________________
अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ६७ नावने सर्व प्रमाणे करीने जाण्या , सातनय प्रमुखनो विधि जाण्यो , ते विस्ताररुचि जाणवी. ___दर्शन शान चारित्रने विषे, तप तथा विनयने विषे, समिति गुप्तिने विषे, एम समस्त क्रियाने विषे नावथी रुचि रखाय,ते कियारुचि जाणवी. ___ एजेणे करी कुदृष्टि पाखंमीनी कुदृष्टि ग्रहण कराय नहिं, ते संदेपरुचि.
१० आगमना जाणपणायें करी बीजा-शेष पदार्थ जे सांख्या दिकनां प्रवचन शास्त्र, तेने विषे चिलायति पुत्रनी पेरें अननिग्रहीत ,अनिग्रहीत नथी वली अस्तिकायधर्म, श्रुतधर्म,चारित्रधर्मने विषेज वीतरागना वचन प्र माणेज सद्दहणा करे, ते समकेतरुचि जाणवी. ए समकेतनुं स्वरूप कह्यु. हवे ए परमरहस्यनूत समकेत ले तेने विपे शंकादिक पांच अतिचार नं
मवा, ते कहेवा माटें बही गाथा कहे . ॥ संका कंख विगिना, पसंस तह संयवो कुलिंगी
सु॥सम्मत्तस्स श्यारे, पडिक्कमे देसियं सवं ॥६॥ अर्थः-प्रथम (संका के०) संदेह ते वे प्रकारनो , एक सर्वथकी सं देह अने बीजो देशथकी संदेह. तिहां सर्वथी संदेह ते गुं? तो के धर्म के के नथी? अथवा जैनधर्म सत्य ले के असत्य के ? इत्यादि सार्वविपयि क शंका जाणवी. अने देशविषयिक शंका, ते एकेक वस्तुना धर्मगोचर,ते जेम जीव तो डे परंतु ते सर्वगत डे के असर्वगत डे ? अथवा पृथ्वी आदि कने विषे जीवपणुं केम घटे? तथा निगोदादिक केम घटे ? तथा हमणां ने कालें चारित्रियाने विषे चारित्र ने किंवा नथी ? इत्यादिक बे प्रकारनी जे शंका ते श्रीवीतरागोक्त जे तत्त्व,तेने विषे अप्रतीति असदहणारूप समकित ने दूषण पमाडे ले. इहां केटलाएक हेतुगम्यनाव जे. जेम के वनस्पतियादि कने विषे सजीवपणाना प्रयोग कहे . वनस्पति सचेतनवंत ले जलादिक आहारें वृद्धि पामे जे आहार विना सूकाइ जती देखाय , मनुष्यादिकनी पेरें चय अपचयने पामे . तेनुं दृष्टांत श्रीआचारांगसूत्रमा कयुं . ते जेम केः- मनुष्यनो पण उत्पत्ति धर्म , अने वनस्पतिनो पण नत्पत्तिधर्म . मनुष्यना शरीरनो वृद्धि पामवानो स्वनावडे, तेम एनो पण ,मनुष्यनुं श रीर सचेतन , तेम एनुं पण शरीर सचेतन , तथा मनुष्यना शरीरने में