तंत्री वीणा तालादिक घन मुरजादिक सुपिर वंशादिक एवां चार प्रकारनां वाजित्र वागे वे जिहां श्रीराग प्रमुख व राग, पट् नापा, ब त्रीश रागणीयें सहित, खडजादिक सात स्वर, यक्तं ॥ पड्जंमयूरानुवते गावस्त्वृपननापणाः || जावदंतिगांधारं, क्रौंचः क्वपति मध्यमं ॥ १ ॥ पुष्प साधारणे काले पिकः कूजति पंचमं ॥ धैवतं प्रादुरश्वाश्र, निपादं ब्रुवतेगजाः ॥ २ ॥ स्वरानुगास्त्रयोग्रामा, मूर्खनाएकविंशतिः ॥ तानाएकोनपंचाश, न्मात्रा स्तिस्रस्त्रयोजयाः ॥ ३॥ चतुर्द्धा रूपकं त्रेधाऽप्येकतालोद्विधा पुनः ॥ रासाष्ट Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. तालकाश्चैव, निसारुचकमातकाः ॥॥ मातकः पडिधोधूया, निधः शोडशनेद नृत् ॥ त्रिधासुंमपुंचकः करणीयाकर्त्तनीतथा ॥ ५ ॥ इत्यादिक नाटकना नेद घाणा ने इहां केटला एक लखाय एवं देवता संबंधि अत नाटक सांजलीने कुमरनुं मन खेंचा| तेथी तिहां जोवा ग यो मनुष्यनुं नाटक देखीने मनुष्य जोवानी चाहना करे तो देवतार्नु नाट क देखीने मनुष्य जीवानी चाहना करे तेमां कहेज ? हवे कुंवर नाटक जोवा गयो पाउल कुंवरीने एकलां वेतां थकां नंघ आवी एवामा देवयोगथी घोडाने अने पल्यंकने कोइक बलने विषे माह्यो एवो चोर उल जोड्ने लइ गयो. जे बने करीने लइ जाय तेनी कोइने खबर पडे नही. एवामां पाउली रात्रिये अंधारें सूडो जाग्यो तेवारें सूडे कुमरने तथा पव्यंकने अने घोडाने ए त्रणेयने न दीठा. एकनी कुमरीनेज उपती देवीने बम पाडी. ते बम सांनतीने कुमरी जागी नठी इहां कुमर पण जेटले नाटक जोवा गयो तो तिहां नाटक पण कां दीतुं नही नाटक तो इंजालनी पेठे अदृश्य था गयुं तेबारे ते पण पाबो वली ब्रूम सांजलतो पोताने स्थानकें आव्या त्या पत्यक अने घोडाने न दीना. तेवारे विनरवो यश्ने विचारवा लाग्यो के अहो महारं प्रमादिपएं जून, महारी मूर्खता जून, धिक्कार पडो महारा मूढपणाने के सूडे मुजने कडं हतुं जे आज तहारे विघ्न थशे तेथी तुं सावधान रहेजे तो पण महारा चित्तनुं व्यापपणुं तो जू जे नाटक सांजलवायूँ मुजने मन थयु जेथी में महारा स्वार्थनोभ्रंश थतो पण दीतो नही. पोताना कार्यनेविपे प्रमादी थयो. माटे हे जीव ! ए तो तुजने स्वल्प ययुं ले पण प्रमाद आ जवने विपे पण स्वार्थनी हानि करनारो अने परनवने विपे अनंत दुःख नी खाणरूप ले ॥ यतः ॥ प्रमादः परमोईपी, प्रमादः परमं विपं ॥प्रमादो मुक्तिपुर्दस्युः, प्रमादोनरकायनं॥ नावार्थः-प्रमाद ते मोहोटो शत्रु ने तथा प्रमाद मोटुं विष ने वली प्रमाद ने मुक्तिरूप नगरीने लुटनारो चोर ले अने ए प्रमाद जे जे तेज नरकनुं स्थान . . ___ एम ते कुमर पोताना आत्माने निंदतो खेद धरतो हवो, तेने सूडो स मजाववा लाग्यो के हे कुमर ! तमारा जेवा प्राणीने खेद करवो युक्त नथी यतः ॥ आपत्सु संपतंतीषु, पूर्वकर्मनियोगतः ॥ धैर्यमेव परं त्राणं, न युक्तम Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३१.७ नुशोचनं ॥ नावार्थ:- पूर्वकर्मना योगथी कदि प्रति आपत्ति यावी पडे तो पण तेमां धैर्य राख एज रणनं मोदं साधनवे परंतु शोक करवो योग्य नथी. एवं सूडानुं वचन सांजलीने कुमर कहेवा लाग्यो हे शुक ! वस्तु वे गइ हवे जे कर घटे ते तुं मुजने कहे ते ढुं करूं, ते सांजनी सूडो बोल्यो हे कु मर ! प्रथम तो तुं खेद मूकीने एकाग्रचित्तें पाइदेवीनी पूजा करूख, जे माटे दैवना योगथी जे वस्तु गइ ले ते देवीना प्राराधवाथी पाठी मलशे एवं सू डानुं वचन सांजलीने सर्व पूजानी सामग्री जइ देवीने जवनें जइ देवीन । पूजा करी पढी उपवास करी वेगे ते जेवारें त्रण उपवास थया तेवारें दे वी प्रगट ने बोली के हे कुंवर! तहारे शुं कार्य बे ते मने कहे ! कुमरें क ह्युं हे देवि ! तमाराथी गुं जाएयुं वे दुर्दैवना वशयकी महारी वे वस्तु को इक इंजाल देखाडी लइ गयो ने ते माटे तुजने आराधी ने हवे मारे याधार पण ताहरोज ने माटे जे तुजने उचित लागे ते कथ. एवं कुमरनुं वचन सांजलीने देवी बोली हे कुमर ! हजी केटला एक का जनो विलंब ले पछी तहारी गयेली सर्ववस्तु मेलवी श्रापीश तथा तेथी प वली अधिक मेलवी प्रापीश. पण विलंबे था. हजी तुजने घणा इष्क मैना योगी गज एथी पण वधारे दुःख यज्ञे यतः ॥ धरितईतो जल निहि, विकसनोलोन जिन कुलसीलो ॥ नदु अन्नजम्म निम्मि, गुह सुहोकम्मपरि लामो ॥ १ ॥ जावार्थ:-समुइमां जइने पेसे तो पण कनोजें करी नेदपमाड़े एवा गुन गुन कर्मना परिणामो के जे अन्य जवांतरथी जीवनी सायें नेला थया वे ते जोगव्याविना कोइथी टाव्या टले नहि. हवे तुं या चैत्यनेविषे ध्वजानुं चिन्ह करीने रहे, अने परीपें वहाण जतां हशे ते ता ध्वजानुं चिन्ह देखीने तुजने या दीपनेविषे तेडवा या वशे ते पोताना वहाणमां तुजने बेसाडशे एम कही देवी दृश्य थ पी कुमर पा देरासरना शिखरनी उपर ध्वजानुं चिन्ह करीने रह्यो एकदा को धनपति नामे व्यवहारियो वहाण ला चाव्यो जातो हतो तेथे ते चि न्हदीतुं तेवारे ते द्वीपमा यावी उतस्यो ने पोताना वाणोतरने तेडवा मोकल्या तेणे यावी कुमरने कयुं के मारो स्वामी समुइमां पडेलानो उ कार करे ने नूला पड्याने संबल थापी तेने पोताने स्थानके पहोचाडे बे माटे मारा स्वामीनी विनति तमे अवधारीने मारा वहाणमां अमारा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. स्वामी पामें पधारो. एबी वाणी सांजली रीज पामीने देवीने नमस्कार करी कह्यु के हे अंबे! तुं सर्व महाग मनोरथ पूर्ण करजे अने आपदाथकीमने रा खजे एम कही देवीने पगे लागी सूडाने सायें लऽ कुसुमश्रीने तेडीने धनप तिना वाणोतर साथें वहाणकपर कुमर पायो धनपति पण तेने वहाण मां वेसाडी वहाण चलाव्यां. मार्गमां धनपतियें पूब्युं त्यारे कुमरे सर्व पो तानुं वृत्तांत कयुं ते सांननी धनपतियें घणी आश्वासना करीने कर्तुं जे त हारं कुःख आजथी सर्व गयुं एम जाणजे एम कहीने कुमरने जे कांश खावा पी वाने माटे वस्तु जोयें तथा वस्त्र प्रमुख जोइये ते सर्व धनपति शेठ पूरतो हवो. एकदा कुसुमश्रीन रूप देखीने धनपतिशेख, चित्त बगडयु तेबारे कुमरने मारवानो बल जोवा लाग्यो एकदा रात्रियें कुमर देहचिंतायें वहाणनी को रें मांची वेतो तेवारें - तेने धको दर दरीयामां तेली नाख्यो. पड़ी यो डी वार रहीने जो पोकार कस्यो जे हमणां समुश्माहे कोक माणस पड वानो धूपको थयो एटलामाटे सदु कोइ पोतपोताना सथवारानां माणस संजालो एवो वंचेस्वरें शेने पोकार कस्यो. ते सांजलीने कुसुमश्री नतीने जू वे ने तो पोताना स्वामीने दीतो नही तेवारें सूका काष्टनी पेरें अचेत य मूर्ना खाइने पृथ्वी पर पडी. थोडी वार पनी मूबी वली तेवारें पोकार कर ती वारंवार विलाप करवा लागी ते सांजलीने कपटी धनपति तथा वीजा पण सर्व वहाणमांहेला लोक विलाप करता हवा. एम करतां प्रनात थयुं ते वखत सर्व वहाणना लोक वारते थके पण ते कुसुमश्री पुःखरूप समु इमां पडीथकी समुश्मां ऊंपापात करना जेटले जाय बे तेटलामां तो अकस्मा त् पालथी कुमरे आवीने तेने निपेधी बांह कालीने राखी एटले कुसुमश्री विनोद पामती अत आनंदने धरती थकी कुमरने पूलती हवी के हे स्वा मी ! तमे क्याथकी देवतानी पेलें अकस्मात् श्रावी पड्या ए वात कुसुमश्री ना मुखथी सांजलीने कुमर बोल्यो हे प्रिये ! ढुं कांश जाणतो नथी जे मुज ने समुश्मां कोणे नाख्यो अने पाडो इहां लावीने कोणे मूक्यो ते वरखत वहाणना लोकोमाहेला एक सार्थवाहने मूकीने वीजा सर्वने आनंद उप न्यो अने सार्थवाहने कारिमो आनंद उपन्यो पण अंतरंगथी खेद उपन्यो कुमरें सार्थवाहनुं कर्त्तव्य सर्व जाण्युं पण कर्तुं नही जू कुमरनी करुणता, दादिष्यता, माहापण अने बुद्धि के जेणे धनपतिशेग्नुं मनेंकरी पण Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३१ मातुं चिंतव्युं नही. पापफल ज्यारें उदय श्रावशे त्यारें ए एनां जोगवशे. एकदा प्रचंम वायरेकरी समुड्ना कल्लोल नबलवा लाग्या. वलि ते क लोल उबली वहाणमांहे पडता हवा तेथी समुइमां दडानी पेरे वहाण व बलवा लग्युं एम वहाण पापायें अथडातां जुना ठीकराना गमनी पेरे air तेना कटका था. तिहां सार्थवाह यने वाहानां लोक तथा वहा एनी वस्तु सर्व समुमांहे बूडी अति उग्रपापनां फल सार्थवाहने इहांज उदय श्राव्यां सार्थवाहनी पापदशा जागृत थ. वहाण जांग्युं तेज वेलायें कुमर सूडा सहित हतो तेने पाटीयुं हाथ था व्यं ने कुसुमश्रीने पण तेजवखत पाटीयुं हाथ श्राव्यं ते जेम जीव जु दी जुदी गतियें जाय तेम ते वे पाटीयां पण जूदी जूदी दिशायें समुझ्मार्गे चाव्यां जाय वे ते कांक पासे हतां पण वायराने कल्लोजें वेगलां थयां. तेवारें सूडे कयुं स्वामी! याज्ञा श्रापो तो स्वामिनिनी पासें जइ यातुं ! कु माझा दीधी के सूडो कुसुमश्रीपासे जश्ने वली तेनी खबर लइ कुमर पासेाव्यो एम वली पण कुसुमश्री पासें जर कुमरनो संदेशो कहे अने कुमर पासे कुसुमश्रीनो संदेशो कहे एम जातां श्रावतां सूडो थाको अने वेदु जपना पाटीयां पण एकबीजाथी घणा वेगलां थयां. तेवारें कुमर सूडाने गद गद वाणीयें कहेवा लाग्यो के मारे कर्मवि पाथी दमणां माठी दशा आवी ने एटलामाटे पण दुःखी करवो योग्य नथी माटे तुं सुखें वननेविषे कोण जाणे मारुं हां गुंथाशे, अमने जीवितनो पण मारी साथे तुजते जश्ने जीवतो रहे संदेह ले. वली को इक वसरे अमने दर्शन देते. ते वचन सांजलीने सूडो बोल्यो हे देव ! धैर्य राख्य, धैर्य वे ते प्रापत्तिरूप समुइमां सेतु जेवी बे, धैर्य बे ते संपदा नुं कारण बे. सूर्य सरखाने पण आपदा यावे वे, वली संपदा पण थाय बे एटले उदयपण थाय बेखने यस्तपण याय बे. तमे पूर्वे रुडी रीतें धर्म आराध्यो नथी जे याराध्यो ने ते पण अंतरायसहित श्राराध्यो जलाय बे जो ांतरा रहित आराध्यो होत तो यावी पापदशा उदय यावत न हीं. यतः ॥ सेवितः किल संपूर्णः, संपूर्ण तनुते फलं । जनानां जिनधर्मोऽपि खंमितः खंमितं पुनः ॥ १ ॥ पुनः सर्वे गुनं नावि, यज्ञाग्यं जवतोऽङ्कुतं ॥ न किं स्मरस व्यक्त मित्युक्त्वा तमधीरयत् ॥ नावार्थ:- जो संपूर्ण रीते जि , Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनका रत्नकोष नाग चोथो. धर्म मेव्य होय तो संपूर्ण फलने पे ने तथा कांइ खंमितपणें यारा ध्यो होय तो तेवा खंमित सुखने थापे वे ॥ १ ॥ वली पण तमारा पुण्यना उदयथी सर्व सारुं यज्ञे. गुं देवीना वचन सं जारता नथी. एम कहींने सुडे कुमरने धीरज दीधी वली ते सूडो कुमरीपासें गयो ते कुमरीने परम अभीष्ट बांधवानी पेठे ने ते विविधप्रकारना विलाप करती हती तेन सूडे कुमरनो संदेशो कहींने धीरज दीधी, तेवारें कुमरी पण नेत्रे यांं प्राणीने कहती हवी के हे शुक! तूं कोइक वननेविषे ज इने तारा पोताना प्राणनुं रक्षण कस्य केम के हजी मारे कष्टें करीने पण पूर्वकृतकर्म ले ते इहां जोगववांज ने तेवारं ते सूडाने घणुं दुःख लाग्युं बीजी गति कोइ तेन विचायामां न यावी एवो ते शुक ते महाकष्टें क रीने कोइक टुकडुं वन हतुं तिहां जतो हवो. पानी स्त्री रोती थकी पोताना मूर्तिमंत कर्मयी पीडा पामती पाणीना कल्लोलना समूहकरीने तिच्याकुल थयेली तेमज जलचर जी वोथी पीडा पामती एवी ते कुमरीना मागकर्मना वशथकी जाये जीवि तव्यज गयुं होयनी तेम तेना हाथथकी पाटीयुं खशी गयुं धिक्कार के विधा तानी चेष्टाने ! पी जालीयें पातालमांहेज पेठी न होय एम ते कुमरी । स मुइमां बूडी जेटने समुहनेतले गइ तेटने अजगर सरखा कोई महोटा म त्स्यें गली ॥ यतः ॥ वित्वा पाशमपास्य कूटरचनां जंक्त्वा बलाद्वागुरां पर्यंता ग्रिशिखाकलापपवनान्निर्गत्य दूरं वनात् ॥ व्याधानां शरगोचराद तिजवेनोत्लुत्य धावन् मृगः कूपांतः पतितः करोतु विधुरे किंवा विधौ पौरुपं ॥ जावार्थः - पा सलाने कापीने कपटथी रचेली रचनाने हड शेलीने तथा जोरथी जालने कापी कल्पांत कालना अमिनी ज्वालाना समूहवालो जेनी अंदर पवन एवा वनमांथी बहार निकलीने तेमज पाराधीना बालना लक्ष्यथी ए कदम वेगें करी दूर गयेलो मृगलो ज्यां यागल ठेकतो जाय ले त्यां कुवा नी अंदर पड़ी गयो ने मरण पाम्यो. माटे ज्यां सुधी देव प्रतिकूल होय त्यांसुध। जे पुरुषार्थ करे ते कांइ काम यावे नहि. जेम नारकी जीव वज्जनी कुंनीमां रहीने दुःख जोगवे तेम कुसुमश्री मत्स्यना उदरमां रहीथकी दुःख भोगवे बे. नवितव्यताना योगयी ते मत्स्य ने मायें जालीने बाहेर काढयो एटले श्रीपुरनगरनी पुफा नामे गणिकानी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३२१ दासी यावी मूल तेरावीने ते मत्म्यने लइ ग ते घणे कष्टं घेर नपाडी लावी तेने जोड्ने पुफा गणिकायें हर्ष पामी मत्स्यने विदास्यो एटले मांहे थी आश्चर्यकारी, अभुत रूपवाली, लक्ष्मीदेवीनी पेरे उत्तम लदणसहित एवी स्त्री मू ने लीधे मुएली सरखी निकली तेने अनेक औषधोपचार करी ने साजी करी पड़ी मनोहर मीठे वचनेंकरीने ते पुफा तेने बोलावती द वी अने कहेती हवी के ढुं एम जाणुं बुं जे. तदारुं कुल उत्तम ने तो पण मुजने संशय जे जे तुजने आवी पुर्दशा केम प्राप्त थइ. ते सांजली शील सुगंधेकरी महमहाट करनारी ते कुसुमश्री चिंतववा लागी जे ढुं समुश्मां तो बूमी पण मुश् केम नही ? अथवा मत्स्यना नदरमांज केम न रही ! अ हो विधातायें मुजने कये स्थानकें लावी मूकी! माटे धिक्कार! धिक्कार! ए विधाताने के मुजने स्वप्नमां पण वात न आवे तेवे स्थानकें लावी. एम विधाताने उलंना देती, पोताना आत्माने निंदती, दुःख सहती चिंतववा लागी जे इहां दुं गणिकाने शो उत्तर आपुं.एम विचारी मौन करी रही जे माटे सर्व अर्थ- साधन ते मौनपणुं ले जाणीयें ध्यान धरीनेज वेठी के गुं? तेवारें गणिकायें विचास्युं, जे हमणां ए दुःखी छे तेथी उत्तर आपती नथी एने करार याशे तेवारें आपणुं कर्तुं करशे. एवं चिंतवी फरी बोली नही. __एकदा वली अनंत दुःखने सहेती एवी कुसुमश्रीने वेश्यायें कन्यु के हे वत्से ! महारुं एक वचन सांजव्य ा महारी पुत्री मदनरेखा डे ते सर्व गणिकामांहे रेखा समान , सर्व जगतने मान्य ने, ए तहारी बहेन डे, या महारुं निर्मल कुल ते महोटे जाग्ये पामीयें जेमां सदाय अविधवाप णुं सर्वदा उत्तम जोग नोगवीयें अने सर्व कुटुंबना वियोगनुं दुःख वीसरे, घमारा घरनेविषे नित्य उत्सव में तें पण पूर्वे अत्यंत पुण्य कस्युं हो ते वारें अमारं कुल पामी बो. माटे हवे तुं दुःख मूकीने जोगसुखनो अंगीकार कस्य. या घर, या हि, या परिवार सर्वे ताहरे स्वाधीन ने. __एवो कुत्सित शुकननो नईगकारी शब्द सांजलीने जेम कोइ मूवनां व्यंगवचनथी खेद उपजे तेमते कुसुमश्रीने गणिकाना वचनथी वेद उपन्यो. निंद्यथकी पण अतिनिंद्य जाणीयें जेनुं मुख पण जोवू न घटे, जेनुं नाम लीधाथी पण सत्पुरुपने शंका नपजे, धिक्कार ले के जेनाथी लोकमां वगोवणुं थाय तेनुं नाम लेवू तो रह्यं पण तेनुं नाम सांजलवु घटित नथी एनो उप Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 399 जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. देश ते पण महापापनुं कारण के नीचमां नीचपणुं ते वेश्यापणुं बे. माटे हवे एने हुं उत्तर दर्द हमेश मोनपणुं धारण करवं पण केम परवडे ! हवे महाराथी हां केम रहेवाशे अने हुं हवे गुं करूं ? हवे महारी शी गति याशे. एवी कुसुमश्रीने चिंतातुर थयेली जोड़ने वाली वेश्या कहे ने हे व त्से ! तुं तहासं स्वरूप जेम होय तेम सम्यक्प्रकारें मुजने संजलाव्य. तेवा रें कुसुमश्री विचार जे वेश्याने यथास्थित वात न कहेवी एवं विमा सीने कल्पित बात कहेवा लागी ते या प्रमाणे: वसंतपुर व देवसेन शेठ महारो पिता रहे वे ने वसंत एवे नामे महारा नत्तरिनी सायें हुं वहाण नपर चढी हती ते कर्मना योगथी व हाण नांग्युं तिहां मुजने मत्स्यें गली एवी वात सांजलीने कपटनेविषे मा ही एव ते वेश्या नेत्रां त्र्यांसु जावती बोली जे एवं कष्ट महारा वैरीने पण महोजो एम अंतःकरणमा हर्ष पामती जाणे हवे महारा मन वांठि कार्यनी सिद्धि इ. देवयोगथ। एनो धणी पण मूवो हशे अने ए मुजने समांथी जी ने एम द्वं लोकोने कहीश एम चिंतवती पोताना परिवा र सहित कुसुमश्रीनुं चित्त वश करवा लागी एकदा वेश्या हर्ष धरतीय की कुसुमश्रीने कलेवा लागी के हे मृगादि ! तुं श्रारण वस्त्र प्रमुख सर्व गणिकाना वेशनो अंगीकार करस्थ. त्र्यने या यौवनावस्थाने सफन कर. एवां प्रक्काना वचन सांजलीने कुसुमश्री विचारती हवी के या ठेका णे महारुं शील ते केम रहेशे ? कारण के चंमालना पाडामां रहिने पवि रहे ते केम बनी शके ? हजी जरतारनी तथा सुडानी मूत्र्या जीव्या नी कांई खबर पड़ी थी ते देवना योगथी सारी खबर पामुं एटलासारं कालक्षेप करवो जोड़ो माटे एने कालविलंबनो उत्तर करूं कारण के विलंब सर्व गुन संपदा याशे जरतार पण मलशे अने सूडो पण मलशे एम वि चारी कल्पना करीने वेश्याने कहती हवी के हे माताजी ! अमारा कुलनी एवीरीत ने के जरतार ! मूवा पठी उ महिना पर्यंत पंखीजने चूणो ना वो ने वली दान देवं तेवार पढ़ी जेम तमे कदेशो तेम करीश एमक थके वेश्या हर्ष पामीथकी सर्व दाननी सामग्री तथा चूणानी सामग्री तेने कापी ते लइ कुसुमश्री वेश्याना घरनी अगासीमां शानिप्रमुख काना ढगला करती हवी. ते कपना समूह देखीने मयूर काक शुक कों Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३३३ च कलविंक कपिंजल कपोत पारेवां चक्रवाक नीलचास वहिका लावका दिक अनेक जातिनां पंखीन ते तंकुल नदणने अर्थ आवे जेम दातारने घेर याचक दिवसें दिवसें वधता आवे तेम पंखी पण दिवसें दिवमें वधता आववा लाग्यां. तिहां कुसुमश्री जाणे के रखेने कोई पंखी जीव मने दे खीने बीक पामे एवा हेतुथी पोतानुं सर्व अंग ढाकीने रहे एवी रीते ते मुःखनी धरनारी नित्य कण नाखे पंखी पण सर्व विश्वास पाम्यां थकां बीये नही. खबर पडवाथी घणां दर दरथी पंखी त्यां चूगोलेवाने अर्थ आववा लाग्यां ते वली हर्ष पाम्यां थकां मांहोमांहे वातो करतां हवां के मनुष्यने दान सहुको आपे तेमां तो शी महोटाइ ले परंतु जेने को दा न आपे नहि तेवां पंखीने जे दान आपे तेज महोटाइ कहेवाय. वली श्रा स्त्रीनं दान ते सर्व संपदान कारण ले एमां अहंकार तो नेज नही. एनां शा वखाण करियें एवी रीतें पंखीना समूह मलीने ते कुसुमश्रीना गुण बोले ॥ यतः ॥ आरोहंति सुखासनान्यपटवोनागान्हयांस्तकुप, स्तांबू लाद्युपर्नुजते नटविटाः खादंति हस्त्यादयः॥प्रासादे चटकादयोऽपि निवसंत्ये ते न पात्रं स्तुतेः,संस्तुत्योनुवने प्रयत्नति कृती लोकोऽत्र यः कामितं ॥१॥ ना वार्थः-प्रवीण नहि एवा मूर्ख लोको के जे हाथी घोडावाला ले ते सुखा सने वेसे वे तथा नट अने विट (जार) लोको तांबूल विगेरेनो उपनोग करे तथा हाथी घोडा विगेरे पशु पोतानो खोराक खाय . चकलां विगेरे महेलमां वझे ले तो पण तेथी कां ते स्तुतिपात्र नथी परंतु जे सुक ती लोक, मनवांबित आपे ;तेज आ जगतने विप वखाण करवा लायक ने. वली जरतारनी शुदिने माटे कापडीकादिकने दान आपे, तथा मुनिने शुभ आहार पाणी आपे, तेमज परदेशी प्रमुख सर्वने जेने जेवू घटे तेवू आपे. हवे वीरसेनने मूकीने शुक गया पली कुसुमश्री तथा वीरसेनना विरह नुं दुःख.नोगवतो एवो ते सूडो वनमा जमतो थको उदरपूरणा करे ने प ग क्यांइ तेने रति उपजती नथी. एकदा समये ते विदग्ध चूडामणी ना में दुःखी सूडे कोई पंखोना मुखथी एवी वाणी सानली जे कोक यौव नअवस्थाने पामेली अत्यंत दुःखणी स्त्री ते व्यग्रचित्तें नित्य स्थिरपणे कर। पंखी जनावर मात्रने कण आपे ले ते सांजली सूडे विचास्युं जे निचे ए कुसुमश्रीज हशे एम चिंतवी कुसुमश्रीनो निर्णय करवा माटे ते सूडो शी Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जेनकथा रत्नकोप नाग चोयो. घ तिहां कण चूणवाने स्थानकें आव्यो अने कांक वेगलेथी जोयुं जे आ कुसुमश्री दोय के न होय एवी रीतें कांक दूर रहीने तपासतां पूरण खा त्री न थइ तेवारें नजीक आवीने एंधाण जोयां तो पण निर्णय थयो नही कारण के तेनां अंग सर्व वस्त्रं ढांकेला हतां पली चूणनेमिरों घणोज हूं कडो प्रावीने ते कुसुमश्रीनो निर्णय करी पोतानी मनोज्ञ वाणीयेंकरी कहेतो हवो के हे स्वामिनि ! टुं तुज पामें अाव्यो अने तुं मुजने प्रसन्न दृष्टियें केम नथी जोती ? के घणाकाले मलवाथी तुं मुजने नयी उलखती? एवां अमृतसरखां वचन सुडाना मुखयी सांजलीने आनंद पामती एवी कुसुमश्री पोतानुं मुख उघाडीने मुडाने जोइ ससंचमपणे सूडाने पोता ना खोलानेविपे लइने हर्प आंसुये न्हवरावती रोमराय विकस्वर थाती, स्नेह सहित पोताना पुत्रनी पेरें मीठे वचनं बोलावती हवी के हे शुक ! तहारे आववेकरीने महारुं वांनित थयुं तें युक्त कस्यं हे शुक! तुं कांइ स्वा मिनी शुदि जाणे ले ? एवी कुसुमश्रीनी वाणी सांनतीने खेद सहित ते सूडे नाकारो कस्यो. तेवारें कुसुमश्री विविध विलाप करती हवी तेने ते सूडो धीर थश्ने धैर्य देवा लाग्योके हे अंवे! देवीनुं वचन संनारो जे या पणने आगल सर्व कल्याण थाशे एवं देवीयें कह्यु हतुं ते शं तमने वीस री गयुं के ? एम वातो करे ने एवामां दासी पांजरुं लावी तेमां ते सूडाने राख्यो इहां वेश्याने कहेला न महिना पण पूर्ण थवा श्राव्या. हवे कुसुमश्री सूडाप्रत्ये पूबवा लागी के मारे हवे सुं करवू घटे ? जो स्वामिनो योग न माने तो दं प्राण तजु के केम करूं ते तुं माह्यो ले माटे मुजने कहे ? आ अविवेकणी कूटणीना संगथी महारुं शील केम रहेशे. एवी वाणी कुसुमश्रीनी सांजलीने सूडो बोल्यो हे स्वामिनि ! संदेह रहित एवी देवीनी वाणी के तेमां पण तुं गुं संदेह राखे ले ? तमारो स्वामी म लशे तेने केटलाएक कालनो विलंब दे माटे तुं कालविलंब कर तहार सर्व वांडित सिह थाशे देवीनुं वचन त्या नहीं थाय ज्यांसुधी तहारो स्वामी नहि मने तिहांसुधी तहारा शीलनी ढुं रक्षा करीश. तुं सुखें ए वेश्या कहे ते प्रमाणे स्नान,गारादिक कस्य. एवं सूडानुं बोलवू सांगली ने ज्यारे ब महिना वीती गया एटले पोताना धणीनी श्राववानी आशायें ते कुसुमश्रीयें हर्षसहित स्नान शृंगार जोजनादिक कस्यां. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३२५ हवे तेना रूपनी घणी विख्याति सांजलीने कोश्क व्यवहारियानो पुत्र त्यांआव्यो तेवारें दासीयें यावी कुसुमश्रीने कह्यु के कोइ कामुक एवो शेग्नो पुत्र बाहेर आव्यो ने तेने शो दुकुम फरमावो बो,तेने कुसुमश्रीयें कह्यु के ए वात सूडाने पूटो सूडो माह्यो डे माटे ए मने कहेशे तेम ढुं करीश. तेवा रें दासीयें जर सूडाने कह्यु. सूडो दासीने कहेवा लाग्यो के पांचशेने शोल सोनैया आपे तेवारें एकरात्रिना चार पहोर रहेवानी रजा आपुं माटे जा तुं जश्ने तेने पून!: दासीयें जर ते कामुक नरने कयुं तेतो धनवंत ने वली व्यसनी ने माटे दासीनी वात सांजली रीज पाम्यो थको इव्य लइ ने जेवामां तिहां आव्यो एटलामा पहेला सूडो ते कामिक नरने उतरवा माटे चारे पहोरनी सामग्री दासीने हाथें तैयार करावतो हवो. पनी ते चतुर दासीने सूडे एकांत तेडीने समजावीने शीखवी राखी. दासीये पण ते कामिकनरने तेड्यो तेनी पासेंथी इव्य लश्ने कुटणीने अपाव्युं. हवे ते कामिपुरुप जेवारे पहेली प्रथम नूमिकायें आव्यो तेवारें तेने पीती करी न्हवरावतां तेल चोपडतां एक पहोर लागी गयो एटले ते कामी नर बीजीजूमिकायें याव्यो तेवारे तिहां वत्रीश वानांनी रसोइ तैयार कर तां जमाडतां थकां बीजो पहोर व्यतीत थगयो तेवारें त्रीजीनूमिकायें याव्यो तिहां गीत वाजित सांजलतां त्राजो पहोर थइ गयो, एटले चोथी नूमिकायें याव्यो तिहां नाटक कौतुकादिक जोतां प्रनात थ६ गयुं तेवारें ते कामिपुरुपने चोथी नूमिका थकी हेठो उतारीमूक्यो. अने कुसुमश्रीने तो सातमी नूमिकायें राखी हती माटे ते कामिपुरुषं कुसुमश्रीतुं मुख पण जो युं नही तेवारें जेम मार्जार शीकाथी चष्टथयो थको हाय घसे अथवा जेम वानरो फालयकी भ्रष्टथयो हाथ घसे तेम ते कामिपुरुषने इव्यनो व्ययपण थयो अने कार्यसिह न थयुं तेथी हाथ घसतो चाल्यो गयो मनमांतो घणो संताप थयो पण कोने जश्ने कहे. पड़ी ते कामिपुरुषे मनमां विचास्यं के जेम हुँ तराणो तेम वीजा पण बेतराय तो सारूं थाय एम विचारी बीजापण तेना जेवा कामिपुरुपो हता तेनी आगल ते कुसुमश्रीना रूपy अने विषयनु वर्णन करतो हवो. वारंवार तेना कहेण सांजलीने घणा पु रुषो अनितापी थयाथका तेमज कुसुमश्रीनी साथें विषयसुखना जोगने वांबता आवे अने तेमज उगाया चाल्या जाय तोपण महारुं व्य व्यर्थ गयुं Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. एम कोइकोनी आगल कहे नही उलटा तेनां रूपादिक वखाणे तेथी बीजा कामिपुरुष त्यां आवे एम करतां ते सूडे वेश्याने अनर्गल इव्य उपार्जन करी पाएं. तेथी अक्कानेपण प्रतीति थइ. अने कुसुमश्रीतुं शीलपण अखं म राव्युं अहो विदग्ध चूडामणी सूडानी बुद्धि जूवो के जेणे बुदिबलेंकरी ने वेदुनां कार्य सिह करी प्राप्यां. ते सूडो पंमितने पण मानवा योग्य थयो, एम जरतार मनवानी आशायें सूडाना सहायथी दुःखना दिवस निर्गमन करतां काल व्यतिक्रमे . हवे वीरसेन कुमर ते पाटियाने अाधारें सातमे दिवसें समुनो कांगे पाम्यो. तिहां पाटियाने मी काटनी परे मूबी खाई पडी रह्यो बे.एवामां दरीयाकांठे कोक पामेना गामनो व्यवहारियों देह चिंतायें आव्यो तेणे वीरसेन कुमरने दीतो तेवारे दया आणीने पोताने घेर लइ याव्यो तिहां विविध प्रकारना उसड नपचारे करीने तेने साजो कस्यो, पठी ते व्यवहा रिये वीरसेन कुमारने सर्व वृत्तांत पूर्वा के तरत ने कुमरने पूर्वली पुस्था अवस्थानुं दुःस्व सर्व सांजस्युं तेणेंकरी नेत्रने विपे यांसं जराणां अने वि लाप करवा लाग्यो तेवारते व्यवहारिये चिंतव्युंजे " कोइएक महाटा जा ग्यवंत व्यवहारियानो पुत्र निश्च जणाय जे. महारा पूबवाथी एने पाबला पुःवनी अवस्था सांजली तेने लीधे ए दुःख धरे ले एटलामाटे हवे एने पूडवू नही. ए तुबप्टबायें सयु. एना लहाज एनी योग्यता अन स्वत ताने कही आपे . यतः ॥ अनणं तिविदु न जंती, सुपुरिस्मा गुणगणेहि नियएहिं ॥ किंचूनंति मणी, जान सहसे हि धिप्पंति ॥ १ ॥ नथी वो लता तोपण सत्पुरुपो पोताना गुणें करीने अप्रसिद रहेता नथी जम मणी बोलतो नथी तो पण तेमां गुण तेणें करी हजार लाख अने कोटी पर्यंत इव्य दइने लोको तेनुं ग्रहण करे ले. माटे तेना लक्षणने अनुमानें तेना उप र स्नेह करी ते व्यवहारिये कृतज्ञताना गुणेंकरीन पोताना पुत्रनी पेरें ते कुमरने पोताने घेर राख्यो, पवित्रबुझिनो धणी ते व्यवहारियो जेम राजा राज्यपदनेविषे थापे तेम ते कुमरने पुत्रपदनेविपे थापतो हवो. एम ते व्यवहारियो कुमरनी नपर पुत्रपणानो साचो प्रेम अने ते कुमर शेतनी ज़ पर पितापणानो साचो प्रेम राखे डे ते कुमर उचित कार्यनेविषे माह्यो थको अवसर जोड्ने सर्वकार्य शीघ्रपणे करे एम ते शेत वृक्षावस्थामां Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३२७ रोगादिकें पीड्यो थको पंचत्व पाम्यो त्यारे कुमर,शेठना घरनो मालेक थयो. हवे वीरसेनकुमर कुसुमश्रीनी शुदिने अर्थ व्यापारनो मिश करीने देशां तरें चाल्यो तिहां एकदेश मूकी बीजे देश जाय एम देशे देश नगरे नगर जमतां जमतां जेम नव्य जीव जव अटवी जमतां जमतां अगण्य पुण्येक रीने वांबित सुखने आपनार एवा मनुष्यना नवने पामे तेम वीरसेन कुम र पण श्रीपुरनगरने पाम्यो. तिहां श्रीपुरनगरमा पेसतांज वीरसेनकुमरने शुकन घणां श्रीकार थयां. तेथी जेम कोइ महारोगें पीडेला, मरणने निक ट एदा रोगी पुरुपने, कोई पुरुष कहे के हुँ तहारा रोगनुं निवारण करीने तने दीर्घायुवालो करीश तेथी तेने जीववानी आशा थाय तेम ते वीरसेन कुमरने कुसुमश्री मलवानी अाशा थइ. ___ हवे ते कुमर श्रीपुरनगरमां नत्सुक थको कोइएक व्यवहारियानी पहेडी नपर बेसीने कोइएक पुरुपने नगरनुं स्वरूप पूबतो हवो तेवारे ते पुरुष क हेतो हवो के ा नगरनो नयसार नामे राजा के वली शुभ व्यापारना कर नारा अनेक व्यवहारिया पण एमां घणा वसे में वली हमणां आ नगरने विषे पुफा नामा वेश्याने घेर सादात रति सरखी कोई युवान स्त्री आवी रही बे ते एकरात्रिना पांचशे ने शोल सोनैया लीये डे परंतु सर्वने नाटकादिक दे रवाडी प्रनात थाय एटले काहाढी मूके ने पण हजी सुधी कोई तेनुं मुख जोवा पाम्यो नथी तो तेना संगनीतो वातज शीकरवी. फोकटना सोनैया बूटी पडे एवं अद्भुत कौतुक आ नगरमां हमणां चाले ने ते दी जणाय. __ ए वात सांजलीने वीरसेन कुमार विचारे ये जे एतो कुसुमश्रीज हशे पण जोयाथी निर्णय थाय वली वेश्याने घेर रही ने एवं सांजलवाथी संशय पण पडे डे के कुसुमश्री ते एवी केम होय ? वली पण अंग स्फुरवायो निर्णय कयो के कुसुमश्री आज क्यांइक मलवी जोश्यें. केम के मस्तक फरके तो राज्य मले, नुजा फरके तो वाहाला मले, नेत्र फरके तो जरि माने, अ घर फरके तो प्रियसंगम थाय, गनस्थल फरके तो स्त्रीनो लान करे, कान फरके तो शोजन शब्द संनलावे, नेत्रना खुणा फरके तो धननोलान था य, उष्ठ फरके तो पराजय थाय, पीठ फरके तो पराजय थाय, खंनो फर के तथा कंत फरके तो लोग मने, हाथ फरके तो लान तथा विजय थाय, हृदय तथा नासिका फरके तो प्रीति नपजे, स्तन फरके तो जान करे, ह Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. दय फरके तो हाणी करे, हृदयनी अंदर फरके तो नंमार वधारे, पनि फरके तो थानभ्रष्ट करे, लिंग फरके तो स्त्रीलान थाय, कुला उरके ता पुत्रनी प्राप्ति थाय, जंघा फरके तो बंधुने अरिष्ट करे, पासुं फरके तो व हालो मने, ढींचण फरके तो वाहालानो लान थाय, पगनां तलियां फरके तो लान थाय तथा पुरपने मार्ग चलावे, पग उपर फरके तो स्थानको लान थाय, पीमी फरके तो मार्गे चलावे. पुरुषने दक्षिण अंगें फरकतां य थोक्त फल होय अने स्त्रीने मावे अंगें फरकतां फल आपे. हवे स्त्रीनो निर्णय करवा माटे ते कुमर पुफा गणिकाने घेर आव्यो. तिहां पांचशे ने शोल सोनयाने बदले पोताना हाथनी मणीनी मुत्र ते वे श्यापामें मूकी तिहां कुसुमश्री पण अंग फरकवाथी जरतार आज मल शे एवो निर्णय करी वेठी ने तिहां गोरखने विपे सूडानुं पांजरं बांधुने ते सूडे दूरथकी वीरसेनकुमरने यावतो देखीने घणाकालना विरह अग्नियें तापित एवी कुसमश्रीपामें जश्ने वधामणी दीधी ते अमृतसरखी सूडाना मुखनी वाणी सांजलीने परमानंद पामीयकी शंघपणे जरतार योग्य शृं गार करती हवी. एवामां कुसुमश्रीनी रजाथी वीरसन्न कुमरने दासी सात मीनमीये तेडी लावी तिहां शीघ्रपणे नाग्ययोगथी वियोगरूप जे घंधकूप ते मांधीज जाणीये काढयो न होय ! एम ते कुमर नच्चप्रदेशे चडतो थको वां डित स्थानने पामतो दवो. कुसुमश्रीपण माहापणनी पेटी एवी दासियो पासे पोताना स्वामीनी आगतस्वागत करावती हवी वीरसेनकुमर पण व दुमुव्यवाली देवताना सरखी शय्याने विपे वेसतो हवो. एवामां कुसुमश्रीपण हलवे हलवें पगलां नरती वीरसेनकुमाग्नी पामें जूदे आसने आवी बेठी अधोमुख करी आसुंये सहित दृष्टियेकरी विचा रे जे के या स्थानकें रहेतां थकां महारा रुडा गुणनी शोनायें तो प्रस्था नुं कस्युं ते गुण गया तो हवे प्राणनाथ महारी विशुक्तानी प्रतीति केम करशे ! हा इति खेदे धिक्कार ने देवने. जेमाटे में जे जे दुःख अनुनव्यु जोगव्युं ते मने कांइ पण खटकतुं नथी पण मुजने आ निंद्य स्थानकें आ वीने देवे नाखी ए मुजने घणुं सुखदायक थयुं ने ॥ उक्तंच ॥ टंकल्लेदान्नमे मुःखं,न दाहान्न च घर्षणात् ॥ एतदेव महाकुःखं, गुंजयासह तोलनं ॥ जावा र्थः-जेम सोनुं विचारे जे के मने टांकणे काप्युं तेथी तेवं उःख नथी तथा Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३ तपाववाथी तेलुं दुःख नथी ने कसोटीपर घसवाथी पण तेलुं दुःख नथी परंतु मने मात्र एज मोहोटुं दुःख ले के वननी हलकी चणोठी सा थे मने तोलीने तेनी साथें मारी तुलना करे बे. ते कुसुमश्रीने तेवी तथाविध दुःखनी अवस्थायें पडेली देखीने कु मर विचारवा लाग्यो के ए कुसुमश्री गणिका सरखी देखाती नथी ए तो कुलवंती स्त्री सरखी देखाय ने तेमाटे ए महारी स्त्री ने केशुं ? धि क् धिक् ते तो महोटी सती ने ते इहां वास न करे ? जेम माउली दावानलने न सहे तेम ते पण इहां रहे नहीं. तेमाटे ए कोई बीजीज स्त्री ते मागकर्मना वशथकी इहां यावेजी जणाय ने महारी स्त्री तो कोण जाणे किहां गई, किहां हशे के नही हशे ! एम विचारी वली पूर्वनुं ङःख सांनखं तेवारे नीचुं मुख कस्युं ते देखीने गुकराज बोल्यो हे स्वामी ! हर्ष स्थानकें तमने वेदुने या विवाद शो थयो बे, एवं सूडानुं बोलकं सांजलीने कुमरे तंचं मुख कखं एटले पांजरामांहे शुकने दी गे त्यारे जाएयुं जे ए क्रीडा करवानो महारो शुक ने तेटलामां ते सूडो श्रावीने खोलामां वेगे तेवारें सूडाने उलखी स्नेह थालीने कुमर पूछतो वो के हे वत्स ! तहारी स्वामिनीनी गुद्धि तुं जाणे ने ? एवं सांजलीने सूडो बोल्यो हे स्वामी ! गुं न्रम धरो हो, या तमारा मुख प्रागल महारी स्वामिनी वेठी वे, गुं उलखता नथी ? एवं सूडानुं वचन सांजलीने निष्का र कुमरनुं मन जांखं थयुं ने मनमां विचारवा लाग्यो के धिःकार हो स्त्रीचरित्रने ! अरे या कुसुमश्री राजानी पुत्री ने ने महारी स्त्री बे तेने वेश्याएं कढ़ी दीतुं ने सांजल्युं पण नही ! तो ते ए केम याद. पुत्रने स्थानकें मानवा योग्य एवो या सूडो ते पासें रहीने या कराटे वे निर्विवेकिने धिःकार ने ए वेदुनुं मुख जोतुं प योग्य. नथी. केम के या निंद्यमां पण अत्यंत निंद्यकर्मनां करनारां बे, एम अतिशय खेद पामीने ते कुमर जेवामां कांइक बोलवा जाय बे ते वामां राजाना घरने विषे अत्यंत श्राकरो कोलाहल थयो. तेवारें ते कुसुम श्री त्याग करवा योग्य बे एवं निरधारीने तेने बांमीने कुमर राजनुवनें गयो. ए त्यां जश्ने जूवे ने तो राजा दृढ क्रौंचबंधनें बांध्यो ने, मुखमांथी फि पोटा यावे बे, चूमिमां लोटे बे जेम कोइ जनावरने बांध मारवा माटे ८२ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. तयार कस्यो होय तेवीरीतें राजाने बांधेलो दीगो ते सर्व कोइाणवा ला ग्या के था कोई देवतानी क्रिया में एनी प्रतिक्रिया मले नही,तो पण प्रधा न प्रमुख सर्वे मंत्र तंत्र यंत्र औषधादिक अनेक उपचार राजाने करार कर वा माटे करे ले ते सर्वे निष्फल थायने. जेम जेम औषधादिक करे तेम तेम रोग वधतो जाय राजा ते वेदनायेंकरी कंगतप्राण जेवो थइ गयो, शरण हित थको पृथ्वीयें पज्यो तरफडे ने, प्रधानादिक घणा माह्या ले पण कानुं माहापण चालतं नथी कोश्ने नपाय सुजतो नथी तेथीप्रधाना दिक तथा नगरना लोक सर्व हाहाकार करवा लाग्या. ते वखत देवी प्रगट थाने जेवो कल्पांतकालनो मेघ गरिव करे ते वा शब्दकरी देववाणीये बोली जे जो जो लोको! सद् सदुने स्थानकें वहेला व हेला जान. ए राजाने मूको ए पापिने पापनां फल उदय आ व्यां ने ते नोगवशे. एवी वाणी सांगली प्रधानादिक तथा नागरिक लोक सर्व न्हाइ पवित्र धोतीयां पहेरी हर्ष पामी धूप नववा लाग्यां विनय पूर्व क नक्ति करी पण कोक अदृश्य अतिशय कोपना वश्यथकी राजानी पी डा उपशम। नही. एटलां वानां थयानंतर परने नपकार करवामा जेनी उत्तम प्रकृति के एवो वीरसेन कुमर बोव्यो के हे स्वामिन् ! मुज नपर कृपा करीने एने तमे मूको ए राजा सीदाय माटे प्रसन्न थान. अने जे तमने कहेवू होय ते प्रत्यद थइने कहो तो ए राजा ते प्रमाणे करे. ___एवी वीरसेन कुमरनी वाणी सांजलीने वैतान सरखो विकराला थको एवो ते देवता प्रत्यद थश्ने कुमरने कहेवा लाग्यो के हे कुमर ! तहारो ए वेरी माटे एने नही मूकुं अरिकेसरी राजाना कुलना आधार एवा हे वीरसेन कुमार ! तहारा पल्यंक अने तुरगनो हरनार ते एज ते गुं तुजने वीसरी गयो के ? ए तहारा विवाहमहोत्सव उपर आव्यो हतो तिहां त्रण रत्न तहारी पामें देखीने ते लेवाने लोनें हेरु थइ चोर थश्ने तहारी पाबल लागो ते तुजने बहुरूपिणी विद्यायेंकरी बल देखाडीने तहा री वस्तु तेणे अपहरी लीधी अने तुजने कष्टरूपं समुश्मा नारखी चाल्यो गयो. एवा जे उष्ट होय ते कष्टफल दीठाविना पांशरा थाय नही. माते एने ढुं मूकुं नही एम कही हाथमां मोगर लेइने राजाने मारवा माटे दो ड्यो. के तरत वीरसेन कुमार पोताना वैरी उपर करुणा आणतो देवने Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३३१ पगे लागी कषाय उपशमावीने बलात्कारें तेना हाथमाथी मोगर मूकाव तो हवो. ते देखीने घणा लोको विस्मय पाम्या थका विचारता दवा के अहो आ केवो उत्तम पुरुष जे जे पोताना वैरीने पण प्रणिपत करीने मू कावे . आ जगतमां पोताना आत्माना हेतु तो घणाय ने पणं वैरीना हेतु वैरीने नगारनारा एवा उत्तम पुरुष तो थोडाज समजवा. हवे वीरसेन कुमारनी विनंति सांजलीने पोतानुं वैतालरूप संहरी स्वा नाविक दिव्यरूप प्रगट करी देवी प्रत्यद थश्ने कहेती हवी के नोनो लो को ! रहस्यनी वात सांजलो आ राजाने में क्रोधेकरी वजबंधनें वांध्यो जे. ते बंधन तो जेवारें कोई महासती होय ते पोताने हाथे पाणी लेने एने बांटे तेवारें ए राजा बंधनमुक्त थाय बीजो कोई राजाने लूटवानो न पाय नथी. ते सांजली राजानी पट्टराणी प्रमुखें आवीने घणुं पाणी बां ट्युं. पण तेथी राजा लूटो नही केम के एक मनेंकरीज शील पालवं उप्कर दे तो मन वचन अने काया ए त्रिकरणशु पालतुं तेतो वली महा दुष्कर ने पली तिहां जेटली शीलवती सती नाम धरावती हती ते सर्व स्त्रि योयें तथा राजानी बीजी राणियोयें पण हाथमां पाणी लेश्ने राजाने बांट्यां पण राजानां बंधन बूट्यां नही तेवारे सर्व स्त्रियो लगा पामी थकी नीचां मुख करीने रही तेथी सर्व लोकोने संशय उपन्यो जे एवी विशुद्ध शीनें करीने सती ते कोण हशे के जेने हाथे पाणी बांटवाथी राजानां बंधन बूटे, एम सर्व लोक विचारे वे एवामां देवी बोली जे पुफागणिकाना मंदिरने विषे कुसुमश्री नामे स्त्री ने जेणे पोतानी नपरनो अपवाद टालवा माटे हाल काउसग्ग करेलो ले ते महासती प्रशंसवा योग्य सर्व सतियोमा शिरोमणी जे जेणे वेश्याना घरमा रह्यां थकां पोतानुं शील अखंम निर्मल राख्युं ने माटे ते आवी हाथमां पाणी लेने राजाने बांटे तो राजानां बंधन लूटे. एवी देवीनी वाणी सांनतीने वीरसेन कुमार तथा मंत्रिप्रमुख सर्व हर्प पामी गर्व बमीने पुफागणिकाने मंदिरें कुसुमश्रीने तेडवा गया पोताना इष्ट कार्यनीसिदिने अर्थे कोण उद्यम न करे वारु ? पड़ी ते शीघ्रपणे कुसुमश्री पासें आवीने विनय नक्ति बहुमानपूर्वक बोलावता हवा, ते देखी सूडो प ण कुसुमश्रीने प्रेरणा करतो हवो, एवामां देवीपण कुसुमश्रीपासे आवीने कहेती हवी के हे बाले ! शरदकालना चश्मा सरखं तहारूं शील उज्वल ने, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. माटे बीजना चंनी पेरे सद् तदारुं दर्शन वांजे जे ते सर्वने दर्शन आप्य. __ एवी देवीनी वाणी सांगलीने कुसुमश्रीयें कासग्ग पाख्यो अने पोते ह र्ष पामीथकी पोतानी पामें आवेला सर्वलोकोने जोती हवी पनी ते हित वात्सल्यनी करनार एवी कुसुमश्री ते जरतारना नवेख्याथी जाणे नवोधिज कस्यो होय तेवा महोत्सव सहित राजसनामां आवीने हाथमां पाणी ल इने सनासमद कहेती हवी के ा जन्मथी मामीने आजदिवस पर्यंत में महारां मन वचन कायायेंकरीने एक वीरसेनकुमार मूकीने बीजा कोश पुरुपने इब्यो होय तो आ राजानां बंधन बूटशो मां अने जो मन वचन कायायेंकरी कोइपण पुरुप न इबयो होय तो राजानां बंधन लूटजो. एम कहीने जेवू राजाने पाणी बांटयुं तेवां टाक शब्द करतां जेवीरीतं घांसनां दोरडां त्रूटीपडे तेवीरीतें राजानां बंधन त्रूटतां हवा. ते वखत जेम आपा ढमहीने वाद वरशे तेम कुसुमश्रीना मस्तकनी उपर फूलनी वृष्टि थती ह वी. निष्कलंक एवा शीलवंत प्राणीने झुं कुर्लन के ? हवे राजा स्वस्थ थश्ने वीरसेन कुमार तथा कुसुमश्रीने पगे लागतो हवो ते वखत राजाने एक लका, बीजो खेद, अने त्रीजो विस्मय, एत्रण वानां एक साथेंज थयां एत्रणे रसेंकरीने राजा परवश थयो, हवे वेश्याने घेर रही नेपण अखंमशील पालवाथी कुसुमश्री सतियोमा हे तिलकसमान थइ तेवात कुमरेपण देवीने पूड़यां थकां देवी सर्व पा बलो वृत्तांत कह्यो. ए अजुत पवित्र चरित्र देवीना मुखथी सांजलीने स वलोक आश्चर्य पामता कुसुमश्रीनी प्रशंसा करवा लाग्या अने सूडोपण कुसुमश्रीनी घणीज प्रशंसा करतो हवो. हवे वीरसेनकुमार अने कुसुमश्री विस्मय पामीने ते देवीने कहेवा ला ग्यां के तमे कोणडो जे निष्कारण अमने एटलां उपकारी थयां बो? तमे अमारा उपर प्रसाद शा हेतुयें कस्यो ते अमोने कृपा करी कहो.. एम पूछे थके देवी बोली हे सुनगे ! तमे माह्यांडो बतां मुजने केम न थी उतरवतां, ढुं कुसुमपुरनगरनी पाइदेवी बुं पूर्व तमें मुजने संतोषी ले ते दिवसथी मांझीने ढुं तमारा सांनिध्यनी करनारी तमारा पुण्यप्रमाणे तमाळं हितवात्सल्य करती तमने वश्य. समुश्माहेथी में तमने उछायां आज पण में तमारी सांनिध्य करी थने हजा पण ढुं सर्वकार्यनेविषे तमारु Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३३३ सदाकाल सांनिध्य करीश. तमे जेटलुं फुःख पाम्यां ते तमारा पूर्वनवना दुष्कतथी पाम्यां ते दुःख विपाक बीजाथी लेवाय नही एतो तमारे पोता नेज जोगवे लूटको थाय जो इंश्सरखो होय तोपण कोश्ना उदय आव्या विपाकने टाली शके नही. तो महारो शो आशरो॥यतः॥ अस्ति बुदिः परेषां हि,कोपव्यातनदमा॥शकोऽपि कुपितं कर्म,नैव सांत्वयितुंपटुः॥१॥पारकाको पने मटाडवामां बुद्धि समर्थने परंतु कोप पामेला कर्मने शांत करवामाटे इंश पण समर्थ नथी॥१॥अतः परं परं नाग्यं, परं देमं निरंतरं ॥ निरंतराया प्राप्ता सि,चिरं संपत्परंपरां॥१॥ हवेथी तमे अंतरायरहित एवा श्रेष्ट नाग्यने अने निरंतर कल्याणने तथा शाश्वत एवी संपत्तिनी परंपराने पामशो. जोयांतरा रहित धर्म कस्यो होय तो अांतरा रहित सुख जोगवाय, अने आंतरारहित संपदा पामियें ॥१॥ त्यारपत्री जीवितदानने आपनार पोताना उपकारी एवा वीरसेनकुमारने राजा पोतें पोतानो अपराध खमावीने अश्व अने पल्यंक पानोप्रापतो हवो ते नेश्ने कुमर पोताना चित्तनेविषे संतोष ध रतो हवो. हवे वीरसेन कुमरने कुसुमश्री ते, अश्वरत्न पव्यंकरत्न अने शुक रत्न ए त्रणरत्ननी साथे केटलाएक दिवसतो नयसारराजाना आग्रह थकी तिहांज रह्या पली राजानी आझा मागीने देवीय विमानरच्युं ते विमानमां बेसी सर्वजनने विस्मय पमाडतां महाकवि संघाते पोताना पुरजणी चाव्यां. हवे तिहां पोताना नगरना उद्यानमां वीरसेनकुमार, सैन्य जे दिवसें आव्यु ले ते दिवसथी राजाना हृदयनेविपे महापुःख नपन्युं नद्यानने विपे वीरसेनकुमार विनानुं सैन्य सर्व सुनुं लागे जे. जेम जीव विना शरीर न शोने तेम वीरसेनकुमार विना सर्व परिवार शोजतो नथी तिहां सर्व वी रसेनने याव्यानी वाट जूवे ने राजादिक सर्व अत्यंत दुःखना सागरमां पड्या थका शोक धरे ले अन्यदा समयने विपे आकाशयकी देवता सं बंधि विमान देवनाटक सहित आवतुं देखीने सदु लोक विस्मय पामता हवा एवामां देवीये श्रावीने कुमर आव्यानी वधामणी राजाने दीधी के हे राजन् ! तहारो पुत्र आव्यो ते सांजली राजा थानंद पामी वधामणीनो महोत्सव करतो हवो जेम पगुना यूथमाथी यूथनो अधिपति चष्ट थयो होय ते घणे दिवसे यूथने मने तेवारें केटलो हर्ष थाय तेवो कुमर मव्या थी नगर बाहिर रहेला सैनिकोने हर्ष थयो, पढ़ी जेम रामचंश्ने दशरथ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. राजा महामहोत्सवें नगरमा प्रवेश करावे तेम राजायें वदु सहित कुमर ने नगरमा प्रवेश कराव्यो. राजायें पुत्रनो नवोज अवतार आव्यो जाणी थानंदपूर्वक फरी जन्ममहोत्सव कस्यो. देवीये कुमरनो सर्व वृत्तांत राजा धागल कह्यो ते सांजली राजाना चित्तनेविपे खेद अने विस्मय थयो. अन्यदा कुमारने राज्ययोग्य जाणीने तेने कुमारने राज्य आपी राजा पोतें दीक्षा लइ चारित्र पाली सकलफर्मक्ष्य करी मोदें पहोतो. ए वात वीरसेन कुमारने ससरे साननी तेवारें आनंद पामीने ते पण वीरसेनने पोतानुं राज्य आपतो हवो तेमज नयसार राजा पण पोतानुं राज्य घणो आग्रह करीने वीरसेनकुमरने आपतो हवो. तथा पादेवीये पण कुसुमपुर, पूर्व उष्ट अने अन्यायी राजा हतो तेने हणीने नगर उजड करी नारव्युं हतुं पण हमणां तेणे वीरसेनकुमारने न्यायवंत राजा जाणीने ते नगरनुं राज्य धापी नगर वसावी दीधुं जेमाटे विद्या तथा गज्य अने दीदा एटलां वानां जे योग्य होय तेनेज अपाय परंतु अयोग्यने अपाय नही. ते बरखन विदग्धचूडामणी नामें सूडो बोल्यो के हे स्वामिन ! महारां केहेण मुजब सर्व वस्तु आपने प्राप्त थ के नही? ते सांनती राजा सूडानी उपर अ त्यंत रीज्यो पनी जेम शक देवलोकनुं राज्य जोगव तेम वीरसेनकुमार मर्त्य लोकनुं राज्य जोगवतो हवो ते कुमारनां चार राज्य थयां ते जागीय चार दिशाना चार दिग्पानें कुमरनु अतुल्य पुण्य जाणीने तने सोंप्यांज होय नही ? तथा पूर्वपुण्यना नदयर्थी अने देवीना प्रनावथी जेम चक्रव तिनें चार दिशानां राज्य वश थाय तम चारे दिशाना सर्व राजा ते कुमरने विवश थया तेथी ते कुमरनुं निष्कंटक राज्य थयुं. __ अन्यदा कनकशालनगरना नद्याननेविपे केवली नगवान समोसस्या ते नी वधामणी वनपालकना मुखी सांजलीने राजा परिवारसहित वांदवा ने गयो तिहां केवलीने वांदी स्तवना करी ययोचितस्थानकें देशना सांन लवा बेठो लगवाने पण सर्व रोग क्वेशनी नाश करनारी एवी देशना दीधी ते सांनव्यानंतर अवसर पामी राजायें पोताना पाउना जव पूया. . केवली जगवान बोल्या हे नव्यो! हसतां कौतुकथी अनर्थदंमेंकरी जे जीवें कर्म बांध्यां ते नोगववां पडे माटे सर्वथा प्रकारे उत्तमजीवें अनर्थ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३३५ दम बांमवो. तमें बेदु जणे पण पाडले नवें कौतुकथी हस्य करता थकां अनर्थदंमें करी कर्म उपायु २ ते सांजलो. ___ समेतशिखरनी तलाटीनां गामने विपे देमंकर एवे नामे गामनो अ धिप रहेतो हतो तथा जेना अंगनेविषे उत्तमगुणनी श्रेणी हती एवी धा रिणी नामे तेनी स्त्री हती ते वेदु शुन आशयवालां शुम श्रमावंत श्रा वक हतां श्रीसमेतशिखरें जे लोक यात्रायें यावे तेनी घणी नक्ति करतां वनी समेतशिखरना रस्तामां पापणीनु पर्व ममाव्युं तथा दीनःखियानी ख बर लेतां, हर्षथी सुपात्रने दान देतां, रात्रे चनविहार करतां, सचित्तनां प रिहारी,एक वार जोजननां करनार, पट्पीयें विशेष प्रकारे आरंनवर्जीने ब्रह्मचर्यनां पालनार, पंच पर्वी पोसहनां करनार, दान शील तप अने ना वरूप चतुर्विध धर्मनां पालनार, उत्तम श्रावक धर्मनां आराधनार, एवां लोकने प्रशंसवा योग्य ते वेदुजण हतां. हवे ते देमंकरने स्नेहवंत अने जोलो नदिक एवो प्रियंकर नामें नाइ हतो ते प्रियंकरने प्रियमंजरी नामें कन्या महामहोत्सव सहित देमं करें परणावी. एकदा अत्यंत नुप्णकालनेविपे रात्रिने समये ते नवां पर णेलां वरवदु पोताना घरनी अशोकवाडीमध्ये वाव्यने विपे क्रीडा करतां हतां तेवामां स्नेहना समुह एवा महोटे जाइये आवीने अतिशय प्रेमें क री ते बेहुने हासीपूर्वक अकस्मात् वाव्यमांहे हडसेली नाख्यां. ते वाव्यमां पाणी स्वल्प हतुं माटे बूमयांतो नही पण घणो खेद पाम्यां याकुल व्याकुल थयां. तिहां देमंकरें घणुं हसवाथी निकाचिन कर्म बांध्युं अने ते कौतुकनी जोनारी तेनी स्त्रीयें अनुमोदना करी तेथी तेणे पण कर्म बांध्यु. ___ एकदा वली ते देमंकर अने धारिणी वेदुजणें मली प्रियंकर अने प्रि यमंजरी वेदुजणने कोश्क स्थानकें अंधकार करावीने पनी तिहां ते बेहुने जूदां जूदां मोकल्यां अने प्रियमंजरीपासें प्रियंकरने शोधावे अने प्रियंकर पासें प्रियमंजरीनो शोध करावे एम हास्य करावीने ते वेहुने पोतपोतामां वियोग पाडवा, फुःख केटलाक काल पर्यंत उत्पन्न करी दी . तेणेंकरी थोडीवार याकुल व्याकुल थइ महा चिंतातुर थयां. एकदा समयें वली धारिणीयें प्रियमंजरीने शोले शणगार पहेरावीने सिंहासने वेसाडीने पली प्रियंकरने एकांतें जश्ने कह्यु के देवरजी हां आवो तमने घरमांहे गणि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. का देखा९ ते जून, एम कहीने पड़ी वली प्रियमंजरी पासे आगलथी आ वीने देवर ने कहेवा लागी के श्रावो प्रावो देवरजी जून ा वेश्या सिंहास में वेठी ने ते पण श्रावीने जवे ने तो सिंहासने पोतानी स्त्रीने वेठी देखीने दुःख धरतो हवो अने लजावंत थयो तेमज तेनी स्त्री पण अति शय खेद धरती थकी अत्यंत लळा पामी. तिहां धारिणीयें हासीयेंकरी कर्म बांध्युं ते आलोयुं नही अज्ञानपणाथी मनमा एम जाण्यु जे हास्य थीकांश कर्म बंधाय ने ? कर्म तो पनावथी बंधाय ने, ए हास्यमां कांश दोप नथी. एम वेदुजणं ते कर्म बालोयुं नही पडिकम्युं नही. ते वेदु श्रावकनो धर्म पाली सुकत नपार्जी तिहाथी काल करीने पहेले सौधर्म देवलोकें शश्नां सामानिक देवता थयां तिहांथी चवीने तमे वेहु स्त्री नरतार थया नो. तया प्रियंकरनो जीव पण धर्म आराधन करी केटलाएक देवादिकना नव नमीन धनपतिशेठ थयो पानला जवना अन्यासथकी धन पति उपर तहारो स्नेह रह्यो तें तेने पूर्वनवें वाव्यमांहे तेली नारख्यो हतो तेथी तेणे तुजनें समुश्मांहे तेली नारख्यो पानाने नवे तमें वेदुजणे धगीध पीयाणीनो वियोग पाड्यो तेथी इहां तमने वेढुने वियोग पज्यो. कुसुमश्रोयें पूर्वे हासीयें करी देवरनी वहुने वेश्या कही तेथी वेश्यानुं कलंक चडयुं. माटे हे राजन् ! थोडं पण कर्म जीवें जेवा अध्यवसायेंकरी पाबले नवें उपायु होय ते तेमज आवता नवने विपे जीव जोगवे तीव्रपरिणामें बांधेनुं कर्म अनंतगुणु पण जोगवे वली हे राजन ! तमें वेदुजणें पूर्वे दा नादिक चार प्रकारनो धर्म प्राराध्यो हतो तेथी तमो चार नगरनां जूदा जूदां चार राज्य पाम्यां अने पव्यंकादिक त्रण रत्न तथा चोथु देवी प्रसन्न थइ ते पण एक रत्न एम चार रत्न पण पाम्यां अथवा झानादिक त्रण रत्न आराध्यां हतां तेया पल्यंकादिक त्रणरत्न पाम्यां बो. ___ एवी केवली नगवानना मुखनी वाणी सनिलीने वेदुने जातिस्मरण न पन्युं तेथी पाउलो नव दीतो तेवारे वैराग्य पामी समकित सहित श्राव कनां बार व्रतरूप धर्मनो अंगीकार कस्यो सर्वथा प्रकारे अनर्थदंमनो त्या ग कस्यो. एम घणा कालपर्यंत चार प्रकारनो श्रावकधर्म आराधी अंत अवस्थायें अनशन करीने बारमे देवलोके देवता थयां तिहां देवतानी क वि जोगवी महाविदेहदे महोटी झदि सहित मनुष्यनो नव पामी सं Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३३७ सारनां सुख जोगवी सजुरुनो उपदेश सांजली चारित्र लइ घोर तपश्या क रीने घातिकर्मनो क्ष्य करी केवलज्ञान पामी नव्यजीवोने धर्मोपदेश आपी नपकार करी सकल कर्मनो दय करीने मोद पामशे. ए आठमा अनर्थदंम विरमणव्रतनेविपे वीरसेन अने कुसुमश्रीनो दृष्टांत कह्यो.ए श्रावकप्रतिक्रम णसूत्रना बालावबोधनेविषेत्रण गुणवतनो त्रीजो अधिकार संपूर्ण थयो। ॥अथ चार शिदात्रतरूप चतुर्थाधिकार प्रारंजः ॥ तेमा प्रथम वारव्रतनी अपेक्षायें नवमुं सामायिक व्रत अथवा चार शिदाव्रतनी अपेक्षायें पहेलुं सामायिक व्रत के तेनो अधिकार कहे जे. ए सामायिकनो विधि, आवश्यकनी चूर्णियकी तथा पंचाशकनी चूर्णि अने योगशास्त्रनी टीका इत्यादि शास्त्रोथी कहियें बैयें तिहां श्रावक वे प्र कारना ने एक दिवंत अने बीजा अहिवंत ते श्रावकोने सामायिक क रवानां चार स्थानक कह्यां . तेमां एक देरासरमा सामायिक करे, बी जुं साधुपासें सामायिक करे, त्रीजु पौपधशालाने विपे सामायिक करे, अ ने चोथु पोताना घरनेविपे सामायिक करे, जेवारें नवराश थाय कां का म न होय तेवारें चार स्थानकमांहे गमे ते स्थानकें जश् सामायिक करे. तेमांजे साधु समीपें आवीने सामायिक करे तेनो विधि कहे .जे श्राव कने माथे कोश्नो नय न होय, कोश्नी साथे वढवाड न होय, कोनुं माथे देवू न होय केम के लहेणुं होय तो लोणावालो आकर्षण खेंचताण क रे ते निमित्तै चिनने संक्लेश थाय माटे तेथी वर्जित एवो श्रावक जेवारें कामकाजथी निवृत्ति पामे तेवारें पोताने घेर सामायिक करी पनी र्यास मिति शोधतो शोधतो, सावद्यनापा बांमतो, कदाचित् श्लेष्म तथा बड खा विगेरेने माटे तृणपखें तथा कांकरो अथवा लाकडानो कटको विगेरे जोश्ये तो. ते वस्तुना स्वामी गृहस्थनी रजा लश्ने पुंजी प्रमार्जीने लीये अने बडखा विगेरेने पण एकांतें निरवद्यस्थानकें नूमिका दृष्टें जो पुंजी प्रमार्जीने यत्नायें परत्वे, एवी विधिपूर्वक पांच समिति अने त्रण गुप्ति सहित थको त्रण निसहि कहेतो गुरुने नपाश्रये जर गुरुने नमीने गुरुनी समद जे विधि कह्यो जे ते विधियें सामायिक दंम्कनो उच्चार करे उच्चार करीने ज्येष्ट वडेरा एवा आचार्यादिकने वांदे तथा न्हाना महोटा सर्व Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. साधुने विधि सहित वांदे वली पण गुरुने वांदी गुरु सन्मुख वेसीने गु रुना मुखथी धर्मदेशना सांजाने, शास्त्र नणे, संशय होय ते पूजे, एमज जिनगृहें देरासरे पण जाणवू. तेमज पोताना घरने विपे तथा पोषधशा लानेविपे सामायिक लश्ने तिहांज रहे, गमन न करे. तथा राजा अथवा प्रधान अथवा शेठ आदिक महर्डिक पुरुषने सा मायिक लेवानो विधि कहे जेः-राजा होय तो गंधहस्ति उपर बेसी बत्र चामर विजाते, राजने अलंकारें अलंकृत, चारे वाजु चतुरंग सेनायें पर वस्यो, नेरी नंना ढक्का नफेरी इत्यादिक वाजिन वाजते, बंदिजन बिरुदा बली बोलते, सर्व सामंत मंझलिकादिक सहित. अढारे वर्णना लोक जो ते थके, नाम नाम नाटक प्रेक्षण जोते थके, सर्व श्रमावंत लोक एकेकने अांगलीयें करी देवाडते थके, रुडा मनोरथ नावते थके, केटलाएक लो क हाथ जोडीने पगे लागते थके, मंगलिकपाठ बोलते थके, केटलांक म नुष्य देखीने अनुमोदना करते थके, धन्य ए राजाने जे ए सामायिक कर शे एवी प्रशंसा करते थके, अथवा धन्य ए धर्मने जे आवा महोटा पुरुषे सेववा योग्य वे एवी सामान्यजने प्रशंसा करतेयके, एम तीर्थनी प्रनावनाने हेतुयें देहेरे तथा साधुसमी जइ तिहां बत्र चामर पान्ही मुकुट खड्ग रूप राजचिन्हनो परिहार करे आवश्यकचूर्णिने विपे एम कडं ने के सा .मायिक करतां मुकुट न राखे ॥ मन्डं न अवणे, कुंमलाणि नाम मुद्द पुप्फ तंबोल पावरगमा वोसिरति॥ एम तिहां प्रावीने पनी ते राजादिक, परमेश्वरनी पूजा करे तेवार पली सर्व साधुने वांदे तेवार पनी सामायिक करे एटले एक मुहूर्तपर्यंत सर्व आरंजनी करणी बमीने समता जावमा रहे. यदादुः ॥ सावक जोगविरश्न, तिगुत्तोसुसंज॥ उवउत्तो जयमाणो, आया सामाश्यं हो ॥ १ ॥ जोसमो सबनुएसु, तसेसु थावरेसु य ॥ त स्स सामाश्यं होइ, ई केवलिनासियं ॥अर्थः-सावद्ययोगथी विरम्यो, त्रण गुप्तियें गुप्तो, कायनो संयमी, उपयोग सहित जयणा करतो, विचरे ते सामायिक आत्मा कहियें ॥ १ ॥ सर्वचूत प्राणीनेविपे, सनेविषे, स्था वरनेविपे, समनाव ने ते सामायिक कहियें एम केवलिये नांख्युं ने ॥२॥ हवे सामायिक शब्दना त्रण अर्थ नियुक्तिकार कहे जेः-सामं सम्मं च समं, इगंमि सामाश्अस्स एगठ॥नामं ग्वणा दविए, जावंमिश्र तेसि नि Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३३५ रकेवो॥१॥मदुरपरिणाम सामं, सम्मतुला सम्मखीरखमजु ॥दोरेदारस्स हई,गि मेयारंतु दवमि ॥२॥आश्चवमा पर, उरकमकरणं रागदोसमधलं ॥ नाणाइतिगं तसाइपोयणं नावसामाश्यं तच्चकरेमि नंते सामाश्यमित्यादि। इहां श्रीयावश्यक नियुक्तिनी महोटी टीकामांहे सामायिकने अधिकारें श्रीहरिनश्सूरियें कह्यु के के गृहस्थ पण गृहस्थपणे सामायिक करे तिहां करेमिनंते इत्यादिक सामायिक दंझकनो उचार करे तेमां विहं तिविहेणं एवो पाठ नच्चारे पण तिविहं तिविहेणं एवो पाठ केम नथी नच्चारता एवो पाठ नचारतां शो दोप वे एवं शिष्यें पूछे थके गुरु उत्तर कहे जे. के गृह स्थें पूर्व आरंजादिक कार्य कस्यां ने अने पागल पण तेने आरंनादिक कार्य करवानो अनिलाप ने तेमाटे गृहस्थथी अनुमोदनानो निपेध न था य जो अनुमोदनानो निपेध करे तो पञ्चरकाण जंग थाय तेथी गृहस्थने माटे त्रिविधं त्रिविधं एवो पाठ को आगममां कह्यो नथी. तथा ग्रंथांतरनेविपे त्रिविध त्रिविधेन एवो पाठ कह्यो ले ते पण को क प्रयोजनें कह्यो . यमुक्तं महानाष्ये ॥जकिंचिदप्पण, मप्पप्पंवा विसेसिवनु ॥ पञ्चरिकऊ नदोसो, संयंनु रमणा मनुवा ॥१॥ नावार्थःजे को प्रयोजन रहित एवी अल्पमात्र वस्तुने विशेषपणे करवाने त्रिविध त्रिविधं करी पञ्चरके ने तेनो दोष नही, स्वयंजूरमण समुना मत्स्यना मांसना नियमनी पेरें ॥ इहां सामायिकनेविपे तो सामान्य प्रकारे निय मनुं ग्रहण पण पूर्वाचार्यनी परंपरा जेम होय तेम प्रमाण थाय ॥ हवे सामायिकनो काल कहे जेः-जघन्यमा जघन्य वे घडीनुं सामायि क कर. श्रावकप्रतिक्रमणनी चूरणीमां पण ॥ जावनियमं पछुवासा मि इत्यादि पाठ कह्यो रे तेनो अर्थ कहे जे के यावत् नियमपर्यंत पर्युपासना करूं बुंए जो के सामान्य वचन ले तो पण जघन्यथकी अंतर्मुहूर्तमात्र नियमने विपे रहे पडी वली आगल समाधि होय तो नजे वेठो रहे तथा कलिकालमांहे सर्वज्ञ सरखा श्रीहेमाचार्य पण कयुं . यतः ॥ त्यक्तात रोऽध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मणः ॥ मुहूर्त समतायुक्तं, विपुः सामायिकवतं ॥ १ ॥ जेणें आर्तरौध्यान बांमयां में तथा सावद्यकर्मनो एटले सदोष कर्मनो जेणे त्याग कस्यो ठे एवा पुरुपर्नु मुहूर्तमात्र एटले वे घडी पर्यंत समतायुक्त जे ध्यान तेने सत्पुरुषो सामायिक कहे जे. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. - ए अशत एवा अर्थात् अतितत्वक एवा पूर्वाचार्यनी परंपरा ते प्रमाण डे आगममांहे ते परंपरानुं प्रमाण मान्युं ने श्रीसूयगडांगनी नियुक्तिमाहे पण कयुं के आचार्यनी परंपरायेंकरी अनानुपूर्वीये जे आव्यो ते वा तमां कोण जाणे केम एवा संशयना करनारा जे होय ते तो कोश्क उन्जेदवादी जमाली सरखा जाणवा, हवे ए सामायिकव्रतना पांच अतिचार पडिक्कमवाने गाथा कहे जे. ॥तिविहे उप्पणिहाणे, अणवहाणे तदा सम विदुणे॥ सामाझ्यवितहकए, पढमे सिरस्कावएनिंदे॥ ७ ॥ अर्थः-प्रथम त्रण प्रकारर्नु छःप्रणिधान ने तेमां पहेलुं मनेंकरी वीजुं वचनें करीने अनेत्रीजुं कायायेंकरीने, तिहां माता अध्यवसाययी मनेंकरी गृह हा टादिक संबंधि सावधव्यापार चिंतव, ते प्रथम मनःप्रणिधान नामा अतिचार जाणवो वली शास्वनेविषे कह्यु के के सामायिक करीने पबीजे श्रावक आध्यान रौध्यानने वशंकरी घरनी चिंता करे तेनुं सामा यिक निरर्थक जाणवू. ए प्रथम मनोःप्रणिधान अतिचार जाणवो. २ वचनेकरी सावद्य कतिनादिक कर्कश वचन बोलवां ते वचन दुःप्र णिधान नामा वीजो अतिचार जाणवो. __ ३ कायायें कर। अपडिलेही अणपुंजी जूमिमांहे वेसे पग पसारे इत्या दिक सर्व कायःप्रणिधान नामा त्रीजो अतिचार जाणवो. ४ अनवस्थान ते मुहूर्तादिक मेलानुं प्रमाण न राखे सामायिक अण पुगे पारे अथवा सामायिक करवानी वेला बते पण आदर रहित सामा यिक करे, सामायिक करवानो जेवारें अवसर होय तेवारें न करे तो प्र माद प्रसंग थाय बावश्यक चूर्णिकार कहे ले के “ जाहेखणि ताहे सा माश्यं कर” एटलें जेवारें अवसर मले नवराश थायते दाणें अवश्य सा मायिक करे जो न करे तो अनवस्था दोप नामा चोथो अतिचार लागे. ___ ५ स्मृतिविहीन अतिचार ते सामायिक खेश्ने पढी निशदिकना प्रबल पणायकी परवश थाय अथवा घर हाहादिकनी चिंताना व्ययपणाथकी सामायिक पार, वीसारी मूके. शून्यपणे सामायिक कयुं के नथी करयुं अथवा ए सामायिकनी वेला जे के नथी इत्यादिक जेवारें न सांबरे तेवा Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३४१ रें स्मृतिविहीन एवे नामे पांचमोअतिचार जाणवो. जे माटे मोदसाधनअनुष्ठान क्रिया तेनुं मूल स्मरण में ते जेवारें प्रमाद सहित थकां सांबरे नही तेवारे ते सामायिक पण निष्फल जाणवो. __ ए पांचे अतिचार प्रमादना बदुलपणाथी लागे ते अनानपयोगें उप योगनी शून्यतायें अतिचार कहीयें ए प्रथम शिदाव्रतने विषे जे वितथ थयु होय ते निंउं इत्यादिनो अर्थ पूर्ववत् जागवो ॥ २७ ॥ हां शिष्य पूजे जे के सामायिक त्रिविधं त्रिविधं उचयुं ने अने मन तो काणे रहेतुं नथी एटलामाटे मननू कुप्रणिधान लागे . तेथी सा मायिक जंग थाय ने माटे व्रत लश्ने नांगq ते करतां तो न कर तेज रुडं . इहां गुरु उत्तर कहे जे के हे शिष्य ! एम न बोलवं जेमाटे सामायि क लेतां मन वचन अने कायायें न करूं न करा, ए न कोटीयें पञ्चरका ण कयं ले तेमां अनानपयोगें एकांतें सामायिकनो नंग न थाय. अति चार लागे पण सामायिकनो अनाव न थाय मनःप्रणिधाने मिजामि मुक्कड दीधे शुक्षि थाय परंतु मुनगं सामायिकज न करवू एमज जो तुं क हीश तेवारें तो कोथी सर्व विरतिपणुं पण न लेवाय. वली केटलाएक एम कहे जे के अवधियें कस्या करतां नहिंज करते सारं ने ए वचन पण अयुक्त ने. यमुक्तं ॥अवहिकयावरमकयं ॥ इत्यादिक पाठनो अर्थ कहे डे के अवधियें कस्याथकी तो अणकपुंज नहुँ एबुं वच न बोलनारने पण आगमना जाण पुरुपो अशुन वचन कहे के कारण के अण करवायकी महोटुं प्रायश्चित्त थाय ने बने अवधियें पण कस्यायकी लघुप्रायश्चित्त थाय. अतिचार सहित पण अनुष्टाननो अन्यास करतां ते अन्यासथकी अ तिचार रहित पण अनुष्टान थाय. अन्यास करता करतां माहापण चतु राइ पण आवे छे, जेम बाण नाखवानी कला शीखतां पहेनेज दिवमें कां अमोघ वाण पडतुं नथी परंतु अन्यास करतां करतां अर्जुन तथा कर्णादिकनी पेठे धनुपादिकनी कलामां अमोघवाणी थइ जवाय ने ते मज नित्य अन्यास करवायकी लेखन पतन गीत नृत्यादिकनी नली क ला पण सर्व आवडे जे. जेम कोरा पात्रमा पाणीनो एक विंदु मूकीयें ते पण तरत नम्रतानावने न पामे पुनः पुनः अन्यासें नम्रता थाय तेमा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. टे नलीरीतें मनःशुध्येि यत्नेकरीने अवसर मजे थके वारंवार सामायिक करवू यतः ॥ सामाश्यंमि नकए, समणोश्व साव दवइ जम्मा ॥ एएण कारणेणं, बहुसो सामाश्यं कुळा॥१॥जीवो पमाय बदुलो, बदुसोविय बहु विहेसु असु ॥ एएण कारणेणं, बहुसो सामाश्यं कुता ॥॥ नावार्थः-सा मायिक करे यके साधुनी पेरें श्रावक जाणवो जेमाटे ए ए कारणे करीने घणा वखत सामायिक करजे ॥१॥ घणा पदार्थमांहे जीव घणो प्रमादी ने ए कारण माटे सामायिक करजे तथा यावश्यकचूर्णिमांहे पण कडं के॥ यदासवसामाश्यंकान असत्तो तदा देससामाश्यंपि ताव बदुसो कुजा इति तथा जलवा वि समअबश्वानिवावारो सबब सामाश्यं करे इति एटले जो सर्वथकी सामायिक करवा समर्थ नथी तो देशथकी सामायिक पण वारं वार करवू इति ॥ तेम जिहां विश्राम करे तथा जिहां कोई कार्य करवून होय के व्यापार न होय तिहां सघले उकाणे सामायिक करे इति ॥ एम करवाथी वे संध्यायें सामायिक अवश्य करवू एवा नियमनुं टलवापणुं ययु कारण के निवृति तो एक दिवसमाहे घणा वसत संनवे . एटने या वे लायें सामायिक न नेवाय एवो नियम समजयो नही परंतु जेनारे नवरा श होय कोई काम न होय तेवारें सामायिक करे एथी व संध्या टालीन व णी वखत सामायिक करे एम सिह थयु विशेपयुक्ति जोवी होय तो प्रज्य प्रणीत विचारामृतसंग्रह ग्रंथथी जोइ लेजो. हां कोई पूजे के जेवारे नवराश अर्दघटिका मात्रज होय परंतु बघ टिका पर्यंत न होय तो तेवारे ते यावत् वे घडीना नियम पर्यंत सामा यिक केम करे. कारण के नियमनुं मानतो जघन्यथकी वे घटिकानुज कह्यु बे. माटे तेटलो वखत न मले तो जावनियमं एवो पाठ केम कहे. ___ गुरु उत्तर कहे जे. हे शिष्य ! तें कह्यं ते सत्य ले परंतु जेवारें नवराश थोडी होय तेवारें सामायिक दंमक उन्नया विना एमज समता नावमा रहे तेज सामायिक कहियें एम संनवियें बेये. तत्त्वं बहुश्रुतगम्यं ॥ हवे सामायिक, फल कहे जे ॥ दिवसे दिवसे लरकं, देश सुवन्नस्स खमियं एगो ॥ श्यरो पुणसामाश्यं, करे न पहूपए तस्स ॥१॥ सामाश्यंकुणतो, समनावं सावध घडिय डुग्गं ॥ आउ सुरेसु बंधs, इति अमित्ताइ पति याई ॥ ॥ बाणवा कोडी, लरका गुणसहि सहस्स पणवीसं ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३४३ नवसय पण वीसाए, सतिहा अडनाग पलियस्स ॥ ३ ॥ तिवतवं तवमा गो. जनवि निठव जम्मकोडीहिं ॥ तं समनावित्र चित्तो, खवे कम्मर : गणं ॥ ४ ॥ जे केवि गया मोरकं, जेविय गति जे गम्मिसंति ॥ तेस वे सामाश्य, महाप्पेणं मुणेयत्वं ॥ ५ ॥ न हूयते तप्य तेन, दीयते वा न किंचन ॥ अहो अमूव्यं कर्त्तव्यं, साम्यमात्रेण निवृतिः ॥ ६ ॥ नावार्थः-एक तो दिवसें दिवसें लाख रवांमी सोना, दान आपे अने इतर ते बीजो वली एक सामायिक करे ते तेनुं फल बरोबर न आवे सुवर्ण दानयकी पण सामायिकनुं फल अधिक डे ॥ १ ॥ सामायिक करतोथको पण समजावें श्रावक वे घडी प्रमाण करे ते एटला पस्योपम मात्र देव तानुं पान वांधे ॥ २ ॥ वाणुं कोडी, गणसात लाख, पञ्चीश हजार नवसे ने पञ्चीश पव्योपम अने एक पठ्योपमना आतीया त्रण नाग नपर देवतार्नु आन बांधे ॥३॥ तीव्रतप तपतां पण नवनी कोडीयें करी जे कर्म खेरु न थाय ते समतामांहे चित्तने नावतां एक अक्षणमांहे कर्म खपावे ॥ ॥ जे कोइ जीव मोद गया, जे वली जाय जे, अने वली जे मादें जाशे ते सर्व सामायिकनुं माहात्म्य जाणवू ॥ ५॥ होम न करीयें, तप न करीयें, दान न ापीयें, बीजुं कांश पण न करीये पण जेनुं मूल्य नथी एवी समतामात्रेकरीनेज निवृति ए टले मोदसुख प्राप्त थाय बे॥६॥ ए सत्तावीशमी गाथानो अर्थ थयो॥२७॥ हवे ए सामायिक व्रतने विषे व्यवहारी पुत्र धनमित्रनो दृष्टांत कहे जेः- स्वस्तिकनी पेठे कल्याणकारी एवं स्वस्तिकपुर नामे एक नगर हतुं तिहां जेणे सर्व वैरीने वश कस्या ले एवो अरविंद नामे राजा ते झदि यें करी इंश सरखो हतो अने गुरुतायें करी महोटायें करी गिरीइसर खो हतो तथा जेना प्रतापरूप दीपक ते प्रजाने दीवा सरखा उद्योत कर ता दता अने वैरीरूप पतंगिया तेमां जंपाइ मरण पामता हता जेम इं ने मदनप्रना प्रमुख आठ अयमहिषी हती तेम ए अरविंद राजाने आठ अग्रमहिषी पटराणी हती तथा पांचशे बीजी राणीयो हती परंतु ते राजाने एकेय पुत्र न थयो ते राजायें पुत्र प्राप्तिना अनेक उपाय कस्या पण पुत्र Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. थयो नही तेथी ते राजा पोताना राज्यसुखने निष्फल करी मानवा लाग्यो. हवे एज नगरमा शेलडीना सांगानी पेरें स्वनावें मधुर अने धनें करीने धनदसरखो एवो धनद नामे शेठ वसे ले ते शोकोड सोनैयानो धणी , वती श्रीजिनधर्मनो प्रनायक ने, जेणे पोता सरखा एक हजारने आठ व्या पारी बीजा कस्या ने तेने धनश्रीनामे स्त्री ने ते घणीज चतुर , वे प्रकार नी लक्ष्मीयें करी अतिशय शोने ने, नपमाये रहित ने तेनो धनमित्र एवे नामें पुत्र ले ते केवो वे अविनीत ने, अन्यायमां कुशल , शेतना कुल नेविपे अनर्थकारक, न्हानपणथीज घरमांथी इव्य चोरीने लइ जाय, चो रनी पेठे अघोर कर्मनो करनार, एम तेने घर संबंधि सर्व व्यने खराव करतो देखीने तेनां मातपितायें घणी शीखामण दीधी तोपण विपरीत शिक्षित अश्वनी पेरें वली ते अधिक अवलो चाव्यो. यद्यपि ते वीजीपण वाणिज्यादिकनी कला सर्व रूडीरीतें शीखेलो ते माह्यो ले तथापि ते तेने कां इपण उपयोगमां आवी नही परंतु एक चोरी करवानी कला तेने शीख्या विना पोतानी मेलेज आवडी गइ तेमां क्यांय स्खलना पामे नही. एम करतां ते जेवारे नरयौवन अवस्था पाम्यो तेवारें तो ते वली सा ते उर्व्यसनने सेवनार थयो. जेम लीवडानो रस काढ्यो यको अति कटु क थाय तेम ते प्रथम लीवडा जेवो कटुक हतो अने वली युवानीमां तो अत्यंत कटुक थयो. जाणीयें नरकना हारनेज उघाडतो होयनी तेनी पेठे ग्रहस्थोना घरनेविपे नित्य खातर पाडीने तेनुं सघलु इव्य लीये तथा प्र त्यह पाप सरयुं जुगटुं ते अनर्थरूप में अत्यंत महोटो नरकगतिनो दूत तो पण विटलपुरुपोनी साथे मतीने लकारहित थको जुगटुं रमे एम ते धनमित्र पोताना वेदु नव हणवाने सज थयो ते अनार्य एवो थको गणि काना व्यसनमां पण आसक्त होतो हवो, मदिरा तथा मांसनुं पण ते रा दसनी पेरें जहाण करवा लाग्यो जेमाटे गणिकाना व्यसनिने गुं लक्ष्य अनक्ष्य में तेने तो सर्व को चीज नदयज . ते धनमित्र पोताना आत्माने विषे जे चोरी करे तेने कामधेनु सरखी करी मानतो हवो, गणिकानुं आंगणुं ते देवताना आंगणानी पेरे माने, मां सने देवताना नोजन सर माने, मदिराने अमृतपान सरखी माने, जे Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३४५ वात स्वजनने विरु६ होय ते उर्जनने मानवा योग्य होय. जे वस्तु अन्य जनोने निंदवा योग्य होय ते चीज कूतराने नदवा योग्य होय. एकदा ते धनमित्र चोरी करवा माटे कोकना घरमा पेठो तेवामां जेम आहेडो करनार व्याघ्र जनावरने बांधी पकडी लावे तेम तेने कोटवा ले पकडी बांधीने राजानी पासे आएयो राजायें उत्लख्यो जे ए शेठनो पुत्र के तेवारे शेतने तेडावीने कयुं के आ वध करवा योग्य वे पण तमारो पुत्र जाणीने तमारी दाक्षिण्यताने लीधे हुँ जीवतो मूकुंj पण जो हवे चोरी करशे तो मूकीश नही ॥ यतः॥ स्थानं सर्वस्य दातव्य, मेकवारापराधिनः॥ हितीयपतने दंता, वक्रेणापि विवर्जिताः ॥ नावार्थः-एकवार अपराधिने माफी करी आपवी केमके पहेलीवार दांत पड्या हता ते मोढामां नग्या. पण बीजीवार पडेला दांतने मोटे पण बोडी दीधा नगवा दीधा नथी तेम आ अपराधिने पहेलीवार तमारो पुत्र जाणीने ढुं बोडी मेबुं बु. ते सांजलीने शेवें कडं हे राजाधिराज ! महाप्रसाद कस्यो. में एने घणी शीखामण दीधी पण ए चोरीथी निवत्यों नही चोरी, व्यसन न मूक्यु तेवारें में एने कह्यु के तुं महारो पुत्र नही अने हुँ तहारो बाप नहीं एम कही जेम खोटा अकरने अलगा करीये तेम में महाराथी अलगो कयो ॥ यतः ॥ उष्टः सुतोऽपि निर्वास्यः, स्वामिना न्यायगामिना ॥ ग्रहपंक्तेर्यहा धीशः, शनिमंते न्यवी विशत् ॥ नावार्थः-न्यायमार्गे चालनार स्वामियें तो. पोतानो सगो पुत्र पण जो पुष्ट थयो होय तो तेने दूर काहाडी मेलवो जेम ग्रहना अधिपति सूर्ये पोताना पुत्र शनिने पण ग्रहनी पंक्तिने बेले नागे राख्यो तेम पिताये नगारा पुत्रने जूदो कहाढवो. ___एवी शेनी वाणी सांजलीने राजायें कह्यं सारं कयुं सारं को, एम कही बहुमान देइने शेठने विसर्जन कस्यो. लोक सदु पोत पोताने कार्य प्रवयु ॥ यतः ॥ आदेयत्वमसंस्तुतेऽपि हि जने विस्तारयत्यंजसा, उत्ता नपि सांत्वयत्यवनिनृत् प्रायोनपायोद्यतान् ॥ तं संवर्गयते त्रिवर्गमिह वाऽ मुत्रापि यस्मानुनं, किं वा तत्र तनोति यत्सुकतिनामौचित्यचिंतामणिः ॥ नावार्थः- राजा दीन माणसनुं पण अनायासें आदर आपवा योग्यप | वधारे ने अर्थात् ते जो सदाचारी होय तो तेना माननो वधारो करी आपे ने अने माणसोने नुकसान करवामां तत्पर एवा कुष्ट लोकोने घj Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. करीने शिक्षा करे ले अने शांत करे , तेवा राजाने धर्म अर्थ अने काम एत्रणेय वर्ग आ लोक अने परलोकनेविषे प्राप्त थाय ने माटे जेथी गुन नो विस्तार थाय ने एवो ते सुरती, पुरुपोनी मध्ये उचित कार्य करवामां चिंतामणि जेवो ते युं सुकतने वधारतो नथी ? ना वधारे ज. हवे धनमित्र विचारवा लाग्यो के हमणां तो मने धनदशेनो पुत्र जाणी ने राजायें मुक्यो ने पण हके जो राजाने हाथ चढीश तो राजा अवश्य मु जने मारी नाखशे अने महारो तो जन्मथी मामीने आज दिवस लगण चोरी करवामां एक दिवस खाली गयो नथी था जन्ममांतो महारे चोरी सार्थेज प्रम ने माटे ढुं चोरी कस्याविना तो बिलकुल एकदिवसपण रही श कुं तेम नथी. जेमको युवान पुरुप प्राणवान प्रियाविना रही शके नही तेम ढुं चोरीविना रहीशकुं नही जेमाटे वेल होय ते तो अवसरें फलेने पण आ चोरीरूप जे वेल ले तेतो तत्काल फले में दरीही होय ते धनवंत थाय. माटे ढुं चोरी न करूं तो पनी बीजो ते गुं धंधा करूं, तेथी जे होनार हो ते न हो. पण चोरीतो मूकवी नही, जेना प्रनावथी स्वेबाये विलास करूं माटे हवे जो कोइक वैद्य मले अने जो ते अदृश्य थवा, अंजन अथवा एवं कांश सिह औषध मुजने करी थापे तो हुं कृतार्थ थावं. अने मनना मनो रथ पुरुं जेना प्रनावथी महारे नगरमां सुखे जर्बु श्राव, थाय. पड़ी ते धनमित्र नगरमां नमतां जमतां एकस्थानकें कलासिम एवा यो गीश्वरने दीतो ते सिद्धपुरुपने घणुंधन आपी वश्य करीने तेनी पासेथी अं जनसिदि विद्या लीधी केमके दानथकी शुं नथाय ? यतः॥ दानेन नूतानि वशीनवंति, दानेन वैराण्यपि यांति नाशं ॥ परोपि बंधुत्वमुपैति दाना, ततःप्ट थिव्यां प्रवरं हि दानं ॥ जावार्थः-दानेंकरीने प्राणिमात्र वश थायले दानथी वैर पण नाश पामे ले वली दानथी शत्रुपण बंधुपणाने पामे तेथी पृथ्वीने विषे दान ले ते सर्वथी श्रेष्ट बे. हवे एकतो सिंह अने वली पाखस्यो तथा क्रूर सर्पने वली ते पांखो सहि त होय अथवा एकतो सर्पने ते वली बेड्यो तेम ते धन मित्र विद्यायेंक री सर्पनी पेठे कुःसह थयो, धनपतियोना घरमांथी धन चोरी लावे जा णे बीजो रोहिणीयो चोर प्रगट थयो होयनी! तेमज वली स्वेबायें परदा रा गमन करे, लोकना घरमांहे व्यंतरनी पेठे प्रवेश करे एम ते धनमित्र Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३४७ अदृश्यथको लोकोनां धन चोरीने पर्वतनी गुफामांहे घाले एरीते तेणे गुफा मांहे एक महोटो पापरूप धननो नंमार कस्यो. जेम जीवनुं जीवितव्य कोथी हणाय नही तेम ते धनमित्रपण कोश्थी हणाय नही सूक्ष्म वाय रानी पेठे सर्वत्र संचार करे तेने राजा तथा कोटवाल पकडवाना घणा न पाय करे पण कोथी पकडाय नही ने ते चोर कोथी कलाय नही. वली ते धनमित्र नित्य राजसनामां पण व्यापारिनी पेठे आवे अने एवी वातो करेके हुँतो जे दिवसें राजाने हाथ चढ्यो बुं ते दिवसथी में चोरी करवी मूकी दीधी ने एवी वातुं करे अने राजसनामां जे कोइ बीजो पुरुष चोरने पकडवानी प्रतिज्ञा करे तो ते प्रथम तेनाज घरनुं धन सर्व ह रण करी जाय. राजा तथा सर्वलोक धनमित्रने पूर्वनी चेष्टायें जाणे खरा के एज चोर ले पण मुद्दो हाथै अाव्याविना कांई कहेवाय नही, दिवस अने रात्रं वे बेतां जोतांजोतांमां कोई देखे नही कोइ जाणे नही तेम वस्तु लइ जाय अतिशय धूर्त माटे कोई कली शके नही. ए वस्त्र शस्त्र धननो अतिगूढ चोर ले तेने पकडी आपे एवो माह्यो कोइ नथी अने राजाने पण ते चोरने पकडवानी कशी बुद्धि सूजी नहीं. तेवारें राजायें नग रमां पडह वजडाव्यो के जे कोऽ चोरने पकडी आपे तेने राजा कोड सो नेया आपे ते पडतो एक धूतारी गणिकायें बव्यो ते गणिकायें राजापामें आवीने कडं के ढुं सात दिवसमांहे चोरने पकडी आपीश एवी गणिका. नी वाणी सांजली राजा हर्ष पामीने तेने पाननुं बीईं बापतो हवो. आ जगतमा जे विपम कार्य करे ते कोने वनन न लागे? पड़ी ते गणिकायें विचायुं जे निश्चे ए चोरने कोई अंजनसिक ते अय वा को विद्या सिम ले तेणेंकरीने ते कोश्ने हाथ आवतो नथी एम निर धारीने पनी ते गणिकायें पोताना घर, सर्व इव्य नोंयरामां मंजुपामां नाखीने घरनां बारणां सारीपेठे बंध करी योगिणीनी पेरे रात्रिनेविपे प ण घरमां जागतीयकी रहे ते एकायचित्तें चोरने पकडवानोज उपाय शो धती रहेडे वली ते चोरने पकडतां कदाचित् ते मुजने मारशे एटला माटे जेम आहेडी जनावरने पकडवामाटे पोतानी साथें कूतरा राखे तेम ते वेश्या पोताना घरमां सुनट राखती हवी. हवे ते चोर पण गणिकाज घर लॅटवामाटे अदृश्य थको वारंवार Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैनकथा रत्नकोष जाग चोथो. कूतरानी पेठे लाग जोतो बिजोया करेले मनमां विचारे बे के हुं एना घरमा पेसी जानं पण दिवसेंतो पेसी शक्यो नही तेवारे रात्रें खात्र खणवा ने जेवारें सऊ ययो तेवारे माता जेम दीकराने कार्य करतां वारे तेम ते धनमित्रने वारवा माटे माता सरखी बींक य पी जेटने खातर देवा जाय एटले विविध प्रकारनां अपशुकन थवा मांमयां ते अपशुकने वारते के दिवस बीत गया पण गणिकानुं घर चोरी शक्यो नही तेवारें ते धनमित्र विचारखा लाग्यो के वारंवार डुर्निमित्त थायने तेथी निश्चय ए धूतारी मने पकडो माटे एना घरमा चोरी न करवी जे उचित जाणे ते पु रुप माह्या जाणवा. यतः ॥ गयांमि गहासयमि, सुविलया सनणयाव गेसु ॥ हवि हरीति पुरिसं, जह दिन पुल्वकम्मे हिं ॥ जावार्थः ग्रह जे ने तेने आकाशने विषे, तथा सकनने पण शुं विनीतपणुं खने शुं विनीतपएं एवं कां पण न सुजवा आापे एवी जे संशयवाली समजण ले ते समजण नेविषे चलावनार पूर्वजन्मना कर्म ले तेने ते मार्गे चलावे . तेम पुरुषने पण शकुन अपशकुन ए पूर्वकर्मने अनुसारे दसरडी जाय ले. आज सातमो दिवस बे चोरी तो हाथमां यावती यावे पण अनर्थ तो प्रत्यक्ष देखाय बे. एम चिंतवतो ते सातमा दिवसनी रात्रिनेविषे कोइ क कोटीध्वजना घरमा खातर खणवा जेम पोताना घरमा पेसे तेम पेठो त्यां जवेळे तो ते व्यवहारियो एक कांगणीने अर्थ कोघेंकरीने पोताना बां कराने शत्रुनी पेठे ताडना करतो दीठो तेवारे ते धनमित्र चोरने करुणा उपनी जो हुं ए कृपणनुं धन लइश तो एनुं हृदय फाटी पडशे एवं वि चारी चंमालना घरनी पेठे तेना घरने पवित्र जाणीने त्यांथी बाहिर नि कलीने कोइ सोनारना घरमा पेठगे तेना घरमां गम ठाम नकरडाना ढग लानी पेठें रखना ढगला दीवा राजादिकना घरथकी ते रज ल यावीने ते सोनी धूलने धमी धमीने मांहेथी जे कां सुवर्ण निकले ते लीये वे पण एक अणु जेटली रज पण मूकतो नथी तेनी रांकनी पेठे घरना माणस प्रार्थना करे वे तो पण उठतो नथी, ए रीतें सोनीने धूल चुंथतो देखीने विचारवा लाग्यो जे एनुं धन पण महारे खपे नहीं एम चिंतवी सोनीना घरमाथी पण पाठो निकल्यो. पछी राजानी मानीति महर्दिक गणिका ह ती तेना घरमा पेठो तिहां पारविनानी लक्ष्मी तो दीवी पण सिंहासन व Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३४० पर एक अतिशय गंबनीक गलत कोढीयो वेगे दीवगे ते वली वृद्ध थ येलो ने ांधलो पण बे तेनी सायें ते वेश्या विषयसुख विलसे ने ते देखीने विचार जे खरे धिक्कार के ए गलिकाने जे धननी लालचें या वृद्ध गलकोटीया धानी सार्थे विषय सेवेवे एम चिंतवी तिहांथी पण निक्ल्यो ने कोइक धनाढ्य कत्रीना घरमा पेठगे ते दत्रीनी स्त्रीयें ते दिवसें कोई थारण खोयुं वे तेथी ते क्रोधित थयो थको जेम दाणांनां कुंमांने लाकडीयें कूटीयें तेम पोतानी जार्याने मारतो हतो तेथी ते तरतज मरण पामी एवी रीतें ते पुष्ट त्रीयें पोतानी स्त्रीने निर्दयपणे मारी नाखी ते देखीने तिहांथी पण निकलीने राजानो जंमार फोडवाने रा जनुवनमां गयो तिहां जई जूवे ने तो राजा नरनिशमां अंबे बेखने ठाम गम इव्यनी पेटीयो पडी बे पण ते राजानी पटराणी सती बे ते, ते दिवसें एक कुबडा पुरुष साथै घणी वार जोग जोगवीने असुरी यावी ते वामां दैवयोगें राजा पण निशरहित थइ गयो ने राणीने पूढधुं तुंक्यां गइ हती? तेवारें स्त्रीनें स्वनावें सुलन एवा कल्पित उत्तर ते देती हवी. पी निशमां घूमांणां वे नेत्र जेनां एवो राजा वली पण सुइ गयो परंतु राणि ना चित्तमां एव शंका रही के आज राजायें मुजने डुराचारणी जाणी बे माटे हुं राजाने मारीने पढी कुबडा पुरुषनी सायें स्वेच्छायें विलास करूं. एवं विचारीने ते इष्टस्त्रीयें नरनिशमां सुतेला राजानुं गलुं पोताने गु ठें करी दबावयुं के तत्काल राजानां प्राण गयां ते देखीने धनमित्र विचा रवा लाग्यो के धिःकार ने स्त्रीचरित्रने ! जेम कसा बकराने गनुं बांधी दावे तेवतें एनी पटराणीयें एनुं गलुं दावी मारी नाख्यो. पढी ते ए पटराणी होकार करती कपटथी उठीने पोकार करवा लागी के अहो श्र हो राजाने गुं ययुं ! ते पोकार सांगली प्रधान प्रमुख सहु दोडी याव्या तिहां राजाने जीवरहित देखीने सर्व वजाहतनी पेरें मूर्बित थइ पड्या. तेःखें जोवा योग्य एवं सतीनुं चरित्र देखीने चोर चिंतवे ने के निंद्यमां निंद्य एवीए पापणीना मस्तक उपर एक महोटी वज्रशिला पडो, एम हृदयमां कहेतो थको तिहांथी निकल्यो अने विचारवा लाग्यो के हो याज चोरीने विषे विघ्न केम थाय बे ? ए विशेष दुर्निमित्त केम लंघन कराय, माटे यौवनवती स्त्रीनें जेम नरतारविना काल अफल Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. जाय तेम महारी बाजनी रात्रि पण विफल जाय जे. अने चोरी करवानी महारी प्रतिज्ञा ने तेनो नंग करीने घेर पण केम जावं माटे में जे प्रतिज्ञा करी ने के जे पडहो बवे तेहना धरमांधीज चोरी करवी ते प्रतिझाने सत्य करूं एम चिंतवी माटे पालो गणिकाना घर आगल जश्ने तिहां कूतरानी पेठे ताकीने मुदित थको मांहे प्रवेश करवानो लाग जुवे . हवे वेश्या पण विचारे जे आज सातमो दिवस के माटे अवश्य चोर खातर पाडवा महारा घरमां पावशे तेथी तेणे धूवाडानी घडी द शेदिशे तेनां मुरव वांधीने राखी मूकी ने. हवे ते धनमित्र पण खातर देने गूढगतियें जेम जीव संक्रमे तेम ते गणिकाना घरमांहे पेतो अने अमृतना कुंममाथी जेम रादु अमृत लीये तेम तेणें मंजुपामांथी इव्य काढयुं ते यद्यपि चोर अदृश्य ने तथापि पिशाचनी पेठे प्रवेश करे उ ते संचार तेणे ध्यानमाहे राखीने पगलाने अनुसार जाण्युं तेवारे ते धूतारीयें धूवाडानी घडीन सर्व उघाडी मूकी ते धूवाडाना प्रनावथी ते चोरनी प्रांरवोमांथी यांसुयें करी पाणी गलतुं हवं ते जेम नांगेला नाजनमाथी पाणी तृटे ते म तेनी आंखमाथी पाणी लूटना लाग्युं तेथी आंजेलुं अंजन सर्व धोवाइ गयुं अने चोर प्रगट दीवामां आव्यो घरमांयी पाडो निकलवा असमर्थ थयो तेवारे ते गणिकायें प्रथमथी राखेला सुनटो पासे पकडावी बंधावी ने पोतानी प्रतिज्ञा पूरी करी, तेथी ते हर्षित थश्यकी बोकडानी पेठे बां धेला चोरने लऽ कोटवालने आवी सोंप्यो. तेवारें अधिकारी सर्व नेला थइने विचारता हवा जे राजा तो मरण पाम्यो हवे पंच मलीने इनसाफ करे पनी ते पंचें मलीने चोरने वध करवानो दुकुम कस्यो तेवारें यमस रखा एवा कोटवालना सुनटो तेने रासनें चडावी निर्दयपणे मारता थका चोरनां वाजिन वजडावता, चोरने विटंबना पमाडता, साथें हजारोगमे लो कोना समूह कौतुक जोते थके, केटलाएक लोक तङना करते, नगर मांहे ला चोराशी चदुटामां जमाडीने जेटले नगरनी बाहेर लइ आव्या तेटले चोर खेद करीने विचारवा लाग्यो जे अरे मुजने आ शो अनर्थनो विस्तार थयो ! जे उःख महारा स्वप्नमां पण कां न हतुं ते एकाएक बाही केम प्रगट थयुं, अहो आ कुःख मुजने पाप शुकनेंज प्रगट कयं, पण जगतमां एवो कोण जे के जे विधाताना लखेला अझरने फेरवी शके ! वत्ती किंपाक Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५१ वृदनां फल प्रथमतो मीठो लागे पण पढ़ी जेवारे परिणमे तेबारे प्राणर्नु ह रण करे, तेम या चोरीरूप पुष्कर्मना पण विपाक उदय आव्या ते नोगववाज जोश्ये, पण हवे जो हुँ आफुःखथी मुक्त था तो कालांतरें पण चोरीरूप पाप करूं नही, परंतु सर्व व्य आपतां पण या मोतमांथी क्यांयी तूटाय? जीवतो केम रहुँ ? एम चिंतवता अने प्राण कंपावता एवा तेने जेटले यमनी दाढ सरखी शूनीनी पासें लश्याव्या. तेवामां ते नगरनो अपुत्रीयो राजा रा त्रिये मरण पामेलो हतो तेमाटे पंच अधिकारी मली विचार करी तेणें देव अधिष्टित हाथी घोडो बत्र चामरने नंगारकलश ए पंचदिव्य प्रगट करीने नगर माहे फेरव्यां; तिहां राज्यना अनिलापी, गोत्रीया तथा पीतरीया आदिक ते मज कारु नारु प्रमुख बीजा पण अढारे वर्णना लोक राज्य पामवानी होशे कर तैयार थइ रह्या ले पंक्तिनेद नथाय तेम ते सर्वने अाशा सरखी ने. हवे ते पंचदिव्यसहित हाथी पाखा नगरमा जम्यो सर्व नगरवासिलो कोने अवगणीने गामनी बाहेर निकट्यो, तेवारे लोक सदु कहेवा लाग्या के एतो वननुं जनावर ले ते वनमा जश्ने जनावरनी उपर कलश ढोल ते सर्वलोकनुं बोलवू कूतराना जसवानी पेठे अवगणीने ज्यां शूनीपासें चोर ने ननो राख्यो रे त्यां ते पंचदिव्य अाव्यां जाणे कोपूर्वनो संबंधी देखी ने तेने हाथ मनवाज जाय ले के झुं ? एवीरीतें चोरपासे यावी तेने दे खी रीज पामी जेम मेघ गाजे तेम गृहगलाइ शब्द करी गाजवा लाग्यो तिहां सर्वलोकने विस्मय पमाडतो ते हाथी प्रेतवनने अमृतवननी पेरें गणतो गाजवा लाग्यो अने सुंढमा रहेला नंगार कलशनी कारीथी ते चोरने न्हवरावीने जाणीयें चोरीना कलंकना मेलनेज धोतो होयनी गुं? तेम ते धनमित्रने हाथी पवित्र करी संढे नपाडीने पोतानी पीठ पर बे साडतो हवो. जेम पर्वत उपर केसरी सिंह शोने तेम ते धनमित्र हाथीयें बेगे शोज़तो हवो. एटलें घोडे हेपारव शब्द (हणहणाट) कस्यो, बत्र पो तानी मेले विकस्वर थयुं, अर्थात् उघडयुं तथा शरदकालनी पुनमना चं सर निर्मल एवं चामर पण पोतानी मेलेंज वींजवा लाग्युं तथा मुनि प्रमुख पंचशब्द वाजां पण पोतानी मेलें वाजवा लाग्यां देवीयें चोरने रा ज्य आप्यु एम जाणीने सर्व सामंतादिक तेनी आज्ञा मानता हवा. हवे महोटी कदि अने महोटा सामंत मंत्रीश्वर प्रमुखें परवस्यो थको Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जेम देवताने समूहें परवस्त्रो दंड देवलोकमां प्रवेश करे तेम ते धनमित्र राजा राजजुवनने विषे यावी हाथी उपरथी उतरीने जेवामां सिंहासन उपर यावी वेगे तेवामां सामंतादिकें महामहोत्सवें तेनो राज्याभिषेक करयो ने सर्वे मली एवं विचायुं जे एनुं पुण्य दृढ बे माटे गुणनिष्पन्न एवं दृढ पुण्य एनुं नाम पाड, पी दृढपुण्य एवे नामें ते विख्याति पाम्यो. तेनें सामंत राजा सर्वे कन्याउना समूहने परणावता हवा, तिहां ताराना समूह वि पे जेम चंद शोने तेम ते राजा पृथ्वीना वलयनेविषे शोजतो हवो. जेम मा कमने नासकारी थाय तेम उचित साचववेकरीने ते राजा स ने उल्लास पाडतो वो पूर्वना सुकृतना योगथकी सर्वदेशोना राजा यावी वश्य थया. ते धनमित्र विष्णुनी पेरें स्वेच्छायें राज्यसुख जोगवे बे. एवं एनं राज्य जोने सर्व कोइ विचार करवा लाग्या के ए धनमित्रे पाउले नवे सुकृत कां हो के जेना योगथी श्रावुं श्रद्भुतराज्य पाम्यो ते को ज्ञानी याही यावे तो तेने पूढीने संशय टालीयें एवी चिंतवना कस्या करे बे, एवामां त्रणज्ञानें सहित एवा धर्मघोष मुनि उद्यानने विषे पधायानी वधामणी वनपालें श्रावी राजाने दीधी. तेने वधामणीनं दान यापी राजा पोतानो परिवार लइ महोटी ऋद्धि सहित मुनिने वांदीने पू यं, महाराज! हुं सात व्यसननो सेवनार घोर कर्मनो करनार चोर बतां मने राज्य के मल्युं ? ते सांजली मुनि बोल्या हे राजन् ! पाउने नवे तुं मिथ्यात्वी हतो ने ताहरो पाडोशी श्रावक हतो जेम चंडमानी पासें राहु रहे ते श्रावकनी पासें राहु सरखो मिथ्यात्व जाणवो पण ते मि य्यात्वीने पाडोशी श्रावके वारंवार समजावीने जेम पाषाण रुडीरीतें घ ज्योको सरल थाय तेम तेपण सरल नइक परिणामी थयो तेथी ते क दायह बांमीने जेवारे ते श्रावक सामायिक लइने बेसे तेवारें ते नक जीव पण अत्यंत बहुमान धरतो थको तेनी पासें खावी बेसे नलो पाडो शी ते यय जंमार बे तथा जेम कर्पूरादिक रुडी वस्तुनीपासे रहेली बीजी वस्तुपण सुगंधताने पामे तेम ते श्रावकने संगें धर्मवासित थयो. ते श्रावक नित्य सामायिक करतां एकदिवसें ते नड़कें व्रतनु स्वरू प पूब्धुं तेवारे श्रावकें सर्व स्वरूप समजावीने कयुं के ए व्रत साधुनी पेरे पाल्युं कुं बहु फलदायि याय ए मनवांबित अर्थनुं साधन करवाने Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५३ समर्थ डे एनुं हुं केटलुं माहात्म्य कहुँ ए व्रत पाल्युं थकुं तेज दरें मोद सुखने पण आपे एवं . यतः॥ किं तिव्वेण तवेणं, किंच जवेणंच किं चरि तेणं ॥ समयाइ विणमुरको, नदुदु कहवि नदुहोइ ॥ १ ॥ नावार्थः-ती व्रत-करीने गुं? तथा जपेंकरीने गुं? तथा चारित्र पालवाथी झुं थाय? पण समतादिक विना मोदकोश्वारें थयो पण नथी अने थाशे पण नही. एवी श्रावकना मुखनी वाणी सांजलीने ते नक्कि बोल्यो मुजने पण एमज था- एम कही सचित्तादिक सर्व वस्तु बांझी, दृढचित्त राखीने, तेज श्रावकनी पेठे ते नकें पण तादृश सामायिक एकजवार कयुं ते स्वाति नवना पाणीथकी जेम मोती नीपजे तेम श्रावकना पाडोशथकी ते मिथ्यात्वी पण धर्मने योग्य थयो. एकदा समये को सातव्यसनना सेव नारने देवतानी पेठे स्वेबायें सुख विलसतो देखीने मुग्धपणाथकी ते न इकें ते चोरनी प्रशंसा करी अनुक्रमें ते नक श्रावकनां व्रत आराधी म रण पामीने बारमे देवलोकें देवता थयो. तिहाथी चवीने तुं याही धनमि त्रपणे आवी उपन्यो बो. पूर्वला नवनेविपे तें श्रीजिनधर्मनु बहुमान क युं हतुं तेथी तुं उत्तम कुलादिकनी संपदा पाम्यो अने वांडित अर्थनी सि दिपाम्यो, तथा चोरनी प्रशंसा करी तेथी तुं चोर थयो. पाबले नवें जे जे वस्तुनुं बहुमान कयुं होय ते ते वस्तु आ नवे पामवी सुलन थाय. पापी जीवनां प्रशंसादिक बहुमान करतो जीव तेहज नवमां अनर्थनी. परंपराने पामे. तो वली नवांतरनेविषे अनर्थ पामे तेमां तो कहेQज झुं ? ___एक मुहूर्तमात्र अव्यक्तपणे पण लघुनीत वडीनीत प्रमुख अतिचार रहित तें अव्यक्त सामायिक कयुं हतुं ते तहारा जीवने हितकारी थयुं ते पुण्य ना प्रनावथी तुं चोर बतां वली वधने स्थानकें रह्या थकां पण राज्य पा म्यो. माटे पुण्यने झुं दुःसाध्य ने. अव्यक्त सामायिकना फलथी चोरना व धने स्थानकें तुं आ राज्य पाम्यो एकाइ थोडी वात समजवी नही. ए वी राजा सामंतादिक सर्व मुनिना मुखनी वाणी सांजलीने परम प्रतीति येंकरी सामायिक व्रतनो अंगीकार करता हवा. अति नन्नास पामीने न जमाल थका गुरुने वांदीने सदु पोतपोताने स्थानकें याव्या. मुनि पण विहार करता स्थानांतरें गया. हवे शुक्ष्मतिना धणी राजाने सर्वदा शुभ अध्यवसायेंकरी सामायिक व्रत पालतां घणोकाल गयो घणां कर्म खपाव्यां. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. ___ एकदा सांजसमय राजा सामायिक लेइने पडिक्कमणुं करीने पनी स म्यक प्रकारे गुनध्यान ध्याय ने एवामां पूर्व कोश्क ब्राह्मण ते जातें चोर न हतो पण तेनी उपर राजायें चोरीनुं कलंक चढावीने कीडीनुं संचेखें जेम तेतर खाय तेवीरीतें राजाये ते ब्राह्मण, सर्व व्य हरण करी लीधुं हतुं तेथी ते ब्राह्मण घणोज कोधे प्रजव्यो पण करे अ॒ राजानी बागल कांड जोर चाले नही तेथी ते दुःखगर्नित वैराग्येकरी तापस थयो ते क्रोध सहित मरीने मिथ्यादृष्टि क्रूर व्यंतर थयो . ते क्रूरव्यंतरो नमरानी पेठे नमतो नमतो ज्यां राजायें सामायिक ली, जे त्यां श्राव्यो. अनेरा जाने गुनध्यान ध्यावतो देखी पाउनुं वैर संनारीने रूग्यो थको चित्तमां चिंतववा लाग्यो जे ए पर्वतना शिखरनी पेठे सामायिकना ध्याननेविपे निश्चल रह्यो बे. पर्वतना शिखररूप ध्याने चढ्यो ने तेने ढुंआकरी विटं बना पमाडीने ध्यान शिखरथकी पाडूं तो ए उष्ट ऽर्गतिमां जाय अने अ नंतो संसार रजने केम के धर्मनियमनो बंश करो तो अनंता नव दुःख पामशे एवं विचारीने ते करव्यंतरो नदरनेविषे, शरीरनेविपे, नेत्रने विपे, का ननेविपे, ए आदि दश्ने सर्व शरीरनां अंगोपांगने विपे राजाने अति याकरी वेदना नुत्पन्न करतो हवो तो पण राजा तो मुनिन। पेरें शुक्ष अध्यवसायें निश्चल रह्यो. चल्यो नही एम राजाने शुनध्याने वर्ततां परम उत्कृष्टुं अ वधिज्ञान उपन्यु ते सूर्यसरवा देदीप्यमान अवधिज्ञानेंकरीने ते करव्यंतर ना वैरनो व्यतिकर सर्व जाण्यो. तेवारें राजा वैराग्यवंत थइने पोताना आ स्माने शीखामण देवा लाग्यो के अरे चेतन ! तें उष्ट पापने परवश थइने जे पूर्व परजीवने आकरा संताप कया ले तेथी आकरां कर्म बांध्यां ते तें पूर्व परवशपणे रहीने घणां जोगव्यां अने हमणां हवे स्ववशपणे रहीने जोगव्य ते जोगव्या विना तुं कर्मरहित केम यश ? माटे धर्मने अर्थे तुं द मणां रूडीरीतें सहन कस्य. यतः॥ सह कलेवर फुःखमचिंतयन्। स्ववशता हि पुनस्तव उर्लना ॥बहुतरं च सहिष्यसि जीव है।परवंशोन च तत्र गुणोऽस्ति ते॥ नावार्थ:-हे शरीर ! तुं सुःखने याद कस्या विना हमणां तेनुं सहन कस्य केम के आवी स्वतंत्रता फरी तने मलवी उर्जन ले माटे हे जीव ! तुं स्वतंत्र था ने तेमां जे फुःख सहन करीश तेमां तने मोहोटो गुण ने परंतु ज्यारे पर Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५५ वश ने बहु दुःखने सहीश तेमां तने कां गुण नथी. माटे स्ववश हो त्यारे बने त्यां सुधी दुःखनुं सहन कर. वली जो तुं इहां सामायिकने विषे दुर्ध्यान ध्यायीश तो तुजने सामायि कनेविषे प्रतिचार दूषण लागशे. तेथी तुं अनंत संसार रजनीश माटे त हारा पुष्यने योगें हमणां तुजने ए व्यंतरो साहाय्यकारी थयो बे एना सहाय थी तुं सकलकर्मनो दय करीने परमपद पामीरा. या व्यंतरो तुजने परमोपकारी थयो छे. इत्यादिक अत्यंत व्याकरी गुनध्याननी श्रेणियें च ढ्यो एवो राजा तेने व्यंतर, ज्ञानेंकरी जो ने अत्यंत कोपायमान थ sष्ट चेष्टानी पेरें बिहामणुं राक्षसनुं रूप विकूर्वी खाकारों जश्ने कालचक्र सरखी वजनी शिला उपाडीने राजा प्रत्यें कहेवा लाग्यो के अरे मूढ ! तुं तहारा धर्मने जो शीघ्रपणे नही मूकीश तो या गणित तोलवाली शिला तहारा मस्तक उपर मूकीने हमणांज तहारा मस्तकना माटीना नाजननी पेरें हजार कटका करी नाखीश. एवी ते व्यंतरनी वाणी सांन जीने राजा गुनध्यानने न मूकतां उलटो तेमां दृढ थयो; ते जोइने तरतज ते व्यंतरे का निर्दयपणे राजाना मस्तक उपर शिला मूकी तेथी वानी मांजरनी पेठें राजाना मस्तकना कटका थया पण राजा मूर्त नही ते पण व्यंतरनी शक्तिज जाणवी नहि तो मयाविना रहेज नहीं. हवे दृढपुराजानुं मस्तक फुटयुं तो पण ध्यानथी चूक्यो नही उलटो. सुनध्यानें चढ्यो ते शुनध्यानरूप शिक्षायेंकरीने घातिकर्म चकचूर करी पकश्रेणीयें चढीने केवलज्ञान प्रगट करूं तेवारें ते व्यंतर पण जनचि त थको उपशांत थने राजानुं फूटेलुं मस्तक सांधीने तेने तत्काल साजो करतो वो देवशक्तियें करी गुं इष्कर बे. कयुं वे श्रीनगवतीने चौदमे श तके या उद्देगें | पहूलिनंते सक्के देविंदे पुरिसस्त सितं पालिया सि या विदंता कममलुमि परिकवित्तए हंता पहुसें कह मित्राणि पकरे || गोय मा दिया छिंदया वणं परिकवेका जिंदा जिंदया वर्ण परिकवित्तए कुट्टिया कुट्टिश्रा व० ॥ चुन्निया चुन्निया व० ॥ तनुं पञ्चारिकप्पामेव पंमिसंधाइका चेवणं तस्स पुरिसस किंचियवाबाहंवा उप्पाए जत्ति ॥ नावार्थ :- हे न गवन् ! समर्थ होय देवताना राजा इंश् ते पुरुषना मस्तकने तथा हाथ चरणा दिकने शस्करी बेदीने कर्ममलमांहे प्रक्षेप करे भगवानें कयुं हा गौतम Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. ते तत्काल करवाने समर्थ होय. हे गौतम ! दीदीने वनमांद न वे नेदी नेदीने वनमांहे नाखे, कूटी कूटीन वनमांहे नाखे चूर्ण करने वनमांदे नाखे, तेवार पठी शीघ्रपणेज पांडां सांधे तोपण ते पुरुपर्ने कांइ बाधा कष्ट उपजे नही ते पुरुपने कां जाणवामां पण आवे नही. हवे ते राजऋषि केवलीने शासनदेवीयें उपयोग देइने मुनिनो वेश आपीने केवल महोत्सव कस्यो. सुवर्णनां कमल नपर ते राजकपि बेग वा णमंतरादिक चारे निकायना देव तथा नगरना लोक सर्व अति कौतुकवं त थका विस्मय पामी केवलीने वांदी सर्व धर्मदेशना सांजलवा बेना केवली नगवाने पण मोक्नु परम वीजनूत एवं जे सामायिक जेनुं फल विशेष प्रकारें केवली नगवाने पोतेंज अनुनव्यु ले तेनुं वर्णन करी नव्य जीवना हितने अर्थ प्ररूपणा करता हवा तेवारे ते व्यंतरी पण शीव्रपणे धावी केवली जगवाननी देशना सांजली मुनिने खमावी तत्काल समकेत पाम्यो. अने बीजा सामंतादिकें पण देशना सांजलीने केटलाएके चारित्र लीधां, केटलाएक देश विरति थया, प्रथम चोरपणामां घणा लोकोनुं इव्य हरण करीने तेने फुःखिया कन्या हता ते सर्वेमां कोइने समकित, कोइने देशविरति, कोश्ने सर्व विरति प्रमुख धर्म पमाडीने सदुकोइने सुखि कस्या. ते पण धर्म आराधी केटलाएक देवलोके गया केटलाएक मोदं गया. केवली जगवान पण घणोकाल पृथ्वीने विपे विचरी घणा नव्यप्राणीनां अज्ञान अंधकार टाली पोतें मोदें पहोता अर्थात् परमपद पाम्या माटे सर्वमाहे प्रधान एवं नवमुं सामायिक नामे व्रत तेनुं केवलज्ञानरूप फल ए धनमि वनी कथाथी जाणीने हे पंमितजनो ! तमे सामायिकवतने विपे यत्न करो. ए नवमा सामायिकत्रतने विपे धन मित्रनी कथा कहा ॥ अथ दशम देसावकासिक नामक हितीय शिक्षा व्रत प्रारंजः पूर्व बहा दिशापरिमाण व्रतनविपे एकशो योजन प्रमाण जावजीव सु धी जावू बावq धायुं तेमांथी वली मुहूर्तादिक पर्यंत काल, मान, ट ह शय्यादि पर्यंत देत्रनुं मान, धारीने बाकी सर्व गमनना निषेध करवो एवीरीते इहां सर्ववतनुं संदेप करणरूप एक मुहूर्न आदि देने आरंजना एक देशनो अवकाश तेनुं जे करवू तेथी नीपन्युं ते देसावकासिक व्रत जा Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३५७ णवं. यक्तं ॥ एगमुहूत्तं दिवसं, राई पंचाहमेव परकंवा ॥ वयंमि धारेउ दढं, जावश्यं वुडए कालं ॥ १ ॥ नावार्थः-एक मुहूर्त,एक दिवस, एक रात्र, पांच रात्र, एक पद पर्यत शहां दृढपणे व्रत धार, यावत्कथिक पणे धारेला काल पर्यंत ॥ १ ॥ तथा योगशास्त्रनी वृत्तिमांहे तो एम कडं में के दिगव्रतना विशेषनीपेरे देशावकाशिकवतो मात्र एमां एटलो वि शेप डे जे दिगवतो ते यावजीव कराय डे. अने देशावकाशिकव्रत एक वर्ष पर्यंत अथवा चार माससुधी तेमज दिवस मास प्रहर मुहूर्त अर्थात् बे घडी आदिना परिमाणसुधी रखाय ने एटलामाटें व्रतना नियमोनो प्रतिदिवसे संदेप करवो वली ए व्रतेकरीने सर्ववतनो नियम निरंतर संदेपें करवो ते कहे जेः-सचित्त दवविगइ, वाहण तंबोल वब कुसुमेसु ॥ वहाण सयण विजेवण, बंन दिसि न्हाण नत्तेसु ॥ १ ॥ ए गाथामांहे कह्या जे चौद नियम ते प्रनातें धारे, संध्यायें संजारे, कांश दूपण लाग्युं हो यतो मिनामि मुक्कड दीये, वली नवा धारे धारीने पञ्चरकाणने बेडे "देसा वगासियं नवनोगं परिजोगं पच्चरकाई” इत्यादि पाठ गुरु समद उच्चरे नक्तं च॥ देसावगासियं पुण, दिसि परिमाणंच निच्च संखेवो ॥ अहवा सत्ववयाणं, संखेवो पदिणं जो ॥१॥ नावार्थः-देसावगासिकव्रत ते वली दिगपरि माणनो नित्य संदेप करवो अथवा सघला व्रतनो प्रतिदिन संदेप करवो ॥१॥कदाचित् कार्यनी व्यग्रतायें न सांनरे तो सूती वेलाये पण संदेपीने वधारीने नवा धारे पोतें आत्मसारख्यें पञ्चरकाण करीने बेडे देसावगासिय इत्यादि पाठ पोतें पोतानी मेले नचरे ए विशेपथी सर्व व्रतना संदेप रूप ले तेमाटे गंठसी सहित पञ्चरकाण अंगीकार करवू जेमाटे श्रावकदिनकृत्य यं थने विषे कह्यु के ॥ पाणीवह मुसादत्तं, मिदुणादिण लान पबदमंच ॥ अंगिकयंच मुत्तं, सत्वं नवनोग परिजोगं ॥ १ ॥ गिहमा मुत्तुणं, दिसिगमणं मुत्तु मंसमजूआई ॥ वय काएहिं नकरे, न करावे गंति सहिएणं ॥ २ ॥ नावार्थः-प्राणीनो वध, मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, अनर्थ दंम अंगीकार कयुं तेने मूकीने सर्व उपनोग परिजोग घरनो मध्य नाग मूकीने, दिसिगमन मूकीने मांसां मसां यूकादिकने वचन कायायेंकरी न करे न करावे गंतसीहि पञ्चरकाणे सहित शहां दिणलान ते बतो परिग्रह ते दिनलाल प्रजातका नियम न कस्यो हवे तो नियमने इQ ई ए अर्थ ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८G जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हवे ए व्रतना पांच अतिचारने निउं बूं. आणवणे पेसवणे,सद्दे रूवे अ पुग्गलकेवे ॥ देसावगासियंमि, बीए सिरकावए निंदे ॥३॥ अर्थः-गृहादिकनेविषे देशावकाशिकव्रत करे बते ते गृहादिकथकी बा हेर कोश्क वस्तु के अने ते वस्तु खपे ले तेवारें कोइक चाकर प्रमुखने मो कलीने ते वस्तु मगावे ते आणवणप्रयोग नामे प्रथम अतिचार जाणवो. १ बीजो पोतानी पासे कोश्क वस्तु ने ते बाहेर मोकलवी ते को चाकरनी मारफत बाहेर मोकने ते पेसवण प्रयोग नामा बीजो अतिचार. ३ पोताना घरादिकथी बाहेर रहेला एवा कोइक पुरुषनी साथै मलवान कार्य ने पण व्रतनंगना नयथी तेने पोतानी पासें तेडी लाववाने असमर्थ तेवारें बीक, उधरस, बगासुं अथवा खोखारो करीने बाहेर रहेला पुरुषने जाण करे जेथी ते तेनी पासें आवे ते शब्दानुपाति नामे त्रीजो अतिचार. ४ चोथो जाली अथवा गोखें अथवा अगासी प्रमुखें उनोरहीने जे नीसाथै कार्यहोय तेने पोतानुं मुख देखाडे ते रूपानुपाति चोथो अतिचार. __५ पांचमो कोई पुरुप पोताना घरनी नजीकथी चाव्यो जतो होय अने तेनी साथें कार्य होय तेवारें तेनी नपर कांकरो काष्टादिक नाखीने पोता पणुं जणावे ते पुजलप्रदेपनामा पांचमो अतिचार जाणवो. इहां शिष्य पूजे जे के देशावकाशिकव्रत लश्ने पडी कर्मकरादिकनी मार फत को वस्तुने ते पोतेज करे अथवा बीजाने हाथे करावे तेमां शो वि शेप, उलटो मोकले अथवा तेने हाथै मगावे ते कर्मकरादिक तो अयत्ना यें जाय तथा आवे ते करतां पोतेज जाय तो वली घणुं सारं कारण के पोतें तो विवेकी छे माटे यत्नायें जावं आवq करे तो ते रुडं जाणवू. अने एथी तो व्रतनंग थाय ने एमां अतिचार शानो कहो बो ? हवे गुरु एनो उत्तर कहे जे के पोतें जो नियमनूमिथी बाहेर निकले तो ते व्रतनंग थाय तेना जयथी पोते न नीकट्यो पर्ण पोतें अनानपयोगथी काम कयुं माटे अतिचार लाग्यो जो पोतें जाणी बुजीने दूषण सेवे तो व्रतनंग थाय परंतु अजाणथको सेवे ते अतिचार कहेवाय. ए देसावकासि क नामा बीजा शिदाव्रतनेविषे जे अतिचार लाग्यो होय ते निं ॥२॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५ए हवे ए व्रतपालवाथी जे फल थाय ते कहे जे-जेम कोश्क प्राणीना शरीरमां सर्व अंगें विष व्याप्युं होय तेने कोश्क मंत्रवादी आवीने मंत्रना प्रयोगेंकरी ते सर्व विषने मंकें आणी मूकीने उतारी नाखे तेम धर्मी पुरुष ए व्रतने प्रनावेंकरी बहु सावद्यव्यापारनो संदेप करे ते करवाथी कर्मबंधनो पण संदेप थाय तेणे करी अनुक्रमें सकलकर्मनो क्ष्य करी मोदें जाय २७ हवे ए देसावगासिकव्रतनेविषे राजाना मारीनुं दृष्टांत कहे :-चक पुरने विषे हरिकेतु राजा राज्य करता हता ते राजा लोकस्थिति जोवाने तथा लोकोनां वचन जाणवा देखवाने अर्थे तथा निंदाप्रशंसा सांजलवा माटे नष्टचर्यायें रात्रिनेविषे नीकलीने धूतारानी पेठे नगरमांहे चोफेर फरे ले, नगरना तमासा सर्व जूवे , प्रायः सर्व राजाउनी ए स्थिति होय . हवे एकदा रात्रिना समयनेविपे एक ठेकाणे चदुटानी वा हाटशेरि ये घणा लोक एकता मव्या ने तिहां मनोहर घणुंज रूडं नाटक थाय ने ते राजा पण एक स्थानकें गुप्त रह्यो थको जूवे ने एवा अवसरनेविपे धन सारशेठनो पुत्र धनद एवे नामें ते केवो ले के गुण अने कलाना समू हनो नंमार ते धनद पण त्यां नाटक जोवाने अर्थे याव्यो . तेणे रा जाने उनो देखीने विचास्युं के था कोई सामान्य पुरुष ने एम जाणीने रा जाना खंना उपर पोताना हाथनो नार मूकीने नाटक जोवा उनो रह्यो: ते नाटक जेवारें पूरण थयुं तेवारें धन नाटकना करनारने उचित धन यापी अने राजाने पानना बीडामां एक सोनामोर नाखीने ते वीडं आप्यु. सोनामोर जे नाखी बापी ते खंना उपर जार मूकवाना नाडा नि मित्तें नाखी आपी ए उत्तम पुरुषनुं लदण . राजा पण पोतापणुं गोपववाने अर्थे ते बीडं लश्ने पोताने स्थानकें गयो. अने धनद पण पोताने घेर गयो. प्रनातकालें धनदने न्यायवंत जा णीने राजा तेनी उपर तुष्टमान थयो थको धनदने तेडावी हसीने कहेतो हवो के जेटलो तहारो नार दोय तेटलो जारतुं महारा खंनाने विषे मूकवा समर्थनो. एवी राजाना मुखनी वाणी सांजलीने धनद पोताना चित्तमांहे चम क्यो पढ़ी जावार्थ विचारीने अवसर जाणीने जेवो राजाने उत्तर देवो घटे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. तेवो देवा लाग्यो के हे राजन् ! आखी पृथ्वीनो नार उपाडवाने तमारो खंनो समर्थ ने तो महारो नार ते तमारे कोण मात्र ? एवी धनदनी सुललित वाणी सांजलीने राजा विशेषे तुष्टमान थयोथ को ते धनदने पोताना पुत्रने स्थानकें स्थापतो हवो जेमाटे उचित वचन बोलवू ते सरगुं कोई चिंतामणी रत्न जगतमां नथी. __ अन्यदा ते नगरमां रत्नना व्यापारी रत्न लइने राजसनामां आव्या. ते णे आवीने त्रण रत्न त्रण लोकनां लोचन सरखां देदीप्यमान हतां ते रा जाने देखाड्यां. राजायें माह्या रत्नना परीक्षकाने तेडावीने देखाड्यां ते प रीक्षा करीने कहेवा लाग्या के हे राजन ! या त्रण रत्नमांहे पहेलु रत्न तो अमूलक डे एनुं मूल्यपण थाय नही तेम तेनी कांतिपण नपमारहित एवं ने अने बीजु रत्न जे जे ते एक कोटी सोनैया ने तथा या त्रीजु रत्न जे ने ते अल्पमूल्यवाला ग्रहना तेजना जेवी कांतिवाचं ने एवी परीदा थया पनी ते वरखते राजानी सनामां धनद पण वेठो हतो तेना सहामुं जोइने राजायें पूज्युं धनदें पण त्ररत्न जोड्ने पोतानी चतुराश्थी तेनोसर्व सार राजाने कह्यो के हे राजन ! प्राणीमात्रमा पोताना माहापणन अजिमान सर्वने थाय ले माटे कोथी जो पुरुं न जाणतो होय तो खोटुं पण कहे परंतु जेम रुडो वीतरागनोधर्म पामवो दोहिलो तेममाहापण आवq पण दोहिलं ने अने रत्नोनी परीक्षा करवं। ते तो वली देवताउने पण फुलन डे तो मनुष्यथी केवीरीतें थाय ? मनुष्यनी तो शीखेली विद्या ने तेतो अणुमा त्रज होय तोपण जेम टुं जाणुंडं तेम आपना चरणनी आगल कहीश. मणि तथा वृदनी परीक्षा गणनामां न आवे. तेनी विविध प्रकारनी प्रना , विविध प्रकारनी जाति ने कांड संख्या नथी तो पण जे जाति उ प्रसिह के तेनां नाम कहूँ . १ पुष्पराग. २ पद्मराग, ३ मरकत, ४ कर्केतन, ५ वज, ६ वैर्य, ७ चंकांत, सूर्यकांत, ए जलकांत, १० नील, ११ महानील, १२ इंश्नील, १३ रागकर, १४ विनवकर, १५ ज्व रहर, १६ रोगहर, १७ शूलहर, १७ विषहर, रए शत्रुहर, २० रुचक, २१ लादिताद, २२ मसारगन, १३ हंसगर्न, २४ विडम, २५ अंक, २६ अंजन, २७ रिष्ट. २७ मुक्ताफल, ए श्रीकांत, ३० शिवकांत, ३१ शिवं कर, ३२ प्रियंकर, ३३ नईकर, ३४ प्रनंकर, ३५ आनंकर, ३६ सागरप्र Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३६१ ज, ३७ प्रनानाथ, ३० चंप्रन, ३ए अशोक, १० वीतशोक, ४१ अप राजित, ४२ गंगोदक, ४३ कौस्तुन, ४४ कर्कोट, ४५ पुलक, ४६ सौगं धिक, ४७ सुनग, ४७ धृतिकर, ४ए सौनाग्यकर, ५० पुष्टिकर, ५१ ज्यो तिरस, ५२ श्वेतरुचि, ५३ गुणमाली, ५४ हंसमाली, ५५ अंशुमाली, ५६ देवानंद, ५७ वीरतैल, ५७ स्फाटिक, एए सर्पमणि, ६० चिंतामणि. ए साठ जातिनां रत्न हमणां प्रसिभ . . हवे आत्रण रत्नमाहे जे पहेलृ रत्न तेमांहे कलुषता ने ए उत्पत्ति ने समये कादवपाणीमांहे उपन्युं ने माटे मांहे मोहोर्बु पाणी . वली बीजु रत्न तो नुत्पत्तिना समयनेविषे देमकीना पुटनी पेरें , जेम देमकी कचरापाणीना संयोगथी संमूर्बिम उपजे ने तेम ए पण एमज नपन्युं ले तेटला माटे मांहे असार अने बाहेरथी सारूं दीवामां आवे ने तेमाटे जो लगारमात्र अथडायतो फूटे अने थोडोकाल टकी शके अने ज्यांसुधी न अथडाय त्यांसुधी आईने आq कायम रहे एवीरीतें ए वेदु रत्न दाडि मना पाका फलनी पेरें तरत फूटे तेथी ए बे रत्ननुं विशेष मूल्य कांइ नथी अने यात्रीगँ रत्न जे जे ते तो दिव्यरत्न सर रत्न . ए रत्ननो अतिश य प्रनाव ले आ रत्न जेनी पासें होय ते पुरुषने व्यंतर राक्स इत्यादिक ना माठा नपश्व थाय नही. समुश्मध्ये रह्याथी जलजंतुनो नपश्व थाय नही तथा कोढ, उष्ट ज्वर, उष्ट नगंदरादिक अनेक जातिना रोग नाश पामे. तथा जेम सऊनना समागमथकी शोक जाय तेम आ रत्नना संयोगथ की सर्व नपश्व टली जाय तथा वली ए रत्न जो पासें होय तो अत्यंत आकरा विषना नपश्व ते परानव करी शके नही जेम बकतर पहेतूं हो य तेने घा लागे नही तेनी पेठे विप परानव न करे तथा रणसंग्रामनेवि षे एक क्षणमात्र पण कोइ तेना मुख आगल टकी शके नही. तथा जेम ग्रहपतिना मुख आगल ग्रहनु कांश्चाले नही तेम तेने सामा जो वैरीना समू ह होय तो पण गुं थयुं ? तेमाटे ए रत्न अमूल्य के एनुं मूल्यज थाय नही. ए वातनुं प्रत्यक्ष पार जो होय तो एक थाल कमोदना चोखाथी जरीने चोकनी वच्चे मूको अने शालिना अपनाग नपरें वचमां ए रत्न मूको पड़ी वेगला जर बेसो जेवारें सूडादिक पंखी नूरख्या थका शालि खा वाने अर्थे दिशादिशाथी पावशे तेवारें कोइ ए थालने इकडो आवी श Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैनकथा रत्नकोष जाग चोयो. कशे नही वेगला रह्याथकाज कोलाहल शब्द कस्या करशे. जेवारें तमो ते चोखाना जाग उपरथी रत्न पाउं उपाडी लेशो तेवारें चुप करवा या वो. परंतु रत्न हशे त्यांसुधी जो पंखीना समूह ते थालमांहेलो एक कल पण नक्षण करे तो जाणजो के धनद जूठो धूतारो बे ने जो सर्वथा चूए नज करे तो सर्वज्ञना वचननी पेरें धनदने साचो जाएजी. एवदनां वचन सांननी राजायें तेमज थान मूकावी शालिनी एसी उपर अर्थात् चोखाना जाग उपर रत्न रखायुं ते देखी घणा पं खीना समूह चुप करवा याव्या ते सर्व समंत्रमथका चारे वाजुयें घणा कलाय पण चू न खाय जेम मेरुपर्वतनी चारे बाजुयें ज्योतिपीउनुं च * नमे ने तेम पंखीना समूह थालनी चारे बाजु कोलाहल करता जमवा लाग्या पण चण करी शक्या नही पढी जेवारें चोखा उपरथी रत्न उपाडी लीधुं तेवारें पंखीयें वीने एक क्षणमात्रमां सर्व शालिना का ना करी थाने खाली करी मूक्यो. ते जोइ राजा चमत्कार पामीरत्नना व्या पारीने कोड | सोनैया श्रापी बहु सन्मानीने पोतें त्रणे रत्न वैचातां सीधां. पती राजायें परीक्षाने अर्थ कौतुकसहित पहेला वे मणी फोडावीने जोया तो तेमांथी धनदना कहेवा प्रमाणेज निकल्युं तेवारें राजा विस्मि तको विचारवा लाग्यो के सर्व करतां या धनदज विशेष जाणे वे माटे - जो महारो जंमारी करीने एने थाएं तो रत्न सर्व परखी परखीने लीये ने उंचा बहुमूल्यवालां रत्नेंकरीने इंड्ना जंमारनी पेरें महारो नंमार नरे. माटे ए धनदना हाथनी गुद्धिनी, धर्मिजनना चित्तनी शुदिनी पेरें कोइक रीतें परीक्षा करवी; अथवा ए परीक्षा तो शीखीये !! एवं चिंतवी धनदने पंचांग पसाय करीने सर्व रत्नना परीक्षकोमां वडेरो करी थाप्यो. धनद पण बहुमान सहित राजानी आज्ञा पामी पोताने घेर याव्यो. या जीव लोकने विषे मरणावस्थायें यानखं सांधवाने कोइ समर्थ नही. अनुक्रमें केक दिवसें धनदनो पिता मरण पाम्यो, एटले घरनो स्वामी धनद थयो. वली केटलाएक दिवस पछी राजायें धनदनी परीक्षा करवाने थर्थे पो ताना माणसाने युं के घणां बहुमूल्यवालां रत्नें जडेलुं एवं सुवर्णनुं कं क कोटी इव्यनुं लइने धनदना घरनी पासेंना मार्गमां मूको, तेवारें ते ऐसे तेमज श्राकाशने विषे सूर्यना मांमलान। पेरें तेजेंकरी जलहलतुं एवं Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३६३ कंकण, धनदना घरनी आगल मूकीने पोते जीतने उथें बाना उपी रह्या. एवामां पोताना माणसोनी साथें धनद पण आव्यो ते पोताना घरनी आगल कंकण पडेलु देखीने विस्मय पामतो बोल्यो के अरे जू जून आ कोक, बाजरण पडीगडे ने तेने महोटा धननी हानि थइ हो. इत्यादि क वचन कहेतो पोते ते कंकणने प्रत्यक्ष अनर्थ जेवं मानवा लाग्यो त्यारे तेनी पासे रहेला माह्या एवा मित्र तथा माणसोयें युक्तियें करी तेने घणो समजाव्यो के थाटलो पोकार म करो अने आ आनरण घरमा राखो तो पण ते धनद साधुनी पेठे चलायमान न थतां ते कंकणने पबरना कट कानी पेरें गणतोथको अणयहतो पोताना घरमांहे गयो. जेमाटे तेहतुं जण्यु, तेनुं गण्यु, तेनुं जाणपणुं, के जेनो आत्मा अत्यंत आकरी आपदा मां पज्यो होय तो पण कोना आमंत्रणथकी अकार्य करे नहीं. __ एवं ते धनदनुं स्वरूप सर्व जाणीने राजाना सुनटोये जश्ने राजानी बागल ते वात कही, ते सांनली राजायें आश्चर्य पामीने बीजे दिवसें घ गा आदर सहित धनदने तेडावीने पूज्यु के हे धनद ! तुं तदारुं यथार्थ स्वरूप सर्व मने कहे. के वाणीया कांगणीनो हिसाब गणवाने निपुण था य एक कांगणीने लोनें घणां कूड कपट बल नेद करें ले तथा विश्वास घात पण करे ने तेम बतां आ बहुमूल्यवालुं कंकण ते वली सहेज स्व जावें रस्तामां पडेलुं हतुं ते तें शामाटे न लीधुं ? झुं तहारे पडली वस्तु ले वाना पञ्चरकाण दे के तुजने कांश महारी शंका उपनी के मुं? एबुं राजानुं वचन सांजलीने धनद बोल्यो, हे राजन् ! मने पारकुं धन लेवानो नियम पण नथी तेम तमारी शंका पण न हती परंतु पारकुं व्य लेवाथी मूलगुं पोतानुं व्य होय ते पण तेनी साथे सर्व जाय तेमज वली पारकुं इव्य लेवं ते प्रत्यक्ष अन्याय के अने जे उत्तम जीव होय ते अ न्याय तो करेज नहीं जो अन्याय करे तेवारे तो ते हलका माणसनी पं क्तिमां गणवा लायक कुष्ट कहेवाय. माटे में महारा जन्मथी मामीने या ज दिवससुधी पारकुं इव्य लेवारूप पाप सेव्यु नयी तो वत्ती आज ते पापy केम सेवन करूं; वली जे सुपुरुष नाम धरावतो होय, अने सुपुरुप पणाने तो होय ते पुरुष अन्याय केम करे ? एवं धनदनुं बोलवू सांजली राजायें विचाखु जे अहो एनी उत्तमता Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जूवो केवी ले के केटलाएक तो पारकी वस्तु न लेवी एवो नियम धारण करीने पण वली कुमार्गे दोडे ने अने केटलाएक एना जेवा उत्तम पुरुष प्रकृतियें नक होवाथी नियम लीधा विना सहेजें पण पारकी वस्तु लेता नथी. यतः ॥ वायस साण खराइ, निवारिया विदुहवंति असुइ रु॥हं स करि सिंह पमुहा, नकया विपणुनिया विपुणो ॥ १ ॥ नावार्थः-काग डा, भान, गर्दनादिक जे जे ते वाया थका पण अशुचिमाहेज आसक्त होय जे अने हंस हाथी तथा सिंह प्रमुख जे जे ते, कोयवारें प्रेस्या थका पण अशुचिमांहे आसक्त थाता नथी ॥ १ ॥ हवे राजायें परीक्षा करी धनदना हाथनी शुदि जाणी धनदना विश्वा सनो निश्चय करयो नेवार पनी जेम कोइने राज्यपदें स्थापियें तेनी पेठे धनदने नंमारीपर्दै कोइक अपूर्वनी पेठे थापवाने अर्थे राजा बहुमान स हित धनदने कतो हवो के, हे धनद ! जेम कणेकरीने कोठार जरीयें तेम तुं महारो नंमार अमूल्य रत्नेकरीने नस्य. सार सार रत्न लश्ने नQ नवू जे माणिक्य आवे तेमांथी दशमा अंश जेटलां रत्न तुं राखजे एम क हीने राजायें तेने नंमारी पद पसाय कयुं. अहो जून न्यायमार्ग- फल !! स्वर्ग ले तेथकी शुन निसर्गनुं सुख स्वानाविक सुधारसना सहोदर जे जे. जेनां श्हां पण एवां महोटां फल तो परनवनेविषे होय तेमां कहेवूज !! .. हवे धनद राजानो मारी थइने तेणें रत्नना आगारनी पेठे परवी पर खीने अनुक्रमें राजानो नंमार समुनी पेठे अनेक अनेक अपूर्व एवां कोडो गमें रत्नादिकेंकरीने नखो. अने पोते पण दशमा अंशनां माणिक्यने ग्रहण करतो थको कोटीगमें मणिनो मालेक थयो रत्न कोटीश्वर थयो, यतः ॥ जाय ते जलदद्वंदवृष्टिनिः शाखिनां सफलता शनैः शनैः ॥ तुष्यतां वितिनृतां तु ह टिनि । स्तत्दणादपि फलोदयोमहान ॥ जावार्थ:-जेम मेघना समूहनी दृष्टि येंकरी दलवें हलवें वृदोनी सफलता थाय तेम वली राजानी दयायु क्तदृष्टियेंकरी तत्काल मोहोटो फलनो उदय थायजे. एकदा ते धनद पूर्वपुण्यना नदयथकी गुरुनी पासें गयो. गुरु केवा डे के संबंधविना बांध व ने नवसमुश्मां बूडताने बांधवादिक राखवा असमर्थ ने पण गुरु समर्थ जाणवा. ते गुरु बोल्या हे नइ ! मंगलिकने अर्थे अतिशय जयंकर एवा चिं तारूप समुश्माहे पडे थके पण धर्म करवो. यतः ॥ व्याकुलेनापि मनसा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३६५ धर्मः कार्योऽतरांऽऽतरा। मेढीबछोऽपि हि नाम्यन् । घासयासं करोति गौः॥१॥ युगपत्समुपेतानां कार्याणां यदतिपाति तत्कार्य ॥अतिपातिष्वपि फलदं फलदे ध्वपि धर्मसंयुक्तं ॥२॥नावार्थः-कार्यमां व्ययमन होय तो पण वञ्चवञ्चमां धर्म करवो; सारांश ए जे ते कार्यनी मांही मांही धर्म करवो. घाणीये बां धेलो बलद पण फरतो फरतो घांसना ग्रासने लेतो जाय जे ॥१॥ जो कदि एकज वरखतें अनेक कार्य आवी पडे तो तेमां पहेला जे जरुर करवा यो ग्य होय ते करवु वली तेनी अंदर पण जे फल आपनारुं होय ते करतुं तेमज फलदायक कामनी अंदर पण पहेला धर्मयुक्त कार्य करवं ॥२॥एम विस्तारपणे समकेतसहित श्रावकनो धर्म मुनियें कह्यो. ते सांजलीने जेम कं चननेविषे मणि जड्यो होय तेम धनदनुं चित्त नावना रसेंकरीने धर्मरूप रत्ने जडयुं . तेवारे ते धनदें समकेत सहित श्रावकनुं व्रत पडिवज्युं तेमां पण सर्वकालनेविपे सुखें सधाय एवा देशावकाशिकवतनो अंगीकार करी पोताने स्थानकें श्राव्यो. रात्रि दिवस अातुर एवा अमारा सरखा जीवोने देशावकाशिकवतज घटे. अहो श्रीवीतरागनो मार्ग जून केवो सुखें कराय एवो ले जे महारा सरखा राजकार्यमांहे आकुल दे तेनाथी पण अंगीका र कराइने नित्य सुखें सधाय ने एम हृदयमां नावना जावतो रात्रिदिवस अतिचाररहितपणे देशावकाशिकव्रतने आराधतो हवो. __ अन्यदा समये ते धनद श्रावक,राजानां सर्वकार्य करीने वे पहोर रात्रि गया नंतर मध्यरात्रिने समयें पोताने घेर आवी ज्यांसुधी सूर्योदय न थाय त्यांसुधी घरनीबाहेर निकलवू नही एवं देशावकाशिकवत लश्ने घरमा रह्यो बे, एवामां राजाना शरीरने विषे अकस्मात् कोइक आकरी मस्तकनी वेद ना थइ जेमाटे ए औदरिक शरीरनो सडण पडण विसण इत्यादि धर्म ने. जेने बगडतां वार लागे नही एवं जाणीने उत्तमप्राणीयें विशेष प्रकारें धर्म करवो एज सार . हवे राजा मस्तकनी आकरी वेदनायें पी डाणो जाणे राज्यज गयुं होयनी ? अथवा लोहारना कुंमनो अग्नि जेवो धमधमे एवी आकरी वेदना थइ, जागीये तरवारेंकरीने मस्तक कापी ना रव्यु होयनी ? जाणे वजेंकरीने मस्तकना कटका करी नारख्या होयनी ? अ थवा अनियेंकरी बाली नारव्युं होय अथवा घंटीयें करी दली नारख्युं होय अथवा परनी साथें कूटीने त्रुटी पडतुं होयनी! एवी वेदना राजाने थइ. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. तेवारें राजायें सेवकोने कह्यं के जान आपणा नंमाग्ना नंमारीपासेथी रोगहर रत्न लश्यावो, ते सांजली सेवकोयें धनदने घेर श्रावीने राजाना म स्तकनी वेदनानुं स्वरूप सर्व संनलाब्युं तेवारें धनदें पण पोताना व्रतनुं स्त रूप सर्व सेवकोने कही संजनाव्यं तोपण सेवकोयें तेने घणे प्रकारे मजः व्यो तथापि समज्यो नही जेम कोश्क व्यंतर कोकना शरीरमा संक्रम्यो होय ते समजाव्यो समजे नही अने तेना शरीरमांथी निकले नही तेम धनद पण पोताना व्रतनो अनिग्रह न बांमतो थको पोताना घरमार्थी नि कट्यो नही. तेवारे ते उष्ट राजाना सेवको तेनी उपर रूठा थका चाडीया नी पटें जश्ने राजाने संजनावता हवा. ते सांजली राजा यम सरखो थ अति तीबरो परवशथयो थको सेवको प्रत्ये कहेतो हवो के जूठ ए धनद महारा प्राणनी हरनारी वेदनातो वेखनार चोर ले तेने शीघ्रपण बांधी ने इहां ला श्रावो जेणे महारी श्राझा नंग करी तेने दुं ते आझानंगनां फल देखाडु, ते सांजलीने सेवक लोक घणा खुशी थया. जेम् कोश्क नूर यो होय तेने तेनो कोश मित्र श्रावीने जमवानुं नोतरुं दीये नेवारे ते केवो ग्व शी थाय? तेम खुशी थयाथका, अथवा जेम जव्यजीवने मनिनो रूडो नए दश सांजलीने नुत्साह उपजे तेम गहगहता थका, धनदने वांधवाने अर्य श्राव्या, ते जेवामां धनदना घर ढकडा आव्या एवामां गुं थयं ते हे नव्यो ! तमे सावधान थश्ने निश विषय कपाय विकथादि प्रमाद बांमीन सोनलो. जेवामां ते सुनट धनदना घरनी पासे आव्या एवामां लोकने बदु अ नर्थ करतो नतावलो देवतानी गतिय दोडतो जेथकी नगरना लोक सर्व विशेष प्रकारे त्रास पाम्या ने अति जय पाम्या डे एवो पुःखे सहेवा योग्य वजना अग्निसरखो अग्नि, तिहां अकस्मात् प्रगट थयो. तथा जेम कुष्टराजा नो प्रधान पण पुष्ट होय तेम ते उष्ट वजामिनो मित्र एवो मुष्ट वायरो पणचारे दिशायें तेनी सार्थेज विशेष प्रकारे प्रगट थयो; हवे ते अग्नि रा वसनी पेरें सर्वनदी एवो निरंकुश हाथीनी पेरें सर्वने बालतो कोइ एवो अनियह लश्ने श्राव्यो के कोनो तव्यो उत्सवाय नही जेम जेम लोक उनववा जाय तेम तेम वृदिपामतो जाय, जे वारतां पण वांको चाले.ते ने गुं करे ? लोक सर्व आकुल थइने पोताना घर हाट कुटुंबादिक सर्वने प डतां मूकी दशे दिशायें नाशी जवा लागे. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३६७ ते अग्निना नयथी जेम पवनेंकरी मेघ क्यांय नासी जाय तेम राजा प्रमुख सर्वना मनोरथ मिथ्या थया, तेवारें मस्तकनी पीडाने वीसारीने राजा ते पीडा सहित घरथी बाहेर निकटयो कारण मरण ते महोटो नय . बा हेर गया पडी जेम तापथकी टाहाढ नासी जाय तेम ते राजानी वेदना नाती. राजायें विचाओँ के अहो जू व्याधिनी विचित्रगति !!! हवे ते अग्नियेंकरी अनेक घर हाटादिकं सर्व घांसना समूहनी पेरें यो डीवारमा बलि जस्म थयां ते अमि सर्वने बालतो बालतो जेवारे धनद ना घरनी नजीक आव्यो तेवारें धनदना सजनें मली धनदने घरथी बाहे र निकलवा माटे घणो समजाव्यो पण व्रतनंगना नयथकी ते धनद घर थी बाहेर निकल्यो नही. विचायुं जे दुं महारा मात्र एक नवना जीवितव्य माटे व्रतनंग केम करूं हमणांतो एकजवार मरवू पडशे पण व्रत नंगथी अ नंतां मरण करवां पडशे एवं जाणी धर्मनेविपे दृढता राखी सागारी अ नशन करीने धनद तिहां घरमांहेज रह्यो पण बाहिर निकटयो नही ते ध नदना दृढधर्मना प्रनावथकी अमिपण धर्मनुं माहात्म्य देखाडवाने धनदना घरने प्रदक्षिणा देश्ने बागल चाव्या गयो ते वजानिने सन्मुख अनिमल वाथी पागल जा पोतानी मेलेंज नलवाइ गयो विषy औषध ते विषज जाणवू ए न्यायेंकरीने जाणवू पण लोक ए युक्ति जागता नथी. __ नगरमां सर्व बलीने नस्म थयुं पड़ी जेम समुश्मांहे दीप देखाय तेनी पेठे एक धनदनुं घर अखंम दीसवा लाग्युं, धूमाडो मात्र पण धनदना घर नेविपे देखाणो नही. जेम आकाशने कादव नलागे तेम लोकनां घर बली गयां बने पोते रह्यां राजादिक सर्व देहमात्रै रह्या धनदनुं एवं बाश्चर्य दे खीने सर्व अनुमोदना करता हर्ष पामता पोतपोतानें स्थानकें गया ते धन दनुं वृत्तांत त्रण लोकमां विस्तार पाम्युं राजायें पण लोकोना मुखथी ध नदनी वात सांजलीने पूर्व जे धनदनी नपर क्रोध चढयो हतो ते उपशमी गयो धनदनु अनुतचरित्र देखी चमत्कार पामी प्रनातें धनदने तेडावीने राजायें पूब्युं के हे वत्स ! देखवा योग्य नही एवा अग्निमां तुं केम बेशी रह्यो ? ते सांननीने धनदें पोतानुं व्रतसंबधि सर्वस्वरूप राजाने संजलाव्यु तेवारें राजायें धनदनी तथा तेना धर्मनी घणी प्रशंसा करी; एवं अनन्य Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. धर्मर्नु माहात्म्य देखीने राजा तथा प्रजा सर्वलोक धर्म करवाने आदरवंत थया. देशावका शिकव्रत धनदनी पेठे सर्व जनोयें लीधुं. __ राजायें बहुमान आपीने धनदने सर्व साधर्मिमाहे वडेरो कयो. राजा पण धर्म पामीने धनदने पोतानो गुरु करी मानतो हवो. धनद पण सर्व साधर्मिमांदे अधिकारी थश्ने धर्मनां कार्य सारीरीतें चलाववा लाग्यो. ए क ब सर्वने धर्मने विपे जोड्या. हवे ते धनद अनेक लोकने ते पूर्वोक्त मणीथी उपकार करीने देशावकाशिकव्रत अखंमित अाराधीने बातमे देव लोके देवता थयो तिहाथी चवीने मोदें जाशे एवं धनदनुं कथानक सांन लीने अहो नव्यप्राणी ! तमे धनदनी पेरें देशावगाशिकव्रतने अखंम प्रा राधो तो धनदनी पेरें मोदसुख पामो ॥ इति दशमदेशावका शिकवननेविपे धनद मारीनी कथा संपूर्ण इति दशमव्रत समाप्त ॥ हवे अगीपारमुं पौषधोपवास नामे त्रीजुं शिदाव्रत कहे . जे धर्मनी पुष्टिने धरे तेने पोपध कहिये. ते पोपध अष्टमी आदिदइने पर्वनेविपे करवू जे पौषधनामा व्रतेविशेष ते पोपधने समीरें वसवं अव स्थायें रहे ते पोषधोपवास कहियें अथवा आतमी आदिदेइने पर्वनो जे उपवास तेने पोपधोपवास कहीयें ए पोपधवतनो अर्थ कह्यो. ___ ए पोपधव्रतनुं प्रवर्तन तो स्पष्ट से; एक श्राहार, बीजो शरीरसत्कार, त्रीजु अब्रह्मचर्य, चोथो अव्यापार ए चार प्रकारनुं जे बांमवं ते रूप पो पध कहियें. श्रीसमवायांगनी वृत्तिने विपे श्रीअजयदेवसूरीजीयें एम कडं के पोषधश्वाहार शरीरसत्कार ब्रह्मचर्यव्यापार नेदा वतु पुनरकैकोहिधा देशतःसर्वनेदादेवमष्टोनंगा इत्यादिक घणी व्याख्या करी जे. हवे पूर्वे चार प्रकारना पोसहने देशथी तथा सर्वथी एवा बेबे ने क रतां आठ प्रकारना पोसह थाय तेनां स्वरूप कहीयें बैयें. १ विहां एका सणे तथा नीवी प्रमुख त्रिविहार नपवासें करी जे पोषध करवं ते देशथी आहार पोषध कहियें. अहोरात्र पर्यंत चारे थाहार वळवारूप ते स वथी आहार पोपध कहियें एम शरीरसत्कारादिक सर्व देशथी सर्वथी कहेवा. हवे शिष्य गुरुने पूजे के के जेवारें देशथी पोसह उच्चरे तेवारें सामा यिक उच्चरे के नही उच्चरे? तेने गुरु उत्तर कहे जे के जे सर्वथी पोसह उ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३६ए चरे तेने नियमा सामायिक उच्चरकुंजोयें अने जे सर्वथी देहेराने विषे अथ वा साधुनी पासे अथवा पोताना घरने विषे अथवा पोषधशालानेविषे मणिमु शदिक सुवर्ण सर्व बांझीने पोसह लश्ने नणे, गुणे, पुस्तक वांचे. धर्मध्या न ध्याय, साधुना गुणनु चिंतन करे, तथा विचारे जे अहो ढुं मंदनाग्यनो धणी जे साधुपणुं लेवाने असमर्थ बु,आवश्यकनी चूर्णिमध्ये तथा श्रावक प्रज्ञप्तिग्रंथनी टीकादिकनेविषे ए सर्व कह्यु : के सावध वर्जनरूप जे सामा यिकनुं अर्थ ते पोषधमांहे नेलो ने तो पण पोषध सामायिक लक्षण वेदु व्र तनुं याराधन ले ए अनिप्रायें करीने फलनो विशेष करवो. ए बाहारादिक चतुर्विध पोषधना एकादि संयोगें एकेक पदें गणियें तेवारें एंशी नांगा थाय तिहां एकसंयोगी एना मूल नांगा आठ थाय अने किसंयोगें नांगा थाय ते आवीरीतें के ? अहारपोसह अने शरीरसत्कार पोसह, २ अहार अने ब्रह्मचर्य, ३ अहार अने अव्यापार, ४ शरीरसत्कार अने ब्रह्मचर्य, ५ शरीरसत्कार अने अव्यापार,६ ब्रह्मचर्य अने अव्यापार ए हिकसंयोगी मूल नांगा थाय तेना नुत्तर नांगा चोवी का थाय ते जेम के एक हिकसंयोगियाना चार नांगा थाय ते कहियें बैयें १ देश देशथी, २ देश सर्वथी, ३ सर्व देशथी, ४ सर्व सर्वथी ए चार नां गाने मूल नांगानी साथें गणतां चोवीश नांगा किसंयोगी थाय. हवे त्रिकसंयोगिया चार नांगा मूलगा थाय ते आवीरीतेः-१ आहार पोसह, शरीरसक्कार पोसह अने ब्रह्मचर्य पोसह, २ आहार शरीरसक्कार अने अव्यापार, ३ श्राहार ब्रह्मचर्य अने अव्यापार, ४ शरीर, ब्रह्मचर्य अने अव्यापार ए मूल त्रिक संयोगिया चार नांगा थया. हवे एना नुत्त र नांगा बत्रीश थाय ते आवी रीते केः-१ देश देश देश, देश देश सर्व, ३ देश सर्व देश, ४ देश सर्व सर्व, ५ सर्व देश देश, ६ सर्व देश सर्व, ७ सर्व सर्व देश, ७ सर्व सर्व सर्व, ए आठ नांगाने पूर्वोक्तने मूल चार नांगा नी साथै गुणीये तेवारें बत्रीश नांगा थाय. तथा चतुःसंयोगी मूल एकज नांगो थाय ने तेने देशथी अने सर्वथी गुणीये तेवारें शोल नांगा थाय. ते आवी रीतेंः-देश देश देश देश, देश देश देश सर्व, ३ देश देश सर्व देश, ४ देश देश सर्व सर्व, ५ देश सर्व देश देश, ६ देश सर्व देश सर्व, ७ देश सर्व सर्व देश, देश सर्व सर्व सर्व, ए Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. सर्व देश देश देश, १० सर्व देश देश सर्व, ११ सर्व देश सर्व देश, १२ सर्व देश सर्व सर्व, १३ सर्व सर्व देश देश, १४ सर्व सर्व देश सर्व, १५ सर्व सर्व सर्व देश, १६ सर्व सर्व सर्व सर्व एरीतें एक संयोगी आउ, कि संयोगी चो वीश,त्रिक संयोगी बत्रीश अने चतुः संयोगी सोल,सर्व मली एंशी नांगा थया. - ए एंशी नांगा मध्ये पूर्वाचार्यनी परंपरायें सामाचारी विशेषे हमणां तो एक आहार पोपध देशथी सर्वथी वेदु प्रकारे करीयें बैयें. इहां शिष्य गुरुने पूछेने के निरवद्य आहार सामायिकनी संघाते वि रोध देखवाथी ते पोसह सामायिक सहित केवीरीतें थाय ? ___ हवे गुरु उत्तर कहे जे के साधु सर्व सामायिकव्रतना धारक ने ते केम बाहार करे ? तथा नपधानवंत श्रावक होय ते केम आहार करे ये तेने जेम आहार निषेध नथी तेम पोसहमांहे श्रावकने आहार निषेध नथी. __ शरीरसत्कारपोषध, ब्रह्मचर्यपोषध अने अव्यापारपोषध एत्रण प्रका रना पोषध,तो सर्वथीज नञ्चराय पण देशथी उच्चारतां तेनी साथे प्रायः सा मायिकनो विरोध थाय ने केम के सामायिक मध्ये तो " सावऊंजोगं पञ्च स्कामि” ए पाउथी सावद्य सर्व पञ्चख्या के अने शरीरसत्कारादिक त्रण पो सहने विपे तो देशथी उच्चारतां प्रायः शरीरसत्कारादिकना सावद्यव्यापार थायज ने तेमाटे तेनो देसथी नचार कर वो निषेध कस्यो . वली शिष्य पूछे ले के निरवद्य देह सत्कारादिक करतां शो दोप ? तेने गुरु उत्तर कहे ने के शरीरनी शोजाना लोन माटे निषेध ने, सामा यिकवंतने शरीरनी शोना करवी घटे नहीं. अने आहार न करे तो शक्ति मंद थाय ते शक्तिना मंदपणाथी धर्म अनुष्टाननो निर्वाह न थाय. तेमा टे साधुनी पेठे आहार करवो कह्यो ने श्रीअावश्यकचूर्णिमांहे पोषधव्रतने अधिकारें कर्तुं . यतः ॥ तंसनिकरिजा, वतो अजोवन्निसमणधम्मो ॥ देसावगासियं पुण । जुत्तो सामाइएणं वा ॥१॥ निशिथनाष्येऽप्युक्तं ॥ पौष धिनमाश्रित्य दिकपि सोनुंजेति निशिथचूर्णों वा॥जांचनदिकमंतं,कम सामान विनुंजइति ॥२॥ इदं च पोषधसहितं सामायिंकापेक्यैव संनाव्यते॥ नावार्थः-धर्मनी शक्ति प्रमाणेकरी तपस्या प्रमुख करे एवो साधुनोधर्म वर्ण व्यो ने.परंतु देशावका शिकवत तो सामायिक नेलुं युक्त . निशिथनाष्यमां पण कह्यु पोषधवालाने याश्रयीने उद्देश्यो आहार ते पण जोजन करे अथ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३७१ वा निशिथचूर्णिमां जे उद्देशी कयुं ते सामायिक करवावालो पण जोजन करे. परंतु ते पोषध सहित सामायिकनी अपेक्षायें संनवीयें वैयें. अने पोषध र हित सामायिक तो एक मुहूर्त्तमात्रनुं छे तेमां पूर्वाचार्यनी परंपरायें थाहार लेता नथी श्रावक पडिक्कमणासूत्रनी चूर्णिमां एम कर्वा ॥ जदिदेसाहा रपोसहि तो जत्तपास्त गुरु सरिकथं पारा वित्ता आवसियं करित्ता इरिया समिइ एगंतुवरं इरियाव हिथं पडिक्कम आगमणं आलोयणं नोयणं करे चे इए वंदे तसंमासयं पमङित्ता पायपुढणे निसिप्रश्नायणं पमऊ जहो चिएप जोयणे परिवेसिए पंचमंगलमुच्चारे सरेश पञ्चरकाणं त वयणं पम कित्ता असरसरं अबचवं अऽयमविलंबिय अपरिसाडियं मणवयण काय गुत्तो लुंज साढूवनवउत्तो ॥ १ ॥ जाया माया ए नुच्चा फासु अ जलेण मु हसुदिकालं नवकार सरणेता देवेवंद वंदणयंदाचं संवरणंकाएं पुणो विपोसहसालाए गंतु सजाइतो चित्ति ॥ नावार्थः-जेवारें देशथी याहार पोसह करे तो नातपाणीने गुरुनी साखें परावीने आवस्सहि कही ईर्यास मिति शोधतो घरें जश्ने ईरियावहि पडिक्कमे गमणागमण बालोश्ने नोज न करे. चैत्यवंदन करे, तेवार पनी संमासा पोते प्रमार्जना करे पोंबणा नपर बेशी नोजनने पूंजे पनी जे उचितनोजन होय ते पीरसे थके मुख यो नवकारनो उच्चार करी पञ्चरकाण संनारी तेवार पनी मुखने प्रमार्जि ने स्वररहित, बचकार रहित, विलंब रहित, अण बांमेथके मन वचन का या गुप्त करतो साधुनी पेरे उपयोग सहित पणे जोजन करे ॥ १ ॥ पो ताना आहार प्रमाणे जोजन करी, उष्णजलथी मुखशुदि करीने नवकार कहेतो उठे, देव वांदे वांदणा देने संवरण करीने वली पण पोषधशालायें जश्ने सबाय करतो बेशे ॥ एटला माटे देश सामायिकें देशपोषधने सनावें जेम विधि कह्यो ने तेम विधियेंकरीने जोजन करवू एवं श्रागममांहे देखीयें बैयें. इहां पोसह लेवानो विधि तो पोपध प्रकरणथकी जाणवो. हवे ए पोपधन्नतना पांच अतिचार बांमवा ते कहे . संथारूच्चार विहि, पमाय तह चेव नोयणानोए॥ पोसह विदिविवरीए, तइए सिरकावएनिंदे ॥२॥ अर्थः-संथारो ते माननो तृणनो कांबली, वस्त्रादिकना उपलक्षणथी Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. शय्या बाजोट, पाटीया प्रमुखD जाणवू. अने उच्चार ते वडीनीति, प्रसवण मातरं लघुनीति; तेने परतववानी नूमिका तेना बार मामला जाणवां लघु नीति तथा वडीनीतिनी आबाधा न सही शके तेमाटे पोषधशालामांहे ब मामला अने बाबाधा सही शके तो मामला पोषधशालाथी बाहेर करे तिहां बाघाट एटले अकस्मात् आबाधा थइ गइ रहेवाणुं नही तेने माटे मांहे मामलां करे अने जे याबाधा रहि शके ते अनाघाट कहियें तेनाल मामला बाहेर करे. प बार मामलां विष्टा मुत्रना स्थंमिल जाणवां. ___ हवे मांझनु जघन्यथी एक हाथर्नु अने हेतुं चार आंगुल धरतीमांहे ए टले हेती चार प्रांगुन नूमिका अचेत जोड्ने थुक श्लेष्मादिक, परतवई करे तेने विधियें पुंजी विधियें जोइने परतरतुं तेनेविपे प्रमाद न करवो यहां संथारो शय्यादिक तेने नेत्रं करीने जोयुं नही होय अथवा जोयुं तो यहा तहा कांश जोयुं कां नहीं जोयुं अथवा रूडीरीतें जोया बिना वे सवु नवु कीधुं होय ते प्रथम अतिचार जाणवो. २ एम रजोहरणेकरी पुंज्युं न होय अथवा पुंज्युं तो कांइ पुंज्युं कां नहीं पुंज्युं एम ःप्रमाऊन करे थके बीजो अतिचार, ३-४ एम लघुनीति वडीनीति एटले उच्चार पासवण परतववानी नूमि काना पण एज वे अतिचार कहेवा.ए चारे अतिचार अनाउपयोगे जाणवा. ___५ पांचमुं पोसह विहिववरीए एटले पोपधना विधिथकी विपरीत पो पध कीधे थके अर्थात् चार प्रकारनो पोसह ते रूडीरीतें पास्यो नही पण जेवो तेवो पास्यो अर्थात् जेवेलायें लेवो ते वेलायें पारवो जोश्ये तेम न करतां सवारो पारे तथा अन्यथा विधि करे पण रूडीरीतें धाराधे नही जेमके आहागदिक चारे प्रकारनो पोषध कस्यो बे पड़ी ते दुधायें तृषायें पीडित थको एवी चिंतवणा करे के था पोषध तरत पूर्ण थाय तो पड़ी ढुं आ अमुक वस्तु खाइश अमुक वस्तुनुं पान करीश इत्यादि आहार सं बंधि अनिलाषा करे. तथा शरीरसत्कारादिकनां दुर्थ्यान सर्व चित्तमां चिं तवे जे पोषध पूर्ण थशे पड़ी हुँ म करीश आम करीश इत्यादि उर्ध्यान चिंतववा रूप पांचमो अतिचार. सूत्रकार कहे जे के "अप्पडिलेहिब उपडिले हिथ सबासंथारए” ए प्रथम अतिचार तथा “अप्पमङिय कुप्पमङिय सद्यासंथारए” ए बी Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. २७३ जो अतिचार तथा " अप्प डिजेहिश्र डुप्पडिले हिश्र उच्चार पासवण नू मि " ए त्रीजो अतिचार तथा " अप्पमकिय डुप्पमकिय उच्चार पास व भूमि " ए चोथो प्रतिचार तथा “पोसहोववासस्त सम्मं श्रणु पालाया " एटले पोषधोपवासने सम्यक्रीतें पास्यो नही ए पांचमो अ तिचार जाणवो. अथवा " जोयणाजोए " इति पाठांतर तिहां जोजन ते · हारने विषे उपलक्षणथी देहसत्कारादिकनेविषे पोसहमां विचार था य के केवारे वहेलो महारो पोसह पूर्ण थाय तो स्वेच्छायें हुं जोजनादिक करुं इत्यादि दुर्ध्यान चिंतववा रूप पांचमो प्रतिचार ए पांचे प्रतिचारें करीने पोपधना विधि की जे विपरीत थयो होय शेष अर्थ पूर्ववत्. पोपधत्रत बति शक्तियें तो चविहारोज करवो अने ते चनविहार कर वानी शक्ति न होय तो तिविहार अथवा प्रायंबिलादिकें करी पण पर्व दि वसनेविषे पोषवत अवश्य कर प्रायः सर्व सावद्य व्यापारने वर्द्धवेक रीने फलनी बाहुल्यता याय कत्युं बे के यतः ॥ सामाइय पोसह संविप्रस्स, जीवस्स जाइ जोकालो । सो सफलो बोधवो, सेसो संसारफल हेन ॥ १ ॥ हवे पर्व ते गुं कहियें यतः ॥ बीया पंचमी हमी, एगारसि चन्दसी पण तीही ॥ ए खानसु अ तिहीन, गोयम गणहारीणा नलिया ॥१॥ बीहा विहे धम्मे, पंचमी ला मी कम्मे ॥ एगारसि अंगाणं, च नदसि चनद पुवाणं ॥ २ ॥ नावार्थ:- बीज, पांचम, ग्राम, प्रगीयारश चौदश ए (पणतीहीन के० ) पांच तिथिन जाणवी ए तिथि गौत मगधरादिकें कहि ॥ १ ॥ तेमां बीज ते विधधर्मनुं श्राराधन अने पंचमी ते ज्ञाननुं याराधन, तथा अष्टमी ते कर्मयनुं खाराधन अने गीयारशे अगीयार यंगनुं याराधन वली चौदरों चौद पूर्वनुं प्राराधन बे ॥ २ ॥ जेमाटे श्रीवीतरागनां वचन पण एमज सांनलियें बैयें. " जयवं वीय पमुहासु पंचतिहीसु विहियं धम्मालुगणं किंफलं होइ " गोयमा ब दुफलं हो जम्मा इएस तिहीसु पाएणं जीवो परजव श्राखं समलिइ तम्हा तवो विहाणाइ धम्मालुठाणं काय जम्हा सुहाउयं समझिए 5 ति नावार्थ :- हे भगवन् ! बीज प्रमुख पांच तिथिनेविषे कहेला धर्मनुं नुष्टान करवायी गुंफल होय ? हे गौतम ! जेमाटे ए तिथिउने विषे प्रा यः जीव परनवनां श्रवखां बांधे ते कारण माटे तप प्रमुख विधियें Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैनकथा रनकोष नाग चोयो. करी धर्मानुष्ठान करवू जेथकी जीव गुनगतिनां आउखां बांधे इति ॥ __ वली पंचमीने पर्वपणुं श्रीमहानिशीथमध्ये कह्यु डे यतः ॥ संते बल वीरिय पुरिस्सकार परक्कमे अहमी चउदसी पाणपंचमी पङोसवणो चन मासिएसु चग्न असम बहिकरिता पायबित्तमिति ॥ नावार्थः-बते बलें, बते वीर्ये, उते पुरुषाकार पराकमें, अष्टमी, चतुर्दशी, ज्ञानपंचमी,पंजोसण मां चोमालियें एटले तेकाणे, चोथ 6 अमेकरीने प्रायश्चित तप करवू. त था निशीथचूर्णिमांहे पण कह्यु के “पुस्लिमाए दसमीए एवमाईएसु पत्वेसु प द्योसो अवं न अपव्वेसुत्ति ॥ नावार्थः-पुर्णिमा पंचमी दशमी ए आदे देने पर्वना दिवसोनेविषे तपस्या करवी पण पर्व विना तप न करवू त था एकोनविंशति पंचाशकवृत्यादिक अनेक ग्रंथनेविपे पंचमी कही . एम बतां त्रिपर्वी, चतुःपर्वी, पंचपर्वी, षट्पर्वीने तप शीलादिकेंकरी अाराधवी कही पोतानी शक्ति होय तो सर्वे वेदु पखवाडीयानी तिथि श्रा राधवी अथवा एक पखवाडियानी पण बाराधवी अथवा महोटी तिथि पण आराधवी परंतु विराधवी नही शक्ति होय तो सर्वदा आराधन क रतां कोई दोष नथी. __ वली शिष्य पूजे के चन्दस अहम नदिक पुलिमासणिएमु पडिपुर पोसह अणुपालेमाणे विहर एम कडं जे. तेनो गुरु उत्तर कहे जे के श्री सूयगडांगमांहे श्रावकना वर्णनने अधिकारे चतुर्दशी अष्टमी, ए तिथि तो प्रसिह पण नदिशासु एवो जे पाठ ले ते तो श्रीतीर्थकरनी महोटी कट्या णिकतिथि दे तेणेंकरी पुण्य तिथिपणे वे अने पूर्णिमातोत्रण चोमासानी त्रण पुनमने माटे विख्यात वे एटलामाटे कही ने तथा श्रीजगवतीनी टी कामध्ये नदिहा तिथिने अमावास्या कही ने तेथी अष्टम्यादिक पर्वने विषे ज पोषध करवो पण शेष दिवसने विषे न करवो एम न कहेवु एवो कांश एकांत नथी कारणके बीजा सुबादुकुमारादिक तथा परमेश्वरना दश श्राव के तिथिविना पण पोसह कस्या के तेने ना कही नथी जेमाटे श्रीविपाक सूत्रना बीजा श्रुतस्कंधना प्रथम अध्ययननेविषे कह्यु ले "तेएणंसे सुबाहु कुमारे अन्नयाकयाई चाउदसम्मुदित पुस्लिमासणिएसु जावपोसहसालाए पोसहिए अमनत्तिए पोसह पडिजागरमाणे विहरहत्ति ॥ नावार्थः-तेवा रे ते सुबादुकुमार अन्यदा कोश्वारें चतुर्दशी अष्टमी अमावस्या पूर्णिमा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३७५ तिथिने विषे यावत् पोषधशालामांहे पोषधसहित अमनत्तें पोसहनुं प्रति जागरण करतो थको विचरे. इहां अमनत्त करवाथकी लागत त्रण दिवस पोसहनुं ग्रहq थयुं एयी पर्वथकी अन्यदिवसें पण पोषध लेवानी आझाले. जे एम कहेके तिथिविना पोषध लीये ते अविधि करे जे तेने कहेवू के अजयकुमार कार्य करवाने नद्देशे त्रण दिवस पोसहमा रह्या अने विजय राजा कार्यने उद्देशे सात दिवस पोसहमा रह्या. श्हां जो अविधि होय तो वांदितकार्यनी सिदिन नीपजे अविधिथी तो साहामो नपश्व थवो जो ये जेम अकालें सजाय करे ने तेने वांडितकार्यसिदिनो संशय रहे , श्रीज्ञाताधर्मकथांगसूत्र तथा वसुदेव हिंम प्रमुख बागममांहे साक्षात्कयुं डे. यतः ॥ सवेसुकाल पवेसु, पसबो जिएमए तहाजोगो ॥ अहमि चनदसी सु, नियमेण हविऊ पोसहि ॥ १ ॥ नावार्थः-सघलां पर्वमा सर्वकाल नेविषे प्रशंसवायोग्य यथायोग्य वीतरागना मतनेविषे अष्टमी चतुर्दशीमां हे निश्चे पोसह करवो ॥ १ ॥ तथा आवश्यकचूर्णिनेविपे पर्वदिवसें निश्चे पोसहनुं व्रतकर कह्यु ले प रंतु अन्यदिवसें पोसह करवानो नियम नही परंतु सर्वथा निषेध नथी नही ज करवो एवो कोइ आगमनेविषे तेनो निषेध नथी ने सांजव्यो पण नथी. पोषधोपवासनो तथा अतिथिसंविनागनो तो निश्चित दिवसनो नियम नथी, श्रीहरिनइस रिकत आवश्यकनी महोटी टीकानेविपे तथा श्रावकप्रज्ञप्ति थनी वृत्तिने विपे साक्षात् कर्तुं तेनो जेवारें निषेध करे ने तेवारें तेणे ग्रंथ कारनो अभिप्राय जाण्योज नथी ते एम कहे वे के जेवारे सर्व दिवसें पोस ह कराय तेवारें पर्वदिवसें पोसह करवानो शो विशेष के ? तेने कहियें बैयें के पर्व दिवसें अवश्य करवो एज विशेष के अन्य दिवसें नियम नथी जे करे तेने नाकारो नथी एटलो विशेष ,जेम आवश्यकवृत्तियादि ग्रंथमध्ये श्रावकनी पांचमी प्रतिमाने अधिकारें कह्यु ले के दिवसें ब्रह्मचर्य निश्चं पा लवु एवं कहेवाथी एम न समजवू के रात्रियें न पालवू परंतु रात्रियें प ण अवश्य पालवु एतो पोतानी मेलेज जाणीले के जेवारें दिवसें निषेध कयुं तेवारें रात्रिये निषेध जाणवूज. जो एवो नियमज होय के पोषध नित्य करवो तेवारें तो अतिथिसंवि जाग पण नित्य करवो जोश्य, माटे पोषध कस्यो होय तोज अतिथिसंवि Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. नाग थाय एवो कांश नियम नथी अतिथिसंविनाग तो पोषधोपवासना पा रणाविना पण थाय ने,परंतु अतिथिसंविनाग पोषधोपवासने पारणे तो अ वश्य करवो जोइये,एरीतें पोषध पर्वदिवमें पण करवो तथा अन्यदिवसे पण करवो तेमां का अवधि नथी जेमाटे सावद्यारंनत्यागवाथी विशेष लान ने. हवे ए व्रतनुं फल कहे :-नक्तंच ॥ कंचणमणि सोवाणं, थंजसहस्स सियं सुवरम तलं ॥ जोकारिङ जिणहर, तनवि तव संजमो अहित ॥१॥ अर्थः-सुवर्ण अने मणिना हजारो गमें थंने करीने उन्नत अने सुवर्णमय जेनुं तलियुं वे एवं श्रीजिनेश्वर- मंदिर अर्थात् जिननो प्रासाद करावे ते थकी पण तप संयम अधिक जाणवो ॥ १ ॥ __ एक मुहूर्त्तमात्र सामायिकनो लान जे पूर्व नवमा व्रतमां कही आव्या बैये तेवारें एक अहोरत्ता पोसहनां त्रीश मुहूर्त थाय तेथी त्रीश सामायि क थया तेना लाननी संख्या कहे जेः-सत्तहतरि सत्नसया, सत्तहतरि स हस्स लरककोडी ॥ सगवीस कोडी सया, नवनागा सत्तपलियस्स ॥१॥ नावार्थः-सीतोतर,सातसें, सीतोतेर,हजार,सीतोतेर लाख,सीतोतेर कोडी, सत्तावीशसो कोडी, उपर एक पव्योपमना नवनाग करियें तेमांहेला सात जाग लेवा अंकथी २७७७७७७७७७७। एक पोषध करवाथी बाह्यत्तियें एटला पट्योपम देवता, बायु बांधे समवृत्तियें तो अधिक अधिकतर बांधे एटले जेवो नाव तेवु आयु बांधे. तथा जो पोपध करीने प्रमाद सेवे एटले अहो रात्र अव्यापार चिंतवे तो एटलाज पव्योपमनुं नरकायु बांधे, वली च क्रवर्ति वासुदेवप्रमुख पण देवताने वश्य करवानेअर्थे पोषध करे ले तो ते मने देवता पण वश्य थाय डे एम पोषधयकी इहलोक संबंधिकार्यनी सिद्ध ता पण थाय ने. इत्यादिक पोषधनां फल प्रगट जाणवां ॥ २ ॥ हवे ए पोषधव्रत आराधवा नपर अने पोषधव्रत विराधवा उपर शेठ ना बे पुत्रनो दृष्टांत कहियें बैयेंः- लक्ष्मीनिवास नगरनेविषे पर्वतनी रे रखाने अनुसार सुवर्णनो गढ के तेमां गुणनिष्पन्न जेनुं नाम डे एवो अ पराजित नामे राजा होतो हवो. तेनुं जेवू नाम ले तेवोज परिणाम ले पण निरर्थक नाम नथी ते नगरमा प्रझाकर नामे शेठ वसे ने ते राजाने घणो मानेतो जे ते शेतनी प्रज्ञावती नामे स्त्री ते सर्व सतीउमांहे प्रथम व Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३७७ खाणवा योग्य ले ते स्त्री नरताने सात पुत्रियो थर ले ते साते निर्गुण ने पगनी रजनी पेरें धननी हाणी करनारी ले यतः॥ अजारजः खररजस्तथा संमार्जनीरजः, दीपमंचकयोश्वाया लक्ष्मी हंति पुरा कृतां ॥१॥ नावार्थःअजनी रज ॥ गईननी रज, तेम सावरणीनी रज,दीवानी बाया,मांचानी बाया, एटलां वानां पूर्व उपार्जित लक्ष्मीने हणे ॥ १ ॥ ते पेटनरा रां कनी पेरे निर्लज डे तथा बीजा अनक्ष्य नक्षणने विषे निरंतर सर्वस्थानकें निःशंक , सत्पुरुषना गुण ग्रहवा मांहे मूक बे. उःस्वरा, उर्नागी, धर्मति, पुर्गतिने पामनारी, माठा आशयनी धरनारी. साते मांहोमांहे क्वेशनी करनारी ने, जाणीयें उखदायी साते नारकीज ते साते पुत्रियो मा बा पने घणा खेदनी उपजावनारी थइ तेथीमातापिताने अतिशय अनिष्ट थ. हवे ए पड़ी ते शेग्ने आठमना चश्मा जेवो एक पुत्र थयो ते रात्रियें ज न्म्यो परंतु रात्रि बतां पण चारे दिशायें अकस्मात् उद्योत थयो ते जो मा तापिताने खेद अने विस्मय थयो एवामां तो ते बालक जन्मतांज वाचा ल थश्ने ताडुकीने बोल्यो के तमो पुत्रजन्मना हर्षने स्थानकें खेद केम करो बो? महारा जन्मनो महोत्सव केम नथी करतां? पुत्ररत्न पामवू सुलन नथी एवी जन्मतांजवार पुत्रनी वाणी सांजलीने मा बाप विचारवा ला ग्यांके आपरों पेट कोइ नूत अथवा प्रेत अथवा यम ते पुत्ररूपें अवतस्यो जणाय ने नहीतर जन्मतांज एवी स्पष्टवाणी क्याथी बोले ! माटे एनो जन्म महोत्सव पण केम करीयें ? एवा मातापिताना चित्तना अाशयने जाणीने ते बालक फरी बापप्रत्ये कहेतो हवो के तमे कांपण तमारा चित्तने विषे शंका लावशो नही हुँ त मारा नाग्यना उदयथी कल्पवृदनी पेरें तमारा कुलमां अकस्मात् अवतस्यो डं, वली मारुं वचन सोनलो आ नगरनी बाहेर उद्याननेविषे देहेरंबे ते दे रासरने बारणे दशकोडी सोनेयानुं निधान ने तिहां तमे उतावला जाव्य लाची धननी बार्त्ति निवारीने महारो जन्ममहोत्सव अति विस्तारें करो. तथा ते धनेंकरीने बीजांपण घणां अगणित पुण्यनां काम करो. एवी ते बा लकनी वाणी सांजलीने तेना पितायें अतिविस्मय तथा अतिहर्ष पामी तेज वरखतें तिहां जश्ने खोयुं तो मांहेथी धन निकल्युं ते तत्काल घेर लावीने नवी जाणे सुकतनी मूर्तिज होयनी!! तेवीरीते ते पुत्रनो जन्मसंबधी म Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ जैनकया रत्नकोष नाग चोथो. होटो अतुल महोत्सव ते शेते करीने गुण निष्पन्न एवं देवकुमार तेनुं नाम पाड्यु. मा बापें विचाङ्गु जे ए पुत्र जन्मथीज प्रगट वचनेंकरीने सुखदा यो थयो तो पागलपण आपणने सुखदायी थशे तेम ते कुमार पण अ तिशय रूपादि गुणेंकरीने वधतो हवो. एवामां ते प्रज्ञाकर शेठनो कोक चाडियो शेषी हतो तेणे राजापासें जश्ने प्रज्ञाकरशेठ धन पाम्बा ते संबंधी वार्ता करीने चाडी खाधी रा जायेंपण कोक प्रकारथी धननी प्राप्ति जाणिने ते चाडियाना मुखनी वात सांजली क्रोधे धमधमीने सुनटोने दुकुम कस्यो के जाउ तमे प्रझाक रशेग्नु घर लूंटी लावोते सुनटोने शेठे पोताना घरतरफ दूरथी आवता जोड शेठ अत्यंत भ्रूजवा लाग्यो तेवामां पारणामां रहेलो बालक बोल्यो के हे पिताजी ! तमे राजाना सुनट देखीने तमारा हृदयमां नय आणशो नही. हुँ रक्क माटे इंश्सरखो पण नमोने उपश्व न करी शके एम जाणजो जेणे तमने धन धाप्युं ने तेज तमाळंरक्षण पण करशे एम कहीने ते बालक पारणामांहेथी उतीने घरने आंगणे जर हजार सुनटने जीते एवो योधोथ इने बेठो पनी असुर सरखा र सुनट जेटले शेठना घरमा प्रवेश करवा लाग्या तेटले ते पन्नर दिवसने बालकें विकराल व्यालनी पेठे थश्ने वान्या तोपण मांहे पेसता रह्या नही तेवारें चपेटेकरीने सर्वने हण्या एटले एक तमाचो आकरो मारेथके सर्व सुनट मुखथी लोही वमता नमरी खाने जाणीयें चक्र नमतुं होय अथवा जाणीयें मदिरा पीधी होय तेम लडथ डता धरतीय अथडाइ मूबीखाइ पज्या जाणे मूवा पडेला होय तेवा थया. ए व्यतिकर सांजली राजाने घणो कोप चड्यो तेथी संग्राम करवानी तैयारी करवा लाग्यो एवामा प्रधान भावीने कतो हवो के हे राजन् ! उतावलां थश्ने कोई कार्य करवू नही. जे करवू ते विचारीने करवू जेथी पनी उरतो न थाय तमोतो माह्या डो तेथी तमारे पाटलुं विचारवानुले के जे पन्नर दिवसना बालकमां एव९ पराक्रम डे ए वात केवी अगम्य में एटला माटे हुँ एकवार ते बालकनी पासें जश् सम्यक्प्रकारे तेनुं स्वरूप जो यावं तिहां सुधी तमे संग्रामनी वात करशो नही यतः ॥ अपरिविय कय कऊं, लिदापि न सऊणा पसंसंति ॥ सुपरिस्कियं पुणोविद, कियंपि न जणेश वयपिङ ॥ १॥ नावार्थः-परीक्षा विना जे कार्य कहुं ते का Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३जए र्य जो सिदिपाम्युं तोपण सऊन पुरुष तेनी प्रशंसा करे नही. अने सुपरी दित कार्य जो बगडयुं होय तोपण तेविषे लोकमां निंदा नं थाय ॥ १ ॥ पढ़ी राजानी बाझाथकी शेउने घेर ते प्रधान आव्यो राजाना सुनटो ने पडेला देखीने विशेष शंकाकुलपणे शेत अने शेठनी स्त्रीयें बोलाववा पूर्व क घरमांहे तेड्यो ते आवी पारणामांहे रत्नजडित दडो उलालता एवा बालकनी पासें बेसीने स्नेह सहित कोमलामंत्रणे करीने नेने बोलावतो हवो हे कुमारे ! राजाना मनुष्यनी उपर उर्निवार कोध करवो ते तमारे युक्त नही. केसरीसिंहनी पेठे तहारी अचिंत्य शक्ति बे. तो आशृगाल स रखा सेवको उपर शो पराक्रम करवो. यतः ॥ सिंहः करोति विक्रम, मलिकु ऊंकारनूषिते करिणि ॥ न पुनर्नखमुख विलिषित, नूतलकुहरस्थिते नकुले ॥ भ्रमरकुलना ऊंकारथी शोलायमान एवा हाथिउपर सिंह पराक्रम करेने प रंतु नोरथी अने मोहोढाथी खणेली नूमिनी बखोलमा रहेला नोलिया उ पर पोतानो पराक्रम देखाडतो नथी. ___ एटला माटे हे कुमर ! ए बीचारा रांकनी उपर क्रोध म करो जे या बीने पगें लागे तेनी उपर कृपा राखवी जोश्ये एटलुं करवाथीज सर्वने चमत्कार जेवू लाग्युं माटे हवे एमना उपर करुणा करो. एवी प्रधाननी उत्तम वाणी सांजली लगारेक हसीने कुमर बोल्यो हे महामतिना धणी! तुं सांजव्य अमारो कोप कांश राजाना सुनटो नपर नथी ए कां अमारा अपराधी नथी अमारो अपराधी तो राजा ने माटे राजा संग्राम करवा महारी साथै आवे तेनी हुँ वाट जो बुं केम ए राजा संग्राम करवा था टलो विलंब करे, वली संग्राम कस्याविना राजानो कषाय केम उपशमे? माटे एकवार ढुं संग्रामनुं कौतुक पण देखाडं जे संग्राम थाम थाय डे, तेथी तुं उतावलो नतावलो जा अने वहेलो वहेलो राजाने मोकव्य. __ एवां ते बालकनां चमत्कारिक वचन सांजलीने प्रधान मनोहर वाणी यें करी कुमरने समजावे के के हे कुमार ! राजाने पण कोक चित्तनम थ यो देखाय ने जेमाटे तेने तमारुं धन लेवानो अनिलाष थयो जेम कोश्क स्त्रीलुब्ध पुरुष होय ते महासतीना चित्तनो याशय लश् न शके जेम ते स तीना चित्तनो आशय लेवो पुष्कर ने तेम तमाळं धनलेवु पुष्कर डे ते वात में हवे जाणी तमा स्वरूप पण जाण्युं तमे बालकरूप पण पूजनीय बो Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० - जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. माटे राजाने पण हुं हवे अनुग्रह करीने तमारा सेवकनी पे तमारी पासे लावु , जेम ग्रहनी शांति करीये तेम तमारा कषायनी शांति राजाने क रवी जोयें. एवी प्रधानना मुखनी वाणी सनिलीने कुमर बोल्यो हे प्रधा न ! में रुडी बात कही पण राजाने कांक चमत्कार देखाडवो जोयें ते विना गजा माने नही, महारुंपण बहुमान न करे हजीलगण जेम तुं म हारे मंदिर चालीने आव्यो तेम मने संतोषवामाटे राजा याव्यो नही एट लामाटे लोनाक्रांत राजायें अमारी साथें एटलुं कयुं तो अमेंपण कांक प्रतिक्रिया करवा इलिये बैयें. यतः॥ पादाहतं यमुत्थाय, मूनिमधिरोहति ॥ स्वस्थादेवापमानेपि, देहिनस्तरं रजः॥१॥माणसना पगेंकरी हणायेली रज थोडा अपमानथी पण माणसने माथे चढे तो ते रज पण स्वस्थ माणस करता श्रेष्ट डे जे जड उतां पण करेला अपमाननो बदलो वाले ले. वजी पण कह्यु केः-विपदोऽनिनवंत्यविक्रम, रहयत्यापपेतमायति ॥ नियता लघुता निरायते, रगरीयान्न पदं नृपश्रियः॥१॥ पराक्रम वगरना पुरुषने आपत्ति प रानव करेने अने ते आपत्तिवाला पुरुषने पागलो काल ढांकी लेने वली जेणे उत्तरकालनी कांपण विचारणा नथी करी तेने निश्चे लघुता प्राप्त थायडे अने जे लघुताने पाम्यो ते पती राजलक्ष्मीने पामवामाटे पात्र नथी. ___ एटला माटे उतावलो जश्ने तुं राजाने महारं वचन कहे के हे राज न् ! कुमरें एम कदेवराव्यु डे के तुं महारो महोटो अपराधी बो माटे जो तहारूं राज्य आपीश तो हुँ मुकीश, नही तो सर्वथा तने मूकीश नही. जो राज्य नहीं थाप्य तो महारा हाथनी सुखडी चखाडीश एवां कुमरनां वचन सांजलीने प्रधान पण कुमरने पगे लागी त्यांथी उतावलो जश्ने राजाने पगे लागीने कुमरनी कहेली सर्व वात तेणें राजानी आगल कही संनलावी. ते सांजली राजाय पण कुमरनुं वचन मान्युं जीव्यानो उपाय बीजो कोइ न दीठो तेवारें प्रधाननी बुद्धिथकी जेम प्रधानें कडं तेम राजा करतो हवो. यतः ॥ सकिंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं । हितान्न यःसंशृणुते सप्रिनुः ॥ सदाऽनुकूलेषु च कुर्वते रतिं । नृपेष्वमात्येषु च सर्वसंपदः॥१॥ जावार्थः-जे प्रधान राजाने हितशिक्षा करतो नथी ते प्रधान कुत्सित में अने जे राजा ते शिकाने हितरूप जाणीने सांजलतो नथी ते स्वामी पण Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३र उष्ट डे वली जो राजा अने प्रधान सदा अनुकूल होय तो तेने व समृ दिन प्रीतियुक्त थ प्राप्त थाय ने ॥१॥ ___ एवं विचारी प्रधानसहित ते राजा कुमारपासें आवीने कुमारने देवता नी पेठे जाणीने ते कुमरने पगे लागी कुमरनु कथन अंगीकार करी, ससं चमथको अमृतवाणियेंकरी बोलतो हवो के हे कुमारराज! आ महालं राज्य तमारे स्वाधीन के जेतुं तमाळं चित्त होय तेम तमे अंगीकार करो अने महारी उपर करुणा तथा संतोष करो वली अमारा उपर कृपा करीने माझं स्वरूप प्रगट करीने कहो आ तमारुं अनुत स्वरूप देखीने अमने घणा विस्मयनी वृद्धि थाय . एवी राजानी विनति सांजली अने वार्तानो था शय जाणी राजाप्रत्ये कुमार कहेतो हवो; हे राजन ! हमणां तो महारे तहारा राज्य, कांश काम नथी हुँ बालक बुं तेथी राज्यनारना चिंतारूप समुश्मां कोण पडे. माटे महारुं कार्य तुंज कस्य महारे स्थानकें तुंज रा ज्य कस्य. अने महारं स्वरूप तो थोडाकालमां केवलीनगवान् इहां आव शे ते कशे माटे तुं हृदयनेविषे हर्ष धस्य अने शीघ्र तहारे स्थानकें जा अने में पण तहारा सेवकने जे कुखिया कस्या तेने शीघ्र सुखिया करूं बुं अने तुं पण आ महारा राज्यनी संपदा ले ते केटलाएक दिवस नोग व्य, अवसरें जेम घटशे तेम करीशं. एवं कुमरनुं बोलवू सांजली कुमार नीपासेथीराजा तथा प्रधान अने शेठना घरनाआंगणाथीराजाना सेवक ए सर्व सायेंज उठता हवा सदु कोहर्षसहित पोतपोताने स्थानकें आव्या. हवे तेहज नगरमां राजाने मानवा योग्य एवो कोई धनशेठ वसे वे तेनी धन्या एवे नामे नार्या ने तेने पण सात पुत्रियो थ तेनी उपर घणी मानतां करता एक पुत्र अवतस्यो; तेवारें पिता महोटा हर्षेकरी तथा अति प्रांमबरें करी पुत्रनो जन्ममहोत्सव करवाने तत्पर थयो. तेवामां कुर्दैवना योगथी ते पुत्र पिताप्रत्ये कहेवा लाग्यो के रे रे महारो था शो जन्ममहोत्सव तमे करवा मांमयो ने ? फोकट विधातायें मुजने नीपजाव्यो डे महारं स्वरूप विपरीत नीपजाव्यु , घणाकालना तमारा संचेला धननो संहार करवाने अर्थ ढुं प्रगट थयो . माटे हवे जूवो महारुं कर्त्तव्य कहे बे एम कहेतांज ते शेग्ना घरमांथी महाविकराल एवो अग्नि प्रगट थयो तेणेंकरीने घरमांहेली सारसार वस्तु सर्व बलीगइ. माल मता सर्व बली Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. राख थयुं, घर बली गयुं त्यारे ते अनि उलववा माटे जेटले मातपिता सज थया एटले बालकेंज उठी मंत्रवादीनी पेरे पाणी बांटीने अनि शीघ्रपणे उलवी नारख्यो पोतानो चमत्कार देखाड्यो एवं ते बालकनुं स्वरूप जाणी ने माता पितादिक नयनांत थयां त्यारे तेने ते बालक कहेवा लाग्यो के महारं स्वरूप दी ? महादेवनी पेठे सर्व सृष्टि बने संहार करवा समर्थ डं, ढुं जगतमां विषमो बुं माटे महारी उपर कोई मोह राखशो नही मो ह बांझीने जेम ढुकढुं तेम तमे करो. तमे महारा जन्ममहोत्सवनी वात करी तेथी मुजने कोप चड्यो तेनुं तमने कांक फल देखाड्युं. यतः ॥ अ वंध्यकोपस्य निहंतुरापदां ॥ नवंति वश्याः स्वयमेव देहिनः ॥ अमर्षशून्येन जनस्य जंतुना ॥ नाजातहार्देन च विहिषां दरः॥१॥ सफल क्रोधवाला अने माणसोनी आपत्तिने हणनार एवा पुरुषने सर्वलोको वश थाय अने क्रोध वगरना तथा माणसोपर प्रीति वगरना पुरुषथी शत्रुउने नय थतो नथी. माटे आज पत्री महारें निमित्तै महोत्सव, मोह, हर्ष, नक्ति, प्रशंसादिक कांइ पण करशो मां,जो थोडो पण मोह करशो तो हुँ तत्काल फल देखाडी श. कोइ दासी प्रमुख पासें मने धवरावजो जेथी महारो निर्वाह थाय तथा जेणेकरी ढुं जीवं उपरांत कां करशोमां जो अधिक करशो तो ढुं तत्का ल फल देखाडीश,जेम राजानी आझानो नंग कस्याथी फल पामीये तेम त में फल पामशो. एवं बालकनुं वचन सांजलीने मातापितादिक सर्व चमत्कार पाम्यां थकां तेमज प्रवर्त्तवा लाग्यां पण पुत्र उपर अधिक स्नेह न राखे. एकदा पाडोसण पोताना पुत्रने नवनवा आला रमाडती हती तेने देखीने कुमरनी माताने पण मन थयुं तेथी सांजने समय ते बालकने पारणामांथी बाहेर रमाडवाने अर्थं पोताना खोलामां लीधो तेटले ते बा लक राइस सरखो रौप थश्ने घरमांहेथकी बाहेर निकल्यो, रौइमुज्ञ ध रतो जाणीयें को कोपनो समुज होयनी? तेम मातादिकने कहेवा ला ग्यो के जू महारी बाझा नंग करी तेनां फल देखा९ एम कहेतो थ को रीसाश्ने घरमांथी निकली गयो एटले पालथी ते बालकने मनाववा ने अर्थे पित्रादिक सर्व दोडी पोहोता केटलिएक नूमिका सुधी अत्यंत न यत्रांत थकां जाणे अपराध खमावीने घरमां लावीयें एवामां तो ते बाल क नूत प्रेतनी पेठेक्यांय अदृश्य थ गयो नजरें जोतां जोतांमांहे क्यांय Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०३ जतो रह्यो. हवे गुं थशे एवो विचार मावित्र करे ये एवामां अंधकार थयो तेवारें पित्रादिक सर्व पाला घरमां आववा लाग्या तेटलामा सन्नब थ हाथमां नघाडां शस्त्र लश्मारमार करतांधाड यावी ते घरमां पेसीने सुवर्ण रुंपुं हीरा जवेर माणिक मोती इत्यादिक सर्व उत्तम वस्तुना गांउडा बां धीने लगया. पड़ी पित्रादिक सर्व शून्यचित्त थका घरमांहे युं रह्यं गुंगयुं ते सर्व जोवाने अथै घरमा पेठा एटले ते थरमां तेणे पारणानेविषे ते बा लकने पण हस्तो थको दीतो ते देखी पित्रादिक सर्व दाथ जोडी पगें ला गीने कुमरने रुचे तेवा वचनेंकरीने पोतानो अपराध खमावता हवा. हवे तेवात नगरमां विस्तरी ते चित्तने आश्चर्य करनारी वात राजानी सनामां पण थ. तेवारें धनशेठने तेडावीने राजा सर्ववात पूढवा लाग्यो धनशे- पण यथास्थित वृत्तांत सर्व कह्यो. ते सांजली राजायें कौतुकथकी शेठने कह्यु के तुं जय कुमरने कहे के तुजने राजायें तेडाव्यो जे एवी रा जानी वाणी सांजलीने शेवें घेरजा राजानो आदेश कुमरने कह्यो. __कुमर पोताना पिताना मुखथी राजानो आदेश सांजलीने नीषण नृ कुटी चडावीने पिताने कहेवा लाग्यो के झुं मुजने राजा तेडावे . शा प्र योजने राजा तेडावे ? एम बडबडतो उठीने चाल्यो ते मार्गमा घणा लो कने विस्मय पमाडतो राजसनामां आव्यो. राजाने सलाम पण करी न ही तोपण राजा असमर्थ थको घणी मीठाश राखतो थको बहुमान वाला वचनेकरी कुमरने बोलावतो हवो के हे कुमरेंद! तुजने कुशल ने? एवं जे टले राजाये पुब्युं तेटले ते बालक अतिशय कोप करी दैत्यसर बिहा मणुं रूप करीने बोलतो हवो के हे राजन् ! तुं मुजने इंश्सर बहुमान करीने जे बोलावे ते गुं तुं मुजने नथी उलखतो? तुं महारु पराकम न थी जाणतो? जेम थोडीज वारमा शेग्नुं घर बालीने नस्म कयुं तेम त हालं पण घर बालीने नस्म करीश. एम कहेतांज राजाना घरमां अग्नि लाग्यो जाणीयें धूम्रकेतुं प्रगट थयो के झुं ! ते जो कुमरप्रत्ये राजा कहे वा. लाग्यो के हुँ नूव्यो हवे तुं प्रसन्न था एवां राजानां वचन सांजलीने ते बालक नपशांत थयो. क्रोधरूप अमिनी साथे राजनुवनमा लागेलो अनि पण शांत थयो एटले ते कुमर बोल्यो हे राजन् ! जू प्रेतकुमारनो कोप !! Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हुँ कांप्रझाकर शेठना पुत्र देवकुमारनी सरखो नथी. एम कुमर बोल्यो ते वारे लोक सर्व नयन्त्रांत थयेला हता ते सर्व प्रमुदित थया. ___ हवे ते कुमर सजाना लोकने कहेतो हवो के महारुं नाम प्रेतकुमार कहेजो मदारी निंदा घणी करजो तेथी हुँ रीज पामीश पण कोइ महारी स्तुति करशो नही एवी वाणी सांजली राजा पूवा लाग्यो के हे कुमर ! तहार स्वरूप अति विस्मयकारी, अतिनयंकर, रणजगतना अहंकारने टा जनार, त्रजगतने नय नपजावनार एवं विकट केम ले ते कहे ? तेवारें कुमर बोल्यो हे राजन् ! श्हां केवली नगवान श्रावशे ते. देवकुमारनुं स्वरूप कहेशे तेवारें प्रेतकुमारनुं स्वरूप पण कदेशे. मुजने पूब्यानुं तहारे झुं प्रयो जन जे. हे राजन् ! उत्तमपुरुष होय ते पोताना गुणनुवर्णन न करे, यतः॥न स्वयं ख्यापितगुणै, गुणवानिति कथ्यते॥स्वयं संवाहितानां हि, गात्राणां निर्व तिः कुतः ॥ नावार्थः-पोताना मुखें वखाणेला गुणेकरीने पोते गुणवान कहेवातो नथी. कारण के पोतें दाबवाथी अंगनो परिश्रम क्याथी जाय. एटलामां केवली जगवान आव्यानी वधामणी वनपालकें यावी दीधी ते सांजली राजा तथा प्रज्ञाकरशेठ धनशेठ प्रमुख सर्व नगरना लोक था वी केवली जगवानने वांदी धर्मदेशना सांजलीने वेदु कुमरनुं स्वरूप पूब ता हवा. केवली जगवान् पण ते कुमरोना पाबला नव कहेता हवा. हे राजन् ! पूर्वकत कर्मविपाकथी गुं न नीपजे. यतः ॥ यन्मनोरथशतैरगोच रो, यत् स्टशंति न गिरः कवेरपि ॥ स्वप्नवृत्तिरपि यत्र उतना हेलयैव विदधाति तविधिः ॥ नावार्थ:-जे सेंकडो मनोरथथी अगोचर ने जेने मोटा कवि नी वाणी पण स्पर्श करी शकती नथी वली जे वस्तुने विषे स्वप्नानी वृत्ति पण पहोचवी मुशकीत अर्थात् जे बाबत स्वप्ने पण बनवी उर्लन तेवी वस्तुने विधाता हेलामात्रमा निपजावे जे हवे तेना पाडला जव सांनलो. हस्तिनागपुर नगरने विषे कोक वृक्ष श्राविकाना बे दीकरा एक सुम ति अने बीजो कुमति एवे नामे हता. तेनां जेवां नाम के तेवा परिणाम पण छे ते बेदुजणा व्यापारकरी व्यग्रचित्त थका अने वली प्रमादी थका तेवे परिणामेंकरीने तेवो धर्म करी शकता नथी कांक धर्मकार्यनेविषे सुमतिने रुचि के अने जेम ज्वरें पीडित जीवने घृतनेविषे रुचि न होय तेम कुमतिने धर्म कार्यनेविषे रुचि नथी हवे स्थविरा मोसी मध्यस्थ नावें Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५ करीने धर्म आराधननेविषे तृष्णावंत जे ते यथाशक्तियें धर्मर्नु बाराधन करे. त्रिकाल परमेश्वरनी पूजा आदि देश्ने धर्मनां कार्य करे वली महोटा पणानी अर्थी ने तेथी क्षपणाने लीधे जोपण यथार्थ विधि सचवाय नहीं तोपण पोसह मूके नहीं जेवारें पर्वनो दिवस आवे तेवारें पोतें अग्रे सरी थश्ने घणी स्त्रियोने एकठी करीने तेनी संघाते पोसह करे. पण विक थादि प्रमाकरीने पोसहनी विराधना करें: एम घणा प्रमादेंकरीने धर्म मेलो थयो प्रमाद ते धर्म मलीन थवानुं कारण वे माटे धिःकार ने प्रमादने. हवे पोषधादिकनेविषे माह्यो एवो सुमति माताने पोषध करवानी या ज्ञा आपे वली सहाय पण करे तेनी अनुमोदना करे. चित्तमाहे हर्षधरे, सर्व प्रकारें अक्षा राखे,तेम तेम माताने अत्यंत उत्साह वधे तेवारें माता पण हर्ष सहित पोपध करे तेने सुमति शीखामण आपे, प्रशंसा करे सुपु उनी ए रीत जे जे मातापिताने प्रशंसा करी धर्मनेविषे जोडवां. __ अने कुमति तो माताने कहे के हे मात ! आ वृक्षावस्थायें पोसह करवो ते पुष्कर ने तेमाटे ए करवाथी गुं? पोषध तो समर्थपणुं होय तोज करवो. वली निश्चिंत होय ते पोसह करे, तहाराथी तो विधि पण सचवा तो नथी, माटे पोषध मूकीने पुत्रनी प्रतिपालना कस्य, पोषध करवाथी पो तें नूखें मरे , अने डोकरांनने पण नूखें मारे जे ? एमां ते तुं शो धर्म करे ? पोता, घर मूकी ज्यां त्यां फरती फरे जे. फोकट कायक्वेश शो करवो! गढपण थयुं माटे घेर बेतां पुत्रादिकनी साचवणी कस्य. एवां कु मतिनां वचन सांजलीने पण ते पोषधने न मूकती हवी. चित्तमां विचारवा लागी के हुँ वडेरी बु माटे जो हुँ मूकीश तो सर्व स्त्रियो मूकी देशे. तेम बतां बीजी मूके तो जलें मूको पण महारे तो मूकवो नथी. हवे ते मोसीने सुमतिनी नपर दृढ राग थयो भने कुमतिनी उपर दृढ शेष थयो सुमति उपर साधकतानो बंध थयो अने कुमति उपर बाध कतानो बंध थयो. एम ते मोसीयें पोषध तो कया पण महत्वपणुं वां बती तेथी तेणे विधिपूर्वक न कस्या. तेमाटे पोसह विराधवाथी व्यंतरीतुं आयु बांधी मरीने या उद्यानमां व्यंतरी थइ, जो अतिचाररहित पोसह कसो हत तो वैमानिक देवोनुं वायु बांधत. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैनकथा रत्नकोप जाग चोथो. तथा सुमति मरण पामीने प्रज्ञाकर शेठनो पुत्र थयो थनें कुमति म रीने धनशेठनों दीकरो थयो बेदु जाइ श्रावकनुं कुल पाम्या. हवे ते व्यंतरीने प्रज्ञाकर शेठना पुत्रनी उपर पाउला जवनो कोई दृढ प्रीतिराग बंधाणो तेणेंकरीने जन्म मात्रथी तेना शरीरनेविषे अधिष्ठी र ही रात्रि ते ठोकरानां मात पिताने निधान पाव्यं पठी राजाने पण नमाव्यों इत्यादिक चमत्कार श्रतिशयरागने लीधे देखाच्या. तथा ते व्यंतरी धनशेठना दीकरानी उपर अतिशय द्वेष धरती थकी तेना शरीरने विधिष्टीने विटंबना पमाडे ने अनर्थ करे वे विपत्तिमां नाखे बेतेोकरीने धनशेठना सघला धननो दय कस्यो ने हज पण घणी कदर्थना पाडणे. ने प्रज्ञाकर शेठना दीकरा पर देत राखी तेने घणी संपदा याप माटे हे राजन! सुमतियें पोपधनी सांनिध्य करी तेथे सु खदायी ने कुमतियें निंदा करी तो तेने दुःखदायी यर, माटे धर्म ना सांनिध्यनुं महोटं गुन फल बे ने धर्मनी निंदा करवानुं महोद्धुं श्र न फल बे. एम ए व्यंतरी वार वर्ष पर्यंत एकने प्रीतिनुं फल सुख ने एकने प्रीतिनुं फल दुःख देखाडो. एवी केवलीनी वाणी सांजनी राजा दि सर्व प्रतिबोध पामी एकाग्रचित्तें धर्मनुं सांनिध्य करवाने रुचिवंत थया. हवे प्रज्ञाकर शेव ने धनशेठने गुरु पाउना जब कहे . पातनें नवें धर्मदास ने धर्मदत्त एवे नामे वे जाइ जिनधर्मी हता ते वेहु नाइ परण्या पती स्त्रियोनी प्रेरणाथी धनने मांहोमांहे विवाद करता हवा. यतः ॥ यादीरधारैकनुजां मातृगर्जनिवासिनां ॥ नमोऽर्थाय पृथक्त्वं यद्, जा तृणामपि कुर्वते ॥ १ ॥ एकमाना गर्जनेविषे रहेला बने जेणे स्तनपान नेला करेला बे एवां नाइउने पण जूदाकरनार एवाधनने नमस्कार बे. क चित्र विजक्तोर्यो, जातो तो सर्वथा पृथक् ॥ कलहे सति निर्वाहो, महतामपि नान्यथा ॥ मांग मां धन वेच्युं ने सर्व प्रकारें जूदा थया तो पण जो कलह थतो होय तो मोहोटा पुरुषोने पण निर्वाह करवो कठण थइ पडे बे माटेज जूदा थया विना कलह बीजे प्रकारे मटतो नथी. नित्य क्लेश होय तिहां जेजां रहेतां निर्वाह न याय माटे बेहु जाइ जुदा रह्या तोय पण बानुं धन दाटेतुं हतुं तेनी वेहुना मनमां शंका रहे एटले महोटो नाइ ए म जाणे जे रखे न्हानो नाइ धन काढी जाय अने न्हानो जाइ एम जा Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०७ णे जे रखे महोटो ना धन काढी जाय; एम एकेकनी उपर प धरता रहे माहोमांहे कोनो विश्वास न करे एम करतां महोटा नाइने घेर सी मंत महोत्सव थाव्यो ते देखीने न्हानो नाइतथा न्हाना नाश्नी व बेदु जण मली इषथी चिंतववां लागां जे एने पुत्री थाय तो सारूं थाय, परंतु षीनुं चिंतव्युं कांइ थाय नहीं तेथी महोटा नाइने तो कोइक पुण्यना यो गथी अतिसुंदर पुत्र थयो तेनो जन्मोत्सव घणी रूडीरीतें कयो एम म होटा नाइने सात बालक थयां तेमां ते स्त्रीपुरुचे पूर्वोक्त दीकरी याववा नीज चिंतवना करी तेथी अशुनकर्म बांध्यु. हवे श्रापमा गर्ननेविपे ते स्त्री जरतार पिसहित एम चिंतववा लाग्यां के एने कुलहणो पुत्र थाय तो सारूं के जेथकी जेम वायराथी मेघ नाश पामे तेम एनुंधन सर्व नाश पामे. हवे न्हाना नाश्नी नार्याना गर्ननेविपे पण महोटो नाइ तथा महो टा नाश्नी स्त्री मली वेदु जण एम चिंतवतां हवां के एने लक्षणरहित धन नी हानि करनारा पुत्र थाय तो सारूं तो पण ते न्हाना नाश्ना शुनने उदयें करीने सर्व पुत्र सुजात उपन्या फोकट ते वृधनाइ आकरां कर्मनुं उपार्जन करतो हवो. माटे धिक्कार पडो पिने, हवे आतमे गर्ने तो ते गर्ननी विचि त्रता थकी महोटो नाइ स्त्रीसहित घणा डाननो पश्चात्ताप करतो थ को एम विचारवा लाग्यो के पापणे वेदु जणें मातुं चिंतव्युं ते ठीक न की, माटे हवे जला लक्षणवालो नत्तम गुणें सहित एवो एने पुत्र थान.. हवे ते वेदु नाश् श्रावकनो धर्म पालीने देवलोकें गया तिहाथी चवीने तमे वेदु व्यवहारिया यया, जेवां पूर्व कर्म बांध्यां तेवां या नवने विपे शु नागुन उदय आव्या. एटला माटे जो परने शुन चिंतवीयें तो पोताने पण शुननो बंध पडे अने अशुन चिंतवीयें तो पोताने अशुजनो बंध पडे माटे कोश्नी नपर माठी चिंतवणा स्वप्नमांहे पण करवी नही. हे यात्मा ना हितवांडक नव्यजनो ! दुःखनुंज आगार एवो जे मत्सर तेने तमे बां मो, जेमाटे उर्जनपणुं जे ले तेत्रण जगतने पुःखदायी जे अने सङनपणुं जे जे ते त्रण जगतने सुखदायक , सऊनपणां आश्रयी मैत्र्यादिक ना वनानुं स्वरूप चोथा पोडशकमध्ये कह्यु ॥ यतः॥ परहितचिंता मैत्री, परफुःख विनाशिनी तथा करुणा ॥ परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेण मुपेदा ॥ नावार्थः-पारका हितनी चिंता राखवी ते मैत्री जावना, तथा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. पारका दुःखनो नाश करे ते करुणा नावना, पारका सुखमां संतोष ते मु दिता नावना, अने पारका दोषने नवेखे ते उपेक्षा नावना जाणवी. एवी केवली नगवानना मुखनी वाणी सांजली एकेकनी उपर मत्सर बांझी सद् पोतपोताने घेर गया; नगवान पण तिहांथी विहार करता हवा. देवकुमार तया प्रेतकुमार बेदु उज्वलपद बने कृष्णपद सरखा अनुक्रमें वधता हवा. सुरूप अने कूरूप, सारं नोजन ने हीणुं जोजन, सारो वेष अने वस्त्रहीन वेप, नत्सव अने अनुत्सव, एम बेहुनेविषे मातापितादि कने हर्ष शोक विषादादिकने उत्कृष्टुं कारण प्राप्त करता कांक मातेरा बा रवर्षना थया. तेवारे ते देवकुमार व्यंतरीना आदेशथकी राजानी पासेंथी राज्य मागतो हवो राजाय पण पूर्वे आप, कबुल कयुंडे तेनो विचार करी पोतानी कन्या देवकुमारने परणावी तेने राज्य थापी पोतें महोटा महोत्सवथी चारित्र लइ तपस्या करी शुक्ष अध्यवसायें चारित्र पाली केव लझान पामी घणा नव्यजीवोने प्रतिबोधी मोदे पहोतो. हवे देवकुमारनी राज्यकदिनो आमंबर देखीने प्रेतकुमारनां मातापि तादिक पण पोताना पुत्रना पाणिग्रहणनोमहोत्सव अतिश्रामबरें करवानो जेवामां विचार करे ने तेवामां प्रेतकुमार ते वात जाणी पोतें प्रेत सरखो थ घरनो मूलस्तंन उखेडी हाथमां उपाडीने मातापितादिकने मारवा . दोड्यो ते जो मातापितादिक सर्व कुटुंब पोतानो जीव लश् नाशि गयां. तेवारें प्रेतकुमारे घर शून्य देखीने ते स्तंने ते घरने कूटी पाडीने सुवर्ण रू पादिक सारसार वस्तुयें नरेलु हतुं ते बालीने राख कयुं माटे अतिशय करो एवो देवतानो कोप बे ते दुःखे सही शकाय. एम बारवर्षसुधी पाउला नवना दीकराने रागईर्षे करीने ते व्यंतरीयें एकने राज्य आप्युं अने एकना इव्यनो विनाश करी तोष रोषनु अतिया करुं फल देखाडीवात्माने कृतार्थपणुं मानती पोताने स्थानकें जती रही. हवे समुनी वेलथकी मूकायो जे नदीनो प्रवाह ते जेवो पोताना मू लगा स्वरूपनी अवस्थायें रहे एवो धनशेतनो दीकरो पण पोताना मूल गा स्वरूपनी अवस्थायें रह्यो. माता पितादिकें पण जाण्युं जे अतिमुस्यां त अवस्थानो हेतु ा पुत्र आपणने अनिष्ट थयो बे. एणे पाडले नवें माताने धर्मनो अंतराय कस्यो तेणेंकरी ऊःखियो थयो Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. नए दैवयोगें उत्तम कुल तो पाम्यो पण कां सुख जोगवी शक्यो नही तेम ए नां मातापितायें पण पाबले नवें हीनदीकरो पामवानुं कर्म बांध्यु ते थकी हीन पाम्यां ते कुपुत्रना योगथी महापुःखी थयां. जेम कपोतपदीने बा लकें सेवेली जे रक्षनी शाखा ते शाखा सूका जाय पण नवपन्नव न थाय तेम धनशेठना कुलमा जेवारे ए पुत्र थयो तेवारे धननो नाश थयो. हवे देवकुमार राजाने पण व्यंतरी मूक्यो थको जेम वादलथी निकल्यो एवो सूर्य पोताना तेजें करी शोने तेम ते देवकुमार राजा शोजतो दवो. ___ अन्यदा ते नगरना उद्याननेविषे केवली नगवान् समोसस्या जाणीने देवकुमार राजा परिवार सहित तथा प्रेतकुमार पोतानां माता पितादि स हित वांदवा आव्या अने ते व्यंतरी पण उद्यानमांहेथी केवलीने वांदवा आवी ते सर्व वांदीने यथोचित स्थानकें बेग केवली नगवाने पण धर्म देशना प्रारंजी के अहो जव्यप्राणी ! करेलां कर्म तेज सुख सुखनुं एक कारण ले तेमाटे कणमात्र पण धर्मोद्यम विना गमावशो मां, सर्व मनोवां बित सुरखनो आपनार ते एक धर्मज . केमके जरा अवस्था झुं व्युच्छेद पामीले ? रोगगुं नाशी गया. मरण पण गयुं के गुं. नरकनुं बारj ढांक्यु गुं ? के जेणेकरी तमे धर्मनेविषे वांडा नथी करता ? हे जीव ! तुं सूक्ष्म रहे जागतो रहे. जेमाटे रोग जरा थने मरण एत्रण जणां तहारी पाल लागां ने तेनाथी तुं नासतो थको केम विश्वास करी रह्यो बो? __ माटे जो यतिधर्ममा उद्यम करवानुं सामर्थ्य न होय तो श्रावकधर्मने विषे प्रमाद बांमीने नलीपेरें यत्न करवो,विशेषेकरी धर्ममांहे परम सारनूत एवं पोषधवत ने तेनुं सांनिध्य कर, तेनी अनुमोदना करवी कह्यु के के पोतें करे, बीजा पासे करावे, संतोषयुक्तचित्तेकरी अनुमोदना करे भने सहाय करे ए सर्वने तत्त्वनां जाण सरखां फल कहे . सहाय कस्याना तथा अनुमोदना कस्याना तथा साहाय्य न कस्यानां अने निंदा कस्यानां पोषधनां फल देवकुमार अने प्रेतकुमारनी पेरें तमे प्रत्यपणे दी. एवी देशना सांजलीने देवकुमार प्रतिबोध पाम्यो पूर्वक त धर्मसांनिध्यना वशथकी तेने शुक्ष्क्षा उपनी तेवारे समकेत सहित देवकुमारराजा अगीधारमा पोषध व्रतनो अंगीकार करतो हवो. हवे पोताना पुत्रने प्रसादें मनुष्यनेविषे पण सर्वार्थनी सिधिने मान Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनकथा रनकोप नाग चोथो. ता एवा प्रज्ञाकरशेठ यादिक. गग पर्वनेविपे निरंतर परिपू । पोपधनुं बाराधन करता थका थात्माने धन्य मानता हवा. वली धन्यशेत अने तेनी स्त्री ते तो महर्दिक बतां पुत्रना योगथकी दारिश्पणानां पुःख पाम्यां थकां पुःखगर्नितवैराग्यथकीज दीक्षा लश्ने अ नुक्रमें मोक्षनगरना राज्यने नजनारां थयां,एम घणा जीव धर्मनां सहाया दिक कर्नव्यनेविषे उजमाल थइने धर्ममांहे, पण पोषधना सांनिध्यनेविपे यम करता हवा. व्यंतरी पण रुडीरीते समकेत पामीने सम्यकदृष्टि जी वोने धर्ममां सांनिध्य करवाने विपे सावधान थइ. हवे धन्यशेठनो दीकरो प्रेतकुमार तो नथाविध अर्थात् तेता प्रकारना दुःखेंकरी दग्ध थयो थको पाबले नवें धर्मनो अंतराय करवाने लीधे जो के हमणां तेने रूडीरीतें धर्मनी प्रेरणा करी तो पण पोतें पोपधादिक ध म करवाने सर्वथा प्रकारें जमाल न थतो हवो. राजादिके घणो सभजा वीने धर्मनो नत्साह वधारवा मांमयो तो पण जेम नंटने शख रुचे नही तेम लगार मात्र धर्मनेविपे रुचि थ नही. साहामो पोपधादिकनधि प वहन करे अहो श्रावकना कुलनेविपे अवतरी तेवी सामग्री प्राप्त थऽ ता पण तेने धर्म आराधवो पुष्कर थयो. जेम वर्षाकालें अथवा वसंतने विपे सर्व वनराजि नवपन्नव थाय पण केरडामां पान न थाय तेम इहां जो 'पण घणा जीव धर्म आराधक थया तो पण प्रेतकुमारने लगार मात्र पण धर्म प्राप्त न थयो ॥ यतः ॥ पत्ते वसंतमासे, रिदिपावंति सयन वएरा॥ जे न करीरे पत्तं, ताकिं दोसो वसंतस्स ॥ १ ॥ __ पड़ी देवकुमार तेने बलात्कारें पोपध करावे एम जाणीप्रेतकुमार विचाख्यं के जो दुश्हां रहीश तो ए राजादिक मुजने बलात्कारें धर्म करावशे,माटे ३ हाथी बीजे गाम जाउं तो सारं एम चिंतवी राजाना नयथी ते नगर बांकी बीजे नगरेंज रह्यो एम सर्वप्रकारें मांगलिक कल्याणकारि सर्व वांबितसुख नोथापनार एवो धर्म तेहथी वेगलो थयो, जेम अविनीत शिष्य विद्याथी वेग लो थाय तेम वेगलो थयो पढ़ी ते सर्व प्रकारें छःखी दारी रोगिमाहे मुख्य रोगादिके पीडित थ लोकना परानवादिक फुःख नोगवी मरण पामी तिर्य चथयो तिहांथी नरकें गयो एम घणा नव नरक तिर्यचना करशे अने घ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३०१ यो संसार रऊनशे एवां कटुक फल जाणीने कोइने धर्मनेविषे अंतराय करशो नही. जून धर्मने विघ्नकरनारी वाणीनां फल ! ! वे देवकुमारराजा तो इंनी पेरे श्रवतस्यो ने के शुं ? पोषधने पहेले दि बसें घोषणा करावे के काले पर्वदिवस ने माटे राजानी सायें सर्व सम्म तादिक यावी पोपध करजो एम घणाकाल घणा लोकोनी साथे पोषध व्रत आराधतो वो एकदा ते देवकुमारराजा शत्रुना देशमध्ये स्वयनंरमण समु इन वेज सरखा पोताना सैन्यने लइ गयो तिहां वैरी राजा पण पोतानां सैन्य लइ सन्मुख लडवा श्राव्यो ते वखत दिवस अस्त थयो माटे प्रजा तें युनो ठराव कस्यो पण प्रजातें तो अष्टमी पर्वनो दिवस श्राव्यो जाली पोपधनो दिवसले माटे युद्धनो समारंभ याय नही तेथी देवकुमारराजायें साहामा राजाने कहेवराव्युं के प्रजातें श्रमे युद्ध नही करचं तेने वेरी रा जायें कयुं के मारे तो युद्ध कर बे माटे तमे तैयार रहेजो. ते राजानुं वचन सांजलीने मंत्री प्रमुख सर्वे मली देवकुमारराजाने घ लोए वास्यो तो पण राजायें तो पोपध लीधो ते वात वैरीराजायें सांन ली तेवारे ते घणोज खुशी थयो केम के पीराजाने एवं बल क्यांथी म जे ? पछी ते राजायें समुझना पूरनी पेठे चतुरंगिणी सेना लइ आवीने वे वकुमार राजाना सर्वसैन्यने वींटी लीधुं तेवारें सैन्यना सुनटादिक मंत्री प्र मुख सर्व मलीने देवकुमार राजानी पासे शीघ्रपणे खावी प्रणाम करी वैरी राजानुं स्वरूप समजावता हवा के हे राजन् ! युद्धनो हुकुम करो तो श्रमे राजा साथ संग्राम करीयें ने तमें पण तैयार या पती अवसरें पोषध जो हमलां तो लडाइनो अवसर ने कफना रोगीने साकर खापवानुं बने नही माटे तैयार था नहीं तो घणो अनर्थ थशे एवी युक्तियें करी शु नवचनथी घणुं कथं परंतु राजानुं मन लगारमात्र पण पोषधमांथी म युं नहीं पोषधने मनेकरीने पण न विराधतो हवो. तेथी प्रधानादिकने सं ग्रामनी श्राज्ञा श्रापी नहीं अने ते सचिवादिक प्रत्ये राजा कहेवा लाग्यो के हे मुग्धबुद्धिना ! एवो कोण मूर्ख बे के जे इह लोकना किंचित् सु पर वने विषे सुखकारी एवा ए पोषधव्रतनी विराधना करे. मा टे महारे पर्ये कोइ लेशमात्र पण क्लेश करशो नही. पोताना आत्माना रक्षण निमित्तें जेम तमारी वेरीराजानें मलवादिकनी रुचि होय तेम करो. खने Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. पण हुँ तो लेशमात्र दोन नही करुं बलना करनाराने पण दुःख, करवु ते मनेंकरीने पण हुं नही अनुमोउँ हमणां दुं साधुनी पेठे एकलो बुं आश रीर पण महारं नथी तो वली स्वजन अने धनादिक ते महारां क्याथी; ते माटे ते को महारां नथी अने ढुं तेमनो नथी. यतः ॥ प्राणांतेऽपि न नं क्तव्यं,गुरुसादये कृतं व्रत ॥ व्रतनंगोहि फुःखाय,प्राणाजन्मनि जन्मनि ॥१॥ गुरुने साक्षिपणे करेलुं व्रत, प्राणनो अंत थाय तो पण ते नांगq नहि; कारण के व्रतनंगथी अनंत कुःख प्राप्त थाय ने प्राण तो जन्म जन्मनेविषे मलशे परंतु उत्तमव्रत मलशे नहि माटे मारे व्रतनंग करवो नथी. एवी राजानी निःसंगतावाली वाणी सांजलीने सचिवादिक सर्वे बुद्धिये करी जड थया. तेमने कां पण नपायनी सूज पडी नहि. तेवामां तो वै री राजानुं सैन्य पाणीना पूरनी पेठे सैन्यमा श्रावी पोहोतुं तेने कोइ रो कवा समर्थ थयुं नही तेवारे सर्व सैनिको धणी विनाना थइ पोतानोजी व लश्ने दशेदिशायें नाशी गया. राजा पोताना मरणनो अंगीकार करी धैर्य धरी मानने संथारे सागारी अनशन करीने रह्यो. एवामां वैरीना सुनट पण मार मार करता राजा पासें दोडता याव्या एटले धर्मना मा हात्म्यथी शासनदेवतायें उपयोग देने जोयुं तेवारें तिहां आवीने सर्व वैरीना सुनटोना हाथमां जेम उघाडां शस्त्र हतां तेवा शस्त्रसहित सर्वे ने स्तंनी मूक्या. सर्वेनां शरीर रोगेकरी पीडीत थयां थकां जेम वजघर ना संपुटमांहे गोलीया मत्स्य पीच्या थका जेवी वेदना जोगवे तेवी वेदना सर्व जोगवता हवा. तेथी ते महावेदनायेंकरी सर्व याकंद करवा लाग्या. अहो अहो तत्काल पुण्यपापनां फल या नवमांज उदय आव्यां. ते देखी ने देवकुमारराजा एम चिंतववा लाग्यो के घरे अकस्मात् ा सुनटोने टुं थयुं ? राजाने ते सुनटोनी उपर अतिशय करुणा यावी अने चिंतववा लाग्यो के ए बापडा सुःखथी बूटे तो सारं ए सर्व शासनदेवतायें धर्मनुं सान्निध्य कयुं देखाय ने तो हे देव ! महारे निमित्तै परने उःख थाय एवा धर्मना सान्निध्यथी महारे सयुं, मने सांनिध्यनो विस्तार म करो एq.रा जानुं पापनीरुपणुं देखीने शासनदेवी पोताना चित्तनेविषे चमत्कार पा मी थकी वैरीराजा तथा सुनटोने कहेती हवी के तमे सर्वे देवकुमारराजा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३०३ ना सेवक था तो हुँ तमने मुकुं ते सांजली ते वैरीराजायें सेवक थवा अंगीकार कयुं एटले शीघ्र ते देवतायें सर्वने मूक्या. वैरीराजा आवी देवकुमारने वश थयो ते देखीने देवकुमारराजानुं जे सैन्य नासी गयुं हतुं ते सर्व यावी मल्युं राजानी धर्मनेविषे एकाग्रतायें क री शासनदेवीयें तुष्टमान थश्ने राजायें ज्यारें पोषध पायो त्यारे ते राजाने सर्व विषापहार तथा सर्वनूतादिकनुं अने सर्व रोगादिक दोषनुं निवारक, सर्वशस्त्र बंधन, जल अनि उष्टश्वापदादिकनुं स्तंनन करनार इत्यादि अनेक आश्चर्यनुं करनारूं एवं एक दिव्यरत्न आप्यु ते राजायें लीधुं. एम राजा पोषधव्रत नो अनियह अखंम पालतो हवो. पुण्यना प्रनावथकी कया कार्यनी सि दिन थाय वारु ? अर्थात् जे कार्य चिंतवे ते तत्काल सिह थायज. हवे ते रत्नना प्रजावथी सर्व शत्रुने वशकरी राजा पोताने नगरे आवी जेना महिमानी सीमा नथी एवी देवीयें दीधेला रत्नना प्रनावेंकरी अ नेक प्रकारना उपकार पोताने तथा परने करतो हवो. तथा नवना रोग नु नबुं ओषध एवं जे पोसहवत तेने विधियेंकरीने करतो थको ते राजा पोतानां निबिडकर्मरूप रजने धोइ नाखतो हवो. ___ एकदा अंधारी रात्रिनेविषे नगरमध्ये कोइएक चोर आवीने को धन वान व्यवहारियाना मंदिरने विपे खातर पाडी तेना घरमांथी धन लइने न तावलो उतावलो धूर्त मृगनी पेरें चाल्यो जाय जे एवामां बगना चोकियात पुरुष बुपी रह्या में तेणें ते चोरने मार्गमां चाल्यो जातो दीठो तेथी ते, ते ने पकडवाने माटे पाबल व्याधनी पेरें लाग्या तेने पाउल आवता देखीने चोर पण नित्यना अभ्यास प्रमाणे तिहांथी नाशी नगरनी बाहेर नीकली ने कोइक वननी कुंजमांहे जर पेगे तेने पाउलथी यावेला राजाना सुन टें दीठो पण ते सुनटो अंधारामां बननी कुंजमध्ये पेसवाने असमर्थ हो वाथी वैरीना नगरनी पेठे वनने घेरी रह्या. एवामां जेने शत्रुमित्र बेहुनी नपर सरखी दृष्टि के एवा मुनिराज तिहां उनेला हता तेमने देखीने चोर बोव्यो के महाराज! मुजने शरणागतने अनयदान आपो. एवं चोरनुं वचन सांजलीने मुनि बोल्या के जो तुं दीक्षा लीये तो तुजने अनय ने एक वै राग्यने विषे कोइ पण जय नथी. बाकी सर्वनेविषे जय . यतः॥नोगे रोग जयं सुखे क्यनयं वित्ते च नूभयं,माने म्लानिलयं गुणे खलनयं देहे कृतांतान Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. यं ॥ शौर्य शत्रुनयं जये रिपुनयं वंशे कुयोविनय, सर्व नाम नये नवेदिह नवे वैराग्यमेवानयं ॥ जावार्थः-जोगमाहे रोगनो नय , सुखमांहे दयनो न य, धननेविषे राजानो नय , मानमांहे म्लानिनो जय बे, गुणनेविषे खलपुरुषनो जय डे, देहने विषे यमनो नय , शूरवीरतामांहे शत्रुनो न य , जयमांहे वैरिनो नय , वंशमाहे कुशीलवती स्त्रीनो नय ने एम सर्वे जे नाम धरावे तिहां नय ने पण एक वैराग्यने अजयपणुं . ___ एम सांजलीने ते चोरें पोताने हाथें मस्तकें लोच कस्यो. तेने शासन देवतायें मुनिनो वेश प्राप्यो तेवारे ते चोरने मुनियें दीक्षा दीधी. प्रनातें ते राजाना सुनटें चोरने मुनिपणें ननो रहेलो देखीने त्यांधीज राजाने कह्यु राजा पण ते वात सांजली विस्मय पामी मुनिने वांदवा याव्यो तिहां पूर्व उनेला मुनिने वांटी पड़ी ते चोर मुनिने वांदीने तेमनी घणी प्रशंसा करतो कहेतो हवो के हे विनो! हे स्वामि ! हे सत्ववंतमां शिरोमणी ! त मे अन्याय कार्य त्यागीने शीघ्रपणे त्रण जगतने पूजनीय थया बो. एरीते नगरना लोक पण सर्व चमत्कार पामी ते मुनिने वांदी घणी प्रशंसा करीने सदु पोतपोताने स्थानकें याव्या. जून चोरने पण सुकृतनां फल थयां. एकदा ते राजा पर्वने आगले दिवसें पर्वनी उद्घोपणा करावीने पर्वने दिवसें पोषधशालाने विपे विधियेंसहित पोपट ला ते रात्रि कानसग्गमा रही गुनध्यान ध्याय ने तिहां ते ध्यानने विपे राजाने ते चोरें जे दीदा लीधी तेनुं अनुत आश्रर्य सांजव्युं अने चिंतववा लाग्यो के अहो ए चोरें जून केवु आत्मानु कार्य साध्यु जे चोरी करीने नगरना सर्वलोकने निंद नीय थयो हतो ते चोरी मूकीने मुनिनी दशायें परिणम्यो तेवारें तेज सर्व नगरवासी लोकोने प्रशंसनीय थयो एतो धर्मनु स्वरूप जाणवामां अजा ण हतो पण ढुंतो नलीरीतें धर्मना स्वरूपने जाणतो बतो पण मेरुपर्वतनी चूलिकानी पेरें साधुपणाने ग्रहण करवा समर्थ नथी माटे मुज मंदनाग्य ना धणी प्रत्ये धिःकार हो ! ! हुँ कायर . संसारसुखमां महारुं मन आतुर बे; तेथी सम्यकपणे धर्मना आराधनथी विमुख थयो . जे थकी हालाहल सरखां एवां सांसारिक विषयसुख तेने बांझीने अमृतसुख सरखा चारित्रनो अंगीकार करी शकतो नथी. तो नवजलनिधि तरवाने जहाज सरखं अने पूर्वसंचितकर्मनी वेलीने जेदवाने दातरडा सरखं एवं अक्ष्यसु Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३५ खने आपनाहं जे चारित्र ते मुजने क्याथी उदय यावे. इत्यादिक शुन ध्याननी वृद्धि करतो ते राजा दपक श्रेणिये चढी घातिकर्मनो क्ष्यकरी पोषधवत बाराधतां थकांज केवलज्ञान पाम्यो देवतायें तेनो महोत्सव क यो, अने मुनिनो वेश बाप्यो ते देवकुमार केवली, माता पितादिक घणा जीवने प्रतिबोधी तेने दीहा आपी घणा जीवोनी साथें मोदें पोहोतो. एटलामाटे हे नव्यप्राणी ! पोषधवतनो सहाय तथा तेनी अनुमोदना पूर्वनवनेविषे कस्याथकी सुमतिनो जीव देवकुमारराजा थ घेरवेां पोषध करतां केवलज्ञान पाम्यो अने कुमतिने जीवें पोषधव्रतनो सहाय न कस्यो अने तेनी निंदा करी तो प्रेतकुमार थश्ने संसारमा रमल्यो अने अति दुः ख पाम्यो.माटे हे नव्यो! एवा पोषधव्रत आराधन विराधननां फल सांजली ने पोषधव्रतआराधन करो जेम सुमतिनी पेठे मोदसुख पामो निंदा क रशो तो कुमतिनी पेठे रऊलशो. इति पोषधव्रतनेविषे देवकुमार प्रेतकुमार नी कथा समाप्त ॥ ए अगीयारमुं पोषधोपवास व्रत कह्यं ॥ ॥ अथ हादश अतिथिसंविनाग नामक चतुर्थ शिक्षाव्रत प्रारंजः॥ जे तिथि पर्वादिक लोकव्यवहारनो वर्जक अचिंत्यो नोजनने अवसरें आव्यो तेने अतिथि साधु जाणवो. उक्तंच ॥ तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ताये न महात्मना ॥ अतिथिं तं विजानीयालेपमन्यागतं विपुः ॥ १ ॥ जे महा त्मायें तिथिपर्वना उत्सवो सर्व तजेला ने तेने अतिथि जाणवो बाकी बीजाने अन्यागत कहेवो ॥ १ ॥ ते अतिथिने आधाकर्मादिक बेंतालीश दोषरहित जे आहारनो रूडो नाग देवो तेने अतिथिसंविनाग कहिये, न्यायोपार्जित इव्येंकरीने प्राशुक एष णीय कल्पनीय एवं अशन पान खादिम स्वादिम वस्त्रादिक ते निदाने अव सरें मुनिने श्रद्धासहित आदर बहुमान पूर्वक, अतिशयनक्तियेंकरीने,आत्मा नी अनुग्रहबुधियेकरी घरमांहे जे पोताने अर्थे नीपजाव्युं एवं आहारा दिक दोय तेनुं मुनिने दान आपq ते अतिथिसंविनाग कहियें. तिहां जे देशे जे शालिप्रमुख नीपजे ते देशथी, सुनिदर्निदादिकमां देवं ते कालथी, निर्मलचित्तनो विगुम परिणाम ते श्रा, तथा मुनि आ व्याथी उठीने उना था, बेसवाने आसन आपq वंदन करवू वली पा Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. वोलाववा जावं ते सत्कार, तथा जेम रसवती नीपनी ने तेम दूध खीर खांम प्रमुख पर्ण जेवे अनुक्रमें नीपन्यां ले तेवे अनुक्रमें देवां. यदाह ॥ पहसंत गिलाणेसु, आगमगादिसु तहय कयलोए ॥ उत्तरपारणगम्मिश्र, दिन्नं सु बहुफलं हो ॥ १ ॥ जावार्थः-मार्गना खेद पामेलाने तथा ग्लानि होय तेने तथा सूत्रसिहांतनो नणनार होय तेने तेम लोचना करनारने पारणे उत्तर वारणे दीधुं थकुं घणुं फल थाय ॥ १ ॥ आवश्यकनी चूर्णि तथापंचाशकनीचूर्णिमांहे ए विधि जे श्रावक पोसहने पारण नियमा साधुने प्रतिलानीने पड़ी पार| करे. जेवारें नोज ननी वेला थाय तेवारें श्रावक वस्त्रादिक अलंकार पहेरीने उपाश्रयें सा धुनी समीपें जर अशनादिकनी निमंत्रणा करे तेवारे साधु पात्रां पडिलेही ने गृहस्थने घेर जाय तिहां ते गृहस्थने अंतरायदोप अने जे गृहस्थ सा धुनिमित्तें राखीमूके ते थापना दोप र दोप जेम न लागे तेवीरीतं मुनि आहार लीये. इहां जो कोइ गृहस्थ प्रथम पोरसीनेविपे आहारनी नि मंत्रणा करे तेवारे ते साधुने जो नवकारसीनुं पञ्चरकाण होय तो वोरवा जाय अने नवकारसीयकी अधिक पोरसीयादिकनुं पञ्चरकाण होय तो न जाय जो पोरसीयादिक विशेष पञ्चरकाण होय तो तेवारें पोरसी न गावी पात्रां पडीलेहे, पञ्चरकाण पारी जो पूर्व पोरस पहेला कदाचित् आहार आण्यो होय तो ते आहार को पारणां करनार साधुने आपीने पड़ी ते श्रावकनीसाथें वे साधुनो संघाडो वहोरवा जाय पण एकने गुरु मो कले नही मार्गमा श्रावक पागल चाले तेनी पनवाडे साधु चाल्यो जाय. एवीरीतें ते गृहस्थ मुनिने पोताने घेर तेडी लावीने पली तिहां मुनि ने बेसवा माटे आसन मूकी तेनी उपर बेसवानी मुनिने विनति करे जो मुनि आसने बेसे तो सारुं अने जो मुनि न वेसे तोपण गृहस्थें मुनि घेर आवे तो तेनो अवश्य विनय साचववो जोश्ये. पडी ते गृहस्थ, अशना दिकने नाजनमा लग्ने मुनिने कहे हे महाराज ! अनुग्रह करो तेवारे मु निपण लेवा मांझे ते जेटबुं ले तेटलु मुनिने आपे पड़ी जेवारे मुनि कहे के हवे अमारे खप नथी तेवारे रहेवा आपे. मुनिपण पश्चात्कर्म दोष बां मवाने अर्थे कांक आहार जेवारे नाजनमां रहे तेवारें गृहस्थने कहे के हवे राखो. ए विधियें मुनिने वहोरावीने वांदीने विदाय करे पनी मुनि जे Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ३ए वारें जाय तेवारे ते गृहस्थ, केटलाएक पगलां पनवाडे वोलाववा जाय तेपडी घरमां बावीने पारणुं करे ते वखत विशुद परिणामें एवी नावना जावे के थाजनो दिवस माहारे लेखे थयो. एरीतें श्रावकें पोसहने पार ऐ मुनिने आप्याविना जमवु घटे नही. हवे कदाचित् ते गामनेविपे साधु न होय तेवारें नोजननी वेलायें हारावलोकन करे, पजी विशुरूप रिणामेंकरी एम चिंतवे के जो साधु मुजने · मल्या होत तो महारो निस्ता र थात. साधुने आपीने ढुं कृतकृत्य थात ए विधि, पोषधना पारणा आ श्रयी जाणवो अने अन्य दिवसोने विपे तो नियम नही. कदापि मुनिने व होरावीने पण जमे अथवा पोतें जमी रह्या पड़ी पण वहोरावे. एमज व स्त्रादिक अापवानेविपे पण यथायोग्य विधि जाणवो. श्रीउपदेशमालाने विपे धर्मदासगणियें कह्यु डे ॥ यतः ॥ पढमं जश्ण दानण, अप्पाणं पण मिनण पारेइ ॥ असई असुविहियाणं, मुंज अ कई दिसालो ॥१॥ सा हूण कप्पणिऊं, जं नवि दिन्नं कहंचि किंपि तहे ॥धीरा जहूत्तकारि, सुसा वगा तं न मुंजंति ॥ २ ॥ वसही सयणासान, त्त पाण नेसज वपत्ता ३ ॥ जवि न पऊत्त धणो, थोवान विथ थोवयं दे ॥३॥ इत्युपदेश मालायां नावार्थः-प्रथम यतिने देश्ने पोते प्रणाम करीने पारणुं करे जो साधुनो योग न होय तो दिशावलोकन करीने नोजन करे ॥ १ ॥ साधु ने कल्पनीय जे अन्न होय ते साधुने न देवाणुं होय तिहांसुधी कोइ प्रका रें पण ते धीर श्रावक साधुना पात्रामां बाप्या विना जोजन न करे ॥२॥ वस्ती, शय्या, अशन, पान, औषध, नैपज्य, वस्त्र पात्रादिक ते जोपण पोतानी पासें धन विशेष न होय तोपण थोडामांहेथी थोडं पण देवें॥३॥ __ अन्यत्राप्युक्तं॥ अर्हन्यः प्रथमं निवेद्य सकलं सत्साधुवर्गाय च, प्राप्ताय प्रविनागतः शुचिधिया दत्वा यथाशक्तितः॥ देशायातसधर्मचारिनिरलं सा ६ च काले स्वयं, मुंजीतेति सुनोजनं गृहवतां पुण्यं जिन पितं ॥ वली अन्यस्थले पण कमु जेः-प्रथम वीतरागने सघलुं नैवेद्य करीने अर्थात् पहेलां सघj वीतरागने निवेदन करवू. पढ़ी प्राप्त थयेला सारा साधुने पवित्र बुद्धिथी विनाग करी यथाशक्ति आप, त्यार पड़ी ते स्थाने आवेला साधर्मि नाइनीसाथे ते सारा जोजनने गृहस्थ पोते जमे एरीते गृहस्थ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एG जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नुं पुण्यकर्म श्रीजिने जांख्युं ले. ए व्रतनुं आराधन करवानेमाटे श्राव के निरंतर प्राशुक एषणीय याहार साधुने बापवो. हवे ए व्रतना अतिचार निंदवाने अर्थ मूलसूत्रनी गाथा कहे . मचित्ते निरिकवणे, पिहिणे ववएस मवरे चेव ॥ कालाकम्मदाणे, चन्ने सिकावए निंदे ॥३॥ अर्थः-१ साधुने न आपवानी बुधियें अथवा अनानपयोगें सहसात् कारादिकेंकरीने सचित्त माटी पाणीनो घडो अनाजना ढगला प्रमुखनी उपर अशनादिक मूके ते प्रथम सचित्तनिदेपण नामा अतिचार. २ तेमज देवा योग्य प्रागुक अन्नने सचित्त वस्तुयेंकरी ढांके ते बीजो सचित्त पिहिणे एटने सचित्तपिधान नामा अतिचार. ३ अणदेवानी बुधियें पोतानी वस्तु होय तेने पारकी कहे के या म हारी नथी अने देवानी बुध्येि जो पारकी वस्तु होय तोपण पोतानी क हे अथवा बती वस्तु घरमां होय तेवारें एम जाणे जे ए साधु मागशे तो आपवी पडशे तेमाटे आगलथीज एम कही मूके के पातो पारकी वस्तु डे एटले ते वस्तु साधु मागेज नही. अथवा ते मुनि कोइ वस्तु देखीने दातारनी पासें तेनी याचना करे तेवारे ते दातार कहे के आतो अमुक फलाणानी वस्तु ले माटे तेनी पासेंथी तमे याचो एम अवज्ञा करीने पर 'पासेथी देवरावे अथवा ते वस्तुनो धणी जीवतो होय वामरण पामेलो हो य तेवारे एम विचारे जे ए वस्तु ढुं साधुने आपुं तेनुं पुण्य ते धणीने था- एम परनो उद्देश करीने आपे ते परव्यपदेश नामें त्रीजो अतिचार. ४ मत्सर ते कोपसहित आपे एटले जेवारे मुनि आवीने याचना करे तेवारें बती घरमां वस्तु होय तोपण आपे नही अथवा आपे तो पण कोप करी आपे हीणी वस्तु होय ते आपे अहंकारेकरी आपे अथवा मत्सर ते पारकी उन्नति देखीने विमन थाय पारकी संपदा देखी शके न ही एटले कोक निर्धन पुरुष मुनिने दान देतो होय ते देखीने पोते वि चारे जे गुं एथी हुँ हीणो बुं,ए गुं आपशे; हुँ ए करतां पण अधिक आपुं; एम मत्सरथी दान देवं ते चोयो मत्सरनामे अतिचार. ५ पांचमो साधुने गोचरीनो वखत वीतीगया पली विचारे जे हवे कां Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ३गए मुनि वहोरवा पावशे नही एवी बुद्धिथी साधुने वहोरवानी विनति करें एटले साधु पण लीये नही ते पांचमो काला तिक्रम अतिचार जाणवो. ए काल अतिक्रम्यापली आप्यानो शो अर्थ ॥ यतः ॥ कालं दिनस्स पहे, यस्त अग्घा न तीरए कालं ॥ तस्सेव अडकपणा मिअस्स गिएहं त था नबी ॥ १ ॥ पहेणयस्स एटले दानना लेनारने पणामियस्स एटले अकाले आप, अर्थात् हूं तो मुनिने घणोए कहुँ बुं पण लेता नथी एम करवाथी अंतरथी तो व्रत नांगुं पण बाह्यथी व्रत रह्यं परंतु दानांतराय क मना उदयथी जे माया करवी तेथी अतिचार थाय. यउक्तं ॥ स फासु यमि दाणे, दाणफलं तहय बुजश् अयलं ॥ बंनचेराश्जुत्तं, पत्तंपि चिज ए तब ॥ १ ॥ दावं नवरि नसकर, दाणविधायस्स कम्मणो उदए ॥ दा एंतराय मेयं, रन्नो मारिय समाएं ॥ ५ ॥ नावार्थः-बती प्राशुक दान देवा योग्य वस्तु घरमां होय तेमज महोटा ब्रह्मचर्यादिक गुणें युक्त एवो पात्र पण तिहां बतो होय ॥ १॥ तो पण दानांतराय कर्मना उदयथी दान देवाने समर्थ न थाय ते दानांतरायकर्म राजाना नंमारी सरखो जाणवो ॥ हां तत्त्वत्तियें तो व्रतनंगज थाय . यतः ॥ दाणंतराय दोसा, न दे दियंतयंच वारे ॥ दिन्नेवा परितप्पई, किविणतातो नवेनंगो ॥ १ ॥ नावार्थः-दानांतरायना दोष ते बति वस्तु घरमां होय पण आपे नही, तेम दान देतो होय तेने वारी राखे, अथवा दीधे थके परिताप करे एम. कृपण पणाथकी व्रतनो नंग थाय ॥ १ ॥ अतिक्रमादिकेंकरीने अतिचारता थाय ते जाणवी हां जे व्रत व्रत प्रत्ये पांच पांच अतिचार कह्या परंतु उपलदाणथी बीजा परंतु अतिचार जाण वा. यदादुः ॥ पंचपंचातिचारा, सुत्तंमी जेपदंसिया ॥ तेनावधारणाए, किंतु ते नवलरकणं ॥१॥ तेमाटे स्मृत्यंत दयः एटले स्मरणमां ना व्या होय.जाण्यामां न आया होय एवा अणकह्या अतिचारपण अनुक्र में सर्वव्रतने विपे जाणवा, ए चोथा व्रतना अतिचार निंउंडं इत्यादि पूर्ववत्. हवे ए व्रतनुं फल कहे जेः-ए व्रतना पालनारा जीवो देवतानी दि तथा मनुष्यनी दि, अने तीर्थकरनी पदवीने जोगवीने मोदें जाय शा लिन तथा मूलदेव प्रमुखनां दृष्टांत प्रसिद तथा जे प्राणियें बती यो गवायें सुपात्रने दान दीघां नहीं ते प्राणी दास दौनांगी दारिही प्रमुख Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. महाउखना जोगवनारा थया ॥ ए त्रीशमी गाथानो अर्थ थयो ॥३०॥ ए अतिथिसंविनागवतनेविषे वे मित्रनो दृष्टांत कहियें बैयें. जंबूदीप ना पूर्व महा विदेहदे पुष्कलावती नामा विजयनेविषे धनधान्यादिक कहियें नरेलु अने धर्म अर्थ कामने मोद ए चार पुरुषार्थनी नूमिकारूप एवं विजय स्थान नामे नगर हतुं. ते नगरमां पद्मदेव नामें महोटो व्यवहा रियो वसतो हतो ते लक्ष्मीन घर जे कमल तेना सरखी स्थितिवालो सुको मल हतो पण कादव अने डोलापाणीना संगने नजे तेवो न हतो. ते व्यवहा रियानी देवकी नामे स्त्री हती तेने अर्थयुक्त नामने धरनार अनेक गुणनो आगार एवो गुणकर नामे पुत्र थयो ते पुत्र मातापिताना मनोरथ साधतो थको अनुक्रमें सर्वकलानो पारगामी थयो. वली ते विनय विवेकादि गुणें करी अतिशय शोनतो हवो जेम चतुराई लक्ष्मीयेंकरी शोने, दमा गुणें तप शोने, विवेकेंकरी जेम वैनव शोने, लावण्यलक्ष्मी जेम शरीर शोने, आदरथी जेम नोजन शोने, मतियेंकरी जेम ज्ञान शोने, नक्तियेकरी जेम स्तुति शोने, जेम शक्तिवंत समतायेंकरी शोने, श्रमायें जेम धर्म शोने, तेम यौवन अने रूपेंकरी गुणाकर शोने जे. जाणीयें सादात्कंदावतारज दोयनी ? जेनुं अत्यंतरूप होय तेने दे वांगना पण वांडे तो मनुष्य जातिवाली स्त्रियो वांछे तेमां कहेज युं ! तेमज धैर्य औदार्यादिक अनेक गुण ते कुमरमां ने तेविपे केटलुं वर्णन लखियें ? वली देवता तो वांनित थापे पण मनुष्य वांबित आपे ते आ श्चर्यकार। जाणवू. जेम इंइनो गुरु, जेम शारदानो गुरु, जेम शुक्रनो गुरु एत्रणे प्रशंसवा योग्य वे. तेम चोथो ए गुणाकर पण प्रशंसवा योग्य जे. पंमितने पण वर्णववा योग्य . ते गुणाकरने बाल्यावस्थाथीज याचकने वांबित आपवानो स्वनाव , ते दान गुणेंकरीने लोकोने अत्यंत प्रिय ने. जे दातार होय ते मेघनी पेरें वनन होयज. . हवे तेज नगरमां ते पद्माकरशेठनो मित्र धनंजय नामे व्यवहारियो व से . ते धनेंकरीने धनद सरखो के दोषरूप इंधनने बालवामां अग्निसर खो ने तेनी नले गुणेंकरीने विश्वनेविषे जय पामी एवी जया नामे स्त्री ने. तेना पुत्रनुं नाम तो गुणधर वे पण तत्वथी ते नाम निरर्थक ने य Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४०१ द्यपि ते नि ग्य तो पण पोतामा नाग्यवंतपणुं माने , पुण्यथकी वे गलो में तो पण मातापिताना पसायथी सुखियो बे. ते गुणधर अनुक्रमें यौवनावस्था पाम्यो हवे बालपणाथी गुणधरने गु णाकरसाथें दूध अने पाणीनी पेरें अतुल्य मित्रता बंधाणी तेथी ते गु गधर, गुणाकरनो मित्र जे एवं जाणीने लोकोमध्ये मानवा योग्य थयो. ते महादेवना पोठियानी पेरें.माननीय थयो, महोटानी संगतथी नीच होय ते पण नंचपणुं पामे, तीर्थनूमिकानी रज जेम तीर्थनी संगतथी पू जाय तेनी पेरें ते पण पूजाय. ते वेदुजण वयेंकरी सरखा, शृंगारेकरी स रखा, गतियेंकरी चालवामां पण सरखा डे परंतु गुणेंकरीने तो हंसमां अने बगलामां जेटलो तफावत दीवामां आवे तेटलो ते बेदुमां दीवामां आवे ने. एकदा ते गुणधर तथा गुणाकर वेदु जणा स्वेबायें नगरमांहे नमता थका एक पाठकनी नीशालने विपे ते पाठक नीशालियाने नणावे ले तेना वे श्लोक सांजलता हवा ते श्लोक ॥ जनकार्जिता विनूति, जगिनीति सु नीतिवेदिनिः सनिः ॥ सत्पात्रएव योज्या, न तु जोग्या यौवनानिमुखैः॥१॥ नावार्थः-पितायें जे संपदा उपार्जी ते संपदा बहेन जेवी जाणवी नली नीतिना जाण सत्पुरुष कहे जे के ते लक्ष्मी सुपात्रनेविपेज जोडवी पण योवनना समयमा पुरुषोयें तेनुं सुख जोगवq योग्य नथी ॥ १ ॥ स्तन्यं मन्मनवचनं, चापट्यमहेतुहास्यमत्रपतां ॥ शिगुरेवार्हति पांशु,क्रीडां नुक्तिं च पितृसानदम्याः ॥२॥ नावार्थः-स्तनपान करवू, समजवामां न आवे एवं वचन बोलवू कारणविना हसवू, लगा रहितपणुं, रजमाहे रमवं एटलां वानां वालकने योग्य ने तिहां सुधी पितानी लक्ष्मीने नोगववी ॥ २ ॥ ए श्लोक सांजलीने गुणाकर पोताना मित्रने कहे जे के हवे आप गने आजथी मामीने स्वल्पमात्र पण आपणा पितानी उपार्जेली लक्ष्मी जोगववी युक्त नथी. यतः ॥ सुचित्र सुहडो सोचे,व पंमि सोविढत्त वि नाणो ॥ जो निअ नुवं दंम जिअ, लबिइ उवऊए कितिं ॥ १ ॥ नावा थः तेहज सुनट, तेहज पंमित, तेहज विज्ञानपणुं, जे पोताना नुजदंमें करी लक्ष्मी उपार्डिने जोगवे, बीजी लक्ष्मीयें झुं ? ॥१॥ माटे ते लक्ष्मी उ पार्कवाने अर्थ कयो उपाय करीयें जेणेकर। तरत वांडित लक्ष्मी कोटी Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. प्रमाण उपजे, हे आर्य ! महोटी लक्ष्मीनी प्राप्तिविना मुजने दान नोगादि कनां कौतुक हाथीना स्नाननी पेरे निरर्थक जे. एवी गुणाकरनी वाणी सोनलीने ते गुणधर पोतें पोतामां पंमितपणुं मानतो थको पोताने माहापणेंकरीने कहेवा लाग्यो के हे गुणाकर ! त मे इव्य उपार्जन करवाने शी चिंता करो बो ? ढुं वाणिज्यकलानेविपे घ णो माह्यो डं माटे थोडाकानमांहे लीलायें लक्ष्मीन उपार्जन करीश. वा णियाने व्यापारनी निपुणता तेहज कामधेनु ने, एम तुं निश्चय जाणजे. लक्ष्मी उपार्जन करवाना त्रण उपाय . यमुक्तं ॥प्रवीणता च वाणिज्ये, त्य तकमउपक्रमः॥ न निर्वदश्च कुत्रापि, त्रयः प्रतिनुवः श्रियः ॥१॥ व्यापारने विपे प्रवीणता,तथा जेनो क्रम तजेलो ने एवो ते ते कर्मनो नपक्रम अर्थात् यारंन, अने कोई कागे हानि था तो तेनो शोक न करे अर्थात् हानिथी वैराग्य राखी ते व्यापारथकी पालसे नहि ए त्रण व्यापारना प्रतिन ने अर्थात् जामिन ने अथवा प्रतिनमिरूप ने ॥ लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये. किंचि दस्ति च कर्षणे ॥अस्ति नास्ति च सेवायां,निदायां न कदाचन ॥१॥नावार्थःलक्ष्मीनो वासो व्यापारने विपेने.कांशक कृपी एटले खेतीमांहे पण लयीनो वासो , तथा चाकरीमाहे तो लक्ष्मी के अने नथी, वली निदामांहे तो लक्ष्मी कोश्वारे नज होय ॥ १ ॥ एवीरीते तेने व्यर्थ गर्व करतो देखीने पासे उनो रहेलो एवो कोक सामुश्कि शास्त्रनो जाण पुरुप हतो ते गुणधरनो अहंकार टालवाने निमि तें कहेतो हवो के हे वणिक ! तुं जूठो अहंकार म कस्य तुं लक्ष्मी नपार्जन करे एवा तहारामां लक्षण देखातां नयी तुं तो आ गुणाकर पुण्यवंत जे ए ने संगे रह्योयको सुवियो थयो . जो लक्षणरहित बोतो पण लीला नोगवे जे जेम पापाणनी शिनापण पाटियाना आधारथी तरेले तेमतुं पण या मित्र नी पासें रही एनी पुण्याश्या घणां वानां करे ले पण तहारा शरीरनेविषे एवां लक्षण देखातां नयी के जेणेकरी तुं स्वल्पमात्र पण लक्ष्मीनु उपार्जन करीने जोगवे, पण आ तहारो मित्र जाग्येकरी पूर्ण वे लदणेकरी पूर्ण ने ते लीलामात्रमांहे नुजायें अर्जितलशीनो नोगवनारो थाशे. संसार मां लक्ष्मी ते अभुत ले माटे चश्माना मृगनी पेरें ए मित्रनी पासें तहा रे सुखें रहे कोश्वारे पण कल्याणने अर्थे एनुं समीपपणुं मूकीश नही. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४०३ यतः ॥ गुणिनः समीपवर्त्ती, पूज्योलो केहि गुएविहीनोऽपि || विमले प्र संगा, दंजनमाप्नोति कालादि ॥ १ ॥ जावार्थ:- गुणिनी समीप रहेनारो पु रुप, जो गुणहीन ने ते पण लोकमां पूजनीय थाय छे. निर्मल नेत्रना सं थकी कांणुं नेत्रपण अंजन पामे बे ॥ १ ॥ • एवी सामुझिक नरनी वाणी सांजलीने गुणधर पोताना हृदयमांहे घ लो खेद पाम्यो पण लोकलकाथी मौन रह्यो. कांइ बोल्यो नही परंतु म नमी एवो विचार करवा लाग्यो के हुं गुणधर तो खरो के जो शोल कोड सोनेया उपार्जु ने सामुश्किनुं वचन अन्यथा करूं तो पती महाराजा ग्यनो उदय सर्वने देखाई एवो व्यहंकार की हुईर गर्व धरतो गुणाकर नी साथै नानाप्रकारनी क्रीडा करतो आागल चाल्यो मार्गमां एक धर्मशा ला यावी ते धर्मशालामांहे विविधप्रकारें धर्मनी प्ररूपणा करता जालिये धर्मन मूर्त्तिज होनी शुं ! एवा धर्माचार्यने देखी यानंद पामी ते याचा येने वांदीने तेमने वांछित लक्ष्मी उपार्जवानो उपाय गुणाकर पूछतो वो ते सांगली प्राचार्य ते गुणाकरने जेवामां उत्तर खापवा तत्पर थया तेवामां तो ते गुणधर बोल्यो के में तुजने पूर्व कोज वे जे व्यापारथी लक्ष्मीनं उपार्जन थाय ने तो वली यांही शुं पूजे ले ? एवं गुलधरनुं वचन सांजली गुणाकर बोल्यो के तें कयुं ते तो हुं जाएं बुं पण या साधु विशेषना जा ले माटे एमने विशेष प्रकारें पूरं तेवारे प्राचार्य बोल्या हे गुणाक र ! तुं धर्मनुं आराधन कस्य जेथकीतुं अनर्गल लक्ष्मीनुं उपार्जन करीश. जेम बीज ते फलनुं मुख्य हेतु वे अर्थात् कारण वे वृहने पाणीसींचवानी पेठें उद्यमादिक ते सहकारि कारण वे तेथी सस्य सहजे नीपजे बे तेम धर्मनुं फल ते मोद बे तो लक्ष्मी पामवी एमां शुं कहेतुं जेम कण नीपज वानुं मुख्य हेतु बीज जो बीज वाव्युं होय तोज पाणीसेचनादिक सर्व सामग्री फलदायक थाय. • कोक प्राण माह्या पण बे लक्ष्मी उपार्जवानी कला पण जाणे बेन म पण घणो करे ले पण दरि देखाय में ने कोइकमांतो लक्ष्मी न पार्कवानी कला पण मूलथीज नथी तेम उद्यममां पण बालसु बे तथा पि घणी लक्ष्मीना धणीथका जोग जोगवे बे. उक्तंच ॥ समास्वतुल्यं विषमा सुतुल्यं, सतीष्वसच्चाप्यसतीषु सच्च ॥ फलं क्रिया स्वित्यपि यन्निमित्तं, तदेहि Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नां सोस्ति तु कोऽपि धर्मः ॥ समनेविषे विषम अने विषमनेवि सम सतीने विषे जुतुं अने असतीने विषे साचुं करे ने वली जेना निमित्तथी जीवमात्र नी क्रियाने विषे फल थाय ने माटे एवो अपूर्व लोकोत्तर अनिर्वचनीय धर्म जे. तेमाटे हे गुणाकर !'वांनित लक्ष्मीनो खप दोयतो तुं विशेष प्रकारे ध में कस्य ॥ यतः ॥ धर्माद्वनं धनतएव समस्तकामाः, कामेच्यएव सकलेंश्यि जं सुखं च ॥ कार्यार्थिना हि खलु कारणमेषणीयं, धर्मो विधेय इति तत्वविदोव दंति ॥ नावार्थः-धर्मथी धन मले से अने धनथी काम अर्थात् सुरखोपनो ग मले ने वली ते कामथी नानाप्रकारना सुखोपनोगथी सघली इंश्योनां सुख उत्पन्न थाय ने माटे ते सुखरूप कार्यना अर्थि पुरुचे खरेखर ते का र्यना कारणने शोधq जोश्ये ? के जेथी सर्व कार्यनी सहजमा प्राप्ति थाय. ते धर्म; दान, शीत, तप अने नाव रूप चार प्रकारनो बे. तेमां वती दानना चार नेद ने एक अजयदान, बीजुं ज्ञानदान, त्रीजुं धर्मदान.अने चोथु उपष्टंनदान, तेमां जे मरणना जयथी कोइने राखवो एवं प्राणीने ह पर्नु करनार ते अनयदान कहीये. सर्वदानथकी ए दान महोटुं , तथा रूडां शास्त्र नणाववां नगवां तया जगाववाने स्थानक आपq पुस्तकादि क थापी जणवाने सहाय देवो ते ज्ञानदान जाणवू. श्रावक अथवा साधु ने जे धर्मना निर्वाहतुं हेतु एटले कारण अन्नदानादिक यशन खादिमादि क अनेक प्रकारें . तथा धर्मथकी पडता एवा मनुष्यनुरक्षण करवू,ते धर्मों पष्टंनदान तथा अरिहंतादिकने दान देवू ते पांचमुं सुपात्रदान त्रण प्रकारनु जे तिहां जे अरिहंतादिक साधुने दानदेवं ते उत्तम सुपात्रदान,अने देशविरति श्रावकने दान देवं ते मध्यम सुपात्रदान,तथा समकेत दृष्टि श्रावकने दा न दे, ते जघन्य सुपात्र दान एरीतें पांच प्रकारचें दान ते मोदफल आपे. तथा वली अजयदान, सुपात्रदान, अनुकंपादान, नचितदान अने की ह्निदान इत्यादि दानना अनेक नेद ले तेमां अनयदान अने सुपात्रदान ए बे दान ते मोद अने नोगफलनां अंग तथा अनुकंपादान ते धर्म, अंग ले तथा नचितदान अने कीर्त्तिदान ए वे दान प्रीतिनां अंग ले तथा धर्मदान अने उपटंनदान ए वे दान ते मोदनां तथा धर्मपामवानां अंगळे. हवे शीलधर्म कहे जे जे अब्रह्मनो त्याग तेने शील कहीये. ते एक,देश थी अने बीजो सर्वथी एवा बे प्रकारें ले तिहां स्वदारासंतोष अने परस्त्री Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४०५ नो त्याग ते देशथी,अने जे सर्वथा स्त्रीनो त्याग ते सर्वथी शीलवत कहियें, __ तथा तपधर्म ते बनेदे बाह्यतप अने बनेदें थान्यंतरतप ए बारनेदनां तप में एथकी जे दुःसाध्यकार्य होय ते सुसाध्य थाय.अने निकाचित या करा कर्मनो क्ष्यकरी मोदें जवाय. तथा नावधर्म ते अनित्यादिक बार नेदें नावना नाववी ते सर्वधर्मनुं मूल बीजक ने अने संसारनो नाश करनार जे. ए चारप्रकारनो धर्म जो समकेत सहित आराधे तो जीव मोहरूप लक्ष्मी नपार्जे एटला माटे हे गुणाकर ! तुं ए चारप्रकारना धर्मर्नु बारा धन कस्य तेमां विशेष प्रकारे तुं याचकजनोने दान थाप्य जेमाटे दीधा विना पामियें नही वाव्याविना लणियें नही. वली तुं तहारा चित्तनेविषे संतोष राखजे लक्ष्मीनो अधिक लोन करीश नही. केमके ए जीवतो चक्र वर्तिनी कदि तथा इंश्नी कति पामे तोपण तृष्णापूर्ण थाय नहीं. एवी गुरुना मुखनी वाणी सांजलीने प्रतिबोध पाम्यो थको ते शुक्ष्बु दिनो धणी गुणाकर, चिंतामणी रत्नसरखा समकेंतादिक धर्मने पामीने अतिशय हर्षवंत थयो. अने ते गुणधर तो धर्माचार्यनी वाणी सांजलीने अणसदहतो थको ते धर्मने जूठो करीने जाणतो हवो. जेम पित्तज्वरवा लाने तीखी वस्तु होय ते तीखी न लागे तो तेथी ते वस्तुनुं तीखाशपणुं कांगयुं कहेवाय नहीं तेम मेघनीपेठे ते मुनिनुं वचन ते एकने अमृतसर अने एकने विष सर लागे, नक्तंच ॥ सासाश्यंपि जलं, पित्तविसेसेण अं तरं गुरुथं ॥अहि मुह पडिकं गरलं, सिप्पउडे मुत्तियं हो॥१॥ नावार्थःतेहज स्वातिनत्रनुं पाणी ते पात्र विशेषेकरी महोटा अंतरवालुं थाय अर्थात् तेमां मोटि तफावत थायडे केम के ते पाणी जे सर्पना मुखमांहे पड्युं ते विष थयुं अने शीपना मुखमांहे पडयुं ते मुक्ताफल थयुं ॥ १ ॥ हवे ते दिवसथी मांझीने गुणाकरतो दानादिकनेविषे विशेष प्रवर्त्ततो हवो. एम चारेप्रकारना धर्मने विशेष आराधतो हवो जेम जेम गुणाकर याचकजनोने वांडित दान आपे तेम तेम ते नगरमां गुणाकरनी कीर्नि विस्तार पामे ते कीर्त्तिने जेम जेम गुणधर सोनले तेम तेम हृदयनेविषे आकरो मत्सर धरे तेवारे ते तुबबुझिनो धणी तुबतायेंकरीने चित्तने विपे चिंतवे के अहो या गुणाकरना नाग्यना उदयनुं लोक वर्णन करे जे. जाणीये धनेंकरीने सर्वलोकने वेंचाता लीधा होय नह। तेम ते लोकने Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. कांक ब्रांति पडी गइ ले वली गुणाकर करतां महारामां घणा गुण बे; तो पण महारा गुणनुं लोक वर्णन करता नथी माटे ए लोकप्रवाहे पज्या मूख देखाय डे तुलबुदिना धणी जे. लोकने ए ब्रांति पडी गइ ने माटे एनी साथें फरवाथी मुजने शो लान ? साहामी महारा गुणनी हानि थाय ने, मदारी महोटाइ जाय डे, प्रायः परनी पूढे चालवु परने अनुया यी थइ रहे ते हीगुंज ने वली तेथी गुणहानि अने परवश्यपणुं थाय डे. यतः ॥ परानुगामी परवऋदर्शी, परान्ननोजी परचित्तरंजी॥ परप्रवादी पर वित्तजीवी, सर्वेप्यमी स्युर्गणिनोऽपि निंद्याः ॥१॥ नावार्थः-परने पुंठे चाले, पारकां मुख जुवे, पारकुं अन्न जमे, पारकुं चित्त राजी करे. परनी निंदा करे,पारके विते जीवे,ए सघना गुणी होय तो पण ते निंदवा योग्य थाय ॥१॥ तेमाटे ढुंए गुणाकरने मूकी शीघ्रपणे देशांतरें जर लक्ष्मी उपार्जिने म हारा नाग्यनी कीर्ति देखाडु, ज्यां सुधी ए गुणाकर महारी साथे ने त्यां सुधी मुजने लान नथी आज करियाणामां लान घणो ने यहां वस्तु प ण घणी सोंधी ते नेश्ने परदेशमां मोंघी वेचीश ए गुणाकर तो कायर वे ते एकलो गुंकरशे, हुँ तो एनो सर्व कारभार चाले बे जो ढुं न हो नंतो ए सीदाय जेम अांधलाने लाकडी होय तो चाली शके नहीं तो हेरा न थाय तेम ए महाराविना हेरान थशे जेमां धननपार्जवानी कला होय तो तेनी बीजी कला पण प्रमाण थाय तेज जगतमा पूजाय अन प्रति ष्ठापामे तेने मित्रपण घणा थाय ते कला तो महारी पासे . एम विचारीने ते गुणधर सङ थइ मित्रने कह्याविना घणा मनोरथ साथें अनेकजातनां करियाणां जरी लक्ष्मी कमाववामाटे देशांतरें चाव्यो. कोक मलता पुरुपने कहेतो गयो के तुं गुणाकरने कहेजे जे गुणधर दें शांतरें गयो एम कहीने पोते वाचालयको चालतो अचलष्टथ्विीने चलाय मान करतो चाट्यो जाय के जू मित्राश्मां वली पिणुं. . हवे गुणधर मित्र देशांतरें गयो एवी वात कोकना मुखथी सांजलीने तेने मलवाने अर्थे गुणाकर मित्र उतावलो उतावलो तेनी पनवाडे तेने म लवा चाल्यो जेम महादेवनी पळवाडे पार्वती उतावली जाय तेम असूरी वेलायें पण नगर बाहेर केटलिएक नूमि मूकी गयो अहो जू मित्रने म लवानो प्रेम ! एवामां तो सूर्य अस्त थयो तेवारें कुमति उर्जननी पेरें चं Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४०७ धकार प्रगट थयुं एवामा कोश्क पंथीने मार्गे आवतो देखीने तेने गुणा करें पूज्यु के सथवारो केटलो एक दूर गयो ? तेवारे तेणें कडं के साथतो घणो वेगले गयो माटे ा असूरवेलाये तुजने नही मले तेथी तुं पाडगे वव्य रात्रिने समये गाम बाहेर रहेवूनही एम कहीने ते पंथिक गाममांहे गयो. हवे गुणाकर बाहेर रह्यो थको चिंतवे ले के मित्र थइने उर्जननी पेरे कह्याविना केम जतो रह्यो में कां एने उहयो तो नथी अथवा को 5 र्जने तेनुं व्युदाहित चित्त कयुं हो ! वली विचायुं जे संसारनी कारमी माया ने सर्व कोइ स्वार्थनुं सगुंडे माटे ए संकल्प विकल करवाथी गुं था य माटे हवे तो ए देशांतरने विषे ज्यां होय त्यां एने कुशल होजो अने कोडोगमे लकी उपार्जिने वहेलो आवजो हवे हुँ एकलो शीरीतें लक्ष्मी न पार्जिश अने मित्रविना व्यापार पण थाय नही महारे कांड पुंजी नथीपि ताने इव्ये पण लक्ष्मी नपार्जवी घटे नहीं मुजने पितानी लक्ष्मी नोगव वी तथा पितानी लक्ष्मीय दान पुण्य करवू पण घटे नहीं हुँ पारकी मुडि यें व्यापार करूं तो ते परानव, कारण थाय. जे पारकी मुडियें व्यापार करे ते निरधिकार ने वली ते अधमपुरुप जाणवो त्यां सुधी ते पुरुषनी लाध्यता, तथा त्यांसुधी ते पुरुप गुणी कहेवाय के ज्यां सुधी धनने अ र्थ कोइना मुख साहामुं जोवु पडे नही; तथा वली लक्ष्मीनपार्जिने सुपात्र ने पोष्याविना अने दुःखियानां दुःख टाव्या विना हे जीव! तुं गुणाकर पण केम कहेवाश्श माटे हवे जेवारे पोताना जाग्ययोगथी कोरीतें कांश क धन, उपार्जन करूं तेवारेंज महारे घेर जर्बु त्यांसुधी घेर जवू नही. एम विचारी रिहित ले हृदयजेनुं एवो गुणाकर ते पोताना नाग्य नी परीक्षा करवा साधुनी पेठे शून्यथको ते रात्रिये तिहांज रहेतो हवो एवामां तिहां पासेज एक वटवृक्ष ले तेने विपे एक नुजिष्य नामे यदा ज रहे ले ते यदनी पासें एक बीजो यद नतावलो अजुवालु करतो आ काशथी नतरीने आव्यो ते अजुवालु जो गुणाकर विस्मय पाम्यो थको त्यां बानो मानो वेगे रह्यो हवे ते यद पोताना स्वामी नुजिष्य यदने बानी वात कहेतो हवी के हे स्वामिन् ! हांथी शो योजननी उपर श्रीपुरनामें नगर . तिहां लक्ष्मीवंत कोटीध्वज घणा व्यवहारिया रहे जे ते सर्वमां आठ व्यवहारिया मुख्य ते दीन स्थितने आधारनूत ने तेनां नाम कहुँ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. बु. १ धनाकर, २ धनपति, ३ धनधर्म, ४ धनेश्वर, ५ धनसार, ६ धनगु रु, ७ धनाढय, धनसागर. ए यावे साचा नामना धणी, राजाने मानवा योग्य , ते यावेने घणा पुत्र ने तेनी उपर एकेकी पुत्री थने ते मातापिताने घणी वन्नन ले तेनां नाम कहुँ . गुणावली, गुणवंती, सु गुणा, गुणमालिनी, गुणमाला, गुणलता, गुणश्री अने गुणसुंदरी ए पाठे रूपेंकरीने आठ दिशाकुमारीने जीते एवी ने मातापिताने घणी इष्ट , प्राणथकी पण अधिक प्रिय , ते नरयोवनवंती थडे आठ दिशाना र हेनारा तरुण पुरुपने मोह पमाडवाने मोहनवेली , चोशतकलानी जा एजे, आते जणी वयेंकर। सरखी , आतेनुं एकज मन ने, गुणेकरी, आचारेकरी, प्रीतियेंकरी सरखी चे बालपणाथी एकती क्रीडा करे ले आते कन्यायें एकज प्रतिज्ञा करीबे के आपणे एकेकनो वियोग सहन थाशे नही माटे आपणे एकज जरतारने वरवो. बापणने योग्य रूडो ज गतमां प्रशंसवा योग्य एवो जरतार मल तोज परणवू अन्यथा परणवू नहीं जेमाटे घरवास ते बंदीखाना रूप ले माटे मनोवांबित योग विना ए तुं अन्न अने वली लुंखुं खावं ते कोण निपुण थश्ने खाय ? एटला माटे तेवो वर मेलववा सारूं तेमनां माता पितायें निमित्तिया ने तेडावीने पूज्युं तेवारे ते शास्त्रमा निपुण एवो निमित्तियो कहेतो हवो के एना वरनी तमे चिंता म करो तमारी सर्वनी गोत्रदेवी एकज ने तेनी नक्ति करीने आराधो ते तुष्टमान थश्ने वरनो योग मेलवी यापशे तेवारें माता पितायें पूजादिकेंकरी गोत्रदेवी पाराधी थकी तुष्टमान थश्ने स्पष्टपणे कहेती हवी के तमे विवाहमहोत्सवनी सामग्री सर्व तैयार करो. जेवारें निमिनिये कहेला लसनो दिवस पावशे तेवारे रूपेंकरीने कामदेव सरखो वर ढुं तमने लावी आपीश. एवं गोत्रदेवीनुं वचन सांजली ते व्यवहारिया हर्ष पाम्या थका आवे कन्याने शणगार करावी विवाहनी सर्व सामग्री तै यार करी वाट जोइ बेठा ले ते लगवेला नजीक आवी डे पण वर याव्यो नथी माटे झुं जाणीयें झुं थशे ए कांश खबर पडती नथी ए महोदुं कौतुक मुजने जासे ले जे वरविना विवाह केम थाशे ते कौतुक जोवाने तिहां घणा देवता बने मनुष्य मटयां डे महारे पण त्यां जोवा जवानी घणी न तावल डे माटे दुं तमने तेडवासारु आव्यो कांक अपूर्व वात जोवा Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ए माटे अथवा जोजननी वेलाये जे पोताना इष्टने न संनारे ते सहन शा नो? एवं कहीने शीघ्र ते यद त्रुजिष्य यदसहित ते कौतुक जोवाने माटे आकाशे ते नगरना मार्ग नणी उडतो हवो जाणियें गुणाकर कुमरने मार्ग देखाडवाने अर्थज आगल चाल्यो होय नहिं ! • हवे ते यदनां कहेलां वचन सर्व गुणाकरें सांजलीने ते एकाग्रचित्तें चिंतवतो हवो के धन्य ने तेने के जे ए कन्यानो जरतार थशे तथा धन्य के तेने के जे ए कौतुक जोशे. ते नर पुरुषमांहे उत्तम जाणवा. केटलाक महारा सरखा तो वली धन उपार्जवाने विषे पण समर्थ नथी तो तेवाने ए कल्पना करवाथी गुं थाय ए संपदा, पामतुं तो नाग्याधीन . हवे जो ए कौतुक जोवाय तो घणुं सारं, पण ते क्याथी जोवाय !! ए कौतुक जो वा पण ढुं समर्थ नथी तो वली कन्या परवाने तो क्याथी समर्थ था; माटे जेम वामणो गंचा वदनां फल खावाना मनोरथ करे तेम दुं पण मनोरथ करूं ते व्यर्थ जे महारे एनी होंश शी करवी. जे वेलायें जे काम चिं तवे ते वेलायें ते काम थाय ते नरने पंमितें नाग्यवंत कह्या बे तेमाटे या ज महारा नाग्यनी परीक्षा पडशे तेथी ढुं जाणीश के नाग्यवंत के न थी महारा नाग्यरूप सुवर्णकुंजनी एज कसोटी जे एम विचार करतांज तेने गोत्रदेवीयें नपाडीने श्रीपुरनगरें विवाहमम जश् मूक्यो. महोटा पु रुपोने वांबामात्रमांज कार्य बने . तिहां कांतियेंकर। अने गुणेकरी वे प्रकारें देदीप्यमान माटे एनुं नाम पण गुणाकर ने ए गुणनो आकर दे एवं आकाशे रहीथकी गोत्रदेवी कहे ती हवी अने गुणाकरना मस्तक उपर फूलनी वृष्टि करती हवी. एवं आश्चर्य देखीने कन्याना पिता हर्प पाम्या थका विचारता हवा के जेम एकाएक नवो देवता उपजे तेम ए वर प्रगट थयो तेवारे ते आते कन्याना बा विधिपूर्वक .महोत्सव करीने कन्याउने परणावी. मनोवांनित वर पामीने आते कन्या घणाज हर्षने पामी. कन्याना बापे प्रत्येके कोड कोड सोने या अने एकेकुं गोकुल थाप्यु तथा बत्रीशब नाटक करे एवं एकेकुं नाटक आप्यु. तेमज रूडा वेश, रूडां आनूषण, रूडां नाजनादिक, रूडा जातिवंत घोडा, रूडी शय्यादिक,रूडां सिंहासन नासनादिक, तथा घणी दासदासी घरप्रमुख सारसार वस्तु हाथ मुकामणीमां बापी. ५२ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हवे गुणाकर श्रीपुरनगरनेविषे रह्योयको लीला करे जे. नदारथको न चित दान बाप ने तेथी श्रीपुरनगरमां तेनी कीर्ति विस्तरी. रूडा जमाइ थी ससरानी कीर्ति पण विस्तार पामी. इहां गुणाकर विमान सरखा घर नेविषे रह्यो थको देवतानी पेरें आठ अग्रमहिपीसाथें जेम इंइ सुख नो गवे तेम ते आठ कन्यानी साथै संसारनां सुख नोगवे . जेम बात सि दि पामीने सिहपुरुप शोने, ओम आठ दिशायें मेरुपर्वत शोने, जेम आठ मूर्तिथी महादेव शो, तेम आठ स्त्रीसाथै गुणाकर शोनतो हवो. आठ स्त्रीनी साथै विषयसुख जोगवतां, नग्यो आथम्यो पण जाणतो नथी. सुखमा मनाथकां गया कालने पण जाणतो नथी. एम केटलोक काल गयो. हवे जे दिवसनी रात्रि गुणाकर मंदिरें नाव्यो तेवारें गुणाकरनां मा बाप अति आकुलव्याकुल थयां थकां रात्रि दिवस घणी खोल करी पण गुणाकर मट्यो नही तेवारें हाथमांथी जेम चिंतामणी रत्न आवीने जाय तेथी शोचना थाय तेम तेने शोचना थइ. एम करतां केटलोएक काल गयो. एकदा पुत्रना शोकेंकरी पीडित थयेला पितायें जोशीने पूज्युं तेवारे जोशी लग्न मांमी निरधार करीने कह्यु के तमारा पुत्रने कुशल खेमने, जाग्योदयथी संसारनां सुख जोगवे , लीलायें लदमी पाम्यो जे, दाना दिक पुण्य करणी करे ने, तेणेंकरीने तेनी दिशादिशाने विपे कीर्ति विस्त रीने. ते पश्चिम दिशामां डे, नवी आठ कन्या परण्यो में तेनी साथै संसा रसुख जोगवे . ते अत्यंत सुखी ने तमे व्यर्थ चिंता करो बो. पण ते घणो दूर ले एक वर्ष पड़ी तमोने तेना ठेकाणानी खबर पडशे. अने व र्ष पनी तमने मलशे. ए महारुं वचन सत्य करी जाणजो. ___ एवी जोशीना मुखनी वाणी सांजलीने मातापिताने अतिशय हर्ष न पन्यो जेटलो पुत्र मलवाथी हर्ष उपजे तेटलो पुत्रना कुशलखेमनी खबर सांजलीने हर्ष नपन्यो. हवे गुणाकरनां मातापिता देशांतरियोने पुत्रनी खबर पूढतां पूबतां एक वर्ष ते शो वर्ष सर थयुं तेवामां जेम इंनी सनामांहे नारद थावे तेम ते राजसनामां एक मागण एटले याचक बंदी आव्यो. तिहां ते गुणाकरना गुणनुं वर्णन करतो हवो. राजानी परिषदमां पण वाणियाना गुणनां जहादिक वर्णन करे ए याचकनो स्वनाव बे. ते सांजली राजा कहेतो हवो के वक्रहोउने विस्तारतो महारी वागले पण Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४१ जेम इंनी परिषदामा सामान्य देवतानुं वर्णन कोई करे, जेम सिंहनी प रिषदामां शीयालियानुं वर्णन करे तेम तुं वाणियानुं वर्णन करे ने ? तेवारें याचक नट्ट पण दृढ यश्ने बोल्यो के हे राजन् ! हे सेवकजन वत्सल ! ढुं वाणियानुं वर्णन करुंडं ते तेना गुणेंकरीने करूंचं. केमके वनमा उपन्यां ने तो पण जला पुष्पने झुं मस्तकें आरोपण नथी करता? अथवा मृगनी नानियें उपनी एवी कस्तुरी पण गुं वाहाली न होय ? तेम ते नाग्यवंत देवतायें आगेलो आठ कन्यानो जरतार थयो एवो गुणा कर ते सहेज मात्र लाख सोनैया याचकने आपे ने जाणियें चालतो कल्प वृदज होयनी एवो डे. माटे तेना गुणोनुं वर्णन करूंबु. एवी याचकना मुखथी गुणाकरनी कीर्ति सांजलीने सजाना सर्वलोक चमत्कार पाम्या. तिहां गुणाकरनो पितापण बेठो हतो ते विचारवा ला ग्यो जे निश्चय ए गुणाकर ते महारो पुत्रज डे नहितर महारुं हृदय उन्ना स पामे नही. मेघनी धारायें हणाया एवा कदंबरदना फूलनी पेरें उठ कोडी रोमराजी विकस्वर थइ तेम वली जोशिये पण एकवर्षमा ठेकाणानी खबर पडशे एवं कर्तुं हतुं माटे एमां संदेह नथी पड़ी ते याचकने रुडी रीतें पूबी निश्चय करी अन्योक्तियें गर्नितरचनायुक्त लेख लखी थापीने तेड वामाटे माणस मोकल्युं ते पुरुचे पण शीघ्र जश्ने ते लेख गुणाकरने आ प्यो गुणाकर पण प्रेमसहित पत्रने उखेडी वाचतो हवो. यतः ॥ स्वस्ति जयस्थलनगरात्, पद्मः प्रणयाशुणाकरं स्वसुतं ॥ आदिशति यथा श्रीजिन, गुरुप्रसादेन नः कुशलं ॥ १ ॥ स्वकुशलकिंवदंती झाप्या नः प्रीतये त्वया यावत् ॥ अथकार्यमार्य नवतोऽनुताश्रुताकापिपरमर्दिः ॥२॥ सुचिरात्त्ववि रहमहा, मुसहर्निदःखितानां नः ॥ तेन तेनेदानी, पत्रामृतप्रातराश सुखं ॥३॥ किंतुनवदंगसंगम, सुखाय निखिलेष्टनोजनाय वयं ॥ उच्चैस्त्वरा महेतत्, त्वरस्वतत्सिध्युपायविधौ ॥४॥ किंच ॥ पितरावुपेक्ष्य ददौ, श्वसुरौ कसि तस्थुषः स्थिरतया ते॥सत्पुरुषपथः कथमिव,नावीति विचिंत्यमेतदपि ॥५॥ स्वस्तिश्रीजयस्थल नगरथी पद्मदेव, पोताना पुत्र गुणाकरने स्नेहथी लखे जे आंहि श्रीजिनेश्वर देव गुरुनी कृपाथी अमे सर्वेकुशल बिये; वली तमारे पण त्यां श्रीजिनदेव गुरुनी कृपाथी कुशल हशे तेना खबर लखवा, जेथी अति संतोप थाय अने त्यांना अथ इति यावत् समाचार लखवा, जेणे Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. Rafa नंद उपजे हे श्रार्य ! विशेष कामकाज लखजो मेंपण ही तमारा, अतित समृद्धि मलवाविषे समाचार सांजव्या बे २‍ घादिवस थया तहारा विरहरूप महादुःसह एवा पुर्निषी अर्थात् 5 कालथी दुःख एवा में 'तेने तारा कुशलपत्र रूप अमृतना शीरामणनुं सुख हमi aurat ani नथी माटे ते खापवा हृदय सदय राख घटेले. केमके द्वारा अंगसंगमना सुखरूप प्रिय इष्टज़ोजन सारं यमे सघलां श्रति शें प्रातुरबिये माटे ते सिद्ध थाय एवा उपायनी योजना तुं उतावलयी कस्य तो सारं अर्थात् तने मलवाना सुखरूप इवानोजन सारं यमे प्रति तलखिये लिये माटे जेम तरत मलवानुं सुख सिद्ध थाय तेम करीश. एम पत्रना समाचार वांचवाथकी गुणाकरनुं मन काइक प्रेमेंकरी या ई जेवामां ययुं तेवामां पत्रमां श्रागत ते गुणाकरें अन्योक्ति तरफ जांयुं ते अन्योक्ति याप्रमाणे :- गांगेयगेयगरिमा दिगुणाष्टकाढ्यो, विश्वेकचूपण वि दूपणसौख्य हेतौ ॥ सन्मानितोऽन्यजनतां जनितुर्न जातु मातुः स्मरस्यपि चिरात्किमु तत्तवाद || गांगेय जेवाये अर्थात् जीष्म पितामह, सरखायें जेना गरिमा प्रमुख अर्थात् गौरवच्यादि यावगुणाने गायेला बे एवाष्टगुणथी युक्त स्त्रियोना अथवा गंगाजलनी पेठे गावायोग्य पवित्रतावाला गौरवप्रादि श्रावगुणयुक्त स्त्रियोनां सुख के जे व्याविश्वमां विशेष नृपण ने विशेष दूषण रूप ने ते सुखना हेतुनेविषे वीजा जनसमूहने मतलब श्वगुरादि कने सन्मान पतो एवो तु क्यारे पण घणा दिवस ययां पिता माताने स्मरण करतो नथी ते शुं तमने योग्य बे. पती अंतःपुरमा जइ यावस्त्रि योने ते लेख संजलावी पाठो लेख लखी चरपुरुषने यापी तेने विदाय करी श्वसुरादिकनी रजा लइ श्राव कन्यादि सर्व परिवार संघातें श्रीपुरन गरथ निकल्यो मार्गमां गामगामप्रत्यें लक्ष्मीनो लाहो लेतां दान पुण्य क रतां गम गम चमत्कार पमाडतां त्र्वविन्न प्रयाणें चालतां थोडेक दि वसें जयस्थलनगर याव्या तेवारें मातापितादिक सर्व कुटुंबे मली महाम होत्सवें करी नगरमा पधराव्यां, राजाथी मांमी गोवाल प्रमुख बालगोपाल सर्व गुणाकरना तुल्यपुष्यनी प्रशंसा करता हवा. एवीरीते गुणाकर पो ताना जाम्यनी ऋदिनी परीक्षा पोते मनोवांबित अर्थलानथकी करीने Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४१३ जेम मोर वर्षादनी वाट जूवे तेवीरीते ते पोताना मित्र गुणधरना था गमनने जोतो हवो. हवे गुणधर पण अनुक्रमे देशांतरें व्यापार करतो पिताने नाग्य घणी लक्ष्मी उपार्जिने चिंतववा लाग्यो के महारुं महोटुं जाग्य जे जूठ अक स्मात् लक्ष्मीनी उपार्जना थइ एम हृदयमांहे अत्यंय गर्व धरतो थको जे तुन होय ते अल्पकार्यमांहे पण गर्व करे. यतः॥ एगण वीहाणा, दरस्स जह दोविवाह बुडाहनो ॥ तहय मुणिय परमबा, थवेण वित्तणाहुँति ॥१॥ एम ते गुणधर कांक लान मलवाथी संतुष्ट थयो अने हजी घ | व्य कमाववानो लोन ने तेथकी असंतुष्ट थयो एम लानथकी लोन नी वृद्धि थइ तेथी घणा व्यापार करवा मांमधा वसुद्धिने अर्थे अर्थात् कि रणनीदिने अर्थे जेम सूर्य अन्यदिशायें जाय तेम गुणधर पण धनदिने अर्थे तिहाथकी अन्यदेशे गयो. तिहां पण घणा व्यापार करवाथी घणो लान पाम्यो. प्रायः वाणिज्यकलामांहे निपुण होय ते धनउपार्जवाने सा वधान होय तेवारे ते महोटा गर्व सहित हर्षधरतो अनेक मनोरथनी क ल्पना करतो तिहाथी करियाणां नरीने पोताना नगरजणी चालतो हवो ते जेवारे मार्गमा जाणियें अनर्थनी पदवीज होयनी एवी अटवीमां याव्यो. तेवारे जाणीयें गुणधरने मलवाज याव्यो होयनी तेम तिहां प्रलयना अ मिनी पेरे शीघ्रताथी दावानल अत्यंत प्रज्वलित होतो हवो तेना नय थकी हाहाकार करवामांहे लोक सर्व तत्पर थका महोटे कप्टेंकरीने सेव को नाता तेनी साथे जीव लश्ने गुणधर पण नासतो हवो, शकट पनादि क करियाणां प्रमुख सर्व जोता जोतांमां शीघ्रपणे जस्म रूप होतां हवां जेम क्रोधना नदयथकी तप जस्म थाय तेम नस्म थयां. तेवारें चाकर प्रमुख पण तेने निनांग्य निईव्य दरिडी जाणीने मी गया. पड़ी ते गुणधर अतिशय खेद धरतो वनचरनी पेठे शून्यचित्त ययो थको शून्यवनमां फरतां फरतां कुधातृपायें पीडित थको ते अटवी उलंघ तो एक सनिवेश पाम्यों तिहां प्रकृतियें दयावंत एवो एक योगी तेणे दी मे ते फुःख अने आर्तिथी पीडित एवा गुणधरने देखवाथी योगीने पण करु या उपनी तेथी ते पोताने स्थानकें तेडीगयो तिहां तेने अशनादिक करावी पोताना तेने दीकरानी पेठे पोपतो हवो पढ़ी जे पर्वतने विपे नानाप्रकारनी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. औषधीन डे त्यां तेडीज पर्वतनी नीचें उनो राखीने अनेक औषधी दे खाडीने एम कहेतो हवो के हे गुणधर ! आ औषधीनो समूह देखीने तुं मुंफाशमां, पण मात्र एकज या महोटी औषधी तने देखाडं बुं तेने नि शानी सहित उलखी ले 'अजाना यूथनी पेरे मुग्धबुझिनो धरनार एवो तुं बाजे कालिचौदशने दिने रविवारनी अरात्रिये जेम गुरु प्रसन्न थ बात्र ने विद्या आपे तेम ए औषधी हुँ तुजने आपुं ते तुं ग्रहण करजे एम योगिये कह्याथी पण रीज पाम्यो एवो ते भ्रमरहितपणे ते औषधीने एं धाणादिकेंकरी ध्यानमा राखतो हवो. पनी वेदु तिहाथी पाला पोताने स्थानकें आव्या रात्रिना वे पहोर अतिक्रमे थके ते योगिराज विघ्नने बंध करवाना कारणनूत एवी जे गुणधरनी शिखा तेने बंध करीने पर्वतपासे यावी कहेवा लाग्यो के या औषधी बलती दीवानी शिखा सरखी ले तेने तुं महारा साहसथी साहसिक थक्ने दृढपणे पर्वतनी शिखर उपर चडीज मणा हाथनी एकमुतीमां पकडी माबा हाथमां शस्त्र लइ थडमूलथीले दीने जकडबंध करी मुठीमा राखजे पण मुती उघाडीशमां औषधी लग्ने सत्वसहित पाडो वलजे पण पवाडे पुंठ फेरी जोशमां पालथी नयंक र अतिशय बिहामणा शब्द काने पडे तेने सांजलीने पण निर्नय यका हलवें हलवें तुं पर्वतथी तो उतरजे. ए औपधी साना सिदिनी ने जेम रसकू पिकाना.रसथकी सोनुं नीपजे तेम एनाथकी पण सोनुं नीपजशे. तेथ। जेम शीतल वृदनी बायाथी ताप जाय तेम ताहाँ दारिद्र्य जाशे. एवी योगिनी तत्व वाणी सांजलीने पर्वत उपर ज जे योगियें कही ते औपधीने विधिसहित खेतो हवो. ते औषधी लेतां गुणधरनुं चित्त हर वाने जयंकर महारौ शब्द थता हवा, नूत प्रेत पिशाचादि अट्टाहास्य करता अनेक रादस प्रगट थया. चारे बाजु अतिशय बिहामणा नैरवना शब्द थता हवा पण जेम साधु परिसह सहेवाने अमग रहे तेम गुणधर पण अमगथको सर्व उपवने उलंघतो अनेक मनोरथनी माला सहित औषधी लश्ने पालो वव्यो ते जेम साधु व्यथी अने नावथी नवस्थिति ना विषम मार्गने उलंघे तेम गुणधर पण इव्यथी अने नावथी बे प्रकारे पर्वतना विषममार्गने नगरनी नूमिनीपेरे सुखेंकरी उलंघतो थको चाले ने तेटले कोइ उष्टदेवें पर्वतना शिखरथकी खसाडेती एवी पाषाणशिला ते अक Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४१५ स्मात वेगेंकरीने गुणधरनी पुंठे पडती हवी ते शिलाना पडवाथी उपन्यो एवो जे खटखटाकार शब्द तेथकी सहसाकारें संत्रांतचित्तथको पनवाडे फरी जोतो हवो जेतुं पनवाडे फरी जोयु के ते दणमांहेज जापीये रुतीज न होय तेम ते औषधी मुठीमांहेथी नाशी गइ. एंवी वस्तु एवाना हाथने विषे स्थिर केम रहे ? तेवारे ते विषाद पामतो तिहाथी जइ योगिने कहे तो हवो ते सांजली ते जगतहित वांडक योगियें गुणधरने कह्यु के हे वत्स! ताहरुं सत्व महोटुं अने उद्यमपण महोटो डे तथापि तहारां पूर्वनवनां पुण्य नथी माटे पुण्यविना सघळ निष्फल जाणवं. यतः ॥ विकटाघटपर्वता टवी, स्तरवानि नजनूपतीनपि ॥अपि साधय मंत्रदेवता, न तु सौख्यं सुकतै विऽनास्तिते ॥ नावार्थः-विकट एवी पर्वतनी अटवी प्रत्ये जले भ्रमण कर मोटा समुशेने जले तस्य तथा राजाउने पण घणी सावचेती राखी सेव्य तेम ज मंत्र देवतानेपण सुखें साध्य परंतु सुरुतविना तने सुख मलवानु नथी. एटलामाटे धन उपार्जवानी खोटी आशाने मूकीने तुं ताहरा चित्तने विपे संतोष पाण्य. कारण के संतोष ले ते त्रयलोकनेविपे अतिशय सुखदायी ने एवं योगिनुं वचन सांजव्युं तो पण ते लोनांध धननी आशायें आगल चाल्यो ते पृथ्वीने विपे घणो जम्यो धनना अर्थिनु चित्त क्यांश ठेकाणे वेसे नही ते नमतांनमतां मलय नामना गामपासें श्राव्यो तिहां तेने एक अत्यं त दंनी कपटी कपटपणे तापसनो वेश राखनार एवो कोई परिव्राजक म व्यो तेणें गुणधरने देवी तेने धनार्थि जाणीने दयावंत थइने सर्व हकीक त पूजी, तेवारे गुणधरें पण पोतानी यथार्थ वात परिव्राजकने कही संन लावी ते सांजली परिव्राजक बोल्यो के हे गुणधर ! तुं लगारमात्र पुःख ध रीश नही हुँ तहार सुःख टालीश. तुं राता थोरना वृदनु रातुं दूध ज्यां होय त्यां शोधकरीने ल आव्य तो ढुं ताहरुं शीघ्र दारिश्य काढुं. तेवात.सांनलीने अतिशय उत्साह धरतो खोल करीने कल्पवृदनी पेवें थोरनुं रातुं उध लश्याव्यो उद्यमिने कां कुष्कर नथी. पडी ते गुणधर अ ने परिव्राजक बेदुजण काष्टप्रमुख सर्व सामग्री एकती करी सिदि करे तेवे दिवसें ते स्थानकें जाता हवा. तेवार पड़ी ते तदने मंत्री पूर्व संग्रही जे औ षधी ते सहित चरु अने मनोहर काष्ट समूहें करी बलि उबालतो चारेतरफ ते कपटमांहे निपुण एवो परिव्राजक काष्ट खडकीने तिहां अग्नि प्रज्वलित क Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. रीने पनी कपटेंकरीने गुणधरने कयुं हे वत्स ! तुं महारी पासें थाव्य त हारी शिखा बांधु ते सांनती गुणधर,परिव्राजकपासें श्राव्यो तेवारे परिव्राज के दृढपणे गुणधरनी चोटली पकडीने उंचो नपाज्यो अने अमिना कुंम मांहे तेने नाखवा लाग्यो तेवारें गुणधर पण तेने कपटी अनार्य जाणीने बलबल करीने परिव्राजकना हाथथकी लूट्यो. पड़ी महाको उर्वर थया एवा ते वेदुजण योध सुनटनी पेठे लडता हवा. परिव्राजक जाणे जे ह मणां दुं था गुणधरने अग्निना कुंझमां नाखीश अने गुणधर जाणे जे ह मणां ढुंए परिव्राजकने अग्निना कुंममा नारखीश. एम वेदुजणने आकरो क्लेश थयो जाणे वे प्रेतज लडता होयनी ! एम शोर बकोर करता जय ब्रांतथका ते वेदु जण बम पाडवा लाग्या. एवामां महापुरीनगरीथकी राजानो पुत्र तेजसार एवेनामे ले ते आहेडो करवामाटे रात्रिय वनमा रहेलो के तेणे ते बुंम सांजली ते महापराक्रमी ने माटे धनुषवाण चडावीने उतावलो त्यां पार्व। पहोतो केम के क्षत्रिय होय ते बुंम सांजलीने वेशी न रहे. पबीते तेजसार कुमार श्रावीने प रिव्राजकथकी गुणधरने जूदो करयो अने गुणधरना मुखथकी लडाइनो व्यति कार सांजली महाकोपायमान थ परिव्राजकने उपाडी अमिना कुंममाहे नाख्यो. जे उष्ट होय तेने शिक्षा देवी अने सऊन, रहाण करवू. एवं त्रि यर्नु बिरुद ले पनी पारिव्राजक अग्निमां पड। सोनानो पुरुष थयो. जे अन्यनुं चिंतव्युं ते पोताने थयुं अकस्मात् सोनाना पुरुषना लानथकी राजकुमार प रम आनंद पाम्योथको नूमि खोदीने तेमां ते पुरुषने नंमायो. तेनी उपर नी शान कयुं गणधरने कांक मार्गमां जवा संबल खरची आपी विदाय कस्यो. गुणधर पण मार्गसंबल ले। तुष्टमान थने त्यांची आगल चाल्यो अ नेक धननपार्जवाना उपाय चिंतवतो विकल्प करतो विचारतो हवो के म हारुं महोटुं नाग्य जागतुं .जे ढुं जटिलना हाथथकी लूटो बने विकट सं कटथकी नगयो. वली मार्गयोग्य संबल पण मन्युं तो हुँ एम जाणुं के हजी पण ढुं घणुं धन पामीश. हुं हमणां जश्ने व्यापार करी लक्ष्मी उपा र्जीश दैव अनुकूल होय तो झुं न नीपजे! एवं विचारी पोताना नगरन णी चाल्यो जाय डे एवामां मार्गमा एक सिमपुरुष मल्यो. तेंनी साथे गो प्टी करतां कोक नगरना उद्यानपासे सनिवेश के तिहां याव्यो. एटले Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४१७ जोजन वेला थइ. तेवारे ते सिमपुरुष थोडीवार ध्यानकरीने जाणीयें पूर्वे तैयारकरीज मूक्या होय नही तेम सिंहकेसरिया मोदक गुणधरने आपीने कह्यु के तने नावे त्यांसुधी तुं सुखे जम्य; जेम जोजनवेलायें प्रादुणाने ज माडीये तेम तेणें गुणधरने जमाज्यो. वली साँजे घेवर साकरसहित गु णधरने खवराव्या. बीजे दिवसें घी साकर सहित लापशी जमाडी, संध्या ये मनोहर खादिम खवराव्यां. त्रीजे दिवसें प्रनातें शालिदाल घृतादिक सूखडी अने संध्याकालें लापशीनुं जोजन कराव्यु, चोथे दिवमें प्रनातें मां मादिक, संध्याये सूरखडी आदिक, एम दिवसें दिवसें नवनवि रसोइ देखीने विस्मय पाम्यो थको ते गुणधर पोताना चित्तमां विचारवा लाग्यो के ए नाथी महारं कार्य थशे एम जाणी विनीतशिष्यनी परे तेनी सेवा चाकरी करतो रहे. यतः॥ परगुणगहणं बंदा,युवत्तणं हिअमकक्कसंवयम् ॥ निञ्चम दोसगहणं, अ मंतमूलं वसीकरणं ॥१॥ नावार्थः-पारका गुण वखा गवा,तेने अनुयायी थइ वर्तवू, मीठां मीनं वचन बोलवां,नित्य कोश्ना दो पन कहेवा ए मंत्र मूल विनानुं चालतुं वशीकरण ले ॥१॥ ___ एकदा ते गुणधर, हर्षेकरी जक्तिथी राजी करेलो एवो कपटरहित ते मंत्रसिहपुरुष ले तेने पूबतो हवो के हे स्वामी ! तमोने आ कल्पवृद सरखी वांबित आपवानी शक्ति क्याथी प्राप्त थ? ते सांजली सिहपुरुप बोल्यो हे नश्क ! ढुं पूर्वे दारिडी हतो ते धनउपार्जवाने अर्थे पृथ्वीमां नमतां कोश्क देनरहित दयावंत प्रकृतियें उत्तम एवा एक कापालिकने में दीठो तेने में महारा दारिदिपणानुं स्वरूप कह्यं ते सांजलीने ते दीनार्तवत्सल दयावंत एवा कापालिकें मुजने एक वेतालनो मंत्र शीखव्यो तेने में विधि सहित साध्यो तेना योगेकरी मारे आदि प्रगट थाय ने तेना महिमा थकी हुँ जे चिंतकुंडं ते नीपजे डे माटे हे गुणधर ! ढुं तुजने पण दि वंत करीश एवी सिहपुरुषनी वाणी सांजलीने संतुष्टमान थको एवो ते गुणधर तेनो सेवक थने रह्यो घणुं धन पामवानी आशाथी तेनीसाथें गुणधरने केटलाएक दिवस मार्गमां व्यतीत थया.. ___ अन्यदा ते सिमपुरुष कहेतो हवो के हांथी ताहरो देश वामदिशायें हूंकडो ने अने हुँतो दक्षिण दिशायें वेगलो जवानो माटे हे सखे ! हे नक ! तुं कहे के तुजने केटलिक संपदानी इला जे तेटली हुँ नीपजा, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. जेमाटे कोटी बगमे इव्य देवाने ढुं समर्थ बुं एवं सांजलीने ते गुणधर कोटीश्वरनी शधिये पण असंतुष्ट थको बोलतो हवो के हे सिमपुरुष! तुं मुजने मंत्र आप्य के जे सकलसंपदानुं बीज के तेवारे सिमपुरुष बोल्यो हे गुणधर : कोटीसोनैया माग्य अथवा तुजने गमेतो शो कोटी सोनैया माग्य ते ढुं आपुं पण जे महाकष्ठेकरी सधाय डे एवा मंत्रनुं तहारे गुं प्रयोजन के ? मंत्र साधवो महाविषम में जीववानी अाशा मूकीने महा कप्टें सधाय ने तेतो कोइ महापुण्यवंत होय तोज ते मंत्रने सिरसनी पे रें साधी शके ए मंत्र साधतां लगारेक जो बल पडे तो प्रेतनीपेरे महाथ नर्थ नीपजे मेंपण महोटे कप्टेंकरीने साध्यो ले माटे तुं शव्य माग्य ते आपुं. ते सांजलीने गुणधर विचारतो हवो के दुं बीजा जनमां तो अग्रेसर @ माटे अत्यंतशक्तिवालाने झुं दुःसाध्य , समर्थने अवहेवायोग्य गुं ने ? बुद्धिवंतने कयुं शास्त्र अगम्य , दृढ जठराग्निवालाने गुं अपथ्य , महाबलवंतने गुं असाध्य रे एम जूता अनिमानेंकरीने जस्यो एवो गुण धर कोधिबालकनी पेठे मंत्रनी याचनानो कदाग्रह न मूकतो हवो. तवारे योगिये ते निपुणताना निधान एवा गुणधरनुं दाक्षिण्य जाणी विधि श्राना ये सहित सर्वसंपदाना संस्कारनी पेरे पोतें गुणधरने मंत्र आप्यो. हवे ते गुणधर मंत्र पामीने अात्माने कृतार्थ मानतो ते सिह पुरुषनी आज्ञा लइ आनंद पामतो सुसीमापुरी नगरीयें आव्यो. त्यां पोताना मा माने मंदिर रह्यो मामायें पण गुणधरने आदरें राख्यो. एकदा समये ते गुणधरें पोताना मामाने सर्व पोतानो अनिप्राय संनलावी सर्व सामग्री तैयार करी एकलो निर्नयथको कालीचौदशनी रात्रिये स्मशानमां ावी होमादिक क्रियाविधि सांचवीने योगिनी पेठे निश्चलमनेंकरी महाबिदाम णा उपसर्ग सहेतो अमगथको मंत्रसाधवा बेठो. हवे एने वैतालें अनेक नपसर्ग कस्या पण एकाग्रचित्तथकी चल्यो नही तेवारे ते वेताल अत्यंत कोपायमान थइ तेने कुंजारना चकनी पेनें नमा ववा लाग्यो एवामां नूमिमांहेथकी अत्यंत आकरा बिहामणा एवा घुघुवा टशब्द प्रगट थया. तेवामां वली आकाशथकी अतिशय नयंकर एवायाकंद शब्द थवा लाग्या. बीजी दिशायें वली महोटा यंत्रमा घाली जलमनुष्यनी नूमिकानी पेरे पीलता हवा तेना जयेंकरी व्याकुल थवाथी गुणधरनी चेत Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४११० ना नाती एम नष्टचेतन थवाथी दुर्दैवना योगेंकरी मंत्रनुं पद विसरी गयो तेने वारंवार संजारे पण सांजरे नही जेम दारिस्निा हाययकी चिंतामणि रत्न जाय तेम पद जतुं रयुं एटले वेतालने बल जड्यो तेवारे महाविक राल थइने बोल्यो के हे उष्ट ! तुं सत्वेकरी नपुंसक सरखो थइने मुजने व श करवाने वांडे ने माटे तुं तहारा करेला कर्मनां फल जोगव्य एम कही निनबीने महाकोधे धमधमतो थको एक काष्टनो लकुटो लश्ने जेम धा नना मुडाने कुटियें तेम ते वैताल गुणधरने मारतो हवो. तेथी गुणधर परराट करतो धरतियें लोटतो हवो. नारकिनीपेरे पोकार करतो तरक डतो हवो धिःकार ने मंदनाग्यना धणी ते गुणधरने, मंगोराना प्रहारथी मूळ आवी शरीरनी कांति करमाइ गइ सुका लाकडा जेवो चेप्टारहित थ पड्यो तेवारे प्रनातें गुणधरनो मामो खबर कहाडवा आव्यो ते गु गधरने मडदा सरखो देखीने महाखेद पामी गुणधरने त्यांथी नपाडीने घेरल आव्यो. तेणें घणी महेनतें औषधेकरी साजो कस्यो. पनी आदर सहि त जयस्थल नगरें पोहोचाडी संतोषीने प्रीतिपूर्वक घणी आसना वासना करी मामो पोताने घेर आव्यो. तिहां गुणधरने जोस्ने गुणाकरने घणीज करुणा उपनी अहो जू गुणाकरनु उत्तमपणुं केवु जे. जे तुब माणसनी उपर पण दया राखे बे. अने गुणधरतो गुणाकरनी शदि संपदा सांजली तथा देखीने अंतःकरणनेविषे रूिप अनियेंकरी बलतो हवो. अन्यदा गोप्यपणे देदीप्यमान एवा सुवर्ण सरखा रथमांहे बेगथका केटलांएक माणस राजानी सनामां आवी कहेवा लाग्यां के हे राजन ! महापुरी नगरीना स्वामिनो पुत्र तेजसार नामें कुमार ने तेने नाग्ययोगें सु वर्णपुरुष मल्यो तेने जेवारे गाजते वाजते घेर लश् आव्यो तेवारें राजपुत्रने स्वप्नमध्ये आवीने देवें कह्यु के परिव्राजकनो जे सुवर्णपुरुष सिह थयो ने ते, जयस्थल नगरनो रहेवासी पद्मशेठनो पुत्र गुणाकर दे तेना पुण्यथी थयो बे. ते महानाग्यवंत ले माटे ए सुवर्ण पुरुष ते गुणाकरने घेर स्थिरपणे रहेगे; माटे हे राजन् ! अमारा राजाना दुकुमथी ते सोनाना पुरुषने रथ मां.बेसाडीने अमे शहां लश् आव्या बैयें. देवनिमित्त वस्तुनुं जावु आव पोतानी श्वायें होय माटे हे नाथ ! ए सुवर्णनरने तमे तरत गुणाकरने प्रसाद प्रकरो दिव्यवस्तु राजायें प्रजाने आपी प्रसन्न करवी. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. तेवात सांजली ते निपुण राजा रीज पामीने बोल्यो के जेम कल्पवृद नंदनवनमां रहे तेम सोनानो पुरुष पण गुणाकरने घेर रहेशे देवतानी वाणी कोण अन्यथा करे, बीजे स्थानकें रहेशे नही एम कहेतो पद्मशेतना पुत्र गुणाकरने शीघ्र बोलावी ते सुवर्णपुरुष तेने आपतो हवो,गुणाकर शेठ पण राजानी आझा मागी ते सुवर्णपुरुषने महोत्सव सहित पोताने घेर वाणीने तेनुं फल लेतो हवो सोनाना पुरुषथकी सर्व व्यवहारिया मध्ये अतिशय जाग्यवंत थयो जेम विष्णु कौस्तुनरत्न पामीनें दीपतो हवो तेम गुणाकर पण सुवर्णपुरुषने पामीने दीपतो हवो सर्वलोक गृणाकरनी प्रशंसा करवा लाग्या. ते गुणाकरना नाग्यनी प्रशंसा सांजलीने गुणधर खेद धरतो को धन धमतो कुबुद्धि थको पालथी तेनो अवर्ण्यवाद वोलतो हवो. धिक्कार पडो एवा मित्रने के जे पोताना मित्रनी कडि देखी शकतो नथी एवो ते गुण घर निर्जाग्यमां शिरोमणी मिय्यानिमानरूप माणिक्यनो राखनार, वाचा जनी कोडीमा मुकुट समान, अदृष्टमुखमांहे अग्रेसर, इषधरवामां शिरो मणी, निर्लङाजनमांहे मस्तकें चढाववायोग्य, जीवाश्मांहे निपुण, खल मांहे अग्रेसर, क्यांते अधममांहे अधम, अने क्यांत उत्तममा उत्तम. जेम इं अने विष्टानो कीडो तेनी पेते ए वेदना संगने धिधिक् था. एम र्व प्रकारनां उनकणेकरी सहित होवाथी सर्व नगरना लोक निरंतर उपहास्य सहित प्रगटवचनें तेनी निंदा करता हवा. जाणियें हत्यादिक पाप करया होय तेम सर्वने पोतानुं मुख देखाडवाने असमर्थ एवो लड़ाये पीडित न घिन मनवालो थको अदेखाइने लीधे ते गुणधर दुःखें बांझवा योग्य एवा प्राणने पोते गलेफांसो खाश्ने त्यजतो हवो जेमाटे पोतंज पोताना श्रात्मानो वैरी थयो. माटे धिःकार होजो संसारनी विटंबना प्रत्ये. ते गुण घर मरण पामीने तिर्यंच नरकादिकनां लाखो प्रकारनां रखनी खाण हो तो हवो.जे धर्मर हित प्राणी होय ते ा नवें अने परनवें मुःख पामे पण सु ख क्याथी पामे ? तेम ते गुणधर फुःखनो जोगवनार थयो. हवे ते दुःखना आगार सरखो एवो गुणधरनो व्यतिकर सोनलीने गुणाकर वैराग्य पाम्यो थको विशेष प्रकारें धर्म करतो हवो' अन्यदिवसें नगरना उद्याननेविषे श्रीधर्महर्षएवेनामें केवली जगवान आवी समोसखा तिहां गुणाकर ते केवली नगवानने वांदी धर्मदेशना सां Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४१ जलीने पोताना तथा पोताना मित्र गुणधरना पूर्वला जव पूडतो हवो. ते वारे केवली कहेता हवा के हे न! तमे पूर्वै एज नगरनेविपे विष्ट बने सुविष्ट एवे नामे बे नाइ वाणिया हता. तेमां विष्टतो उष्टमति थको सर्वने त्रास पमाडे कोने यादर सन्मान न आपे,स्वजनने पण उर्जननी पेठे गणे अंगारानी पेठे पोताना परिवारने पण दुःखदायी, कुलमां अंगारा सर खो, मित्रने शत्रुनीपेरे जाणे, कोइने उपकार न करे, मुखियाने सुखिया नीपेरे माने, कोनी नपरे चित्तमां अनुकंपा करे नही. निरंतर उष्टर्म ने उपाऊँ सधर्मीने अधर्मी करी माने अने अधर्मीने धर्मी करी माने. निदाचरने आंगणे पण आववा दिये नही, सारा उत्तम जोगनी तो वां बाज न थाय अने सारा योगनो पण अर्थी नही. सारा आहारनो तो अनिलाज थाय नही. जापीयें सर्वदा देवें हण्योज डे, फाटां त्रुटां ही णां अतिशय मेला जीर्ण वस्त्र पहेरे. पोताना स्वजनोथी तर्जना पाम्यो थको महोटा लोकें निंदा करयोथको, जोगीपुरुषं हास्य कस्यो थको बते ६ व्ये दारिडीपणुं नोगवतो फुःखी बतो नाग्यवंत पण निर्जाग्यमां शिरोमणि सरखो देखाय एवो विएनामें नाइ हतो. ___ अने सुविष्ट तो उत्तमजीवोने घणो प्रशंसवा योग्य, संतोषी, सुबुझिनो धणी, सर्व लोकोने उपकारनो करनार, याचक लोकने कल्पवृद सरखो वांडित दाननो देनार, गुणेकरी बाजूषण समान, औदार्य गांजीर्यादिक अ नेकगुणसंपन्न हतो जो के ते बेहु नाइ हता तो पण तेमां रत्नने पाषाण जेटलो अंतर हतो. यतः॥ अक्क सुर हीण खीरं, ककर रयणा पबरा दो वि ॥ एरंग कप्पतरुणो, सरकापुण अंतरं गरुथं ॥ १ ॥ नावार्थः-याकडा नुं दूध अने गायनुं दूध ए वे दूध ले तथा कांकरा अने रत्न ए वे पापा गनी जाति तथा एरंम पण वृद ने अने कल्पवृद पण वृद ने पण ते सर्वनो मांदो मांहे घणोज अंतर ३ तेम ते वे नाइने पण माहेमांहे प्रीति घणी , वेदु एकठा रहे , दणमात्र जुदा रहीशक्ता नथी तोपण बाया अने तापनी पेठे पोतपोतानो स्वनाव मूकता नथी. - एकदा थोडाकालमां मोदे जनारो एवो कोश्क तपस्वी मासदमणने पार ऐ सुविष्टना घरनेविषे याहारने अर्थे आव्यो तेने देखीने सुविष्ट एवीनावना नाववा लाग्यो के अहो आ महारे घेर तो वादलविना वर्षाद थयो. फूल Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जैनकथा रत्नकोष भाग चोथो. विना फल थयां जेमाटे या जंगमतीर्थरूप मुनिमहाराज महारे घेर पधा या एवी अत्यंत मनमां जावना जावतो उत्तम जातिना सिंह केसरीया या प्रासुक मोदक मुनिने वोहोरावीने जेम धन पामवाथी यानंद प्राप्त थाय तेम ते पूर्व परमं खानंदने जोगवतो हवो. हुं जाएं बुं जे जेनी न पमाने विषे विश्वनुं पण दारिद्र्य टले एवं ए दान बे. जेमाटे चित्त वित्त यने पात्र ए त्रण योग्य ते सुविष्टना पूर्णजायें मव्यां यतः ॥ कस्सेचिय हो वित्तं, चित्तंत्र्यन्नेसि उनयमन्नेसिं ॥ चित्तं वित्तं पत्तं, तिन्निवि केसि धन्ना पं ॥ जावार्थ:- केटला एकने वित्त होय वे, अन्यने मन होले तथा य न्यने वली चित्त ने वित्त ए वे पण होय ते परंतु चित्त वित्त ने सुपा त्र ए त्रणेनो योग तो कोइएक नाग्यवंत होय तेनेज मजे ले ॥ १ ॥ ते नना प्रजावकी ने सुविष्टें अतुल्य नोगकर्म बांध्यं सुपात्र दाननुं कार्य ते सुखलक्ष्मीनो ने सुखसंपदानो संचयकार बे. तिहां विष्ट तो निकृष्ट चित्तथको जेम कोइने नृत वलग्यो होय ते या तालवे तेम कांइक हसीने बोल्यो जेहने जेवुं बोलवु उचित होय ते तेवं बोले तेम बोल्यो के हो ए खं पाखंमेंकरी लोकोनां घर घंटे बे ए महाधूर्त ने तें फोकट एने दान खाप्युं जेम राखमांहे घी नाखवुं जेम पाणीना प्रवाहमांहे मूतरखुं तेम एने दान दीधानुं फल जानुं एने या पवा करतां तो पोते पेटमांज खाइये ते सारुं एम मुनिनी निंदा करवार्थ । खाकरूं शुनकर्म बंधाएं. जे जोगव्या विना लूटकोज थाय नही एवं निकाचित कर्मबांधयुं त्यां ते विष्टने जेम घूडने सूर्यनुं दर्शन दुःखदायी थाय तेम ते मुनिनुं दर्शन दुःखदायी थयुं. वे मुनि हार लइने चाल्या तेने केटलिक भूमिका पर्यंत पोहोचाड वा सुविष्ट याव्यो मार्गमां सुविष्टें मुनिने तत्त्व पुढयुं तेवारें मुनि बोल्या हे महाभाग ! सुनिने गोचरीनी एकाग्रतामांहे धर्मकथा कहेवी निषेध ने एटला माटे अवसरें उपासरे यावीने तत्त्व सांजलजो सुविष्ट पण अवस रें तिहां जइ मुनिपासें यावी वांदीने समीपें बेठो एटले मुनि बोल्या धर्म वे प्रकारat a एक साधुनो ने बीजो श्रावकनो धर्म, तेमां साधुनो धर्म पालवो इष्कर बे ने श्रावकनो धर्म पालवो सुकर वे ते समकेत गुणपू र्वक बारव्रतरूप यथाशक्तियें पालिये इत्यादि, ते साधुयें विस्तारपणे धर्म Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४२३ कह्यो ते सांजलीने सुविष्ट मुनिप्रत्ये विनवतो हवो हे स्वामि ! बारव्रतमां हे जे व्रत सुखें पले ते मुजने कहो तो ढुं ते अंगीकार करु तेवारें मुनियें ते सुविष्टने सर्वदा दान देवाने रुचिवंतो जागीने बारमुं अतिथिसंविनाग व्रत अंगीकार कराव्यु. सुविष्टे पण ते अंगीकार कयं के महारे जावजीव नि त्य साधुनी योगवायें निश्चे ते व्रत पालवु एवं सुविष्टनुं वचन सांजलीने धर्महर्षमुनियें तेनी घणी प्रशंसा करीने कर्वा के धन्य जे तुजने के जेनी धर्मनेविषे आवी बुधि ले पनी ते सुविष्ठ पण मुनिने वांदी हृदयमां हर्ष धरतो पोताने मंदिर आव्यो. ते दिवसथी अवश्य साधु अथवा साध्वी जेनो योग बने तेहने निरंतर नक्तियेंकरी प्रतिलानीने पनी नोजन करे. वली ते साधु साध्वीने रहेवामाटे वसती एटले जगा आपे. वस्त्र पात्र उपधि प्रमुख जे जोश्य ते सर्व आपीने वली एम कहे के जे जोय ते नि त्ये आपणे घेरथी लश् जाजो आपणे घेर सर्ववस्तु शुभ मान ले. ___ एम नित्य विनति करे ते घणाकालसुधी त्रणेवर्ग साधीने समाधे आयु पूर्ण करीने देवकुरु देवनेविषे उत्कृष्टी संपदायें त्रण पथ्योपमने थानखे यु गलियापणे उपन्यो अतिशत नाग्यनो धणी थयो. त्यां दशजातिनां कल्प वृद वांबित पूरे जे, तिहाथी थायु पूर्ण करी सौधर्मदेवलोके देवता थयो. तिहां घणी देवांगना साथें देवलोकनां सुख जोगवी एक पव्योपमायु पूर्ण करीने तुं इहां गुणाकर थयो बो तें जे पाब्लेनवे मुनिने यात मोदक श्रा प्या हता तेथी तुं हां आठ कन्या अने सुवर्णनी आठकोडी पाम्यो. अ ने वली जे तें पाबलेनवें अतिथिसंविनागवत अखंग पाल्युं हतुं तेथकी तुं हमणा अखंम सोनानो पुरुष पाम्यो. ___तथा तहारो नाइ विष्टतो मुनिने दानदेवानी निंदा करवाथकी मरीने पूर्वना अन्यासथी तिहां तहारा घर आगल कूतरो थयो. जेम निधाननी नपर सर्प रहे तेम ते तिहां रहेतो हवो बलात्कारें काढयो थको पण घर मू कीने जाय नही. एम करतां ते कूतराना शरीरमां कीडा पड्या ते वेदनाथी मरीने तेज सुविष्टना घरपासे विकराल बिलाडो थयो. ते बिलाडो मरीने जन्म दरिड़ी एवो मातंग थयो तिहां घणी जीवहिंसा करी मरण पामीने चार पढ्योपमने याउखे पहेले नरकें गयो. तिहां उखनी खाणनेविषे जेम मत्स्य अग्निमां तरफडे तेम महाकटें काल पूरी करतो हवो. जूवो पाडला Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नवना कर्मनी इष्टता केवी के पड़ी ते नरकथकी निकलीने दैवयोगें हां धनंजयशेतनो पुत्र गुणधर एवे नामें थयो, पाबलानवना स्नेहने अन्यासें शहापण तहारी मित्रा थइ. पाबलेनवें मुनिनी निंदा करी ते कर्मना प्रना वथी धनरहित थयो तथा घणां मुःख नोगव्यां अने वली लेशमात्र धर्मनो उदय थयों नही पूर्वे धर्मदाननी तथा मुनिनी निंदा करवाथी उलनबोधी थयो. अनंतःवनो विनागी थयो पाडले नवें धर्मनो क्षेषी हतो तेथी श्रा नवमां पण धर्मनो हेपी थयो. जेवं बीज वाव्युं होय तवां फल नीपजे. आकरां कर्म वांध्यां माटे घणो संसार रमलशे. एवीरीते धर्महर्षमुनिना मुखथी पोताना तथा गुणधरना पाडला नव सांजली प्रतिबोधपामीने धर्मने विपे बुद्धि देतो हवो. पठी गुणाकरें सोनाना पुरुषथकी दरिडिना दरिपिणाने टालवेकरीने संघली पृथ्वी अदरिही करी तथा क्षणीनां ऋण नतास्यां अने वीजा दानिना दानिपणाने आकाशकुसु मनी उपमाने दानेंकरी विस्तारतो हवो अर्थात् पाता जेवो कोश्वीजो दानी न थयो. पृथ्वीनेविपे परमेश्वरना अनेक प्रासाद कराव्या. अनेक तीर्थना संघ काढी यात्रा करीने पामवाने अत्यंत उर्जन एवी संघवीनी पदवी ने पामतो हवो. साते खेत्रे धन वावरीने संपदानुं सफलपणुं करतो हवो. धर्मनेविपे सर्वगृहस्थमांहे अग्रेसरी थइ घणो काल गृहस्थधर्म आराधीने अवसरें गुरुनी योगवा पामी चारित्र लइ अखंम अतिचार रहित चारित्र पाली बारमे अच्युतदेवलोकें देवपणे उपन्यो; तिहाथी चवी महाविदेहदे त्रे अवतरीने चारित्र लेश मोदें जाशे आ गुन अगुनना उत्कृष्टा फलनी प्राप्तियें गर्जित एवं बेदु मित्रनुं चरित्र सांजलीने नोनव्यो ! जो तमने मो दें जवानी श्वा होय तो अतिथिसंविनाग व्रतनेविषे यत्न करो. ए बारमा व्रतनेविषे गुणाकर बने गुणधरनी कथा कही ॥ हवे ए बारमा अतिथिसंविनागवतनेविपे ए कह्या एटलाज अति चार न जाणवा परंतु बीजापण अतिचार डे ते देखाडे . सुदिएसु अ उदिएसु अ, जामे अ संजएसु अणुकं पा॥रागणव दोसेणव,तं निंदे तंच गरिदामि॥३१॥ अर्थः-साधुने वेषे ते केवा साधु तो के ज्ञान दर्शन चारित्रनेविषे मग्न Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४२५ ने एवा सुखिया साधु तेनेविषे वली केवा साधु तो के रोगादिकेंकरीने ग्ला न अथवा अधिक तपस्यायेंकरी ग्लान अथवा उपधियें रहित होय एवा कुखिया (असंजएसु के०) पोतें पोताने बंदे चालनारा नही पण गुरुनी आझायेंज चालनारा एटले विचरनारा एवा साधुने विपे अन्नपाणी वस्त्रा दिकना दानरूप नक्ति करवेकरी अनुकंपा कीधी होय इहां अनुकंपाशब्दें करी जक्ति जाणवी जेमाटे कह्यु के यतः॥ आयरित्र अणुकंपाए, गहो अणुकंपित महानागो॥ गवाणुकंपाए, अबुबित्ति कयातिबो ॥१॥ ना वार्थः-आचार्यनी अनुकंपायें गबनी अनुकंपायें करी महोटा नाग्यवंत गजनी अनुकंपायें तीर्थनो अविवेद कस्यो ॥ १ ॥ हवे ते अनुकंपा केवीरीतें करी तोके रागेणव एटले आमहारा स्वजन ने एम स्वजनमित्रादिकनी प्रीतियेंकरीने नक्ति करी होय पण गुणवंतनी बुध्येि नही एवा रागेंकरी अथवा पेंकरी ते निंदायें नक्ति करी होय जे म धन धान्य स्वजन झातियें रहित तथा दुधा तृपायें पीडित सर्वथा निर्ग तिक एवा ए साधु ले माटे एने आधार देवो ते योग्य ने अथवा एने बी जे क्यांइमलतुं नथी माटे शहां आव्या ने तेने आपो एम निंदापूर्वक अनुकं पा करवी ते पण निंदाज मे ते अगुन दीर्घ आउखानी हेतु . यतः ॥ तहा रुवं समणंवा माहणंवा संजय विरय पडिहय पञ्चरकाय पावकम्मे हिलि ता निंदिता विंसिता गिरहिता अवमनिता अमान्नेणं अपीकारगाणं अ सणं पाणं खाश्मेणं साइमेणं तेणं पडिलानिता असुह दीहा अत्ताए क म्मं पगरेति ॥ नावार्थः-तथा रूप साधु अथवा श्रावक संयति विरति प्रतिहत एटले हण्यां पञ्चव्यां ले पापकर्म जेणें तेनी हेलना करी, निंदा करी, खिंसाकरी,गर्दा करी, अवगणना करीने,तेमने अमनोझपणे अप्रीति ना कारक एवा अशन पान खादिम स्वादिम प्रतिलाने तेथी अगुज दीर्घ उखाना कर्मनुं उपार्जन करे ॥ __ अथवा सुखिया मुखिया असंजतने विपे अथवा असंयति पासबादिकने विषे अनुरागें अथवा पेंकरीने नक्ति करी होय पाणी पुष्प फल अनेपणीय करे इत्यादिक तेमां रहेला दोषने मत्सरेंकरीने देखाडे अथवा असंयति ते बकायनी विराधनाना करनारा एवा अन्यदर्शनीनेविपे ते एकदेश एकगाम एकगोत्रना एकझातना उपन्या बैयें एवा रागेंकरी तथा प्रीतियेंकरीने श्रा ५४ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. पे अथवा तेनी नपर करीने एटले आ श्रीजिनशासननो प्रत्यनीक ले, सम्यकदर्शननो उबापक ने, चतुर्विध श्रीसंघनो प्रत्यनीक डे इत्यादिक व नेक दोपर्नु नाजन ने माटे एने दान देवाथी झुं थाय, एम बतांपण ते मि थ्यात्वीना नक्त राजादिक होय तो ते राजादिकना नयथी दान आप्यु हो य एवा प्रकारनुं जे जे दान दी, होय ते सर्वने हुँ आत्मसाखें निंबुं. गुरुनी साखे गर्दु ए कां अनुकंपादान पण नही. अनुकंपा दानतो जे गृ हस्थें उचित जाणी दीनादिकने दान आप, तेने अनुकंपादान कहीयें. यतः ।। कपणे अन्नदरि, व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते ॥ यहीयते कपार्थ, अनुकंपा तनवेद्दानं ॥ कपणनेविपे,अन्नने मागवा आवेला दरिडीने, दुःखि याने अने रोगथी तथा अपसोसथी पीडायेलाने कृपाकरीने जे आप, ते नुकंपादान कहेवायने. __ तथा जे शरीरनुं सामर्थ्य बतांपण दातारनी पासें आवीने अन्ननी प्रार्थ ना करे तो तेपण प्रायः दरिड़ी सरखोज जाणवो माटे तेने बापतेपण अनुकंपादान कहीयें. ते दानने परमेश्वरें निंदवा योग्य कर्तुं नथी वीतरा गेंपण वरसीदानने अवसरें पोतें वरसीदान दश्ने दाननो मार्ग प्रकाश्यो जे नक्तंच ॥ इयं मोक्ष्फले दाने, पात्रापात्रविचारणे ॥ दयादानं तुसर्वज्ञैः,कु त्रापि न निषिध्यते ॥१॥ नावार्थः-ए अनुकंपादान मोक्षफल आपे, पात्र कुपात्रनी विचारणा न करवी दयादानतो सर्वनें क्यायपण निषेध्यु नथी. तथा ॥ दानं यत् प्रथमोपकारिणि न तन्न्यासः स एवाप्यते,दीने याच नमूल्यमेव दयिते तत्किं न रागाश्रयात् ॥ पात्रे यत्फलविस्तरप्रियतया तहा पिकं वा न किं, तहानं यउपेत्य निःस्टहतया दीणे जने दीयते ॥२॥ नावा र्थः-तेम जे दान प्रथम उपकारिनेविषे देवू, ते दानने दान न कहीये. ते तो मुकेली थापणने बदले अपाय डे माटे ते दानमां गणाय नही. तथा दीनने देवं ते याचनाना मूलथी लेबु थ, वली स्त्रीने देवू ते दान नही ते रागना श्राश्रयथकी देवू नथी झुं? अने पात्रनेविषे जे दान ते फलने विस्तारे माटे अतिप्रियपणे देवं. ते वारु वार्षिकदान एटले वरसीदा न नहीं [ ? त्यां दान जे निःस्पृहपणे पामीने दीण जनने दीजीये ते थ नुकंपादान कहीये ॥१॥ए एकत्रीशमी गाथानो अर्थ ॥३१॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. हवे साधुने विषे संविभाग याश्रयीने जे कां करवुं घंटे ते न क होय ते पडिक्कमवाने गाथा कहे बे. ४२७ सासु संविभागो, न क तव चरण करण जुत्तेसु ॥ संते फासुप्र दाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ३२ ॥ अर्थ : - ( तव के० ) तप ते बाह्याभ्यंतर रूप बार दें जावं तेनी वि शेष व्याख्या महारा करेला अर्थकौमुदीनामा ग्रंथथी जाणजो तथा ( चरण के० ) चरणसीतेरी ते पांच महाव्रत, दशप्रकारनो श्रमणधर्म सत्तरप्रकारनो संयम, दशप्रकारनो वैयावच्च, नवप्रकारें ब्रह्मचर्यनी गुप्ति, ज्ञान दर्शन खने चारित्र, बारप्रकारनुं तप, चारप्रकारना क्रोधनो निग्रह, ए सीतेरनेद जाणवा ते सर्व जेद सुलन बे परंतु संयमना सत्तर प्रकार ते मांहेला एकतो पांच याश्रवथी विरम, पांच इंडियनो निग्रह कर वो, चार कषायनो त्याग खने मनदं वचनदं तथा कायदंग ए त्रादंम नो त्याग ए सत्तरनेद ने अथवा पृथ्वीच्यादिक पांच यावर तथा बेंड़ी तेंड़ी चौरिं ने पंचें एवं नव खने दशमो अजीवसंयम तिहां पृथिव्यादिक नवप्रकारना जीवोनी रक्षा करी. तेमज दशभुं प्राणीना उपघातना हेतुरूप एव। जे पुस्तकप्रमुख प्रजीव वस्तु तेनुं जेवुं मूकवुं ते जीवयत्नथी जय पाये मूकवुं जेवुं, जो ते पुस्तकमांहे महिका मांकड प्रमुख चंपाइ पीलाइ जाय तेना रुधिरेकरी अक्षर फीटी जाय तथा हिंसा थाय माटे डुषमकाल ना दोपथी ज्ञानगुणेंहीन एवा जे शिष्यादिक तेना उपकारार्थे जयला ये प्रतिलेखनाप्रमार्जनपूर्वक पुस्तकादिक लेवुं मुकुवुं ते जीव संयम जा rat एवं दशप्रकार थया. अगियारमो प्रेहासंयम ते वैसवा उठवादि जे कार्य करते पडलेही पुंजीने कर. बारमो उपेक्षा संयम ते जेको सं यमथक पडतो होय अथवा संयमनेविषे सीदातो होय तेने सहाय देवो तेरमो प्रमाना संयम ते श्रावक बेठेयके रजोहरणेंकरी पगनी रज पुंज वी. चौदमो पारिष्टानां संयम ते जे कां परठववुं पडे ते विधिर्येकरी पर aag. पन्नारमो मनसंयम ते मनने विषे चेतन तथा अचेतननी उपर शेह निमान- इर्ष्यादिक सर्व बांमीने धर्मध्यानादिकनुं चिंतवनुं. सोलमो वचन संयम ते किरा कठणवचननुं बोलकं बांकीने नाषा सुमतियें गुनना Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hशत जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. पामा प्रवर्त. सत्तरमो कायसंयम ते कायाथकी धावन वलनादिक बांझीने शुनक्रियामा प्रवर्तवु ए सत्तरजेद संयमना प्राणीनी दयारूप जाणवा. तथा ( करण के० ) करणसीतरीना सीतेर नेद ते चारप्रकारनां पिंक जे आहारादिक लेवां तेनी विशुद्धि, पांच समिति, बार नावना, बार प डिमा, पांचयिनो निरोध, पञ्चीश प्रतिलेखना, वणगुप्ति तथा इव्यथी, देवथी, कालथी अने नावथी ए चारप्रकारना अनिग्रह एवं सीतरनेद करण सीतेरीना प्रवचनसारोबारादि ग्रंथमां प्रसिद्ध छे. __ एरीतें तप तथा चरण करणनी सीतेरीयें युक्त एवा साधुने विपे बती योगवायें फासु एपणीय एवा अन्नादिकनो संविनाग न कस्यो होय ते आत्मानी साखें निं . गुरुनी साखे गई बूं. यहां शिष्य पूजे जे के स्वा मी! चरणसीतरी करणसीतरीमांहे तप आवी गयुं तो वली तप जुडं शा माटे कयुं ! तेने गुरु उत्तर कहे जे के तपस्यायकी निकाचितकर्म दय थाय ने तेमाटे तपनुं प्रधानपणुं देखाडवाने अर्थे जुदो कह्यो. यतः ॥ कडाणं कम्माणं, पुविंचिन्नाणं उपडिकंताणं॥वे मुरको नथी,अवे तवसा वाजो सश्ता॥नावार्थः कस्या कर्मने नर्वे नोगव्यां न होय,बालोयां न होय.वेद्यां न होय तो ते विना मोद नथी माटे ते कर्मनो तकरी क्य करे ॥३॥ इति श्रीतपागनीयामप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ती शिदाव्रताधिकारे चतुर्थोऽ धिकारः संपूर्णः ॥ इति श्रीश्रावकना प्रतिक्रमणासूत्रना वालावबोधनेविपे चोथो अधिकार संपूर्ण थयो । ए बारव्रतनो अधिकार संपूर्ण थयो. हवे संनेषणाना अतिचार पडिक्कमवाने गाथा कहे जे. ॥ इहलोए परलोए, जीवीय मरणेअ आसंसप गे॥पंचविदो अश्आ रो,मा मद्यं दुळ मरणंते॥३३॥ अर्थः-शहां प्रयोग शद पांचे अतिचारमा जोडवो तिहां इहलोक ते मनुष्यलोक एटले हांथी मरीने राजा शेठ सेनापति आदिक थावाना निलाषना चिंतनरूप व्यापार करवो ते प्रथम इहलोकारांसप्रयोग अतिचार. २ देवेंशदिकनी पदवी वांबवी ते बीजो परलोकाशंस प्रयोग अतिचार. ३ कोकें अनशन करेथके अनेक ग्राम नगरना लोक. पोतपोतानी ६ लेने वांदवा थावे थके ते संघ मली निरंतर नवनवा महोत्सव करता Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. शए देखी तेनां करेलां गीत गान नाटकादिक देखी तथा नाना प्रकारना स्त्री पुरुषोयें अत्यंत चतुरायें करी तथा अतिशय कलायेंकरी अञ्जत शोना बनावी डे ते देखीने तथा अति कोमल सुललित एवा कोई मृदंगादिक अने वाजिबना शब्द सांजली तथा चतुर विवेकी एवा नरनारीना अनेक संघ आवी नवनवां वस्त्रानूषण माला पहेरीने गीत गान वाजिबना नाद नाटकादिक करता एकेकथी आगल पंडतां देखीने एवी अनेक प्रकारनी पो तानी आगल लोकोयें करेला शोना सत्कार सन्मान वंदनादिक बहुमान देखीने तथा सुविहित गीतार्थ आचार्यादिकें प्रारंनेली वारंवार सिहांत पु स्तक वाचनादिक बहुमान सहित धर्मदेशनादिकने देखीने तथा वारंवार रूडा गुणिजनो धर्मधुरंधर धर्ममां प्रवीण एवा साधर्मिनाइन धर्मी जीवो नी श्रेणियोयें करेलां अत्यंत गुणग्राम पूर्वक बहुमान इत्यादिक माहात्म्य देखीने मनमां चिंतवे जे हुँ घणोकाल जीवतो रहुं तो घणाकाल सुधी म होत्सव थाय ए, जे संलेषणामां चिंतवq ते जीवितासंसप्रयोग अतिचार. ४ तथा कोश्क कर्कशदेत्रमा अनशन करे थके पूर्वे कही एवी पूजा बहुमानादिकें रहित थवाथी दुधादिक आर्तिथी पीडित थको एवं चिंतवे जे तुरत मरण करूं तो साहं ते मरणाशंसप्रयोग अतिचार जाणवो. ५ च शब्दथकी कामनोगारांसप्रयोग अतिचार जाणवो तिहां काम ते शब्द रूप, जोग ते गंध रस स्पर्श यादिनी वांगनो प्रयोग एटले मुजने या तपना प्रनावथकी परनवें रूप सौनाग्यादिक थान ते पांचमो अतिचार. मरणांतने विपे डेली अवस्थायें ए पांच अतिचार मुजने म होजो उप लणथकी सघलाए धर्मना अनुष्टाननेविपे इहलोकादिक सर्व आशंसा बांझवी यतः ॥ गोइहलोगज्याए आयारम हिगिजाणो परलोगध्याए आ यार महितिजा जोकित्तिवप्लसदसिलोगध्याए यारमहिहिजा नन्नब अ रिहंतेहिं देशहिं आयारमहितिजा तथा ॥ आशंसया विनिर्मुक्ती, अनुष्टानं समाचरेत् ॥ मोदे नवे च सर्वत्र, निःस्टहोमुनिसत्तमः ॥ १ ॥ नावार्थःशहलोकनेअथ आचारधर्म न करे, परलोकनेअर्थे आचारधर्म न करे, कीर्ति वर्ण शब्द प्रशंसवानेयर्थे आचारधर्म न करे, बीजे पण क्या न करे परंतु अरिहंतरूप हेतुयेंकरी आचारधर्मप्रत्ये करे, तथा मोदने विपे सर्वत्र निःस्टह मुनिमांहे उत्तम ते,याशंसा वांगयें रहित सघखं अनुष्टान याचरे. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. __ आशंसा करतो थको जो प्रकृष्ट धर्मनो आराधक होय तो पण हान फल पामे धर्मरूप चिंतामणीरत्नने आशंसारूप तुन्न मूव्ये वेंची नाखे ॥ कडं में जेः-सीलवयाइं जो बहुफलाई हंतुण सुहमहिलसधि उब्बलो तवसी कोडीए कांगणिकुण ॥ १ ॥ नावार्थ:-जे शीलवतादिक घणा फ लनां प्रापक ने ते फलने हणीने तुबसुखनी वांडा करे एवी बुधियें उबल एवो जे तपस्वी होय ते कांगणीनेअ\ कोडी धन गमावे दे ॥१॥ ए कार णमाटे नियाj करवानुं परमेश्वरें सर्वथा निषेध्यु . ते नियाणां नव प्रकारनां ने ते कहिये जैयें. प्रथम कोऽक साधु श्रा दिक एवं निया| करे के देवता सादात कोणे दीठा के माटे आ राजा ने तेज देवता जाणवा एवं चिंतवीने निया| करे जे था तप अनुष्टाना दिकनुं जो फल होय तो ढुं श्रावते नवें राजा यावं ते जीव मरीने देव ता थाय तिहांथी चवीने राजा थाय पण तेने ममकेतादिक धर्म बोधवीज पामधुं उर्लन थाय ते प्रथम राजानुं नियाएं जाणवू. २ बीजं कोक जीव एवं विचारे के राज्यपदवीमां तो बदु जंजाल डे माटे महारा तप अनुष्टानादिकनुं जो फल होय तो दुं श्रेष्ठियादिकनां कु लमा उपजूं तो सारं एवं निया| करे ते वीसुं शेत आदिकनुं नियाj. ___३ तेमज कोक जीव विचारे जे पुरुषमां उपजवाथी व्यापार करतो पडे तथा राजसेवादिकमां संग्रामादिक करवा संबंधि बहु चिंता रहे माटे महारा तपअनुष्टानादिकनुं फल होय तो स्वीपणे उपजुं ते त्रीजुं स्त्री, नियाj. ___४ कोश्क जीव एम विचारे जे स्त्रीने तो नित्य पुरुपनीपासे पराधीन पणुं ले वली ते पराजवनुं स्थानक डे माटे महारा तपना प्रनावथी ढुं पुरुष पणुं पामुं तो सारं ते चोयं पुरुप, निया| जाणवं. __५ कोश्क जीव एवं विचारे जे मनुष्यना नोग अशुन ने देवताना नोग सारा ने तेमाटे जे देव बीजा देव देवीने विकुर्वीने अथवा पोर्ते देवदेवीनां रूपने विकुर्वीने विषय सेवे तेवो था तो नलु ए परप्रविचारनुं नियाj. ६ कोश्क एम विचारे जे देवतामांहे तो इंशदिकनी आगल पराधीन सानुं दुःख डे माटे ढुं देवीपणे उपखं तो सारं अन्यदेवतानुं रूप विकुर्वी ने विषय जोगवीश. ते बहुं सप्रविचारनुं निया| जाणq. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४३१ 9 कोइक जीव कामनोगथकी निवत्यों थको कामनोग अलखामया लागे तेवारें विचारे के जिहां कामनोग सेववा न पडे एवा चत्तमदेवता मांहे जइ उपजुं तो सारं जेमाटे तिहां कामनोग सेववा न पडे ते जीव मरीने उत्तम देवता याय तिहांथी चवी मनुष्य न्याय तिहां समकेत पामे पण देशविरत्यादिक न पामे ते सातमुं अल्परत सुरनुं नियाणुं जाणवुं. कोइ एम विचारे जे दरिड़ी थानं तो सारुं कारण के जेथी सुखें संसार बांकीने चारित्र न शकुं एवं दारिीपणानुं नियाएं करनार पुरुष मरी स्वर्गमां जइतिहांथी यावी दारिदी मनुष्य याय तो तेने दीक्षा नदय खावे ते चारित्र लीये पण मोदें जाय नही. कोइक एम विचारे जे महारे या तप अनुष्ठानादिकनुं फल होय तो हुं श्रावक थानं एवं श्रावकपणानुं नियाएं करनार मरीने देवता थाय तिहांथी चवी श्रावक थाय ते देशविरतिपणुं पामे पण साधुपणुं न पामे. बीजां सौभाग्यादिकनां नियाणां वे ते नियाणां पण ए नवनियाणामां हे अंतर्भूत बे. जे जीव नियाणुं करे ते तथाविध प्रकृष्टधर्म न पाये तेणे पूर्वे कष्टो धर्म श्राराध्यो होय तो पण ते नरकादिक दुर्गतिना दुःखनो विभागी थाय जेम सुनम ब्रह्मदत्तादिकचक्री सातमा नरकनां दुःखना विना गी था. ततं ॥ सुबदुपि तवंपि तंसु, दीहंमवि पालिश्रं सु सामन्नं ॥ तो कान निया, मुहाहि हारंति अत्ताएं ॥ १ ॥ नगामि रामा, केसव सवि जं होगामी || तिछवि नियाल कारण, मनु श्रममं इमं बजे ॥ २ ॥ नावार्थः - रुडीरीतें घणा तपने पण याचयुं, तथा सुसाधुपएं पा म्युं तोपल नियाएं करीने फोकट आत्माने हारे वे ॥ १ ॥ बलदेव उर्ध्व गतिगामी होय ने सघला वासुदेव नीचगतिगामी होय. तिहां पण ए नियाणानुंज कारण जाणवुं माटे ए नियाणाने वर्द्धतुं ॥ २ ॥ ए संक्षेप पाना अतिचार कह्या ॥ ए तेत्रीशमी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ ३३ ॥ तपाचारना ने वीर्याचारना अतिचार तो "जोमेवयाश्यारो " ए बी जी. गाथाने विषे च शब्दथकी सूचव्या हता ते सामान्यपणे पूर्वे पडिक्कम्या दता विशेषथी तो अल्पवक्तव्यता माटे ते न कह्या एम ज्ञानाचारादि पां चेना एकशो चोवीश अतिचारनुं पडिक्कमयुं श्रावकने कयुं. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हवे ए सर्व अतिचार प्रायः मन वचन अने कायाना योगथी उप जे जे एटलामाटे योग त्रण पडिक्कमवाने गाथा कहे . कारण काश्अस्स, पडिक्कमे वाश्अस्स वायाए॥ मणसा माणसिंअस्स, सबस्स वया श्यारस्स ॥३४॥ अर्थः-कायायेंकरीने जीवोनी हिंसा करी होय ते कायायेंकरीने जूटियें एटले गुरुये आप्यु एवं जे तप तथा कायोत्सर्गादिक अनुष्टान ते शरीरें करी करवाथी हत्यादिक पापथी वृटिये जेम दृढप्रहारीनो जीव चार हत्या थकी लूख्यो अने केवलज्ञान पामीने मोदें पहोतो. तथा वचनेकरी सहसाकार अन्याख्यानादि रूप नाखवेकरीने जे पाण बंधाणां ते पापथी वचनें मिथ्यामुष्कत देवेकरीने बूटियें जेम आनंद नामा श्रावकना अनशननेविपे श्रीगोतनस्वामी वंदाववा गया तिहां गौतमस्वा मीने वांदीने आनंदें कयुं हे महाराज ! हुँ तीर्नु पूर्व तथा दक्षिण तथा प श्चिम ए त्राण दिशायें लवणसमुश्मां पांचशे योजनपर्यंत देखु बु वली उत्तर दिशायें हिमवंतपर्वत सुधी देबु तथा नंचं सौधर्मदेवलोकसुधी अने नीचुं रत्नप्रनानरकना लोलुपनामा पाथडासुधी देखुटुं एवं अवधिज्ञान मने न पन्युं ; ते सांजली सहसाकारे गौतमस्वामी बोल्या जे एटलं अवधिज्ञान गृहस्थने होय नही माटे तमे मिजामिक्कड दोन बालोवो; एवं गौतमस्खा मीनु वचन सांजलीने आनंद श्रावकें कह्यु महाराज बतानाव कह्याचें कां आलोवq होय नही. एवं सांजली संशय सहित गौतमस्वामी परमेश्वर पासें भावी संशय पूबी पनी आनंदश्रावकपासें जश्ने श्रीगौतमस्वामीयें खमाव्युं एटने वचनेकरी बांध्यां जे पाप ते वचनेंकरीने लूटियें ॥ तथा मनेंकरीने जे देवतत्त्वादिकनेविषे शंकादिकेंकरीने मलीन उपाया एवां जे पापकर्म ते मनेंकरी पोताना आत्मानी निंदादिक करतां बूटियें. जेम प्रसन्नचंराजकृषियें मनेंकरीने सातमा नरक योग्य कर्म उपाया अने वली मनेंकरीने गुजध्यानथी एक मुहूर्तमानमांज केवलझान उपा ज्यु एवं श्रीअकलंकदेवसूरिकत टीकानेविषे कह्यं ले " माणसिथस्स" एवो पाठांतर के इहां सर्वव्रतना अतिचार पडिक्कमुं कायायेंकरी का याना अतिचार पडिक्कमुं बुं, वचनेकरी वचनना अतिचार पडिक्कमुंबुं धने Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४३३ मनेंकरी मनना अतिचार पडिक्कमुं बुं, एम सर्वव्रतना अतिचारथकी निव “ . यतः ॥ मनसा मानसिकं कर्म, वचसा वाचिक तथा ॥ कायेन का यं तह, निस्तरंति मनीषिणः ॥ १ ॥ ३४ ॥ ए सामान्यथकीत्रणयोगप्रत्ये पडिकम्या हवे विशेषथी तेज पडिक्कमे बे. वंदण वय सिरका गा, रवेसु सन्ना कसाय दंमेसु ॥ गुत्ती सु अ समिश्सु अ, जो अश्वारो अतं निंदे ॥३५॥ अर्थः- वंदन वे प्रकारचें एक देववंदन अने बीजुं गुरुवंदन ते वली एके कनां बे प्रकार ने एक इव्यथी अने वीजुं नावथी तिहां इव्यथ। देववंदन पालकने थयुं अने नावथी देववंदन साम्बकुमारने ययुं, व्यथी गुरुवंदन वीरा शालवीने थयुं अने नावथी गुरुवंदन श्रीकृष्णवासुदेवने थयुं. इव्य थी देववंदनना दशत्रिक आदिक २०७४ बोल कह्या अने व्यथी गुरुवं दनना भए वोल कह्या ले ते सर्व देववंदन अने गुरुवंदन नाष्यथी जाणवां. तथा (वय के० ) व्रत ते अणुव्रत आदि पोरिसी प्रमुख पचरकाणरूप नियम अथवा (सिरका के ) शिक्षा ग्रहण आसेवनरूप वे प्रकारे तिहां प्रथम ग्रहण शिक्षा ते, सामायिकादिक सूत्र अर्थना ग्रहणरूप जाणव। जेमाटे आगममां कडं दे ॥ सावगस्स जहन्नेणं अह पवयण माया नक्कोसेणं बड़ीवणिया सुत्त अबवि पिसणाऊयणं न सुत्त अब उपुण ननावेणं सुणइति ॥ नावार्थः-श्रावकने जघन्यथी अष्टप्रवचन मा तानुं अध्ययन नणअने नष्टुं बजीवपीया अध्ययन सूत्रथी अने अर्थथी नणवू पण पिंमेसणा अध्ययनसूत्रथी नहीं परंतु अर्थथीज नणदुं वली उन्नाकरी धर्म सानले ॥१॥ तथा आसेवन शिदा तो नवकार उच्चार करतो जागे इत्यादिक श्रावकदिनकृत्यलक्षण जाणवू ॥ तथा गाय ते जात्या दिकनो गर्व जाणवो यतः ॥ जा कुल रूव बल सुअ, तव लान सिरिई अहमयमत्तो॥ एयाइंचिय बंध,असुहाई बदुई सं सारो ॥१॥ नावार्थ:- जातिमद,कुलमद,रूपमद,बलमद, श्रुतमद अर्था त् ज्ञानमद,तपमद,लानमद,लक्ष्मीमद ए बात मकरीने मत्त थयेलो जीव संसारनेविषे घणां.अशुनकर्मने बांधे ॥१॥ इहां मेतार्य,हरिकेशी चंमाल,म रीचि प्रमुखनां दृष्टांत जाणवां. अथवा त्रण गारव ते दिगारव रसगारव Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोयो. अने शातागारव तेमां जे घणुं धन धान्य कुटुंब तथा घणा स्वजनादिक परिवारने देखीने गर्वकरे ते दिगारव कहिये ते दिगारव तो आजवने विपे पण पुःखदायी ने जेम दशार्णन गर्व कस्यो तो ते लघुतापणुं पाम्यो. तथा मधुर जोजनादिकनेविपे गृक्षता ते रसगारव कहियें ए महोटा दो पर्नु निमित्त ने जेम मथुरानगरीयें मंगुषाचार्य बहुश्रुत हता पण रसेंदि यनी लोलताथकी नित्यवासें रह्या अनुक्रमें मरीने नगरना खालने विपे यद थया. तथा मृड शय्या आसनादिक एवा जे इंडियने सुखकारी पदा ीने तेनी उपर सुखशातानेमाटे यासक्ति ते शातागारव कहिये ए दुर्गति पडवाना कारणरूप जाणवू जेम शशीराजा एक शरीरना सुखनो लाल ची थको शरीरने पोपी मरीने त्रीजे नरकें गयो. __ तथा ( सन्ना के० ) संज्ञा ते थाहार जय मैथुन अने परिग्रह ए चार संझा अथवा दशसंज्ञा अथवा पन्नरसंझा अथवा शोलसंझा जाणवी तिहां दशसंझा कहे ॥ गाथा ॥ आहार जय परिग्गह, मेदुण तह कोह माण माया ए॥ लोनो लोगोहयसन्न, दस नेया सवजीवाणं ॥१॥ ए दशसंझा सर्व जीवने होय ते प्रायः प्रसिद्ध ले.तेमां ? एकेंझ्यिजीवोने आहारसंझा ते वनस्पतिकाय जलनो थाहार लिये २ नयसंज्ञा ते जेवारे सुतार वृदने बेदे तेवारें वृदने कंपायमान थतो देखिये बैयें तथा लजालुप्रमुखना पत्र जयेंकरीने संकोचित थायडे ३ परिग्रहसंज्ञा ते वेलडी, वृदा दिकने वींटे डे. तथा ४ मैथुन संझा ते कुरुबक अशोकादिवृदने स्त्रीना आलिंगन पाटु प्रहारादिकथकी पुष्प फलादिकनो नजम थाय ने ते मैथुनतंझा जाणवी. नक्तंच ॥ कुरुबयतरुणोफूलं, तिजब आलिंगणेण तरुणीणं ॥ पयोहरितुहा, असोय तरुणो विवयसंति ॥२॥ तरुणीमश्रा गंधेण,तोसिया केसरावि कुस मंति॥चंपय तरुणो फुल्नं, ति सुरहिजलदोहले हिंच ॥वियसंति तिलय तरुणो, तरुणीकडखेंहिं पडिहया जबं॥ फूल्नं,ति विरह रुरका,सोनणं पंच चमुग्गारं ॥ नावार्थः-कुरुबकद स्त्रियोने थालिंगने करीने फूले ने स्त्रीना स्तनना आश्लेषे संतोषाणा एवा अशोकसदपण विकस्वर थायले. स्त्रीना मुखनी मदिराने गंधेकरी संतोषाणा एवा केसरवृदने फूल लागे , सुगंध जलें करीने चंपकवृद फूले ने, स्त्रीने कटादें हण्याथका तिलकतृद विकस्वर थाय . तथा विरहद कंदर्पोद्दीपन वचन सांजलीने प्रफुल्लित थाय ने. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४३५ पारानो पण स्वनाव जे जे सोलशृंगार सजेली स्त्री तंबोलनो कोगलो पाराना कूवामध्ये यूंके तो ते कोगलाना फरसथी पारो कूवामांहेथी उड लीने कूवाथी बाहेर नीकलीने ते स्त्रीनी पुंठे दोडतो धाय एटलामाटे एकेंडियने मैथुनसंज्ञा होय. ए चोथी मैथुन ससंझा कही. ५ पांचमी क्रोध संझा ते कोकनदनामा वृदना कंदने स्त्रिनो पगलाग वाथी अर्थात् पगनो स्पर्शथवाथी कोधे धमधमतो थको ढुंकार शब्द करे जे. ६ बही मान संझाते रुदंतीनामा औषधी ते एम जाणेजे ढुं बतां लोक मुःख केम पामे एवा अहंकारेकरी तेमांथी पाणीना बिंड्या करे ने ते औषधिथी सोनुं सिम थायले एम एकेडियने मानसंझा होय. ____७ सातमी मायासंझायेंकरी वेलडी पांदडेकरीने फूलने ढांकी राखेने ते मायासंझा जाणवी तथा ७ बातमी लोन संज्ञा ते बिली, श्वेत पूड नांमून तथा पलाशादिक बदनामूल जे जे ते निधाननी उपर पाय . ___ नवमी लोकसंझा ते कमल रात्रं संकोच पामे , कैरव दिवसें संको च पामे ले. ए एकेंशियने लोकसंझा होय तथा १० दशमी उघसंज्ञा ते वे जडी मार्ग मूकीने पाधरी वाडें तथा वृदादिके चढे ले तेमाटे एकेंझ्यिने उघसंझा होय ए दश संज्ञानां स्वरूप कह्यां. हवे पन्नर संझा कहियें बेयें. गाथा ॥ आहार नय परिग्गह, मेहुणं सुह मुह मोह वितिगिना ॥ तह कोय माण माया, लोने सोगेय धम्मोघे ॥ ॥ १॥ नावार्थः-ए पन्नरसंज्ञा कही एनी साथे लोकसंझा नेलवतां शो लसंझा थाय तेनी व्याख्या श्रीआचारांगनी वृत्तिने अनुसारे कहीयें .यें. १ आहारना अनिलापरूप आहारसंझा ते तैजसशरीर नामकर्मना उदयथी अने अशाताना उदयथकी उपजे वे २ नयसंझा ते त्रासरूप ले. ३ परिग्रहसंज्ञा ते मूर्नानावरूप जाणवी. ४ मैथुनसंझा ते स्त्रियादिक वे दना उदयरूप . ए पाबली त्रणेसंझा ते मोहनीयकर्मना उदयथकी हो य ५ सुखसंज्ञा अने ६.वसंझा ते शाता अशाता वेदनीयकर्मना नदय ना अनुनवथकी उपजे जे ७ मोहसंझा ते मिथ्यात्वदर्शनरूप मोहनीयकर्म ना नदयथकी होय - वितिगिहासंझा ते चित्तना विपर्यासरूप मोहनीय कर्मना उदयथकी वली तेमज झानावरणीयकर्मना उदयथकी चेतनने होय एक्रोधसंज्ञा ते अप्रीतिरूप ले, १० मानसंझा ते मिय्यादर्शनरूप गर्व Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जाणवो ११ मायासंझा ते वक्रतारूप १२ लोनसंज्ञा ते गृकतारूप १३ शो कसंझा ते विप्रताप वैमनस्यरूप जाणवी ए नवमीथी तेरमी सुधीनी पांच संझा ते मोहनीयकर्मना उदयथी होय १४ लोकसंझा पोतानी इबाना विकल्परूप लौकिकें नचरित जाणवी ते स्वबंदे कल्पित एवा विकल्परूप लोका चारे करेली ने जेम के कोकालें एवं थयुं पण नथीने थशेपण नही. लो क एम कहे ते के कूतरा एटला यद , ब्राह्मण एटला देवता , कागडा ते पतृज ते अने मोरने पांखने वायरे गर्न रहे , अथवा मोरनां नाच करतां आंसु खरे ,ते यांसु मोरली जोली लीये हे तेथकी मोरलीने गर्न रहे . ए संज्ञा झानावरणीयकर्मना दयोपशमयकी अथवा मोहना नदय थकी नपजे . १५ धर्मसंझाते दमादिकनु सेवq तखूप जाणवी. ते मोह नीयकर्मना क्योपशमथकी उपजे ने ए धर्मसंझा ते सन्निया पंचेदि स म्यक्दृष्टिने तथा मिथ्यात्वदृष्टिने होय १६ उघसंझा ते अव्यक्तदायोप शमरूप वल्लीना समूह वृदनी उपर चडे ने इत्यादिक चिह्न ने ते, झाना वरणीयकर्मना अल्पदयोपशमथकी नपजती एवी ए उघसंज्ञा जाणवी, हवे कपाय कहे जे तिहां कप एटले संसार तेनो आय एटले लान डे जेनेविषे तेने कषाय कहिये. ते कपाय क्रोध मान माया अने लोन लक्ष गरूप जाणवा. ए चारे कषाय ते प्रत्येकें अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी,प्र त्याव्यानी, अने संज्वलन,ए चार चार नेदें करतां तेना शोलनेद थाय; ते शोलकपायर्नु स्वरूप कहियें ये. जावजीवपर्यंत, वर्षप्रमाण, चारमास प्र माण, एकपदप्रमाण ए चारकषायनो रहेवानो काल कह्यो. तथा नरक गति पमाडे, तिर्यंचगति पमाडे, मनुष्यगति पमाडे अनें देवगति पमाडे. ए गति कही तथा सम्यक्त्व न पामे, देशविरति न पामे, सर्वविरति न पामे अने यथाख्यात चारित्रनो घात करे. ए चार कषायनां अनुक्रमे फल कह्यां. तथा पाणीनी लीटी सरखो, माटीना खोडनी रेखा अने पर्वतफाटे तेनी रेखा सरखो मले नही ए दृष्टांतें चार प्रकारनो क्रोध जाणवो. तथा तृणनी सली वालवा समान, काष्ट वालवा समान, हाड वालवा समान, अने पा पाण वालवा सरखं ए चार प्रकारचें मान जागवू तथा वासनी बोइ वालवी, वृषनमूत्र समान, मींढानासिंघसमान, निविडवांसना मूलसरखी ए चार प्रकारनी माया जाणवी तथा हलदरना रंग सरखो, अंजनना पट्टसरखो Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४३५ कर्दमना पट्ट सरखो, किरमजना रंगसरखो ए चारप्रकारनो लोन जाणवो. हां शिष्य आशंका करे बे के संज्वलनादि चारं कषायं ते अनुक्रमें दे वगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति अने नरकगतिना हेतु कह्या तो संगमदेव धादिदेश्ने स्वर्गे केम गया ? अने श्रेणिकादिक नरकें केम गया ? ___ गुरु कहे जे हे शिष्य ! तें साधु कयुं पण क्रोधादिक शोल माहेला ए केकना वली चार चार नेद करिये ते जेमके एक अनंतानुबंधी कोधने प्र तिरूप एवो अनंतानुबंधीक्रोध ते अत्यंतचाकरो तीव्र तीव्रतर क्रोध जाणवो तथा एक अनंतानुताबंधियो क्रोध ते अप्रत्याख्या नियाक्रोध सरखो, एक अनंतानुबंधियो क्रोध ते प्रत्याख्यानियाक्रोध सरखो, एक अनंतानुबंधियो क्रोध ते संज्वलनना क्रोधसरखो ए चार प्रकारनो जेम अनंतानुबंधियो क्रोध ने तेम अनंतानुवंधि मानना पण चार नेद करवा तेम शोले कषाय ना चार चार नेद करतां चोशम्नेद थाय एटलामाटे संगमादिकने अनं तानुबंधियो क्रोध जे हतो ते संज्वलनना सरखो हतो तेथी ते स्वर्गे गया अने श्रेणिकादिकने अप्रत्याख्यानियो क्रोध जे हतो ते अनंतानुबंधि सरखो हतो माटे ते नरकें गया ते माटे कपाय सर्वथा प्रकारें बांझवो. जेमाटे चारित्रने एक अंतर्मुहूर्त्तमात्र कपाय करवाथी देशे नणा एकपूर्वकोडी पर्यंत उपार्जन करेला सर्व चारित्रने हारिजाय ते माटे क्रोधादिकनो नदय थयो ते निष्फल करवो. ए कषायनो रोध ते नलो डे ए कषायनी संलीनता कही तत्त्वेकरीने एज सार जे. बांदशांगीमांहे एज परम अर्थ डे ए कषाय ते संसार चमणना सखाइ ले माटे एने बांसवा. जे उत्तम सुख त्रणेलोकमां ले ते सर्व कषायना क्यथीज जाणवां अने जे मुःख प्राप्त थाय ने ते कषायनी वृद्धिथी थाय . परदर्शनी पण कहे ॥ यत्क्रोधयुक्तोजपति, यजुहोति यदर्चति ॥ तत्सर्व श्रवते तस्माद्, निकुंना दिवोदकं ॥.नावार्थ:-क्रोधयुक्त मनुष्य जे कांइ जप करे जे कांड होम करे अने जे कांश पूजे ते सघनुं तेनुं फुटल कुंजमांथी जेम पाणी चाल्युं जाय के तेम ते पूर्वोक्त कोधिनुं सर्व सुकत पण वृथा थाय .॥ ए क्रोधनामा कषायनेविषे करट अने महाकरट ए वे साधुनो दृष्टांत निचेप्रमाणे जाणवो. एबे साधु वर्षाकालें नगरना खालने विपे चोमासामां अनियह धारीने तपस्या करता काउसग्गे रह्या; ते ऋषिनी आशातनाना Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जयथी शासनदेवियें मेघनी वृष्टिनो अनाव कस्यो तेथी नगरना लोक रीशे बलता मुनिनी निंदा करताथका कहेवा लाग्या के जे दिवसथी या बेसा धु इहां यावी उना रह्या ले ते दिवसथकी वर्षाद थावतो नथी तेमाटे आ पापी साधु इहांथकी जायतो वर्षाद आवे एवां वचन नगरवासी अ नार्य लोकोनां मुखथी सांजलीने ते वेदु साधुने कषाय चड्यो तेवारें को धने परवश थयेला ते साधुयें मेघमालिने कडं के था कुणालानगरीने विपे पन्नर दिवस पर्यंत अहोरात्र अखंम मुसलधारायें वरसाद वरसावो ते वर्षा होवाथी नगर सर्व मुनिसहित तणाणुं अने मुनि मरीने नरकें गया. तथा मान उपर बाहुबति आदिकना दृष्टांत जाणवा वानी माया । पर श्रीमन्निनाथनो दृष्टांत जाणवो तेमज लोन उपर सोमशेत आदिकना दृष्टांत जाणवा ते सोमशेत पुत्रादिक सर्वने वंचीने रात्रिये स्मशानां जइ कोड सोनेया नूमिमांहे दाटीने घेर अाव्यो तिहां आध्यानथकी दाहज्व रना रोगथी मरण पामीने ते दाटेला धननी नपरे दृष्टिविष सर्प थयो एम ए केका कपायथकी घणा जीवो अनर्थ पाम्या तो चारे कपायथकी अनर्थ पामे तेमां कहेवूज ? तेमाटे कपायनो त्याग करवो. ___ तथा जेथकी प्राणी धर्मधनने नास करवेकरी दमाये तेने दम कहियः ते अशुन मन वचन काय व्यापार रूप त्रण दंम जाणवा. तिहां मनोदंमने विपे श्रीगौतमस्वामियें उपदेश करेलो शुक्ष्श्रावक पोतानी स्त्री ार उघाड वा नती ते हारमा आफलाणी तेथी तेना माथामां व्रण पडद्यं ते स्त्रीना व्रणनी पीडाना वार्तध्याने पीडायो थको तेनो धणी मरण पामीने मोह वशंकरी ते पोतानी धणीयाणिना कपालना व्रणमांहेज कीडो उपन्यो. __ तथा वचनदंम अने कायदमनी नपरे लौकिक कोशिकनामें महोटो क वि वनमांहे तप करतो हतो तिहां एक आहेडी मृगनी पनवाडे धायो ह तो तेनाथी मृग नाशि गयो तेवारें आहेडीयें रुपिने पूज्यं के मृग कऽदिशा ये गयो तेने कृषिये साचं कर्तुं तेथी आहेडीये मृगने हण्यो तेना योगें रुषि मरीने नरकें गयो. ए कोशिकनामा कृषिनो दृष्टांत जाणवो. __ तथा कायदंमनेविषे मांमव्यनामा रुपिनो दृष्टांत कहे जेः- मांमव्य नामा कृषिये पहेला अजापालकना नवने विपे एक निरपराधी यूकाने शून्य परोश हती तेना पापथी सो जव सुधी पुःख जोगवे थके वली सोमे Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४३५ जवे पण मांमव्य कृषिने शूलीयें चडवू पडयु ए कायदंम उपर दृष्ठांत जाणवो. तथा मायाशल्य, नियागशल्य अने मिथ्यात्वशल्य ए त्रण महोटां शल्य ने ते करवाथी जे दंम पाम्यो ते दंमने विपे तथा मन,वचन,अने कायानाथ गुन योगनो निरोध करवो ते रूप गुप्ति ते मनगुप्ति,वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ए त्रणगुप्तिने विषे तेमज र्यासमिति नापासमिति, एषणा समित्ति, आदा ननिदेपणा समिति बने पारिष्ठापनिका समिति ए पांच समितिनेविषे च शब्दथकी समकेत तथा प्रतिमादिक जे सम्यक् धर्मकरणी प्रमुख डे एने विपे जे नेला ग्रहवा लेवा एनेविषे जे निषेध ने तेहने आचरवेकरीने जे अतिचार लाग्या होय ते अतिचारने निंऽ ॥ ३५॥ हवे ए सर्व अतिचारने सामान्यपणे प्रगट पडिक्कम्या ते पडिक्कमीने गृ हस्थ गुम थयो अने वली पण बकायना पारंनरूप पापनेविपे वारंवार प्रवर्ने तेवारें वली अशुभ थाय जेम हाथी नाही स्नान करी सरोवर वा हेर निकलीने वली पोताने माथे रज नाखे ते हाथीने न्यायें श्रावक पण बालो शुक्ष थश्ने वली माता कर्मना बंधथी मलीन थाय एवी कोइने आशंका उपजे ते आशंका टालवाने गाया कहे बेः ॥सम्मकि जीवो, जश्विद पावं समायरे किंचि ॥ अप्पोसि दो बंधो, जेण न निधंधसं कुण ॥३६॥ अर्थः-सम्यक्दृष्टि जीव एटले अविपरीत श्रावंत जीव यद्यपि निर्वा हने अनावें खेती प्रमुख पापना आरंनमा प्रवन ने तिहां पोतानो नि वाह थाय एटलुंज आचरण करे ले तेथी ते जीवने मिथ्यात्वादि पहेला त्रण गुणगणानी अपेदायें ज्ञानावरणादिक कर्मनो अप्पोसि एटले अल्प थोडोसो बंध पडे ते शा हेतुयें अल्पबंध पडे चे जे कारणे ते निईसपणे निर्दयपणे निशूकपणे पापारंनादिक न आचरें केम के सम्यधर्म जे डे ते जीवदयामूल के एट्लामाटे तेने जे जे कांश करवु पडे ते सर्व दयास हितपणे जयणापूर्वक करे. जेमाटे जीवना ब प्रकारना लेश्याना परिणा म घणा अध्यवसाय प्रवर्ने डे ते जंबुना नदक तथा ग्रामना वधकने ह ष्टांतें करी कहे जे. जेम एक जांबुनुं वृद अत्यंत पक्कफलना जारेकरी नमे ली शांखावालु हतुं तेने देखीने मार्गे जनारा न लेश्याना धारक ब जणा Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. जहणनेयर्थे तिहां उना रह्या तेमां प्रथम एक जण बोल्यो के वृद उपर चढवाथी कदापि पडी जवाय तो तेथी मरण थाय माटे या वृदने मूल थी बेदी नाखी, नीचे पाडीने पनी फल नक्षण करिये तेवारें बीजो बोल्यो के आपणे महोटुं वृक्ष बेदीने गुं करवु तमे महोटी शाखा वेदो, तेवा रे त्रीजो बोल्यो शाखामांहेली प्रतिशारखा दो, तेटलामां चोथो बोल्यो ए नां गुन्हा तोडीने जांबु खाउ, तेवारें पांचमो बोल्यो के जे फल पाके लां ले तेने उपरथी लइने नहाण करो; ते सांजली बो बोव्यो नीचे ख री पडेलां फल लेने नहाण करो ए दृष्टांतनो उपनय वीरीतें ले. जेणे कह्यु के वृक्ने मूलथी दो तेनी कृष्णलेश्यामा प्रवृत्ति जाणवी तथा म होटी शाखा बेदवानुं कहेनार नीललेश्याना परिणामवालो जाणवो, प्रति शाखा बेदवाथी कापोतलेश्याना परिणामवालो,गुजा बेदवाथी तेजोलेश्या ना परिणामवालो अने पाकेलां फल तोडवाथी पद्मलेश्याना परिणामवा लो तथा अने पडेलां फल लेवाथी शुक्ललेश्याना परिणामवालो जाणवो. __ अथवा बीजं उदाहरण कहे के कोक गामनो पराजय करवानेअर्थ ब चोर निकल्या तेमां एक बोल्यो जे कोइ हिपद चतुप्पदादिकने देखो ते संघलाने हणो, बीजो बोल्यो मनुष्यने हणो, त्रीजो बोल्यो पुरुपनेज हणो, चोथो बोल्यो शस्त्रधरनारने हणो, पांचमो बोल्यो जे आपणी साथें यु६ करे तेने हणो तेवारें बो बोल्यो के आपणे कोइने हणवो नथी मा त्र एक धनज हरण करो बीजा कोश्ने मारशो मां कांक गोहरणादिक ज करो ते पण जेम कोइनो संहार न थाय तेम करो. इहां पण सर्वने हणो कहे ते कृष्णलेश्याना परिणाम, एवा अनुक्रमेंकरी शुक्तलेश्यावंतना परिणाम पर्यंत कहेवा ॥ ए बत्रीशमी गाथानो अर्थ थयो ॥ ३६ ॥ हवे थोडोसो बंधपण दुःखदायी थाय एवी आशंका ____टालवाने गाथा कहे .. तंपिड सपडिकमणं, सप्पडिवं उत्तर गुणंच ॥ खिणं नवसामेश्, वादिवसुसिस्किन विडो ॥३॥ अर्थः-तोपण समकेतदृष्टिने आरंनादिकमां अल्पपापबंध जे पडे ते षड्वि ध आवश्यक रूप पडिक्कमणुं करतांबालोवतां मिजामिछक्कड देतां पश्चात्ताप Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४४१ करतां, ते निपुण सप्रतिचार, ते प्रतिचारणा एटले जेम लाननो अर्थि वा जियोतेनी पेरें आयपत तथा व्ययनी तुलनायें प्रवते तेम ते पण प्रवर्ने एट ले ा कार्य केम करूं आकार्य केम न करूं केम में ए घणुं कयूं एमजे ह दयमांहे विचारणा करे ते ते कार्यने घj करे एंटले ते कार्य ते अति करे. उत्तरगुण ते गुरुयें दी, जे प्रायश्चित्त तेने आचरवेकरीने खिप्पं एटले सीघ्र उवसामेश एटले उपशमा निःप्रताप करे खपावे तिहां दृष्टांत कहेले: वाहिव एटले व्याधिरोग कास श्वासज्वरादिकने जेम सुसिस्किन विद्यो एटले रुडो वैद्यकशास्त्रनो जाण वैद्य होय ते वमन विरेचन लंघनादिकें करीने जेम रोगने उपशमावे एटले टाने तेनीपेरे जाणवो ॥ ३७॥ हवे पूर्व कर्तुं तेज दृष्टांतेंकरीने कहे :॥जहा वसं कुठगयं, मंतमूल विसारया ॥ वि चाहणंति मंतेहिं, तो तं दवा निविसं ॥३७॥ अर्थः- जेम विष वे प्रकारनुं ने तेमां एकतो वृदादिक वजनागा दिकनुं विष ते स्थावर विष अने बीजुं वृश्चिक सादिक, विष ते जंगम विष जाणवू ते विप यथा एटले जेम कोकना कोठामांहे गयुं एटले उदरमांहे गयुं होय तेना शरीरमां विष व्याप्युं होय ते विषने मंत्रमूलना विशारद तिहां मंत्र ते गारुडीप्रमुखना अने मूलते त्रणपाखडीना पत्र पुष्पादिक तथा तं त्रादिक तेनेविषे माह्या निपुण होय ते गुरुदत्त आम्नायने अन्यासेंकरीने सहित जेनी प्रत्यक्ष्परीक्षा साधी ले एवा वैद्य मंत्रवादी ते मंत्र यंत्र तंत्रा दिकेंकरीने विषने हणे एटले निर्विषकरे, विषने नशाडे तथा जो पण ए विषे करी जे पायो होय ते पोते जोपण मंत्रानाअर्थनो तथाविध जाण नथी तोपण ते मणिमंत्र औषधीनो अचिंत्य प्रनाव हे माटेते मंत्रना अदर सांन लवेकरीनेज तेने गुण नीपजे शहां एक स्थविरा मोसीनुं दृष्टांत कहे जेः___ कोश्क स्थविरामोसीनो पुत्र हंस एवे नामें हतो तेने उष्ट सर्प कर ड्यो तेथी फेर चडयुं तेणें करी ते निश्चेष्टित थयो तेने मंत्रवादी गारुडि प्रमुखें फेर उतारवा मांमयुं पण उतघु नही तेथी गारुडि जता रह्या ते वारे स्थविरायें बाशा मूकी पुत्रने शोकें करी अतिशय सुःखणी थकी पु त्रनुं नाम देइने रोवा लागी के हे हंस ! हे हंस ! एवं नाम आखीरात्रि Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. पोकायुं तेथी साप, विष उतरीगयुं अने साजो थयो तेवारें स्थविराने मंत्रवादिये पूर्यु स्थविरायें यथार्थ व्यतिकर मंत्रवादीने कह्यो ते सानली गारुडि बोल्या हंस एवो गारुडीमंत्राझरनो बीजाक्षर ने तेथीकरीने सापर्नु केर उतयुं जेम बालक अंमिनी नमताना गुणने जाणतो नथी तो पण ते बालकने अग्निपासे राखवाथी सीतने टाले ने तथा जल पीयूं थकुंतृ पाने मटाडे तथा जेम सेलडीना गुंडार्दिकना स्वादने बालक जाणतो न थी तो पण बालकने सुस्वादपणुं पमाडे पोषे तेम मतिने मंदपणायें करी जो पण सूत्रनो नलो अर्थ न जाणतो होय तो पण पडिक्कमण क रनारना कर्मनो क्ष्य थाय एवे नावें लघुस्तवमांहे कयुं - दृष्ट्वा संघ्रमका रिवस्तु सहसा ऐऐ इति व्याहृतं, तेनाकूतवशादपीह वरदे विंडं विनाऽप्य करम् ॥ तस्यापि ध्रुवमेव देवि तरसा जाते तवानुग्रहे वाचः सूक्तिसुधार सश्वमुचो निर्याति वक्त्रोदरात् ॥ १ ॥ आश्चर्यकारिवस्तुने जोश एकाएक जेणे कुतूहलना वशथकी ऐ ऐ एवं बिंविना अदर कह्यु तोपण ते अद र तेने सिदिदायक थयुं वली हे देवि ! तेने तमारा अनुग्रह थयो के तेना मुखथी अमृतना रस प्रवाहने करनारी वाणियो तत्काल निकले ले. तथा लौकिकनेविषे पण एम सनिलिये बैये जे कोश्क पुरुषने कोइकें पूब्युं के जे तुं यांबानां फल लावीश के रायणनां फल लावीश; तेवारे ते णे कयुं यांबानां फल लावीश नारायणं एटले रायणनां फल लावीश नहीं एम कह्याथी लोकनाषायें नारायणर्नु नाम लीधाथकी ते चेतनने रा ज्यादिक महाफलनी प्राप्ति थर. ए आडत्रीशमी गाथानो अर्थ कह्यो॥३॥ हवे दृष्टांतने योजियें बैयें. ॥ एवं अहविहं कम्म, रागदोस समङियं ॥ आ लोअंतो अ निंदतो, खिप्प हण सुसावन॥३॥ अर्थः-एम ज्ञानावरणादिक पाठ प्रकारनां कर्म तेने रागषेकरीने बां ध्या ते आवकर्मने सुश्रावक, गुरुनी पासें आलोवतो थको, आत्मानीसाखे निंदतो थको शीघ्रपणे ते बावकर्मने हणे एटले ते आठकमने आत्मप्रदेश थकी जूदां करे. शहां शिष्य गुरुने पूजे के हे स्वामिन् ! कर्म बांधवाना हेतु प्रमादादिक डे ते प्रमादमध्ये राग ष आव्या तो वली शहां राग शेष जू Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४४३ दा कह्या तेनुं गुं कारण ? एवं शिष्यनुं वचन सांजलीने गुरु उत्तर कहे जे के राग शेष थापदामांहे पाडवानुं मूल एटला माटे राग द्वेषतुं प्रधान पणुं देखाडवाने अर्थे राग द्वेष जूदा कह्या जेम तैलादिकें मर्दित शरीरने रज वलगे तेम राग द्वेषयकी सघला मनुष्यने कर्मनो बंध पण थाय ने शहां सुश्रावक ते सुशब्द अतिशय पूजावाची डे ते सुश्रावक षट्स्थान केंकरी युक्त ने एथीनावश्रावकपणुं जणाव्युं. यतः ॥ कय वयकम्मो तह सी,लवंच गुणवंच उजुववहारि ॥ गुरुसु सुसो पवयण, कुसलो खलु ना व सह ॥ १॥ नावार्थः-१ कयां व्रतादिक कर्म जेणे, २ तेमज जेनुं साचुं शील , ३ वली जे साचा गुणसहित . ४ तेमज जे सरलपणे व्यवहारी, ५ गुरुनी सेवानो करनार , ६ जे प्रवचनकुशल बे अने जे बागममांहे निपुण जे ते निश्चं नावश्रावक जाणवो ॥ १ ॥ ३५ ॥ वली एहज अर्थने सविशेषपणे कहे जे. ॥ कय पावोवि मणुस्सो,आलोअ नंदिश गुरुसगासे॥ दोश् अश्रेग लदुन, नदरिअ नरुव नारवदो ॥४०॥ अर्थः-जे पुण्यनो शोष करे अथवा जीवरूप वस्त्रने मलीन करे. तेने पापयति कहीये ते अगुन पापरुतिरूप व्याशी ने बे. तेना हेतु जे हिंसा मृषावादादिक ते पाप जाणवां ते कारणे कस्यां ने जीववधादिक याश्रव से वीने पाप जेणे एवां मनुष्य ते,पुरुष, स्त्री अने नपुंसकरूप ए त्रण जाण वां; पण तिर्यच अने देवता एमां लेवां नहीं कारण के मनुष्यनेज पडिक्क मणानी योग्यता ले ते मनुष्य सम्यकप्रकारे गुरुनी पासें आलोचना कर तो पापकर्मने निंदतो थको गुरुनी पासें पोताना पापने प्रगटपणे पालो यणनिंदा विधियें करतो शुद्ध थाय पण अगीतार्थादिक कुगुरुनी पासें था लोयणा न करे तथा पोतानी मेलेज मनमांहे बालोयणा करतां पण क मशव्य जाय नही आत्मा शव्यथी गुम न थाय जेमाटे कयु डे के. ॥ य तः॥अगी नवि याणेश,सोहि चरणस्स दे कपअहिं ॥ तो अप्पाणं था लो, अगंध पाडे संसारे ॥१॥ नावार्थः-अगीतार्थ कां जाणे नहीं चा रित्रनी शुधिने माटे अधिकुं उबुं प्रायश्चित्त थापे तेथी ते अगीतार्थ पोताना यात्माने तथा बालोचकने एटले आलोचना लेनारने संसामांहे पाडे ॥१॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ जैनकथा रत्नकोष नाग बोयो. तथा जो पोतें पोतानी मेलें बालोयणा तीव्र आकरां व्रत तपस्यायें करी लीये तो मण संसारमा पडे परंतु शुद्ध न थाय जेम आ चोवीशीथी था गल एंशीमी चोवीशीयें लक्ष्मणा नामें राजानी वहाली पुत्री तेने परणतां चोरीमांहे न र मरण पाम्यो तेथी ते कन्यायें वैराग्य पामीने ते चोवीशीना चरम तीर्थकर श्रीवजनूषण एवे नामें चोवीशमा परमेश्वरनी पासेंथी दी क्षा लीधी तेनुं लक्ष्मणा थार्या एq 'नाम' थयुं ते साध्वीयें वसती जोश्ने सलाय करतां एकदा चकला चकलीनुं जोडलु मैथुन करतुं दीतुं तेवारें विचारवा लागी के अहो तीर्थकर नगवाने साधुने मैथुननी झा केम न दीधी ? पण ते तीर्थकरतो पोतें अवेदी माटे वेदसुखना अनुनवनी वा त गुंजाणे! इत्यादिक मननी कल्पनायें तीर्थकरनी अाशातना करी पनी लगाने लीधे गुरुनी पासें जश्ने आलोयुं नही अने पोतानी मेसेज पाप नी शुदिने अर्थ दशवर्षपर्यंत बगिय त्याग करी तेमज बह अमादिक घणां तप कस्वां, सोल मासखमण कस्यां. शोलबईमासखमण करयां, वी शवर्षसुधी यायंबिलतप कयं,एम सर्व मली पचाशवर्षसुधी उग्रतप कां तोपण ते पापनी शुध्थि नही. ते पापथकी असंख्याता जवपर्यत संसा रनां घणां बाकरां दुःख जोगवीने आवती चोवीशीये श्रीपद्मनानतीर्थक रना तीर्थमां सिदि पामशे. यमुक्तं ॥ ससनो जवि कहुग्गं, घोरं वीरं तव चरे ॥ दिवं वाससहस्संतु,तवितं तस्स निफलं इत्यादि नव गाथानो अर्थ. ___ शव्यसहित प्राणी जोपण उग्रकष्ट करे, धीरपणे शुननावें हजार वर्ष पर्यत पाकरां तप आचरे, तोपण जेम कोश्क पोताना रोगनी चिकित्सा जाणतो न तोपण बीजा वैद्यने कहे तेवारे तेनो राग टले तेम जो पोतानां पापपरनी पासें प्रगट कहे तो शव्यटालवू पण थाय ॥२॥ व्रत सीधांति हांथी अखंमचारित्रवंत होय परंतु ते जो गीतार्थ न होय तो तेनी पासें थी देशना सांजलवी व्रत लेवा आलोयणा लेवी ते युक्त नहीं ॥३॥ शव्यो बार करवाने अर्थे खेत्रथी उत्कृष्टा सातसें योजनसुधी गीतार्थने खोलवो अने कालयकी उत्कृष्टा बारवर्षपर्यंत गीतार्थने शोधाने पण तेनी पासेथी आ लोयणा लेवी ॥ ४॥ आलोयणाना ध्यानमाहे रह्योथको जीव सम्यक् प्र कारें गुरुनीपासें चाल्यो अने जो वचमां मार्गमध्ये काल करे तोपण तेने आराधक कहेवो ॥ ५॥ लजादिकने गर्वेकरी अथवा बहुश्रुतपणाना अ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४४५ निमानेकरीने जे पोतानुं हीणुं चरित्र गुरुने न कहे तो तेने श्रीवीतराग देवें आराधक कह्यो नथ। ॥ ६ ॥ जेम बालक बोलतो थको कार्य अकार्य ने सरलपणे प्रकाशे तेम कपट तथा मदेंकरी रहित थइने पोतानां पाप प्रकाशीने बालोववां ॥ ७ ॥ चित्तने संवेगदशामांहे आणीने सूत्रमा शल्यो बार एटले शल्य न टालवाना विपाक देखाडवेकरीने बालोयणा देवी ॥ ७ ॥ कपटादिदोष रहित समय समयनेविषे वधते संवेगपणे अने वली निःस्टहथके जे अकार्य आचस्यां होय ते बालोववां ॥ ए ॥ए था लोयणनी उपर अट्टणमन्न अने फलीयमन्ननो दृष्टांत जाणवो. ते कथा एज पुस्तकना पहेला नागमां गौतमप्टना ग्रंथमां आवी ने त्यांथी जाणवी. __ एटला माटे सशुरुनीपासें सम्यक प्रकारें बालोव अने गुरुपण आ लोचना लेनारने प्रेरणाकरी उत्साह वधारीने सम्यक् प्रकारें बालोचना प्रापे. रोगादिक अवस्थायें गुरुने अनावें तो वली सिकादिकनी साखें था लोयण लेतोयको पण शुरु थाय जेम चेडामहाराजा अने कोणिकना संग्रा ममांहे रथमुसलना संग्रामनेविषे वरुणनामा सारथीने घा लागो तेणेकरी शरीर जर्जरीनृत थयुं तेवारे ते वरुण आत्मसाखे बालो समाधिमरण करीधाराधक थको सौधर्मदेवलोकें देवता थयो एकावतारी थइ मोदें जाशे. एटला माटे पाप बालोयाथकी अत्यंत हलवां थाय जेम नारना व हेनार पुरुषना मस्तक उपरथी लोहादिक नार उतस्या पड़ी ते पोताना यात्माने अतिशय पणे हलवो करी माने तेम श्रावकपण बालोयण कर तां समय पापने निंदवाथकी पापरूप नारथी हलवो थाय. यतः ॥ लदु आल्हा जणणं, अप्पपरिनिवित्तियऊवं सोही ॥ मुक्करकरणं आढाणं, नि सन्नतंच सोहिगुणा ॥ १ ॥ नावार्थः-मासक्ष्मणादिक दुष्कर तप करवा थकी लक्ष्मणा आर्यानी पेठे संसारनो उल्लेद न थाय परंतु बालोयण ले वाथी अन्यंतर शल्य गयाथी संसारनो उबेद थाय श्रीनिशीथनी चुर्णिने विषे कह्यु ॥ तन्नछक्करं जं पडिसेविड तं उक्करं जं सम्मं बालोज ति ॥ अर्थः- ते बीजं कांइ जे प्रतिसेवq ते उक्कर नथी परंतु सम्यक्पणे आलोवद् ते दुष्कर ने माटे शव्यते महोटा अनर्थ- कारण जे जे माटे कह्यु डे के शस्त्रनी पेरें, विपनी पेरें, वेतालादिकना बलमांहे पड्यानी पेरे अथवा उपयोग शून्यने यंत्र घाणीनी पेरें, प्रमादथके क्रोध पमाडेला सर्प Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जैनकथा रत्नकोप नाग चोथो. नी पेरे नथी तेवुं दुःख के जेवुं नावशव्यने अंगीकार करेथी दुःख याय बे ते शव्य इद्रां सर्व दुःखनुं मूल्य बे जे शब्यराखे तेने बोधबीज पामकुं दुर्ल न थाय अनंत संसार वधारे जेणे राजपुत्र अने वलिकपुत्रनी पेरें थोडं पण शल्य सेव्युं होय तो ते बेदु जेम कडुया विपाक पाम्या तेम ते पण कडु था विपाक पामे तो वली बीजा घणा पापनुं शुं कहेतुं ? पूर्वजवने विषे चारित्रलेइने एकवार सरागदृष्टियें करी पोतानी स्त्री जे साध्वीय हती तेनी साहामुं जोयुं एटलुं सरागंपणुं रह्युं तेथी एक अनार्य देशविषे खाई एवेनामे राजानो पुत्र थयो ने बीजो वालिवानो पुत्र ए लाची कुमार एवेनामें थयो तेमने रागरूप शव्यथकी कडुबा विपाक जोग ववा पड्या. धर्मथकी चष्ट थया, नीचकुलमांहे जनुं पड्युं तेमाटे राज्यर हित थने गुरुनी पासें बालोवनुं गुरुनी पासें आलोववाथकी अनंता जीव सिद्धि वया यतः ॥ निष्ठवित्र पावपंका, संम्मं खालोश्य गुरुसगासे ॥ पत्ता प्रांतसत्ता, सासय सुखं प्रणाबाह १ ॥ नावार्थ:- निठव्या पापरूप कर्दम जेणे एवा अनंता जीव सम्यकपणे गुरुनीपासे यावी पोताना पाप खालोइने अव्यावाध शाश्वतः सुखने पाम्या ॥ १ ॥ जेम चंशेखर राजा पोतानी बहेन उपर ग्रासक्त थयो थको स्वामि शेही एटजे बलेंकरीने पोताना स्वामिनो दोह करनार ने राज्यनो जे नार, तेमज महाबलनेदादिक कपटनी करनार एवो पापी हतो तेपण स म्यकप्रकारे गुरुपासें थानो श्री सिद्धाचलजीनी उपर मोदें गयो ए कथा विधि कौमुदी ग्रंथमध्ये शुकराजानी कथाथी जावी. माटे खालोयणानुं तप जे गुरुयें याप्युं ते सम्यक्प्रकारें पूरुं करी पोहो चाडj. खालोयण पंचासकने विषे कत्युं बे के यतः ॥ खालोयणासुदाणे, लिंग मणिबिंतिमुलिय समया ॥ पत्तिकरणमुचिय, प्रकरणंचेव दोसाणं ॥ १ ॥ परिक चानमासे, खालोयण नियम सानदायवा ॥ गहणं अतिगहालय, गहि निवे ॥ २ ॥ नावार्थ:- श्रालोयण देवाने माटे ए चिह्न बे एम श्रागमना जाए मुनीश्वर कहे बे ते चिह्न प्रायश्चित्त जेवुं ते उचित आलोयण न लियेतो दोष थाय ॥ १ ॥ पारखीयें तथा चोमासीने दिव सें निश्वयथकी छालोयण देवी ने खालोचकें पण पर्वणीने दिवसें यनि यह नियमादिक ग्रहण करवा ॥ २ ॥ ए चालीशमी गाथानो अर्थ ॥ ४० ॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४४७ हवे पडिक्कमणानुं फल कहे जेः॥ आवस्सएण एएण, सावन जवि बदुर होई॥ उकाण मंतकिरियं, काहीअचिरेण.कालेण ॥४॥ अर्थः- यद्यपि श्रावकजे ते बदुरज ने एटले बध्यमान कर्मरूप रज नो धणी ने अथवा बहुरत एटले विविधप्रकारना सावध पापारंननेविषे अतिशय आसक्त ने तोपण आवश्यक करवेकरीने एटले सामायिक, चो वीसबो, वंदनक, पडिक्कमj, काउसग्ग अने पञ्चरकाण रूप षडविध नावा वश्यकेंकरीने दंतधावनादिक करवू एटले षविध नावावश्यक तऽप दांतण करवेकरीने शुक्ष थावं पण दंतधावनादिक इव्यावश्यकें करी नही. उःख ते शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी सुःख तेने अंतक्रिया एटले क्य करे अचिरेण कालेण एटले स्वल्पकालेंज अर्थात तेहजनवमां क्य करे। हां जोपण कुःखनी अंतक्रियानुं अंतर रहित हेतु ते यथारख्यात चारित्र क हियें तेना लाजनेविषेज अंतक्रियाथाय ते शहां श्रावक परंपरायें मोदना हेतु एवा सामायिकादिक आवश्यकने आत्मनावें करीने नावनी विशुद्ध तायें करतो थको नावचारित्र प्रगट करीने तन- मोद जाय. सामायिकादिक आवश्यकेंकरीज गृहस्थनेपण नावनी विशुधियें जरत चक्रवर्तिनी पेरें केवलज्ञान पामे अहो नव्यप्राणी ! सांजलो एक सामा यिक यावश्यकना पदमात्र आलंबन पामीने अनंता जीव मोड़ पोहोता ॥ यतः ॥ जोग जिणसासणम्मि, उरकरकयं पजंता ॥ इकिकम्मि अणं ता, वदंता केवलंपत्ता ॥१॥ नावार्थः-योगें योगें श्रीजिनशासननेविषे दुःखनो क्य प्रयुंजता एकेक योगें वर्त्तता अनंता जीव केवलज्ञान पाम्या ए एकतालीशमी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ ४१ ॥ हवे मन वचन कायानी प्रवृत्ति अतिसूक्ष्म ने अने इंडियरूप तुरंगम अति चपल ने तथा जीवने अत्यंत प्रमादनु बदुलपणुं वे माटे केटलाएक अतिचार अपराध स्मृतिमाहे नहीं आव्या होय विसर्जन थया होय परं तु ते सर्व बालोववा योग्य जे जे कारणे नगवाननां वचन ले के हे गौत म ! प्रायश्चितनां ठेकाणां असंख्याता ले तेमांहे एकपण आलोयाविना रहे Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. तो शल्यसहित मरणे मरे तेमाटे विसरी गयेला अतिचारने सामान्यपणे पडिक्कमवाने अथै गार्थी कहे जेः ॥आलोयणा बदविता, नय संनरिया पडिक्कमण काले॥ मूलगुण उत्तरगुणे, तं निंदे तंच गरिदामि ॥ ४२ ॥ अर्थः-आलोयणा ते गुरुनी. बागल पोताना फुश्चरित्र कहेवां उपचार थकी तेना कारणनूत जे प्रमाद क्रिया तेपण बालोयणा कहिये ते बालो यण बहुविध एटले नानाप्रकारनी बे तेहना हेतु घणा ने ए कारण माटेज उपयोगनी शून्यतायें पडिक्कमणा अवसरें बालोववा निंदवा गर्दीने अवस रें न सांजस्या ते. पडिक्कमणाना बे काल तेमां एक तो सूर्यना नदयनी पहेलांज पडिक्कमवू तेवार पड़ी पडिलेहण प्रमुख सर्व करे अने सांजे सं ध्या टने त्यांसुधी पडिक्कमणुं करे एटलो काल पडिक्कमणानुं मान साधु आश्रयी उत्सर्गथी ने अने श्रावकने तो अपवादथी पण होय आजीवि काने हेतुयें व्यापार क्रियाने परवशे आगल मोडुं बहेलु पडिक्कमएं करे अ न्यथा नही. यतः ॥ वित्तिवुयम्मित, मिहिगोसीयंतिमवकिरियान निर विरकस्सनकुत्तो, संपुस्मो संजमोचेव ॥ १ ॥ नावार्थः-बाजीविकाने अस चलावे गृहस्थनी सघली क्रिया सीदाय अने निरपेद उद्यमे युक्त संपूर्ण संयमवंतने कांइ पण वांबा न होय ॥ १ ॥ हवे आलोयण ते शानेविषे होय ते कहे ते. मूलगुण ते पांच अणुव्र तरूप अने उत्तरगुण ते गुणव्रत शिदाव्रतरूप आदिदेश्ने तेमे विषे वीसरी गयेला अतिचारनु सामान्यपणे पडिक्कमवू निंदवु अने गर्दवू जाणवू ४५ ___ एम अनुक्रमें इष्कृतनी निंदा करीने विनयमूल धर्म आराधवाने का यायेंकरी उनो थयो थको “ तस्सधम्मस्सकेवलिपस्मतस्स” एम कहीने मंगलिकने अर्थे ए गाथा कहे ते कहे . ॥अप्नुनिमि आरा, दणाए विरमि विराहणाए॥ तिविहेण पडिकंतो, वंदामि जिणे चनवीसं ॥४३ ॥ अर्थः-गुरुनी पासेंथी अंगीकार कस्यो जे केवलीनगवाननो जांखेलो ए वो श्रावकनो धर्म तेने आराधवाने अर्थे तथा नलीरीतें पालवाने अर्थ हुँ उठ्यो बूं उजमाल थयो बुं बने ते धर्मनी विराधना खंझना करवाथी Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४४ए निवत्यो बुं त्रिविधं एटले मन वचन कायायेंकरीने पडिक्कमवा योग्य अति चारथकी निवोर्च् एटलामाटे ढुं श्रीषनादिक चोवीश जिनप्रत्यें वार्ड बुं खेत्रथी तथा कालथी ढूंकडा नपकारी के तेमाटे. इहां चोवीशीनुं ग्रहण होवाथी पांच जरत, पांच ऐरवत आदिशब्दथकी पांच महाविदेहना जे तीर्थकर देव ते प्रत्ये हुं वां ॥ ३ ॥ एम नावजिनने नमस्कार करीने हवे समकेतशुदिने अर्थे त्रलोकना शाश्वता अशाश्वता एवा स्थापनाजिनने वांदवा माटे गाथा कहे जेःजावंति चेश्आई, उढ़े अदेय तिरिय लोएअ॥ सवाई ताई वंदे, इह संतो तन संताई ॥४४ ॥ अर्थः-जेटला त्रण्यलोकना चैत्य तथा जिनप्रतिमा नललोक ते स्वर्गने विपे,अधोलोक ते नवनपतिना जवननेविपे,तिर्यक्लोक ते नंदीश्वर अष्टापदा दि तीर्थनेविषे जे ते सर्व तिहां रहेला परमेश्वरने ढुं इहां रह्योथको वा. हवे सर्वसाधुने वांदवाने अर्थे कहे जे. जावंति केविसाद, नरहेरवय महाविदेहे अ॥स वेसि तेसि पणन, तिविदेण तिदमविरयाणं ॥४५॥ अर्थः-जेटला को साधु मति श्रुत अवधि विपुलमति मनःपर्यवहानी केवलज्ञानी चौदपूर्वी दशपूर्वी नवपूर्वी हादशांगी एकादशांगी जिनकल्पी थविरकल्पी यथासंदिक परिहार विशुदि खीराश्रव मध्वाश्रव संनिन्नश्रोत कोष्टबुदि विद्याचारण जंघाचारण पदानुसारी वैक्रियलब्धिक. जेना कफ विट मल मूत्र प्रस्वेद केश नरवादिक सर्व औषधीमय, आशीविप, पुनाक, निर्यथ, स्नातक, आचार्य उपाध्याय प्रवर्तकादिक अनेक नेदना साधु ते उत्कृष्टा नव हजार कोडी अने जघन्यथी वे हजारकोडी साधु ते जरत ऐरवत महाविदेहत्रने विपे च शब्दथकी कोई देवताना अपहस्या अकर्मनू मिनेविपे होय ते सर्वेने त्रिविधे एटले मन वचन कायायेंकरीने दुं वार्ड बुं. तिहां मननेविषे साधुना गुणनुं चिंतन करवु तथा वचनेंकरीने साधुना गुणनो उच्चार करवो अने साधुनुं बदमान कर, तथा कायायेंकरी शिर नमाडवू. ते साधु केवा ने तो के मन वचन अने कायानी चपलतारूप एवा जे त्रण दंम तेथकी निवां एवा साधु ले तेने ढुं वांउंबुं ॥४५॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JUO जैनकया नकोप नाग चोयो. एम पडिक्कमणानो करनार सर्वचैत्यने सर्वसाधुने प्रणाम करतो थको प्रवर्षमान• गुनबध्यवसायें वधते गुन परिणामें परिणम्यो थको एवं वि चारे जे आगला कालनेविपे पण मुजने एवा परिणाम होजो एवी शुन जावनी वांडा करे ते इहां गाथायेंकरी कहे जे. चिर संचिय पाव पणा सणी, नव सय सहस्स महणी ए॥ चनवीस जिण वणिग्गय कहाई, वोलंतुमे दियदा ॥ ४६॥ अर्थः- घणाकालना संचितपापना प्रणाशनी करनारी तथा नवशत सहस्त्र ते शो हजार एटले एकलाख नव थया पण उपलदायी अनंता नवनी मथनारी एवी चावीशे तीर्थकरनी बीजकथा अंकुरनी वधारना चो वीशे जिननामुखथकी नीकलेली जे कथा ते कथायेंकरीने प्रनुनां नाम न कीर्तन अनुनां गुणगान चरित्रवर्णनादिक रूपवचननी पतियें परमेश्व रनी कथा करी अनुनी पूजा पुप्पादिकें करतां तबोलिया सप्र्प दंश दीयो तोपण अमगथका कासग्गध्याने रह्या एका नागकेतुने तत्काल केवल झाननी आपनारी एवी चोवीशतीर्थकरनी कथायेंकरीने महारा दिवसा व्यतिक्रमो इहां बोध बीजनी प्रार्थना करतां दोप नही ॥४६ ।। हवे मंगलिकपूर्वक पडिकमणानो करनार नवांतरनेविपे पण समा धि बोधपामवाने अर्थ प्रार्थना करे ते गायायेंकरी कहे ते. मम मंगलमरिहंता,सिझा साहु सुयंच धम्मो अ॥ सम्मदिहि देवा, दितु समाहिं च बोहिं च ॥४॥ अर्थः- मुजने मंगलिक दो अरिहंत, सिक्नु, साधुनु, श्रुत ते अंगो पांगादिक आगमधर्मर्नु, अने ज्ञान चारित्ररूप धर्म,च शब्दथकी ए धर्म ते लोकमां उत्तम डे शरणनूत के एम देखाङयु ए चार मंगलिक कह्यां हां श्रुत अने धर्म बे जूदां कह्यां ते गुं धर्म श्रुतमाहे न आव्यो? पण श्रुत मंगलिकनुं प्रधानपणुं देखाडवामाटे जूदां कह्यां ज्ञान क्रिया बेहुनेलां म ले थकेज मोद के एम जणाववानेअर्थ कह्यां तेहज कहे . यतः ॥ ह यंनाणं कियाहीणं, हया अन्नाणन किया ॥ पासंतो पंगलो दह्रो, धावमा गोवि अंधन ॥ इत्यादि ॥ १ ॥ नग्मत्वे पशवो जलैर्जलचराः सर्वेजटानिर्व टाः, वकै लताः सुताः करिवराः श्वानादयोनस्मनिः॥ वह्नीनां ज्वलनैर्ज Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४५१ नाहरिताबदाः सदा रनिः, स्वर्ग यांति कथं न ते यदि वृथा ज्ञानक्रिये निष्प्रमे ॥१॥तथा ॥ वह्नीनां ज्वलनैः स्त्रियो बहुविधाः क्लेशैर्द रिजाश्चचेन्मुक्ति यांति पुनर्जनाः शमदमझानक्रियाद्यैर्गुणैः ॥२॥ नावार्थ:-क्रियाहीन ज्ञान ते हण्यु अज्ञानयकी क्रिया हणी जेम पांगलो देखे अने आंधलो दोडे ने ते जेम एकथी कार्यसिदिन थाय बेदु मलवाथी वांलित कार्य थाय माटे झानक्रिया संयुक्त होय तो मोदरूप कार्य थाय ॥१॥ तथा पशु नग्न फरे , जलचरजीवं जलमांहे रहे , वटादिक जटाधरे ने, नोज पत्रवृद वल्कल पहेरे में तथा बालक हस्तो, श्वानादिक राखमांहे पड्या रहे , वली अग्निने सदाइ लोक,बाले , सिंह, पन अश्व सर्वदा दोरिये बांध्या रहे जे तो ते स्वर्गे केम नथी जाता? तेथी जो मोद थाय तो ज्ञान क्रिया ए निष्प्रमाण गणाय ॥ १ ॥ घणी स्त्री अग्रीमा बले ने तथा दरि ही लोको घणा प्रकारना क्लेशोने पामे डे परंतु ते मुक्तिने पामता नथी मुक्ति तो मात्र शम दम ज्ञान अने क्रिया आदि गुणेकरीने प्राप्त थाय ॥२॥ श्रीपाचारांग सूत्रमांहे कर्तुं ने, यतः ॥ आणाणाए एगे निरूवाणा एवंते तावहोत्ति तो अधिष्टायिक सम्यक्दृष्टि एवा देवता देवी जे धरणे इ अंबिका यदादिक ते मुजने समाधिपणुं बापो जे चित्तनी स्थिरता ते समाधि कहिये ते समाधि सकलधर्मनुं मूल ने जेम शाखानुं मूल स्कंध ठे, प्रतिशावानुं मूल शाखा ,फल, मूल फूल , अंकुरनुं मूल बीज ने तेम धर्मनुं मूल समाधि . चित्तनी स्वस्थता विना जेटलां रूडाधर्मनां अनुष्टान ते सर्व कष्टनूत जाणवां. प्रायः व्याधिपीडायेंकरी समाधिनो नाश थाय ने तेमाटे ते व्याधि पीडानो रोध करवो तेनो हेतु उपसर्गनिवारण डे ते न पसर्ग निवारवानेमाटे समकेतदृष्टि देवदेवीनी प्रार्थना करवी ते प्रार्थना बोधि एटले परलोकें श्रीजिनधर्मनी प्राप्तिने अर्थे . यतः ॥ सावयघरंमि जंहूऊ चे नाणदसण समे ॥ मित मोहिय मरणो, मा राया चक्कर हिवि ॥ १ ॥ नावार्थ:-श्रावकना घरने विपे दास थावं ते पण नखं जे माटे तिहां ज्ञान दर्शनसमेत थवाय परंतु मिथ्यात्वें मोहितमतिवालो एवो राजा तथा चक्रवर्तिपणुं पण मुजने थाशो मां ॥१॥ इहां कोश्क . एम कहे के समकेतदृष्टि देवदेवी समाधि बोधी या पवाने समर्थ डे के नथी ? जो समर्थ नथी तो तेनी प्रार्थना करवी निष्फ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ जैनकथा रत्नकोष नाग चौथो. लले अने जो समर्थने तो उनव्य तथा बनव्यने केम समाधि थापता न थी. जो कहेशो के योग्यनेज आपवा समर्थ डे पण अयोग्य घनव्य उन व्यादिकने पापवा समर्थ नथी तेवारेतो योग्यताज प्रमाण राखवी तेवारे अजागलस्तननी पेरे वृथा प्रार्थना करवाथी ? हवे गुरु उत्तर कहे ले के सर्वत्र योग्यताज प्रमाण जे अमे बीजो कांई विचार जाणता नथी अमे नियतवादी एकांतवादी नथी अमेतो सर्वनय समू हात्मक म्याघादी ये ते अमे कहीयें बैये के सर्वसामग्री जोश्ये जेम घटनी निष्पत्तिमा माटीनी योग्यता बतेपण कुंजार, चक्र, चीवर दोरो वर दंमा दिक सर्व जोश्ये तेवारे घट नीपजे सहकारी कारण तेहज जो. तेम शहां जीवने योग्यता बनेपण विघ्नना समूहने दूर करवा माटे समाधि वो धिना देवाने विपे देवता पण समर्थ ने.जेम मेतार्यमुनिने पूर्वनवना मित्र देवता यें आवी सुलनबोधी कस्यो तेनीपेठे समकेतदृष्टि देवतानी प्रार्थना बलवती ने. इहां शिष्य आशंका करे ले के सम्यकदृष्टि देवतापासे थी वोधी समाधिनी याचना करतां तेमनुं बदुमान करवू पडे तेथी शं समकेत मनिन न थायके ? गुरुउत्तर कहे ले के ते देवतानी पासेंथी कांश मोद मागता नथी अमे तो एटलुज मागियें यें के धर्मध्यान करतां थकां अमारां विघ्न टालो एप धर्ममां अंतराय टालवानी प्रार्थना डे एटलामाटे देवतानी प्रार्थना कर तां कांई दोष नथी जेमाटे पूर्वे श्रुतधरोनुं ए आचरण के. श्रीयावश्यक चूर्णिमध्ये श्रीवयरस्वामीना चरित्रनेविपे कह्यु बे. यतः ॥ तबय अनासे अन्नोगिरि तं गया तब देवयाए काउसग्गोक सावि अपहिया अणुग्गरं त्ति आणुनायमिति तथा आवश्यकनी काउसग्ग नियुक्तिमाहे पण कर्दा ने यतः ॥ चाउमासिए वरिसे खित्तदेव नसग्गे वित्तदेवयाए अवेयावच गराणं दिऊ थुइ जरकपमुहाणं करंति परिकत्र चाउमासिएवेगे ॥ तथा वृह कल्पनाष्यमां पण कयुं ॥ पारिथ काउसग्गो, परमिहिणंच.कय नमुक्का रो ॥ वेयावञ्चगराणं, दिङ थुश्करकपमुहाएं ॥ १ ॥ तथा चौदशे चुमालीश ग्रंथना कर्ता श्रीहरिजइसरिये पण ललितविस्त रा ग्रंथनेविपे यावञ्चना करनारां देवदेवीनी चोथी थोइ कही ने तेमाटे समकितदृष्टि देवतानी प्रार्थना करवामां कां अयुक्त नथी ॥ ७ ॥ हवे जेणे बारेव्रत लीधां होय तेने अतिचारनुं आलोवq होय अने ते Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४५३ ऐज पडिक्कमणुं कर, परंतु जेने व्रत न होय तेणें पडिक्कमणुं न कर, एवी आशंका टालवाने चार प्रकार, पडिक्कमणुं मूलगामायेंकरी कहे . पडिसिाणं करणे, किच्चाण मकरणे पडिकमणं ॥ असदहणे अ तहा, विवरिअ परूवणाएअ॥४॥ अर्थः-श्रावकने पण सिद्धांतमध्ये स्थूलप्राणातिपातादिक तथा अढार पापस्थानक निषेध्यां ले तेनुं करण एटले आचरण कयुं होय अने जे श्रावकने कर, घटे ते न कयुं होय जेम निशमाथी उतिवखतें सूतीवरखतें वेसतीवरखतें नवकार गणवो सूत्रोक्त श्रादिनस्त प्रमुख अनेक ग्रंथनेविपेजे श्रावकनी करणी परमेश्वरनी पूजा प्रमुख कही ले ते कृत्य न कस्यां होय तथा ३ काची समजणने लीधे सूक्ष्म निगोदादिकना नावनी समजण न पडवाथी अथवा ए केणें दीठा ले इत्यादि सुनअर्थ सदह्या न होय तथा ४ विपरीत प्ररूपणा ते अवनी प्ररूपणा नन्मार्गदेशना करवी ए देशना ते मरीचीनी पेरें डुरंतःखनी हेतु रूप . यमुक्तं ॥ उप्नासिएण इक्केण,मरी फुरकसागरं पत्तो॥ जमि कोडाकोडी, सागरसरिनाम धिजाण ॥ १ ॥ नावार्थः-जेम एक 5 पित वचनेंकरी मरीचिनो जीव दुःखरूप समुश्मांहे पड्यो ते एक कोडा कोडी सागरोपम प्रमाण संसारमा जम्यो ॥१॥ए विपरीतप्ररूपणा अना नपयोगें करी होय तेनुं पडिक्कमणुं थाय ए चार प्रकारनु पडिक्कमणुं कह्यु. इहां शिष्य, गुरुने पूछे ले के श्रावकने धर्मनो उपदेश करवानो अ धिकार ले ? तेने गुरु नत्तर कहे जे के श्रावकें जो गुरुनी पासें आम्नाय सहित सूत्रार्थ धास्या होय अने गुरुये आशा आपी होय तो ते श्रावक, धर्मदेशना आराधना करे पोतें नणे गणे सांनले अने लोकने धर्मवार्ता पण कहे इत्यादिक आगमप्रमाण ने तेम आवश्यकचूर्णिकार कहे जे के ते जिनदासनामा श्रावक अष्टमी चतुर्दशीने विपे उपवास करे, पुस्तक वांचे ॥ ४ ॥ ए विशेष हेतु दृष्टांतें सहितपडिक्कमणुं कर्तुं ॥ हवे संसारीजीवने स्सारमा चारे गतिने विपे अनेक प्रकारना नव जमतां थकां अनेक संसारी जीवोनी साथें वैर थयुं होय ते खमावे , खामेमि सबजीवे, सजीवा खमंतु मे ॥ मित्तिमे सबनएसु, वेरं मऊं न केणय॥४॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनकथा रत्नकोप नाग चोयो. अर्थः-सर्वजीचने दुं खमार्बु अने में जे कांश अनंतनवनेविषे मोह अज्ञानपणे पीड्या एवा जीवोने अनेक प्रकारनी पीडा उपजावी होय ते महारी अपराधरूप पुष्टचेष्टाने पण सर्वे जीवो तमे खमो एटले सर्वेजीवो तमे महारी नपर दमा करो अर्थात् महारे ते जीवोनी साथै कर्मबंध न हो य एम करुणालुपणुं जणाव्युं हवे हेतु कहे ने. सर्वजीवोनी साथै सर्वनृत सत्वोनी साथे महारे मैत्रीनाव हो, महारे कोई प्राणीनी साथै वैर अप्री ति न हो, एटले मुजने मुक्तिना लानना हेतु ए सर्वजीव हो अने ढुंपण ते सर्वजीवोने यथाशक्तियें मुक्ति पमाडं अर्थात् ढुं को जीवने मोद जतां विघ्ननो करनार न थालं, तत्व जाण्यु डे माटे महारी निंदाना करनारनी नपर पण महारे पनाव नथी. झानांकुशमाहे का ते के मादरी निंदा करीने पण जो लोक संतोपने पामतां होय तो ते प्रयास कस्याविना म हारे अनुयहरूप जे; केम के कल्याणना अर्थी पुरुप परने संतोपनी पुष्ट ताना हेतुयेंकरी अर्थात् परने संतोप वधारवासारु ःवेंकरी नपालां एवां धननो पण परित्याग करे . वे ए मैत्रीनावनानुं स्वरूप कहे जेः-नाऽकाको पिपापानि, माचनू त्कोऽपि दुःखितः ॥ मुच्यतां जगदप्येपा, मतिमंत्री निगद्यते ॥ १ ॥ जा वार्थः-कोई प्राणी पाप करशो मां,कोई प्राणी दुःखी म था कोइरीने पण जगत् दुःखथी मूकान, एवी जे मति ते मैत्री जावना कहेवाय ने. वैर जो थोडं होय तो पण ते आ जव अने परनवनेविपे महा अनर्थन करनालं थाय, वैर ते कौरव अने पांमवने अढार अदौहिणी कटकना द यतुं करनाऊं थयुं तथा कोणिक अने चेडामहाराजाने अनर्थकारि थयुं. श्रीनगवतीसूत्रमा कह्यु जे जे ॥ चेडय कोणिय जुने, चुलसी बन्नुअ लरक मणुयाणं ॥ रह मूसलंमि नेया, महासिला कंटकएचेव ॥ १ ॥ इत्यादि चार गाथानो अर्थ कहे :-पंचमा अंगमांहे विसंवादपणे चेडामहाराजा अने कोशिकना युनेविपे चोराशी लाख अने न्नु लाख मनुष्यनो संहा र थयो ते रथमुसलनो संग्रामने विपे महाशिला कंटक संग्रामने विपे थयो ॥ १ ॥ वरुण नामा सारथी सौधर्मदेवलोकें गयो तथा तेनो मित्र मीने मनुष्य थयो, नवलाख माणस मरीने मत्स्य थयां, शेष बीजा जीव मरण पामीने तिर्यंचगति तथा नरकगतिमां गया ॥ ॥ कालकुमार आदिक द Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४५ शना मरीने चोथा नरकने विषे उपन्या ते नरकथकी निकलीने दशे नाइ महाविदेहमां मनुष्य था तिहाथी मोदें जशे ॥ ३॥ तेमनी माता पण वैराग्य पामी श्रीवीरप्रनुनी पासेथी दीक्षा लेती हवी ए अवसर्पिणीनेवि पे एवो कोई बीजो संग्राम थयो नथी॥ ४ ॥ जून कमउनु एकपरकुं वैरपण मरुनूतिने दशनव सुधी दुःखदायि थयुं वली ते वैर,परजवनी परंपरायें अनुयायि थाय एटले पाउल चाव्युंज था वे; लोकमां पण कहे . यतः॥ वैरं वैश्वानरोव्याधि, वादव्यसनलक्षणं॥ महानाय जायंते, वकाराः पंच वर्दिताः॥जावार्थः-वैर, विश्वानर (अग्नि) व्याधि, (रोग) वाद करवो, व्यसन सेववू, ए पांच प्रकारना वकार वध्या थका महाअनर्थरूप थाय जे. एटला माटेज धर्मनुं मूल दमा एवं श्रीवीरपरमात्मायें पोतें देखाडयुं ठे जेमाटे श्वामि खमासमणो इत्यादि पातें जुडं हे माश्रमण ! इत्यादिक नेविषे परमेश्वरें दमानुं प्रधानपणुं देखाडयु. यतः ॥ खंती सुहाणमूलं, मू लं धम्मस्स उत्तमा वंती ॥ हर महाविळा, खंति दुरियाई सवाई ॥१॥ नावार्थः-दमा ते सुखनुं मूल , धर्मनुं मूल ते पण उत्तम दमा जे, जे म महोटा वैद्य व्याधिने हरे ने तेम दमा छे ते सघनां पापने हरे ॥१॥ जे समर्थ होय तेने दमा कस्यानुं फल घणुं कर्तुं . यतः ॥ दाणं दरिदस्स पदुस्तखंति, जानिरोहो मणइंदिअस्स ॥ पढमेवए इंदिय निग्गही अ, च नारि एयाणि सुऽक्षराणि ॥ १ ॥ जावार्थः-दारिश्पणामांहे दान, प्रनुता मांहे दमा,मननी इबानो निरोध करवो, अने पहेलीवयमां एटले यौवना वस्था मांहे इंख्यिनिग्रह करवो ए चार वाना अति कुष्कर ने ॥ १ ॥ दमा आदरवाथी कूरगडु आदिदेश्ने घणा जीवो तेहज नवमां केवलझा न पामीने मोदें पोहोतामाटे उत्तमजीवें वैर बांझ दमा श्रादरवी ॥ ४ ॥ हवे पडिंकमणासूत्रना अध्ययननो उपसंहार करतां थकां वागले धर्म नी दिनेअर्थे मांगलिक माटे ली गाथा कहे . . एवंमद आलोश्य, नंदिअ गरदिअ गंग्यिं सम्मं ॥ तिविदेण पडिकंतो, वंदामि जिणे चनवीसं ॥५॥ अर्थः- ए प्रकारे ढुं सम्यक्रीतें गुरुनीपासें आलोइने पोतानां पाप क Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. हीने नंदीने एटले हाइतिखेदे में मातुं कस्युं एवीरीतें कहीने श्रात्मानी सा वे पापनी गर्दा करीने गुरुनीपासें जुगुप्सा गंडा करीने सम्यक् प्रकारें sri को IT तिचार जाणीने तेनें रूडीरीतें मन वचन कायायें त्रिविधें पडिक्कम्या एप डिक्कमल नामा अध्ययन 'पुरुं ययुं माटे चोवीश तीर्थंकरने बांडुं बुं ॥ ५० ॥ पर कहे के ए पडिक्कमसूत्र कोणें कस्युं तेने गुरू कहे म बीजां पडिकमणासूत्र बहुश्रुत स्थविरनां करेलां ने तेम प जावं जेमाटे श्री श्रावश्यक सूत्रनी बृहद्वृत्तिविषे "स्करसन्निसम्म" ए गायाना व्याख्यानमां कत्युं वे जे याचारांगादिक जे अंगप्रविष्टश्रुत बे ते ग धरें कने श्रावश्यकादिक अनंगप्रति ने ते स्थविरकन वे जो कदेशो के श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रने जो याचार्यकृत कहियें तो एनां नाप्यनि युक्त्यादिक पण जोइयें त्यां कहे बे के आवश्यक दशवेकालिकादिक दश शा स्त्र विना शेष बीजां शास्त्रने नियुक्तिनो नाव के खने नववाइ प्रमुख उपांगने तो वली चूर्मिनो पण नाव ले माटे गुं ते सिद्धांत नथी ? श्रावक पडिकमण सूनी विक्रम संवत् १९८३ ना वर्षमां श्रीविजयसिंहसूर तथा श्रीजिनदेव सूरिकृत चूर्णि नाप्यादिक पण बे ने वृत्ति टीकातो वली घणी ने एका माटे श्रुतस्यविरने करवेकरीने सघना व्यतिचारनो विशोधक होजाथी ए श्रावकप डिक्कम सूत्र ते सर्व आवकें निश्चयें खादर जेम साधु पोता नां पडिकमणसूत्र ने यादरे ने तेम भावकें पण पडिक्कमणासूत्र यादर. हां निनिवेश मिथ्यात्वना धली कदाग्रही लोको ते वजी एम कहे केए वंदितु नामे श्रावकनुं प्रतिक्रमणसूत्र ते तो पालथी कोण जाणे को माटे ए मानवा योग्य नथी एवं जे कहे बेतेनी गुंजाली येशी गति यो जेमाटे ते सर्वप्रणीत मार्गने मरडवाथकी अनंतां दुःख पामो यतः ॥ रन्नो श्राणनंगे, इक्कचिय निग्गहो हवइजोए ॥ सङ्घन्नु खाए जंगे, ते सोनिग्गहं लहइ ॥ ॥ जावार्थ :- राजानी श्राशा जांगेथके लोकमic एकवार निग्रह याय एटले दंग याय परंतु जे सर्वज्ञनी याज्ञानो जंग करे तो अनंती वार निग्रह पामे दंग पामे ॥ १ ॥ कोकवली एम कहे बे के श्रावकना वंदिता पडिक्कमणा सूत्रनो वि चार बने तो वेगलो रहो पण प्रथम तो श्रावकने पडिक्कमणुं करवुं ते पण क्यों कयुं बे ? माटे वंदितासूत्रनो विचार तदपि प्रलापमात्र जाणवुं. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सदित. ४५७ गुरु कहे ले के सिद्धांतमांहे श्रावकने पडिक्कमणुं करवानो पात अनेक काणे कह्यो ने प्रथमतो श्रीअनुयोगधारमांहे देखिये यें. यतः॥ सेकित्तं लोउत्तरिथं जावावस्सयं जं समयोवा समणिवा सावळवा साविधावा त चित्ते जाव उनकालं आवस्सयं करे इति तथा वली एज अनुयोगधारमा हे ए गाथा . यतः ॥ समणेण सावएणय, अवस्स कयवयं हवः जम्मा ॥ अंतो अहोनिसस्स, तम्हा श्रावस्सयं णाम ॥ १ ॥ नावार्थः-ते केम लोकोत्तर नाव आवश्यक जे साधु अथवा साध्वी श्रावक अथवा श्रावि का ते तञ्चित्त एवां थयांथकां ननयकाल आवश्यक करे. तथा तिहांज कह्युजे जे साधुयें श्रावकें अवश्य करीने पडिक्कमणुं करवू होय जेमाटे य होरात्रमांहे अंते कराय तेमाटे एर्नु आवश्यक एवं नाम ले ॥ १ ॥ तेमज नवांगनी टीकाना करनार श्रीअनयदेवसूरि तथा कलिकालमां सर्व सरखा श्रीहेमचंशचार्य प्रमुख पूर्वाचार्य रचेला एवा जे पंचाशक वृत्ति, योगशास्त्र प्रमुख अनेक ग्रंथ तेनेविपे श्रावकने पडिक्कमणुं सादा तपणे कडं डे ते सर्वत्र प्रसिभ जे. ते पडिक्कमणाना पांच नेद ने एक देवसिक, बीजो रात्रिक, त्रीजो पा दिकं, चोथो चातुर्मासिन अने पांचमो सांवत्सरिक ए पांच पडिक्कमणाना विधि महारा करेला विधिकौमुदिनामा ग्रंथथकी जाणजो. __ए वंदितासूत्रनो बालावबोध जगतमां विख्यातिवंत एवा श्रीतपगढ बि रुदना धारक श्रीजगचंसूरीश्वर होताहवा तेमने पाटें अनुक्रमें श्रीदेवसुंद रसूरि उत्तमोत्तम थया तेमना पांच शिष्य हता तेमांहे पहेला शिष्य श्रीज्ञा नसागरसूरीश्वर गुरु ते विविध प्रकारनी अवचूरीरूप लहरीना प्रगट करवा थकी साचा नामना धारक थया जेणे आगमना विविधप्रकारना आलावा नया एवा. ते सूरिना ६६ होताहवा तथा बीजा श्रीकुलममनसूरी,त्रीजा श्रीगुणरत्ननामा सूरि,जे पदर्शनवृत्ति, क्रियारत्नसमुच्चय, विचारसंग्रह इत्या दि ग्रंथोना करनार थया, अने जे श्रीनुवनसुंदरसूरि आदिने विपे विद्यागुरु पणाने नजता हवा तथा चोथा श्रीसोमसुंदरसूरि प्रवरगुरु चोथा गुरुनाइ महोटा महिमाना धणी थया जेथकी धर्मनी के प्रकारे अत्यंत संतति श्रेणी थडे तथा वली यतिजितकल्पनीकृत्तिना कारक एवा पांचमा गुरुनाइ ५८ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४यत जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. श्रीसाधुरत्नसूरीश्वर प्रवर थया, जेणे मुजसरखाने पण हाथै ग्रहण करीने संसारकूपमाहेथी बाहेर काढ्यो ए पांच शिष्यनां नाम कह्यां. ते पूर्वोक्त श्रीदेवसुंदरगुरुने पाटे श्रीसोमसुंदर नामा गणिना इंश ते यु गप्रधाननीपेरें जयवंता वर्त ने तेमना पांच शिष्य महोटापुरुष निरपेदी, स हस्त्रनाम स्मृतिप्रमुख कार्येकरीने श्रीमुनिसुंदरसूरि जेवा गुरु प्राचीन आचा र्यना महिमाना धारक एवा श्रीजयचंइसरि थया तथा संघना अने गहना कार्यने करवा उजमाल एवा मुनीं श्रीनुवनसुंदरसूरि प्रधान तथा दूरवि हार करी गगने उपकारना कारक एकांगपणे एकादश अंगना धारक श्री जिनसुंदरसूरि निग्रंथ अनेक ग्रंथना कर्ता तेमना शिष्य श्रीजिनकीर्नि गुरु होताहवा ते गुरुना प्रसादथकी विक्रम संवत् १४५६ नावर्षे श्रीरत्नशेखर गणि कार्यनी संतुष्टियें ए वंदितासूत्रनी वृत्तिने करता हवा. जेम दधिमंथने करी अर्थात् दधिवलोववाना रवैयायें करी तेमांथी उत्क ट साररूप माखण शोधाय तेम चारवेदना समुह रूप अने पंमितोने विषे इसरवाएवा लक्ष्मीनश्नामा सूरिये प्रयत्नेकरी आ वृत्तिने शोधी. तथा प्र शंसाना नीपजावनार गणिसत्यहंसपंमितें गुरुनक्तियेंकरी या टीकानेविषे प्रथमदर्शने सांनिध्यपणुं कर्तुं एटले प्रथम लखावी,ए टीकार्नु नाम अर्थदी पिका के तेना अनुष्टुपश्लोक, मान ६६५४ महोटी चूर्तीि विविधजा तिनी वृत्ति तेने अनुसरीने अल्पमतिना धणी एवा में ए टीका करी ए मांहे जे उत्सूत्र होय ते पंमितें शोध ए वृत्ति घणाकाल जय पामो. श्रीतपागबनायक परमगुरु श्रीसोमसुंदरसूरि तेना शिष्य श्रीनुवनसुंद रसूरि तेहना शिष्य नपाध्याय श्रीरत्नशेखरगणियें आ श्रावप्रतिक्रमणनी अर्थदीपिका नामें टीका करेली तेनी उपर कोई पंमितने हाथे टबो नरेलो हतो ते टबानी प्रत श्रीधमदावादना रहेवाशी श्रावक रवचंद जयचंदनी स्थापन करेली विद्याशालाना नंमारमा हती ते प्रत आही श्रीमुंबश्मां विद्याशालाना आडतीया श्रावक जवेरी बोटालाल ललुनायें वांचवा सारु मगावी हती तेमनी पासेथी हुँ मागी लाव्यो. तथा एज पूर्वोक्त अर्थदीपिका टीकाने अनुसारे ते अर्थदीपिकानो ना वार्थ लइने श्रीगुरुनी कृपाथकी श्रीजिनविजय पन्यास प्रमुख सकलसंघ ना कह्याथकी श्रीशांतिनाथनगवानना प्रसादथकी पंमित हर्ष विजयगणियें Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४५ए बालजीवोना नपकारने अर्थे वालावबोध कस्यो हतो ते कालावबोधनी प्रत एक महारीपासे हती ए बे प्रतो यद्यपि अत्यंत अशुभ सखेली दती तो पण बे प्रतो होवाथी मने महारी अल्पबुद्धिने अनुसारें कांक उतारो करवा ने अनुकूल थयो ते उपरथी मात्र बाल जीवोने पडिक्कमणानो मार्ग किंचित् समजमां आववा माटेा ग्रंथ बापी प्रसिद कस्यो यद्यपि पंमित जनो ने तो टीका वांचवीज उपयोगी ले परंतु बालबुद्धिवाला जीवोने आ महारी पेली प्रत वांचवाथी जो कांपण शैली समजाशे तो ते पुरुषो, रुचित दिपामवाथी वली ए ग्रंथने गुदरीतें समजवामाटे ए ग्रंथनी टीकानी गुरु लखेली प्रत मेलवीने तेने वांचवा सांजलवानो उद्यम करशे एवा हेतुथी में आ ग्रंथ बाप्यो बे ते बापतां थकां महारे हाथे जे कां कानो मात्राथ दर पदगाथा श्लोक वगेरे न्यूनाधिक लवायुं होय तेमज महा। अल्पबुधिने लीधे समजणमा कोश्वात बराबर न आव्याथी विपरीत लखायुं होय ते सर्व श्रीअरिहंतनी साखे, सिनी साखे, आचार्यनी साखे, उपाध्यायनी साखे, साधुजीनी साखे, सम्यक्दृष्टि देवतानी साखे, चतुर्विध श्रीसंघनी साखे, तथा महारा पोताना आत्मानी सारखे, मिजामि मुक्कडं. हे पंमितजनो ! तमे सर्वे गुणग्राहिलो माटे प्रमादी तथा यज्ञ एवोढुं तेनी उपर कृपाराखी बालजीवो उपर उपकारबुद्धियाणीने ए बालावबोध शोधजो में आ महान ग्रंथोने प्रसिह करवानो प्रारंन करेलो हे ते बालकनी रमत माफक समजीने मुज बालक ऊपर मावित्रनी पेठे प्रेम राखीने ग्रंथ शोधन करवानो प्रयत्न जो चालु करशो तो हमणां जेकांश महाराथी अशुश्ता वगेरे दोषो रही गयेला हशे ते फरीथी जेवारें ए ग्रंथो बपाशे तेवारे गुरू थजशे तेतोआप समजो बा. ग्रंथाग्रंथ १२००० इत्यलं किंबाहुना सुज्ञेषु. SE ॥ इति श्रीश्रावकप्रतिक्रमणसूत्रनी अर्थदीपिका नामे टीकानो संदेप बालावबोध कथा सहित समाप्त ॥ था म E BREAS Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 जेनस्थात्रकोप नाग चोयो // अथ नोकरवालीनी सद्या // ढाल // एक नारी रे धर्मतणे धूरे जाणीयें, तस महिमा ने मनरंगें व खाणीयें। तेह नारी रे आपणडे मन आणीयें, षटदरशने रे तेह पण सघले मानीये // 1 // चलि ॥मानीये पण नारी रूडी,नही कूडी ते वली // करकमल कीजें काज सीजें, ध्यान धरीयें मनरुली // // त्रिनुवन्न मो हे रूप शोहे, देव दानव कर चंडी॥ नोकरवाली मुहपतीने, आदि पुरु आदरी // 3 // ढाल // जिनशासने रे नोकरवाली सदु मुणे, परशासने रे जपमाली कही सवि गणे॥ तुरकाणे रे तसबीर बोले मनरुती, अद माला रे नाम कहीयें चोथु वली // 4 // चाल / नाम लीजे काज सीजे, लोक बजे अतियणो // दरिसण दी। फुःख नीते. पाप जाये नवनणो / 5 // हरि दर पुरंदर सकल मुनिवर, हाथे रूडी दीसए // नोकरवाली हाथ लेता, देव दाणव तूसए // 6 // ढाल // एक शोहे रे मूरति मोहन वे लडी, शोहामणी रे चतुरपणे ते गुण चडी / / दोय चनपन्न रे मली करे धोतरी, ध्यानधरी रे तरीयें नवसायर वली // // चाल // संसार तरीयें ध्यान धरीयें, तरी नवसायर वली, नोकरवाली ध्यान धरतां, घु क्ति पामें केवली // सवि आस पूरी कर्मचूरी, सहेजें शोहे मनरुली // क हे कवियण सुणो लोको, आराधो एकमन वली // 7 // इति नोकरवाली. नास समाप्तः // // अथ प्रस्ताविक सुनाषित दोहा // सुणो वात सुविचार, एकमें अचरिज दीठी, नारी सात दस खडी, पुरुष त्रण चारे बैठी // नारि न बोले चार, चार चिहुँ चरणे दिति, एकण ऊपर आइ, नारी नवसत्त बश्ती, तिणकन्हे ले चार नर चिहुँदिसें, तिन्हि पुरुष कर कर फिरे, कहो अरथ सत्तर नारी,अनें सात पुरुष रामत करे // 1 // __कुसुमें मीठो अन्न, उदक मीठो ऊन्हाले, मीठो चूण रसोइ, वस्त्र मी ठो सीयाले // मीठो प्रेम पियार, वात मीठी अगदीठी, मीठी दूधनी वा त, माहमीठी अंगीठी // मीठी जह गरज दुये, मीठो रस तंतीतणो॥ कवि गद्द कहे कन्हसिगलाह, सुत संगम मीठो घणो // 2 // . . Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु शिष्य प्रश्नोत्तर बत्रीशी. 361 अथ गुरुये शिष्यने पूजेला प्रश्नोत्तर. // दोहा // पान सडे घोडो अडे, विद्या विसरी जाय ॥अंगारे रोटी जले, कदु चेला कुण गाय // 1 // गुरुजी फेरी नहीं // मोटूं मोती मूल कम, सरवर पीठ न थाय // रावत नागे राडमें, कहु चेला कुण गय // // गुरुजी पाणी नहीं // सरवर फूटुं जल गयुं, परजा रूठी जाय // लियो शाक अमथो रह्यो, कटु चैला कुण ठाय // 3 // गुरुजी पाल नहीं / उना त्राठी थरहरे, चरखे रुत न थाय // महिषी दूधे उतरे, कदु चेला कुण नाय॥४॥ गुरुजी चारी नहीं॥ पाक सांखि नूखें मरे, नेंस गइ बटकाय // लखतां उल वांकी लखी, कटु चेला कुण नाय // 5 // गुरुजी पामी नहीं // घोडो घोडि न हथी, चोर ढंढोल्या जाय // आइ कामणि फरगइ, कदु चेला कुण गाय // 6 // गुरुजी जाग्यो नहीं // घोडे घास न बोटि यो, चाकर रूठो जाय // बते पलंग इंसूए, कदु चेला कुण गय // 7 // गुरुजी पायो नहीं // कहीं धूयो न नीसरे, म्होला वाय न जाय // तीरा मन्बी वह गइ, कटु चेला कुण गय // 7 // गुरुजी जाली नहीं // कापो तूटे बल घटे, खीचड लूरवो खाय // कामण नेह वधे नहीं, कद चेला कुण नाय // ए // गुरुंजी चोपड नहीं // एकांतरे दल वहे, पग अलवा पो जाय // ढाढी गावे एकलो, कद चेला कुण ठाय // 10 // गुरुजी जोडी नहीं // घेरथकी घोडी गइ, गश्यण दोश् गाय॥ नारी शणगार सज्यो नहीं, कहु चेला कुण गाय // 11 // गुरुजी वाली नहीं // वपियो पियु पियु क रि रडे, खेती सूकी जाय // पाल पंथि पालो फिरे, कदु चेला कुण गय // 12 // गुरुजी पाणी नहीं // घर आएयो लूटो पशु, वात दुवे विकथा य // त्रिय मस्तक लूटे फिरे, कदु चेला कुण नाय // 13 // गुरुजी बांध्या नहीं // राजा राज विणस्सिन, दीवे तेज न थाय // मोनी बेग सासग्यो, कदु चेला कुण ठाय // 14 // गुरुजी दीवेल नहीं // मूकी वस्तु जडे नहीं, चोटऊ नूली जाय // लिखतां खोलूं लिख गयो, कदु चेला कुण नाय / // 15 // गुरुजी सुरत नहीं // घर आयो सऊन गयो, घोडे शेड न था य // गाडि बंध ढीला पड्या, कदु चेला कुण गय // 16 // गुरुजी ता एयो नहीं // महल नला शोने नहीं, गामज खावा धाय // हाट श्रेणि Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. शोने नहीं, कहु वेला कुण गाय // 17 // गुरुजी वस्ती नहीं // दान वात जाणे नहीं, देरा हार न जाय // तप कस्यो निरर्थक गयो, कदु चेला कुण गाय // 17 // गुरुजी नाव नहीं // सजान लागे उर्जना, मात पि ता न सुहाय // घरत्रीया रूती फिरे, कदु चेला कुण नाय // 15 // गुरु जी हेत नहीं // दीवे पतंग पी करे, परणि प्रदेशां जाय // अणघटता करे घणा, कदु चेला कुण ताय // 20 // गुरुजी लानें // बते पलंगे नुई सुए, घडो बलक्यो जाय // बते मगले टाढें मरे, कदु चेला कुरा गय // 21 // गुरुजी नस्यो नहीं // मोटै सहर वशे नहीं, काया खीज था य // अड्यो दल्न पाटो हटे, कदु चेला कुण ठाय // 22 // गुरुजी राजा नहीं // घोडो तो दूर्बल थयो, चाकर रूठो जाय // निलुक तो नूंमो वदे, कदु चेला कुण नाय // 13 // गुरुजी पाम्यो नहीं // निज त्रीया अडु ए फिरे, परव ज कोरां जाय // मोटा सुत वांढा फिरे, कदु चेला कुण गय // 24 // गुरुजी संपति नहीं // खेतर चोरें नेलियो, गामे चोरी था य // नाकि दाण आवे नहीं, कदु चेला कुण गय // 25 // गुरुजी चो की नहीं // हाथ चूडि शोने नहीं, अमलह चढा न थाय // प्राण्यो के र खपे नहीं, कहु चेला कुंण नाय // 26 // गुरुजी रंग नहीं // आंबो तो खाटो लगे, गुंबडे पीडा थाय // नखो घडो फाटी गयो, कटु चेला कुणताय // 27 // गुरुजी पाको नहीं // गाये पण शोने नहीं, कृवे नीर न थाय // नवमो ग्रह शोने नहीं, कदु चेला कुण नाय // 28 // गुरुजी सीर नहीं // झाडें फल नवि नीपजे, त्रीया गर्न न थाय // वाडि नली शोने नहीं, कदु चेला कुण गय // 25 // गुरुजी फूल नहीं // घर खर च वाध्यां घणां, वेपार लान न थाय // लेणुं पालुं जडे नहीं, कदु चेला कुण ठाय // 30 // गुरुजी अविचास्यां घणां करे // हारें तालुं न घडे, मं त्र सिदि नवि थाय // दीवि वस्तु थाये नहीं, कहु चेला कुण गेय // 31 // गुरुजी कुंची नहीं // नारि नेत्र शोने नहीं, अदर फिका जवाय // घडा उमाट शोने नहीं, कहु चेला कुण गय // 32 // गुरुजी शाम नहीं / // इति गुरुशिष्य बत्रीशी समाप्त // Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेचवाना गपेला पुस्तकोनी यादी. 363 श्रीमुंबमध्ये मांमवीबंदर उपर शाकगलीने नाके होठ नरसी नाथाना नवा घरमां बीजे मजले श्रावक शा जीमसिंह माणकनी पासेथी देवनगरी लीपिमां बापेलां पुस्तको वेचातां मलशे तेना नाम तथा निनावलनी यादी. गुजराती लीपिना पुस्तक एमां दाखल कीधा नथी. पुस्तकोनां नाम. किम्मत. पुस्तकोनां नाम. किम्मत. रु.आ. रु.आ. 1 प्रकरणरत्नाकर भाग वीजो. .... 6-4 23 श्रीनेमीश्वर भगवाननो रास. .... 2-4 2 प्रकरणरत्नाकर भाग त्रीजो. .... 6-4 24 अढीद्वीपना नकशानी हकीकत. 2-0 3 प्रकरणरत्नाकर भाग चोथो. .... 6-4 25 नवतत्त्वना प्रश्नोत्तर कुंवरवि०कृत. 2-0 4 जनतत्त्वादर्शग्रंथ. .... .... 5-0 26 देवचंदजीनी चोवीशीनोबालावबोध१-८ 5 छ कर्मग्रंथ बालावबोधसहित..... 5-0/27 सिंदूरपकर बालावबोध, टीका, भा 6 प्रवचनसारोद्धार ग्रंथ. .... .... 5-0 पा, अने कथा सहित तथा वीतरा 7 तपगच्छीय श्रावकनां पांचे पडिक्कम ग स्तव बालावबोध सहित. .... 1-8 ___णां सविस्तर अर्थसहित. .... 3-828 चंदराजानो रास. .... .... 1-8 8 अंचलगच्छीय श्रावकना पांचे पडि 29 पयूषणादिक बारपर्वोनी कथाओ. 1-8 कमणा सविस्तर अर्थसहित. .... 3 8/30 पूजासंग्रह अढार पूजाओनो संग्रह. 1-8 .. ममरादित्य केवलीनो रास. .... 3-8/31 छूटा बोलोनो थोकडो..... .... 1-8 10 सुभापितरनाकर भांडागारम्..... 3--8 32 श्रीजिनबिंब प्रतिष्ठानो विधि..... 1-8. 11 जैनप्रबोध पुस्तक 700 स्तवन. -033 तपगच्छनां पांचपडिक्कमणांमूलपाठ.१-४ 12 सज्झायमाला 800 सज्झायो..... 3-034 समकेतमूल वारव्रतनी टीप. .... 1-4 13 श्रावकना बारव्रत कथासहित..... 3-0 35 लघुप्रकरण संग्रह. .... .... ?-4 14 पृथ्वीचंद अने गुणसागरनुं चरित्र.२-८ 36 भुवनभानु केवलीनो रास. .... 1-4 15 अध्यात्मकल्पद्रुमादिक अर्थसहित. 2-837 कर्पूरपकर वालावबोध कथासहित. 1-4 16 कल्पमूत्रनो वालावबोध. .... 2-8 38 कल्पसूत्र मूलपाठ. .... .... 1-0 17 वीरस्तुतिरूप हुंडीनुं स्तवनादिक. 2-8 30 बावीश बोलनो थोकडो.... .... 1-0 18 सम्यक्वखरूपस्तवनादिक- .... 2-8 40 खडतरगच्छना पांच पडिक्कमणां. 1-0 10 जयानंद केवलीनो रासं. .... 2-8 41 हरिबलमच्छीनो रास..... .... 1-0 20 श्रीशांतिनाथ भगवाननो राम..... 2-8 42 महाबल मलयसुंदरीना रास. .... 1-0 21 सारखतव्याकरण श्रीचंद्रकीर्तिमुरि 43 मागधी भाषानुं व्याकरण. .... ?-0 कृत महोटी टीका सहित. .... 2-8 44 हीतशिक्षानो राम. .... .... 1-0 22 श्रीपालनो रास संपूर्ण अर्थसहित. 2-4-45 विवेकविलास ग्रंथ अर्थसहित..... 1-0 & 0 0 0 0 0 0 0 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 देवनगरी लिपीमां गपेला पुस्तकोनी यादी. रु.आ. 0 0 0 0 0 0 I 0 पुस्तकोनां नाम: किम्मत. पुस्तकोनां नाम. किम्मत. रु.आ. 46 खडतरगच्छीय तेरपूजानो संग्रह. 0-12 60. उत्तमकुमारनो रास. .... .... 0-4 47 नवतत्त्व वालाववोध महित. ".....12 70 रनचूडव्यवहारीनो रास. .... 0-4 48 रनपालनो रास.... .... .....10.71 परदेशी राजानो रास...... .... .-4 49 चतुःस्तुतिनिर्णय...... ..... ....010 72 जीविचारनी वालावबोध. .... 0-4 50 गोतमपृच्छा दृष्टांतिक कथासहित. 010 73 नवस्मरण मूलपाठ. .... 0-4 51 स्तवनावली भाग पहेलो. .... 0-8 74 जिनदास श्रावकनां करेलां स्तवन.०-४ 52 मानतुंग राजा ने मानवतीनो राम. 0-8/75 माणिभद्रादिकना छंद. 0-4 53 चिदानंदजीकृत स्वरोदयादिक ग्रंथ.०-८ 76 देवमिराई पडिकमj. 0-4 54 भक्तामरस्तोत्र बालाववोधसहित. 0-877 चेतनकमनी लडाइनो रास आदिक.०-४ 55 आनंदघनजी चिदानंदनी बहुतेरियो.०-७१७८ शनिश्चरादिकना छंदोनो संग्रह. 0-3 56 चंदनमलयागिरिनो रास. .... 0-6 79 रात्रिभोजननां राम. 57 अभयकुमारना रास. .... .... 0-6 80 धर्मबुद्धि पापबुद्धिनो राम. -3 58 दंडक लघुसंघयणी बालावधि. 0-681 शृंगारंवैराग्यतरंगिणी. 59 हंसराज बच्छराजनो रास. .... 0-6 82 लीलावती मैयारीनो रास.. 60 कालज्ञान अर्थसहित. .... .... | 83 मयणरेहा तथा कानडकठीयाराना ... 61 दृष्टांतशतक बालावबोध. .... 0-6 84 कर्मविपाक जंबपृच्छानो राम. 0.2 62 मंगलकलशनो रास. .... .... 0-5 85 ढूंढियानुं सामायिक पडिक्कमj. -- 63 चार प्रत्येक बुद्धनो रास. .... 0-586 देवकीजीना छ पुत्रनो रास. 0-2 64 हरिचंदराजानो रास. .... .... 0-5 87 अंजना मतीनो रास. -2 65 श्री शत्रुजय उद्धारादिक तथा रास.०-५ 88 पांत्रीश बोलनो थोकडो. 0-1 // 66 कल्याणमंदिर बालावबोध सहित. 0-89. श्रावक लालाजी रणजितसिंघजी 67 आतमारामजीकृत पूजा संग्रह...... .-4 कृत आलोयणा. -1 // 68 कयवन्ना शेठनो रास...... .... 0-1.90 स्नात्रपूजा देवचंदजीकृत. .-1 ए ऊपर लखेला पुस्तको सिवाय श्रीशचंजयादिक महोटा महोटा ती थोना रंगीन नकसा, तथा नारकी अने स्वर्गादिकना रंगीन चित्रोनी बु को, तेमज श्रीमुरसिदा बाद निवासी बाबु साहेब राय धनपति सिंह प्र तापसिंहजी बाहादूरनां बापेलां श्रीयाचारांगादि अनेक सूत्रो आदिक बी जा पण घणां पुस्तको वेंचतां मलशे ते सर्वनां नाम तथा नित्रावल पुस्त कोनुं सूचीपत्र मगाववाथी जाणवामां आवशे. 0 0 0 0 0 0 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- _