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________________ ច जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. दवाथी तेमा रहेला हस्तादिक कुमलाय , तेम वनस्पतिनां पण शाखा दिक वेदवाथी ते पण कुमलाइ ज सूका जाय , मनुष्यनुं शरीर अन्न पानादिक थाहार लीये , तेम वनस्पतिनुं शरीर पण उदकादिक आहार लीये . तथा मनुष्यनुं शरीर अनित्य अशाश्वत , उस्कृष्टुं त्रण पत्योप मायु जोगव्या पनी अवश्य नाश पामे , तेम वनस्पतिनुं शरीर पण थ नित्य अशाश्वतुं . तथा मनुष्यतुं शरीर श्ट आहारें वृद्धि पामे अने अ निष्ट आहारें हानि पामे , तेम वनस्पति, शरीर पण थाय ने तथा म नुष्यना शरीरें रोगोत्पत्ति पांमुरपणुं पामवानो स्वनाव होय , तेणें करी विविध परिणाम नजे . तेम वनस्पतिनुं शरीर पण विविध रोगना वशथ की विविधपरिणामने नजे ,तेमाटे वनस्पतिमा सचेतनादिनाव हेतुगम्य . वली यतिने चारित्रनो पण तो जाव ले. जेमाटें दुप्पसह आचार्यसुधी चारित्र ने, जगवत्यादिकसूत्रने विष कह्यु , के आज्ञा सहितने चारित्र हो य अने आज्ञा रहितने चारित्र न होय माटें व्यामोह न करवो. तथा निगोदादिक संबंधि केटलाएक नाव केवनिगम्य , कह्यु ले के लो कमां असंख्याता गोला बे, ते एकेक गोतामां असंख्याती निगोद , वली एक निगोदने विषे अनंता जीव ,को पण कालें केवली जगवाननें कोई पूडे, तो एक निगोदमां जेटला जीव जे तेनो अनंतमो नाग मोदं गयो ने, एवं केवली कहे, माटे हां हेतुदृष्टांतादिक नथी. आझायें ग्रहवा योग्य पदार्थ डे ते आदायेंज ग्रहण करवा. श्रीजिननगणि क्षमाश्रमण पण कहे , के किहांएक मतिने पुर्वलप णे जो तथाविध आचार्यनो विरह होय, अथवा झानावरणीय कर्मना उद यथी जिहां हेतु उदाहरण न पामे, वारंवार पूछे थके प्रतिबोध न पामे,तो पण जाणे जे श्रीसर्वझनो मत खरो . तथा तेमज बुहियें करी चिंत जे परमाणुरूप परने अनुग्रह करवाने तत्पर, जगतने विपे प्रधान, राग शेष मोहने जीतनारा एवा जे जिनेश्वर ते अन्यथावादी नज होय सत्यनापीज होय. माटे श्रीजिनेश्वरना वचनमां शंका न करवी. हां शंकाने विपे दृष्टांत कहे जेः- कोक वे पुरुषं घणा कालसुधी सि ६ पुरुषनी सेवा कीधी, त्यारें तेणें प्रसन्न थश्ने, बन्नेनी कोटमा एकेकी मंत्राधिष्टित कंथा नाखीने कह्यु के, माससुधी निरंतर रात्रिदिवस ते कं
SR No.010249
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1891
Total Pages477
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size63 MB
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