Book Title: Gita Darshan Part 07
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ বানি भाग सात ओशो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म नुष्य जाति के इतिहास में उस निगूढ़ तत्व के संबंध में जितने भी तर्क हो सकते हैं, सब अर्जुन ने उठाए; और शाश्वत में लीन हो गए व्यक्ति से जितने उत्तर आ सकते हैं, वे सभी कृष्ण ने दिए। इसलिए गीता अनूठी है। वह सार-संचय है, वह सारी मनुष्य की जिज्ञासा, खोज, उपलब्धि, सभी का नवनीत है। उसमें सारे खोजियों का सार-अर्जुन है। और सारे खोज लेने वालों का सार-कृष्ण हैं। कृष्ण एक गहन समन्वय हैं। उन्होंने भारत में जो भी जाना गया था तब तक, उस सब को गीता में समाविष्ट कर लिया है। उनका किसी से कोई विरोध नहीं है। वे सभी के भीतर सत्य को खोज लेते हैं। इसलिए गीता सार-ग्रंथ है। वेद अगर भूल जाओ, तो चलेगा; क्योंकि जो भी वेद में सार है, वह गीता में आ गया है। महावीर विस्मृत हो। जाएं-चलेगा। क्योंकि महावीर का जो भी सार है, वह गीता में आ गया है। सांख्य-शास्त्र न बचे-चलेगा। गीता में सारी बात महत्व की आ गई है। अगर भारत के सब शास्त्र खो जाएं तो गीता पर्याप्त है। कोई भी प्रज्ञावान पुरुष गीता से फिर से सारे शास्त्रों को निर्मित कर सकता है। गीता में सारे सूत्र हैं। गीता निचोड़ है। __गीता अकारण ही करोड़ों लोगों के हृदय का हार नहीं हो गई है। -ओशो Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE I PURUSHING SNOW Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन भाग सात अध्याय 14-15-16 ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय चौदह 'गुणत्रय-विभाग-योग', अध्याय पंद्रह 'पुरुषोत्तम-योग' एवं अध्याय सोलह 'दैव-असुर-संपद-विभाग-योग' . पर दिए गए पच्चीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन। Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সবিতুলি अध्याय 14-15-16 भाग सात ओशो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन : स्वामी दिनेश भारती, स्वामी प्रेम राजेंद्र संपादनः स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी डिजाइन : मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या, स्वामी सत्यम विभव डार्करूम ः स्वामी प्रेम प्रसाद संयोजनः स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना मुद्रण ः टाटा प्रेस लिमिटेड, बंबई प्रकाशकः रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पूना कापीराइट ः ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन सर्वाधिकार सुरक्षितः इस पुस्तक अथवा इस पुस्तक के किसी अंश को इलेक्ट्रानिक, मेकेनिकल, फोटोकापी, रिकार्डिंग या अन्य सूचना संग्रह साधनों एवं माध्यमों द्वारा मुद्रित अथवा प्रकाशित करने के पूर्व प्रकाशक की लिखित अनुमति अनिवार्य है। विशेष राज संस्करणः मार्च 1993 प्रतियां: 3000 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मणि-कांचन संयोग मणि-कांचन संयोग शायद इसे ही कहते होंगे। ग्रंथों में ग्रंथ गीता और व्याख्याताओं में व्याख्याता ओशो। व्याख्या भी सिर्फ एक विद्वान की नहीं, सिद्ध की! इसलिए गीता-दर्शन के इन अध्यायों को पढ़ना जैसे समुद्र और उसके भीतर बहती गंगा की धारा में एक साथ दोहरा अवगाहन करना है। इस अवगाहन में सिर्फ गीता के उपदेश-रत्न नहीं मिलते, न सिर्फ ओशो का प्रसिद्ध उक्ति-सौंदर्य; गीता के माध्यम से ओशो की उद्भट प्रतिभा और प्रज्ञा संसार के लगभग हर प्रमुख धर्म और उसकी विभूतियों को जोड़ने वाले सूत्र को आपके हाथ में थमा देती है। वह सूत्र आध्यात्मिक अनुभूति का है, साधना का है, साक्षित्व का है, वहां आप चाहे जिस राह से पहुंचे। ___ इन अध्यायों के श्लोकों-सूत्रों की एक-एक किरण ओशो की प्रज्ञा के प्रिज्म से गुजर कर विचार, अनुभूति और कर्म के ऐसे इंद्रधनुष बनाती है कि कोई न कोई रंग आपको बांध ही लेता है। एक ही सार को वे इतने विभिन्न सुगम और सरस तरीकों से कहते हैं कि कोई न कोई रंग-रश्मि आपके भीतर उतर ही जाती है। एक और विलक्षणता है इस प्रिज्म से निकली सप्तरंगी रश्मियों की। गीता में भले ही तर्क और ज्ञान की सीढ़ियां हैं, विचार का क्रमिक विकास है, ओशो की व्याख्या ऐसी सीधी, रेखीय नहीं, वर्तुलाकार है। आप कहीं से पढ़ना शुरू कर दें, ऐसा नहीं लगेगा कि पिछला पढ़े बिना यह समझ में नहीं आएगा। गीता में विचार की सुतर्कित धाराएं-उपधाराएं ओशो की व्याख्या की विराटता में असीम, और इसीलिए तार्किक विकास से मुक्त, तर्कातीत, सुगम और सहज हो जाती हैं। शो चाहे एक ग्रंथ, एक दर्शन की बात कर रहे हों या एक अध्याय, एक श्लोक या केवल एक शब्द की, उनकी व्याख्या में हर समय अंशी और अंश एक साथ वर्तमान रहते हैं। इसलिए ओशो को पढ़ने-समझने के लिए संदर्भ-प्रसंग की जरूरत नहीं, पूर्व-तैयारी की जरूरत नहीं। उनकी व्याख्या ने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग के पहले और दैव-असुर-संपद-विभाग-योग के अंतिम श्लोकों को अर्थ की ऐसी व्यापक तात्कालिकता प्रदान कर दी है कि बीच का आप कुछ न पढ़ें तो भी न कुछ खोएंगे, न कहीं सूत्र छूटेगा। यह बात हर श्लोक पर लागू है, चाहे आप उसे अलग लें या किसी भी दूसरे श्लोक के साथ। - यह तो शैली की विलक्षणता थी। और कथ्य? कथ्य “विंटेज” ओशो है। विचार, भावना और कर्म तीनों को एक अखंड और रसमय संगति में साधे हर समय। पांडित्य जो आतंकित नहीं करता, अर्थ के करीब ले जाता है अपनेपन के साथ। प्रज्ञा जो हर छोटी-से-छोटी चीज में बड़े अर्थ खोज लेती है, जो विरोधाभासों के पीछे की समानता और अंतर्संबंधों को उदघाटित करती है। जो गीता के शास्त्रीय अर्थ को घटाए बिना उसे हमारे लिए बोधगम्य बना देती है। __गीता के एक श्लोक, एक विचार की जितनी अर्थछटाएं ओशो हमें दिखाते हैं, शायद कोई अन्य नहीं। और सिद्धांत के साथ-साथ अभ्यास योग्य जितने क्रिया-सूत्र ओशो हमें देते हैं, शायद कोई अन्य नहीं। लगभग हर पन्ने पर घूम-फिर कर वह लौट आते हैं मूल मंत्र पर-करो। भक्ति, ज्ञान, कर्म, योग-जो रुचे उस विधि से, लेकिन कुछ-न-कुछ करो। तुम साक्षित्व को प्राप्त हो सकते हो। आज! अभी! बशर्ते सुनना भी ध्यान बन जाए। पढ़ना भी ध्यान बन जाए। इन अध्यायों को पढ़ते, गुनते समय बूंद-बूंद ही सही लेकिन साक्षित्व उभरे, या झरे, इस कामना के साथ। राहुल देव संपादक ः जनसत्ता, संझा जनसत्ता, बंबई Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 14 चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि ...1 अनिर्णय की दुविधा / परिणाम का भय / खुद निर्णय लेने से बचने की वृत्ति / अर्जुन की कठिनाई सब की कठिनाई है / प्रत्येक निर्णय जीवन को भिन्न बनाता है | जब तक मन, तब तक दुविधा / उत्तर की तलाश / अर्जुन का मनो-मंथन / मन के गिरते ही-संदेह, भविष्य और कर्ताभाव का गिर जाना / चिंता की जड़-अहंकार, कर्ताभाव / निश्चित कैसे हों-इसकी चिंता / तुम मिटो तो निश्चितता घटे / शिष्य कुछ पाना चाहता है / गुरु शिष्य को मिटाना चाहता है / गुरु और शिष्य के बीच एक आंतरिक संघर्ष / कृष्ण का अथक प्रयास / गीता का प्रत्येक अध्याय अर्जुन को मिटाने का प्रयास है / शिष्य के मिटने में ही समाधान है / गलत ज्ञान की उलझन / भीम का अज्ञान सरल है / अर्जुन का अज्ञान जटिल है । अर्जुन का अज्ञान पांडित्यपूर्ण है / स्प्लिट (खंडित) व्यक्तित्व / युद्ध के बीज अर्जुन ने ही बोए हैं / द्रौपदी को पाने की वासना : युद्ध का कारण बनी / द्रौपदी को अनेक लोग पाना चाहते थे / चाह अर्थात प्रतियोगिता, संघर्ष, युद्ध / युद्ध की स्थिति धीरे-धीरे मजबूत होती गई है / काम-वासना ही–जन्म और मृत्यु दोनों का कारण / महाभारत के सभी पात्र प्रतीकात्मक अर्थ से भरे हैं / कांच के महल में दुर्योधन पर द्रौपदी द्वारा व्यंग करना / गाली से भी ज्यादा चोट–व्यंग से / बुराई का प्रारंभ अत्यंत छोटा / वासनाओं के दो चरण-स्वेच्छा नियंत्रित और स्वेच्छा के पार / वासना के प्रारंभ में • ही अपने को रोक लेना / युद्ध की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं / आखिरी क्षण में अर्जुन घबड़ा रहा है / महावीर का सूत्रः प्रारंभ में ही रुक जाना / कृष्ण का सूत्रः न रुकने की स्थिति आ जाए तो निमित्त बन जाना / युद्ध का प्रारंभ द्रौपदी के स्वयंवर से हो चुका था / युद्ध की अवश्यम्भावी स्थिति / पहले ही क्षण में रुक जाने पर निमित्त बनने की जरूरत ही नहीं आती / साधना के सूत्रः पहले क्षण में मालिक और अंतिम क्षण में निमित्त बनना / संसार से मुक्त होना अर्थात मन से मुक्त होना / मन का प्रिज्म और संसार का इंद्रधनुष / इंद्रधनुष से भागना नहीं-उसे पहचानना / मन एक चाक की तरह घूमता है / सिद्ध अर्थात जिसकी सारी यात्राएं समाप्त हुईं / सिद्धि अर्थात मन से मुक्ति / वासनाओं की तृप्ति के लिए ही नए-नए शरीर ग्रहण करना / गर्भ में प्रवेश के लिए करोड़ों वीर्य-कणों में संघर्ष / सिद्ध पुरुष पूरी सृष्टि के विनाश और सजन में भी डांवाडोल नहीं होता / त्रिगुणमयी माया से संपूर्ण जगत का जन्म / पदार्थ का आण्विक स्वभाव भी माया जैसा / भारतीय मनीषा की तीन खोजें: सत्य, असत्य और माया / माया अर्थात जो नहीं है, परंतु दिखाई पड़ती है कि है । वासनाएं स्वप्नवत हैं / धारणा के कारण स्वप्न की सत्य जैसी प्रतीति / मनुष्य संभोग है—पदार्थ और परमात्मा का / मृत्यु असंभव है, केवल संयोग टूटते हैं / जागने पर सारा संसार स्वप्नवत व्यर्थ / समाधि है वह जागरण। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 त्रिगणात्मक जीवन के पार ... 17 कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को गीता क्यों नहीं कही? / शास्त्र और परंपरा का मृत बोझ / विचारक और साधक में फर्क / युधिष्ठिर अस्तित्वगतरूप से धार्मिक नहीं हैं / नियमानुसार चलना / शास्त्र और परंपरा से मुक्त व्यक्ति ही कृष्ण से जुड़ सकता है / अर्जुन का अंतद्वंद्व / जीवन-मरण का प्रश्न / अर्जन जीवंत है / मृत्यु की सघनता में जीवन की जिज्ञासा प्रगाढ़ / अर्जन के प्रश्न सारी मनुष्यता के प्रश्न हैं / अर्जुन की चिंतना मौलिक है / सदा चल रहा महाभारत / सारी मनुष्यता एक परिवार है / प्रतिष्ठित लोगों का मुरदापन / क्या रूपांतरण के लिए युद्ध और मृत्यु की पार्श्वभूमि जरूरी है? / मृत्यु की चुनौती में प्रश्न का जन्म / मृत्यु का बोध और अमृत की खोज / धर्म है मृत्यु के पार जाने का उपाय / क्या ज्ञान में भी श्रेणी-क्रम है? / व्यक्ति भिन्न भिन्न हैं / जो विधि आपको पहुंचा दे, वही श्रेष्ठतम / कृष्ण सभी मार्गों को परम श्रेष्ठ कहते हैं / किसी एक दृष्टि को पूरी गीता पर थोपना गलत है । रामानुज की भक्ति / शंकर का ज्ञान / तिलक-गांधी-विनोबा का कर्म / कृष्ण के विराट हृदय में सब समा जाता है / सब कुछ ठीक है-ज्ञानी कह सकता है या परम मूढ़ / कृष्ण जैसे व्यक्ति अरस्तू के तर्क से नहीं जीते / किसी एक मार्ग पर बोलते समय कृष्ण उसमें तल्लीन हो जाते हैं / संसार माया है, स्वप्न है, तो गुरु द्वारा शिष्यों पर श्रम करना भी क्या सपना है? / निश्चित ही / सपने में भोगा गया दुख भी सच है / दुख के सपनों से तुम्हें जगाना जरूरी है / झूठी चीजों से भी सत्यभोग भोगना / रस्सी को सांप समझने पर हार्ट फेल का हो सकना / गुरु करुणा करते हैं-श्रम नहीं / तीन मौलिक तत्वों से बना जीवन / तमस अर्थात अगति, मृत्यु और विश्राम का तत्व / चलना भी जरूरी, रुकना भी जरूरी / रजस अर्थात शक्ति, गति, जीवन / बच्चों की चंचलता रजोगण के कारण / जवानी का सौंदर्य तम और रज के समान तनाव के कारण / सत्व है-संतुलन, संयम, संगीत, सौंदर्य / विकास का दृश्य शिखर-सत्व / बुद्धत्व गुणातीत है / तामसी बुद्ध पुरुष को बिलकुल ही पहचान न सकेगा / राजसी को बुद्ध आलसी, पलायनवादी और कमजोर लगेंगे / बुद्ध के पास केवल सात्विक लोग रुक सकते हैं / त्रिगुण की खोज की-सांख्य प्रणाली ने / विज्ञान के भी तीन तत्व–इलेक्ट्रॉन, पाजिट्रॉन, न्यूट्रॉन / सत्व, रज और तम के पौराणिक प्रतीकः विष्णु, ब्रह्मा और शिव / तमोगुणी मादक द्रव्य / पश्चिम की रजोगुणी विक्षिप्तता / मादक द्रव्यों की शरण / मूर्छा है तम / दौड़ है रज / और सत्व है लयबद्धता, समता / साधु है सत्वगुणी और संत है गुणातीत–निर्गण / प्रकृति है त्रिगुणा और परमात्मा है निर्गुण / सत्व में खतरा है-साधुता के अभिमान का / सत्व स्वर्ग तक ले जाता है-मोक्ष तक नहीं / शरीर और मन त्रिगुणमयी प्रकृति से मिलता है। चेतना परमात्मा से आती है / तीनों गुणों के कारण ही चेतना शरीर में बंधती है / सत्व गुण से उत्पन्न-सुख में आसक्ति और ज्ञान का अभिमान / दुख से तादात्म्य तोड़ना सरल है / सुख से तादात्म्य तोड़ना बहुत कठिन है / दुख साधना बन जाए तो तपश्चर्या / दुखवादी और तपस्वी का अंतर / शरीर से तादात्म्य तोड़ने के प्रयोग / तीनों गणों के बंधन से मुक्त हो जाना परम ज्ञान है। हे निष्पाप अर्जन ... 33 परम आनंद की मंजिल पर पहुंचने के पहले क्या यात्रा में भी आनंद हो सकता है? / मन चीजों को तोड़कर देखता है / बिना मार्ग पर चले, मंजिल पाने की कोशिश / मार्ग है गर्भ और मंजिल है जन्म / आनंद प्रतिपल बढ़ता जाएगा / मार्ग की फिक्र करें / दूरी स्थान की नहीं समग्रता के अभाव की है / अभी और यहीं जीएं / धीरे-धीरे आनंद को झेलना सीखना / साधना झेलने की तैयारी भी है / सुख-दुख से विचलित न होने का अभ्यास / मंजिल को पहचानने के लिए आंखों को तैयार करना / परमात्मा है-दूर से दूर और पास से पास / मंजिल दूर है हमारे कारण / हमारी योग्यता ही दूरी है / विराट को भोगने के लिए विराट हृदय चाहिए / तेरह अध्यायों को सुनकर भी अर्जुन के मन में प्रश्न और शंकाएं क्यों उठ रही हैं? / अर्जुन का सहयोग पूरा नहीं हुआ है / गुरु की कृपा और शिष्य के राजीपन का संयोग / अर्जुन आत्म-रक्षा में लगा हुआ है / गुरु शिष्य के मन को मारना चाहता है / बचने Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अचेतन कोशिश / शंकाओं का निरसन / अज्ञानी अर्जुन को कृष्ण हे निष्पाप अर्जुन क्यों कहते हैं? / छिपा हुआ चैतन्य निष्पाप है / सब पाप-पुण्य ऊपर-ऊपर हैं / पाप की धूल और ध्यान का स्नान / अंतरात्मा कभी अशुद्ध नहीं होती / सारा जगत पुरुष और प्रकृति का खेल है, तो फिर हम दुख के भागीदार क्यों हैं? / कर्ता होने की भ्रांति / सुख पाने के लिए तादात्म्य जरूरी / दुखी होने के लिए भी तादात्म्य जरूरी / लोगों का नाटक व सिनेमा-गृह में रोना / अभिनय की कुशलता में कर्ताभाव उपयोगी / पूरा जीवन एक नाटक है / जापान का नो-ड्रामा / जब तक सुख-तब तक दुख भी / गुण अर्थात जो बांधे / निर्गुण अर्थात परम स्वतंत्र / स्वतंत्रता कभी खोती नहीं, सिर्फ अवरुद्ध होती है / स्वर्ग है सुखद बंधन / सत्व देवत्व तक ले जा सकता है | आसक्ति अर्थात दूसरे से सुख की चाह / आसक्त व्यक्ति फलाकांक्षी होगा / फल हजारों कारणों पर निर्भर / अनंत कारणों के जोड़ का ही नाम है-परमात्मा, भाग्य / फलासक्ति रजोगुण के कारण / तमोगुण मूर्छा और प्रमाद से बांधता / अनापान-सती-योग / सम्यक स्मृति-सुरति योग / पनिहारिन की सुरति / अज्ञान अर्थात स्वयं को न जानना / प्रमुख गुण शेष दो गुणों को भी प्रभावित करता है / रजोगुणी-उपद्रवी, महत्वाकांक्षी, राजनीतिज्ञ / अपराधी और राजनेता–दोनों रजोगुणी / रजोगुण की शक्ति से-सृजन भी, विध्वंस भी / विद्यार्थियों का अनियोजित रजोगुण ही उपद्रव और विध्वंस बनता है / बाल विवाह व्यवस्था थी-रजोगुण के निकास की / शिक्षा जगत में त्रिगुण की स्थिति। होश : सत्व का द्वार ... 49 यदि कष्ण जानते हैं कि अर्जन का भविष्य क्या है. उसका स्व-धर्म क्या है, तो वे अर्जन से उन अनेक मार्गों की चर्चा क्यों कर रहे हैं जिन को चलना नहीं है? / सभी का भविष्य है-मोक्ष / मन की अनेक संभावनाएं / स्वयं चुनाव की सुविधा / गुरु सब मार्ग समझा देता है / अंतिम निर्णायक आप हैं / निष्पक्ष भाव से कृष्ण द्वारा सब मार्गों की गरिमा बताना / भूलने-भटकने में जीवन का विकास / स्वानुभवों से प्रौढ़ता / नई-नई भूलों से शिक्षण / साहस और सामर्थ्य का बढ़ना / खोज से बचने का मन / स्व-अर्जित विकास–जो दूसरे नष्ट न कर सकें / संघर्ष से गुजर कर अंतःप्रज्ञा का . जन्म / शिष्य की सही-गलत सभी प्रकार की संभावनाओं का गुरु द्वारा निरीक्षण करना / अर्जुन की प्रतिक्रियाओं का सूक्ष्म अध्ययन / अचेतन मन में हो रही घटनाएं / विकर्षण के पहले आकर्षण जरूरी / घृणा के पहले प्रेम जरूरी / ज्ञानी के सामने व्यक्ति पारदर्शी / गुरु के सामने छिपाए गए रूपों का प्रकट होना / शिष्य के आभामंडल का गुरु द्वारा सतत अध्ययन / आत्मिक यात्रा में शिष्य की स्वतंत्रता को कायम रखना जरूरी / गरिमा को बचाना और अहंकार को मिटाना / अठारह अध्यायों की व्यूह-रचना / गुरु के सब प्रयास परोक्ष / प्रमाद से मुक्त होने के लिए क्या करूं? / आलस्य के प्रति जागरूकता से सत्व का जन्म / होश सत्व का द्वार है / मूर्छा-क्रिया से भी, आलस्य से भी / पद का नशा / व्यस्तता की शराब / जितना होश, उतनी सात्विकता / जागरूकता से उत्पन्न करुणा और सेवा सात्विक है / सेवा से कोई धार्मिक बन जाए-जरूरी नहीं / धर्म से सेवा जरूर निकलती है / रमण की अदृश्य सेवा / मंगल का महास्रोत-रमण का होना मात्र / महाकाश्यप का संक्रामक बुद्धत्व / तीन गुणों का परस्पर रूपांतरण / साधारणतः परिस्थिति द्वारा गुणों का निर्धारण / खांसी, जम्हाई आदि की संक्रामकता / हिटलर द्वारा भीड़ के मनोविज्ञान का शोषण / मंदिर और मस्जिद-सत्व के जन्म की सुविधाएं / सम्यक श्रम और सम्यक विश्राम का संतुलन / निन्यानबे का चक्कर / झेन ध्यान-तमोगुण और रजोगुण के संतुलन से सत्व गुण पैदा करना / न निद्रा, न क्रिया / सत्व गण से निर्गण में छलांग। संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति ... 65 कृष्ण परम ज्ञानी और त्रिगुणातीत हैं, फिर भी क्यों झूठ बोलते, धोखा देते, युद्ध करते हैं? / बुद्ध, महावीर, लाओत्से आदि ऐसा कुछ भी नहीं करते Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं / प्रत्येक व्यक्ति अनूठा और अद्वितीय / तुलना का कोई उपाय नहीं / मीरा का नाच / कृष्ण की बांसुरी / जीसस की सूली / महावीर का मौन / परम अनुभूति एक, परंतु अभिव्यक्ति अलग-अलग / अभिव्यक्ति का माध्यम है-व्यक्तित्व / पागलखाने में पागल होकर रहना ही उचित है / बुद्ध पागलखाना छोड़कर बाहर हो गए / कृष्ण पागलों के बीच ही रहे / पागलों की ही भाषा बोलना / होशपूर्वक, अभिनय जानते हुए धोखा देना / खेल के नियम को मान कर चलना / कृष्ण बहुत क्रांतिकारी संन्यासी हैं / आप अपनी नियति को पहचानें / लाओत्से की संबोधि में छलांग-सीधे तमस से / लाओत्से की साधना है : आलस्य में होश / जीसस और मोहम्मद की छलांग-रजोगुण से गुणातीत में / बुद्ध और महावीर का व्यक्तित्व सत्व गुण प्रधान / श्वास लेना, पानी पीना, भोजन लेना-सभी में हिंसा है / गेहूं का बीज भी अंडा है / तम व सत्व प्रधान धर्म ज्यादा फैल नहीं सकते / रजस प्रधान धर्म-ईसाइयत और इस्लाम सारी दुनिया में फैले / कृष्ण बेबूझ हैं क्योंकि उनमें तीनों गुण समान हैं / कृष्ण के साथ अन्याय-उन्हें एक गुण-प्रधान बनाना / बुद्ध, महावीर, लाओत्से का इकहरा व्यक्तित्व / कृष्ण का तेहरा व्यक्तित्व / यदि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मुक्ति स्वयं खोजनी है, तो सदगुरु को समर्पण करने का क्या अर्थ होता है? / समर्पण के निर्णय की परम स्वतंत्रता / समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है / अर्जुन जैसा क्षत्रिय ही समर्पण का निर्णय ले सकता है / समुराई–जापान के अदभुत क्षत्रिय / मारने के पहले मरना सीखना / सब छोड़ते ही अहंकार गिर जाता है / गुरु को कुछ करना नहीं पड़ता / आखिरी कृत्य-समर्पण / समर्पण पुनर्जन्म है-परमात्मा में / तमोगुण के कारण भीतर अंधेरा दिखाई पड़ना / सत्व गुण के जगने पर भीतर हलका प्रकाश / आत्मिक प्रकाश को देखने के लिए सत्व की आंख चाहिए / तमोगुण से बोझिलता और सत्व गुण से हलकापन / तमोगुण के कारण कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्ति / तामसी व्यक्ति द्वारा भाग्य का बहाना / केवल सत्व गुणी व्यक्ति ही होशपूर्वक मरता है / त्रिगुण और पुनर्जन्म का गुण / मृत्यु-क्षण की भावदशा-जीवन भर का निचोड़ / सम्यक मृत्यु को अर्जित करना। ON रूपांतरण का सूत्र: साक्षी-भाव ...83 तमस और रजस से गुणातीत अवस्था में जाना किस प्रकार संभव है? / सभी गुण बीमारियां हैं / स्वास्थ्य है-गुणातीत हो जाना / हर गुण के अपने लाभ-और अपनी हानियां / रजोगुण का नकारात्मक उपयोग–राजनीति में / अपने गुण के विधायक रूप का उपयोग कर लें/ गुणों का प्रभाव केवल शरीर और मन तक / आप किस गुण में हैं-इसे पहचानें / गलत शिष्य-गलत गुरु / गलत गुरु से होने वाली महानतम क्षति / भीतर के यथार्थ की स्वीकृति / अपनी सबसे बड़ी कमजोरी का पता लगाएं / किसी भी गुण से छलांग संभव / गुण के अनुसार व्यक्ति की साधना अलग-अलग / तपश्चर्या केवल राजसी व्यक्तियों के लिए उपयोगी / बुद्ध के लिए सब तपश्चर्या व्यर्थ गई / तप के गिरते ही बुद्ध समाधिस्थ हो गए / तमस हो, तो उसका स्वीकार और उसका साक्षी होना / तमस में होश जुड़ जाए, तो रूपांतरण घटित / राजसी व्यक्ति की बेचैनी नींद में भी जारी / पश्चिम के स्लीप लैब्स / रजोगुण और निद्रा में चलने का रोग/ तमोगुणी, रजोगुणी और सतोगुणी की भिन्न-भिन्न निद्रा / तमोगुणी की मूर्छा / रजोगुणी की बेचैन क्रियाएं / राजसी व्यक्ति रात को ताजा / सात्विक व्यक्ति की शांत नींद / पश्चिम की राजसी सभ्यता / जीवन का उभार देर रात में / पूरब की सात्विक सभ्यताः ब्रह्म मुहूर्त में जागना / सात्विक व्यक्ति सुबह सबसे ज्यादा ताजा / एक सात्विक संस्कृति बनाने का प्रयास-मनु द्वारा / पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां ज्यादा तामसिक / गहरी नींद में दो घंटे देह का तापमान गिरना / सात्विक व्यक्ति के लिए निष्क्रिय ध्यान उपयोगी / राजसी व्यक्ति के लिए तपश्चर्या जरूरी / सात्विक कर्म का फलः सुख, ज्ञान, वैराग्य / करने का पागलपन / सात्विक कर्म-करुणाजन्य / रजोगुणी कर्म का परिणाम-दुख / स्टैलिन का दुखी जीवन / सात्विक कर्म से वैराग्य कैसे / स्वयं में सुख-और परावलंबन का छूटना / व्यस्तता में दुख का विस्मरण / तामस कर्म का फलः अज्ञान / रजोगुणी कर्म का फलः लोभ / जितना राजसी मुल्क-उतना ज्यादा विज्ञापन /स्वर्ग और नर्कः मनोदशाएं हैं / भगवत्ता है: मन के पार गुणातीत अवस्था। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंग साक्षी... 101 श्री रजनीश के जीवन में त्रिगुणों की अभिव्यक्ति किस प्रकार? / रजोगुण माध्यम था: जीसस और मोहम्मद के लिए / तमोगुण माध्यम था: लाओत्से और रमण के लिए / कृष्ण द्वारा तीनों गुणों का मिश्रित उपयोग / एक गुणी व्यक्ति में संगति / कृष्ण में असंगति / कृष्ण को समग्रता में स्वीकारना कठिन / मेरे द्वारा तमस, रजस और सत्व का अलग-अलग काल-खंडों में उपयोग / गर्भ में बच्चा पूर्ण तमस में-मोक्ष जैसी अवस्था में / मेरे प्राथमिक वर्ष गहन तमस में / निष्क्रियता का साक्षी / दर्शन-शास्त्र की क्लास में सोना : संस्मरण / निद्रा में जागरण का अनुभव / आलसी प्रोफेसर को मात करनाः संस्मरण / विश्वविद्यालय के परम आलस्य के दिन / कमरे की सफाई कभी नहीं / कमरे में सांपों का आना-जाना / मित्रों व प्रोफेसरों द्वारा सहायता / पड़े-पड़े छत को देखना / आलस्य की साधना ः शून्य की अनुभूति / तमस की परिपूर्ण निर्जरा के बाद करुणामय सक्रियता का जन्म / दस-पंद्रह वर्षों की रजोगुणी भाग-दौड़ / खंडन और विवाद की आंधी / रजोगुण के खेल और उनका रस / हरिगिरी बाबा और पुरी के शंकराचार्य से विवाद / रजोगुण का जोशः रजोगुण की आग / रजोगुण की निर्जरा और सत्व गुण का उदय / शून्य, जागरूक शांति-सत्व की / तीनों गुणों की निर्जरा और गुणातीत साक्षी में प्रतिष्ठा / तीन गुणों की आपसी असंगति और गुणातीत की संगति / सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान और वैराग्य है / तो यदि तमस व रजस गुण साधना का आधार हों तो उनके फलों में क्या भिन्नता होगी? / गुणों के फल निश्चित हैं / द्रष्टा-भाव और तादात्म्यशून्यता से सुख-दुख से दूरी / हर स्थिति में कुंजी एकः साक्षीभाव / रजस या तमस के माध्यम से साधना करने पर वैराग्य के प्रकटीकरण में क्या भिन्नता होगी? / वैराग्य हमेशा सहज / कुछ पाने के लिए किया गया त्याग-सहज वैराग्य नहीं / वैराग्य अर्थात समस्त चाहों का गिर जाना / संतोष-अभी और यहीं / सभी साधना का हल-वैराग्य / अर्जुन रजोगुणी है / निमित्त मात्र होकर युद्ध करने का संदेश / कर्ताभाव हो तो सत्व से भी बंधन / गुणों की प्रक्रियाएं–साक्षी सदा अलग / हारमोंस के खेल / काम, क्रोध-सब प्रकृति के गुणों से / मस्तिष्क के यांत्रिक नियंत्रण के खतरे / देलगाडो द्वारा स्पेन में सांड पर प्रयोग / सारा कर्तृत्व प्रकृति के गुणों का / कर्ताभाव एक भ्रम है / सांख्य की गहरी खोज-प्रकृति और पुरुष की भिन्नता / द्रष्टा क्रिया नहीं-स्वभाव है / द्रष्टा . को कर्ताभाव का भ्रम लेने की क्षमता / महाभारत का युद्ध गुणों का ही वर्तन है-कोई उसमें कर्ता नहीं है / सदा से अलग द्रष्टा की पहचान-तत्क्षण संभव / बुढ़ापे में वासनाओं का क्षीण होना-प्रकृति के गुणों के कारण / साक्षी को पहचानते ही समस्त बंधनों का गिर जाना / कर्म नहीं बांधते-कर्ता बांधता है / संन्यास अर्थात देखने के सिवाय करने को अब कुछ न रहा / कर्ताशून्य कर्म में कोई पाप नहीं / साक्षी है-गुणों के पार, जन्म-मृत्यु के पार। 8 संन्यास गुणातीत है ... 117 व्यक्तित्व का रूपांतरण रासायनिक द्रव्यों से भी संभव है-और साधना से भी / इन दोनों विधियों में क्या भिन्नता है? / वासना, क्रोध और हिंसा को रासायनिक द्रव्यों से निर्जीव करना संभव / आचरण बदल जाएगा-चेतना नहीं / आत्मिक उत्थान को खतरा / सेक्स हारमोंस को नष्ट करने पर नपुंसकता फलित-ब्रह्मचर्य नहीं / परिधि पर परिवर्तन-केंद्र में कोई क्रांति नहीं / रासायनिक उपायों से साक्षीभाव पैदा न होगा / साक्षीभाव आंतरिक विकास का फल है / आचरणवादी धर्मों की पूर्ति विज्ञान द्वारा संभव / अपराधियों की रासायनिक चिकित्सा के असफल प्रयोग / अपराधियों को दंडित करना भी काम का नहीं / रूस और चीन में प्रयुक्त विधियां / विद्रोह और बगावत के तत्वों को नष्ट करना / शामक रासायनिक द्रव्य / काम, क्रोध का रूपांतरण / वृत्तियों का साक्षीत्व और तादात्म्य का टूटना / ऊर्जा का सृजनात्मक उपयोग / मूर्छा अधोगमन है और साक्षीत्व-ऊर्ध्वगमन / साधना अनिवार्य कदम है / सात्विक कर्म भी अगर बांधता है, तो उसका फल ज्ञान और वैराग्य क्यों कहा गया है? / ज्ञान और वैराग्य भी बांध सकता है | रहस्य अनंत है / ज्ञान का दावा मूढ़तापूर्ण / जब तक मन शेष है, तब तक बंधन / सत्य की झलकें और अहंकार का खतरा / सुख में तादात्म्य होने का खतरा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक / अनुभवों को पकड़ना नहीं / ध्यान घटता है-अपेक्षाशून्य दशा में / झेन गुरु द्वारा शिष्य की पिटाई / सात्विक अकड़ / दुर्वासा मुनि का क्रोध / सत्व के भी पार-गुणातीत अवस्था / संन्यास का गुणों से क्या संबंध है? / संन्यास गुणातीत है / कुछ न पकड़ना संन्यास है / गार्हस्थ्य है-पकड़ने की वृत्ति / साधु अर्थात सत्व से बंधा हुआ व्यक्ति / संन्यास अर्थात शरीर और मन से मुक्त साक्षी चेतना / गुणातीत पुरुष के क्या लक्षण हैं? / सब लक्षण काम-चलाऊ / विपरीत लक्षणों से अड़चन / जैन, बुद्ध, कृष्ण, जीसस आदि को गुणातीत नहीं मानते / बाह्य लक्षण भिन्न-भीतर की दशा एक / झेन फकीर ः अति-साधारण; पहचानना मुश्किल / नान-इन द्वारा गुरु की खोज / विपरीत व भिन्न लक्षणों के कारण धर्मों में वैमनस्य / आरोपित लक्षणों का खतरा / जैन मुनि का दिगंबर हो जाना / भिक्षा के नियमों में चालाकी / बौद्ध भिक्षुओं के मांसाहार की तरकीब / गुणों के सुख-दुख से अप्रभावित / वंचना की संभावना / घने युद्ध में खड़े कृष्ण मात्र साक्षी हैं | समस्त आकांक्षाओं से मुक्त-चुनाव रहित / गुण ही गुणों में वर्तते हैं | नीति चुनाव सिखाती है और धर्म-अचुनाव / चलायमान मन / गुणों से मुक्ति और निर्गुण में स्थिति। आत्म-भाव और समत्व ... 133 ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति भी क्या काम, क्रोधादि वासनाओं में प्रवृत्त हो सकता है? / वीतराग व्यक्ति का नया जन्म नहीं / वासना के बीजों का दग्ध हो जाना / शरीर की त्रिगुणात्मक जरूरतें जारी / शरीर की भूख-प्यास के अलग साक्षी बने रहना / गुणों का वर्तन शुद्धतम रूप में / प्रवृत्तियों से कोई तादात्म्य नहीं रहता / चेतना अस्पर्शित और अछूती / शरीर का पुराना मोमेंटम सक्रिय / बिना पैडल मारे साइकिल का थोड़ी देर चलना / कर्ता नहीं-साक्षी / बिना पतवार चलाए नाव का चलना / न चलाना-न रोकना / ब्रेक लगाना अर्थात कर्तापन अभी शेष है / प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों गुणों का ही वर्तन है / कर्ताभाव का मिट जाना / संत और साधु में भिन्नता / साधुता में चुनाव है / संतत्व-अचुनाव में प्रतिष्ठा है / न कर्ता न भोक्ता मात्र द्रष्टा / पुरानी गति की निर्जरा-और शरीर का विसर्जन / जड़ गुणों से चैतन्य साक्षी का तादात्म्य कैसे संभव होता है? / गुणों के प्रतिबिंब-चेतना के दर्पण पर / प्रतिबिंब से तादात्म्य / चेतना की दोहरी सामर्थ्य / चेतना समर्थ है-भ्रांति में पड़ने में / स्वतंत्रता अर्थात गलत करने की भी स्वतंत्रता / विपरीत का मूल्य / पाने के सुख के लिए खोने का दुख जरूरी / बंधन की चाह / बंधन का दुख और मुक्ति का निर्णय / दुख में पकने पर दुख से मुक्ति / संसार में अनुभवों का पकना / युद्ध की पीड़ा से गुजर कर ही अर्जुन पकेगा / जीवन में हर चीज की उपादेयता है / अशांति व बंधन के आयोजन / जब तक शरीर से सुख, तब तक उससे तादात्म्य / दुख-बोध से दुख-मुक्ति / सच्चिदानंदघन परमात्मा क्या है? / आप ही हैं—सच्चिदानंद / हमारा स्वभाव है : सत, चित और आनंद / सत अर्थात सनातन-अपरिवर्तनशील / चित अर्थात चैतन्य स्वभाव वाला / शरीर की बेहोशी को अपनी बेहोशी मानने की भूल / हिप्नोसिस का आधार ः मान्यता की शक्ति / धारणा शक्ति के कुछ चमत्कार / बाप को भी प्रसव-पीड़ा / मान्यता के सुख मान्यता के दुख / भीतर छिपा परमात्मा / लुका-छिप्पौव्वल / पूरी तरह खेल लेने पर मुक्ति की अभीप्सा का जन्म / आत्म-भाव में सदा स्थिति / प्रतिबिंबों से तादात्म्य न करना / परमात्मा को बाहर खोजने की भूल / परमात्मा को कभी खोया नहीं है / समस्त द्वंद्वों के बीच भी समत्व / सुख-दुख, निंदा-स्तुति, मित्र-वैरी / चुनाव के कारण द्वंद्व / कर्तापन से मुक्ति-आत्म-भाव आने पर / आत्मस्थ पुरुष भोजन करके भी सदा उपवासाः बोध-कथा / मैं शरीर नहीं हूं-इसके स्मरण का अभ्यास / बिना भोजन के रहने की वैज्ञानिक संभावना / चेतना परम ऊर्जावान है / तादात्म्य के कारण मनुष्य में संवेदनशीलता की कमी / बीमार जानवरों का भोजन त्याग / शरीर की नैसर्गिक क्षमता / दूर खड़े होकर देखने की क्षमता / जरूरत पर रुक जाना / शरीर का दीया और चेतना का महासूर्य / परम सिद्धि-गुणातीत हो जाना। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अव्यभिचारी भक्ति...149 - एक सत्य को कहने के लिए सिद्धांतों का इतना बड़ा जाल क्यों खड़ा किया जाता है ? / बुद्धि को तृप्त करने के लिए / प्रश्न व्यर्थ हैं / सदगुरु के उत्तर - ताकि घिस घिस के जिज्ञासा शांत हो जाए / पूछ-पूछ कर थकना - करने का प्रारंभ / ज्यादा बुद्धि के लिए ज्यादा सिद्धांतों की जरूरत / बुद्धि की खुजली और गुरु का धैर्य / प्रश्नों को गिराने की योजना / कांटे से कांटा निकालना / शब्दों की चुभन / शास्त्र की दवाई / स्वस्थ होने पर औषधि को फेंक देना / असत्य को काटना - सत्य देना नहीं / संदेह का एंटिडोट - शास्त्र / कम संदेह - तो कम शास्त्रों की जरूरत / करने की व्यर्थता को जान पाना साधनाओं की क्या इतनी ही उपादेयता है? / करने की व्यर्थता का बोध और कर्ता का गिरना / अहंकार को सिद्ध करने की ही कोशिश – धन, ज्ञान, त्याग / आत्मघात - असफल अहंकारियों द्वारा ही / अहंकार की विफलता / संसार में हार से परमात्मा में विजय संभव / गुरु का प्रयासः तुम्हें न-करने में ले जाना / झूठे अनुभवः झूठे गुरु / सदगुरु का दोहरा काम / सदगुरु तुम्हें मिटाएगा / करने और होने का फर्क / हमारी आत्मवंचना / सागर बिच मीन पियासी / उसे कभी खोया ही नहीं / भटक कर स्वयं पर वापसी / साक्षीभाव साधने के लिए क्या करूं? / साक्षीभाव कृत्य नहीं है / कर्म की आदत / साक्षीभाव अर्थात कर्ता न बनना सिर्फ देखना / हो जाए, तो ठीक न हो, तो ठीक / सहजता और साक्षीभाव / चुपचाप प्रतीक्षा / जब तक कर्ता तब तक साक्षी नहीं / साक्षीभाव को वासना न बनाएं / सिर्फ देखने की कलां / अविवाहित रह कर काम-वासना का साक्षी बनना कब संभव है? / अविवाहित रहने की इच्छा जिम्मेदारी से पलायन / विवाह और वासना पर्यायवाची नहीं हैं / विवाह का बंधन; विवाह के दुख / दुविधा बताती है कि भीतर वासना है / साक्षीभाव के साथ वासना का अनुभव - मुक्तिदायी / भागें मत – जागें / अनुभव में पकें / जरा भी रस हो, तो उसे भोग ही लें / सहज बनें / सजग अनुभव से क्रांति / अव्यभिचारी भक्तिरूप योग / अनेक दिशाओं में बहता मन व्यभिचारी है / व्यभिचारी मन वाला कभी शांत नहीं हो सकता / एकजुट ऊर्जा से सत्य की उपलब्धि सरल / समग्र चेतना से निकला कृत्य - आनंद / प्रार्थना अर्थात चित्त की अव्यभिचारी धारा / भजन अर्थात प्रभु को पाने की सतत गहन अभीप्सा / एक धुन – सतत भीतर बजती / स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के प्रयोग / रुचि अरुचि के अनुकूल आंख की पुतली का छोटा-बड़ा होना / प्रकाश में सिकुड़ना, अंधेरे में फैलना / नग्न स्त्री का चित्र देख पुरुष की पुतली का फैलना / नग्न पुरुष में स्त्री को कोई रुचि नहीं / छोटे बच्चे का चित्र देख स्त्री की पुतली का बड़ा होना / स्त्री का शिखर मातृत्व में / पुरुष का शिखर - स्वामित्व में / रजनीश का संन्यासी स्वामी कहलाता / रजनीश की संन्यासिनी मां कहलाती / ऊपरी सतही भाव का कोई मूल्य नहीं / परमात्मा को अपनी वासनाओं की लिस्ट में न जोड़ें / प्रत्येक कृत्य प्रभु स्मरण बन जाए / परिधि पर अनेक / केंद्र पर एक ही संभव / ब्रह्म में एकीभाव की योग्यता / आनंद, ब्रह्म, निर्वाण - सब का आश्रय मैं हूं / कृष्ण का मैं अर्थात समग्र अस्तित्व की शुद्धतम अवस्था / गुणातीत परब्रह्म से एकीभाव - अव्यभिचारी चेतना की - - - धारा का । — Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 15 1 मूल स्रोत की ओर वापसी ... 167 आधुनिक विचारकों की मान्यता: जगत का विकास निम्न से श्रेष्ठ की ओर / पश्चिम की विचारसरणी : उदगम छोटा और गंतव्य श्रेष्ठ / भारतीय मनीषा उदगम को श्रेष्ठ मानती है / संसार परमात्मा का पतन है / मूलस्रोत की ओर वापसी / गीता और उपनिषद में संसार को उलटा वृक्ष कहा गया है / पूरब का त्यागवादी चिंतन: संसार को छोड़ कर परमात्मा में वापस लौटना / पश्चिम में इकट्ठा करना विकास है / पूरब में छोड़ना विकास है / कितनी ही दूरी हो, लेकिन संसार परमात्मा से जुड़ा है / संसार परमात्मा का अभिन्न हिस्सा है / संन्यासी और संसारी का उलटा गणित / संसार की सफलता का उलटापन / संसाररूपी पीपल का उलटा वृक्ष / माता-पिता को आदर अर्थात स्रोत को आदर / काम-वासना से घृणा - मूल स्रोत से घृणा है / काम-वासना में बुद्ध को पैदा करने की क्षमता है / मूल है ऊपर - बहाव है नीचे / सारा विकास नीचे की ओर / ऊंचाई अर्थात उदगम की ओर वापसी / एक नई मनोचिकित्सा : प्राइमल थेरेपी / गर्भावस्था की ओर चेतना का क्रमशः लौटना / प्राइमल स्क्रीम - प्रथम रुदन को लाने का प्रयोग / गहरी चीख और मूलस्रोत की झलक / संसार का सनातन बनना-मिटना / संसार की वर्तुलाकार गति / संसार को ठहराने और बदलने की व्यर्थ कोशिश / संसार में स्थिरता असंभव / संसार की गत्यात्मक द्वंद्वता / असंभव की चेष्टा न करने पर शांति का जन्म / तटस्थ द्रष्टा संसार का अतिक्रमण / संसार को नहीं — बदलें अपने को / स्वभाव के विपरीत चलने पर दुख ही परिणाम / परमात्मा है जड़; वासना है शाखाएं; ज्ञान है पत्ते / वासनाएं निकट हैं परमात्मा के / ज्ञान है मुरदा पत्तों की तरह / वेद अर्थात संसाररूपी वृक्ष को मूल सहित तत्व से जानना / त्याग का अहंकार / वासना का त्याग नहीं— मूल का स्मरण जरूरी / गृहस्थ संन्यासी और संन्यासी गृहस्थ / पीछे लौटने का ध्यान प्रयोग / गर्भासन की चित्तदशा / नमाज का आसन – झुकने की कला है / उदगम भीतर छिपा है / जन्म और मृत्यु से भिन्न स्वयं के होने का बोध / आध्यात्मिक खोज / गर्भावस्था की शांति, गर्भावस्था का आनंद / आनंद का स्वाद हमें है— इसलिए उसे हम खोजते हैं / समाधि अर्थात सारा अस्तित्व तुम्हारा गर्भ हो जाए / पीछे लौटने में भय, क्योंकि दुख का सामना होगा / अतीत से मुक्ति—उससे सचेतन गुजरने से / जितना लंबा अतीत-उतनी ही वापसी मुश्किल / धार्मिक मां-बाप द्वारा बच्चों को अतीत से मुक्त होने की शिक्षा / प्रतिदिन रात्रि सोने के पहले पीछे लौटने का अभ्यास / अतीत की धूल को रोज-रोज झाड़ना / व्यक्ति अपनी शुद्धावस्था में परमात्मा है / व्यक्ति ही अशुद्धावस्था में संसार है / पीछे लौटना सीखें / सुंदर सपनों से हमारा मोह / संसार से हम छूटना नहीं चाहते / संसार को हम और सुंदर बनाना चाहते हैं / सपनों के कारण स्वयं का विस्मरण / समाधि अर्थात सजग सुषुप्ति / स्वयं के प्रारंभ की खोज / शाखाओं में भटकना और जड़ों पर · वापसी / आनंद की पुनः-उपलब्धि और संसार में भटकने की समाप्ति / गीता की शाब्दिक टीकाएं / ध्यान के प्रयोग से ही पता चलेगा कि आप उलटे वृक्ष किस प्रकार हैं / स्वयं के भीतर वापस लौटने में है समाधान | 2 दृढ़ वैराग्य और शरणागति ... 181 बच्चे माता-पिता को प्रेम क्यों नहीं दे पाते ? / मांगा - कि प्रेम मर जाता है / मां-बाप का बच्चे के प्रति प्रेम एक स्वाभाविक घटना / बच्चे का मां-बाप को प्रेम करना—एक आंतरिक विकास है / एक पूरा सांस्कृतिक वातावरण चाहिए / असहाय को प्रेम करने में अहंकार को प्रसन्नता / बच्चे की घृणा का आधारः परतंत्रता और निर्बलता की अनुभूति / आज्ञा देने और आज्ञा तोड़ने में अहंकार का रस / आज बेटा बाप से ज्यादा जानता है / श्रद्धा का आधार मां-बाप उदगम हैं: इसकी प्रतीति / उदगम से ज्यादा श्रेष्ठ होने का उपाय नहीं / मां-बाप के प्रति अश्रद्धा -- ईश्वर के प्रति अश्रद्धा है / Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदगम का सम्मान गहन विवेक की निष्पत्ति है / आप कहते हैं : वर्तमान में जीयो; कल कहा कि अतीत में लौटो / हम क्या करें? / अतीत से छुटकारा हो जाए, तभी वर्तमान में जीना संभव / अतीत तो जा चुका, लेकिन उसकी स्मृति मन में टंगी रह गई है / अतीत के हरे घावों से भय / अतीत से छूटने की विधि है : अतीत में सचेतन लौटना / वर्तमान में सजग होने पर अतीत का बनना बंद / अतीत की निर्जरा और प्रतिदिन के धूल को झाड़ते रहना / दर्पणवत निर्मलता में परमात्मा का-उदगम का बोध / अतीत में लौटना है विधि और वर्तमान में जीना है लक्ष्य / अतीत की पुनरावृत्ति से उसका मजबूत होना / गहरी आदतें और सतही बौद्धिक निर्णय / रोना बह जाए ताकि हंस सकें / संसार श्रेष्ठ से अश्रेष्ठ की ओर पतन है, तो मनुष्य का असभ्यता और परतंत्रता से सभ्यता और स्वतंत्रता की ओर हुए विकास में क्या तथ्य है? / सतयुग अर्थात समाज की बच्चे जैसी निर्दोष अवस्था / कलियुग अर्थात समाज की वृद्धावस्था / हृदय की निर्दोषता और बुद्धि की चालाकी / बुढ़ापा बच्चे का विकास है या पतन? / भौतिक समृद्धि बढ़ी है, लेकिन आनंद घटा है / बीइंग और हैविंग / आज का युग सबसे ज्यादा दुखी और विक्षिप्त / चेतना की दृष्टि से पतन हुआ है / मशीनें विकसित हो रही हैं—आदमी खो रहा है / समाधि में ही उलटे वृक्ष का पूरा रूप दिखाई पड़ना / संसार-वृक्ष का न प्रारंभ है, न अंत / वैज्ञानिकों द्वारा अब तक चार अरब सूर्यों की खोज / पुराने सूर्यों का बुझना, नए सूर्यों का जलना / हम एक अनंत श्रृंखला के हिस्से हैं / संसार की केवल गति है—स्थिति नहीं / स्थिति केवल परमात्मा की है / हर चीज बदल रही है / चित्त की दौड़ का रुक जाना ध्यान है / परमात्मा जाना जा सकता है-संसार नहीं / संसार में उलझने की जरूरत नहीं है। संसार का ज्ञान–सापेक्ष, काम-चलाऊ / वृक्ष में न खोजें-बीज को पकड़ें / बीज के भीतर छिपा है उदगम / वैराग्य से अहंकार, ममता और वासना को काटना / वैराग्य-वासना की सतत असफलता का सार-निचोड़ है / वासना के धोखे के प्रति सजगता / बूंद-बूंद अनुभवों का संग्रह / स्मृति-संग्रह में वापस लौटना / शरण का भाव जरूरी-ताकि वैराग्य अहंकार न बन जाए / अस्मिता की दीवाल / नास्तिक धर्मों में शरणागति की दूसरी व्यवस्था जरूरी / हिंदू-धर्म के देवी-देवता-शरण के उपाय / बिना शरण-भाव के मान और मोह का मिटना अत्यंत कठिन / जैन साधु की प्रगाढ़ अकड़ / आचार्य तुलसी और मोरारजी देसाई : एक संस्मरण / अहंकार और मोह के मिटते ही स्वयं के भीतर छिपे परमात्मा की प्रत्यभिज्ञा। 3 संकल्प-संसार का या मोक्ष का ... 197 . शरणागत-भाव को कैसे उपलब्ध हुआ जा सकता है? / मन अहंकार के आसपास निर्मित / अहंकार अर्थात मैं साध्य हूं और सभी कुछ साधन है । शरणागत-भाव अर्थात मैं केंद्र नहीं / सब संयुक्त है / व्यक्ति होना भ्रांति है / एक-एक पत्ता पूरे अस्तित्व से जुड़ा है / समुद्र, चांद, सूरज, आदमी-सब जुड़े हैं / समुद्र और गर्भ का एक-सा खारापन / चांद के बढ़ने-घटने का मन पर प्रभाव / जीवन का केंद्र व्यक्ति में नहीं अस्तित्व में / इतनी अकड़ किस बात की है!/ शरणागति के दो मार्ग / शून्य हो जाएं या सब अस्तित्व पर छोड़ दें / हो सकता है कि समर्पण भी अहंकार का ही एक कृत्य हो / बुद्ध, महावीर का मार्ग शून्य होने का / कृष्ण, क्राइस्ट, राम, मोहम्मद का मार्ग समर्पण का / महावीर के मार्ग पर अहंकार का खतरा / मिटना है-चाहे शून्य हो कर या समर्पित हो कर / असहाय अवस्था के बोध से शरणागति का जन्म / व्यक्ति एक लहर है, एक बूंद है / आंख खोल कर जीवन को देखना भर है / प्राइमल स्क्रीम घट गई, इसकी क्या पहचान है? / फूल की तरह हलकापन / स्वास्थ्य का बोध / जितना बड़ा अहंकारी, उतना बड़ा बोझ / बिना समस्याओं के अहंकार को बेचैनी / सारी व्यथा का खो जाना / दुख का अभाव और आनंद की अनुभूति / रेचन का साहस / दुख को भी हम पकड़ते हैं / काम-वासना, फिल्म, शराब में दुख का विस्मरण / बड़ी बीमारी से भी अहंकार प्रसन्न / प्राइमल स्क्रीम-चीत्कार में दुख रेचन / दुख का स्वप्न की तरह विलीन हो जाना / वैराग्य का बोध अचेतन मन तक कैसे प्रवेश करे? / अनुभव से गुजर कर ही बोध का पकना / दूसरों के अनुभव काम न आएंगे/ हम बिना दुख से गुजरे वैराग्य और आनंद चाहते हैं / दुख की गहनता में वैराग्य का जन्म / दुख से बचने के उपाय मत खोजो / मृत्यु का बोध / जीवन के तथ्यों से आंखें चुराना / वैराग्य गहरा हो, तो ही गुरु और शास्त्र से संबंध संभव / समग्रता से जीएं / सभी चीजें पर-प्रकाशित हैं / परमात्मा स्व-प्रकाशित है / स्वयं का होना स्वयंसिद्ध है / स्वयं का बोध-बिना इंद्रियों के / वह प्रकाश आप स्वयं हैं / जो भी देखा जा सकता है, वह आपका स्वभाव नहीं है / द्रष्टा को देखने का कोई उपाय नहीं / बिना ईंधन के शाश्वत जलने वाली चेतना की ज्योति / वह चैतन्य प्रकाश सब के भीतर छिपा है / चैतन्य जीवात्मा ही मन और इंद्रियों को चलाता है / वासना बांधती है—इंद्रियां नहीं / इंद्रियों और आपके बीच सेतु है-आपकी चाह / चाह को आप गिरा सकते हैं | आपने ही पकड़ रखा है-मन और इंद्रियों को / मृत्यु के पश्चात वासनाओं द्वारा नए शरीर में प्रवेश / शरीर बदल जाते हैं, वासना की यात्रा जारी रहती है / इंद्रियों से दुश्मनी-धीमी आत्महत्या है / राग और वैराग्य–दोनों एक साथ संभव नहीं / संसार की यात्रा मेरा निर्णय है / संसार से मुक्ति भी मेरा निर्णय होगी। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 समर्पण की छलांग ... 213 किसे समर्पण करें—इसकी तसल्ली कैसे हो ? और तब तक क्या जारी रखें ? / मन को कभी भी तसल्ली न होगी / भूल खोजने में पारंगत है मन / हमारी व्याख्याएं / महावीर, जीसस, मोहम्मद, कृष्ण आदि से बचने की तरकीबें / तसल्ली की तलाश हो, तो समर्पण असंभव / झुकने का सवाल है / तसल्ली की बात ही मत सोचो / तसल्ली अहंकार की मांग है / गुरजिएफ द्वारा अपने में अविश्वास पैदा कराने की हर संभव कोशिश / आप कैसे जांच सकेंगे? / अहंकार बचा कर समर्पण संभव नहीं / समर्पण की छलांग - अहंकार के बावजूद / धारणाओं की बंधी हुई लीक / कौन प्रबुद्ध है - जांचने का कोई उपाय नहीं है / प्रत्येक बुद्ध पुरुष का व्यवहार अलग-अलग / पूर्व-निश्चित मापदंड काम के नहीं / सौ प्रतिशत तसल्ली के लिए मत रुकें / दुकानदारों के लिए नहीं— जुआरियों के लिए धर्म / समर्पण में ही क्रांति है, गुरु तो सिर्फ बहाना है / मन अर्थात संदेह / मन से ऊब जाने पर समर्पण संभव / स्वयं पर संदेह और गुरु का मिलना / कुनकुनापन ही आदमी का दुख है / मन द्वार है - दुख का / इस पार या उस पार - या तो संदेह या श्रद्धा / यदि दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, तो आप जैसे पुरुषों के बोलने में सार्थकता क्या है? / सत्पुरुष की निकटता प्रभावकारी / दूसरे की मौजूदगी से स्फुरण, प्रेरणा और धक्का संभव / खुला और समर्पित हृदय / अज्ञात का भय / शब्द इशारे हैं— अनुभव नहीं / अनुभव दिया नहीं जा सकता — प्यास जगाई जा सकती है / अनुभव तक पहुंचने की विधियां और मार्ग सीख सकते हैं / बुद्धत्व भी संक्रामक होता है, लेकिन हम संवेदनशील और खुले नहीं हैं / अपनी तुच्छता का बोध हीनता की ग्रंथि बनाता है; हीनता से बचकर अहंकार विसर्जन के लिए क्या किया जाए? / हीनता की ग्रंथि — अहंकार का ही हिस्सा है / जितना बड़ा अहंकार - उतनी बड़ी हीनता / दंभी और अविनम्र को ही हीनता पकड़ती है / आत्म-हीनता और ऊंची एड़ी के जूते / प्रतिस्पर्धा विक्षिप्तता लाती है / विनम्र आदमी को कभी हीनता नहीं पकड़ती / जो अंतिम होने को राजी है, वह परमात्मा का प्यारा है / अस्तित्व के साथ बहने की कला है - समर्पण / अनेक-अनेक बार मर कर भी मृत्यु से अपरिचय / मरते क्षण में भी बेहोश हो जाना / पीड़ा के असह्य होते ही मूर्च्छित हो जाना / समर्पण है जीते जी मृत्यु से परिचय / योगियों, तांत्रिकों एवं ध्यानियों द्वारा मृत्यु का सहज स्वीकार / होश हो, तो मृत्यु एक नया द्वार है / सजग-मृत्यु के लिए जरूरी : वैराग्य और अभ्यास / ज्ञानरूपी नेत्रों वाले ज्ञानी जन / ज्ञान-नेत्र अर्थात होशपूर्वक जन्म, जीवन और मृत्यु को देखने की क्षमता / सामान्य जीवन में सतत होश कायम रखें / होश टूट-टूट जाए, तो फिर-फिर साधें / साधना में श्रम और हृदय की शुद्धि दोनों साथ-साथ जरूरी / शुद्धि के अभाव में एकाग्रता की शक्ति खतरनाक / अदभुत शक्तियों का स्वामी रासपुतिन / परंतु हृदय शुद्ध न था / रासपुतिन ने रूस को बरबाद करवा दिया / योगी भक्त भी हो / यत्न और शुद्ध भाव का मिलन | 5 एकाग्रता और हृदय-शुद्धि... ... 229 रासपुतिन ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, तो क्या शक्ति का जागरण व्यक्ति को पवित्र नहीं बनाता ? / शक्ति स्वयं में निष्पक्ष है / अशुभ उपयोग या शुभ उपयोग की संभावना / अशुद्ध अंतःकरण में भी शक्ति की उपलब्धि संभव / शुद्ध अंतःकरण द्वारा शांति की आकांक्षा-शक्ति की नहीं / शक्ति मिलती है— प्रयास और साधना से / अधर्म ध्यान और धर्म ध्यान / ध्यान अर्थात मन का ठहर जाना / क्रोध और वासना में मन की एकाग्रता / एकाग्रता शक्ति है / रासपुतिन का हृदय शुद्ध न था / अशुद्ध हृदय द्वारा शक्ति से शोषण / हिटलर की अदभुत एकाग्रता की क्षमता / शक्ति का मूलस्रोत परमात्मा है / हृदय का यंत्र - शुद्ध या अशुद्ध / राम और रावण में एक ही शक्ति का प्रवाह / सृजन या विनाश / सदगुरुओं द्वारा साधकों की शुद्धि की अनेक व्यवस्था / शक्ति के स्रोतों की गुप्तता के कारण / विज्ञान की शक्ति का राजनीतिज्ञों द्वारा दुरुपयोग / पूरब में धर्म और विज्ञान के सूत्रों की प्राचीन काल से गुप्तता / गुरु-शिष्य-प्रणाली / शास्त्र अधूरे रखे गए हैं / ज्ञान की कुंजियों को अनधिकारी से बचाना / वर्ण-व्यवस्था के पीछे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की गुप्तता का कारण / जन्म से सब शूद्र / दुबारा जन्म गुरु की सन्निधि में / शास्त्रों को न लिखने का आग्रह / आध्यात्मिक विज्ञान के खतरे / विचारों का संप्रेषण / भीड़ का, एकांत का, संत का, असंत का मन पर अलग-अलग प्रभाव / दूसरों के मन को प्रभावित करना / एकाग्रता के प्रयोग शुद्ध हृदय व्यक्ति को ही बताए जाते हैं / रासपुतिन की अथक खोज / कुछ छोटे-मोटे सूत्रों का मिलना / धन की ही नहीं-सूत्रों की भी चोरी / बौद्ध भिक्षु की हृदय-शुद्धि के लिए चार प्राथमिक साधनाएं-मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा / बुद्ध के चार ब्रह्म-विहार और पतंजलि के यम, नियम आदि पांच प्राथमिक चरण / महेश योगी के मंत्र-योग से खतरा / हत्यारे और चोर को सीधे शांति मिले तो खतरा है / जीसस की कहानी : आंखों का दुरुपयोग / मंत्र जाप से बेईमान अपनी बेईमानी में अधिक कुशल! / बुरे काम में सफलता खतरनाक है / इंस्टेंट काफी—इंस्टेंट मेडिटेशन / पश्चिमी मन शुद्धि की प्रक्रिया के लिए राजी नहीं / आत्मघाती शांति / पहले शुद्धि की प्रक्रिया जरूरी / वैराग्य और अभ्यास दोनों एक साथ जरूरी क्यों हैं? / वैराग्य के अनुभवों को संचित करने का अभ्यास जरूरी / वैराग्य के अनुभव की निरंतर चोट-मन पर / वैराग्य के क्षणों का पुनः-पुनः स्मरण / मन का एंटिडोट-वैराग्य / मन भी एक अभ्यास है / मन के विपरीत वैराग्य की संगृहीत शक्ति / मृत्यु के धक्के से बचने के हमारे उपाय / सिद्धांतों के, व्याख्याओं के बफर / अभ्यास अर्थात बिना बफर के जीना / वैराग्य के आने के लिए सब द्वार-दरवाजे खुले रखना / मरघट-वास और वैराग्य का उदय / कृष्ण का कहना कि सब कुछ मैं ही हूं-अर्जुन के समर्पण के लिए / कृष्ण बड़े अहंकारी से मालूम पड़ते हैं / कृष्ण का प्रयास है कि अर्जुन को अपने अहंकार की व्यर्थता का बोध हो / अर्जुन को मिटने के लिए राजी करना / कृष्णमूर्ति द्वारा कृष्ण से ठीक उलटा प्रयोग / कृष्णमूर्ति की बातों से अज्ञानियों के अहंकार को सहारा / अहंकार का दीया और भीतर का सूर्य / चंद्रमा द्वारा औषधियों को शीतलता का गुण मिलना / सूर्य द्वारा उत्तेजना के गुण मिलना / सोम-रस की खोज-विज्ञान द्वारा / सोम-रस अर्थात चंद्र-रस, शांतिदाई रस / पश्चिम के साइकेडेलिक ड्रग्ज / समाज सोम-रस जैसी चीजों के विरोध में / समाज को उत्तेजित, दौड़ने वाले लोगों की जरूरत / आनंद, प्रसन्नता, शांति-समाज-विरोधी गुण / हिप्पियों से भयभीत-अमेरिका / सब मैं हूं-उत्तेजना भी, शांति भी / सबके भीतर छिपा अंतर्यामी मैं हूं / अंतर्यामी की खोज ः नेति-नेति से / अपोहन अर्थात संशय विसर्जन–अचुनाव होश / आत्म-बोध, मैं हूं / नाम, पद, प्रतिष्ठा-स्वभाव नहीं है / स्वभाव अर्थात भीतर का अनाम, अरूप चैतन्य / ज्ञान मैं हूँ / ज्ञान अर्थात नालेज नहीं-वरन प्रज्ञा / वेदों की तीन सार बातें-आत्म-बोध, प्रज्ञा और अचुनाव होश / अंतर्यामी को जानने वाले की वाणी वेद है / उसका मौन, उसका उठना-बैठना वेद है । पहला पड़ाव: बाहर का गुरु / दूसरा पड़ावः भीतर का गुरु। पुरुषोत्तम की खोज ...247 आप अपने ध्यान प्रयोगों में एकाग्रता की अपेक्षा साक्षी-भाव पर जोर क्यों देते हैं? / एकाग्रता से शक्ति और साक्षी-भाव से शांति उपलब्ध / मनो-ऊर्जा का एक दिशा में बहना / सांसारिक व्यक्ति, वैज्ञानिक, और संगीतज्ञ की सफलता एकाग्रता के कारण ही / एकाग्रता से मन और अहंकार का प्रबल होना / साक्षी-भाव से अहंकार व मन का मिटना / एकाग्रता में द्वैत है और साक्षी-भाव में अद्वैत / एकाग्रता का उपयोग साक्षी-भाव के लिए / एकाग्रता में खतरा-भटकने का / शक्तिशाली व्यक्ति के लिए एकाग्रता आसान / कमजोर व्यक्ति ही मन के वश में / पचास साल तक अशांत रहना सरल, लेकिन पांच मिनट शांत होना कठिन / विचारशक्ति से वस्तुओं को गतिशील करने के रूस में प्रयोग / एकाग्रता की शक्ति का उपयोग करने से उसका क्षीण होना / विवेकानंद द्वारा एकाग्रता की शक्ति का क्षुद्र उपयोग / शांत साधक में उपद्रवी विचार नहीं उठते / शक्ति मिलते ही बिगड़ने की संभावना को बल / साक्षी-भाव की शांति में बुराई के बीजों का जल जाना / शक्ति हो, लेकिन वासना न हो, तो व्यक्ति परमात्मा का उपकरण हो जाता है / कर्ता-भाव हटते ही परमात्मा सक्रिय / अहंकारी व्यक्ति को साक्षी-भाव न जंचेगा / सिद्धियों एवं शक्तियों की आकांक्षा धार्मिक नहीं है / मिटने की-ना-कुछ होने की सतत भावना करो / शक्ति की खोज है संसार और मिटने की खोज है धर्म / बिना शास्त्रों में भटके, गुरु की खोज क्यों संभव नहीं है? / शास्त्रों से असफलता पाकर ही गुरु की खोज का प्रारंभ / मुरदा शास्त्रों से अहंकार को कोई चोट नहीं / जीवित व्यक्ति के चरणों में झुकने में अहंकार को पीड़ा / शास्त्र से अपने ही अनुकूल अर्थ निकाल लेना / शास्त्रों पर स्वयं का ही अचेतन मन अरोपित / अदभुत चीनी पुस्तक आई-चिंग / मन-पसंद अचेतन अर्थ निकालने की सुविधा / बादलों में हाथी, घोड़े आदि देखना / शब्दों में सत्य धुंधला हो जाता है / शास्त्र में स्वयं को पढ़ना / बुद्धिमानी का लक्षण–यह बोध–कि शास्त्र में नहीं मिला / जीवित व्यक्ति के साथ अड़चनें / जीवित गुरु को धोखा देना असंभव / शास्त्र से ऊब गए व्यक्ति में साधना की प्यास / दार्शनिक बातों में गुरु के पास समय खराब करना / शास्त्र जहां समाप्त होते हैं, गुरु वहां शुरू होता है / बुद्ध और महावीर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के महापंडित शिष्य / शास्त्रों की पूर्णाहुति सदगुरु में / शास्त्र की ठीक समझ में ही शास्त्र का अतिक्रमण / शास्त्र बड़े प्यारे हैं-अगर समझ हो / शब्दों के साथ नाजुक व्यवहार / अध्ययन अर्थात अर्थ को निचोड़ो / पाठ अर्थात सहानुभूति और प्रेम से उसे गाओ, उसमें रमो / धम्मपद पढ़ा-अब बुद्ध की तलाश करो / गीता पढ़ी-अब कृष्ण को खोजो / बुद्ध पुरुष सदा उपलब्ध हैं / सदगुरु स्रोत है-शास्त्रों का / बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट-नए नाम-रूपों में उपलब्ध / पुराने नामों से हमारा मोह है / इसलिए गीता, बाइबिल, धम्मपद पर बोलता हूं / शास्त्र से गुरु पर और गुरु से स्वयं पर आना है / पुरुषोत्तम की व्याख्या / तीन स्थितियां : शरीर अर्थात संसार, और आत्मा, तथा परमात्मा / क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम / जैन विचार में केवल दो तत्व—पुदगल और आत्मा / अतिक्रमण के लिए तीसरा जरूरी / हिंदू, ईसाई, मुसलमान-त्रैत मानते हैं / कृष्ण कहते हैं : मैं तीसरा हूं / शरीर और मन की परतों के पार छिपा साक्षी-भाव ही पुरुषोत्तम है / शरीर की पहली पर्त पर रुके हुए हैं अधिकतम लोग / शरीरवादी नास्तिक पोर्च को ही घर समझे हुए हैं / नास्तिक बंद हो जाता है-अपनी आंतरिक संभावनाओं के प्रति / आत्मा अर्थात मैं-भाव से युक्त चेतना / साक्षी अर्थात अस्मिताशून्य शुद्ध चैतन्य / भूख और भूख की प्रतीति—इन दो को देखने वाला तीसरा / हर अनुभव में तीनों मौजूद / तीसरे के प्रति संवेदनशील होने के लिए प्रयोग करें / साक्षी के बोध से जीवन का एक लीला मात्र हो जाना / स्वयं पर हंसने की कला / स्वयं को भी दूर खड़े हो कर देखना / शरीर है रथ, सोच-विचार है आत्मा, और साक्षी चेतना है सारथी / जीवन एक चल-चित्र सा चलता रहता है—साक्षी देखता रहता है / पुरुषोत्तम की प्रतीति एकमात्र साम्राज्य है / बिना पुरुषोत्तम को जाने व्यक्ति भिखमंगा है / पुरुषोत्तम को पाया कि सब पाया / निकट ही है पुरुषोत्तम-पुकार चाहिए, प्यास चाहिए, अभीप्सा चाहिए। प्यास और धैर्य... 263 बिना शास्त्रों से गुजरे मैंने आपको गुरु मान लिया है, तो क्या मेरा रास्ता गलत है? / अनंत जन्मों की यात्रा है / समर्पण की पात्रता के साथ ही किसी के प्रति गुरु-भाव का उदय / गुरु-भाव के आते ही आमूल-क्रांति प्रारंभ / व्यक्तित्व का प्रभाव और समर्पण का भ्रम / समर्पण का भाव स्थायी हो, तो शास्त्रों की जरूरत न रही / स्वानुभव का बीज और गुरु की वर्षा / आरोपित प्रभाव के प्रति सावधानी / ऊपर से ओढ़ा गया भक्ति-भाव / वास्तविक रूपांतरण की व्यावहारिक कसौटी / भाव को कृत्य बनाएं / मैं आपको प्रभावित करने के लिए नहीं बोलता / लंबे समय से आपको सुनकर भी मैं अपने को वहीं का वहीं पा रहा हूं, फिर मैं क्या आशा रख सकता हूं? / तुम नहीं बदले, तो कसूर किसका है? / सुनकर कोई नहीं बदलता / सुनना भी व्यसन बन जाता है / सुनना सुगम है; कुछ भी करना नहीं पड़ता / पढ़ने से भी कम मेहनत—सुनने में / सुनकर-बदलने के सूत्र लेना / केवल सुनें ही मत, उसको जीएं-उसको आत्मसात करें / ध्यान पर विचार न करें-उसमें स्वयं डूबें / मेरी बातों को सुनकर अनुभव की यात्रा पर निकल जाएं / जीवन में • जो भी मूल्यवान है, उसे कोई दूसरा आपके लिए नहीं कर सकता / प्रभु के लिए समग्ररूपेण आतुरता और अनंत धैर्य क्या विपरीत अतियां नहीं हैं? / नहीं; वे परिपूरक हैं / एक क्षण में पाया जा सकता है, यदि अनंत धैर्य हो / शांत व्यक्ति ही धैर्यवान / दुखी व्यक्ति अधैर्य में होता है / अधैर्य बाधा है, क्योंकि अधैर्य तनाव है । अधैर्यवान परमात्मा को बहुत मूल्यवान नहीं समझता / बुद्ध शुरू में एक साल चुप बिठाते थे / पूरा जीवन भी गंवाना पड़े तो तैयार हों / भक्त और आस्तिक अर्थात जिसकी कोई शिकायत नहीं है / गहन प्यास और अनंत धैर्यः एक ही रेखा के दो छोर / सभी रेखाएं वर्तुलाकार हैं / जीवन भी वर्तुलाकार है / दो अतियों का वर्तुल में मिलना / छलांग हमेशा अति से संभव / झेन फकीरों की तत्काल संबोधि और तीव्रतम अभीप्सा / सूफियों का अनंत धैर्य और समर्पित प्रतीक्षा / अंत पर जोर या प्रक्रिया पर जोर / क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना और मरना रूपांतरण के लिए अनिवार्य है? / निश्चित ही / अहंकार डरता है–फंसने और मिटने से / फंसने से डरोगे, तो जीवन से ही वंचित रह जाओगे / फंसे बिना प्रेम का अनुभव असंभव / शिष्यत्व प्रेम का चरम शिखर है / फंस कर भी मुक्त बने रहने की परम कला / परतंत्रता-समर्पण की कमी के कारण / जहां प्रतिरोध-वहां बंधन / गुरु की परम मुक्ति से आपका मिलन / गुरु की धारा के साथ बहने पर मुक्ति का अनुभव / गुरु के पास जा कर पहले प्यास का बढ़ना / अभीप्सा का गहन होना / तड़पन का उत्ताप-बिंदु / गुरु यानी अहंकार की मृत्यु / गुरु से बचने की युक्तियां खोजना / मृत्यु द्वार है अमृत का / फंसना-तड़पना-मरना ः एक ही मार्ग की सीढ़ियां हैं / पुरुषोत्तम परमात्मा ही केंद्र है / भजन अर्थात सतत सर्वत्र उसी का बोध / ठंड से, भय से बचने के लिए राम-राम जपना / सतत भजन कैसे संभव? / निष्पाप होना हमारा स्वभाव है / कृत्य से मेरा होना सदा अलग है / पाप अर्थात निष्पापता का विस्मरण / दुविधा प्रारंभ-मन के तल पर / युद्ध संभव-शरीर के तल से या पुरुषोत्तम के तल से / स्वानुभव के पहले समझना असंभव / रहस्यमय एवं गोपनीय–पुरुषोत्तम का अनुभव / ज्ञान की कुंजियों के खतरे / सुन कर पुरुषोत्तम की खोज प्रारंभ करना। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता-दर्शन अध्याय 16 देवी संपदा का अर्जन ... 281 . मनुष्यः एक दुविधा, एक द्वंद्व / पशु या परमात्मा, नरक या स्वर्ग-एक ही ऊर्जा की दो दिशाएं / बुरा आदमी भी तपस्वी / मनुष्य का गहन दायित्व / भगवान या शैतान : आपके ही दो छोर / दो यात्रा पथ / शास्त्र को काव्य की तरह समझें-गणित और विज्ञान की तरह नहीं / अनुभूतियों की चर्चा काव्य में ही संभव / अपनी समग्रता से ही डूबना होगा / अनुभोक्ता और अनुभूति का एक हो जाना / गीता एक काव्य है / बड़ी श्रद्धा, सहानुभूति और प्रेम में ही रहस्य का खुलना / गीता आत्मस्थ अनुभूति बन जाए / दैवी संपदा और आसुरी संपदा को प्राप्त पुरुषों के लक्षण / संपदा अर्थात विनिमय का माध्यम / संसार और अध्यात्म की भिन्न संपदाएं / आसुरी संपदा से दिव्यता को खरीदने की भ्रांति / क्रोधी व्यक्ति की हिंसक साधना / तपस्वी का अहंकार-आसुरी / त्याग किसी लोभ के कारण हो-तो आसुरी / क्या है आसुरी, क्या है दैवी-स्पष्ट विभाजन जरूरी / गलत साधन से ठीक साध्य तक पहुंचना असंभव / प्रकृति का साम्यवाद / साधु अर्थात जिसने अपनी दैवी संपदा का उपयोग कर लिया / बच्चे में दोनों संपदाएं बराबर मात्रा में / बच्चा आज नहीं कल विकृत होगा ही / दैवी संपदा का पहला लक्षण-अभय / निर्भयता अभय नहीं है / कायर और बहादुर-दोनों भयभीत / अभय अर्थात भय का अभाव / धन, पद, प्रतिष्ठा में मृत्यु के भय को छिपाना / अभय हो, तो ही अहिंसा संभव / आत्मभाव जगे, तो ही अभय का जन्म / अमृत की प्रतीति हो, तो ही ब्रह्म में छलांग / पूरी तरह . से मिटने की तैयारी चाहिए / दूसरा लक्षणः अंतःकरण की शुद्धि / समाज द्वारा संस्कारित झूठा अंतःकरण / बच्चे के प्रथम सात वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण / अर्जुन का युद्ध में उतरने से डरनाः सामाजिक संस्कार आधारित / शुद्ध अंतःकरण अर्थात समाज की मान्यताओं से मुक्त अंतःकरण / समाज के बदलते हुए मापदंड / अशुद्ध अर्थात कुछ अन्य, कुछ विजातीय का मिश्रण / तीसरा लक्षण ः ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति / आसुरी-जीवन-मूर्छा में दृढ़ स्थित / ज्ञानयोग में अर्थात होश में दृढ़ स्थित / मूर्छा में यंत्रवत व्यवहार / दूसरों द्वारा परिचालित व्यक्ति / मन का नौ हिस्सा अचेतन है / होश का बढ़ना और अचेतन का घटना / समस्त साधनाएं होश बढ़ाने के लिए / आधारभूत लक्षण: दान-देने का भाव / स्वयं को बांटना / बांटने से अहंशून्यता / छीनने से अहंकार सघन / दान-प्रेम का सार है / छीनना-घृणा का आधार है / दान और प्रेम से इंद्रियां शांत / इंद्रियों को दबाने से अशांति का बढ़ना / यज्ञ अर्थात अंतस अग्नि को जलाने की विधि / सारा जीवन अग्नि का खेल है / योगाग्नि में अहंकार का जल जाना / स्वाध्याय अर्थात स्वयं का सतत अध्ययन / स्वाध्याय के निष्कर्षों के अनुसार स्वयं को बदलना तपश्चर्या है / जीवन के सभी पहलुओं पर सरलता की स्थापना करना / जटिल में अहंकार को आकर्षण / सदा सरल को चुनें / दैवी संपदा का द्वारः निरअहंकारिता। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवीय लक्षण ...297 जब आप बोलते हैं, तभी वाणी के माध्यम से हमें अपना शिखर थोड़ा दिखाई पड़ता है, ऐसा क्यों? / मौन हम नहीं समझ पाते / मुझे सुनते-सुनते थोड़ी देर को तुम्हारा मन रुक जाता है / मन के रुकते ही कुछ प्रतीति / सत्य को शब्द में कहना असंभव / मौन सीखना होगा / मौन की कला है-ध्यान / मात्र शब्दों पर टिके हमारे प्रेम संबंध / मौन-प्रेम को समझना कठिन / मौन में प्रतीति हो, तो ही वास्तविक / मैं बोलता है, ताकि मौन के लिए तुम तैयार हो सको / प्रार्थना जीवन की शैली है-इसका क्या अर्थ है? प्रार्थना से भीतर छिपे परमात्मा का आविष्कार / प्रार्थना की कलाः संयोग को काटना-स्वभाव को बचाना / प्रार्थना जीवन का एक अलग खंड नहीं हो सकती / प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए / उठना-बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण बन जाए? / हर छोटा से छोटा कृत्य प्रेमपूर्ण हो / प्रार्थना जीवन की आधारशिला हो / सातत्य का बल / अस्तित्व में पीछे लौटना नहीं होता, तो साधु एक क्षण में असाधु कैसे हो जाता है? / द्वैत स्थिति से वापसी-अद्वैत से नहीं / साधु असाधु एक दूसरे के विपरीत छोर हैं / संत दोनों के पार है / अहिंसा अर्थात दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग / हमारी उलटी हालतें: दूसरे के दुख में सखी होना और सख में दखी / अहिंसा कहां से शरू करें? दूसरे के दुख में दुखी तथा सुख में सुखी हों / दूसरे के सुख-दुख में डूब कर भी साक्षी-भाव का बना रहना / सत्य अर्थात भीतर-बाहर एक जैसे होना / क्रोध का छिपा बारूद अक्रोध अर्थात अखंड शांति / अपेक्षाओं के टूटने पर क्रोध / दूसरे की नियति के स्वीकार से अक्रोध / अभय, अहिंसा, अक्रोध-सब संयुक्त / एक सधे, तो शेष सब सध गए / भोग का रसः त्याग का रस / देने का आनंद / ज्यादा धन हो, तो ज्यादा पकड़ने की वृत्ति / निर्धन का दुख ः पकड़ने को कुछ नहीं / धनी का दुखः छोड़ने की हिम्मत नहीं / त्याग अर्थात छोड़ने की कला / अशांति कम हो, तब शांति की खोज सरल / आग लगने पर कुआं खोदने की मूढ़ता / औषधियों का दुष्टचक्र / शांत रहना जीवन शैली बन जाए / शांति का कवच-साधक के लिए उपयोगी / विक्षिप्त दुनिया / सब की अपनी परेशानियां / पर निंदा का रस / निंदा का प्रयोजनः अपनी बुराई को छिपाना / पीठ पीछे निंदा / मित्रता असंभव हो गई है / खेल के नियम / समाज की व्यवस्था से संघर्ष में शक्ति का क्षण अवांछित / व्यर्थ की उलझनों से बचना-दैवी संपदा का लक्षण / नियम तोड़ने का मजा-आसुरी लक्षण / दैवी संपदा का आधारभूत लक्षण–अहंकार शून्यता / अहंकार का पूजित होना असंभव है / मिटने की अभीप्सा : दैवी गुण। आसुरी संपदा ... 315 अति से ही क्रांति होती है-इसे समझाएं / अति की पीड़ा से छलांग / आधी अशांति से नहीं चलेगा / आत्मघात या आत्म-क्रांति / अशांति-दुख-हमारा ही अर्जन है / पानी का अतिक्रमण-बर्फ बन कर या भाप बन कर / कुनकुनेपन से नई यात्रा असंभव / दो मार्ग हैं छलांग केः पूर्ण शांति या पूर्ण तनाव / झेन और सूफी पद्धतियों में पूर्ण तनाव से छलांग की कोशिश / नब्बे डिग्री पर कहीं रुकें तो विक्षिप्तता की संभावना / पहला मार्ग अकेले भी साध सकते हैं। दूसरे मार्ग के लिए अनिवार्यरूपेण गुरु की जरूरत है / पचास-साठ डिग्री के बाद गुरु चाहिए, जो सौ डिग्री तक पहुंचा दे / आश्रम, मानेस्ट्रीज, स्कूल और ग्रुप का विशेष उपयोग / पहले मार्ग में धोखे की संभावना अधिक / दूसरे पर बड़ी व्यवस्था, योग्य निरीक्षण और पूरा समर्पण चाहिए | कृष्ण पहले मार्ग की बात कर रहे हैं / मार्ग का निदान जरूरी / सामाजिक क्रांति का आत्म-क्रांति से कितना और कैसा संबंध है? / व्यक्ति की शक्ति और समय सीमित है / समाज की समस्याएं तो अंतहीन हैं / समाज तो भीड़ है-अज्ञान और पागलपन से भरे लोगों की / केवल बुद्ध पुरुषों का समाज ही समस्याओं के पार होगा / सुधार का प्रयास-और नई समस्याओं का जन्म / शिक्षा के कारण बढ़ती हुई नई समस्याएं । चालाकी, बेईमानी और महत्वाकांक्षा का बढ़ना / धनी मुल्कों का दुख / गलत आदमी का शिक्षित, धनी और स्वस्थ होना खतरनाक / आत्मक्रांति करनी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो, तो व्यर्थ की बातों में न पड़ें / शक्ति का सम्यक उपयोग / आत्मस्थ व्यक्ति का समाज पर प्रभाव / चेतना की मौन क्रांति / समाज सुधारक स्वयं को बदलने में उत्सुक नहीं / मार्क्स, लेनिन और माओ की क्रांति / महावीर, बुद्ध और कृष्ण की क्रांति / दैवी संपदा के लक्षण - साधन हैं या साध्य ? / दोनों एक साथ / कौन पहले अंडा-मुर्गी, बीज- वृक्ष / सोचते मत रहें - जीना शुरू करें / बहिर्मुखी व्यक्ति आचरण से, लक्षण से शुरू करे / अंतर्मुखी व्यक्ति अंतःकरण से शुरू करे / बाहर और भीतर एक का ही विस्तार है / आसुरी व्यक्तित्व के लक्षण / पाखंड अर्थात झूठा व्यक्तित्व / आदमी के अनेक चेहरे / झूठ की लंबी श्रृंखला / पुनरुक्ति से झूठ का सच जैसा लगना / शिक्षा, तर्क और गणित झूठ की कुशलता में सहायक / घमंड और अभिमान / क्रोध और कठोर - वाणी / अज्ञान अर्थात स्वयं को न जानना / ज्ञान निजी हो तो प्रज्ञा और उधार हो तो पांडित्य / आसुरी संपदा से बंधन और दैवी संपदा से मुक्ति फलित / अर्जुन का भाव दैवी है, लेकिन उसकी व्याख्या अज्ञान भरी है / हिंसा के प्रति अरुचि दैवी है, लेकिन ममत्व अज्ञान है, आसुरी है / हिंसा तो असंभव है, लेकिन हिंसा का अज्ञानपूर्ण भाव संभव है / बंधन या मुक्ति: एक ही चेतना की दो संभावनाएं / परतंत्रता हमारा ही निर्माण है / स्वतंत्रता का भय / कारागृह की सुरक्षाएं और स्वतंत्रता के खतरे / परतंत्रताएं - परिवार की, देश की, जाति की, समाज की / हमारा पिंजड़ों से लगाव / नेता - परस्पर निर्भर / स्वतंत्रता है— परम साहस, परम जिम्मेदारी । 4 आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं.... 333 पशुओं में और आदिवासियों में पाखंड और मिथ्याचरण नहीं है, जब कि शिक्षित व सभ्य समाज में वह सर्वाधिक है, तो क्या विकास की लंबी व कठिन यात्रा व्यर्थ गई? तो क्या आदिवासी व्यवस्था वरेण्य है? / पशु को पतित होने की सुविधा नहीं है / पशु दिव्यता का आरोहण भी नहीं कर सकते / पशु प्रकृति आधीन हैं / मनुष्य स्वतंत्र है, इसलिए जिम्मेदार भी / मनुष्य की गरिमा / सभ्यता एक अवसर है / पीड़ा से आनंद की खोज का जन्म / आदिवासीपन वरेण्य नहीं है / गिरने की संभावना में संतुलन व जागरण की चुनौती / यदि संसार में सदा अज्ञान, दुख और संताप रहेगा, तो क्या धर्म कुछ विरले लोगों के लिए ही है? / संसार एक अस्पताल है / स्वस्थ होते ही संसार के बाहर / बीमारी संसार का स्वभाव है – अभिशाप नहीं / संसार : एक शिक्षण स्थल / शिक्षण की पूर्णता मुक्ति है / धर्म का निमंत्रण सभी के लिए है / परंतु विरले ही उस यात्रा पर जाते हैं / व्यर्थ का छूटना / शून्य में पूर्ण का उदय / कठिन लंबी यात्रा / धैर्य का अभाव / सुनने और देखने में हमारा सतत चुनाव / सौ को आमंत्रण दो : दस सुनते हैं, पांच समझते हैं, केवल एक यात्रा पर चलता है / बंधन क्या है और मुक्ति क्या है ? / चेतना का अनंत असीम फैलाव मुक्ति है / सीमा बंधन है / अनेक प्रकार का बंधन शरीर का, मृत्यु का, क्रोध-मोह-लोभ का / आसुरी संपदा बांधती है / लोभी व्यक्ति सदा सीमा में / जंजीरों को आभूषण समझकर हम उन्हें बचाते हैं / अपने को असीम बनाने की चेष्टा ही ध्यान है, प्रार्थना है, साधना है / न मैं शरीर हूंन मन न भाव / द्रष्टा - साक्षी - सबसे मुक्त है / तादात्म्य है— बंधन का कारण / जिससे भी आनंद बढ़े, वह कर्तव्य / जगत एक प्रतिध्वनि है / जो दोगे, वही मिलेगा / देर-अबेर के कारण भ्रांति / कर्तव्य-कर्म में प्रवृत्ति - अकर्तव्य-कर्म से निवृत्ति / आसुरी व्यक्ति का निष्फल श्रम / शुद्धि अर्थात समस्वरता / अशुद्धि अर्थात भीतर की विक्षिप्तता / आसुरी व्यक्ति जीवनको रहस्य नहीं मानता / रहस्य के खोते ही काव्य, सौंदर्य, परमात्मा सब खो जाता है / तर्क और विज्ञान से जीवन में उदासी और ऊब का बढ़ना / अविद्या अर्थात जो आसुरी संपदा को बढ़ाए / सौंदर्य है समग्रता में / कोई रहस्य नहीं - तो कोई गंतव्य नहीं, खोज नहीं / नास्तिकों का भोगवाद / दैवी संपदा वाले व्यक्ति का जीवन : एक श्रृंखलाबद्ध सचेतन विकास / तर्क बुद्धि नहीं है / बुद्धि अर्थात जो जीवन के अंतर्तम रहस्य में प्रवेश कराए / दैवी संपदा में ऊंचे चढ़ने का श्रम । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोषण या साधना ... 349 आसुरी संपदा वाले व्यक्ति जगत को अर्थहीन और झूठ मानते हैं, ज्ञानीजन भी जगत को माया, मिथ्या कहते हैं / दोनों में क्या भिन्नता है? / दोनों के प्रयोजन बिलकुल भिन्न / पहला जीवन की क्रांति से, साधना से बचना चाहता है / दूसरा और सत्यतर व श्रेष्ठतर जीवन की ओर इशारा कर रहा है | कुछ करना नहीं है-अगर जीवन अर्थहीन, लक्ष्यहीन, सांयोगिक दुर्घटना है / दैवी संपदा वाले के लिए सत्य कसौटी है / आसुरी संपदा वाले के लिए सुख कसौटी है / विज्ञान आसुरी संपदा वाले से ही राजी है / ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय / अज्ञेय को जानने की शर्तः जानने वाला खो जाता है / विज्ञान सार्वजनिक ज्ञान है-धर्म पूर्णतः निजी / प्रत्येक को स्वयं गुजरना होगा/धर्म विज्ञान है-अंतर्जगत का / प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का जो आसुरीपन दिखाई देता है, वह हमें कैसे दिखे ? / प्रज्ञा पुरुष का सानिध्य खोजें / शास्त्र को धोखा दिया जा सकता है / सत्संग-जो जानता है, उसके पास होना / श्रेष्ठ चेतना के निकट तुलना का बोध / प्रयोग से ही स्वाद आएगा / सही कोई हो, तो ही अपने गलत होने की पहचान / प्रज्ञावान पुरुष सदा उपलब्ध है / संतों के अनेक गुप्त अंतर्वर्तुल / संतों की वाणी का विचार नहीं-मनन-उसे हृदय में उतारना / शास्त्र पाठ का रहस्य / हृदय में बीजारोपण / साहस हो तो गुरु-शरण / कमजोर का समर्पण से डरना / शक्तिशाली के लिए गुरु / कमजोर के लिए शास्त्र / शास्त्र का रोएं-रोएं में समा जाना / कहीं अपने को खोना होगा / गलत के बोध से गलत का छूटना शुरू / सत्य अज्ञेय है, व्यक्ति का परमात्मा से मिलन असंभव है, तो क्यों कहा जाता है कि-स्वयं को जानो? / ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का खो जाना / त्रिवेणी का खो जाना, सागर का बचना / मिटो–ताकि हो सको / सागर में खोकर बूंद का सागर हो जाना / शून्य की भाषा-बूंद खो गई सागर में / पूर्ण की भाषा-सागर खो गया बूंद में / आपका होना ही कष्ट है / अधिक सुख में अधिक दुख का बोध / स्वयं मिटना ही स्वयं का ज्ञान है / आसुरी संपदा का लक्षणः सदा दूसरा ही गलत है / सीखने का आधार-अज्ञान का बोध / वासना दुष्पूर है / न दमन, न भोग-वरन साक्षित्व / बोधकथा : सोहम-दासोहम-सदासोहम-दास दासोहम / वासनाओं का जागरूक साक्षी-भाव से दर्शन / मिथ्या सुख में संतोष-आसुरी स्वभाव / परिपूर्ण असंतुष्ट चेतना द्वारा परमात्मा की खोज / खोज के दो आयामः चेतना या पदार्थ / परिग्रह-शोषण और हिंसा के बिना असंभव / अंतर्यात्रा प्रारंभ होते ही बहिर्यात्राएं बंद / बूढ़े भी बाल-बुद्धि / शोषण या साधना / तिजोरी या आत्मा / अरबपति की भी मांग जारी है। ऊर्ध्वगमन और अधोगमन ... 367 आसुरी गुण वाले व्यक्तियों से पृथ्वी भरी पड़ी है; किंतु देव तो करोड़ों में कोई एक होता है; ऐसा क्यों है? / दो विरोधों के बीच एक अनिवार्य संतुलन है / हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं / भीतर की संपदा का बाहर प्रतिफलन / एक ही सिक्के के दो पहलू / जीवन की तीन दशाएं : आसुरी, दैवी और निर्विकल्प / नरक, स्वर्ग और मोक्ष / देवता भी मुक्त नहीं हैं / मोक्ष-नरक और स्वर्ग दोनों से मुक्ति / एक पहलू है, तो दूसरा भी बच रहेगा / साक्षी में दोनों का खो जाना / आसुरी और दैवी संपदा व्यक्ति में बराबर-बराबर है, तो जगत में आसुरी संपदा क्यों फलती-फूलती है, और दैवी संपदा क्यों दुर्लभ है? / हमारी अचेतन वासनाएं : धन, पद, प्रतिष्ठा की / सफल आदमी की भीतरी पीड़ा / बुरे आदमी की सफलता–साधु-चित्त के लिए-आत्मघात जैसी / बुरा आदमी सफल हो ही नहीं सकता / बोध-कथा ः जब सिकंदर को सोने की रोटी दी गई / बुरे का सफल दिखना ः हमारे असाधु-चित्त का लक्षण / सफलता की मेरी परिभाषा : जो समाधि में डूबे / आसुरी संपदा कभी फूली-फली नहीं / बुराई है ढलान, अच्छाई है चढ़ान / पीछे लौटना हमेशा आसान / ऊपर जाना हमेशा श्रमयुक्त / आसुरी संपदा ग्रेविटेशन की तरह नीचे खींचती है / नीचे गिरने की क्षमता-सफल होने में सहयोगी / धर्म राजनीति से उलटी यात्रा / दैवी संपदा के लिए शिक्षण का अभाव / जन्मों-जन्मों की आदतें—आसुरी संपदा वाली / ऊर्ध्वगमन का प्रयास Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुरू करें / आसुरी संपदा अर्थात और अधिक की दौड़ / भविष्य की तैयारी ः वर्तमान की बलि / भविष्य तो सपना है / मन की असीम वासनाएं / जो है-उसी में डूबना / बिन मांगे मोती मिले / आसुरी व्यक्ति दूसरों को हानि पहुंचाने वाला / दैवी संपदा वाला जीवनदायी / प्रत्येक व्यक्ति–साधन नहीं, साध्य है / सृजन की आराधना / सृजन के क्षण में परमात्मा की झलक / जो हम नहीं हैं-उसे ही हम सिद्ध करने की कोशिश करते हैं / हीनता की ग्रंथि / दूसरों को दिखाने के लिए झूठे चेहरे / आसुरी व्यक्ति सदा अच्छी बातें सोचता है-करता है सदा बुरी बातें / आत्म-सम्मोहन और वंचना / नरक अर्थात आसुरी चित्त की दशा / आसुरी व्यक्ति दुख बांटता है और सदा दुख ही पाता है / सुख-दुख-सब हमारा ही अर्जन / जैसा बोएंगे, वैसा पाएंगे। जीवन की दिशा ... 383 यदि संसार में अच्छाई और बुराई सदा ही समान मात्रा में हैं, तो साधना का प्रयोजन क्या है? / न अच्छाई को बढ़ाना, न बुराई को घटाना / दोनों के साक्षी होना / साधना अर्थात अतिक्रमण का प्रयास / समाज आपको अच्छा बनाना चाहता है-धार्मिक नहीं / नीति है–सामाजिक उपयोगिता / धर्म है-अंतस क्रांति / सज्जन-दुर्जन, साधु-असाधु-सब द्वंद्व / अच्छाई भी बाहर-और बुराई भी / ध्यान है-भीतर डूबना / करने के पार / अर्जुन अच्छाई-बुराई के द्वंद्व से ग्रसित है / कर्ता-भाव छोड़-निमित्त हो जा / तीन वर्ष तक किसी इंद्रिय का उपयोग न करने पर वह निष्क्रिय हो जाती है, तो यह कामेंद्रिय के साथ क्यों नहीं घटता? / कामेंद्रिय समस्त इंद्रियों का आधार-स्रोत / पूरा शरीर काम-वासना के अणुओं से निर्मित / केवल जननेंद्रिय नहीं-पूरा शरीर कामेंद्रिय है / जब तक शरीर से तादात्म्य-तब तक काम-वासना / जब तक जीवेषणा-तब तक काम-वासना / मृत्यु-बोध का बढ़ना-काम-वासना का क्षीण होना / काम-तृप्ति ही-सभी इंद्रियों के द्वारा / मिटने की तैयारी चाहिए / दैवी संपदा भी क्यों विध्वंस करती है? / बनाने के लिए मिटाना जरूरी / बनाने के लिए मिटाना-दैवी / मिटाने के लिए मिटाना—आसुरी / हर तोड़ना-एक कदम हो-बनाने के लिए / दूसरे . व्यक्ति को साधन नहीं, साध्य मानना कठिन क्यों है? / आसुरी संपदा–कि मैं केंद्र हूं, मैं साध्य हूं / प्रेम में दूसरा साध्य हो जाता है / धन व पद के . लिए दूसरों का उपयोग-सीढ़ियों की तरह / महत्वाकांक्षी धार्मिक नहीं हो सकता / निमित्त होने के बोध से समर्पण घटित / मैं श्रेष्ठ हूं-ऐसा सोचना आसुरी वृत्ति है / आसुरी व्यक्ति नास्तिक होगा / तर्क से परमात्मा न सिद्ध होता-न असिद्ध / अपनी धारणाओं के लिए तर्क जुटाना / ईश्वर के इनकार से संभावनाओं के द्वार बंद / परमात्मा एक नियम-व्यक्ति नहीं / भारत की गहरी से गहरी खोजः कर्म का सिद्धांत / धर्म अर्थात जगत के नियम के अनुसार चलना / जो करो, वही बढ़ता है / सम्यक दिशा के लिए प्रयास / नियम निष्पक्ष है / आदमी-ऊर्जा, दिशा और नियम का जोड़ है। 8 नरक के द्वार: काम, क्रोध, लोभ ... 399 यदि परम नियम ही ईश्वर और धर्म है, तो प्रार्थना, भक्ति और आराधना का क्या अर्थ? और तब क्या धर्म और विज्ञान पर्यायवाची नहीं हो जाते? / भक्ति और प्रार्थना–व्यक्ति की आंतरिक दशाएं हैं / पूजा चित्त की एक दशा है / बिना भगवान का बौद्ध-धर्म / प्रेमपूर्ण हृदय हो, तो सब में प्रेमी का दर्शन / भगवान नहीं-भगवत्ता / हमारी प्रार्थना-मांग है / हमारी प्रार्थनाएं-नियम तोड़ने का प्रयास हैं / मांग-पूर्ति पर टिकी आस्था / प्रार्थना-अहंकार को मिटाने की कीमिया / कर्ताभाव को तोड़ने की तरकीब / अकड़ने से दुख, झुकने से सुख / प्रार्थना की कला / धर्म अर्थात नियम के अनुकूल चलना / निराधार भाव में कठिनाई / अकारण सुखी है संत / धर्म परम विज्ञान है / परम नियम को बाहर खोजना विज्ञान है / परम नियम को भीतर खोजना धर्म है / सत्य–निकटतम-स्वयं के भीतर है / जीवन का सभी विस्तार भीतर से बाहर की तरफ / जीवेषणा मुक्ति की सम्यक विधि क्या है? /जीने की अंधी दौड़ / पौधों और पशुओं में भी गहन जीवेषणा / हम किसलिए जीना चाहते हैं!/सुख पाने की आशा / आशा की व्यर्थता का Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध / मृत्यु की अनिवार्यता का बोध / मृत्योन्मुख जीवन कामना-योग्य नहीं है / जीवेषणा-मुक्ति द्वार है-वास्तविक जीवन का / जीवेषणा मुक्ति पर ही मृत्यु का अतिक्रमण / जीवन एक विरोधाभास है / नर्क के तीन द्वार-काम, क्रोध और लोभ / जीवेषणा इन तीन में फैलती है / भूख से शरीर की सुरक्षा और यौन से संतति की / उपवास में काम-वासना का अस्थायी रूप से क्षीण होना / समृद्ध समाज में काम-ऊर्जा अधिक / लोभ काम-वासना का विस्तार है / वासना में बाधा आने पर क्रोध / काम से मुक्त हुए बिना-क्रोध और लोभ से मुक्ति नहीं / लोभ और क्रोध की सतत अंतर-धारा / कंजूस आदमी-कब्जियत का शिकार / कंजूस हंसने तक से डरता है / बांटने से आनंद बढ़ता है / परमात्मा परम आनंद है, क्योंकि अपने को पूरा ही बांट दिया है / भले लोगों का विस्तार शुभ / बुरे लोगों का यात्रा न करना शुभ / केवल काम-मुक्त व्यक्ति से ही कल्याण-कार्य संभव / जो तुम देते हो, वही तुम्हें मिलता है / शास्त्र हैं सिद्ध पुरुषों के वचन / शास्त्र नक्शे हैं / नक्शों से भटकाव में कमी / आज की कठिनाई : अज्ञानी और पागल भी शास्त्र लिख रहे हैं / आज तो जीवित सदगुरु ही सहायक / शास्त्र द्वारा निश्चित कर्तव्य व्यक्ति के वर्णानुसार / अनेक जन्मों में क्रमबद्ध आत्मिक विकास / अर्जुन सुदृढ़ क्षत्रिय है-अनेक-अनेक जन्मों से / वह अचानक ब्राह्मण हो नहीं सकता / क्षत्रियत्व से ही उसके लिए मोक्ष का द्वार / युद्ध में ही समाधि / अकर्ता-भाव से युद्ध करना / तलवार चले, लेकिन चलाने वाला कोई न हो / या परमात्मा ही तलवार चलाए / योद्धा निमित्त-मात्र रह जाए / जापान के अदभुत क्षत्रियः समुराई / गीता में अर्जुन के बहाने सभी प्रकार के व्यक्तियों के लिए मार्ग-दर्शन / गीता में अपने प्रश्न का उत्तर खोज लेना। Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 पहला प्रवचन चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 . श्रीमद्भगवद्गीता हो जाए, तब तक पिरहो गुरु को कीचड़ से निकालने को तैयार नहीं अथ चतुर्दशोऽध्यायः है। क्योंकि कोई भी कृत्य तभी किया जा सकता है, जब उसके अंतिम फल स्पष्ट हो जाएं। श्रीभगवानुवाच भला हआ कि और लोग आ गए और उन्होंने डबते हए गरु को परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । बचा लिया। लेकिन पिरहो किनारे पर ही खड़ा रहा। और जानकर यज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।१।। आप आश्चर्यचकित होंगे कि जिन दूसरे शिष्यों ने गुरु को बचाया, इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । | गुरु ने कहा कि वे ठीक-ठीक विचारक नहीं हैं, ठीक विचारक सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।२।। | पिरहो ही है। इसलिए मेरी गद्दी का अधिकारी वही है। क्योंकि जिस मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्ग दधाम्यहम् । | कर्म का फल तुम्हें साफ नहीं, तुम उसे कर कैसे सकते हो? संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।। ३ ।। पिरहो पश्चिम में संदेहवाद का जन्मदाता है। लेकिन अगर कर्म इसके उपरांत श्रीकृष्ण बोले, हे अर्जुन, ज्ञानों में भी अति का फल स्पष्ट न हो, तो कोई भी कर्म किया नहीं जा सकता। उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिए कहूंगा, कि | क्योंकि किसी कर्म का फल स्पष्ट नहीं है, और स्पष्ट नहीं हो जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर सकता है। क्योंकि कर्म है अभी, और फल है भविष्य में। और परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। प्रत्येक कर्म अनेक फलों में ले जा सकता है; वैकल्पिक फल हैं। हे अर्जुन, इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके इसलिए अगर कोई यही तय कर ले कि जब तक फल निर्णायक मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न रूप से निश्चित न हो, तब तक मैं कर्म में हाथ न डालूंगा, तो वैसा नहीं होते हैं और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं। | व्यक्ति कोई भी कर्म नहीं कर सकता है। हे अर्जुन, मेरी महत ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया पिरहो खड़ा है-इसे फिर से सोचें। अगर मुझे वह मिल जाए, संपूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और तो उससे मैं कहूंगा कि खड़े रहने का फल ठीक होगा या बचाने का, मैं उस योनि में चेतनरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस यह भी सोचना जरूरी है। क्योंकि खड़ा होना कृत्य है। तुम कुछ जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। निर्णय ले रहे हो। गुरु को बचाना ही अकेला निर्णय नहीं है। मैं खड़ा रहूं या बचाने में उतरूं, यह भी निर्णय है। मैं इस समय सोचूं या कर्म करूं, यह भी निर्णय है। ग नान में एक विचारक हुआ, पिरहो। विचारक को जैसा निर्णय से बचने का कोई उपाय नहीं है। चाहे मैं कुछ करूं और 4 होना चाहिए, जितने संदेह से भरा हुआ, उतने संदेह चाहे न करूं, निर्णय तो लेना ही होगा। और करने का भी फल होता से भरा हुआ विचारक पिरहो था। है, न करने का भी फल होता है। न करने से गुरु मर भी सकता था। एक दिन सांझ पिरहो निकला है अपने घर के बाहर। वर्षा के | तो न करने का फल नहीं होता, ऐसा मत सोचना। फल तो न दिन हैं। रास्ते के किनारे एक गड्ढे में उसका बूढ़ा गुरु गिर पड़ा है। करने का भी होता है। कर्म का भी फल होता है, आलस्य का भी और फंस गया है। गले तक कीचड़ में डूबा हुआ गुरु; पिरहो किनारे फल होता है। खड़ा होकर सोचता है, निकालूं या न निकालूं! क्योंकि पिरहो का | | हम कुछ करें या न करें, निर्णय तो लेना ही होगा। निर्णय मजबूरी खयाल है, तब तक कोई कर्म करना उचित नहीं, जब तक कि उसके | है। इसलिए जो सोचता हो कि मैं निर्णय से बच रहा हूं, वह बेईमान परिणाम पूरी तरह सुनिश्चित रूप से ज्ञात न हो जाएं। और परिणाम है। क्योंकि बचना भी अंततः निर्णय है और उसके भी फल होंगे। शुभ होंगे या अशुभ, जब तक यह साफ न हो, तब तक कर्म में | अर्जुन भी ऐसी ही दुविधा में है। वह कर्म में उतरे, न उतरे? युद्ध उतरना भ्रांति है। | में प्रवेश करे, न करे? क्या होगा फल? शुभ होगा कि अशुभ गुरु को बचाने से शुभ होगा या अशुभ; गुरु बचकर जो भी | | होगा? इसके पहले कि वह कदम उठाए, भविष्य को देख लेना करेंगे जीवन में, वह शुभ होगा या अशुभ; जब तक यह साफ न | | चाहता है। जो कि संभव नहीं है, जो कभी भी संभव नहीं हुआ और Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि कभी भी संभव नहीं होगा। क्योंकि भविष्य का अर्थ ही यह है, जो न देखा जा सके; जो अभी नहीं है; जो अभी गर्भ में है; होगा । वर्तमान देखा जा सकता है। निर्णय वर्तमान के संबंध में लिए जा सकते हैं। भविष्य अंधेरे में है, छिपा है अज्ञात में। अर्जुन चाहता है, उसका भी निर्णय ले ले, तो ही युद्ध में उतरे। और ध्यान रहे, पिरहो और अर्जुन की हालत में बहुत फर्क नहीं अर्जुन की हालत और भी बुरी है। वहां तो एक आदमी डूबता और मरता था, यहां लाखों लोगों के मरने और बचने का सवाल है। युद्ध की आखिरी घड़ी में उसके मन को संदेह ने पकड़ लिया है। वस्तुतः जब भी आपको कोई कर्म करने का निर्णय लेना होता है, तब आप सभी अर्जुन की अवस्था में पहुंच जाते हैं। इसलिए अधिक लोग निर्णय लेने से बचते हैं। कोई और उनके लिए निर्णय । पिता बेटे से कह दे, ऐसा करो। गुरु शिष्य से कह दे, ऐसा करो। आप इसीलिए आज्ञा मानते हैं । आज्ञा मानने की मौलिक आधारशिला खुद निर्णय से बचना है। दुनिया में लोग कहते हैं कि लोगों को स्वतंत्र होना चाहिए। लेकिन लोग स्वतंत्र नहीं हो सकते। लोग आज्ञा मानेंगे ही। क्योंकि आज्ञा मानने में एक तरकीब है, उसमें निर्णय कोई और लेता है; आप निर्णय की जो दुविधा है, निर्णय का जो कष्ट है, जो कठिनाई है, उससे बच जाते हैं। इसलिए लोग गुरु को खोजते हैं, नेताओं को खोजते हैं। किसी के पीछे चलना चाहते हैं। पीछे चलने में एक सुविधा है; जो आगे चल रहा है, वह निर्णय लेगा। पीछे चलने वाले को निर्णय लेने की जरूरत नहीं है । यद्यपि यह भी भ्रांति है। क्योंकि किसी के पीछे चलने का निर्णय लेना, सारे निर्णयों की जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। चुन तो आपने लिया है, लेकिन अपने को धोखा देने की सुविधा है। अर्जुन जैसी कठिनाई प्रत्येक व्यक्ति को अनुभव होगी। इसलिए गीता का संदेश बहुत शाश्वत है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में वही कठिनाई है। हर कदम पर, प्रतिपल, एक पैर भी उठाना है, तो निर्णय लेना है। क्योंकि हर पैर उठाने का परिणाम होगा और जीवन भिन्न होगा। एक कदम भी बदल देने से जीवन भिन्न हो जाएगा। आज आप यहां मुझे सुनने आ गए हैं। आपका जीवन वही नहीं हो सकता अब, जो आप मुझे सुनने न आए होते तो होता । वही हो ही नहीं सकता। अब कोई उपाय नहीं है। यह बड़ा निर्णय है । क्योंकि इस समय में आप कुछ करते। किसी के प्रेम में पड़ सकते थे; विवाह कर सकते थे। किसी से झगड़ सकते थे; दुश्मनी पैदा 3 | कर सकते थे। इस समय में कुछ न कुछ आप करते, जो जिंदगी | को कहीं ले जाता । इस समय मुझे सुन रहे हैं। यह भी कुछ कर रहे हैं। यह भी जिंदगी को कहीं ले जाएगा। क्योंकि एक-एक शब्द आपको भिन्न करेगा। आप वही नहीं हो सकते। चाहे आप मैं जो कहूं, उसे मानें या न मानें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । न मानें, तो भी आप वही नहीं होंगे। क्योंकि न मानने का निर्णय आपको भिन्न जगह ले जाएगा। मानें तो भी, न मानें तो भी! एक पलक भी झपकी, तो हम बदल रहे हैं। और एक पलक का फासला बड़ा फासला हो सकता है। मंजिल में हजारों मील का फर्क हो सकता है। इस अर्जुन की मनःस्थिति को ठीक से समझ लें, तो फिर कृष्ण का प्रयास समझ में आ सकता है कि कृष्ण क्या कर रहे हैं। अर्जुन उस दुविधा में खड़ा है, जो प्रत्येक मन की दुविधा है। और जब तक मन रहेगा, दुविधा रहेगी। क्योंकि मन कहता है, तुम | कुछ करने जा रहे हो, इसका परिणाम तुम्हें ज्ञात नहीं। और जब तक | परिणाम ज्ञात न हो, तुम कैसे करने में उतर रहे हो ? मन प्रश्न उठाता है और उत्तर नहीं है। अर्जुन प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ा है। उत्तर की तलाश है। यह उत्तर उधार भी मिल सकता है। कोई कह दे और जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ले। कोई कह दे कि भविष्य ऐसा है। भविष्य के संबंध | में कोई निर्णायक मंतव्य दे दे और सारा जिम्मा अपने ऊपर ले ले, तो अर्जुन युद्ध में कूद जाए या युद्ध से रुक जाए। कोई भी निष्कर्ष अर्जुन ले सकता है। लेकिन तब निर्णय उधार होगा, किसी और पर निर्भर होगा। कृष्ण कोई उधार वक्तव्य अर्जुन को नहीं देना चाहते। इसलिए | गीता एक बड़ा गहन मनो-मंथन है। एक शब्द में भी कृष्ण कह सकते थे कि मुझे पता है भविष्य । तू युद्ध कर। पर कृष्ण की अनुकंपा यही है कि उत्तर न देकर, अर्जुन के मन को गिराने की वे चेष्टा कर रहे हैं। जहां से संदेह उठते हैं, उस स्रोत को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं; न कि संदेह के ऊपर आस्था और श्रद्धा का एक पत्थर रखकर उसको दबाने की। अर्जुन को किसी तरह समझा-बुझा देने की कोशिश नहीं है । अर्जुन को रूपांतरित करने की चेष्टा है। अर्जुन नया हो जाए, वह उस जगह पहुंच जाए, जहां मन गिर जाता है। जहां मन गिरता है, वहां संदेह गिर जाता है। क्योंकि कौन करेगा संदेह ? जहां मन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 गिरता है, वहां भविष्य गिर जाता है, क्योंकि कौन सोचेगा भविष्य? जो उस अंधेरे में मजे से रह रहा है, उसकी चिंताएं कारागृह के __ मन के गिरते ही वर्तमान के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व नहीं | | भीतर की हैं। जो कारागृह के बाहर जाना चाहता है, उसकी तो नई है। मन के गिरते ही व्यक्ति कर्म करता है, लेकिन कर्ता नहीं होता चिंताएं आ गईं, कि कारागृह से बाहर कैसे निकलें? इसलिए है। क्योंकि वहां कोई अहंकार नहीं बचता पीछे, जो कहे, मैं। मन | धार्मिक आदमी गहन चिंता में डूब जाता है। यह स्वाभाविक है। मैं ही कहता है, मैं। चूंकि चिंता का केंद्र है। फिर कर्म सहज और सरल हो जाता है। फिर वह कर्म चाहे युद्ध __ कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन कैसे मिट जाए। गुरु का में जाना हो, चाहे युद्ध से हट जाना हो, लेकिन उस कर्म के पीछे सारा उपाय सदा ही यही रहा है कि शिष्य कैसे मिट जाए। कर्ता नहीं होगा। सोच-विचारकर, गणित, तर्क से लिया गया ___ यहां जरा जटिलता है। क्योंकि शिष्य मिटने नहीं आता। शिष्य निष्कर्ष नहीं होगा। सहज होगा कर्म। अस्तित्व जो चाहेगा उस क्षण होने आता है। शिष्य बनने आता है, कुछ पाने आता है। सफलता, में, वही अर्जुन से हो जाएगा। कृष्ण की भाषा में, परमात्मा जो शांति, सिद्धि, मोक्ष, समृद्धि, स्वास्थ्य-कुछ पाने आता है। चाहेगा अर्जुन से वही हो जाएगा। अर्जुन निमित्त हो जाएगा। इसलिए गुरु और शिष्य के बीच एक आंतरिक संघर्ष है। दोनों की __ अभी अर्जुन कर्ता होने की कोशिश कर रहा है। अभी वह चाहता आकांक्षाएं बिलकुल विपरीत हैं। शिष्य कुछ पाने आया है और गुरु है, मैं जो करूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है। उसका दायित्व मेरा है। कुछ छीनने की कोशिश करेगा। शिष्य कुछ होने आया है, गुरु मेरे ऊपर होगा, शुभ या अशुभ। मैं कर रहा हूं। मिटाने की कोशिश करेगा। शिष्य कहीं पहुंचने के लिए उत्सुक है, और अगर आप कर रहे हैं. तो बडी चिंता पकडेगी। इसलिए गरु उसे यहीं ठहराने के लिए उत्सक है। जितना ज्यादा मैं का भाव होगा, उतनी ज्यादा जीवन में चिंता होगी। पूरी गीता इसी संघर्ष की कथा है। अर्जुन घूम-घूमकर वही जितना मैं का भाव कम होगा, उतनी चिंता क्षीण हो जाएगी। और | चाहता है, जो प्रत्येक शिष्य चाहता है। कृष्ण घूम-घूमकर वही जिस व्यक्ति को चिंता से बिलकुल मुक्त होना है, उसे मैं से मुक्त | | करना चाह रहे हैं, जो प्रत्येक गुरु करना चाहता है। एक दरवाजे से हो जाना पड़ेगा। मैं ही चिंता है। कृष्ण हार जाते लगते हैं, क्योंकि अज्ञान गहन है, तो दूसरे दरवाजे लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हम कैसे निश्चित हो जाएं ? | से कृष्ण प्रवेश की कोशिश करते हैं। वहां भी हारते दिखाई पड़ते . मैं उनसे कहता हूं, जब तक तुम हो, तब तक निश्चित न हो सकोगे। हैं, तो तीसरे दरवाजे से प्रवेश करते हैं। क्योंकि तुम चिंता के स्रोत हो। जैसे बीज से अंकुर निकलते हैं, ऐसे ___ ध्यान रहे, शिष्य बहुत बार जीतता है। गुरु सिर्फ एक बार जीतता तुमसे चिंताओं के अंकुर निकलते हैं। तुम चिंताओं को पोषण कर | है। गुरु बहुत बार हारता है शिष्य के साथ। लेकिन उसकी कोई हार रहे हो। तुम आधार हो। फिर तुम परेशान हो कि मैं कैसे निश्चित | | अंतिम नहीं है। और शिष्य की कोई जीत अंतिम नहीं है। बहुत बार हो जाऊं! तब निश्चित होना और एक नई चिंता बन जाती है। तब जीतकर भी शिष्य अंततः हारेगा। क्योंकि उसकी जीत उसे कहीं नहीं शांत होने की चेष्टा एक नई अशांति बन जाती है। ले जा सकती। उसकी जीत उसके दुख के डबरे में ही उसे डाले इसलिए साधारण आदमी उतना चिंतित नहीं है, जितना धार्मिक, | | रखेगी। और जब तक गुरु न जीत जाए, तब तक वह दुख के डबरे असाधारण आदमी चिंतित होता है। अपराधी उतना चिंतितं नहीं है, | के बाहर नहीं आ सकता है। लेकिन संघर्ष होगा। बड़ा प्रीतिकर जितना साधु चिंतित दिखाई पड़ता है। संघर्ष है। बड़ी मधुर लड़ाई है। जितना ज्यादा चिंता से हम छूटना चाहते हैं, उतनी नई चिंता हमें | शिष्य की अड़चन यही है कि वह कुछ और चाह रहा है। और पकड़ती है। एक तो यह नई चिंता पकड़ लेती है कि चिंता से कैसे इन दोनों में कहीं मेल सीधा नहीं बैठता। इसलिए गीता इतनी लंबी छुटे! और कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता छूटने का, तो मन बड़े होती जाती है। एक दरवाजे से कृष्ण कोशिश करते हैं, अर्जुन वहां भयंकर बोझ से दब जाता है। जैसे कोई छुटकारा नहीं, कोई मार्ग जीत जाता है। जीत जाता है मतलब, वहां नहीं टूटता। जीत जाता नहीं। इस कारागृह के बाहर जाने के लिए कोई द्वार खुला नहीं | है मतलब, वहां नहीं मिटता। चूक जाता है उस अवसर को। उसकी दिखता, कोई स्रोत नहीं दिखता, कोई सूत्र नहीं समझ में आता कि जीत उसकी हार है। क्योंकि अंततः जिस दिन वह हारेगा, उसी दिन कैसे बाहर जाएं। एक प्रकाश की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। | जीतेगा। उसकी हार उसका समर्पण बनेगी। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि * तो कृष्ण दूसरे दरवाजे पर हट जाते हैं; दूसरे मोर्चे से संघर्ष शुरू | | लेकिन पश्चिम की खोज कहती है कि बुद्ध के इतने वचन हो जाता है। ये प्रत्येक अध्याय अलग-अलग मोर्चे हैं। और इन उपलब्ध हैं कि अगर बुद्ध पैदा होने के दिन से पूरे सौ वर्ष अहर्निश अलग-अलग अध्यायों में वे सब द्वार आ गए हैं, जिनसे कभी भी | बोले हों, सुबह से दूसरी सुबह तक; न सोए हों, न उठे, न बैठे हों, किसी गुरु ने शिष्य को मिटाने की कोशिश की है। अर्जुन मिटे तो | तो भी शास्त्र ज्यादा मालूम पड़ते हैं। एक व्यक्ति सौ वर्ष निरंतर ही हल हो सकता है। बिना मिटे कोई हल नहीं है। बोलता रहे, बिना रुके, अविच्छिन्न, जन्म के दिन से मरने के क्षण शिष्य की मृत्यु में ही समाधान है। क्योंकि वहीं उसकी बीमारियां तक, न सोए, न कुछ और करे, तो इतना बोल पाएगा जितना बुद्ध गिरेंगी। वहीं उसकी समस्याएं गिरेंगी। वहीं उसके प्रश्न गिरेंगे। वहीं के वचन उपलब्ध हैं। से उसके भीतर उसका उदय होगा. जिसके लिए कोई समस्याएं नहीं स्वभावतः, खोज करने वाले कहते हैं कि ये प्रक्षिप्त हैं। दूसरे हैं। वह चेतना भीतर छिपी है और उसे मुक्त करना है। और जब लोगों के वचन इसमें मिल गए हैं। एक आदमी इतना बोल नहीं तक यह साधारण मन न मर जाए, तब तक कारागृह नहीं टूटता, सकता। दस साल में इतना नहीं बोला जा सकता, जितना कि सौ जंजीरें नहीं गिरती, भीतर छिपा हुआ प्रकाश मुक्त नहीं होता। । साल निरंतर कोई बोले! इसका मतलब यह हुआ कि अगर बुद्ध प्रकाश बंद है आप में, उसे मुक्त करना है। और आपके | | दस गुना जीते, तो इतना बोल सकते थे। या दस बुद्ध होते, तो इतना अतिरिक्त कोई बाधा नहीं डाल रहा है। आप सब तरह से कोशिश | बोल सकते थे। करेंगे, क्योंकि आप समझ रहे हैं जिसे अपना स्वरूप, जिस | मैं इसका कुछ और ही अर्थ लेता हूं। मैं इसका इतना ही अर्थ अहंकार को, आप उसको बचाने की कोशिश करेंगे। आप सोचते | | लेता हूं कि जो बात इतनी लंबी मालूम पड़ती है, उसके लंबे होने हैं, आत्म-रक्षा कर रहे हैं। अर्जुन भी आत्म-रक्षा में संलग्न है। | | का कारण शिष्यों के साथ...अर्जुन के साथ तो कृष्ण का अकेला लेकिन गुरु अंततः जीतता है। उसके हारने का कोई उपाय नहीं | संघर्ष है, एक शिष्य है। बुद्ध के पास दस हजार शिष्य थे। यह है। बहुत बार हारता है। उसकी सब हार झूठी है। शिष्य बहुत बार | | संघर्ष बड़ा है, विराट है। इतने वचन इसीलिए हैं, जैसे बुद्ध दस जीतता है। उसकी सब जीत झूठी है। अंततः उसे हार जाना होगा। । | मुंह से एक साथ बोले हों। ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी है, जहां से अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें। | शिष्य के ऊपर हमला न किया हो, आक्रमण न किया हो। कृष्ण बोले, हे अर्जुन, ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं गुरु थकता नहीं। फिर भी तेरे लिए कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन इस फिर से तेरे लिए कहूंगा! ज्ञानों में भी अति उत्तम ज्ञान को, परम संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। ज्ञान को मैं फिर से तेरे लिए कहूंगा कि जिसको जानकर सब ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान मैं फिर तेरे लिए कहूंगा। बहुत | | मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। . बार पहले भी उन्होंने कहा है। कहते हैं, फिर तेरे लिए कहूंगा। गुरु __ अज्ञान गैर-जानकारी का नाम नहीं है। अज्ञान गलत जानकारी थकता ही नहीं। जब तक तुम सुन ही न लोगे, तब तक वह कहे ही | का नाम है। गैर-जानकारी भोलापन भी हो सकती है। अज्ञान चला जाएगा। जटिल है, भोलापन नहीं है। अज्ञानी कुशल होते हैं, चालाक होते पश्चिम में बुद्ध के वचनों पर बड़ी खोज हुई है। वे बड़े हैरान | | हैं, कुटिल होते हैं। अज्ञानी नहीं जानता, ऐसा नहीं है; गलत जानता हुए। हैरानी की बात है। क्योंकि बुद्ध अस्सी साल जीए। कोई | | है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। चालीस साल की उम्र में ज्ञान हुआ। वे चालीस साल तुम अलग । न जानने से हम उलझन में नहीं पड़े हैं। हमारी उलझन गलत कर दो। फिर चालीस साल बचते हैं। इन चालीस साल में एक | जानने की उलझन है। न जानने से कोई कैसे उलझेगा? गलत जानने तिहाई हिस्सा तो नींद में चला गया होगा। कुछ घंटे भोजन-भिक्षा | से कोई उलझ सकता है। उलझने के लिए भी कुछ जानना जरूरी है। में चले गए होंगे रोज। कछ घंटे रोज यात्रा में चले गए होंगे। अगर | | थोड़ी देर को समझें, अर्जुन की जगह अगर कोई सच में ही आठ घंटे नींद के गिन लें, चार घंटे रोज यात्रा के गिन लें, दो घंटे | | भोला-भाला आदमी होता, जो कुछ नहीं जानता, तो वह युद्ध में स्नान-भोजन-भिक्षा के गिन लें, तो चालीस साल में से करीब तीस | | उतर जाता। क्या अड़चन थी? अर्जुन के सिवाय किसी ने सवाल साल ऐसे व्यय हो जाते हैं। दस साल बचते हैं। नहीं उठाया। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उलझन है। भीम है, उसे कोई अड़चन नहीं है। वह अपनी गदा उठाए तैयार | || वासनाओं का संघर्ष था। अर्जुन उसे ले आया। खड़ा है। जब भी युद्ध शुरू हो जाएगा, वह कूद पड़ेगा। वह भी संघर्ष भारी रहा होगा। क्योंकि अर्जुन के भी चार भाई उसे लाना अज्ञानी है। लेकिन अर्जुन से भिन्न तरह का अज्ञान है। उसका चाहते थे। और स्त्री ऐसी कुछ रही होगी कि पांचों भाई उसके कारण अज्ञान सिर्फ जानकारी का अभाव है। उसे ये सवाल भी नहीं उठते | टूट सकते थे और मिट सकते थे। इसलिए पांचों ने बांट लिया है। कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है। मारूंगा, तो पाप लगेगा कि पुण्य | कहानी तो सिर्फ ढांकने का उपाय है। होगा, ये सब सवाल भी नहीं उठते। वह बच्चे की तरह है। ___ कहानी है कि मां ने कहा कि तुम पांचों बांट लो, क्योंकि मां को अर्जुन पंडित है। अर्जुन जानता है। अर्जुन जानता है कि यह | | कुछ पता नहीं। अर्जुन ने बाहर से इतना ही कहा कि मां, देखो, क्या बुरा है, यह भला है; ऐसा करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए। | ले आया हूं! उसने भीतर से कहा कि तुम पांचों बांट लो। यह धर्म-अधर्म का उसे खयाल है। उसकी जानकारी ही उसकी कहानी तो सिर्फ ढांकने का उपाय है। असली बात यह है कि द्रौपदी पर पांचों भाइयों की नजर है। और अगर द्रौपदी नहीं बंटती, तो ये अज्ञान अगर सिर्फ गैर-जानकारी हो, तो मनुष्य सरल होता है, | पांचों कट जाएंगे, ये पांचों बंट जाएंगे। निर्दोष होता है, बच्चों की भांति होता है। उलझन नहीं होती। मुक्त | इस द्रौपदी से सारा का सारा–अगर ठीक से समझें. तो काम नहीं हो जाता उतने से, कारागृह के बाहर भी नहीं निकल जाता, | से, वासना से, इच्छा से सारा सूत्रपात है। फिर उपद्रव बढ़ते चले लेकिन कारागृह में ही प्रसन्न होता है। उसे कारागृह का पता ही नहीं | जाते हैं। लेकिन मूल में द्रौपदी को पाने की आकांक्षा है। फिर होता। जानकारी हो, अड़चन शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे एक-एक बात जुड़ते-जुड़ते यह युद्ध आ गया। अर्जुन की कठिनाई यह है कि उसे पता है कि गलत क्या है। आज तक अर्जुन को खयाल नहीं उठा; आखिरी चरण में ही लेकिन इतना भर पता होने से कि गलत क्या है, वासना नहीं मिट | स्मरण आया। अब तक इतनी सीढ़ियां चढ़कर जहां पहुंचा है, हर जाती। वासनाएं तो अपने ही मार्ग पर चलती हैं। और बुद्धि अलग | सीढ़ी से इस बात की सूचना मिल सकती थी। मार्ग पर चलने लगती है, दुविधा खड़ी होती है। पूरी प्रकृति शरीर जब भी आप कुछ चाहते हैं, आप युद्ध में उतर रहे हैं। क्योंकि की कुछ कहती है करने को, और बुद्धि ऊपर से खड़े होकर सोचने | आप अकेले चाहने वाले नहीं हैं, और करोड़ों लोग भी चाह रहे हैं। लगती है। व्यक्ति दो हिस्सों में बंट जाता है। यह बंटाव, यह चाह का मतलब प्रतियोगिता है. चाह का मतलब यद्ध है। जैसे ही खंडित हो जाना व्यक्ति का, यह स्प्लिट पर्सनैलिटी, दो स्वर का | मैंने चाहा, कि मैं संघर्ष में उतर गया। पैदा हो जाना, इससे दुविधा खड़ी होती है। फिर कोई निर्णय नहीं इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि संघर्ष के बाहर केवल वही हो लिया जा सकता। | सकता है, जिसकी कोई चाह नहीं। उसकी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। अर्जुन युद्ध तो करना ही चाहता है। सच तो यह है कि वही युद्ध वह किसी की दुश्मनी में नहीं खड़ा है। की इस स्थिति को ले आया है। कौन कहता था युद्ध करो? युद्ध पर अर्जुन को यह खयाल कभी नहीं आया। अब तक वह ठीक की इस घड़ी तक आने की भी कोई जरूरत न थी। वासनाएं तो युद्ध | शरीर के एक हिस्से को मानकर चलता रहा। आज सारी चीज के क्षण तक ले आई हैं। इस सारे युद्ध की जड़ में अर्जुन छिपा है। अपनी विकराल स्थिति में खड़ी हो गई है। इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए, क्योंकि उससे ही गीता का अर्थ | | यह थोड़ा समझने जैसा है। भी स्पष्ट होगा। कामवासना जन्म की पर्यायवाची है और युद्ध मत्य का यह सारा युद्ध शुरू होता है द्रौपदी के साथ। द्रौपदी को अर्जुन पर्यायवाची है। और सभी कामवासना अंत में मृत्यु पर ले आती है। ले आया। दुर्योधन भी लाना चाहता था। वह सुंदरतम स्त्री रही | ऐसा होगा ही। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जो मृत्यु के पार जाना होगी। न केवल सुंदरतम, बल्कि तीखी से तीखी स्त्रियों में एक।। | चाहता हो, उसे कामवासना के पार जाना होगा। काम में हमारा सौंदर्य जब तीखा होता है, तो और भी प्रलोभित हो जाता है। द्रौपदी | जन्म है और काम में ही हमारी मृत्यु है। .. तेज, अति तीव्र धार वाली स्त्री है। उसने सभी को आकर्षित किया। यह युद्ध तो आखिरी क्षण है, जब मृत्यु प्रकट हो गई। लेकिन होगा। दर्योधन भी उसे अपनी पत्नी बनाकर ले आना चाहता था। इसका बीज तो बो दिया गया उस दिन, जिस दिन द्रौपदी पर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि * कामवासना फेंकी गई। उस दिन इसका बीज बो दिया गया। | खड़े हो गए हैं! दुर्योधन भी चाहता था। अर्जुन के खुद दूसरे भाई भी चाहते थे। ___ ध्यान रहे, जब भी आप किसी भ्रांति में कदम उठाते हैं, तो पहले और चाह सभी की एक-सी है। गलत और सही चाह में कुछ भी कदम पर किसी को पता नहीं चलता। पहले कदम पर पता चल नहीं होता। अर्जन द्रौपदी को पा सका है. क्योंकि धनर्विद्या में बस. अंतिम कदम पर कुशल है। तो द्रौपदी को पाना किसी कशलता पर निर्भर है, तो फिर | पता चलता है, जब पीछे लौटना मुश्किल होता है। दुर्योधन ने जुए में कुशलता दिखाने की कोशिश किया है और जब आप में पहली दफा क्रोध उठता है, पहली लहर, तब द्रौपदी को छीन लेना चाहा है। वह भी एक कुशलता है। कुशलता आपको पता नहीं चलता। जब आप छुरा लेकर किसी की छाती में का संघर्ष है। भोंकने को ही हो जाते हैं, जब कि अपने ही हाथ को रोकना असंभव और महाभारत के एक-एक पात्र में उतरने जैसा है, क्योंकि वे | | हो जाता है, जब कि हाथ इतना आगे जा चुका कि अब लौटाया जीवन के प्रतीक हैं। नहीं जा सकता, कि आप लौटाना भी चाहें, तो अब मोमेंटम हाथ द्रौपदी की शादी के बाद पांडवों ने एक महल बनाया, वह उत्सव का ऐसा है कि अब लौट नहीं सकता। हाथ को जो गति मिल गई के लिए था। और दुर्योधन और उसके भाइयों को निमंत्रित किया। | है, वह छुरा छाती में घुसकर रहेगा। अब एक ही उपाय है, इतना महल ऐसा बनाया था, उस दिन की श्रेष्ठतम इंजीनियरिंग की | आप कर सकते हैं कि चाहें तो छुरे की धार अपनी छाती की तरफ व्यवस्था की थी, कि जहां दरवाजे नहीं थे, वहां दरवाजे दिखाई | कर लें या दूसरे की तरफ कर दें। लेकिन हाथ चल पड़ा। या तो पड़ते थे, इस भांति कांचों का, दर्पणों का जमाव किया। जहां | | हत्या होगी या आत्महत्या होगी। दीवार थी, वहां दरवाजा दिखाई पड़ता था; भ्रामक था। जहां | ___जीवन में पहले कदम पर ही कुछ किया जा सकता है। इस संबंध दरवाजा था, वहां दीवार मालूम होती थी। दर्पणों के आयोजन से | | में भी मनुष्य के अंतस्तल की एक यांत्रिक व्यवस्था को समझ लेना ऐसा किया जा सकता है। जरूरी है। और जब दुर्योधन उन झूठे दरवाजों में टकरा गया जहां दीवार थी, मनुष्य के व्यक्तित्व में दो तरह के यंत्र हैं। एक, जो स्वेच्छा से तो द्रौपदी हंसी और उसने कहा कि अंधे के लड़के हैं। यह व्यंग्य | चालित है। हम इच्छा करते हैं, तो चलते हैं। दूसरे यंत्र हैं, जो भारी पड़ गया। पांडव हंसे। उन्होंने मजा लिया। अंधे के बेटे तो स्वेच्छाचालित नहीं हैं, जो स्वचालित हैं। जिनमें हमारी इच्छा कुछ जरूर कौरव थे। लेकिन कोई भी अपने बाप को अंधा नहीं सुनना नहीं कर सकती। और जब पहले यंत्र से हम काम लेते हैं, तो एक चाहता, अंधा हो तो भी। कोई भी अपने को बुरा नहीं देखना चाहता। सीमा आती है, जहां से काम पहले यंत्र के हाथ से दूसरे यंत्र के और ध्यान रहे, गाली एक बार क्षमा कर दी जाए, व्यंग्य क्षमा हाथ में चला जाता है। नहीं किया जा सकता। गाली उतनी चोट नहीं करती, व्यंग्य __ समझें कि आप कामवासना से भर गए हैं। एक सीमा है, जब सूक्ष्मतम गाली है। किसी पर हंसना गहन से गहन चोट है। इसलिए | तक आप चाहें, तो रुक सकते हैं। लेकिन एक सीमा आएगी, जहां ध्यान रखना, आप गाली देकर दूसरों को इतनी चोट नहीं पहुंचाते; | | कि शरीर का स्वचालित यंत्र कामवासना को पकड़ लेगा। फिर जब कभी आप मजाक करते हैं, तब जैसी आप चोट पहुंचाते हैं, | | आप रुकना भी चाहें, तो नहीं रुक सकते। फिर रुकना असंभव है। वैसी कोई गाली नहीं पहुंचा सकती। सभी वासनाएं दोहरे ढंग से काम करती हैं। पहले हम उन्हें इच्छा महावीर ने अपने वचनों में कहा है कि साधु किसी का व्यंग्य न से चलाते हैं। फिर इच्छा उन्हें आग की तरह उत्तप्त करती है, सौ करे। इसको हिंसा कहा है, बड़ी से बड़ी हिंसा। डिग्री पर लाती है, फिर वे भाप बन जाती हैं। फिर इच्छा के हाथ के लेकिन अर्जुन ने उस दिन सवाल नहीं उठाया कि हम एक बड़ी | | बाहर हो जाती हैं। फिर आपके भीतर यंत्रवत घटना घटती है। हिंसा कर रहे हैं। न, यह सब वासना का खेल चलता रहा। अब ___ इसलिए बुद्ध ने कहा है, क्रोध पैदा हो, उसके पहले तुम जग यह उसकी अंतिम परिणति है। यह युद्ध उस सब का जाल है। यहां | | जाना। वासना उठे, उसके पहले तुम उठ जाना और होश से भर आकर उसे पता चला। यहां उसकी बुद्धि ने जब देखा चारों तरफ | | जाना। क्योंकि पहला कदम अगर उठ गया, तो तुम्हें अंतिम कदम नजर डालकर कि क्या हमने कर डाला है! और हम कहां आकर | | उठाने की भी मजबूरी हो जाएगी। मध्य में रुकना असंभव है। चीजें Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * चल पड़ती हैं। हैं। गीता है वासना के आखिरी क्षण में साधना। महावीर की साधना महावीर का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है कि जो आधा चल पड़ा, | | के सारे सूत्र पहले क्षण में हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, अपने वह मंजिल पर पहुंच ही गया। क्योंकि बीच से लौटना मुश्किल है। । | मालिक बनो। क्योंकि अगर पहले क्षण में कोई निमित्त बन गया, तो इसका कारण यही है कि हमारे भीतर दोहरे यंत्र हैं। आप अपनी व्यर्थ बह जाएगा वासना में। पहले क्षण में मालिक बन सकता है। किसी भी वृत्ति में इसका निरीक्षण करें, तो आपको पता चल जाएगा | जब तक इच्छा के अंतर्गत है सब, तब तक हम उसका त्याग कर कि एक सीमा तक आप चाहें, तो वापस लौट सकते हैं; हाथ के सकते हैं। पहले क्षण में निमित्त बनने की कोई भी जरूरत नहीं है। भीतर है। आप खुद ही वह सीमा-रेखा पहचान लेंगे। और अगर | और जो पहले क्षण में मालिक बन जाता है, उसे निमित्त बनने की अपने भीतर आपने उस सीमा को पकड़ लिया, जहां से इच्छाएं हाथ | | कभी भी जरूरत नहीं पड़ेगी। अंतिम क्षण आएगा नहीं। ' के बाहर हो जाती हैं, तो आप अपने मालिक हो सकते हैं। इसलिए महावीर की और कृष्ण की साधनाएं बिलकुल विपरीत अर्जुन आखिरी घड़ी में, जब कि सब हो चुका, बस आखिरी | मालूम पड़ेंगी। और जो नहीं समझ सकते हैं, सिर्फ शास्त्र पढ़ते हैं, परिणाम होने को है, वहां आकर डांवाडोल हो गया है। उनको लगेगा कि वे विरोधी हैं। वे विरोधी नहीं हैं। __ और ध्यान रहे, सभी लोग वहीं आकर डांवाडोल होते हैं। | जैसे कि कोई आदमी पानी गरम कर रहा है, और अभी उसने क्योंकि जब पूरी चीजें प्रकट होती हैं, तभी हमें होश आता है। पहले | आग जलाई ही है। हम कहते हैं, अंगार बाहर खींच लो। अभी रुक तो चीजें छिपी-छिपी चलती हैं। बहुत धाराओं में चलती हैं। सकती है बात। अभी पानी गरम भी नहीं हुआ था। अभी कुनकुना छोटे-छोटे झरने बहते हैं। फिर सब झरने मिलकर जब बड़ा विराट भी नहीं हुआ थाअभी भाप बनना बहुत दूर था। अभी आंच पकड़ी नद बन जाता है, तब हमें दिखाई पड़ता है। फिर हमें लगता है, यह | ही नहीं थी पानी को। अभी पानी अपनी जगह था, आपने चूल्हा हमने क्या कर लिया। फिर हम भागना चाहते हैं। लेकिन अब घटना | जलाया ही था। अभी अंगारे, ईंधन वापस खींचा जा सकता है। हम से बड़ी हो गई। और अब भागने का कोई उपाय नहीं है। अब | महावीर कहते हैं, पहले क्षण में रुक जाओ; आधे के बाद रुकना पीछे हटने का कोई उपाय नहीं है। | मुश्किल हो जाएगा, चीजें तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर हो जाएंगी। अर्जुन उस घड़ी में बात कर रहा है, जहां कि चीजें स्वचालित हो और निश्चित ही, जो पहले क्षण में नहीं रुक सकता, वह आधे गई हैं, जहां कि युद्ध अस्तित्व की घटना बन गई है। इसे थोड़ा में कैसे रुकेगा? क्योंकि पहले में चीजें बहुत कमजोर थीं, तब तुम समझ लेना चाहिए। जहां यद्ध से अब लौटने का कोई उपाय नहीं. न रुक सके। आधी में तो बहत मजबत हो गईं, तब तम कैसे जहां युद्ध होगा। पानी सौ डिग्री तक गरम हो चुका। अगर हम नीचे | रुकोगे? और जब अंतिम, निन्यानबे डिग्री पर पानी पहुंच गया, तब से अंगारे भी निकाल लें, तो भी भाप बनेगी। यह भाप का बनना तो तुम कैसे रुकोगे! अब एक नैसर्गिक कृत्य हो गया है। और इसी घड़ी में आदमी अगर महावीर से अर्जुन पूछता, तो वे कहते, जिस दिन तू द्रौपदी घबड़ाता है। लेकिन उसकी घबड़ाहट व्यर्थ है। रुकना था, पहले को स्वयंवर करने चला गया था, उसी दिन लौट आना था। वह रुक जाना था। पहला क्षण था। लेकिन कोई सोच भी नहीं सकता कि महाभारत का यह जो अर्जुन आखिरी क्षण में डांवाडोल हो रहा है। सभी का यह महायुद्ध द्रौपदी के स्वयंवर से शुरू होगा! मन होता है। नियम यह है कि या तो पहले क्षण में सजग हो जाएं बीज में वृक्ष नहीं देखे जा सकते। जो देख ले, वह धन्यभागी है। और वासना की यात्रा पर न निकलें। और अगर कोई वासना अंतिम | | वह वहीं रुक जाएगा। वह बीज को बोएगा नहीं। वृक्ष के फलों का क्षण में पहुंच गई हो, तो घबड़ाएं मत। अब निमित्त होकर उसे पूरा कोई सवाल नहीं उठेगा। हो जाने दें। निमित्त होकर पूरा हो जाने दें! लेकिन कृष्ण के सामने सवाल बिलकुल अन्यथा है। अंतिम पहले क्षण में आप मालिक हो सकते हैं, निमित्त होने की जरूरत | क्षण है। घटना घटकर रहेगी। चीजें उस जगह पहुंच गई हैं, जहां से न थी। यहीं कृष्ण, महावीर की साधनाओं का भेद है। और इसलिए लौटाई नहीं जा सकतीं। चीजों ने अपनी गति ले ली है। स्वचालित लोगों को लगता है कि ये तो बड़ी विपरीत बातें हैं। हो गई हैं। अब युद्ध अवश्यंभावी है; भाग्य है; अब वह नियति है। जैन गीता को कोई आदर नहीं दे सकते, क्योंकि पूरे पहलू अलग इस क्षण में क्या करना? Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि * इस क्षण में कृष्ण कहते हैं, तू निमित्त बन जा। अब तू कर्ता की | संसार है। आपके लिए भी संसार है। संसार तो ज्ञानी के लिए भी तरह सोच ही मत। अब तू यह निर्णय ही मत ले। अब निर्णय है। लेकिन ज्ञानी के पास मन नहीं है, इसलिए इसी संसार को वह अस्तित्व के हाथ छोड़ दे। तू सिर्फ एक उपकरण की तरह, जो हो | किसी और ढंग से देखने में समर्थ हो जाता है। यह संसार तब उसे रहा है उसे हो जाने दे। तू सिर्फ साक्षी रह और उपकरण बन। ब्रह्म-स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस संसार में तब उसे वह सारा जो व्यक्ति पहले क्षण में रुक जाए, उसे निमित्त बनने की कभी | | उपद्रव, वह सारा युद्ध, वह सारा विग्रह नहीं दिखाई पड़ता, जो हमें जरूरत न पड़ेगी। इसलिए महावीर की साधना में निमित्त शब्द का | | दिखाई पड़ता है। यह सारा जो प्रपंच का जाल हमें दिखाई पड़ता उपाय ही नहीं है, उपकरण बनने की बात ही फिजूल है। जो व्यक्ति है। यह हमारे मन का विभाजन है। किसी वासना के अंतिम चरण में साक्षी और निमित्त बन जाए, वह ऐसा समझें कि एक प्रिज्म में से कोई सूरज की किरण को दूसरी वासना के प्रथम क्षण में कभी कदम नहीं उठाएगा। जो पहले निकालता है। जैसे ही सूरज की किरण प्रिज्म को पार करती है कि कदम पर रुक जाए, उसे अंतिम तक पहुंचने का कोई कारण नहीं सात हिस्सों में टूट जाती है, सात रंगों में टूट जाती है, इंद्रधनुष पैदा है। जो अंतिम पर निमित्त बन जाए, उस साक्षी भाव में वह चीजों | | हो जाता है। इंद्रधनुष इसी तरह बनता है। हवा में अटके हुए पानी को इतनी प्रगाढ़ता में देख लेगा कि दूसरी कोई भी वासना बीज की | के कण प्रिज्म का काम करते हैं। उन पानी के कणों से जैसे ही सूरज तरह उसको धोखा नहीं दे पाएगी। | की किरण गुजरती है, वह सात हिस्सों में टूट जाती है। इंद्रधनुष अगर अर्जुन इस युद्ध में निमित्त बनकर गुजर जाए, तो कोई | निर्मित हो जाता है। सूरज की किरण में कोई भी रंग नहीं है, टूटकर दूसरी द्रौपदी उसे कभी नहीं लुभाएगी। फिर कोई वासना का बीज, | | सात रंग हो जाते हैं। सूरज की किरण रंगहीन है, टूटकर इंद्रधनुष जहां से उपद्रव शुरू होता है, उसे पकड़ेगा नहीं। वह आर-पार बन जाती है। देखने में समर्थ हो जाएगा, उसकी दृष्टि पारदर्शी हो जाएगी। । | जगत में कोई भेद नहीं, कोई प्रकार नहीं, कोई रंग नहीं। लेकिन अंतिम क्षण में निमित्त और पहले क्षण में मालिक, ये साधना | | मन के प्रिज्म से दिखाई पड़ने पर बहुत रंगीन हो जाता है, इंद्रधनुष की के सूत्र हैं। और दो में से एक काफी है। क्योंकि दूसरे की जरूरत | | तरह हो जाता है। जगत हमारे मन से देखा गया ब्रह्म है। और जब मन नहीं पड़ेगी। से जगत देखा जाता है, अस्तित्व देखा जाता है, तो संसार निर्मित हो ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर तेरे लिए कहूंगा कि | | जाता है। संसार टूटा हुआ इंद्रधनुष है। किसी भी भांति प्रिज्म बीच से जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि | हट जाए, तो इंद्रधनुष खो जाएगा और बिना रंग की शुद्ध किरण शेष को प्राप्त होते हैं। रह जाएगी, रूप-रंगहीन। अदृश्य किरण शेष रह जाएगी। इस संसार से मुक्त होकर...। | संसार अर्थात मन। इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति हई। क्योंकि संसार को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। संसार वह नहीं है, जो | | निरंतर ज्ञानीजन कहते रहे, संसार से ऊपर उठो। और अज्ञानीजन आपके चारों तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ता है। संसार वह है, जो | समझते रहे कि बाहर जो संसार फैला है, इससे भागो। इससे ऊपर आपके मन के चारों तरफ आपने बो रखा है। और अगर इस बाहर | उठो; मतलब हिमालय चले जाओ। कोई ऊंची जगह खोज लो, के संसार से आपका कोई भी संबंध है, तो इस भीतर के मन की | | जहां संसार से ऊपर उठ गए। दूर हट जाओ इससे। बुनावट के कारण है। __ और इंद्रधनुष से जो भागता है, उससे ज्यादा पागल और कौन इस बाहर के संसार को मिटाने, छोड़ने, भागने का कोई अर्थ है! इंद्रधनुष न दिखाई पड़े, ऐसी दृष्टि चाहिए। यह दृष्टि भीतरी नहीं है। इस भीतर मन की जड़ों को, इस मन के जाल को, जिससे | घटना है। आप देखते हैं चारों तरफ, जिससे परमात्मा आपको संसार जैसा | इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान दिखाई पड़ता है, इन वासनाओं के परदों को या चश्मों को अलग मैं तुझसे फिर से कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन संसार से कर लेने की बात है। | मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। नहीं तो परम ज्ञान संसार से कैसे मुक्त करेगा! संसार तो रहेगा| | संसार से मुक्त होना अर्थात मन से मुक्त होना। और मन से जो ज्ञानी के लिए भी। कृष्ण के लिए भी संसार है। बुद्ध के लिए भी मुक्त हुआ, वह परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि वह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * भीतर छिपी है सिद्धि। वह स्वभाव, वह परम निर्वाण या मोक्ष भीतर | है, फिर आ जाता है, फिर आ जाता है। रिकरेंस, पुनरावृत्ति भीतर छिपा है। होती रहती है। जैसे ही मन नहीं, कि हमें अपने होने का पता चल जाता है कि ___ एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक इस संबंध में अध्ययन कर रहा था, तो हम कौन हैं। इस मन के कारण न तो हमें अस्तित्व की वास्तविकता बहुत हैरान हुआ। क्योंकि अगर हम सोच लें कि एक विचार एक दिखाई पड़ती है और न अपनी। यह प्रिज्म दोहरा है। यह संसार को | | सेकेंड लेता हो, क्योंकि विचार ज्यादा वक्त नहीं लेता, एक सेकेंड तोड़ता है, बाहर अस्तित्व को तोड़ता है और भीतर स्वयं को तोड़ता | | में झलक आ जाती है, तो आप एक मिनट में कम से कम साठ है। तो भीतर हमें सिवाय विचारों के, वासनाओं के और कुछ भी | विचार करते हैं। फिर इस साठ में आप और साठ का गुणा करें, तो दिखाई नहीं पड़ता। | एक घंटे में इतने विचार। फिर इसमें आप चौबीस का गुणा करें, तो ह्यूम ने कहा है कि जब भी मैं अपने भीतर जाता हूं, तो मुझे | एक दिन में इतने विचार। कई लाख विचार! बड़े से बड़ा विचारक सिवाय वासनाओं के, विचारों के, कामनाओं के, कल्पनाओं के, | भी कई लाख विचार एक दिन में दावा नहीं कर सकता। स्वप्नों के और कुछ भी नहीं मिलता। और लोग कहते हैं, भीतर तो आप भीतर बड़ी दरिद्रता पाएंगे। वे ही विचार! फिर तो आपको जाओ तो आत्मा मिलेगी। ह्यूम ने कहा है कि अनुभव से मैं कहता | खुद भी हंसी आएगी कि मैं कर क्या रहा हूं! जिस बात को मैं हजार हूं कि भीतर बहुत बार जाकर देखा, आत्मा कभी नहीं मिलती। और दफा सोच चुका हूं, उसको फिर सोच रहा हूं। वे ही शब्द हैं, वे ही हजार चीजें मिलती हैं। | भीतर भाव हैं, वे ही मुद्राएं हैं। फिर वही दोहर रहा है यंत्रवत। आप भी प्रयोग करेंगे, तो ह्यूम से राजी होंगे। प्रयोग नहीं करते, बाहर संसार भी दौड़ रहा है। वर्षा आएगी, सर्दी आएगी, गरमी इसलिए आप सोचते हैं, भीतर आत्मा छिपी है। भीतर जाते ही नहीं, | | आएगी, मौसम घूम रहे हैं। सूरज निकलेगा, डूबेगा; चांद बड़ा इसलिए कभी मौका ही नहीं आता कि आप समझ सकें कि भीतर | होगा, छोटा होगा। वर्तुल है। सारी चीजें वर्तुल में घूम रही हैं, बाहर आपको क्या मिलेगा। आप भी भीतर जाएंगे तो घुम से राजी होंगे। | भी और भीतर भी। व्हील्स विदिन व्हील्स, चाकों के भीतर छोटे क्योंकि जब तक मन से छुटकारा न हो, तब तक भीतर भी इंद्रधनुष चाक घूम रहे हैं। उनके भीतर और छोटे चाक घूम रहे हैं। मिलेगा, सात रंग मिलेंगे; वास्तविक किरण नहीं मिलेगी, मौलिक अपनी घड़ी खोलकर भीतर देखें, उसमें जैसी हालत है, वैसी किरण नहीं मिलेगी। आपके मन की है। चाक हैं। बहुत-से चाक हैं। और एक चाक यह प्रिज्म दोहरा है। बाहर तोड़ता है, अस्तित्व संसार हो जाता | दूसरे को घुमा रहा है, दूसरा तीसरे को घुमा रहा है, सब घूम रहे है। भीतर तोड़ता है, अस्तित्व विचारों में बंट जाता है। भीतर | हैं। लेकिन कुछ बंधे हुए विचार हैं, वे ही दौड़ रहे हैं बार-बार। प्रतिपल विचार चल रहे हैं। इसलिए भारत कहता रहा है कि बाहर भी संसार है, भीतर भी यह संसार शब्द और भी सोचने जैसा है। संसार शब्द का | | संसार है। क्योंकि वर्तुलाकार गति है। और जब तक इन चाकों से मतलब होता है, चाक, दि व्हील। संसार का मतलब होता है, जो | आप मुक्त न हो जाएं, तब तक सिद्ध न होंगे। घूमता रहता है गाड़ी के चाक की तरह। सिद्ध का अर्थ है, जो घूमने के बाहर हो गया। कभी आपने अपने मन के संबंध में सोचा कि मन बिलकुल प्रदर्शनियां लगती हैं, मेले भरते हैं, तो बच्चों के लिए घूमने के गाड़ी के चाक की तरह घूमता है। वही-वही विचार बार-बार घूमते | झूले होते हैं। घोड़े हैं, हाथी हैं, शेर हैं-झूलों में। बच्चे उन पर बैठे रहते हैं। आप एक दिन की डायरी बनाकर देखें। सुबह से उठकर | हैं और झूले चक्कर काट रहे हैं। और बच्चे बड़ा आनंद लेते हैं, लिखना शुरू करें शाम तक। आप बड़े चकित हो जाएंगे कि आपके | | जितने जोर से चक्कर चलता है। और बच्चों को ऐसा लगता है, कहीं पास बड़ी दरिद्रता है, विचार की भी दरिद्रता है। वही विचार फिर | | पहुंच रहे हैं। यात्रा बहुत होती है, पहुंचते कहीं भी नहीं हैं। वह अपनी घड़ी, आधा घड़ी बाद आ जाता है। जगह पर घूम रहा है। शेर, हाथी, घोड़े, उन पर बैठने का मजा; फिर और अगर आप एक दो-चार महीने की डायरी ईमानदारी से इतनी तेज गति; कहीं पहुंचने का खयाल बड़ा रस देता है। रखें, तो आप पाएंगे कि इन विचारों के बीच वैसी ही श्रृंखला है, | | करीब-करीब हम सब वैसी ही बच्चों की हालत में हैं। थोड़ा जैसी गाड़ी में लगे हुए आरों की होती है। वही स्पोक फिर आ जाता | हमारा झूला बड़ा है और वहां भी हाथी, घोड़े हैं। | 10 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि * अभी आप देखते हैं, पेट्रोल की कमी है, तो इंदिरा तांगे पर तीर्थ में हैं। और नान-इन जहां होता है, वहीं तीर्थ होता है। बैठकर...। इस मुल्क में अकल कभी आ नहीं सकती। अटल | | समझा उन्होंने कि यह आदमी पक्का नास्तिक मालूम होता है, बिहारी बाजपेयी बैलगाड़ी पर बैठे हैं। पीलू मोदी ने कहा कि वे | | अहंकारी मालूम होता है। क्योंकि नान-इन ने कहा, नान-इन जहां हाथी पर पहुंचेंगे। और मैं सोचता रहा कि गधे पर किसी को | | होता है, वहीं तीर्थ है। तीर्थ हमारे साथ चलता है। तीर्थ हमारी हवा जरूर...। क्योंकि वह राष्ट्रीय पशु है। वह चरित्र का प्रतीक है। है। हम तीर्थ में नहीं जाते। हमारी सब जीवन की व्यवस्था ऐसी ही है, बचकानी है। छोटे लेकिन यह नान-इन ठीक कह रहा है। एक सिद्ध पुरुष के पद हैं, बड़े पद हैं; धन है, महल है, प्रतिष्ठाएं हैं; पद्म-भूषण हैं, वचन हैं। भारतरत्न हैं; सब बैठे हैं, कोई अपने घोड़े पर, कोई हाथी पर; | जिस दिन कहीं जाने को कुछ शेष न रह जाए! कब होगा ऐसा? चक्कर चल रहे हैं। जब तक कि कोई आपको उतार ही न दे! बच्चे | ऐसा तभी होगा, जब कोई वासना न रह जाएगी। जब तक कोई भी बड़ी दिक्कत देते हैं झूले से उतरने में। जब तक कि मां-बाप वासना है, तब तक कहीं जाने का मन बना ही रहेगा। उनको उतार ही न दें। रोते-चीखते वे बैठे हैं। जब तक इनको भी वासनाग्रस्त आदमी कहीं न कहीं जा रहा है, जाने की सोच रहा कोई उतार ही न ले इन घोड़ों पर से, तब तक वे अपनी तरफ से है; योजना बना रहा है; मगर जा रहा है। वस्तुतः न जा रहा हो, तो नहीं उतरते। कल्पना में जा रहा है। लेकिन वासनाग्रस्त आदमी कहीं न कहीं जा यह सारा का सारा...। और पहुंचना कहीं भी नहीं है। यात्रा | | रहा है। एक बात पक्की है, वासनाग्रस्त आदमी वहां नहीं मिलेगा, बहुत है। तेज गति है। भाव जरूर है कि कहीं पहुंच जाएंगे। | जहां वह है। वहां आप उसको नहीं खोज सकते। अपने घर में वह सिद्धि का अर्थ है ऐसी जगह, जहां से कहीं और जाने का भाव कभी नहीं ठहरता। वह हमेशा कहीं और अतिथि है। न उठे। जब तक कहीं जाने का भाव उठता है, तब तक संसार। सिद्ध पुरुष का अर्थ है, जो अपने घर में आ गया; जो अब वहीं सिद्धि का अर्थ है, जहां आप हैं, वही परम स्थान। उसके अतिरिक्त | है, जहां है। उससे अन्यथा जाने का कोई भाव नहीं। उससे अन्यथा कहीं जाने का कोई भाव नहीं है। कोई मोक्ष भी सामने लाकर रख | | जाने की कहीं कोई वृत्ति नहीं। उससे अन्यथा होने की कोई कामना दे, तो आप आंख बंद कर लें कि अपन पहले ही मोक्ष में बैठे हैं। नहीं। जो है, जहां है, जैसा है, राजी है। और यह राजीपन पूरा है। नान-इन के संबंध में कथा है-एक झेन फकीर। एक पहाड़ की | | इस संसार से मुक्त होकर ज्ञानीजन जिस ज्ञान को पाकर परम तलहटी पर, जहां पहाड़ पर ऊपर एक तीर्थ था और हजारों यात्री | | सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं, वह मैं फिर से तेरे लिए कहूंगा। हे वर्ष में यात्रा करते थे पैदल पहाड़ पर, नान-इन पहाड़ की तलहटी | अर्जुन, इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप में एक झाड़ के नीचे लेटा रहता था। अनेक साधु-भिक्षु भी यात्रा | | को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और पर जाते थे। अज्ञानियों का कोई गृहस्थों से संबंध नहीं है। प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं। साधु-संन्यासी भी वैसे ही अज्ञान में हैं। भिक्षु भी, संन्यासी भी, वे । इस ज्ञान को आश्रय करके, धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त भी पहाड़ पर यात्रा करने जाते हैं। जैसे वहां कुछ हो! नान-इन झाड़ | हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में के नीचे पड़ा रहता था। एक दिन कुछ भिक्षुओं ने उसे देखा। वे भी विश्राम करने उसके जो व्यक्ति अपने स्वभाव में ठहर गया, ज्ञान में ठहर गया, जिसे वृक्ष के पास रुके थे। उन्होंने कहा, नान-इन, हम हर वर्ष यात्रा पर कुछ जानने को शेष न रहा और जिसे पहुंचने को कोई जगह न रही, आते हैं। तुम इस झाड़ के नीचे कब तक पड़े रहोगे? यात्रा नहीं जो विश्राम को उपलब्ध हो गया, जो सिद्ध हो गया, कृष्ण कह रहे करनी है? हमने तुम्हें कभी तीर्थ के उस मंदिर में नहीं देखा, पहाड़ हैं, ऐसा पुरुष फिर न तो पैदा होता है और न वस्तुतः मरता है। की चोटी पर नहीं देखा! सष्टियां पैदा होती रहेंगी, लेकिन सष्टि का जाल फिर उसे अपने नान-इन ने कहा कि तुम जाओ। हम वहीं हैं, जहां तीर्थ है। हम | चक्र में न खींच पाएगा। चक्र घूमते रहेंगे सृष्टि के, लेकिन सृष्टि उस जगह बहुत पहले पहुंच गए हैं। जहां तुम पहाड़ पर खोज रहे का कोई भी आरा फिर उस पुरुष को अपनी ओर आकर्षित न कर हो जिस जगह को, उस जगह तो हम बहुत पहले पहुंच गए हैं। हम पाएगा। क्योंकि जिसको जाने की कहीं वासना न रही, वह सृष्टि में व्याकुल नहीं होते। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* भी नहीं जाएगा। क्योंकि जिसको कहीं जाना नहीं, वह ट्रेन में किसलिए सवार हो! सृष्टि में हम जाते इसीलिए हैं, पैदा हम इसीलिए होते हैं, कि | | वह किसलिए टिकट खरीदेगा जाकर क्यू में खड़े होकर! किसलिए हमें कहीं पहुंचना है। यह हमारा पैदा होना भी वाहन है। यह शरीर | धक्के खाएगा! कोई कारण नहीं है। उसे कहीं जाना नहीं है। भी हमारी यात्रा का वाहन है। इसे हमने चुना है किन्हीं वासनाओं के शरीर एक यात्रा-वाहन है। और गर्भ के द्वार पर वैसा ही क्यू है, कारण। कुछ हम करना चाहते हैं, बिना शरीर के वह न हो सकेगा। | जैसा किसी भी यात्रा-वाहन पर लगा हो। वहां भी उतनी ही जो लोग प्रेतात्माओं का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि | धक्का-मुक्की है। वहां भी गर्भ में प्रवेश करने के लिए उतना ही प्रेतात्माओं की एक ही पीड़ा है कि उनके पास वासनाएं तो वही हैं, | संघर्ष है। जो आपके पास हैं, लेकिन वासनाओं को पूरा करवा सके, ऐसा | क्या आपको पता है, एक संभोग में कोई एक करोड़ जीव-कोष कोई उपकरण नहीं है। क्रोध उनको भी आता है, लेकिन चांटा गर्भ में प्रवेश करते हैं। उनमें से एक, वह भी कभी-कभी, शरीर मारना मुश्किल है, क्योंकि हाथ नहीं हैं। कामवासना उनको भी ग्रहण कर पाता है। बायोलाजिस्ट कहते हैं कि दौड़ संघर्ष की वहीं जगती है, लेकिन कामवासना का कोई यंत्र उनके पास नहीं है कि शुरू हो जाती है, संभोग के क्षण में। जैसे ही पुरुष का वीर्य प्रवेश संभोग कर सकें। करता है स्त्री में, एक करोड़ कम से कम, ज्यादा से ज्यादा दस इसलिए प्रेतात्मविद कहते हैं कि ऐसी आत्माएं निरंतर कोशिश करोड़, एक संभोग के क्षण में इतने जीव-कण स्त्री में छिपे हुए अंडे में होती हैं कि किसी घर में मेहमान हो जाएं, किसी व्यक्ति के शरीर की तरफ दौडना शरू करते हैं। में मेहमान हो जाएं। और अगर आप थोड़े कमजोर हैं, संकल्प से | यह दौड़ बड़ी लंबी है; उनके हिसाब से बहुत लंबी है। क्योंकि थोड़े हीन हैं...। | जीव-कण बहुत छोटा है; खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ सकता। संकल्पहीन आदमी का मतलब होता है, जो सिकुड़ा हुआ है, उतने छोटे जीव-कण के लिए कोई थोड़े से इंचों की दौड़ उतनी ही जिसके भीतर खाली जगह है। संकल्पवान आदमी का अर्थ होता है कि अगर जीव को आपके बराबर कर दिया जाए अनुपात में, है, जो फैला हुआ है, जिसके भीतर कोई जगह नहीं है। सच में जो तो दो मील का फासला है। उस अनुपात में वीर्य-कण को अपने शरीर से बाहर भी जी रहा है। भीतर की तो बात ही अलग। करीब-करीब दो मील का फासला पार करना पड़ रहा है, स्त्री के जो फैलकर जी रहा है। ऐसे व्यक्ति में प्रेतात्माएं प्रवेश नहीं कर | अंडे तक पहुंचने में। अगर वीर्य-कण आपके बराबर हों, तो पाती हैं। फासला दो मील के बराबर होगा। लेकिन जो सिकड़कर जी रहा है, डरा हआ। डरे हुए का मतलब, छः घंटे के बीच उस छोटे-से जीवाणु को...। और सिकुड़ा हुआ। जो अपने ही घर में एक कोने में छिपा है; बाकी घर | संघर्ष है, क्योंकि एक करोड़ जीवाणु भी भाग रहे हैं। आपकी सड़क जिसने खाली छोड़ रखा है। जिसका शरीर भी बहुत-सा खाली पड़ा | पर ट्रैफिक में वैसा जाम नहीं है। वे सभी एक करोड़ जीव-कोष है। उसमें कोई प्रेतात्मा प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि प्रेतात्मा कोशिश | उतनी ही कोशिश कर रहे हैं कि अंडे तक पहुंच जाएं। क्योंकि उस में है, शरीर मिल जाए, तो वासनाएं पूरी हो सकें। अंडे में छिपा है शरीर, जहां से व्यक्ति पैदा होगा और यंत्र उपलब्ध आप भी शरीर में इसीलिए प्रविष्ट हुए हैं, गर्भ में इसीलिए हो जाएगा। प्रविष्ट हुए हैं कि कुछ वासनाएं हैं, जो अधूरी रह गई हैं। पिछले बायोलाजिस्ट कहते हैं कि इस दुनिया में जो प्रतियोगिता दिखाई मरते क्षण में कुछ वासनाएं थीं, जो आपके मन में अधूरी रह गई हैं, पड़ रही है, वह कुछ भी नहीं है। जिसको बाजार में गलाघोंट वे आपको खींच लाई हैं। मरते क्षण में आदमी की जो वासना होती प्रतियोगिता कहते हैं, थ्रोट कट कांपिटीशन, वह कुछ भी नहीं है। है, वही वासना उसके नए जन्म का कारण बनती है। या मरते क्षण | क्योंकि एक करोड़ में से एक पहुंच पाएगा अंडे तक। जो पहले में उसके जीवनभर का जो सार-निचोड होता है उसकी आकांक्षाओं पहंच जाएगा. वह प्रवेश कर लेगा। और अंडा कछ इस भांति का का, वही उसे धक्का देता है नए गर्भ में प्रविष्ट हो जाने का। है कि जैसे ही एक जीव-कोष प्रवेश करता है, अंडे के द्वार बंद हो कृष्ण कहते हैं, जो सिद्ध पुरुष है, वह साधारण जन्म-मरण में जाते हैं। फिर दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता। तो फंसेगा ही नहीं, साधारण गर्भ में तो प्रवेश ही नहीं करेगा। इसीलिए कभी-कभी दो बच्चे एक साथ पैदा हो जाते हैं, अगर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि * दो जीव-कोष बिलकुल एक साथ पहुंच जाएं अंडे के द्वार पर, तो | नहीं हिला सकता। दोनों प्रवेश कर जाते हैं। लेकिन ऐसा मुश्किल से होता है। दोनों | | और जब पूरी सृष्टि भी नष्ट होगी, प्रलय होगा और भयंकर बिलकुल एक साथ, युगपत—एक क्षण के हजारवें हिस्से का भी पीड़ा होगी...। क्योंकि एक-एक व्यक्ति के मरने पर हम समझते फासला न हो-तो दो; या तीन भी कभी हो जाते हैं; चार भी कभी | | हैं, कितनी पीड़ा और कितना दुख और कितना संताप है। जब पूरी हो जाते हैं। सृष्टि अंतिम क्षण में प्रलय में लीन होती है, भयंकर हाहाकार; एक व्यक्ति जीवन में कोई चार हजार संभोग करता है। चार उससे बड़े हाहाकार की हम कोई कल्पना नहीं कर सकते। दुख हजार संभोग में, कोई अगर पुराने ढंग का भारतीय हो, तो ज्यादा अपनी चरम अवस्था पर होगा। उस क्षण में भी, कृष्ण कहते हैं, से ज्यादा बीस बच्चे पैदा कर सकता है। चार हजार संभोग में बीस प्रलयकाल में भी सिद्ध पुरुष व्याकुल नहीं होता है। मौके हैं कुल; और प्रत्येक संभोग में कोई एक करोड़ से दस करोड़ जिसकी कोई वासना नहीं है, उसकी कोई पीड़ा भी नहीं है। तक जीवाणु यात्रा करेंगे। जिसकी कोई वासना नहीं है, दूसरे की भी पीड़ा देखकर उसको दया जितने लोग इस समय पृथ्वी पर हैं, कोई चार अरब, एक-एक आ सकती है, व्याकुलता नहीं होती। इस फर्क को समझ लेना व्यक्ति के भीतर चार अरब जीव-कोष हैं। एक व्यक्ति इतनी पूरी चाहिए। पृथ्वी को पैदा कर सकता है। लेकिन पैदा होंगे दस बच्चे, बीस अगर बुद्ध के सामने आप मर रहे हों, तो बुद्ध व्याकुल नहीं बच्चे ज्यादा से ज्यादा। दो-चार बच्चे सामान्यतया। होते। दया आ सकती है। दया आपकी मूढ़ता पर आती है। क्योंकि इतना भयंकर संघर्ष है। इतना भयंकर युद्ध है। वहां भी क्यू है! दुख आपका सृजित किया हुआ है। ऐसे जैसे एक बच्चा रो रहा है, इतनी आत्माएं दौड़प्ती हैं, एक शरीर को पकड़ने को। बड़ी वासना क्योंकि उसकी गुड़िया की टांग टूट गई है। रोने में कोई भेद नहीं होगी। है। रोना वास्तविक है। टांग चाहे गुड़िया की हो, चाहे पत्नी की हो। बायोलाजिस्ट चकित हैं कि छोटा-सा जीव-कण इतनी स्पर्धा से टांग असली हो कि नकली हो, यह दूसरी बात है, लेकिन बच्चे के दौड़ता है, इतनी त्वरा से दौड़ता है, इतनी तेजी से दौड़ता है। सब आंसुओं में तो कोई झूठ नहीं है। तरह से कोशिश करता है कि दूसरों को पीछे छोड़ दे और आगे एक बच्चे की गुड़िया की टांग टूट गई है, बच्चा रो रहा है आपके निकल जाए। उससे पता लगता है कि आत्माएं कितने जोर से शरीर सामने। आप दुखी होते हैं या दया से भरते हैं? आप व्याकुल होते को पकड़ने की चेष्टाएं कर रही होंगी। कितनी विराट वासना भीतर हैं या करुणा से भरते हैं? या आपको बच्चे पर दया आती है कि धक्के नहीं दे रही होगी! बेचारा! इसे कुछ पता नहीं है कि यह गुड़िया मरी ही हुई है। इसमें साधारणतः सिद्ध पुरुष इस गर्भ में पैदा होना, जन्म को लेना और | कुछ टूटने का मामला नहीं है। यह टांग टूटी ही हुई थी। मृत्यु से तो छूट ही जाता है। इस बच्चे को आप खिलाते हैं, हंसाते हैं; डुलाते हैं; दूसरी लेकिन जब पूरी सृष्टि भी इसी भांति विलीन होती है, जैसे हर | गुड़िया पकड़ाते हैं। लेकिन आप गंभीर नहीं हैं। यह एक खेल था, व्यक्ति मरता है...। हर वस्तु मरती है, ऐसा पूरी सृष्टि भी मरती | जिसको बच्चे ने ज्यादा गंभीरता से ले लिया, इसलिए दुखी हो रहा है। क्योंकि पूरी सृष्टि का प्रारंभ होता है, तो अंत भी होता है। पूरी | है। बच्चा गुड़िया के कारण दुखी नहीं हो रहा है, अपनी गंभीरता सृष्टि के प्रारंभ में और अंत के क्षण में भी, जब सब जन्मता है फिर | और मूढ़ता के कारण दुखी हो रहा है। से, सब ताजा होता है फिर से, तब भी सिद्ध पुरुष डांवाडोल नहीं बुद्ध जब आपको पीड़ा में देखते हैं, तब वे जानते हैं कि आपकी होता। क्योंकि यहां भी कुछ पाने को नहीं है। | पीड़ा भी बचकानी है। पूरी सृष्टि फिर से बन रही है, फिर से जीवन जग रहा है; फिर किसी का घर जल गया है, जो उसका था ही नहीं। किसी की सूरज और चांद-तारे पैदा हो रहे हैं; फिर पृथ्वियां बसेंगी; फिर सारे | पत्नी मर गई है। कौन किसका हो सकता है ? किसी का पति खो खेल का विस्तार होगा। इस विराट सृष्टि के क्रम में भी वह दूर खड़ा | गया है। जो कभी अपना नहीं था. वह खो कैसे सकता है? किसी रह जाता है, अपनी जगह तृप्त। यह विराट आयोजन भी उसे बुला | | का धन चोरी चला गया है। इस जगत में कोई मालकियत सच नहीं नहीं सकता; इसका भी कोई निमंत्रण कारगर नहीं है। उसे अब कोई | है, चोरी कैसे हो सकती है? यहां मालिक झूठे हैं; चोर झूठे हैं। चोर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 इसलिए हैं कि मालिक हैं। एक झूठ दूसरे झूठ को पैदा करता है। तो बुद्ध दया कर सकते हैं। और अगर आप बहुत ही रोएं-गाएं, तो वे आपको समझा-बुझा भी सकते हैं। लेकिन वह समझाना - बुझाना सिर्फ दयावश है। इसमें कोई व्याकुलता नहीं है। जिस दिन पूरी सृष्टि भी विनष्ट हो रही हो, उस दिन भी सिद्ध पुरुष, कृष्ण कहते हैं, व्याकुल नहीं होता। और अर्जुन व्याकुल हो रहा है, जरा-सा युद्ध खड़ा है उससे पूरी सृष्टि के हिसाब से वह युद्ध ना कुछ है । गुड़ियों का खेल है। बड़ा व्याकुल हो रहा है। कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे वह ज्ञान कहूंगा, फिर से कहूंगा, जिससे प्रलयकाल में भी सिद्ध पुरुष व्याकुल नहीं होते। यह युद्ध तो बिलकुल खेल है। हे अर्जुन, मेरी महत ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है । और मैं उस योनि में चैतन्यरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है ... । कृष्ण कहते हैं कि सारा जगत एक गहन स्वप्न से पैदा होता है। जिस जगत को हम देखते हैं, वह वास्तविक कम, स्वप्नमय ज्यादा है। वह पदार्थ से कम बना है और वासना से ज्यादा बना है। उसका निर्माण इच्छाओं के सघनभूत रूप से हुआ है। इसलिए भारत ने एक शब्द चुना है, जो है माया । यह माया शब्द बहुत अदभुत है। और ऐसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में खोजना आसान नहीं है। क्योंकि ऐसी दृष्टि, ऐसे तत्व के संबंध में खोज किसी और संस्कृति में पैदा नहीं हुई। पश्चिम में जो शब्द है मैटर, पदार्थ, वह माया का ही एक विकृत रूप है। मूल धातु संस्कृत की वही है मैटर की भी, मात्र, जो माया की है। लेकिन पश्चिम का विज्ञान कहता है कि जगत मैटर से, पदार्थ से बना है। लेकिन अब पदार्थ की खोज जैसे-जैसे गहरी हुई, वैसे-वैसे उनको पता चला, पदार्थ तो है ही नहीं, बिलकुल माया है पदार्थ। जैसे ही खोज करके वे इलेक्ट्रांस पर पहुंचे, वैसे उनको पता चला कि वहां तो पदार्थ है ही नहीं। सिर्फ दिखता था, है नहीं। मौलिक जो आधारभूत तत्व है विद्युत, वह तो अदृश्य है। उसे अब तक किसी ने देखा नहीं । उसे कोई कभी देख भी नहीं सकेगा। वह है भी या नहीं, इसको हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। पदार्थ | दिखाई पड़ता है। और पदार्थ नहीं है; उसका आण्विक रूप, अदृश्य, वही है। पश्चिम में मैटर का भी अर्थ अब माया ही करना चाहिए। अब कोई फर्क नहीं रहा । मूल धातु वही है। लेकिन अब तो मैटर शब्द | का अर्थ भी माया ही हो गया है। माया का अर्थ है, जो दिखाई पड़ती | है और है नहीं। जो सब भांति प्रतीत होती है कि है, और है नहीं । तो ध्यान रहे, भारतीय मनीषा की खोज तीन हैं। एक, सत्य — जो है और दिखाई नहीं पड़ता। उसे हम ब्रह्म कहें, ईश्वर कहें, परमात्मा कहें, जो भी नाम देना चाहें। परम सत्य, जो है और दिखाई नहीं पड़ता । दूसरा, परम असत्य - जो नहीं है । और नहीं है इसलिए दिखाई पड़ने का कोई कारण ही नहीं है। और दोनों के मध्य में, माया— जो दिखाई पड़ती है और नहीं है। ये तीन तल हैं। माया मध्यवर्ती तल है । माया दिखाई पड़ती है ऐसे, जैसे ब्रह्म दिखाई पड़ना चाहिए, जो है, वास्तविक । और माया नहीं है वैसे, जैसे कि असत्य, जो कि है ही नहीं । माया मध्यवर्ती तत्व है। भास, एपियरेंस, सिर्फ प्रतीति । आपकी वासनाएं प्रतीतियां हैं। हैं नहीं; सिर्फ भाव हैं; सिर्फ स्वप्न हैं। और जब तक आप उनको सत्य मानते हैं, तब तक बड़े सत्य मालूम होते हैं। जैसे ही आप जागते हैं, सब असत्य हो जाते हैं। जिब्रान की एक छोटी-सी कहानी है। एक आदमी एक अजनबी | देश में आया। वह उस देश की भाषा नहीं जानता है। एक बड़े महल में उसने लोगों को आते-जाते देखा, वह भी भीतर प्रविष्ट हो गया। द्वारपालों ने झुक-झुककर नमस्कार किया, तो उसने समझा कि कोई महाभोज है। वह एक बहुत बड़ी होटल थी। लोग खा रहे थे। आ रहे थे, जा | रहे थे, पी रहे थे। टेबलें भरी थीं। वह भी एक खाली टेबल पर जाकर बैठ गया। एक बैरा आया, सामने उसने भोजन रखा। वह | बहुत चकित हुआ । उसने सोचा कि कोई महाभोज है। वह बहुत खुश भी हुआ। उसने सोचा कि यह गांव बड़ा अतिथियों का प्रेमी है। मैं अजनबी, अनजान आदमी; भाषा नहीं जानता; मेरा इतना स्वागत किया जा रहा है! 14 फिर बैरा ने उसको, जब भोजन पूरा हो गया, तो उसका बिल लाकर दिया। तो वह सोचा कि गजब के लोग हैं! न केवल भोजन देते हैं, बल्कि लिखित धन्यवाद भी देते हैं। तब अड़चन शुरू हुई, क्योंकि बैरा उससे कहने लगा कि वह पैसे चुकाए और वह | झुक-झुककर धन्यवाद करने लगा। वे दोनों एक-दूसरे की भाषा समझने में असमर्थ हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि आखिर बैरा उसे मैनेजर के पास ले आया। उसने कहा, धन्य दिखाई पड़ा, जो उसके गांव का रहने वाला है, जिसने बहुत साल मेरे भाग। न केवल महल के नौकर-चाकर सेवा करते हैं, मालिक | पहले गांव को छोड़ दिया था। उसे देखकर उसकी छाती फूल गई। खुद! वह झुक-झुककर नमस्कार करता, बहुत-बहुत धन्यवाद | उसने कहा, देखो, मेरे भाई...। देता। और मैनेजर ने कहा कि या तो आदमी पागल है और या हद | ___ लेकिन वह आदमी नीचे सिर झुकाकर भीड़ में सरक गया। दर्जे का धूर्त है। इसे अदालत ले जाओ। क्योंकि वह भाषा समझता था। वह अनेक दिन से वहां था। उसने ___ उसे एक गाड़ी में बैठाकर अदालत ले जाने लगे। उसने सोचा | | देखा कि यह कैसा अपमान हो रहा है। लेकिन गधे पर बैठे हुए कि ऐसा लगता है कि ये सब इतने प्रसन्न हो गए हैं कि मुझे नगर | | आदमी ने सोचा, आश्चर्य; ईर्ष्या की भी सीमा होती है! ईर्ष्यावश, का जो सम्राट है, उसके पास ले जा रहे हैं। और अदालत बड़ा | | कि उसका स्वागत नहीं हुआ और मेरा स्वागत हुआ। तो यह सिर भवन था, और मजिस्ट्रेट सजा-धजा बैठा हुआ था। बड़ी शानदार | झुकाकर भीड़ में नदारद हो गया। रौनक थी। तो वह जाकर झुक-झुककर नमस्कार किया। उसने ___ वह आदमी आनंदित ही घर लौटा। उसने यह कहानी अपने गांव बहुत धन्यवाद दिए। में सब लोगों को कही। जहां तक इसके भीतर के सोचने का संबंध मजिस्ट्रेट ने कहा कि यह आदमी कुछ समझ में नहीं आता। है, सभी कुछ सही जैसा है। लेकिन जहां तक सत्य से संबंध है, इसको कुछ भी कहो, सुनता भी नहीं। वह अपनी ही लगाए हुए है। कोई भी संबंध नहीं है। क्या कह रहा है, इसका भी कुछ पता नहीं चलता। लेकिन इस तरह | आप जिस जगत में रह रहे हैं, कृष्ण उसको माया कहते हैं। और की घटना दुबारा नहीं घटनी चाहिए। तो उस गांव का रिवाज था; | वे कहते हैं, सारा जन्म इस माया से होता है। माया को वे कहते हैं तो उस आदमी को दंड दिया गया कि उसे गधे पर उलटा बैठा दिया | कि प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया संपूर्ण भूतों की योनि है, समस्त जाए और उसकी छाती पर एक तख्ती लटका दी जाए कि यह भूतों का गर्भस्थल है। वहां से सब पैदा होते हैं। उसी स्वप्न में, उसी आदमी धूर्त है। इससे सावधान! नगर में कोई इसका भरोसा न करे। | वासना में, उसी इच्छा में, कुछ होने, कुछ पाने की दौड़ में एक ___ जब वह गधे पर बैठाया गया उलटा और उसके गले में तख्ती | | विराट स्वप्न का जन्म होता है। टांगी गई, तब तो उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। उसने | - मैं उस योनि में चेतनरूप बीज को स्थापन करता हूं। उस कहा, न केवल वे प्रसन्न हैं, बल्कि पूरे गांव में घुमाकर लोगों को | जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। दिखाना चाहते हैं कि देखो, कैसा अतिथि हमारे गांव में आया है। माया तो जड़ है, वासना का जगत तो जड़ है। वह पदार्थ है। मेरा अभी तक पता भी नहीं था। अंश उसमें चेतन रूप से प्रविष्ट होता है और जीवन की उत्पत्ति वह बड़ा प्रसन्न था। वह बिलकुल अकड़कर बैठा हुआ था। होती है। उसकी अकड. उसकी प्रसन्नता में जरा भी असत्य नहीं है। जो हो इसे हम विस्तार से धीरे-धीरे समझेंगे। रहा है, उसका उसे कुछ पता नहीं है। लेकिन जो वह सोच रहा है, इसमें दो बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। हमारा शरीर दो तत्वों उसका उसे पक्का भरोसा है। वह बहुत खुश है। और उसकी खुशी | | का जोड़ है। एक माया, जिसको हम पदार्थ कहें। और एक चेतन, का कोई अंत नहीं था। जिसको हम परमात्मा कहें। मनुष्य दो चीजों का जोड़ है। मनुष्य लेकिन एक ही पीड़ा थी कि काश, उसके गांव के लोग भी | | एक संयोग है, पदार्थ का और परमात्मा का। उसकी यह शान-शौकत-एक भी आदमी देख लेता, उसके घर मृत्यु में पदार्थ और परमात्मा अलग होते हैं। न तो कोई मरता, तक खबर पहुंच जाती कि किस तरह...। जिसके गांव के लोगों ने | न कोई विनष्ट होता। क्योंकि पदार्थ मरा ही हुआ है, उसके मरने कभी चिंता न की जिसकी, आज उसका कैसा विराट भव्य | का कोई उपाय नहीं। परमात्मा अमृत है, उसके मरने का कोई उपाय स्वागत-समारंभ हो रहा है। नहीं। सिर्फ संयोग टूटता है। तभी उसे भीड़ में...। बच्चे दौड़ रहे हैं, लोग चल रहे हैं; | | कृष्ण यह कह रहे हैं, वासना के माध्यम से पदार्थ और चेतना आस-पास भीड़ इकट्ठी हो गई है; लोग मजा ले रहे हैं। लोग खुश | में संयोग जुड़ता है-माया के माध्यम से। और ज्ञान के माध्यम से हैं। वह भी बड़ा खुश है और बड़ा प्रसन्न है। तभी उसे एक आदमी | संयोग स्पष्ट हो जाता है कि संयोग है। मृत्यु में संयोग टूटता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* जन्म में जुड़ता है, मृत्यु में टूटता है। अज्ञान में लगता है कि मैं शरीर हूं; ज्ञान में लगता है, मैं पृथक हूं। जैसे ही यह बोध किसी व्यक्ति को हो जाता है कि मैं पृथक हूं और शरीर पृथक है; चैतन्य और जड़ अलग-अलग हैं, माया और ब्रह्म अलग-अलग हैं, जैसे ही यह बोध साफ हो जाता है, इस सारे जगत का खेल सिर्फ आभास रह जाता है। युद्धों का होना, लोगों का पैदा होना या मरना, महामारियां, जीवन या मृत्यु, सब एक बड़े नाटक के हिस्से हो जाते हैं। क्योंकि मृत्यु असंभव है। केवल संयोग टूटते हैं, कुछ मरता नहीं। कुछ मर सकता नहीं। कृष्ण अर्जुन को एक ही बात का बोध दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। वह मृत्यु को देखकर भयभीत है। वह सोच रहा है, मृत्यु होगी। कृष्ण कहते हैं, मृत्यु एक असत्य है; वह माया का एक आभास है। जन्म भी एक असत्य है; वह भी सिर्फ माया का आभास है। लेकिन जब तक हम माया में होते हैं, तब तक हमें सत्य मालूम होता है। ठीक जैसे रात सपना देखते हैं। सपने के क्षण में तो सपना बिलकुल ही सच मालूम होता है। यह जगत एक विराटतर सपना है। कहें कि यह ईश्वर के चित्त में चल रहा सपना है। हमारे सपने निजी होते हैं, यह सपना विराट है। जैसे हम अपने सपने से सुबह जागते हैं और सपना फिजूल हो जाता है, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष इस सपने से जाग जाता है, इस विराट सपने से, और यह सपना व्यर्थ हो जाता है। .. सबह जागकर आप रोते नहीं हैं कि रात मैंने एक आदमी की हत्या कर दी। न सुबह जागकर आप गांव में ढिंढोरी पीटते हैं कि रात मैंने एक भूखे आदमी को सपने में रोटी खिला दी। सुबह आप जानते हैं कि सपना सपना था। न तो सपने की हत्या सच थी, और न सपने | की सेवा सच थी। न तो पाप का भाव पैदा होता है सुबह, न पुण्य का। सपने को जानते ही कि सपना है, सब भाव खो जाते हैं। ज्ञानी पुरुष इस विराट सपने से भी जाग जाता है। एक और जागरण है। उस जागरण का नाम ही ध्यान है, समाधि है। उस जागरण में ज्ञानी पुरुष जानता है कि वह जो उसने देखा था-युद्ध थे, शांतियां थीं; प्रेम था, घृणा थी; मित्र थे, शत्रु थे-वे सब स्वप्नवत खो गए। कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान मैं तुझे फिर से कहूंगा, वह परम ज्ञान, जिसे जानकर व्यक्ति परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाता है। आज इतना ही। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 दूसरा प्रवचन त्रिगुणात्मक जीवन के पार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। | करते, जैसा एक साधक करे। उनके लिए तत्वचर्चा एक बौद्धिक तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। ४ ।। विलास है, जीवन-मरण की समस्या नहीं। सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः । धर्मराज परंपरा से धार्मिक हैं। शास्त्रों ने क्या कहा है, इसे वे निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ।। ५।। जानते हैं। उनका अस्तित्व धार्मिक नहीं है। उन्होंने अस्तित्वगत तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । रूप से धर्म को खोजा नहीं। उसके जीवन में भी उसके स्पष्ट सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।। ६ ।। लक्षण मिलेंगे। तथा हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी परंपरागत रूप से जो आदमी धार्मिक है, उस आदमी के पास मूर्तियां अर्थात शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयों कोई निज की चेतना नहीं होती। वह स्वयं नहीं सोचता। नियम के माया तो गर्भ को धारण करने वाली माता है और मैं बीज अनुसार चलता है। नियम अगर गलत हो, तो वह गलत चलता है। को स्थापन करने वाला पिता। नियम अगर सही हो, तो वह सही चलता है। समाज जिसे भी ठीक हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति कहता है, उसे वह मानता है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। से उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में महाभारत के उन दिनों में जुए को अनैतिक नहीं माना जाता था, ___ बांधते हैं। वह अधार्मिक भी नहीं था। सिर्फ एक खेल था। जैसे कोई आज हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार फुटबाल खेल रहा है, वालीबाल खेल रहा है; और उस खेल में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से कोई अनैतिकता नहीं है। ऐसा ही जुआ भी खेल था; एक क्रीड़ा थी। और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से उसमें कोई अनीति नहीं थी। तो समाज में कोई जुए के विपरीत भाव बांधता है। | नहीं था। युधिष्ठिर जुआ खेल सकते हैं। उन्हें इसमें जरा भी अड़चन नहीं हुई। धर्मराज होने मात्र से जुआ खेलने में उन्हें कोई पीड़ा, कोई सूत्र के पहले थोड़े-से प्रश्न। विचार नहीं उठा। और जुआ ही नहीं खेल सकते, अपनी स्त्री को पहला प्रश्नः पांडवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर को धर्मराज दांव पर भी लगा सकते हैं। क्योंकि उस समाज में स्त्री पुरुष की कहा गया है, लेकिन कृष्ण ने धर्मराज को छोड़कर | संपत्ति थी, स्त्री-धन! उन दिनों तक समाज की चेतना इस जगह अर्जुन को गीता कही। ऐसा क्यों? क्या धर्मराज पात्र नहीं थी कि स्त्री को हम स्वतंत्र व्यक्तित्व दिए होते। वह पुरुष की न थे? संपत्ति थी, पति की संपदा थी। तो जब मैं अपना धन लगा सकता हूं, तो अपनी पत्नी भी लगा सकता हूं। क्योंकि पत्नी मेरा पजेशन थी, मेरा परिग्रह थी। द स संबंध में बहुत सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगा सकते हैं। उनकी चेतना को र बात, धर्म को जानना शास्त्र से, परंपरा से, एक बात | | जरा भी चोट नहीं हुई। उन्हें ऐसा नहीं लगा कि मैं यह क्या कर रहा ___ है। धर्म को जानना जीवन से, बिलकुल दूसरी बात है। हूं! कोई व्यक्ति किसी की संपत्ति कैसे हो सकता है ? वस्तु संपत्ति और जीवन से केवल वे ही जान सकते हैं, जिनके ऊपर शास्त्रों का, नहीं हो सकती वस्तुतः तो; तो व्यक्ति तो संपत्ति कैसे हो सकता है? परंपरा का बोझ न हो। | व्यक्ति पर कोई मालकियत नहीं हो सकती। और व्यक्तियों को जुए जिनके ऊपर शास्त्रों का बोझ है, उनकी जिज्ञासा कभी भी | के दांव पर नहीं लगाया जा सकता। लेकिन वह समाज, उन दिनों मौलिक नहीं हो पाती। उनकी जिज्ञासा भी झूठी होती है। वे प्रश्न की परंपरा स्त्री को संपदा मानती थी; पुरुष उसे जुए पर दांव पर भी पूछते हैं, तो शास्त्रों के कारण। प्रश्न भी उनके अपने नहीं होते। लगा सकता था। उनके प्रश्न सैद्धांतिक होते हैं, जीवंत नहीं। वे तत्व की चर्चा करते | | तो युधिष्ठिर को कोई अपनी चेतना नहीं है। न अपना कोई हैं, जैसा एक विचारक करे। लेकिन वे तत्व की वैसी खोज नहीं | विचार है, न अपनी कोई जिज्ञासा है। वे परंपरागत रूप से धार्मिक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुणात्मक जीवन के पार व्यक्ति हैं। गीता उनसे नहीं कही जा सकती। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व का संपर्क परंपरागत चेतना से नहीं हो सकता। कृष्ण को तो वहीं समझ पाएगा, जो परंपरागत नहीं है। जो शास्त्र से बंधा नहीं है, और जिसकी जिज्ञासा आंतरिक है । अर्जुन की जिज्ञासा में बड़ा फर्क है। अर्जुन के लिए यह जीवन-मरण की समस्या है। युद्ध के इस क्षण में वह कोई शास्त्र का विवेचन नहीं उठा रहा है। युद्ध के इस क्षण में उसकी चेतना में ही यह पीड़ा खड़ी हो गई है, एक अंतर्द्वद्व उठ खड़ा हुआ है, कि जो मैं कर रहा हूं, क्या वह करने योग्य है ? वस्तुतः सच तो यह है कि शास्त्र तो कहते हैं, क्षत्रिय का धर्म है | कि लड़े। क्षत्रिय को युद्ध में कुछ भी पाप नहीं है। क्षत्रिय काटे, इसमें कुछ पाप नहीं है। वह उसके क्षत्रिय होने का हिस्सा है। लेकिन अर्जुन को एक अस्तित्वगत, एक्झिस्टेंशियल सवाल खड़ा हो गया है। वह यह कि अगर मैंने इन सब को मार ही डाला और इनको मारकर मैं इस राज्य का मालिक भी हो गया, तो क्या वह राज्य, वह मालकियत इतनी कीमत की है कि इतने जीवन नष्ट किए जाएं? क्या मुझे यह हक है कि मैं इतने जीवन नष्ट करूं? सिर्फ इस सुख को पाने के लिए कि मैं सम्राट हो गया! क्या सम्राट होने का इतना अर्थ है? इतना मूल्य है ? इतने जीवन के विनाश का कोई कारण है? अर्जुन का सवाल उसकी निजता से उठा है। वह किसी शास्त्र से नहीं आया है। अगर अर्जुन भी शास्त्रीय होता, तो गीता का सवाल ही नहीं उठता। युधिष्ठिर यह सवाल नहीं पूछते । युधिष्ठिर जुआ खेलते वक्त नहीं पूछे; पत्नी को दांव लगाते वक्त नहीं पूछे। युद्ध केक्षण में भी क्यों पूछते ! सदा से क्षत्रिय लड़ता रहा है। और अपनी रक्षा के लिए और अपनी संपदा के लिए और अपनी सीमा और राज्य के लिए लड़ना उसका कर्तव्य है। यह बात उठती नहीं थी । अर्जुन को उठी। अर्जुन बड़ी आधुनिक चेतना है, एक अर्थ में । यह केवल उसी व्यक्ति को उठ सकता है, ऐसी संकट की स्थिति, जो परंपरा से बंधा हुआ नहीं है; युवा है; जीवंत है; जीवन को जी रहा है और जीवन में समस्याएं हैं, उनको हल करना चाहता है। इसलिए गीता जैसा जीवंत शास्त्र ज में दूसरा नहीं है। क्योंकि गीता जैसी जीवंत स्थिति किसी शास्त्र के जन्म में कारणभूत नहीं बनी। युद्ध अत्यंत संकट का क्षण है। जहां मृत्यु निकट है, वहां जीवन अपनी पूरी ज्योति में जलता है । जितनी घनी होती है मृत्यु, जितना अंधकार मृत्यु का सघन होता है, उतनी ही जीवन की बिजली जोर | से चमकती है । मृत्यु के क्षण में ही जीवन का सवाल उठता है कि जीवन क्या है। कुरान है, बाइबिल है, महावीर के वचन हैं, बुद्ध के वचन हैं, बड़े बहुमूल्य । लेकिन उनकी परिस्थिति इतनी जीवंत नहीं है। जीवन के इतने घनेपन में, जहां मृत्यु चारों तरफ खड़ी हो, जहां निर्णय बड़ा मूल्यवान होने वाला है; लाखों लोगों का जीवन निर्भर करेगा अर्जुन के निर्णय पर । अर्जुन भाग जाता है तो, अर्जुन लड़ता है तो, अर्जुन के ऊपर भाग्य - निर्धारण है लाखों लोगों के जीवन का। अगर महावीर के पास कोई कुछ पूछने आया है, तो उसके जीवन का निर्धारण होगा, उसकी अपनी निजी बात होगी। लेकिन अर्जुन का सवाल बड़ा गहन है। उसके साथ लाखों जीवन बुझेंगे, जलेंगे। वह जो पूछ रहा है, बड़ा शाश्वत है। अर्जुन को ही गीता कही जा सकती है, धर्मराज युधिष्ठिर को नहीं । और अर्जुन कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं है, यह ध्यान रखें। इसीलिए प्रश्न उठ सका। धार्मिक व्यक्ति होता, तो प्रश्न उठता ही नहीं। अगर वह धार्मिक होता, परंपरा के अनुसार हिंदू होता, तो वह | लड़ता । क्योंकि क्षत्रिय का धर्म है लड़ना । कोई शास्त्र नहीं कहता | हिंदुओं का कि क्षत्रिय न लड़े। लड़ना उसका धर्म है। वह क्षत्रिय होके भीतर है। अगर अर्जुन जैन होता जन्म से, तो लड़ने का सवाल ही नहीं उठता था । लड़ना पाप है। युद्ध का मौका ही नहीं आता। वह कभी का संन्यस्थ हो गया होता; वह कभी का जंगल चला गया होता। | अगर अर्जुन जैन या बौद्ध होता, तो कभी का जा चुका होता। अगर हिंदू होता, परंपरागत, तो लड़ता । यह कोई सवाल नहीं था । अर्जुन धार्मिक नहीं है, इसीलिए उसकी चिंतना मौलिक है। वह किसी शास्त्र से, किसी विधि से बंधा हुआ नहीं है। वह किसी को मानकर चल नहीं रहा है। जीवन सवाल उठा रहा है, वह अपना उत्तर खोज रहा है। इस खोज से ही कृष्ण उससे संबंध जोड़ पाए। कृष्ण जैसे व्यक्ति केवल उन्हीं लोगों से संबंध जोड़ पा सकते हैं, जो बंधे हुए लीक से, किसी लकीर से जुड़े हुए नहीं हैं, जो मुक्त और जिनके प्रश्न अपने हैं। 19 मेरे पास जैन आते हैं। वे पूछते हैं, निगोद क्या है? जैनों के सिवाय कोई मुझसे कभी नहीं पूछा कि निगोद क्या है। क्योंकि किसी के शास्त्र में निगोद का वर्णन नहीं है। वह जैनों के शास्त्र में हैं। वह जैनों का अपना पारिभाषिक शब्द है । आपके मन में तो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * सवाल ही नहीं उठ सकता कि निगोद क्या है। यह शब्द ही व्यर्थ है। खुद हो जाना चाहते हैं। और जहां-जहां संघर्ष है, प्रतिस्पर्धा है, युद्ध लेकिन जैन के मन में उठता है। इसलिए नहीं कि उसके जीवन की है, वहां-वहां सवाल है, क्या इसका कोई मूल्य है? समस्या है। उसने किताब में पढ़ा है। पढ़ा है, तो सवाल उठता है। एक राजनीतिज्ञ कभी नहीं पूछता कि मैं इतनी दौड़-धूप कर रहा बौद्ध कभी नहीं पूछते कि परमात्मा कहां है, क्योंकि उनके शास्त्र | | हूं, इतने लोगों को खींचकर पीछे करूंगा, आगे जाऊंगा, क्या में लिखा है, परमात्मा है ही नहीं। हिंदू पूछते हैं, परमात्मा कहां है ? | इसका सच में कोई मूल्य है कि इतना उपद्रव लिया जाए? उसका रूप क्या है ? उसने सृष्टि क्यों बनाई ? जैन कभी नहीं पूछता धन की खोज में दौड़ने वाला कभी नहीं सोचता कि मेरे धन की कि परमात्मा ने सृष्टि क्यों बनाई! क्योंकि जैन मानता ही नहीं कि | तलाश से कितने लोग निर्धन हो जाएंगे। क्या धन का इतना मूल्य सृष्टि बनाई गई है। वह मानता है, सृष्टि शब्द ही गलत है। इसका है कि इतने लोग दुखी और पीड़ित हो जाएं? मेरी तिजोरी भर कभी सृजन हुआ नहीं है। अस्तित्व सदा से है। असृष्ट है। इसकी जाएगी, लेकिन कितने पेट खाली हो जाएंगे! क्या तिजोरी को भरने कोई सृष्टि कभी नहीं हुई। इसलिए बनाने वाले का तो कोई सवाल | में इतनी कोई सार्थकता है? नहीं है। तराजू पर अगर तौले कोई भी, तो जो भी आप कर रहे हैं, लेकिन ये सब सवाल शास्त्रीय हैं। ये आपने कहीं पढ़ लिए, आपको पूछना ही पड़ेगा कि यह करने योग्य है? इसके करने का पढ़ने से आपके मन में पैदा हुए हैं। ये उधार हैं। आपने ही जीवन परिणाम जो चारों तरफ हो रहा है, उतना मूल्य चुकाया जाए, ऐसी में इनको नहीं खोजा है। शब्द आपके भीतर गए, और शब्दों से नए यह मंजिल है? इतनी यात्रा की जाए और पहुंचें कहीं भी न...। शब्द पैदा हो गए हैं। शब्दों की संतान हैं। प्रत्येक व्यक्ति महाभारत में खड़ा है। और प्रत्येक व्यक्ति के लेकिन हिंदू मेरे पास आता है, वह पूछता है, क्रोध से कैसे मुक्त सामने यही सवाल है, मैं दूसरे को मिटाऊं अपने होने के लिए? होऊं? जैन आता है, वह भी पूछता है, क्रोध से कैसे मुक्त होऊ? अर्जुन के सामने सवाल है कि मैं अपने को बचाने के लिए इन बौद्ध आता है, वह भी पूछता है, क्रोध से कैसे मुक्त होऊं? यह सबको मिटाऊं? उसके सामने सवाल है कि इनमें मेरे मित्र भी हैं, सवाल शास्त्र से नहीं आ रहा है; यह जीवन से आ रहा है। शास्त्र | | मेरे संबंधी भी हैं। खुद अर्जुन का गुरु सामने दुश्मन के दल में खड़ा के सवाल तीनों के अलग हैं। जीवन का सवाल तीनों का एक है। | है। जिससे मैंने सब सीखा, जो मैंने सीखा है जिससे, उसको ही और जब भी कोई व्यक्ति जीवन से उठने लगेगा, पूछने लगेगा, | | मिटाने के काम में लाऊं? प्रियजन हैं, संबंधी हैं। घर का ही झगड़ा तो प्रश्न एक हो जाएगा। क्योंकि हर मनुष्य की कठिनाई एक है। है, पारिवारिक युद्ध है। शास्त्र अलग हैं; आदमी एक है। शास्त्र भिन्न-भिन्न हैं; आदमी का ध्यान रहे, सारे युद्ध पारिवारिक हैं, क्योंकि मनुष्यता परिवार है। स्वभाव एक है। आप किसी से भी लड़ रहे हों, आपके ही भाई से लड़ रहे हैं। वह इसलिए गीता अनूठा है शास्त्र। और इसलिए गीता हिंदू के भी | भाई कितने पीछे आपसे जुड़ा है, यह दूसरी बात है। लेकिन अगर काम आ सकता है, मुसलमान के भी काम आ सकता है, जैन के | आप पीछे जाएंगे, तो कहीं न कहीं पाएंगे कि आपके दोनों का पिता भी काम आ सकता है। क्योंकि जिस समस्या से वह उठा है, वह | कहीं न कहीं पीछे एक था। समस्या सबकी समस्या है। जब मैं कहता हूं, सबकी समस्या है, | ईसाई कहते हैं कि एक आदमी आदम और महिला ईव, उन दोनों तो आपको थोड़ी हैरानी होगी, क्योंकि आप कोई महाभारत के युद्ध | से ही सारी मनुष्यता पैदा हुई है। वह ठीक ही है। कहानी ठीक ही में खड़े हुए नहीं हैं। फिर से सोचें तो आप पाएंगे कि आप महाभारत | है। हम आज कितने ही दूर हों...। वृक्ष की शाखाएं एक-दूसरी के युद्ध में ही खड़े हुए हैं। शाखाओं से बहुत दूर निकल जाती हैं। उपशाखाएं पहचान भी नहीं हर मनुष्य युद्ध में खड़ा हुआ है। प्रतिपल युद्ध है। किसी न किसी | | सकतीं। लेकिन नीचे जड़ में एक वृक्ष से जुड़ी हैं। . से लड़ ही रहे हैं। और जब लड़ रहे हैं, तो किसी न किसी की मृत्यु सारी मनुष्यता एक वृक्ष है। और सारा संघर्ष पारिवारिक है। और और जीवन आपके हाथ में है। चाहे इंच-इंच किसी को मिटा रहे हों, | | जब भी आप किसी को मिटा रहे हैं, तो अपने ही किसी को मिटा चाहे इकट्ठा मिटा रहे हों, लेकिन किसी को आप मिटा रहे हैं, मिटाना | | रहे हैं। कितना ही अपरिचय हो गया हो, लेकिन जहां भी कोई चाह रहे हैं। किसी को समाप्त कर देना चाहते हैं। किसी की जगह | मनुष्य है, वह मुझसे जुड़ा है। मनुष्य होने के कारण हम एक परिवार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिगुणात्मक जीवन के पार * के हिस्से हैं। | पादरी हैं सारी दुनिया में। बड़ा साम्राज्य है। बारह लाख पुरोहित, अर्जुन की समस्या आपकी भी समस्या है; हर आदमी की | | छोटा-मोटा साम्राज्य नहीं है! फिर इन बारह लाख में से एक समस्या है। और जब आप लड़ेंगे, तो जिसको आप दुश्मन मान रहे | आदमी पोप पाल तक पहुंच पाता है। इसके चुनाव हैं, सीढ़ियां हैं, हैं, जिनको आप दुश्मन मान रहे हैं, अगर थोड़ा पहचानेंगे, गौर उनको पार करते-करते कोई एक आदमी पहुंच पाता है। तीस वर्ष करेंगे, तो पाएंगे, सगे-संबंधी उस तरफ भी खड़े हैं। अन्यथा हो अंदाजन, तीस-चालीस वर्ष में कोई एक आदमी पोप हो पाता है। भी नहीं सकता। जीसस मर गए तैंतीस वर्ष में। पोप होते-होते कोई भी आदमी __ इसलिए मैं कहता हं कि ठीक से सोचने पर पाएंगे कि प्रत्येक पचास साल पार कर जाता है, साठ पार कर जाता है। बूढ़ा ही व्यक्ति महाभारत के युद्ध में है। और थोड़ा होश हो, तो आप भी आदमी पोप हो सकता है। क्योंकि यह जो पदों की परंपरा है, यही पूछेगे, जो अर्जुन पूछ रहा है। और थोड़ा होश हो, तो आप एक-एक सीढ़ी चढ़ना है। अगर जीसस होते, कभी पोप नहीं हो भी कृष्ण को खोजेंगे, जैसा अर्जुन ने खोज लिया है। और गीता | पाते, क्योंकि तैंतीस साल में कोई पोप हो ही नहीं सकता। उसका आपके लिए भी सार्थक हो सकती है। तो एक ढांचा है। और तैंतीस साल के आदमी पर भरोसा भी नहीं धर्मराज मूल्य के नहीं हैं, उनका बहुत मूल्य नहीं है। अर्जुन | किया जा सकता। कोई परंपरा भरोसा नहीं कर सकती कि उसको मूल्यवान है। और ऐसा सदा होता है। आज भी पंडित हैं, धर्मगुरु | | पोप बनाए। तैंतीस साल का आदमी खतरनाक है। हैं, पोप हैं, शंकराचार्य हैं, मठाधीश हैं, साधु हैं परंपरागत, । अमेरिका में हिप्पी युवकों का एक नारा है कि तीस साल के ऊपर संन्यासी हैं, उनका धर्म से कोई संबंध नहीं है। वे सब धर्मराज हैं। | जो हो, उसका भरोसा मत करो। क्योंकि तीस साल के बाद उनकी खोज वास्तविक नहीं है। उनके लिए धर्म भी एक लकीर है, | मुश्किल है कि आदमी बेईमान न हो जाए। अनुभव आदमी को सुविधापूर्ण है, कनवीनिएंट है। उसके साथ जीने में उन्हें आराम है, बेईमान बनाना शुरू कर देता है। और वह जितना अनुभवी होने सांत्वना है। और ऐसा सदा हो जाता है। लगता है, उतनी ही क्रांति क्षीण हो जाती है। ___ एक तरफ जीसस है, जो सूली पर लटकता है और एक तरफ ___ इसके विपरीत मैं अभी एक लेख पढ़ रहा था। जिसमें एक बूढ़े वेटिकन का पोप है। क्या संबंध है? इतना ही संबंध है कि सली| आदमी ने लेख लिखा है और उसने कहा है कि तीस साल से कम पर जीसस लटकता है, वेटिकन का पोप सोने की एक सूली अपने | आदमी का कोई भरोसा मत करो। उसकी भी दलीलें हैं। वह कहता गले में लटकाए है। क्या संबंध है? सूलियों में गले लटकाए जाते है, तीस साल के पहले आदमी का अनुभव ही नहीं है। और हैं, गले में सूलियां नहीं लटकाई जातीं! और फिर सोने की सूली जिसका कोई अनुभव नहीं, उसकी बातों का कोई भरोसा नहीं है। का क्या अर्थ है? ये धर्मराज हैं। उसे मनुष्य जाति के इतिहास का कोई खयाल नहीं है। . पोप को आप अधार्मिक नहीं कह सकते। नियम से जीते हैं। | जो भूलें हजार बार हो चुकी हैं, जवान हमेशा उन्हीं को दोहराता समय पर प्रार्थना करते हैं। समय पर बाइबिल पढ़ते हैं। जीवन को | है, क्योंकि उसके पास कोई अनुभव नहीं है। बूढ़ा कभी भूलें नहीं आचरण में बांध रखा है। कोई चोर नहीं हैं, बेईमान नहीं हैं, | दोहराता। लेकिन बूढ़ा कभी कोई नया काम ही नहीं करता; भूलें व्यभिचारी नहीं हैं। जो दस आज्ञाएं बाइबिल में हैं, शायद उनको दोहराने का कोई कारण नहीं है। भूल तो उससे होती है, जो नया पूरी तरह पालन करते हैं। लेकिन फिर भी धार्मिक नहीं हैं। फिर भी काम करता है। जीवन में वह ज्योति नहीं है, जो जीसस के जीवन में है। __ जीसस पोप नहीं हो सकते। अगर आदि शंकराचार्य पैदा हों, तो जीसस की खोज अपनी है। प्राणों को दांव पर लगाया है, तो किसी मठ के शंकराचार्य नहीं हो सकते। तैंतीस साल में शंकराचार्य खोजा है। पोप की खोज अपनी नहीं है; एक परंपरागत व्यवस्था | समाप्त हो गए। है। पोप एक पद है। जीसस कोई पद नहीं है। और जीसस होने में । कुछ कारण हैं। एक तो परंपरागत सिंहासन है। उन पर पहुंचता कठिनाई है, पोप होने में सुविधा है। सभी पोप होना चाहेंगे। जितने ही वह है, जो बिलकुल मुर्दा होता है। नहीं तो गुजर नहीं सकता है। ईसाई पादरी हैं, सभी प्रतिस्पर्धा में हैं कि वे कब पोप के पद तक | बीच की जो सीढ़ियां हैं, उनसे कभी का हटा दिया जाएगा। अगर पहुंच जाएं। लाखों में एक पहुंच पाएगा। बारह लाख कैथोलिक | जरा-सी भी बगावत का लक्षण है, जरा-सा भी स्वयं के सोचने का 21 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7** ढंग है, तो वह कभी का अलग छांट दिया जाएगा। वहां तक तो ही पहुंचेगा, जो बिलकुल लकीर का फकीर है। जिसने पच्चीसों वर्ष तक प्रमाण दे दिए हैं, कि न मैं सोचता हूं, न मैं विचारता हूं, मैं सिर्फ दोहराता हूं। मैं सिर्फ एक ग्रामोफोन रिकार्ड हूं। वह आदमी पोप तक पहुंच पाएगा। वह धर्मराज होगा। लेकिन गीता उससे नहीं कही जा सकती। इसलिए अर्जुन पात्र है, और धर्मराज पात्र नहीं हैं। दूसरा प्रश्न : युद्ध की पार्श्वभूमि में मृत्यु का क्षण अर्जुन के रूपांतरण में सहायक सिद्ध हुआ । क्या अर्जुन अन्यत्र रूपांतरित न हो पाता ? और क्या हमें भी अनिवार्यतः मृत्यु के क्षण जैसी स्थिति रूपांतरण के लिए आवश्यक है ? श्चय ही, जब तक किसी व्यक्ति को मृत्यु का ठीक-ठीक बोध नहीं होता, जब तक मृत्यु का तीर | आपके हृदय में ठीक-ठीक चुभन पैदा नहीं करता, तब तक आप जीवन के संबंध में सोचना शुरू नहीं करेंगे। मृत्यु ही सवाल उठाती है कि जीवन क्या है। अगर मृत्यु न हो, तो जीवन के संबंध में कोई सवाल न उठेगा। अगर मृत्यु न हो, तो धर्म के जन्म का कोई उपाय नहीं है। मृत्यु ही हिलाती है। मृत्यु ही जगाती है। मृत्यु ही प्रश्न बनाती है| कि जिस जीवन को तुम जी रहे हो, अगर वह कल मिट ही जाने वाला है, तो उसका मूल्य क्या? उसमें अर्थ क्या है? जिसके लिए तुम आज इतने बेचैन हो और वह कल ऐसे मिट जाएगा, जैसे पानी पर खींची गई लकीर, तो खींचने के लिए इतनी आतुरता क्या है ? जिन हस्ताक्षरों को करने में तुम इतनी पीड़ा उठा रहे हो कि जीवन उन्हें याद रखे, वे रेत पर बनाए गए हस्ताक्षर हैं। तुम पूरे भी न कर पाओगे कि हवा का झोंका उन्हें पोंछ जाएगा। तो जीवन में इतना ज्यादा रस व्यर्थ मालूम होगा। मृत्यु ही बताएगी कि जिसे तुम जीवन समझ रहे हो, वह जीवन नहीं है। और मृत्यु ही तुम्हें धक्का देगी कि तुम उस जीवन की खोज करो, जिसे मृत्यु न मिटा सके। क्योंकि वही जीवन है, जो अमृत है और जहां कोई मृत्यु न होगी, कोई अंत न होगा। अगर ऐसा कोई जीवन नहीं है, तो जिसे हम जीवन कह रहे हैं, यह नितांत मूढ़ता है। यह नितांत असंगत, एक दुखस्वप्न, एक | नाइटमेयर है। अगर कोई ऐसा जीवन हो सकता हो, जिसका अंत न हो, तो ही इस जीवन में भी कोई सार हो सकता है। क्योंकि तब हम इस जीवन को उस जीवन में जाने की परिस्थिति बना सकते हैं। तब हम इस जीवन को उस जीवन में प्रवेश की साधना बना सकते हैं। तब हम इस जीवन को एक द्वार की तरह, एक शिक्षण की तरह उपयोग कर सकते हैं और परम जीवन में प्रवेश कर सकते हैं। इस जीवन का एक ही उपयोग हो सकता है कि यह किसी महत्तर जीवन में जाने का साधन बन जाए। मृत्यु ही बताती है कि यह अंत नहीं है। अंत कहीं और खोजना | होगा। मृत्यु ही बताती है कि यह यात्रा - पथ भला हो, मंजिल नहीं है। मंजिल कहीं और खोजनी होगी। अर्जुन को ही नहीं, किसी को भी मृत्यु ही जगाती है। अगर कोई समझदार हो अर्जुन जैसा, तो दूसरे की मृत्यु भी जगाने वाली बन | जाती है। अगर कोई मूढ़ हो, तो दूसरे की मृत्यु का उससे कोई संबंध नहीं जुड़ता । हेनरिक हेन, एक जर्मन कवि ने लिखा .1 22 जिस गांव में हेनरिक हेन था, उस गांव की परंपरा थी कि जब भी कोई गांव में मर जाए, तो चर्च की घंटी बजे । चर्च का घंटा बजे, ताकि पूरे गांव को खबर हो जाए कि कोई मर गया है। और लोग पूछने भेज दें चर्च में कि कौन मर गया है। हेनरिक ने अपनी डायरी में लिखा है, डोंट सेंड एनीबडी टु आस्क, फार हम दि बेल टाल्स, इट टाल्स फार दी ! मत भेजो किसी को पूछने कि चर्च का घंटा किसके लिए बज रहा है। यह घंटा तुम्हारे लिए बज रहा है। कोई भी मरे, तुम्हारी मौत का ही इशारा है। हर मौत खबर है कि तुम भी मरोगे। हर मौत किसी अंश में | तुम्हारी मौत है। जब भी कोई मरता है, कुछ हिस्सा तुम्हारा मर जाता | है । और तुम्हारी मौत तुम्हें घेर लेती है क्षणभर को। अर्जुन को दूसरे की मृत्यु भी प्रतीक हुई जा रही है। वह सिर्फ यही | नहीं पूछ रहा है कि इनको मैं क्यों मारूं; वह यह पूछ रहा है कि अगर | यह मारना ही सब कुछ है, तो जीवन का मूल्य क्या है? अगर इस मृत्यु से जीवन मिलता हो, तो ऐसे जीवन का मैं त्याग करता हूं। वह | यह कह रहा है कि अगर मृत्यु के माध्यम से जीवन मिलता हो, तो मैं ऐसे जीवन का त्याग करता हूं। इससे तो बेहतर है, मैं भाग जाऊं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिगुणात्मक जीवन के पार * जंगल। इससे तो बेहतर है, मैं मर जाऊं मारने की बजाए। असल में जिससे भी भय हो, उसकी तरफ आंख गड़ाकर ही जब भी आप किसी और की मृत्यु देख रहे हैं, तब अगर आप | देख लेना उपाय है। क्योंकि तब कुछ किया जा सकता है। थोड़े भी विचारपूर्ण हैं, तो आप तत्क्षण सजग हो जाएंगे कि आपकी ___ मौत के प्रति ध्यान जरूरी है। हम उससे भाग न सकेंगे। हम मौत भी करीब है। और जिस क्य में यह आदमी गिर गया है. उसी | कहीं भी भागे, हम उसी में पहुंच जाएंगे। हमारी सब भाग-दौड़ क्यू में आप भी खड़े हैं। थोड़े फासले पर खड़े होंगे। यह नंबर एक | | मृत्यु में ले जाएगी। उससे बचने का कोई भी उपाय नहीं है। सिर्फ था; इसका वक्त आ गया। लेकिन इसके आने से एक नंबर आप | एक ही उपाय है कि हम मृत्यु को देखें, समझें, और अपने भीतर भी आगे सरक गए हैं। क्यू में आप थोड़े आगे आ गए हैं। जहां किसी ऐसे तत्व को खोज लें, जो नहीं मर सकता है। फिर मृत्यु मौत घटने वाली है, उस बिंदु के आप करीब सरक रहे हैं। हर क्यू व्यर्थ हो जाती है। फिर कोई हंस सकता है। फिर कोई मृत्यु के में गिरने वाला आदमी आपको करीब ला रहा है। हर रास्ते से साथ खेल सकता है। निकलती लाश आपकी मौत को करीब ला रही है। हर लाश एक कृष्ण भी अर्जुन को यही इशारा दे रहे हैं। वे यही समझाने की सीढ़ी है, जो आपको मौत तक पहुंचा देगी। | कोशिश कर रहे हैं कि मृत्यु वास्तविक नहीं है! क्योंकि जो भीतर __ मृत्यु का बोध बुद्ध को संन्यस्थ जीवन में ले गया। मृत्यु का बोध | | छिपा है, वह कभी भी नहीं मरता। न उसे हम जला सकते हैं जलाने ही किसी भी मनुष्य को कभी भी धार्मिक होने की प्रेरणा दिया है। सेन उसे डबा सकते हैं, न गला सकते हैं: न उसमें छिद्र किए जा मृत्यु का परम वरदान है। मृत्यु है, इसलिए आप सोचते हैं। | सकते हैं शस्त्रों से; न उसे आग जलाती है। जब कोई मार भी डाला ___ कोई भी जानवर धार्मिक नहीं है। न होने का कारण कुल इतना है जाए, तो भी वह नहीं मरता है। कि कोई भी जानवर अपनी मृत्यु के संबंध में नहीं सोच पाता। मृत्यु ___ अर्जुन मृत्यु के प्रति सचेत हो गया है। कृष्ण उसे अमृत के प्रति उसके लिए कभी भी विचारणीय नहीं बनती। इतना भविष्य में पशु सचेत करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ध्यान रहे, अमृत के का मन नहीं सोच सकता। और अगर कोई मर भी जाए, तो पशु यह | | प्रति उसी की आंखें उठ सकती हैं, जो मृत्यु को देखने में ठीक-ठीक नहीं सोच सकता कि मैं मरूंगा। यह एक दुर्घटना है। इस पर कोई सफल हो गया। क्योंकि मृत्यु के पार अमृत है। सोच-विचार भी नहीं होता। अगर पशुओं को भी खयाल आ जाए । पहले तो मृत्यु को देखना ही पड़ेगा। और आंख इतनी गहरी कि उनकी मृत्यु करीब है, तो वे भी अपना धर्म निर्मित कर लें। | चाहिए कि मृत्यु के आर-पार प्रवेश कर जाए और छिपे हुए अमृत धर्म वस्तुतः मृत्यु के पार जाने का उपाय है। इसलिए जिस को खोज ले। व्यक्ति को भी वस्तुतः धार्मिक रूपांतरण से गुजरना हो, उसे अपनी जो मृत्यु से बचेगा, वह आत्मा से भी बच जाएगा। जो मृत्यु से मृत्यु के प्रति बहुत सघन रूप से सचेत हो जाना चाहिए। आंख चुराएगा, अमृत से भी उसके संबंध जुड़ नहीं पाएंगे। यह __ मृत्यु के प्रति सचेत होने का अर्थ मृत्यु से भयभीत होना नहीं है। उलटा मालूम होगा, पैराडाक्सिकल लगेगा, विरोधाभासी, कि जो सच तो यह है, जो सचेत नहीं होते, वे ही भयभीत होते हैं। जो | मृत्यु से बचता है, वही मरता है। और जो मृत्यु का साक्षात कर लेता सचेत होते हैं, वे तो उसके पार जाने का उपाय करने लगते हैं। है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। उनका मृत्यु का भय नष्ट हो जाता है। धर्म मृत्यु के साक्षात्कार की प्रक्रिया है। मृत्यु का बोध, कांशसनेस आफ डेथ चाहिए, कि मृत्यु है, और उससे हम आंख न चुराएं। और हमारे आंख चुराने से हम बचेंगे नहीं। आंख चुराना शुतुरमुर्गी है। शुतुरमुर्ग छिपा लेता है अपनी तीसरा प्रश्नः ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान, ऐसा गर्दन को रेत में, कोई दुश्मन को देखता है तो। आंख बंद हो जाती कृष्ण ने कहा। क्या ज्ञान में भी श्रेणी-क्रम है? है, रेत में गर्दन छिप जाती है; शुतुरमुर्ग सोचता है, जो दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता, वह नहीं है। यह तर्क शुतुरमुर्गी है। हम भी यही तर्क का उपयोग करते हैं। जिस चीज से हम डरते हैं, उसको हम ला न में तो कोई श्रेणी-क्रम नहीं है, लेकिन व्यक्ति देखते नहीं हैं। और सोचते हैं, न दिखाई पड़ने से हम बच जाएंगे। II भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए एक ज्ञान आपके लिए परम 123| Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 3 ज्ञान हो सकता है और दूसरा ज्ञान आपके लिए परम ज्ञान न हो। | कि मैं तुझसे परम ज्ञान कहता हूं। तो शंकर क्या करेंगे जहां भक्ति परम ज्ञान से प्रयोजन है. जिस ज्ञान से आपकी मक्ति हो जाए। श्रेष्ठ है? शंकर करेंगे कि भक्ति भी ज्ञान तक पहुंचने का एक मार्ग जिस साधना-विधि से आप सिद्ध हो जाएंगे, वह आपके लिए है। लेकिन ज्ञान ही है अंत। भक्ति भी एक मार्ग है ज्ञान तक पहुंचने परम है। का। लेकिन वह मार्ग कमजोरों के लिए है। जो सबल हैं, वे सीधा हजार साधना-विधियां हैं। उनमें कोई श्रेणी-क्रम नहीं है। वे | ज्ञान का मार्ग ले लेते हैं। जो भावाविष्ट हैं, भावुक हैं, स्त्रैण हैं, वे सभी श्रेष्ठ हैं। लेकिन वे सभी आपके लिए श्रेष्ठ नहीं हैं। कोई और | भक्ति का मार्ग लेंगे। वह भी एक मार्ग है। उसको भी बरदाश्त उनसे पहुंच सकता है। किया जा सकता है। व्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं। सभी रास्ते वहां पहुंचा देते हैं। जो रास्ता कृष्ण कहीं कर्म को श्रेष्ठ कहते हैं। कहते हैं, कर्मयोगी ही श्रेष्ठ आपको पहुंचा देता है, वह परम है आपके लिए। जो रास्ता मुझे | | है। तो तिलक उसको पकड़ लेते हैं, और गीता की पूरी व्याख्या पहुंचा देता है, वह परम है मेरे लिए। आपका रास्ता मेरे लिए दो कर्मयोग कर देते हैं। तब ज्ञान भी तभी सार्थक है, जब कर्म में उतरे। कौड़ी का है। मेरा रास्ता आपके लिए दो कौड़ी का है। उसका कोई | और भक्ति भी तभी सार्थक है, जब वह तम्हारा कर्म और सेवा बन भी मूल्य नहीं। जाए। फिर तिलक के पीछे चलकर गांधी और विनोबा कर्म का यह जो परम शब्द का कृष्ण उपयोग कर रहे हैं, यह दो रास्तों में | विस्तार किए चले जाते हैं। तौलने के कारण नहीं है। हजार रास्ते हैं। लेकिन एक व्यक्ति को | गीता की हजार व्याख्याएं संभव हैं। हजार व्याख्याएं हुई हैं। होने एक ही रास्ता पहुंचाएगा। और अपने रास्ते को खोज लेना परम को का कारण यह है कि कृष्ण पांथिक नहीं हैं। वे किसी एक पंथ की खोज लेना है। बात नहीं कह रहे हैं। वे सभी दृष्टियों की बात कर रहे हैं। और सभी इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। यह तुलना रास्तों को नीचा-ऊंचा | दृष्टियों में जब वे जिस दृष्टि की बात करते हैं, उसमें जो श्रेष्ठतम करने की नहीं है। इसलिए कृष्ण को समझने में कई बार कठिनाई है, उसको खींचकर ऊपर लाते हैं। और जब वे उस दृष्टि की बात होती है। जब वे भक्ति की बात करते हैं, तब वे कहते हैं, परम। करते हैं, तो उसके साथ तत्सम हो जाते हैं, एक हो जाते हैं। फिर जब वे ज्ञान की बात करते हैं, तब वे कहते हैं, परम। इसलिए इतनी | | वे भूल जाते हैं कि और भी दृष्टियां हैं। और तभी ऐसा हो सकता टीकाएं कृष्ण की गीता पर हो सकीं। और सभी टीकाकार गलती | है, नहीं तो उस दृष्टि का पूरा गहन विश्लेषण भी नहीं हो सकता। करते हुए भी ऐसा नहीं मालूम पड़ते कि गलती करते हैं। क्योंकि कृष्ण दूर खड़े होकर विश्लेषण नहीं करते हैं। जब वे भक्ति की उनके मन की बात भी कृष्ण ने कहीं कही है। वे उसको ऊपर उठा बात अर्जुन से कह रहे हैं, तब वे भक्त ही हो जाते हैं। और तब वे लेते हैं। उसका गणगान करते हैं जितना हो सकता है। उस गणगान में वे जैसे रामानुज, भक्त हैं और मानते हैं कि भक्ति ही मार्ग है। तो कंजूसी नहीं करते। और उस गुणगान में यह खयाल नहीं रखते कि कृष्ण के वचन हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि भक्ति परम है; पहले मैंने क्या कहा है। क्योंकि वह तो सिर्फ चालाक आदमियों सर्वश्रेष्ठ भक्त है। तो बस, उसको रामानुज चुन लेंगे, उसको बिंदु | का हिसाब है कि पहले मैंने क्या कहा था। वे इसका भी हिसाब नहीं बना लेंगे, आधार। और उसके आधार पर पूरी गीता की व्याख्या | रखते कि कल मैं क्या कहूंगा। क्योंकि वे कोई दुकानदार नहीं हैं। कर देंगे। जो गलत है। क्योंकि कई जगह कृष्ण ज्ञान को परम कह | कल, कल देखा जाएगा। रहे हैं कि ज्ञानी परम श्रेष्ठ है। तब रामानुज उसकी ऐसी व्याख्या | | और जब वे गुलाब के फूल की प्रशंसा करेंगे, तो सब फूल भूल करेंगे कि जिससे वह भक्ति श्रेष्ठ रहे और यह ज्ञान नंबर दो का हो | | जाएंगे। और जब वे कमल के फूल की प्रशंसा करेंगे, तो सब फूल जाए। कैसे वे व्याख्या करेंगे? | भूल जाएंगे। तब कमल का फूल ही सारे फूलों का सार हो जाएगा। आदमी शब्दों के साथ खेल कर सकता है। खेल यह है कि वे लेकिन यह दृष्टि समझनी कठिन है, क्योंकि तब कृष्ण बेबूझ हो कहते हैं, परम ज्ञानी वही है, जिसको भक्ति का ज्ञान है। हल हो | | जाते हैं। और संप्रदाय वाले लोग फिर उनसे अपना-अपना मतलब गया। अड़चन हल हो गई। | निकालते हैं। शंकर ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं। वचन हैं गीता में, यही वचन है । इसलिए सभी ने कृष्ण के साथ ज्यादती की है। ज्यादती करनी ही Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिगुणात्मक जीवन के पार * पड़ेगी, क्योंकि इतना विराट हृदय है! कृष्ण जैसा हृदय बहुत | देते। वे आपसे यह कह रहे हैं कि मैं तो सबको श्रेष्ठ कह रहा हूं, मुश्किल है, जहां सब समा जाएं। | लेकिन तुम्हारे लिए क्या श्रेष्ठ है, वह तुम्हें खोजना पड़ेगा। तुमसे नसरुद्दीन गांव का न्यायाधीश हो गया था। पहला ही मुकदमा | | किस चीज का तालमेल बैठ जाता है, तुम्हारे हृदय में कौन-सी उसकी अदालत में आया। पक्ष के वकील ने कुछ कहा; अपना चीज अनुगूंज पैदा करती है, तुम्हारी धड़कनें किस बात के साथ वक्तव्य दिया। नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल ठीक। जो कोर्ट का नाचने लगती हैं, तुम किससे अपना तारतम्य पाते हो, वही तुम्हारे क्लर्क था, जो नीचे ही नसरुद्दीन के बैठा था, वह थोड़ा घबड़ाया। | लिए श्रेष्ठ है। जज को ऐसा निर्णय नहीं देना चाहिए। अभी दूसरे पक्ष की बात सुनी ___ इसे खयाल रखें, अन्यथा कृष्ण बहुत असंगत मालूम होंगे। ही नहीं गई। सभी महापुरुष असंगत होते हैं, सिर्फ क्षुद्र व्यक्तित्व असंगत नहीं उसने झुककर नसरुद्दीन को कहा कि शायद आपको पता नहीं | होते। क्योंकि उनमें विपरीत समाया होता है। वे अपने से भिन्न को अदालत के नियम। आप चुप रहें। निर्णय आखिर में। और अगर | भी अपने भीतर समा लेते हैं। आप अभी कह देते हैं कि बिलकुल ठीक, तो फिर दूसरे विपक्षी को कहने का क्या मौका रहा! नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल ठीक। उस क्लर्क से कहा। चौथा प्रश्नः कृष्ण, बुद्ध, महावीर जानते हैं कि संसार फिर विपक्षी की बात सुनी। और जब विपक्षी अपना पूरा वक्तव्य माया है, एक स्वप्न है, तो भी वे अपने शिष्यों के दे चुका, तो नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल ठीक। क्लर्क झुका और साथ इतना श्रम क्यों करते हैं? क्या उनका श्रम भी, उसने कहा, अब हद हो गई। पक्ष भी ठीक; मैंने विरोध किया, वह शिष्यों को साधना करवाना भी माया के ही अंतर्गत भी ठीक; अब यह विरोधी जो कह रहे हैं, यह भी ठीक! आपका नहीं है? मतलब क्या है ? ये सब ठीक नहीं हो सकते! नसरुद्दीन ने कहा कि बिलकुल ठीक। इस भाव-दशा को समझना थोड़ा कठिन है। या तो मूढ़ में हो +नश्चित ही माया के अंतर्गत है। जैसे कोई सोया हो, सकती है यह भाव-दशा. या परम ज्ञानी में। या तो मढ ऐसी मढता IUI स्वप्न देख रहा हो कि उसके घर में आग लग गई है। कर सकता है कि सभी को ठीक कह दे। और या फिर परम ज्ञानी और तड़फ रहा हो, नींद में हाथ-पैर मार रहा हो, ऐसे ज्ञान की बात कर सकता है कि सभी को ठीक कहे। मध्य में चिल्ला रहा हो, आग! आग! आप जागे हुए बैठे हैं। और आप तो हमें सदा ऐसा लगेगा कि कुछ ठीक और कुछ गलत। अगर एक | जानते हैं, कहीं आग नहीं लगी है। आप जानते हैं कि वह स्वप्न • पक्ष ठीक है, तो विपक्ष गलत होगा ही। देख रहा है। उसके माथे पर जो पसीना बह रहा है, वह स्वप्न की हम सब अरस्तू के तर्क से जीते हैं। जहां विपरीत बातें, दोनों सही | आग से पैदा हुआ है। उसके मुंह से जो चिल्लाहट निकल रही है, नहीं हो सकतीं। दोनों गलत हो भी सकती हैं, लेकिन दोनों सही नहीं | आग; मर गए; लुट गए; वह स्वप्न की आग से निकल रही है। हो सकतीं। सही तो एक ही हो सकती है। आप उसको जगाने की कोशिश करेंगे, जाग जाओ। हिलाएंगे; लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति अरस्तू के तर्क से नहीं जीते हैं। कृष्ण | उससे कहेंगे, यह स्वप्न है। जैसे व्यक्ति विराट हैं। उनमें सब समाया हुआ है। और जब भी वे __ स्वप्न को तोड़ने की क्या जरूरत? स्वप्न स्वप्न है ही। स्वप्न को किसी एक बात की चर्चा करते हैं, तो पूरे उसमें तल्लीन हो जाते हैं। | तोड़ने के लिए आप परेशान क्यों हो रहे हैं? अगर स्वप्न स्वप्न ही उस तल्लीनता के कारण वे जगह-जगह कभी भक्ति को श्रेष्ठ कहते | | है, तो इतनी परेशानी आपको क्या है! इसको चिल्लाने दो, रोने दो, हैं, कभी ज्ञान को श्रेष्ठ कहते हैं, कभी कर्म को श्रेष्ठ कहते हैं। चीखने दो। स्वप्न ही है। लेकिन फिर भी आप कोशिश करेंगे। माना __आप क्या करें? आप उलझन में पड़ जाएंगे। क्योंकि अगर वे कि जो यह देख रहा है, वह तो स्वप्न है; लेकिन जो यह भोग रहा एक को श्रेष्ठ कह दें, तो आप आंख बंद करके चल पड़ें। लेकिन | | है, वह सत्य है। शायद उचित ही है कि वे आपको आंख बंद करने का मौका नहीं इस फर्क को ठीक से समझ लें। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 जो यह देख रहा है कि आग लगी है, वह तो स्वप्न है; लेकिन | हो सकती है झूठे सांप को देखकर! जो यह भोग रहा है, जो पीड़ा, वह सत्य है। उस पीड़ा में कोई फर्क | आप दुख तो भोग ही रहे हैं। इस दुख से बाहर आने की व्यवस्था नहीं पड़ता। वस्तुतः घर में आग लगी हो, तो भी इतनी ही पीड़ा होती साधना है। है; और सपने में आग लगी हो, तो भी इतनी ही पीड़ा हो रही है। और महावीर, बुद्ध और कृष्ण इतना श्रम लेते हैं, वह श्रम भी या कि कोई फर्क पड़ता है? आपको श्रम मालूम पड़ रहा है। शायद आपको कभी-कभी तो पीड़ा वास्तविक है। संसार असत्य है, लेकिन संसार में भोगा। | पागलपन भी मालूम पड़ता होगा। क्योंकि श्रम में भी कोई पुरस्कार गया दख वास्तविक है। यह संसार सत्य हो या असत्य हो. इससे तो दिखाई पडता नहीं। श्रम भी आदमी करता है. तो कछ पाने को। फर्क नहीं पड़ता; आप दुख भोग रहे हैं, यह सवाल है। और बुद्ध | इनको मिलता क्या है? कभी-कभी जीसस जैसे व्यक्ति को सूली और महावीर और कृष्ण जानते हैं कि तुम्हारा दुख असत्य से पैदा | | मिल जाती है, और तो कुछ मिलता नहीं। कभी सुकरात को जहर हो रहा है, लेकिन तुम दुखी हो, यह निश्चित है। | मिल जाता है, और तो कुछ मिलता नहीं। यह पुरस्कार है! इतना भर कह देने से कि यह सब माया है, सपना है; छोड़ो, इसमें मिलता क्या है ? श्रम ही दिखाई पड़ता है। किसलिए श्रम कर कुछ रखा नहीं है, तुम्हारा दुख नहीं मिटेगा। तुम्हें जगाना पड़ेगा। | रहे हैं? आपको ऐसा लगता है कि श्रम कर रहे हैं; उनकी तरफ से साधना पद्धति का अर्थ होता है, जगाने की कोई व्यवस्था। और श्रम नहीं है। उनकी तरफ से सहज आनंद है। उनकी तरफ कोई यह नींद ऐसी गहरी है; यह नींद साधारण नींद नहीं है। साधारण मेहनत नहीं हो रही है। जो उन्होंने जाना है, उसे दूसरे को भी जना नींद में तो दूसरा आदमी आपको हिलाकर उठा दे। यह नींद ऐसी | | देना एक आनंद है। जो उन्होंने पाया है, वह दूसरा भी पा ले; उस गहरी है कि जब तक आप ही अपने को हिलाना न शरू करें. कोई दसरे के पाने में भी बड़ा आनंद है। कृष्ण, कोई बुद्ध आपको हिलाकर नहीं उठा सकते हैं। यह श्रम किसी पुरस्कार को पाने के लिए नहीं है। यह श्रम अपने इसलिए कृष्ण, बुद्ध और महावीर इतना ही कर सकते हैं कि | में ही पुरस्कार है। इसके पार और कुछ पाने का सवाल नहीं है। यह आपको कुछ विधियां दें, जिनके माध्यम से आप अपने को हिलाना | | श्रम प्रेम का एक हिस्सा है। यह एक करुणा है। शुरू करें और किसी दिन जाग जाएं। जागकर आप भी पाएंगे कि | | अब हम सूत्र लें। स्वप्न था। जागकर आप भी पाएंगे कि जो मैं देख रहा था, वह हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात वास्तविक नहीं था। लेकिन फिर भी आप बुद्ध के चरणों में सिर | शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भ को धारण रखकर धन्यवाद देंगे। क्योंकि जो आप भोग रहे थे, वह काफी | करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूं। वास्तविक था। हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति से झूठी चीजों से भी सत्य भोग भोगा जा सकता है। एक आदमी | | उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। रास्ते पर देखता है, रस्सी पड़ी है अंधेरे में और सांप दिखाई पड़ती हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार है; वह भाग खड़ा होता है। उसकी छाती कम धड़केगी, क्योंकि | सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से और ज्ञान वहां रस्सी है, सांप नहीं? सांप होता तो ज्यादा धड़कती? की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से बांधता है। इस आदमी के लिए तो सांप है ही। यह भाग रहा है। इसकी । पहली बात, गीता के अनुसार और वस्तुतः सांख्य के अनुसार घबड़ाहट तो वास्तविक है। इसकी पीड़ा वास्तविक है। इसका हार्ट | | प्रकृति तीन तत्वों का मेल है, सत्व, रज, तम।। फेल हो सकता है। और आप यह न कह सकेंगे कि गलत है तुम्हारा । यह आश्चर्य की बात है कि जगत में जहां भी किसी ने विश्लेषण हार्ट फेल। क्योंकि तुमने जो देखा, वह सांप नहीं था, रस्सी थी। | किया है जीवन का, अंतिम विश्लेषण हमेशा तीन पर टूट जाता है। वापस लौटो। यह बिलकुल ठीक नहीं है। यह जायज नहीं है। प्रतीकों में, धारणाओं में, सिद्धांतों में अस्तित्व तीन हिस्सों में टूट मगर आपके कहने से कोई वापस लौटने वाला नहीं है। जाता है। जायज-नाजायज कौन पूछेगा? यह हृदय की धड़कन बंद हो | । ईसाइयत ट्रिनिटी में विश्वास करती है कि ईश्वर के तीन रूप हैं। सकती है झूठे सांप को देखकर। वास्तविक हृदय की धड़कन बंद और उनसे ही सारा जगत निर्मित होता है। हिंदू त्रिमूर्ति में विश्वास 26 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिगुणात्मक जीवन के पार * करते हैं कि परमात्मा के तीन चेहरे हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश। उन | | जितना ज्यादा तम हो, उतनी अविकसित चीज मानी जाएगी। जितना तीन चेहरों से ही सारा जगत, उन तीन व्यक्तित्वों से ही सारा जगत | कम तम हो, उतनी विकसित। आदमी सबसे ज्यादा गतिमान है। निर्मित है। पत्थर सबसे ज्यादा गतिहीन है। पौधों में थोड़ी गति है। पशुओं में सांख्य अति वैज्ञानिक है। वह ट्रिनिटी और त्रिमूर्ति की बात नहीं | और ज्यादा। मनुष्य में बहुत। करता, तीन चेहरों की बात नहीं करता; वह तीन तत्वों की बात ___ मनुष्य पानी में भी गति करे, जमीन पर भी, हवा में, आकाश में करता है, सत्व, रज, तम। सत्व, रज, तम, तीनों के तीन गुण हैं। भी, चांद-तारों तक भी जाए। उसे रोकने का उपाय नहीं, सब तरफ और उन तीनों गुणों के मेल से सारा अस्तित्व गतिमान है। | भागता है। इसलिए मनुष्य सर्वाधिक विकसित है। उसने अपने तम तम स्थिति-स्थापक है। तम का अर्थ है, आलस्य की, विश्राम | की या अपने भीतर की मृत्यु पर सर्वाधिक विजय पा ली है। वह की दशा, ठहरी हुई दशा, अवरोधक। एक पत्थर आप फेंकते हैं। बदल सकता है। अगर आप न फेंकते, तो पत्थर अपनी जगह पड़ा रहता। अपनी समाज में भी वही समाज सबसे ज्यादा प्रगतिशील होगा, जिसने जगह पड़ा रहना तम है। जब तक कि कोई बाहरी चीज धक्का न | तम को तोड़ दिया है। पश्चिम के समाज अपने तम को तोड़ने में दे, सभी चीजें अपनी जगह पड़ी रहेंगी। तम का अर्थ है, अपनी | काफी सफल हुए हैं। विकास तीव्र हो गया है। लेकिन किन्हीं जगह ठहरे रहना, हटना नहीं। और जब आप पत्थर को फेंकते हैं, | सीमाओं में विकास इतना ज्यादा हो गया है कि ठहरने की उन्हें कला तब भी आपको ताकत लगानी पडती है। वह ताकत इसीलिए | ही भूली जा रही है। तो भी घबड़ा गए हैं। लगानी पड़ती है, क्योंकि पत्थर अपनी जगह रहना चाहता है। | ___ क्योंकि एक आदमी चल पड़े और रुकना न जाने, रुकना भूल उसको जगह से हटाने में आपको संघर्ष करना पड़ता है। जाए! मंजिल पर पहुंचने को चला था, लेकिन मंजिल पर रुकना फिर आप पत्थर को फेंक भी देते हैं, अगर तम जैसी कोई चीज | पड़ेगा; और वह रुकना भूल जाए! और चलना ऐसा हो जाए कि न होती, तो पत्थर फिर कभी रुकता ही नहीं। वह चलता ही चला | वह रुकना भी चाहे, तो रुक न सके। मंजिल भी आ जाए, तो क्या जाता। लेकिन पत्थर लड़ रहा है रुकने के लिए। आपने फेंक दिया, | करे? मंजिल पीछे छूट जाएगी। वह आदमी चलता ही रहेगा। तो आपने थोड़ी-सी ऊर्जा उसको दी, शक्ति दी अपने शरीर की। वह | __तमः ठहरने वाली, ठहराने वाली, रोकने वाली। रजः गति देने शक्ति जैसे ही चुक जाएगी, पत्थर वापस जमीन पर गिर जाएगा। वाली, तीव्रता देने वाली। रज शक्ति है, ऊर्जा है प्रवाहमान, जैसे विज्ञान जिसको ग्रेविटेशन कहता है, सांख्य उसको तम कहता | नदी, विद्युत। है, ठहरने की, प्रतिरोध की, रुकने की, स्थिति में बने रहने की। यह सारा जगत गतिमान है। अगर चीजें ठहरी ही रहें, तो जगत अगर दुनिया में तम न हो, तो फिर कोई भी चीज ठहरेगी नहीं। नहीं हो सकता। उसमें चलना, उसमें बढ़न बड़ा मुश्किल हो जाएगा। सभी चीजें गति में रहेंगी। और गति इतनी बच्चा पैदा होता है; बढ़ेगा। मौत अगर तम है, तो जीवन रज है, विक्षिप्त हो जाएगी कि उसके ठहरने का कोई उपाय नहीं रह | | जन्म रज है। जन्म के क्षण में बच्चे में रज का तत्व ज्यादा होता है, जाएगा। अकेली गति काफी नहीं है। ठहरने का तत्व कहीं प्रकृति | | तम का कम। बूढ़े में तम बढ़ जाता है और रज कम हो जाता है। में गहन होना चाहिए। जिस दिन रज और तम दोनों समान होते हैं, उस दिन व्यक्ति जवान . तम है स्थिति का, ठहरने का तत्व; कहें मृत्यु का तत्व। क्योंकि | | होता है; उस दिन उसमें गति और ठहराव बराबर होते हैं। उस दिन मृत्यु ठहरा लेती है। मर जाने के बाद फिर कोई गति नहीं है। । संतुलन होता है। उस दिन एक बैलेंस होता है। इसीलिए जवानी में इसलिए तामसिक व्यक्ति हम उसको कहते हैं, जो मरा-मरा जीता | | एक सौंदर्य है। है। जिसमें तम इतना है, कि जिसमें गति है ही नहीं। जो चलता ही | | बच्चे में एक त्वरा होती है, चंचलता होती है, क्योंकि रज तेज नहीं, उठता ही नहीं। जिसके भीतर कोई क्रांति, कोई परिवर्तन, कोई होता है, तम कम होता है। तुम उसे कहो कि बैठो शांत, तो वह नया नहीं होता; कुछ रूपांतरण नहीं होता। जो पत्थर की तरह पड़ा शांत नहीं बैठ सकता। बूढ़ों को बहुत अखरता है कि बच्चे शांत हुआ है। नहीं बैठ सकते। उनको अखरने का कारण है। क्योंकि वे चंचल देखें, हम प्रकृति में भी इसी तरह हिसाब लगाते हैं विकास का। नहीं हो सकते। 27 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * लेकिन उनको पता नहीं है कि बच्चे बूढ़े नहीं हैं, इसलिए उनसे | इन तीनों के पार भी एक अवस्था है, जिसको कृष्ण बाद में ठहरने की आकांक्षा करनी गलत है। अगर उन्हें ठहराना भी हो, तो | बताएंगे, जिसे वे गुणातीत कहते हैं। पर उस अवस्था को देखा नहीं एक ही उपाय है कि उन्हें काफी दौड़ाओ कि वे थक जाएं। उनका रज | जा सकता। बुद्ध में वह पैदा होती है, कृष्ण में पैदा होती है, पर जाए। उनका रज थक जाए, तो तम ज्यादा हो जाएगा। फिर वे उसको हम देख नहीं सकते हैं। वह तो हममें ही जब पैदा हो, तभी बैठ जाएंगे। उनके विश्राम का एक ही उपाय है कि वे काफी दौड़ लें। | हम उसका अनुभव कर सकते हैं। बूढ़े के दौड़ने का एक ही उपाय है कि काफी विश्राम कर ले, तो | | बुद्ध को भी हम ज्यादा से ज्यादा सत्व में देख सकते हैं, क्योंकि थोड़ा दौड़ सकता है। उसका तम थक जाए विश्राम कर-करके, तो आंखें सत्व को देख सकती हैं। आंखें प्रकृति की हैं। वे भी तीन रज थोड़ा गतिमान हो सकता है। तत्वों से बनी हैं। उनमें भी रज है, तम है और सत्व है। इसलिए जो और जवानी एक संतुलन है। और जब पूरी तरह संतुलित होती | | हमारी आंखों में छिपा है, उसे हम पहचान सकते हैं, ज्यादा से है गति की क्षमता और ठहरने की क्षमता, तो सौंदर्य प्रकट होता है। | ज्यादा। वह भी सभी लोग नहीं पहचान सकेंगे। क्योंकि दोनों विपरीत बिलकुल मिल जाते हैं। दोनों में जरा भी भेद बुद्ध के पास अगर कोई तामसी जाएगा, तो बुद्ध को बिलकुल नहीं रह जाता। दोनों तनाव एक जगह पर आ जाते हैं। उस तनाव | नहीं पहचान पाएगा। वह समझेगा कि कोई ढोंगी है; वह समझेगा का नाम जवानी है: उस टेंशन का नाम. जहां दोनों विपरीत शक्तियां कि लोगों को धोखा दे रहा है। इससे सावधान रहना; कहीं रात सो बराबर मात्रा की हो जाती हैं। गए, जेब न काट ले! वह बुद्ध के पास भी अपनी जेब पर हाथ सत्व न तो गति का तत्व है, न ठहरने का। सत्व है संतुलन। रखेगा कि क्या भरोसा! देखने में तो भोला लगता है, लेकिन सत्व वहीं प्रकट होता है, जहां दोनों तत्व संतुलित हो जाते हैं। सत्व भोलापन हमेशा खतरनाक होता है। पता नहीं बनकर भोला बैठा है बैलेंस। इसलिए जब भी आप जीवन की किसी भी दिशा में हो यह आदमी। कोई तरकीब हो। कोई इसके पीछे हिसाब जरूर संतुलन को पाते हैं, तो सत्व प्रकट होता है। होगा, नहीं तो कोई क्यों भोला बैठेगा! साधु का अर्थ है, जो संतुलन को उपलब्ध हुआ, सात्विक हुआ। बुद्ध के पास अगर कोई रज से भरा हुआ, भाग-दौड़ से भरा सत्व है संयम, विपरीत के बीच संयम। दोनों विपरीत टूट गए। हुआ, चंचल व्यक्ति पहुंचेगा, तो वह मुर्दा समझेगा बुद्ध को। कि दोनों विपरीत एक-दूसरे को साध दिए। दो विरोधी स्वरों से एक यह क्या जीवन है? यह भी कोई जीवन है! पलायनवादी, संगीत पैदा हो गया। इस संगीत का नाम है सत्व। एस्केपिस्ट है यह आदमी। यह भाग गया। इसमें कुछ कमी है। यह रज और तम शक्ति, दौड़, ठहरने के नियम हैं। और दोनों के लड़ न सका। कायर है, कमजोर है। बीच जब कोई संतुलन पैदा होता है, तो जो तत्व पैदा होता है, वह लोगों ने ऐसा कहा है। कहने वाले का कारण है। क्योंकि वह है सत्व। इन तीन तत्वों से मिलकर प्रकृति बनी है। चंचलता में जीवन देखता है; भाग-दौड़ में जीवन देखता है। ऊर्जा प्रकृति में जहां भी सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वहां समझना कि नाचती हो, वहां जीवन देखता है। सत्व पैदा हो गया। हम भगवान के मंदिर में मूर्ति पर फूल ले जाकर यहां बुद्ध में सब शांत है। यहां जैसे कोई तरंग भी नहीं हिलती। चढ़ाते हैं। वह फूल सत्व का प्रतीक है। वह फूल सौंदर्य का प्रतीक तो वह कहेगा, यह भी कोई जीवन है! यह तो मरने का एक ढंग है। वृक्ष के जीवन में, प्राणों में, फूल तभी खिलता है, जब एक हुआ। यह आदमी तो मर चुका। मैदान में आओ जिंदगी के। वहां गहन संतुलन पैदा हो जाता है। उस संतुलन को हम परमात्मा के तुम्हारा पता चलेगा। भगोड़े हो। चरणों में चढ़ाते हैं। वह प्रतीक है। ऐसा संतुलन, ऐसा फूल हमारे बुद्ध को भी वही पहचान पाएगा, जिसमें सत्व का थोड़ा उदय जीवन में खिले और हम उसे मंदिर में चढ़ा सकें, वह उसकी | हुआ हो। क्योंकि हम वही पहचान सकते हैं, जो हमारे भीतर है। आकांक्षा है; वह उस दिशा की तरफ हमारा भाव है। अन्यथा को पहचानने का कोई उपाय नहीं है। वही देख सकते हैं, बुद्ध में जो संतुलन दिखाई पड़ता है, वह सत्व है। महान, | जो हमारी आंख में भी आ गया हो। वही हमारे हृदय को भी छू महानतम व्यक्तियों में भी, पृथ्वी पर जो हम देख सकते हैं ज्यादा | सकता है, जो हमारे हृदय में भी कंपित हो रहा हो। समान समान से ज्यादा, वह सत्व है। | से मिल जाते हैं। समान समान को पहचान लेते हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिगुणात्मक जीवन के पार * तो सात्विक व्यक्ति ही बुद्ध को पहचान पाएगा कि कौन-सी | जहर मौत का प्रतीक है। और जहर आपके भीतर चीजों को महान घटना घटी है। इस व्यक्ति के भीतर कौन-सा फूल खिला है। | ठंडा कर देता है, गति छीन लेता है। इसलिए नशे का इतना रस इसलिए बुद्ध के पास वे ही लोग इकट्ठे हो पाएंगे, जो सात्विक हैं, है। क्योंकि आप इतने तनाव में रहते हैं, इतनी भाग-दौड़ में रहते जो सरल हैं, जो संतुलित हैं, जो संयमी हैं, और जिन्होंने एक भीतरी हैं, कि थोड़ी शराब पी लेते हैं, तो थोड़ा तनाव कम हो जाता है, हारमनी, एक लयबद्धता को पा लिया है। बहुत लोग पास से | भाग-दौड़ कम हो जाती है। पड़ जाते हैं, बेहोशी में पड़ जाते हैं, गुजरेंगे, उन बहुतों में से बहुत थोड़े लोग ही बुद्ध के पास रुक पाएंगे। लेकिन रुक जाते हैं। सांख्य ने इन तीन तत्वों को खोजा। ये तत्व बड़े अदभुत हैं। और सभी मादक द्रव्य तमस पैदा करते हैं। वे आपके भीतर दौड़ को इन तीन तत्वों के आधार पर मनुष्य का, प्रकृति का सारा व्यवहार | | रोक देते हैं। इसलिए बहुत दौड़ने वाले लोग शराब से नहीं बच , समझा जा सकता है। सकते। क्योंकि उनकी दौड़ इतनी ज्यादा है कि उनको इस दौड़ को फिर आधुनिक विज्ञान ने भी तीन तत्वों की खोज की है, और | रोकने के लिए किसी न किसी तरह की बेहोशी चाहिए। वे बेहोश परमाणु के विस्फोट पर उनको पता चला कि परमाणु भी तीन तत्वों | होंगे, तभी रुक पाएंगे, नहीं तो रुक नहीं सकते। रात नींद में भी से ही निर्मित है। एक को वे कहते हैं इलेक्ट्रान, एक को पाजिट्रान, दौड़ते रहेंगे। एक को न्यूट्रान। और उन तीनों के भी लक्षण करीब-करीब वही हैं, __पश्चिम में शराब का मूल्य बढ़ता चला गया है, क्योंकि पश्चिम जो सत्व, रज और तम के हैं। उनमें से एक स्थिति को पकड़ने वाला | दौड़ रहा है, उसने रज पर भरोसा कर लिया है। रज पर अगर आप है, एक गति देने वाला है, और एक संतुलन है। भरोसा करेंगे, तो तम को भी आपको साथ में लाना पड़ेगा। नहीं तो निश्चित ही, कहीं गहराई में विज्ञान भी उसी तत्व को छू रहा है, | रज घातक हो जाएगा, आप विक्षिप्त हो जाएंगे। सको सांख्यों ने छुआ था, जिसकी कृष्ण इन सूत्रों में बात कर रहे पश्चिम में अधिकतम लोग पागल हो रहे हैं, वह रज का हैं। और ये तीन तत्व वही हैं, जिनको हिंदू मिथ में हमने ब्रह्मा, विष्णु, | परिणाम है। ज्यादा दौड़ेंगे, तो विक्षिप्त हो जाएंगे। ठहरना भी उतना महेश कहा है। तीनों के लक्षण भी यही हैं उनके। ब्रह्मा पैदा करता | ही जरूरी है। और जो व्यक्ति जानता है-जैसा ताओ ने कहा है, है; वह रज है। विष्णु सम्हालते हैं, संतुलन देते हैं; वे सत्व हैं। शिव | कहां ठहर जाना—जो जानता है, कहां ठहर जाना, वह कभी संकट तम हैं; विनष्ट करते हैं। सब चीजें शांत हो जाती हैं वापस। | में नहीं पड़ता। इसलिए अक्सर तामसी जो लोग हैं, शिव की पूजा करते दिखाई | दौड़ना भी जरूरी है; ठहरना भी जरूरी है। दौड़ने और ठहरने में पड़ते हैं। शिव उनको रसपूर्ण मालूम होते हैं। शिव विध्वंसक हैं, | जो संतुलन को पैदा कर लेता है, वह सत्व को उपलब्ध हो जाता वे मृत्यु के प्रतीक हैं। इसलिए शिव के पीछे अगर चरस, गांजा, है, वह साधु है। . अफीम तेजी से चल पड़ा, उसका कारण है। क्योंकि ये सभी तत्व | साधुता का अर्थ है, भीतर एक लयबद्धता पैदा हो जाए। न तो मृत्यु के तत्व हैं। सभी विध्वंसक हैं। सभी आपको नष्ट कर देंगे। | दौड़ हो और न मूर्छा हो। मूर्छा हो तो तम होता है; दौड़ हो तो इनके विनाश में जो रस आ सकता है, वह तामसी वृत्ति को आ| | पागलपन होता है। दौड़ और रुकने की क्षमता दोनों मिल जाएं और सकता है। एक तीसरा तत्व पैदा हो जाए। उस तत्व को कृष्ण ने सत्व, सांख्य पश्चिम में एल.एस.डी., मेस्केलीन, मारिजुआना तेज गति पर ने सत्व कहा है। है। और पश्चिम के ये भक्त—मारिजुआना के भक्त, एल.एस. | यह तत्व भी आखिरी नहीं है। इस संसार में श्रेष्ठतम है। इससे डी. के भक्त–उनके मन में भी शिव के प्रति बड़ा प्रेम पैदा हो रहा | | ही कोई मुक्त नहीं हो जाएगा, लेकिन इससे मुक्ति की संभावना है। हिप्पी आता है, तो काशी जाता है। काशी शिव की नगरी है।। बनती है। वहां जाकर वह शिव के दर्शन करता है। वह नेपाल जाता है। ___ ध्यान रहे, कोई सात्विक होकर मुक्त नहीं हो जाएगा। सात्विक क्योंकि वहां शिव के बड़े प्राचीन मंदिर हैं; शिव-भक्तों की बड़ी | | होकर भी संसार का ही हिस्सा रहेगा। इसलिए साधु मुक्त नहीं पुरानी धारा है। अमेरिका की हिप्पी बस्तियों में भी बम भोले, जय | होता। संत को हम मुक्त कहते हैं, साधु को नहीं। लेकिन साधु में भोले की आवाज सुनाई पड़ने लगी है। संत होने की क्षमता हो जाती है। चाहे तो साधु संत हो सकता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * साधुता में सिर्फ पूर्व-भूमिका है। संतुलन पैदा हो गया है। अब चाहे | शरीर, जितने रूप उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया को तो समाधि भी आ सकती है। लेकिन संतुलन ही समाधि नहीं है। | तो गर्भ धारण करने वाली माता समझो। यह जो प्रकृति है तीन गुणों ये तीन तत्व तो प्रकृति के ही हैं। इसमें तम मूर्छा में ले जाता है। से भरी हुई, इसे तुम मां समझो, गर्भ समझो। और मैं बीज को इसमें रज गति और विकास, त्वरा में ले जाता है। इसमें सत्व शांति स्थापन करने वाला पिता हूं। में ले जाता है। लेकिन ये तीनों तत्व जगत के भीतर हैं। __ तो शरीर और रूप तो इन तीन गुणों से मिलता है। मन, शरीर, सत्व के भी पार जाना जरूरी है। तब गुणातीत अवस्था पैदा होती रूप इन तीन गुणों से मिलता है। चेतना परमात्मा से आती है। इन है, जो तीनों गुणों के पार है। और जो तीनों गुणों के पार है, वह | | तीनों गुणों के पार से आती है। चेतना इन तीनों गुणों के भिन्न जगत प्रकृति के पार है। वही परमात्मा है। तीन गुण प्रकृति के और तीनों | से आती है। और इन तीन के भीतर आवास करती है। गुणों के जो पार निकल जाए, वह परमात्मा है, वह पुरुष है, वह लेकिन इन तीनों में से किसी न किसी में जकड़ जाने का डर है। मुक्त की दशा है। या तो आलस्य में उलझ जाती है, तम में पड़ जाती है। या तो लेकिन सत्व द्वार बन जाता है। पर अगर आप नासमझी करें, तो विक्षिप्तता में, चंचलता में, दौड़ में पड़ जाती है। और या फिर सत्व सत्व ही बाधा भी बन सकता है। क्योंकि अगर साधुता का के अहंकार में पड़ जाती है। और इन तीनों में से किसी एक से भी अभिमान आ जाए, जो कि आ सकता है। शांति का अभिमान आ| | जुड़ जाए, तो अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाती, जाए, जो कि आ सकता है। सत्व में ज्ञान का अभिमान आ जाए, क्योंकि वास्तविक स्वरूप तीनों के पार से आता है। जो कि आ सकता है। सात्विक होने की अहंमन्यता आ जाए, जो यह इसका अर्थ है। तीन गुण तो मां है, और मैं बीज को स्थापन कि बड़ी सरल है। करने वाला पिता हूं। मैं से अर्थ है, ब्रह्म। मैं से अर्थ है, इस जगत इसलिए साधु से ज्यादा अहंकारी आदमी दूसरे नहीं पाए जाते। की परम चेतना। उनके पास अहंकार करने को कुछ है भी। और जब कुछ अहंकार हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति से करने को हो, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। संसार में तो ऐसे लोग उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। भी अहंकार में पड़े हैं, जिनके पास अहंकार करने को कुछ भी नहीं ये तीन जीवात्मा के लिए बंधन निर्मित करते हैं। इन तीनों के है। उनका अहंकार जस्टीफाइड भी नहीं है। वे भी अहंकार कर रहे | बिना जीवात्मा शरीर में नहीं हो सकती। तम चाहिए, जो ठहराव की हैं। लेकिन साधु का अहंकार न्यायसंगत भी मालूम पड़ सकता है। शक्ति दे। रज चाहिए, जो गति दे और जीवन दे। सत्व चाहिए, जो उसके पीछे तर्क है, आधार भी है। वह शांत है। वह सत्व में ठहरा संतुलन दे, सुख दे। अगर इन तीनों में से एक भी कम है, तो आप हुआ है। वह एक तरह का सुख पा रहा है। टिक न पाएंगे। सत्व एक सुख देता है, जिसका अंतिम दर्जा स्वर्ग है। सत्व की अगर सुख बिलकल न रह जाए, तो आप आत्महत्या कर लेते। जो आखिरी दशा है, वह स्वर्ग है; मोक्ष नहीं, स्वर्ग। सुख की बड़ी | क्यों? किसलिए जीएं? सुख की थोड़ी झलक तो चाहिए। असाधु गहन क्षमता है। में भी थोड़ी-सी तो सुख की झलक चाहिए ही। आज नहीं कल, उसके पास कुछ है। और जब हम ना-कुछ के अभिमानी हो | कल नहीं परसों, कहीं सुख मिलेगा, इसका थोड़ा आसरा चाहिए। जाते हैं, तो जिनके पास कुछ है, उनको अहंकार पकड़ ले, इसमें उतना भी काफी है बांधने के लिए। अगर सुख के सब सेतु टूट आश्चर्य नहीं है। वही खतरा है। उनको अहंकार से छुड़ाना बहुत | | जाएं; साफ हो जाए, कोई सुख नहीं; आप इसी क्षण मर जाएंगे। मुश्किल है। संसारी को अहंकार से छुड़ाना बहुत आसान है, साधु | | ये तीनों चाहिए। ये तीन शरीर को बांधते हैं। को अहंकार से छुड़ाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि उसको लगता है | हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार कि अहंकार का कुछ कारण है। वह ऐसे ही अहंकार नहीं कर रहा सत्वगुण है। इन तीनों गुणों में सबसे ज्यादा प्रकाशित, सबसे ज्यादा है; कुछ वजह है। वह वजह बाधा बन जाती है। निर्मल, निर्विकार सत्वगुण है। निर्मल होने के कारण सुख की अब हम इस सूत्र को देखें। आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां, जितने | | बांधता है। 30 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिगुणात्मक जीवन के पार चूंकि सत्वगुण निर्मल है, शांत है, शुद्ध है, सुख देता है, ज्ञान भी देता है। क्योंकि एक क्लैरिटी, एक स्वच्छता आंखों में आ जाती है; देखने की एक क्षमता आ जाती है; चीजों को आर-पार पहचानने की कला आ जाती है। सुख भी देता है भीतर और साथ में एक जानकारी, जीवन में प्रवेश करने की, ज्ञान की क्षमता देता है । पर इन दोनों से अभिमान पैदा होता है। ज्ञान से भी अभिमान पैदा होता है कि मैं जानता हूं। सुख से भी अभिमान पैदा होता है कि मैं सुखी हूं। और वह जो मैं का भाव इन दोनों से पैदा हो जाता है, तो सत्वगुण भी फिर संसार में ही रखने का कारण बनता है। से जिस दिन ये दोनों बातें भी छोड़ दी जाती हैं, न तो कोई सुख बंधता है और न कोई ज्ञान से... । इसे थोड़ा हम समझ लें। हम तो दुख से भी बंधे हुए हैं। दुख को भी कहते हैं, मेरा दुख, मेरा सिरदर्द, मेरी बीमारी। उसके साथ भी हम मैं को जोड़ते हैं। अज्ञान के साथ भी हम मैं को जोड़ते हैं, तो ज्ञान के साथ तो हम मैं जोड़ेंगे ही। सुख के साथ तो हम कैसे बचेंगे बिना जोड़े ! इसलिए अगर स्वर्ग के देवता मुक्त होने से वंचित रह जाते हैं, तो उसका कारण है। सत्व के साथ बंधे हुए लोग हैं। सुख बहुत है । और जहां सुख ज्यादा हो, वहां तादात्म्य तोड़ने का मन भी पैदा नहीं होता। दुख से तो तादात्म्य तोड़ने का मन भी पैदा होता है कि कोई समझा दे कि दुख अलग है और मैं अलग हूं। कोई बता दे कि अज्ञान अलग है और मैं अलग हूं, इसकी थोड़ी आकांक्षा होती है। क्योंकि दुख कोई भी चाहता नहीं है, अज्ञान कोई भी चाहता नहीं है। लेकिन जब आप सुख में हों और कोई बताए कि तुम अलग और सुख अलग, तो आप उसको मित्र न समझेंगे, शत्रु समझेंगे। उससे कहेंगे, जाओ, कहीं और समझाओ। कोई आपसे कहे, तुम्हारा ज्ञान अलग, तुम अलग, यह ज्ञान कचरा है। तुम ज्ञान नहीं हो। यह सुख व्यर्थ है। तुम सुख नहीं हो, तुम दूर अलग हो । इसलिए संतों ने कहा है, दुख अभिशाप नहीं, वरदान है। क्योंकि दुख में दुख से टूटने की कामना पैदा होती है। सूफी फकीर जुन्नैद बीमार रहता था। उसके भक्तों ने उससे कहा कि तुम एक दफा प्रार्थना करो परमात्मा से, तो तुम्हारी सब बीमारी दूर हो जाए। जुन्नैद हंसने लगा। कहा, प्रार्थना तो हम करते हैं। उन्होंने कहा, अगर तुम प्रार्थना करते हो, तो बीमारी दूर क्यों नहीं होती ? उसने 31 | कहा, प्रार्थना ही हम यह करते हैं कि बीमारी बनी रहे। क्योंकि मुझे | अच्छी तरह याद है, जब भी बीमारी मिट जाती है, मैं परमात्मा को भूल जाता हूं। यह उसकी बड़ी कृपा है। बीमारी बनी रहती है, तो मैं सोचता रहता हूं, मैं शरीर नहीं हूं। यह बीमारी शरीर को है, मैं अलग हूं। और जैसे ही बीमारी हटती है, सुख हो जाता है, मैं भूल ही जाता हूं कि यह शरीर मैं नहीं हूं। दुख भी साधना बन जाता है। दुख जब साधना बन जाता है, तो उसे हमने तपश्चर्या कहा है। तपश्चर्या का मतलब यह है कि दुख से हम अपने को अलग कर रहे हैं। इसलिए साधक सामान्य दुखों से अपने को तोड़ता ही है, अगर जरूरत पड़े तो विशेष दुख भी अपने लिए पैदा कर लेता है, जिनकी वजह से वह अपने को तोड़ सके। आपने देखा है, सुना है, कोई साधु कांटों पर लेटा हुआ है। कोई साधु दिन-रात आग को जलाकर बैठा रहता है। भयंकर गर्मी है और वह आग को जलाकर बैठा है। पसीने-पसीने होता रहता है। शरीर सूखता है। इसमें वस्तुतः जो जानता है रहस्य को ... । जरूरी नहीं कि ऐसा करने वाले सभी जानते हों। उसमें कई तरह के लोग हैं। उसमें कई तो सिर्फ दुखवादी हैं, जो खुद को सताने में मजा ले रहे हैं। उसमें कई सिर्फ एक्झिबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं, | जो दूसरों को अपना दुख दिखाकर मजा ले रहे हैं। क्योंकि दूसरे उनको पूजते हैं सिर्फ इसीलिए कि वे कांटों पर लेटे हुए हैं। लेकिन इसमें से कुछ हैं, जो इस तपश्चर्या को कर रहे हैं। उनकी तपश्चर्या क्या है? उनकी तपश्चर्या यह है कि सारे शरीर पर कांटे | चुभ रहे हैं, तब वे भीतर अपने को इस स्मृति से भर रहे हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। ये कांटे मुझे नहीं छू रहे हैं। ये कांटे शरीर को छू रहे हैं। और वे तब तक कांटों पर लेटे रहेंगे, जब तक कि कांटे बिलकुल ही विस्मृत न हो जाएं। शरीर को ही छुएं, उनको जरा भी न चुभें। जब चेतना कांटों से बिलकुल अलग हो जाएगी, तभी वे इस कांटों की सेज से उठेंगे। तो साधक अपने आस-पास आयोजित दुख भी कर सकता है, जिससे अपने को तोड़े। सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से! सत्व भी ज्ञान अभिमान से बांधता है। तम और रज तो बांधते ही हैं, सत्व भी बांधता है। बुरा तो बांधता ही है, जिसे हम अच्छा कहते हैं, वह भी बांधता है। शुभ भी बांधता | है। यहां जंजीरें सिर्फ लोहे की ही नहीं हैं, सोने की भी हैं। कुछ लोहे की जंजीरों से बंधते हैं, कुछ सोने की जंजीरों से बंध जाते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * लेकिन बंधते दोनों हैं। और जब तक बंधन है, तब तक संसार है। इन तीन गुणों के बंधन के पार जो उठ जाए, वही व्यक्ति उस परम ज्ञान को अनुभव कर पाता है, कृष्ण कह रहे हैं, जिसे मैं तुझे फिर से कहूंगा। आज इतना ही। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 तीसरा प्रवचन हे निष्पाप अर्जुन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । मार्ग मंजिल से जुड़ा है। इसलिए मार्ग मंजिल में ले जाता है। तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसफ़न देहिनम् ।। ७ ।। साधन और साध्य भिन्न नहीं हैं। और जो उन्हें भिन्न मानता है, बड़ी तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । भूल करता है। क्योंकि जैसे ही हमें यह खयाल आ गया कि साधन प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।।८।। और साध्य भिन्न हैं. मार्ग और मंजिल अलग हैं. वैसे ही हम मंजिल सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत । की तो चिंता करते हैं और मार्ग से बचने की कोशिश शुरू हो जाती ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ।।९।। | है। फिर हमारा मन कहता है, अगर बिना मार्ग के भी मंजिल मिलती हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से | हो, तो हम मार्ग को छोड़ दें और मंजिल पर पहुंच जाएं। शार्टकट उत्पन्न हुआ जान । वह इस जीवात्मा को कमों की और की खोज बेईमानी का हिस्सा है। उनके फल की आसक्ति से बांधता है। फिर हम सोचते हैं, मार्ग जितना कम हो जाए; क्योंकि मार्ग कोई और हे अर्जुन, सर्व देहाभिमानियों के मोहने वाले तमोगुण | मंजिल तो नहीं है। और किसी चालाकी से, किसी तरकीब से अगर को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान । वह इस जीवात्मा को हम बिना मार्ग पर चले मंजिल तक पहुंच जाएं, तो हम जरूर पहुंचना . प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। चाहेंगे। हमारी दृष्टि फिर भविष्य में हो जाती है। और वर्तमान से जो क्योंकि हे अर्जन, सत्वगण सख में लगाता है और रजोगण बचता है, उसका भविष्य बिलकल अंधकारपर्ण है। क्योंकि सभी कर्म में लगाता है तथा तमोगुण तो ज्ञान को आच्छादन भविष्य वर्तमान से ही पैदा होगा; कल आज से पैदा होगा। करके अर्थात ढंककर प्रमाद में भी लगाता है। ___मार्ग तो आज है; मंजिल कल है। और जो आज से बचेगा, वह कल से वंचित रह जाएगा। क्योंकि कल जो भी होने वाला है, वह आज से ही जन्मेगा; आज के ही गर्भ में छिपा है। सूत्र के पहले थोड़े प्रश्न। ऐसा समझ लें कि मार्ग है गर्भ और मंजिल है जन्म। बांटें मत। पहला प्रश्नः परम जीवन और परम आनंद की बात | और तब यह बात समझ में आ जाएगी। जो आप बार-बार करते हैं, उसका तो कोई अनुभव परम आनंद तो मंजिल पर मिलेगा। मंजिल का मतलब है, मार्ग मुझे हुआ नहीं है, लेकिन इस मार्ग पर चलने में भी | जहां पूरा हो जाएगा, जहां मार्ग पूर्णता पर पहुंच जाएगा। जहां जाने आनंद आता है। तो क्या मंजिल तक पहुंचने के पहले | | के लिए और कोई आगे जगह न रहेगी, परम आनंद तो वहां यात्रा में भी आनंद हो सकता है? मिलेगा। लेकिन आनंद की पहली घटना तो पहले कदम पर ही घट जाएगी। मार्ग पर चलने का खयाल भी आनंद से भर देगा। चलना तो दूर, सिर्फ यह संकल्प कि मैं मार्ग पर चलूंगा, खोचूंगा, इस र मारी आदत है सभी चीजों को बांटकर देखने की, संकल्प से भी मन एक नई झलक आनंद की ले लेगा। इसलिए हम मार्ग और मंजिल को भी बांट लेते हैं। __एक कदम भी जो रखेगा, एक कदम के योग्य मंजिल तो मिल बिना बांटे हमारा मन मानता नहीं। मन सभी चीजों को | ही गई। समझें कि अगर मंजिल हजार कदमों पर मिलेगी, तो एक तोड़ता है। और वस्तुतः कुछ भी टूटा हुआ नहीं है। मार्ग का ही बटा हजार मंजिल तो पहले कदम पर ही मिल गई। उतने आनंद के अंतिम हिस्सा मंजिल है। और मंजिल का पहला चरण मार्ग है। हम हकदार हो गए। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां मार्ग समाप्त होता हो और मंजिल शुरू और ध्यान रहे, यह आनंद ऐसा नहीं है कुछ जो अंत में मिलेगा होती हो। | फल की तरह, यह प्रतिपल बढ़ेगा; यह जीवन है। प्रतिपल मिलेगा मार्ग और मंजिल दो नहीं हैं, वे एक ही हैं। अगर वे दो होते, तो और प्रतिपल बढ़ता रहेगा। मार्ग से चलकर आप मंजिल तक पहुंचते कैसे? अगर उनके बीच मार्ग पर जो चलता है, वह मंजिल पर पहुंचने ही लगा। मार्ग पर रत्तीभर भी फासला होता, तो आप मार्ग पर ही रह जाते, मंजिल पर जो खड़ा हो गया, उसने दूर सही, लेकिन मंजिल पर हाथ रख कैसे पहुंचते? लिया। झलकें आनी शुरू हो जाएंगी। निर्णय लेते ही चलने का. 34 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हे निष्पाप अर्जुन * पहला कदम उठाते ही मन हल्का होने लगेगा, शांत होने लगेगा, प्रकृति की गहरी व्यवस्था है। आपको वही मिल सकता है, जिसे प्रसन्न होने लगेगा। | आप झेल सकते हैं। आप यह मत सोचना कि परम आनंद आपको जैसे बगीचा कितनी ही दूर हो, हम उसकी तरफ चलने लगें, । | मिल जाए, तो आप झेल लेंगे। अगर आप आनंद के आदी नहीं हो ठंडी हवाएं आनी शुरू हो जाएंगी। जैसे-जैसे हम करीब पहुंचेंगे, | गए हैं, तो परम आनंद घातक हो जाएगा, मृत्यु हो जाएगी। उतने फूलों की सुगंध भी हवाओं में आने लगेगी। शीतलता बढ़ेगी। हवा | बड़े विस्फोट को आप न झेल पाएंगे। ताजी होने लगेगी। मन प्रफुल्लित और नाचने को होने लगेगा। एक जैसे कोई अंधेरे से अचानक सूर्य के सामने आ जाए, तो आंखें वसंत हमारे भीतर भी खिलने लगेगा। ठीक ऐसा ही होगा। | बंद हो जाएंगी, चौंधिया जाएंगी। अंधकार ही हो जाएगा। आंखें और ध्यान रखें, मंजिल की फिक्र छोड़ दें। मार्ग की ही फिक्र सूर्य को देख ही न पाएंगी। सूर्य को देखने के लिए आंखों को करें। जिसने मार्ग को सम्हाल लिया, उसे मंजिल तो मिल ही जाती | धीरे-धीरे तैयार करना होगा। मिट्टी का दीया भी सूरज का ही हिस्सा है। मंजिल को बिलकुल भी भूल जाएं, तो कुछ हर्ज नहीं। मार्ग को | | है। उसे देखने से तैयारी करें। नहीं तो आंखें अंधी हो जाती हैं। पूरा सम्हाल लें। क्योंकि जितना मन आपका मंजिल में लगता है, | __तो प्रकृति की व्यवस्था है। उसी को मिलता है, जो झेल सकता उतना ही मन मार्ग में लगने से छूट जाता है। | है। साधना सिर्फ पाने की ही खोज नहीं है, झेलने की तैयारी भी है। सारा मन मार्ग पर लगा दें। जिस क्षण आपका सारा मन मार्ग पर | अगर आप पर एकदम आकाश टूट पड़े, तो आप मिट जाएंगे, लग जाएगा, उसी क्षण मार्ग मंजिल हो जाता है। यह दरी कोई स्थान विक्षिप्त हो जाएंगे। आप फिर लौटकर भलकर भी उस रास्ते पर की दूरी नहीं है। यह दूरी इंटेंसिटी की, तीव्रता की दूरी है। अगर पूरा | नहीं जाएंगे। आप आनंद चाहते हैं, इससे आप यह मत सोचना कि मन मेरा इसी क्षण मार्ग पर लग जाए, तो इसी क्षण मंजिल घट | | आप आनंद को झेलने के लिए तैयार भी हैं। जाएगी। जितना कम मन लगता है, उतनी मंजिल दूर है। जितना ___ छोटा-सा दुख कठिनाई देता है; छोटा-सा सुख कठिनाई देता मेरा मन अधूरा-अधूरा है, उतना ही ज्यादा फासला है। | है। छोटा-सा सुख आ जाए, तो रात नींद नहीं आती। सुख उत्तेजित और फासला कोई चलकर पूरा होने वाला नहीं है। संकल्प से | कर देता है, दुख उत्तेजित कर देता है। आनंद तो बहुत विचलित कर ही पूरा हो जाता है। चलना तो सिर्फ संकल्प को बढ़ाने का बहाना | | देगा। रत्ती-रत्ती उसका अभ्यास करना होगा। बूंद-बूंद पीकर तैयार है। जो जानते हैं, वे बिना इंचभर चले मंजिल पर पहुंच जाते हैं। जो | होना पड़ेगा। और बूंद-बूंद पीकर कोई तैयार हो-चाहे दुख भी नहीं जानते, वे बहुत चलते हैं, बहुत भटकते हैं, और कहीं भी नहीं | | बूंद-बूंद पीकर कोई तैयार हो, तो नरक से भी गुजर सकता है बिना पहुंचते हैं। विचलित हुए। ध्यान रखें, मंजिल को तो छोड़ दें। मंजिल की तो बात मत आपने सुना होगा, पुराने दिनों में भारत के सम्राट विषकन्याएं उठाएं। क्योंकि मंजिल की बात उठाने का मतलब है, फल की इच्छा | तैयार करते थे। सुंदर युवतियां, बचपन से ही रोज थोड़ा-थोड़ा जहर हो गई। मंजिल का विचार करने का मतलब है. हम छलांग लगाने | पिलाकर तैयार की जाती थीं। जहर की मात्रा इतनी कम होती थी रोज लगे आगे: आज को भलने लगे, कल को याद करने लगे। और कि युवती मर नहीं पाती थी। और धीरे-धीरे जहर उसके रोएं-रोएं, श्रम करना है आज। रग-रग में प्रवेश कर जाता था। जवान होते-होते. सोलह-अठारह आज में जीएं, अभी और यहीं। और जो भी घट सकता है, वह | वर्ष की होते-होते उसका पूरा खून जहर हो जाता था। सब घट जाएगा। इसी क्षण में घट सकता है। आप पूरी तीव्रता से, ___ तब ऐसी सुंदर युवतियों को शत्रुओं के पास भेज दिया जाता था। अपने पूरे प्राणों से, सारी श्वासों को समर्पित कर के साधना में लग | | एक चुंबन जो भी उनका लेगा, वह तत्क्षण मर जाएगा। उनका जाएं, चलने में लग जाएं। | चुंबन विषाक्त हो जाता था। उनसे जो संभोग करेगा, जिंदा नहीं और उचित ही है कि आनंद अभी मिल रहा हो, उसे पूरा जीएं। बचेगा; संभोग से जिंदा नहीं लौटेगा। उनका पूरा शरीर जहर था। उसका पूरा रस निचोड़ लें। क्योंकि ध्यान रहे, जितना आप आनंद | इस तरह की कन्याओं को विषकन्याएं कहा गया। को लेने में समर्थ हो जाएंगे, उतने ही ज्यादा आनंद के द्वार आपके . लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है कि जिनके चुंबन से दूसरा मर लिए खुलने लगेंगे। जाएगा, वे जिंदा हैं! धीरे-धीरे एक-एक बूंद जहर की देकर उन्हें | 35| Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* तैयार किया गया है। उन्हें सांप काट ले, तो सांप मर जाएगा। उन्हें | | आप जैसे हैं, उस हिसाब से बहुत दूर। वह जैसा है, उस हिसाब बेहोश करने का कोई उपाय नहीं है। कोई शराब उन्हें बेहोश न कर से बिलकुल पास। सकेगी। परमात्मा की तरफ हमें चलना पड़ता है, इसलिए नहीं कि बूंद-बूंद दुख की आप झेलते रहें, तो आप नरक से भी बिना परमात्मा दूर है। परमात्मा की तरफ हमें चलना पड़ता है, क्योंकि विचलित हुए गुजर जाएंगे। तपश्चर्या का यही अर्थ है, दुख को हम अयोग्य हैं। हमारी अयोग्यता ही उसकी दूरी बन गई है। झेलने की तैयारी। लेकिन जो दुख के संबंध में सच है, वही सुख उचित है, मार्ग पर आनंद मिलता हो; आह्लादित हों, अनुगृहीत के संबंध में भी सच है। वह भी बूंद-बूंद ही झेला जा सकता है। | अनुभव करें। गहरे अहोभाव से भरें और उस आनंद को भोगें। और आनंद तो बड़ी घटना है। वह महासुख है। जैसे-जैसे भोगेंगे, वैसे-वैसे आपकी भोगने की क्षमता बढ़ती अगर मंजिल आपको मिल भी जाए, तो पहली तो बात आप उसे | जाएगी। परमात्मा परम भोग है। उसके लिए तैयार होना होगा। पहचान न सकेंगे। आपकी आंखें बहुत छोटी हैं और मंजिल बहुत उसके लिए विराट आकाश जैसा हृदय चाहिए।विराट को हम बड़ी होगी। उसे आपकी आंखें नहीं देख पाएंगी। मंजिल सामने भी बुलाते हैं क्षुद्र में, यह असंभव है। जिसे हम बुलाते हैं, उसके योग्य हो-सामने है ही–तो भी आप पहचान न पाएंगे। क्योंकि उसको हमारे पास स्थान भी चाहिए। पहचानने के लिए आंखों का एक प्रशिक्षण चाहिए। और दुर्भाग्य परमात्मा को बहुत लोग पुकारते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि से अगर मंजिल आपको मिल भी जाए, आप पहचान भी लें, तो | कहां है वह घर, जहां उसे ठहराएंगे? कहां है वह आसन, जहां उसे वह वरदान सिद्ध नहीं होगी, अभिशाप सिद्ध होगी। क्योंकि उतना | | बिठाएंगे? आतिथ्य का सामान कहां है? किन फूलों से करेंगे आनंद आप झेल न पाएंगे। वह आनंद महाघातक होगा। उसकी पूजा? वह मस्तक कहां, जो उसके चरणों में रखेंगे? और तो साधना बहुत-सी तैयारियों का नाम है। मंजिल तक पहुंचना | अचानक वह सामने आ जाए, तो बड़ी बिगूचन हो जाएगी, बड़ी है। मंजिल को देख सकें, इसके लिए आंखों को प्रशिक्षित करना अड़चन हो जाएगी। हम पागल होकर दौड़ेंगे, कुछ भी न मिलेगा है। मंजिल को अनुभव कर सकें, इसलिए आनंद की एक-एक कि क्या करें, क्या न करें। शायद हम ऐसी अड़चन में न पड़ें, लहर को धीरे-धीरे आत्मसात करना है। मंजिल को झेल सकें, वह इसलिए परमात्मा तब तक प्रतीक्षा करता है। महाआनंद जब बरसे तब आप विक्षिप्त न हो जाएं, होश में रहें, मूर्च्छित न हो जाएं, गिर न पड़ें, मिट न जाएं, उसके लिए भी हृदय के पात्र को तैयार करना जरूरी है। दूसरा प्रश्नः कृष्ण अर्जुन को पिछले तेरह अध्यायों में मंजिल को छोड़ ही दें। मंजिल की बात ही मत उठाएं। मार्ग की। समझा चुके हैं। फिर भी अर्जुन के मन में प्रश्न, फिक्र करें। और एक-एक इंच मार्ग को मंजिल ही समझकर चलें। शंकाएं और संशय उठते ही चले जाते हैं। आप भी बहुत आनंद मिलेगा। बहुत आनंद बढ़ेगा। और एक दिन अचानक हमें अनेक वर्षों से लगातार समझा रहे हैं, लेकिन किसी भी क्षण वह घटना घट सकती है। जिस क्षण भी टयूनिंग पूरी फिर भी हमारे मन में प्रश्न, शंकाएं और अविश्वास हो जाएगी, जिस क्षण भी हृदय की वीणा बजने को बिलकुल तैयार | उठते ही चले जाते हैं। इसके क्या कारण हैं और होगी, उसी क्षण मंजिल सामने होगी। इसका क्या समाधान है? और तब आप हंसेंगे, क्योंकि तब आप यह भी पाएंगे कि यह मंजिल सदा से सामने थी। मैं ही तैयार नहीं था, मंजिल सदा तैयार थी। मैं द्वार पर ही खड़ा था, शायद पीठ किए था। शायद मुड़ने भर कष्ण के समझाने से अर्जुन नहीं समझेगा। अर्जुन के की जरूरत थी। थोड़ा-सा ध्यान मोडने की जरूरत थी। और जिसे पा समझने से ही समझेगा। अगर कृष्ण के हाथ में यह मैं तलाश रहा था, वह बिलकुल पास था। बात होती कि अर्जुन उनके समझाने से समझता होता, उपनिषद कहते हैं, वह परम सत्य दूर से दूर और पास से भी तो पृथ्वी पर कोई अज्ञानी अब तक न बचता। बहुत कृष्ण हो चुके पास है। दूर से दूर, आपके कारण; पास से पास, उसके कारण। अर्जुन बाकी हैं। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हे निष्पाप अर्जुन र अर्जुन के समझने से घटना घटेगी। कृष्ण जो मेहनत कर रहे हैं, | करते हो, हम उसको धुंधला कर देते हैं। यह आत्मरक्षा है गहरी। वह समझाने के लिए नहीं कर रहे हैं। अगर ठीक से समझें, तो वे | जैसे हम अपने शरीर को बचाना चाहते हैं, वैसे ही अपने मन को ऐसी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं, जहां अर्जुन समझने के लिए तैयार भी बचाना चाहते हैं। जैसे कोई आपके शरीर पर हमला करे, तो आप हो जाए, जहां अर्जुन समझ सके। वे अर्जुन को धक्का दे रहे हैं। | आत्मरक्षा के लिए कुछ आयोजन करेंगे। गरु का हमला और भी किसी तरफ इशारा कर रहे हैं। आंख तो अर्जुन को ही उठानी | गहरा है। वह आपके मन को मिटाने के लिए तत्पर हो गया है। पड़ेगी। और अगर अर्जुन आंख उठाने को राजी न हो, तो कृष्ण के | शरीर को जो मिटाते हैं, उनका मिटाना बहुत गहरा नहीं है। जीतने का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि वासना आपकी मौजूद है। आप फिर शरीर ग्रहण कर लेंगे। लेकिन कृष्ण आयोजन कर रहे हैं पूरा। इन तेरह अध्यायों में | | वे आपसे वस्त्र छीन रहे हैं। लेकिन जो मन को मिटाने की कोशिश अलग-अलग मोर्चों से कृष्ण अर्जुन पर हमला कर रहे हैं। कई तरफ कर रहा है, वह आपसे सब कुछ छीन रहा है। फिर आप चाहें तो से चोट कर रहे हैं। शायद किसी चोट में अर्जुन सजग हो जाए। भी शरीर ग्रहण न कर सकेंगे। अगर मन समाप्त हो गया, तो जन्म लेकिन यह बात शायद है। इसमें अर्जुन का सहयोग जरूरी है। और की सारी व्यवस्था खो गई। मृत्यु परम हो गई। अगर अर्जुन सहयोग न दे, तो कृष्ण की कोई सामर्थ्य नहीं है। इसलिए ध्यान महासमाधि है। महासमाधि शब्द का उपयोग हम इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि हम में से बहुतों को यह | | मृत्यु के लिए भी करते हैं। वह ठीक है। क्योंकि समाधि एक भीतरी खयाल रहता है, गुरु-कृपा से हो जाएगा। अगर गुरु-कृपा से होता, | मृत्यु है। आप वस्तुतः मर जाएंगे। तो इतनी बड़ी गीता बिलकुल फिजूल है। कृष्ण नासमझ नहीं हैं। तो जैसे कोई शरीर पर हमला करे तलवार से, और आप अपनी अगर यह घटना कपा से घटनी होती. तो कष्ण जैसा कपा करने ढाल से रक्षा करें. ऐसा जब भी कोई गरु आपके मन को तोड़ने के वाला और अर्जुन जैसा कृपा को पाने वाले पात्र को दुबारा खोजने | | लिए हमला करेगा, तब शंकाओं से, संदेहों से, सवालों से आप की कहां सुविधा है। दोनों मौजूद थे। | अपनी रक्षा करेंगे। वे ढाल हैं। वह आप बचा रहे हैं। आप कह रहे __ कृष्ण कृपा कर सकते थे और अर्जुन कृपा का आकांक्षी था और हैं, करो कोशिश। शायद यह सचेतन नहीं है; यह अचेतन है। पात्र था। और क्या पात्रता चाहिए? इतनी आत्मीयता थी, इतनी - यह वैसा ही अचेतन है, जैसा आपकी आंख के सामने कोई जोर निकटता थी कि जो बात कृपा से हो सकती, उसके लिए कृष्ण क्यों | | से हाथ करे, तो आपको सोचना भी नहीं पड़ता आंख झपकने के इतनी लंबी गीता में जाते! इतने लंबे आयोजन की कोई भी जरूरत लिए, आंख झपक जाती है। आंख झपकती है अचेतन से। आपको नहीं थी। | सोचना नहीं पड़ता। मैं आपकी आंख के सामने हाथ करूं, तो ऐसा नहीं; वह घटना कृपा से नहीं होने वाली। कृपा भी तभी घट नहीं कि आप पहले सोचते हैं कि हाथ आ रहा है, अब मैं अपने सकती है, जब अर्जुन खुला हो, राजी हो, तैयार हो, सहयोग करे। को बचाऊं, तो आंख बंद कर लूं। इतना सोचने में तो आंख फूट यह कृपा ही है कि कृष्ण उसे समझा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि जाएगी। इतना समय नहीं है। और विचार में समय लगता है। समझाने से ही कोई समझ नहीं जाता। यह कृपा का हिस्सा है। ___ इसलिए मनुष्य के मन की दोहरी व्यवस्था है। जिन चीजों में समय लेकिन इस चेष्टा से संभावना है कि अर्जुन बच न पाए। | की सुविधा है, उनमें हम विचार करते हैं। और जिनमें समय की अर्जन सारी कोशिश करेगा बचने की। अर्जन सवाल उठाएगा. | सुविधा नहीं है, उनमें हम अचेतन से प्रतिकार करते हैं। आंख पर कोई समस्याएं खड़ी करेगा। संशय-संदेह, ये सब चेष्टाएं हैं आत्मरक्षा | हमला करे, तो तत्क्षण आंख बंद हो जाती है। इसकी अनकांशस, की। अर्जुन कोशिश कर रहा है अपने को बचाने की। अर्जुन | | अचेतन व्यवस्था है। नींद में भी कीड़ा आपके पैर पर चले, तो पैर कोशिश कर रहा है कि तुम दिखा रहे हो, लेकिन हम न देखेंगे। | आप झटक देते हैं। उसके लिए होश की जरूरत नहीं है। इसको थोड़ा समझें। ठीक ऐसे ही मन भी अपनी आंतरिक रक्षा करता है। और गुरु अर्जुन की ये सारी शंकाएं, ये सारे संदेह इस बात की कोशिश है के पास मन जितना परेशान हो जाता है, उतना कहीं और नहीं होता। कि तुम दिखा रहे हो, वह ठीक, लेकिन हम न देखेंगे। हम और क्योंकि वहां मौत निकट है। अगर ज्यादा गुरु के आस-पास रहे, सवाल उठाते हैं। हम और धुआं पैदा करते हैं। तुम जिस तरफ इशारा तो मरना ही पड़ेगा। उससे बचने के लिए आप अपने चारों तरफ | 37 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 सुरक्षा की दीवार खड़ी करते हैं। वह कवच है। अर्जुन यह कह रहा है कि समझाओ। लेकिन मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है। जब समझ में ही नहीं आ रहा है, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जैसा हूं, वैसा ही रहूंगा। जब तक समझ में न आ जाए, जब तक मेरी सब शंकाएं न मिट जाएं, तब तक मैं जैसा हूं, वैसा ही रहूंगा । और इसमें दोष मेरा नहीं है। तुम नहीं समझा पा रहे हो, तो दोष तुम्हारा है। इस भीतरी मन की कुशलता को अगर समझ लेंगे, तो दोनों बातें खयाल में आ जाएंगी कि क्यों अर्जुन सवाल उठाए चला जा रहा है। और क्यों कृष्ण जवाब दिए जा हैं। यह एक खेल है। जिस खेल में अर्जुन अपनी व्यवस्था कर रहा है और कृष्ण अपनी व्यवस्था कर रहे हैं। एक जगह अर्जुन ढाल रख ता है, कृष्ण दूसरी तरफ से हमला करते हैं, जहां उसने अभी ढाल नहीं रखी। वे उसे थका ही डालेंगे। वह ढाल रखते-रखते थक जाएगा। न केवल थक जाएगा, बल्कि ढाल रखते-रखते उसे समझ भी आ जाएगा कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं किससे बच रहा हूं? जो मुझे महजीवन दे सकता है, उससे मैं बचने की कोशिश कर रहा हूं! मैं किसके संबंध में संदेह उठा रहा हूं? किसलिए उठा रहा हूं? यह उसे धीरे-धीरे खयाल में आएगा। और यह वर्षों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है । जन्मों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है। इसलिए कृष्ण कितना समझाते हैं, यह बड़ा सवाल नहीं है । कितना ही समझाएं, थोड़ा है। और अर्जुन कितनी ही देर लगाए, तो भी जल्दी है। क्योंकि मन सब तरह के आयोजन कर लेगा, थकेगा। जब बिलकुल क्लांत हो जाएगा, जब सब संदेह उठा चुकेगा और संदेह उठाना भी व्यर्थ मालूम पड़ने लगेगा, और जब संदेह भी बासे और उधार मालूम पड़ने लगेंगे, कि यह मैं उठा चुका, उठा चुका, बहुत बार कह चुका, इनसे कुछ हल नहीं होता, तभी शायद वह किरण ध्यान की उस तरफ जाएगी जहां कृष्ण ले जाना चाह रहे हैं। यह सदा ऐसा ही हुआ है। इससे निराश होने की कोई भी जरूरत है। इस श्रम में लगे ही रहना है। और ध्यान रहे, उचित यही है कि आप अपनी सारी शंकाएं और सारे संदेह सामने ले आएं, क्योंकि सामने आ जाएंगे, तो मिटने की सुविधा है। भीतर छिपे रहेंगे, तो उनके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन ईमानदार है। उतना ही ईमानदार होना जरूरी है। वह सवाल उठाए ही चला जा रहा है। बेशर्मी से उठाए चला जा रहा है। उसमें जरा भी संकोच नहीं कर रहा है। किसी को भी संकोच आने लगता कि अब ठहर जाऊं। लेकिन वह संकोच खतरनाक होगा। भीतर उठते चले जाएंगे, अगर बाहर ठहर गए। तो फिर कृष्ण नहीं जीत सकते हैं। उठाए ही चले जाएं। वह घड़ी जल्दी ही आ जाएगी, जब संदेह उठने बंद हो जाएंगे। हर चीज की सीमा है। इस जगत में परमात्मा को छोड़कर और कुछ भी असीम नहीं है। आपका मन तो निश्चित ही असीम नहीं है। आप उठाए चले जाएं, | किनारा जल्दी ही आ जाएगा । किनारा आता नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि आप बेईमान हैं। ठीक से उठाते ही नहीं। जिस दिन किनारा आ जाएगा, उसी दिन छलांग लग सकती है। 38 तीसरा प्रश्न : अर्जुन को अभी गीता कही जा रही है। वह अभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ।' फिर भी कृष्ण उसे संबोधित करते हैं, हे निष्पाप ! ऐसा क्यों ? क्यों कि कि कृष्ण उस अर्जुन को संबोधित नहीं करते, जो प्रश्न उठा रहा है। | कृष्ण उस अर्जुन को संबोधित करते हैं, जो प्रश्नों के पीछे खड़ा है। | कृष्ण उस | अर्जुन को संबोधित नहीं करते हैं, जो सामने दिख रहा है हड्डी, मांस, मज्जा का बना हुआ। कृष्ण उस अर्जुन को संबोधित करते हैं, जो इसके पीछे छिपा हुआ चिन्मय, जो परम चैतन्य है। वह निष्पाप है। और कृष्ण क्यों कहते हैं बार-बार, हे निष्पाप ! ताकि अर्जुन का | ध्यान उस तरफ जा सके कि वह जहां से सवाल उठा रहा है, कृष्ण वहां जवाब नहीं दे रहे हैं। कृष्ण कहीं और गहरे में जवाब ले जा रहे हैं। यह तो अर्जुन को भी साफ होगा कि निष्पाप वह नहीं है। इसे बताने की कोई जरूरत नहीं; यह तो वह भी जानता है। लेकिन कृष्ण उससे बार-बार कह रहे हैं, हे निष्पाप ! वे चोट कर रहे हैं बार-बार इस बात पर कि तेरे भीतर जो छिपा है, वहां कोई पाप कभी प्रवेश नहीं किया और न प्रवेश कर सकता है। सब पाप ऊपर-ऊपर हैं, सब पुण्य भी ऊपर-ऊपर हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हे निष्पाप अर्जुन * आप निष्पाप का मतलब यह मत समझाना कि हे पुण्यधर्मा! स्नान की कला शरीर पर पानी डालने की नहीं है, मन पर ध्यान निष्पाप का अर्थ है, जहां कोई विकार नहीं। न पुण्य का कोई विकार डालने की है। है, न पाप का कोई विकार है। हे निर्विकार। जहां कुछ भी नहीं | | तो बात तो ठीक ही है। प्रतीक काव्यात्मक है, लेकिन बात ठीक पहुंचता है। जहां तेरा शुद्ध होना है। जहां बाहर से आए हुए कोई | | है। और कठिन बातें कविता में ही कही जा सकती हैं। उनके लिए भी संस्कार गति नहीं करते। सब परिधि पर इकट्ठे हो जाते हैं, भीतर गणित के फार्मूले नहीं हो सकते। क्योंकि बड़े सूक्ष्म और नाजुक तो कुछ जाता नहीं। उस भीतर का जो केंद्र है, वह सदा निष्पाप है। | इशारे हैं। पत्थर जैसे नहीं हैं, फूल जैसे हैं। उन्हें बहुत सम्हालकर वह सदा शुद्ध है। वह सदा निर्दोष, कुंवारा है। काव्य में संजोकर ही बचाया जा सकता है। उस कंवारेपन में कभी आंच नहीं लगती। आप कितने ही पाप । तो बात तो ठीक है। लेकिन फिर भी गलत हो गई। क्योंकि लोग करें और कितने ही पुण्य करें, उस कुंवारेपन पर कभी भी कोई | | गंगा में स्नान करके घर लौट आते हैं, इस खयाल से कि बात खतम बासापन नहीं आता। वह कुंवारापन हमारा स्वभाव है। हो गई, फिर से पाप शुरू करो। और दिक्कत क्या है? कितने ही अर्जुन को जगाने की चेष्टा है उस शब्द में भी। सदगुरु एक शब्द | | पाप करो, वापस गंगा में जाकर स्नान से धुल सकते हैं। भी व्यर्थ नहीं बोलते हैं। वे जो भी बोलते हैं, कोई गहरा कारण है। | तो रामकृष्ण ने कहा, तू जा जरूर, लेकिन तुझे पता है, गंगा के __ आप भी निष्पाप हैं। अस्तित्व सदा निष्पाप है। और अगर पाप | किनारे बड़े वृक्ष लगे हैं, वे किसलिए लगे हैं? उस आदमी ने कहा, और पुण्य आपके ऊपर हैं, तो वैसे ही जैसे कोई यात्री राह से गुजरे | | यह तो कहीं शास्त्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। तो उन्होंने कहा और धूल इकट्ठी हो जाए, ऊपर-ऊपर। एक डुबकी लगा ले नदी कि वही असली महत्वपूर्ण बात है। जब त गंगा में डबेगा, तो गंगा में, धूल बह जाए। में पाप बाहर निकल जाते हैं। क्योंकि गंगा पवित्र है। पर वे जो बड़े ___ हमने तीर्थ बनाए थे; वे प्रतीक थे। फिर लेकिन प्रतीक सब गलत | वृक्ष हैं, पाप उन पर बैठ जाते हैं। तो तू डूबा रहेगा कि लौटेगा? हो जाते हैं गलत आदमियों के हाथों में। हमारे प्रतीक थे तीर्थ कि | लौटेगा कि वे पाप फिर झाड़ों से उतरकर तेरे सिर पर सवार हो हम कहते थे, वहां जाकर स्नान कर लो, सब पाप से छुटकारा हो | जाएंगे। तो गंगा तो धो देगी, लेकिन तू इस भ्रम में मत पड़ना कि जाता है। कोई तीर्थ में जाकर स्नान करने से पाप का छुटकारा नहीं खाली होकर लौट आया। वे झाड़ इसीलिए खड़े हैं! होता। इतना आसान होता, तो जितने तीर्थ हमारे मुल्क में हैं और । सारे प्रतीक व्यर्थ हो जाते हैं। व्यर्थ इसलिए हो जाते हैं कि हम जितने पापी स्नान कर रहे हैं, इस मुल्क में पाप होता ही नहीं। प्रतीकों की गरदन दबा लेते हैं। उनका निचोड़ देते हैं प्राण ही बाहर। तीर्थ में स्नान करने से पाप से कोई छुटकारा नहीं होता। लेकिन पाप बाहर हैं, धूल से ज्यादा नहीं। झड़ाए जा सकते हैं। कोई बात बड़े मूल्य की है। बात असल में यह है कि पाप और पुण्य धूल | आदमी ठीक से निर्णय भी कर ले झड़ाने का, तो झड़ जाते हैं। से ज्यादा नहीं हैं। और जैसे धूल स्नान करने से बह जाती है और | क्योंकि आपके ही निर्णय से वे पकड़े गए हैं। सच तो यह है कि धूल कोई आपकी आत्मा में नहीं चली जाती है, बस आपकी परिधि | उन्होंने आपको पकड़ा है, यह कहना ही गलत है। आप उनको पर होती है, ऐसे पुण्य और पाप हैं। जो जान ले तरकीब स्नान करने | | पकड़े हैं और सम्हाले हैं। जिस दिन आप छोड़ देंगे, वे गिर जाएंगे। की, वह इनसे भी ऐसे ही मुक्त हो जाएगा, जैसे धूल से मुक्त हो और वह जो पकड़े हुए है, वह सदा निष्पाप है। जाता है। . मनुष्य की अंतरात्मा पापी नहीं हो सकती। और अगर अंतरात्मा तो तीर्थ प्रतीक थे। पापी हो जाए, तो फिर उसे शुद्ध करने का कोई भी उपाय नहीं है। रामकृष्ण से कोई पूछा है कि मैं गंगा जा रहा हूं। कहते हैं कि | फिर उसे कैसे शुद्ध करिएगा? फिर कौन उसे शुद्ध करेगा? फिर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाएंगे। रामकृष्ण थोड़ी अड़चन में | आत्मा से भी शुद्ध तत्व कोई हो, तो ही शुद्ध कर पाएगा। पड़े। रामकृष्ण को लगा कि कहूं कि ऐसा ठीक नहीं है, तो गलत । एक स्कूल में एक शिक्षक अपने बच्चों को विज्ञान पढ़ा रहा है। होगा। यह ठीक है कि कोई स्नान करने की कला जान ले और गंगा | | और उसने कहा कि एक नई खोज हो रही है। एक ऐसा रासायनिक को खोज ले, तो पाप धुल जाते हैं। इस बात में कहीं भूल-चूक नहीं | द्रव्य खोजा जा रहा है, जिसमें हर चीज गल जाती है। एक छोटे-से है। लेकिन गंगा यह नहीं है, जो बाहर बहती दिखाई पड़ती है। और | बच्चे ने कहा, उसको रखिएगा कहां? शिक्षक भी सिर खुजलाने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* लगा। उसने कहा, उसकी भी खोज की जा रही है। उस छोटे बच्चे समझें कि एक फिल्म आप देख रहे हैं। अगर आप बिलकुल ने कहा, पहले उसकी खोज कर लेना चाहिए, पीछे इस रासायनिक | तटस्थ रहें, तो फिल्म से आपको कोई सुख न मिल सकेगा। सिर्फ द्रव्य की। अगर खोज लिया इसे पहले, तो रखिएगा कहां? थककर आप वापस लौटेंगे। फिजूल मेहनत लगेगी। आंखें आत्मा अगर अशुद्ध हो जाए, तो फिर उसे शुद्ध करने का कोई थकेंगी। सुख मिल सकता है, अगर आप भूल जाएं अपने को और भी उपाय नहीं है। उसे फिर किस चीज से शुद्ध करिएगा? और भागीदार हो जाएं। भागीदार होने का मतलब है, अपने को भूल जिससे भी शुद्ध करिएगा, उसे तो कम से कम शुद्ध रहना ही जाना, विस्मृत कर देना। द्रष्टा न रह जाए। और आप भी जैसे एक चाहिए; उसके अशुद्ध होने का उपाय नहीं होना चाहिए। पात्र हो गए हैं फिल्म की कथा में। एक तत्व इस जगत में चाहिए, जिसके अशुद्ध होने का उपाय न __ और हर व्यक्ति फिल्म की कथा में पात्र हो जाता है। किसी पात्र हो, क्योंकि उसके ही माध्यम से सब शुद्ध हो सकता है। अगर सभी के साथ अपना तादात्म्य कर लेता है। फिर उस पर जो बीतता है, चीजें अशुद्ध हो जाती हों, तो फिर शुद्धि का कोई उपाय नहीं, फिर | इस पर बीतने लगता है। फिर जब वह कष्ट में होता है, तो यह मोक्ष की कोई संभावना नहीं है। | अपनी रीढ़ सीधी उठाकर कुर्सी पर बैठ जाता है। जब वह आराम हम उसी तत्व को आत्मा कहते हैं, जिसके अशुद्ध होने का कोई | में होता है, तो यह भी अपनी कुर्सी पर विश्राम करता है। इससे सुख उपाय नहीं है, जो सदा शुद्ध है। इसलिए आत्मा को शुद्ध नहीं करना | उपलब्ध होता है। लेकिन इससे दुख भी उपलब्ध होता है। होता, सिर्फ आत्मा को पहचानना काफी है। पहचानते ही पता लोग दुखांत फिल्मों में आंसू पोंछ-पोंछकर थक जाते हैं। वह तो चलता है कि मैं सदा से शुद्ध-बुद्ध हूं। वहां क्षणभर को भी कोई भला है कि अंधेरा होता है, इसलिए कोई किसी दूसरे को देख नहीं कालिमा प्रविष्ट नहीं हुई है। सकता। सब अपने-अपने रूमालों को भीगा करते हैं। इस महत तत्व की ओर इशारा करने के लिए अर्जुन को बार-बार टाल्सटाय ने लिखा है कि मेरी मां नाटक देखने की शौकीन थी। कृष्ण कहे जा रहे हैं, हे निष्पाप! | बड़े शाही परिवार के लोग थे, ज़ार परिवार से संबंध था। तो मास्को में ऐसा कोई नाटक नहीं था, जिसमें उसकी मां न जाती हो। __ और टाल्सटाय ने लिखा है कि वह इतना रोती थी, वह इतनी चौथा प्रश्नः जब यह सारा जगत पुरुष और प्रकृति | दयालु महिला थी कि जरा-सा दुख नाटक में कुछ हो रहा हो, तो का खेल है, तो हम कहां भागीदार हैं, जो इतना दुख बस, वह जार-जार हो जाती थी। लेकिन अक्सर यह होता था कि झेल रहे हैं? बर्फ पड़ती रहती मास्को में और बाहर जो कोचवान उसकी गाड़ी पर बैठा रहता, वह बर्फ के कारण सिकुड़कर मर जाता। जब हम नाटक देखकर बाहर निकलते, तो कोचवान मरा हुआ होता। उसे ट सीलिए दुख झेल रहे हैं कि आपको भ्रांति है कि आप उठाकर सड़क के किनारे फेंककर दसरा कोचवान गाडी लेकर घर र भागीदार हैं। आप भागीदार न रह जाएं, दुख समाप्त की तरफ जाता। और मां अभी भी आंसू पोंछती रहती नाटक के ___ हो जाएगा। दुख इसलिए नहीं है कि दुख है। दुख कारण! इस कोचवान से कोई संबंध नहीं था। लेकिन नाटक में इसलिए है कि आप भागीदार हैं। आप सोचते हैं, मैं कुछ कर रहा | संबंध जुड़ता था। हूं। मैं हिस्सा बंटा रहा हूं। मैं उत्तरदायी हं, यह अस्मिता ही आपके टाल्सटाय ने लिखा है कि मेरी समझ के बाहर था कि यह क्या दुख का कारण है। जहां भी आप भागीदार हो जाएंगे, वहीं दुख पैदा | हो रहा है! एक जिंदा आदमी मर गया, उसकी फिर बात ही नहीं हो जाता है। उठती थी। वह सड़क के किनारे फेंक दिया गया। उसका कोई मूल्य लेकिन ध्यान रहे, वह दुख हम इसीलिए पैदा करते हैं कि वही नहीं था, उसकी कोई कीमत नहीं थी। वह जैसे आदमी था ही नहीं; तरकीब सुख पैदा करने की भी है। जहां भी आप भागीदार होते हैं, | | एक यंत्र का हिस्सा था। एक दूसरा यंत्र बिठा दिया गया। और मां वहां सुख पैदा हो जाता है। चूंकि हम सुख चाहते हैं, इसलिए हम | | घर तक रोती रहती। वह नाटक उसका पीछा करता। भागीदार होते हैं। आप भी जितने दुखी हो जाते हैं फिल्म में, उतना जिंदगी में वही Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हे निष्पाप अर्जुन * घटना देखकर दुखी नहीं होते। क्योंकि जिंदगी में आप बहुत | होने की सुविधा होती है। और कोई बैठा हुआ दर्शक अगर जोश सोच-समझकर संयुक्त होते हैं। नाटक में संयुक्त होने में कोई | | में आ जाए और भाग लेने लगे, तो उसको भी मनाही नहीं है। और खतरा नहीं है, कुछ हर्जा नहीं है, कुछ खर्च भी नहीं है। थोड़ी देर | कोई अभिनेता पात्र करते-करते अपना सारा ढंग बदल दे, तो पीछे में नाटक के बाहर हो जाएंगे; अपने घर आ जाएंगे। से प्रांप्ट करने का कोई उपाय नहीं है, कोई सुविधा भी नहीं है। लेकिन जहां भी तादात्म्य हो जाता है, वहीं सुख-दुख मिलना | | नाटक बहता है, जैसे जिंदगी बहती है, अनजान में। क्या घटना शुरू हो जाता है। और जहां भी तादात्म्य टूट जाता है, वहां | | होगी, पक्का नहीं है। निष्कर्ष पहले से तय नहीं है। बहुत रोमांचक सुख-दुख दोनों प्रक्रियाएं बंद हो जाती हैं। है। और ठीक जिंदगी जैसा है। साक्षीभाव का इतना ही अर्थ है कि मैं कहीं भी तादात्म्य न | ठीक यह पूरी जिंदगी एक बड़ा नो-ड्रामा है। यहां कहीं कोई बनाऊं। जो भी हो रहा हो, वह नाटक से ज्यादा न हो। दर्शक नहीं है, यहां सभी अभिनेता हैं। और लिखी हुई पांडुलिपि विराट नाटक चल रहा है, उसे मिटाने की कोई जरूरत भी नहीं हाथ में नहीं है। परदे के पीछे से कोई कह नहीं रहा है कि यह बोलो। है। उसे मिटाना अर्थपूर्ण भी नहीं है। पर उसमें भागीदार होने में भूल कुछ भी निश्चित नहीं है। प्रत्येक चीज सांयोगिक होती जा रही है। है। उसमें आप एक अभिनेता से ज्यादा न रहें। अभिनेता भी शायद कहानी कहां खतम होगी, कहना कठिन है। सच पूछो तो कहीं भागीदार हो जाए। क्योंकि अभिनय जब जोश में आता है, तो कहानी खतम नहीं होती। पात्र आते हैं, चले जाते हैं, कहानी चलती अभिनेता भी भूल जाता है कि वह अभिनय कर रहा है। वह कर्ता | रहती है। हो जाता है। उसका कर्तापन कभी-कभी टूटता है। नहीं तो वह कर्ता ___आप कहानी की शुरुआत में थोड़े ही आए; मध्य में आए हैं। ही हो जाता है। और अंत में थोड़े ही विदा होंगे; बीच में विदा हो जाएंगे। कहानी असल में अभिनेता को अगर ठीक से अभिनय करना हो, तो | | आपके पहले से चलती थी; कहानी आपके बाद भी चलती रहेगी। उसे भूल जाना चाहिए कि वह अभिनय कर रहा है, उसे कर्ता हो। इस पूरे लंबे कथानक में अगर आप अभिनेता भी हों और द्रष्टा जाना चाहिए। तो उसके आंसू ज्यादा वास्तविक होंगे, उसका प्रेम | | भी हों, तो आप भागीदार नहीं रहे। फिर कोई दुख नहीं है। फिर कोई ज्यादा वास्तविक दिखाई पड़ेगा। उसके कृत्य, उसकी | सुख भी नहीं है। भाव-भंगिमाओं में सचाई आ जाएगी। जब तक सुख है, तब तक दुख भी होगा। वे दोनों एक ही सिक्के इसलिए कुशल अभिनेता भूलना जानता है कि वह अभिनेता है | | के दो पहलू हैं। एक गिरेगा, दूसरा भी गिर जाएगा। और जब दोनों और वह कर्ता हो जाता है। लेकिन तब चीजें उसे छूने लगती हैं। | गिर जाते हैं, तब जो घटित होता है, उसको हमने आनंद कहा है। छने के कारण ही वास्तविक हो जाती हैं। जब भागीदार मिट जाता है और सिर्फ साक्षी रह जाता है, तो जो . संसार में अभिनेता और द्रष्टा दोनों अगर आपके जीवन में अनुभूति जन्मती है, उसका नाम आनंद है। प्रविष्ट हो जाएं...। क्योंकि यहां सिर्फ आप द्रष्टा नहीं हो सकते, अब हम सत्र को लें। क्योंकि आपको बहुत कुछ करना भी पड़ रहा है। आप हाल में नहीं | __ हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न बैठे हैं, मंच पर खड़े हुए हैं। यहां हाल है ही नहीं, मंच ही मंच है। | हुआ जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की यहां जहां भी आप खड़े हैं, आप मंच पर हैं। आसक्ति से बांधता है। जापान में एक नाटक होता है, नो-ड्रामा। उसमें कोई मंच नहीं | इनमें तीनों गुणों की, जो कि बांधने वाले तत्व हैं...। होता। उसमें अभिनेता ठीक हाल में ही काम करते हैं। और नया संस्कृत में गुण शब्द का एक अर्थ रस्सी भी है, जिससे बांधा आदमी खड़ा हो तो उसको समझना मुश्किल हो जाता है, कौन जाए। इनको गुण इसलिए भी कहा जाता है कि ये बांधते हैं। दर्शक है और कौन अभिनेता है! इसलिए हम परमात्मा को निर्गुण कहते हैं। यह नो-ड्रामा झेन फकीरों की ईजाद है। और इसमें पूरी पांडुलिपि | । निर्गुण का यह मतलब नहीं कि उसमें कोई गुण नहीं हैं। निर्गुण तैयार नहीं होती; सिर्फ इशारे होते हैं। और इशारों पर भी कोई जिद का यह मतलब है कि उस पर कोई बंधन नहीं हैं। वह कहीं बंधा नहीं होती कि घटना वैसी ही बहनी चाहिए। स्पांटेनियस, सहज | हुआ नहीं है। ये तीन गुण उसमें नहीं हैं, जो बांध सकते हैं। वह इन Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 तीन के बंधन के बाहर है। उसकी निर्गुणता का अर्थ है, वह परम स्वतंत्र है। और आपके भीतर जो छिपा है, वह भी परम स्वतंत्र है। लेकिन उसके चारों तरफ बंधन है। बंधन से आपकी स्वतंत्रता नष्ट नहीं हो गई है, सिर्फ अवरुद्ध हो गई है। कोई बंधन स्वतंत्रता को नष्ट नहीं करता। मेरे हाथों में कोई हथकड़ियां डाल दे, इससे मेरी स्वतंत्रता नष्ट नहीं होती, सिर्फ अवरुद्ध हो जाती है। मैं अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग नहीं कर सकता। लेकिन मेरी स्वतंत्रता नष्ट नहीं होती। कल मेरी जंजीरें टूट जाएं; मेरी स्वतंत्रता मेरे पास थी; सिर्फ अवरोध हट गया। तो कोई भी चेतना किसी भी स्थिति में स्वतंत्रता तो नहीं खोती है, लेकिन अवरोध खड़े हो जाते हैं। और अगर अवरोधों से हमारा लगाव हो जाए, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। वही कठिनाई है। हमारे हाथ में जंजीरें नहीं हैं। और अगर जंजीरें हैं, तो हम उनको आभूषण समझे हुए हैं। और हमने उनमें हीरे, चांदी, सोना जड़ लिया है। हमने उनमें रंग-बिरंगे चित्र बना लिए हैं। अब अगर कोई हमारी जंजीर तोड़ना भी चाहे, तो हम उसको समझेंगे, यह दुश्मन है, हमारे सौंदर्य को, हमारे आभूषण को नष्ट कर रहा है। और जब भी कोई व्यक्ति अपनी जंजीर को आभूषण समझ ले, तो उसकी स्वतंत्रता बहुत मुश्किल हो गई। अगर कोई कारागृह को अपना घर समझ ले और सजावट करने लगे, तब फिर उसके छुटकारे का कोई उपाय न रहा । छुटकारे के लिए पहली बात तो जान लेनी जरूरी है कि मैं कारागृह में हूं। और इसे सजाना नहीं है, इसे तोड़ना है । और जो मुझे बांधे हुए हैं, वे आभूषण नहीं हैं, जंजीरें हैं। उनसे गौरवान्वित नहीं होना है; उनसे छुटकारा पाना है। हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान । वह इस जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की आसक्ति से बांधता है। सत्वगुण को कृष्ण ने कहा कि वह सुख की आसक्ति और ज्ञान का अभिमान, इससे बांधता है। जिसको हम पांडित्य कहें, वह सत्व से बंधा हुआ व्यक्तित्व है। जिसको हम साधुत्व कहें, वह भी सत्व से बंधा हुआ व्यक्तित्व है। उसकी दो आकांक्षाएं हैं। एक आकांक्षा है कि उसे सुख मिले। इसलिए वह स्वर्ग को खोजता है। स्वर्ग का मतलब है, जहां दुख बिलकुल न हो, सिर्फ सुख हो । वह स्वर्ग की खोज के लिए सब कुछ करने को तैयार है। तप करेगा, पूजा, यज्ञ, सब करेगा, लेकिन स्वर्ग मिले। ऐसी जगह मिल जाए, जहां सुख ही सुख हो; शुद्ध 42 सुख हो और दुख न हो। सत्व ऐसे लोगों को बांध लेता है। स्वर्ग भी बंधन है। देवता मुक्त नहीं हैं। बुद्ध के जीवन में कथा है कि जब बुद्ध को परम ज्ञान हुआ, तो ब्रह्मा और अनेक देवताओं ने आकर उनके चरणों में निवेदन किया कि हमें उपदेश दें। हिंदुओं को इस कहानी से बड़ी चोट पहुंची। उनको लगा, हमारे | देवता और बुद्ध के चरणों में क्यों प्रार्थना करने जाएं? लेकिन बात बड़ी कीमती है। देवता किसी के भी हों, बुद्ध के चरणों में नमस्कार करने जाना ही होगा। बुद्ध किसी के भी नहीं हैं। देवता किसी के भी | हों! लेकिन जब भी बुद्धत्व घटित होता है, तो देवता को भी चरणों में नमस्कार करने और मार्ग खोजने जाना होगा। ब्रह्मा ने कहा कि उपदेश दें, क्योंकि हम भी बंधे हैं। तुम सुख से भी मुक्त हो गए; हम सुख से बंधे हैं। सुख ही सुख है हमारे जीवन में, लेकिन दुख का डर मौजूद है। क्योंकि जो भी है, उसके खोने का डर होता है। धनी के पास कितना ही धन हो, धन के खोने का डर तो दुख देता ही है । इसलिए हम कंपते रहते हैं कि कब हमारा सुख छिन जाए। और सुख हमने कमाया है पुण्यों से, उसकी एक मात्रा है। पुण्य चुक जाएंगे, सुख चुक जाएगा। तब हम वापस दुख में फेंक | दिए जाएंगे। तो हम कंपित हैं। हम डरे हुए हैं। हम घबड़ाए हुए हैं। हमें आश्वस्त करें। आप सुख से भी मुक्त हो गए हैं। अब आपको | कोई भय न रहा। अब आपको कोई कंपा नहीं सकता; क्योंकि | आपसे अब कोई कुछ छीन नहीं सकता। आपके पास कुछ है ही | नहीं जो छीना जा सके। आप सिर्फ आप हैं, जिसको छीनने का कोई | उपाय नहीं है, चुराने का कोई उपाय नहीं है, मिटाने का कोई उपाय | नहीं है। आप उस परम मुक्त अवस्था को उपलब्ध हो गए हैं, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं, हम तरसते हैं। सत्व देवत्व तक ले जा सकता है। वह शुद्धतम जंजीर है, सुंदरतम जंजीर है। तो जिनके मन में सुख की गहरी आकांक्षा है – सुख की, शांति की या आनंद की — जिनके मन में गहरी आकांक्षा है सुख की, आनंद की, शांति की, वे सत्व से मुक्त न हो | पाएंगे। क्योंकि सत्व सुख देता है। और जो सुख देता है, उससे हम बंध जाएंगे। जिनके मन में आसक्ति है, लगाव है, जो किसी दूसरे व्यक्ति के ऊपर निर्भर होते हैं अपने सुख लिए...। पति है, वह कहता है, पत्नी के बिना मैं नहीं जी सकता। या पत्नी है, वह कहती है, पति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हे निष्पाप अर्जुन * मरेंगे तो मैं सती हो जाऊंगी, उनकी चिता पर जल जाऊंगी। उनके | फल! ऐसा व्यक्ति सदा दुखी होगा। दुखी इसलिए होगा कि वह जो बिना नहीं जी सकती। भी करेगा, उसमें तो उसे कोई रस नहीं है। रस तो फल में है। फल सती आसक्ति का गहनतम प्रतीक है। मेरा जीवन किसी और के सदा भविष्य में है। जीवन पर पूरी तरह निर्भर है, उसके बिना कोई अर्थ नहीं है, कोई __और ऐसे व्यक्ति की धीरे-धीरे एक व्यवस्था हो जाती है मन की सार नहीं है। फिर मर जाना उचित है। फिर मृत्यु भी हितकर मालूम | कि वह वर्तमान में देख ही नहीं सकता। और जब फल भी आएगा, होती है बजाय जीवन के। तब भी वह फल को नहीं देख पाएगा. क्योंकि फल तब वर्तमान हो तो जब कोई व्यक्ति आसक्ति से किसी से बंधता है, तो ऐसी | | जाएगा और उसकी आंखें फिर भविष्य में देखेंगी। आसक्ति और कामना से जो उत्पन्न होता है, वह रजोगुण है। या तो ऐसा व्यक्ति फल के द्वारा फिर किसी और फल को खोजने इस जीवात्मा के कर्मों की और उनके फल की आसक्ति जो है, | | लगता है। पहले वह धन कमाता है। धन उसकी आकांक्षा होती है। उससे रजोगुण उत्पन्न होता है। फिर जब धन मिल जाता है, तो उस धन से वह और धन कमाने एक तो आसक्ति है, किसी से बंध जाना। ऐसा बंध जाना कि | लगता है। फिर यही चलता है। लगे कि मेरे प्राण मेरे भीतर नहीं, उसके भीतर हैं। यह व्यक्ति के __ उसकी हालत ऐसी है कि एक रास्ते का उपयोग दूसरे रास्ते तक साथ भी हो सकता है, वस्तु के साथ भी हो सकता है। कुछ लोग पहुंचने के लिए करता है। फिर दूसरे रास्ते का उपयोग तीसरे रास्ते हैं कि उनके प्राण उनकी तिजोरी में हैं। आप उनको मारो, वे न | तक पहुंचने के लिए करता है। जिंदगीभर वह रास्तों पर चलता है मरेंगे। तिजोरी को मार दो, वे मर जाएंगे। और मंजिल कभी नहीं आती। आएगी नहीं। क्योंकि हर साधन का नसरुद्दीन एक अंधेरी गली से गुजर रहा है। और एक आदमी ने | | उपयोग वह फिर किसी दूसरे साधन तक पहुंचने के लिए करता है। पिस्तौल उसकी छाती पर रख दी। उसने कहा, नसरुद्दीन, धन देते साध्य का कोई सवाल नहीं है। हो या जीवन ? नसरुद्दीन ने कहा, थोड़ा सोचने दो। फिर सोचकर __ और ऐसे व्यक्ति की नजर सदा साध्य पर लगी होती है। उसको उसने कहा कि जीवन। उस आदमी ने कहा, क्या मतलब? दिखता है हमेशा फल। इसके पहले कि वह कुछ करे, वह अंत में नसरुद्दीन ने कहा. धन तो बढापे के लिए इकट्ठा किया है। जीवन देख लेता है। और अंत को देखकर ही चलता है। तुम ले सकते हो। धन देकर मैं क्या करूंगा? फिर कहां बचूंगा? इसमें बड़ी कठिनाइयां हैं। अगर वस्तुतः उसे अंत मिल भी जाए, __ पुरानी कहानियां हैं, बच्चों की कहानियां हैं परियों की, राजाओं तो भी उसकी आगे देखने की आदत उसे अंत का सुख न लेने देगी। की। जिनमें कोई राजा होता है, जिसके प्राण किसी तोते में बंद हैं। और अंत मिलना इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि फल आपके राजा को मारो, आप नहीं मार सकते। तोते को मारना पड़े। पता | हाथ में नहीं है। फल हजारों कारणों के समूह पर निर्भर है। और लगाना पड़े कि राजा के प्राण कहां कैद हैं। वे कहानियां बड़ी | | कोई भी व्यक्ति इतना समर्थ नहीं है कि जगत के सारे कारणों को अर्थपूर्ण हैं; वे हम सबकी कहानियां हैं। नियोजित कर सके। __ आपको मारने में कोई सार नहीं है। पहले पक्का पता लगाना पड़े, _आप धन कमा रहे हैं। धन कमा लेंगे, यह आप पर ही निर्भर किस तोते में आपके प्राण बंद हैं। बस, वहां मार दो, आप मर गए। नहीं है। यह करोड़ों कारणों पर निर्भर है, यह मल्टी काजल है। __ आसक्त व्यक्ति का अर्थ है कि उसके प्राण उसके अपने भीतर समझ लें, एक क्रांति हो जाए; धन किसी का रह ही न जाए, नहीं, कहीं और हैं। ऐसा व्यक्ति तो गहन परतंत्रता में होगा, जिसके | सामूहिक संपत्ति हो जाए। संपत्ति का वितरण हो जाए। आप जब प्राण भी अपने नहीं। यह तो पूरा लारागृह है। तक धन कमा पाएं, तब तक महंगाई इतनी बढ़ जाए कि धन का रजोगुण ऐसी आसक्ति से बढ़ता है, निर्मित होता है। और ऐसा कोई मूल्य न रह जाए। व्यक्ति सदा ही फलों की आसक्ति से बंधा होता है। क्या मिलेगा | __ पिछले महायुद्ध में चीन में ऐसी हालत थी कि एक माचिस अंत में? वह उसकी नजर में होता है। वह हमेशा फल को देखता खरीदनी हो, तो एक थैली भरकर नोट ले जाने पड़ते थे। वह हालत है। वक्ष की उसे चिंता नहीं होती। वह सब कर सकता है. लेकिन | यहां कभी भी आ सकती है। फल! नजर में, आंख में, प्राण में एक ही बात गूंजती रहती है, एक बड़ी प्रसिद्ध घटना चीन में घटी पिछले महायुद्ध में। दो भाई 43 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * थे। जब बाप मरा तो आधी-आधी संपत्ति कर गया। काफी संपत्ति | व्यक्ति की तरह, तो हम से बच नहीं सकता। हम फल को नियोजित थी। कई लाख रुपए दोनों को मिले। एक भाई उन लाखों रुपयों को | कर सकते हैं। उसके माध्यम से हम कुछ तय कर सकते हैं। लगाकर धंधे में लग गया, कमाने में। दूसरे भाई ने उन सब लाखों | लेकिन ऐसा भगवान नहीं है। भगवान का कुल अर्थ है, इस रुपयों की शराब पी डाली। उस दूसरे भाई ने शराब पी डाली, | जगत का जो अनंत विस्तार है अनंत कारणों का, इन अनंत कारणों लेकिन उसे शौक था एक, शराब की बोतलें इकट्ठी करने का। उसने के जोड़ का नाम भाग्य या भगवान है—जो भी आपको पसंद हो। लाखों शराब की बोतलें इकट्ठी कर ली। | जब हम कहते हैं, फल भाग्य के हाथ में है, तो इसका मतलब इतना फिर महंगाई बढ़ते-बढ़ते उस जगह पहुंची कि उसने बोतलें | है कि मैं अकेला नहीं हूं, अरबों कारण काम कर रहे हैं।, अपनी बेच लीं। जितने की उसने शराब पी थी, उससे कई गुना रुपया । आप अपने घर से निकले। आप बड़ी योजनाएं बनाए चले जा उसे बोतलों के बेचने से मिल गया। और वह जो भाई धंधे में था, | रहे हैं। दूसरा आदमी अपनी कार लेकर निकला। वे शराब पी गए वह मर गया, वह डूब गया। लोगों के पास पैसे न रहे खरीदने को | हैं। आपको उनका बिलकुल पता नहीं है कि वे चले आ रहे हैं तेजी उसकी चीजें। चीजें थीं; लेकिन पैसे नहीं थे लोगों के पास। | से आपकी तरफ कार भगाते हुए। वे कब आपको पटक देंगे सड़क जिंदगी बड़ी जटिल है। यहां आप अकेले नहीं हैं। यहां अरबों पर आपकी योजनाओं के साथ, आपको कुछ पता नहीं है। उनका लोग हैं। अरबों कारण काम कर रहे हैं। आप सब कुछ कर लें आपने कुछ बिगाड़ा नहीं दिखाई पड़ता ऊपर से। शराब आपने उन्हें और माओ का दिमाग खराब हो जाए या निक्सन का, और वे एक पिलाई नहीं। मगर वह सारी जिंदगी का नक्शा बदल दे सकते हैं। एटम बम गिरा दें। आपने यहां सब कुछ करके इंतजाम कर लिया | प्रतिपल हजारों काम आपके आस-पास चल रहे हैं। आप था; बिलकुल बस, बैंक से रुपया उठाने ही जा रहे थे। सब असहाय हैं। आप कर क्या सकते हैं? लेकिन जो आदमी फल पर समाप्त हो गया। बहुत आकांक्षा बांध लेता है, वह बड़ी मुश्किल में पड़ता है, हिरोशिमा पर जब एटम गिरा, एक लाख बीस हजार लोग मरे। क्योंकि फल पूरे नहीं हो पाते। जब पूरे नहीं हो पाते, तो विषाद से पांच मिनट में सब समाप्त हो गया। उसमें आप ही जैसे लोग थे, भर जाता है। जिनकी बड़ी योजनाएं थीं। कृष्ण कहते हैं कि यह जो फल की आसक्ति है, यह रजोगुण का फलाकांक्षी बड़ी कठिनाई में है। पहले तो वह फल मिल भी स्वभाव है! जाए-जो कि असंभव जैसा है—जो फल वह चाहता है, वह और हे अर्जुन, सर्व देह-अभिमानियों के मोहने वाले तमोगुण मिल भी जाए, तो वह उसको भोग न सकेगा। उसकी आदत गलत को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद, है। पहले मिलना ही मुश्किल है, क्योंकि फल आपके हाथ में नहीं आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है। है। और जब आप तय करते हैं कछ पाने का. तब इतने कारण काम सत्व, ज्ञान और सख के द्वारा: रज, आस कर रहे हैं कि आप उन पर कोई कब्जा नहीं कर सकते। | आकांक्षा के द्वारा; और तम, अज्ञान, मूर्छा, प्रमाद, आलस्य के अगर इस स्थिति को हम ठीक से समझें, तो इसी को कृष्ण ने द्वारा है। कहा है कि फल भगवान के हाथ में है। करोड़ों ये जो कारण हैं, प्रमाद शब्द को ठीक से समझ लेना चाहिए। उसमें सारा रस तम अनंत जो कारण हैं, यह अनंत कारणों का ही इकट्ठा नाम भगवान का छिपा हुआ है। प्रमाद का अर्थ है, मूर्छा का एक भाव, बेहोश, है। भगवान कहीं कोई ऊपर बैठा हुआ आदमी नहीं है, जिसके हाथ अजागरूक। चले जा रहे हैं, किए जा रहे हैं, लेकिन कोई सावधान नहीं है। जो भी कर रहे हैं, ऐसे कर रहे हैं, जैसे नींद में हों। क्यों ऐसा अगर हो, तब तो हम कोई तरकीब निकाल ही लें उसको कर रहे हैं, इसका पक्का पता नहीं। करें या न करें, इसका कोई बोध प्रभावित करने की। हम उसकी स्तुति कर सकते हैं, खुशामद कर | नहीं। क्या कर रहे हैं, इस ठीक करते हुए क्षण में चेतना का ध्यान, सकते हैं। उस पर काम न चले, तो उसकी पत्नी होगी, उसको चेतना का प्रवाह उस कर्म की तरफ नहीं। प्रभावित कर सकते हैं। उसके लड़के-बच्चे होंगे, कोई नाता-रिश्ता खाना खा रहे हैं। हाथ खाना खाए जा रहे हैं, यंत्रवत, क्योंकि खोज सकते हैं, कोई रास्ता बन ही सकता है। अगर कहीं भगवान है। | उनकी आदत हो गई है। मन कहीं भागा हुआ है। मन न मालूम किन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * हे निष्पाप अर्जुन * लोकों की यात्राएं कर रहा है! न मालूम मन किस काम में संलग्न योगी, कृष्ण कहते हैं, सोता है तब भी सोता नहीं। उसका कुल है। तो आप यहां नहीं हैं। आप यहां बेहोश हैं। मतलब इतना है कि उसके तम का जो बंधन है, वह टूट गया। बुद्ध कहते हैं, बस एक ही है साधना, कि तुम जहां हो, वहां प्रमाद नहीं है। विश्राम करता है। लेकिन भीतर उसके कोई जागा ही तुम्हारी चेतना भी हो। तुम्हारा पैर उठे रास्ते पर, तो तुम्हारी चेतना रहता है, जागा ही रहता है। कोई दीया जलता ही रहता है। वहां कोई भी पैर के साथ उठे। तुम होशपूर्वक हो जाओ। तुम पानी पीओ, पहरेदार सदा बना ही रहता है। ऐसा कभी नहीं कि घर खाली हो तो वह पीना यंत्रवत न हो। तुम्हारा पूरा होश पानी के साथ तुम्हारे और पहरेदार सोया हो। वहां कोई पहरे पर बैठा ही रहता है। भीतर जाए। इस पहरेदार को संतों ने—कबीर ने, दादू ने, नानक ने-सुरति बद्ध ने कहा है. तम्हारी श्वास बाहर जाए. तो होशपर्वक: | कहा है। सुरति का अर्थ है, कोई स्मरणपूर्वक जगा रहे। स्मृति का तुम्हारी श्वास भीतर आए, तो होशपूर्वक। बुद्ध की सारी प्रक्रिया | ही रूप है सुरति। शब्द बुद्ध का है, स्मृति। फिर बिगड़ते-बिगड़ते, इस अनापानसती-योग पर निर्भर है। कबीर तक आते-आते वह लोकवाणी में सुरति हो गया। बड़ा अनूठा प्रयोग है अनापानसती-योग का, बड़ा सरल, कि कबीर कहते हैं, जैसे कोई कुलवधू, कोई गांव की वधू कुएं से श्वास का मुझे बोध बना रहे। जब श्वास नाक को छुए, भीतर जाती| पानी भरकर घर लौटती है, तो सिर पर तीन-तीन मटकियां रख श्वास, तो मुझे पता रहे कि उसने स्पर्श किया नाक का। फिर नाक | लेती है। हाथ से पकड़ती भी नहीं। पास की सहेलियों से गपशप के भीतरी अंतस हिस्सों का स्पर्श किया; फिर श्वास भीतर गई, | भी करती है, हंसी-मजाक भी करती है, गीत भी गाती है और रास्ते फेफड़ों में भरी, पेट ऊपर उठा; फिर श्वास वापस लौटने लगी। | पर चलती है। लेकिन उसकी सुरति वहीं लगी रहती है ऊपर, कि उसका आने का मार्ग, जाने का मार्ग, दोनों का बोध हो। वे घड़े गिर न जाएं! उसने हाथ भी नहीं लगाया हुआ है। सिर्फ सुरति 'बर्मा में इसे वे विपस्सना कहते हैं। विपस्सना का मतलब है, | के सहारे ही सम्हाला हुआ है। वह सब बात करती रहेगी, हंसती देखना। देखते रहना, ध्यानपूर्वक देखते रहना। रहेगी, रास्ते पर चलती रहेगी; कोई घड़ा गिरने को होगा, तो कोई भी एक क्रिया को ध्यानपूर्वक देखते रहने का परिणाम परम | तत्काल उसका हाथ पहुंच जाएगा। उसकी स्मृति का धागा पीछे बोध हो सकता है। और कोई व्यक्ति अगर अपने दिनभर की सारी | बंधा हुआ है। उसका ध्यान वहीं लगा हुआ है। क्रियाओं को देखता रहे, तो उसका प्रमाद टूट जाएगा। जब प्रमाद आपकी क्रियाएं ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो अप्रमाद फलित होता टूट जाता है, तो तम का बंधन गिर जाता है। | है। और आपकी क्रियाएं गैर-ध्यानपूर्वक हों, तो प्रमाद होता है। लेकिन हम सब बेहोश जीते हैं। हम जो भी करते हैं, वह ऐसा हे अर्जुन, सब देहाभिमानियों को मोहने वाले तमोगुण को करते हैं, जैसे हिप्नोटाइज्ड हैं। कुछ होश नहीं; चले जा रहे हैं, किए अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान। जा रहे हैं, यंत्रवत। और अज्ञान का अर्थ यहां जानकारी की कमी नहीं है। अज्ञान का यह यंत्रवतता, आलस्य, प्रमाद, निद्रा, ये तम की आधारशिलाएं - अर्थ है, आत्म-अज्ञान, अपने को न जानना। हैं। इसलिए कृष्ण गीता में कहते हैं कि योगी, जब आप सोते हैं, जो अपने को नहीं जानता, वह जागेगा भी कैसे? वह किसको तब भी सोता नहीं। जगाए? कौन जगाए? और जो जागा हुआ नहीं है, वह अपने को __ आप तो जब जागते हैं, तब भी सोते ही हैं। आपका जागना भी | कभी जानेगा कैसे? वे दोनों एक-दूसरे पर निर्भर बातें हैं। जो जागना नहीं है, सिर्फ नाममात्र जागना है। आप खुद भी कोशिश | जितना ही जागता है, उतना ही स्वयं को पहचानता है। जो जितना करें, तो कई बार दिन में अपने को सोया हुआ पकड़ लेंगे। जरा ही स्वयं को पहचानता है, उतना ही जागता चला जाता है। परम चौंकाएं अपने को...। जागरण आत्मज्ञान बन जाता है। गुरजिएफ कहता था, एक झटका देकर खड़े हो जाएं कहीं पर, तमोगुण अज्ञान है। रजोगुण आसक्ति है। सत्वगुण सूक्ष्म तो आप अचानक पाएंगे कि अभी तक सोया था। पर वह एक अभिमान है, शुद्ध अभिमान है। ये तीन बंधन हैं। झटके ही में थोड़ी-सी झलक आएगी, जैसे किसी ने नींद में हिला | क्योंकि हे अर्जुन, सत्वगुण सुख में लगाता है. रजोगण कर्म में दिया हो। फिर नींद पकड़ लेगी। लगाता है, तमोगुण तो ज्ञान को आच्छादन करके, ढंककर प्रमाद 45 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * में लगाता है। बहुत मधुर बात कही है। उसने कहा है, इतिहास बनाना ज्यादा और तीन ही तरह के व्यक्ति हैं इस जगत में। तीनों गुण सभी के | आसान है बजाय इतिहास लिखने के। क्योंकि इतिहास तो गधे भी भीतर हैं। लेकिन सभी के भीतर तीनों गुण समान मात्राओं में नहीं हैं। बना सकते हैं। किसी के भीतर सत्वगुण प्रमुख है, तो सत्वगुण दो को दबा देता है। | इतिहास बनाने में क्या लगता है ? गोडसे बनने में क्या दिक्कत इसको ठीक से समझ लें। है? एक पिस्तौल चाहिए, एक छुरा चाहिए, एक हथगोला काफी जिस व्यक्ति के भीतर सत्वगुण प्रमुख है, जिसे शांति, सुख, है। कुछ भी उपद्रव तो कर ही सकते हैं। इतिहास निर्मित होना शुरू ज्ञान की तलाश है, उस व्यक्ति का रजोगुण, उस व्यक्ति का | हो जाता है। अब जब तक गांधी की याददाश्त रहेगी, तब तक तमोगण भी इसी तलाश में संलग्न हो जाता है। उस व्यक्ति के पास गोडसे को भलने का कोई उपाय नहीं। गोडसे ने किया क्या है? जितनी कर्मठता है, जितनी शक्ति है, जितनी ऊर्जा है रज की, वह | करने के नाम पर बहुत ज्यादा नहीं है। उपद्रव किया जा सकता है। सारी ऊर्जा वह ज्ञान की तलाश में लगा देता है। वह सारी ऊर्जा, __ जिनमें भी रजोगुण भारी है, वे किसी न किसी तरह के उपद्रव में, वह सारा कर्म सुख की खोज में लग जाता है। और उस व्यक्ति के | किसी तरह की मिस्चीफ में संलग्न होते हैं। अगर वे बुरे हो जाएं, तो भीतर जितना तम है, जितना आलस्य है, वह सब भी ज्ञान की | डाकू हो जाएंगे। अगर बुरे न हों, भाग्य से ठीक शिक्षा-संस्कार मिल तलाश में, सुख की तलाश में, विश्राम की जो जरूरत पड़ेगी, उसमें | जाए, तो राजनेता हो जाएंगे। डाकुओं को थोड़ी अकल हो जाए, तो लग जाता है। | राजनेता हो जाएंगे। राजनेताओं की थोड़ी अकल खो जाए, तो डाकू अगर किसी व्यक्ति में तम प्रमुख है, तो उसके पास छोटी-मोटी | | हो जाएंगे। उनमें परिवर्तन जरा भी दिक्कत का नहीं है। वे करीब ही बुद्धि अगर हो, थोड़ी-बहुत समझ हो, तो वह समझ को भी अपने खड़े हैं। वे सगे, मौसेरे भाई-भाई हैं। आलस्य को सिद्ध करने में लगाता है। वह अपनी समझ को भी इस ___ अगर छोटा-मोटा हत्यारा हो, तो हत्यारा रह जाएगा। अगर बड़ा तरह उपयोग करता है कि आलस्य का रेशनलाइजेशन हो जाए, वह हत्यारा हो, तो तैमूर, चंगेज और हिटलर के बुद्धियुक्त मालूम होने लगे। वह कहेगा, करने से क्या सार है? | | अगर छोटी-मोटी किसी की संपत्ति पर कब्जा करे, तो चोर समझा करके क्या कर लोगे? करने से क्या मिलने वाला है? | जाएगा। अगर बड़े साम्राज्यों पर कब्जा कर ले, तो सम्राट हो उसके पास जो भी रजोगुण है, जो भी ऊर्जा है, शक्ति है, वह जाएगा। और साधु उसका गुणगान करेंगे, प्रशस्ति लिखेंगे। इस शक्ति को भी इस भांति नियोजित करेगा कि वह कर्म न बन | | रजोगुणी अपनी सारी शक्ति को लगा देता है, सारी समझ को, पाए। वह क्रियाएं तो करेगा, लेकिन क्रियाएं ऐसी होंगी, जो उसे | सारे विश्राम को, एक ही काम में कि कुछ करना है। वह करना कहां और आलस्य में ले जाएं। वह आदमी चलेगा, तो चलकर शराबघर | | ले जाएगा, उस करने का क्या अर्थ होगा, करने का कोई परिणाम पहुंच जाएगा। उसकी क्रिया चलने में लगेगी, लेकिन जाएगा वह | | शुभ होगा, अशुभ होगा, इसका बहुत प्रयोजन नहीं है। शराबघर। अगर उसको शराब खरीदनी हो, तो वह दिन में मेहनत __ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हिटलर बचपन में चित्रकार होना भी करेगा। लेकिन मेहनत करके खरीदेगा शराब। चाहता था, पेंटर होने की आकांक्षा थी। और बैठकर बड़े चित्र अगर किसी व्यक्ति में रजोगुण प्रमख हो, तो वह अपनी सारी | | बनाता रहता था। लेकिन कई एकेडमी में गया वह, लेकिन सभी चेतना को, सारी शक्तियों को भाग-दौड़ में लगा देगा। क्रिया प्रमुख | जगह से उसको निराश वापस लौटना पड़ा। वह कुशल चित्रकार हो जाएगी। करना ही जैसे लक्ष्य हो जाएगा। कुछ करके दिखाना | नहीं हो सकता था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि काश, उसको किसी है। वह अपना सुख भी छोड़ सकता है उसके लिए, अपना विश्राम | | एकेडमी ने जगह दे दी होती, तो वह कागज रंगने में समय बिता भी छोड़ सकता है। लेकिन कुछ करके दिखाना है। | देता, दुनिया का इतना उपद्रव नहीं होता। हो सकता था लाल रंग इतिहास ऐसे ही लोग बनाते हैं, जिनमें रजोगुण प्रमुख है। से कागज रंगता, लेकिन इतने खून से जमीन न रंगता। राजनेता रजोगुणी है। कुछ करके दिखाना है। नाम छोड़ जाना है। | लेकिन वह चित्रकार नहीं हो सका। वह बेचैनी उसको रह गई। इतिहास के पृष्ठों पर लिखा जाए। | उसके कुछ कर के दिखाना था। उसे कुछ बड़ा होना था। और वह और ध्यान रहे, तायनबी ने, एक बहुत बड़े इतिहासज्ञ ने, एक बेचैनी धीरे-धीरे राजनीति की तरफ मुड़ गई। फिर वह खतरनाक 46 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे निष्पाप अर्जुन आदमी साबित हुआ। हालांकि चित्रकला से उसका प्रेम कभी नहीं खोया। अपने कमरे में खूबसूरत चित्र उसने लगा रखे थे और चित्रों का पारखी था। संगीत में उसे रस था और पुराने शास्त्रीय संगीत के रिकार्ड सुनता था। वह एक चित्रकार हो सकता था। लेकिन उसकी सारी, रजोगुण की सारी शक्ति, जो चित्रकार बनने के दरवाजे से लौट गई, वह राजनीति में नियोजित हो गई। इंग्लैंड अकेला मुल्क है आज, जहां विद्यार्थियों का बहुत उपद्रव नहीं है। सारी जमीन पर उपद्रव है। और कुल कारण इतना है कि इंग्लैंड अकेला ही मुल्क है, जहां विद्यार्थियों को अभी भी दो-तीन घंटे खेल के मैदान पर खेलना पड़ता है। रजोगुण नियोजित हो जाता है। तीन घंटे जो बच्चा फुटबाल या वालीबाल खेलकर लौटा है, उससे आप कहो कि पत्थर मारो, कांच तोड़ो लोगों के मकान के; वह कहेगा, घर जाने दो। जो बच्चा छः घंटे बैठा रहा है कुर्सी पर और हिलने भी नहीं दिया गया। और शिक्षक कहता है, बिलकुल बुद्धवत बैठे रहना। पत्थरों को छुपाकर रखे है । यह लड़का कुछ तोड़ना चाहेगा, फेंकना चाहेगा। फुटबाल या वालीबाल सिर्फ फेंकने, मिटाने, तोड़ने के व्यवस्थित उपाय हैं, कुछ और नहीं है। आखिर कर क्या रहा है, हाकी खेल रहा है एक लड़का । हाकी में नहीं मारने दोगे इसको लट्ठ, तो यह किसी के सिर पर मारेगा। यह जो गेंद है, यह सिर का काम कर रही है। इसका निकला जा रहा है रजोगुण। दुनिया में विश्वविद्यालय जलाए जा रहे हैं, स्कूल तोड़े जा रहे हैं। वह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि युवकों का रजोगुण नियोजित नहीं होता। और खतरे इसलिए बढ़ गए हैं। रजोगुण तो पहले भी था, लेकिन रजोगुण नियोजित हो जाता था। हम अपने मुल्क में बाल-विवाह कर देते थे । रजोगुण को मौका नहीं रहता था कि जाकर कांच तोड़े, आग लगाए, बसें जलाए, कुछ उपद्रव करे। इसके पहले कि होश सम्हले एक पत्नी बांध देते थे। वह इतना बड़ा वजन है कि उससे बड़ा वजन कोई है ही नहीं । उसको ही ढोओ। उसमें सारा रजोगुण नियोजित हो जाता है। इसके पहले कि अकल में थोड़े-बहुत अंकुर आएं, बच्चे पैदा हो जाएंगे। अब लड़ने-झगड़ने का इनके पास कहीं कोई उपाय नहीं । ये बड़े शांतमूर्ति मालूम पड़ेंगे ! इस भारत में ऐसे ही लोग थे बड़ी संख्या में उसका कारण और कुछ नहीं था। यह नहीं कि लोग धार्मिक थे। कुल कारण इतना था कि रजोगुण को सुविधा नहीं थी। लोग इसके पहले कि उपद्रव कर पाएं, उपद्रव की शक्ति किसी दिशा में संलग्न हो जाती थी । 47 अब सारी दुनिया में बच्चे जवान हो जाते हैं, न तो विवाहित किए जा रहे हैं, न उनके ऊपर कोई जिम्मेवारी है। मां-बाप सुख संपन्न हैं। उनके पास सुविधा है। तो लड़के पच्चीस और तीस साल तक आवारागर्दी कर सकते हैं। यह खतरनाक वक्त है। क्योंकि | वैज्ञानिक कहते हैं, अठारह साल में वीर्य की ऊर्जा अपने शिखर | को छू लेती है । इतनी शक्ति फिर जीवन में दुबारा नहीं होगी, जितनी अठारह साल में होगी। अठारह साल, जब कि शक्ति अपने पूरे तूफान में है, उसका कोई नियोजन नहीं है । उसको कोई दिशा नहीं है बहने के लिए। केतली के नीचे आग जल रही है पूरी ऊर्जा से और ढक्कन बंद है। और निकालने का हम जो रास्ता बताते हैं, वह कोई रास्ता नहीं है, कि हम उनको कहते हैं, युनिवर्सिटी में पढ़ो लिखो किताब ! किताब से कोई ऊर्जा नहीं निकलती । उसमें थोड़े से जो सत्वगुण प्रधान युवक हैं, उनके लिए तो ठीक है। लेकिन बाकी का क्या हो ? पिछले जमाने में तो जो सत्वगुण प्रधान थे, वे ही विश्वविद्यालय तक पहुंचते थे, बाकी जिंदगी में लग जाते थे। अब सभी को विश्वविद्यालय पहुंचाने की सुविधा हो गई है। सौ में कोई पांच सत्वगुण प्रधान होंगे, बाकी जो पंचानबे हैं, उनके साथ बड़ा खतरा है। उस पंचानबे में आधे के करीब रजोगुण प्रधान हैं, जिनकी शक्ति का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। किताब जिनकी शक्ति को नहीं पी सकती, परीक्षाएं जिनकी शक्ति को नहीं पी सकतीं। तो वे परीक्षा और किताब के माध्यम से भी उपद्रव खड़ा कर देंगे। हर परीक्षा के वक्त उपद्रव खड़ा हो जाएगा। यह उपद्रव जो कर रहा है, वह रजोगुण प्रधान है। और बाकी जो आधे बचे तमोगुण प्रधान, वे आलसी हैं। वे कुछ भी न करेंगे। अगर युनिवर्सिटी में आग लग रही है, तो बुझाने वे जाने वाले नहीं; वे खड़े देखते रहेंगे। न वे लगाने वाले को रोकने वाले हैं, न लगने वाली आग को रोकने वाले हैं। आज विश्वविद्यालय में तीन तरह के वर्ग हैं। एक छोटा-सा वर्ग है, जो पीड़ित है । वह सत्वगुण प्रधान है। वह पीड़ित है सबसे | ज्यादा, क्योंकि उसको काम ही करने, वह जो करना चाहता है, कि अध्ययन करे, कि शोध करे, वह कोई करने नहीं दे रहा उसको । पर वह बहुत कमजोर है। क्योंकि वह रजोगुण प्रधान नहीं है कि लड़ सके, उपद्रव कर सके। इसके बहुत पहले कि लड़ने की हालत Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* आए, उसकी आंख पर चश्मा लग जाता है, उसकी कमर झुक जाती है। वह अपना अपनी पुस्तक में, अपने अध्ययन में लगा हुआ है। उसको इस सबका मौका नहीं है। बडा वर्ग है. जो उपद्रव करना चाहता है। क्योंकि उसके पास शक्ति है और शक्ति को बहने के लिए रास्ता चाहिए। फिर तीसरा वर्ग है, जो आलसी है। जो सिर्फ देखता है। जो तमाशबीन हो सकता है ज्यादा से ज्यादा। जो कोई पक्ष नहीं लेता। कुछ भी हो रहा हो, वह देखता रहता है। व्यक्ति में जो भी तत्व प्रमुख होगा, बाकी दो तत्व उसके पीछे संलग्न हो जाते हैं। सत्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म में और तमोगुण प्रमाद में डुबा देता है। इन तीनों गुणों से मुक्ति चाहिए। कैसे तीनों गुणों से मुक्ति हो सकती है, उसकी साधना-विधि में हम आगे प्रवेश करेंगे। और जब भी कोई व्यक्ति तीनों गुणों के बाहर हो जाता है, उसे हमने गुणातीत अवस्था कहा है। वह परम सिद्धि है। इसलिए कृष्ण शुरू में कहते हैं कि हे अर्जुन, जिस परम ज्ञान से सिद्धि उपलब्ध होती है, अंतिम गंतव्य उपलब्ध होता है, वह मैं तुझे फिर से कहूंगा। आज इतना ही। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 चौथा प्रवचन होश : सत्व का द्वार HO Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा । । १० । । सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।। ११ । । लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।। १२ ।। और हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण होता है अर्थात बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है; वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है। इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है। और हे अर्जुन, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ- बुद्धि से आरंभ एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता और विषय-भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं। पहले थोड़े प्रश्न | पहला प्रश्न : आपने कहा कि कृष्ण चाहते हैं अर्जुन मिट जाए और इसीलिए अलग-अलग द्वारों से गीता के अलग-अलग अध्यायों में वे अर्जुन को मिटने का उपाय बता रहे हैं। और आपने यह भी कहा कि कृष्ण अर्जुन का भविष्य जानते हैं। तो यह समझाएं कि यदि कृष्ण पहले से ही जानते हैं कि अर्जुन का भविष्य क्या है, स्वधर्म क्या है, तो फिर इतने सारे विभिन्न मार्गों का अर्जुन को उपदेश क्यों दे रहे हैं? उन मार्गों को क्यों समझा रहे हैं, जो अर्जुन के स्वधर्म के अनुकूल नहीं हैं ? 'श्चय ही कृष्ण जानते हैं अर्जुन का भविष्य; व्यक्ति की तरह नहीं, मनुष्य की तरह। वह जो अर्जुन नाम का | व्यक्ति है, उसका भविष्य नहीं जाना जा सकता । लेकिन वह जो अर्जुन के भीतर छिपी हुई चेतना है, उसका भविष्य 50 जाना जा सकता है। इस अर्थ में तो कृष्ण जैसा व्यक्ति सभी का भविष्य जानता है, आपका भी। क्योंकि वह जो भीतर छिपा हुआ बीज है, उसका अंतिम परिणाम मोक्ष है। वही भविष्य है। वह सभी का भविष्य है। नदी बहती है; वह चाहे गंगा हो, चाहे यमुना हो, चाहे गोदावरी हो, चाहे नर्मदा हो, भविष्य ज्ञात है कि वे सागर में गिरेंगी। हर नदी सागर में गिरेगी। लेकिन प्रत्येक नदी अलग-अलग मार्गों से बहेगी, अलग-अलग पर्वतों को तोड़ेगी, अलग चट्टानों में मार्ग बनाएगी। प्रत्येक नदी का मार्ग तो अलग-अलग होगा, लेकिन अंत एक होगा। मनुष्य का भविष्य ज्ञात है। जैसे बीज का भविष्य ज्ञात है कि वह वृक्ष होगा, वैसे ही मनुष्य का भविष्य ज्ञात है कि वह अंततः परम स्थिति को उपलब्ध हो जाएगा। वही अर्जुन के संबंध में भी ज्ञात है। लेकिन अर्जुन का जो व्यक्तित्व है अज्ञान से भरा हुआ; अर्जुन का जो व्यक्तित्व है अनंत संदेहों, अविश्वासों, शंकाओं, समस्याओं से भरा हुआ; वह जो रुग्ण चित्त है, उस रुग्ण चित्त का कोई भविष्य किसी को भी ज्ञात नहीं है। उस रुग्ण चित्त की यात्रा अनेक ढंग से हो सकती है। इसलिए कृष्ण अनेक मार्गों की बात कर रहे हैं। पहली तो बात यह खयाल में ले लें। अर्जुन भी बहुत तरह से यात्रा कर सकता है। विकल्प अनेक हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही मार्ग होता, सुनिश्चित, तब तो कोई अर्थ न था कृष्ण का इतने मार्गों की बात करने का। लेकिन एक व्यक्ति भी बहुत-सी संभावनाएं लिए हुए है। और हर संभावना का द्वार खुला छोड़ देना जरूरी है, ताकि अर्जुन चुनाव कर सके। और चुनाव के लिए जरूरी है कि सभी मार्ग स्पष्ट हों, अन्यथा भ्रांति हो सकती है। हर मार्ग उसकी परिपूर्णता में स्पष्ट हो जाए, तो अर्जुन का बोध स्वयं ही उस मार्ग को पकड़ने लगेगा, जो मार्ग उसके अनुकूल है। आपके सामने चुनाव होने चाहिए पूरे। अगर एक भी मार्ग आपके सामने न रखा जाए, तो भी आप कुछ चुनेंगे। और यह भी हो सकता है कि जो मार्ग आपके सामने नहीं था, वही आपके लिए निकटतम मार्ग होता । फिर कृष्ण अर्जुन के लिए मार्ग नहीं चुन रहे हैं। सिर्फ अर्जुन को मार्ग दिखा रहे हैं। चुनाव अर्जुन को स्वयं ही करना है। इसे खयाल में ले लें। अंतिम चुनाव सदा आपका है। गुरु इशारे कर सकता है, स्पष्ट कर सकता है, लेकिन चुनाव सदा आपका है। बहुत-से लोग इस भ्रांति में होते हैं। कोई गुरु आपके लिए चुन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होश : सत्व का द्वार नहीं सकता। आपको चुनना पड़ेगा। गुरु सारे मार्ग स्पष्ट कर देगा। उन सारे स्पष्ट मार्गों के बीच निर्णय आपको लेना है। और अगर आप यह तय करते हैं कि गुरु ही हमारे लिए चुने, यही आपका निर्णय है, तो यह निर्णय भी आपका है। अंतिम निर्णायक आप हैं । अगर आप सारे मार्गों के संबंध में समझकर – क्योंकि यह भी एक मार्ग है कि गुरु आपके लिए चुने – यही निर्णय लेते हैं कि गुरु हमारे लिए चुने, तो आपने गुरु को तो चुना। गुरु आपके लिए चुने, यह भी आपने चुना। और अंतिम निर्णायक सदा आप हैं। आत्मा से अंतिम निर्णय नहीं छीना जा सकता। इसलिए जो परम गुरु है, वह सारे मार्ग स्पष्ट कर देगा। वह कुछ भी छिपाकर न रखेगा। बुद्ध ने जगह-जगह बार-बार कहा है कि मेरी मुट्ठी खुली हुई है। उसमें मैंने कुछ भी छिपाया नहीं है। अनेक बार बुद्ध के शिष्यों को लगा है कि बुद्ध जितना कह रहे हैं, पता नहीं वे पूरा कह रहे हैं जो उन्होंने जाना है या कुछ छिपा रहे हैं। आनंद उनसे एक दिन पूछ रहा है कि आपने सब कह दिया जाना है या आपने कुछ छिपाया है? बुद्ध ने कहा, मेरी मुट्ठी खुली हुई है। मैंने कुछ भी नहीं छिपाया । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैंने जो-जो दिखाया है, वह तुम्हें दिखाई पड़ने लगा है। क्योंकि तुम्हारी आंखें पूरी खुली हुई नहीं हैं। मुट्ठी भी पूरी खुली हो, तो भी तो देखने वाले की आंख पूरी खुली होनी चाहिए। कृष्ण की मुट्ठी बिलकुल खुली हुई है। उन्होंने सारे मार्ग अर्जुन के सामने रख दिए हैं, सब विकल्प स्पष्ट कर दिए हैं; और अर्जुन 'को इस चौराहे पर खड़ा कर दिया है कि वह चुनाव कर ले। उन्होंने प्रत्येक मार्ग की पूरी प्रशंसा कर दी है। प्रत्येक मार्ग का पूरा विश्लेषण कर दिया है। किसी मार्ग के साथ पक्षपात भी नहीं किया कि सभी मार्गों में एक श्रेष्ठ है। ऐसा अगर उन्होंने कहा होता, तो उसका मतलब होता कि वे अर्जुन को बेच रहे हैं मार्ग। कोई चीज अर्जुन को बेचना चाहते हैं। स्पष्ट नहीं, सीधे नहीं, परोक्ष मार्ग से अर्जुन को राजी करना चाहते हैं कि तू इसे चुन ले । इसलिए कृष्ण ने सभी मार्गों की जो गरिमा है, वह प्रकट कर दी है, बिना किसी एक मार्ग को सब मार्गों के ऊपर रखे। चुनाव के लिए अर्जुन पूरा स्वतंत्र है। पहला तो इस कारण । ! और दूसरा इस कारण भी, एक बहुत पुरानी अरबी कहावत है कि इसके पहले कि आदमी सही जगह पर पहुंचे, उसे बहुत-से 51 गलत दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। इसके पहले कि कोई आदमी ठीक द्वार पर आ जाए, उसे बहुत-से गलत दरवाजों में भी खोजना पड़ता है। असल में गलत में जाना भी ठीक पर आने के लिए अनिवार्य अंग है। भूल करना भी ठीक हो जाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। यह थोड़ा जटिल है। क्योंकि हम सोचते हैं, जो ठीक है, जो साफ है, वह हमें दे दिया जाए। लेकिन आप समझ नहीं पा रहे हैं। आध्यात्मिक जीवन कोई वस्तु की भांति नहीं कि आपके हाथ में दें। आध्यात्मिक जीवन वस्तु नहीं है, एक ग्रोथ, एक विकास है। और ध्यान रहे, जब भी किसी को विकसित होना हो, तो उसे गलत से भी गुजरना पड़ता है, भ्रांत से भी गुजरना पड़ता है; भटकना भी पड़ता है। भटकाव भी आपको प्रौढ़ता लाता है। जो व्यक्ति भूल करने से डरता है, वह ठीक तक कभी भी नहीं पहुंच पाएगा। डर के कारण वह कदम ही नहीं उठाएगा। भय के कारण वह पंगु हो जाएगा, रुक जाएगा। डर तो सदा है कि गलती हो जाए। और अगर जीवन में डर न हो गलती होने का, तो जीवन में कोई रस ही न हो; जीवन एक मुर्दा चीज हो । सिर्फ मरे हुए आदमी भूल नहीं करते। जिंदा आदमी तो भूल करेगा। और जितना जिंदा आदमी होगा, उतनी ज्यादा भूल करेगा। एक ही बात खयाल रखने की है कि जिंदा आदमी एक ही भूल दुबारा नहीं करेगा। बहुत भूलें करेंगा; लेकिन एक ही भूल दुबारा नहीं करेगा। और जितनी ज्यादा भूलें कर सकें आप, जितनी नई भूलें कर सकें, उतने आप प्रौढ़ होंगे। हर भूल सिखाती है। हर भूल भूलों को कम करती है । हर भूल से आप सही के करीब सरकते हैं। तो एक तो जैसा साधारणतः आलसी मन की आकांक्षा होती है कि गुरु कुछ बना-बनाया, रेडीमेड, हाथ में दे दे। तो आपकी झंझट बच गई। झंझट क्या बच गई ! आपके विकास की सारी संभावना ही समाप्त हो गई। आप कैसे बढ़ेंगे? आपका बीज कैसे अंकुरित होगा? आप कैसे वृक्ष बनेंगे ? तूफान से डरते हैं, हवाओं से डरते हैं, वर्षा से डरते हैं, धूप भी आएगी, सब होगा। उन सबके बीच आप टिक सकें, इसकी सामर्थ्य, इसका साहस चाहिए। कोई आपका हाथ पकड़कर और परमात्मा तक पहुंचा दे, तो आप तो मुर्दा होंगे ही, वह परमात्मा भी मुर्दा होगा जिस तक आप पहुंचेंगे। तो कोई आपका हाथ पकड़कर कहीं पहुंचा नहीं सकता। अर्जुन की भी आकांक्षा यही है कि कृष्ण सीधा क्यों नहीं कह Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * देते! जिम्मेवारी खुद ले लें। सीधी बात कह दें। हां और न में वह सिर्फ आपके भीतर जो विकसित होता है, वह छीना नहीं जा भी उत्तर चाहता है। सकता। ___ हम सभी हां और न में उत्तर चाहते हैं। कई बार मेरे पास लोग इसलिए कृष्ण हां और न में उत्तर नहीं दे रहे हैं। कृष्ण सारे आ जाते हैं; वे कहते हैं, आप सीधा हो और न में हमें कह दें। ईश्वर विकल्प सामने रखे दे रहे हैं। उससे अर्जुन और भी बिगुचन में पड़ है या नहीं? आप हां या न में कह दें। जैसे ईश्वर कोई गणित का गया; और भी उलझन में पड़ा जा रहा है। उसने जितने प्रश्न उठाए सवाल है या तर्क की पहेली है कि हां और न में उसका जवाब हो | थे, कृष्ण ने उनसे ज्यादा उत्तर दे दिए हैं। उसने जो पूछा था, उससे सकता हो! बहुत ज्यादा कृष्ण दिए दे रहे हैं। उससे वह और डांवाडोल.हआ जा ईश्वर तक वही पहुंचेगा, जो न से भी गुजरे, हां से भी गुजरे और रहा होगा। उसकी बेचैनी और बढ़ रही होगी। वह वैसे ही उलझा जो दोनों के पार हो जाए। और उस घड़ी में आ जाए, जहां न तो हां है और इतनी बातें और उलझा देंगी। कहना सार्थक मालूम पड़े, न न कहना सार्थक मालूम पड़े। वही मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं, हम आपको नहीं सुने थे, पहुंच पाएगा। तभी ठीक थे। आपको सुनकर हम और भी उलझ गए हैं। आप जो सोचे कि न कहने से बच जाऊं, सिर्फ हां कह , उसकी इतनी बातें कहे चले जा रहे हैं! आप हमें कुछ साफ-साफ कह दें; आस्तिकता लचर और कमजोर होगी। जो आस्तिकता न की अग्नि निश्चित कह दें। और वही करने को हमें बता दें। से नहीं गुजरी है, वह कचरा है; उसमें से कचरा तो जल ही नहीं | - आपको पता नहीं, आप अपनी आत्महत्या मांग रहे हैं। आप पाया, सोना तो निखर नहीं पाया। | जीने से डरे हुए हैं। आप मरे-मराए सूत्र चाहते हैं। कोई कृष्ण, कोई और जो नास्तिकता सिर्फ न पर रुक गई और हां तक नहीं पहुंची, बुद्ध आपके साथ आपकी आत्मघाती वृत्ति में सहयोग नहीं दे उस नास्तिकता में कोई प्राण नहीं है। क्योंकि न में कोई प्राण नहीं सकता है। होते। प्राण तो हां से आते हैं। वह नास्तिकता सिर्फ बौद्धिक होगी; अर्जुन चाहे और बेचैन हो जाए, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि आप उससे जीवंत आंदोलन, भीतर की क्रांति, रूपांतरण संभव नहीं है। ठीक से बेचैन हो जाएं, तो आप चैन के मार्ग को खोजने में तत्पर हां और न दोनों से गुजरकर जो दोनों के पार हो जाता है, वह हो जाएंगे। शायद और उलझ जाए, कोई हर्जा नहीं है। भय क्या पहली दफा धार्मिक होता है। लेकिन वह धार्मिकता बड़ी विराट है। है? इस और उलझन से सुलझाने की जो चेष्टा होगी, उससे अर्जुन की आकांक्षा है कि कृष्ण कुछ कह दें सीधा सूत्र, | आपका भीतरी विकास होगा, अंतःप्रज्ञा जगेगी। संघर्ष से ही उस फार्मूला। वह खुद विकसित नहीं होना चाहता। कोई भी विकसित भीतर की अंतःप्रज्ञा का जन्म है। नहीं होना चाहता। | तो कृष्ण सब उपस्थित किए दे रहे हैं, और अर्जुन पर छोड़े दे मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप कुछ कर दें कि मन रहे हैं कि वह चुने। वे सूत्र भी ठसे दे रहे हैं वे, जिन्हें अर्जुन चुने, शांत हो जाए। अशांत तुमने किया, जन्मों-जन्मों में। मेरा उसमें जरा तो भटकेगा; जिनसे उसके स्वधर्म का कोई मेल नहीं है। वे सूत्र भी भी हाथ नहीं। शांत मैं करूं! यह हो नहीं सकता। और जो कहता दे रहे हैं, जिन्हें अर्जुन चुन ले, तो वह मार्ग पर चल पड़ेगा। लेकिन है कि ऐसा करेगा, वह आपको धोखा दे रहा है। और वह आपको कृष्ण बिलकुल बिना पक्षपात के दोनों बातें कहे दे रहे हैं। और इस जीवन को भी अशांति में बिताने का उपाय किए दे रहा है। कृष्ण सिर्फ कह ही नहीं रहे हैं, कहते वक्त वे देख भी रहे हैं, __ अगर यह हो सकता है कि कोई और आपके मन को शांत कर अर्जुन का निरीक्षण भी कर रहे हैं; अर्जुन को जांच भी रहे हैं, वह दे, तो ध्यान रखना, वह शांति बहुत कीमत की नहीं है। क्योंकि कोई | किस तरफ झुकता है! क्यों झुकता है! आपको अशांत कर सकता है फिर। उस शांति के आप मालिक नहीं | गुरु के लिए यह भी जानना जरूरी है कि शिष्य कहां-कहां झुक हैं. जो दसरे ने आपको दी है। वह छीनी भी जा सकती है। और सकता है: क्या-क्या चन सकता है। क्या गलत की तरफ उसकी ऐसी शांति का क्या मूल्य, जो छीनी जा सके। ऐसे अध्यात्म का | वृति हो सकती है? या कि सही के प्रति उसका सहज झुकाव है। क्या मूल्य है, जो कोई दे और कोई ले ले! जिसका दान हो सके, | कृष्ण अगर बोल ही रहे होते, तो भी एक बात थी। पूरे समय जिसकी चोरी हो सके। | अर्जुन कृष्ण के सामने जैसे एक प्रयोगशाला की टेबल पर लेटा हो, 52 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * होशः सत्व का द्वार * जहां उसका डिसेक्शन भी हो रहा है, जहां उसके शरीर के | | है। क्योंकि हो सकता है कि मैं कहूं, तू खिड़की के बाहर कूद जा। टुकड़े-टुकड़े तोड़े जा रहे हैं, जहां उसके मन को तोड़ा जा रहा है। नहीं, वह आदमी बोला कि नहीं-नहीं; आप ऐसा कैसे कह और कृष्ण की गहरी आंखें उसको देख रही हैं कि वह क्या कर | सकते हैं! आप ऐसा कभी नहीं कह सकते। रहा है! उसके ऊपर क्या प्रभाव पड़ते हैं ! जब कृष्ण कुछ कहते हैं, | कृष्ण अर्जुन के सामने सारी बातें रख रहे हैं। और सारी बातों का तो उसके चेहरे पर क्या आकृति आती है! उसके भीतरी प्रभामंडल | | अर्जुन पर क्या परिणाम हो रहा है, क्या प्रतिक्रिया हो रही है, वह में क्या घटनाएं घटती हैं! उसके आस-पास चेहरे का जो | कैसे संवेदित हो रहा है; कब आनंदित होता है; कब दुखी होता है; प्रकाश-वर्तुल है, उस पर कौन से रंग फैल जाते हैं! कब विषाद से भरता है; कब झुकता है; कब अकड़ा रह जाता है; यह एक गहरा निदान है, जहां अर्जुन ठीक एक्सरे के सामने उस सब की जांच भी चल रही है। खड़ा है। और जहां उसका रो-रोआं जांचा जा रहा है। अर्जुन को | इसके पहले कि अर्जुन पहुंचे निर्णय पर, कृष्ण को पता चल शायद इसका पता भी न हो। अर्जुन शायद सिर्फ सोच रहा हो कि | | जाएगा कि वह क्या निर्णय ले रहा है। उसके मन का कांटा पूरे वक्त मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए जा रहे हैं। कोई गुरु सिर्फ आपके प्रश्नों के | डोल रहा है; निर्णय के करीब पहुंच रहा है। और यह मन अगर उत्तर नहीं देता। प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से आपको परखता है, | | सिर्फ चेतन ही होता, तो अर्जुन इसे पहले समझ लेता। यह मन जांचता है, तोड़ता है, पहचानता है। आपके झुकाव देखता है। अचेतन भी है। उसे अर्जन नहीं समझ पाएगा। लेकिन उसे कृष्ण मेरे पास लोग आते हैं। कोई मेरे पास कुछ दिन पहले आया, | समझ पाएंगे। उसने कहा कि जो भी आप कहें, मैं करने को राजी हूं। वह यह कह | | अर्जुन जैसे ही निर्णय के करीब पहुंचने लगेगा, उसके मन का रहा है, लेकिन उसका पूरा व्यक्तित्व इसका इनकार कर रहा है। | कांटा ठहरने लगेगा, उसके चारों तरफ की आभा और सुगंध और उसके चेहरे पर यह कहते वक्त कोई प्रसन्नता का भाव नहीं है, कोई | | व्यक्तित्व बदलने लगेगा। और इसके पहले कि वह कहे कि मैं आनंद की झलक नहीं है। वह धोखा दे रहा है। उसके कहने पर | | निर्णय पर आ गया, कि तुमने मेरे सारे संदेह दूर किए, कि मेरी भरोसा करने का कोई कारण नहीं है। वह कहने के लिए कह रहा | | निष्पत्ति मुझे उपलब्ध हो गई, कृष्ण इसके पहले जान लेंगे। है, शायद औपचारिक। शायद उसका यह मतलब भी नहीं है। ध्यान रहे, आपके गहरे अचेतन में जो घटता है, उसको शायद उसने ठीक से सोचा भी नहीं है कि वह क्या कह रहा है कि | आपको भी पता लगाने में समय लग जाता है। कई दफे तो वर्षों जो आप कहेंगे, वह मैं करूंगा! लग जाते हैं। यह बहुत बड़ा वक्तव्य है। और बड़े निर्णय की सूचना है। और आज ही एक युवती ने मुझे आकर कहा; किसी के घर में मेहमान संकल्पवान व्यक्ति ही ऐसा आश्वासन दे सकता है। है। जिसके घर में मेहमान है, वह आदमी उस युवती को लगता है, . और इसके कहने के बाद ही वह व्यक्ति मुझे कहता है कि कोई कुरूप है। आकर्षण तो नहीं, विकर्षण पैदा होता है। उसे देखकर मुझे रास्ता बताएं, क्योंकि मैं कोई निर्णय नहीं ले पाता। और ही उसको घबड़ाहट होती है। उससे बात करने का मन नहीं होता। संकल्प मेरा बड़ा कमजोर है। सुबह तय करता हूं, दोपहर बदल | वह पास बैठे, तो बेचैनी और सिकुड़ाव पैदा होता है। उस व्यक्ति जाता हूं। से एक रिपल्शन है, एक गहरा विकर्षण है। उस युवती ने मुझे उसे पता नहीं कि वह क्या कह रहा है। और जब वह कहने लगा | आकर कहा, लेकिन कल रात उसके मन में उस व्यक्ति के प्रति प्रेम कि सुबह तय करता हूं, दोपहर बदल जाता हूं, संकल्प की कमी का भाव उठने लगा। और उससे वह बहत घबड़ा गई है। है, निर्णय पक्का नहीं है, तब उसके चेहरे पर ज्यादा आभा है, सुबह मेरे पास रोती हुई आई और उसने कहा कि मैं बहुत घबड़ा ज्यादा प्रसन्नता है। अब वह सच के ज्यादा करीब है। पहले वक्तव्य | | गई हूं, क्योंकि उस व्यक्ति को तो मैं देख भी नहीं सकती। वह के समय वह जैसे बेहोश था; होश में नहीं बोला था। कुरूप है; भद्दा है; घृणोत्पादक है; वीभत्स है। रात लेकिन मेरे मन मैंने उससे कहा कि तू अपना पहला वक्तव्य फिर से दोहरा। | में उसको प्रेम करने का भाव उठने लगा। तो मैं अपने मन से घबड़ा क्योंकि अगर दूसरी बात सही है, तो तू पहले कैसे कह सकता है मुझे | | गई हूं कि यह भाव मेरे मन में कैसे उठा! आकर कि जो आप कहेंगे वह मैं करूंगा? यह तो बहुत बड़ा निर्णय | यह भाव अचानक नहीं उठ गया। कुछ भी अचानक नहीं उठता। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * यह भाव अचेतन में संगृहीत हो रहा होगा। आते-आते, जैसे बीज | कृष्ण के लिए अर्जुन पारदर्शी है, ट्रांसपैरेंट है। टूटता है, अंकुर जमीन तक आते-आते समय लगता है, ऐसे | ___ इसलिए ज्ञानी के पास अज्ञानी को एक तरह का भय लगता है। अचेतन से चेतन तक खबर आने में समय लगता है। | वह भय बिलकुल स्वाभाविक है। आप ज्ञानी के पास जाने से बचते और शायद यह जो उसका भाव है विकर्षण का कि यह व्यक्ति | | भी हैं, डरते भी हैं। उस भय और बचाव के पीछे कारण है। क्योंकि आकर्षक नहीं है; घृणा पैदा होती है; यह शायद सिर्फ रक्षा का | | जो-जो आपके भीतर छिपा है, जो-जो आपने छिपा रखा है, जिसे उपाय है। वह जो भीतर से अंकुर आ रहा है इस व्यक्ति के प्रति | | आपने अपने से ही छिपा रखा है, जिसे आप भूल ही चुके हैं कि आकर्षण का, उससे अपने को बचाने के लिए कवच है। चेतन मन आपके भीतर है, वह भी ज्ञानी की आंख के सामने उभरने लगेगा ने एक कवच बना लिया है। जिससे हम बचना चाहते हैं, उसके | | और प्रकट होने लगेगा। आप अपने को छिपा न पाएंगे। प्रति हम बरे भाव ले लेते हैं। ___ और कोई आपको आर-पार देख ले, तो बेचैनी अनुभव होगी। __ असल में बुरे भाव हम तभी लेते हैं, जब हम आकर्षित हो जाते कोई आपकी आंखों में उतरकर आपको भीतर तक पकड़ ले, तो हैं। विकर्षण कभी पैदा नहीं होता; पहले आकर्षण पैदा होता है। | आप बहुत चिंता में पड़ जाएंगे। क्योंकि आप आश्वस्त नहीं हैं अपने घृणा कभी पैदा नहीं होती; पहले प्रेम पैदा होता है। शत्रु कोई पहले | | रूप से। और आप निर्भय रूप से अपने को स्वीकार भी नहीं किए नहीं बना सकता; पहले तो मित्र बनाना ही होगा, तब ही हम किसी | हैं। बहुत-सा हिस्सा अस्वीकृत है, जिसको आपने अपने ही तलघरों को शत्रु बना सकते हैं। में छिपा रखा है। वह आप भी जानते हैं कि गंदा है। उसे कोई जान लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किसी आदमी को देखकर ही ले, उसे कोई उघाड़ दे, उसे कोई पहचान ले; आप छिपाए हुए हैं। हमें लगता है कि शत्रुता का भाव मालूम होता है; उसका मतलब __ आपने अपने असली चेहरे को न मालूम कहां छिपा रखा है। है कि उस आदमी को देखते ही पहले अचेतन में मित्रता का भाव | आपने कुछ मुखौटे पहन रखे हैं। पैदा हो गया। कृष्ण इन सारी चर्चाओं के बीच अर्जुन को बहुत-बहुत ढंग से शत्रुता सीधी पैदा नहीं हो सकती, वह मित्रता के बाद ही पैदा हो | उघाड़ रहे हैं। वे उसकी भीतरी प्रतिक्रियाओं को, संवेदनाओं को सकती है। और घणा भी सीधी पैदा नहीं होती. वह प्रेम के बाद ही पकड रहे हैं। वे उसके मन के कांटे को देख रहे हैं कि वह किस पैदा हो सकती है। इसीलिए घृणा, शत्रुता नकारात्मक हैं, निगेटिव | तरह डांवाडोल होता है, वह कहां जा रहा है। और इसके पहले कि हैं। निगेटिव कभी सीधा पैदा नहीं होता; पहले पाजिटिव चाहिए। | अर्जुन निर्णय पर आए...। क्या आप सोच सकते हैं कि कोई आदमी जन्मे ही नहीं और मर | और वह निर्णय क्रांतिकारी होगा। क्योंकि जब संशय गिरता है जाए! मरने के पहले जन्म जरूरी है। क्योंकि मृत्यु नकारात्मक है। | और असंशय श्रद्धा पैदा होती है, तब एक महान आनंद का क्षण मृत्यु होगी किसकी? जीवन में उपस्थित होता है। जब सारी अश्रद्धा टूट जाती है और अगर प्रेम पैदा नहीं हुआ, तो घृणा होगी कैसे पैदा? और अगर | परम आस्था का उदय होता है, तो यह एक जन्म है, एक महाजन्म आकर्षण पैदा नहीं हुआ, तो विकर्षण का कोई उपाय नहीं है। अगर है, अंधकार के बाहर, प्रकाश में। सारा भटकाव समाप्त हुआ। कोई मरे, तो मान लेना चाहिए कि वह जन्म गया होगा। बिना जन्मे | | मंजिल आंखों के सामने आ गई। अब कितनी ही दूर हो, चलने की तो कोई मर नहीं सकता। मृत्यु जन्म का आखिरी छोर है। विकर्षण | ही बात है। लेकिन मंजिल पर कोई शक न रहा। आकर्षण का आखिरी छोर है। आकर्षण पहले अचेतन में पैदा हो | __ और जब ऐसी घड़ी आती है, तो गुरु, इसके पहले कि शिष्य को जाएगा, तो हम उससे बचने के लिए विकर्षण की परिधि बना लेंगे। | पता चले, जान लेता है। क्योंकि शिष्य का पूरा आभामंडल, उसका अब वह भीतर की चोट चेतन तक आ गई, तो अब घबड़ाहट | | पूरा व्यक्तित्व बदलने लगता है। जहां वह अशांत था, वहां शांत पैदा हो गई है। अब डर पैदा हो गया है। होने लगता है। जहां वह बेचैन था, वहां एक चैन की हवा उसके आपके भीतर भी क्या पैदा होता है, इसको आपको भी पता चारों तरफ पैदा हो जाती है। जहां वह दौड़ रहा था, अब ठहर गया। लगाने में कभी-कभी वर्षों लग जाते हैं। लेकिन अर्जुन के भीतर जहां लगता था, जीवन व्यर्थ है, कुछ सार नहीं, वहां लगता है कि क्या हो रहा है, इसको पता लगाने में कृष्ण को वर्षों नहीं लगेंगे। | परम निधि उपलब्ध हो गई; कोई खजाना मिल गया, जो कभी भी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * होशः सत्व का द्वार * जाती है। चुकेगा नहीं। जहां कंपन था भय का, वहां अभय की थिरता आ| कृष्ण, अर्जुन इस क्षण में, मौजूद क्षण में कैसा डांवाडोल हो रहा है, उसका मन किन दिशाओं में भटक रहा है, उसे भी देख रहे हैं। जैसे तूफान अचानक शांत हो गया हो और दीए की लौ थिर हो वे क्या कह रहे हैं, उसके प्रति अर्जुन के क्या उत्तर और क्या संदेह गई हो और जरा भी न कंपती हो, ऐसे शिष्य के भीतर की चेतना ठहर | उठ रहे हैं, वे भी उनके सामने हैं। लेकिन वे एक व्यूह रच रहे हैं। जाती है। इसे वह खुद पहचाने इसमें देर लगेगी, कई कारणों से। एक एक तो महाभारत का व्यूह था, जो अर्जुन ने रचा है। और एक तो इस कारण भी कि यह अनुभव उसके लिए पहला है। इसको उससे भी बड़े युद्ध का व्यूह कृष्ण अर्जुन के आस-पास रच रहे हैं। रिकग्नाइज करने का, इसकी प्रत्यभिज्ञा का उसके पास कोई उपाय | बिना धकाए अर्जन को परम मंदिर में प्रविष्ट करवा देना है। और नहीं है। यह वह पहली दफा जान रहा है। अगर इसने इसके पहले अर्जुन को पता भी न चले कि किसी ने उसे किसी भी तरह से भी जाना होता, तो वह तत्क्षण पहचान लेता कि क्या हो रहा है। । जबरदस्ती की है। इसलिए कई बार तो ऐसा हआ है कि कोई साधक अगर अकेले | ध्यान रहे कि अगर मोक्ष में आप जबरदस्ती भेज दिए जाएं, तो में इस क्षण के करीब भी आ जाता है, तो चूक जाता है। इसलिए मोक्ष नरक हो जाएगा। नरक में भी आप अपनी चेतना से और गुरु बड़ा अपरिहार्य हो जाता है। क्योंकि वह पहचान ही नहीं पाता | | अपने चुनाव से जाएं, तो नरक भी स्वर्ग हो सकता है। क्योंकि कि क्या हो रहा था। वह मंजिल के बिलकुल करीब आकर भी | | स्वतंत्रता अंतिम बात है। स्वतंत्रता से कोई नरक में भी चला जाए, रास्ता मुड़ सकता है उसका। वह एक कदम पर, और मंदिर के तो भी सुखी होगा। और परतंत्रता से कोई स्वर्ग में भी चला जाए, भीतर हो जाता, कि वह बाएं मुड़ गया। उसे पता नहीं था कि एक | | तो दुखी हो जाएगा। ही कदम पर मंदिर करीब है। __परमात्मा के पास आपको अपनी निजता से ही पहुंचना चाहिए। गुरु पास हो, तो यह भटकाव बचा सकता है। वह फिर एक | | तो गुरु इशारे कर सकता है; परोक्ष व्यवस्थाएं दे सकता है; परिस्थिति पैदा कर देगा, जिससे कदम दाएं मुड़े, बाएं न मुड़ जाए। | परिस्थितियां पैदा कर सकता है। लेकिन सीधा आपको घसीट नहीं मोड़ नहीं सकता पैर को, लेकिन विकल्प उपस्थित कर सकता है। सकता। तो कृष्ण इन अठारह अध्यायों में क्रमशः बहुत-से विकल्प मौजूद कर रहे हैं। यह एक सूक्ष्म प्रक्रिया है, जिसमें अर्जुन को वे मार्ग दिखा रहे हैं। अर्जुन कैसा चल रहा है, कहां चल रहा है, वह दूसरा प्रश्नः मुझे लगता है कि प्रमाद मुझ पर भारी उन्हें बोध है। वह जैसे-जैसे कदम उठाता है. वैसे-वैसे वे नई बातें. है। उससे हलका होने के लिए क्या किया जाए? नए तत्व और नए जीवन के द्वार उसके सामने खोलते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता, जैसे कोई छोटे बच्चे को किसी अनजान रास्ते पर ले जा रहा हो, वैसे कृष्ण अर्जुन को ले चल रहे हैं। 7 माद के प्रति जागरूकता! और कठिनाई इसलिए बढ़ जाती है कि छोटे बच्चे का तो हाथ प्र करने से प्रमाद दूर नहीं होगा। छिप सकता है। जैसे पकड़कर भी हम ले जा सकते हैं। आत्मिक जीवन की राह पर किसी कोई आलसी आदमी बैठा है। हम आमतौर से उससे पर कोई जबरदस्ती नहीं की जा सकती। दूसरे की स्वतंत्रता को | | क्या कहें कि उसका आलस्य टूट जाए! हम कहें कि कुछ करो। परिपूर्ण रूप से सुरक्षित रखकर ही काम करना पड़ता है। ___ ध्यान रहे, आलस्य है तम; हम उसे कुछ काम में लगा सकते इसलिए गुरु का काम अति दुरूह है। अनुशासन भी देना है उसे | | हैं। लेकिन काम में लगाना होगा रज। तो तमोगुणी को रजोगुणी और स्वतंत्रता को कायम भी रखना है। तुम्हें मिटाना भी है और | | बनाना बहुत कठिन नहीं है। वह निष्क्रिय बैठा है, उसे सक्रियता में तुम्हारी गरिमा को नष्ट नहीं होने देना है। तुम्हारा गौरव जरा भी न | | जुटाया जा सकता है। असली सवाल तमोगुणी से रजोगुणी बन छू पाए, और तुम्हारा अहंकार बिलकुल नष्ट हो जाए। तुम्हारा | जाने का नहीं है। असली सवाल, चाहे आप रजोगुणी हों, चाहे कचरा तो जल जाए, लेकिन तुम्हारे सोने में कण भी न खोए। तमोगुणी हों, सत्वगुणी बनने का है। और सत्वगुणी बनने का एक इसलिए कृष्ण अर्जुन की आंतरिकता का भविष्य जानते हैं। । ही उपाय है कि आप जागरूक हों। जो भी स्थिति है, उसके प्रति Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * जागरूक हों। रिटायरमेंट जिस दिन होता है, उसी दिन उम्र से कम हो जाते हैं। एक आलसी आदमी बैठा है, तो हम उससे कहेंगे कि तू अपने | क्योंकि नशा छिन जाता है। और जिंदगीभर का नशा था, आलस्य के प्रति सजग हो जा। भीतर से तू जान, पहचान, और | | काम-काम, सुबह से सांझ तक काम। अचानक एक दिन आप पाते देख। आलस्य को छिपा मत। और आलस्य को युक्तियां खोजकर हैं कि कोई काम नहीं बचा। नशा टूट जाता है। ढांक मत। तर्क मत खोज। आलस्य को उसकी नग्नता में देख। काम भी एक नशा है। बहुत-से लोग इसीलिए काम में लगे रहते और कुछ भी मत कर, सिर्फ देख। हैं कि काम में न लगें, तो वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। खाली अगर दर्शन की यह क्षमता, साक्षीभाव का यह उपाय आलस्य नहीं बैठ सकते। कुछ हैं, जो खाली बैठ सकते हैं, काम में नहीं जा पर लागू हो जाए, तो यह व्यक्ति सत्व में सरक जाएगा। | सकते। क्योंकि उनको लगता है, काम में गए तो उनकी नींद टूटती __और यही हम कहेंगे रजोगुणी को भी, जो सक्रियता में डूबा हुआ है। नींद में उन्हें सुख मालूम पड़ता है, बेहोशी का। है। उससे भी हम कहेंगे कि तू अपनी सक्रियता के प्रति सजग हो | । ये दोनों अलग-अलग तरह के लोग नहीं हैं। एक ही तरह के जा; तू अपने कर्म का जो पागलपन है, उसके प्रति जाग जा; होश | लोग हैं। सिर्फ एक-दूसरे से उलटे खड़े हैं। एक शीर्षासन कर रहा से भर। तो रजोगुणी भी होश के माध्यम से सत्व में प्रवेश करता | है और एक पैर के बल खड़ा है। है। होश सत्व का द्वार है। वह जो तामसी है, वह पड़ा रहता है अपनी नींद में, क्योंकि नींद और ध्यान रहे, रजोगुणी और तमोगुणी तो एक-दूसरे के ही रूप | उसे नशा है। जब भी वह काम में लगता है, तो नशा टूटता है। जो हैं। एक शीर्षासन कर रहा है; एक पैर के बल खड़ा है। एक | | काम में लगा हुआ आदमी है, वह रात में सो भी नहीं सकता। रात सक्रियता में पागल है। और एक निष्क्रियता में डूबा हुआ मूर्छित में भी उसका मन काम करता है। उसको नींद मुश्किल है। उसका पड़ा है। दोनों मूछित हैं। जो आलस्य में पड़ा है, वह इसलिए | काम ही उसका नशा हो गया है। मूर्छित है कि उसके चारों तरफ एक निद्रा का वातावरण है। और | ___ इसलिए तमोगुणी को रजोगुणी में बदलने का कोई सार नहीं है। जिसको हम सक्रिय देखते हैं, वह भी मूर्छित है, क्योंकि क्रिया भी रजोगुणी को तमोगुणी में बदलने का कोई सार नहीं है। दोनों को मूर्छा लाती है। अगर आप जोर से किसी क्रिया में लग जाएं, तो | | ही सत्वगुणी में बदलने का सार है। और सत्वगुण में जाने का सूत्र स्वयं को भूल जाते हैं। है, होश। वह अभी हम कृष्ण के वचन में चलेंगे, तो खयाल में अक्सर ऐसा होता है कि जब तक कोई राजनीतिज्ञ पदों पर होता आ जाएगा। है, तब तक बिलकुल स्वस्थ मालूम होता है। जैसे ही पदों से हटता | सूत्रः है, कि बीमार होना शुरू हो जाता है। राजनीतिज्ञ पदों से हटकर और हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहते। पदों पर जिंदा रहते हैं। और न केवल | | होता है अर्थात बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर जिंदा रहते हैं, बड़े स्वस्थ रहते हैं। और कई दफे चकित होना पड़ता | तमोगुण बढ़ता है; वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर है, क्योंकि इतने पागलपन के चक्कर में भी उनका स्वास्थ्य अनूठा | | रजोगुण बढ़ता है। मालूम पड़ता है। जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता लेकिन कारण है उसका। कारण उसका यही है कि उन्हें कभी और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए अपना खयाल ही नहीं आता। काम में इस तरह डूबे हैं कि काम एक | कि सत्वगुण बढ़ा है। नशा है, एक शराब है। तो सत्वगुण का एक ही लक्षण है, चेतनता। जब आप होश से आप भी जब तक काम में लगे हैं, तब तक सोचते हैं कि कब भरे हैं, तब जानना कि सत्वगुण बढ़ा है। सत्वगुण चाहिए हो, तो विश्राम मिल जाए। लेकिन जिस दिन रिटायर हो जाएंगे, उस दिन | | जितना ज्यादा आप होशपूर्वक हो सकें, उतना शुभ है। जो भी आप अचानक पाएंगे कि दस साल उम्र आपकी कम हो गई। | करें, क्षुद्र से क्षुद्र या बड़े से बड़ा काम, वह होशपूर्वक हो, उसमें मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी अस्सी साल जीता, वह | कांशसनेस हो, उसे करते वक्त आप जागे हुए करें, सो न जाएं। रिटायर होने के बाद सत्तर साल में मर जाएगा। दस साल, जितनी जागरूकता की मात्रा बढ़ेगी, उतना आपके भीतर सत्वगुण Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * होशः सत्व का द्वार * ज्यादा हो जाएगा; उतने आप साधु, उतने आप सात्विक हो जाएंगे। | शासक हो गया। तो सेवक था, शायद मजबूरी थी इसलिए। अब यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि कृष्ण जैसा कह रहे हैं, ऐसा कोई सेवक बनने को तैयार नहीं। या अब भी अगर कोई सेवक आमतौर से धार्मिक लोग नहीं समझते हैं। धार्मिक लोग समझते हैं, बनता है, तो साधन की तरह, क्योंकि शासक तक जाने का रास्ता अच्छे काम करो, तो सात्विक हो जाएंगे। कृष्ण लेकिन अच्छे काम | सेवक होने से गुजरता है। को कुछ जगह नहीं दे रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, होशपूर्वक! चाहे करो अगर आपकी गर्दन दबानी हो, तो पैर दबाने से शुरू करना और चाहे न करो, लेकिन होशपूर्वक रहो, तो सात्विकता पैदा होगी। | चाहिए। धीरे-धीरे आप आश्वस्त हो जाते हैं कि आदमी पैर ही दबा तो एक आदमी खाली भी बैठा हो और होश से भरा हो, तो | | रहा है, कोई खतरा नहीं है। जैसे ही आप आश्वस्त होते हैं, वह सात्विक होगा। और एक आदमी समाज की सेवा कर रहा हो, आदमी आगे बढ़ता चला जाता है। जब तक आपकी गर्दन तक मरीजों की अस्पताल में देखभाल कर रहा हो और होशपूर्वक न हो, आता है, तब तक आप सोए होते हैं; तब दबाने में कोई अड़चन तो सात्विक नहीं होगा। आप अपनी जान भी दे दें सेवा में, लेकिन नहीं रह जाती। सीधे गरदन को ही दबाना कोई शुरू करे, तो आप होश न हो, तो आप सात्विक नहीं होंगे। और आप कभी जिंदगी में | भी चौंक जाएंगे। आप भी कहेंगे, यह किस तरह की सेवा है? किसी की सेवा न किए हों, आलस्य में बैठे रहे हों, लेकिन भीतर शासक बनना हो, तो पैर दबाने से शुरू करना आसान पड़ता आलस्य के होश जगा रहा हो, तो आप सात्विक होंगे। है। सेवा भी सत्ता में पहुंचने का उपाय हो जाती है। इस मुल्क में इसका यह मतलब नहीं है कि सात्विक आदमी अच्छे काम नहीं | हुई। सभी जगह होगी। लेकिन भ्रांति सेवकों में नहीं थी; सेवकों को करेगा। सात्विक ही अच्छे काम कर सकता है। लेकिन सात्विकता जो समझाया गया, उस मूल सूत्र में थी। अच्छे काम करने से नहीं आती; अच्छे काम सात्विकता से आते हैं। सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म सेवा है। तो जो जितना जागा हुआ है, वह उतना प्रेमपूर्ण होगा। वह उतना तो जो व्यक्ति जितना सचेतन हो जाएगा भीतर, उसके जीवन से करुणामय होगा, वह उतना तत्पर होगा कि किसी का दुख मिटा | जो भी होगा, वह शुभ होगा। फिर जरूरी नहीं है कि वह सेवा करे सके, तो मिटाने की कोशिश करे। यह सेवा पैदा होगी उसकी | ही। क्योंकि रमण ने किसी की कोई सेवा नहीं की ज्ञात में। कोई नहीं जागरूकता से; उसकी जागरूकता का परिणाम होगी। कह सकता कि उन्होंने किसी का पैर दबाया, कोढ़ी की मालिश की। लेकिन इससे बडी भ्रांति पैदा हुई है। इससे ऐसा लगता है कि रमण बिलकल खाली बैठे रहे। प्रत्यक्ष में तो कोई सेवा रमण ने नहीं जो सेवा कर रहा है, वह सात्विक हो गया। इस भ्रांति को गांधी ने | की। अप्रत्यक्ष में की। लेकिन वह तो केवल वे ही देख सकते हैं, इस देश में काफी जोर दिया। अच्छा काम करो। समाज का, देश जिनको अप्रत्यक्ष देखना आता हो। का, दरिद्र का, दीन का कुछ हित करो, कल्याण करो, यही साधुता अगर सेवकों में गिनना हो, तो गांधी को, विनोबा को गिना जा का लक्षण है। सेवा धर्म है, गांधी ने कहा। | सकता है। रमण को कोई भूलकर नहीं गिनेगा। सेवा कहीं दिखाई शब्द बड़े अच्छे हैं। और जिनके पास बहुत गहरी परख नहीं है, | नहीं पड़ती। लेकिन जो भी व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो जाता है, उन्हें बिलकुल ठीक लगेंगे। लेकिन बिलकुल विपरीत हैं। धर्म सेवा | उससे कल्याण तो होता ही है। है; लेकिन सेवा धर्म नहीं है। धार्मिक व्यक्ति से सेवा उठेगी; कुछ हैं जो स्थूल कल्याण में लगते हैं, कुछ हैं जो सूक्ष्म कल्याण लेकिन कोई सेवा को ही साध ले, तो धार्मिक हो जाएगा, इस भूल में लग जाते हैं। उनकी मौजूदगी कल्याण का महास्रोत हो जाती है। में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसका परिणाम भी सामने है, उनके आस-पास से गुजरने वाले लोग, जहां तक उनकी हवाएं लेकिन फिर भी मुल्क जागता नहीं। उनकी खबर को ले जाती हैं, उनके अस्तित्व की सुगंध को ले जाती गांधी ने जितने सेवक पैदा किए थे, वे सब शोषक सिद्ध हुए। | हैं, वहां-वहां तक न मालूम कितने जीवन रूपांतरित होते हैं। जिनको उन्होंने तैयार किया था सब कुछ छोड़ देने के लिए, त्याग | निश्चित ही वे किसी के शरीर की बीमारी दूर करने नहीं जाते। के लिए, वे सत्ताधिकारी हो गए और उन्होंने सब कुछ पकड़ लिया। | लेकिन शरीर से गहरी बीमारियां हैं। और शरीर को बिलकुल स्वस्थ छोड़ने की तो बात ही अलग हो गई। कर दिया जाए, तो भी वे बीमारियां नहीं मिटती हैं। उन बीमारियों जैसे ही मुल्क से सत्ता बदली, जो सेवक था, वह अचानक को दूर करने का अपरोक्ष, अप्रत्यक्ष आयोजन उनकी मौजूदगी से Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * होता रहता है। लेकिन वह सूक्ष्म कला है; सभी उसमें कुशल नहीं है; सभी को दिखाई नहीं पड़ सकती। हो सकते। सत्व जब पैदा होता है, तो शुभ आचरण में अपने आप आता है। बुद्ध का शिष्य है, महाकाश्यप। बुद्ध ने सभी शिष्यों को भेजा | | हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा कि जाओ, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, लोगों को समझाओ, | होता है। लोगों को जगाओ। लेकिन महाकाश्यप को कभी नहीं भेजा। । इस प्रक्रिया को समझ लेना चाहिए कि ये गुण कैसे काम करते सारिपुत्र को भेजा, मौदगल्यायन को भेजा। और सैकड़ों शिष्य थे, | हैं। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है। ये उनको भेजा कि तुम जाओ, लोगों को जगाओ; लोगों को ज्ञान दो, | तीनों गुण सभी के भीतर मौजूद हैं। कोई गुण बाहर से लाना नहीं ध्यान दो; लोगों को करुणा का सूत्र दो; लोगों को सजग बनाओ। | है। तीनों गुण भीतर मौजूद हैं। और तीनों गुणों में जो ऊर्जा काम लेकिन महाकाश्यप को कभी नहीं भेजा। करती है, वह भी मौजूद है। वह ऊर्जा एक है। ये तीन गुण हैं, वह __ आनंद एक जगह बुद्ध से पूछता है, आपने सब को भेजा, ऊर्जा एक है। लेकिन कभी आप महाकाश्यप को आज तक नहीं कहे कि तू कहीं जैसे समझें कि आपके घर में एक मात्रा का जल है, और घर में जा, कुछ कर! बुद्ध ने कहा, महाकाश्यप का होना ही करना है। | से तीन छेद हैं, जिनसे वह जल बाहर जा सकता है। आप चाहें तो उसे कहीं भेजने की जरूरत नहीं। वह जहां है, उसके होने से काम एक ही छेद से उस जल को बाहर भेज सकते हैं, तब धारा बड़ी हो हो रहा है। वह बैठा है झाड़ के नीचे, तो भी काम हो रहा है। उस | जाएगी। आप चाहें तो तीनों छिद्रों से उस जल को बाहर भेज सकते रास्ते से जो लोग गुजर जाएंगे, वे भी उसके कणों को ले जा रहे हैं। | हैं; तब धाराएं क्षीण हो जाएंगी। आप चाहें तो एक से ज्यादा, दूसरे वह महाकाश्यप, अगर हम ठीक से समझें, तो इनफेक्शस है। से कम और तीसरे से और कम जल को भेज सकते हैं। वह जिस बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है, वह बुद्धत्व संक्रामक है; ___ आपकी जीवन-ऊर्जा की धारा आपके पास है। और यह तीन वह उसकी मौजूदगी से फैलता है। उसे सक्रिय रूप से सीधे-सीधे | | गुणों का यंत्र आपके पास है। जब आप बिना किसी साधना के जीते काम में नहीं लग जाना होता है। | हैं, तो सिर्फ परिस्थितियां ही निर्धारक होती हैं कि किस गुण से बड़ी गहरी चेतनाएं चुपचाप भी करती रहती हैं। निर्भर करेगा इस आपकी ऊर्जा बहेगी-परिस्थितियां, आप नहीं। . बात पर कि किस तरह का व्यक्ति है। अगर अंतर्मुखी व्यक्ति ज्ञान __ और ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल बदलता रहता है। सुबह को उपलब्ध होगा, सत्व को उपलब्ध होगा, तो वह चुप हो जाएगा, | हो सकता है तमोगुणी रहा हो, और दोपहर को रजोगुणी हो जाए, मौन हो जाएगा, शांत हो जाएगा। उसकी मौजूदगी से काम होगा, | | और शाम को सत्वगुणी मालूम पड़े। लेकिन परिस्थितियां निर्धारक उसके प्रभाव अप्रत्यक्ष होंगे, पर बड़े गहरे होंगे, दूरगामी होंगे। होती हैं। अगर बहिर्मुखी व्यक्ति होगा और सत्व को उपलब्ध हो जाएगा, समझ लें कि आप सुबह ही उठे और पा रहे हैं कि चित्त आलस्य तो उसके प्रभाव विस्तीर्ण होंगे, स्थल होंगे, बहत लोगों की सेवा से भरा है, उठने का कोई मन नहीं, दिनभर बिस्तर में ही पड़े रहें। उससे होगी, लेकिन बहुत दूरगामी नहीं होगी। विस्तीर्ण होगी, और तभी पता लगा कि मकान में आग लग गई। तमोगुण तत्क्षण लेकिन गहरी नहीं होगी। मरीज उससे ठीक होंगे, किसी को जमीन | विदा हो जाएगा। आप एकदम रजोगुणी हो जाएंगे। एकदम से तम भूमि-दान करवाएगा; किसी को धन, किसी को मंदिर बनवाएगा; के द्वार से जो ऊर्जा बह रही थी, वह खींच ली जाएगी। और पूरी कहीं धर्मशाला खलवाएगा; कहीं गरमी में प्याऊ डलवाएगा: पर की परी ऊर्जा रज के द्वार से प्रवाहित होने लगेगी। क्योंकि मकान उसका काम ऊपर-ऊपर होगा। उससे लाभ होगा, लेकिन वह लाभ | में आग लगी है; आग बुझाना जरूरी है। स्थूल होगा। उस वक्त आप नहीं कह सकते कि मैं आलस्य में हूं। अभी मेरा रमण न तो प्याऊ खुलवाते, न भूदान करवाते, न मंदिर बनवाते। मन नहीं उठने का। आप भूल ही जाएंगे कि नींद भी कोई तत्व है पर उनका प्रभाव दूरगामी है। सदियों तक जो लोग भी उनकी तरफ जीवन में, कि बिस्तर में पड़े रहने में भी कोई रस हो सकता है। अपने मन को टयून करने में सफल हो जाएंगे, वे उनसे प्रभावित | | छलांग लगाकर बिस्तर से उठेंगे, जैसा आप कभी नहीं उठे थे। होंगे, आंदोलित होंगे, रूपांतरित होंगे। पर वह अदृश्य की घटना | लेकिन यह घटना घट रही है परिस्थितिवश। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * होशः सत्व का द्वार * बाहर आकर आपको पता चले कि अफवाह थी; किसी ने ऐसे | हम सीधे-सादे लोग। हम समझे नहीं आपका मतलब! चोर कहां ही चिल्ला दिया कि मकान में आग लगी है। कहीं कोई आग नहीं है? कैसे मर गया? लगी। आप वापस अपने बिस्तर में लौट आएंगे। रजोगुण तमोगुण ___ उस साधु ने कहा, मैं ही था वह चोर, लेकिन अब मैं मर चुका में प्रविष्ट हो गया। वह जो ऊर्जा जगकर सक्रिय होना चाहती थी, | हूं। और वह चोर अब तुम्हें कहीं भी नहीं मिलेगा। वह नहीं है अब। वह फिर विश्राम को उपलब्ध हो गई। | तुमने मेरे चरणों में झुककर उसकी हत्या कर दी। तुम गोली से उसे बाहर की परिस्थिति आपको चौबीस घंटे चला रही है। इसलिए | | नहीं मार सकते थे, लेकिन तुमने उसे मार दिया। और जब झूठी अगर आपमें भरोसा करने वाले लोग आपके चारों तरफ हों...। | साधुता में इतना अर्थ हो सकता है, तो मैं अब उस साधुता की आप चोर हैं, और आपके पास आठ-दस लोग हों, जो आपको तलाश करूंगा, जो सच्ची है। मानते हों कि आप साधु हैं, तो हो सकता है कि उनकी मान्यता के वह एक बड़ा झेन फकीर हो गया। वह सदा यह घटना लोगों से कारण आपकी धारा सत्वगुण से बहने लगे। क्योंकि वे बारह कहा करता था कि मैं कोई साधु बनने नहीं आया था, परिस्थिति ने आदमी आपके अहंकार को बढ़ा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आप सत्व का उदय कर दिया। नमो बुद्धाय! सुबह का सूना मंदिर; मंदिर महासाधु हैं। अब आप चोरी करना भी चाहें, तो आपका अहंकार की दीवारों में गूंजता नमो बुद्धाय का मंत्र; मूर्ति के पास से उठती बाधा देता है कि कम से कम मश्किल से तो जिंदगी में बारह आदमी हई धप: सगंधित वातावरण: सिपाहियों का आना और मेरे चरणों मिले, जो साधु मानते हैं, अब दो-चार पैसे की चोरी के लिए | में झुक जाना-मेरी सारी ऊर्जा सत्व से बह गई। एक क्षण को मुझे साधुता को खोना उचित नहीं मालूम होता। सत्व का अनुभव हुआ कि साधुता का सुख, साधुता की सुगंध, ऐसा हुआ। मैं एक साधु का जीवन पढ़ता था। एक झेन फकीर | | साधुता का फूल क्या है। हुआ। वह चोर था साधु होने के पहले। एक महल से चोरी करके __आप पूरे समय बदल रहे हैं। इसलिए अच्छे आदमी के पास भागा। पुलिस उसके पीछे है; लोग उसको पकड़ने आ रहे हैं। कोई | | आप अच्छे आदमी हो जाते हैं। बुरे आदमी के पास आप बुरे उपाय न देखकर, कोई मार्ग न देखकर, वह एक बुद्ध मंदिर में प्रवेश | आदमी हो जाते हैं। अगर सक्रिय लोगों के बीच में पड़ जाएं, तो कर गया। सुबह कोई चार बजे रात का समय था। कोई भिक्षु सोया | आप सक्रिय हो जाते हैं। अगर आलसियों के बीच में पड़ जाएं, तो था, उसके कपड़े टंगे थे। उसने भिक्षु के कपड़े पहन लिए और | आपको नींद आने लगती है। मंदिर में हाथ-पालथी मारकर बुद्धासन में बैठ गया। नमो बुद्धाय, आपने खयाल नहीं किया होगा। अगर यहां इतने लोग बैठे हैं; नमो बुद्धाय का मंत्र जाप करने लगा। | इनमें से दो-चार लोग जम्हाई लेना शुरू कर दें आपके पास, तो सिपाही भागे हुए मंदिर के पीछे आए। वे उसका पीछा कर रहे | | ज्यादा देर नहीं लगेगी कि आप जम्हाई शुरू कर देंगे। एक आदमी थे। लेकिन वहां एक साधु बैठा है, नमो बुद्धाय का पवित्र मंत्र गूंज | | जम्हाई ले कि पास वाले को खुजलाहट शुरू हो गई। उसके गले रहा है। वहां कोई चोर नहीं। वे सिपाही उसके चरणों में झके से जम्हाई उठने लगी। नींद! वह जो आलसी आपके पास बैठा है, उसको नमस्कार किए; और कहा, साधु महाराज, यहां कोई चोर | | उसने नींद आपको पकड़ा दी। तो नहीं आया? । मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में एक उल्लेख है। बाजार से गुजरता जब वे उसके चरणों में झुके, तब उसे बड़ी हैरानी हुई। और एक | था, साग-सब्जी, फलों की दुकानें थीं। एक दुकान पर उसे बड़े क्रांति हो गई। उसे लगा कि मैं एक झूठा साधु! और झूठी साधुता मधुर आम रखे हुए दिखाई पड़े। पैसे उसके पास नहीं थे। मगर मन में इतना बल-झूठी साधुता में—कि जो मेरी हत्या करने मेरे पीछे जकड़ गया। तो वह कोई उपाय सोचने लगा। वहीं सामने दुकान लगे थे, वे मेरे चरणों में झुक गए! अगर झूठी साधुता में इतना बल के सड़क के उस तरफ बैठकर कुछ उपाय सोचने लगा। है, तो सच्ची साधुता में कितना बल होगा! तभी दुकानदार ने अपनी लोमड़ी, जो उसने एक लोमड़ी पाल उसने उन सिपाहियों से कहा कि चोर आया था, लेकिन अब तुम | | रखी थी, उसे दुकान के बाहर लाया और लोमड़ी से कहा कि बैठ उसे खोज न पाओगे। वह चोर मर चुका। और दुकान का ध्यान रखना। और किसी भी तरह का कोई आदमी वे सिपाही बोले, हम समझे नहीं! आप रहस्य की बातें न करें। पास आए और संदिग्ध मालूम पड़े, तो आवाज देना। मैं जरा खाना 59 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* खाने भीतर जाता हूं। हिटलर अपनी सभाओं में...। नसरुद्दीन ने सोचा कि बड़ी मुश्किल है। आदमी को भी धोखा | शुरू-शुरू में जब उसको कोई मानने वाला भी नहीं था, कुल देना आसान है। यह लोमड़ी को धोखा देना और मुश्किल है। पास | सात आदमी उसकी पार्टी के मेंबर थे। और सातों ही फिजूल लोग ही पहुंचे कि वह आवाज कर देगी। तो उसने क्या किया? वह जहां | | थे। एक भी आदमी कीमत का नहीं था। निकाले गए लोग, बेकार बैठा था, वहां से धीरे-धीरे पास सरकने लगा। आंख उसने बंद कर लोग, जिनके पास कुछ काम-धाम नहीं था, उन्होंने हिटलर को नेता ली और झोंके खाने लगा। लोमड़ी ने देखा इस आदमी को सोते मान लिया था। लेकिन उन सात के बल पर इस जमीन का सबसे हए: उसकी भी आंखें झपने लगीं। धीरे-धीरे नसरुद्दीन देखता शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश हिटलर ने की। जाता; जब लोमड़ी बिलकुल सो गई, तब उसने आम उठा लिया। वह उन सात बेकार आदमियों को लेकर सभाओं में चला जाता। तब नसरुद्दीन आम खाकर छुप रहा। उसने सोचा कि देखें, अब | दूसरों की सभा हो रही है। वह सात आदमी बिठा देता। वे सात मालिक क्या करता है आकर! आदमी जगह-जगह से शोरगुल करके डिस्टरबेंस शुरू कर देते। मालिक आया और उसने लोमड़ी को जगाया, उसने कहा, कुछ और हिटलर खुद हैरान हुआ कि सात आदमी थे, लेकिन सत्तर क्यों भूल हो गई। आम कम मालूम पड़ते हैं। क्या गड़बड़ है? कहानी गड़बड़ कर रहे हैं! उसके तो सात ही आदमी थे। सात सत्तर को कहती है कि लोमड़ी ने कहा कि यहां तो कोई पास आया नहीं। गड़बड़ करवा देते हैं। सत्तर सात सौ को पकड़ लेते हैं। फिर वे जो सिर्फ एक आदमी था, जो सो रहा था। मालिक ने कहा कि मैंने तुझे | मौलिक सात हैं, उनकी तो कोई चिंता करने की जरूरत नहीं। भीड़ कहा था कि कोई भी तरह की क्रिया आस-पास हो और कुछ भी ने ले लिया मामला। संदेह मालूम पड़े, आवाज करना। सोना भी एक क्रिया है। और तुझे | फिर इसका उपयोग वह अपनी सभाओं में जब उसने अपनी सचेत हो जाना चाहिए था। सभाएं शुरू की, तो उसके पास पचास आदमी थे। दस हजार लोगों आपके पास कोई सोने लगे तो आपके भीतर प्रवाह शरू हो की सभा हो. उसके पचास आदमी पचास जगह बैठे रहते। पक्क जाता है। | पता होता कि किस वाक्य के बाद वे पचास आदमी ताली बजाएंगे। मेरा अनुभव है। मैं यहां बोल रहा हूं। अगर एक आदमी खांसने जैसे ही हिटलर का इशारा होता, वे पचास आदमी ताली बजाते। लगे-हो सकता है, उसकी खांसी वास्तविक हो-दूसरे लोग | पांच हजार आदमी उनका साथ देते। धीरे-धीरे बाकी लोग भी साथ संक्रामक हो जाते हैं। खांसी सुनते ही उनको खयाल आ जाता है देने लगे। वे पचास आदमी पांच हजार लोगों से तालियां बजवाने कि वे भी खांसना जानते हैं। खांस सकते हैं। उनके पास भी गला लगे। तब हिटलर को सत्र साफ हो गया कि भीड़ कैसे चलती है। है। फिर कठिन हो जाता है, रोकना कठिन हो जाता है। और ऐसा जो भी चारों तरफ हो रहा है, परिस्थिति बन जाती है और उसमें नहीं कि यह सचेतन हो रहा है। यह बिलकुल अचेतन है। आप बह जाते हैं। हिंदू मस्जिद में आग लगा रहे हैं। मुसलमान __आप देखें, सड़क पर एक भीड़ चली जा रही है; आंदोलनकारी मंदिर तोड़ रहे हैं, आग लगा रहे हैं। इनमें से एक-एक मुसलमान हैं; कोई घेराव कर रहा है; कोई हड़ताल कर रहा है। आप घूमने | को अलग से पूछो कि क्या सच में तू मंदिर में आग लगाना चाहता निकले थे, आप तेजी से चलने लगते हैं उनके साथ। उनका जोश | है? वह कहेगा कि नहीं। एक-एक हिंदू से पूछो कि तुझे क्या आपको पकड़ जाता है। वे नारे लगा रहे हैं, आपका भी दिल होने मिलेगा? यह धर्म है कि तू मस्जिद को जला दे या किसी की हत्या लगता है। वे कहीं आग लगा रहे हैं, आप भी खड़े हो जाते हैं। कर दे? वह कहेगा, नहीं। लेकिन भीड़ में, वह कहता है, भीड़ में सहयोगी भी हो जाते हैं! मैं था ही नहीं। भीड कछ कर रही थी. मैं उसका हिस्सा हो गया। एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने, जर्मनी में जो नाजीवाद की घटना। | भीड़ पकड़ लेती है आपको। घटी, उस पर एक किताब लिखी : दि साइकोलाजी आफ फैसिज्म। आप जरा देखें! अगर दस मिलिट्री के जवान सड़क पर कवायद वैज्ञानिक था विलहेम रैक। बड़ी अदभुत किताब है, फैसिज्म का कर रहे हों, थोड़ी देर उनके पीछे चलकर देखें! आपको पता नहीं, मनोविज्ञान। वह भीड़ का मनोविज्ञान है। और हिटलर बड़ा कुशल | कब आप लेफ्ट-राइट करने लगे। आपके पैर उनसे मिलने लगेंगे, था। इस बात को जानता था कि भीड़ कैसे काम करती है। तब ही आपको खयाल आएगा, यह मैं क्या कर रहा हूं! 60 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * होशः सत्व का द्वार * मन अनुकरण करता है। परिस्थिति मन को अनुकरण की सुविधा | | ठीक से समझ लेना। दे देती है। विश्राम का अर्थ है, जो श्रम के लिए तैयार करे। विश्राम का __ अभी भी आप चौबीस घंटे एक गुण में नहीं होते। इसीलिए | प्रयोजन ही यही है कि अब हम फिर श्रम करने के योग्य हो गए। मंदिरों का उपयोग है, मस्जिदों का उपयोग है। क्योंकि वहां हमने | वह जो श्रम ने हमें तोड़ दिया था, थका दिया था, हमारे स्नायु खराब कोशिश की है सत्व की हवा पैदा करने की। दिनभर जो तमोगुणी हो गए थे, जीवकोष्ठ टूट गए थे, वे फिर पुनरुज्जीवित हो गए। भी रहा हो, रजोगुणी भी रहा हो, वह भी घंटेभर आकर मंदिर में | विश्राम ने हमें फिर से नया जीवन दे दिया। अब हम फिर श्रम करने बैठ जाए, तो सत्व की थोड़ी हवा उसमें पैदा हो सकती है। के योग्य हैं। सत्संग का इतना ही अर्थ है, जहां थोड़ी देर को सत्व की हवा । जिस विश्राम के बाद आप श्रम करने के योग्य न हों. वह पैदा हो जाए और आपकी ऊर्जा सत्व से बहने लगे। आप दिनभर | आलस्य है। उसका मतलब है, विश्राम के द्वारा आप और विश्राम कछ भी कर रहे हों, लेकिन यह स्वाद आपको आने लगे. तो शायद के लिए तैयार हुए जा रहे हैं। विश्राम और विश्राम में ले जा रहा है, धीरे-धीरे यह स्वाद आपके चौबीस घंटे पर भी फैल जाए। इसमें तब खतरा है। आपको आनंद मालूम होने लगे और दूसरी चीजें फीकी मालूम होने ठीक यही बात श्रम के बाबत भी लागू है। श्रम वही सम्यक है, लगें, तो शायद आप जिंदगी को बदलने का उपाय भी कर लें। । | जो आपको विश्राम के योग्य बनाए। अगर कोई ऐसा श्रम है, जो लेकिन ये घटनाएं घटती हैं परिस्थिति से। और जब तक | आपको विश्राम में जाने ही नहीं देता, तो वह विक्षिप्तता हो गई। वह परिस्थिति से घटती हैं, तब तक कोई बड़ा मूल्य नहीं है। बड़ा मूल्य | फिर श्रम न रहा। ठीक श्रम के बाद आदमी सो जाएगा। बिस्तर पर तो तब है, जब आपके संकल्प से घटें। तब आप मालिक हुए। तब | सिर रखेगा और नींद में उतर जाएगा। ठीक श्रम के बाद। भीड़ कुछ भी कर रही हो, आप निज में हो सकते हैं। सारी भीड़ सो ___ एक किसान है। दिनभर उसने श्रम किया है खेत पर। सांझ घर गई हो और आप जागना चाहें, तो जाग सकते हैं। सारी भीड़ उपद्रव | आता है, खाना खाता है; और सिर रखता है बिस्तर पर, और सो कर रही हो, हत्या कर रही हो, हिंसा कर रही हो, तो भी आप अपने जाता है। यह श्रम है। को भीड़ के प्रभाव से बचा सकते हैं। एक दुकानदार है। उसने भी दिनभर श्रम किया है। लेकिन वह और जो व्यक्ति भीड़ के प्रभाव से अपने को बचा लेता है, वही | जब बिस्तर पर सिर रखता है, तो विश्राम नहीं आता, नींद नहीं व्यक्ति मालिक है। उसमें आत्मा पैदा हुई। वह आत्मवान हुआ। | आती; मन में हिसाब चलता रहता है। कितने रुपये कमाए; कितने उसके पहले कोई आत्मा नहीं है। उसके पहले सब हम प्रभावित | | गंवाए; क्या हुआ; क्या नहीं हुआ-वह जारी है। उसका मतलब होकर चल रहे हैं। हुआ कि दुकानदार के श्रम में कहीं कुछ भूल है। वह सिर्फ श्रम नहीं और चारों तरफ से हमें प्रभावित किया जा रहा है। और हमें पता | है, शायद लोभ की विक्षिप्तता है। भी नहीं चलता कि हम किस भांति पकड़ लिए गए हैं भीड़ के द्वारा, किसान के श्रम में वह भूल नहीं है। वह सिर्फ शायद भोजन के और भीड़ हमें लिए जा रही है। एक बड़ा प्रवाह है, उसमें हम तिनके लिए है। लोभ की नहीं, जरूरत के लिए है। वह जो किसान है, वह की तरह बहते हैं। निन्यानबे के चक्कर में नहीं है। वह सिर्फ श्रम कर रहा है। कल की हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा | | रोटी जुट गई, काफी है। वह जो दुकानदार है, वह कल की रोटी होता है। की उतनी फिक्र नहीं कर रहा है। वह रोटी तो उसने बहुत पहले जुटा इसलिए अगर भीतर सत्वगुण पैदा करना हो, तो रजोगुण और । | रखी है। वह कुछ महल बना रहा है लोभ के। तमोगुण की जो वृत्तियां हैं, आलस्य की और व्यर्थ सक्रियता | | यह निन्यानबे के चक्कर की कहानी आपको याद होगी। इसे की...। | ठीक से समझ लेना चाहिए। विश्राम बरा नहीं है: आलस्य बरा है। फर्क क्या है? विश्राम का | एक सम्राट सो नहीं पाता था रात। और उसका जो नाई था, जो मतलब है, आवश्यक, जिससे शरीर ताजा हो, मन प्रफुल्लित हो। रोज उसकी मालिश करता और उसकी हजामत करता, वह विश्राम का अर्थ है, जो श्रम के लिए तैयार करे। इस परिभाषा को कभी-कभी हजामत करते-करते भी सो जाता था। वह जो नाई था, 61 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 वह कभी-कभी रात उसके पैर दबाते-दबाते भी सो जाता था। वह | ध्यान में रखना है। तमोगुण का उतना ही उपयोग करना है, जिससे आया था पैर दबाने. इसको सलाने. सम्राट को। सम्राट तो जागता विश्राम मिले. आलस्य पैदा न हो। और रजोगण का उतना ही ही रहता और वह नाई धीरे-धीरे दबाते-दबाते सो जाता। | उपयोग करना है, जिससे जीवन की जरूरत पूरी हो, लोभ पैदा न उस सम्राट ने कहा कि तेरे पास कुछ कला होनी चाहिए! तू भी | हो। बस, फिर आपके भीतर सत्व की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। गजब का आदमी है। सुलाने हमें आया था और खुद तू सो रहा है! ___ यही अर्थ है, तमोगुण और रजोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा उस नाई ने कहा, मैं गैर पढ़ा-लिखा आदमी, मुझे कुछ कला नहीं | | होता है अर्थात बढ़ता है। तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर आती। तमोगुण बढ़ता है। वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर सम्राट ने अपने वजीर से पूछा कि इसमें क्या राज होना चाहिए? रजोगुण बढ़ता है। वजीर बुद्धिमान था। उसने कहा कि राज है। कल देखेंगे। कल आप अपने भीतर दो को दबा सकते हैं; तीसरा मुक्त हो जाता आपको जवाब दे दूंगा। है। जिसे भी मुक्त करना हो, उसको छोड़कर बाकी दो को दबाना रात वह नाई के घर में निन्यानबे रुपयों की भरी हुई एक थैली शुरू कर देना चाहिए। फेंक आया। रातभर नाई सो नहीं सका, क्योंकि वह जो एक रुपया हम सारे लोग सत्वगुण को दबाते हैं। अच्छाई, शुभ हम दबाते . कम था! उसने सोचा कि कल कुछ भी कर के एक रुपया जोड़ देना | हैं। जहां तक बच सकें, उससे बचते हैं। अगर शुभ करने का कोई है; सौ हो जाएंगे! गजब हो गया। कभी सोचा नहीं था कि सौ अपने मौका हो, शांत होने का कोई मौका हो, सत्व में उतरने की कोई पास हो जाएंगे। एक ही कमाता था वह रोज। रोज खा लेता था। सुविधा हो, तो हम उसको चूकते हैं। रात सो जाता था। अगर कोई कहे कि आओ, एक घंटा चुपचाप शांति से बैठे, तो दूसरे दिन सुबह बिलकुल आंखें उसकी लाल; रात बिना सोए| हमें व्यर्थ लगता है। हम कहेंगे, कुछ करो। ताश ही खेलें। बैठने हुए आया। पैर भी उसने दबाए सम्राट के, तो सम्राट को लगा, से क्या होगा! कुछ करें। आज कुछ फर्क है। उसमें जान न थी। क्योंकि विश्राम न हो, तो झेन फकीर जापान में बैठना सिखाते हैं। वे कहते हैं साधु को, कोई श्रम के लिए तैयार नहीं हो सकता। उसने पूछा, मामला क्या | तू बैठना सीख जा बस! पर बैठने में दो बातों का खयाल रखना है? नाई ने कहा, समझ में मेरे भी नहीं आता; लेकिन रात मैं सो पड़ता है। झेन फकीर, जो गुरु होता है, वह हाथ में एक डंडा लेकर नहीं सका। घूमता रहता है। दो बातें खयाल रखनी पड़ती हैं। तमोगुण दबाना सम्राट ने कहा, इसमें कुछ वजीर का हाथ तो नहीं है? वजीर ने | पड़ता है और रजोगुण दबाना पड़ता है। दोनों एक साथ दबाना तुझ से कुछ कहा तो नहीं? उसने कहा, किसी ने कुछ कहा नहीं। पड़ता है। वह डंडा लेकर घूमता है। वह कहता है, बैठे तो रहो, लेकिन जब आप पूछते हैं, तो कल रात मुझे घर में एक निन्यानबे लेकिन सो मत जाना। सोकर आप धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि रुपये की थैली पड़ी मिल गई। उससे मैं मुसीबत में पड़ गया हूं। सो | आपका सिर हिलने लगेगा। जैसे ही सिर हिला कि डंडा आपके नहीं सका। सम्राट ने कहा, मैं समझ गया। वह वजीर चालाक है। सिर पर होगा। वह गरुडंडा मारेगा फौरन। और। उसने तुझे निन्यानबे के चक्कर में डाल दिया। इसी चक्कर में मैं हूं। | तो आठ डंडा मारने की आज्ञा है। तो वह आठ बार आपके सिर पर बस, अब बात साफ हो गई। डंडा मारेगा, बेरहमी से। भीतर तक तमोगुण को झटका लग जाए! वह जो दुकानदार है-या कोई भी, जो किसी चक्कर में है, | न तो सोने देगा, और न कुछ करने देगा। कि आप ऐसा हिलने लोभ के, वासना के-वह श्रम नहीं कर रहा है। उसका श्रम लगें, तो भी डंडा पड़ जाएगा। क्योंकि हिलने का मतलब हुआ कि ऊपर-ऊपर है; भीतर कुछ और चल रहा है। वह और जो चल रहा | रजोगुण शुरू हो गया। कि आप ऐसा पैर खुजाने लगें, तो भी डंडा है, वह उसका पागलपन है। वह पागलपन उसे विश्राम न करने | पड़ जाएगा। आपको कुछ करने भी नहीं देगा और सोने भी नहीं देगा। और जब विश्राम न होगा, तो सम्यक श्रम पैदा नहीं होता। देगा। दोनों के बीच में, वह कहता है, बैठने की कला है; दोनों के और तब एक दुष्टचक्र पैदा होता है। दोनों गलत हो जाते हैं। बीच जो रुक जाए, वह झेन की अवस्था में आ गया, ध्यान की सत्वगुण के पैदा होने का अर्थ है, रजोगुण और तमोगुण को | अवस्था में आ गया। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * होशः सत्व का द्वार * तो छः घंटे, आठ घंटे, दस घंटे, बारह-बारह घंटे तक धीरे-धीरे | | विषय-भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं। साधक को सिर्फ बैठना होता है। अगर रजोगुण से छूटना हो, तो इन सबसे छूटना जरूरी है। और थोड़ी देर सोचें, छः घंटे सिर्फ बैठे हैं! न कुछ कर सकते हैं और | छूटने का एक ही अर्थ है, इनको सहयोग मत दें। जब लोभ उठे, न सो सकते हैं। क्या होगा? . तो उसे देखते रहें। उसको कोआपरेट मत करें। उसको साथ मत दें। पहली तो वृत्ति यह होगी कि कुछ करो। उस करने की वृत्ति से | लेकिन हम साथ देते हैं। बहत कछ पैदा होता है। खयाल आएगा कि पैर में खजलाहट हो। | सना है मैंने कि नसरुद्दीन एक रात. अचानक आधी रात उठा रही है। इसमें अपना क्या हाथ है! पैर तो खुजला ही सकते हैं। या| | और पत्नी से बोला, जल्दी चश्मा ला। पत्नी उसे जानती थी। कुछ कोई चींटी चल रही है। ये सब बातें आना शुरू होंगी। और ये सब | बिना पूछताछ–उससे पूछताछ करने का कोई सार भी नहीं झूठ हैं। था—उसने चश्मा उठाकर दे दिया। उसने चश्मा लगाया। आंख अगर आप तैयार हैं बैठे रहने को, तो चींटी भी चलती रहे, तो | | बंद करके फिर से लेट रहा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और आप तैयार नहीं हैं, तो आप चींटी | । फिर थोड़ी देर बाद उठा और उसने कहा कि तूने देर कर दी। सब कल्पित कर लेंगे। वहां जब आप पाएंगे, तो वहां कोई चींटी नहीं गड़बड़ हो गया। एक सपना देख रहा था और सपने में एक देवदूत है! थोड़ी-बहुत देर अगर आपने रोकने की कोशिश की कि कुछ न | | मुझे रुपए दे रहा था। ठीक सौ-सौ के नोट थे। मुझे शक पैदा हो करें, तो नींद पकड़ने लगेगी। | गया कि नोट असली हैं कि नकली, इसलिए तुझसे चश्मा मांगा। ___ हमारी ऊर्जा दो हिस्सों में बहती है, या तो तमोगुण या रजोगुण। और भी एक झंझट थी कि वह नौ नोट दे रहा था और मैं कह रहा रजोगुण से बचाएं, तो तमोगुण। तमोगुण से बचाएं, तो रजोगुण। | था दस दे। उसी दस की झंझट में नींद खुल गई। और फिर आंख और दोनों से बचाएं, तो तीसरे द्वार से पहली दफा झरना फूटेगा। | | बंद करके चश्मा लगाकर मैंने कई बार कहा कि अच्छा भाई, नौ ही झेन का सारा सूत्र कृष्ण के इस एक सूत्र में समाया हुआ है। झेन दे दे। मगर वहां कोई नहीं है। सपना खो गया। सब नष्ट कर दिया। फकीर जो कर रहे हैं, वह इसी सूत्र का प्रयोग है। बैठे रहें; न तो इतनी देर लगा दी चश्मा उठाने में। तंद्रा आए, और न क्रिया पकड़े। अक्रिया में अतंद्रित! सपने में भी अगर नौ मिल रहे हों, तो दस का मन होता है। वह तो आपकी चेतना कहां जाएगी? चेतना को कहीं तो जाना ही है, | | मन तो वही है, जो जाग रहा है। वही सपने में सो रहा है। और ऐसा क्योंकि चेतना एक गति है, ऊर्जा है। जब नींद भी नहीं बन सकती नहीं था कि दस दे रहा होता देवदूत, तो कोई मन रुक जाता। मन और कर्म भी नहीं बन सकती, तो चेतना ध्यान बन जाती है, होश | | कहता, जब मिल ही रहे हैं, तो थोड़े और मांग लो! बन जाती है। __ मन भिखमंगा है; लोभ उसका स्वभाव है। इसको अगर आप ___ इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में सहयोग देते चले जाते हैं, तो रजोगुण बढ़ेगा। क्योंकि जितना लोभ चेतनता और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना बढ़ेगा, उतना कर्म में उतरना पड़ेगा। लोभ चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा। दौड़-धूप करनी ही पड़ेगी। फिर जितना लोभ बढ़ेगा, उतनी अशांति और हे अर्जुन, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात | बढ़ेगी। क्योंकि मिलेगा? नहीं मिलेगा? कैसे मिलेगा? ये सब सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ | | चिंताएं मन को पकड़ेंगी। और कैसे मिल जाए? क्या तरकीब एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता, विषय-भोगों की लालसा, | | लगाएं ? झूठ बोलें; बेईमानी करें; चोरी करें; क्या करें, क्या न करें; ये सब उत्पन्न होते हैं। | यह सब आयोजन करना होगा। अशांति बढ़ेगी। और मन को बहुत रजोगुण के ये लक्षण हैं। दौड़ाना पड़ेगा। चंचलता बढ़ेगी। रजोगुण इन सारी वृत्तियों को सत्वगुण का लक्षण है, बोध, अवेयरनेस, जागरूकता। रजोगुण भीतर जन्म देगा। और ये सारी वृत्तियां आपकी सारी ऊर्जा को का लक्षण है, लोभ, सांसारिक चेष्टा, कुछ पा लें संसार में। सब | | रजोगुण के द्वार से प्रकट करने लगेंगी। प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ। मुझे कुछ मिले लाभ, | । रजोगुण का अंतिम चरण विक्षिप्तता है। वे जो पागल होकर ऐसे किसी कर्म में उतरने की वृत्ति। अशांति, मन की चंचलता, | | पागलखानों में बैठे हैं, वे रजोगुण की साकार प्रतिमाएं हैं। उन्होंने करना हो, तो 63 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 इतना दौड़ा दिया मन को कि लगाम वगैरह ही टूट गई। फिर अब वह रोकना भी चाहे, तो रोकने का साधन ही नहीं है। वह बढ़ता ही चला गया। घोड़े सब भागने लगे। लगामें टूट गईं। कहां ले जाने लगे; रास्ते से हट गए। फिर कोई हिसाब न रहा। पागल हो जाने का अर्थ है कि आपके पास नियंत्रण की कोई क्षमता न रही। मन इतना लोभ से भर गया कि उसने सब नियंत्रण तोड़ दिए। रजोगुण अगर पूरा बढ़ जाए, तो विक्षिप्तता अंतिम फल है। अगर तमोगुण पूरा बढ़ जाए, तो मृत्यु अंतिम फल है। सत्वगुण पूरा बढ़ जाए, तो समाधि अंतिम फल है। फिर जो आपको खोजना हो। अगर मृत्यु खोजनी हो, तो आलस्य को साधे। तंद्रा मृत्यु का ही प्राथमिक चरण है। फिर पड़े रहें मिट्टी के ढेर बनकर। जल्दी ही मिट्टी के ढेर हो जाएंगे। विक्षिप्तता खोजनी हो, तो लोभ को बढ़ाएं। फिर कोई सीमा न मानें। असीम लोभ में दौड़ते चले जाएं। जल्दी ही आप पागलखाने में होंगे। और अगर इन दोनों को दबा दें, दबा दें अर्थात इन दोनों के साथ सहयोग अलग कर लें, तो आपके भीतर सत्व उदय होगा। सत्व महासुख है। और सत्व शुभ में ले जाएगा। सत्व धीरे-धीरे शांति में ले जाएगा। सत्व धीरे-धीरे ध्यान में ले जाएगा। और सत्व के भी पार जिस दिन आप उठने लगेंगे...। और सत्व उस जगह पहुंचा देता है, जहां से पार उठना आसान है। जब सब विकार छूटने लगते हैं, सिर्फ सत्व का शुद्ध विकार रह जाता है, तो उसे छोड़ने में बहुत कठिनाई नहीं होती। यह करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे दीया जलता है। तो पहले तो वह जो अग्नि की शिखा है, वह तेल को जलाती है। फिर जब तेल जल जाता है, तो बत्ती को जलाती है। फिर जब बत्ती भी जल जाती है, तो खुद जलकर शून्य हो जाती है। सत्वगुण अग्नि जैसा है। पहले रजोगुण, तमोगुण को जलाएगा। जब वे दोनों जल जाएंगे, तो खुद को जला लेगा। और जब सत्वगुण भी जल जाता है, जब उसकी भी राख हो जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वही स्वभाव है। उसे कृष्ण ने गुणातीत अवस्था कहा है। आज इतना ही। 64 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 पांचवां प्रवचन संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।। १३ ।। यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ।। १४ । । रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसगिषु जायते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ।। १५ ।। हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सब ही उत्पन्न होते हैं। और हे अर्जुन, जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। और रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्नः कृष्ण परम ज्ञानी और त्रिगुणातीत हैं, फिर भी धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। बुद्ध, महावीर, लाओत्से आदि ऐसा कुछ भी नहीं करते । सत्व, रजस, तमस गुणों संदर्भ में कृष्ण के उपरोक्त व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की कृपा करें। प हली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि दो महापुरुषों के बीच कोई तुलना संभव नहीं है। और सभी तुलनाएं गलत हैं। प्रत्येक महापुरुष अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा कोई भी नहीं । वस्तुतः तो साधारण पुरुष भी अद्वितीय है। आप जैसा भी कोई दूसरा नहीं | आपके भीतर ही महापुरुष तब प्रकट होता है, जब आप अपने स्वभाव को, अपनी नियति को उसकी पूर्णता में ले आते हैं। आप भी बेजोड़ हैं। आप जैसा दूसरा कोई व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं हैन आज है, न कल था, और न कल होगा। एक वृक्ष का पत्ता भी पूरी पृथ्वी पर खोजने जाएं, तो दूसरा वैसा ही पत्ता नहीं खोज पाएंगे। एक पत्थर का टुकड़ा भी, एक कंकड़ भी अपने ही जैसा है। और जब आपका निखार होगा, और आपके जीवन की परम सिद्धि प्रकट होगी, तब तो आप एक गौरीशंकर के शिखर बन जाएंगे। अभी भी आप बेजोड़ हैं। तब तो आप बिलकुल ही बेजोड़ होंगे। अभी तो शायद दूसरों के साथ कुछ तालमेल भी मिल जाए। फिर तो कोई तालमेल न मिलेगा। अभी तो भीड़ का प्रभाव है आपके ऊपर, इसलिए भीड़ से आप अनुकरण करते हैं। भीड़ की नकल करते हैं। और पड़ोसी जैसा है, वैसा ही बनने की कोशिश करते हैं। क्योंकि इस भीड़ के बीच जिसे जीना हो, अगर वह बिलकुल अनूठा हो, तो भीड़ उसे मिटा देगी। भीड़ उनको ही पसंद करती है, जो उन जैसे हैं। वस्त्रों में, आचरण में, व्यवहार में भीड़ चाहती है आप विशिष्ट न हों, आप पृथक न हों, अनूठे न हों। भीड़ व्यक्ति को मिटाती है; एक तल पर सभी को आती है। 66 इसलिए बहुत कुछ आप में दूसरे जैसा भी मिल जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे आपका स्वभाव निखरेगा, वैसे-वैसे आप भीड़ से मुक्त होंगे, वैसे-वैसे अनुकरण की वृत्ति गिरेगी, वैसे-वैसे वह घड़ी आपके जीवन में आएगी जब आप जैसा इस जगत में कुछ भी न रह जाएगा। कृष्ण, लाओत्से, बुद्ध, उस परम शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति हैं। किसी की दूसरे से तुलना करने की भूल में मत पड़ना। उस तुलना में अन्याय होगा । अन्याय की संभावना निरंतर है। वह अन्याय यह है कि अगर आपको कृष्ण पसंद हैं, तो आप महावीर के साथ अन्याय कर जाएंगे। वह पसंदगी आपकी है। वह पसंदगी आपकी निजी बात है। और अगर आपको महावीर पसंद हैं, तो कृष्ण आपको कभी भी पसंद नहीं पड़ेंगे। यह आपका व्यक्तिगत रुझान है। इस रुझान को आप महापुरुषों पर मत थोपें। आपके रुझान में कोई गलती नहीं है। कृष्ण आपको प्यारे हैं, आप कृष्ण को प्रेम करें। और इतना प्रेम करें कि वही प्रेम आपके लिए रूपांतरण का कारण हो जाए, अग्नि बन जाए, और आप उसमें से निखर आएं। अगर महावीर से प्रेम है, तो महावीर को प्रेम करें। और महावीर के व्यक्तित्व को एक मौका दें कि वह आपको उठा ले, सम्हाल ले; आप डूबने से बच जाएं। महावीर का व्यक्तित्व आपके लिए नाव बन जाए। लेकिन दूसरे महापुरुष से तुलना मत करें। तुलना में गलती हो जाएगी । तुलना केवल उनके बीच हो सकती है, जो Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति * समान हैं। उनके बीच कोई समानता का आधार नहीं है। और उन | बुद्ध के व्यक्तित्व पर निर्भर है। घटना एक ही घटी है। सबके व्यक्तित्व का ढंग बिलकुल पृथक-पृथक है। इसे ऐसा समझ लें कि एक चित्रकार सुबह सूरज को उगते हुए जैसे मीरा है। मीरा नाच रही है। हम सोच भी नहीं सकते कि | | देखे। और एक संगीतकार सुबह सूरज को उगता देखे। और एक बुद्ध, और नाचें! कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। महावीर के होंठों पर | नृत्यकार सूरज को उगता देखे। और एक मूर्तिकार और एक कवि बांसुरी रखनी बड़ी बेहूदी मालूम पड़ेगी; एब्सर्ड है। उसकी कोई | सूरज को उगता देखे। ये सारे लोगों ने एक ही सूरज को उगते देखा संगति नहीं बैठती। महावीर का जीवन, व्यक्तित्व, ढंग, उससे | है। और इन सबके चित्त पर एक ही सौंदर्य की घटना घटी है। ये बांसुरी का कोई संबंध नहीं बैठ सकता। सब आनंद से भर गए हैं। वह सुबह का उगता सूरज इनके भीतर कृष्ण के ऊपर मोर-मुकुट शोभा देता है। वह उनके व्यक्तित्व | | भी कुछ उगने की घटना को जन्म दे गया है। इनके भीतर भी चेतना की सचना है। वैसा मोर-मकट आप जीसस को बांध देंगे, तो बहत आंदोलित हई है। बेहूदा लगेगा। जीसस को तो कांटों का ताज और सूली ही जमती लेकिन चित्रकार उसका चित्र बनाएगा। अगर आप उससे पूछेगे है। सूली पर लटककर जब कांटों का ताज उनके सिर पर है, तब | कि क्या देखा, तो चित्र बनाएगा। कवि एक गीत में बांधेगा, अगर जीसस अपने शिखर पर होते हैं। और कृष्ण जब बांसुरी बजा रहे | आप उससे पूछेगे, क्या देखा। नर्तक नाच उठेगा, नाचकर कहेगा हैं मोर-मुकुट रखकर, तब अपने शिखर पर होते हैं। कि क्या देखा। एक-एक व्यक्ति अनूठा है यह खयाल में आ जाए, तो महापुरुष | __ एक बहुत कीमती विचारक और लेखक यूनान में हुआ बिलकुल अनूठे हैं। जब ज्ञान की घटना घटती है, तो ज्ञान की घटना | | अभी-अभी, निकोस कजानजाकिस। उसने एक बड़ी अनूठी किताब तो एक ही है। ऐसा समझें, यहां हम इतने लोग बैठे हैं। यहां प्रकाश | | लिखी है, ज़ोरबा दि ग्रीक। एक उपन्यास है, ज़ोरबा नाम के एक है। तो प्रकाश की घटना तो एक ही जैसी है, लेकिन सभी आंखों | आदमी के आस-पास। वह आदमी बड़ा नैसर्गिक आदमी है, जैसा में एक जैसा प्रकाश दिखाई नहीं पड़ रहा है। क्योंकि आंखों का | | स्वाभाविक आदमी होना चाहिए। न उसके कोई सिद्धांत हैं, न कोई यंत्र, देखने वाला यंत्र, प्रकाश को प्रभावित कर रहा है। आदर्श हैं। न कोई नीति है, न कोई नियम है। वह ऐसा आदमी है, किसी की आंखें कमजोर हैं, उसे धीमा प्रकाश दिखाई पड़ रहा | | जैसा कि आदमी को अगर सभ्य न बनाया जाए और प्रकृति के सहारे होगा। किसी की आंखें बहुत तेज हैं, तो उसे बहुत प्रकाश दिखाई । | छोड़ दिया जाए, तो जो बिलकुल प्राकृतिक होगा। पड़ रहा होगा। और किसी की आंखों पर चश्मा है, और रंगीन है,। | जब वह क्रोध में होता है, तो आग हो जाता है। जब वह प्रेम में तो प्रकाश का रंग बदल जाएगा। और किसी की आंख बिलकुल | होता है, तो पिघलकर बह जाता है। उसके कोई हिसाब नहीं हैं। वह ठीक है लेकिन वह आंख बंद किए बैठा हो, तो प्रकाश दिखाई ही। क्षण-क्षण जीता है। . नहीं पड़ेगा, अंधकार हो जाएगा। __ कजानजाकिस ने लिखा है कि जब वह खुश हो जाता था या कोई जब जीवन की परम अनुभूति घटती है, तो अनुभव तो बिलकुल ऐसी घटना घटती, जिससे वह आनंद से भर जाता, तो वह कहता एक है, लेकिन व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। जब कृष्ण को वह | | कि रुको। वह ज्यादा नहीं बोल सकता, क्योंकि ज्यादा उसका भाषा परम अनुभव होगा, तो वे नाचने लगेंगे। यह उनके व्यक्तित्व से पर अधिकार नहीं है, वह शिक्षित नहीं है। तो वह अपना तंबूरा उठा आ रहा है नाच, उस अनुभव से नहीं आ रहा है। जब बुद्ध को वही | | लेता। तंबूरा बजाता। उसे कुछ कहना है; उसके भीतर कोई भाव परम अनुभव होगा, तो वे बिलकुल मौन होकर बैठ जाएंगे; उनके | | उठा है, उसे कहना है। वह तंबूरा बजाता। और कभी ऐसी घड़ी आ हाथ-पैर भी नहीं हिलेंगे; आंख भी नहीं झपकेगी। उनके भीतर जो जाती कि तंबूरे से भी वह बात प्रकट नहीं होती, तो तंबूरा फेंककर घटना घटी है, वह उनके मौन से प्रकट होगी, उनकी शून्यता से | | वह नाचना शुरू कर देता। और जब तक वह पसीना-पसीना होकर प्रकट होगी, उनकी थिरता से प्रकट होगी। उनका आनंद मखर नहीं गिर न जाता, तब तक वह नाचता रहता होगा, मौन होगा। कजानजाकिस ने लिखा है कि मुझे उसकी भाषा समझ में नहीं बुद्ध चुप होकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। कृष्ण नाचकर आती थी। लगता था, वह नाच रहा है; कुछ उसके भीतर हो रहा प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व पर और | | है। और कुछ ऐसा विराट हो रहा है कि उसे प्रकट करने का उसके 67 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* पास और कोई उपाय नहीं है। लेकिन मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं है। मेरी नियति है, मेरा स्वभाव है। कजानजाकिस लेखक है, विचारक है, शब्दों का मालिक है। ये बुद्ध भी जन्मों-जन्मों में वृक्ष के नीचे बैठ-बैठकर इस जगह लेकिन फिर उसके जीवन में भी एक घटना घटी और तब उसे पता | | पहुंचे हैं, जहां वे पत्थर की मूर्ति की तरह शांत हो गए हैं। चला। वह पहली दफा एक स्त्री के प्रेम में पड़ा। जब उस स्त्री ने उसे । सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं। वैसा मूर्तिवत आदमी ही प्रेम से देखा, उसे निकट लिया और वह उसके प्रेम का पात्र बना, कभी नहीं हुआ था। बुद्ध की मूर्ति बनानी हो, तो बस पत्थर की ही तो जब वह वापस लौटा, तब अचानक उसने पाया कि उसके पैर बन सकती है। क्योंकि वे पत्थर जैसे ही, पाषाण जैसे ही ठंडे और नाच रहे हैं। अब वह कहना चाहता है, लेकिन अब शब्द फिजूल हैं। शांत और चुप, सारी क्रियाओं से शून्य हो गए थे। अब वह कुछ लिखना चाहता है, लेकिन कलम बेकार है। और । उर्दू में, अरबी में शब्द है, बुत। वह बुद्ध का अपभ्रंश है। मूर्ति जिंदगी में पहली दफा वह आकर अपने कमरे के सामने नाचने लगा। | के लिए जो शब्द है, वह है बुत। बुत का मतलब है बुद्ध। बुद्ध के और तब उसे समझ में आया कि वह ज़ोरबा जो कह रहा था, क्या | नाम से ही बुत शब्द पैदा हुआ। और बुद्धवत बैठने का मतलब है, कह रहा था। लेकिन उसके पहले उसे कुछ भी पता नहीं था। मूर्तिवत बैठ जाना। बुद्धवत बैठने का अर्थ है, बुत की तरह हो आपका व्यक्तित्व अभिव्यक्ति का माध्यम है। अनुभूति तो एक | जाना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए, नाच तो बहुत दूर की बात ही होगी। लेकिन आपके व्यक्तित्व से गुजरकर उसकी अभिव्यक्ति है। जरा-सा झोंका भी न रह जाए भीतर। नाच तो बिलकुल दूसरी बदल जाएगी। अति है, जहां भीतर कुछ भी थिर न रह जाए, सब नाच उठे, सब तो कृष्ण की अभिव्यक्ति का माध्यम अलग है। जन्मों-जन्मों में गतिमान हो जाए। वह माध्यम निर्मित हुआ है। अनंत जन्मों में कृष्ण ने वह नृत्य सीखा तो बुद्ध और कृष्ण का कहां मेल बिठाइएगा? लेकिन जो घटना है। अनंत जन्मों में वह बांसुरी बजाई है। घटी है, वह एक ही है। बुद्ध ने जन्मों-जन्मों तक मौन होना साधा बुद्ध ने जन्मों-जन्मों में, बुद्ध ने कहा है...। है। जब वह महाघटना घटी, तो वे अवाक होकर मौन हो गए। बुद्ध के पिता ने जब बुद्ध वापस घर लौटे, तो बुद्ध को कहा कि | कृष्ण ने जन्मों-जन्मों तक नाचा है सखियों के साथ, उनकी तू नासमझ है। और अभी भी नासमझ है। मैं तेरा पिता हूं और मेरे प्रेयसियों के साथ। वह यात्रा लंबी है। जब वह घटना घटी, तो वह पास पिता का हृदय है; मेरे द्वार अभी भी खुले हैं। अगर तू वापस नाच से ही प्रकट हो सकती है। लौटना चाहे, तो वापस आ जा। यह छोड़ भिखारीपन। हमारे वंश | फिर बुद्ध संसार को छोड़कर संन्यस्त हो गए हैं। कृष्ण संन्यस्त में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ। नहीं हैं। कृष्ण संसार में खड़े हैं। इसलिए उनका आचरण और तो बुद्ध ने कहा है कि क्षमा करें। आपके वंश से मेरा क्या संबंध व्यवहार बिलकुल अलग-अलग होगा। है! मैं सिर्फ आपसे आया हूं, आपसे पैदा नहीं हुआ। जहां तक मुझे __ अगर किसी को पागलखाने में रहना पड़े, तो उचित है कि वह याद आते हैं अपने पिछले जन्म, मैं जन्मों-जन्मों का भिखारी हूं। पागलों को समझा दे कि मैं भी पागल हं; नहीं तो पागल उसकी मैं पहले भी भीख मांग चुका हूं। मैं पहले भी संन्यासी हो चुका हूं। जान ले लेंगे। और उचित है कि वह चाहे नकल ही करे, अभिनय यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। यह किसी लंबे क्रम का एक ही करे, लेकिन पागलों जैसा ही व्यवहार करे। पागलखाने में रहना हिस्सा है। | हो, तो समझदार बनकर आप नहीं रह सकते। नहीं तो बुरी तरह जहां तक मुझे अपनी याद है, बुद्ध ने कहा है कि मैं पहले भी पागल हो जाएंगे। पागलखाने में सेनिटी बचाने का, अपनी बुद्धि ऐसा ही हुआ हूं। और हर बार यात्रा अधूरी छूट गई। इस बार यात्रा बचाने का एक ही उपाय है कि आप पागलों से दो कदम आगे हो पूरी हो गई। जिस सूत्र को मैं बहुत जन्मों से पकड़ने की कोशिश | जाएं, कि पागलों के नेता हो जाएं। फिर आप पागल नहीं हो सकते। कर रहा था, वह मेरी पकड़ में आ गया। और तुमसे मेरा परिचय मेरे एक मित्र पागलखाने में बंद थे। सिर्फ संयोग की बात, छः बहुत नया है। मुझ से मेरा परिचय जन्मों-जन्मों का है। तुम्हारे कुल महीने के लिए बंद किए गए थे, लेकिन तीन महीने में ठीक हो गए। का मुझे कुछ पता नहीं, लेकिन मेरे कुल का मुझे पता है कि मैं जन्मों | | और ठीक हो गए एक सांयोगिक घटना से। पागलपन की हालत का भिखारी हूं। और सम्राट होना सांयोगिक था। यह भिक्षु होना में फिनाइल का एक डब्बा पागलखाने में मिल गया, वह पूरा पी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति गए। उस फिनाइल को पूरा पी लेने से उनको इतने दस्त और कै हुए कि उनका पागलपन निकल गया । वे बिलकुल ठीक हो गए। लेकिन छः महीने के लिए रखे गए थे। अधिकारी तो मानने को तैयार नहीं थे। अधिकारी को तो सभी पागल कहते हैं कि हम ठीक हो गए। ऐसा कोई पागल है, जो कहता है हम ठीक नहीं हैं ! तो वे अधिकारियों से कहें कि मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं, अब मुझे कोई गड़बड़ नहीं है। मुझे बाहर जाने दो। अधिकारी हंसें और टाल दें कि ठीक है, वह तो सभी पागल कहते हैं। वे मित्र मुझे कहते थे कि तीन महीने जब तक मैं पागल था, तब तक तो स्वर्ग में था, क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि क्या हो रहा है चारों तरफ। बाकी तीन महीने असली पागलपन के रहे। मैं हो गया ठीक और सारे पागल... । कोई मेरी टांग खींच रहा है; कोई मेरे सिर पर हाथ फेर रहा है। और मैं बिलकुल ठीक! और अब यह बरदाश्त के बाहर कि यह सब कैसे सहा जाए ! न रात सो सकते हैं ... । और तीन महीने तक कुछ पता नहीं था। क्योंकि यह खुद भी यही कर रहे थे। और इस भाषा के अंतर्गत थे, इसके बाहर नहीं थे। बुद्ध पागलखाना छोड़कर बाहर हो गए हैं। इसलिए नहीं कि सभी को पागलखाना छोड़कर बाहर हो जाना चाहिए। बुद्ध को ऐसा घटा। इसको ठीक से समझ लें। यह बुद्ध की नियति है। यह बुद्ध का स्वभाव है। यह बुद्ध के लिए सहज है, स्पांटेनियस है। ऐसा उनको घटा कि वे छोड़कर जंगल में चले गए। कोई आप छोड़कर चले जाएंगे, तो बुद्ध नहीं हो जाएंगे। अगर आपका स्वभाव यह हो, अगर आपको यही सहज हो, तो आप कुछ भी करें, आप संसार में रह न सकेंगे। आप · धीरे-धीरे सरक जाएंगे। यह कोई चेष्टा नहीं है। यह अपने स्वभाव का अनुसरण है। लेकिन कृष्ण का ऐसा स्वभाव नहीं है। वे पागलखाने में खड़े हैं। और मजे से खड़े हैं। निश्चित ही, पागलखाने में जो खड़ा है, उसे पागलों के साथ व्यवहार करना है। इसलिए कृष्ण बहुत बार दिखाई पड़ेंगे कि धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। वह पागलों की भाषा है। वहां झूठ ही व्यवहार है। वहां धोखा ही नियम है। वहां युद्ध हर चीज की परिणति है। और इसीलिए कृष्ण बड़े बेबूझ हो जाते हैं । उनको समझना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि हम साधु को हमेशा गैर-संसारी की तरह देखे हैं। तो गैर-संसारी साधु का व्यवहार अलग बात है। कृष्ण बिलकुल संसार में साधु हैं। इसलिए उनके और बुद्ध के व्यवहार को तौलना ही मत। अगर बुद्ध को भी संसार में रहना हो, तो कृष्ण जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा । और कृष्ण को अगर जंगल में झाड़ के नीचे बैठना हो, तो बुद्ध जैसा व्यवहार करना पड़ेगा। धोखा किसको देना और | किसलिए देना है? यहां जो चारों तरफ लोग इकट्ठे हैं, इनके बीच अगर जीना है, तो इनके ठीक इन जैसे होकर जीना पड़ेगा। | पर फर्क यही है कि आप भी दे रहे हैं धोखा, लेकिन आप बेहोशी में दे रहे हैं और कृष्ण पूरे होश में दे रहे हैं। आप धोखा दे रहे हैं कर्तृत्व-भाव से । कृष्ण धोखा दे रहे हैं बिलकुल नाटक के एक अंग की भांति । वे अभिनेता हैं। धोखा उनको छू भी नहीं रहा है। उनके लिए एक खेल से ज्यादा नहीं है। ऐसा समझें कि आपके बच्चे घर में खेल खेल रहे हैं। और आप भी फुरसत में हैं और आप भी उनमें सम्मिलित हो गए हैं। और | उनकी गुड्डी का विवाह रचाया जा रहा है। और गुड्डे की बारात निकलने वाली है और आप भी उसमें सम्मिलित हैं। तो आपको | बच्चों जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा, नहीं तो बच्चे आपको खेल में प्रविष्ट न होने देंगे। आप यह नहीं कह सकते - यह नियम के भीतर होगा - आप यह नहीं कह सकते कि यह गुड्डी है; इसका | क्या विवाह कर रहे हो ? गुड़ियों का कहीं विवाह होता है ? यह सब | फिजूल है। तो आप खेल का नियम तोड़ रहे हैं; फिर आपको खेल के बाहर होना चाहिए। आपको गुड्डी को मानना पड़ेगा कि जैसे वह कोई सजीव युवती है। और उसी तरह व्यवहार करना पड़ेगा। लेकिन एक फर्क होगा, बच्चों के लिए वस्तुतः वह गुड्डी नहीं रही है। और आपके लिए वह फिर भी गुड्डी है। और आप व्यवहार कर रहे हैं बच्चों के साथ कि खेल जारी रहे। जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति बच्चों के साथ खेलता है, वैसे कृष्ण | संसार में हैं। इसलिए स्वभावतः, महावीर को मानने वाले, बुद्ध को | मानने वाले कृष्ण के प्रति एतराज उठाएंगे, कि यह किस तरह की भगवत्ता है! हम सोच ही नहीं सकते कि भगवान और धोखा दे, झूठ बोले ! उसे तो प्रामाणिक होना चाहिए। पर आप जिन भगवानों से तौल रहे हैं, वे संसार के बाहर हैं। आप उस आदमी से तौल रहे हैं इस आदमी को, जो खेल में सम्मिलित नहीं है, अलग बैठा है। और यह आदमी बच्चों के साथ खेल रहा है। इन दोनों को आप तौलें मत । इनके नियम अलग हैं। कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है । बुद्ध और महावीर का प्रयोग 69 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * बहुत अनूठा नहीं है। यह बिलकुल सरल है। संसार में हैं, तो पागल | नहीं। अगर उसके बस में हो सोना, तो लाओत्से लेटेगा नहीं। की तरह; और संसार छोड़ दिया, तो सारा पागलपन छोड़ दिया। | निष्क्रियता की जो भी संभावना आखिरी बस में हो, उसमें ही कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है। संसार छोड़ भी दिया, और उसके लाओत्से डूबेगा। भीतर हैं। पागलपन बिलकुल पोंछ डाला, और फिर भी पागलों के लाओत्से परम ज्ञानी है, पर उसके पास व्यक्तित्व तमस का है। साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं, जैसा कि कोई पागल करे। कृष्ण | इसलिए आलस्य लाओत्से के लिए साधना बन गई। और निश्चित का प्रयोग अत्यंत अनूठा है। | ही, जो उसने जाना है, वही वह दूसरों को सिखा सकता है। महावीर, बुद्ध परंपरागत संन्यासी हैं। कृष्ण बहुत क्रांतिकारी तो लाओत्से कहता है, जब तक तुम कुछ कर रहे हो, तब तक संन्यासी हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप इसलिए कृष्ण को चुन तुम भटकोगे। ठहरो, करो मत। क्योंकि लाओत्से ने ठहरकर ही लें। आप अपनी नियति को समझें। यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप पाया है। तो लाओत्से कहता है कि अगर तुम क्या शुभ है, क्या बुद्ध को छोड़ दें या चुन लें। आप अपनी नियति को समझें। आपके अशुभ है, क्या नीति है, क्या अनीति है, इस व्यर्थता में पड़ोगे, लिए क्या ठीक मालूम पड़ता है; आपके लिए क्या सुगम होगा, सत्व की खोज में, तो भटक जाओगे। धर्म का नीति से कोई संबंध सहज होगा; कैसी जीवन-धारा में उतरकर आप व्यर्थ की तकलीफ नहीं। जब जगत में ताओ था, धर्म था, तो कोई नीति न थी; कोई नहीं पाएंगे, सरलता से बह सकेंगे, वही आपकी नियति है। | साधु न थे; कोई असाधु न थे। तुम अपनी सहजता में डूब जाओ। फिर आप दूसरे की चिंता में मत पड़ें। कोशिश करके न आप | और उस डूबने के लिए एक ही कुशलता है, एक ही योग्यता है कि कृष्ण बन सकते हैं और न बुद्ध। कोशिश आपको भ्रांत कर देगी। तुम पूरी अकर्मण्यता में, अक्रिया में, पूरे अकर्म में ठहर जाओ। सहजता ही आपके लिए स्वास्थ्यदायी हो सकती है। तमस लाओत्से का व्यक्तित्व है। घटना उसे वही घटी है, जो कष्ण ने क्या किया. इसे समझना हो. तो यह सत्र खयाल में रखें बद्ध को. महावीर को. कष्ण को घटी है। कि कृष्ण, बुद्ध जैसे संन्यासी होकर ठीक संसार में खड़े हैं बिना जिन लोगों का व्यक्तित्व रजस का है, और वहां से वे छलांग छोड़े हुए। और आपसे कोई भी संबंध संसार में बनाना हो, तो | लगा लेंगे, जैसे जीसस, तो फिर परम ज्ञान जब उन्हें पैदा होगा, तो निश्चित ही आपकी भाषा बोलनी जरूरी है और आपके आचरण | उनका परम ज्ञान उसी क्षण कर्म बनना शुरू हो जाएगा। उनका कर्म के साथ चलना जरूरी है। आपको बदलना भी हो, तो भी थोड़ी दूर | सेवा हो जाएगी। वे विराट कर्म में लीन हो जाएंगे। वे कहेंगे, कर्म तक आपके साथ चलना जरूरी है। ही योग है। इसी संबंध में यह भी समझ लेना उचित होगा कि सत्व, रजस | कृष्ण ने कहा है, कर्म की कुशलता ही योग है। और लाओत्से और तमस के गुणों का इस संबंध में क्या रूप होगा। कहता है, अकर्म, अक्रिया, सब भांति ठहर जाना ही एकमात्र अगर कोई व्यक्ति तमस की अवस्था से सीधा छलांग लगाए सिद्धि है। गुणातीत अवस्था में, तो उसका जीवन-व्यवहार लाओत्से जैसा ___ कर्म की कुशलता योग है, अगर रजस आपका व्यक्तित्व हो होगा। क्योंकि उसके पास जो व्यक्तित्व होगा, वह तमस का होगा। | और ज्ञान की घटना घटे। घट सकती है। किसी भी जगह से आप चेतना तो छलांग लगा लेगी गुणातीत अवस्था में, लेकिन उसके छलांग लगा सकते हैं। पास व्यक्तित्व तमस का होगा। अगर सत्व का आपका व्यक्तित्व हो, जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, इसलिए लाओत्से कहता है, अकर्मण्यता भली। लाओत्से सत्व का व्यक्तित्व है, तो इनके जीवन में न तो आलस्य होगा, कहता है, कुछ न करना ही योग्यता है। ना-कुछ में ठहर जाना ही लाओत्से जैसी शिथिलता भी नहीं होगी, और न ही जीसस जैसा परम सिद्धि है। | कर्म होगा। इनके जीवन में बड़ी साधुता का शांत व्यवहार होगा। लाओत्से के जीवन में कोई उल्लेख भी नहीं है कि उसने कुछ महावीर चलते भी हैं, तो रास्ते पर देखकर कि चींटी दब न जाए। किया हो। कहा जाता है कि अगर उसके बस में हो चलना, तो यह आदमी रजोगुणी हो ही नहीं सकता, जो चलने में इतना ध्यान लाओत्से दौड़ेगा नहीं। अगर उसके बस में हो बैठना, तो लाओत्से | रखे कि चींटी न दब जाए। महावीर रात करवट नहीं बदलते कि चलेगा नहीं। अगर उसके बस में हो लेटना, तो लाओत्से बैठेगा | करवट बदलने में अंधेरे में कोई कीड़ा-मकोड़ा न दब जाए। यह Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति र आदमी क्या कर्मठ होगा! यह महावीर श्वास भी सोच-समझकर | इतना जोर से वहां उपद्रव मचाता है कि सैकड़ों ब्याजखोर भाग खड़े लेते हैं, क्योंकि प्रति श्वास में सैकड़ों जीवाणु मर रहे हैं। होते हैं। यह तो बाद में ही समझ में आता है कि एक आदमी ने इतना महावीर पानी छानकर पीते हैं। वह भी जब अति प्यास लग | उपद्रव कैसे मचा दिया! आए, तब पीते हैं। भोजन बामुश्किल कभी करते हैं, क्योंकि भोजन पर यह जीसस में एक गहरी क्रांति है। इसलिए जीसस का सूली में हिंसा है। मांसाहार में ही हिंसा नहीं है; सब भोजन में हिंसा है। | पर लटकना ठीक गणित का हिसाब है। इतना बड़ा क्रांतिकारी शाकाहार में भी हिंसा है। क्योंकि शाक-सब्जी में प्राण है। पौधे में आदमी सूली पर जाएगा ही। इसका दूसरा अंत नहीं हो सकता। प्राण है। माना कि उतना प्रकट प्राण नहीं है, जितना पशु में है, महावीर को हम सूली पर लटकते हुए नहीं सोच सकते। कोई जितना मनुष्य में है, लेकिन प्राण तो है। कारण नहीं है। जो किसी को दुख नहीं पहुंचा रहा है; जो किसी के महावीर पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने घोषणा की कि इस जीवन में काम में आड़े नहीं आ रहा है; जो किसी को छूता भी नहीं...। सब तरफ प्राण है। इसलिए कहीं से भी भोजन करो, मृत्यु घटित महावीर की धारा में उनकी अहिंसा को अगर ठीक से समझें, तो होती है। इसलिए महावीर कहते हैं, पका हुआ फल जो वृक्ष से गिर | | उसका मतलब यह होता है कि किसी के कर्म में भी बाधा डालने में जाए, पका हुआ गेहूं जो पौधे से गिर जाए, बस वही लेने योग्य है।। | हिंसा हो जाती है। कोई आदमी जा रहा है, उसको रोक लेना काम लेकिन उसमें भी हिंसा तो हो ही रही है। क्योंकि जो बीज आप ले में जाते से, तो भी हिंसा हो जाती है। क्योंकि आप बीच में बाधा रहे हैं, वह अंडे की तरह है। उस बीज से अंकुर पैदा हो सकता था। डाल रहे हैं। उससे एक वृक्ष पैदा हो सकता था। उस वृक्ष में हजारों बीज लगते। कोई बाधा नहीं डालनी है। अपने को ऐसे बना लेना है, जैसे मैं तो अगर अंडा खाना पाप है, तो गेहूं का बीज खाना भी पाप है। | | हूं ही नहीं। तो ऐसा व्यक्ति क्रांति नहीं ला सकता। या ऐसे व्यक्ति क्योंकि अंडा बीज है। उसमें पाप क्या है? इसलिए कि मुर्गी पैदा की क्रांति बड़ी अदृश्य होगी। उसके कोई दृश्य रूप नहीं होंगे। होती है। फिर मुर्गी से और मुर्गियां पैदा होती हैं। एक बड़ी संतति सत्व अगर हो, तो महावीर जैसा व्यक्ति पैदा होगा, व्यक्तित्व को आपने रोक दिया। एक जीवन की धारा आपने काट दी। एक में अगर सत्व हो! अगर रज हो, तो जीसस जैसा व्यक्ति पैदा होगा। गेहूं को खाकर भी काट दी। उस गेहूं से नए पौधे पैदा होते। उन तम हो, तो लाओत्से जैसा व्यक्ति पैदा होगा। पौधों में नए बीज लगते। न मालम कितने जीवन की धारा अनंत | इसको और भी तरह से समझ लें। वर्षों तक चलती, वह आपने गेहूं को खाकर रोक दी। इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बहुत बड़ा विराट धर्म नहीं बन तो महावीर मुश्किल से भोजन करते हैं। अगर भूखे चल सकें, । सका। अकर्मण्यता के आधार पर आप बनाएंगे भी कैसे? कौन तो भूखे चलते हैं। प्यासे चल सकें, तो प्यासे चलते हैं। कथा यह है करेगा प्रचार? कौन जाएगा समझाने? लाओत्से का मानने वाला कि बारह वर्षों की साधना में उन्होंने केवल तीन सौ साठ दिन ज्यादा शांत बैठ जाता है। आप उसे हिलाएं-डुलाएं, बहुत पूछे, तो से ज्यादा भोजन लिया। बारह वर्ष में एक वर्ष! कभी दो महीने नहीं बामुश्किल जवाब देगा। खाया, कभी महीनेभर नहीं खाया; कभी तीन महीने नहीं खाया। लाओत्से जिंदगीभर नहीं बोला। आखिर में सिर्फ यह खाते ही तब हैं, जब उपवास आत्महत्या के करीब पहुंचने लगे। जब | ताओ-तेह-किंग, एक छोटी-सी किताब उसने लिखवाई। यह भी ऐसा लगे कि.अब शरीर ही छूट जाएगा, तभी। जब अपनी ही मृत्यु | मजबूरी में कि पीछे ही पड़ गए लोग कि उसको जाने ही नहीं देते घटित होने लगे, और वह भी इसलिए कि अभी ज्ञान की घटना नहीं थे मुल्क के बाहर। घटी, इसलिए शरीर को सम्हालना जरूरी है। अभी वह परम मुक्ति | वह जाना चाहता था हिमालय की यात्रा पर, अपने को खो देने के उपलब्ध नहीं हुई, इसलिए शरीर को ढोना जरूरी है। लिए हिमालय में। उसको रोक लिया चुंगी चौकी पर और कहा कि इन महावीर से आप कोई जीसस जैसी क्रिया नहीं अनुभव कर जब तक तुम्हारा ज्ञान तुम लिख न दोगे, जाने न देंगे। तो तीन दिन सकते। जीसस जाते हैं मंदिर में; देखते हैं कि ब्याजखोरों की कतार | | वह चुंगी चौकी पर बैठकर उसने लिखवाया, जो उसको ज्ञान था। लगी है; उठा लेते हैं कोड़ा। सोच भी नहीं सकते, महावीर कोड़ा | | यह भी जबरदस्ती लिखवाया गया। यह कोई लाओत्से ने अपने उठा लें। उलट देते हैं तख्ने ब्याजखोरों के। अकेला एक आदमी || मन से लिखा नहीं। अगर चुंगी चौकी का अधिकारी चूक जाता और Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 लाओत्से निकल गया होता, ताओ - तेह-किंग न होती और लाओत्से के नाम का भी आपको पता नहीं होता। यह सारा गुण चुंगी चौकी के उस अधिकारी को जाता है, जिसका किसी को नाम पता नहीं कि वह कौन आदमी था। इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बड़ा विराट आयोजन नहीं हो सका। महावीर सत्व के प्रेमी हैं और उनका व्यक्तित्व सत्व से भरा है। इसलिए महावीर का धर्म बहुत नहीं फैल सका। क्योंकि उसमें कर्मठता नहीं है। आज भी हिंदुस्तान में केवल बीस-पच्चीस लाख जैन हैं। अगर महावीर ने पच्चीस जोड़ों को जैनी बना लिया होता, तो दो हजार साल में उनसे पच्चीस लाख आदमी पैदा हो जाते। पच्चीस लाख कोई संख्या नहीं है; फैल नहीं सका। लेकिन ईसाइयत फैली, क्योंकि रजस-प्रधान है। ईसाइयत फैली, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। इस्लाम फैला, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। दोनों रज-प्रधान हैं। मोहम्मद तो बहुत ही ज्यादा रज - प्रधान हैं। उनका तो सारा व्यक्तित्व रजस से भरा है। हाथ में तलवार है। और किसी भी भांति फैलाना है वह, जो उन्होंने जाना है। आज जमीन वस्तुतः दो बड़े धर्मों में बंटी है, ईसाइयत और इस्लाम । बाकी धर्म नगण्य हैं। यह जो बुद्ध के धर्म का प्रचार हो सका, वह भी एक अनूठी घटना है। क्योंकि बुद्ध के धर्म का प्रचार भी होना नहीं चाहिए। जैसा महावीर सिकुड़ गए, ऐसा ही बुद्ध की बात भी सिकुड़ जानी चाहिए। वे भी सत्व-प्रधान व्यक्तित्व हैं। लेकिन एक सांयोगिक घटना इतिहास की और जिसने बुद्ध के धर्म को मौका दे दिया फैलने का। अगर बुद्ध का धर्म भारत में ही रहता, तो कभी नहीं फैलता । जितने जैन हैं, उससे भी कम बौद्ध भारत में बचे हैं। अभी नए बौद्धों को भी गिन लिया जाए, तो तीस लाख होते हैं। नए बौद्ध कोई बौद्ध नहीं हैं। एक राजनैतिक चालबाजी है। अंबेदकर का बौद्ध धर्म से क्या लेना-देना! अंबेदकर पच्चीस दफा सोच चुका पहले कि मैं ईसाई हो जाऊं और सब हरिजनों को ईसाई बना लूं। यह सिर्फ एक राजनैतिक स्टंट था। फिर उसे लगा कि बौद्ध हो जाना ज्यादा बेहतर है। तो अंबेदकर बौद्ध हो गए। और अंबेदकर ने सैकड़ों हरिजनों को, विशेषकर महाराष्ट्र में, बौद्ध बना लिया। इनका बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं। भारत में बौद्ध हैं ही नहीं, खोजना मुश्किल है। भारत में अगर बुद्ध धर्म रुका होता, जैसा कि जैन धर्म रुका, 72 जैन धर्म से भी बुरी हालत थी। लेकिन हिंदुओं की कृपा से! हिंदुओं ने बौद्धों का इस बुरी तरह विनाश किया कि बौद्ध भिक्षुओं को | हिंदुस्तान छोड़कर भाग जाना पड़ा। ये जो भागते हुए भगोड़े बौद्ध | भिक्षु थे, ये बौद्ध धर्म को हिंदुस्तान के बाहर ले गए। । और हिंदुस्तान | के बाहर इन बौद्ध भिक्षुओं को वे लोग मिल गए, जो रज-प्रधान हैं। हिंदुस्तान के बाहर इनको प्रचारक मिल गए, क्योंकि वैक्यूम | था । और खाली जगह प्रकृति को पसंद नहीं है। चीन में जब पहुंचे बौद्ध, तो कनफ्यूसियस का प्रभाव था। लेकिन कनफ्यूसियस सिर्फ नैतिक है, उसका कोई धर्म नहीं है। और लाओत्से का प्रभाव था। लाओत्से बिलकुल आलसी है, उसके प्रचार का कोई उपाय नहीं । खाली जगह थी। बौद्ध विचार की छाया एकदम जोर से 'अनुभव होने लगी। सम्राट चीन के बौद्ध हो गए। सम्राट होते हैं रज - प्रधान । हिंदुस्तान में भी बौद्ध धर्म को बाहर भेजने में अशोक ने काम | किया। वह बुद्ध के ऊपर उसका श्रेय नहीं है, अशोक के ऊपर है। सम्राट होते हैं रज-प्रधान। यह अशोक लड़ रहा था; युद्धों में लगा था। और फिर यह बौद्ध हो गया। एक रूपांतरण ! हिंसा से दुखी होकर, पीड़ित होकर अपने ही हाथ से लाखों लोगों को मरा हुआ | देखकर एकदम उलटा हो गया; शीर्षासन कर लिया। हिंसा का बिलकुल इसने त्याग कर दिया। इसने बौद्ध धर्म को भेजा। इसने जिनके हाथ से भेजा, वे एक तरह के राजनैतिक संदेशवाहक थे। अशोक ने अपने बेटे को भेजा, अपनी बेटी संघमित्रा को भेजा लंका, प्रचार करने। अशोक ने राजनैतिक ढंग से बौद्ध धर्म को बाहर भेजा। वह | रज-प्रधान व्यक्ति था । और सम्राट रूपांतरित हुए, तो बौद्ध धर्म फैला। ध्यान रहे, जब भी कोई धर्म फैलेगा, तो उसके पीछे रजस ऊर्जा चाहिए। धर्म को जन्म देने वाला व्यक्ति किस तरह के व्यक्तित्व का है, इस पर निर्भर करेगा । कृष्ण को समझ लेना इस संदर्भ में जरूरी है। कृष्ण स्वयं, इन तीनों में से किसी की भी प्रधानता उनमें नहीं है। कृष्ण में ये तीनों गुण, कहें, समान हैं; बराबर मात्रा के हैं । और इसलिए कृष्ण में तीनों बातें पाई जाती हैं। वह जो तामसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। वह जो राजसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं । वह जो सात्विक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। आपने कृष्ण का एक नाम सुना है, रणछोड़दास । हिंदू बहुत Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति * अदभुत हैं। वे इसको बड़े आदर से लेते हैं। रणछोड़दासजी के महावीर, बुद्ध, लाओत्से के पास एक ढंग के व्यक्तित्व हैं, मंदिर हैं जगह-जगह। रणछोड़दास का मतलब है, भगोड़ा, युद्ध इकहरे व्यक्तित्व हैं। कृष्ण के पास तेहरा व्यक्तित्व है। इसलिए को छोड़कर भागा हुआ। पर उसको भी हम कहते हैं, | | कृष्ण का संगीत थोड़ा उलझा हुआ है। और उसे सुलझाने के लिए रणछोड़दासजी! युद्ध को जिसने पीठ दिखा दी, वह रणछोड़। | बड़ी कुशल आंख, बड़ी गहरी आंख चाहिए। नहीं तो फिर कृष्ण __ कृष्ण का पूरा व्यक्तित्व त्रिवेणी है। उसमें नाच-रंग है, जो | के साथ अन्याय हो जाना सुनिश्चित है। अक्सर तामसी व्यक्ति में होता है। मौज है, उल्लास है। उसमें बड़ा वीर्य भी है। संघर्ष की क्षमता है, युद्ध की कुशलता है, जो कि राजसी व्यक्ति में होती है। उसमें बड़ी सात्विकता है, बड़ी शुद्धता एक प्रश्न औरः आपने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को है, बच्चे जैसी शुद्धता, निर्दोषता है। लेकिन यह सब इकट्ठा है। अपनी मुक्ति स्वयं खोजनी होगी और यही मुक्ति या इसलिए कृष्ण बेबूझ हो जाते हैं और पहेली हो जाते हैं। स्वतंत्रता की गरिमा भी है। अन्यथा स्वतंत्रता झूठी व बुद्ध पहेली नहीं हैं। अगर आपके पास थोड़ी भी अक्ल है, तो | व्यर्थ हो जाएगी। इस दष्टि से कष्ण का या आपका बुद्ध का पाठ खुला हुआ है। पहेली कुछ भी नहीं है। महावीर में यह कहना कि समर्पण करो और मैं बदल दूंगा, मुक्त कोई पहेली नहीं, कोई रहस्य नहीं है। बात सीधी-साफ है। दो और कर दूंगा, कहां तक उचित है? दो चार, ऐसा गणित है। लेकिन कृष्ण का मामला बहुत उलझा हुआ है। क्योंकि तीनों गुण हैं और तीनों समतुल हैं। और इसलिए कृष्ण हमें धोखेबाज भी कष्ण अर्जुन को कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं लगते हैं; झूठ भी बोलते लगते हैं; वचन देते हैं, तोड़ते लगते हैं। पा शरणं व्रज-सब धर्म छोड़, तू मेरी शरण में आ। मैं ऐसा समझें कि जैसे कृष्ण एक व्यक्ति नहीं हैं, तीन व्यक्ति हैं। - तुझे मुक्त कर दूंगा। इससे स्वभावतः मन में प्रश्न तो जैसे तीन व्यक्तियों का जीवन तीन तरह से चलता रहेगा, ऐसा उठेगा। एक ओर मैंने कहा कि निर्णय अंतिम आपका है। आपकी कृष्ण के भीतर तीन धाराएं इकट्ठी चल रही हैं। कृष्ण एक त्रिवेणी | पूरी स्वतंत्रता है। और यही आपके जीवन की गरिमा है कि कोई हैं। और इसलिए जो भी कृष्ण को गणित में बिठालना चाहेगा, वह आपको जबरदस्ती मोक्ष में प्रवेश नहीं करवा सकता; कृष्ण भी नहीं कृष्ण के साथ अन्याय करेगा। करवा सकते। इसलिए कुछ हैं, जो गीता के कृष्ण को पूजते हैं; भागवत का | इसीलिए तो कहना पड़ रहा है, सर्व धर्मान् परित्यज्य। कृष्ण भी कृष्ण उन्हें प्रिय नहीं। वे उसको छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, यह | जबरदस्ती अर्जुन को मुक्ति नहीं दे सकते। कृष्ण भी कह रहे हैं कि कवियों की कल्पना है। ये असली कृष्ण नहीं हैं। तू पहले सब समर्पण कर। वह समर्पण का निर्णय अर्जुन को लेना कुछ हैं, जो गीता के कृष्ण की फिक्र ही नहीं करते। उनको | | पड़ेगा। और वह समर्पण का निर्णय अर्जुन ले, तो कृष्ण कुछ कर भागवत का कृष्ण प्यारा है। स्त्रियां स्नान कर रही हों, तो उनके सकते हैं। कपड़े चुराकर झाड़ पर बैठ सकते हैं। समर्पण का निर्णय बहुत बड़ा निर्णय है, सबसे बड़ा निर्णय है। कृष्ण एक पहेली हैं, क्योंकि ये तीनों गुण उनमें समान हैं। और इस जगत में सब निर्णय छोटे हैं। किसी के हाथ में मैं अपने को पूरा तीनों गुणों के रंग उनके व्यक्तित्व में हैं। ये तीनों स्वर उनके साथ | | सौंप दं, यह बड़े से बड़ा निर्णय है। इससे बड़ा और कोई निर्णय एक साथ बज रहे हैं। | नहीं है। यह व्यक्तित्व की बात है। अनुभव तो तीनों के पार का होगा। ___ ध्यान रहे, समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है। उलटा लगता है। बुद्ध को भी जो मिला है, वह भी तीनों गुणों के पार उन्होंने जाना | क्योंकि हम सोचते हैं, संकल्प का तो अर्थ ही होता है, अपने पर है। महावीर ने भी, मोहम्मद ने भी, जीसस ने भी, लाओत्से ने भी, | | निर्भर रहना। और समर्पण का अर्थ है, दूसरे पर सब छोड़ देना। कृष्ण ने भी। अनुभूति तो तीनों गुणों के पार है, गुणातीत है। लेकिन लेकिन छोड़ने की घटना अगर आप कर सकते हैं, तो उसका जो व्यक्तित्व हमारे पास है, उससे अनुभूति प्रकट होगी। | मतलब हुआ कि आप एकजुट हो गए हैं, आप इकट्ठे हैं। आप 73 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* अपने को छोड़ सकते हैं। | तब उसे कहते हैं कि अब तू युद्ध में जा; अब तुझे कोई भय न पकड़ छोड़ वही सकता है, जो अपना मालिक हो। जो संकल्पवान हो, | सकेगा; क्योंकि तूने मृत्यु भी सीख ली। और मृत्यु के माध्यम से वही समर्पण कर सकता है। हर कोई समर्पण नहीं कर सकता। | तूने आत्मा को जानने का द्वार भी सीख लिया; शरीर से अलग कमजोर, नपुंसक के लिए समर्पण का मार्ग नहीं है। कायर के लिए | | आत्मा को करने का मार्ग भी सीख लिया। समर्पण का मार्ग नहीं है; जो कहे कि हां, हम बिलकुल तैयार हैं। | यह अर्जुन समुराई जैसा क्षत्रिय है। यह अपने जीने के लिए कहने से तैयारी नहीं होती। यह अर्जुन ही कर सकता है। | सबको मार भी सकता है। और जरूरत हो, इसे जीवन व्यर्थ मालूम इसलिए कृष्ण ने अगर अर्जुन से कहा कि तू सब छोड़ दे, तो पड़े, तो एक क्षण में अपने को समाप्त भी कर सकता है। सोचकर कहा है। यह क्षत्रिय है; संकल्प ले सकता है; समर्पण का | इस अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि तू सब छोड़ दे। यह छोड़ भी ले सकता है। सकता है। यह क्षत्रिय है। सब! इसमें कुछ हिसाब नहीं रखना है जापान में क्षत्रियों की एक जमात है, समुराई। समुराई जापान के | कि कितना! कुछ पीछे अपने को बचा नहीं लेना है। क्योंकि समर्पण क्षत्रिय हैं, शुद्धतम, जो सिर्फ लड़ना ही जानते हैं। मगर लड़ने के आधा नहीं हो सकता; पूरा ही होगा। पहले उन्हें एक कला सिखाई जाती है, जो दुनिया में कहीं भी नहीं पूरा समर्पण महान संकल्प है। यह खयाल में भी लेना कि मैं सिखाई जाती। और उस कला के कारण समुराई का कोई मुकाबला | किसी के हाथ में अपना पूरा भविष्य सौंपता हूं, अपना पूरा जीवन नहीं है। सौंपता हूं, और जो भी हो परिणाम, मुझे स्वीकार है, अब इसको इसके पहले कि उन्हें सिखाया जाए कि दूसरे को कैसे मारो, वापस नहीं ले सकूँगा। समर्पण वापस नहीं लिया जा सकता। यह समुराई को सिखाया जाता है कि तुम अपनी आत्महत्या कैसे कर आखिरी निर्णय है जो आदमी ले सकता है। सकते हो। और जब तक तुम कुशल नहीं हो अपने को मारने में, ध्यान रहे, कृष्ण थोड़े ही रूपांतरण करेंगे। इस समर्पण के करने तब तक तुम दूसरे को मारने के हकदार नहीं हो। पहले तुम ठीक से | | की प्रक्रिया में रूपांतरण हो जाएगा। इतने सहज भाव से जो मिटने तैयार हो जाओ अपने को मिटाने के लिए। को राजी है, वह रूपांतरित हो गया। तो समुराई पहले सीखता है, आत्महत्या, हाराकिरी। बड़ा गहरा इसलिए दूसरी जो बात है कृष्ण की कि मैं तुझे बदल दूंगा, तू उसका गणित है। ठीक नाभि के दो इंच नीचे हारा नाम का केंद्र है, सब समर्पण कर। दूसरी बात तो सहज परिणाम है। कृष्ण को कुछ जो कि योगियों की खोज है। उस हारा नाम के केंद्र पर जरा-सी भी करना नहीं पड़ेगा। कृष्ण कुछ कर भी नहीं सकते। करने का कोई चोट छरे की हो जाए, कि शरीर से आत्मा अलग हो जाती है बिना उपाय भी नहीं है। बस, यह अर्जन को समझ में अगर आ जाए कि किसी पीड़ा के। यह सब छोड़ने को राजी हो जाए। इसलिए समुराई का लक्षण यह है कि जब वह छुरा मारकर अपनी तो यह बड़े मजे की बात है। जब भी कोई सब छोड़ने को राजी हत्या करता है, तो उसके चेहरे पर पीड़ा का एक भाव भी नहीं होना हो जाता है, तो उसके जीवन की सब पीड़ा, सब दुख, सब तनाव चाहिए-मरने के बाद भी, उसकी लाश पर भी। अगर पीड़ा का विदा हो जाते हैं। क्योंकि सब छोड़ने का मतलब है, अहंकार जरा भी भाव है, तो वह चूक गया। वह समुराई नहीं था। उसे मरने छोड़ना। और मैं ही, मेरा अहंकार ही सारे उपद्रव की जड़ है। वह की कला नहीं मालूम थी। उसने छुरा कहीं और मार लिया। जड़ कट जाती है। कटते ही आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो ठीक नाभि के नीचे जीवन का स्रोत है, उस स्रोत की बिलकुल जाता है। बारीक धारा है। उस बारीक धारा को तोड़ देते से ही जीवन शरीर | गुरुओं ने कहा है कि सब छोड़ दो, हम तुम्हें बदल देंगे। बदलने और आत्मा का अलग-अलग हो जाता है, जरा-सी पीड़ा के बिना। की कोई जरूरत नहीं पड़ती। और अगर आप जाकर पूछे कि मैंने सब समुराई के चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आता दुख का, विषाद का। | छोड़ दिया; मैं अभी तक नहीं बदला तो उसका सिर्फ मतलब इतना वह वैसा ही प्रफुल्लित और ताजा होता है, जैसा जीवित था।। है कि आपने कुछ छोड़ा नहीं। और कुछ भी मतलब नहीं है। नहीं तो आपको लगे कि सिर्फ सो गया है। दूसरी घटना तो अनिवार्य है। उस दूसरी घटना को करने के लिए गुरु पहले समुराई को सिखाते हैं, खुद को मिटाने की कला। और को कुछ करना नहीं पड़ता है। वह समर्पण का सहज फल है। 14 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति र पर निर्णय अंततः आपका है। स्वतंत्रता आपकी है। उसे कोई भी | मालूम होती है। कहीं कोई दीया नहीं दिखाई पड़ता; कहीं कोई नहीं छीन सकता। और जब आप छोड़ते हैं, तो यह आपकी | प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। स्वतंत्रता का कृत्य है। जब आप कहते हैं, मैं छोड़ता हूं सब चरणों __ वह अंधकार तमोगुण के कारण है। और जब तमोगुण बढ़ेगा, में, तो यह आपकी स्वतंत्रता का आखिरी कत्य है। इस कत्य के | तो अंधकार बढेगा। इसलिए आपकी जिंदगी में भी अंधकार की परिणाम में मुक्ति फलित होती है। तारतम्यता होती है। जब कभी आप किसी सात्विक वृत्ति में डूब कृष्ण तो सिर्फ कैटेलिटिक एजेंट हैं, वे तो सिर्फ एक बहाना हैं।। | जाते हैं, तो आपकी जिंदगी में भी एक आलोक आ जाता है। कभी तो इसलिए कोई असली कृष्ण को भी खोजने की जरूरत नहीं है। | छोटे-से कृत्य में भी यह घटना घटती है। मंदिर में खड़े कृष्ण के सामने भी आप सब छोड़ दें, तो यही घटना आप राह से गुजर रहे हैं, किसी का एक्सिडेंट हो गया, कोई राह घट जाएगी। हालांकि वहां कोई भी नहीं खड़ा है। | के नीचे गिर पड़ा। आप अपना काम छोड़कर उस आदमी को उठा यह घटना कहीं भी घट सकती है। यह घटना आपके छोड़ने पर | | लिए। आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि किस झंझट में पड़ रहे निर्भर है। किस पर आप छोड़ते हैं, यह बात गौण है। इसलिए | | हो! पुलिस थाने जाना पड़े; अस्पताल जाना पड़े। और पता नहीं जीसस पर कोई छोड़े, कृष्ण पर कोई छोड़े, बुद्ध पर कोई छोड़े, | | कोई उपद्रव इसमें आ जाए! आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि कोई फर्क नहीं पड़ता। किस पर छोड़ा, यह गौण है। छोड़ा, तत्क्षण | रास्ते पर अपने चलो। समझो कि तुमने देखा ही नहीं। तुम्हारा कुछ आप दूसरे हो जाते हैं। नए का जन्म हो जाता है। लेना-देना नहीं है। समर्पण पुनर्जन्म है, शरीर में नहीं, परमात्मा में। वह जीवन की लेकिन अगर उस तमस का आपने साथ न दिया, सहयोग न धारा का पूरी तरह से ब्रह्म की तरफ उन्मुख हो जाना है। | दिया और मन में उठी सत्व की वृत्ति का सहयोग किया; उस व्यक्ति अब हम सूत्र को लें। को उठा लिया, चाहे थोड़ी झंझट हो। झंझट संभव है। झंझट नहीं हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में | | होगी, ऐसा भी नहीं। थोड़ी परेशानी हो; अपना काम छोड़कर किसी अप्रकाश एवं कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि | दूसरे काम में उलझना पड़े। लेकिन अगर आपने उठा लिया, तो उस अंतःकरण की मोहनी वृत्तियां, ये सब उत्पन्न हो जाती हैं। क्षण में आप अपने भीतर अगर ध्यान करेंगे, तो आप पाएंगे कि एक-एक गुण का लक्षण कृष्ण गिना रहे हैं। ठीक से समझें। वहां धीमा प्रकाश है। तमोगुण के बढ़ने पर जीवन में अप्रकाश, अंधेरा मालूम होने जीसस ने कहा है अपने अनुयायियों से, कि इसके पहले कि तुम लगता है। | प्रभु-मंदिर में प्रार्थना करने आओ, सोच लो, तुमने किसी का बुरा मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम पढ़ते हैं शास्त्रों में कि | | तो नहीं किया है! अगर किसी का बुरा किया है, तो जाओ, उसे भीतर देखो, वहां परम ज्योति जल रही है। हम भीतर देखते हैं, वहां | ठीक कर आओ। अगर तुमने किसी को गाली दी है, तो क्षमा मांग सिर्फ अंधकार है। आओ। तभी तुम प्रार्थना में उतर सकोगे। क्योंकि अगर तमस मन परम ज्योति निश्चित ही वहां जल रही है। जिन्होंने कहा है, | | में लिए हुए कोई मंदिर में गया, तो भीतर अंधकार होगा; प्रकाश उन्होंने देखकर ही कहा है। पर आप जब तक तमस से घिरे हैं, तब | का पता नहीं चलेगा। तक आप जहां भी देखें, वहीं अंधकार पाएंगे। भीतर देखें, तो | सच तो यह है कि मंदिर जाने के पहले आपको अपने सत्व को अंधकार पाएंगे: बाहर देखें. तो अंधकार पाएंगे। जीवन में तलाश जगा लेना चाहिए, तो ही मंदिर में जाने की कोई सार्थकता है। कुछ करें, तो आपको लगेगा, सब अंधेरा है। क्या फायदा है इस जीवन करें, जिससे सत्व जगता हो। सत्व जग जाए, तो प्रार्थना आसान का? क्या हो रहा है? कहां मैं पहुंच रहा हूं? यह सब अंधे की तरह | हो जाएगी। सत्व जग जाए, तो आंख बंद करने से भीतर हलका चला जा रहा हूं। प्रकाश मालूम होगा। हर आदमी, जिसमें थोड़ा भी विचार है, विचारेगा तो फौरन यह हलका प्रकाश कोई प्रतीक नहीं है। यह वास्तविक घटना है। पाएगा, चारों तरफ गहन अंधकार है। और इस अंधकार से कोई | | आप चौबीस घंटे इसका अनुभव करें। जब मन क्रोध से भरा हो, छुटकारा नहीं दिखता। और दीये वगैरह की बातचीत ही बातचीत | तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर बहुत घना 75 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 अंधकार है। जब मन दया और करुणा से भरा हो, तब आंख बंद | भीतर प्रकाश भरता है, उसको लगता है कि जमीन छूट गई, जैसे करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर थोड़ी रोशनी है। और जब मन वह उड़ जाएगा। उड़ने का भाव पैदा हो जाता है। वह हलकेपन के ध्यान से भरा हो, तब भीतर देखें। तो पाएंगे, विराट प्रकाश है। कारण है। कबीर ने कहा है, हजार-हजार सूरज जैसे एक साथ जल गए। इंद्रियां और अंतःकरण दोनों अप्रकाश से भरते हैं तमोगुण के कबीर ने कहा है कि अब तक जिसे हमने प्रकाश समझा था, अब कारण। और कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति हो जाती है। वह अंधेरा मालूम होता है, भीतर का प्रकाश जब से देखा। कर्तव्य-कर्म का अर्थ है, जिसको करना जरूरी था, अनेक यह प्रकाश हमें नहीं मिलता। क्योंकि इस प्रकाश को देखने के | कारणों से। मां बीमार है, उसके लिए दवा ले आना जरूरी था। लिए सत्व की आंख चाहिए। जिसने जीवन दिया है, उसके जीवन की थोड़ी चिंता और फिक्र कृष्ण कह रहे हैं, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में एकदम स्वाभाविक है। लेकिन तमस से भरा हुआ व्यक्ति उसमें भी अप्रकाश...। आलस्य करेगा। वह सोचेगा; हजार तरकीबें मन में सोचेगा। न अंतःकरण में अंधेरा और इंद्रियों में भी अंधेरे का एक बोध होगा। करने के उपाय सोचेगा। जब तम बढ़ेगा, तो आप अपने शरीर में भी पाएंगे कि एक वह यह भी सोच सकता है कि यह बीमारी कोई खतरनाक थोड़े बोझिलता है। आप पाएंगे कि जैसे शरीर वजनी है। जब आप सत्व | ही है। वह यह भी सोच सकता है कि डाक्टर कहां ठीक कर पाते वृत्ति से भरे होंगे, तो पाएंगे, शरीर हल्का है, आलोकित है। आप हैं! सब प्रभु की कृपा से ठीक होता है। वह यह भी सोचेगा कि उछलते हुए चल रहे हैं। जैसे जमीन की कशिश कम काम करती | भाग्य में ठीक होना होगा, तो हो ही जाएगी। नहीं होना होगा, तो है। जैसे आप पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। | कुछ किया नहीं जा सकता। वह सब बातें सोचेगा। और योगियों को निरंतर अनुभव हुए हैं; और जो भी लोग ध्यान ___ अक्सर तामसी वृत्ति के लोग भाग्य की बातें सोचते हैं, भगवान में बैठते हैं, उनको भी अनुभव होते हैं। ध्यान करते-करते अचानक | की बातें सोचते हैं; सिर्फ अपने को बचाने के लिए। यह भगवान गता है कि जमीन से उठ गए। जरूरी नहीं कि आप उठ गए और भाग्य कोई उनके जीवन की क्रांति नहीं है। यह सिर्फ पलायन हों। आंख खोलकर पाते हैं कि जमीन पर बैठे हुए हैं। लेकिन आंख और बचाव है। बंद करके लगता है, जमीन से उठ गए। मेरे पास लोग आते हैं, वे मुझसे एक सवाल करीब-करीब वह अनुभव वास्तविक है। वास्तविक इस अर्थ में नहीं है कि लाखों लोग पूछते हैं। और वह सवाल है कि पुरुषार्थ बड़ा या आप जमीन से उठ गए। वास्तविक इस अर्थ में है कि भीतर आप भाग्य? और मैंने यह अनुभव किया है कि अगर उनको समझाओ इतने हलके हो जाते हैं कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जमीन से कि पुरुषार्थ बड़ा, तो वे प्रसन्न नहीं होते। अगर उनको समझाओ हट गए होंगे। और कभी-कभी यह घटना इतनी गहरी घटती है कि | | कि भाग्य बड़ा, तो बड़े प्रसन्न लौटते हैं। वस्तुतः शरीर जमीन से ऊपर उठ जाता है। __ मैंने दोनों बातें करके देख ली हैं। और कई बार एक ही आदमी योरोप में एक महिला का बहुत अध्ययन चल रहा है, जो चार | पर भी दोनों बातें करके देखी ली हैं। दो-तीन महीने बाद वह फिर फीट जमीन से ऊपर अपनी ध्यान की अवस्था में उठ जाती है। जब | आ जाता है! उसको मैंने समझाया था, पुरुषार्थ बड़ा। वह उसको भी वह ध्यान करती है, बस धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शरीर उसका चार जंचा तो नहीं, मगर मुझसे वह ज्यादा वाद-विवाद भी नहीं कर फीट ऊपर चला जाता है। उस पर बड़ा मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक | | सका, तो चला गया। मगर खिन्न गया। फिर दो-चार महीने बाद अध्ययन चल रहा है। क्योंकि यह प्रकृति का गहरे से गहरा नियम | भूल गया वह कि मुझसे पूछ चुका है। वह फिर आकर पूछ लेता है, जिसकी विपरीतता हो गई। है, पुरुषार्थ बड़ा कि भाग्य? अब मैं उसको कहता हूं, भाग्य ही बड़ा जमीन खींच रही है हर चीज को। और बिना किसी साधन के | है; पुरुषार्थ में क्या रखा है! वह कहता है, बिलकुल ठीक। किसी का ऊपर उठ जाना...। लेकिन योग की पुरानी सिद्धियों में ___ इसलिए नहीं कि उसको बात समझ में आ गई। क्योंकि भाग्य उसका उल्लेख है। निरंतर योगियों को अनुभव हुआ है। और ऐसा तो उसको ही समझ में आ सकता है, जो अहंकार से मुक्त हो जाए; तो किसी को भी अनुभव होता है, जो भी थोड़ा हल्का होता है, उसके पहले समझ में नहीं आ सकता। क्योंकि भाग्य का मतलब Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति ** है, अब मैं नहीं हूं, यह विराट है। मेरे किए कुछ न होगा, क्योंकि | | टी.वी. सेट का भी इंतजाम कर दिया है। ऐश ट्रे तो बहुत पहले से मैं हूं ही नहीं। अगर हूं, तो मेरे किए कुछ हो सकता है। मैं हूं ही | रखी है। शराब भी उपलब्ध है। नाच-गाने का भी पूरा इंतजाम है। नहीं। विराट का कर्म है, उसमें मेरी कोई सत्ता नहीं है। भाग्य का | तोरा पढ़ना हो, तो पढ़ो। न पढ़ना हो, तो वह भी कोई मजबूरी नहीं मतलब है, मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। . है। नाच-गा सकते हो; टी.वी. देख सकते हो। हमारा मंदिर यह तो बड़े ज्ञान की बात है; समाधि में फलित होती है। लेकिन | बिलकुल आधुनिक है। यह जो आदमी भाग्य से प्रसन्न होता है, वह तामसी है। वह असल | तीसरे ने कहा, यह सब कुछ भी नहीं है। में यह कह रहा है कि जो हो रहा है, अपने किए तो कुछ हो नहीं | तब योम किप्पूर के दिन थे; यहूदियों के धार्मिक दिन थे। तभी सकता, इसलिए क्यों करो! बैठा है। और ऐसा नहीं है कि सभी यह चर्चा चल रही थी। कर्म छोड़ देगा। सिर्फ कर्तव्य-कर्म छोड़ देगा। इसे थोड़ा समझ | | तीसरे ने कहा, हमने अपने मंदिर पर एक तख्ती लगा दी है: लेना जरूरी है। | क्लोज्ड बिकाज आफ दि होली डेज-पवित्र दिनों के कारण बंद। कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य-कर्म छोड़ देगा। क्योंकि लोग मनाएं पवित्र दिन कि मंदिर आएं! लोग मजा करें कि घर में आग लग जाए, तो नहीं बैठा रहेगा कि जब भाग्य में | मंदिर आएं! वह मंदिर पवित्र दिनों के लिए बनाया हुआ है, उस है...। मां बीमार हो, तो कहेगा, सब भाग्य से होता है। पिता भूखा | पर तख्ती लगा दी। यह आखिरी वक्तव्य है, अब इससे ज्यादा मर रहा हो, तो सोचेगा, क्या किया जा सकता है! अपने-अपने | प्रगतिशील और कुछ हो भी नहीं सकता। कर्मों का फल है, सबको भोगना पड़ता है। लेकिन घर में आग लग __ आदमी बहुत बेईमान है। वह सभी अच्छे शब्दों के पीछे अपनी जाए, तो यह सबसे पहले भागकर खड़ा बाहर हो जाएगा। तब यह | गलतियों के सहारे खोज लेता है। प्रगतिशील के पीछे वह सब तरह नहीं सोचेगा कि बचना होगा, तो बचेंगे; जलना होगा, तो जलेंगे। | की नासमझियां खोज लेता है। भाग्य के पीछे वह सब तरह के जाना कहां! आना कहां! आलस्य को छिपा लेता है। परमात्मा के नाम के पीछे सब तरह के कर्तव्य जहां है, वहां यह तमस वृत्ति से भरा हुआ व्यक्ति कर्तव्य | तमस को लेकर बैठ जाता है। को काटेगा; और जहां वासना है, वहां नहीं काटेगा। और यह सब | कृष्ण कहते हैं, जब तमस बढ़ता है, उसका घनीभूत रूप होता तरकीबें खोजेगा। | है मन में, तो कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद होता है। निद्रादि __ मैं एक घटना पढ़ रहा था। तीन यहूदी चर्चा कर रहे थे। और अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सभी उत्पन्न होती हैं। चर्चा थी कि किसका मंदिर प्रोग्रेसिव है, किसका मंदिर प्रगतिशील और ज्यादा नींद आती मालूम पड़ती है। नींद का मतलब इतना है, किसका सिनागाग सबसे ज्यादा आधुनिक है। | ही है कि वह ज्यादा सोया रहता है। हर चीज में जागा हुआ नहीं धार्मिक लोगों में ऐसी चर्चा चलती है। और धार्मिक लोग निरंतर | | रहता; सोया-सोया रहता है। गीता भी पढ़ेगा, तो ऐसे पढ़ रहा है, सोचते हैं कि धर्म को आधुनिक होना चाहिए, आज के अनुकूल | | जैसे नींद में पढ़ रहा हो। सुन भी रहा है, तो ऐसे सुन रहा है, जैसे होना चाहिए। बड़े व्याख्यान, बड़ी किताबें लिखी जाती हैं कि धर्म सोया हो और सन रहा है।। को नया करो। इसकी भी फिक्र नहीं होती कि धर्म नया-पुराना कैसे धार्मिक मंदिरों में सभाओं में जाकर देखें; लोग सोए हुए हैं। कुछ हो सकता है। डाक्टर तो कहते हैं कि नींद न आती हो, तो धार्मिक सभा में जाकर पहले यहूदी ने कहा कि मेरे मंदिर से ज्यादा प्रगतिशील किसी | बैठे। वहां निश्चित आ जाती है। जिस पर ट्रैक्वेलाइजर भी सफल का भी मंदिर नहीं है। पूछा दूसरों ने कि क्या कारण है! तो उसने | | नहीं होता, उसको भी आ जाती है। राम की कथा सुनो, एकदम नींद कहा कि हमने जहां तोरा रखा है, जहां हमारी धर्म-पुस्तक रखी है, | | आने लगती है! उसी के बगल में ऐश ट्रे भी रख दी है कि कोई सिगरेट भी पीना | एक आलस्य है, जो मन को पकड़े हुए है सब तरफ। निद्रा बढ़ती चाहे, तो मंदिर में पी सकता है। राख झाड़ सकता है और किताब है; मोहिनी वृत्तियां पैदा होती हैं। भी पढ़ सकता है। यह प्रगतिशीलता है हमारी। मोहिनी वृत्ति का अर्थ है, उस चीज में ज्यादा मन लगता है, जहां दूसरे ने कहा, यह कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमने अपने मंदिर में बेहोशी बढ़े। शराब हो, नाच हो, संगीत हो, कामवासना हो, जहां | 77] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* भी निद्रा बढ़े, जहां भी जागरण की कोई जरूरत न हो, वहां उस सत्व की स्थिति में जो मरता है, वह परम सुख की अवस्था में तरफ जाने का भाव प्रवाहित होता है। | प्रवेश कर जाता है। स्वर्ग परम सुख की अवस्था है। लेकिन ध्यान जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, रखें, अंतिम अवस्था नहीं है। सुख की ही अवस्था है; आनंद की तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि | | अवस्था नहीं है। और आनंद और सुख में इतना ही फर्क है कि सुख लोकों को प्राप्त होता है। की अवस्था शाश्वत नहीं है, समाप्त होगी। और आनंद की और जब जीवनभर के अंत में जीवन का सारा निचोड़ और सार अवस्था शाश्वत है, समाप्त नहीं होगी। है; मृत्यु के क्षण में आपने जीवन में जो भी कमाया है, वह सारभूत सुख की अवस्था के बाद फिर दुख आएगा। जैसे दिन के बाद सब आणविक होकर आपके साथ खड़ा हो जाता है। रात आती है, ऐसा सुख के बाद फिर दुख आएगा। चाहे सुख अगर कोई व्यक्ति जीवनभर तमस से भरा रहा है. तो मरने के कितना ही लंबा हो, लेकिन दुख से छुटकारा नहीं है। दुख पीछे पहले बेहोश हो जाता है। अधिक लोग मरने के पहले बेहोश हो खड़ा हुआ प्रतीक्षा कर रहा है। सुख एक कमाई है, जो चुक जाएगी। जाते हैं। मृत्यु होश में नहीं घटती। जो जीए ही नहीं होश में, वे मर | इसलिए स्वर्ग में गया हुआ वापस लौट आएगा; कितने ही समय कैसे सकते हैं। सिर्फ सत्व-प्रधान व्यक्ति ही मरते वक्त होश से के बाद, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वापस लौटना सुनिश्चित है। भरे होते हैं। वह लक्षण है कि उसने जीवन में जागा हुआ होने का, || | सुख अंतिम नहीं है। उसके साथ दुख जुड़ा है। आनंद अंतिम अप्रमाद में रहने का प्रयास किया, तो मृत्यु जागते घटती है। वह है। उसके साथ फिर कुछ भी नहीं जुड़ा है। जो आनंद में प्रविष्ट हो मृत्यु को देख पाता है। और जो मृत्यु को देख पाता है, वह अमृत | | गया, उसका पुनरागमन नहीं है; वह वापस नहीं लौटता। ' हो जाता है सत्व की स्थिति में मरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश पाता है। रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मृत्यु के क्षण में भी जीवन की ही जिसने जीवनभर साधुता साधी हो, सत्व को जगाया हो, होश को सोचता रहता है। वह तब भी सोचता रहता है, कितने काम अधूरे निर्मित किया हो, वह स्वर्ग में प्रवेश करता है। रह गए। थोड़ा मौका मिल जाए, तो ये भी पूरे कर दूं। वह कभी यह | रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति नहीं सोचता कि सब भी पूरे करके क्या होगा? और काम तो अधूरे वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। रह ही जाएंगे। क्योंकि वासनाओं का कोई अंत नहीं है। कितना ही __ और अगर रजोगुण पीछे पड़ा रहा हो, मरते क्षण में भी योजनाएं करो, कभी भी करो, आधे में ही मरना पड़ेगा। बनती रही हों, फाइव इयर प्लान तैयार होते रहे हों, तो ऐसा आदमी कोई भी आदमी पूर्ण विराम पाकर नहीं मर सकता, कि कहे कि मरकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। सब काम पूरे हो गए, सब वासनाएं तृप्त हो गईं, जो करना था सब कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य हैं। कोई धन के लिए दौड़ रहा कर लिया, अब जीने का कोई कारण नहीं। नहीं, कोई आदमी ऐसा है, कोई पद के लिए दौड़ रहा है, कोई प्रतिष्ठा के लिए दौड़ रहा नहीं मर पाता। कछ न कछ बाकी रहेगा ही। और जैसे-जैसे मौत है। कछ करना है उन्हें। कछ करके दिखाना है. चाहे कोई देखने को करीब आती है, वैसे-वैसे लगता है कि बहुत बाकी रह गया। समय | उत्सुक हो या न हो। चाहे कुछ करने से फल आता हो, न आता कम और करने को ज्यादा; और करने की क्षमता रोज क्षीण होती | हो। सिकंदर और नेपोलियन सब कर-करके मर जाते हैं, कुछ चली जाती है। परिणाम आता नहीं। लेकिन कुछ करके दिखाना है! तमोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त बेहोश हो जाता है। | यह जो करने की वृत्ति पैदा होती है, इसके लक्षण मां के पेट में रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त भी मन में क्रियाएं जारी बच्चा होता है, तब भी दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। वह जो रखता है। सत्वगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त शांत | रजोगुणी बच्चा है, वह मां के पेट में भी हलन-चलन ज्यादा मचाता जागरूकता में मरता है, होशपूर्वक मरता है। इन तीनों के परिणाम है। इसलिए मां जान जाती है कि पेट में लड़की है या लड़का। अगर होंगे आने वाले जीवन पर। | लड़का है, तो थोड़ा उपद्रव ज्यादा करता है। क्योंकि पुरुष ज्यादा जो सत्वगुण की स्थिति में मृत्यु को उपलब्ध होगा, कृष्ण कहते | | रजोगुण-प्रधान है। स्त्री ज्यादा तमोगुण-प्रधान है। इसलिए लड़की हैं, वह दिव्य स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश कर जाता है। होती है, तो वह शांत पड़ी रहती है। लड़का होता है, तो वहां थोड़ी 78 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति * कुछ क्रांति खड़ी करता है। उसमें भी अगर राजनीतिज्ञ होने वाला उपद्रव करने की वृत्ति थी। कोई उस पर ध्यान न दे, तो बहुत अड़चन हो...! हो जाती थी। घर में कोई मेहमान आ जाए, तो वह जरूर कोई ___ मुल्ला नसरुद्दीन का लड़का था। तो वह उसके संबंध में सोचता उपद्रव खड़ा कर देता था। मां-बाप परेशान थे। क्योंकि घर में कोई था कि यह क्या बने, क्या न बने! तो उसने एक दिन कुरान रख दी, न हो, तो वह ठीक रहता। लेकिन मेहमान आए, कि वह कुछ पास में एक सौ का नोट रख दिया, और एक तलवार रख दी। | उपद्रव खड़ा कर देगा। क्योंकि मेहमानों का ध्यान किसी और पर सोचा, तलवार उठा लेगा अंदर जाकर कमरे में, तो समझेंगे कि | नहीं होना चाहिए, उस पर ही होना चाहिए। योद्धा बनेगा। कुरान उठा लेगा, तो समझेंगे कि धर्मगुरु, पुरोहित, एक बार तो वह चर्च पर चढ़ गया। और जहां चर्च का त्रिशूल साधु, फकीर, धर्म की यात्रा पर जाएगा। सौ का नोट उठा लेगा, | लगा था ऊपर, उससे जाकर अटक गया। सारा गांव इकट्ठा हो तो समझेंगे कि धन, व्यवसाय, नौकरी, पेशा, कहीं धन कमाएगा। गया। और लोग चिल्ला रहे हैं कि तू उतर आ वापस। किसी दूसरे छिपकर देखता रहा। लड़का अंदर गया। वह नसरुद्दीन का ही की चढ़ने की हिम्मत भी नहीं उस चर्च की मीनार पर। और वह वहां लड़का था। उसने कुरान उठाकर बगल में दबाई; सौ का नोट खीसे प्रसन्नता से खड़ा है। में रखा; तलवार लेकर चल पड़ा। नसरुद्दीन ने कहा, यह | | जब उसके बाप ने उससे पूछा कि तू चाहता क्या था वहां राजनीतिज्ञ बनेगा! उसने कुछ छोड़ा ही नहीं। तीनों चीजें ले गया। चढ़कर? उसने कहा, क्या चाहता था? पूरा गांव देख ले! वह जो रजोगुण से भरा हुआ व्यक्तित्व है...। वह इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बना। जीन पियागे ने बहुत अध्ययन किया है छोटे बच्चों का चालीस लार्ड क्लाइव को हिंदुस्तान भेजा गया था। और कुल कारण वर्षों तक निरंतर। उसका कहना है, पहले दिन से भी लक्षण अलंग | इतना था कि मां-बाप परेशान हो गए। उसके उपद्रव से पूरा गांव हो जाते हैं। वह जो तमोगुण-प्रधान बच्चा है, वह पड़ा रहता है। परेशान हो गया। एक बार बाप एक साइकिल खरीद लाया क्लाइव मां के पेट से जन्म के बाद भी वह तेईस घंटे, बाईस घंटे सोता है। के लिए। उसकी मां ने कहा, यह किस लिए लाए हो? क्या इससे वह जो रजोगण-प्रधान है. वह हाथ-पैर चलाने लगता है. चीजों इसके उपद्रव कम हो जाएंगे। उसके बाप ने कहा. उपद्रव कम नहीं को पकड़ने की कोशिश शुरू कर देता है, चीखता-चिल्लाता है। | होंगे; क्षेत्र थोड़ा बड़ा हो जाएगा। यहीं-यहीं मोहल्ले में परेशान वह खबर देता है कि मैं हूं। मेरी तरफ ध्यान दो। उसके | | किए दे रहा है। क्षेत्र जरा बड़ा हो जाएगा। साइकिल हाथ में रहेगी, चीखने-चिल्लाने का मतलब है कि क्या, मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं | | तो पूरे गांव को परेशान करेगा। तो थोड़ी मात्रा कम हो जाएगी। बड़ा दे रहा? ध्यान दो, मैं भी यहां हूं! क्षेत्र होगा, उपद्रव बंट जाएगा। हम परेशान हो गए। अब कोई और वह जो सत्वगुण-प्रधान है, अक्सर उसकी आंखें खुल जाएंगी | उपाय नहीं। और एकटक एक तरफ देखता रहेगा। उसने ध्यान के कुछ प्रयोग गांव में जोर की वर्षा हुई; पानी भर गया नालियों में। तो क्लाइव पिछले जन्मों में साधे होंगे। तो उसकी आंखें अक्सर एकटक, एक के घर में और मोहल्ले में सबसे ज्यादा पानी था। और घर में पानी जगह उलझ जाएंगी। चीजों में उसका उतना रस नहीं होगा। इधर से | | भरने लगा। सब हैरान हुए कि क्लाइव कहां है! उधर, यह देखना, वह देखना नहीं; यह पकड़ना, वह पकड़ना __ वह नाली में लेटा हुआ था पानी रोके हुए, ताकि वह घर में भर नहीं। शरीर उसका शांत होगा और आंखें थिर होंगी। उसकी आंखों | जाए पानी! उसको निकालकर उसके बाप ने फौरन मिलिट्री में भेज की थिरता कहेगी कि भीतर एक सात्विकता है। दिया। उसने कहा कि इसको यहां रोकना ठीक ही नहीं। यह जब मरते वक्त हम अपना अगला जन्म निश्चित कर रहे हैं। जो गुण | | तक मरेगा-मारेगा नहीं...यह तो उपद्रव है! सघन हो जाता है, वही हमें अगले जन्म की यात्रा पर भेद पैदा | वह आदमी, लार्ड क्लाइव, हिंदुस्तान में अंग्रेजों का राज्य जमाने करता है। | में बड़े से बड़ा आधार सिद्ध हुआ। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति | | रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति कुछ विक्षिप्त कर्मों में दौड़ना चाहता वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। | है। अहंकार प्रकट होकर दिखाई पड़े; अहंकार सूरज की तरह जले आपने नाम सुना डिजरायली का। छोटा बच्चा था, तो कुछ भी और हजारों लोग देखें; बस, वही उसकी कामना होती है। 79 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * और तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनि में उत्पन्न | | जो सत्व-प्रधान हैं, वे भी पांच प्रतिशत होते हैं। यह बड़ी होता है। | आश्चर्यजनक बात है। मनोविज्ञान के आधार पर पांच प्रतिशत मूढ़ योनि की बड़ी गलत परिभाषाएं हुई हैं। अनेक गीता के लोग टैलेंटेड होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं। वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, व्याख्याकारों ने मूढ़ योनि का अर्थ लिया है कि वह पशुओं में | दार्शनिक हैं, संत हैं। पांच प्रतिशत लोग एक छोर पर प्रतिभासंपन्न चला जाता है। वह गलत है। क्योंकि लौटकर नीचे गिरने का कोई | होते हैं। और ठीक पांच प्रतिशत लोग दूसरे छोर पर मूढ़ होते हैं। उपाय जगत में नहीं है। कोई मनुष्य की स्थिति में एक बार आ बाकी नब्बे प्रतिशत लोग बीच में होते हैं। ये मध्यवृत्तीय लोग हैं, जाए, तो वापस पशु नहीं हो सकता। क्योंकि वापस पशु होने का मध्यवर्गीय लोग हैं। तो मतलब यह हुआ कि मनुष्यता तक पहुंचने की जो कमाई थी, ये जो मध्यवर्गीय लोग हैं, इनमें मूढ़ता भी सम्मिलित है, उसका क्या होगा। बद्धिमत्ता भी सम्मिलित है। ये दोनों का मिश्रण हैं। चेतना कभी पीछे नहीं लौटती। रुक सकती है। आगे न जाए, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्थिति करीब-करीब ऐसी है, जैसा यह हो सकता है। अवरुद्ध हो जाए, लेकिन पीछे नहीं लौट सकती। | शिव का डमरू होता है, उसको हम उलटा कर लें। शिव का डमरू एक बच्चा अगर दूसरी कक्षा में आ गया, तो उसको पहली कक्षा बीच में तो पतला होता है, दोनों तरफ बड़ा होता है। बीच में संकरा में वापस भेजने का कोई उपाय नहीं। वह दूसरी में पचास साल | | हो जाता है। इसको हम उलटा कर लें। दोनों तरफ संकरा और बीच रुके, तो रुक सकता है, कोई हर्जा नहीं। लेकिन उसको पहली में | में चौड़ा। तो दोनों तरफ संकरे छोरों पर पांच-पांच प्रतिशत लोग हैं। वापस करने की कोई व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वह पहली पार कर | | वे जो पांच प्रतिशत लोग हैं, वे सत्व के कारण इस जगत में ही चुका। और जो हम जान चुके, उसे न-जाना नहीं किया जा प्रतिभा से भरे हुए पैदा होते हैं। प्रतिभासंपन्न होना ही स्वर्ग में होना सकता। जो हम कर चके, उस अनकिया नहीं किया जा सकता। है। प्रतिभा सख है। सख की सक्ष्म अनभति। और पांच प्रतिशत इसलिए मेरी दृष्टि में जिन-जिन व्याख्याओं में कहा गया है कि | लोग मूढ़ होते हैं, जिनको कुछ भी होश नहीं, जिनको खाने-पीने तमस से भरा हुआ व्यक्ति पशुओं की योनि में चला जाता है, ये | का भी होश नहीं, जिनको उठने-बैठने का भी पता नहीं। बाकी लोग व्याख्याएं गलत हैं। और जिन्होंने की हैं, वे केवल शब्दों के आधार बीच में हैं, नब्बे प्रतिशत लोग। पर व्याख्याएं कर रहे हैं। ठीक मध्य में बड़े से बड़ा वर्ग है। करीब पचास प्रतिशत लोग मूढ़ योनि का मतलब है कि मनुष्यों में ही, जैसे कर्म से भरे हुए | ठीक मध्य में हैं। ये पचास प्रतिशत लोग दोनों तरफ यात्रा कर लोग हैं, सत्व से भरे हुए लोग हैं, वैसे ही तमस से भरे हुए मूढ़ सकते हैं। चाहें तो कभी भी मूढ़ हो सकते हैं, और चाहें तो कभी लोग हैं। भी प्रतिभा अर्जित कर सकते हैं। और यह निर्धारण मरने के क्षण में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चे मूढ़ योनि में हैं, | हो जाता है कि आप कैसे मर रहे हैं। तम से भरे हुए मर रहे हैं, रज जिनको हम ईडियट कहें, इम्बेसाइल कहें। पांच प्रतिशत बच्चे। न | से भरे हुए मर रहे हैं, सत्व से भरे हुए मर रहे हैं। बीच के जो लोग कोई बुद्धि है, न कुछ करने का भाव है। अपने जीवन की रक्षा तक | हैं, ये रजो-प्रधान हैं। तमो-प्रधान एक छोर पर हैं। सत्व-प्रधान की सामर्थ्य नहीं है। जो मूढ़ बच्चा है, घर में आग लग जाए, तो | दूसरे छोर पर हैं। भागकर बाहर नहीं जाएगा। उसको यह भी पता नहीं है कि मुझे | ___ इस पूरी व्यवस्था को बदलने का एक ही उपाय है कि आप अपने अपने को बचाना है। इतना भी कर्म पैदा नहीं होता। यह योनि मूढ़ | | भीतर गुणों की तारतम्यता को बदल लें। और यह कोई मरते क्षण योनि है। जिसको मनोवैज्ञानिक ईडियोसि कहते हैं, उसको ही कृष्ण | के लिए मत रुके रहें कि मरते वक्त एकदम से सत्व-प्रधान हो ने मूढ़ कहा है। | जाएंगे। कोई कभी नहीं हो सकता। मढ़ का मतलब पश नहीं है। अगर पश ही कहना होता. तो पश मरते वक्त कछ किया नहीं जा सकता। आपने जो जीवनभर में ही कह दिया होता, मूढ़ कहने की कोई जरूरत न थी। पशु मूढ़ नहीं | | किया है, उसको ही इकट्ठा किया जा सकता है। जो कमाया है, होते, सिर्फ मनुष्य ही मूढ़ हो सकता है। पशु मूर्ख नहीं होते, सिर्फ | वही। और आपके हाथ में फिर बदलाहट नहीं है। क्योंकि जीवन मनुष्य ही मूर्ख हो सकता है। क्षीण हो रहा है, आप कुछ कर नहीं सकते। 80 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति अनेक लोग सोचते हैं, मरते वक्त राम का नाम ले लेंगे। जिन्होंने जीवनभर नहीं लिया राम का नाम, मरते वक्त उनके गले से वह शब्द न उठेगा। उनके होंठ सूख जाएंगे। उनके हृदय में कहीं छाया भी राम की न मिलेगी। उस वक्त तो वही शब्द उठेगा, जो उन्होंने जिंदगीभर सोचा है । कोई धन सोच रहा था, तो धन उठ सकता है। नोट दिखाई पड़ सकते हैं । तिजोरियां दिखाई पड़ सकती हैं। राम नहीं दिखाई पड़ेंगे। वही जीवन के अंत में प्रकट होता है, जिसे हमने जीवनभर सम्हाला, बुलाया, निमंत्रण दिया है। इसलिए कल की प्रतीक्षा मत करें। और मृत्यु की राह मत देखें। जीवन ही जगह है, जहां हम अपनी मृत्यु को भी कमाते हैं। ध्यान रहे, मृत्यु कमाई जाती है, मुफ्त नहीं मिलती। जितना आप कमाते हैं, वैसी मृत्यु हो जाती है। और जैसी मृत्यु, फिर वैसा नया जन्म हो जाता है। मृत्यु बड़ी सार्थक घटना है। क्योंकि नया जन्म उस पर निर्भर होगा। वह बीज है। नया जन्म, उससे वृक्ष बनेगा । जीवन को सत्व की तरफ ले चलें, तो आप स्वर्ग की तरफ अनिवार्य रूप से चलते जा रहे हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप कहां हैं, यह सवाल नहीं है, कि कहीं आकाश में स्वर्ग है, वहां आप हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप जहां भी हों, सत्व से भरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में है। आज इतना ही। 81 Page #110 --------------------------------------------------------------------------  Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 छठवां प्रवचन रूपांतरण का सूत्र: साक्षी-भाव Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् । रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ।। १६ ।। सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।। १७ ।। ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।। १८ ।। सात्विक कर्म का तो सात्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। तथा सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसंदेह लोभ उत्पन्न होता है, तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। इसलिए सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं। और रजोगुण : स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोकों में ही रहते हैं, एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्न: आपने कल बताया कि लाओत्से तमस से, जीसस रजस से तथा महावीर सत्व से सीधे गुणातीत अवस्था में छलांग लगा गए। सत्व से गुणातीत में जाना समझ में आता है, लेकिन तमस और रजस से गुणातीत अवस्था में जाना किस प्रकार संभव है, यह समझ में नहीं आता ! है । बीमारियां अलग-अलग हैं, पर तीनों बीमारियां हैं और तीनों बांधती हैं। सत्वगुण से समझ में आता है, क्योंकि हम सोचते हैं, सत्वगुण बांधता नहीं। सत्वगुण भी बांधता है। और अगर बंधने की वृत्ति हो, | तो सत्वगुण से बाहर जाना उतना ही कठिन है, जितना तमोगुण से बाहर जाना। और कभी-कभी तो ऐसा हो सकता है कि ज्यादा | कठिन हो । क्योंकि सत्वगुण में एक सुख है, जो तमोगुण में नहीं है। हर गुण के फायदे हैं और हानियां हैं। तमोगुण की हानि यह है कि आप आलस्य से भरे हैं; बाहर जाने की वृत्ति पैदा नहीं होती। | लेकिन तमोगुण का एक फायदा है कि वहां सिवाय दुख और अंधकार के कुछ भी नहीं है। इसलिए बाहर जाने की प्रेरणा पैदा हो सकती है। गु णातीत अवस्था का अर्थ है, गुणों के बाहर हो जाना । जैसे स्वस्थ होने का अर्थ है, बीमारी के बाहर हो जाना। फिर बीमारी कौन-सी थी, यह सवाल नहीं है। कोई व्यक्ति टी. बी. से बीमार हो, तो टी.बी. के बाहर होकर स्वस्थ हो जाएगा। कोई व्यक्ति मलेरिया से बीमार हो, तो मलेरिया के बाहर होकर स्वस्थ हो जाएगा। सभी बीमारियां बाधा डालती हैं। स्वस्थ होने में। सभी बीमारियों के बाहर जाने में श्रम करना होगा। सत्व भी बीमारी है। रजोगुण भी बीमारी है । तमोगुण भी बीमारी | 84 रजोगुण का एक लाभ है कि बड़ी ऊर्जा है और सक्रिय होने की वृत्ति है। इसलिए बाहर जाने में इस वृत्ति का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन एक नुकसान है, कि रजोगुणी व्यक्ति इतना व्यस्त रहता है कर्मों में कि उसे स्वयं का बोध ही नहीं आता। वह कर्मों में खो गया होता है। उसे स्व की कोई प्रतीति नहीं रहती। वह | करीब-करीब कर्मों में बेहोश होता है। सत्वगुण का लाभ है कि वह हलके से हलका गुण है। उसका वजन न के बराबर है। कोई उसे हटाना चाहे, तो जरा भी बाधा नहीं | है । सत्वगुण रोकेगा नहीं; हलका है; बिलकुल वजनशून्य है; भारहीन है। लेकिन खतरा है। और खतरा यह है कि सत्वगुण सुख | से भरा है। सुख को कोई भी छोड़ना नहीं चाहता है। अगर मेरी बात समझ में आ जाए, तो तीनों गुणों के लाभ हैं और तीनों की हानियां हैं। तो ऐसा नहीं है कि कोई एक गुण ज्यादा लाभ का है गुणातीत जाने में या कोई गुण ज्यादा बाधक है। हर गुण के दोनों पहलू हैं, निगेटिव और पाजिटिव । उसका विधायक रूप भी है, उसका नकारात्मक रूप भी है। लाओत्से जैसा व्यक्ति तामसिक गुण के विधायक रूप का उपयोग करके पार हो गया। बट्रेंड रसेल जैसा व्यक्ति सत्वगुण के नकारात्मक रूप से उलझकर पार होने से रुक गया। जीसस जैसा रजोगुणी व्यक्ति अपने कर्म को सेवा बनाकर परम अनुभव को उपलब्ध हुआ, गुणातीत हो गया। लेकिन वही गुण नेपोलियन में भी है, वही गुण लेनिन में भी है; पर वे उसके नकारात्मक रूप का उपयोग कर रहे हैं और एक राजनीतिक उपद्रव में खो जाते हैं। | Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * मेरी दृष्टि ठीक से खयाल में आ जाए, तो साफ है। विधायक | से चलना शुरू होगा। का उपयोग कर लें, तो किसी भी गुण से बाहर हो जाएंगे। और तो आप क्या हैं, इसका निष्पक्ष, स्पष्ट, पक्षपातरहित, उपयोग किया, तो किसी भी गण से बंध जाएंगे। अहंकारमक्त विश्लेषण चाहिए। आप गरुओं के पास भी जाते हैं, और दोनों हर गुण के साथ हैं। लेकिन उनसे भी आप निष्पक्ष वक्तव्य लेने नहीं जाते। उनसे भी दुनिया में बहुत कम पंडित परम स्थिति को उपलब्ध होते हैं; | आप गवाही लेने जाते हैं। अगर गुरु आपसे कहे कि तुम तामसी शायद नहीं ही होते। सत्वगुण बांध लेता है। ज्ञानी होने का दंभ बांध | हो, तो आप दुखी लौटेंगे। इस गुरु का आप पीछा ही छोड़ देंगे। लेता है। वे सत्वगुण के नकारात्मक रूप का उपयोग कर रहे हैं। आप जाकर कहेंगे, यह गुरु गलत है। कर्मठ व्यक्ति अक्सर उपद्रव में उलझ जाते हैं। और निष्क्रिय, आलसी | इधर में देखता है, एक युवती ने आज ही मुझे आकर कहा। व्यक्ति तो कुछ करता ही नहीं है; आलस्य में ही खो जाता है। जिसमें किसी तरह की संभावना नहीं है उस बात की। वह एक बड़े आप कहीं भी हों, निराशा का कोई कारण नहीं है। अगर आप | गुरु के पास गई थी और गुरु ने कहा कि वह युवती पश्चिम से जहां हैं, उस जगह से विधायक सूत्र को खोज लें। आई है—उसे कहा कि शीघ्र ही तू स्वयं भी एक बहुत बड़ी गुरु हो फिर बाहर होने का कुल मतलब इतना है कि आपका तादात्म्य जाने वाली है। पश्चिम में जाकर तेरे जीवन से अनेक लोगों को लाभ व्यक्तित्व से टूट जाए। मैं यह शरीर हूं, यह भाव टूट जाए। मैं यह | होगा। युवती बड़ी प्रसन्न लौटी। अहंकार को बड़ी गहरी तृप्ति मिली। मन हूं, यह भाव टूट जाए। क्योंकि शरीर और मन तक ही गुणों का | उस युवती में ऐसी कोई संभावना नहीं है। इस जन्म में तो कोई प्रभाव है। शरीर और मन के पीछे जो छिपा है, उस पर गुणों की | संभावना नहीं है। और इस कहने की वजह से अगर कोई छिपी कोई सत्ता नहीं है। वह गुणातीत अभी भी है। इस क्षण भी आप | संभावना कभी प्रकट भी हो सकती थी, तो वह भी समाप्त हो गुणातीत हैं, पूर्ण निष्पाप। लेकिन जिस शरीर और मन को आपने | जाएगी। लेकिन वह खुश होकर लौटी। और उस व्यक्ति को गुरु पकड़ा है, वह गुणों से भरा है। मानकर लौटी। ऐसा समझें कि कोई आदमी तो बिलकुल पवित्र है, लेकिन गंदे ___ अब यह सारा जाल है। जाल ऐसा है कि गुरु भी शिष्य को तभी वस्त्र पहने हुए है। उससे जो दुर्गंध आ रही है, वह उसकी नहीं है, | फांस पाता है, जब वह उसके अहंकार को प्रसन्न करे। क्योंकि आप उसके वस्त्रों की है। चोट नहीं चाहते; आप प्रशस्ति लेने जाते हैं। तो जिनको कुछ भी आपका जो व्यक्तित्व है, वही गुणों के प्रभाव में है। और तीन नहीं है, वे भी प्रशस्ति पाकर प्रसन्न होते हैं। तरह के व्यक्तित्व हैं मौलिक, मूल रूप से, जिनको कृष्ण वर्णन कर ___ अब वह पागल होकर लौटी। जिस व्यक्ति ने उसको कहा है, रहे हैं, तामसिक, राजसिक, सात्विक। पूरब का मनोविज्ञान बड़ा | वह भी गुरु के योग्य नहीं है। क्योंकि यह बात झूठ है और गलत . गहरा है और उसने व्यक्तित्व की आखिरी जड़ पकड़ ली है। ये तीन | है। और अगर इस युवती को वहम सवार हो जाए गुरु होने का, तो तरह के व्यक्ति हैं। फिर और लोग भी अगर थोड़े-बहुत भेद से हों, यह भारी नुकसान करेगी। तो वे इन तीन के ही जोड़-घटाने हैं। बाकी ये तीन मूल स्वर हैं। दुनिया में गलत गुरु जितना नुकसान करते हैं, उतने अपराधी भी आप जहां भी हों, और उचित होगा कि ईमानदारी से पहचान लें नुकसान नहीं करते। क्योंकि अपराधी क्या छीन सकता है आपसे? कि कहां हैं। क्योंकि मन बड़े धोखे देता है। और उसका गहरे से | धन छीन लेगा; प्राण छीन सकता है ज्यादा से ज्यादा! लेकिन प्राण गहरा धोखा यह है कि वह आपको यह बताए, जो आप नहीं हैं। | मिटते नहीं, और धन का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन गलत गुरु आप क्योंकि फिर आप कुछ भी करें, उसके परिणाम नहीं होंगे। | से उस अवसर को छीन लेगा, जो सब कुछ है। और उसे पता भी तामसी से तामसी व्यक्ति भी सोचेगा कि मैं सात्विक हूं, तब | नहीं है कि वह आपसे कुछ छीन रहा है। और छीनने की सबसे ज्यादा यात्रा मश्किल है। क्योंकि सात्विक वह है नहीं और सात्विकता की सविधापूर्ण व्यवस्था यह है कि आपके अहंकार को कोई तप्त करे। जो उसकी धारणा है, वह उसे ऐसी साधना पद्धतियां पकड़ा देगी, | | गुरजिएफ जैसे गुरु के पास अगर जाएंगे, तो वह जो आपके जो उसके काम की नहीं हैं। उसे जानना जरूरी है कि वह तामसिक || | भीतर साफ-साफ है, उसकी ही बात करेगा। गुरजिएफ अपने है, क्योंकि उसकी यात्रा वहीं से शुरू होगी जहां वह खड़ा है। वहीं शिष्यों को पहले तो शराब पिलाता था। और जब तक वह शराब 85 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 पीकर बेहोश न हो जाते, तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता था। क्योंकि उस बेहोशी में ही उनका सच्चा रूप प्रकट होता । जब आप शराब पीकर पूरी तरह बेहोश हो जाते हैं, तब आपका जो निम्नतम आपने छिपा रखा है, वह प्रकट होगा। और गुरजिएफ कहता है कि जब तक मैं तुम्हारे निम्नतम को न देख लूं, तब तक मैं कोई काम शुरू न करूंगा। क्योंकि वहीं से काम शुरू होना है। तुम्हारा श्रेष्ठ तो कल्पना है। तुम्हारा निकृष्ट तुम्हारा यथार्थ है । आपका मन भी धोखा देगा। जो आप नहीं हैं, आपका मन सदा कहेगा, आप यही हैं। इस धोखे से सावधान होना जरूरी है। क्या करें? सबसे पहले तो इस बात की खोज करें कि तामसी तो नहीं हैं। सब तरह से पहले तो सिद्ध करने की कोशिश करें कि तामसी हैं अपने को। सब उपाय खोजें, सब तर्क खोजें, जिनसे सिद्ध होता हो कि मैं तामसी हूं। अगर कोई उपाय ही न मिले सिद्ध करने का, तो खयाल छोड़ें। फिर अपने को राजसी सिद्ध करने की कोशिश करें। जब राजसी सिद्ध करने का भी कोई उपाय न मालूम पड़े, कोई तर्क न मिले, तो ही समझें कि आप सात्विक हैं। अन्यथा सात्विक मत समझें । निकृष्ट से शुरू करें। और पहले निकृष्ट को ही सोचें कि मैं हूँ। और अगर मिल जाए सूत्र कि यही मैं हूं, तो आप सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि फिर काम शुरू हो सकता है। गुरजिएफ कहता था, तुम्हारी जो सबसे बड़ी कमजोरी है, वह तुम्हें पहले पकड़ में आ जानी चाहिए। क्योंकि कमजोरी ही तुम्हारा छिद्र है। उसी छिद्र से तुम्हारी जीवन ऊर्जा व्यर्थ हो रही है। एक घड़े को हम पानी भरने के लिए कुएं में डालते हैं। पूरा घड़ा बेमानी है एक छोटे-से छेद के कारण। वह एक छोटा-सा छेद ही रे हुए घड़े को ऊपर तक आते-आते खाली कर देगा। पहले देख लेना जरूरी है कि छेद कहां है। छेद को रोक दें, ही घड़ा सार्थक है। तुम्हारी मौलिक कमजोरी से मुक्ति हो जाए, तो ही तुम कुछ भर पाओगे; परमात्मा तुम में भर पाएगा । अन्यथा तुम्हारे छिद्र सब बहा देंगे। पहला, अपने प्रति सच्चा होना जरूरी है कि मैं कहां हूं। इसमें अति ईमान की जरूरत है; प्रामाणिक होने की जरूरत है। क्योंकि किसी और को धोखा नहीं दे रहे हैं। कोई और धोखे में आने वाला नहीं है। आप ही धोखे में पड़ेंगे और भटक जाएंगे। और ध्यान रखें कि तमस में होना कुछ बुरा नहीं है। क्योंकि तमस भी लोग मुक्त हुए हैं। कोई सात्विक होना ही श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि सत्व में भी पड़े हुए सैकड़ों लोग संसार में भटक रहे हैं। कहां हैं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन शास्त्रों ने और न जानने वाले शास्त्रों की टीका करने वाले लोगों ने लोगों को ऐसा समझा दिया है कि सात्विक 'होना अपने आप में कुछ खूबी की बात है और तामसिक होना बुरी बात है। तो तामसिक तो हम गाली की तरह उपयोग करते हैं। किसी की निंदा करनी हो, तो हम कहते हैं, तामसी । तो जब मैंने कल आपको | कहा कि लाओत्से तामसिक था, तो आपको भीतर बड़ी बेचैनी हुई होगी। क्योंकि आप मान ही नहीं सकते कि कोई संत तमस के साथ संत हो गया हो ! कोई ऐसा कहेगा भी नहीं। लाओत्से के मानने वाले मुझसे नाराज हो जाएंगे। मैंने कहा कि जीसस रजोगुणी हैं। | इससे ईसाई को कष्ट हो सकता है। लेकिन मैं कोई तुलना नहीं कर रहा हूं। और न मैं यह कह रहा हूं कि इनमें कोई जीसस, लाओत्से या कृष्ण कोई छोटे-बड़े हैं। मैं | सिर्फ यथार्थ तथ्य की बात कर रहा हूं। और अगर तथ्य की ही बात करनी हो, तो जो तमस से मुक्त हुआ है, वही अदभुत है। जो सत्व से मुक्त हुआ है, उसमें कोई बहुत विशेष अदभुतता नहीं है। गहन अंधकार से जो प्रकाश में सीधी छलांग लगा गया है, उसका मूल्य बहुत है। तो आप भयभीत न हों, और न किसी तरह की निंदा लें। सिर्फ तथ्यों पर ध्यान रखें। हम मूल्यांकन करने लगते हैं, उससे कठिनाई शुरू हो जाती है। अगर चित्त सात्विक है, तो साधना अलग होगी। अगर चित्त तामसिक है, तो साधना अलग होगी । अगर चित्त राजस है, तो साधना अलग होगी। इसे थोड़ा खयाल में ले लें। क्या फर्क पड़ेगा ? अगर चित्त तामसिक है, तो तपश्चर्या आपके लिए नहीं है । तपश्चर्या फिर भ्रांति होगी। सारी दुनिया प्रशंसा कर रही हो तप की, | लेकिन तप आपके लिए नहीं है। और अगर आप तपश्चर्या में पड़े, तो आप भटक जाएंगे। आप सिर्फ कष्ट पाएंगे। आप सिर्फ परेशान होंगे; अपने को दुख देंगे। और आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे कि मुझे वह घटना क्यों नहीं घट रही है, जो तपश्चर्या करने वालों को घट रही है ! क्योंकि तपश्चर्या करने वाला कहता है, उसे महाआनंद मिला। और आपको नहीं मिल रहा है। आपको नहीं मिलेगा । क्योंकि आलस्य से भरा हुआ अगर व्यक्तित्व हो, तो तपश्चर्या इतनी विपरीत है कि उससे सिर्फ कष्ट मिलेगा। सिर्फ राजस व्यक्ति को तपश्चर्या योग्य होगी। उसे तपश्चर्या ही 86 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * योग्य होगी, क्योंकि तप उसे क्रिया का मौका देगा। सात्विक व्यक्ति व्यक्तित्व के ऊपर निर्भर है। को भी तपश्चर्या अर्थ की नहीं है। उसे भी कठिनाई होगी। न तो | | तमस से भरे हुए व्यक्ति को व्यर्थ के दौड़-धूप में नहीं पड़ना लाओत्से तपश्चर्या कर सकता है और न बुद्ध। | चाहिए। उसे पहले तो अपने तमस को स्वीकार कर लेना चाहिए बुद्ध ने छः वर्ष तक तपश्चर्या की और दुख पाया। यह बड़ी | कि यह मेरा भाग्य इस जन्म में। अनंत जन्मों में मैंने इसे कमाया। अनूठी घटना है। और इसे समझाना आज तक नहीं हुआ कि यह | यह मेरा है। इसका मुझे उपयोग करना है। इससे लड़ना नहीं है। कैसे हुआ! क्योंकि बुद्ध छः वर्ष तक कठोर तपश्चर्या किए और | जो भी आपके पास है, ध्यान रखें, उसका उपयोग करना है, दुख पाए। और उन्हें कोई सत्य नहीं मिला। न कोई निर्वाण मिला; | उससे लड़ना नहीं है। क्योंकि उससे लड़कर आप टूटेंगे और नष्ट न कोई शांति मिली; न कोई आनंद मिला। और छः वर्ष के दुखद | होंगे। उसका उपयोग करें; उसका सेतु बनाएं, मार्ग बनाएं। अनुभव के बाद बुद्ध ने सब तप छोड़ दिया। और जिस दिन उन्होंने ___ अगर आलस्य आपके पास है, तो आलस्य ही मार्ग बन सकता सब तप छोड़ा, उसी दिन उन्हें परम ज्ञान की उपलब्धि हुई। है। तब निष्क्रियता आपकी साधना होगी। तब आप आलस्य को ही बुद्ध सात्विक व्यक्ति हैं, राजस नहीं हैं। तो क्रिया, तप, साधना बना लें। तब आप सिर्फ आलस्य में पड़े ही मत रहें, उपवास उनके लिए सिवाय कष्ट के और कुछ भी न लाए। शरीर आलस्य बाहर घेरे रहे, और भीतर आप आलस्य के प्रति जागे रहें। दीन हुआ, क्षीण हुआ, आत्मा सबल न हुई। स्नान करते वक्त आलस्य को देखें और साक्षी हो जाएं। निरंजना नदी से निकलते थे, तो इतनी भी ताकत नहीं थी उस दिन __ पड़े-पड़े भी, बिस्तर पर पड़े-पड़े भी मोक्ष तक पहुंचा जा सकता कि बाहर निकल आएं। | है। लेकिन तब आलस्य को साधना बना लेना जरूरी है। और तब तब उन्हें खयाल आया कि मैं यह तप कर-करके सिर्फ दुर्बल | आलस्य के प्रति सजग हो जाना जरूरी है। भीतर साक्षी जग जाना और दीन हो रहा हूं। और इस साधारण-सी नदी को पार नहीं कर | चाहिए। पा रहा हूं; बाहर निकलना मुश्किल मालूम पड़ रहा है। एक वृक्ष साक्षी के लिए न तो कर्म की जरूरत है, न अकर्म की; जो भी की जड़ को पकड़कर लटके हुए हैं। इतनी ताकत नहीं शरीर में कि हो रहा है, उसके प्रति साक्षी होने की जरूरत है, विटनेसिंग की किनारे के ऊपर आ जाएं। तो बद्ध को उस क्षण में लगा कि यह जरूरत है। तो आप अगर आलसी हैं, तो आलस्य के प्रति सजग भवसागर है इतना बड़ा, इसको मैं कैसे पार कर पाऊंगा, यह | हों, उसे देखें। निरंजना जैसी छोटी नदी पार नहीं होती! __ और ऐसा जरूरी नहीं है कि आप अगर तमस से आज भरे हैं, उसी दिन उनके लिए तप व्यर्थ हो गया। उस रात वे बिलकुल सब | तो कल भी तमस से ही भरे रहेंगे। ऐसा कुछ जरूरी नहीं है। क्योंकि छोड़कर सोए। राज्य तो पहले छोड़ चुके थे, यह साधना भी छोड़ | | प्रतिपल चीजें बदल रही हैं। और प्रतिपल आपके भीतर के तमस, दी। उस रात उनके मन में कोई भी उपद्रव नहीं था। न राज्य था, न | | रजस और सत्व की मात्रा बदल रही है। मोक्ष था; न धन की खोज थी, न धर्म की खोज थी। उस दिन कोई | बचपन में जो व्यक्ति तामसिक हो, जरूर नहीं कि जवानी में भी खोज ही न थी। वे बिना खोज के रात सो गए। सुबह जब उनकी तामसिक रह जाए। हो सकता है, राजसी हो जाए; क्योंकि सब आंख खुली, उन्होंने पाया, जो भी मिलना था, | हार्मोन बदल रहे हैं। शरीर एक सतत प्रवाह है। शरीर के सारे जो सत्व-प्रधान है, उसके लिए क्रिया बहुत लाभ की नहीं है। | केमिकल्स बदल रहे हैं; रासायनिक व्यवस्था बदल रही है। जवान उसे कोई जरूरत नहीं है। वह सिर्फ मौन हो जाए; वह सिर्फ शांत होते-होते दूसरी स्थिति हो सकती है। बूढ़ा होते-होते फिर तीसरी हो जाए। वह सब भांति भीतर सब तरह के कोलाहल को हटा दे। स्थिति हो जाएगी। यह प्रतिपल बदलाहट हो रही है। उस शांत क्षण में उसे वह सब मिल जाएगा, जो कि राजस व्यक्ति । आज आप आलसी हैं, तो जरूरी नहीं कि कल भी आलसी अत्यंत कठोर तपश्चर्या करके पाता है। होंगे। और अगर आप आलस्य के प्रति सजग हो गए, तो निश्चित लेकिन अगर राजस व्यक्ति समझे कि मैं सिर्फ बैठ जाऊं, कुछ | | आप में बदलाहट आएगी। वह साक्षी एक नया तत्व है, जो आपके न करूं और सब हो जाएगा जैसा बुद्ध को हुआ, तो वह गलती में प्रत्येक रासायनिक ढंग को भीतर से बदल देगा। आप दूसरे आदमी है। उसे तो गुजरना ही पड़ेगा। | होने लगेंगे। आप धीरे-धीरे पाएंगे कि आलस्य की उतनी जकड़ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 ** नहीं रही आपके ऊपर, जैसी पहले थी। आलस्य अब कोई बोझ नहीं रहा; एक हलका विश्राम हो गया। और अब आप चाहें तो थोड़ा कर्म कर सकते हैं, यद्यपि यह कर्म भी राजसी वाला कर्म नहीं होगा। इसमें भाग-दौड़ नहीं होगी। यह भी शांत होगा। यह नदी बहेगी, लेकिन इसकी गति बहुत शांत होगी; शोरगुल नहीं होगा। यह कोई पहाड़ी नदी नहीं होगी। यह कोई पत्थरों पर आवाज करती हुई नहीं बहेगी। इसमें कर्म भी आएगा, तो धीमी लहर की भांति आएगा, जिससे कोई आवाज नहीं होती। और इसका कर्म भी अत्यंत शांत होगा। लाओत्से को जिन्होंने चलते देखा है, वे देखेंगे कि उसका चलना भी ऐसा है, जैसे वह सोया हो, इतना विश्रांति से भरा हुआ। और राजसी व्यक्ति अगर सोए भी, तो उसकी निद्रा में भी वह सोया हुआ नहीं रहता। वह नींद में भी काफी चहलकदमी करता है। आपने देखा नहीं है लोगों को । रात किसी को सोते हुए अध्ययन करें! सिर्फ बैठ जाएं उसके किनारे और रातभर देखें कि वह क्या कर रहा है। आप बड़े चकित होंगे। क्योंकि कोई किसी को देखता नहीं है। अमेरिका में स्लीप लैब्स बनाए हैं उन्होंने । कोई दस बड़ी प्रयोगशालाएं हैं, जहां हजारों लोगों के ऊपर अध्ययन किया जा रहा है । रातभर अध्ययन किया जाता है कि सोया हुआ आदमी क्या-क्या कर रहा है। यह पहली घटना है मनुष्य जाति के इतिहास में, जब नींद का वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है। तो बड़े चमत्कारी परिणाम हुए। एक तो यह बात पता चली है कि यह हमारा खयाल गलत है कि लोग पड़े रहते हैं। लोग पड़े नहीं रहते; लोग बड़ी क्रियाएं करते हैं। करवटें बदलते हैं; हाथ-पैर चलाते हैं; मुंह बनाते हैं; मुंह बिचकाते हैं; आवाजें करते हैं; आंखें चलाते हैं। सारा काम जारी रहता है। गरदन हिलाते हैं। कुछ लोग बोलते हैं। कुछ लोग अनर्गल बकते हैं। कुछ लोग उठकर चलते भी हैं कमरे में। उनको भी पता नहीं सुबह कि वे रात कमरे में चलते हैं। कुछ लोग घर का चक्कर लगा आते हैं; फ्रिज खोलकर खा भी आते हैं; और उनको पता भी नहीं होता कि रात में उन्होंने यह काम किया है। चोरी की है लोगों ने नींद में, और उनको पता नहीं। लोगों ने हत्याएं तक की हैं नींद में, और उनको पता नहीं। न्यूयार्क में एक आदमी रोज रात अपनी छत से, साठ मंजिल मकान की छत से, दूसरे की छत पर कूद जाता था। वापस कूद आता था। पर यह नींद में ही होता था। नियमित क्रम था। कोई रात | दो बजे ! धीरे-धीरे यह बात मुहल्ले-पड़ोस में पता चल गई। लोग देखने भी खड़े होने लगे। कोई आदमी होश में नहीं कूद सकता। दोनों मकानों के बीच काफी फासला है और खतरा बड़ा है। क्योंकि साठ मंजिल का गड्ड है बीच में। लेकिन एक रात काफी लोग इकट्ठे हो गए। और जब वह आदमी कूदा, तो उन्होंने सिर्फ जोश में आवाज लगा दी। उस आदमी की नींद टूट गई। नींद टूटते ही वह बीच के खड्ड में गिर गया। वह खुद भी पगला गया। जैसे ही नींद टूट गई उसकी, उसकी समझ के बाहर हो गया कि यह क्या हो रहा है ! वह आदमी मर गया। उस आदमी की यह घटना अकेली नहीं है। ऐसे सैकड़ों लोग हैं। मनोविज्ञान उनको एक खास तरह की बीमारी से पीड़ित पाता है, सोम्नाबुलिज्म, निद्रा में क्रिया करने की बीमारी । हत्याएं कर दी हैं लोगों ने; गरदनें दबा दी हैं; और जाकर अपने बिस्तर पर सो गए हैं। सुबह उन्हें कुछ याद नहीं । जैसे आप सपना भूल जाते हैं सुबह, ऐसा | वे उस घटना को भी भूल गए हैं। वह बिलकुल नींद में हुआ है। ये नींद में जो लोग चलते हैं, ये आंख खुली रखते हैं, इसलिए टकराते नहीं हैं। बराबर निकल जाते हैं। सामान रखा हो, तो बचकर निकल जाते हैं। आंख उनकी खुली रहती है। लेकिन एक फर्क होता है। आंख उनकी झपती नहीं जब वे नींद में चल रहे होते हैं। आंख बस खुली रहती है। जैसे मरे हुए आदमी की आंख खुली हो; झपे नहीं। उनकी आंख झपती नहीं है। अंधेरे में काम करके वे अपना वापस अपनी जगह आकर सो जाते हैं। नींद में भी आप भिन्न-भिन्न हैं। एक महावीर हैं, जिनके बाबत | कहा जाता है कि वे रात करवट नहीं बदलते। दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जो साठ मंजिल के मकान से छलांग भी लगाते हैं। 88 रात्रि भी एक बड़ी क्रिया है । और रात्रि कोई छोटी घटना नहीं है। आप साठ साल जीएंगे, तो बीस साल सोते हैं। एक तिहाई जिंदगी नींद में जाती है। रोज नियमित आठ घंटा आप नींद में उतरते हैं, एक दूसरे लोक में प्रवेश करते हैं। वहां भी क्रिया जारी है। रात सोते हुए आदमियों का अध्ययन करके भी कहा जा सकता है कि कौन सात्विक है, कौन राजसिक है, कौन तामसिक है। तामसिक की निद्रा ऐसी होगी, जैसे वह बेहोश पड़ा है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। उसकी निद्रा मूर्च्छा जैसी होगी। जैसे उसे बेहोशी है, कोमा है। तो रात नींद में भी पता चलेगा कि उसके चेहरे पर एक बेहोशी छाई हुई है; सूखापन है; उदास है; सब Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * चीजें सिकुड़ गई हैं; जैसे प्राण कहीं भीतर खो गए हैं और शरीर कि वह बेहोश पड़ा है; और न विक्षिप्त होगी कि वह व्यर्थ के निर्जीव हो गया है। क्रिया-कलाप कर रहा है। उसकी नींद एक गहरा विश्राम होगी, जैसे ऐसा व्यक्ति सुबह जब उठेगा, तो ताजा नहीं होगा; उसमें | | कोई ध्यान में लेटा हो। जैसे जागा भी हो और सोया भी हो। जरा-सी जिंदगी की लहर नहीं होगी। ऐसा व्यक्ति एकदम से नहीं उठ | | खटके की आवाज होगी, तो वह जाग सकता है। लेकिन उसकी नींद सकता। सुबह उठेगा; फिर करवट बदलेगा; फिर सो जाएगा। फिर उथली नहीं है। खटके की आवाज में वह जो आलसी है, वह जाग करवट बदलेगा; फिर सो जाएगा। उसे उठने में कम से कम घंटाभर नहीं सकता। खटका क्या, किसी आवाज में नहीं जाग सकता। लगेगा। नींद में और जागने के बीच वह घंटेभर की यात्रा करेगा। __ मुल्ला नसरुद्दीन से एक दिन सुबह उसकी पत्नी बोली कि रात बार-बार जागेगा और बार-बार सो जाएगा। यह मूर्छा है। यह नींद | बड़ी कठिनाई हो गई। भूकंप आया; बड़ी बिजलियां गरजीं; सारे नहीं है। क्योंकि नींद तो टूट चुकी है, लेकिन मूर्छा टूटने में समय | | गांव में उथल-पुथल मच गई; सैकड़ों मकान गिर गए। नसरुद्दीन लग रहा है। ने कहा, पागल, मुझे क्यों न उठाया! मैं भी देखता। जो आदमी राजसी है. वह रातभर श्रम करेगा: हाथ-पैर वह जो चलाएगा, मुंह चलाएगा, बोलेगा, आवाज करेगा। यह आदमी प्रफल्लता कहें. ताजगी कहें, नयापन कहें. वह उसमें नहीं है। वह रातभर गति में रहेगा। इसकी नींद विक्षिप्त है। मूर्छित नहीं है, | सदा बासा है। उसके मुंह का स्वाद सदा बासा है। वह कभी खिला लेकिन विक्षिप्त है। और सुबह जब यह उठेगा, तो यह उठ आएगा हुआ नहीं है, सदा मुरझाया हुआ है। राजसी व्यक्ति सुबह-सुबह एकदम से, क्योंकि यह राजसी है। वस्तुतः राजसी आदमी बिस्तर | मुरझाया हुआ लगेगा, क्योंकि रातभर व्यर्थ काम में संलग्न रहा है। से उठता नहीं, कूदता है, उठता नहीं। नींद टूटी कि छलांग लगाकर सांझ होते-होते ताजा होने लगेगा। वह बाहर हो जाएगा, जैसे एक झंझट से छूटे। फिर मौका मिला सभ्यताओं में भी इसके अंतर होते हैं। योरोप, पश्चिम की भाग-दौड़ का। तो वह बाहर निकल जाएगा। लेकिन यह आदमी | सभ्यता राजसी है। इसलिए पश्चिमी सभ्यता का जो पूरा उभार है, थका हुआ पाएगा सुबह। वह सांझ के बाद है। पेरिस है, या लंदन है, या न्यूयार्क है; वहां तामसी व्यक्ति मूर्छित पाएगा सुबह। ताजा नहीं हुआ। जिंदगी जो असली जिंदगी है, वह दिन में नहीं है, वह रात में है। जब लोग बोझिल लगेगी। राजसी व्यक्ति सुबह थका हुआ पाएगा, जैसे बड़े | | नाच-घरों में चले गए हैं, शराब पी रहे हैं, जुआ खेल रहे हैं, तब काम करके आ रहा है। असली जिंदगी है। अगर पेरिस देखना है, तो रात देखना। दिन में यह ध्यान रखें कि राजसी व्यक्ति दिनभर के काम के बाद दस पेरिस का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि पेरिस जगता ही रात में है। ग्यारह बजे रात सबसे ज्यादा ताजा अपने को अनुभव करेगा। सोने पश्चिम की सारी सभ्यता रात्रि में सजग होती है। पूरब ने एक के पहले वह सबसे ज्यादा ताजा होगा, क्योंकि दिनभर के काम के व्यवस्था की थी, वह पूरी व्यवस्था ब्रह्ममुहूर्त में जागने वाली थी। बाद उसको बड़ी राहत मिली। | सांझ जल्दी सो जाने वाली, और सुबह जब सूरज उगे, उसके पहले ये जो क्लब चल रहे हैं, नाच-घर चल रहे हैं, वे राजसी लोग | उठ आने वाली थी। वह सात्विक व्यवस्था की चेष्टा थी। चला रहे हैं। वे सब से ज्यादा ताजे होते हैं; उनकी जिंदगी का जो वह जो सात्विक व्यक्ति है, रात बिलकुल शांति से सोता है। न पीक प्वाइंट है, वह रात ग्यारह-बारह बजे आता है। तब वे सबसे | तो विक्षिप्त होता है, न मूर्छित होता है। सूरज के उगने के पहले ज्यादा जिंदा होते हैं। दिनभर के उपद्रव के बाद उन्हें लगता है कि | | या करीब-करीब सूरज के उगते वह उठ आता है। सूरज का उगना, वे प्रसन्न हैं। | उसके भीतर की चेतना का भी जग जाना है। लेकिन राजसी व्यक्ति सुबह हमेशा थका हुआ होगा; रात ताजा | होना भी यही चाहिए। क्योंकि सूरज के साथ सारे पक्षी जागते होगा। तामसी व्यक्ति सदा थका होगा। वे कभी ताजे नहीं हैं। वे हैं। सूरज के साथ सारे पौधे जागते हैं। सूरज के साथ पृथ्वी जागती सदा सोए-सोए हैं। मजबूरी है कि उन्हें उठना पड़ता है। | है। और अगर आप इस पृथ्वी के वास्तविक प्राकृतिक हिस्से हैं, तो सात्विक व्यक्ति जब रात सोएगा, तो उसकी नींद में एक | | सूरज के साथ ही जागना उचित है। सूरज के आते ही आपके भीतर हलकापन और एक प्रकाश होगा। उसकी नींद न तो मूर्छित होगी| भी जीवन सजग हो जाना चाहिए और उतनी ही ताजगी से भर जाना 89 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-73 चाहिए, जितनी ताजगी सुबह की है। यह तो नैसर्गिक क्रम है। | उन्होंने सुबह जल्दी उठाने की चेष्टा की। सच तो यह है कि भारत सात्विक व्यक्ति सुबह सूरज के साथ उठ आएगा। न तो वह में रिवाज यह था कि पुरुष के पहले स्त्री उठ आए। घर का काम आलसी की तरह पड़ा रहेगा और घंटों लगाएगा उठने में, न वह | कर ले। सब साफ-सुथरा कर दे। वह गृहिणी है। इसके पहले कि राजसी की तरह छलांग लगाकर बाहर निकलेगा। वह उठेगा | | पुरुष उठे, वह घर को ताजा स्वच्छ पाए। आहिस्ता से, शांति से, आश्वस्त; उसमें कोई भाग-दौड़ नहीं है। लेकिन पश्चिम की खोजें यह बता रही हैं कि किसी भी स्त्री को पड़े रहने का भी कोई मोह नहीं है। दौड़कर संसार में उतर जाने की सरज उगने के पहले भलकर नहीं उठना चाहिए। पति को पहले भी कोई वृत्ति नहीं है। वह नींद से बाहर आएगा, सरलता से। नींद उठना चाहिए; वह राजसिक है। उसमें ज्यादा क्रिया का जोर है। और जागरण के बीच कोई फासला नहीं है उसे बड़ा, जिसको चाय वगैरह का काम पति को कर लेना चाहिए, फिर पत्नी को छलांग लगानी है या जिसको समय देकर पूरा करना है। उसकी नींद उठना चाहिए। वैसे पति अपने आप धीरे-धीरे उस रास्ते पर जा रहे एक शांत, प्रशांत, गहरी धारा है। हैं बिना किसी खोज के। सात्विक व्यक्ति सुबह सबसे ज्यादा ताजा होगा। रात होते-होते और स्त्रियां अगर जल्दी सुबह उठ आएं, तो दिनभर आलस्य थक जाएगा। जब राजसी क्लब जाने की तैयारी कर रहा होगा, तब | अनुभव करेंगी। पश्चिम की खोज किन्हीं दूसरे कारणों से है, उसकी आंखें झप रही होंगी, तब वह बैठ भी नहीं सकता, तब वह लेकिन सार्थक है। सो जाने के लिए तैयार है। पर यही नैसर्गिक भी है। दिनभर के काम वैज्ञानिक कहते हैं कि चौबीस घंटे में दो घंटे शरीर का तापमान के बाद थक जाना नैसर्गिक है। | नीचे गिर जाता है। वे ही दो घंटे गहरी नींद के घंटे हैं। चौबीस घंटे पर भेद हैं। और आपको अपना गुण देखकर चलना चाहिए कि | में दो घंटे प्रत्येक व्यक्ति के शरीर का तापमान नीचे गिरता है। वे नैसर्गिक क्या है। ही दो घंटे गहरी नींद के घंटे हैं। और हर व्यक्ति का अलग-अलग यह जो नींद के संबंध में निरंतर गहरी खोज हुई हैं, उससे कई | समय गिरता है। पुरुषों का आमतौर से तीन बजे रात और पांच बजे बातें...। जैसा मैंने कल आपको कहा कि स्त्री ज्यादा तमस से भरी | सुबह के बीच गिरता है, आमतौर से। इसलिए तीन और पांच के है, पुरुष ज्यादा राजस से। लेकिन चूंकि भारत जैसे मुल्कों में पुरुषों | बीच पुरुष को गहरी से गहरी नींद का क्षण है। स्त्रियों का आमतौर ने सभ्यता बनाई और मनु जैसे महावेत्ताओं ने बड़ी कोशिश की कि | से छः और आठ के बीच गिरता है। इसलिए छः और आठ के बीच एक सात्विक सभ्यता का जन्म हो जाए। उनके लिए गहरी से गहरी नींद का क्षण है। सारी ब्राह्मण संस्कृति एक बड़ी चेष्टा है, एक महान प्रयोग, कि ___जब आपका तापमान गिरता है, अगर उस समय आप उठ आएं, सारी संस्कृति सात्विक हो जाए। कठिन है। क्योंकि इसमें जो | तो आप दिनभर परेशान होंगे। और इसे तो आप थर्मामीटर लगाकर सात्विक नहीं हैं, वे अड़चन में पड़ेंगे। और उनकी संख्या काफी | जांच भी ले सकते हैं। चौबीस घंटे की रिपोर्ट आप ले सकते हैं बड़ी है। इसलिए यह प्रयोग सफल नहीं हो सका। यह प्रयोग अपनी और आप पा सकते हैं कि किन दो घंटों में आपका तापमान असफल हुआ। महान प्रयोग था। और महान प्रयोग के असफल | गिरता है। वे दो घंटे तो आपको सोना ही है। उन दो घंटों में आप होने की संभावना सदा ज्यादा है। | उठेंगे, तो आप दिनभर बेचैन होंगे। ऐसा लगेगा, कुछ चूक गया; इसलिए हिंदुओं ने बड़ी चेष्टा की पांच हजार साल तक एक बड़े | | कुछ कठिनाई है; कुछ अड़चन है। एक भीतरी कठिनाई का बोध गहरे प्रयोग को व्यवस्था देने के लिए। लेकिन वह असफल हुआ। | दिनभर बना रहेगा। क्योंकि राजसी और तामसी लोगों का बहु-संप्रदाय है। सात्विक | लेकिन हमारे हिसाब से भी, रजस और तमस के विश्लेषण के लोग बहुत थोड़े-से हैं। वे थोड़े-से लोग कितने ही सुख में जी रहे हिसाब से भी स्त्री ज्यादा तामसी है। तामसी का मतलब है कि हों और वे सबको बताएं कि तुम भी इतने ही सुख में पहुंच सकते ज्यादा आलस्य, कम श्रम और ज्यादा विश्राम, वह उसका स्वभाव हो, मगर उनकी बात उन लोगों के किसी काम की नहीं है, जिनके है। इसमें कुछ बुराई नहीं है। ऐसा है, यह तथ्य है। पुरुष का स्वभाव गुण विपरीत हैं। है, ज्यादा काम और कम विश्राम। चूंकि पुरुषों ने इस सात्विकता का प्रयोग किया, स्त्रियों को भी सात्विक व्यक्ति की साधना मूल रूप से ध्यान की साधना होगी। 90 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * और ध्यान भी मंत्र-योग, क्रिया-योग इत्यादि नहीं। ध्यान भी झेन | पर पड़ा है, उसे आप निकाल रहे हैं। आपको प्रयोजन नहीं है कि जैसा, शून्यता का भाव। सात्विक व्यक्ति हलका है और शून्य हो दूसरे व्यक्ति को इससे कुछ लाभ होगा। दूसरे से आपको कोई सकता है सरलता से। . | मतलब ही नहीं है। अब स कोई भी हो; सिर्फ बहाना है दूसरा। और बुद्ध की सारी चेष्टा कि तुम. शून्य होओ, सिर्फ सात्विक लोगों आपके सिर में जो घूम रहा है बवंडर, उसे आप निकाल रहे हैं। पर सार्थक हो सकती है, सभी पर नहीं। तो बुद्ध ने जोर दिया है कि इसलिए लोग एक-दूसरे की बातचीत से ऊबते हैं। ऊब तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी नहीं है। क्योंकि आत्मा का खयाल भी | इसीलिए पैदा होती है कि वे आए थे अपना कचरा निकालने, आप तुम्हें भरे हुए रखेगा। कोई भी नहीं है। भीतर तुम एक विराट शून्य | उनको मौका ही नहीं दे रहे हैं। और आप ही कचरा डाले जा रहे हैं। हो, खाली आकाश। __ जिस आदमी से आप ऊबते हों, उसका मतलब सिर्फ इतना ही इसी धारणा को गहरा करता जाए अगर कोई व्यक्ति और | है कि वह आपको मौका नहीं दे रहा है। और जो उबाने वाले, सात्विक वृत्ति का हो, तो वह परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाएगा। | पक्के बोर होते हैं, वे आपको मौका देंगे ही नहीं। वे संध भी नहीं राजसी व्यक्ति को तपश्चर्या और क्रियाओं से गुजरना होगा। और | | छोड़ते बीच में। दो बातों के बीच संध भी नहीं छोड़ते कि आप क्रियाओं और तपश्चर्या के साथ साक्षी-भाव को जगाना होगा। | कुछ भी बीच में उठा दें और सिलसिला अपने हाथ में ले लें। वे आलसी व्यक्ति क्रियाओं और तपश्चर्या में नहीं जा सकता। कहे ही चले जाते हैं! उसको अपनी अकर्मण्यता को ही अपनी क्रिया माननी होगी और | यह जो बोलना है, यह कोई संबंध नहीं है। और यह बोलने का अपनी अकर्मण्यता के प्रति साक्षी-भाव को जगाना होगा। | जो कृत्य है, यह सात्विक नहीं रहा, राजसिक हो गया। आपको एक साक्षी-भाव तीनों के साथ काम करेगा। लेकिन सात्विक शून्य | | कर्म करने का पागलपन है भीतर; आप बिना किए नहीं रह सकते के साथ साक्षी को जोड़ेगा। राजसिक कर्म के साथ साक्षी को हैं। इसलिए मजबूरी है, कर रहे हैं। कुछ लोग सेवा में लगे हैं। जोड़ेगा। तामसिक आलस्य के साथ साक्षी को जोड़ेगा। और साक्षी | - मेरे पास एक मित्र आए। और उन्होंने कहा कि बीस साल से सूत्र है, जिससे भी आप जोड़ दें, वही पुल बन जाएगा, वही सेतु | | सेवा कर रहा हूं। हरिजनों की सेवा की; आदिवासियों की सेवा कर बन जाएगा। रहा हूं। स्कूल खोले, अस्पताल खोले। लेकिन शांति नहीं मिलती। अब सूत्र। तो मैंने उनसे कहा, इतना कम से कम अच्छा है कि तुम काम में सात्विक कर्म का तो सात्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्य | | लगे हो बीस साल से। शांति नहीं मिल रही, लेकिन अगर तुम यह आदि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, संताप, | उपद्रव इतना न करते-हरिजन की सेवा, आदिवासी की सेवा और पीड़ा; एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। सत्वगुण से ज्ञान | यह सब अस्पताल और स्कूल-तो तुम इतनी अशांति इकट्ठी कर उत्पन्न होता है; रजोगुण से निस्संदेह लोभ उत्पन्न होता है; तमोगुण | लेते कि तुम पागल हो जाते। और तुम यह मत सोचना कि तुम से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। . | हरिजन के कारण सेवा कर रहे हो। तुम्हें सेवा करनी ही पड़ती। सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और | हरिजन न हों, तो किसी और की करनी पड़ती। वह तो हरिजन हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य अर्थात मनुष्य लोकों में होते हैं | सौभाग्य! आदिवासी हैं, कृपा प्रभु की। अगर न हों, तो तुम किसी एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित | | न किसी की सेवा करते ही। सेवा तुम्हें करनी ही पड़ती। यह तुम्हारी हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। | भीतरी मजबूरी है। यह हरिजन तो खूटी है, जिस पर तुमने टांगा है सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान और वैराग्य है। अपने को। एक-एक शब्द को ठीक से समझें। सात्विक कर्म का अर्थ है, | इसलिए आप यह मत सोचें कि दुनिया अच्छी हो जाएगी, तो जो कर्म आपके करने के पागलपन से पैदा न हुआ हो; पहली बात। | सेवा करने वालों को कोई अवसर न रहेगा। वे अवसर खोज ही आप लोगों से बात करते हैं। अक्सर बात आप इसलिए करते | लेते हैं। वे खोज ही लेंगे। वे कोई न कोई उपाय खोज लेंगे, क्योंकि हैं कि अगर आप बात न करें, तो आपको भीतर बेचैनी मालूम | उन्हें कुछ करना है। होगी। आप लोगों से बात नहीं कर रहे हैं, एक कचरा आपके सिर | | अगर करने की बीमारी से आपका कर्म निकल रहा है, तो वह 191 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 सात्विक नहीं है। सात्विक वह कर्म है, जो करुणा से निकल रहा है; जो दूसरे को ध्यान में रखकर निकल रहा है; जिसमें आपका कोई भीतरी पागलपन नहीं है। और अगर कुछ करने को न हो, तो आप बेचैन न होंगे। आप शांत बैठे होंगे; आनंदित होंगे। अगर आपको करने को कुछ भी न बचे, तो आप उतने ही आनंदित होंगे, जितना आप करते हुए आनंदित हैं। लेकिन सेवा करने वालों का कर्म छीन लो, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। वे पूछते हैं, अब क्या करें! खाली बैठना उन्हें कठिन है। खाली सिर्फ वही बैठ सकता है, जो अपने साथ आनंदित है। जो स्वयं में आनंदित है, वही बैठ सकता है खाली । जो स्वयं में आनंदित नहीं है, वह कहीं न कहीं लगाए रखेगा अपने को; किसी कर्म में उलझाए रखेगा। वह उलझाव अपने से बचने की तरकीब है । वह एक एस्केप है, पलायन है, जिसमें अपने को भूला रहता और कहीं लगा रहता है। सात्विक कर्म का अर्थ है, जो कर्म तुम्हारे हलकेपन से, तुम्हारी शांति से, तुम्हारे निर्भर होने से निकलता हो। तुम्हें करने की कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन कोई परिस्थिति थी, जहां कुछ करने से किसी को लाभ होता, मंगल होता किसी का, किसी का शुभ होता, तो कर्म जब निकले, वह सात्विक है। सात्विक कर्म सुख पैदा करेगा। सात्विक कर्म ही सुख पैदा करेगा। सुख का मतलब ही यह है कि जो तुम्हारे आनंद से निकले कर्म, वही तुम्हें सुख देगा। थोड़ा ठीक से समझ लें। जो किसी और कारण से तुम्हारे भीतर से निकलेगा कर्म, वह तुम्हें सुख नहीं देगा। क्योंकि वस्तुतः सुख किसी चीज में नहीं है, हम डालते हैं। और अगर हममें न हो, तो हम नहीं डाल सकते। मैं आपसे यहां बोल रहा हूं। अगर यह मेरे आनंद से निकल रहा है, तो यह बोलना आनंदपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि मेरे आनंद में डूबा हुआ निकल रहा है। लेकिन अगर किसी और कारण से निकल रहा हो, तो इससे मुझे सुख नहीं मिल सकता। आप जो भी करते हैं, करने से आप कुछ नहीं पाते। आप करने क्या डालते हैं भीतर से, उसी को पाते हैं। हम जो डालते हैं, वही हमें मिलता है। अगर कोई आदमी सेवा करके भी दुखी है, तो इसका मतलब है, कर्म सात्विक नहीं है। अगर आप कुछ भी करके दुखी हो रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि आप जो कर रहे हैं, वह सात्विक नहीं है। वह राजसिक होगा। 92 राजसिक कर्म से दुख निकलता है, क्योंकि राजसिक कर्म भीतरी दुख से पैदा होता है। मैं एक भी राजनीतिज्ञ को सुखी नहीं पाता हूं। बड़े कर्म में वे लीन हैं। विराट कर्म उन्हीं से चल रहा है! सारे अखबार उन्हीं से भरे होते हैं। सात्विक आदमी के कामों की तो कोई खबर अखबार में होती नहीं। क्योंकि वे इतने चुपचाप होते हैं कि उनका शोरगुल पैदा नहीं होता । कभी-कभी सात्विक आदमी की भी खबर आती है अगर कोई राजसिक आदमी उनके काम में जुड़ जाए; कि विनोबा से मिलने अगर कभी कोई गवर्नर चला जाए, तो खबर छपती है; कि पंडित नेहरू विनोबा के पास चले जाएं, तो खबर छपती है। छपती | है नेहरू की वजह से। लेकिन मजबूरी है। क्योंकि विनोबा के पास गए, इसलिए वह नाम भी छापना पड़ता है। सात्विक व्यक्ति तो खबर की दुनिया के बाहर चुपचाप काम में लगा होता है। राजनैतिक बड़े काम करता है; विराट कर्म का जाल उसी का है; सारा खेल उसका है। यह सारा प्रपंच परमात्मा का जो चलाता है, उसमें नब्बे परसेंट राजनैतिक चलाता है। लेकिन सुखी बिलकुल नहीं है । इतना करके भी सुख की कोई छाया भी नहीं मिलती। ढेर राजनीतिज्ञ मेरे पास आते हैं। जब वे पदों पर नहीं रह जाते, तब तो जरूर आते हैं। लेकिन वे कहते हैं, कोई सुख नहीं है, कोई शांति नहीं है। कोई मार्ग बताएं। इतने कर्म के बाद अगर कोई सुख न मिल रहा हो, तो कर्म का फल क्या है! एक आदमी कहे कि मैं मीलों दौड़ता हूं, लेकिन मंजिल दिखाई भी नहीं पड़ती है, पास आने की तो बात अलग है ! तो उससे हम कहेंगे, फिर तू दौड़ता क्यों है! क्योंकि दौड़ना अगर मंजिल तक न ले जाए, तो क्यों अपनी शक्ति व्यय कर रहा है। इससे तो बैठ रह । | और अगर दौड़ने से मंजिल पास नहीं आती, तो यह भी डर है कि कहीं तू उलटी दिशा में तो नहीं दौड़ रहा है। नहीं तो दूर निकल जाए। और दौड़ने से मंजिल दूर हो जाए, इससे तो बैठा हुआ आदमी भी कम से कम एक लाभ में है। पास न जाए, दूर तो निकल ही नहीं सकता। बैठा हुआ आदमी कम से कम भटक तो नहीं सकता। उतनी सुरक्षा है। लेकिन यह दौड़ने वाला राजनैतिक है। इसके कर्म बड़े हैं, परिणाम न के बराबर है। सिकंदर दुखी मरता है, विराट कर्म के बाद । नेपोलियन दुखी मरता है, विराट कर्म के बाद। हिटलर आत्मघात करता है; लेनिन Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * मरते वक्त अति दुखी है। और मरते वक्त लेनिन अपनी वसीयत में और किसी पर उसका भरोसा नहीं है। किसी पर भरोसा नहीं हो लिखता है कि स्टैलिन के हाथ में सत्ता न रहे। और दुखी इसीलिए सकता। क्योंकि वह खुद धोखा देकर, खुद लेनिन को धोखा देकर है। जब तक वह बीमार था, तब तक स्टैलिन ने सत्ता हथिया ली। | कब्जे में आया है। इसलिए जितने लोगों ने उसको सहायता दी, वह और भी बड़ा राजसिक व्यक्ति है। लेनिन ने क्रांति की, लेकिन सबको उसने मरवा डाला। क्योंकि जो आदमी भी उसको सहायता सत्ता स्टैलिन के हाथ चली गई। | देगा, ताकतवर सिद्ध होगा, वह उसको खतम कर देगा। क्रांतिकारी अक्सर सत्ता नहीं भोग पाते, क्योंकि उनकी शक्ति | इसलिए पिछले चालीस साल में, जिनमें स्टैलिन ताकत में था, और उनकी ऊर्जा सत्ता हथियाने में नष्ट हो जाती है। जब तक वे | | उसमें उसने हर आदमी को, जिसने उसको साथ दिया और जो सीढ़ी सत्ता पाते हैं, तब तक भीतर से कमजोर हो जाते हैं। जब सत्ता उनके | बना और जिसने उसको ऊपर भेजा, उसने जल्दी उसकी गर्दन हाथ में आती है, तब कोई शक्तिशाली व्यक्ति, जिसकी शक्ति | अलग की। क्योंकि यह आदमी अगर अपने लिए सीढ़ी बन सकता अभी बची है, वह कब्जा कर लेता है। है, तो कल किसी दूसरे को भी चढ़ाने में सीढ़ी बनेगा। ___ हर क्रांति में यह होता है कि जो लोग क्रांति करते हैं, वे फेंक दिए। | स्टैलिन जैसे लोगों का कोई मित्र नहीं हो सकता। क्योंकि मित्र जाते हैं। और जो क्रांति नहीं करते, वे मालिक हो जाते हैं। अक्सर | इतने पास आ जाएगा कि खतरनाक है। स्टैलिन से दूर ही लोग रह होगा ऐसा। बाप कमाएगा और बेटा उसको खर्च करेगा। क्योंकि | | सकते हैं, पास नहीं हो सकते। और परम दुख में मर रहा है। बाप कमाने में खर्च हो जाते हैं। स्टैलिन की लड़की ने बाद में संस्मरण लिखे हैं। उसने संस्मरण लेनिन दुख से मरा और वसीयत करके गया। लेकिन वसीयत | | में लिखा है कि मेरे पिता जितने दुखी थे, ऐसा दुखी आदमी मैंने को कौन सुनने वाला है! ताकत स्टैलिन के हाथ में थी। वसीयत | कहीं देखा नहीं। दुखी होगा ही। दबा दी गई। सात्विक कर्म भीतर के सुख से निकलते हैं। और हर कर्म लेकिन स्टैलिन दुखी मरता है; दुखी जीता है। दुख वहां तक | आपके सुख को हजार गुना कर देगा। क्योंकि हर कर्म आपके सुख पहुंच जाता है कि बाद-बाद के दिनों में कहा जाता है कि उसने | | की प्रतिध्वनि को आप तक लौटाता है। अपना एक डबल रख छोड़ा था, ठीक स्टैलिन की शक्ल का आप जो देते हैं अपने कर्म में, वह हजार गुना होकर आप पर आदमी। हिटलर ने भी अपना एक डबल रख छोड़ा था। स्टैलिन | बरसने लगता है। यह सारा जगत एक प्रतिध्वनि है। आप एक गीत खुद बाहर नहीं जाता था, क्योंकि लोगों को इतना कष्ट दिया है कि | गाते हैं, तो सब तरफ से गीत गूंजकर आप पर गिरता है। आप एक वह सुरक्षित नहीं था। गाली देते हैं, तो गाली लौट आती है हजार गुनी होकर। जो कांटे अब यह बड़े मजे की बात है, बड़ी विडंबना है, कि स्टैलिन ने बोता है, कांटे काटता है। जो फूल बोता है, वह फूल काट लेता है। सारी जिंदगी यही तो कोशिश की कि यशस्वी हो जाऊं, बड़ा सात्विक कर्म सुख लाएगा, एक। ज्ञान लाएगा, दो। यह बड़ी शक्तिशाली हो जाऊं। और जब शक्ति हाथ में आई, तब कमरे में | अनूठी बात है। छिपकर उसको रहना पड़ता था। उसकी जगह सलामी वगैरह लेने | | सात्विक कर्म ज्ञान क्यों लाएगा? ज्ञान मिलना चाहिए शास्त्र से, उसका डबल जाता था। क्योंकि अगर गोली मार दी जाए, तो दूसरा गुरु से। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म ज्ञान लाएगा। यह आदमी मरेगा, स्टैलिन सुरक्षित रहेगा। | किस ज्ञान की बात कर रहे हैं? कहा जाता है कि मर जाने के बाद भी दो-तीन महीने तक रूस ___ जब आप कोई सात्विक कर्म करते हैं, तब आप एकदम शांत हो में खबर नहीं दी गई कि स्टैलिन मर गया है। वह डबल काम करता | जाते हैं। कभी भी अच्छा काम करके देखें, और उस रात आप गहरी रहा। वह जो दूसरा नकली आदमी बनाकर रख छोड़ा था, वही | | नींद सोएंगे। कोई बुरा काम करके देखें, उस रात आप सो भी नहीं जाएगा; सभाओं में सलामी लेने, व्याख्यान देने, वह जाएगा। | | पाएंगे। कोई बुरा काम करें, वह भीतर खटकता ही रहेगा, कांटे की यह बड़ी अजीब ढंग की उपलब्धि जहां स्वागत भी | तरह चुभता ही रहेगा। कोई भला काम करें, और एक हलकापन अपना न हो सके; जहां स्वागत के लिए दूसरे को भेजना पड़े! | | फैल जाता है; एक सुबह हो जाती है भीतर। छोटा-सा! और स्टैलिन एक प्रेत की तरह हो गया, जो पीछे छिपा हुआ है। एक बीमार आदमी जा रहा हो और उसको आप हाथ का सहारा 93 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 देकर रास्ता पार करवा दें। रास्ता पार कराते-कराते ही आपके भीतर कुछ होने लगेगा। सब हलका हो जाएगा, शांत हो जाएगा। रास्ते पर एक नोट पड़ा हो। उठाने का खयाल आ जाए, उससे बेचैनी शुरू हो जाएगी। फिर उठाकर उसे जेब में रख लें। फिर वह पहाड़ की तरह भारी मालूम पड़ेगा। फिर आप और कुछ भी करते रहें, लेकिन भीतर एक बेचैनी है। अमेरिका की अदालतों में एक यंत्र का उपयोग करते हैं, लाई डिटेक्टर, झूठ पकड़ने का यंत्र । वह पकड़ लेता है झूठ। वह झूठ इसलिए पकड़ लेता है कि झूठ बोलते ही हृदय को झटका लगता है। उस झटके को पकड़ लेता है। उस यंत्र के ऊपर अदालत में आदमी को खड़ा कर देते हैं। उससे कुछ पूछते हैं। उससे पूछते हैं, इस समय घड़ी में कितने बजे हैं? घड़ी सामने है। झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। वह कहता है, जे हैं। उससे पूछते हैं, दीवाल पर कौन-सा रंग है? झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। वह कहता है, हरा रंग है। ऐसे चार-छः सवाल पूछते हैं। नीचे यंत्र उसके हृदय की धड़कन को नोट कर रहा है। हृदय की धड़कन का ग्राफ बन रहा है नीचे। फिर उससे पूछते हैं, क्या तूने चोरी की ? तो भीतर से तो आवाज आती है, की। क्योंकि उसने की है। ऊपर से वह कहता है, नहीं की। नीचे झटका लग जाता है। नीचे जो हृदय का कंपन है, वह दोहरी खबर देता है, एकदम से झटका आ जाता है। नीचे का ग्राफ बताता है कि यह आदमी कुछ और कहना चाहता था और इसने कुछ और कहा । तो अब तो हर अदालत में अमेरिका में उपयोग कर रहे हैं। झूठ बोलना बहुत मुश्किल है, आप कितने ही तैयार होकर गए हों । जितने तैयार होकर गए हों, उतना ही मुश्किल है। क्योंकि आप क्या करिएगा इस बात को ! भीतर यह होगा ही। जो आप जानते हैं, सही है, वह तो आप जानते हैं। उसे भूलने का कोई उपाय नहीं । और जो आप जानते हैं, सही नहीं है, आप उसे कितना ही कहें, हृदय झटका खाएगा। क्योंकि दोहरी बातें हो गईं। एक स्वर न रहा; भीतर दो स्वर हो गए। यह जो आदमी ऐसे दो स्वर प्रकट कर रहा है यंत्र के ऊपर, जो आदमी बुरा कर रहा है, वह चौबीस घंटे इस तरह की ही बेचैनी में रहा है। झूठ बोलने वाले आदमी की बड़ी तकलीफ है। उसको एक झूठ के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। एक बुरा काम कर ले, तो उसको बचाने के लिए फिर हजार बुरे काम करने पड़ते हैं। फिर एक सिलसिला शुरू होता है, जिसका कोई अंत नहीं है । और इसमें वह | उलझता चला जाता है। इस सबका इकट्ठा परिणाम दुख है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म का फल सुख और ज्ञान है। जैसे ही आप हलके होंगे, शांत होंगे, प्रसन्न होंगे, प्रफुल्लित होंगे, एट ईज होंगे, एक गहरा विश्राम होगा; भीतर दो स्वर नहीं हैं, एक ही भाव है; और सब चीजें साफ हैं, सच्ची हैं, सीधी हैं। इस सीधे - सच्चेपन में, इस भोलेपन में, इस निर्दोषता में, आपकी आंखें अपने को पहचानने में समर्थ होंगी। वही ज्ञान है। 94 स्वयं को पहचानने के लिए भीतर धुआं नहीं चाहिए, द्वंद्व नहीं चाहिए, कलह नहीं चाहिए। भीतर सन्नाटा चाहिए। और सन्नाटा केवल उसी में हो सकता है, जो सात्विक हो । नहीं तो सन्नाटा बहुत मुश्किल है। आपको पूरे समय सुरक्षा में ही लगे रहना पड़ता है। पूरे समय भय पकड़े है। पूरे समय कोई आपका पीछा कर रहा है। कोई आपको पकड़ने - उलझाने में लगा हुआ है। जिन-जिन को आपने धोखा दिया है, वे आपकी तलाश में हैं। जिन-जिन का आपने बुरा किया है, वे भी आपके बुरे के लिए, प्रतिकार की प्रतीक्षा कर रहे । ये सब चारों तरफ आपके दुश्मन हो जाते हैं। असल में, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ मित्रता बो रहा है, प्रेम बो रहा है। उसे भय का कोई कारण नहीं है। सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है। भीतर कोई कलह नहीं है। इससे जो सहज भाव पैदा होगा, जो आंतरिक स्वास्थ्य पैदा होगा, वही स्वास्थ्य आपकी आंखों को भीतर की तरफ खोलेगा। धुआं हट जाएगा। जैसे सुबह की धुंध हट गई हो और सूरज साफ हो जाए, वैसे ही आपके दुष्कृत्यों की धुंध हट जाएगी, दुर्भाव की धुंध हट जाएगी, और आप आत्म-साक्षात्कार में सफल हो पाएंगे। इसलिए ज्ञान । और भी उससे भी जटिल बात है, वैराग्य । सुख, ज्ञान और वैराग्य फल हैं सात्विक कर्म के। यह बहुत समझने जैसा है और बहुत गहरा और सूक्ष्म है। जो आदमी जितना सात्विक है, उतना उसका राग गिरने | लगेगा, उतना ही उसमें एक वैराग्य भाव उदय होने लगेगा। क्यों ? राग का क्या मतलब है? राग का मतलब है, मेरा सुख दूसरे पर निर्भर है। यह राग का मतलब है, अटैचमेंट का, कि मेरा सुख दूसरे पर निर्भर | मेरी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * पत्नी पर मेरा सुख निर्भर है। मेरे पति पर निर्भर है। मेरे बेटे पर, मेरे | | होने से, न न होने से। सुख एक आंतरिक संपदा है। जब उसे आप पिता पर, मित्र पर, धन पर, मकान पर, किसी दूसरे पर कहीं मेरा | | अपने भीतर खोज लेते हैं, तब आपको मिलता है। तब हर हालत सुख निर्भर है। और जिस पर मेरा सुख निर्भर है, उसे मैं पकड़कर | | में मिलता है। तब ऐसी कोई दशा नहीं है, जब सुख नहीं मिलता। रखना चाहता हूं कि वह छूट न जाए। यही राग है। तब हर स्थिति में आप सुख खोज लेते हैं। लेकिन सात्विक व्यक्ति जानता है कि सुख मेरे भीतर है; इसका | __ अगर घर में बच्चे खेल रहे हैं और शोरगुल कर रहे हैं, तो आप वह रोज अनुभव करता है। जब भी वह सात्विक कर्म करता है, | | उनकी, बच्चों की खिलखिलाहट में सुख लेते हैं। और बच्चे चले सात्विक भाव करता है, वह पाता है, सुख बरस जाता है। सुख मेरे | | गए और घर खाली है, तो आप घर के सन्नाटे में सुख लेते हैं। तब हाथ में है। सुख की वर्षा का सारा आयोजन मेरे हाथ में है। इशारा, घर का सन्नाटा सखद है। और जब बच्चे लौट आते हैं. और और सुख बरस जाता है। किलकारियां भरते हैं, और नाचते हैं, कूदते हैं, तब आप उनके स्वभावतः, वह जानने लगता है कि सुख मेरा किसी पर निर्भर | | नाचने-कूदने में सुख लेते हैं। जीवन चारों तरफ उछलता हुआ, नहीं है। इसलिए उसका राग क्षीण होता है, वैराग्य बढ़ता है। अगर | आप उसमें सुख लेते हैं। पत्नी उसके पास है, तो वह सुखी है। और पत्नी उससे दूर है, तो | | लेकिन सुख आपके भीतर है। कभी आप सन्नाटे पर आरोपित वह सुखी है। और उसके सुख में फर्क नहीं पड़ता। जब पत्नी पास | | कर देते हैं, कभी बच्चों की किलकारी पर आरोपित कर देते हैं। है, तब वह पत्नी का सुख लेता है। जब पत्नी दूर है, तब पत्नी के जो दुखी आदमी है, बच्चे शोरगुल करते हैं, तो वह कहते हैं, न होने का सुख लेता है। पर उसके सुख में अंतर नहीं पड़ता। और शांति नष्ट हो रही है। बंद करो आवाज! घर में कोई न हो, तो वह दोनों का सुख है, ध्यान रहे। | कहता है, बिलकुल अकेला हूं। बड़ी उदासी मालूम होती है। और आमतौर से आदमी, जब पत्नी है, तब पत्नी के होने का दुख | | आपके ढंग पर, आपकी जीवन-व्यवस्था पर, लाइफ स्टाइल पर भोगता है। और जब पत्नी नहीं है, तब न होने का दुख भोगता है। | | निर्भर है। सात्विकता एक जीवन का ढंग है, जिसमें सुख भीतर है। __ आप प्रयोग करके देखना, पत्नी को थोड़े दिन बाहर भेजें। फिर | ___ इसलिए कृष्ण बड़ी मौलिक बात कहते हैं कि वैराग्य उसका आप दुखी होंगे कि पत्नी दूर है। और आप भलीभांति जानते हैं कि | फल है। जब पास थी, तब नरक था। मगर थोड़े दिन दूर रहे, तो भूल जाता सुखी आदमी हमेशा विरागी होगा। आपने इससे उलटी बात है नरक और कल्पना कर-करके आप स्वर्ग बना लेते हैं। पत्नी | सुनी होगी कि अगर सुख चाहिए हो, तो वैराग्य को साधो, वह आते ही से सब स्वर्ग रास्ते पर लगा देगी। वापस आई कि नरक | | बिलकुल गलत है। क्योंकि कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं, वैराग्य शुरू हुआ। साधो, तो सात्विकता आ जाएगी। कृष्ण कह रहे हैं, सात्विक हो लोगों का अनुभव है, पति-पत्नियों का, कि न तो वे साथ रह | जाओ, तो वैराग्य उसका फल है। सकते हैं और न दूर रह सकते हैं। इसलिए उनका द्वंद्व जो है, उससे | लेकिन न मालूम कितने लोग समझाए चले जा रहे हैं कि तुम छुटकारे का कोई उपाय भी नहीं है। पास रहते हैं, तो कष्ट पाते हैं।। | वैरागी हो जाओ। छोड़ दो सब, फिर बड़े सुखी हो जाओगे। दूर रहते हैं, तो कष्ट पाते हैं। ___ मैं छोड़े हुए लोगों को जानता है। यहां घर के कारण दुखी थे; जिन लोगों के पास धन है, वे धन के कारण परेशान हैं। जिनके वहां अब आश्रम के कारण दुखी हैं। पहले यहां पत्नी-बच्चों के पास धन नहीं है, वे धन के न होने के कारण परेशान हैं। कोई गरीबी | कारण दुखी थे, अब वहां दुखी हैं संन्यासियों के पास रहकर से पीड़ित है, कोई अमीरी से पीड़ित है। | संन्यासियों के कारण। दुख में अंतर नहीं है। मेरे पास, दोनों तरह के पीड़ित लोगों का मुझे अनुभव है। गरीब असल में दुख इस तरह छूटता ही नहीं। सात्विक हो जाओ, तो यह सोचता है, धन मिल जाए, तो बड़ा सुख हो। धनी कहता है कि वैराग्य उसका फल होगा। सब है, लेकिन सिवाय चिंता के इससे कुछ मिलता नहीं! | और ध्यान रहे, जब दुखी आदमी छोड़कर भागता है, तो उसका शायद आपको खयाल ही नहीं है कि सुख बाहर से कभी किसी | छोड़कर भागना एक रोग की तरह है। और जब सुखी आदमी को मिला नहीं है। न गरीबी से मिला है, न अमीरी से; न पत्नी के छोड़ता है, उसके छोड़ने में एक शान है। उसका छोड़ना ऐसा है, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिरता है। न तो वृक्ष को घाव पैदा होता है, ___ सभी पति ऐसा ही सोचते हैं। क्योंकि जो दूर है, वह लुभावना न पत्ते को पता चलता है, न कहीं कोई खबर होती है। सूखा पत्ता | | है। जो पास है, वह व्यर्थ हो जाता है। जो हाथ में नहीं है, वह है। सूख गया। अपने आप चुपचाप कब झड़ जाता है हवा के झोंके आकर्षक है। जो हाथ में है, वह बोझ हो जाता है। में, किसी को पता नहीं चलता। वृक्ष की नींद भी नहीं टूटती। वह । पर अगर आप जंगल चले गए, तो आप चर्चा करेंगे कि आप अपनी शांति में खड़ा है। एक कच्चे पत्ते को तोड़ें; पत्ते को भी चोट कोई नूरजहां, कोई मुमताजमहल छोड़ आए हैं। कोई बड़ा महल, पहुंचती है, वृक्ष पर भी घाव बनता है। वृक्ष भी सहमता है। कोई बड़ा राज्य...। अब तो नापने के उपाय हैं वृक्ष की संवेदना को। वृक्ष की संवेदना वह सूचना आप जो दे रहे हैं, उससे पता चलता है कि वह छूट का यंत्र लगा दें और पत्ता तोड़ें। और संवेदना का यंत्र कहेगा, वृक्ष नहीं पाया। घाव पीछे रह गया है। जिनको त्यागी गई चीजों की याद को चोट पहुंची, घाव पहुंचा; दुख हुआ। रह जाती है, उनका घाव पक्का है, वह भर नहीं रहा। वह घाव दर्द और ध्यान रखें, वृक्ष भी याद रखता है। अगर आप रोज-रोज दे रहा है। वृक्ष का पत्ता तोड़ते हैं या माली हैं और काटते हैं, तो आप चकित कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म का फल वैराग्य है। होंगे जानकर, रूस में बड़े प्रयोग हुए हैं, जब माली वृक्ष के पास यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है और बड़ा वैज्ञानिक। शुभ जो करेगा, आता है...। बहुत पहले कबीर ने कहा था, माली आवत देख के | धीरे-धीरे उसका राग क्षीण हो जाएगा और वैराग्य का उदय होगा। कलियन करी पुकार। वह कबीर ने कविता में कहा था। अभी रूस राजस कर्म का फल दुख; तामस कर्म का फल अज्ञान। . में उसके वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं। राजस कर्म का फल दुख होगा, क्योंकि वह दुख से निकलता जैसे ही माली को वृक्ष करीब आते देखता है, उसके सारे प्राण | है। आप कर्मों में लगे हैं इसलिए कि आप इतने ज्यादा भीतर के रोएं-रोएं सिहर उठते हैं। और इसकी जांच, अब तो वैज्ञानिक परेशान हैं कि कर्मों में लगकर अपने को भुलाने की कोशिश कर यंत्र हैं हमारे पास, जो खबर दे देते हैं कि वृक्ष कंप रहा है, घबड़ा रहे हैं। इसलिए छुट्टी का दिन बहुत कठिन हो जाता है। उसे गुजारना रहा है। और ऐसा नहीं कि जिस वृक्ष को काटा है, वही घबड़ाता मुश्किल हो जाता है। है। उसके पास के वृक्ष भी उसकी पीड़ा से प्रभावित होते हैं और लोग छुट्टी का दिन गुजारने बाहर भागते हैं। मीलों का सफर घबड़ाते हैं और डांवाडोल होते हैं। लेकिन सूखा पत्ता जब गिरता | करेंगे। भागे हुए जाएंगे, कहीं होटल में खा-पीकर भागे हुए है, तो वृक्ष को कहीं भी कुछ पता नहीं चलता। आएंगे। अमेरिका और योरोप में तो बिलकुल बंपर टु बंपर कारें सुखी आदमी जब कुछ छोड़ता है, तो सूखे पत्ते की तरह गिर लगी हैं। लाख कारें एक साथ एक बीच पर पहुंच जाएंगी। वह सब जाता है। इसलिए बुद्ध जब छोड़ते हैं राज्य, वह और बात है। और उपद्रव जिसको वे छोड़कर भागे थे, साथ ही चला आ रहा है! वहां अगर आप घर छोड़कर चले गए, वह कोई राज्य भी नहीं है, | बीच पर कोई जगह ही नहीं है। वहां सारा मेला भरा हुआ है। वहीं आपका घाव आपको सताएगा। आप चले जाएंगे जंगल में, लेकिन | | वे बैठे हैं। शांति की तलाश में आए थे। मगर अकेले नहीं आए थे, सोचेंगे घर की। चले जाएंगे जंगल में, लेकिन कोई मिलने आ और भी लोग शांति की तलाश में निकल पड़े थे! जाएगा, तो आप कहेंगे, महल छोड़ आया हूं। चाहे आप झोपड़ा ___ अब तो लोग कहते हैं कि अमेरिका में अगर शांति चाहिए हो, छोड़ आए हों। लाखों की संपत्ति पर लात मार दी है। बड़ी सुंदर | तो छुट्टी के दिन घर में बैठे रहो। क्योंकि पड़ोसी सब जा रहे हैं पत्नी थी। हालांकि किसी की पत्नी सुंदर नहीं होती। सदा दूसरे की | शांति की तलाश में। थोड़ी शांति शायद मिल जाए। लेकिन कहीं पत्नी सुंदर होती है, अपनी कभी होती नहीं। | जाना मत, क्योंकि जहां भी तुम जाओगे, वहीं आदमी पहुंच गया मुल्ला नसरुद्दीन शादी कर लाया था। तो पत्नी ने पहले ही दिन है तुमसे पहले। कहा कि यह जो बाथरूम है, इस पर पर्दा लगा दो, क्योंकि पड़ोसी | हमारे भीतर दुख है। उसे हम भुला रहे हैं किसी न किसी तरह देखते हैं। नसरुद्दीन ने बेफिक्र रह। एक दफा देख लेने दे, पर्दा वे | के कर्म में। खाली बैठकर हमें बेचैनी होती है, क्योंकि खाली खद अपनी खिड़कियों पर लगाएंगे। त बिलकल फिक्र मत कर। बैठकर दख हमारा साफ हो जाता है। यह खर्चा मेरे ऊपर मत डाल। बस, एक दफा उनको देख लेने दे।। ध्यान रहे, दुख से बचने का हमें एक ही उपाय है, विस्मरण। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपांतरण का सूत्र : साक्षी भाव आदत और कर्म ! आखिर दो-चार दिन में एकनाथ ने कहा कि यह करता कौन है ! क्योंकि मिल जाती हैं चीजें आखिर में। लेकिन परेशानी होती है। तो वे जागते रहे। रात में देखा, चोर कर रहा है । वह एकनाथ का ही सामान निकालकर बगल वाले की पेटी में कर रहा था । कोई भी तरकीब से भूल जाएं। दूसरी तरफ मन लग जाता है । ताश खेलने लगे, दुख भूल गया। कुछ काम करने लगे, दुकान पर चले गए, सेवा करने लगे, कुछ न मिला तो गीता ही पढ़ने लगे, राम-राम जपने लगे; माला ले ली एक हाथ में, उसके गुरिए सरकाने लगे; कुछ कर रहे हैं। लेकिन कुछ करने से एक फायदा है कि वह जो भीतर दुख दिखाई पड़ता था, वह नहीं दिखाई पड़ता, मन डायवर्ट हुआ ! किसी और दिशा में लग गया। लेकिन घड़ीभर बाद, कब तक माला फेरिएगा ! फिर माला बंद की, दुख का फिर स्मरण आया। दुखी लोग राजस कर्म में लग रहे हैं। और जहां से कर्म निकलता है, वहीं पहुंचा देता है। प्रारंभ हमेशा अंत है। इस सूत्र को खयाल रखें, प्रारंभ हमेशा अंत है। क्योंकि बीज ही वृक्ष होगा। और अंत में फिर वृक्ष में बीज लग जाएंगे। और जिस बीज से वृक्ष हुआ है, वही हजारों बीज उस वृक्ष पर लगेंगे, दूसरे नहीं। अगर आपके दुख से कर्म निकला है, तो दुख बीज है, कर्म वृक्ष है। फिर हजार बीज उसी दुख के लग जाएंगे। · इसलिए राजस कर्म दुख में ले जाता है, क्योंकि दुख से पैदा होता है। और तामस कर्म का फल अज्ञान है। तामस कर्म का अर्थ है, नहीं करना था और करना पड़ा। करने की कोई इच्छा नहीं थी । सात्विक कर्म का अर्थ है, करने की कोई विक्षिप्तता नहीं थी । किसी और को जरूरत थी, इसलिए किया। राजस कर्म का अर्थ है, करने का पागलपन था। तुमको जरूरत थी या नहीं, हमने किया। एकनाथ संत हुए महाराष्ट्र में। वे तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। एक चोर ने प्रार्थना की कि महाराज, मैं भी साथ चलूं? एकनाथ ने कहा, तू जरा झंझटी है। और तेरा हमें पता है। उसने कहा, मैं बिलकुल कसम खाता हूं कि चोरी नहीं करूंगा, कम कम तीर्थयात्रा में। चोर था, उसकी बात का भरोसा हो सकता है। क्योंकि आमतौर से चोर भरोसा नहीं देते। लेकिन जब कोई चोर भरोसा देता है, तो उसका वचन माना जा सकता है। एकनाथ ने उसे साथ ले लिया। लेकिन दूसरे ही दिन से उपद्रव शुरू हो गया। उपद्रव यह था कि एक के बिस्तर का सामान दूसरे के बिस्तर में चला जाए। किसी का कमीज किसी दूसरे की दरी के नीचे दबा हुआ मिले। किसी की जेब का पैसा दूसरे की जेब में। चोर चोरी नहीं करता था, लेकिन रात में सामान बदल देता था। खुद नहीं चुराता था, क्योंकि उसने कसम खा ली थी। लेकिन पुरानी 97 उन्होंने कहा कि तू यह क्या कर रहा है? उसने कहा, महाराज, चोरी नहीं करूंगा, इसका वचन दिया है। लेकिन कर्म न करूं, तो | बड़ी मुश्किल है। और फिर तीन महीने बाद घर लौटूंगा, तो अभ्यास जारी रहना चाहिए। यह तीर्थयात्रा कब तक चलेगी! अंततः तो मुझे चोरी ही करनी है । किसी की हानि नहीं कर रहा हूं। जो राजस व्यक्ति है, उसके कर्म का निकलना उसके भीतर की बेचैनी है। सात्विक का कर्म दूसरे पर दया है। राजसिक का कर्म खुद की बीमारी है । तामसिक का कर्म दूसरे के द्वारा पैदा की गई मजबूरी है। उसको धक्का दो कि चलो, उठो । जाओ, यह करो। | मजबूरी है। बंदूक लगाओ उनके पीछे, तो वे दो-चार कदम चलते । बंदूक हटा लो, वे वहीं बैठ जाते हैं। | यह जो दूसरे के द्वारा मजबूरी से किया गया कर्म है तामस का, | यह गहन अज्ञान लाएगा। जैसे सात्विक कर्म ज्ञान लाता है, दूसरे पर दया के कारण खुद को हलका करता है। यह दूसरे के द्वारा जबरदस्ती | के कारण दूसरे पर घृणा पैदा होगी, हिंसा पैदा होगी; दूसरे को मार डालने का भाव होगा कि सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है! आलसी आदमी को ऐसे ही लगता है कि बाप पीछे पड़ा है, पत्नी पीछे पड़ी है, मां पीछे पड़ी है। सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है कि कुछ करो। और उसे कुछ करने जैसा लगता ही नहीं । उसे लगता है, वह चुपचाप बैठा रहे । सारी दुनिया उसकी दुश्मन है ! ध्यान रहे, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ प्रेम बोता है । तामसिक वृत्ति का व्यक्ति अनजाने अपने चारों तरफ शत्रु पाता है। शत्रु उसको लगेंगे, क्योंकि वे सभी उसको निकालने की कोशिश में लगे हैं कि तुम कुछ करो। उसके मन में सबके प्रति घृणा, सबके प्रति द्वेष, सबके प्रति तिरस्कार, कोई मित्र नहीं है, सब दुश्मन | हैं - ऐसा भाव पैदा होता है । उसका धुआं बढ़ जाता है। उसके भीतर का धुंध बढ़ जाता है। दूसरे पर दया से धुंध कटता है, दूसरे पर घृणा से धुंध बढ़ता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, तामस कर्म का फल अज्ञान है। वह और भी डूबता जाता है। खुद को देखना और मुश्किल हो जाता है। खुद को पहचानना असंभव हो जाता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है; रजोगुण से निस्संदेह लोभः । तमोगुण से प्रमाद और मोह। तमोगुण से प्रमाद और मोह और अज्ञान होता है। और जो आलस्य में पड़ा रहता है, वह धीरे-धीरे तंद्रा में, निद्रा में, सत्वगुण से ज्ञान। क्योंकि भीतर का अंधेरा टूटता है, आलोक | प्रमाद में, बेहोशी में खोता चला जाता है। पर बेहोशी अज्ञान है। आता है, हम स्वयं को पहचान पाते हैं। सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादिक उच्च लोकों को जाते हैं। रजोगुण से लोभ। और जितना ही कोई कर्मों में प्रवृत्त होता है, | | रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य मनुष्य लोक में, एवं तमोगुण में निद्रा, उतना ही लोभ को जगाना पड़ता है। क्योंकि लोभ को जगाए बिना | | प्रमाद, आलस्य में डूबे हुए लोग, तामस पुरुष, अधोगति, नीच कर्म में प्रवृत्त होना मुश्किल है। इसलिए आप ताश खेल रहे हैं। योनियों को प्राप्त होते हैं। अकेला ताश खेलना आपको ज्यादा रस नहीं देगा। थोड़ा दांव जुए | ये तीन स्थितियां हैं मन की, चित्त की। मेरे हिसाब में कहीं कोई का लगा दें, थोड़े रुपए और रख दें वहां, तो गति आ जाएगी, | | स्वर्ग नहीं है पृथ्वी के ऊपर। और कहीं कोई नरक नहीं है पृथ्वी के क्योंकि अब लोभ के लिए सुविधा है। नीचे। कहीं पाताल में छिपा कोई नरक नहीं है, आकाश में छिपा तो हम कर्म भी तभी कर सकते हैं, जब कुछ लोभ सामने खड़ा | | कोई स्वर्ग नहीं है। स्वर्ग और नरक मनुष्य की उच्चतम और हुआ दिखाई पड़े। इसलिए राजसिक व्यक्ति अपना लोभ पैदा करता निम्नतम स्थितियां हैं। रहता है रोज, ताकि कर्म कर सके। रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता जब भी आप गहन सुख में होते हैं, आप स्वर्ग में होते हैं। और है। लोभ से राजसिकता बढ़ती है। जितनी राजसिकता बढ़ती है, जब आप गहनतम संताप में होते हैं, तो आप नरक में होते हैं। लेकिन उतना लोभ पैदा करना पड़ता है। इसलिए रोज आपको नई मंजिल | आमतौर से आप दोनों में नहीं होते, बीच में होते हैं। वही मनुष्य के चाहिए, नया लोभ चाहिए, नए टारगेट चाहिए, जहां आप पहुंचे। | मन की अवस्था है, मध्य। और दोनों तरफ डोलते रहते हैं। सुबह इसीलिए रोज विज्ञापनदाताओं को नए विज्ञापन खोजने पड़ते हैं। | | नरक, शाम स्वर्ग। पूरे वक्त आपके भीतर डांवाडोल स्थिति चलती नई कारें बनानी पड़ती हैं। नये मकान की डिजाइन निकालनी पड़ती | | रहती है। स्वर्ग और नरक के बीच यात्रा होती रहती है। है। और आपको नया लोभ देना पड़ता है। विज्ञापन का पूरा का पूरा | जो व्यक्ति सत्व में थिर हो जाता है, उसकी यह यात्रा बंद हो इंतजाम आपको लोभ देने के लिए है। इसलिए जितना राजसिक | | जाती है। वह भीतर के सुख में थिर हो जाता है। उसका थर्मामीटर मुल्क होगा, उतनी ज्यादा एडवरटाइजमेंट होगी। सुख के उच्चांक को छू लेता है और वहीं ठहरा रहता है। फिर नीचे अमेरिका इस वक्त सबसे ज्यादा विज्ञापन करता है। अरबों | नहीं गिरता। डालर विज्ञापन पर खर्च होता है। क्यों? क्योंकि वे जो आदमी बैठे । जो व्यक्ति तमस में बिलकुल थिर हो जाता है, उसका हैं सारे मुल्क में, उनको कर्म चाहिए। थर्मामीटर, उसकी चेतना की दशा निम्नतम बिंदु पर ठहर जाती है। अभी इसके पहले तक नारा था कि हर आदमी के पास एक कार | | उससे ऊपर नहीं उठती। हो, एक गैरेज हो। लेकिन अब वह गरीब आदमी का लक्षण है | जो व्यक्ति राजस में भरा हुआ है, राजस में ठहरा हुआ है, वह अमेरिका में। दो कार! अगर आपके पास दो कार नहीं, तो आप | | मध्य में ही बना रहता है। सुख का आभास बना रहता है, दुख का गरीब आदमी हैं। अब यह लोभ हो गया। अब जिनके भी दिमाग | | डर बना रहता है। न दुख मिलता है, न सुख मिलता है। वह बीच में पागलपन है, वे दो कार के पीछे पड़े हैं। हालांकि एक ही कार | | में अटका-सा रहता है; त्रिशंकु की उसकी दशा होती है। और या काम आती है। अब वे दो कार के पीछे पड़े हैं। फिर कभी-कभी छलांग लगाकर थोड़ा सुख ले लेता है, कभी __ आपके पास मकान सिर्फ शहर में ही है? पहाड़ पर नहीं है? | | छलांग लगाकर थोड़ा दुख ले लेता है। आप गरीब आदमी हैं। एक मकान पहाड़ पर भी चाहिए। ये तीन स्थितियां हैं। उच्चतम को हम स्वर्ग कहते हैं, वह मन रोज नया लोभ देना पड़ता है, क्योंकि राजसिक पूरा मुल्क हो, की सुख की अवस्था है। निम्नतम को नरक कहते हैं, नीच गति राजस से भरे हुए लोग हों, कर्म का पागलपन हो, और लोभ की कहते हैं, अधोगति कहते हैं, वह चेतना की निम्नतम स्थिति है। कमी हो, तो लोग पागल हो जाएंगे। उनको रोज नया लोभ दो, नई और मध्य, जहां मनुष्य है। आवश्यकता पैदा करो। मनुष्य शब्द सोचने जैसा है। मनुष्य शब्द बना है मन से। मन 98 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव * की जो दशा है आमतौर से, मध्य में है। मन हमेशा बीच में है। वह | | बनाई, कि कृष्ण ने कोई दुनिया बनाई। भगवान का कुल अर्थ इतना सोचता है, कल सुख मिलेगा। सुख दूर है। मिला नहीं। और वह ही है कि तीन गुणों के जो पार हो गया, वह भगवत्ता को उपलब्ध डरता है कि कल कहीं दुख न मिल जाए। तो कल दुख न मिले, हो गया। इसका इंतजाम करता है। और कल सुख मिले, इसकी व्यवस्था | आज इतना ही। करता है। कल भी वह यही करेगा, परसों भी यही करेगा, पूरी जिंदगी यही करेगा। रहेगा वह बीच में। और तब संतुष्ट नहीं होगा, अतृप्त होगा, फ्रस्ट्रेशन होगा। कहीं नहीं पहुंच रहा है। जहां खड़ा था, वहीं खड़ा है। ये जो चेतना की स्थितियां हैं, इनको समझाने के लिए स्थान की तरह चर्चा की गई है शास्त्रों में। लेकिन उससे बड़ी भ्रांति हो गई है। लोग समझने लगे हैं, ये स्थान हैं। स्थान केवल समझाने के लिए हैं। स्थितियां हैं, स्थान नहीं। स्टेट्स आफ माईंड हैं, कोई भौगोलिक, ज्याग्राफी की जगह नहीं हैं। यह तो अब छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि नरक कहीं नहीं है, स्वर्ग कहीं नहीं है। भूगोल छान डाली गई है। और इसलिए शास्त्रों को निरंतर बदलना पड़ा। पहले शास्त्रों पर इतना दूर नहीं था स्वर्ग, जितना बाद में हो गया। पहले भगवान हिमालय पर रहते थे। फिर आदमी हिमालय पर पहुंचने लगा, तो भगवान को हटाना पड़ा। तो वह उनको कैलाश पर बैठा दिया, आखिरी चोटी पर। फिर वह भी कुछ अगम्य न रही। तो हमें आकाश में बिठाना पड़ा। अब हमारे अंतरिक्ष यान आकाश में पार जा रहे हैं। अब वहां भी भगवान सुरक्षित नहीं है। ___ इसलिए वेदांत ने कहा है कि भगवान निराकार है, तुम उसे कहीं खोज न पाओगे। तुम कहीं भी जाओ, तुम यह नहीं कह सकते, वह नहीं मिला; क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है। पर यह आदमी जहां भी खोज लेता है, वहीं हमको कहना पड़ता है, यहां भगवान नहीं है। स्थान की बात ही गलत है। स्थान से कुछ संबंध नहीं है। भगवान भी एक अवस्था है भगवत्ता की। जैसे ये तीन अवस्थाएं मन की हैं, ऐसी वह तीन के पार चौथी अवस्था है, गुणातीत। जब कोई तीनों के पार हो जाता है—न दुख, न सुख, न मध्य; न तामस, न राजस, न सात्विक-जब तीनों गुणों के पार कोई उठ जाता है, तब उस अवस्था का नाम भगवत्ता है। इसलिए हम कृष्ण को भगवान कहते हैं या बुद्ध को भगवान कहते हैं। भगवान का कुल अर्थ इतना ही है। भगवान का यह मतलब नहीं कि उन्होंने दुनिया बनाई, कि बुद्ध ने कोई दुनिया 99 Page #128 --------------------------------------------------------------------------  Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 सातवां प्रवचन असंग साक्षी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग कर रहे हैं। गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति । । १९ ।। । एक और भी संभावना है, जिसका प्रयोग मैंने किया है। तीनों गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । | गुणों का एक साथ नहीं, एक-एक गुण का अलग-अलग। और जन्ममृत्युजरादुःखैविमुक्तोऽमृतमश्नुते । । २० ।। | मेरी दृष्टि में वही सर्वाधिक वैज्ञानिक है, इसलिए उसका चुनाव और हे अर्जुन, जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय किया है। अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में तीनों गुण प्रत्येक व्यक्ति में हैं। दो गुणों से कोई भी व्यक्ति बन बर्तते हैं, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे । | नहीं सकता। एक गुण के साथ किसी व्यक्ति के अस्तित्व की कोई सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, | संभावना नहीं है। उन तीनों का जोड़ ही आपको शरीर और मन देता उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। है। जैसे बिना तीन रेखाओं के कोई त्रिकोण न बन सकेगा, वैसे ही तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप | बिना तीन गुणों के कोई व्यक्तित्व न बन सकेगा। उसमें एक भी तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था गुण कम होगा, तो व्यक्तित्व बिखर जाएगा। और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ अगर कोई व्यक्ति कितना ही सत्व-प्रधान हो, तो सत्व-प्रधान परमानंद को प्राप्त होता है। का इतना ही अर्थ है कि सत्व प्रमुख है, बाकी दो गुण सत्व के नीचे | छिप गए हैं, दब गए हैं। लेकिन वे दो गुण मौजूद हैं। और उनकी छाया सत्वगुण पर पड़ती रहेगी। प्रधानता उनकी नहीं है, वे गौण पहले कुछ प्रश्न। हैं। आपमें कोई भी गुण प्रकट हो, तब दो मौजूद होते हैं। पहला प्रश्नः आपने तमस, रजस और सत्व और कृष्ण ने तीनों गुणों का एक साथ प्रयोग किया है। जैसे तीनों गुणों उनकी समान मात्राओं का होना क्रमशः लाओत्से, | की तीनों भुजाएं समान लंबाई की हैं; त्रिभुज की तीनों रेखाएं समान जीसस, महावीर और कृष्ण के व्यक्तित्व के माध्यम | लंबाई की हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व तीनों का संयुक्त जोड़ है। और से स्पष्ट किया। इस संदर्भ में याद आता है कि आप | इसलिए कृष्ण को समझना उलझन की बात है। . अतीत में अत्यंत क्रांतिकारी थे। सामाजिक, आर्थिक, ___एक गुण वाले व्यक्ति को समझना बहुत आसान है। जिसमें दो राजनैतिक एवं धार्मिक तलों पर आपने सारे देश में | गुण दबे हों, उसके व्यक्तित्व में एक संगति होगी, कंसिस्टेंसी उथल-पुथल पैदा कर दी थी। जिससे स्पष्ट था कि | | होगी। लाओत्से के व्यक्तित्व में जैसी कंसिस्टेंसी, संगति है, वैसी आप जीसस की तरह रजस-प्रधान हैं। फिर उन्नीस सौ | कृष्ण के व्यक्तित्व में नहीं है। लाओत्से का जो स्वाद एक शब्द में सत्तर के बाद आपने अपने को बिलकुल भीतर है, वही सारे शब्दों में है। बुद्ध के वचनों में एक संगति है, गहन सिकोड़ लिया और हमें लगता है कि अब आप | |संगति है। बुद्ध ने कहा है, जैसे तुम सागर को कहीं से भी चखो, सत्व-प्रधान हैं। क्या ऐसा परिवर्तन संभव है? | वह खारा है, वैसे ही तुम मुझे कहीं से भी चखो, मेरा स्वाद एक है। जीसस या मोहम्मद, इन सबके स्वाद एक हैं। लेकिन आप अनेक स्वाद कृष्ण में ले सकते हैं, तीन तो निश्चित क छ बातें ध्यान में लें, तो समझ में आ सकेगा। एक तो ही ले सकते हैं। और चूंकि तीनों का मिश्रण हैं, इसलिए बहुत नए पा बुद्ध, महावीर, मोहम्मद और जीसस जैसे व्यक्तित्व स्वाद भी उस मिश्रण से पैदा हुए हैं। इसलिए कृष्ण का रूप बहुरंगी हैं। इन व्यक्तित्वों ने एक ही गुण को अपनी | है। और कोई भी व्यक्ति कृष्ण को पूरा प्रेम नहीं कर सकता, उसमें अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। मोहम्मद और जीसस हैं, रजोगुण | चुनाव करेगा। जो पसंद होगा, वह बचाएगा; जो नापसंद है, उसे उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। बुद्ध और महावीर हैं, सत्वगुण काट देगा। उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। लाओत्से और रमण हैं, तमस | । इसलिए अब तक कृष्ण के ऊपर जितनी भी व्याख्याएं हुई हैं, उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। कृष्ण तीनों गुणों को एक साथ | | सब चुनाव की व्याख्याएं हैं। न तो शंकर कृष्ण को पूरा स्वीकार 102 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * असंग साक्षी * करते हैं, न रामानुज, न निंबार्क, न वल्लभाचार्य, न तिलक, न चुनकर तीन अलग-अलग काल-खंडों में एक-एक गुण को गांधी, न अरविंद, कोई भी कृष्ण को पूरा स्वीकार नहीं करता। उतने | | अभिव्यक्ति के लिए चुनना है! पहले मैंने तमस को चुना, क्योंकि हिस्से कृष्ण में से काट देने पड़ते हैं, जो असंगत मालूम पड़ते हैं, वही आधारभूत है, बुनियाद में है। विरोधाभासी मालूम पड़ते हैं, जो एक-दूसरे का खंडन करते हुए बच्चा पैदा होता है मां के गर्भ से, तो नौ महीने मां के गर्भ में प्रतीत मालूम पड़ते हैं। बच्चा तमस में होता है, गहन अंधकार में होता है। कोई क्रिया नहीं जैसे गांधी हैं, गांधी अहिंसा को इतना मूल्य देते हैं। तो कृष्ण | | होती, परम आलस्य होता है। श्वास लेने तक की क्रिया बच्चा स्वयं अर्जुन को हिंसा के लिए उकसावा दे रहे हैं, यह उनके लिए अड़चन नहीं करता, वह भी मां ही करती है। भोजन लेने की-बच्चे में खून की बात हो जाएगी। गांधी सत्य को परम मूल्य देते हैं; कृष्ण झूठ | भी प्रवाहित होता है, तो वह भी मां का ही खून रूपांतरित होता रहता भी बोल सकते हैं, यह गांधी की समझ के बाहर है। कृष्ण धोखा है। बच्चा अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करता है। भी दे सकते हैं, यह गांधी का मन स्वीकार नहीं करेगा। और अगर अक्रिया की ऐसी अवस्था परिपूर्ण तमस की अवस्था है। बच्चा कृष्ण ऐसा कर सकते हैं, तो गांधी के लिए कृष्ण पूज्य न रह जाएंगे। | है, प्राण है, जीवन है, लेकिन जीवन किसी तरह का कर्म नहीं कर तो एक ही उपाय है कि गांधी किसी तरह समझा लें कि कृष्ण ने रहा है। गर्भ की अवस्था में अकर्म पूरा है। ऐसा किया नहीं है। या तो यह कहानी है. प्रतीकात्मक है. सिंबालिक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की तलाश. स्वर्ग की आकांक्षा. है। यह जो युद्ध है महाभारत का, यह वास्तविक युद्ध नहीं है गांधी | | निर्वाण की खोज, सिर्फ इसीलिए पैदा होती है कि हर व्यक्ति ने के हिसाब से। ये कौरव और पांडव असली मनुष्य नहीं हैं, जीवित अपने गर्भ के क्षण में एक ऐसा अक्रिया से भरा हुआ क्षण जाना है, मनुष्य नहीं हैं, ये सिर्फ प्रतीक हैं बुराई और भलाई के। और युद्ध धर्म इतना शून्यता से भरा हुआ अनुभव किया है। वह स्मृति में टंगा और अधर्म के बीच है, मनुष्यों के बीच नहीं। पूरी कथा है, एक हुआ है, वह आपके गहरे में छिपा है वह अनुभव जो नौ महीने गर्भ पैरेबल है, तब फिर गांधी को अड़चन नहीं है। बुराई को मारने में | | में हुआ। वह इतना सुखद था, क्योंकि जब कुछ भी न करना पड़ता अड़चन नहीं है; बुरे आदमी को मारने में गांधी को अड़चन है। अगर | हो, कोई दायित्व न हो, कोई जिम्मेवारी न हो, कोई बोझ न हो, कोई सिर्फ बुराई को काटना हो, तो कोई हर्जा नहीं है। चिंता न हो, कोई काम न हो, सिर्फ आप थे, जस्ट बीइंग, सिर्फ लेकिन अगर बुराई को ही काटना होता, तो अर्जुन को भी कोई | | होना मात्र था! जिसको हम मोक्ष कहते हैं, वैसी ही करीब-करीब सवाल उठने का कारण नहीं था। सवाल तो इसलिए उठ रहा था अवस्था मां के गर्भ में थी। वही अनुभूति आपके भीतर छिपी है। कि बुरे आदमी को काटना है। सवाल तो इसलिए उठ रहा था कि इसलिए जीवन में आपको कहीं भी सुख नहीं मिलता और हर उस तरफ जो बुरे लोग हैं, वे अपने ही हैं, निजी संबंधी हैं। उनसे | जगह आपको कमी मालूम पड़ती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह ममत्व है, उनसे राग है, और उनके बिना दुनिया अधूरी और बेमानी | तभी हो सकता है, जब आपके अनुभव में कोई ऐसा बड़ा सुख रहा हो जाएगी। हो, जिससे आप तुलना कर सकें। __ कृष्ण का व्यक्तित्व असंगत होगा ही। तीन गुण एक साथ हैं, ___ हर आदमी कहता है, जीवन में दुख है। सुख का आपको असंगति पैदा करेंगे। अनुभव न हो, तो दुख की आपको प्रतीति कैसे होगी? और हर एक और संभावना है, जिसका प्रयोग मैंने किया है। उसमें भी | | आदमी कहता है कि कोई सुख की खोज करनी है। किस सुख की असंगति होगी, लेकिन वैसी नहीं जैसी कृष्ण में है। खोज कर रहे हैं? जिसका कभी स्वाद न लिया हो, उसकी खोज भी तीनों गुण व्यक्ति में हैं। और व्यक्तित्व की पूर्णता तभी होगी, | कैसे करिएगा? और जिससे हमारा कोई परिचय नहीं है, उसकी हम जब तीनों गुण अभिव्यक्ति में उपयोग में ले लिए जाएं, उनमें से | जिज्ञासा कैसे करेंगे? कोई भी दबाया न जाए। कृष्ण भी दमन के पक्ष में नहीं हैं, मैं भी | । हमारे अचेतन में जरूर कोई अनुभव की किरण है, कोई बीज है दमन के पक्ष में नहीं हूं। और जो भी व्यक्तित्व में है, उसका छिपा हुआ है, कोई आनंद हमने जाना है, कोई स्वर्ग हमने जीया सृजनात्मक उपयोग हो जाना चाहिए। | है, कोई संगीत हमने सुना है। कितना ही विस्मृत हो गया हो, मेरी प्रक्रिया तीनों गुणों को एक साथ अभिव्यक्ति के लिए न लेकिन हमारे रोएं-रोएं में वह प्यास छिपी है, और वह खबर छिपी [103| Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* है, हम उसकी ही खोज कर रहे हैं। आचार्य थे। और जैसा कि दार्शनिक अक्सर झक्की और एक्सेंट्रिक मनोविज्ञान कहता है, मोक्ष की खोज एक विराट गर्भ की खोज होते हैं; वे भी थे। और उनका जो झक्कीपन था, वह यह था कि वे है। और जब तक यह सारा अस्तित्व हमारा गर्भ न बन जाएगा, तब स्त्री को नहीं देखते थे। दुर्भाग्य से, मैं और एक युवती, दो ही उनके तक यह खोज जारी रहेगी। विद्यार्थी थे उनके विषय में। तो उनको आंख बंद करके ही पढ़ाना यह बात बड़ी कीमती है, बहुत अर्थपूर्ण है। लेकिन इस संबंध | | पड़ता था। मेरे लिए यह सौभाग्य हो गया, क्योंकि वे पढ़ाते थे और में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि बच्चा नौ महीने अपने मां | | मैं सोता था। वे आंख खोल नहीं सकते थे, क्योंकि युवती थी। के गर्भ में ठीक तमस में पड़ा है। वहां न तो राजसी होने का सवाल | | लेकिन वे मुझ पर बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि वे सोचते थे कि मेरा है, न सात्विक होने का सवाल है, गहन तम में पड़ा है, गहन | भी शायद यही सिद्धांत है, युवती को मैं भी नहीं देखता। और आलस्य है। बस सोया है, चौबीस घंटे सो रहा है। नौ महीने की यूनिवर्सिटी में कम से कम उन जैसा एक आदमी और भी है, जो लंबी नींद है। स्त्रियों की तरफ आंख बंद रखता है। इससे वे बड़े प्रसन्न थे। वे कई फिर जैसे ही बच्चा पैदा होता है, तो फिर बाईस घंटे सोएगा, | बार मुझे कहे भी; जब कभी अकेले में मिल जाते, तो वे मुझे कहते फिर बीस घंटे, फिर अठारह घंटे; धीरे-धीरे जागेगा। वर्षों लग कि तुम अकेले हो, जो मुझे समझ सकते हो। । । जाएंगे, तब वह आकर आठ घंटे की नींद पर ठहरेगा। और जन्मों | लेकिन एक दिन सब गड़बड़ हो गया। लग जाएंगे, जब नींद बिलकुल शून्य हो जाएगी, और वह परिपूर्ण | दूसरी उनकी आदत थी कि एक घंटे का नियम वे नहीं मानते थे। जागरूक हो जाएगा कि निद्रा में भी जागता रहे। जिसको कृष्ण इसलिए उनको अंतिम पीरियड ही यूनिवर्सिटी देती.थी लेने के कहते हैं, जब सभी सोते हैं, तब भी योगी जागता है। इसके लिए | लिए। क्योंकि चालीस मिनट के बाद...वे कहते थे, शुरू करना जन्मों की यात्रा होगी। मेरे बस में है, अंत करना मेरे बस में नहीं है। तो साठ मिनट में पूरा तमस आधार है और सत्व शिखर है। इस भवन का जिसे हम हो, अस्सी मिनट में पूरा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तो घंटा जीवन कहें, तमस बुनियाद है, रजोगुण बीच का भवन है और बजे, उससे मैं बंद नहीं करूंगा; जब मेरी बात पूरी हो जाए, तभी सत्वगुण मंदिर का शिखर है। | बंद करूंगा। तो करीब अस्सी मिनट, नब्बे मिनट बोलते थे, मैं यह जीवन की व्यवस्था है मेरी दृष्टि में। इसलिए मैंने जीवन के सोता था। और युवती को कह रखा था कि जब घंटा पूरा होने लगे, पहले खंड को तमस की ही साधना बनाया। जीवन के मेरे प्राथमिक तो मुझे इशारा करे। वह कृपा करके इतनी व्यवस्था कर देती थी कि वर्ष ठीक लाओत्से की रसानुभूति में ही बीते। इसलिए लाओत्से से इशारा कर देती, मैं उठ जाता। मेरा लगाव बुनियादी है, आधारभूत है। सब भांति मैं आलस्य में | | एक दिन उसे बीच में जाना पड़ा; कोई बुलावा आ गया, कुछ था और आलस्य ही साधना थी। जहां तक बने कुछ न करना। कारण आ गया, वह बीच से चली गई। मैं सोया रहा, वे बोलते करना मजबूरी ही हो, तो उतना ही करना, जितना अपरिहार्य हो रहे। घंटा पूरा हो गया, उन्होंने आंख खोली, मैं सोया था। उन्होंने जाए। अकारण हाथ भी न हिलाना, पैर भी न चलाना। | मुझे हिलाया और जगाया। बोले कि नींद लग गई? मैंने कहा, अब ___मेरे घर में ही ऐसी हालत हो गई थी कि मैं बैठा हूं और मेरी मां आपको पता ही चल गया, तो मैं कह दूं। मैं रोज ही सो रहा हूं। मेरे सामने ही बैठकर कहती, कोई दिखाई नहीं पड़ता, किसी को मुझे स्त्रियों से कोई ऐतराज नहीं है। और यह बड़ा सुखद है, डेढ़ सब्जी लेने बाजार भेजना है! मैं सुन रहा हूं, मैं सामने ही बैठा हूं। घंटे आप बोलते हैं, मैं सो लेता हूं। और मैं जानता था, घर में आग भी लग जाती, तो भी वह यही कहती, सोना मैंने करीब-करीब ध्यान बना रखा था। जितना ज्यादा सो यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता; घर में आग लग गई, कौन बुझाए! सकू, उतना ज्यादा सोता था। पर चुपचाप अपनी निष्क्रियता को देखना, सिर्फ उसके प्रति | एक बड़े मजे की बात है कि अगर आप जरूरत से ज्यादा सोएं, साक्षी और ध्यान से भरे रहना। कुछ घटनाओं से आपको कहूं, तो तो सोने में जागरण निर्मित होने लगता है। अगर आप जरूरत से खयाल में आ जाए। कम सोएं, तो नींद एक मूर्छा होगी। अगर आप जरूरत से ज्यादा मेरे विश्वविद्यालय में आखिरी वर्ष में एक दर्शनशास्त्र के सोएं, तो सो तो नहीं सकते। शरीर की जरूरत पूरी हो जाती है। 10A Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंग साक्षी धीरे-धीरे शरीर की कोई जरूरत नहीं रह जाती और आप सोए हुए हैं, तो भीतर कोई जागकर देखने लगता है। अगर आप छत्तीस घंटे पड़े हुए सोए रहें, तो आपको थोड़ी-सी झलक मिलेगी उस बात की, जिसको कृष्ण कह रहे हैं, तस्याम जागर्ति संयमी । क्योंकि नींद की कोई शरीर को जरूरत न रह जाएगी। और शरीर को आप नींद की अवस्था में पड़ा रहने दें। तो भीतर से जागरण का स्वर शुरू हो जाएगा। उन दिनों में ही निरंतर सो-सोकर मैंने जाना कि सोए में जागना हो सकता है। रात भी सोता, सुबह भी सोता, दोपहर भी सो जाता; जब मौका मिलता। घर के लोगों को, प्रियजनों को, परिवार के को यही खयाल था कि मैं निपट आलसी हूं, मुझसे जीवन में कुछ हो नहीं सकता। एक हिसाब से वह ठीक ही था उनका खयाल । मेरी तरफ से नींद मेरे लिए साधना थी । मेरे एक और प्रोफेसर थे। मेरे प्रोफेसर भी थे, मेरे मित्र भी थे। और जैसा आलसी मैं था, ठीक वैसे ही आलसी थे। अकेले वे भी रहते थे, अकेला मैं भी रहता था। उन्होंने कहा, बेहतर होगा, हम दोनों साथ ही रहें। मैंने कहा, इसमें थोड़ी अड़चन होगी। हो सकता है, आपकी नींद में मेरे कारण बाधा हो, मेरी नींद में आपके कारण बाधा हो। फिर भी आप चाहें तो...। पर साथ रहने में कुछ व्यवस्था बनानी जरूरी थी और दोनों ही आलसी थे। वे अब भी वैसे ही हैं; उन्होंने उस गुण का त्याग नहीं किया। उन्होंने कभी उसे साधना भी नहीं बनाया, अन्यथा वह छूट जाता । ध्यान रहे, जिस तत्व को भी आप साधना बना लें, थोड़े दिन में उसके पार आप चले ही जाएंगे। साधना का मतलब ही ट्रांसेंडेंस है, अतिक्रमण है । और जिसको भी आप पूरी तरह भोग लें, आप उसके भीतर नहीं रह सकते। अगर आप आलस्य को भी पूरी तरह भोग लें, आप अचानक पाएंगे कि आलस्य विदा हो गया। जिससे मुक्त होना हो, उसे पूरा भोग लेना जरूरी है। इसलिए मैंने तमस को पहले पूरा ही भोग लेना उचित समझा। साथ रहे, तो पहले ही दिन रात हमें तय करना पड़ा कि कल से हमारी व्यवस्था कैसी होगी। अब तक अलग-अलग थे, इसलिए व्यवस्था का कोई सवाल नहीं था। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति पहले सुबह उठे, वह दूध लेने जाए। मैंने कहा, यह बिलकुल स्वीकार है। मैं भी खुश था, वे भी खुश थे। दोनों भ्रांति में थे। तो मैंने सोचा कि ऐसा सुबह पहले उठने की जरूरत क्या है ! और वे भी यही सोच रहे थे। बजे के करीब मेरी नींद खुली, तो मैंने देखा, वे सोए हैं, तो | मैं फिर सो गया। दस बजे के करीब उनकी नींद खुली होगी, उन्होंने देखा कि मैं सोया हूं। वे भी सोना चाहे, लेकिन एक अड़चन थी, उनको ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी तो पहुंचना ही था, वे नौकरी में थे । मैं तो विद्यार्थी था; मुझे जाने की कोई आवश्यकता भी न थी, जरूरी भी नहीं था। ऐसे भी मैं कम ही जाता था। आखिर मजबूरी में उनको उठना पड़ा; दूध लेने जाना पड़ा। जब | तक वे आए, तब तक मैं उठकर बैठा था। उन्होंने कहा कि यह | दोस्ती नहीं चल सकती, क्योंकि यह तो रोज का सवाल है । मुझे | ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी जाना ही है। तो मैं ज्यादा से ज्यादा दस बजे तक प्रतीक्षा कर सकता हूं। तुम पूरे दिन प्रतीक्षा कर सकते हो । |इसका मतलब हुआ कि दूध मुझे रोज ही लाना पड़ेगा; यह दोस्ती नहीं चल सकती। जिस बात को भी करने से बचा जा सके; मैंने प्राथमिक चरण में पूरी तरह बचने की कोशिश की। दो वर्ष मैं विश्वविद्यालय में था, मैंने कभी अपना कमरा नहीं झाड़ा। अपने पलंग को दरवाजे पर रख छोड़ा था, जिससे सीधा दरवाजे से पलंग पर प्रवेश करूं और सीधे बाहर निकल जाऊं। और अकारण पूरे कमरे को क्यों ! न उसमें प्रवेश करना, न उसको साफ करने का कोई सवाल था । पर उसका अपना सुख था । और चीजें जैसी हैं, उनमें जितना कम रद्दोबदल करना पड़े... क्योंकि रद्दोबदल का मतलब होता है, कुछ करना पड़ेगा । उनको वैसे ही रहने देना। पर इससे अनूठे अनुभव भी हुए। और हर गुण का अनूठा अनुभव है। कितना ही कचरा था और कितनी ही गंदगी थी, उसके बीच ऐसे ही रहने का भाव आ गया जैसे कितनी ही | स्वच्छता के बीच रहने की स्थिति हो । जिस विश्वविद्यालय में मैं था, उसके भवन तब तक निर्मित नहीं हुए थे। नया विश्वविद्यालय निर्मित हुआ था और मिलिट्री के बैरेक्स का ही उपयोग हास्टल्स के लिए हो रहा था। तो अक्सर सांप आ जाते थे, क्योंकि घने जंगल में ही, खुले जंगल में बैरेक्स थे। तो मैं पड़ा हुआ अपने बिस्तर पर उनको देखता रहता था। आ जाते, बैठ जाते, कमरे में विश्राम कर लेते। न कभी उन्होंने कुछ किया, न मैंने कभी उनके लिए कुछ किया । करने का भाव ही न हो, तो बहुत-सी चीजें सहज स्वीकार हो जाती हैं। और करने का भाव न हो, तो जिंदगी में असंतोष की मात्रा एकदम नीचे गिरने लगती है। उन दिनों में कोई असंतोष का कारण 105 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * नहीं था। क्योंकि जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो आपकी कोई अगर आलस्य को कोई साधना बना ले, तो शून्य की अनुभूति मांग नहीं रह जाती। और जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो फल बड़ी सहज हो जाती है। का कोई सवाल नहीं है। जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो जो भी उन दिनों में न मैं ईश्वर को मानता था, न आत्मा को। न मानने मिल जाए...। का कारण कुल इतना था कि इन्हें मानने से फिर कुछ करना पड़ेगा। तो कभी-कभी कोई मित्र दया करके कमरे को साफ कर जाता, | आलसी के लिए अनीश्वरवाद संगत है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो मैं बड़ा अनुगृहीत होता था। मेरे अध्यक्ष विभाग के, परीक्षा के | तो काम शुरू हो गया। फिर कुछ करना पड़ेगा। अगर आत्मा है, समय सुबह स्वयं उठकर सात बजे मेरे दरवाजे पर गाड़ी लेकर खड़े | तो कुछ करना पड़ेगा। हो जाते थे कि मुझे आठ-दस दिन जब तक परीक्षा चले, मुझे हाल लेकिन कुछ न करते हुए, बिना ईश्वर और आत्मा को मानते में वे छोड़ दें, क्योंकि मैं सोया न रह जाऊं। हुए, उस चुपचाप पड़े रहने में ही उस सब की झलक मिलनी शुरू सबकी दया और करुणा अनायास मिलती थी। क्योंकि सभी को | | हो गई, जिसको हम आत्मा कहें, ईश्वर कहें। और मैंने तब तक खयाल था कि जिस बात को भी करने से बचा जा सके, मैं बचूंगा। तमस को नहीं छोड़ा, जब तक तमस ने मुझे नहीं छोड़ दिया। तब बड़ी आश्चर्य की घटनाएं घटती थीं। वह इसलिए कह रहा हूं कि | तक मैंने तय किया था कि चलता रहूंगा ऐसा ही, बिना कुछ किए। आपको खयाल आ सके कि जिंदगी बहुत रहस्यपूर्ण है। मेरी अपनी समझ यह है कि अगर आप तमस को ठीक से जी प्रोफेसर्स परीक्षा के पहले मझे आकर कह जाते कि यह प्रश्न लें. तो उसके बाद रजोगण अपने आप पैदा हो जाएगा। क्योंकि वह जरूर देख लेना। मैं कभी किसी से पूछने नहीं गया। उनके बताने दूसरा गुण है, जो आपकी दूसरी मंजिल में छिपा हुआ है। पहली पर भी उनको भरोसा नहीं था कि मैं देखूगा। वे मेरी तरफ ऐसे देखते | | मंजिल पूरी हो गई; आप सीढ़ियां पार कर आए, रजोगुण शुरू हो कि समझ में आया? इसको जरूर ही देख लेना। इसका आना जाएगा। आपमें सक्रियता का उदय होगा। पक्का है। जाते-जाते वे मुझको कह जाते, यह पेपर मैंने ही निकाला | लेकिन यह सक्रियता बहुत अनूठी होगी। यह सक्रियता है; इसे बिलकल देख ही लेना। इसमें कोई शक-सुबहा ही नहीं है, राजनीतिज्ञ की विक्षिप्तता नहीं होगी। अगर आलस्य को आपने यह आएगा ही। फिर भी उन्हें मैं कभी भरोसा नहीं दिला सका कि साधना बनाया हो और आलस्य आपका शून्यता में जाने का द्वार बना उनको भरोसा आ जाए कि मैं देखूगा। हो, तो यह सक्रियता वासना की सक्रियता नहीं हो सकती, करुणा मैं यह कह रहा हूं कि अगर आप जगत से छीनने-झपटने जाएं. की ही हो सकती है। यह सक्रियता अब बांटने का एक क्रम होगी। तो हर जगह प्रतिरोध है। और अगर आप कुछ न करने की हालत तो उस सक्रियता को भी मैंने पूरी तरह जी लिया। बीच में कुछ में हों, तो सब द्वार आपको देने को खुल जाते हैं। | बाधा डालना मेरी वृत्ति नहीं है। जो भी हो रहा हो, उसे होने देना। उन दिनों बिस्तर पर पड़े रहना, ऊपर सीलिंग में देखते रहना, | | और ऐसे अगर कोई होने दे, तो बहुत जल्दी गुणातीत हो जाएगा। वैकेंट, खाली। बहुत बाद में मुझे पता चला कि मेहर बाबा की क्योंकि तब स्वयं करने वाला नहीं रह जाता; गुण ही करने वाले रह साधना वही थी। मझे तो यह अनायास हआ। क्योंकि बिस्तर पर जाते हैं। वह आलस्य का गण था. जिसने अपने को परा कर लिया। पड़े-पड़े करना भी क्या? अगर नींद जा चुकी हो, तो पड़े रहना, फिर रजोगुण था। तो मैं दौड़ता रहा मुल्क में। जितनी यात्रा मैंने सीलिंग को देखते रहना। अगर आप चुपचाप बिना पलक दस-पंद्रह साल में की, दो-तीन जीवन में भी एक आदमी नहीं कर झपाए...और पलक नहीं झपाना, यह कोई साधना नहीं थी। वह सकता। जितना उन दस-पंद्रह सालों में बोला, उतने के लिए भी जैसे कर्म का हिस्सा है, क्यों झपाना! पड़े रहना। वह भी जैसे दस-पंद्रह जीवन चाहिए। सुबह से लेकर रात तक चल ही रहा था, आलस्य का हिस्सा है कि पलक भी क्यों झपाना! पड़े रहना। बोल ही रहा था, सफर ही कर रहा था। रोकने का कृत्य नहीं था। जहां तक बने कुछ न करना। जरूरत, गैर-जरूरत विवाद और उपद्रव भी खड़े कर रहा था। अगर आप अपने मकान की सीलिंग को ही देखते हुए पड़े रहें| | क्योंकि जितने वे विवाद खड़े हो जाएं, उतना मेरे रजोगुण को घंटे, दो घंटे; आप पाएंगे, चित्त इतना आकाश जैसा कोरा हो निकल जाने की सुविधा थी। तो गांधी की आलोचना हाथ में ले ली, जाता है, शून्य हो जाता है। या समाजवाद की आलोचना हाथ में ले ली। उनसे मेरा कोई संबंध 106 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * असंग साक्षी * नहीं था। राजनीति से मेरा कोई भी लगाव नहीं है; रत्तीभर भी मुझे कर रहे हैं। वह रजोगुण को जलाने का एक ही उपाय था, कि वह कोई रस नहीं है। | भभक कर जले। वह पूरा का पूरा अंगारा बन जाए, तो जल्दी राख लेकिन जब सारा मल्क एक विक्षिप्तता में पड़ा हो, सारी हो जाएगा। जितने धीरे-धीरे जलेगा, उतना समय लेगा। इकट्ठा मनुष्यता, और अगर आपको भी दौड़ना हो उस मनुष्यता के बीच, | | जल जाए, पूर्णता से जले, तो जल्दी राख हो जाएगा। तो खेल के लिए ही सही, आपको कुछ उपद्रव अपने आस-पास | अब वह जल चुका है। और अब जैसे सांझ को सूरज सिकोड़ ले निर्मित कर लेने चाहिए, कुछ विवाद खड़े कर लेने चाहिए। तो उस | | अपनी सारी किरणों को और जैसे सांझ को मछुआ अपने जाल को रजोगुण की यात्रा में ढेर विवाद खड़े हुए, और मैंने उनका काफी | | निकाल ले, ऐसे मैं सब सिकोड़ लूंगा। सिकोड़ लूंगा, कहना ठीक सुख लिया। | नहीं है। ऐसा सब सिकुड़ जाएगा। क्योंकि तीसरा तत्व शुरू होगा। अगर कर्म की विक्षिप्तता से वे पैदा होते, तो उनसे दुख पैदा इसलिए आप देख भी रहे हैं कि मैं धीरे-धीरे सब हाथ हटाता होता। लेकिन सिर्फ रजोगुण के निकास की भांति, अभिव्यक्ति की | जा रहा हूं। आपकी जगह पचास हजार लोग सुन सकते थे, लेकिन भांति वे थे, तो उन सबमें खेल था और रस था। वे विवाद एक | | मैं राजी हूं कि पचास लोग सुनें। पचास से पांच पर राजी हो अभिनय से ज्यादा नहीं थे। जाऊंगा। बोलने से न बोलने पर राजी हो जाऊंगा। __पंजाब में पंजाब के एक बड़े वेदांती थे, हरिगिरी जी महाराज। ___ तो जैसे-जैसे रजोगुण पूरा फिंक जाता है और सत्व की प्रक्रिया उनसे वेदांत पर एक बड़ा विवाद हुआ। मेरे लिए एक खेल था, शुरू होती है, वैसे-वैसे सभी क्रियाएं फिर शून्य हो जाएंगी। उनके लिए गंभीरता थी। क्योंकि उनके सिद्धांत का सवाल था। वे | तमोगण में भी सारी क्रियाएं शन्य होती हैं। लेकिन वह शन्यता करीब-करीब विक्षिप्त हो जाते थे। निद्रा जैसी होती है। सत्वगुण में भी सारी क्रियाएं शून्य हो जाती हैं। पुरी के शंकराचार्य से पटना में विवाद हो गया। मेरे लिए खेल | | लेकिन वह शून्यता जागरूकता जैसी होती है। तमस और सत्व में था, उनके लिए पूरे व्यवसाय का सवाल था। वे इतने विक्षिप्त हो | एक समानता है कि दोनों शून्य होंगे। तमस का रूप निद्रा जैसा गए, इतने क्रोध में आ गए कि मंच से गिरते-गिरते बचे। सारा शरीर | होगा; सत्व का रूप जागरण जैसा होगा। कंपित हो गया। - और इसी को मैं जीवन की ठीक प्रक्रिया मानता हूं कि जीवन का पर रजोगुण को पूरा निकल जाने देना जरूरी है। बहुत मित्रों ने | प्रथम चरण तमस में गुजरे, द्वितीय चरण रज में गुजरे, तृतीय चरण मुझे रोकना चाहा, पर मैं अपनी तरफ से नहीं रुकना चाहता था। | सत्व में गुजरे। और तीनों चरण में आप अपने को अलग रखने की रजोगुण ही झर जाए, उसकी निर्जरा हो जाए, तो ही रुगा। कोशिश में लगे रहें, तो आप साधना में हैं। और तीनों चरणों में आप महीने में तीन सप्ताह मैं ट्रेन में ही बैठा हुआ था। सुबह बंबई जानते रहें कि यह मैं नहीं कर रहा हूं, ये गुण कर रहे हैं। यह मुझसे था, तो रात कलकत्ता था, तो दूसरे दिन अमृतसर था, तो चौथे दिन | नहीं हो रहा है; मैं सिर्फ देखने वाला हूं; मैं सिर्फ साक्षी हूं। जब लुधियाना था, दिल्ली था। पूरा मुल्क जैसे एक भ्रमण के लिए क्षेत्र | | आलस्य हो तब भी, जब कर्म हो तब भी, जब सत्व हो तब भी। मैं था। और जगह-जगह उपद्रव स्वाभाविक थे, क्योंकि जब आप | | सिर्फ देखने वाला हूं, मैं मात्र द्रष्टा हूं। ऐसी प्रतीति बनी रहे, तो तीनों कर्म करेंगे, तब उपद्रव बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि कर्म के | गुण चुक जाएंगे अपने से और आप गुणातीत में ठहर जाएंगे। प्रतिकर्म पैदा होते हैं, क्रिया से प्रतिक्रिया जन्मती है। ___ पहुंचना है चौथे में, तीनों के पार। जिसको चौथा कहना ठीक __ आलस्य के दिनों में मैं बोलता नहीं था, या न के बराबर बोलता नहीं; जहां कोई भी नहीं है; जहां तीनों नहीं हैं। था। कोई बहुत पूछे, तो थोड़ा बोलता था। रजोगुण के दिनों में कोई | __ कृष्ण ने तीनों को इकट्ठा व्यक्त किया है। मैंने तीनों को न भी पूछे, तो बोलता था। लोगों को ढूंढ़कर बोलता था; और | | अलग-अलग एक-एक परिधि में बांटकर उपयोग किया है। बोलने में एक आग थी। मेरे पास अब भी लोग आते हैं, वे कहते | इसलिए मेरी बातों में भी असंगति मिलेगी। जो मैंने तमस के क्षणों हैं, अब आप वैसा नहीं बोलते कि दिल थर्रा जाता था। एक जोश, | में कहा है और जीया है, वह मेरे रजस के क्षणों से उसका कोई मेल अंगार था। | नहीं बैठेगा। और जो मैंने रजस के क्षणों में कहा है, वह मेरे सत्व वह अंगार मेरा नहीं था। वह उस गुण का था, जिसकी हम चर्चा | के क्षणों में कही गई बातों से उसका बहुत विरोध हो जाएगा। [107] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7* सकती है। इसलिए जब कोई मेरे पूरे विचार पर सोचने बैठेगा, तो उसे तीन | | जाएगा, दूसरी हालत में आप हंसते रह जाएंगे। हिस्सों में तोड़ देना पड़ेगा। और तीनों के बीच बड़े विरोध होंगे। शरीर तो दोनों का छूटेगा। लेकिन जिसने अपने को शरीर ही होना ही चाहिए। क्योंकि तीन अलग गुणों के माध्यम से वे बातें | समझा हो, वह रोएगा, छाती पीटेगा। और जिसने जाना हो कि मैं प्रकट हुई हैं। और तीनों के बीच संगति असंभव होगी। | शरीर का देखने वाला हूं, शरीर से भिन्न और अलग हूं, वह शरीर अगर मेरे व्यक्तित्व में संगति खोजनी हो, तो वह चौथे में को जाते हुए देखेगा, जैसे एक और वस्त्र छिन गया, जराजीर्ण हो मिलेगी, वह जो गुणातीत है। इन तीन में संगति नहीं मिल सकेगी। गया था, नए वस्त्र की खोज में पुराने को छोड़ दिया। इन तीनों के पीछे जो छिपा साक्षी-भाव है, उसमें ही संगति मिल तीनों के फल होंगे। लेकिन साधक के लिए, जो उन तीनों के | प्रति जागरूकता साध रहा है....। और जागरूकता तो सभी को साधनी पड़ेगी, चाहे आप किसी गुण में हों। चाहे आपके हाथ पर जंजीरें लोहे की हों, चाहे आपके दूसरा प्रश्नः सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान एवं हाथ पर जंजीरें सोने की हों, चाहे आपके हाथ पर जंजीरें हीरे से मढ़ी. वैराग्य कहा है। रजस एवं तमस कर्म का फल दुख हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जंजीर खोलने की कला तो एक ही और अज्ञान कहा है। यदि रजस और तमस गुणों को | होगी। वह सोने की है कि लोहे की, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। साधना का आधार बनाया जाए, तो उनके फलों में आपके चारों तरफ दुख बंधा है कि सुख, इससे कोई फर्क नहीं क्या भिन्नता आ जाएगी? पड़ता। खोलने की कुंजी तो एक ही है, और वह कुंजी है, साक्षी-भाव। चाहे दुख हो तो, चाहे सुख हो तो, आपको अपने को दूर खड़े होकर देखने की कला में निष्णात करना है। अभ्यास एक T5 लों में तो कोई भिन्नता न आएगी। फल-भोक्ता में | है, कि मैं अलग हूं। कुछ भी घट रहा हो, वह घटना अब स कुछ पा भिन्नता आएगी। फल तो वही होंगे। अगर सात्विक | | | भी हो, उस घटना से मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं दर्शक हूं। कर्म का फल सुख है, तो सुख ही होगा, चाहे आप जागरूक हों और न हों। अगर जागरूक होंगे, तो आप जानेंगे कि सुख मुझ से दूर और अलग है, मेरे आस-पास है। मैं सुख नहीं | तीसरा प्रश्न : कल आपने समझाया कि सात्विक कर्मों हूं, मैं सुख को देखने वाला हूं। का परिणाम है, सहज वैराग्य। जो व्यक्ति रजस या चाहे रजस का फल हो दुख, फल तो वही होगा। संत को भी | तमस के माध्यम से साधना कर रहा है, क्या उसका वही फल होगा, असंत को भी वही फल होगा। लेकिन असंत भी वैराग्य सहज ही होगा? क्या वैराग्य के समझेगा कि मैं दुख हूं और संत समझेगा कि मैं दुख का द्रष्टा हूं। प्रकटीकरण में भी भिन्नता आ जाएगी? वहां भेद होगा। इसलिए बड़े मजे की बात है। दुख का फल तो बराबर होगा, लेकिन संत दुखी नहीं हो पाएगा और असंत दुखी होगा। और दुख | नहीं , वैराग्य हमेशा सहज होगा। सहज का मतलब दोनों को होगा। जो दुख के साथ जुड़ जाएगा, तादात्म्य कर लेगा, | आइडेंटिटी बना लेगा, वह दुखी होगा। वैराग्य को ओढ़ा नहीं जा सकता, जबरदस्ती थोपा जैसे आपका कपड़ा कोई छीन ले। और आप अगर सोचते हों | नहीं जा सकता। वैराग्य जब भी होगा, सहज होगा। और अगर कि कपड़ा ही मैं हूं, तो कपड़े के साथ आपकी आत्मा जा रही है। । सहज न हो, तो वह वैराग्य सिर्फ ऊपर-ऊपर होगा, भीतर उसके और आप सोचते हों कि कपड़ा सिर्फ मेरे ऊपर है; कोई ले भी गया, राग होगा। नाम वैराग्य होगा, लेकिन नए ढंग का राग होगा। तो कपड़ा ही ले गया है, मैं नहीं चला गया हूं। कपड़ा दोनों हालत | आप एक चीज को छोड़ सकते हैं दूसरी चीज को पकड़ने के में चला जाएगा। लेकिन एक हालत में आपको गहन पीड़ा से भर लिए। लेकिन यह वैराग्य नहीं है। वैराग्य का मतलब है, छोड़ना, 01 समझ लें। 108 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * असंग साक्षी * बिना किसी को पकड़ने के लिए। सिर्फ मुट्ठी को खुला छोड़ देना है। ___ अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं, तू रजस की साधना कर। क्योंकि साधु-संत लोगों को समझाते हैं तथाकथित साधु-संत—कि कृष्ण जानते हैं भलीभांति कि अर्जुन का गुण है क्षत्रिय का। वह तुम यहां छोड़ो, तो परलोक में पाओगे। उनकी बातें सुनकर अगर रजस उसका स्वभाव है, वह उसकी प्रमुखता है। और जीवनभर कोई यहां छोड़ दे, तो वह छोड़ नहीं रहा है। वह सिर्फ परलोक में उसने रजस को साधा है, आलस्य को दबाया है। सत्व को दबाया पकड़ रहा है। उसका वैराग्य झूठा है, ओढ़ा हुआ है। राग ही काम | | है, रजस को उभारा है। क्योंकि क्षत्रिय अगर सत्व को उभारे, तो कर रहा है। और वह मन ही मन में बड़ा प्रसन्न हो रहा है कि मैंने यहां | | क्षत्रिय न हो सकेगा, ब्राह्मण हो जाएगा। अगर ब्राह्मण रजस को धन दिया, तो हजार गुना परलोक में मुझे मिलेगा। वह सौदा कर रहा उभारे, तो नाम का ही ब्राह्मण रह जाएगा, क्षत्रिय हो जाएगा। है, त्याग नहीं कर रहा। वह इनवेस्टमेंट कर रहा है। वह आगे की | | परशुराम नाम के ब्राह्मण हैं। हाथ में उनके फरसा है। और तैयारी कर रहा है। वह यहीं से आगे के लिए भी धन जोड़ रहा है। क्षत्रियों से, कथा है कि उन्होंने अनेक बार पृथ्वी को खाली कर और साध समझाते हैं कि धन को इकट्ठा करके क्या करोगे? दिया। वह महाक्षत्रिय हैं। इसलिए परशराम में सत्व प्रमुख नहीं हो पुण्य इकट्ठा करो। क्योंकि धन तो छिन जाएगा; पुण्य कभी नहीं | सकता; रजस ही प्रमुख होगा। परशुराम की दोस्ती बुद्ध से नहीं बैठ छिनेगा। लोभी उनकी बातों में आ जाएंगे। क्योंकि लोभी ऐसा ही | | सकती, मोहम्मद से बैठ सकती है। जहां सक्रियता प्रमुख हो, वहां धन खोज रहा है, जो छिन न सके। यह भाषा लोभ की है, त्याग | | रजस ऊपर होगा। की भाषा नहीं है। कृष्ण भलीभांति जानते हैं अर्जुन का सारा व्यक्तित्व, सारा ढांचा सहज वैराग्य का अर्थ है, आपको दिखाई पड़ेगा, धन व्यर्थ है। | रजस का है। इसलिए वे कह रहे हैं, तू भागने की बातें मत कर। आप इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि इससे कोई बडा धन मिल यह तेरा स्वभाव नहीं है. यह तेरा स्वधर्म नहीं है। त भाग न सकेगा। जाऐगा। आप धन की पकड़ ही छोड़ रहे हैं। आप बड़े को भी नहीं | अगर तू भाग भी गया जंगल में, तो झाड़ के नीचे तू बैठ न सकेगा। चाहते हैं। आप इस संसार को इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि परलोक | | तू वहीं जंगल में शिकार करना शुरू कर देगा। वहीं कोई झगड़े खड़े मिल जाएगा। आप कुछ पाना ही नहीं चाहते। पाने की बात ही | कर लेगा। तेरे क्षत्रिय होने से तेरा छुटकारा इतना आसान नहीं है। मूढ़तापूर्ण समझ में आ गई। यह बोध हो गया कि पाने की आकांक्षा | | जो तेरा व्यक्तित्व है, उसी गुण की साधना में तू उतर, यही कृष्ण में ही दुख है, फिर वह पाना यहां हो कि परलोक में हो। अब आप का पूरा संदेश है। कुछ पाना नहीं चाह रहे। आप अब जो हैं, वही होने में प्रसन्न हैं, । इसलिए वे कह रहे हैं, तू लड़। लेकिन एक शर्त, कि तू लड़ तो वैराग्य। जरूर, युद्ध जरूर कर, लेकिन योद्धा अपने को मत समझ, कर्ता वैराग्य का मतलब है, मैं जहां हैं, जैसा हं, जो है, उसकी अपने को मत समझ। समझ कि तू परमात्मा के हाथ एक निमित्त, स्वीकृति। उससे कोई असंतोष नहीं। राग का अर्थ है, जो भी मैं हूं, | एक उपकरण, एक साधन है। उससे असंतुष्ट हूं। और कुछ और हो जाऊं, तो मेरा संतोष हो चाहे साधना सत्व की हो, चाहे कोई सदगुणों को जीवन में सकता है। | उतारने में लगा हो; सत्य को, करुणा को, अहिंसा को साध रहा राग का संतोष है भविष्य में, वैराग्य का संतोष है अभी और | | हो; सब भांति अपने आचरण को पवित्र कर रहा हो, शुचि कर रहा यहीं। इसलिए वैराग्य सदा सहज होगा, एक। | हो. शद्ध कर रहा हो. वहां भी कर्ता-भाव पकड सकता है। वहां साधना कोई भी हो, वैराग्य सदा फल होगा। साधना चाहे तमस | | भी यह हो सकता है कि देखो, मेरे जैसा साधु कोई भी नहीं है! कि की हो, चाहे रजस की, चाहे सत्व की, फल सदा वैराग्य होगा। | मेरी जैसी पवित्रता कहां है! साधना का फल वैराग्य है। ध्यान का फल वैराग्य है। ज्ञान का फल | तो भूल हो गई। तो यह सत्वगुण जंजीर बन जाएगा। वहां भी वैराग्य है। जानना है कि यह जो भलापन हो रहा है, यह भी मेरे भीतर जो अगर आप दौड़ रहे हैं, कर्म कर रहे हैं...जैसा कि कृष्ण अर्जुन । प्रकृति ने सत्व का गुण रखा है, उसका परिणमन है, उसका परिणाम को कह रहे हैं कि तू कर्म कर, डर मत। लेकिन कर्म करने में भोक्ता है। मैं तो सिर्फ देखने वाला हूं। मैं देख रहा हूं कि मेरा सत्व सक्रिय मत रह, कर्ता मत रह, साक्षी हो जा। हो रहा है, मेरे भीतर से करुणा बह रही है, अहिंसा बह रही है। मैं 109 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 अहिंसक नहीं हूं। पावलव ने बहुत प्रयोग किए कुत्तों के ऊपर। ख्वार कुत्ते, जो मैं तो वैसे ही देख रहा हूं, जैसे हिमालय देखता होगा कि गंगा कि चीरकर दो कर दें अगर आप उनको जरा-सी चोट पहुंचा दें। बह रही है। आकाश से पानी गिरता है, गंगोत्री भर जाती है, गंगोत्री | | उनकी ग्रंथियां अलग कर दीं। आपरेशन किया, ग्रंथि अलग कर से गंगा बहती है। हिमालय यह नहीं कह रहा है कि मैं गंगा को बहा | | दी। ख्वार कुत्ते बिलकुल ही निर्जीव हो गए। आप उनको मार रहे रहा हूं। हिमालय सिर्फ देख रहा है कि गंगा मुझसे बह रही है। ऐसे | | हैं, और वे पूंछ हिला रहे हैं। भौंकते भी नहीं। हमले की तो बात ही सत्व की क्रियाएं मुझसे हो रही हैं। आकाश से वर्षा हो रही है, | | दूसरी, भौंकते भी नहीं। क्योंकि भौंकना भी कुछ हार्मोन पर निर्भर प्रकृति उनको दे रही है, मैं सिर्फ देखने वाला हूं। | है। अगर वह भीतर तत्व नहीं है, तो आप भौंक भी नहीं सकते। अगर आप हिमालय की तरह खड़े हए साक्षी हो गए, तो सत्व, कृष्ण और सांख्य की बड़ी गहरी खोज है कि आपके भीतर जो बंधन नहीं बनेगा, अन्यथा सत्व भी बंधन बन जाएगा। और अगर | | भी हो रहा है, वह प्रकृति से हो रहा है, गुणों से हो रहा है। आप आप साक्षी हो सकें, तो फिर तमस भी बंधन नहीं बनेगा। आप तब सिर्फ साक्षी से ज्यादा नहीं हैं। देख सकते हैं कि आलस्य मेरा नहीं है, आलसी मैं नहीं हूं; यह भी | मगर जो कुत्ता भौंक रहा है, हमला कर रहा है, आप उसको मेरे भीतर प्रक्रिया है गुणों की। समझा सकते हैं कि ये तेरे शरीर में किसी ग्रंथि के कारण हो रहा विज्ञान इस संबंध में बड़ी महत्वपूर्ण सूचनाएं देता है। वे सूचनाएं | है! वह कहेगा, मैं भौंक रहा हूं, कौन कह रहा है ग्रंथि है? ये हैं कि आपके भीतर जो भी हो रहा है, वह आपके शरीर के | आप जब क्रोध से भर गए हैं, तो आप सोच सकते हैं कि आपके हार्मोन्स पर निर्भर है, आप पर निर्भर नहीं है। हार्मोन नया शब्द हो शरीर के भीतर कुछ रासायनिक तत्वों का यह खेल है! आप कहेंगे, सकता है, लेकिन मतलब उसका भी वही है, जो गुणों का होगा। | मैं क्रोधित हूं, मुझे गाली दी गई है। एक स्त्री है, एक पुरुष है। आप सोचते हैं, मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष ___ आपको गाली नहीं दी गई। क्योंकि अगर ग्रंथि न हो, तो भी हूं। आप गलती में हैं। स्त्री को पुरुष हार्मोन के इंजेक्शन दे दिए गाली दी जाएगी, क्रोध नहीं उठेगा। ग्रंथि ने गाली पकड़ी, और ग्रंथि जाएं, उसके शरीर का रूपांतरण हो जाएगा, वह पुरुष जैसी हो उत्तर दे रही है, और आप केवल शिकार हैं। आप सिर्फ विक्टिम जाएगी। पुरुष को स्त्री हार्मोन के इंजेक्शन दे दिए जाएं, उसका | हैं। आपको सिर्फ भ्रांति है। रूपांतरण हो जाएगा। उसकी कामेंद्रिय बदलकर स्त्रैण हो जाएगी। __ एक सुंदर स्त्री दिखती है और आप उसके पीछे हो लिए। आप तब आप बड़े चौंकेंगे कि मैं कौन हूं फिर? क्योंकि अगर इंजेक्शन | सोच रहे हैं, आप पीछे जा रहे हैं! कृष्ण कह रहे हैं, आप नहीं जा आपको स्त्री से पुरुष बना सके, पुरुष से स्त्री बना सके, तो आप रहे, सिर्फ गुण पीछे जा रहे हैं। आपके भीतर के जो पुरुष हार्मोन कौन हैं? स्त्री हैं या पुरुष? | हैं, वे आपको खींच रहे हैं स्त्री हार्मोनों की तरफ। आप चले। यही हमारी निरंतर की खोज है। और मैं मानता हूं कि विज्ञान बड़े | | आपके बस के बाहर हो गया मामला। आप कहते हैं, स्त्री बहुत नए आधार दे रहा है पुराने सत्यों के लिए। इसका मतलब हुआ कि | सुंदर है। आपका स्त्री होना या पुरुष होना प्रकृति के द्वारा है; आप दोनों के यह आप सब समझा रहे हैं। ये सब हार्मोन आपको समझा रहे पार हैं। तो अगर आपकी प्रकृति बदल दी जाए, शरीर बदल दिया हैं आपके भीतर कि स्त्री बहत संदर है। रुकना भी चाहो, तो कैसे जाए, तो आप स्त्री हो जाएं या पुरुष हो जाएं। रुक सकते हो! लेकिन आपके हार्मोन अलग कर लिए जाएं, सुंदर आप हैरान होंगे! एक आदमी क्रोधित हो रहा है। हार्मोन देकर | से सुंदर स्त्री गुजर जाए और आप बैठे देखते रहेंगे, भीतर कुछ भाव उसके क्रोध को सुलाया जा सकता है। वह फिर कभी क्रोधित नहीं | का उदय न होगा। होगा। आपके भीतर ग्रंथियां हैं, जिनका आपरेशन कर दिया जाए, | स्पेन का बहुत बड़ा विचारक है, देलगाडो। उसने आदमी के तो आप लाख उपाय करें, तो क्रोध नहीं कर सकेंगे। चाहे कोई | | शरीर, उसके हार्मोन, उसके रासायनिक तत्व, उसकी विद्युत आपको पीट रहा हो, गाली दे रहा हो, अपमान कर रहा हो, आप प्रक्रियाओं पर बड़े गहरे प्रयोग किए। खतरनाक भी हैं प्रयोग; कीमती कितना ही उठाने की कोशिश करें, भीतर क्रोध नहीं उठेगा। क्योंकि | भी हैं। खतरा यह है कि देलगाडो कहता है कि अगर दुनिया से कोई वह ग्रंथि ही नहीं है, जिससे क्रोध उठ सकता है। भी चीज समाप्त करनी हो, तो धर्मों वगैरह की चिंता में पड़ने की कोई |1101 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंग साक्षी जरूरत नहीं | विज्ञान को पूरा अधिकार दो, हम खतम कर देंगे। अगर आप सोचते हों कि मुल्क बहुत कामुक हो गया है, तो फिजूल ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे देकर कुछ न होगा । हम एक छोटा-छोटा यंत्र प्रत्येक शरीर में बिठाए देते हैं। बच्चा पैदा होगा, अस्पताल में ही हम उसको, उसको कभी पता भी नहीं चलेगा...। आप जानकर हैरान होंगे कि आपकी खोपड़ी के भीतर संवेदनशीलता नहीं है। हालांकि सब कुछ अनुभव आपको खोपड़ी से होता है, लेकिन संवेदनशीलता नहीं है। आपकी खोपड़ी फाड़ी जए और उसमें एक छोटा पत्थर रख दिया जाए भीतर और खोपड़ी बंद कर दी जाए, आपको बिलकुल पता नहीं चलेगा कि पत्थर भीतर है। भीतर कोई संवेदनशीलता नहीं है। पत्थर जिंदगीभर रखा रहेगा, आपको कभी पता नहीं चलेगा। पहले महायुद्ध में यह पता चला। कुछ लोगों को गोलियां लगीं सिर में, और किसी भूल-चूक के कारण वे गोलियां नहीं निकाली जा सकीं, और उनके घाव भर गए और वे ठीक हो गए। दस साल बाद, किसी और कारण से सैनिक के सिर का आपरेशन किया गया और गोली की खोल भीतर मिली। और उसको पता ही नहीं था दस साल तक । तब पहली दफा पता चला कि भीतर कोई संवेदनशीलता नहीं है। तो देलगाडो कहता है, हम हर बच्चे को, उसे कभी पता ही नहीं चलेगा, एक छोटा-सा यंत्र उसके सिर में लगा देंगे, अंदर रख देंगे एक रेडियो रिसीवर । सब बच्चों के सिर में वह होगा। फिर आप दिल्ली से रिले करें और सारा मुल्क वैसा व्यवहार करेगा। तो किसी को कहने की जरूरत नहीं है कि ब्रह्मचर्य साधो । सिर्फ वहां से, दिल्ली से, ठीक सूचना देने की जरूरत है कि सब ब्रह्मचारी हो जाओ। वह आपके भीतर का जो यंत्र है, आपको तत्काल ब्रह्मचर्य की खबर देगा। आप अचानक पाएंगे कि मन में बड़ी साधुता उठ रही है। कोई रस नहीं रहा ! देलगाडो का प्रयोग मूल्यवान है, लेकिन खतरनाक भी है। क्योंकि आश्चर्य नहीं होगा कि कुछ दस बीस-पच्चीस वर्षों के बाद सरकारें इसका उपयोग करना शुरू कर दें। क्योंकि यह तो बड़ा कीमत कम है। अगर पूरे मुल्क को युद्ध पर भेजना हो, तो भेजा जा सकता है। अगर हिंदुओं को भड़काना हो कि सारे मुसलमानों को खतम कर दो हिंदुस्तान में, तो एक दिन में खतम करवाया जा सकता है। कोई ज्यादा उपद्रव की जरूरत नहीं है। सिर्फ उनके भीतर बैठा हुआ यंत्र, उसको खबर होनी चाहिए। देलगाडो ने स्पेन में बड़े प्रयोग किए। उसने एक सांड के सिर में यंत्र लगा रखा है। भयंकर सांड है। लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। देलगाडो अपने हाथ में घड़ी के बराबर यंत्र लगाए हुए है, जो सांड के मस्तिष्क से जुड़ा है वायरलेस से, रेडियो से । सांड को भड़काया उसने। लाल झंडी दिखाई। सांड भागा | देलगाडो की तरफ। लाखों लोग उत्सुक होकर देख रहे हैं कि खतरा है; सांड बिलकुल पास आ गया है। सिर्फ एक फीट दूर उसके सींग रह गए हैं। एक सेकेंड और कि वह देलगाडो में सींग डाल देगा, और देलगाडो खतम हो जाएगा। तब तक वह देखता रहा। तब लोगों ने देखा, उसने घड़ी पर हाथ रखकर कोई चीज दबाई । सांड वहीं के वहीं खड़ा हो गया। सिर्फ एक फीट दूर । एकदम निर्जीव हो गया! देलगाडो दूर गया पचास फीट, फिर उसने बटन दबाई, झंडी दिखाई। सांड भागा। ऐसा उसने बीस दफे करके दिखाया । एक सेकेंड पहले वह घड़ी दबाएगा, सांड वहीं के वहीं खड़ा हो गया, जैसे पत्थर हो गया । यह सांड जरूर मन में अपना तर्क सोच रहा होगा, अगर सोच सकता होगा। यह जरूर कुछ सोच रहा होगा कि किस कारण से मैं रुक रहा हूं। सोच रहा होगा, दया खा रहा हूं, कि छोड़ो भी, जाने भी दो। ऐसा कुछ आदमी मार देने जैसा नहीं है। मगर यह कुछ भी नहीं है मामला। सिर्फ उसके भीतर इलेक्ट्रोड है। और वह इलेक्ट्रोड उसके क्रोध के यंत्र को दबा देता है, तो उसका जो रोष है, वह बैठ जाता है। सांख्य की यह दृष्टि बड़ी प्राचीन है कि आपके भीतर आप जो हैं, वह सिर्फ साक्षी मात्र हैं। सब कर्तृत्व प्रकृति का है। पुरुष का कोई कर्तृत्व नहीं है। इसलिए जो भी हो रहा है, आपके गुणों और शरीर से हो रहा है। और अगर आप इस सत्य को जान जाएं, तो परम सिद्धि आपकी है। अब हम सूत्र को लें। जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है...। एक-एक शब्द को ठीक से समझ लें। जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप तीनों 111 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है। जिस काल में, समय की जिस अवधि में, जिस क्षण में... । और यह क्षण अभी भी हो सकता है। इसके लिए कोई जन्मों तक रुकने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह आपके भीतर का जो स्वभाव है, यह कुछ निर्मित करना है। यह है ही। ऐसा है ही, अभी भी, इस क्षण भी। आप साक्षीरूप हैं और सारा कर्तृत्व आपके शरीर की प्रकृति में हो रहा है, गुणों में हो रहा है, तीन गुणों में हो रहा है, जो प्रकृति के तीन नियंता हैं; और आप अभी भी अलग खड़े हैं। यह सिर्फ भ्रांति है कि आप सोचते हैं, आप कर रहे हैं। जिस काल में, जिस क्षण में, द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है...। जिस क्षण आपको यह समझ में आ जाता है कि मेरे तीन गुण ही समस्त कर्म कर रहे हैं, मैं करने वाला नहीं हूं; गुण ही कर रहे हैं, करवा रहे हैं...। कठिन है। क्योंकि अहंकार को कोई जगह न रह जाएगी। इसलिए अहंकार बाधा बनेगा। अहंकार कहेगा, कौन कहता है कि मैं नहीं कमा रहा हूं ? धन मैं कमा रहा हूं। हालांकि आपको पता नहीं है, आपके भीतर जो लोभ का गुण है, वे जो लोभ के परमाणु हैं, वे आपको धक्का दे रहे हैं। लेकिन आप सोचते हैं, मैं धन कमा रहा हूं। धन के लिए तो आपके भीतर लोभ के परमाणु दौड़ा रहे हैं। लेकिन यह आप जो मैं-भाव निर्मित करते हैं, यह बिलकुल थोथा है, यह झूठा है। आप कहते हैं, मैं प्रेम में पड़ रहा हूं। मैं इस स्त्री के प्रेम में पड़ गया हूं। जब कि सिर्फ आपके वासना कण प्रेम में पड़ गए हैं। इसलिए जिन लोगों ने सांख्य की इस दृष्टि को ठीक से समझा | था, उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं, जो इस युग में समझना मुश्किल हो गई हैं। कठिन भी है समझना । मगर अगर यह सूत्र खयाल में आ जाए, तो समझ में आ सकता है। महावीर ने अपने साधकों को कहा है कि मरणशय्या पर पड़ी स्त्री से भी दूर रहना । इस बात को थोड़ा समझें । बुद्ध से आनंद पूछता है कि अगर कोई स्त्री मार्ग पर मिल जाए, तो मैं क्या करूं? तो बुद्ध कहते हैं, देखना मत, आंख नीची कर लेना । आनंद जिद्दी है, वह पूछता है, समझ लो कि ऐसी अवस्था आ वृद्धा और रुग्ण, 112 जाए कि आंख नीचे करना न हो पाए। कोई ऐसा कारण हो जाए। समझो कि स्त्री बीमार पड़ी हो, प्यासी पड़ी हो, रास्ते के किनारे गिर पड़ी हो, गड्ढे में गिर पड़ी हो। मैं अकेला भिक्षु उस मार्ग पर हूं। और मुझे उस स्त्री को उठाना पड़े या पानी पिलाना पड़े, तो देखना तो पड़ेगा ! समझ लो कि कोई ऐसी घटना में देखना पड़े, तो मैं क्या करूं? तो बुद्ध ने कहा, तू छूना मत। आनंद ने कहा, ऐसी कोई स्थिति भी हो सकती है भंते, कि मुझे छूना भी पड़े, तो उस स्थिति में मैं क्या करूं? तो बुद्ध ने कहा, अब तू मानता ही नहीं, तो मैं आखिरी बात कहता हूं, साक्षी - भाव रखना। अगर तुझे यह करना ही पड़े, तो फिर तू होश रखना कि करने वाला तू नहीं है। छूना भी पड़े, तो समझना कि शरीर छू रहा है। देखना पड़े, तो समझना कि आंख देख रही है। इस भ्रांति में मत पड़ना कि मैं देख रहा हूं, कि मैं छू रहा हूं। तो फिर तू आखिरी बात समझ ले कि तू साक्षी भाव रखना। महावीर कहते हैं, वृद्ध, रुग्ण, मरणशय्या पर पड़ी कुरूप स्त्री के पास भी भिक्षु न जाए। तब हमें लगेगा, बड़े दमन की बात कर हैं। लेकिन महावीर केवल गुणों की बात कर रहे हैं। महावीर यह कह रहे हैं कि जब तक साक्षी न जग गया हो, जब तक अवस्था साधक की तक मरणशय्या पर पड़ी स्त्री के हार्मोन, उसके गुणधर्म भी तुम्हारे भीतर छिपे पुरुष के हार्मोन को आकर्षित करेंगे। वें तुम्हें आकर्षित कर सकते हैं। और साधारण गृहस्थ को शायद न भी करें। लेकिन भिक्षु को कर ही सकते हैं। क्योंकि साधारण गृहस्थ वैसा ही है, जैसे भरा पेट आदमी, भोजन किया हुआ आदमी । उसको रास्ते के किनारे पड़ी हुई जूठन आकर्षित नहीं करेगी। लेकिन उपवासी आदमी को कर सकती है। भूखे आदमी को कर सकती है। मनु ने कहा है कि अपनी बहन, अपनी बेटी, अपनी मां के साथ भी एकांत में मत रहना बिलकुल अकेले । लगते हैं, बड़े दमनकारी लोग हैं। लेकिन उनके सूत्र त्रिगुणों के ऊपर आधारित हैं। वे यह कह रहे हैं, सवाल यह नहीं है कि वह लड़की है तुम्हारी। गहरे में तो वह स्त्री है और तुम पुरुष हो । और हार्मोन न लड़की को जानते हैं, न मां को जानते हैं, न पिता को जानते हैं, न बहन को जानते हैं। हार्मोन की कोई नैतिकता नहीं है। अगर | पिता भी पुत्री के साथ एकांत में बहुत दिन हो, तो धीरे-धीरे लड़की स्त्री रह जाएगी, पिता पुरुष रह जाएगा। और उन दोनों की प्रकृति के जो खिंचाव हैं, वे शुरू हो जाएंगे। यह तभी रुक सकता है, जब Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * असंग साक्षी * साक्षी जग गया हो। लेकिन साक्षी कितने लोगों का जगा है? । अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं...। तो मनु की बात भी बड़ी गहरी है, पर सांख्य के सूत्रों पर खड़ी । गुण ही गुणों के साथ वर्तन कर रहे हैं; एक्शन-रिएक्शन कर है। सांख्य बड़ा अनूठा खोजी है। सांख्य की खोज गहरी है। खोज रहे हैं। मेरे भीतर का पुरुष-गुण किसी के स्त्री-गुण का पीछा कर का सार यह है कि आपके भीतर दो तत्व हैं, एक प्रकृति और पुरुष। रहा है। मेरे भीतर का क्रोध का गुण किसी के ऊपर क्रोध बरसा रहा पुरुष तो आपकी चेतना है और प्रकृति आपकी देह और मन की है। मेरे भीतर हिंसा का गुण किसी के प्रति हिंसा से भर रहा है। संघटना है। और जो भी क्रियाएं हैं, वे सब प्रकृति से हो रही हैं। कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन से कि यह जो भी युद्ध हो रहा है, कोई क्रिया चेतना से नहीं निकल रही है। | यह भी तीन गुणों का वर्तन है। इसमें उस तरफ खड़े लोग भी उन्हीं लेकिन चेतना को यह शक्ति है कि वह क्रियाओं के साथ अपने | गुणों से सक्रिय हो रहे हैं। इस तरफ खड़े लोग भी उन्हीं गुणों से को जोड़ ले और कहे कि मैं कर रहा हूं। यह संभावना चेतना की सक्रिय हो रहे हैं। और अगर तू भागेगा, तो तू यह मत सोचना कि है कि वह कहे कि मैं कर रहा हूं। इतना कहते ही संसार निर्मित हो तूने संन्यास लिया। अगर तेरे भीतर भागने के परमाणु हों, तो तू जाता है। भाग सकता है। लेकिन तब भी यह तू जानना कि ये गुण ही बर्त रहे इसलिए सांख्य-सूत्र कहते हैं कि संसार का जन्म अहंकार के हैं। तू इस भ्रांति में मत पड़ना...। जो भी हो, तू एक बात खयाल साथ है। मैं आया, संसार निर्मित हुआ। मैं गया, संसार विलीन हो रखना कि तू देखने वाला है। गया। जैसे ही मैं गया, उसका अर्थ है कि मैं सिर्फ देखने वाला रह गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा जो देखता है और तीनों गुणों से गया। अतीत–तीनों गुणों के पार, बियांड–तीनों गुणों से ऊपर, दूर, और ध्यान रहे, देखना कोई क्रिया नहीं है; द्रष्टा होना कोई क्रिया | अतीत, सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता नहीं है। द्रष्टा होना आपका स्वभाव है। आपको कुछ करना नहीं | पड़ता द्रष्टा होने के लिए, द्रष्टा आप हैं। प्रत्येक के भीतर इन तीन तत्वों के पीछे छिपा हुआ कृष्ण है। ब्रह्म रात सोते हैं, सपना देखते हैं, तब भी आप द्रष्टा हैं। सुबह उठते | कहें, क्राइस्ट कहें, बुद्ध कहें, जो भी कहना हो। इन तीनों तत्वों के हैं एक गहरी नींद के बाद, तो भी आप कहते हैं, बड़ा आनंद आया, भीतर छिपा हुआ आपका परम स्वभाव है, परम ब्रह्म है। नींद बड़ी गहरी थी। इसका मतलब है कि कोई आपके भीतर देखता जो भी इन तीन गुणों को कर्ता की तरह जानता है, और इन तीनों रहा कि नींद बंड़ी गहरी थी। सुबह आप कहते हैं, नींद बड़ी गहरी | के परे मुझ सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा को पहचानता है, उस काल थी, बड़ा सुख रहा। में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है। ___जागे, सोएं, सपना देखें, द्रष्टा कायम है। यह द्रष्टा कोई क्रिया वह प्राप्त है ही। सिर्फ यह प्रत्यभिज्ञा, यह रिकग्नीशन, यह नहीं है। यह द्रष्टा आपका सतत स्वभाव है। यह एक क्षण को भी | पहचान प्राप्ति बन जाती है। इस क्षण भी आप आंख मोड़ लें गुणों खोता नहीं है। लेकिन इस द्रष्टा को आप कर्ता बना सकते हैं, यह से और गुणों के पीछे सरककर एक झलक ले लें, तो जो मोक्ष बहुत सुविधा है। चाहे इसे सुविधा कहें, चाहे असुविधा। यह स्वतंत्रता दूर दिख रहा है, वह जरा भी दूर नहीं है। सिर्फ मुड़कर देखने की है। चाहे इसे स्वतंत्रता कहें, और चाहे समस्त परतंत्रता का मूल।। | बात है। क्योंकि इसी स्वतंत्रता के गलत उपयोग से संसार निर्मित होता है। | जो परमात्मा बड़ा जटिल मालूम पड़ता है, जिस पर भरोसा नहीं और इसी स्वतंत्रता के सही उपयोग से मोक्ष निर्मित हो जाता है। आता, तर्क जिसे सिद्ध नहीं कर पाता, जिस पर बड़ा अविश्वास मोक्ष है आपकी स्वतंत्रता का ठीक उपयोग। संसार है आपकी और संदेह पैदा होता है, हजार चिंताएं मन में पकड़ती हैं कि स्वतंत्रता का गलत उपयोग। आपकी चेतना प्रतिपल मात्र साक्षी है। परमात्मा कैसे हो सकता है! वह परमात्मा इतना निकट है कि जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता जितनी देर परमात्मा शब्द कहने में लगती है, उतनी देर भी उसे पाने नहीं देखता है....। में लगने का कोई कारण नहीं है। मगर एक अबाउट टर्न, एक पूरा बस, ये तीन ही गुण कर रहे हैं। कोई और चौथा मेरे भीतर कर्ता | घूम जाना; जहां पीठ है, वहां चेहरा हो जाए; और जहां चेहरा है, नहीं है। | वहां पीठ हो जाए। 113 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * अभी हमारा चेहरा गुणों की तरफ है। कभी इस गुण में, कभी | जारी रहती है। उचित यही होगा कि समझें कि जिन गुणधर्मों से, उस गुण में, कभी तीसरे गुण में हम उलझे हैं। और गुण का जो|| जिस प्रकृति के तत्व से वासना उठती थी, वे तत्व क्षीण हो गए, खेल है, जाल है, वह जाल हम अपना समझ रहे हैं। | जल गए। जब वे जग रहे थे तत्व, सजग थे, तेज थे, दौड़ते थे, तब रामकृष्ण के पास एक भक्त आता था। और वह भक्त जब आप उनका पीछा कर रहे थे। तब भी आप कर्ता नहीं थे। और अब काली के दिन आते, तो कई बकरे कटवाता था। बड़ा समारोह | | भी आप कर्ता नहीं हैं। लेकिन वासना के दिन में समझा था कि मैं मचाता था। उसकी बड़ी गणना थी भक्तों में, बड़े भक्तों में। फिर कर्ता हूं। मैं हूं जवान। और बुढ़ापे के दिन में समझ रहे हैं कि मैं हूं अचानक उसने पूजा-भक्ति सब छोड़ दी, बकरे कटने बंद हो गए। त्यागी, मैं हूं ब्रह्मचारी। दोनों भ्रांतियां हैं। तो एक दिन रामकृष्ण ने उससे पूछा कि क्या हुआ? क्या | अगर आप देख पाएं कि सारा खेल प्रकृति का है और आप भक्ति-भाव जाता रहा? क्या अब काली में श्रद्धा न रही? उसने | | उसके बीच में सिर्फ खड़े हैं देखने वाले की तरह, एक क्षण को भी कहा, नहीं, यह बात नहीं। आप देखते नहीं, दांत ही सब गिर गए। | कर्तृत्व आपका नहीं है; आप मुक्त हो गए। यह जानते ही कि मैं - वह आदमी बड़ा ईमानदार रहा होगा। वह बकरे वगैरह काली | कर्ता नहीं हूं, बंधन गिर गए। यह पहचानते ही कि मैंने कभी कुछ के लिए कोई काटता है! काली तो बहाना है, तरकीब है। बकरे तो नहीं किया है, सारे कर्मों का जाल टूट गया। अपने ही दांतों के लिए काटे जाते हैं। लेकिन उसने कहा कि दांत कर्म आपको नहीं बांधे हुए हैं। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते ही न रहे, दांत ही गिर गए, अब क्या काटना और क्या नहीं काटना! | हैं कि जन्मों-जन्मों के कर्म पकड़े हुए हैं। कोई कर्म आपको नहीं किसके लिए काटना? पकड़े हुए है, कर्ता पकड़े हुए है। कर्ता के छूटते ही सारे कर्म छूट लेकिन वह आदमी ईमानदार रहा होगा। उसने एक बात तो कम | जाएंगे। क्योंकि जिसने किए थे, जब वह ही न रहा, तो कर्म कैसे से कम समझी कि यह सब दांतों के लिए चल रहा था। | पकड़ेंगे? कर्म नहीं पकड़ता, कर्ता पकड़ता है। और कर्ता के कारण बुढ़ापे में लोग शीलवान हो जाते हैं। बुढ़ापे में लोग सच्चरित्रता | | जन्मों-जन्मों के कर्म इकट्ठे रहते हैं, उनका बोझ आप ढोते हैं। की बात करने लगते हैं। बुढ़ापे में दूसरे लोगों को समझाने लगते। कई लोग मुझसे यह भी पूछने आते हैं कि पिछले किए हुए कर्मों हैं कि जवानी सब रोग है। जब वे जवान थे, तो उनके घर के | को कैसे काटें? बड़े-बूढ़े भी उन्हें यही समझा रहे थे कि जवानी सब रोग है। उन्होंने | एक तो उनको किया नहीं कभी। अब उनको काटने का कर्म उनकी नहीं सुनी। उनके बेटे भी उनकी नहीं सुनेंगे। करने की कोशिश चल रही है! उनको कैसे काटें? जिनको किया और बड़ा मजा यह है कि जब आपने अपने बाप की नहीं सुनी, | | ही नहीं, उनको अनकिया कैसे करिएगा? वह भ्रांति थी कि आपने तो आप किस भ्रांति में हैं कि अपने बेटे को सोच रहे हैं, सुन ले। | किया। अब आप एक नई भ्रांति चाहते हैं कि उनको हम काटने का किसी बेटे ने कभी नहीं सुनी। क्योंकि जवानी सुनती ही नहीं। और कर्म कैसे करें! पहले संसारी थे, अब संन्यासी कैसे हों? बुढ़ापा बोले चला जाता है। बुढ़ापा समझाए चला जाता है। क्योंकि | संन्यास का कुल मतलब इतना है कि करने को कुछ भी नहीं है, बुढ़ापा अब कुछ और कर नहीं सकता। करने के दिन गए। वह जिन सिर्फ देखने को है। अब करने वाला मैं नहीं है, सिर्फ देखने वाला तत्वों से करना निकलता था, वे क्षीण हो गए। हूं। फिर जो भी हो रहा हो, उसे देखते रहना है सहज भाव से, उसमें और बड़े मजे की बात है, जब आप नहीं कर सकते, तब भी कोई बाधा नहीं डालनी है। आपको यह खयाल नहीं आता कि शरीर के गुणधर्म क्षीण हो गए | शास्त्र कहते हैं कि ज्ञानी अगर ब्राह्मण की भी हत्या कर दे. तो हैं, जिससे आप नहीं कर सकते हैं। जब आप कर सकते थे, तब | उस पर कोई पाप नहीं है। अंबेदकर ने बड़ा एतराज उठाया। क्योंकि आप सोचते थे, मैं कर रहा हूं। और जब आप नहीं कर सकते, तब | यह बात बड़ी अजीब है; और भी कोई सोचेगा, तो एतराज आप सोचते हैं कि मैंने त्याग कर दिया। जब आप नहीं कर सकते, | | उठाएगा। इस तरह की छूट ज्ञानी को देनी कैसे संभव है? कानून तब आप सोचते हैं, मैंने त्याग कर दिया! | सबके लिए है; नियम सबके लिए है। बूढ़े अक्सर सोचते हैं कि वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए हैं। और इसमें कहा है कि ज्ञानी अगर ब्राह्मण की भी हत्या कर दे, अन्यथा उपाय क्या था? मजबूरी को ब्रह्मचर्य समझ लें, तो भ्रांति उसे कोई पाप नहीं है! और अज्ञानी? किसी शास्त्र में लिखा नहीं 1114 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंग साक्षी है, लेकिन कहीं न कहीं लिखना जरूर चाहिए। अज्ञानी अगर पुतला भी बनाकर मिट्टी का काट दे, मैं मानता हूं, पाप है। फर्क समझ लेना जरूरी है। ज्ञानी हम कहते उसे हैं, जो कहता है, मैं कर्ता नहीं हूं। अगर वह का भी रहा हो, तो सिर्फ उसके गुण ही काट रहे हैं, वह नहीं काट रहा है। और उस हत्या के कृत्य में भी वह सिर्फ साक्षी है। जरूरी नहीं कि ज्ञानी ऐसा करे; आवश्यकता भी नहीं है। ज्ञानी होते-होते वस्तुतः भीतर के सारे तत्व धीरे-धीरे समस्वरता को उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसी घटना शायद ही कभी घटती है। लेकिन घट सकती है। उस संभावना को मानकर यह शास्त्रों में सूत्र है कि अगर ब्राह्मण भी काट दे ! और ब्राह्मण को काटने का मतलब है, क्योंकि ब्राह्मण का मतलब है, जिसने इस जीवन में श्रेष्ठतम, सुंदरतम जीवन-दशा पा ली हो, उसको भी काट दे, अच्छे से अच्छे फूल को भी मिटा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं है। पाप इसलिए नहीं है कि वह जानता है कि मैं कर्ता नहीं हूं। और आप किसी की तस्वीर भी फाड़ दें क्रोध से, मिट्टी का पुतला बनाकर काट दें...। ऐसा अज्ञानी करते भी हैं। किसी का पुतला बनाकर निकालेंगे जुलूस, उसको जला देंगे। उनका भाव बड़ी गहरी हिंसा का है। और जलाते वक्त उनके मन में पूरा भाव है कर्ता का कि हम मारे डाल रहे हैं। मैं कर्ता हूं, तो मैं पापी हो जाता हूं। मैं कर्ता नहीं हूं, तो पाप का कोई कारण नहीं है। इसलिए हमने ज्ञानी को समस्त नियमों के पार रखा है। कोई नियम उस पर लगते नहीं। वह नियमातीत है। इसीलिए नियमातीत है कि जब कर्तृत्व उसका कोई न रहा, तो सब नियम कर्म पर लगते हैं और कर्ता पर लगते हैं । साक्षी पर कोई नियम कैसे लग सकता है ? जैसे ही कोई तीन गुणों के सारे कर्म हैं, ऐसा जानता है, और स्वयं को साक्षी, वह मुझ सच्चिदानंदनघनरूप परमात्मा को तत्व से पहचान लेता है, उस काल में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है। तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके... । इस शरीर के जन्म के कारण वे तीनों गुण ही हैं। और उन तीनों गुणों के साथ मेरा तादात्म्य है, वही मुझे नए शरीरों को ग्रहण करने ले जाता है। जो उनका उल्लंघन कर जाता है, वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है। इसमें समझ में आ जाएगा कि हो सकता है, उसका नया जन्म न हो। यह भी समझ में आ सकता है कि उसे दुख न हो । लेकिन मृत्यु न होगी, यह कैसे समझ में आएगा ! महावीर भी मरते हैं, बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण खुद भी मरते हैं। मृत्यु तो होगी, लेकिन जिसने भी जान लिया कि मैं साक्षी हूं, वह मृत्यु का भी साक्षी रहेगा। तो वह देखेगा कि गुण ही मर रहे हैं; गुणों का जाल शरीर ही मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। उसकी वृद्धावस्था संभव नहीं है। असल में उसकी कोई अवस्था संभव नहीं है। जवान होकर वह जवान नहीं रहेगा। बूढ़ा होकर बूढ़ा नहीं रहेगा। बच्चा होकर बच्चा नहीं रहेगा। क्योंकि अब सब अवस्थाएं गुणों की हैं। बचपन गुणों का एक रूप है। जवानी गुणों का दूसरा रूप है। बुढ़ापा गुणों का तीसरा रूप है। और वह तीनों के पार है । इसलिए न वह बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है। किसी अवस्था में नहीं है। सभी अवस्थाओं के पार है। इस ट्रांसेंडेंस को, इस भावातीत अवस्था को अनुभव कर लेना मुक्ति है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि अर्जुन जिस ज्ञान से परम सिद्धि उपलब्ध होती है, वह मैं तुझे फिर से कहूंगा। वे फिर-फिरकर, कैसे व्यक्ति अपनी परम मुक्ति को इसी क्षण अनुभव कर ले सकता है, उसके सूत्र दे रहे हैं। आज इतना ही। 115 Page #144 --------------------------------------------------------------------------  Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 आठवां प्रवचन संन्यास गुणातीत है Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* साधना के माध्यम से हल करने में क्या मौलिक भिन्नता है? अर्जुन उवाच कैलिङ्गस्त्रीनगुणानेतानतीतो भवति प्रभो। किमाचारः कथं चैतांस्त्रीनगुणानतिवर्तते ।। २१ ।। श्रीभगवानुवाच प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति । । २२ ।। उदासीनवदासीनो गुणैयों न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ।। २३ ।।। अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो, मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है? इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है। तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हआ गणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है। 17 श्न महत्वपूर्ण है और बहुत गहरे से समझने की प्र जरूरत है। इसलिए महत्वपूर्ण है कि पश्चिम में वैज्ञानिक उन विधियों को खोज लिए हैं, जिनसे मनुष्य | का रासायनिक परिवर्तन हो सकता है, जिनसे मनुष्य के शारीरिक गुणधर्म बदले जा सकते हैं। और निश्चित ही, उसका आचरण भिन्न हो जाएगा। आपके भीतर क्रोध का जो विषाक्त रासायनिक द्रव्य है, वह अलग किया जा सकता है। उसके विपरीत तत्व आपके शरीर में डाले जा सकते हैं, जो आपके आचरण को सौम्य और शांत बना | देंगे। लेकिन ध्यान रखें, आचरण को, आपको नहीं। आपकी कामवासना को बिना किसी साधना के, मात्र शारीरिक | परिवर्तन से क्षीण किया जा सकता है; नष्ट भी किया जा सकता है। | वासना जगाई भी जा सकती है, मिटाई भी जा सकती है। | यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है कि पश्चिम में अब हमारे पास | साधन उपलब्ध हैं पहली दफा मनुष्यता के इतिहास में, जब हम | आदमी को बिना साधना में उतारे भी आचरण की दृष्टि से बदल | सकते हैं। लेकिन यह बदलाहट ऊपरी होगी, और इस बदलाहट से कोई आत्मिक उत्थान नहीं होगा। बल्कि आत्मिक उत्थान की सारी संभावना ही नष्ट हो जाएगी। उत्थान तो होगा ही नहीं, जिन परिस्थितियों के कारण उत्थान हो सकता था, वे परिस्थितियां भी मिट जाएंगी। ___ आपके भीतर क्रोध दो घटनाओं पर निर्भर है। एक तो आपके शरीर में क्रोध के परमाणु चाहिए, हार्मोन चाहिए, रस चाहिए। और दूसरा, इन रसों के साथ चेतना को जोड़ने का तादात्म्य और भ्रांति चाहिए। इन दो बातों पर निर्भर है। कामवासना के लिए आपके शरीर में काम के तत्व चाहिए, और उन काम के तत्वों से जुड़ने की आकांक्षा चाहिए, एक होने की आकांक्षा चाहिए। अगर काम के तत्व भीतर न हों, तो आप जुड़ना भी चाहें तो भी जुड़ न सकेंगे; कामवासना में उतरना चाहें, तो भी | उतर न सकेंगे। इसलिए आचरण आपका ब्रह्मचारी जैसा हो | जाएगा। यद्यपि वह ब्रह्मचर्य नपुंसकता का दूसरा नाम होगा। लेकिन भीतर कोई क्रांति घटित न होगी। पहले प्रश्न। पहला प्रश्नः साक्षी, द्रष्टा, चैतन्य सदा ही अलग कुंवारा और अनबंधा है। और सारी जीवन-लीला गुणों का ही स्वयं में वर्तन है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति से सत्व, रज, तम के गुणों को वैज्ञानिक या रासायनिक ढंग से शांत कर दिया जाए या व्यक्ति को सात्विक बना दिया जाए, तो क्या वह उस हमेशा से मुक्त साक्षी को उपलब्ध हो जाएगा? यदि साक्षी सदा ही मुक्त एवं उपस्थित है, तो त्रिगुणों को रासायनिक ढंग से बदल देने पर वह क्या प्रकट न हो जाएगा? क्या व्यक्ति तब धार्मिक नहीं हो जाएगा? त्रिगुणों से उत्पन्न समस्या को रासायनिक ढंग से हल करने में या 118 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है * यह ऐसे ही है, जैसे मेरे हाथ में तलवार हो। तलवार के बिना मैं अब कोई उपाय नहीं है। क्योंकि अच्छा आचरण तो अब इंजेक्शन किसी की गर्दन न काट पाऊंगा। तलवार मेरे हाथ से छीन ली जाए, से भी पैदा हो सकेगा। जिसको वे कहते हैं कि बुरा आचरण मिटाने तो मैं गर्दन नहीं काट पाऊंगा। इसलिए मेरा आचरण तो भिन्न हो | का एक ही उपाय धर्म है, वह भी गलत है। जाएगा। गर्दन काटने का उपाय न होगा। लेकिन गर्दन सिर्फ पश्चिम में बहुत-से वैज्ञानिक प्रस्ताव कर रहे हैं कि अपराधियों तलवार के कारण मैं नहीं काट रहा था। तलवार तो केवल उपकरण | को दंडित करना बंद कर दिया जाए। वह भ्रांति है। अपराधियों की थी। भीतर मैं था. हिंसा से भरा हआ। भीतर मेरी वत्ति थी दसरे के रासायनिक चिकित्सा की जाए। वे अपराध करते हैं, क्योंकि उनके नष्ट करने की, वह मेरे भीतर कोई तत्व है रासायनिक, जो विक्षिप्त हालत पैदा कर देता है। तलवार भी मेरे हाथ में हो और भीतर मेरी वृत्ति न रह जाए, तो उसे बदल दिया जाए। फांसी देना फिजूल है। वर्षों तक उनको जेल मैं गर्दन नहीं काटूंगा। गर्दन काटने के लिए दो चीजें जरूरी हैं, मेरे | में रखना व्यर्थ है। उससे उनका कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं हो भीतर मूर्छा चाहिए और हाथ में तलवार चाहिए। और जब इन | रहा है। बल्कि वे और भी निष्णात और पक्के अपराधी होकर वापस दोनों का संयोग हो जाएगा, तो गर्दन कटेगी। इन दो में से एक भी | लौटेंगे। बाहर तो वे प्रशिक्षित नहीं थे, भीतर उनको बड़े गुरु हटा लिया जाए, तो आचरण बदल जाएगा। उपलब्ध हो जाएंगे। __ अगर भीतर का तत्व हटा लिया जाए, तो आचरण भी बदलेगा एक आदमी चोरी करता है। वह अकेला चोरी कर रहा है। और आत्मा भी बदलेगी। अगर बाहर का तत्व हटा लिया जाए, तो | नया-नया है। पकड़ में भी आ जाता है। जब आप उसे पांच साल केवल आचरण बदलेगा, आत्मा नहीं बदलेगी। और आत्मिक | | जेल में रख देते हैं, तो वहां हजार उस्तादों के शिक्षण में रहने का क्रांति आचरण के बदलने से नहीं होती। आत्मिक क्रांति आत्मा के | मौका मिल जाता है, जो पुराने अभ्यासी हैं। वह पांच साल की जेल बदलने से होती है। आचरण तो केवल छाया की भांति है। | के बाद ज्यादा कुशल चोर होकर बाहर निकलता है। उसे पकड़ना इस बात पर हमारा जोर नहीं है कि आपके आचरण में ब्रह्मचर्य | | और मुश्किल हो जाएगा। हो। जोर इस बात पर है कि आपके भीतर ब्रह्मचर्य हो। वह भीतर किसी को सजा देने से कोई उसके भीतर का परिवर्तन तो होता का ब्रह्मचर्य बाहर के ब्रह्मचर्य को छाया की भांति ले आएगा। | नहीं; बाहर का भी परिवर्तन नहीं होता। सिर्फ उसकी आत्मा और लेकिन रासायनिक प्रक्रियाओं से आपका आचरण बदला जा | भी कठोर हो जाती है, और भी बेशर्म हो जाती है। सकता है। भीतर आप वही होंगे, क्योंकि आपकी आत्मा कोई __ ज्यादा देर नहीं लगेगी कि वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों को राजी कर साक्षी-भाव को उपलब्ध नहीं हो जाएगी। | लेंगे। चीन में, रूस में राजनैतिक अपराधियों के साथ ये प्रयोग और ध्यान रहे, साक्षी-भाव किसी रासायनिक द्रव्य पर निर्भर | शुरू हो गए हैं। रूस में स्टैलिन के समय तक जो भी राजनैतिक • नहीं है। ऐसा कोई रासायनिक तत्व नहीं है, जिसका इंजेक्शन देने | | विरोधी होता, उसकी वे हत्या कर डालते थे। अब वे हत्या नहीं से आप में साक्षी-भाव पैदा हो जाए। साक्षी-भाव तो आपको | | करते हैं। अब राजनैतिक विरोधी को सिर्फ अस्पताल से वे पागल साधना होगा; क्रमशः उपलब्ध करना होगा। वह लंबे संघर्ष का | | करार दे देते हैं। जो कि ज्यादा खतरनाक है। चिकित्सक लिखकर परिणाम होगा, निष्पत्ति होगी। साक्षी-भाव तो एक आंतरिक ग्रोथ, | | दे देते हैं कि इसके मस्तिष्क में खराबी है। विकास है। ___ इतना लिखना काफी है। फिर उसे पागलखाने में डाल दिया जाता रासायनिक द्रव्यों से आचरण बदला जा सकता है। इसलिए । | है। और पागलखाने में उसके मस्तिष्क का इलाज शुरू कर दिया ध्यान रखें, जो लोग धर्म को मात्र आचरण समझते हैं, उनका धर्म | जाता है। वह इलाज...। वह न तो आदमी पागल है, न उसको कोई दुनिया में ज्यादा दिन टिकेगा नहीं। क्योंकि जिन-जिन बातों को वे | | रोग है, न कोई मानसिक विक्षिप्तता है। लेकिन इलाज यह है कि धर्म कहते हैं, वह तो वैज्ञानिक कर सकेगा। ऐसा धर्म तो मरने के उसके भीतर जो-जो तत्व बगावती हैं, उनको धीरे-धीरे शांत कर कगार पर पहुंच गया है। मैं जिसे धर्म कहता हूं, वही टिक सकता | | दिया जाएगा। है भविष्य में। एक चार-छः महीने के बाद वह आदमी बाहर आ जाता है। जो लोग कहते हैं, अच्छा आचरण धार्मिकता है, उनके धर्म का उसकी जो बगावत थी, विद्रोह था, सरकार के विपरीत सोचने की 119 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * दशा थी, वह टूट जाती है। वह ज्यादा डोसाइल, ज्यादा आज्ञाकारी, | रहे हैं, बल्ब को नहीं तोड़ रहे हैं। बल्ब को तोड़ने का कोई अर्थ ही अनुशासनबद्ध हो जाता है। यह मारने से भी बुरा है। | नहीं है। बल्कि बल्ब तो उपयोगी है। क्योंकि वह बताता है, धारा देलगाडो ने सुझाव दिया है सारी दुनिया की सरकारों को, कि | बह रही है या नहीं; धारा है या नहीं। आप युद्ध बंद नहीं कर सकते, अपराध बंद नहीं कर सकते। और | | आपके भीतर क्रोध यह बताता है कि अभी आप अज्ञान में डूबे पांच हजार साल का मनुष्य-इतिहास कह रहा है कि कितना ही हैं। वासना बताती है कि अभी आपके प्राण जागरूक नहीं हुए हैं। समझाओ, आदमी को बदला नहीं जा सकता। मेरा सुझाव मान | अगर ये तत्व हमने अलग कर लिए, तो क्रोध प्रकट होना बंद हो लिया जाए। जाएगा और आपको यह पता चलना भी बंद हो जाएगा कि आप देलगाडो का सुझाव यह है कि ऐसे तत्व विज्ञान ने खोज लिए गहन अज्ञान में पड़े हैं। यह तो ऐसा हुआ, जैसे कोई आदमी बीमार हैं, जिनको सिर्फ पानी में मिला देने की जरूरत है हर नगर की हो और हम उसके बीमारी के लक्षण छीन लें, तो उसे यह भी पता झील में। और आपके घर में पानी तो आ ही रहा है झील से पीने | न चले कि वह बीमार है। के लिए। उस पानी को पीकर ही आप अपने आप लड़ने की वृत्ति और यह भी खयाल में रहे कि क्रोध एक अवसर है। क्रोध सिर्फ से शून्य हो जाएंगे। बुरा है, ऐसा नासमझ कहते हैं; मैं नहीं कहता। क्रोध एक अवसर लेकिन ध्यान रहे, इस तरह के शामक रासायनिक द्रव्य को | है, उसका आप बुरा उपयोग कर सकते हैं और भला भी। क्रोध एक पीकर जो लड़ने की वृत्ति से शांत हो जाएगा, वह बुद्ध या महावीर मौका है। उसमें आप मूर्छित होकर पागल हो सकते हैं; उसी में नहीं हो जाएगा। उसमें कोई बुद्ध की गरिमा प्रकट नहीं होगी। उसमें | आप जागरूक होकर बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं। . तो क्रोध की जो थोड़ी-बहुत गरिमा प्रकट होती थी, वह भी बंद हो | तो अवसर को तोड़ देना उचित नहीं है। जब क्रोध आप में उठता जाएगी। वह केवल निर्जीव हो जाएगा। वह सुस्त और हारा हुआ | | है, अगर आप क्रोध के साथ तादात्म्य कर लेते हैं, एक हो जाते हैं, के भीतर से प्राण खींच लिए गए हों। वह नींद-नींद तो आप किसी की हत्या कर बैठते हैं। लेकिन अगर आप क्रोध को में चलेगा। लड़ेगा नहीं, क्योंकि लड़ने के लिए भी जितनी ऊर्जा | सजग होकर देखते रहें, तो जो क्रोध किसी की हत्या बन सकता चाहिए, वह भी उसके पास नहीं है। था, वही क्रोध आपके भीतर नवजीवन का जन्म बन जाएगा। सिर्फ सिर्फ न लड़ने से कोई बुद्ध नहीं होता। बुद्ध होने से न लड़ना आप साक्षी होकर देखते रहें। क्रोध का धुआं उठेगा। बादल घने निकलता है, तब एक गौरव है, गरिमा है। जब आप भीतर इतने ऊंचे होंगे। लेकिन आप दूर खड़े रहेंगे, आप मुक्त होंगे, पार होंगे, शिखर को छू लेते हैं कि लड़ना क्षुद्र हो जाता है, व्यर्थ हो जाता है। अलग होंगे। एक तो उपाय यह है कि बिजली का बल्ब जल रहा है, हम एक यह अलग होने का अनुभव, क्रोध से ही अलग होने का अनुभव डंडा मारकर इसे तोड़ दें। बल्ब टूट जाएगा, बिजली लुप्त हो | नहीं, शरीर से अलग होने का अनुभव बन जाएगा। क्योंकि क्रोध जाएगी। लेकिन आप डंडा मारकर बिजली को नष्ट नहीं कर रहे हैं। शरीर के गुणों में पैदा हो रहा है। आप सिर्फ अभिव्यक्ति के माध्यम को तोड़ रहे हैं। बल्ब टूट गया, वासना उठेगी, काम उठेगा, वे भी शरीर के गुणों की परिणतियां बिजली तो अभी भी धारा की तरह बही जा रही है। और जब भी | | हैं, उनका ही वर्तन हैं। असली सवाल यह है कि हम उनके साथ बल्ब आप उपलब्ध कर देंगे, बिजली फिर जल उठेगी। आपने सहयोग करके उनमें बह जाएं या उनके साथ सहयोग तोड़कर साक्षी बिजली नहीं तोड़ी, केवल बिजली के प्रकट होने की जो व्यवस्था की तरह खड़े हो जाएं? हम उनके गुलाम हो जाएं या हम उनके थी, वह तोड़ दी है। बिजली अभी भी बह रही है। मालिक हो जाएं? हम उन्हें देखें खुली आंखों से या अंधे होकर ये जो आपके शरीर के परमाणु हैं, रासायनिक परमाणु हैं, ये उनके पीछे चल पड़ें? केवल अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। इनको हटा लिया जाए, तो | अवसर को मिटा देना खतरनाक है। इसलिए मैं मानता हूं कि आपके भीतर जो छिपा हआ है, वह प्रकट होना बंद हो जाएगा। अगर वैज्ञानिकों की सलाह मान ली गई, तो लोगों का आचरण तो फिर से डाल दिया जाए, फिर प्रकट होने लगेगा। अच्छा हो जाएगा, लोगों का व्यवहार तो अच्छा हो जाएगा, लेकिन साधना का अर्थ है कि हम बिजली की धारा को ही विलीन कर आत्माएं बिलकुल खो जाएंगी। वह दुनिया बड़ी रंगहीन होगी, 1201 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है और बेरौनक होगी। उसमें न तो हिटलर जैसा क्रोधी होगा, न स्टैलिन तोड़ सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, तब ऊपर चढ़ने का उपाय भी जैसा हत्यारा होगा। नहीं होगा। उसमें बुद्ध जैसा शांत प्रज्ञा-पुरुष समाप्त हो गया। भी नहीं होगा। उसमें सोए हुए लोग होंगे, झोम्बी की नरक उसी सीढ़ी का नाम है, जिसका स्वर्ग। फर्क सीढ़ी में नहीं तरह-बेहोश, मूर्छा में चलते हुए, सम्मोहित, यंत्रवत। | है; फर्क दिशा में है। जब आप कामवासना के प्रति अंधे होकर उतरते __ अगर आप क्रोध नहीं कर सकते, तो ध्यान रखें, आप करुणा हैं, तो आप नीचे की तरफ जा रहे हैं। और जब कामवासना के प्रति भी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि करुणा क्रोध के प्रति साक्षी हो जाने से आप आंख खोलकर सजग होकर खड़े हो जाते हैं, तो आप ऊपर पैदा होती है। और अगर आपके भीतर कामवासना तोड़ दी जाए की तरफ जाने लगे। मूर्छा अधोगमन है, साक्षीत्व ऊर्ध्वगमन है। शारीरिक ढंग से, रासायनिक ढंग से, तो आपके भीतर प्रेम का भी | साधना का कोई परिपूरक नहीं है, कोई सब्स्टीटयूट नहीं है, और कभी उदय नहीं होगा। क्योंकि प्रेम कामवासना का ही शुद्धतम न कभी हो सकता है। कोई सूक्ष्म उपाय नहीं है, जिससे आप रूपांतरण है। साधना से बच सकें। साधना से गुजरना ही होगा। बिना उससे गुजरे आपके भीतर से बुरा मिटा दिया जाए, तो भला भी मिट जाएगा। | आपका निखार पैदा नहीं होता। बिना उससे गुजरे आपके भीतर वह आपसे अपराध नहीं होगा. यह पक्का है. लेकिन आपमें साधता | केंद्र नहीं जन्मता, जिस केंद्र के आधार पर ही जीवन की परम संपदा का भी जन्म नहीं होगा। और आपके भीतर परमहंस होने की जो | पाई जा सकती है। संभावना है, वह सदा के लिए लोप हो जाएगी। इसलिए रासायनिक परिवर्तन से कोई क्रांति होने वाली नहीं है। वास्तविक परिवर्तन चेतना का परिवर्तन है, शरीर का नहीं। दूसरा प्रश्नः सात्विक कर्म भी अगर बांधता है, तो _और जो भी बुराइयां हैं, उनसे भयभीत न हों, परेशान न हों। | उसका फल ज्ञान और वैराग्य क्यों कहा गया है? सभी बुराइयां इस भांति उपयोग की जा सकती हैं कि सृजनात्मक हो जाएं। ऐसी कोई भी बुराई नहीं है, जो खाद न बन जाए, और जिससे भलाई के फूल न निकल सकें। और बुराई को खाद बना +कि ज्ञान और वैराग्य भी बांध सकता है। लेना भलाई के बीजों के लिए, उस कला का नाम ही धर्म है। II निश्चित ही, कृष्ण की बात उलटी मालूम पड़ती जीवन में जो भी उपलब्ध है. उसका ठीक-ठीक सम्यक उपयोग है। सात्विक कर्म का फल है, ज्ञान और वैराग्य। जो भी व्यक्ति जान लेता है, उसके लिए जगत में कुछ भी बुरा नहीं और कृष्ण यह भी कहते हैं कि सात्विक कर्म भी बांधता है। लेकिन है। वह तमस से ही प्रकाश की खोज कर लेता है। वह रजस से ही | | साधारणतः तथाकथित साधु-संत समझाते हैं कि वैराग्य मुक्त परम शून्यता में ठहर जाता है। वह सत्व से गुणातीत होने का मार्ग| | करता है, ज्ञान मुक्त करता है। खोज लेता है। तो कृष्ण सात्विक कर्म के जो फल बता रहे हैं, उन्हें तो और ध्यान रहे, विपरीत मौजूद है, वह आपकी परीक्षा है, साधारणतः लोग समझते हैं कि वे मुक्त करने वाले हैं। लेकिन ध्यान कसौटी है, चुनौती है, निकष है। उस विपरीत को नष्ट कर देने पर | | रहे, सात्विक कर्म से जो भी पैदा होगा, उसकी भी बांधने की मनुष्य की सारी गरिमा मर जाएगी। मनुष्य का गौरव यही है कि वह संभावना है। आप ज्ञान से भी बंध सकते हैं। चाहे तो नरक जा सकता है और चाहे तो स्वर्ग। अगर नरक जाने इसलिए उपनिषद कहते हैं, जो कहता हो मैं आत्मज्ञानी हूं, के सब द्वार तोड़ दिए जाएं, तो साथ ही स्वर्ग जाने की सब सीढ़ियां समझना कि वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो कहता हो कि मैं वैराग्य को गिर जाएंगी। उपलब्ध हो गया हूं, समझना कि उसका राग वैराग्य से हो गया है। ध्यान रहे, जिस सीढ़ी से हम नीचे उतरते हैं, उसी से हम ऊपर संन्यास भी गार्हस्थ बन सकता है। आपके हाथ में है। और चढ़ते हैं। सीढ़ियां दो नहीं हैं। आप इस मकान तक सीढ़ियां चढ़कर गृहस्थी भी संन्यास हो सकती है। आपके हाथ में है। अज्ञान भी आए हैं। जिन सीढ़ियों से चढ़कर आए हैं, उन्हीं से आप उतरेंगे भी। | मुक्तिदायी हो सकता है और ज्ञान भी बंधन बन सकता है। आपके इस डर से कि कहीं सीढ़ियों से कोई नीचे न उतर जाए, हम सीढ़ियां हाथ में है। |121] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उपनिषद कहते हैं कि जो ज्ञानी है, वह तो समझता है, मैं कुछ | जैसे कोई नाव को पकड़ ले। नाव मुक्तिदायी है, उस पार ले जा भी नहीं जानता। साक्रेटीज कहता है कि मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन ? सकती है। कोई नाव को पकड़कर बैठ जाए। नाव में बैठ जाए, फिर लेकिन यह अज्ञान मुक्तिदायी है। ऐसे अज्ञान की प्रतीति का अर्थ | नाव से न उतरे। उस किनारे पहुंच जाए, लेकिन इस बीच नाव से हुआ, यह आदमी विनम्र हो गया, आखिरी सीमा तक विनम्र हो | मोह पैदा हो जाए। तो फिर नाव भी बंधन बन गई। गया। अहंकार की आखिरी घोषणा, सूक्ष्मतम घोषणा भी इसके मन जब तक शेष है, तब तक किसी भी चीज को बंधन बना भीतर नहीं रही। यह भी नहीं कहता कि मैं जानता है। यह कहता है, सकता है, यह ध्यान रखना जरूरी है। जब मन में पहली दफा उस मुझे कुछ पता नहीं। मैं हूं नहीं, पता भी किसको होगा! | पारलौकिक की किरणें उतरती हैं, तब यह ध्यान रखना जरूरी है कि और यह जगत विराट रहस्य है। इसको जानने का दावा वही कर यह भी सात्विक कर्म का वर्तन है। इससे अपने को जोड़ने की सकता है, जिसके पास आंखें अंधी हों। यह इतना विराट है कि | आवश्यकता नहीं है। सको भी दिखाई पड़ेगा, वह कहेगा, यह रहस्य है। इसका ज्ञान | आपके घर की खिड़की पर कांच लगे हैं। किसी के घर की नहीं हो सकता। | खिड़की पर कांच लगे हैं, जो बहुत गंदे हैं। उनसे कोई किरण पार ज्ञान का दावा सिर्फ मूढ़ कर सकते हैं, ज्ञानी नहीं कर सकते। ये | नहीं होती। सूरज निकला भी रहता है बाहर, तो भी उनके घर में वक्तव्य विरोधाभासी मालूम पड़ते हैं, क्योंकि हम समझ नहीं पाते। | अंधेरा रहता है। किन्हीं के मकान पर कांच हैं, वे थोड़े साफ हैं; ज्ञानी का अर्थ ही यही है कि जिसने यह जान लिया कि यह रहस्य | उन्हें रोज साफ कर लिया जाता है। सूरज बाहर निकलता है, तो अनंत है। उसकी धुंधली आभा घर के भीतर आती है। किसी की खिड़की पर अगर रहस्य अनंत है, तो आप दावा नहीं कर सकते कि मैंने जान ऐसे कांच हैं, जो बिलकुल पारदर्शी हैं, कि अगर आप पास जाकर लिया। क्योंकि जिसको भी हम जान लेंगे, वह अनंत नहीं रह न छुएं, तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि कांच है। बाहर सूरज जाएगा। जानना उसकी सीमा बन जाएगी। और जिसको मैं जान लूं, | निकलता है, तो ऐसा लगता है, भीतर ही निकल आया। कांच वह मुझसे छोटा हो गया। वह मेरी मुट्ठी में हो गया। बिलकुल पूरा पारदर्शी है। फिर भी कांच है, और जब तक कांच विज्ञान जानने का दावा कर सकता है, क्योंकि क्षुद्र उसकी खोज है, तब तक आप घर के भीतर बंद हैं। और जब तक कांच है, तब है। धर्म जानने का दावा नहीं कर सकता। वस्तुतः धार्मिक व्यक्ति तक जो किरणें आ रही हैं, उनमें कांच की मिलावट है, उनमें कांच जानने की कोशिश करते-करते धीरे-धीरे खुद ही खो जाता है। का हाथ है। बजाय इसके कि वह जान पाता है, जानने वाला ही मिट जाता है। तो अगर इतना शुद्ध कांच आपके दरवाजे पर लगा हो कि इसलिए मैं का कोई भी दावा बांधने वाला हो जाएगा। आपको पता भी न चलता हो कि कांच वहां है, क्रिस्टल लगा हो, और सात्विक कर्म इसीलिए बांध सकता है, क्योंकि सात्विक तो आप इस भ्रांति में पड़ सकते हैं कि मैं घर के बाहर आ गया, कर्म में ज्ञान की किरणें उतरनी शुरू होती हैं। मन हलका हो जाता । | क्योंकि सूरज की किरणें बिलकुल मेरे ऊपर बरस रही हैं। और आप है, शुद्ध हो जाता है। लेकिन मन रहता है। शुद्ध हो जाता है। हल्का| घर के भीतर बैठे हैं। हो जाता है, उसका बोझ नहीं होता। सुंदर हो जाता है, सुगंधित हो इसलिए कृष्ण कहते हैं, शुद्ध कर्म भी बांध लेगा, सात्विक कर्म जाता है। उसमें दुर्गंध नहीं रह जाती। उससे दुख पैदा नहीं होता, | | भी बांध लेगा। उससे सुख पैदा होने लगता है। इस सुख की दशा में जीवन के | | सात्विक कर्म शुद्धतम कांच की भांति है। उसको भी तोड़कर रहस्य की किरणें उतरनी शुरू होती हैं। | बाहर निकल जाना है। तो ही आप घर के बाहर हए: तो ही आप लेकिन मन अभी कायम है, अभी मिट नहीं गया है। अगर आप | सूरज के नीचे सीधे हुए। तो जो साक्षात्कार होगा, वह सीधा होगा, सजग न हुए, तो मन तत्क्षण घोषणा कर देगा कि मैंने जान लिया। उसमें कोई भी माध्यम न रहा। इस घोषणा के साथ ही बंधन शुरू हो गया। और जिससे आप मुक्त __ जब तक माध्यम है, तब तक खतरा है। क्योंकि माध्यम का हो सकते थे, उसको आपने अपना कारागृह बना लिया। जो भरोसा नहीं किया जा सकता। माध्यम कुछ न कुछ बदलाहट तो आपको पार ले जा सकता था, उसको पकड़कर आप रुक गए। | करेगा ही। शुद्धतम माध्यम भी अशुद्ध होगा, क्योंकि उसकी 1122 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है * मौजूदगी थोड़ा-सा अड़चन तो डाल ही रही है। इसलिए दुख को एकदम अभिशाप मत मानना और सुख को कई बार तो ऐसा होता है कि तमस में पड़े हुए आदमी को यह | | एकदम वरदान मत मानना। अगर समझ हो, तो दुख वरदान हो खयाल नहीं होता. यह अहंकार नहीं होता. कि मैं कछ है। वह | | सकता है। और नासमझी हो, तो सुख अभिशाप हो सकता है। दीनता अनुभव करता है। एक अर्थ में निरअहंकारी होता है। रजस | अक्सर यही होता है। क्योंकि नासमझी सभी के पास है; समझदारी में पड़े हुए व्यक्ति को भी ऐसी भ्रांति नहीं होती कि मैं ब्रह्म को | ना-कुछ के पास है। जब भी आप सुखी होते हैं, तभी आप पतित उपलब्ध हो गया, कि मैंने सत्य को जान लिया। क्योंकि वह जानता | होते हैं, तभी तादात्म्य हो जाता है; तब सुख को आप जोर से पकड़ है, मैं कर्मों के जाल में उलझा हूं। ठीक वैसे ही जैसे गंदे कांच, थोड़े | लेते हैं। और जिसको भी आप पकड़ लेते हैं, वही बंधन हो जाता है। साफ कांच वाले आदमी को यह खयाल नहीं होता कि मैं मकान के ध्यान रहे, बंधन आपको नहीं बांधते, आपकी पकड़ बांधती है। बाहर खुले आकाश के नीचे खड़ा हूं। यह खतरा सात्विक कर्म | | इसलिए सुख बंधन है; ज्ञान बंधन है। अगर अकड़ आ जाए कि मैं वाले को सर्वाधिक है। जानता हूं; अगर यह खयाल आ जाए कि मैं ज्ञानी हूं। और आएगा तो जो लोग भी सत्व के करीब आते हैं, वे एक खतरे के करीब | खयाल। क्योंकि अज्ञानी में पीड़ा है। अज्ञानी में अहंकार को चोट है। आ रहे हैं। वहां चीजें इतनी साफ हो गई हैं कि यह भ्रांति हो सकती कोई भी अपने को अज्ञानी नहीं मानना चाहता। अज्ञानी से है कि मैं बाहर आ गया। और जिसको यह भ्रांति हो गई भीतर बैठे | अज्ञानी आदमी भी अज्ञानी नहीं मानना चाहता। अज्ञानी भी अपने हुए कि मैं बाहर आ गया, वह बाहर जाने का काम बंद कर देगा। | | ज्ञान के दावे करता है। गलत से गलत आदमी भी अपने ठीक होने और यह कांच का कोई भरोसा नहीं है। जो आज शुद्ध है, कल के उपाय खोजता है। अशुद्ध हो जाएगा; धूल जम जाएगी। एक क्षण में जो शुद्ध था, | | मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा एक बंदूक ले आया। वह निशाना अशुद्ध हो सकता है। आज जो सात्विक है, वह कल राजस हो | लगा रहा था, सीख रहा था। उसके निशाने पचास प्रतिशत सही सकता है, परसों फिर तामस हो सकता है। पड़ते थे। नसरुद्दीन ने उसे डांटा और कहा कि यह तू क्या कर रहा इसलिए कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म भी बांधता है। उसके फल | है? निशाने कम से कम नब्बे प्रतिशत के ऊपर ठीक जाने चाहिए। तीन हैं, सुख, ज्ञान और वैराग्य। यह भी कोई निशानेबाजी है? हमारा जमाना था, तब मैं सौ प्रतिशत ध्यान रहे, दुखी आदमी कभी भी पूरा तादात्म्यं नहीं कर पाता | | निशाने ठीक मारता था। उसके लड़के ने कहा, आप एक कोशिश दुख के साथ। उसे लगता ही रहता है, मैं अलग हूं, मैं दुखी हूं। मैं | करके देखें; मैं भी देखू। अलग हूं, दुख अलग है। तब जरा नसरुद्दीन मुश्किल में पड़ा। क्योंकि उसे ठीक से बंदूक दुख के साथ कौन तादात्म्य करेगा? हम जानते हैं कि दुख आया | | पकड़ना भी नहीं आता था। लेकिन बाप बेटे से ज्यादा जानता है, है और चला जाएगा, मैं अलग हूं। और हम पूरी कोशिश करते हैं | | यह दावा छोड़ नहीं सकता किसी भी मामले में। उसने बंदूक ली कि दुख जितनी जल्दी चला जाए, उतना अच्छा। लेकिन जब सुख | | हाथ में। इस बहाने कि माडल थोड़ा नया मालूम पड़ता है, उसने आता है, तब हम तादात्म्य करते हैं। | लड़के से पूछा कि कैसे उपयोग में लाया जाता है? क्योंकि मेरे फकीर जुनैद ने कहा है कि दुख में ईश्वर का स्मरण कुछ भी जमाने में दूसरे ढंग के माडल चलते थे। मगर निशाना तो मेरा मूल्य नहीं रखता, क्योंकि सभी स्मरण करते हैं। सुख में अगर कोई बेचूक है। स्मरण करे, तो उसका कोई मूल्य है। तब उसने निशाना लगाया। एक चिड़िया आकाश में उड़ रही सुख में कोई स्मरण नहीं करता, क्योंकि सुख के लिए ही तो थी। उसने निशाना मारा, बड़ी मेहनत से, बड़ी सोच-समझकर, हम स्मरण करते हैं। जब सुख ही मौजूद हो, तो स्मरण का कोई | सारी ताकत और समझ लगाकर। लेकिन ताकत और समझ से अर्थ न रहा। | निशाने का कोई संबंध नहीं है। जिसने निशाना नहीं लगाया है, यह दुख से हम छूटना चाहते हैं, अलग होना चाहते हैं। सुख के साथ | करीब-करीब असंभव है कि निशाना लग जाए उड़ती चिड़िया पर। हम जुड़ना चाहते हैं, एक होना चाहते हैं। और जिसके साथ हम | गोली तो चल गई, चिड़िया उड़ती रही। नसरुद्दीन ने कहा, देख, जुड़ते हैं, एक होते हैं, वही हमारा वास्तविक बंधन बन सकता है। बेटा देख; चमत्कार देख। मरी हुई चिड़िया उड़ रही है! 123| Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा अहंकार सब जगह खड़ा है। उसे लीप-पोतकर ठीक कर लेते हैं। रवींद्रनाथ के हस्तलिखित पत्र प्रकाशित हुए हैं। वे कविता भी लिखते थे तो कहीं अगर कोई शब्द में भूल हो जाए तो उसको काटना-पीटना पड़े, तो वे काटने-पीटने की जगह, जहां काटते थे, वहां कुछ डिजाइन बना देंगे, कुछ चित्र बना देंगे - कटा हुआ नहीं मालूम पड़े। जहां-जहां भूल होगी, शब्द कोई काटना पड़ेगा, तो उसके ऊपर डिजाइन बना देंगे, कुछ रंग भर देंगे, चित्र बना देंगे। तो उनका पत्र ऐसा मालूम पड़ेगा कि उसमें कहीं कोई भूल-चूक नहीं है। ऐसा लगेगा कि शायद सजाया है, डेकोरेट किया है। भूल भी हो जाए, गीता दर्शन भाग-7 तोह मगर यह आदमी के मन की वृत्ति है । सब जगह सजा रहा है। कहीं भी कुछ ऐसा हो जिससे भूल पता हो, तो छिपा रहा है। हमारा अहंकार स्वीकार नहीं करना चाहता कि कोई भी कमी हम में है। अज्ञानी भी दावा करता है ज्ञान का। शायद अज्ञानी ही दावा करता है ज्ञान का। तो जब ज्ञान की पहली किरण उतरनी शुरू होगी, तो आपका सारे जन्मों का इकट्ठा जो सूक्ष्म अहंकार है, वह उसे पकड़ने की कोशिश करेगा । जिब्रान ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है । जिब्रान ने लिखा है कि जब भी इस जगत में कोई नया आविष्कार होता है, तो देवता और शैतान दोनों ही उस पर झपट्टा मारते हैं कब्जा करने को। और अक्सर ही ऐसा होता है कि शैतान उस पर पहले कब्जा कर लेता है; देवता सदा पीछे रह जाते हैं। देवताओं को तो खयाल ही त आता है, जब शैतान निकल पड़ता है। और शैतान तो पहले से ही तैयार है। जब भी आपके जीवन में कोई घटना घटेगी, तो आपके भीतर जो बुरा हिस्सा है, वह तत्क्षण उस पर कब्जा करना चाहेगा। इसके पहले कि अच्छा हिस्सा दावा करे, बुरा हिस्सा उस पर कब्जा कर लेगा | जैसे ही ज्ञान की किरण उतरेगी, वैसे ही अहंकार पकड़ेगा कि मैंने जान लिया । और इस वक्तव्य में ही वह ज्ञान की किरण खो गई और अंधकार हो गया। इस अहंकार के भाव में ही, वह जो उतर रहा था, उसका स्रोत बंद हो गया। और जब तक यह भाव मिटेगा नहीं, तब तक वह स्रोत बंद रहेगा। सैकड़ों-हजारों लोगों पर ध्यान के प्रयोग करने के बाद मैं कुछ नतीजों पर पहुंचा हूं। उनमें एक यह है कि मेरे पास लोग आते हैं; जब उन्हें पहला अनुभव होता है ध्यान का, तो उनकी प्रफुल्लता की कोई सीमा नहीं होती। उनका पूरा हृदय नाचता होता है। लेकिन जब भी वे मुझे आकर खबर देते हैं अ उनकी प्रफुल्लता मैं देखता हूं, तो मैं डरता हूं। मैं जानता हूं कि अब यह गया । अब कठिनाई शुरू हो जाएगी। क्योंकि अब तक इसे कोई अपेक्षा न थी। अब तक इसे कुछ पता न था। अनएक्सपेक्टेड, अपेक्षित न था, घटना घटी है। और यह घटना तभी घटती है, जब अपेक्षा न हो; अपेक्षा होते से ही बाधा पड़ जाती है। अब यह कल से रोज प्रतीक्षा करेगा। ध्यान |इसका व्यर्थ होगा अब । अब यह ध्यान में बैठेगा जरूर, लेकिन पूरा नहीं बैठेगा। मन तो लगा रहेगा उस घटना में, जो कल घटी थी। और निश्चित रूप से वह आदमी एक-दो दिन में मेरे पास आता है; कहता कि वह बात अब नहीं हो रही ! चित्त बड़ा दुखी है। वह जो किरण उठती थी, इसने मार डाली। उसकी बात ही नहीं उठानी थी। उसको पकड़ना ही नहीं था। सिर्फ धन्यवाद देना था परमात्मा को कि तेरी कृपा है। क्योंकि मैं तो कुछ जानता भी नहीं था। हुआ, तू जान और भूल जाना था। दूसरे दिन वह किरण और भी गहरी उतरती । भी जीवन में आए, उसे भूलना सीखना पड़ेगा; अन्यथा वही बंधन हो जाएगा। फिर बड़ी कठिनाई हो जाती है। कई दफा तो सालों लग जाते हैं। जब तक कि वह आदमी भूल ही नहीं जाता उस | घटना को, तब तक दुबारा किरण नहीं उतरती । और वह जितनी | कोशिश करता है, उतना ही कठिन हो जाता है। क्योंकि कोशिश से वह आई नहीं थी । इसलिए कोशिश से उसका कोई संबंध नहीं है। | वह तुम्हारे बिना प्रयत्न के घटी थी। तुम भोले-भाले थे, तुम सरल थे, तुम कुछ मांग नहीं रहे थे। उस निर्दोष क्षण में ही वह संपर्क हुआ था। अब तुम मांग रहे हो । अब तुम चालाक हो । अब तुम भोले-भाले नहीं हो। अब तुमने गणित बिठा लिया है। अब तुम कहते हो कि अब ये तीस मिनट हो |गए ध्यान करते, अभी तक नहीं हुआ ! अब तुम मिनट मिनट उसकी आकांक्षा कर रहे हो। तो तुम्हारा मन बंट गया। अब तुम ध्यान में नहीं हो। अब तुम अनुभव की आकांक्षा कर रहे हो । | इसलिए ध्यान रखें, अनुभव को जो पकड़ेगा, वह वंचित हो जाएगा। और सात्विक अनुभव इतने प्यारे हैं कि पकड़ना बिलकुल सहज हो जाता है । छोड़ना बहुत कठिन होता है, पकड़ना बिलकुल सहज हो जाता है। 124 झेन फकीर, उनका शिष्य जब भी आकर उनको खबर देगा कि उसे कुछ अनुभव हुआ, तो उसकी पिटाई कर देते हैं। डंडा उठा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है * लेते हैं। जैसे ही कहेगा कि कुछ अनुभव हुआ है कि वे टूट पड़ेंगे | दुर्वासा के वैराग्य में कोई भी कमी नहीं है। लेकिन वह वैराग्य उस पर। | सिवाय क्रोध के कुछ भी पैदा नहीं करता है। बड़ा दया का कृत्य है। हमें लगता है, बड़ी कठोर बात है। बड़ा दुर्वासा का वैराग्य क्रोध क्यों पैदा करता है? क्योंकि दुर्वासा का दया का कृत्य है। उनकी यह मार-पीट, शिष्य को खिड़की से | वैराग्य भीतर अहंकार बन गया। अहंकार पर जब चोट लगती है, उठाकर फेंक देना-कई बार ऐसा हुआ कि शिष्य की टांग टूट गई, तो क्रोध पैदा होता है। अगर भीतर अहंकार न हो, तो क्रोध के पैदा हाथ टूट गया-मगर वह कोई महंगा सौदा नहीं है। होने का कोई कारण नहीं है। जैसे ही उसने अनुभव को पकड़ा कि उन्होंने उसको इतना दुख | | तो हम ऋषि-मनियों की कथाएं पढते हैं कि वे अभिशाप दे रहे दे दिया कि वह अनभव जैसे इस दख ने पोंछ दिया। अब वह दबारा | हैं। जिनको उन्होंने अभिशाप दिया है, वे शायद मुक्त भी हो गए अनुभव को पकड़ने में जरा संकोच करेगा। और दुबारा गुरु के पास हों। लेकिन जिन्होंने अभिशाप दिया है, वे अभी भी यहीं-कहीं तो आकर कहेगा ही नहीं कि ऐसा हो गया। और जब भी उसको भटक रहे होंगे संसार में। उनके मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। दुबारा पकड़ने का खयाल होगा, तब उसको याद आएगा कि गुरु इसलिए कृष्ण कहते हैं, वैराग्य, ज्ञान, सुख, ये सभी बंधन हो ने जो व्यवहार किया था, वह बताता है कि मेरी पकड़ में कहीं कोई | सकते हैं। बुनियादी भूल थी। क्योंकि गुरु बिलकुल पागल हो गया था। जो | इसलिए तम से तो मुक्त होना ही है, रज से तो मुक्त होना ही है, सदा शांत था, जिसने कभी अपशब्द नहीं बोला था, उसने डंडा उठा | | सत्व से भी मुक्त होना है। असल में ऐसी कोई चीज न बचे भीतर, लिया था। उसने मुझे खिड़की के बाहर फेंक दिया था। कोई भयंकर | जिससे बंधने का उपाय रह जाए। सिर्फ शद्ध चेतना ही रह जाए। भूल हो गई है। कोई गुण न बचे; निर्गुणता रह जाए। उसी को गुणातीत कृष्ण कहते .. सात्विक अनुभव ज्ञान देगा। ज्ञान से अहंकार जगेगा। सात्विक | | हैं। वही लक्षण है परम संन्यस्त का, वीतराग का। अनुभव वैराग्य देगा, वैराग्य से बड़ी अकड़ पैदा होगी। इसलिए संन्यासी जैसी अकड़ सम्राटों में भी नहीं होती। संन्यासी जिस ढंग से चलता है, उसको देखें। सम्राट भी क्या चलेंगे। क्योंकि तीसरा प्रश्न: आप किस गुण-प्रधान वाले साधक को वह यह कह रहा है कि लात मार दी। यह सब संसार तुच्छ है, दो संन्यस्त कहते हैं? क्या संन्यास लेते ही किसी एक कौड़ी का है। हम इसे कोई मूल्य नहीं देते। तुम्हारे महल ना-कुछ गुण की प्रधानता होने लगती है? हैं। तुम्हारे स्वर्ण-शिखर, तुम्हारे ढेर हीरे-जवाहरातों के, कंकड़-पत्थर हैं। हम उस तरफ ध्यान नहीं देते। हमने सब छोड़ दिया। वैराग्य उदय हो गया है। गण से संन्यास का संबंध ही नहीं है। निर्गुणता से यह वैराग्य खतरनाक है। यह तो एक नया राग हुआ। यह ण संन्यास का संबंध है। संन्यास भीतर की-भाव दशा विपरीत राग हुआ। यह राग से मुक्ति न हुई। यह तो वैराग्य को ही 0 है। न पकड़ने की कला का नाम संन्यास है। नहीं पकड़ लिया तुमने! पकड़ेंगे कुछ भी। बिना पकड़े रहेंगे। ___ मन की आदत पकड़ने की है। इससे कोई संबंध नहीं कि आप पकड़ने का नाम गृहस्थ है। घर बनाएंगे चारों तरफ। कुछ क्या उसे पकड़ाते हैं। उसकी आदत पकड़ने की है; वह पकड़ने का | पकड़ेंगे। बिना सहारे नहीं जी सकेंगे। कोई आलंबन चाहिए। यंत्र है। आप धन कहो, वह धन पकड़ लेगा। दान कहो, दान पकड़ | भविष्य की सुरक्षा चाहिए। संपदा चाहिए कुछ! चाहे वह संपदा लेगा। भोग कहो, भोग पकड़ लेगा। त्याग कहो, त्याग पकड़ पुण्य की हो, शुभ कर्मों की हो, सत्व की हो। लेगा। आब्जेक्ट से कोई संबंध नहीं है। कुछ भी दे दो, मन पकड़ - संन्यस्त का अर्थ है, नहीं कोई घर बनाएंगे भीतर; नहीं कोई लेगा। और जिसको भी मन पकड लेगा. वही बंधन हो जाएगा। | संपदा भीतर इकट्ठी करेंगे; कोई परिग्रह न जुटाएंगे; भविष्य की सैकड़ों कथाएं हैं वैरागियों की, जो अपने वैराग्य के कारण | | सोचेंगे ही नहीं। इस क्षण जीएंगे। और इस क्षण चेतना की भांति जन्मों-जन्मों तक मुक्त न हो पाए। क्योंकि अकड़ उनकी भारी है। | जीएंगे। और इतना ही जानेंगे कि मैं एक साक्षी हूं; एक देखने वाला 125 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * हूं; एक द्रष्टा हूं। लक्षणों से युक्त होता है। अर्जुन ऐसा पूछता है कृष्ण से; सारिपुत्त संन्यस्त गुणातीत भाव है। और जब तक वह पैदा न हो जाए, | | बुद्ध से पूछता है; गौतम महावीर से पूछते हैं। निरंतर, जब भी कोई तब तक सब संन्यास ऊपर-ऊपर है। ऊपर-ऊपर है, सिर्फ | | जागरूक पुरुष हुआ है, तो उसके शिष्यों ने निश्चित ही पूछा है कि आकांक्षा की खबर देता है कि आप खोज कर रहे हैं। उपलब्धि की | | लक्षण क्या है? वह जिस दिव्य चेतना के अवतरण की आप बात खबर नहीं देता। | करते हैं, जिस भगवत्ता की आप बात करते हैं, उस भगवत्ता का अच्छा है कि खोज कर रहे हैं। लेकिन यह मत मानकर बैठ जाना लक्षण क्या है? हम कैसे पहचानेंगे कि कोई उस भगवत्ता को कि संन्यस्त हो गए हैं। जब तक निर्गुणता की प्रतीति न हो, तब तक उपलब्ध हो गया? उसका आचरण कैसा होगा? भीतर संन्यासी का जन्म नहीं हुआ। तब तक आप यात्रा पर है। तब इस प्रश्न को ठीक से समझना जरूरी है। तक आप खोज रहे हैं। पहली तो बात यह है कि लक्षण तो बाहर से बताए जा सकते यह खोज गुणों के सहारे होगी। लेकिन खोज का जो अंतिम फल हैं। और बाहर की सब पहचान कामचलाऊ होगी। क्योंकि दो है, वह गुणों के पार चला जाता है। गुणातीत व्यक्तियों के बाहर के लक्षण एक जैसे नहीं होंगे। इससे मैं संन्यस्त किसी गुण-प्रधान व्यक्ति को नहीं कहता, बड़ी अड़चन पैदा हुई है। सत्वगुण-प्रधान व्यक्ति को भी संन्यासी नहीं कहता। साधु कहता जिन्होंने महावीर से पूछा था कि उसके लक्षण क्या हैं, वे कृष्ण हूं। साधु का अर्थ होता है कि सत्व की प्रधानता है, शुभ की प्रधानता को गुणातीत नहीं मान सकते। क्योंकि महावीर ने वे लक्षण बताए, है। अच्छे उसके कर्म हैं। अच्छा उसका व्यवहार है। अच्छा उसका जो महावीर ने अनुभव किए हैं, जो महावीर के जीवन में आए। तो भाव है। लेकिन अच्छे से बंधा है। जंजीर है उसके हाथों पर, फूलों | महावीर का भक्त जानता है कि वह जो गुणातीत व्यक्ति है, वह की है। जंजीर है, सोने की है, लोहे की जंजीर नहीं है। | वस्त्र भी त्याग कर देगा; वह दिगंबर होगा। लेकिन सोने की जंजीर, में एक खतरा है कि मन होता है माननेइसलिए दिगंबरत्व लक्षण है गुणातीत का। दिगंबर परंपरा में का कि वह आभूषण है। लोहे की जंजीर, तो तोड़ने की इच्छा पैदा दिगंबरत्व लक्षण है। जब तक वस्त्र हैं, तब तक कोई मोक्ष में प्रवेश हो जाती है। सोने की जंजीर, बचाने की इच्छा पैदा होती है। और | नहीं कर सकता। क्योंकि वस्त्र को पकड़ने का मोह बता रहा है कि अगर कोई कहे कि यह जंजीर है, तो हम कहेंगे, क्षमा करो, यह तुम अभी कुछ छिपाना चाहते हो। गुणातीत कुछ भी नहीं छिपाता। जंजीर नहीं है, यह आभूषण है। वह खुली किताब की तरह है। साधुता सत्वगुण तक संबंधित है। संन्यस्तता गुणातीत है। तो महावीर से जिन्होंने गुणातीत के लक्षण समझे थे, वे बुद्ध को संन्यस्त का अर्थ है, जिसने अब अपने को अपने शरीर, अपने मन | भी गुणातीत नहीं मानते। बुद्ध उसी समय जीवित थे। एक ही जगह से जोड़ना छोड़ दिया। शरीर घर है, मन घर है, इन घर से जो छूट | मौजूद थे। बिहार में एक ही प्रांत में मौजूद थे। कभी-कभी एक ही गया और जो अब भीतर के चैतन्य में थिर हो गया है। और जो एक गांव में एक साथ भी मौजद थे। ही भाव रखता है कि मेरा होना सिर्फ चेतना मात्र है, सिर्फ होश मेरा | महावीर को मानने वाला बुद्ध को गुणातीत नहीं मानता, स्वभाव है। और जहां भी होश मैं खोता हूं, वहीं मैं स्वभाव खो रहा। | स्थितप्रज्ञ नहीं मानता, क्योंकि बुद्ध कपड़ा पहने हुए हैं। वह उतनी हूं और संन्यास से च्युत हो रहा हूं। अड़चन है। इसलिए महावीर को तो जैन भगवान कहते हैं; बुद्ध को अब हम सूत्र लें। | महात्मा कहते हैं। करीब-करीब हैं। कभी न कभी वस्त्र भी छूट अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ जाएंगे और किसी जन्म में यह व्यक्ति भी तीर्थकरत्व को उपलब्ध पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के | हो जाएगा। लेकिन अभी नहीं है। आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो, मनुष्य किस उपाय से इन कृष्ण को तो मानने का कोई उपाय ही नहीं रहेगा। राम को तो तीनों गुणों से अतीत होता है? | किसी तरह नहीं माना जा सकता। मोहम्मद या क्राइस्ट को किसी ___ अर्जुन की जिज्ञासा करीब-करीब सभी की जिज्ञासा है। हम भी | | तरह नहीं माना जा सकता कि ये गुणातीत हैं। अगर महावीर से जानना चाहते हैं कि इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन लक्षण सीखे हैं, तो कठिनाई आएगी। 1126 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है * गा कि उसके अगर आपने कृष्ण से लक्षण सीखे हैं, तो भी कठिनाई आएगी। सब दावेदार थे और सब ने कोशिश की कि बन जाओ शिष्य। वह क्योंकि लक्षण कामचलाऊ हैं। वास्तविक अनुभूति तो स्वयं जब वहां से भाग खड़ा हुआ। तक कोई गुणातीत न हो जाए, तब तक नहीं होगी। लेकिन यह | फिर एक दिन एक जंगल से गुजरते हुए एक गुफा के द्वार पर कहना फिजूल है पूछने वाले से, कि जब तू गुणातीत हो जाएगा, | | उसे बैठा हुआ एक फकीर दिखाई पड़ा। वह थका-मांदा था। वह तब जान लेगा। वह यह कहता है कि मैं नहीं हूं गुणातीत, इसीलिए फकीर अति साधारण मालूम हो रहा था। न कोई गरिमा थी, न कोई तो पूछ रहा हूं। तो उसके पूछने को तृप्त तो करना ही होगा। । | विराट तेज प्रकट हो रहा था। न कोई आभामंडल दिखाई पड़ रहा इसलिए गौण, कामचलाऊ लक्षण हैं। वे लक्षण भिन्न-भिन्न हो | | था, जैसा कि कृष्ण, बुद्ध, महावीर के सिर के चारों तरफ बना होता सकते हैं। अलग-अलग गुणातीत लोगों में भिन्न-भिन्न रहेंगे। उनके | | है। ऐसा कुछ भी नहीं था। एक साधारण आदमी बैठा था चुपचाप; भीतर की दशा तो एक है। लेकिन उनके बाहर की अभिव्यक्ति | कुछ कर भी नहीं रहा था। अलग-अलग है। वह हजार कारणों पर निर्भर है। ___ इसको प्यास लगी थी, भूख लगी थी। यह रास्ता भटक गया था। पर हमारा मन होता है पछने का. कि लक्षण क्या है? क्योंकि तो उसके पास गया। जैसे. हम ऊपर से चीजों को जांचना चाहते हैं। हम जानना चाहते हैं कि | पास जाने से इसके भीतर कछ शांत होता जा रहा है। यह थोड़ा कौन आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया? हम कैसे पहचानें? कोई चौंका। वह आदमी-जब पास गया, तो पता चला—वह आंख सींग तो निकल नहीं आते कि अलग से दिखाई पड़ जाए कि यह बंद किए बैठा है। वह इतना शांत था कि उससे यह कहकर कि मुझे आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। वह आदमी आप ही जैसा | प्यास लगी है, बाधा देना इसे उचित नहीं मालूम पड़ा। तो यह आदमी होता है। सच तो यह है कि वह अति साधारण हो जाता है। चुपचाप उसके पास बैठ गया कि जब वह आंख खोलेगा, तब मैं क्योंकि असाधारण होने का जो पागलपन है, वह अहंकार का | | बात कर लूंगा। लेकिन उसके पास बैठे-बैठे यह ऐसा शांत होने लगा हिस्सा है। वैसा आदमी अति साधारण हो जाता है। विशिष्टता की और इसकी आंख बंद हो गई। सांझ का वक्त था। परी रात बीत गई। तलाश उसकी बंद हो जाती है। सुबह वह फकीर उठा। उस फकीर ने यह भी नहीं पूछा कि कैसे सभी साधारण लोग असाधारण होने की खोज कर रहे हैं। | आए? कहां से आए? कौन हो? वह उठा। उसने चाय बनाई। चाय इसलिए जो वस्तुतः असाधारण है, वह बिलकुल साधारण जैसा पी फकीर ने। उसने इससे भी नहीं कहा, नान-इन से, कि तू एक होगा। चाय पी ले। फिर अपनी जगह आकर आंख बंद करके बैठ गया। झेन फकीरों ने उसके गुणों में एक गुण गिनाया है, मोस्ट | यह नान-इन भी उठा। जिस भांति फकीर ने चाय बनाई थी, आर्डिनरी। अगर आप झेन फकीरों का गुण सुन लें, तो आपको इसने भी चाय बनाई। पी; और यह जाकर अपनी जगह बैठ गया। . बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि झेन फकीर कहते हैं, गुणातीत को तो | | ऐसा सात दिन चला। सातवें दिन उस फकीर ने कहा कि मैं तुझे पहचानना ही मुश्किल होगा, यही उसका पहला लक्षण है। क्योंकि | | स्वीकार करता हूं। वह आदमी नान-इन का गुरु हो गया। वह बिलकुल साधारण होगा। उसको विशिष्ट होने का कोई मोह नान-इन ने उससे पूछा कि तुमने मुझे क्यों स्वीकार किया? तो नहीं है। वह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि मैं विशिष्ट हूं, | उसने कहा, गुरु वही गुरु होने योग्य है, जो दावा न करे; और शिष्य तुमसे ज्यादा जानता हूं, कि तुमसे ज्यादा आचरण वाला हूं। वह यह | भी वही शिष्य होने योग्य है, जो दावा न करे। तू चुप रहा और तूने कोशिश नहीं करेगा। | यह नहीं कहा कि हम शिष्य होने आए हैं। और तू चुपचाप एक झेन फकीर हुआ, नान-इन। वह अपने गुरु के पास गया। | अनुकरण करता रहा छाया की तरह। सात दिन, जो मैंने किया, तूने वह गुरु की तलाश कर रहा था। पर उसके मन में एक सुनी हुई बात | किया। तूने यह भी नहीं पूछा कि यह करना कि नहीं करना। थी कि जो दावा करे कि मैं गुरु हूं, वहां से भाग खड़े होना। क्योंकि जब वह उठकर बाहर घूमने जाए, तो यह भी बाहर चला जाए। झेन फकीर कहते रहे हैं सदियों से कि वह जो गुरु होने योग्य है, | | वह चक्कर लगाए, यह भी चक्कर लगाए झोपड़े का। जब वह बैठ वह दावा नहीं करेगा। वह उसका लक्षण है। जाए, तो यह भी बैठ जाए। यह नान-इन खोजता था। बहुत गुरुओं के पास गया। लेकिन वे पर नान-इन ने कहा है कि सात दिन के बाद कुछ पाने को भी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * नहीं बचा। सात दिन उसके साथ चपचाप होना काफी था। मोस्ट | क्योंकि किसी तरह का ओढ़ना नहीं कर सकते उपयोग। किसी तरह आर्डिनरी, एकदम साधारण आदमी! वहां गुरु मिल गया। का बिछौना उपयोग नहीं कर सकते। कमरे को चारों तरफ से हर परंपरा अलग लक्षण गिनाती है। हर परंपरा को लक्षण गिनाने | बिलकुल बंद कर देते हैं। पड़े हैं, क्योंकि पूछने वाले लोग मौजूद हैं। पूछने में थोड़ी भूल है। | महावीर किसी कमरे में नहीं ठहरे। न किसी ने कभी पुआल लेकिन स्वाभाविक भूल है। क्योंकि हम जानना चाहते हैं, वैसा | | बिछाई। और कोई बिछाता भी तो वे पुआल में छिपते नहीं। क्योंकि पुरुष कैसा होगा। | बिछाने वाला बिछा रहा होगा, आपको उसमें छिपने की कोई अर्जुन पूछता है, तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन | जरूरत नहीं है। और कौन कह रहा है कि आप कमरे में रहो? लक्षणों से युक्त होता है? पुआल भरी है, आप बाहर चले जाओ। लक्षण का मतलब है, जिन्हें हम बाहर से पहचान सकें। जिनसे लेकिन यह आदमी बेचारा सिर्फ नग्न हो गया है। इसको वस्त्रों हम कछ अंदाज लगा सकें। पर इससे एक दसरा खतरा...। की अभी जरूरत थी। इसको सर्दी लगती है. गर्मी लगती है। और एक खतरा तो यह पैदा हुआ कि सब धर्मों ने अलग लक्षण | इसमें कोई एतराज नहीं है कि इसको लगती है। कठिनाई यह है कि गिनाए। क्योंकि लक्षण गिनाने वाले ने जो लक्षण अपने जीवन में | नाहक एक लक्षण को आरोपित करके चल रहा है। पाए थे, वही उसने गिनाए। इसलिए सब धर्मों में एक वैमनस्य पैदा ___महावीर ने कहा है कि तुम भिक्षा मांगने जाओ। तुम किसी द्वार हुआ। और एक के तीर्थंकर को दूसरा अवतार नहीं मान सकता। | पर पहले से खबर मत करना कि मैं भिक्षा लेने आऊंगा। क्योंकि और एक के क्राइस्ट को दूसरा क्राइस्ट नहीं मान सकता। एक के तुम्हारे निमित्त जो भोजन बनेगा, उसमें जितनी हिंसा होगी, वह पैगंबर को दूसरा पैगंबर नहीं मान सकता। क्योंकि लक्षण अलग तुम्हारे ऊपर चली जाएगी। तो तुम तो अनजाने द्वार पर खड़े हो हैं। और लक्षण मेल नहीं खाते हैं। जाना। जो उसके घर बना हो, वह दे दे। तुम्हारे भाग्य में होगा, तो दसरा खतरा यह हुआ. जो इससे भी बड़ा है. वह यह कि लक्षणों कोई दे देगा। नहीं भाग्य में होगा. तो तम भखे रहना. वापस लौट के कारण कुछ लोग लक्षण आरोपित कर लेते हैं। तब वे दूसरों को | आना; बिना किसी मन में बुराई को लिए, कि लोग बुरे हैं इस गांव तो धोखा देते ही हैं, खुद भी धोखे में पड़ जाते हैं। क्योंकि लक्षण के, किसी ने भिक्षा नहीं दी। पूरे के पूरे आरोपित किए जा सकते हैं। और महावीर ने एक शर्त लगा दी, कि अगर तुम्हारे भाग्य में है, . अगर यह लक्षण हो कि साधु पुरुष मौन होगा, तो आप मौन हो | | तो तुम पक्की कसौटी कर लेना। तो तुम एक चिह्न लेकर निकलना सकते हैं। गुणातीत पुरुष बोलेगा नहीं, तो न बोलने में कोई बहुत | सुबह ही। उठते ही सोच लेना कि आज भिक्षा उस द्वार से मांगूंगा, बड़ी अड़चन नहीं है। गुणातीत पुरुष, जो भी करने का हम लक्षण | जिस द्वार पर एक बैलगाड़ी खड़ी हो। बैलगाड़ी में गुड़ भरा हो। बना लें, वह लक्षण लोग नकल कर सकते हैं। गुड़ में एक बैल सींग लगा रहा हो। और सींग में गुड़ लग गया हो। _ और ध्यान रहे, नकल में कोई अड़चन नहीं है। कोई भी अड़चन ऐसा कोई भी एक लक्षण ले लेना। नहीं है। महावीर नग्न खड़े हैं, तो सैकड़ों लोग नग्न खड़े हो गए। | यह महावीर का एक लक्षण था, जिसमें वे तीन महीने तक गांव लेकिन नग्नता से कोई दिगंबरत्व तो पैदा नहीं होता। दिगंबरत्व में भटके और भोजन नहीं मिला। अब यह बड़ा अजीब-सा, जो भाव शब्द का अर्थ है कि आकाश ही मेरा एकमात्र वस्त्र है। मैं और | आ गया सुबह, वह...। अब यह बड़ा कठिन है कि किसी घर के किसी चीज से ढंका हुआ नहीं हूं। जैसे मैं पूरा अस्तित्व हो गया हूं। सामने बैलगाड़ी में भरा हुआ गुड़ हो। फिर कोई बैल उसमें सींग लगा सिर्फ आकाश ही मेरा वस्त्र है। रहा हो। और फिर उस घर के लोग देने को राजी हों। कोई उनकी लेकिन आप नंगे खड़े हो सकते हैं। फिर उसमें तरकीबें | मजबूरी तो है नहीं। उन्होंने कोई कसम खाई नहीं कि देंगे ही। निकालनी पड़ती हैं। दिगंबर जैन मुनि जहां ठहरता है, तो भक्तों को | तो महावीर कहते थे, भाग्य में नहीं है, तुम वापस लौट आना। इंतजाम करना पड़ता है। पुआल बिछा देते हैं उसके कमरे में। वह | गुणातीत खुद से नहीं जीता, गुणों से जीता है। प्रकृति को बचाना नहीं कहता कि बिछाओ। क्योंकि वह कहे, तो लक्षण से नीचे गिर होगा, तो बचा लेगी। गया। पुआल बिछा देते हैं। वह पुआल में छिपकर सो जाता है। और एक दिन—एक दिन जरूर ऐसा हुआ। तीन महीने बाद 128 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है * हुआ, लेकिन बराबर ऐसा हुआ कि...। मांस पसंद करते हैं। वह कौए ने जो डाला था, रास्ता खोल गया। अभी भी जैन दिगंबर मुनि ऐसा करता है। लेकिन उसके फिक्स्ड सारा चीन, सारा जापान, लाखों बौद्ध भिक्षु मांसाहार करते हैं। लक्षण हैं। दो-चार हर मुनि के फिक्स्ड हैं। सब भक्त जानते हैं। वे क्योंकि वे कहते हैं कि नियम है, जो भिक्षापात्र में डाला जाए, उसे चारों लक्षण अपने घर के सामने खड़े कर देते हैं। लक्षण ऐसे सरल छोड़ना नहीं। हैं, घर के सामने केला लटका हो। एक केला लटका हो घर के आदमी बेईमान है। वह नकल भी कर सकता है। नकल से सामने, वहां से भिक्षा ले लेंगे। तो सब मुनियों के लक्षण पता हैं। तरकीब भी निकाल सकता है। सब उपाय खोज सकता है। लक्षण महावीर ने यह नहीं कहा कि तुम अपने लक्षण निश्चित कर लेना। की वजह से एक उपद्रव हुआ है कि हम लक्षण को आरोपित कर तुम रोज सुबह जो तुम्हारा पहला भाव हो, वह लेकर निकलना। सकते हैं; हम उसका अभिनय कर सकते हैं। इनके सब तय हैं। तो उलटी हिंसा पच्चीस गुनी ज्यादा होती है। । पर हमारे मन में उठता है कि क्या लक्षण होंगे। क्योंकि एक घर से जो भिक्षा ले लेते, तो पच्चीस घर, जितने उनके कृष्ण ने जो लक्षण बताए हैं, वे कीमती हैं। यद्यपि बाहरी हैं, पर भक्त गांव में होंगे, सब बनाएंगे और सब अपने घर के सामने लक्षण हमारे मन के लिए उपयोगी हैं। लटकाएंगे। और उनका लक्षण रोज मिलता है। तीन महीने तक | किन लक्षणों से युक्त होता है? किस प्रकार के आचरणों वाला चूकने की किसी को नौबत आती नहीं। रोज मिलेगा ही। लक्षण ही होता है? मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों के अतीत होता है? वे लेते हैं, जो सबको पता हैं। तो नकल हो सकती है। कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने गया। एक कौआ मांस का टुकड़ा | | को, रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह लेकर उड़ता था, वह छूट गया उसके मुंह से। वह भिक्षापात्र में | को भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर गिर गया। संयोग की बात थी। बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा है कि उनकी आकांक्षा करता है। जो भी तुम्हारे भिक्षापात्र में डल जाए, वह तुम खा लेना, फेंकना | बड़ा जटिल लक्षण है। खतरा भी उतना ही है। क्योंकि जितना मत। बुद्ध को भी नहीं सूझा होगा कि कभी कोई कौआ मांस का | जटिल है, उतना ही आपके लिए सुविधा है। टुकड़ा गिरा देगा। कृष्ण यह कह रहे हैं कि गुण जो भी करवाएं! तमोगुण कुछ अब इस भिक्षु के सामने सवाल खड़ा हुआ कि अब क्या करना! करवाए, तो जब तमोगुण प्रवृत्ति में ले जाता है, तब दुखी नहीं होता क्योंकि बुद्ध कहते हैं... । मांसाहार करना कि नहीं? गिरा तो है पात्र | कि मुझसे बुरा हो रहा है। रजोगुण किसी कर्म में ले जाता है, तो भी में ही। नियम के बिलकुल भीतर है। तो उस भिक्षु ने जाकर बुद्ध | दुखी नहीं होता कि रजोगुण मुझे कर्म में ले जा रहा है। या सत्वगुण को कहा कि क्या करूं? मांस का टुकड़ा पड़ा है, इसे फेंकू, तो | निवृत्ति में ले जाता है, तो भी सुखी नहीं होता कि मुझे सत्वगुण नियम का उल्लंघन होता है। क्योंकि भोजन का तिरस्कार हुआ। | निवृत्ति में ले जा रहा है। न राग से दुखी होता है, न वैराग्य से सुखी मैंने मांगा भी नहीं था, कौए ने अपने आप डाला है। होता है। जो दोनों ही चीजों को गुणों पर छोड़ देता है और समझता बुद्ध ने सोचा होगा। बुद्ध ने सोचा होगा, कौए रोज-रोज तो है, मैं अलग हूं। डालेंगे नहीं। कौओं को ऐसी क्या पड़ी है कि भिक्षुओं को परेशान | इसका मतलब क्या हुआ? करें। यह संयोग की बात है। तो बुद्ध ने कहा कि ठीक है; जो आपको क्रोध आया। अब रजोगुण आपको किसी की हिंसा भिक्षापात्र में पड़ जाए, ले लेना। क्योंकि अगर यह कहा जाए कि | करने में ले जा रहा है। आप कहेंगे, यह तो लक्षण ही है गणातीत फेंक दो इसे, तो अब एक दूसरा नियम बनता है कि भिक्षापात्र में का! इस वक्त दुख करने की कोई जरूरत नहीं है, मजे से जाओ। जो पसंद न हो, वह फेंकना फिर। फिर चुनाव शुरू होगा। फिर | तो ऊपर से तो नकल हो सकती है। क्योंकि आप क्रोधित हो सकते भिक्षु वही जो पसंद है, रख लेगा, बाकी फेंक देगा। इससे व्यर्थ हैं और आप कह सकते हैं, मैं क्या कर सकता हूं; यह तो गुणों का भोजन जाएगा। और भिक्षु के मन में चुनाव पैदा होगा। वर्तन है! आप हिंसा भी कर सकते हैं और कह सकते हैं, मैं क्या तो आज चीन में, जापान में मांसाहार जारी है। क्योंकि भक्त | कर सकता हूं; यह तो गुणों का वर्तन है! मेरे भीतर जो गुण थे, मांस डाल देते हैं भिक्षापात्र में। और सब भक्त जानते हैं कि भिक्षु | | उन्होंने हिंसा की। 129 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * इसीलिए मैं कह रहा हूं कि लक्षण बाहर हैं और असली बात तो | | मेरा मित्र कैसी पवित्रता को उपलब्ध हो गया! नग्न, पत्थर की तरह भीतर है। असली बात भीतर है। वह आप ही पहचान सकते हैं कि शांत खड़ा है! जब आप क्रोध में गए थे, तो आप सच में क्रोध का सुख ले रहे थे वह नमस्कार करके, बिना बाधा दिए, महावीर के दर्शन को या साक्षी थे। क्योंकि ध्यान रहे, जो आदमी क्रोध का साक्षी है, आया था। महावीर और घने जंगल में किसी वृक्ष के नीचे उसका क्रोध अपने आप निर्बीज हो जाएगा। क्रोध उठेगा भी, तो भी | विराजमान थे। वह वहां गया। वहां जाकर उसने कहा कि एक बात उसमें प्राण नहीं होंगे। क्योंकि प्राण तो हम डालते हैं। उसमें धुआं मुझे पूछनी है। बिंबसार ने कहा कि मेरा मित्र था प्रसन्न कुमार, वह ही होगा, आग नहीं हो सकती। आपका मुनि हो गया है। उसने सब छोड़ दिया। हम संसारी हैं; कामवासना उठेगी, तो भी आपके साक्षी-भाव के रहने से | अज्ञानी हैं: भटकते हैं। उसे रास्ते में खडे देखकर मेरा चित्त बडा कामवासना आपको ज्यादा दूर ले नहीं जाएगी। थोड़ी आनंदित हुआ। मेरे मन में भी भाव उठा कि कब ऐसा शुभ क्षण हिलेगी-डलेगी: विदा हो जाएगी। क्योंकि आपके बिना सहयोग | आएगा कि मैं भी सब छोड़कर ऐसा ही शांति में लीन हो जाऊंगा! के, आपके साक्षी-भाव को खोए बिना कोई भी चीज बहुत दूर तक | एक सवाल मेरे मन में उठता है। अभी जैसा खड़ा है प्रसन्न कुमार, नहीं जा सकती। जब आप साथ होते हैं, तब चीजें दूर तक जाती | शांत, मौन, अगर उसकी अभी मृत्यु हो जाए, तो वह किस हैं। लेकिन यह तो भीतरी बात है। इसको तय करना कठिन है। महालोक में जन्म लेगा? इसलिए लिए जैनों ने कृष्ण को नहीं माना कि वे गुणातीत हैं। बड़ा महावीर ने कहा, अगर इस वक्त उसकी मृत्यु हो, तो वह स्वर्ग मुश्किल है। कृष्ण तो गुणातीत हैं। लेकिन बात भीतरी है। कृष्ण उस | | जाएगा। लेकिन तू जब उसके सामने झुक रहा था, उस वक्त अगर युद्ध के मैदान पर खड़े हुए भी भीतर से वहां नहीं खड़े हैं। उस सारे | मरता, तो नरक जाता। जाल-प्रपंच के बीच भी भीतर से साक्षी हैं। लेकिन जैन कहते हैं, | अभी मुश्किल से आधी घड़ी बीती थी! और बिंबसार तो चौंक हम कैसे माने कि वे साक्षी हैं? कौन जाने, वे साक्षी न हों और | | गया। क्योंकि जब वह सिर झुका रहा था, तब इतना शांत खड़ा था प्रवृत्ति में रस ले रहे हों? प्रसन्न कुमार कि यह सोचता था, वह स्वर्ग में है ही। और महावीर तो जैन तो कहते हैं कि अगर प्रवृत्ति के साक्षी हैं, तो प्रवृत्ति गिर कहते हैं कि अगर उसी वक्त मर जाता, तो सीधा नरक जाता, जानी चाहिए। तो वे कहते हैं, हम महावीर को मानेंगे, क्योंकि वे सातवें नरक जाता। प्रवृत्ति छोड़कर चले गए हैं। बिंबसार ने कहा कि मैं समझा नहीं। यह पहेली हो गई। महावीर लेकिन दूसरी तरह भी खतरा वही है। आपकी प्रवृत्ति मौजूद हो, | ने कहा कि तेरे आने के पहले तेरा फौज-फांटा आ रहा है। सम्राट आप जंगल जा सकते हैं। क्या अड़चन है? और जंगल में आप | था; उसके वजीर, घोड़े, सेनापति, वे आगे चल रहे हैं। तेरा एक ध्यान कर रहे हों। हम को लगता है, आप ध्यान कर रहे हैं। भीतर | वजीर भी उसके दर्शन करने तुझ से कुछ देर पहले पहुंचा। और उसने पता नहीं आप क्या सोच रहे हैं? कौन-सी फिल्म देख रहे हैं? क्या | जाकर कहा कि यह देखो प्रसन्न कुमार खड़ा है मूरख की भांति। और कर रहे हैं? यह अपना सारा राज्य अपने वजीरों के हाथ में सौंप आया है। इसका महावीर के जीवन में उल्लेख है। बिंबसार सम्राट, उस समय का | लड़का अभी छोटा है। वे सब लूटपाट कर रहे हैं। वह सारा राज्य एक बड़ा सम्राट, महावीर के दर्शन को आया। जब वह दर्शन को बर्बाद हुआ जा रहा है। और ये बुद्ध की भांति यहां खड़े हैं! आ रहा था, तो उसने रास्ते में अपने एक पुराने मित्र को, जो कभी । उसने सुना प्रसन्न कुमार ने। उसको आग लग गई। वह भूल ही सम्राट था...प्रसन्न कुमार उसका नाम था, वह मुनि हो गया था | गया कि मैं मुनि हूं दिगंबर। उसका हाथ तलवार पर चला गया। महावीर का; राज्य छोड़ दिया था उसने। वह बिंबसार का बचपन | पुरानी आदत! उसने तलवार खींच ली। आंख बंद थीं। उसने तलवार का मित्र था और विश्वविद्यालय में दोनों साथ पढ़े थे। वह प्रसन्न | खींचकर उठा ली। और उसने अपने मन में कहा, क्या समझते हैं वे कुमार उसे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा एक पर्वत की कंदरा के पास, | वजीर! अभी मैं जिंदा हूं। एक-एक को गर्द से अलग कर दूंगा। ध्यान में लीन, पत्थर की मूर्ति की तरह। बिंबसार का मस्तक झुक । और जब यह बिंबसार उसके दर्शन कर रहा था, तब वह गर्दने गया। उसने सोचा कि हम अभी भी संसार में भटक रहे हैं और यह काट रहा था। बाहर मर्तिवत खड़ा था: भीतर गर्दनें धड़ से नीचे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संन्यास गुणातीत है * गिराई जा रही थीं। पुराना क्षत्रिय था। मेरे जिंदा रहते मेरे लड़के को | उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है। धोखा दे रहे हैं! अभी मैं जिंदा हूं। क्या समझा है उन्होंने? मुनि हो | | गुण प्रतिपल सक्रिय हैं; उनके कारण जो चलायमान नहीं होता गया, इससे क्या फर्क पड़ता है! अभी आ जाऊं, तो सब का | है। जैसे एक दीया जल रहा है। हवा का झोंका आया; दीए की लौ फैसला कर दूंगा। कंपने लगी। ऐसी हमारी स्थिति है। कोई भी झोंका आए, किसी भी तो महावीर ने कहा कि इस समय अगर वह मर जाए, तो स्वर्ग | | गुण से हम फौरन कंपने लगते हैं। गुण के झोंके आएं, तूफान चलें, जाएगा। तो बिंबसार ने कहा, अब दूसरी पहेली आप मुझे कह ही | भीतर कोई कंपन न हो। तूफान आएं और जाएं, आप अछूते खड़े दें। अब क्या हो गया इतनी जल्दी? रहें। न तो बुरा और न भला, कोई भी भाव पैदा न हो। न तो निंदा तो महावीर ने कहा कि जब तलवार उसने वापस रखी, सिर पर | और न प्रशंसा, कोई चुनाव पैदा न हो, च्वाइसलेस, बिना चुने हाथ फेरा अपना ताज सम्हालने को, तो वहां तो कोई ताज नहीं चुपचाप खड़े रहें। था, घुटा हुआ सिर था। जब सिर पर हाथ गया, तो उसने कहा, सारी नीति हमें चुनाव सिखाती है और धर्म अचुनाव सिखाता है। मैं भी पागल हूं। मैं मुनि हो गया; प्रसन्न कुमार तो मर ही चुका | नीति कहती है, यह अच्छा है, यह बुरा है। जब अच्छा उठे, तो है। कैसी तलवार? किसकी हत्या? मैं यह क्या हत्या कर रहा हूं!| | प्रसन्न होकर करना। जब बुरा उठे, तो दुखी होना और करने से सजग हो गया। उसे हंसी आ गई कि मन भी कैसा पागल है। इस रुकना। समय वह बिलकुल साक्षी है। इस समय वह जो परदे से उसका यह गीता का सूत्र तो बिलकुल विपरीत है। यह कह रहा है, बुरा तादात्म्य हो गया था, वह टूट गया। अगर अभी मर जाए, तो स्वर्ग | | उठे कि भला उठे, तुम कोई निर्णय ही मत लेना। बरा उठे, तो बरे जा सकता है। | को उठने देना। भला उठे, तो भले को उठने देना। न भले में स्तुति • बड़ी कठिनाई है। लक्षण सब बाहर हैं। इसलिए लक्षण आप | मानना, न बुरे में निंदा बनाना। तुम दोनों को देखते रहना कि दूसरों पर मत लगाना। लक्षण आप अपने पर ही लगाना, तो ही | | तुम्हारा जैसे दोनों से कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे रास्ते पर लोग चल काम के हो सकते हैं। | रहे हैं और तुम किनारे खड़े हो। नदी बह रही है और तुम किनारे जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को...। खड़े हो। आकाश में बादल चल रहे हैं और तुम नीचे बैठे हो। जब सत्वगुण का प्रकाश हो, और ज्ञान जन्मे, और वैराग्य का | | तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं। तुम उदय हो। . बिलकुल अलग-थलग हो। रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को...। ___ जब इस अलगपन का भाव पूरा उतर जाए, तभी चलायमान होने कर्म उठे, कर्मों का जाल फैले। | से बचा जा सकता है। अन्यथा हर चीज चलायमान कर रही है। हर तमोगुण के कार्यरूप मोह को...। | घटना, जो आस-पास घट रही है, आपको हिला रही है। हर घटना तमोगुण के कारण लोभ और मोह और अज्ञान जन्मे। | आपको बदल रही है। तो आप मालिक नहीं हैं। हवाओं में कंपते इन तीनों गुणों की प्रवृत्ति हो या निवृत्ति हो...।। हुए एक झंडे के कपड़े की तरह हैं। न तो प्रवृत्ति में मानता है कि बुरा है, न निवृत्ति में मानता है कि | एक झेन कथा है। बोकोजू के आश्रम में मंदिर पर झंडा था बौद्धों भला है। न तो प्रवृत्ति से बचना चाहता है, और निवृत्ति होने पर न | का। बोकोजू एक दिन निकलता था, देखा कि सारे भिक्षु इकट्ठे हैं प्रवृत्ति करना चाहता है। न तो आकांक्षा करता है कि ये हों, और न | | और बड़ा विवाद हो रहा है। विवाद यह था, एक भिक्षु ने, जो बड़ा आकांक्षा करता है कि ये न हों। जो भी हो रहा है, उसे चुपचाप | | तार्किक था, उसने सवाल उठाया था कि झंडा हिल रहा है या हवा प्रकृति का खेल मानकर देखता रहता है। इसे कृष्ण ने मौलिक | | हिल रही है? लक्षण कहा गुणातीत का। उपद्रव हो गया। कई मंतव्य हो गए। किसी ने कहा, हवा हिल तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हआ गणों के द्वारा विचलित नहीं | रही है। झंडा कैसे हिलेगा, अगर हवा नहीं हिलेगी तो? हवा हिल किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता | रही है। झंडा तो सिर्फ पीछा कर रहा है। किसी ने कहा, इसका हुआ जो सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं | प्रमाण क्या? हम कहते हैं, झंडा हिल रहा है, इसलिए हवा हिलती 131 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * मालूम पड़ रही है। अगर झंडा न हिले, तो हवा नहीं हिलेगी। किसी ने कहा, दोनों हिल रहे हैं। बोकोजू वहां आया और उसने कहा कि सब यहां से हटो और अपने वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान करो। न झंडा हिल रहा है, न हवा हिल रही है, न दोनों हिल रहे हैं; तुम्हारे मन हिल रहे हैं। जब तुम्हारा मन न हिलेगा, तब झंडा भी नहीं हिलेगा, हवा भी नहीं हिलेगी। तुम यहां से भागो और इसकी फिक्र करो कि तुम्हारा मन न हिले। मन तभी रुकेगा हिलने से जब हम निर्णय लेना बंद करें और स्वीकार करने को राजी हो जाएं; और जान लें कि यह वर्तन है गुणों का, यह हो रहा है। इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। मैं इसमें छिपा हूं भीतर जरूर। यह मेरे चारों तरफ घट रहा है, मुझमें नहीं घट रहा है। मुझ से बाहर घट रहा है। जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है। और जैसे ही कोई व्यक्ति गुणों के वर्तन से वर्तित नहीं होता, गुण कंपते रहते हैं और वह अकंप होता है, दोहरी घटना घटती है। एक तरफ जैसे ही हमारा संबंध गुणों से टूटता है, वैसे ही हमारा संबंध निर्गुण से जुड़ जाता है। इसे ठीक से समझ लें। जब तक हम गुणों से जुड़े हैं, तब तक पीछे छिपा हुआ निर्गुण परमात्मा हमारे खयाल में नहीं है। क्योंकि हमारे पास ध्यान एक धारा वाला है। वह सारा ध्यान गुणों की तरफ बह रहा है। जैसे ही हम गुणों से टूटते हैं, यही ध्यान परमात्मा की तरफ बहना शुरू हो जाता है। निर्गुण हमारे भीतर छिपा है। निर्गुण हम हैं और हमारे चारों तरफ गुणों का जाल है। अगर गुणों से बंधे रहेंगे, तो निर्गुण का बोध नहीं होगा। अगर गुणों से मुक्त होंगे, तो निर्गुण में स्थिति हो जाती है। और निर्गुण में स्थिति ही सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में स्थिति है। आज इतना ही। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 नौवां प्रवचन आत्म-भाव और समत्व Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । | शून्य हो जाती हैं। लेकिन यह बात किसी और अर्थ में गलत भी है। तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।। २४ ।। | क्योंकि वीतरागता के बाद भी इस देह में कुछ दिन रहना होगा। बुद्ध मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । | चालीस वर्षों तक इस देह में थे। ज्ञान की उपलब्धि के बाद भी शरीर सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते । । २५ ।।। | को भूख लगेगी, प्यास भी लगेगी। शरीर रुग्ण भी होगा। शरीर और जो निरंतर आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को | विश्राम भी चाहेगा। शरीर को आक्सीजन की भी जरूरत होगी। जब समान समझने वाला है तथा मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण में | तक शरीर है, तब तक शरीर की सारी अपनी प्रकृति के अनुकूल समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय जरूरतें होंगी। को बराबर समझता है और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान और ये जो तीन गुण हैं, सत्व, रज, तम, ये तीन भी शरीर के भाव वाला है। | गुण हैं। जैसे भूख-प्यास शरीर को लगेगी, वैसे ही सत्व, रज, तम तथा जो मान और अपमान में सम है एवं मित्र और वैरी के की प्रक्रियाएं भी जारी रहेंगी। फर्क जो हो जाएगा, वह यह कि भूख पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के । लगते समय भी बुद्ध जानते हैं कि यह भूख मुझे नहीं लगी है, यह अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। | भूख शरीर को लगी है। प्यास लगते समय भी जानते हैं कि इस प्यास का मैं साक्षी हूं, भोक्ता नहीं हूं, कर्ता नहीं हूं। लेकिन शरीर को तो प्यास लगेगी ही। शरीर को तो भूख लगेगी पहले कुछ प्रश्न। ही। शरीर के जो भी गुणधर्म हैं, वे जारी रहेंगे। शुद्धतम रूप में जारी पहला प्रश्नः आमतौर से समझा जाता है कि रहेंगे। उनमें चेतना के जड जाने से जो विक्षिप्तता पैदा होती है. वह ज्ञानोपलब्ध व्यक्ति की समस्त वासनाएं निर्जरा हो | खो जाएगी। इसलिए प्रवृत्ति जारी रहेगी। जाती हैं और वे सभी तरह की प्रवृत्ति के पार हो जाते | बुद्ध भी चलते हैं, उठते हैं, समझाते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, हैं। लेकिन आपने कल-परसों के प्रवचन में कहा कि | भोजन करते हैं, जागते हैं। सारी क्रियाएं जारी हैं। लेकिन इन ज्ञानार्जन के बाद भी उनकी प्रकृतिजन्य प्रवृत्तियां काम क्रियाओं के कारण वे बंधते नहीं हैं; वह चीज टूट गई है। इन करती हैं। यहां तक कि वे काम, क्रोध और हिंसा में क्रियाओं से उनका कोई तादात्म्य नहीं है। ये क्रियाएं उनके भी उतरते हैं, यद्यपि वे स्वयं उसकी ओर मात्र | आस-पास हो रही हैं; बीच का केंद्र इनसे मुक्त हो गया है। चेतना साक्षी-भाव रखते हैं। इसे समझाएं। | इनसे अस्पर्शित और अछूती रह जाती है। इसलिए जो जन्मों-जन्मों में व्यक्तित्व के आधार बने होंगे, वे आधार काम करेंगे। इस शरीर के गिर जाने तक शरीर सक्रिय होगा। - स संबंध में कुछ बहुत मूलभूत बातें समझ लेनी | | लेकिन यह सक्रियता वैसी ही हो जाएगी, जैसे आप साइकिल चला र जरूरी हैं। रहे हों और पैडल चलाना बंद कर दिया हो, फिर सिर्फ पुरानी गति पहली, साधारणतः हम ऐसा मानते रहे हैं, सुनते रहे हैं और मोमेंटम के कारण साइकिल थोड़ी दूर चलती चली जाए। कि जो व्यक्ति वीतरागता को, ज्ञान की पूर्णता को उपलब्ध हो बाहर से देखने वाले को तो ऐसा लगेगा कि अगर आपने साइकिल जाएगा, उसकी समस्त वृत्तियां क्षीण हो जाएंगी। यह ठीक भी है चलानी बंद कर दी है, तो साइकिल रुक क्यों नहीं जाती है! और गलत भी। ठीक तब है, जब उस व्यक्ति का शरीर गिर जाए। आप पैडल चलाने बंद कर दिए हैं, लेकिन आप मीलों से और यह अंतिम शरीर होगा। वीतरागता को उपलब्ध व्यक्ति का साइकिल चला रहे हैं, तो एक गति चकों ने ले ली है, वह गति यह शरीर अंतिम होगा। इसके बाद नए शरीर को ग्रहण करने का अपनी निर्जरा करेगी। अब आप बिना पैडल मारे भी बैठे हैं कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वासनाओं के बीज, मूल बीज भस्म हो साइकिल पर, साइकिल चलती चली जाएगी। यह जो चलना होगा, गए। तो नया जन्म तो नहीं होगा। इसको आप नहीं चला रहे हैं। अब यह साइकिल ही चल रही है। इसलिए यह बात ठीक है कि वीतराग पुरुष की समस्त प्रवृत्तियां | | इसमें आप कर्ता नहीं हैं। आप सिर्फ साक्षी हैं। आप साइकिल पर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व और बैठे हैं और साइकिल चल रही है। और एक अनूठा अनुभव होगा निरीक्षण करें। उनके आत्मघात का कारण यह नहीं है कि वे जीवन कि मैं नहीं चला रहा हूं, साइकिल चल रही है। और साइकिल से मुक्त हो गए हैं। उनके आत्मघात का सदा ही यही कारण है कि इसलिए चल रही है कि पीछे मैंने उसे चलाया था। | जीवन से उन्होंने जो चाहा था, वह जीवन उन्हें नहीं दे पाया। वे तो जन्मों-जन्मों में आपने शरीर को चलाया है। और | जीवन से मुक्त नहीं हुए हैं, जीवन से निराश हो गए हैं। और निराश जन्मों-जन्मों में आपने अपने गुणों को गति दी है। सब गुणों का | उसी मात्रा में होते हैं हम, जिस मात्रा में हमने आशा बांधी हो। मोमेंटम हो गया है, सब गुणों ने अपनी गति पकड़ ली है। अब वे | किसी ने सोचा हो कि जीवन में स्वर्ग मिलने वाला है और वह न चलते जाएंगे। जब तक गति क्षीण न हो जाए, तब तक आपका | मिले, तो दुख होता है। और वैसा व्यक्ति आत्मघात कर लेता है। शरीर चलता रहेगा। लेकिन यह चलना वैसा ही है, जैसे बिना पैडल ___ ज्ञानी को न तो आकांक्षा है कि जीवन चले, न रुकने का कोई चलाए साइकिल चल रही हो। सवाल है। क्योंकि न चलने से कुछ मिलने की आशा है, न रुकने पर बाहर से देखने वाले को तो यही लगेगा. साइकिल चल रही | से कुछ मिलने की आशा है। न तो वह सोचता है कि जीवन में है, इसलिए आप चला रहे होंगे। उसका लगना भी ठीक है। लेकिन चलता रहूं, तो मुझे कोई स्वर्ग मिलने वाला है। न वह सोचता है आप जानते हैं कि अब आप चलाना छोड़ दिए हैं। अब आप सिर्फ | कि रुक जाने से कोई स्वर्ग मिलने वाला है। वह जानता है कि स्वर्ग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि साइकिल रुक जाए। तो मैं हूं। चलने और रुकने से उसका कोई भी संबंध नहीं है। यह जो भीतर की भाव-दशा है. इसे हमें पहचानने में कठिनाई | तो अगर वह कोशिश करके ब्रेक भी लगाए, तो समझना कि होती है. क्योंकि हम हमेशा गति दे रहे हैं। और हमें खयाल में भी | अभी पैडल मार रहा है। क्योंकि ब्रेक लगाना भी पैडल मारने का नहीं आता कि बिना गति दिए जीवन कैसे चलेगा। ही हिस्सा है। वह कुछ कर रहा है। अभी कर्तापन उसका नहीं गया लेकिन जीवन चलता है। थोड़े दिन चल सकता है। उन थोड़े दिन | है। साक्षी नहीं हुआ। अभी ब्रेक लगा रहा है। कल पैडल लगा रहा का मजा ही और है। आपने पतवार उठाकर रख ली है, और नाव था; अब वह ब्रेक लगा रहा है। लेकिन अभी साइकिल से उसका अपनी गति से बही चली जाती है। न आपकी अब आकांक्षा है कि कर्तापन जुड़ा हुआ है। नाव चले...। __और साक्षीपन का अर्थ हुआ कि अब वह कुछ भी नहीं कर रहा और ध्यान रहे, आप यह भी कह सकते हैं कि अगर चलाना बंद | | है। अब जो हो रहा होगा, वह जानता है कि प्रकृति से हो रहा है। कर दिया है, तो आप ब्रेक भी लगाकर साइकिल से उतर सकते हैं! वही कृष्ण कह रहे हैं। आप छलांग लगाकर कूद सकते हैं! जब चलाना ही बंद कर दिया । कृष्ण कह रहे हैं कि जिस दिन कोई जान लेता है कि गुण ही गुण है, तो अब साइकिल पर बैठे रहने का क्या प्रयोजन है? में बर्त रहे हैं, मैं पृथक हूं, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मैं करने . इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जब तक किसी चीज | वाला ही नहीं हूं, जिस दिन ऐसा द्रष्टा-भाव गहन हो जाता है, उसी को रोकने की आकांक्षा बनी रहे, उसका अर्थ है कि चलाने की दिन व्यक्ति गुणातीत अवस्था को उपलब्ध हो जाता है। उसी दिन आकांक्षा का विपरीत रूप मौजूद है। जब आकांक्षा पूरी ही जाती है, | वह सच्चिदानंदघन हो जाता है, उसी क्षण। तो न चलाने का मन रह जाता है, न रुकने का मन रह जाता है। रुकने की वासना भी चलने की वासना का हिस्सा है। रुकना भी क्योंकि ब्रेक लगाने का तो एक ही अर्थ होगा कि बुद्ध और महावीर | | चलने का एक ढंग है; क्योंकि रुकना भी एक क्रिया है। तो ऐसा को आत्महत्या कर लेनी चाहिए। और कोई अर्थ नहीं हो सकता। व्यक्ति जिसकी प्रवृत्ति खो गई है...। अब कोई प्रयोजन तो रहा नहीं शरीर का, इससे छलांग लगा जानी ध्यान रहे, हम तो हमेशा विपरीत में सोचते हैं, इसलिए कठिनाई चाहिए। लेकिन जीवन में ब्रेक लगाने का तो एक ही अर्थ है कि | होती है। हम सोचते हैं, जिसकी प्रवृत्ति खो गई है, वह निवृत्ति को आप आत्महत्या कर लें, आत्मघात कर लें। साधेगा। निवृत्ति भी प्रवृत्ति का एक रूप है। कुछ करना भी ध्यान रहे, आत्मघात करने वाला व्यक्ति जीवन से मुक्त नहीं | | कर्ता-भाव है; और कुछ न करने का आग्रह करना भी कर्ता-भाव हुआ है। जीवन से बंधे होने के कारण लोग आत्मघात करते हैं। यह | | है। अगर मैं कहता हूं कि यह मैं न करूंगा, तो इसका अर्थ यह हुआ उलटा दिखाई पड़ेगा। लेकिन जो लोग आत्मघात करते हैं, उनका | कि मैं मानता हूं कि यह मैं कर सकता था। यह भी मैं मानता हूं कि 1351 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * है । यह मेरा कर्तृत्व है; चाहूं तो करूं, और चाहूं तो न करूं।। | स्त्रियों के पीछे भागो। अगर इससे रुकना है, तो मन कहता है, लेकिन साक्षी का अर्थ है कि न तो मैं कर सकता हं, और न न स्त्रियों से भागो। मगर भागते रहो। क्योंकि मन का संबंध स्त्री से कर सकता हूं। न तो प्रवृत्ति मेरी है, न निवृत्ति मेरी है। प्रवृत्ति भी नहीं है, भागने से है। या तो स्त्री की तरफ भागो, या स्त्री की तरफ गुणों की है और निवृत्ति भी गुणों की है। गुण ही बर्त रहे हैं। वे ही | | पीठ करके भागो, लेकिन भागो। अगर भागते रहे, तो कर्तापन बना चल रहे हैं; वे ही रुक जाएंगे। तो जब तक चल रहे हैं, मैं उन्हें | रहेगा। अगर भागना रुका, तो कर्तापन रुक जाएगा। चलता हुआ देखूगा। और जब रुक जाएंगे, तब मैं उन्हें रुका हुआ तो मन ऐसे समय तक भी दौड़ाता रहता है, जब कि दौड़ने में देखूगा। जब तक जीवन है, तब तक मैं जीवन का साक्षी; और जब कोई अर्थ भी नहीं रह जाता है। मृत्यु होगी, तब मैं मृत्यु का साक्षी रहूंगा। कर्ता मैं न बनूंगा। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने चिकित्सक के पास गया। इसलिए निवृत्ति को आप मत सोचना कि वह वास्तविक निवृत्ति | | तब वह बहुत बूढ़ा हो गया था। नब्बे वर्ष उसकी उम्र थी। जीर्ण-शीर्ण है। अगर उसमें कर्ता का भाव है. तो वह प्रवत्ति का ही शीर्षासन उसका शरीर हो गया था। आंखों से ठीक दिखाई भी नहीं पड़ता था। करता हुआ रूप है। वह उसका ही उलटा रूप है। कोई दौड़ रहा था हाथ से लकड़ी टेक-टेक बामुश्किल चल पाता था। कर्ता-भाव से, कोई खड़ा है कर्ता-भाव से; लेकिन कर्ता-भाव अपने चिकित्सक से उसने कहा कि मैं बड़ी दुविधा में और बड़ी मौजूद है। मुश्किल में पड़ा हूं। कुछ करें। चिकित्सक ने पूछा कि तकलीफ बुद्ध ने कहीं कहा है कि न तो मैं प्रवृत्त हूं अब और न निवृत्त; न | क्या है ? नसरुद्दीन ने कहा कि संकोच होता है कहते, लेकिन अपने तो मैं गृहस्थ हूं अब और न संन्यस्त; न तो मैं कुछ पकड़े हूं और चिकित्सक को तो बात कहनी ही पड़ेगी। मैं अभी भी स्त्रियों का न मैं कुछ छोड़ता हूं। पीछा करता हूं। इतना बूढ़ा हो गया हूं, अब यह कब रुकेगा? मैं इसे ठीक से खयाल में ले लें, क्योंकि जीवन के बहुत पहलुओं अभी भी स्त्रियों का पीछा कर रहा हूं। आंखों से दिखाई नहीं पड़ता, पर यही अड़चन है। पैरों से चल नहीं सकता; लेकिन स्त्रियों का पीछा करता हूँ! हम सोचते हैं कि कुछ कर रहे हैं, इसको न करें। हमारा ध्यान उसके चिकित्सक ने कहा, नसरुद्दीन, चिंता मत करो। यह कोई क्रिया पर लगा है, हमारा ध्यान कर्ता पर नहीं है। क्योंकि करने में | बीमारी नहीं है। यह तुम्हारे स्वस्थ होने का प्रतीक है कि अभी भी भी मैं कर्ता हूं; न करने में भी मैं कर्ता हूं। तुम जिंदा हो नब्बे साल में! इससे तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए। सारी चेष्टा द्रष्टा पुरुषों की यह है कि कर्ता का भाव मिट जाए। नसरुद्दीन ने कहा कि वह मेरा दुख भी नहीं है। तुम फिर गलत मैं होने दूं, करूं न। जो हो रहा है, उसे होने दूं; उसमें कुछ छेड़छाड़ | समझे। तकलीफ यह है कि मैं स्त्रियों का पीछा तो करता हूं, लेकिन भी न करूं। जहां कर्म जा रहे हों, जहां गुण जा रहे हों, उन्हें जाने यह भूल गया हूं कि पीछा क्यों कर रहा हूं। आई चेज वीमेन, बट दूं। मैं उन पर सारी पकड़ छोड़ दूं। आई कांट रिमेंबर व्हाय। तकलीफ मेरी यह है कि मुझे अब याद इसीलिए संतत्व अति कठिन हो जाता है। साधुता कठिन नहीं नहीं पड़ता कि मैं किसलिए पीछा कर रहा हूं। और अगर स्त्री को है। क्योंकि साधुता निवृत्ति साधती है। वह प्रवृत्ति के विपरीत है। | पकड़ भी लिया, तो करूंगा क्या! यह मुझे याद नहीं रहा है। वह गृहस्थ के विपरीत है। वहां कुछ करने को शेष है, विपरीत करने __जिंदगी में आपकी बहुत-सी क्रियाएं एक न एक दिन इसी जगह को शेष है। कोई हिंसा कर रहा है, आप अहिंसा कर रहे हैं। कोई | पहुंच जाती हैं, जब आप करते रहते हैं, और अर्थ भी खो जाता है, धन इकट्ठा कर रहा है, आप त्याग कर रहे हैं। कोई महल बना रहा स्मृति भी खो जाती है कि क्यों कर रहे हैं। लेकिन पुराना मोमेंटम है, आप झोपड़े की तरफ जा रहे हैं। कोई शहर की तरफ आ रहा है, गति है। पहले दौड़ता रहा है, दौड़ता रहा है। अब दौड़ने का है, आप जंगल की तरफ जा रहे हैं। वहां कुछ काम शेष है। | अर्थ खो गया; मंजिल भी खो गई; अब प्रयोजन भी न रहा। लेकिन मन को काम चाहिए। अगर धन इकट्ठा करना बंद कर दें, तो | पुरानी आदत है, दौड़े चला जा रहा है। मन कहेगा, बांटना शुरू करो। लेकिन कुछ करो। करते रहो, तो शरीर के साथ, शरीर के गुणों के साथ यही घटना घटती है। मन जिंदा रहेगा। इसलिए मन तत्काल ही विपरीत क्रियाएं पकड़ा | रस्सी जल भी जाती है, तो उसकी अकड़ शेष रह जाती है। जली देता है। | हुई, राख पड़ी हुई लकड़ी में भी उसकी पुरानी अकड़ का ढंग तो 136 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व * बना ही रहता है। | कहते हैं, यह मैं हूं! कितना सुंदर हूं! कितना स्वस्थ हूं! अब आप जाग भी जाते हैं, होश से भी भर जाते हैं, तो भी गुणों __ आपके शरीर में जो प्रकृति काम कर रही है, वह जड़ है, लेकिन की पुरानी रेखाएं चारों तरफ बनी रहती हैं। और उनमें पुरानी गति | दर्पण की तरह है। उसमें आप अपना प्रतिबिंब पकड़ते हैं। और का वेग है, वे चलती रहती हैं। फर्क यह पड़ जाता है कि अब आप | दर्पण में तो आपको पता चलता है कि प्रतिबिंब है, लेकिन अगर उनको नया वेग नहीं देते। यह क्रांतिकारी मामला है। यह छोटी | दर्पण सदा ही आपके साथ जुड़ा रहे; उठे, बैठे, कुछ भी करें, दर्पण घटना नहीं है। साथ ही हो; सोएं, कहीं भी जाएं, दर्पण साथ ही हो; तो आपको आप उनको नया वेग नहीं देते। आप उनमें नया रस नहीं लेते। | यह भूल जाएगा कि दर्पण में जो दिखाई पड़ रहा है, वह मेरा अब वे चलती भी हैं, तो अपने अतीत के कारण। और अतीत की | | प्रतिबिंब है। आपको लगने लगेगा, वह मैं हूं। शक्ति की सीमा है। अगर आप रोज वेग न दें, तो आज नहीं कल | __ यही घटना घट रही है। आप अपने प्रकृति के गुणों में अपने पुरानी शक्ति चुक जाएगी। अगर आप रोज शक्ति न दें...। | प्रतिबिंब को पा रहे हैं। और प्रतिबिंब को सदा पा रहे हैं। एक क्षण __ आप पेट्रोल भरकर गाड़ी को चला रहे हैं। जितना पेट्रोल भरा को भी वह प्रतिबिंब हटता नहीं वहां से। निरंतर उस प्रतिबिंब को पाने है, उतना चक जाएगा और गाड़ी रुक जाएगी। रोज पेट्रोल डालते के कारण एक भी क्षण उसका अभाव नहीं होता। इस सतत चोट के चले जाते हैं, तो फिर चुकने का कोई अंत नहीं आता। आपने तय | कारण यह भाव निर्मित होता है कि यह मैं हूं। यह भाव इसलिए हो भी कर लिया कि अब पेट्रोल नहीं डालेंगे, तो पुराना पेट्रोल थोड़ी | पाता है कि चेतना समर्थ है सत्य को जानने में। चेतना चूंकि समर्थ दूर काम देगा; सौ-पचास मील आप चल सकते हैं। | है सत्य को जानने में, इसलिए चेतना समर्थ है भ्रांत होने में। बुद्ध को चालीस वर्ष में ज्ञान हो गया, लेकिन जन्मों-जन्मों में | हमारे सभी सामर्थ्य दोहरे होते हैं। आप जिंदा हैं, क्योंकि आप जो ईंधन इकट्ठा किया है, वह चालीस वर्ष तक शरीर को और चला | मरने में समर्थ हैं। आप स्वस्थ हैं, क्योंकि आप बीमार होने में समर्थ गया। उस चालीस वर्ष में शरीर अपने गुणों में बर्तेगा, बुद्ध सिर्फ हैं। आपसे ठीक हो सकता है, क्योंकि आप गलत करने में समर्थ देखने वाले हैं। | हैं। इसे ठीक से समझ लें। ---- द्रष्टा और भोक्ता, द्रष्टा और कर्ता, इसके भेद को खयाल में ले | __ हमारी सारी सामर्थ्य दोहरी है। अगर विपरीत हम न कर सकते लें, तो अड़चन नहीं रह जाएगी। अगर आप कर्ता हो जाते हैं, | | हों, तो सामर्थ्य है ही नहीं। जैसे किसी आदमी को हम कहें कि तुम भोक्ता हो जाते हैं, तो आप नया वेग दे रहे हैं। आपने ईंधन डालना ठीक करने के हकदार हो, लेकिन गलत करने की तुम्हें स्वतंत्रता शुरू कर दिया। अगर आप सिर्फ द्रष्टा रहते हैं, तो नया वेग नहीं नहीं है। तुम्हें सिर्फ ठीक करने की स्वतंत्रता है। तो स्वतंत्रता समाप्त दे रहे हैं। पुराने वेग की सीमा है, वह कट जाएगी। और जिस दिन हो गई। स्वतंत्रता का अर्थ ही यह है कि गलत करने की भी स्वतंत्रता पुराना वेग चुक जाएगा, शरीर गिर जाएगा; गुण वापस प्रकृति में है। तभी ठीक करने की स्वतंत्रता का कोई अर्थ है। मिल जाएंगे, और आप सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में। चेतना स्वतंत्र है। स्वतंत्रता चेतना का गुण है। वह उसका | स्वभाव है। स्वतंत्रता का अर्थ है कि दोनों तरफ जाने का उपाय है। मैं भ्रांति भी कर सकता हूं। मैं गलत भी कर सकता हूं। और गलत दूसरा प्रश्नः जड़ त्रिगुणों से चैतन्य साक्षी का तादात्म्य | कर सकता हूं, इसीलिए ठीक को खोजने की सुविधा है। कैसे संभव हो पाता है, यह समझ में नहीं आता! | ये दो उपाय हैं, या तो मैं अपने को जान लूं, जो मैं हूं; यह सत्य का जानना होगा। और या मैं अपने को उससे जोड़ लूं, जो मैं नहीं हं: यह असत्य के साथ एक हो जाने का मार्ग होगा। ये दोनों मार्ग = र्पण में आप अपना चेहरा देखते हैं। दर्पण जड़ है, | खुले हैं। १ लेकिन आपके चेहरे का प्रतिबिंब बनाता है। चेहरा | ___ सभी का मन होता है कि यह स्वतंत्रता खतरनाक है। यह न देखकर आप खुश होते हैं और आप कहते हैं, यह मैं | | होती, तो अच्छा था। लेकिन आपको पता नहीं कि आप क्या सोच हूं। वह जो दर्पण में आपको दिखाई पड़ रहा है, उसे देखकर आप रहे हैं। आपको पता नहीं है, आप क्या मांग रहे हैं। 137 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * मनमोल हर आदमी सोचता है कि मैं सदा ही स्वस्थ होता और कभी | है। जिसे हम खो ही नहीं सकते, वह हमारे सिर पर बोझ हो जाएगा। बीमार न होता, तो बहुत अच्छा। लेकिन आपको पता नहीं। आप ___ अगर परमात्मा कुछ ऐसा हो कि जिसे आप खो ही न सकें, तो जो मांग रहे हैं, वह नासमझी से भरा हुआ है। अगर आप कभी भी आप जितने परमात्मा से ऊब जाएंगे, उतने किसी चीज से नहीं। बीमार न होते, तो आपको स्वास्थ्य का कोई पता ही नहीं चलता। परमात्मा से ऊबने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि क्षण में आप उसे और अगर आप दुखी न हो सकते होते, तो सुख की कोई प्रतीति | | खो सकते हैं। और जिस दिन आप संसार से ऊब जाएं, उसी क्षण नहीं हो सकती। कैसे होती सुख की प्रतीति? और सत्य अगर | परमात्मा में लीन वापस हो सकते हैं। आपको मिला ही होता हाथ में और असत्य की तरफ जाने का कोई | अगर इस बात को ठीक से समझ लें, तो जीवन की बहुत-सी मार्ग न होता, तो वह सत्य दो कौड़ी का होता, उसका कोई मूल्य समस्याएं साफ हो जाएंगी। आपको कभी पता नहीं चलता। सत्य का मूल्य है, क्योंकि हम उसे | ___ पहला बुनियादी सिद्धांत है कि मनुष्य की आत्मा स्वतंत्रता है, खो सकते हैं | परम स्वातंत्र्य है, टोटल फ्रीडम। यह जो परम स्वातंत्र्य है चेतना ___ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जगत में प्रेम की संभावना है. क्योंकि का, इसको ही हर है। जो इसे जान लेता है, वह मुक्त प्रेम खो सकता है। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस दिन हम । है। जो इसे नहीं जानता, वह बंधा हुआ है। . आदमी को अमर कर लेंगे और आदमी की मृत्यु बंद हो जाएगी, लेकिन वह बंधा इसीलिए है कि वह बंधना चाहता है। और तब उसी दिन जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, सब खो जाएगा। सब तक बंधा रहेगा, जब तक बंधन इतना दुख न देने लगे कि उसे महत्वपूर्ण मृत्यु पर टिका है। तोड़ने का भाव न आ जाए, उससे छूटने का भाव न आ जाए, उससे __ आप प्रेम कर पाते हैं, क्योंकि जिसे आप प्रेम करते हैं, वह कल उठने का भाव न आ जाए। मर सकता है। अगर आपको पता हो कि शाश्वत है सब, न कोई | और इस जगत में कोई भी घटना असमय नहीं घटती: अपने मर रहा है, न कोई मरने का सवाल है, प्रेम तिरोहित हो जाएगा। | समय पर घटेगी। समय का मतलब यह है कि जब आप पक मृत्यु के बिना प्रेम का कोई उपाय नहीं। मृत्यु के बिना मित्रता व्यर्थ | | जाएंगे, तब घटेगी। जब फल पक जाएगा, तो गिर जाएगा। जब हो जाएगी। मृत्यु है, इसलिए मित्रता में इतनी सार्थकता है। मृत्यु न तक कच्चा है, तब तक लटका रहेगा। जिस दिन आपका दख भी होगी, तो जीवन की सारी जिन चीजों को हम मूल्य दे रहे हैं, कोई पक जाएगा संसार के साथ, उस दिन आप तत्क्षण टूट जाएंगे और मूल्य नहीं है। विपरीत से मूल्य पैदा होता है। परमात्मा में गिर जाएंगे। __इसलिए सुबह जब फूल खिलता है, उसका सौंदर्य सिर्फ खिलने | __ अगर आप अटके हैं, तो इसलिए नहीं कि आपकी साधना में में ही नहीं है, इस बात में भी छिपा है कि सांझ वह मुरझा जाएगा। | कोई कमी है। आप अटके हैं इसलिए कि आप दुख को भी पूरा नहीं और अगर फूल कभी न मुाए, तो वह प्लास्टिक का फूल हो भोग रहे हैं। आप पकने के भी पूरे उपाय नहीं होने दे रहे हैं। जाए। और अगर बिलकुल ही–वह प्लास्टिक का फूल भी नष्ट समझ लें कि एक फल जो धूप में पकता हो, वह फल अपने को होता है-अगर फूल सदा के लिए हो जाए, तो उसकी तरफ देखने | | छाया में छिपाए हुए है कि धूप न लग जाए। और फिर वह सोच का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। | रहा है, मैं कच्चा क्यों हूं! आप ऐसे ही फल हैं, जो सब तरफ से जीवन की सारी रहस्यमयता विपरीत पर निर्भर है। सत्य का | | अपने को छिपा भी रहे हैं, बचा भी रहे हैं। उससे ही आप बचा रहे मूल्य है, क्योंकि असत्य में उतरने का उपाय है। और परमात्मा में हैं, जिसकी पीड़ा के कारण ही आप मुक्त हो सकेंगे। जाने का रस है, क्योंकि संसार में आने का दुख है। ___ इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, संसार में पूरे जाओ, ताकि तुम लोग मुझसे पूछते हैं, आखिर परमात्मा संसार बना ही क्यों रहा। | संसार के बाहर आ सको। बाहर जाने का एक ही उपाय है कि तुम है? संसार है ही क्यों? पूरे भीतर चले जाओ; वहां कुछ और जानने को शेष न रह जाए। अगर संसार न हो, तो परमात्मा का कोई भी रस नहीं है। दुख से छूटने की एक ही व्यवस्था है, एक ही विधि है। बाकी परमात्मा अपने से विपरीत को पैदा कर रहा है, ताकि आप उसे खो सब विधियां बहाने हैं। और वह विधि यह है कि तुम दुख को पूरा सकें और पा सकें। और जिसे हम खो सकते हैं. उसे पाने का आनंद | | भोग लो। तुम उसमें पक जाओ। तुम अपने ही आप गिर जाओगे। 138 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व * कृष्ण यही कह रहे हैं कि अर्जुन, तू व्यर्थ ही परेशान हो रहा है। उन मित्र से मैंने पूछा कि तकलीफ क्या है ? किस वजह से गुण अपनी गति से चल रहे हैं। गुण अपनी गति से पक रहे हैं। और अशांत हैं? तो उन्होंने कहा, अशांति का कारण यह है कि मेरा जहां से तू भागना चाहता है, वहां से भागकर तू कभी मुक्त न हो लड़का मेरी मानता नहीं। सकेगा। क्योंकि तू छाया खोज रहा है। इस युद्ध से भागकर तू बचा | किसका लड़का किसकी मानता है? इसमें लड़का कारण नहीं लेगा अपने को उस महापीड़ा से गुजरने से, जो कि मुक्ति का कारण | है। इसमें आप मनाना क्यों चाहते हैं? लड़का अपना जीवन बन जाएगी। तू इस युद्ध से गुजर जा। तू इस युद्ध को हो जाने दे। | जीएगा। मैंने उनसे पूछा, आपने अपने बाप की मानी थी? तू रोक मत। तू डर भी मत। तू संकोच भी मत ले। तू निर्भय भाव ___ कौन अपने बाप की मानता है? लड़का और रास्तों पर चलेगा, से इसमें प्रवेश कर जा। और जो घटना तेरे चारों तरफ इकट्ठी हो | जिन पर बाप कभी नहीं चला। लड़का और दूसरी दुनिया में जीएगा, गई है, उसको उसकी पूर्णता में तेरे भीतर बिंध जाने दे। यह आग | जिसमें बाप कभी नहीं जीया। लड़के और बाप के समय में भेद है, पूरी जल उठे। तू इसमें पूरी तरह राख हो जा। उस राख से ही तेरे | उनके मार्गों में भेद होगा। उनकी परिस्थितियों में भेद है, उनके नए जीवन का अंकुरण होगा। उस राख से ही तू अमृत को जानने | विचारों में भेद होगा। लड़का अगर जिंदा है, तो बाप से भिन्न में समर्थ हो पाएगा। चलेगा। लड़का अगर मुर्दा है, तो बाप की मानकर चलेगा। ___ जो भी, जो भी जीवन में है, वह अकारण नहीं है। दुख है, संसार | __ अब बाप का दुख यह है कि लड़का अगर मुर्दा है, तो वह है, बंधन हैं, वे अकारण नहीं हैं। उसकी उपादेयता है। और बड़ी | | परेशान है। अगर लड़का जिंदा है, तो वह परेशान है। लड़का मुर्दा उपादेयता यह है कि वह अपने से विपरीत की तरफ इशारा करता है। | है, तो वह समझता है कि न होने के बराबर है। आपकी चेतना बंध सकती है, क्योंकि आपकी चेतना स्वतंत्र हो __ आपको खयाल में नहीं है, अगर लड़का बिलकुल आप जैसा सकती है। और यह आपके हाथ में है। और जब मैं कहता हूं, कहें, वैसा ही करे, तो भी आप दुखी हो जाएंगे। आप कहें बैठो, आपके हाथ में है, तब आपको ऐसा लगता है, तो फिर मैं इसी वक्त तो वह बैठ जाए। आप कहें उठो, तो उठ जाए। आप कहें बाएं स्वतंत्र क्यों नहीं हो जाता? आप सोचते ही हैं कि आप इसी वक्त | घूमो, तो बाएं घूम जाए। आप जो कहें उसको रत्ती-रत्ती वैसा ही स्वतंत्र क्यों नहीं हो जाते! लेकिन उपाय आप सब कर रहे हैं कि करे, तो आप सिर पीट लेंगे। आप कहेंगे, यह लड़का क्या हुआ, आप बंधे रहें। एक व्यर्थता है। इससे तो होता न होता बराबर है। इसके होने का एक मित्र मेरे पास आए। कहते थे, मन बड़ा अशांत है; शांति | | कोई अर्थ ही नहीं है। होने का पता ही भिन्नता से चलता है। का कोई उपाय बताएं। मैंने उनसे पूछा कि शांति की फिक्र ही न | __ तो आप इसलिए दुखी नहीं हैं, मैंने उनसे कहा कि लड़का मानता करें, पहले मुझे यह बताएं कि अशांत क्यों हैं? क्योंकि मैं शांति का | | नहीं है। आप मनाना क्यों चाहते हैं कि माने? आपका दुख आपके उपाय बताऊं और आप अशांति का आयोजन किए चले जाएं, तो | | कारण आ रहा है। आप अपने अहंकार को थोपना चाहते हैं। और कुछ हल न होगा। और उससे और असुविधा होगी। वैसी हालत | | मेरे पास आप शांति की तलाश करने आए हैं। लड़के को अपने हो जाएगी कि एक आदमी कार में एक्सीलरेटर भी दबा रहा है और मार्ग पर चलने दें, अशांति फिर कहां है? ब्रेक भी लगा रहा है। | तब उनका घाव छू गया। तब उन्होंने कहा, आप क्या कह रहे __इसीलिए कार में इंतजाम करना पड़ा-क्योंकि आदमी का | | हैं! अगर उसको मार्ग पर चलने दें, तो सब बर्बाद कर देगा। सब स्वभाव परिचित है हमें-कि उसी पैर से एक्सीलरेटर दबाएं और | धन मिटा डालेगा। उसी से ब्रेक। क्योंकि आपसे डर है कि आप दोनों काम एक साथ | ___ मैंने उनको पूछा, आप कब तक धन की सुरक्षा करिएगा? कल कर सकते हैं। आप एक साथ दोनों काम कर सकते हैं, एक्सीलरेटर | | आप समाप्त हो जाएंगे और धन मिटेगा। आपका लड़का मिटाए, भी दबा दें और ब्रेक भी दबा दें। तो कठिनाई खड़ी हो जाए। तो ब्रेक | | कोई और मिटाए; धन मिटेगा। धन मिटने को है। तो आपका दुख दबाने के लिए एक्सीलरेटर से पैर हट आए। लड़के से नहीं आ रहा है। आपका दुख धन पर जो आपकी पकड़ लेकिन मन के साथ हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। मन के साथ | है, उससे आ रहा है। आप मरेंगे दुखी। क्योंकि मरते वक्त आपको हमारी हालत ऐसी है कि हम दोनों काम एक साथ करना चाहते हैं। लगेगा, अब धन का क्या होगा! कोई न कोई मिटाएगा। | 139 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* इसलिए धनी न सुख से जी पाता है, न सुख से मर पाता है। | दिखाई पड़ रहे हैं, तो शरीर के साथ आप पकड़ कैसे छोड़ सकते मरते वक्त यह भय लगता है कि मैंने जिंदगीभर कमाया, अब | हैं। क्योंकि इसके द्वारा ही वे मिलते हैं। अंत तक पकड़े रहते हैं। इसको कोई मिटा देगा। और कोई न कोई मिटाएगा आखिर।। | एक बड़ी महत्वपूर्ण कहानी है। अमेरिकी अभिनेत्री मर्लिन मनरो इस जगत में जो भी बनाया जाता है, वह मिटता है। इस जगत | | मरी, तो एक कहानी प्रचलित हो गई कि जब वह स्वर्ग के द्वार पर में कोई भी ऐसी चीज नहीं, जो न मिटे। आपका धन अपवाद नहीं | पहुंची, तो सेंट पीटर, जो स्वर्ग के द्वारपाल हैं, ईसाइयों के स्वर्ग के हो सकता। तो आप दुखी इसलिए हो रहे हैं कि आपका धन कोई द्वारपाल हैं, उन्होंने मनरो को देखा। वह अति सुंदर उसकी काया। न मिटा दे; अशांत इसलिए हो रहे हैं। और शांति की कोई तरकीब सेंट पीटर ने कहा, एक नियम है स्वर्ग में प्रवेश का। स्वर्ग के खोजते हैं। | द्वार के बाहर एक छोटा-सा पुल है, उस पुल पर से गुजरना पड़ता मान लें कि धन तो मिटने वाली चीज है; मिटेगी। और लड़के | है। उस पुल के नीचे अनंत खाई है। उस खाई की ही गहराई में नरक अपने मार्गों पर जाएंगे। और पिता लड़कों को पैदा करता है, | है। उस पुल पर से गुजरते समय अगर एक भी बुरा विचार आ इसलिए उनके जीवन का मालिक नहीं है। फिर मुझे कहें कि दुख | जाए-बुरे विचार का मतलब, शरीर से बंधा हुआ विचार आ कहां है। . जाए–तो तत्क्षण व्यक्ति पुल से नीचे गिर जाता है और नरक में अशांति के कारण खो जाएं, तो आदमी शांत हो जाता है। शांति प्रवेश हो जाता है। के कारण खोजने की जरूरत ही नहीं है। शांति मनुष्य का स्वभाव मनरो और सेंट पीटर दोनों उस पुल से चले। और घटना यह घटी है। अशांति अर्जित करनी पड़ती है। हम अशांति अर्जित करते चले | कि दो-तीन कदम के बाद सेंट पीटर नीचे गिर गए। मनरो जैसी सुंदर जाते हैं और शांति की पूछताछ शुरू कर देते हैं। स्त्री को चलते देखकर कुछ खयाल सेंट पीटर को आ गया होगा! अशांति के साथ जो इनवेस्टमेंट है, वह भी हम छोड़ना नहीं | स्वर्ग के द्वार पर खड़े होकर भी अगर शरीर से सुख लेने का चाहते। जो लाभ है, वह भी हम लेना चाहते हैं। और शांति के साथ | जरा-सा भी खयाल आ जाए, तो तादात्म्य हो गया। जिस चीज से जो लाभ मिल सकता है, वह भी हम लेना चाहते हैं। और दोनों | हमें सुख लेने का खयाल होता है, उसी से तादात्म्य हो जाता है। हाथ लड्डुओं का कोई भी उपाय नहीं है। शरीर से सुख मिल सकता है, जब तक यह खयाल है, तब तक यह जो संसार के साथ हमारा जोड़ है, गुणों के साथ, शरीर के | आप जुड़े रहेंगे। जिस दिन आपको यह समझ में आ जाएगा कि साथ, हमारा तादात्म्य है, उसमें भी हमें लाभ दिखाई पड़ता है, | शरीर से मिलने वाला हर सुख केवल दुख का ही एक रूप है; जिस इसलिए है। हमने जानकर वह बनाया हुआ है। हम अपने को | | दिन आप यह खोज लेंगे कि शरीर से मिलने वाले हर सुख के पीछे समझाए हुए हैं कि ऐसा है। फिर संतों की बातें सुनते हैं, उससे भी | दुख ही छिपा है; सुख केवल ऊपर की पर्त है; सिर्फ कड़वी जहर लोभ जगता है कि हमको भी यह गुणातीत अवस्था कैसे पैदा हो | | की गोली के ऊपर लगाई गई शक्कर से ज्यादा नहीं; उसी दिन जाए! तो हम पूछना शुरू करते हैं, क्या करें? कैसे इससे छूटें? | तादात्म्य टूटना शुरू हो जाएगा। मजा करीब-करीब ऐसा है कि जिसको आप पकड़े हुए हैं, आप यह पूछना कि कैसे जड़ त्रिगुणों से चैतन्य का तादात्म्य संभव पूछते हैं, इससे कैसे छूटें? आप पकड़े हुए हैं, यह खयाल में आ हो पाता है? जाए, तो छूटने के लिए कुछ भी न करना होगा, सिर्फ पकड़ छोड़ __इसीलिए संभव हो पाता है कि आप स्वतंत्र हैं। चाहें तो तादात्म्य देनी होगी। बना सकते हैं, चाहें तो हटा सकते हैं। जब तक आप सोचते हैं कि इस शरीर के साथ आप अपने को एक मान लेते हैं। आप पकड़े | सुख बाहर से मिल सकता है, तब तक यह तादात्म्य नहीं छूटेगा। हुए हैं। आप इस शरीर को सुंदर मानते हैं। इस शरीर के साथ भोग | जिस दिन आप जानेंगे, सुख मेरे भीतर है, मेरा स्वभाव है, उस दिन की आशा है। इस शरीर से आपको सुख मिलते हैं, चाहे वे कोई भी | यह तादात्म्य छूट जाएगा। सुख हों—चाहे संभोग का सुख हो, चाहे स्वादिष्ट भोजन का सुख | अभी तो हम परमात्मा की भी खोज करें, तो भी शरीर से ही हो, चाहे संगीत का सुख हो—इस शरीर के माध्यम से आपको करनी पड़ती है। अभी तो हम पूछते हैं, परमात्मा को भी खोजें, तो मिलते हैं। वे सब सुख हैं। अगर वे सुख आपको अभी भी सुख | | कैसा आसन लगाएं? किस भांति खड़े हों? कैसे पूजा करें? कैसे 140 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व * पाठ करें? कहां जाएं-हिमालय जाएं, कि मक्का, कि मदीना, कि ___ यह शब्द समझ लेने जैसा है। सच्चिदानंद, सत चित आनंद, काशी, कि जेरुसलम-कहां जाएं? कैसा भोजन करें? कैसे बैठे? | | तीन बड़े महत्वपूर्ण शब्दों से बना है। कैसे उठे? ताकि परमात्मा को पा लें! सत का अर्थ होता है, जिसकी ही एकमात्र सत्ता है। बाकी सब हमारी शरीर के साथ जोड़ की स्थिति इतनी गहन हो गई है कि चीजें स्वप्नवत हैं। वस्तुतः जो सत्य है, जिसका एक्झिस्टेंस है, वह हम परमात्मा को भी शरीर से ही खोजना चाहते हैं। हमें खयाल ही सत। बाकी आप जो चारों तरफ देख रहे हैं, वह कोई भी वास्तविक नहीं है कि शरीर के अतिरिक्त भी हमारा कोई होना है। और यह नहीं है। सब बहता हुआ प्रवाह है; स्वप्न की लंबी एक धारा है। खयाल भी तभी आएगा, जब शरीर से हमें सब तरफ दुख दिखाई कल्पना से ज्यादा उसका मूल्य नहीं है। और आप देख भी नहीं पाते देने लगे। कि वहां चीजें बदल जा रही हैं। वहां किसी चीज की सत्ता नहीं है। बुद्ध ने निरंतर, सुबह से सांझ, एक ही बात कही है अपने | | परिवर्तन ही वहां सब कुछ है। जिसकी वास्तविक सत्ता है, वह भिक्षुओं को कि जीवन दुख है। और सिर्फ इसलिए कही है, ताकि कभी रूपांतरित नहीं होगा। तुम परम जीवन को जान सको। जब तुम्हें यहां दुख ही दुख दिखाई | ___ भारतीय मनीषियों का सत्य का एक लक्षण है, और वह यह कि देने लगे, तो इस दुख से छूटने में जरा भी बाधा नहीं रह जाएगी। | जो कभी रूपांतरित न हो; जो सदा वही रहे, जो है। जो कभी बदले जहां दुख है, वहां से मन हटने लगता है। और जहां सुख है, | | न, जिसके स्वभाव में कोई परिवर्तन न हो; जिसके स्वभाव में वहां मन की सहज गति है। थिरता हो, अनंत थिरता हो, वही सत्य है। बाकी सब चीजें जो बदल जाती हैं, वे सत्य नहीं हैं। बदलने का मतलब ही यह है कि उनके भीतर कोई सब्स्टेंस, कोई सत्व नहीं है। ऊपर-ऊपर की चीजें तीसरा प्रश्नः कृष्ण ने कई जगह सच्चिदानंदघन हैं, बदलती चली जाती हैं। परमात्मा शब्द को दोहराया है। यह सच्चिदानंदघन | जो सदा अपरिवर्तित खड़ा है! आपके भीतर एक ऐसा केंद्र है, परमात्मा क्या है? जो सदा अपरिवर्तित खड़ा है। आप बच्चे थे, तब भी वह वैसा ही था। आप जवान हो गए, तब भी वह वैसा ही है। वह जवान नहीं हुआ; आपकी देह ही जवान हुई। यह जवानी गुणों का वर्तन है। 1 प! आपकी तरफ इशारा कर रहे हैं कृष्ण। वह जो | | कल आप बूढ़े हो जाएंगे, तब भी वह बूढ़ा नहीं होगा। यह बुढ़ापा 11 चैतन्य है आपका, जहां से आप मुझे सुन रहे हैं; जहां | | भी आपके शरीर के गुणों का वर्तन होगा। से आप मुझे देख रहे हैं; वह जो आपके भीतर बैठी | एक दिन आप पैदा हुए, तब वह पैदा नहीं हुआ। और एक दिन हुई जगह है, खाली जगह है, शून्य है। आप मरेंगे, तब वह मरेगा नहीं। वह सदा वही है। वह जन्म के ___ एक तो मैं हूं यहां, बोल रहा हूं। और एक आप हैं, जो सुन रहे | | पहले भी ऐसा ही था; और मृत्यु के बाद भी ऐसा ही होगा। वह हैं। आपके कान नहीं सुन रहे हैं। कान तो केवल शब्दों को वहां | | आधार है। उस पर सब चीजें आती और जाती हैं। लेकिन वह स्वयं तक ले जा रहे हैं, जहां आप सुन रहे हैं। एक तो मैं हूं, जो यहां बैठा निरंतर वैसा का वैसा बना है। है। और आप मुझे देख रहे हैं। आपकी आंखें मुझे नहीं देख रही | उस मूल आधार को कहते हैं सत। हैं। आंखें तो केवल मेरे प्रतिबिंब को वहां तक ले जा रही हैं, भीतर दूसरा शब्द है, चित। वह मूल आधार केवल है ही नहीं, बल्कि आपके, जहां आप देख रहे हैं। चेतन है, होश से भरा है। होश उसका लक्षण है। उसे कुछ भी वह जो भीतर छिपा है सारी इंद्रियों के बीच में; वह जो केंद्र है | | उपाय करके बेहोश नहीं किया जा सकता। जब आप बेहोश हो जाते सारी इंद्रियों के बीच में; जो स्वयं कोई इंद्रिय नहीं है। वह जो चेतना | हैं, तब भी वह बेहोश नहीं होता। सिर्फ आपके गुण बेहोश हो जाते का केंद्र है भीतर, जहां से सारा होश है, जिसके कारण इंद्रियां चारों हैं। जब आपको कोई शराब पिला देता है, तो चित में तो शराब तरफ देख रही हैं, पहचान रही हैं, उसकी तरफ इशारा है। वह | | डाली नहीं जा सकती। शराब तो शरीर में ही डाली जाती है। जब सच्चिदानंदघन परमात्मा है। आपको मार्फिया दिया जा रहा है, तब भी; क्लोरोफार्म सुंघाया जा 141 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 मैं रहा है, तब भी; जो भी हो रहा है, वह शरीर में हो रहा है; शरीर अभी कुछ प्रयोग तो ऐसे हुए हैं, जो कि बिलकुल अविश्वसनीय के गुणधर्मों में हो रहा है। वह जो भीतर चित है, उसको बेहोश करने | । हैं। जिन पर कि आदमी के बस की बात ही समझ में नहीं आती। का कोई उपाय नहीं है। हारवर्ड यूनिवर्सिटी में एक मरीज पर वे हिप्नोसिस का प्रयोग कर तांत्रिकों में तो बड़ी पुरानी साधनाएं हैं, जिनमें जहर का, शराब | रहे थे। उसे बेहोश करके कहा गया कि उसके खून में ब्लड शुगर का, सब तरह के नशे-गांजा, भांग, अफीम-सबका उपयोग | बढ़ रही है-सम्मोहित करके। जब उसे सम्मोहित किया गया, तो कया जाता है। और उपयोग इसलिए किया जाता है. ताकि इस बात उसका खन लिया गया। उसकी जांच की गई। उसकी नार्मल ब्लड की परख आ जाए कि कैसे ही नशे का तत्व हो, कैसा ही मादक शुगर है। द्रव्य हो, वह केवल शरीर को छूता है, मुझे नहीं। और तब तक ब्लड शुगर बड़ा मामला है। जब तक उसको बहुत शक्कर न तांत्रिक नहीं मानता कि आप स्थितप्रज्ञ हुए, गुणातीत हुए, जब तक | खिलाई जाए, ग्लूकोज का इंजेक्शन न दिया जाए, तब तक उसके कि आपको सब तरह के जहर न दे दिए जाएं, और आप होश में ब्लड में शुगर जा नहीं सकती। न उसे ग्लूकोज दिया जा रहा है, न न बने रहें। अगर आप होश खो दें, तो वह मानता है, अभी आप शक्कर दी जा रही है, न कुछ। सिर्फ सजेशन दिया जा रहा है, गुणातीत नहीं हुए। होश बना ही रहे, भीतर के होश की धारा न टूटे। सुझाव, कि तेरे खून में शुगर बढ़ रही है। आपके भीतर के होश की धारा भी नहीं टूटती। किसी के भीतर और उसके खून में शुगर बढ़ी। और थोड़ी-बहुत नहीं, पांच सौ की धारा नहीं टूटती। लेकिन आप भीतर की धारा से परिचित ही | तक उसके खून में शुगर बढ़ी। सिर्फ सुझाव से! खून में कुछ डाला नहीं हैं। भीतर तो कोई जागा ही रहता है। वह उसका स्वभाव है। नहीं गया है। जैसे-जैसे सुझाव गहन होने लगा, वैसे-वैसे खून में चितता, कांशसनेस, उसका स्वभाव है। शुगर की मात्रा बढ़ती चली गई। लेकिन आप अपने को माने हुए हैं शरीर। इसलिए जब शरीर | इस चैतन्य की एक क्षमता है कि यह जो भी मान ले, वैसी घटना बेहोश होता है, तो आप समझते हैं, आप बेहोश हो गए। यह घटनी शुरू हो जाएगी। यह हमारी मान्यता है कि मैं शरीर हूं, आपकी मान्यता है। इस मान्यता के कारण आप समझ लेते हैं कि इसलिए हम शरीर हो गए हैं। बेहोश हो गए। आप बेहोश होते नहीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन बच्चों को बचपन से कहा जाए, अगर आप हिप्नोसिस से परिचित हैं, तो आपको पता होगा कि तुम मूढ़ हो, वे मूढ़ हो जाएंगे। न मालूम सैकड़ों बच्चों को हम हिप्नोसिस का सारा खेल इतना ही है कि हिप्नोटाइजर जो आपसे | अपने हाथ से मूढ़ बना देते हैं। लाखों बच्चे इसलिए मूढ़ रह जाते कहे, आप उसको मान लें। अगर आप मान लें, तो वैसा ही होना | हैं कि घर में मां-बाप उनको मूढ़ कह रहे हैं; स्कूल में शिक्षक उनको शुरू हो जाएगा। मान्यता तथ्य बन जाती है। मूढ़ कह रहे हैं। उनको बार-बार यह सुझाव मिलता है, और उनको अगर हिप्नोटिस्ट कहता है कि आपके हाथ में उसने एक अंगारा | बात जंच जाती है। जब सभी कह रहे हैं, तो बात ठीक होगी ही। रख दिया है...। आप आंख बंद किए पड़े हैं और आपके हाथ में | | यह एक तरह का सम्मोहन है। फिर वे मूढ़ ही रह जाते हैं। उठाकर एक रुपए का सिक्का रख देता है। कहता है, अंगारा रख | जिन बच्चों को बचपन से खयाल मिलता है कि वे बड़े दिया जलता हुआ। आप घबड़ाकर फेंक देंगे रुपया, क्योंकि आप प्रतिभाशाली हैं, टैलेंटेड हैं, गुणवान हैं, उनमें वैसी वृत्ति पैदा होने मान लेते हैं कि अंगारा है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि आप | लगती है। वे जो मानने लगते हैं, वैसे हो जाते हैं। मान्यता आपका न केवल फेंक देते हैं, बल्कि आपके हाथ में फफोला भी आ जाता | जीवन बन जाती है। है; जब कि वहां कोई अंगारा नहीं था। आपके हाथ ने बिलकुल | तो आपको खयाल है कि रात आप सो जाते हैं, इसलिए आपको वही व्यवहार किया, जो आपने मान लिया। लगता है, आप सोए। सिर्फ शरीर सोता है, आप कभी नहीं सोते। हिप्नोसिस पर बड़ा काम पश्चिम में हो रहा है। और उससे एक यह सिर्फ धारणा है आपकी और बचपन से समझाया जा रहा है, बात पता चलती है कि आदमी की चेतना मान लेने से ग्रसित हो | इसलिए आप सो जाते हैं। आपको लगेगा कि सिर्फ धारणा ऐसे जाती है। आपको पानी पिलाया जाए सम्मोहित अवस्था में और | | कैसे हो सकती है! कहा जाए, शराब है। आप बेहोश हो जाएंगे, नशा आ जाएगा। अमेजान में अभी तक आदिवासियों में जब भी स्त्री को बच्चा 142 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व * होगा, तो पति भी रोएगा, छाती पीटेगा, चिल्लाएगा। एक खाट पर तीसरा तत्व है, आनंद। सत चित आनंद। यह तीसरी बात भी पत्नी, एक खाट पर पति! प्रसव-पीड़ा दोनों को होती है। ज्ञानियों की अनुभूत खोज है कि वह जो भीतर छिपा हुआ तत्व है, हजारों साल से यह होता रहा। और जब पहली दफा ईसाई वह सत भी है, चित भी है, और वह परम आनंद भी है। सुख पाने मिशनरी अमेजान पहुंचे, तो उनको विश्वास भी नहीं आया कि यह की कोई जरूरत नहीं है उसको; वह स्वयं आनंद है। और अगर क्या पागलपन है। यह आदमी जरूर बन रहा होगा। क्योंकि हमें आप दुखी हो रहे हैं और सुख की तलाश कर रहे हैं, तो वह आपकी खयाल ही नहीं है कि जब स्त्री को बच्चा पैदा हो रहा है, इससे पति | भ्रांति है। को प्रसव-पीड़ा का क्या संबंध है! मनुष्य का स्वभाव आनंद है। इसलिए जिस दिन हम अपने लेकिन जब जांच-पड़ताल की गई, तो वे बड़े चकित हुए कि | स्वभाव से परिचित हो जाएंगे, सच्चिदानंद से मिलना हो जाएगा। वस्तुतः पीड़ा होती है। पति को पीड़ा होती है। क्योंकि अमेजान में और इस सच्चिदानंद को परमात्मा कहा है। परमात्मा कहीं कोई यह विश्वास है कि बच्चा पति और पत्नी दोनों का कृत्य है। इसलिए | बैठा हुआ व्यक्ति नहीं है, जो जगत को बना रहा है। परमात्मा अकेली पत्नी को क्यों पीड़ा हो! दोनों का हाथ है उसमें, आपके भीतर छिपा हुआ तत्व है, जो आपके भीतर खेल रहा है, आधा-आधा दोनों का बच्चा है, इसलिए दोनों कष्ट पाएंगे जब | आपके जीवन को फैला रहा है। और यह आपका ही हाइड एंड प्रसव होगा। और जांच से पता चला है कि शरीर में वास्तविक पीड़ा सीक है, लुका-छिपौव्वल है। जिस दिन आप सजग हो जाएंगे, होती है। जैसे स्त्री के शरीर में सारा खिंचाव और तनाव होता है, | जिस दिन आप बाहर की दौड़ से थक जाएंगे, ऊब जाएंगे, कहेंगे, वैसे ही पुरुष के शरीर में खिंचाव-तनाव होता है। बंद करो खेल...। अब यह सिर्फ मान्यता की बात है। क्योंकि उनकी धारणा है, जैसे बच्चे नदी की रेत में घर बनाते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं। बुद्ध इसलिए होता है। बहुत बार इस दृष्टांत को लेते रहे हैं कि नदी के किनारे बच्चे घर बना जितने सभ्य मुल्क हैं, वहां स्त्रियों को बच्चा पैदा करने में कष्ट | रहे हैं। रेत के घर हैं, वे कभी भी गिर जाते हैं। कोई बच्चे की लात होता है। सिर्फ सभ्य मुल्कों में! असभ्य मुल्कों में नहीं होता। ठेठ | लग जाती है; कोई बच्चा जोर से खड़ा हो जाता है; वे मकान गिर आदिवासियों में बिलकुल नहीं होता। जाते हैं। तो बड़ा झगड़ा हो जाता है। मार-पीट भी हो जाती है कि तूने बर्मा में ऐसी जातियां हैं. स्त्रियां काम करती रहेंगी खेत में बच्चा मेरा मकान गिरा दिया। इतनी मेहनत से मैंने बनाया था। हो जाएगा। कोई दूसरा भी नहीं है। दाई, और नर्स, और अस्पताल | फिर सांझ होने लगती है, सूरज ढलने लगता है। कोई नदी के का तो कोई सवाल ही नहीं है। बच्चा हो जाएगा, उसको उठाकर वे | किनारे से चिल्लाता है कि बच्चो, घर जाओ। तुम्हारी माताएं तुम्हें टोकरी में रख देंगी और वापस काम पर लग जाएंगी। सांझ को | याद कर रही हैं। वे बच्चे, जिनके घर को जरा चोट लग गई थी, अपने बच्चे को लेकर घर आ जाएंगी। बर्मा के उन जंगलों में | किनारा झड़ गया था, रेत बिखर गई थी, लड़ने को तैयार हो गए खयाल ही नहीं है कि स्त्री को पीड़ा होती है। इसलिए पीड़ा नहीं | थे, वे अपने ही घरों पर कूदकर, घरों को मिटाकर असली घरों की होती। | तरफ भाग जाते हैं। सांझ होने लगी; सूरज ढलने लगा; मां की आप जो कुछ भोग रहे हैं, उसमें अधिक तो आपकी मान्यताएं हैं। | | आवाज आ गई। जिन घरों के लिए लड़े थे, मार-पीट की थी, उन यह जो भीतर छिपा हुआ परमात्मा है, इसका दूसरा लक्षण है | घरों को खुद ही कूदकर मिटा देते हैं। चित। यह कभी बेहोश नहीं हुआ है, और कभी सोया नहीं है। वह बस, ऐसा ही है, बुद्ध कहते थे कि जो भी हम बना रहे हैं अपने उसका स्वभाव नहीं है। इसलिए अगर आप अपने को बेहोश मानते | चारों तरफ, रेत के घर हैं; हमारा खेल है। हैं, नींद में मानते हैं, सम्मोहित मानते हैं, तो वह आपकी मान्यता __ कोई हर्ज भी नहीं है। आप रस ले रहे हैं, बना रहे हैं। आपकी है। मान्यता के अनुसार काम जारी रहेगा। | तकलीफ यह है कि आप पूरा रस भी नहीं ले पाते। पूरा बना भी धर्म की पूरी खोज इतनी ही है कि मान्यताएं सब टूट जाएं और | नहीं पाते। पूरा बना लें, तो मिटाने का भी मजा आ जाए। सांझ को जो सत्य है, वह प्रकट हो जाए। जैसा है वैसा प्रकट हो जाए, और जब मिटाएंगे, तो कुछ मिटाने को भी तो चाहिए। कुछ बना हुआ जो हमने मान रखा है, वह हट जाए। होगा, तो मिटा भी लेंगे। लेकिन कभी बना ही नहीं पाते पूरा और 143 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 सांझ कभी आ नहीं पाती; दोपहर ही बनी रहती है। अधूरा ही अधूरा बना रहता है। संसार में पूरी तरह उतर जाएं; जो भी खेल खेलना है, पूरी तरह खेल लें। खेल खेलते-खेलते ही यह होश आ जाएगा कि अब हु आपको भी कई दफा दिखाई पड़ता है कि अब बहुत हो गया। आपको भी बहुत दफा खयाल में आने लगता है कि यह मैं क्या कर रहा हूं! यह कब तक जारी रखूंगा ! फिर आप अपने को भुला लेते हैं। यह तो खेल छोड़ने की बातें ठीक नहीं हैं। खेल मिटाने का मामला हो जाएगा। और जिंदगी एक व्यवस्था से चल रही है, उसे क्यों तोड़ना ! फिर आप चलाने लगते हैं। ये जो झलकें आपको आती हैं, वे झलकें इसी बात की हैं कि यह खेल वस्तुतः खेल है। और वास्तविक घर कहीं और छिपा है। जब यह बिलकुल ही व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा, ऊब और दुख इसमें घने हो जाएंगे, तब आप अपने पीछे झांक सकेंगे। वह जो पीछे छिपा है, कृष्ण बार-बार उसी को सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। आपकी तरफ ही इशारा है। वह सबके भीतर छिपा है। सबका वही केंद्र है। अब हम सूत्र को लें। और जो निरंतर आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने वाला है; तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है; तथा जो मान और अपमान में सम है एवं जो मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। एक-एक शब्द को समझें । जो निरंतर आत्म-भाव में स्थित हुआ... । जो निरंतर एक ही बात स्मरण रखता है कि मैं हूं अपने भीतर । जो अपनी छवियों के साथ तादात्म्य नहीं जोड़ता; जो दर्पणों में दिखाई पड़ने वाले प्रतिबिंबों से अपने को नहीं जोड़ता; बल्कि जो सदा खयाल रखता है उस होश का, जो भीतर है। और जो सदा याद रखता है कि यह होश ही मैं हूं; मैं हूं यह चैतन्य; और इस चैतन्य को किसी और चीज से नहीं जोड़ता, ऐसी भाव - दशा का नाम आत्म-भाव है। मैं सिर्फ चेतना हूं। और यह चेतना किसी भी चीज को कितना ही प्रतिफलित करे, उससे मैं संबंध न जोडूंगा। यह चेतना कितनी ही किसी चीज में दिखाई पड़े... । रात चांद निकलता है; झील में भी दिखाई पड़ता है। आप झील देखकर अगर उसको चांद समझ लें, तो मुश्किल में पड़ेंगे। अगर डुबकी लगाने लगें पानी में चांद की तलाश में, तो भटक ही जाएंगे। और दुख तो निश्चित होने वाला है; क्योंकि थोड़ी ही हवा की लहर आएगी और चांद टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। तो जहां भी हम जिंदगी को देखते हैं, वहां हर चीज टूट-फूट जाती है। क्योंकि हम प्रतिबिंब में देख रहे हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक रात एक कुएं के पास से गुजर रहा है। रमजान के दिन हैं । और उसने नीचे कुएं में झांककर देखा। वहां चांद का प्रतिबिंब दिखाई पड़ा। गहरा कुआं है। हवा की कोई लहर भी वहां नहीं है, तो चांद बिलकुल साफ दिखाई पड़ रहा है। अकेला था। मरुस्थल का रास्ता था। आस-पास कोई दिखाई भी नहीं पड़ता था। नसरुद्दीन ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। | यह चांद यहां कुएं में उलझा है। और जब तक यह आकाश में दिखाई न पड़े, लोग मर जाएंगे भूखे रह-रहकर। रमजान का महीना | है। इसे बाहर निकालना एकदम जरूरी है। यहां कोई दिखाई भी नहीं पड़ता जो सहायता करे। 144 तो बेचारे ने ढूंढ़-ढांढ़कर रस्सी कहीं से लाया। रस्सी का फंदा बनाकर नीचे डाला। कुएं में चांद को फंसाने की रस्सी में कोशिश की। चांद तो नहीं फंसा, कुएं के किनारे पर कोई चट्टान का टुकड़ा होगा, वह फंस गया। उसने बड़ी ताकत लगाई। खींच रहा है। बड़ी मुश्किल में पड़ा है। और अकेला है। कहता है, कोई और है भी नहीं कि कोई साथ भी दे दे। और चांद वजनी मालूम पड़ता है। और | चांद भी हद्द कर रहा है कि बिलकुल रस्सी को पकड़े हुए है और उठ भी नहीं रहा है। बड़ी ताकत लगाने से रस्सी टूट गई। मुल्ला भड़ाम से कुएं के नीचे गिरा । सिर में चोट भी आई। एक क्षण को आंख भी बंद हो गई। फिर आंख खुली तो देखा, चांद आकाश में है। मुल्ला ने | कहा, चलो भला हुआ। निकल तो आए। अब लोग नाहक रमजान में भूखे तो न रहेंगे। सिर में थोड़ी चोट लग गई; कोई हर्ज नहीं । रस्सी भी टूट गई; कोई हर्ज नहीं। लेकिन चांद को कुएं से मुक्त कर लिया। जिस दिन आप आत्म-भाव में स्थित होंगे, उस दिन आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जहां से हम अब तक अपने को खोज रहे थे, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व * वहां तो हम थे भी नहीं। जहां से हम रस्सियां बांधकर, योजनाएं भी साथ है। उस चर्च में बड़ी तैयारियां हो रही हैं। बड़े फूल लगाए करके, साधनाएं साधकर और आत्मा को पाने की कोशिश कर रहे गए हैं। और बड़े दीए जलाए गए हैं। और द्वार पर लाल दरी बिछाई थे, वहां तो हम थे भी नहीं। चांद तो सदा आकाश में है। वह किसी गई है। कोई स्वागत-समारंभ का इंतजाम हो रहा है। तो पत्नी पूछती कुएं में उलझा नहीं है। लेकिन कुओं में दिखाई पड़ता है। | है कि नसरुद्दीन, इस चर्च में? क्या होने वाला है? आत्म-भाव का अर्थ है कि हम चांद को आकाश में ही देखें, उस चर्च में एक विवाह की तैयारी हो रही है। नसरुद्दीन कहता कुओं में नहीं। आत्म-भाव का अर्थ है कि मेरी चेतना मेरे भीतर है। है, इस चर्च में? एक तलाक की तैयारी हो रही है। एक तलाक का और किसी और वस्तु से बंधी नहीं है, कहीं भी छिपी नहीं है। मैं | | प्रारंभ! . कहीं और नहीं हूं, मुझमें ही हूं। इसलिए सब तलाश कहीं और की | | विवाह तलाक का ही प्रारंभ है। सब सुख दुख के प्रारंभ हैं। व्यर्थ है। और सब तलाश दुख में ले जाएगी; विफलता परिणाम | लेकिन दुख थोड़ी देर में पता चलेगा, पहले सब सुख मालूम होगा। होगा। क्योंकि वहां वह मिलने वाली नहीं है। | जिसको हम पकड़ना चाहेंगे, उसमें सुख दिखाई पड़ेगा। और या इसको अगर आप सफलता कहते हों कि रस्सियां बांधकर, | | जिसको हम छोड़ना चाहेंगे, उसमें दुख दिखाई पड़ेगा। चांद को खींचकर और जब सिर फूटे और ऊपर आपको आकाश आत्म-भाव में स्थित व्यक्ति को न तो कुछ पकड़ने की आकांक्षा में दिखाई पड़ जाए, अगर आप समझते हों कि आपने चांद को | रह जाती है, न कुछ छोड़ने की, इसलिए सुख-दुख समान हो जाते मुक्त कर लिया, तो ऐसी ही स्थिति बुद्ध को हुई होगी। हैं। इसलिए सुख-दुख के बीच जो भेद है, वह कम हो जाता है, बुद्ध से कोई पूछता है, जब उनको ज्ञान हो गया, कि आपको | | गिर जाता है। सुख और दुख में उसका कोई चुनाव नहीं रह जाता। क्या मिला? तो बुद्ध कहते हैं, मिला कुछ भी नहीं। इतना ही पता | समान का अर्थ है, कोई चुनाव नहीं रह जाता। दुख आता है, तो चला कि कभी खोया ही नहीं था। स्वीकार कर लेता है। सुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। दुख नसरुद्दीन कहता है, चांद को निकाल लिया; मुक्त कर दिया | | आता है, तो पागल नहीं होता। सुख आता है, तो भी पागल नहीं आकाश में। बुद्ध कहते हैं, कुछ भी मिला नहीं, क्योंकि कभी खोया | | होता। न उसे सुख उद्विग्न करता है, न दुख उद्विग्न करता है। जैसे नहीं था। और जो मैंने जाना है, वह सदा से मेरे भीतर था। सिर्फ | सुबह आती है, सांझ आती है; ऐसे सुख आते-जाते रहते हैं, दुख मेरी नजरें बाहर भटक रही थीं, इसलिए उसे मैं पहचान नहीं पा रहा | आते-जाते रहते हैं। वह दूर खड़ा, अछूता, अस्पर्शित बना रहता है। था। अगर तुम पूछते ही हो, तो मैंने कुछ खोया जरूर है, अज्ञान | आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने वाला खोया है। लेकिन पाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि ज्ञान तो सदा से ही | | है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला है। धैर्यवान है। था। वह मेरा स्वभाव है। तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है। निंदा-स्तुति में . आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने समान भाव वाला है। वाला...। सभी द्वंद्व जिसके लिए समान हो गए हैं। चाहे प्रेम के, अप्रेम जो भी आत्म-भाव में स्थित होगा, उसे दुख-सुख समान हो | के; चाहे स्वर्ण के, मिट्टी के; चाहे मित्र के, शत्रु के; स्तुति के, निंदा जाएंगे; समता उसकी छाया हो जाएगी। के; जिसके लिए सभी भाव समान हो गए हैं। जो विपरीत को हमें दख और सख अलग-अलग क्यों मालम पड़ते हैं? विपरीत की तरह नहीं देखता। जो पहचान लिया है कि सुख दुख इसलिए अलग-अलग मालूम पड़ते हैं कि जो हम पाना चाहते हैं, | का ही छोर है; और जो समझ लिया है कि स्तुति में निंदा छिपी है। वह हमें सुख मालूम पड़ता है। और जिससे हम बचना चाहते हैं, | आज स्तुति है, कल निंदा होगी। आज निंदा है, कल स्तुति हो वह दुख मालूम पड़ता है। हालांकि हमारे सुख दुख हो जाते हैं और | | जाएगी। मित्रता और शत्रुता के बीच जिसको फासला नहीं दिखाई दुख सुख हो जाते हैं, फिर भी हमें बोध नहीं आता। जिस चीज को पड़ता; जिसे दोनों एक ही चीज की डिग्रीज मालूम पड़ती हैं। आप आज पाना चाहते हैं, सुख मालूम पड़ती है। और कल पा लेने। यह उसी को होगा, जो आत्म-भाव में स्थित हुआ है। उसे यह के बाद छूटना चाहते हैं और दुख मालूम पड़ती है। | द्वंद्व साफ दिखाई पड़ने लगेगा, द्वंद्व नहीं है। यह मेरे ही चुनाव के मुल्ला नसरुद्दीन एक चर्च के पास से गुजर रहा है। उसकी पत्नी | कारण द्वंद्व पैदा हुआ है। 145 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 बुद्ध ने कहा है, मैं कोई मित्र नहीं बनाता हूं, क्योंकि मैं शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं। मित्र बनाएंगे, तो शत्रु बनना निश्चित है। आधा नहीं चुना जा सकता। और हम आधे को ही चुनने की कोशिश करते हैं। इससे हम कष्ट में पड़े हैं। अगर मित्र को चुनते हैं, तो शत्रु को स्वीकार कर लें। सुख को चुनते हैं, तो दुख को भी स्वीकार कर लें। पर यह स्वीकृति, यह तथाता उसी को संभव है, जो अपने में स्थित हुआ हो; जो भीतर खड़े होकर देख सके – दुख को, सुख को, दोनों को— निष्पक्ष भाव से । भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति देख पाता है निष्पक्ष भाव से । भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति तराजू की भांति हो जाता है, जिसके दोनों पलड़े एक सम स्थिति में आ गए; जिसका कांटा आत्म-भाव में थिर हो गया। तथा जो मान-अपमान में सम है। मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है। संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। कुंजी है, आत्म-भाव में स्थित होना । आत्म-भाव में स्थित है, द्वंद्व में सम हो जाएगा। जो आत्म-भाव में स्थित है, वह कर्तापन से मुक्त हो जाएगा। उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। भूख लगेगी, पर वह भूखा नहीं होगा। बड़ी मीठी कथा है कृष्ण के जीवन में। जैन शास्त्रों में उस कथा का उल्लेख है। कृष्ण की पत्नी ने, रुक्मिणी ने कृष्ण से पूछा कि एक परम वैरागी नदी के उस पार ठहरा है। वर्षा के दिन हैं, नदी में पूर है। और कोई भोजन नहीं पहुंचा पा रहा है। आप कुछ करें। तो कृष्ण ने कहा, तू ऐसा कर कि जा और नदी के किनारे नदी से यह प्रार्थना करना - कथा बड़ी मीठी है— नदी से यह प्रार्थना करना कि अगर वह वैरागी, जो उस पार ठहरा है, वह संन्यस्त वीतराग पुरुष सदा का उपवासा हो, तो नदी मार्ग दे दे। रुक्मिणी को भरोसा तो न आया, लेकिन कृष्ण कहते हैं, तो कर लेने जैसी बात लगी । और हर्ज क्या है; देख लें। और शायद यह हो भी जाए, तो एक बड़ा चमत्कार हो । तो वह सखियों को लेकर बहुत-से मिष्ठान्न और भोजन लेकर नदी के पास गई। उसने नदी से प्रार्थना की। भरोसा तो नहीं था । लेकिन चमत्कार हुआ कि नदी ने रास्ता दे दिया। कहा इतना ही कि उस पार जो ठहरा संन्यस्त व्यक्ति है, अगर वह जीवनभर का उपवासा है, तो मार्ग दे दो । नदी कट गई। अविश्वास से भरी रुक्मिणी, आंखों पर भरोसा नहीं, अपनी सहेलियों को लेकर उस पार पहुंच गई। उस वीतराग पुरुष के लिए भोजन वह इतना लाई थी कि पचास लोग कर लेते। वह अकेला संन्यासी ही उतना भोजन कर गया। भोजन के बाद यह खयाल आया कि हम कृष्ण से यह तो पूछना भूल ही गए कि लौटते वक्त क्या करेंगे। क्योंकि नदी अब फिर बह रही थी। और अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। क्योंकि यह आदमी आंख के सामने भोजन कर चुका। और थोड़ा-बहुत भोजन | नहीं कर चुका । निश्चित ही, जीवनभर का उपवासा रहा होगा । | पचास आदमियों का भोजन उसने कर लिया ! लेकिन अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। और अब कृष्ण से पूछने का कोई उपाय नहीं। तो एक ही उपाय है, इस वीतराग पुरुष से ही पूछ लो कि कोई कुंजी है वापस जाने की ! तो उसने कहा कि तुम किस कुंजी से यहां तक आई हो? तो उन्होंने कहा कि कृष्ण ने ऐसा कहा था, लेकिन वह तो अब बात बेकार हो गई। उस संन्यासी ने कहा कि वह बात बेकार होने वाली नहीं है। कुंजी काम करेगी। तुम नदी से कहो कि अगर यह संन्यासी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे। पहले ही भरोसा नहीं आया था। अब तो भरोसे का कोई कारण भी नहीं था। अब तो स्पष्ट अविश्वास था। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। इसलिए नदी से प्रार्थना करनी पड़ी। और नदी ने मार्ग दिया। करीब-करीब होश खोई हुई हालत में रुक्मिणी कृष्ण के पास पहुंची। और उसने कहा, यह हद हो गई। यह बिलकुल भरोसे की | बात नहीं है। क्योंकि हमने अपनी आंख से देखा है संन्यासी को भोजन करते हुए। उसके जीवनभर के उपवासे होने का कोई सवाल नहीं रहा। 146 कृष्ण ने कहा कि वही तुम नहीं समझ पा रही हो। भूख शरीर को लगती है, ऐसा जो जान लेता है, फिर भोजन भी शरीर में ही जाता है। ऐसा जो जान लेता है, उसका उपवास कभी भी खंडित नहीं होता। जिसको भूख ही न लगी हो, उसको भोजन करने का सवाल नहीं है । हम भोजन करते हैं, करते मालूम पड़ते हैं। कर्तापन आता है, क्योंकि भूख हमें लगती है, हमारी है। इस प्रयोग को थोड़ा करके देखें। कल से स्मरण रखें कि भूख लगे, तो वह शरीर की है। प्यास लगे, तो शरीर की है। पानी पीएं, तो शरीर में जा रहा है। प्यास बुझ रही, तो शरीर की बुझ रही है । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आत्म-भाव और समत्व * भूख मिट रही, तो शरीर की मिट रही है। भोजन करते समय, भूख | | उसकी उम्र है, उससे कम उम्र मालूम होती है। क्या कारण होगा? के समय, प्यास के समय, पानी पीते समय, स्मरण रखें। इस बात की संभावना है कि हो सकता है भोजन मनुष्य जाति अगर इस स्मरण को आप थोड़े दिन भी रख पाएं, तो आपको | की सिर्फ एक गलत आदत हो। और किसी दिन आदमी भोजन से एक अनूठा अनुभव होगा। और वह अनुभव यह होगा कि आपको मुक्त किया जा सके। साफ दिखाई पड़ने लगेगा कि में सदा का उपवासा हं। वहां कभी एक बात निश्चित है कि शरीर को भला जरूरत हो या आदत हो, कोई भूख नहीं लगी। कोई भूख पहुंच नहीं सकती वहां। चेतना में लेकिन भीतर जो चेतना है, उसको न तो जरूरत है और न आदत है। भूख का कोई उपाय नहीं है। वह भीतर की चेतना परम ऊर्जा से भरी है। उसकी ऊर्जा का स्रोत अमेरिका में एक व्यक्ति बड़ी अनूठी खोज में लगा हुआ है। शाश्वत है। उसको ऊर्जा रोज-रोज ग्रहण नहीं करनी पड़ती। उसकी खोज भरोसे योग्य नहीं है, लेकिन खोज के परिणाम बड़े इसलिए हम उसे सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। उसकी साफ हैं। और उस व्यक्ति का कहना यह है कि एक समय था मनुष्य ऊर्जा मूल स्रोत से जुड़ी है। वह स्रोत शाश्वत है। वह कभी समाप्त जाति के इतिहास में जब कोई भोजन नहीं करता था। नहीं होता। इसलिए उसमें रोज ईंधन डालने की जरूरत भी नहीं है। जैन शास्त्रों में ऐसे समय का उल्लेख है। जैनों के जो पहले चेतना के लिए भोजन की कोई भी जरूरत नहीं है। शरीर के लिए तीर्थंकर हैं आदिनाथ, उन्होंने ही भोजन और कृषि और अन्न की | हो या न हो, यह बात विवाद की हो सकती है। समय, भविष्य तय खोज की। उसके पहले कोई भोजन नहीं करता था। लोग भूखे नहीं | | करेगा। लेकिन चेतना के लिए तो कोई भी जरूरत नहीं है। वह होते थे। चेतना उपवासी है। यह बात कहानी की मालूम पड़ती है। लेकिन जो आदमी | ऐसा भाव अगर बनने लगे, निर्मित होने लगे, तो आप में से अमेरिका में खोज कर रहा है, उसके बड़े वैज्ञानिक आधार हैं। और | कर्तापन धीरे-धीरे अपने आप गिर जाएगा। और जब भी आप वह कहता है कि भोजन सिर्फ एक लंबी आदत है। और वह यह किसी चीज का आरंभ करेंगे, किसी भी चीज की पहल करेंगे, तो कहता है कि भोजन से शरीर को शक्ति नहीं मिलती। भोजन से आप जानेंगे यह शरीर के गण इसकी पहल कर रहे हैं. मैं इसकी ज्यादा से ज्यादा शरीर में जो शक्ति पड़ी है, उसको गति मिलती है। पहल नहीं कर रहा है। ऐसे ही जैसे कि पनचक्की चलती थीं। तो पानी चक्की के पंखे पर शरीर को जितनी जरूरत होगी, आप दे देंगे। ज्यादा भी नहीं देंगे, से गिरता था; पंखा घूमता था। पंखा तो मौजूद है, सिर्फ गिरता हुआ कम भी नहीं देंगे। अभी हम दो ही काम करते हैं, या तो कम देते पानी पंखे को घुमा देता था। हैं या ज्यादा देते हैं। क्योंकि ठीक कितना देना, इसका हमें पता ही इस वैज्ञानिक का कहना है कि शरीर में शक्ति मौजूद है। सिर्फ | | नहीं चल पाता। हम इतने जुड़े हैं, हमारा संबंध इतना जुड़ गया है .यह भोजन का शरीर में जाना और शरीर के बाहर मल होकर | शरीर से कि हम निष्पक्ष नहीं हो.पाते। हम से ज्यादा निष्पक्ष तो निकलना, यह सिर्फ शरीर के भीतर जो पंखे बिना चले पड़े हैं, जानवर हैं। उनको चलाता है। इससे कोई शक्ति मिलती नहीं। और आदमी अगर कुत्ते को पेट में खराबी हो, तो वह भोजन नहीं करेगा, आप बिना भोजन के रह सकता है। लाख उपाय करें। लेकिन आपको कितनी ही बीमारी हो, कितनी ही और ऐसी घटनाएं हैं, जहां कुछ लोग बिना भोजन के रहे हैं। खराबी हो, आप भोजन करेंगे। शायद बीमारी में और ज्यादा कर लें, चालीस-पचास साल तक भी। उनका वजन भी नहीं गिरा। उनके | | कि जरा ताकत की जरूरत है। कोई जानवर यह भूल नहीं करेगा। शरीर में कोई रोग भी नहीं आया। बल्कि वे बहुत स्वस्थ लोग रहे हैं। क्योंकि जानवर जानता है कि बीमारी में भोजन करने का मतलब है अभी बवेरिया में एक स्त्री न। उस कि शरीर को और काम देना। शरीर पर बीमारी का काम है। उतना से भोजन नहीं किया है। रत्तीभर वजन नीचे नहीं गिरा है। और तीस | ही काम काफी है। उसको नया काम देना खतरनाक है। साल से वह कभी बीमार नहीं पड़ी। न कोई मल-मूत्र का सवाल | | शरीर को भोजन न दिया जाए, तो बीमारी जल्दी समाप्त हो जाती है। उसकी सारी अंतड़ियां सिकुड़ गई हैं। पेट ने सारा काम बंद कर | | है। क्योंकि शरीर खुद बीमारी को निकालने में लग जाता है। शरीर दिया है। लेकिन उसका शरीर परिपूर्ण स्वस्थ है। और जितनी की पूरी ताकत एक तरफ बहने लगती है, बीमारी खतम करने में। IPO DE Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * आप भोजन देकर ताकत पचाने में लगा देते हैं। तो भोजन बीमारी | हम अडिग बने रहते हैं; बोध साफ होता है; चीजें स्पष्ट दिखाई को बढ़ाएगा, कम नहीं कर सकता। पड़ती हैं; धुआं नहीं होता। कोई जानवर राजी नहीं होगा। साधारण-सा कुत्ता, जिसको हम | जितना आत्म-भाव बढ़ेगा, जितना आप अपने को शरीर से बहुत समझदार नहीं कहते, वह भी भोजन नहीं करेगा। भोजन तो अलग और चेतना के साथ एक मानेंगे, देखेंगे, समझेंगे, ठहरेंगे, करेगा ही नहीं, घास-पात खाकर वमन कर देगा। जो पेट में पड़ा उतना ही आप पाएंगे कि चीजें उतनी ही होती हैं, जितनी जरूरी हैं। है, उसको भी निकाल देगा। ताकि खाली हो जाए; ताकि शरीर की जरूरत पर रुक जाना, जरूरत से आगे इंचभर न जाना। तो फिर पूरी ऊर्जा पचाने में नष्ट न हो, बीमारी से लड़ने में लग जाए। | | आपके लिए कोई बंधन नहीं है। क्योंकि तब शरीर के चलने योग्य और शरीर के पास नैसर्गिक व्यवस्था है बीमारियों से लड़ने की। शरीर को देते रहेंगे आप। शरीर अपनी गतिविधि पूरी कर लेगा और वह सब बीमारियों के पार उठ सकता है। और अगर आधुनिक समाप्त हो जाएगा। जिस दिन शरीर की गतिविधि पूरी हो जाएगी, आदमी नहीं उठ पाता, तो उसका कारण यह है कि वह शरीर की| | जैसे दीए का तेल चुक गया, वैसे ही दीया बुझ जाएगा। और इस ऊर्जा को तो भोजन में ही लगाए रखता है। | शरीर के दीए के बुझते ही आपके जीवन में महासूर्य का उदय होगा। हम निष्पक्ष नहीं हो पाते, बीमारी में ज्यादा खा लेते हैं। हमें कभी | इस दीए पर आंखें बंधी हैं, इसलिए सूरज को देखना मुश्किल है। पता भी नहीं चलता; ठीक हमारा, जिसको पता चलने का बोध । कृष्ण कहते हैं, आत्म-भाव में स्थित हुआ, संपूर्ण आरंभों में कहना चाहिए, वह भी क्षीण हो गया है। हमें पता ही नहीं चलता कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। कि कितना खाना, कब खाना, कब नहीं खाना, उसका हमें कोई | ऐसा जो व्यक्ति है, ऐसी जो चेतना है, वह गुणों के अतीत है। बोध नहीं रहा है। कोई नैसर्गिक हमारी प्रतीति नहीं रही है कि कितना और गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है। खाना, कितना नहीं खाना; कब कुछ करना और कब नहीं करना; | आज इतना ही। कहां रुक जाना। उस सबका कारण इतना है कि हम इतने ज्यादा जुड़ गए हैं शरीर के साथ कि दूर खड़े होने से, दूर से देखने पर जो निष्पक्षता होती है, वह नष्ट हो गई है। साक्षी-भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आत्म-भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आप दूर खड़े होकर देख सकेंगे। और ध्यान रहे, बहुत-सी समस्याएं सिर्फ इसलिए नहीं हल हो पाती कि आप दूर नहीं हो पाते। आपके पास कोई दूसरा आदमी आए और अपनी कोई समस्या कहे, तो आप जो सुझाव देते हैं, वह हमेशा सही होता है। वह दूसरे की समस्या है। आप दूर से खड़े होकर देखते हैं। वही समस्या आप पर आ जाए, फिर आपकी बुद्धि काम नहीं करती। जो दूसरे को सलाह देने में काम कर रही है, वह खुद को सलाह देने में काम नहीं कर पाती। वैसे ही जैसे एक सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन कर रहा हो। सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन करने को राजी नहीं होगा। जब तक कि मार डालने की इच्छा न रखता हो। क्योंकि वह जानता है, पत्नी से इतनी निकटता है, हाथ कंपेगा। वह निष्पक्ष नहीं हो पाएगा। तो सर्जन अपने मित्र को कहेगा कि तू आपरेशन कर। निष्पक्षता न हो, तो सब चीजें कंप जाती हैं। निष्पक्षता हो, तो 148 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 14 दसवां प्रवचन अव्यभिचारी भक्ति Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । सगुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। २६ ।। ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।। २७ ।। और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है। तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्नः ऐसा लगता है कि चेतना या बोध का विस्तार समस्त धर्म-साधना का मूल है, तब क्या ज्ञान व भक्ति, योग व तंत्र, कर्म व अकर्म आदि अनेकानेक मार्गों से इसी बुनियादी तत्व की खोज की जाती है ? और यदि इसी सुई को खोजना है, तो उसके इर्द-गिर्द सिद्धांतों का इतना भारी जंगल क्यों खड़ा किया जाता है? स त्यतो अत्यल्प है, अति छोटा है। एक क्षण में भी समा एक शब्द में भी। पर वैसे सत्य को आप समझ न पाएंगे। उस अणु आप देख न पाएंगे। वह सूक्ष्म है, इसी कारण आप उससे चूक जाएंगे। उस छोटे-से सत्य को दिखाने के लिए आपकी बुद्धि बहुत-सी मांग करती है। सिद्धांतों के जाल सत्य को इंगित करने के लिए नहीं खड़े किए जाते, आपकी बुद्धि की तृप्ति के लिए खड़े किए जाते हैं। और बिना तृप्त हुए आप खोज में संलग्न नहीं हो सकते। आपके सभी प्रश्न व्यर्थ हैं। अर्जुन जो कृष्ण से पूछ रहा है, सभी व्यर्थ है। आनंद जो बुद्ध से पूछ रहा है, सभी व्यर्थ है। लेकिन वह पूछ रहा है; और जब तक उसे उत्तर न मिल जाएं, तब तक उसकी यात्रा प्रारंभ न होगी। आप व्यर्थ ही पूछ रहे हों, तो भी सदगुरु को इसके उत्तर देने | पड़ेंगे। इतना भर कह देने से कि वह व्यर्थ है, आपकी कोई तृप्ति नहीं होगी। इतना भर कह देने से कि असंगत है, पूछने में कोई सार नहीं है, आपकी तृप्ति नहीं होगी। उत्तर देने का यह अर्थ नहीं है कि जो आप पूछ रहे हैं, वह सार्थक है । उत्तर देने का इतना ही अर्थ है, ताकि आपकी जिज्ञासा घिस - घिसकर शांत हो जाए। आप पूछ-पूछकर थक जाएं। गुरु नहीं थकेगा, उत्तर देता जाएगा। वह आपको थका रहा है। एक ऐसी घड़ी आ जाए, जहां आप खुद ही कहने लगें, अब पूछना नहीं है; अब कुछ करना है। और जब आप कहेंगे, अब कुछ पूछना नहीं, कुछ करना है, तब बात बहुत छोटी है। जैसे छोटे बच्चों को कुछ समझाना हो, तो कहानी का जाल खड़ा करना पड़ता है। और बुद्धिमान बच्चों को कुछ समझाना हो, तो सिद्धांतों के जाल खड़े करने पड़ते हैं। ये सिद्धांतों के जाल उतने ही बड़े खड़े करने पड़ेंगे, जितनी आपकी बुद्धिमत्ता प्रश्न उठाती चली जाएगी। झेन फकीर हुआ, रिंझाई। उससे एक सम्राट ने आकर पूछा कि भी जानने योग्य है, जो भी पाने योग्य है, आप एक शब्द में मुझे | कह दें। रिझाई ने कहा, जरूर कहूंगा। जो भी पूछने योग्य है, आप एक शब्द में मुझसे पूछ लें। अगर आप एक शब्द में उसे पूछ लेंगे, | तो मैं एक शब्द में उसे कह दूंगा। और अगर आप मौन में पूछने में समर्थ हों, तो एक शब्द की भी कोई जरूरत नहीं। आप मौन में ही पूछ लें, मैं मौन में ही कह दूंगा। आप कितना लंबा करके पूछते हैं, इस पर निर्भर करेगा कि गुरु कितना लंबा शब्दों का जाल खड़ा करे। आपका प्रश्न कितना ही छोटा लगता हो, बहुत बड़ा होता है। उसके सारे पहलू छू लेने जरूरी हैं। अगर उसका एक भी पहलू आपके भीतर अनछुआ रह जाए, तो वह आपको कचोटता रहेगा, परेशान करता होगा । उसका मूल्य कुछ भी नहीं है। लेकिन आपको मूल्यवान लगता है। अर्जुन जो भी पूछ रहा है, उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। और कृष्ण सीधा ही कह सकते हैं कि व्यर्थ है यह प्रश्न, मत पूछ । मैं कहता हूं, वह कर। लेकिन अर्जुन को अगर ऐसा कहा जाए कि | जो वह पूछ रहा है, वह व्यर्थ है; और कृष्ण जो कहते हैं, वह वह | करे। करना मुश्किल होगा ! क्योंकि अर्जुन तिरस्कृत हो गया। और | जिस अर्जुन का इतना भी मूल्य नहीं है कृष्ण की आंखों में कि उसके | प्रश्नों का उत्तर दें, वह अर्जुन कृष्ण पर श्रद्धा भी नहीं कर सकेगा। | वह अर्जुन कृष्ण की मानकर भी नहीं चल सकेगा। 150 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यभिचारी भक्ति उसकी बुद्धि की खुजली थोड़ी तृप्त होनी जरूरी है। यद्यपि उस खुजली से कुछ हल होने वाला नहीं है। खुजली खुजलाने से और बढ़ती है। न केवल बढ़ती है, बल्कि लहूलुहान भी कर सकती है; दुख और पीड़ा भी ला सकती है। लेकिन उस सीमा तक जाना ही होगा । गुरु को अनंत धैर्य चाहिए । अगर अधीर गुरु हो, तो आपके साथ एक क्षण गति नहीं हो सकती। उसको इतना धैर्य तो चाहिए ही, जितना धैर्य आपमें पूछने का है। इससे थोड़ा ज्यादा चाहिए। आप जब पूछकर चुक जाएं, तब भी वह जवाब देने को तैयार है। ये जवाब आपकी जिज्ञासाओं के मूल्य के कारण नहीं दिए जाते हैं। आपकी जिज्ञासाएं समाप्त हो जाएं, गिर जाएं...। ये उत्तर प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं, प्रश्नों को गिराने की योजना है। और मन की एक क्षमता है, उस क्षमता के बाद मन गिर जाता है। और खुद ही आप कहने लगते हैं कि अब पूछना नहीं, अब कुछ जानना नहीं; अब कुछ करना है, अब कुछ होना है। उस घड़ी की तलाश है। और जब तक आप न पूछें, तब तक गुरु कहे कि कुछ करो, व्यर्थ है। क्योंकि करना आपको है । और जब तक आपके भीतर यह भाव सजग न हो जाए, तब तक इस भाव को पैदा नहीं किया जा सकता। इसलिए बुद्ध जीवनभर बोलते हैं; सुबह से सांझ तक बोल रहे हैं। वे ही प्रश्न लोग फिर-फिर पूछते हैं; बुद्ध फिर-फिर उत्तर दे रहे हैं। सिर्फ इस धैर्य में कि आप थकोगे। पूछने वाला अनंत नहीं है, और जवाब देने वाला अनंत है। वह जो शिष्य खोज रहा है, उसकी खोज की सीमा है। और जिस कृष्ण . या बुद्ध के पास खोज रहा है, उसके सागर की कोई सीमा नहीं। वह आपको थका ही डालेगा। गुरु से जीतने का उपाय नहीं है। उससे हारना ही होगा। वही हार आपकी विजय भी होगी। क्योंकि उसी दिन आप शब्दों के ऊपर उठेंगे। इसे ऐसा समझें, एक कांटा लग जाए, तो दूसरे कांटे से उस कांटे को निकालना पड़ता है। आपके पैर में कांटा लगा है, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध, उसे दूसरे कांटे से बाहर निकालते हैं। आप कह सकते हैं कि मैं एक ही कांटे से परेशान हूं; तुम दूसरा कांटा मेरे पास क्यों ला रहे हो? एक कांटा मेरे पैर में चुभा है, उससे ही पीड़ा पा रहा हूं। तुम और दूसरा चुभा रहे हो! ऊपर से ऐसा ही दिखेगा। दूसरा कांटा भी चुभाना होगा, क्योंकि दूसरा कांटा पहले कांटे को बाहर निकाल सकता है। दोनों कांटे हैं। दोनों में चुभन है। और जब कांटा बाहर निकल आएगा पहला दूसरे कांटे से, तो दोनों फेंक दिए जाएंगे। आपको शब्दों के कांटों की चुभन है । शब्दों के ही कांटों से उन्हें निकालना होगा । और जब निकल आएगी आपकी शब्दों की चुभन, प्रश्न बाहर हो जाएंगे, तो दोनों फेंक दिए जाएंगे। जब अर्जुन ठीक समझ की हालत में आएगा, तो जो उसने पूछा था, वह तो व्यर्थ है ही; जो कृष्ण ने कहा था, वह भी उतना ही व्यर्थ है। उस दिन वह गीता को आग लगा दे सकता है। और जब तक शिष्य गीता को आग लगाने में समर्थ न हो जाए, तब तक जानना अभी चुभन मिटी नहीं है। अभी पहला कांटा गड़ा है, दूसरे से निकालने की कोशिश चल रही है। जब दोनों ही कांटे बाहर हो गए, तो दोनों ही फेंकने जैसे हैं । इसलिए सभी शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। और एक घड़ी जरूर आती है, जब आप शास्त्र की तरफ पीठ कर लेते हैं। और जब तक यह घड़ी न आ जाए, तब तक समझना कि जीवन में अभी वास्तविक क्षण नहीं आया। जब तक शास्त्र व्यर्थ न हो जाए, तब तक समझना, बुद्धि अभी सता रही है; अभी विचार परेशान कर | रहे हैं; अभी मन घूम रहा है, भटक रहा है, प्रश्न उठा रहा है। अभी संदेह बाकी है। जब तक शास्त्र आपको मूल्यवान दिखे, तब तक समझना कि संदेह बाकी है। जिस दिन संदेह मिटेगा, उस दिन शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि शास्त्र संदेह मिटाने के लिए ही उपयोगी | है। ऐसे ही जैसे एक बीमार आदमी है। दवा की बोतल लिए घूमता है। फिर जब वह स्वस्थ हो जाएगा, तो बीमारी ही नहीं छूटेगी, दवा की बोतल भी छूट जाएगी। 151 शास्त्र औषधि से ज्यादा नहीं हैं। उनका अपने में कोई भी मूल्य नहीं है। औषधि का क्या मूल्य है अपने में? अगर आप बीमार नहीं हैं, तो औषधि का कोई भी मूल्य नहीं है। आप बीमार हैं, तो बड़ा मूल्य है। शास्त्र का अपने में कोई मूल्य नहीं है। बीमार मन के लिए | शास्त्र की औषधि सार्थक है । पर इस घड़ी को लाने के लिए भी दूसरे कांटे का उपयोग करना होगा । तो कृष्ण कुछ सत्य नहीं दे रहे हैं अर्जुन को। सत्य तो दिया नहीं | जा सकता। असत्य छीना जा सकता है, सत्य दिया नहीं जा सकता। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें । स्वास्थ्य दिया नहीं जा सकता; बीमारी हटाई जा सकती है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* स्वास्थ्य भीतरी भाव है। इसलिए दुनिया में कोई दवा नहीं, जो स्वास्थ्य दे सके। दवा तो सिर्फ बीमारी को काटती है। बीमारी कट जाती है, स्वास्थ्य आपके भीतर उत्पन्न होता है। स्वास्थ्य दवा से भीतर नहीं जाता। दवा तो बीमारी को काटती है। बीमारी भी एक जहर है, और दवा भी एक जहर है। और जहर से जहर कट जाता है । और आपके भीतर स्वस्थ होने की क्षमता तो छिपी है; बीमारी के हटते ही वह प्रकट होनी शुरू हो जाती है। सत्य आपके भीतर छिपा है। कोई कृष्ण, कोई बुद्ध सत्य नहीं दे सकते। कोई कभी किसी को सत्य नहीं दिया है। सिर्फ आपका असत्य काटा जा सकता है। सिद्धांतों के जाल आपके असत्य को काटने के लिए हैं। और आपने असत्य को इतनी मजबूती से जमाया है कि उसको इतनी ही मजबूती से कोई काटे, तो ही काट पाएगा। अर्जुन काफी पैर जमाकर खड़ा है। वह अपने संदेह को छोड़ता नहीं है। वह अपनी शंकाओं को हटाता नहीं है। वह अपनी समस्या को नए रूपों में खड़ा करता जाता है। जितने नए रूपों में वह खड़ा करेगा, कृष्ण उतने नए रूपों से हमला करेंगे। इस बीमारी के लिए औषधि खोजनी होगी। जिस क्षण अर्जुन संदेह से मुक्त हो जाएगा, उसी क्षण कृष्ण चुप और मौन हो जाएंगे। उसी दिन शास्त्र व्यर्थ हो जाएगा। फिर शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं है। इतने सिद्धांतों का जाल इसलिए है कि आपने संदेहों का जाल खड़ा कर रखा है। यह तो सिर्फ एंटीडोट है। सिद्धांत संदेह का एंटीडोट है। जितने संदेहशील लोग होंगे, उतने ज्यादा शास्त्रों की जरूरत पड़ जाएगी। जब लोग बिलकुल संदेहशील नहीं होंगे, शास्त्र तिरोहित हो जाएंगे। जिस गांव में कोई बीमार न होगा, वहां से डाक्टर धीरे-धीरे विदा हो जाएगा; औषधियां विलुप्त हो जाएंगी। असत्य के कारण इतने शास्त्र हैं। असत्य के लिए इतने शास्त्र हैं। संदेह के कारण इतने सिद्धांत हैं। अगर सिद्धांत कम करने हों, तो सिद्धांत कम करने से न होंगे; संदेह कम करें, सिद्धांत कम हो जाएंगे। आप असंदिग्ध खड़े हो जाएं, आपके लिए एक भी सिद्धांत नहीं है। अगर अर्जुन असंदिग्ध खड़ा होता कृष्ण के सामने, तो कृष्ण एक शब्द भी नहीं बोलते। बोलने का कोई प्रयोजन नहीं था। बीमारी ही हो, तो औषधि का कोई अर्थ नहीं है। दूसरा प्रश्न : कल आपने जो कहा, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु जो साधना करवाता है और शिष्य जो साधना करता है, उसकी मात्र उपादेयता करने की व्यर्थता को जान लेना है। क्या करने की व्यर्थता को जान लेना साधक के लिए अनिवार्य है? और क्या विभिन्न साधनाओं का अपने आप में मूल्य नहीं है? य ही मूल्य है। इतना ही मूल्य है। इससे ज्यादा मूल्य नहीं है। समस्त प्रक्रियाओं का इतना ही मूल्य है कि आपको पता चल जाए कि करने से कुछ भी न होगा । | कर-करके आप थक जाएं और उस जगह आ जाएं, जहां करने की वासना ही न उठे। जहां लगे, से कुछ होगा ही नहीं। जिस क्षण भी करने की वासना न उठेगी, उसी क्षण आप कर्ता से मुक्त हो गए, उसी क्षण अहंकार शून्य हो गया। करने में सार्थकता दिखती है, क्योंकि करने वाले में सार्थकता है। आप कुछ कर-करके क्या सिद्ध कर रहे हैं? कि मैं करने वाला हूं! आप अपने कर्ता को सिद्ध कर रहे हैं। कोई धन इकट्ठा करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। कोई ज्ञान इकट्ठा करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। कोई त्याग करके सिद्ध कर रहा है कि मैं बड़ा कर्ता हूं। लेकिन सभी की मूल बात एक है कि मैं हूं। सब अपने अहंकार को सिद्ध कर रहे हैं। और अहंकार जब तक न मिटे, तब तक परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। तो एक ही उपाय है कि आपका सब करना व्यर्थ हो जाए, आप सब जगह असफल हो जाएं, आपको कहीं भी सफलता न मिल पाए। जिस दिन आपकी असफलता पूर्ण होगी, जिस दिन आपको | रंचमात्र भी आशा न रह जाएगी कि मैं सफल हो सकता हूं, उसी दिन आपका मैं गिरेगा। और मैं के गिरते ही परम सफलता मिल जाएगी। क्योंकि मैं के गिर जाने का अर्थ ही यह है, अब कुछ खोजने को न रहा। दीवार गिर गई। द्वार खुल गए। मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में ज्योतिषी का काम भी करता था। बैठा था बाजार में अपनी दुकान खोलकर, कि गांव का एक राजनेता जो कि चुनाव अभी-अभी हार गया था, वहां से निकला। नसरुद्दीन ने कहा कि ठहरो, अपना भविष्य नहीं जानना चाहते ? उस राजनेता ने कहा, छोड़ो भविष्य अब; अब मैं हार चुका, अब कोई भविष्य नहीं है। मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मेरे लिए 152 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यभिचारी भक्ति र तुम्हारे ज्योतिष का कोई मूल्य नहीं है। नसरुद्दीन ने कहा, रुको। यह अहंकारी मनुष्य अपने को मिटाने की तत्परता में लगा है। और तो जान लो कि आत्महत्या में सफल होओगे या नहीं! जितना अहंकारी होगा, उतना ही जल्दी उसे लगेगा कि खत्म कर जब तक आप कुछ भी करने जा रहे हैं, आत्महत्या भी करने | लूं। क्योंकि जितना अहंकार होगा ज्यादा, उतनी ही जीवन में जा रहे हैं, तब तक भी कर्ता पीछे खड़ा है। जब तक आपको लग विफलता मिलेगी। हर जगह अहंकार टूटेगा। रहा है, आप कुछ कर सकते हैं, तब तक आपका अहंकार जागा साधक का तो एक ही अर्थ है कि अब वह अहंकार तोड़ने के हुआ है। | लिए तैयार है। और अहंकार तभी टेगा, जब कर्ता का भाव मिटे। फ्रांस के एक बहुत बड़े विचारक अल्बेयर कामू ने एक कीमती कर्ता का भाव तब टूटेगा, जब सभी कर्म तुम्हारे असफल हो जाएं। वक्तव्य दिया है। और वह वक्तव्य यह है कि आदमी चाहे कुछ | तुम्हारी सारी विधियां, तुम्हारी सारी क्रियाएं, तुम्हारे सारे मार्ग व्यर्थ और न कर सकता हो, चाहे सभी जगह आदमी असफल, असमर्थ हो जाएं। तुम एक ऐसी जगह पहुंच जाओ, जहां तुम कह सको कि मालूम पड़ता हो, लेकिन आत्मघात एक ऐसी बात है, जिससे सिद्ध मेरे किए कुछ भी नहीं होता, मेरे किए कुछ भी नहीं होगा। हो जाता है कि हम भी हैं। ऐसी जो परम विफलता है, इस परम विफलता में ही मनुष्य को ___ ध्यान रहे, जो लोग आत्मघात करते हैं, अक्सर अहंकारी लोग | पता चलता है कि मैं असहाय हूं। इस परम विफलता में ही उसे पता होते हैं। जो जीवन में सफल नहीं हो सके, लेकिन जो स्वीकार नहीं चलता है कि मेरे भीतर कोई अहंकार का केंद्र नहीं है। मैं सिर्फ एक कर सकते हैं कि हम कुछ भी नहीं हैं, वे आत्मघात करके अपने को | लहर हूं सागर पर। बता देते हैं कि कुछ तो मैं कर ही सकता हूं। इतना तो कर ही सकता | एक तरफ से देखने पर यह विफलता है। और दूसरी तरफ से हूं कि अपने को समाप्त कर लूं। देखने पर यही जीवन में धर्म का जन्म है। बड़ी से बड़ी सफलता दोस्तोवस्की का प्रसिद्ध उपन्यास है, ब्रदर्स कर्माझोव। उसमें है। एक कोने से, संसार की तरफ से देखने पर, यह सबसे बड़ी एक पात्र कहता है आकाश की तरफ हाथ उठाकर कि हे परमात्मा, हार है। परमात्मा की तरफ से देखने पर यह सबसे बड़ी विजय है। अगर तू कहीं भी है और मुझे मिल जाए, तो मैं सिर्फ एक काम जो इस हार के लिए राजी नहीं है, वह परमात्मा के जगत में कभी करना चाहता हूं। मैं तुझे वह टिकट वापस करना चाहता हूं, जो तूने विजय उपलब्ध नहीं करेगा। मुझे संसार में भेजने के लिए दी है। और तुझसे कह देना चाहता हूं, इसलिए गुरु की सारी चेष्टा यह है...। तुम पूछते हो, क्या करें? यह संसार बेकार है। गुरु यह कहे, कुछ न करो, उससे तुम्हें तृप्ति न मिलेगी। तुम पूछते आत्महत्या करने वाला यही कर रहा है। वह कह रहा है परमात्मा हो, क्या करें? गुरु तुम्हें देता है कि कुछ करो। कर-करके वह तुम्हें से कि सम्हालो अपना यह संसार। इतना करने को तो कम से कम उस जगह लाएगा, जहां तुम खुद ही कहने लगोगे, करने से कुछ मैं स्वतंत्र हूं। इसमें तुम मुझे न रोक सकोगे। भी नहीं होता। वह तुम्हें न करने की अवस्था में ला रहा है। इसलिए आत्मघात अक्सर अहंकार की आखिरी परिणति है। हालांकि तुम करने से न करने की अवस्था में न जाओगे। तुम विनम्र मनुष्य कभी आत्मघात नहीं कर सकता। निरहंकारी तो सोच | कुछ रास्ते निकालोगे। तुम कहोगे कि मुझे प्रकाश दिखाई पड़ने भी नहीं सकता। क्योंकि निरहंकारी का मतलब ही यह है कि मेरे लगा। तुम कुछ करके पा रहे हो, यह तुम बताओगे गुरु को हाथ में कुछ भी नहीं है। जीवन भी मेरे हाथ में नहीं है; मृत्यु भी मेरे जा-जाकर। तुम कहोगे कि अब मुझे लाल-नीले रंग दिखाई पड़ हाथ में नहीं है। मैं इस विराट की लीला में सिर्फ एक अंग हूं। उस रहे हैं। तुम कहोगे, अब मुझे ओंकार का नाद सुनाई पड़ने लगा। अंग की कोई अपनी, सारे अस्तित्व से टूटी हुई, अस्मिता नहीं है। तुम कहोगे, मेरी कुंडलिनी जाग्रत हो रही है। तुम हजार तरकीबें उसका कोई अपना अहं नहीं है। निकालोगे यह सिद्ध करने की कि जो मैं कर रहा हूं, वह विफल मैं इस विराट का एक हिस्सा हूं, जैसे लहर सागर का हिस्सा है। | नहीं हो रहा है, वह सफल हो रहा है। सागर जहां ले जाए. वहां लहर चली जाएगी। लहर अपना मार्ग नहीं। ___ तुम अपने अहंकार को बचाने के सब उपाय करोगे। लेकिन चुन सकती। लहर यह नहीं कह सकती कि मुझे पूरब जाना है। जाए अगर तुम्हें सौभाग्य से सदगुरु मिल गया हो, तो वह तुम्हारे एक पूरा सागर पश्चिम, लेकिन मुझे पूरब जाना है! उपाय चलने न देगा। वह कहेगा, यह कुंडलिनी, यह सब बकवास 153 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * कल्पना है। है। यह सब तुम्हें वहम है। तुम सपना देख रहे हो। बंद करो यह तक तुम्हें रोकना भी जरूरी है। तुम भाग जा सकते हो। तुम्हें भविष्य बात। ये रंग-बिरंगे चित्र, जो तुम्हें दिखाई पड़ रहे हैं, ये स्वप्न से की आशा देनी जरूरी है। ज्यादा नहीं हैं। यह तुम्हें जो प्रकाश दिखाई पड़ रहा है, यह तुम्हारी तुम्हारे अतीत को मिटाना है, तुम्हारे भविष्य को भी मिटाना है। | लेकिन तुम रुकोगे, तभी यह हो सकता है। तो वह तुम्हें आशा देता सदगुरु तो तुम्हें टिकने नहीं देगा। तुम कितनी ही सफलता की | है कि ठहरो। एक दिन, अगर तुम रुके ही रहे, और अगर तुमने खबरें लाओ, वह तुम्हें विफल करता रहेगा। और अगर तुम भाग |साहसपूर्वक प्रयत्न किया, और सब प्रयत्न तुम्हारे असफल हो ही न गए उसके पास से, तो वह तुम्हें जरूर उस जगह ले आएगा| गए...। धीरे-धीरे-तुम्हारी सामर्थ्य के अनुसार ही लाएगा—उस जगह ले जब मैं कह रहा हूं सब प्रयत्न, तो मेरा मतलब समझ लें, सब आएगा, जहां तुम कहोगे कि करने से कुछ भी नहीं होता। प्रयत्न। कुछ बाकी न रहा करने को। सारी आशा तिरोहित हो गई। और जिस दिन तुम समझोगे, करने से कुछ नहीं होता, उसी दिन | | कोई किरण न रही आशा की। उस गहन अंधकार में ही महासूर्य का कर्तापन विलीन हो जाएगा। और उस कर्तापन के विलीन होने के जन्म है। उस दिन तुम खाली हो जाओगे। उस दिन तुम कहोगे, अब क्षण में ही तुम्हारी बूंद में पूरा सागर उतर आएगा। उसी क्षण सब कुछ करने को भी नहीं बचा। अब वासना को दौड़ाने के लिए कोई कुछ हो जाएगा। जब तुम मिट जाओगे, तो सब कुछ हो जाएगा। | मार्ग नहीं है, अब कोई भविष्य नहीं है। और अब अहंकार को जब तक तुम हो, तब तक कुछ भी न होगा। सम्हालने के लिए कोई उपाय नहीं है। सब बैसाखियां गिर गईं। अब और तुम्हारी पूरी कोशिश यह है कि तुम बने रहो। तो तुम न | तुम बच नहीं सकते। मालूम क्या-क्या व्यर्थ की बातें खोज लाते हो कि यह उपलब्धि हो इस घड़ी में ही गुरु के सहारे की जरूरत हो जाती है। क्योंकि इस रही है। और इस वजह से तुम्हें व्यर्थ के गुरु भी मिल जाते हैं। । घड़ी में तुम भाग जा सकते हो; और यही क्षण था, जब खजाना सौ गुरुओं में कभी कोई एक सदगुरु होगा। निन्यानबे जो गुरु | मिलने के करीब था। इस वक्त भी वह तुम्हें कहेगा कि ठहरो, कुछ हैं, वे तुमने पैदा किए हैं। वे तुम्हारी तृप्ति के लिए, तुम्हारी सांत्वना मत करो, रुको, सब होगा। के लिए हैं। तुम कहते हो, कुंडलिनी जग रही है। वे कहते हैं, उसका आश्वासन तुम्हारे धैर्य को बढ़ाने के लिए है। होगा सब बिलकुल जग रही है। तुम कहते हो, रंग-बिरंगे सपने दिखाई पड़ तुम्हारे भीतर, कोई गुरु कुछ भी नहीं करता है। और जो गुरु करता रहे हैं। वे कहते हैं, ये सपने नहीं हैं, ये बड़ी कीमती बातें हैं। इनका | | है, समझना कि वह गुरु नहीं है। क्योंकि सत्य को दिया नहीं जा बड़ा मूल्य है। तुम बड़ी ऊंचाई पर पहुंच रहे हो। सिद्धावस्था तुम्हारी | सकता। सत्य को खींचकर पैदा नहीं किया जा सकता। सिर्फ तुम्हारी बिलकुल करीब है। व्यर्थ दौड़-धूप को मिटाना है। तुम्हारी मूढ़ता के कारण, तुम्हारे अहंकार के कारण गुरुओं का ___ तुम वहीं खड़े हो, जहां सत्य है। लेकिन तुम्हें खड़े होने की इतना बड़ा जाल चलता है। लेकिन सदगुरु तुम्हें कभी भी सफल आदत नहीं है। तुम भाग रहे हो। तुम दौड़ रहे हो। तुम्हारी दौड़ नहीं होने देगा। इसे जरा खयाल रखें। गिरानी है। कर्म तुम्हारी दौड़ है। सदगुरु तुम्हें सफल नहीं होने देगा। तुम कितने ही उपाय करो, | और तुम्हें सदा आसानी है। एक कर्म छोड़कर तुम दूसरा पकड़ वह तरकीबें निकालेगा, तुम्हारी टांग खींचकर तुम्हें वापस गिरा | | सकते हो। तुम एक गुरु को छोड़कर दूसरा पकड़ लोगे। कोई तुम्हारे देगा। वह तुम्हें उस जगह ला रहा है, जहां बिलकुल ही साफ तुम्हें चक्र जगाएगा। कोई तुम्हारी कुंडलिनी को सहारा देगा। कोई कुछ हो जाए कि तुम्हारे किए कुछ भी नहीं हो सकता। और सिखाएगा। तुम गुरु बदलते रहोगे। तुम विधि बदलते रहोगे। ___ इसलिए गुरु की बड़ी कठिनाई है। क्योंकि तुम चाहते हो, कुछ | लेकिन तुम अपने को मजबूती से पकड़े रहोगे। हो जाए। और तुम्हें समझाने-बुझाने के लिए वह तुम्हारा सिर । । सदगुरु की छाया में तुम्हें मिटना पड़ेगा। और जिनकी मिटने की थपथपाता रहता है ; कल होगा; परसों होगा: रुको। | तैयारी हो, वे ही केवल सत्य को पा सकते हैं। और जब भी कुछ होता है, तब उसकी चेष्टा होती है कि तुम इसको तो निश्चित ही, सारी विधियों की एक ही उपादेयता है, वह है मूल्य मत दो। और वह कहता है, रुको, कल होगा। क्योंकि कल करने की व्यर्थता को जान लेना। करने की व्यर्थता जान ली कि होने टां ठहरा; 154 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अव्यभिचारी भक्ति की सार्थकता समझ में आ जाती है। और होना और करना बिलकुल सकता है इस मछली के लिए! विपरीत है। करना बाहर है, होना भीतर है। जब करना बिलकुल ___ एक ही उपाय है कि किसी भांति इस मछली को पानी के बाहर बंद हो जाता है, तो होने का सूर्य प्रकट होता है, फूल खिलता है। | खींच ले, ताकि यह तड़फने लगे। और यह तड़फ जाए रेत पर दो किसी भी भांति प्रयत्न से तुम्हें छुटकारा चाहिए। क्षण, वापस इसको सागर में डाल दे, तो यह फौरन पहचान जाएगी लेकिन अगर तुमसे सीधा कह दिया जाए कि तुम सब करना | | कि मैं सागर में सदा से थी। लेकिन जब तक यह सागर से अलग छोड़ दो, तो तुम्हें बात समझ में ही न आएगी। तुम्हें इंच-इंच तैयार नहीं हुई, तब तक इसको पता भी नहीं चल रहा है। करना पड़ेगा। एक-एक मार्ग से तुम्हें ले जाना पड़ेगा। और ___ आप परमात्मा में हैं, जैसे मछली सागर में है। जैसे मछली सागर एक-एक मार्ग व्यर्थ होने लगे और तुम्हें दिखाई पड़ने लगे कि करने | | के बिना नहीं हो सकती, आप परमात्मा के बिना नहीं हो सकते हैं। से कछ होने वाला नहीं है। क्योंकि जो है. वह मेरे बिना किए हए वह आपके होने का ढंग है। वह आपके होने का आधार है। मेरे भीतर मौजूद है। अगर मैं एक क्षण को भी कर्म को छोड़ दूं, | तो गुरु क्या करे? आप उससे पूछते हैं, मैं क्या करूं परमात्मा कर्म की चंचलता हट जाए, तो उस अचंचल स्थिति में वह प्रकट | को पाने के लिए? और वह देख रहा है कि मछली पानी में तैर रही हो जाए। है। और पूछती है, पानी को पाने के लिए क्या करूं? तो आपको लेकिन हम अपने को धोखा देने में कुशल हैं। मनुष्य की बड़ी | कुछ विधि बताता है। वे विधियां सब ऐसी हैं कि जिनसे आप तड़फ से बड़ी कुशलता है, सेल्फ डिसेप्शन, आत्मवंचना। और हम इस | | जाएं; जिनसे आप क्षणभर के लिए उस बेचैनी से भर जाएंगे, जो तरकीब से धोखा देते हैं कि हम खुद ही नहीं पहचान पाते कि हमने | | आपको सागर से अलग कर दे एक क्षण को भी। और जैसे ही वह अपने को धोखा दिया। अलग होने की व्यर्थता और पीड़ा आपको पता चलेगी, आप वापस मुल्ला नसरुद्दीन एक बाजार से गुजर रहा है। एक आम वाले का | | सागर में गिर जाएंगे। वह सागर में गिरना ही परमात्मा से मिलना ठेला खड़ा है और आम वाला उस तरफ मुंह करके किसी से बात | | हो जाएगा। कर रहा है। तो उसने एक आम उठाकर अपने झोले में डाल लिया। | सारी खोज की दुविधा, समस्या, उलझाव यही है कि हम उसे फिर उसकी आत्मा कचोटने लगी। फिर उसे लगा कि चोरी करना तो खोज रहे हैं जो मिला ही हुआ है। और गुरु को आपको वही ठीक नहीं। और बेचारे आम वाले को धोखा दे दिया। गरीब आदमी दिखाना है, जो आप देख ही रहे हैं। क्या किया जाए? है; और गरीबं को धोखा देना उचित नहीं है। यह मैंने पाप किया। मैं एक कहानी कहता रहा हूं। एक आदमी ने शराब पी ली। तो वह वापस गया। झोले से आम निकाला और आम वाले से शराब पीकर रात वह अपने घर लौटा, आदतवश। कहा कि आम बदल दो। आम वाले ने समझा कि खरीदा होगा | | घर आने के लिए कोई होश की जरूरत तो किसी को भी नहीं इसने, तो उसने बेचारे ने बदल दिया। तब वह प्रसन्नता से घर | | होती। अपने घर तो आदमी यंत्र की तरह चला आता है। कब मुड़ना लौटा। उसने कहा, पहला तो मैंने चुराया था, दूसरा उसने खुद ही | है बाएं, कब दाएं; किस गली से जाना है; कहां से आना है। अपने दिया है। अब आत्मा में कोई कांटा नहीं चुभ रहा है। अब वह | | घर आने के लिए कोई होश की जरूरत किसी को भी नहीं होती है। बिलकुल प्रसन्न घर जा रहा है; क्योंकि दूसरा उसने खुद दिया है। | आप भी बेहोश ही अपने घर आते हैं। साइकिल का हैंडल मुड़ अब कोई सवाल ही नहीं है। जाता है, गाड़ी का व्हील मुड़ जाता है, पैर घूम जाते हैं। आप अपने करीब-करीब आप यही कर रहे हैं। जरा-सा हेर-फेर कर लेते | घर आ जाते हैं। हैं और सोचते हैं, सब हल हो गया। ऐसे हल नहीं होगा। यह | | वह बेहोश तो था, अपने घर पहुंच गया। लेकिन घर के सामने धोखा चल नहीं सकता। आपको समझना ही होगा कि मूल | | जाकर उसको खयाल आया कि यह मेरा घर है या नहीं! आंखों में समस्या क्या है। धुंध थी; भीतर नशा था। कुछ ठीक साफ समझ नहीं। चीजें घूमती मूल समस्या इतनी है कि जो आपको मिला ही हुआ है; उसको | मालूम पड़ रही थीं। तो बैठ गया अपनी सीढ़ियों पर और आप पाने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे एक मछली सागर में सागर | | आस-पास से गुजरने वाले लोगों से पूछने लगा कि कोई मुझे मेरे को खोजने की कोशिश कर रही हो। बड़ी कठिनाई है। गुरु क्या कर | घर का पता बता दो! 155 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 ] कोई हंसा। किसी ने कहा, अरे मूर्ख, तू अपने घर के सामने बैठा | | शिष्य गुरु के पास इसलिए आ रहा है कि वह जानता है कि जहां है। तू अपने घर की सीढ़ी पर ही बैठा हुआ है। उसने कहा, तुमने | | वह है, वहां कुछ भी नहीं है। और जहां सब कुछ है, वह बहुत दूर मुझे इतना नासमझ समझा हुआ है कि अपने घर की सीढ़ी पर | | है मंजिल। बड़ी कठिन है वहां पहुंचने की यात्रा। किसी से पूछना बैठकर मैं तुमसे पूछूगा? | पड़ेगा, कोई गाइड चाहिए। इसीलिए तुम्हारे पास आया है। और जिसने भी उसे बताने की कोशिश की कि तू अपने घर की सीढ़ी | | अगर तुम उससे सीधा-सीधा कह दो, यहां आने का कोई सवाल पर बैठा है, उसने समझा कि वह उसे धोखा देने की कोशिश कर | | नहीं है, क्योंकि तुम वहां हो ही, मंजिल में ही तुम रह रहे हो; तब रहा है। अगर मैं अपने घर की सीढ़ी पर बैठा हूं, तो मैं पूछंगा क्यों? | | वह कोई दूसरा गुरु खोजेगा, जो उसे ले जाए। भीड़ इकट्ठी हो गई। उसकी मां, बूढ़ी मां, शोरगुल सुनकर | | तो सदगुरु को तुम्हारी नासमझी के साथ योजना बनानी पड़ती मकान के बाहर आई। आधी रात, देखा उसका बेटा रो रहा है और | | है। वह बैलगाड़ी जोतता है, ताकि तुम्हें भरोसा आ जाए कि ठीक भीड़ खड़ी है। और वह पूछ रहा है, मेरा घर कहां है? तो उसकी | | है। वह तुम्हें बिठाता है। वह गाड़ी चलाता है। वह तुम्हें काफी मां ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा कि बेटा, तू पागल हो | | चक्कर लगाता है। और उसी जगह तुम्हें ले आना है, जहां तुम थे, गया! यह तेरा घर है। जहां से तुम्हें यात्रा पर शुरू किया गया था। उसने उसको देखा। वह पहचाना तो नहीं। देखा, कोई स्त्री खड़ी | __समस्त गुरुओं का एक ही उपाय है कि तुम्हें कर्म की व्यर्थता, है। उसने पैर पकड़ लिए और कहा, माई, तू कृपा कर और मुझे मेरे | | विधि की व्यर्थता बोध में आ जाए। प्रयत्न व्यर्थ है। निष्प्रयत्न घर का पता बता दे। | उसकी उपलब्धि है। पर यह आने के लिए काफी भटकना जरूरी तभी पड़ोस का एक आदमी, जो खुद भी नशे में था, वह अपनी है। और अपने ही घर को पहचानने के लिए न मालूम कितने घरों, बैलगाड़ी जोतकर आ गया। उसने कहा कि बैठ, तू मानता ही नहीं, | | कितने द्वारों की तलाश करनी पड़ती है। जहां तुम हो, वहां आने के तो मैं तुझे पहुंचा दूंगा। | लिए तुम्हें करीब-करीब पूरे संसार का चक्कर लगा लेना होता है। उसकी मां रोती है। वह कहती है, इसकी बैलगाड़ी में मत बैठना, नहीं तो यह न मालूम तुझे कहां ले जाए। तू घर पर है ही। अगर तू कहीं भी गया, तो दूर निकल जाएगा। तीसरा प्रश्नः गुणातीत में जाने के लिए आपने तो करीब-करीब हालत हमारी ऐसी ही है। अगर कोई कहे कि साक्षी-भाव का प्रयोग बताया। लगता है, आपकी जिसको आप खोज रहे हैं, वह आपके भीतर है, तो आप कहते हैं, सारी शिक्षा का केंद्रीय तत्व साक्षीत्व है। वर्षों से मैं तो क्या मैं इतना मूढ़ हूं कि मुझे पता नहीं! तो आपके लिए बैलगाड़ी | आपको सुनता हूं और संभवतः साक्षीत्व का प्रयोग जोतनी पड़ती है। उसमें आपको बैठाना पड़ता है कि चलिए, भी करता हूं। लेकिन क्षितिज की तरह वह मुझसे जहां विराजिए। आपको पहुंचा देंगे आपके घर तक। का तहां खड़ा मालूम होता है। कृपा करके बताएं कि इसमें जो गुरु है, वह तुम्हें बैलगाड़ी पर बिठा-बिठाकर | मेरी भूल क्या है? थकाएगा। और घुमा-फिराकर उसी जगह ले आएगा, जहां से बैलगाड़ी की यात्रा शुरू हुई थी। लेकिन इस बीच बैलगाड़ी में तुम्हें इतने दचके देगा कि तुम्हारा होश आ जाए, तुम्हारी बेहोशी टूट न स इतनी ही भूल है कि यह साक्षी-भाव को भी आप जाए, नींद टूट जाए। क्रिया बना लिए हैं। आप सोचते हैं, आप साक्षी-भाव तुम्हारी मंजिल दूर नहीं है। तुम्हारा होश कायम नहीं है। जो पाना ___ साधते हैं। साक्षी-भाव भी आपको कुछ करने जैसा है, वह तो यहां है। लेकिन जिसे पाना है, वह बेहोश है। और उससे मालूम होता है। एक भूल। सीधा यह कह देना कि तुम वहीं खड़े हो, जहां पाना है, वह तुम्हारी साक्षी-भाव कृत्य नहीं है, समस्त कृत्यों के प्रति बोध का भाव मानेगा नहीं। अगर उसको यही समझ में आ जाता, तो वह तुमसे | है। इसलिए साक्षी-भाव स्वयं कृत्य नहीं है। साक्षी-भाव के लिए पूछता ही नहीं। कुछ करना नहीं पड़ता। जो भी आप करते हैं, उसको देखना है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अव्यभिचारी भक्ति * और साक्षी-भाव को अगर आप कर्म बना लेंगे, तब तो फिर करूंगा। तो आप अकड़ जाएंगे और अकड़कर देखेंगे; वह कर्तृत्व आपको इसको भी देखना पड़ेगा। इसके पीछे फिर आपको पुनः हो गया, साक्षी-भाव खो गया। साक्षी होना पड़ेगा। साक्षी अंतिम है, उसके पीछे जाने का कोई साक्षी-भाव तो सहज है। उसके लिए अकड़ नहीं चाहिए। उपाय नहीं है। इसलिए आप साक्षी-भाव को कर्म मत बनाएं, उसे | उसके लिए कोई करने की बात नहीं चाहिए। करने का कोई सवाल सहज रहने दें। ही नहीं है। जरा कठिन है, क्योंकि हम सब चीज को कर्म बना लेते हैं। हम | मगर क्या करें आप! साक्षी-भाव पास में नहीं है, तो आप तो साक्षी-भाव को भी साधने लगते हैं। करेंगे ही। जब तक आप करेंगे, तब तक साक्षी-भाव नहीं सधेगा। यह वैसा ही है, जैसे किसी आदमी को मैं कहूं कि नींद को लाने | | इसीलिए आप कहते हैं, संभवतः साक्षीत्व का प्रयोग कर रहा हूं। के लिए कुछ करना नहीं पड़ता। और उसको नींद नहीं आती। वह | | नहीं तो संभवतः का खयाल नहीं आएगा। अगर साक्षी का प्रयोग मुझसे पूछेगा, यही तो मेरी समस्या है कि मुझे नींद नहीं आती। मैं | | हो रहा है, तो हो रहा है। संभव की क्या बात है? पूछता हूं कि क्या करूं कि नींद आ जाए? और आप कहते हैं, नींद आप कभी नहीं कहते कि संभवतः मैं जिंदा हूं! आप जिंदा हैं, लाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता। तो इसका मतलब हुआ कि तो आप जानते हैं, जिंदा हैं। मर गए, तो बात खत्म हो गई। संभवतः मुझे नींद कभी आएगी ही नहीं। मुझे आती नहीं। | कहने वाला भी नहीं रहा। - वह कोई विधि मांगता है। वह कहता है, मैं कुछ करूं, जिससे | साक्षी-भाव अगर होगा, तो होगा। नहीं होगा, तो नहीं होगा। नींद आ जाए। तो आप उसे बता सकते हैं कि तू एक से लेकर सौ | | संभव का अर्थ ही यह हुआ कि आप साक्षी-भाव को एक क्रिया तक गिनती कर। फिर सौ से उलटा लौट–निन्यानबे, अट्ठानबे, | बना लिए हैं। आप कोशिश कर रहे हैं। कोशिश से ही तो सत्तानबे-एक तक आ। फिर एक से जा। साक्षी-भाव मिट जाएगा। मगर उसके खतरे हैं। खतरा यह है कि जब तक आप गिनती | ___ आप कोशिश मत करें। जो भी होता है, उसे देखें। कभी पढ़ते रहें तो नींद आ ही नहीं सकती। क्योंकि कोई भी साक्षी-भाव हो जाए तो ठीक न हो. तो ठीक। लेकिन कोशिश कर्म नींद में बाधा डालेगा। कोई भी कर्म विश्राम में बाधा डालेगा। | मत करें। साक्षी-भाव को छोड़ दें अपने पर। एक क्षण को भी आ आप कुछ भी करें, जब तक आप कर रहे हैं, तब तक नींद नहीं | | जाए चौबीस घंटे में, तो काफी है। बस, उतनी देर देख लें। जब न आएगी। करना तो बंद होना चाहिए, तभी नींद आएगी। आए, फिक्र न करें। जब साक्षी-भाव आए, तो उसे देख लें। और नींद नहीं आती, उसका मतलब ही इतना है कि आपके मन में जब न आए, तो उसके न आने को देखते रहें। जब द्रष्टा सध जाए, करना जारी रहता है। इतना ही हो सकता है कि एक से सौ तक | | तो उसको देख लें। जब द्रष्टा खो जाए, तो उसको देख लें। गिनती, सौ से फिर वापस एक तक गिनती, फिर एक से सौ तक | गुरजिएफ इस संबंध में बहुत कीमती है। गुरजिएफ से आस्पेंस्की गिनती आपको उबा दे, थका दे। और आप कर-करके ऊब जाएं, ने पूछा है कि मैं...। क्योंकि गुरजिएफ की साधना थी सेल्फ थक जाएं। और उस थकान की वजह से संख्या पढ़ना भूल जाएं। रिमेंबरिंग की। उसको साक्षी-भाव कहें। स्वयं का स्मरण बनाए और उस भले क्षण में नींद आ जाए। यह हो सकता है। लेकिन रखना। कभी-कभी भूल जाएगा। कभी-कभी खो जाएगा। नींद तो तभी आएगी, जब करना छूट जाएगा। जब तक करना तो आस्पेंस्की गुरजिएफ से पूछ रहा है, उसका शिष्य, कि जारी रहेगा, तब तक नींद नहीं आएगी। करने में और नींद में | कभी-कभी जब खो जाए, तब मैं क्या करूं? कभी तो ध्यान सधता विपरीतता है। है और कभी बेध्यान हो जाता हूं। तो गुरजिएफ कहता है, जब ध्यान ठीक ऐसे ही साक्षी-भाव की दशा है। आप कुछ भी करें, | सधे, तो जानो कि ध्यान सधा। और जब बेध्यान हो जाओ, तो साक्षी-भाव नहीं हो पाएगा। क्योंकि जो भी आप | जानो कि अब बेध्यान है। लेकिन इसमें कुछ कलह खड़ी मत करो। हो गए। साक्षी का मतलब ही यह है कि मैं कर्ता नहीं बनूंगा, मैं | |बी अटेंटिव आफ योर इनअटेंशन। वह जब बेध्यान हो जाए. तब सिर्फ देखंगा। मैं किसी तरह का कर्ता-भाव पैदा नहीं होने दूंगा। उसका भी ध्यान रखो। जब होश रहे तो ठीक, होश के प्रति होश लेकिन आप कहते हैं कि मैं सिर्फ देखूगा, तो मैं देखने का कर्म रखो। और जब बेहोशी आ जाए तो ठीक, बेहोशी के प्रति होश रखो। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * तनी ही दूरी .. बड़े मजे की बात है। क्योंकि जब आप बेहोशी के प्रति होश भी आप कुछ करने लगे, तो कर्ता आ गया। और जो भी हो रहा है, रखेंगे, तो बेहोशी टिक नहीं सकती। उसे आप देखते रहे, तो साक्षी रहा। सहज होश को रखो। उठते-बैठते, चलते-सोते, जो भी हो रहा । जो भी हो रहा है, होने दें। ऐसा समझें कि जैसे किसी और को हो। कभी-कभी सपना मन को पकड़ लेगा, तो पकड़ लेने दो। | हो रहा है। आप जैसे किसी नाटक को देख रहे हैं। किसी और पर कभी-कभी भूल जाएंगे, तो भूल जाओ। इससे अड़चन खड़ी मत | | कहानी बीत रही है। दूरी! उसमें इतने ज्यादा डूबें मत। उसकी करो: इससे तनाव मत बनाओ। साक्षी-भाव के सहज सत्र को वासना न बनाएं। नहीं तो हम सोचते हैं पहले कि जैसे और चीजें स्फुरित होने दो। मिल जानी चाहिए, साक्षी-भाव भी मिल जाना चाहिए। उसकी धीरे-धीरे. एक-एक. दो-दो क्षण करके वह झरना फटेगा। और वासना बनाते हैं। जितने जोर से हम वासना बनाते अगर सहज रहे, तो वह झरना बंद नहीं होगा; बड़ा होता जाएगा। | हो जाती है। और अगर झपट्टा मारकर उसको पकड़ा, तो वे जो दो बूंद आ रही | | साक्षी-भाव आपके लाने से नहीं आएगा। आपके मिट जाने से थीं, वे भी बंद हो जाएंगी। आएगा। और मिटने की सुगमतम कला एक ही है कि आप करने कुछ चीजें हैं, जिनको झपट्टे से नहीं पकड़ा जा सकता। उसमें वे | | के साथ अपने को मत जोड़ें; सिर्फ देखने के साथ जोड़ें। मर जाती हैं। वे बहुत कोमल हैं। अति कोमल हैं। बहुत डेलिकेट । इसलिए हमने परम साधना के सूत्र को इस मुल्क में दर्शन कहा हैं, नाजुक हैं। उनको पत्थर की तरह हाथ में नहीं लिया जा सकता। | है। दर्शन का मतलब है, सिर्फ देखने की कला। जरा भी कुछ न करें। लेकिन हमारी आदत हर चीज को पत्थर की तरह हाथ में लेने की है। इसलिए जब फूल पर भी हमारा हाथ पड़ता है, तो हम पत्थर की तरह ही हाथ में ले लेते हैं। उसमें ही फूल मर जाता है। अंतिम प्रश्नः कामवासना के पार जाने के लिए और साक्षी-भाव सबसे नाजुक फूल है। उससे ज्यादा नाजुक इस अविवाहित रहने की सहज इच्छा रखने वाला साधक जगत में कोई भी चीज नहीं है। वह सर्वाधिक नाजुक है। उससे साक्षी-भाव को साधे या वासना में उतरकर उसकी ज्यादा कोमल फिर कुछ भी नहीं है। इसलिए उसको आप झपट्टा व्यर्थता या सार्थकता को जान ले? अविवाहित रहने मारकर नहीं पकड़ सकते। उसको आपको सहजता से आने देना | की सहज इच्छा क्या इस तथ्य को इंगित नहीं करती होगा। आपको चुपचाप प्रतीक्षा करनी होगी। और अगर वह न | कि इसकी व्यर्थता को उसने अपने पिछले जन्मों की आए, जैसा पूछा है, कि अभी भी दूर खड़ा मालूम पड़ता है; तो | यात्रा में बहुत दूर तक जान लिया है? क्या कृपा करके बताएं कि मेरी भूल क्या है ? उसे दूर खड़ा रहने दें और | साक्षी-भाव बिना उसकी पूर्ण व्यर्थता जाने नहीं साधा देखते रहें। उसको पास लाने की फिक्र मत करें। सिर्फ देखने की जा सकता? फिक्र करें कि वह दूर खड़ा है। देखते रहें। उसको पास लाने की कोशिश में कर्ता-भाव आ जाएगा और साक्षी-भाव खो जाएगा। क्योंकि आप कर्म की फिर जिज्ञासा करने लगे। हली बात, अविवाहित होने की सहज इच्छा और ___अनंत जीवन तक भी वह खड़ा रहे साक्षी-भाव क्षितिज की तरह | अकाम, एक ही बात नहीं हैं। अगर वासना ही न और आपको न मिले, तो भी जल्दी मत करें। और जिस दिन आप उठती हो, तब तो कोई सवाल नहीं है। तब तो यह अपनी जगह खड़े रहेंगे और वह अपनी जगह खड़ा रहेगा और | सवाल भी नहीं उठेगा। वासना ही न उठती हो, तो यह सवाल ही कोई भाग-दौड़ नहीं होगी, अचानक आप पाएंगे कि वह आपके | कहां उठता है! भीतर खड़ा है, दूरी मिट गई। लेकिन दूरी मिटाई नहीं जा सकती। | ___ अविवाहित रहने की इच्छा और वासना का न उठना अलग बातें आप दौडकर नहीं मिटा सकेंगे। क्योंकि दौडने का मतलब है. | हैं। अविवाहित तो बहत-से लोग रहना चाहते हैं। वस्ततः तो जो कर्ता आ गया। ठीक वासना से भरे हैं, वे विवाह से बचना चाहेंगे, क्योंकि विवाह यह कर्ता और साक्षी शब्दों का फासला ठीक से समझ लें। जब | उपद्रव है वासना से भरे आदमी के लिए। विवाह का मतलब है. 158 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अव्यभिचारी भक्ति एक स्त्री, एक पुरुष से बंध गए। और वासना बंधना नहीं चाहती; वासना उन्मुक्त रहना चाहती है। तो विवाह न करने की इच्छा जरूरी नहीं है कि ब्रह्मचर्य की इच्छा हो । विवाह न करने की इच्छा बहुत गहरे में अब्रह्मचर्य की इच्छा भी हो सकती है। फिर विवाह न करने की इच्छा के पीछे हजार कारण होते हैं। विवाह एक जिम्मेवारी है, एक उत्तरदायित्व है। सभी लोग उठाना भी नहीं चाहते। बहुत चालाक हैं, वे बिलकुल नहीं उठाना चाहेंगे। कौन उस झंझट में पड़े ! लेकिन वासना का न होना दूसरी बात है। विवाह का वासना से कोई लेना-देना नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है, किन्हीं और कारणों से। एक नौकरानी रखना भी महंगा है घर में एक पत्नी से ज्यादा सस्ता कोई भी उपाय नहीं है। बिना वासना के आदमी विवाह कर सकता है। और वासना से भरा हुआ आदमी विवाह से बच सकता है। इसलिए विवाह और वासना को पर्यायवाची न समझें। `चारों तरफ विवाह का दुख दिखाई पड़ता है। जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है, वह विवाह से बचना चाहेगा। मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही है कि क्या नसरुद्दीन, कभी तुम्हारे मन में ऐसा भी खयाल उठता है कि मुझसे तुमने विवाह न किया होता तो अच्छा होता ? या ऐसा खयाल उठता है कभी कि मैंने — नसरुद्दीन की पत्नी ने - किसी और से विवाह कर लिया होता, तो अच्छा था ? नसरुद्दीन ने कहा कि मैं किसी दूसरे का बुरा क्यों चाहने लगा ! . एक भावना जरूर मन में उठती है कि तू अगर सदा कुंआरी रहती तो अच्छा था। तो चारों तरफ विवाह आप देख रहे हैं। वहां जो दुख फैला हुआ है। हर बच्चे को उसके घर में दिखाई पड़ रहा है, उसके मां-बाप का दुख; बड़े भाइयों, उनकी पत्नियों का दुख । विवाह एक नरक है, चारों तरफ फैला हुआ है। बड़ी गहरी वासना है, इसलिए हम फिर भी विवाह में उतरते हैं। नहीं तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। अंधे हैं बिलकुल, शायद इसलिए। बिलकुल समझ से नहीं चलते। या हर आदमी को एक खयाल है भीतर कि मैं अपवाद हूं। इसलिए सब लोग दुख भोग रहे हैं, मैं थोड़े ही भोगूंगा। हर आदमी को यह खयाल है। अरब में कहावत है कि परमात्मा हर आदमी को बनाकर उसके कान में एक बात कह देता है कि तुझे मैंने अपवाद बनाया है। तेरे | जैसा मैंने कोई बनाया ही नहीं। तू नियम नहीं है; तू एक्सेप्शन है। और हर आदमी इसी वहम में जीता है। आप अपने जैसे पचास आदमियों को मरते देखें उसी गड्ढे में । आप अकड़ से चलते जाएंगे कि मैं थोड़े ही! मैं बात ही अलग हूं। | इस अपवाद के कारण आप विवाह में उतरते हैं। नहीं तो आंख खोलने वाली है, विवाह की घटना चारों तरफ घटी हुई है। उसमें कहीं कोई छिपा हुआ नहीं है मामला। तो जरा भी समझ होगी, तो आपमें विवाह की सहज इच्छा न पैदा होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि आपमें ब्रह्मचर्य की इच्छा पैदा हो रही है। ब्रह्मचर्य बड़ी दूसरी बात है। अकाम बड़ी दूसरी बात है। यह जो अकाम है, अगर वह सहज है, तो यह प्रश्न ही नहीं उठेगा। फिर कहीं जाने का कोई सवाल नहीं है, किसी अनुभव में उतरने की जरूरत नहीं है। जिस बात की मन में वासना नहीं उठ रही, उसके अनुभव में उतरने का प्रयोजन क्या है ? और अनुभव में उतरूं या न उतरूं, यह भी खयाल क्यों उठेगा ? साफ है कि वासना भीतर मौजूद है। विवाह की जिम्मेवारी लेने का मन नहीं है। मन चालाक वह होशियारी की बातें कर रहा है। तो मैं कहूंगा कि अगर मन में वासना हो, तो वासना में उतरना ही उचित है । उतरने का मतलब यह नहीं है कि आप साक्षी - भाव खो दें। उतरें और साक्षी भाव कायम रखें। उतरेंगे, तभी साक्षी भाव को कसौटी भी है। और अगर नहीं उतरे, तो साक्षी भाव तो साधना मुश्किल है। और वासना सघन होती जाएगी; और मन में चक्कर काटेगी; और मन को अनेक तरह की विकृतियों में, परवरशंस में ले जाएगी। जिनको हम साधु-संत कहते हैं, आमतौर से विकृत मनों की अवस्था में पहुंच जाते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन मरा। उसके बहुत शिष्य भी थे। इस दुनिया में शिष्य खोजना जरा भी कठिन मामला नहीं है। अनेक लोग उसे मानते भी थे। कुछ दिनों बाद उसका एक शिष्य भी मरा । तो जाकर | उसने पहला काम स्वर्ग में तलाश का किया कि नसरुद्दीन कहां है। पूछा- तांछा तो किसी ने खबर दी कि नसरुद्दीन वह सामने जो एक | सफेद बदली है, उस पर मिलेगा। भागा हुआ शिष्य अपने गुरु के पास पहुंचा। वहां जाकर उसने 159 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * देखा, तो बहुत चकित रह गया। बूढ़ा नसरुद्दीन एक अति सुंदर स्त्री | हो जाएंगे। अनुभव और साक्षी का भाव संयुक्त हो, तो आप मुक्त को अपनी गोद में बिठाए हुए है। उसने मन में सोचा कि मेरा गुरु! हो जाएंगे। अकेला अनुभव हो, तो आपकी आदत और गहरी होती और यह तो सदा विपरीत बोलता था स्त्रियों के और ब्रह्मचर्य के जाएगी। और फिर आदत के वश आप दौड़ते रहेंगे। और अकेला बड़े पक्ष में समझाता था। यह क्या हो गया। लेकिन तब उसे तत्क्षण | साक्षी-भाव हो और अनुभव से बचने का डर हो, तो वह साक्षी-भाव खयाल आया उसके अचेतन से कि नहीं-नहीं, यह परमात्मा का | कमजोर और झूठा है। क्योंकि साक्षी-भाव को कोई भय नहीं है। न दिया गया पुरस्कार होगा, यह जो स्त्री है। मेरे गुरु ने इतनी साधना किसी चीज के करने का भय है, और न न करने का भय है। की और इतनी तपश्चर्या करता था और इतना ज्ञानी था कि जरूर | साक्षी-भाव को कर्म का प्रयोजन ही नहीं है। जो भी हो रहा है. उसको पुरस्कार में यह सुंदरतम स्त्री मिली है। उसे देखता रहेगा। तो साक्षी मंदिर में बैठा हो कि वेश्यालय में, कोई तो वह भागा हुआ गया। उसने कहा, धन्यभाग; और परमात्मा | फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि साक्षी का काम सिर्फ देखने का है। का अनुग्रह; प्रभु की कृपा; कैसा पुरस्कार तुम्हें मिला! नसरुद्दीन ___ कथा है बौद्ध साहित्य में, आनंद एक गांव से गुजर रहा ने कहा, पुरस्कार? यह मेरा पुरस्कार नहीं है; इस स्त्री को मैं दंड | है-बुद्ध का शिष्य। और कथा है कि एक वेश्या ने आनंद को की तरह मिला हूं। शी इज़ नाट माई प्राइज; आई एम हर पनिशमेंट। | | देखा। आनंद संदर था। संन्यस्त व्यक्ति अक्सर संदर हो जाते हैं। लेकिन उस शिष्य के मन में, अचेतन में, यह खयाल आ जाना | और संन्यस्त व्यक्तियों में अक्सर एक आकर्षण आ जाता है, जो कि यह पुरस्कार मिला होगा, इस बात की खबर है कि वासना | | गृहस्थ में नहीं होता। एक व्यक्तित्व में आभा आ जाती है। कायम है और इसको पुरस्कार मानती है। वह वेश्या मोहित हो गई। और कथा यह है कि उसने कुछ इसलिए ऋषि-मुनि भी स्वर्ग में किस पुरस्कार की आशा कर रहे | | तंत्र-मंत्र किया। बुद्ध देख रहे हैं दूर अपने वन में वृक्ष के नीचे बैठे। हैं? अप्सराएं, शराब के चश्मे, कल्पवृक्ष, उनके नीचे ऋषि-मुनि दूर घटना घट रही है, आनंद बहुत दूर है, लेकिन कथा यह है कि बैठे हैं और भोग रहे हैं! बुद्ध देख रहे हैं। बुद्ध देख सकते हैं। वे देख रहे हैं। बुद्ध के पास तो जो आप छोड़ रहे हैं. वह छोड़ नहीं रहे हैं। वह कछ सौदा है। सारिपत्त, उनका शिष्य भी बैठा हआ है। वह भी देख रहा है। गहरा और उसमें पुरस्कार की आशा कायम है। यह इस बात की। सारिपुत्त बुद्ध से कहता है, आप आनंद को बचाएं। वह किसी सूचना है कि ये मन विकृत हैं। ये स्वस्थ मन नहीं हैं। मुश्किल में न पड़ जाए। क्योंकि स्त्री बड़ी रूपवान है और उसने जिन-जिन के स्वर्ग में अप्सराओं की व्यवस्था है, उन-उन का बड़ा गहरा तंत्र-मंत्र फेंका है। और आनंद कहीं ठगा न जाए। ब्रह्मचर्य परवटेंड है, विकृत है। और जिन्होंने स्वर्ग में शराब के | लेकिन बुद्ध देखते रहते हैं। चश्मे बहाए हैं, उनके शराब का त्याग बेईमानी है, झूठा है। जो वे | अचानक बुद्ध उठकर खड़े हो जाते हैं और सारिपुत्त से कहते हैं, यहां नहीं पा सकते या यहां जिसको छोड़ने को कहते हैं, वहां अब कुछ करना होगा। सारिपुत्त कहता है, अब क्या हो गया जो उसको पाने का इंतजाम कर लेते हैं। यह मन की दौड़ साफ है। यह आप करने के लिए कहते हैं ? अब तक मैं आपसे कह रहा था, कुछ गणित सीधा है। करें। आप चुप बैठे रहे। जो बीमारी शुरू हुई, उसे पहले ही रोक तो मैं तो कहूंगा कि बजाय वासना को दबाने, विकृत करने के | देना उचित है! साक्षी-भाव से उसमें उतर जाना उचित है। संसार एक अवसर है। ___ बुद्ध ने कहा, बीमारी अब तक शुरू नहीं हुई थी; अब शुरू हुई यहां जो भी है, अगर उसका जरा भी मन में रस है, तो उसमें उतर है। आनंद मूर्छित हो गया; साक्षी-भाव खो गया। अभी तक कोई जाएं, भागें मत। नहीं तो वह स्वर्ग तक आपका पीछा करेगा। डर नहीं था। वेश्या हो, सुंदर हो, कुछ भी हो, अभी तक कोई भय आखिरी क्षण तक आपका पीछा करेगा। उसमें उतर ही जाएं। | न था। और आनंद उसके घर में चला जाए; रात वहां टिके; कोई उसका अनुभव ले ही लें। भय की बात नहीं थी। अब भय खड़ा हो गया है। अनुभव मुक्तिदायी है, अगर होश कायम रखें। नहीं तो अनुभव | लेकिन सारिपुत्त बड़ा चकित है, क्योंकि आनंद अब भाग रहा पुनरुक्ति बन जाता है और नए चक्कर में ले जाता है। है। वेश्या बहुत दूर रह गई है। जब बुद्ध कहते हैं, भय हो गया है, इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मात्र अनुभव से आप मुक्त तब आनंद वेश्या से दूर निकल गया है भागकर और उसने पीठ कर 160/ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अव्यभिचारी भक्ति * ली है। वह लौटकर भी नहीं देख रहा है। लेकिन बुद्ध खड़े हैं। और है, ताकि अनुभवों से गुजरकर परिपक्व हो जाए। वे कहते हैं, इस समय आनंद को सहायता की जरूरत है। तो मैं तो कहूंगा, सब अनुभव भोग लें, बुरे को भी। अगर जरा सारिपुत्त कहता है, आप भी अनूठी बातें करते हैं। जब वेश्या भी रस हो बरे में, तो उसको भी भोग लें। बस इतना ही खयाल रखें सामने खड़ी थी और आनंद उसको देख रहा था और डर था कि वह कि भोगते समय में भी होश बना रहे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। लोभित हो जाए, मोहित हो जाए, तब आप चुपचाप बैठे रहे। और और अगर आप डरे, जिम्मेवारी से बचना चाहा, तो वासनाएं विकृत अब जब कि आनंद भाग रहा है, और वेश्या दूर रह गई है, और हो जाएंगी और भीतर मन में घूमती रहेंगी। उसके मंत्र-तंत्र पीछे पड़े रह गए हैं, और उसके प्रभाव का क्षेत्र पार | उन विकृत वासनाओं के परिणाम कभी भी मुक्तिदायी नहीं हैं। कर गया है आनंद, और आनंद लौटकर भी नहीं देख रहा है, तो स्वास्थ्य से तो कोई मुक्त हो सकता है, विकृति से कोई मुक्त नहीं अब आपके खड़े होने की क्या जरूरत है? हो सकता। बुद्ध ने कहा, वह भाग ही इसलिए रहा है कि साक्षी-भाव खो | तो सहज हों, स्वाभाविक हों। और जो भी मन में उठता हो, गया। अब वह कर्ता-भाव में आ गया है। और कर्ता की वजह से | उसको उठने दें, उसको पूरा भी होने दें। सिर्फ एक ही बात खयाल डरा हुआ है। और अब वह डर रहा है। जब तक साक्षी था, तब रखें कि पीछे एक देखने वाला भी खड़ा रहे और देखता रहे। तक खड़ा था, डर के कोई कारण भी न थे। अब उसको सहायता आपकी पूरी जिंदगी एक नाटक हो जाए और आप उसको देखते की जरूरत है। रहें। यह देखना ही सारी जिंदगी को बदल देगा। यह बड़ा क्रांतिकारी एक ही बात करने जैसी है कि आपके भीतर साक्षी-भाव बना सूत्र है, देखने के द्वारा पूरी जिंदगी को बदल लेना।। रहे। फिर आप कुछ भी करें, विवाह करें, न करें, कुछ भी करें, भागने के द्वारा कोई कभी नहीं बदलता। भागने से सिर्फ साक्षी-भाव आपके अनुभव में जुड़ा रहे, तो आप आज नहीं कल कमजोरी जाहिर होती है। और भागे हुए आदमी की वासनाएं पीछा अपनी मक्ति की सीढियां परी कर लेंगे। करती हैं। वह जहां भी चला जाए. वासनाएं उसके पीछे होंगी। लेकिन ध्यान रहे, अधूरे और कच्चे अनुभवों को रोकने का | __ अब हम सूत्र को लें। परिणाम विषाक्त होता है। भागें मत; डरें मत; साक्षी को ही सम्हालें। और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को मेरा सारा जोर इस बात पर है कि आप जागें, बजाय भागने के। निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन भागकर कहां जाएंगे? विवाह न करें, यह हो सकता है। लेकिन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है। कितने लोग विवाह न करने से कुछ कहीं पहुंच नहीं जाते। विवाह न तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा करने का परिणाम चित्त में और वासनाओं का जाल होता है। नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं। .. अगर एक विवाहित और एक अविवाहित आदमी की जांच की | | पहली बात, जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा...। जाए बैठकर, तो अविवाहित आदमी के मन में ज्यादा वासना । व्यभिचार का अर्थ है, जहां मन में बहुत दिशाएं हों; जहां मन में मिलेगी। स्वाभाविक है। जैसे एक भूखे आदमी की और भोजन | बहुत प्रेम-पात्र हों; जहां मन में बहुत खंड हों। विभाजित मन किए आदमी की जांच की जाए, तो भूखे आदमी के मन में भोजन | व्यभिचारी मन है। अव्यभिचारी भक्तिरूप का अर्थ है कि मन का ज्यादा ख़याल मिलेगा। जिसका पेट भरा है, उसके मन में | | एकजुट हो, इकट्ठा हो। एक ही धारा में बहे, एक ही दिशा की तरफ भोजन का खयाल क्यों होगा! प्रवाहित हो, तो अव्यभिचारी है। तो जब तक आपको भीतर का साक्षी ही न जगने लगे, तब तक __ संसार में हमारा मन बहुत तरफ बह रहा है। संसार में हम सभी जीवन के किसी अनुभव से अकारण अधूरे में, अधकचरे में भागना | व्यभिचारी हैं। मन का एक हिस्सा धन के लिए दौड़ रहा है। मन उचित नहीं है। उस भय से कोई किसी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। | का दूसरा हिस्सा पद के लिए दौड़ रहा है। मन का तीसरा हिस्सा है। सारा जीवन अनुभव के लिए है। यह ऐसा ही है, जैसे हम किसी | | यश के लिए दौड़ रहा है। मन का चौथा हिस्सा धर्म के लिए दौड़ विद्यार्थी को विश्वविद्यालय भेज दें और वह वहां परीक्षाओं से रहा है। पांचवां हिस्सा कुछ और; छठवां कुछ और। आपके भीतर बचने लगे। यह संसार परीक्षालय है। वहां आपकी चेतना इसीलिए एक भीड़ है। और सभी अलग-अलग भागे जा रहे हैं। 161 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* हा इसलिए बड़ा द्वंद्व है और बड़ी कलह है। क्योंकि एक ही व्यक्ति | व्यभिचारी को कोई शांति नहीं। हो नहीं सकती। अव्यभिचारी को इतनी दिशाओं में भागना पड़ रहा है। जैसे एक ही बैलगाड़ी में | इसीलिए बड़ी मूल्यवान बात है। हमने सब तरफ बैल जोत दिए हैं। आठों दिशाओं में बैल जा रहे कृष्ण कहते हैं, जब तक कोई अव्यभिचारी-भाव से सत्य की हैं। बैलगाड़ी कहां जाए? तो जब भी कोई बैल जरा ताकत ज्यादा ओर, स्वयं की ओर, सच्चिदानंदघन परमात्मा की ओर न बहे, तब लगा देता है या दूसरा बैल थोड़ा ढीला और शिथिल होता है या तक कोई उपलब्धि नहीं है। विश्राम कर रहा होता है या ज्यादा ताकत पहले लगा चुका होता है और ध्यान रहे, अगर आप अव्यभिचारी हैं, तो एक ही क्षण में और अब ताकत नहीं बचती, तो बैलगाड़ी को थोड़ी देर कोई पूरब भी उपलब्धि हो सकती है। क्योंकि जब सारी शक्ति एक दिशा में की तरफ खींच लेता है। बहती है, तो सब बाधाएं टूट जाती हैं। लेकिन यह थोड़ी देर हो सकता है। क्योंकि जो पूरब की तरफ | बाधाएं हैं ही नहीं। बाधाएं खड़ी हैं, क्योंकि आप बहुत दिशाओं खींच रहा है, वह थक जाएगा खींचने में। और पश्चिम की तरफ | में बह रहे हैं। इसलिए आपकी शक्ति ही इकट्ठी नहीं हो पाती, जो जो बैल बंधा हुआ है, जो कि इस खिंचने में जा रहा है, वह थकेगा किसी भी दिशा में बह सके। नहीं। वह थोड़ा ढील दे रहा है, विश्राम कर रहा है। जब उसकी जैसे हम गंगा को हजार हिस्सों में बांट दें और गंगा का कोई भी ताकत इकट्ठी हो जाएगी और पूरब की तरफ ले जाने वाला बैल थक | हिस्सा फिर सागर तक न पहुंच पाए। सारी गंगा रेगिस्तानों में खो जाएगा, तब वह पश्चिम की तरफ बैलगाड़ी को खींचेगा। | जाए। गंगा के लिए कोई बाधा नहीं है। लेकिन अविभाज्य धारा ऐसे आप जिंदगीभर खिंचेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं। चाहिए। गंगा इकट्ठी हो, तो ही सागर तक पहुंच सकती है। और बैलगाड़ी आखिर में वहीं अस्थिपंजर टूटे हुए पड़ी मिलेगी, जहां | आप भी इकट्ठे हों, तो ही परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। शुरू में खड़ी थी। लेकिन जैसा हमारा मन है, उसमें बड़ी तकलीफ है। उसकी ऐसा हमारा मन है, व्यभिचारी मन है। इसमें कभी एक बात ठीक पहली तकलीफ तो यह है कि वह इकट्ठा कभी भी नहीं है, एकजुट लगती है, कभी उससे विपरीत बात ठीक लगती है। अभी धन कमा | कभी भी नहीं है; खंड-खंड है, टूटा-टूटा है। और जब एक खंड रहे हैं; और तभी कोई आ जाता है कि आप! आप जैसा यशस्वी | कहता है, यह करो, तभी दूसरा खंड कुछ और कह रहा है कि यह पुरुष! आपके नाम से तो एक धर्मशाला बननी ही चाहिए। मत करो। तो हम जो भी करें, उसी से पछतावा हाथ लगता है। और अभी धन इकटा कर रहे थे. अब यह गाय का भी रहे थे; अब यह नाम का भी मोह पकड़ता जो भी हम न करें, उसका भी पछतावा रह जाता है कि वह हमने है कि एक धर्मशाला तो कम से कम होनी ही चाहिए, जिस पर एक क्यों न कर लिया। पट्टी तो लगी हो। एक मंदिर बनवा दूं। बिरला का मंदिर है; मेरा ___ हम दुख ही इकट्ठा करते हैं, करें तो, न करें तो। आप धन क्यों न हो! अभी धन पकड़े था; अब यह धन खर्चा करने का काम | | कमाएं, तो दुखी होंगे। क्योंकि आप धन कमाकर पाएंगे कि इससे है। यह आपके मन के विपरीत है मामला। लेकिन इससे यश तो अच्छा था, मैंने ज्ञानार्जन किया होता, तो कुछ सुख तो मिलता। मिलता है, नाम मिलता है। या इससे तो अच्छा था कि मैं किसी बड़े पद पर हो गया होता; सारी __ अब ये मंदिर बनाएंगे। मंदिर बनाते-बनाते यह बैल थक | | ताकत उस तरफ लगा दी होती। एक राजनेता हो गया होता। कुछ जाएगा। और मंदिर बन भी नहीं पाएगा, उसके पहले ही आप ब्लैक | सुख तो मिलता। मार्केटिंग और जोर से करने लगेंगे। क्योंकि वह जितना पैसा खर्च | | राजनेता हो जाते, तो सोचते, इससे तो बेहतर था, कुछ धन ही हो गया, उसको पैदा करना है। तो इधर मंदिर बन नहीं पाता कि वह | कमा लेते। यह तो व्यर्थ की दौड़-धूप है। ज्ञान इकट्ठा कर लेते, तो आदमी जोर से और जेब काटने लगेगा; चोरी और करने लगा; | | कहते, क्या हुआ! शब्द ही शब्द हाथ में लग गए। कुछ मजबूत स्मगलिंग करेगा। कुछ उपाय करेगा जल्दी से, ताकि यह जो मंदिर हाथ में नहीं है। कुछ सब्स्टेंशियल, कुछ सारभूत नहीं दिखता। में लग गया है, इससे दस गुना पैदा कर ले। सभी रोते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह जो ज्ञान इकट्ठा कर लेते हैं, यह चल रहा है। यह पूरे वक्त आपके मन को पकड़े हुए है। यह वे रो रहे हैं। धन इकट्ठा कर लेते हैं, वे रो रहे हैं। पद इकट्ठा कर विभिन्न दिशाओं में दौड़ता हुआ मन व्यभिचारी मन है। और लेते हैं, वे रो रहे हैं। हंसता हुआ आदमी ही नहीं दिखता। जो भी 162 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अव्यभिचारी भक्ति * दिखता है, रोता हुआ दिखता है। फिर भी, जो आप हैं, उसके लिए | | और उसका छोटा बच्चा घम रहा है कमरे में। वह सब काम करती आप ज्यादा रोते हैं। जो आप नहीं हैं, उसका आपको अनुभव नहीं | रहती है, लेकिन उसका भाव बच्चे की तरफ लगा रहता है। वह है। आप सोचते हैं, सारा जगत सुख भोग रहा है, मेरे सिवाय। मैं | | कहां जा रहा है? वह क्या कर रहा है? वह गिर तो नहीं जाएगा? दुख भोग रहा हूं। वह कोई गलत चीज तो नहीं खा लेगा? वह कोई चीज गिरा तो नहीं जहां भी आप हैं, वहां आप असंतुष्ट होंगे; यह व्यभिचारी मन | लेगा अपने ऊपर? वह सब काम करती रहेगी, लेकिन उसका का लक्षण होगा ही। क्योंकि कोई भी काम आप टोटल, समग्र अचेतन प्रवाहित रहेगा बच्चे की तरफ। चेतना से नहीं कर पाते हैं। और जो काम समग्र चेतना से होता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तफान भी आ जाए, आंधियां बह रही उसी का फल आनंद है। हों. मां की नींद नहीं खलती। लेकिन उसका बच्चा जरा-सी आवाज अगर आप गड्डा भी खोद पाएं जमीन में समग्र चेतना से; उस कर दे रात, उसकी नींद खुल जाती है। तूफान चल रहा है, उससे गड्डा खोदते वक्त आपके पूरे प्राण कुदाली बन गए हों, और मन | | उसकी नींद नहीं टूटती। लेकिन बच्चे की जरा-सी आवाज, कि कहीं भी न जा रहा हो; सारा मन कुदाली में प्रविष्ट कर गया हो;| | उसकी नींद टूट जाती है। जरूर कोई भाव गहरे में, नींद में भी सरक गड्ढा खोदना ही एक क्रिया रह जाए और कहीं भी कोई दौड़ न हो,। उस क्षण में आपको जो परम अनुभव होगा, वह आपको बड़ी से | मनोवैज्ञानिकों ने बहुत-से अध्ययन किए हैं। उसमें एक बड़ी प्रार्थना और पूजा और यज्ञ में नहीं हो सकता। क्योंकि आप | अध्ययन बड़ा कीमती है। अभी स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में वे एक जब प्रार्थना कर रहे हैं, तब मन हजार तरफ जा रहा है। तो वह प्रयोग करते हैं। और उस प्रयोग से भारत की बड़ी पुरानी खोज कुदाली से जमीन खोदना प्रार्थना हो जाएगी। | सिद्ध होती है। मुझसे भी लोग पूछते हैं, तो मैं वही प्रयोग उनको प्रार्थना का एक ही अर्थ है, अव्यभिचारी चित्त की धारा। वह स्मरण दिलाता हूं। किसी भी तरफ जा रही हो, पर इकट्ठी जा रही हो। मुझसे लोग पूछते हैं, आप अपने संन्यासी को कहते हैं स्वामी जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योग के द्वारा, अव्यभिचारी प्रेम | | और अपनी संन्यासिनी को कहते हैं मां, ऐसा क्यों? संन्यासिनी को के द्वारा मझको निरंतर भजता है....। मां क्यों और संन्यासी को स्वामी क्यों? या तो उसको भी स्वामिनी जिसके मन में निरंतर अंतिम की खोज का स्वर बजता रहता है। जैसा कोई शब्द दें; या संन्यासी को भी पिता क्यों नहीं? भजने का अर्थ यह नहीं कि आप बैठकर राम-राम, राम-राम | स्टैनफोर्ड में अभी-अभी एक प्रयोग हुआ, जो बड़ा सोचने जैसा कर रहे हैं। क्योंकि आपके राम-राम करने का कोई मूल्य नहीं है। | है। वह प्रयोग यह है कि जिस चीज में आपका रस होता है, उस रस जब आप राम-राम कर रहे होते हैं, तब भीतर आप और दूसरी चीजें | के कारण आपकी आंख की जो पुतली है, वह बड़ी हो जाती है। भी कर रहे होते हैं। धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है। राम-राम करते __ अगर आप कोई किताब पढ़ रहे हैं, जिसमें आप बहुत ज्यादा रस रहते हैं, और दूसरे हिसाब भी लगाते रहते हैं। राम-राम पा रहे हैं, तो कमरे में बिलकुल भी कम से कम प्रकाश हो, तो भी ऊपर-ऊपर चलता रहता है, जैसे कि कोई और कर रहा हो। और आप पढ़ पाएंगे। क्योंकि आपकी आंख की पुतली बड़ी हो जाती भीतर सब हिसाब चलते रहते हैं। तो उसका कोई मूल्य नहीं है। । है, आपकी जिज्ञासा के कारण, आपके रस के कारण। और अगर भजने का अर्थ है-भजन बड़ी गहरी प्रक्रिया है उसका अर्थ | आपको किताब में रस नहीं है, तो कमरे में प्रकाश भी पूरा हो, तो है, मेरे रोएं-रोएं में रस की तरह कोई चीज डोलती रहे। उर्ले, बैलूं, । । | भी आपको धुंधला-धुंधला दिखाई पड़ेगा। क्योंकि रस नहीं होता, चलूं, बाकी एक स्मृति सजग ही रहे कि उस परम को उपलब्ध | तो आंख की पुतली छोटी हो जाती है। करना है, सत्य को खोज लेना है, मुक्ति को खोज लेना है। ये कोई | ___ आंख की पुतली चौबीस घंटे छोटी-बड़ी होती है। जब आप शब्द बनें, यह आवश्यक नहीं है। इनको कोई ऊपर के शब्दों में बाहर जाते हैं धूप में, तो पुतली छोटी हो जाती है, क्योंकि उतनी छिपाने की जरूरत नहीं है। यह भीतर का भाव रहे। इसलिए इसे धूप को भीतर ले जाने की जरूरत नहीं है। कम से काम चल जाता भक्ति कहेंगे। भक्ति का अर्थ है, भाव। यह भाव बना रहे। । | है। जब आप बाहर से भीतर आते हैं, तो पतली बड़ी होती है, जैसे मां घर में काम कर रही हो, वह चौके में काम कर रही है। क्योंकि अब ज्यादा रोशनी भीतर जानी चाहिए। 163 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * इसीलिए एकदम धूप से आने पर आपको कमरे में अंधेरा | बड़े पद की तलाश करे, तो स्वामी होना चाहता है। त्याग करे, तो मालम पडता है. क्योंकि पतली छोटी रहती है। थोडी देर लगेगी. स्वामी होना चाहता है। वह कछ भी करे. उसकी खोज एक है कि तब पुतली बड़ी होगी। फिर कमरे में प्रकाश हो जाएगा। आपकी | वह मालिक हो जाए, चीजों पर उसका कब्जा हो। वह अपनी भी पुतली बिलकुल छोटी-बड़ी होकर प्रकाश को कम-ज्यादा भीतर खोज में निकले, तो भी स्वामी होना चाहता है। ले जाती है। भाव हम उसको कहते हैं, जिसको आपको सोचने की जरूरत स्टैनफोर्ड में उन्होंने एक प्रयोग किया कि अगर पुरुषों को कोई | नहीं पड़ती। जो आपके अचेतन में एक पर्त की तरह सदा बना हुआ भी चीज सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, तो नग्न स्त्री के चित्र। है। आप कुछ भी करें, वह मौजूद है। नग्न स्त्री का चित्र सामने आए, तो उनकी आंख की पुतली एकदम अव्यभिचारी-भाव का अर्थ है, परमात्मा का खयाल, स्मृति, बड़ी हो जाती है। वह खोज की धुन आपके भीतर बजती रहे। आप कुछ भी करें, वह उनके बस में नहीं है। आप कोशिश करके धोखा नहीं दे करना ऊपर-ऊपर हो, वह धुन भीतर बजती ही रहे। तो आपका सकते। क्योंकि आप पतली को कछ नहीं कर सकते. न छोटी कर | सारा करना उसका भजन हो जाएगा। सकते हैं, न बड़ी कर सकते हैं। नंगा चित्र स्त्री का सामने आते ही और आप उसका भजन करते रहें और भीतर कोई और धुन पुतली एकदम बड़ी हो जाती है। बजती रहे, वह बेकार है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि नंगे पुरुष का चित्र देखकर स्त्री | ___ मुल्ला नसरुद्दीन एक रईस के घर नौकर हुआ, लखनऊ में। तो की पुतली बड़ी नहीं होती। लेकिन एक छोटे बच्चे का चित्र देखकर | जैसा कि लखनऊ के रईसों का रिवाज था, पहले ही दिन नसरुद्दीन एकदम बड़ी हो जाती है। छोटा बच्चा, और स्त्री की पुतली एकदम को कहा गया-महफिल बैठी रात, दस-बीस रईस इकट्ठे थे कि बड़ी हो जाती है। जैसे मां होना उसकी सहज गति है। | नसरुद्दीन हुक्का भर ला। __पुरुष की सहज गति पिता होना नहीं है; पति होना, स्वामी होना | नसरुद्दीन हुक्का भर लाया। लेकिन एक के सामने रखे। वह कहे, सहज गति है। तो कोई पुरुष किसी स्त्री को इसलिए विवाह नहीं| | किबला आप ही शुरू करें। दूसरे के सामने रखे। वह कहे, किबला करता कि पिता बनेगा। सोचता ही नहीं है। बनना पड़ता है, यह आप शुरू करें। दूसरी बात है। न बने, तब तक पूरी चेष्टा करता है। तीन दफा वह भर-भरके लाया। हुक्का बुझ जाए। और किसी ने लेकिन स्त्री जब भी सोचती है, तो वह पत्नी बनने के लिए नहीं | | एक निवाली भी न ली। चौथी दफा वह भरकर लाया। बीच में सोचती; वह मां बनने के लिए सोचती है। और जब वह किसी से | बैठकर उसने हुक्का गुड़गुड़ाना शुरू कर दिया। प्रेम भी करती है, तो उसको जो पहला खयाल होता है वह यही होता। ___ तो जो मालिक था, वह एकदम क्रोध से भर गया। उसने कहा, कि इससे जो बच्चा पैदा होगा, वह कैसा होगा! उसकी जो गहरी | | कोई है? इस बदतमीज को पच्चीस जूते लगाओ! नसरुद्दीन ने आकांक्षा है, वह मां की है। कहा, किबला आप ही शुरू करें। आपसे ही शुरू करें। वहीं से इसलिए मैं अपनी संन्यासिनियों को मां कहता हूं, क्योंकि वह शुरू करें। मैं नियम समझ गया। उनकी पूर्णता का अंतिम शब्द है। और पुरुष को स्वामी कहता हूं, | आपको आपके मन में नियम को ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि पति, मालिक होना उसकी आखिरी खोज है। वह अपना | | क्या नियम है? नियम यह है कि जो ऊपर चल रहा है, वह सार्थक जिस दिन मालिक हो जाएगा, उसकी खोज पूरी होगी। और स्त्री | | नहीं है। जो भीतर चल रहा है, वह सार्थक है। इसलिए परमात्मा की खोज उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन सारा जगत उसे बेटे की | | को अगर ऊपर जोड़ दें आप, कोई मूल्य का नहीं है। भीतर जुड़ना तरह मालम पड़ने लगे: सारा अस्तित्व उसे बेटे की तरह मालम | चाहिए। एक। पड़ने लगे; सारे अस्तित्व से उसमें मातृत्व जग जाए। दूसरा नियम यह है कि आप व्यभिचारी हैं; आप हजार चीजें भाव का अर्थ है, जिस दिशा में आपकी अचेतन धारा सहज | खोज रहे हैं। इस हजार में परमात्मा भी हजार और एक हो जाए, तो बहती है। मां, स्त्री का भाव है। स्वामित्व, पुरुष का भाव है। वह | बेकार है। क्योंकि फिर वह व्यभिचार और बढ़ा, कम नहीं हुआ। कुछ भी करे; वह चाहे धन इकट्ठा करे, तो स्वामी होना चाहता है। | एक हजार चीजें पहले खोज रहे थे; उस लिस्ट में एक परमात्मा 164 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अव्यभिचारी भक्ति * और जोड़ दिया! है और वास्तविक है, जहां एक ही पिता होता है, जहां बहुत पिता इसलिए कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा को तुम अपने व्यभिचार की | नहीं हो सकते, उस भीतर की धारा से उसे जोड़ना। लिस्ट में न जोड़ सकोगे। तुम्हें सारी यह लिस्ट एक तरफ रख देनी और जहां एक ही हो सकता है, केंद्र पर एक ही हो सकता है, पड़ेगी। और इस सारी लिस्ट की तरफ तुम्हारा जो प्राण दौड़ रहा है, | परिधि पर अनेक हो सकते हैं। जैसे-जैसे चित्त अव्यभिचारी होता वह अकेला परमात्मा की तरफ ही दौड़े। है, वह केंद्र पर थिर हो जाता है। तुम कुछ भी करो, लेकिन सब करना तुम्हारा भजन बन जाए। अव्यभिचार के लिए इतना जोर है, क्योंकि अव्यभिचार के तुम भोजन भी करो, तो तुम्हें यह खयाल रहे कि जैसे तुम्हारे भीतर | माध्यम से ही तुम्हारी चेतना एक जगह बहेगी। और एक जगह बह छिपा परमात्मा भोग ले रहा है। तुम स्नान करो, तो तुम्हें खयाल रहे जाए कि तुम अनंत शक्तिशाली हो-तुम ही। और अनेक जगह कि तुम्हारे भीतर छिपा परमात्मा स्नान कर रहा है। तुम उठो-बैठो, | बह जाए, तो तुम नपुंसक हो, तुम व्यर्थ हो। तुम्हारी सब धाराएं तो तुम्हें खयाल रहे कि परमात्मा उठता है और बैठता है। यह धुन | मरुस्थल में खो जाएंगी और सागर से कभी मिलना न हो पाएगा। इतनी गहरी हो जाए कि यह अव्यभिचारी हो जाए। इसमें दूसरे का वह इन तीन गुणों को अच्छी प्रकार उल्लंघन करके-जो खयाल न रहे। तो ही! | अव्यभिचारी-भाव से निरंतर परमात्मा को भजता है-वह इन तीन इसी रईस के संबंध में मुझे एक घटना और खयाल आती है। | | गुणों को अच्छी प्रकार से उल्लंघन करके सच्चिदानंदघनरूप ब्रह्म नया-नया रईस था। नव-रईस जिसको कहते हैं। और नसरुद्दीन में एकीभाव के योग्य हो जाता है। को नौकरी पर लगाया था। तो उसने कहा कि नसरुद्दीन, एक बात | | तथा हे अर्जुन, उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा खयाल रखना। यह रईस का घर है। और यहां सब चीजें दिखावे | | नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का मैं ही आश्रय हूं। की हैं। यहां वास्तविक होने की जरूरत नहीं है। लेकिन दिखावा | वह जो परम आनंद है, अमृत है, परब्रह्म है, धर्म है—जो भी भरपूर होना चाहिए। तो अगर मैं कहूं कि नसरुद्दीन, शर्बत ले आ!| | हम उसे नाम दें-कृष्ण कहते हैं, उन सब का मैं ही आश्रय हूं। तो तू पहले पूछना, हुजूर, कौन-सा? गुलाब, कि अनानास, कि | यह जो मैं है, इसका कृष्ण की अस्मिता से कोई संबंध नहीं है। बादाम, केवड़ा, खस, कौन-सा हुजूर? तो जितने नाम हों, पहले यह कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए उपयोग नहीं किया गया है, यह सब कह देना। हालांकि अपने घर में एक ही है। और जो है, वही मैं। मैं तुझे कहूंगा कि ले आ नसरुद्दीन, यह ले आ। उस सब का आश्रय मैं हं...। दूसरे दिन ही कुछ मित्र आ गए और रईस ने कहा कि नसरुद्दीन, यह आप सबके भीतर जो छिपा हुआ अंतिम मैं है, उसके लिए पान ले आ। नसरुद्दीन ने कहा, हुजूर कौन-सा? कपूरी, बनारसी, | | उपयोग किया गया है। जो-जो भी कह सकता है मैं, उस मैं की जो महोबा, कौन-सा? अंतिम धारा है, उस अंतिम धारा के लिए उपयोग किया गया है। पान बुलाया गया, जो पान घर में था। मित्रों ने लिया। मित्र बड़े | | यह कृष्ण के मैं से इसका संबंध नहीं। यह समस्त चेतनाओं में जो अनुगृहीत हुए। चलते वक्त कहने लगे रईस से कि बहुत दिन बाद | | गहरा आत्म-भाव है, वह जो मेरे का बोध है कि मैं हूं, उस होने का आए हैं, आपके पिताजी के दर्शन नहीं हुए। उनको बुलाएं। नाम है। रईस ने कहा कि नसरुद्दीन, पिताजी को बुला ला। नसरुद्दीन ने __उस होने को ही सच्चिदानंदघन ब्रह्म, अमृत, आनंद या जो भी कहा, कौन से पिताजी? इंग्लैंड वाले, अमेरिका वाले, जर्मनी वाले, | नाम हम चुनें-मुक्ति, परमेश्वर, प्रभु का राज्य, निर्वाण, कि घरेलू स्वदेशी? कैवल्य-जो भी नाम हम चुनें, उसका अंतिम आश्रय है; आपके वह नियम समझ गया! आदमी की दोहरी परतें हैं। एक पर्त, वह | | भीतर वह जो मैं की आखिरी शुद्धतम अवस्था है, होना, वहां जो दिखाने के लिए निर्मित किया है; और एक वह जो है। | छिपी है। ___ जो आपकी दिखाने वाली पर्त है, उससे परमात्मा को मत लेकिन उसे पाने के लिए आपको अव्यभिचारी चेतना की धारा जोड़ना। उससे कोई सार नहीं है। उसमें वह भी हो जाएगा, | चाहिए; ध्यान चाहिए एकजुट, एक बहाव; और एक दिशा कौन-सा परमात्मा? वह जो न दिखाने वाली पर्त है, जो आंतरिक | | चाहिए। 165 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * और जो भी व्यक्ति ऐसी एक धारा को उपलब्ध हो जाता है, वह तीनों गुणों के पार गुणातीत परब्रह्म के साथ एकीभाव हो जाता है। वह योग्य हो जाता है। आज इतना ही। 166 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 पहला प्रवचन मूल-स्रोत की ओर वापसी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अथ पञ्चदशोऽध्यायः गीता दर्शन भाग-7 श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् । । १ । । अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।। २ ।। गुणत्रय-विभाग- योग को समझाने के बाद श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर हैं, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गए हैं, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। उस संसार - वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय-भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि योगरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। स सूत्र में प्रवेश के पहले कुछ बातें समझ लेनी इ जरूरी हैं। पहली बात, आधुनिक समय के बहुत-से विचारक, अधिकतम, मानते हैं कि जगत का विकास निम्न से श्रेष्ठ की ओर रहा है। डार्विन या मार्क्स, बर्गसन, और भी अन्य । जैसे-जैसे हम पीछे जाते हैं, वैसे-वैसे विकास कम; और जैसे-जैसे हम आगे आते हैं, वैसे-वैसे विकास ज्यादा । अतीत पिछड़ा हुआ था । वर्तमान विकासमान है। भविष्य और भी आगे जाएगा। इस पूरी विचार-सरणी का मूल स्रोत, उदगम को छोटा मानना और विकास के अंतिम शिखर को श्रेष्ठ मानना है। लेकिन भारत की मनीषा बिलकुल विपरीत है; और इस सूत्र को समझने के लिए जरूरी होगा। हम मानते रहे हैं कि मूल श्रेष्ठ है। वह जो स्रोत है, श्रेष्ठ है। | बिलकुल ही उलटी तर्क- सरणी है। बूढ़ा आदमी श्रेष्ठ नहीं है, वरन गर्भ में छिपा हुआ जो बीज है, वह श्रेष्ठ है । और जिसे पश्चिम में | वे विकास कहते हैं, उसे हम पतन कहते रहे हैं। अगर विकास की बात सच हो, तो परमात्मा अंत में होगा, प्रथम नहीं हो सकता। तब तो जब सारा जगत विकसित होकर उस जगह पहुंच जाएगा, श्रेष्ठता के अंतिम शिखर पर, तब परमात्मा प्रकट होगा। लेकिन भारतीय दृष्टि कहती रही है कि परमात्मा प्रथम है। तो जिसे हम संसार कह रहे हैं, वह विकास नहीं बल्कि पतन है। और अगर अंतिम को पाना हो, तो प्रथम को पाना होगा । और हम उससे ऊंचे कभी भी नहीं उठ सकते, जहां से हम आए हैं। मूल स्रोत से ऊपर जाने का कोई भी उपाय नहीं । इसलिए जब कोई व्यक्ति अपनी जीवन की श्रेष्ठतम समाधिस्थ अवस्था को उपलब्ध होता है, तो एक छोटे बच्चे की भांति हो | जाता है। जो परम उपलब्धि है शांति की, निर्वाण की, मोक्ष की, वह वही है, जैसा बच्चा मां के गर्भ में शांत है, निर्वाण को उपलब्ध है, मुक्त है। प्रथम से ऊपर जाने का कोई भी उपाय नहीं है। या ठीक होगा, हम इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जितने हम आगे जाते हैं, उतने ही हम पीछे जा रहे हैं। और जो हमारी आखिरी मंजिल होगी, वह हमारा पहला पड़ाव था । या और तरह से कह सकते हैं कि जगत का जो | विकास है, वह वर्तुलाकार है, सर्कुलर है। एक वर्तुल हम खींचते हैं; तो जिस बिंदु से शुरू होता है, उसी बिंदु पर पूरा होता है। जगत का विकास रेखाबद्ध नहीं है, लीनियर नहीं है। एक रेखा की तरह नहीं जाता; एक वर्तुल की भांति है। तो प्रथम अंतिम हो जाता है; और जो अंतिम को पाना चाहते हैं, उन्हें प्रथम जैसी अवस्था पानी होगी। 168 जगत परमात्मा का पतन है। और जगत में विकास का एक ही उपाय है कि यह पतन खो जाए और हम वापस मूल स्रोत को उपलब्ध हो जाएं; पहली बात । इसे समझेंगे तो ही उलटे वृक्ष का रूपक समझ में आएगा। कोई उलटा वृक्ष जगत में होता नहीं। यहां बीज बोना पड़ता है, तब वृक्ष ऊपर की तरफ उठता है और विकासमान होता है। और वृक्ष बीज का विकास है, अभिव्यक्ति है, उसकी चरम प्रसन्नता है। लेकिन गीता ने और उपनिषदों ने जगत को उलटा वृक्ष कहा है। वह परमात्मा का पतन है, विकास नहीं। ऊंचाई का खो जाना है, नीचे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूल-स्रोत की ओर वापसी * उतरना है; ऊंचाई का पाना नहीं है। सीधा खड़ा हो जाए तो परमात्मा है। पर जैसा हम संसार को देखते जैसे वृक्ष ऊपर की तरफ बढ़ता है, ऐसे हम संसार में ऊपर की | | हैं, उसे हम मानते हैं कि वह सीधा है। इसलिए समस्त धार्मिक तरफ नहीं बढ़ रहे हैं। हम संसार में जितने बढ़ते हैं, उतने नीचे की साधनाएं सांसारिक आदमी की दृष्टि में उलटी मालूम पड़ती हैं। तरफ बढ़ते हैं। जैसा हम देखते हैं, ठीक उससे उलटी अवस्था है। | सांसारिक मन जो करता है, उसे सीधा मानता है। इसलिए संन्यासी जिसे हम विकास कहते हैं, वह पतन है। को सांसारिक मन उलटा मानता है। लेकिन जो परमात्मा की दृष्टि इसी कारण पूरब का समग्र चिंतन त्यागवादी हो गया। हो जाने के | को, इस उलटी बहती धारा को ठीक से समझ लें, उनके लिए संसार पीछे यही कारण था। त्याग का अर्थ है, संसार जिसे विकास कहता | | में उलटे होकर जीना ही एकमात्र सीधे होने का उपाय है। है, उसे हम छोड़ देंगे। संसार जिसे उपलब्धि कहता है, उसे हम तुच्छ | __संसार का गणित जिसको सीधा कहता है, उसे आप थोड़ा समझेंगे। संसार जिसे भोग कहता है, वह त्याग के योग्य है। | सोच-समझकर स्वीकार करना। संसार में जिन्हें लोग बुद्धिमान एक आदमी धन इकट्ठा करता चला जाता है। वह विकास कर समझते हैं, उनकी बुद्धिमानी पर थोड़ा शक करना। संसार जिसको रहा है। पश्चिम में उसे विकासमान कहा जाएगा। पूरब में हमने उन सफलता कहता है, उसे आंख बंद करके आलिंगन मत कर लेना। लोगों को विकासमान कहा...बुद्ध ने धन छोड़ दिया, महावीर ने क्योंकि सभी कहते हैं, इसलिए कोई बात सत्य नहीं हो जाती। साम्राज्य छोड़ दिया, तो हमने विकासमान कहा। अल्बर्ट आइंस्टीन को जर्मनी से निकल जाना पड़ा था। हिटलर, पश्चिम में इकट्ठा करना विकास है। पूरब में छोड़ना विकास है। उसके नाजी प्रचार और यहूदियों के विरोध के कारण। और जब पश्चिम में कितना आपके पास है, उससे आपकी ऊंचाई का पता | आइंस्टीन अमेरिका पहुंचा, तो उसे खबर मिली कि हिटलर ने सौ चलता है। परब में कितना आप छोड सके. कितना कम आपके | वैज्ञानिक तैनात किए हैं यह सिद्ध करने को कि आइंस्टीन की सारी पास बचा...जिस दिन आप अकेले ही बच रहते हैं और कुछ भी | खोज गलत है। सौ वैज्ञानिकों ने बड़ी मेहनत भी की। पास नहीं होता, उस दिन पूरब विकास मानता है। आइंस्टीन को जब खबर मिली, तो उसने हंसकर कहा कि अगर उलटे वृक्ष की धारणा में ये सारी बातें समाई हुई हैं। | मैं गलत हूं तो एक वैज्ञानिक उसे सिद्ध करने को काफी है, सौ की कुछ और बातें, फिर हम सूत्र में प्रवेश करें। | कोई जरूरत ही नहीं। और अगर मैं गलत नहीं हूं, तो सारी दुनिया यह वृक्ष कितना ही उलटा हो, लेकिन परमात्मा से जुड़ा है। यह के वैज्ञानिकों को भी हिटलर इकट्ठा करे तो भी—तो भी मैं गलत कितनी ही दूर निकल गया हो, लेकिन इस वृक्ष की | | हो जाने वाला नहीं हूं। और हिटलर को सौ की जरूरत पड़ रही है, शाखा-प्रशाखाओं में उसी का ही प्राण प्रवाहित होता है। शाखा वह इसीलिए...। कितनी ही दूर हो, जड़ से जुड़ी होगी। जड़ से टूट जाने का कोई सत्य तो अकेला भी काफी है। असत्य को भीड़ चाहिए। असत्य उपाय नहीं है। की शक्ति भीड़ से पैदा होती है। असत्य के पास अपनी कोई शक्ति संसार विपरीत हो सकता है, लेकिन परमात्मा का अभिन्न हिस्सा | नहीं है। है। और हम संसार में कितने ही दूर निकल जाएं, हम उससे जुड़े संसार जिसे ठीक कहता है, आप भी उसे ठीक मान लेते हैं। ही रहते हैं। क्षणभर को भी उससे अलग होने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि भीड़ की एक शक्ति है। लेकिन उससे वह ठीक नहीं हो उसका ही प्राण-रस संसार में भी प्रवाहित है। जाता। ठीक होने के कोई प्रमाण भी नहीं मिलते। इसलिए एक दूसरी अनूठी धारणा पूरब में पैदा हुई। वह यह कि | ___ समझें, एक राजनीतिज्ञ सफल है, क्योंकि बड़े पद पर है। संसार पूरब त्यागवादी है, लेकिन संसार को परमात्मा का शत्रु नहीं | उसे सफलता कहता है। और उस सफलता के भीतर खुशी की एक मानता। संसार भी परमात्मा का अभिन्न भाग है। नीचे की तरफ | किरण भी नहीं है। उस सफलता के भीतर आनंद का एक फूल भी बहती हुई धारा है, लेकिन धारा उसी की है। धारा का रुख बदलना कभी नहीं खिलता। और खुद राजनीतिज्ञ से पूछे। उसकी सफलता है। धारा को उसके मूल उदगम की तरफ ले जाना है। लेकिन धारा बिलकुल रेगिस्तान जैसी सूखी है! उसे कुछ भी मिला नहीं है। से कोई शत्रुता और कोई घृणा नहीं है। दूसरे महायुद्ध में जनरल मैकार्थर का बड़ा नाम था। एक हंसोड़ परमात्मा अगर उलटा खड़ा हो जाए तो संसार है। संसार अगर फिल्म अभिनेता...मैकार्थर जिस टुकड़ी का मुआयना करने जापान 169 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * में गया था, वहां सैनिकों को प्रसन्न करने के लिए, कुछ हंसी-मजाक - पहली तो बात, जिसका मूल ऊपर की ओर...। करने के लिए एक अभिनेता आया हुआ था। जब वह अभिनेता विदा । मूल सदा नीचे की ओर होता है। इस संसार में तो मूल सदा नीचे होने लगा तो मैकार्थर ने कहा कि आओ, मेरे साथ खड़े हो जाओ की ओर होता है। जरूर कहीं हम भूल कर रहे हैं। एक चित्र निकलवाने के लिए। पूरब सदा ही मां को, पिता को आदर देता रहा है। पश्चिम में वैसा __ अभिनेता बहुत ही प्रसन्न हुआ। और उसने मैकार्थर से कहा कि | | आदर नहीं है; क्योंकि मूल को हम ऊपर मानते हैं। बेटा कितना ही मेरा अहोभाग्य, कि आप जैसे महान जनरल, सेनापति, | बड़ा हो जाए, वह बुद्ध हो जाए, तो भी वह मां के चरण छुएगा। ख्यातिलब्ध, इतिहास में जिसका नाम रहेगा, ऐसे व्यक्ति के साथ क्योंकि मूल से ऊपर जाने का कोई उपाय नहीं है। पश्चिम में वैसा मझे चित्र उतरवाने का मौका मिला। मैकार्थर ने कहा कि छोडो: मेरे | आदरभाव नहीं है। क्योंकि पश्चिम में मूल को ऊपर मानने की वृत्ति छोटे बच्चे ने पत्र लिखा है कि जब तुम यहां आओ, तो तुम्हारे साथ नहीं है। देखने में भी यही आता है कि मूल तो नीचे होता है। वृक्ष का एक चित्र उतरवाऊं। क्योंकि मेरा छोटा बच्चा तुम्हें एक बहुत मूल तो जमीन में छिपा होता है, शाखाएं ऊपर होती हैं। ख्यातिलब्ध अभिनेता, एक जगत-प्रसिद्ध अभिनेता मानता है। मैं | इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह संसार उलटा वृक्ष है। मूल ऊपर है। तो कुछ भी नहीं हूं उसके लिए। और ध्यान रहे. अगर माता-पिता ऊपर नहीं हैं. तो परमात्मा भी जिन्हें हम जगत में सफल कहते हैं, उनकी अवस्था करीब-करीब ऊपर नहीं हो सकता। क्योंकि वह जगत का मूल है। ऐसी है। उनकी सफलता मान्यता पर निर्भर है। उन्हें आप सफल गुरजिएफ अपने आश्रम में एक पंक्ति लिख छोड़ा था। और मानते हैं, तो वे सफल हैं। आप उन्हें असफल मानते हैं, तो वे | पंक्ति यह थी कि जो व्यक्ति अपने मां और पिता को आदर देने में असफल हैं। और खद उनसे पछे, तो आपसे भी ज्यादा अनिर्णय की समर्थ हो जाता है. उसे ही मैं मनष्य मानता है। उनकी अवस्था है। | इससे कोई सीधा संबंध नहीं दिखाई पड़ता। अनेक लोग एक आदमी बहुत धन इकट्ठा कर लेता है, तो सफल है। और गुरजिएफ से पूछते भी थे कि ऐसी छोटी-सी बात यहां किसलिए जिसने धन इकट्ठा किया है अपने को बेच-बेचकर, उससे पूछे, तो | | लिख रखी है! गुरजिएफ कहता, बात छोटी नहीं है। उसे जीवन व्यर्थ खो गय और अगर हम मनोविज्ञान की आधुनिक खोजों को समझें, यह संसार का वृक्ष बिलकुल उलटा है। यहां जो सफल दिखाई | | फ्रायड और उसके अनुयायियों को, तो वे सभी कहते हैं कि हर बेटा पड़ते हैं, वे अपनी विफलता को छिपाए बैठे हैं। यहां जो धनी अपने मां-बाप को घृणा करता है। दिखाई पड़ते हैं, वे बिलकुल निर्धन हैं। यहां जो बाहर से मुस्कुराते मूल को लोग घृणा करते हैं। मूल से लोग बचना चाहते हैं, हुए और आनंदित मालूम पड़ते हैं, भीतर दुख से भरे हैं। | छिपाना चाहते हैं। शायद कामवासना के प्रति हमारी निंदा का कारण यहां सभी कुछ उलटा है। लेकिन थोड़ी गहरी आंख हो, तो यह | यही हो कि वह मूल है। उसे हम छिपाना चाहते हैं। आप कभी सोचते दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। और जिस दिन आपको यह दिखाई | | भी नहीं कि आप कैसे पैदा हुए हैं! कहां से पैदा हुए हैं! कहां आपका पड़ना शुरू होता है कि संसार का वृक्ष उलटा है, उस दिन आपके | मूल है! आप कभी सोचते भी नहीं कि आपका जन्म, आपका यह जीवन में क्रांति का क्षण आ गया। अब आप बदल सकते हैं। | जीवन दो व्यक्तियों की गहरी वासना से शुरू होता है। अब हम इस सत्र में प्रवेश करें। मूल को हम छिपाते हैं। मूल छोटा मालूम पड़ता है, ओछा गुणत्रय-विभाग-योग को समझाने के बाद श्रीकृष्ण बोले, हे मालूम पड़ता है; हम बड़े हैं। लेकिन ध्यान रहे, जहां से आप आए अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर हैं, | | हैं, उससे बड़े होने का कोई उपाय नहीं है। और अगर आप बड़े हैं, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं; तथा जिसके | तो एक ही बात सिद्ध होती है कि मूल बड़ा है। . वेद पत्ते कहे गए हैं, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित अगर बुद्ध पैदा हो सकते हैं कामवासना के स्रोत से, तो तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। कामवासना में बुद्ध को पैदा करने की क्षमता है, यही सिद्ध होता यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है। लेकिन इस गूढ ढंग से कहा गया | | है। इसके अतिरिक्त कुछ और सिद्ध होने का उपाय नहीं है। और है कि बहुत मुश्किल है उसके पूरे अर्थ में प्रवेश कर जाना। | अगर आप बुद्ध नहीं हो पा रहे हैं, तो कसूर कामवासना का नहीं Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूल-स्रोत की ओर वापसी * है। क्षमता तो उतनी ही है उस वासना में, जिससे बुद्ध पैदा हो सके। | जगत है। आप भी बुद्ध हो सकते हैं। लेकिन शायद मूल का ठीक उपयोग | वृक्ष वस्तुतः ऊपर की ओर उठ रहे हैं? ऐसा हमें दिखाई पड़ता नहीं हो पा रहा है। मूल ने जो ऊर्जा दी है, उसको ठीक गति और | है। अगर हम दूर चांद पर खड़े होकर देखें, तो सभी वृक्ष नीचे की दिशा नहीं मिल पा रही है। तरफ लटके हुए दिखाई पड़ेंगे। लेकिन सभी लोग अपने मूल को छिपाते हैं। क्योंकि धारणा है गीता यह कह रही है कि सारा विकास-जिसे हम विकास कि मूल कुछ नीची चीज है। कहते हैं, एवोल्यूशन कहते हैं—वह सभी कुछ नीचे की ओर है। यह सूत्र कहता है, मूल है ऊपर। हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर इस अर्थ में सभी धर्मों की पुराण कथाएं बड़ी मूल्यवान हैं, क्योंकि की ओर...। वे सभी कहती हैं, जगत पतन है। चाहे ईसाइयों की मूल कथाएं, अगर अंत में आता है श्रेष्ठ, तो मृत्यु श्रेष्ठ होगी। अगर प्रथम | चाहे हिंदुओं की, चाहे इस्लाम की, सभी धर्मों की मूल कथाएं यह आता है श्रेष्ठ, तो जन्म श्रेष्ठ होगा। पश्चिम मृत्यु का विश्वासी है, कहती हैं कि जगत एक पतन है। पतन का इतना ही अर्थ होता है, पूरब जन्म का। पतन में कोई पाप नहीं है। पतन का इतना ही अर्थ होता है कि बहाव ऊपर की ओर है मूल। और सारी धाराएं नीचे की तरफ बहती हैं। नीचे की तरफ है। इसलिए अगर ऊंचाई पानी है, तो उदगम की ओर यह बात उचित भी मालूम पड़ती है। क्योंकि बहाव सिर्फ नीचे की वापस लौट चलना पड़ेगा। तरफ ही हो सकता है। बहाव ऊपर की तरफ हो भी कैसे सकता है! झेन फकीर जापान में कहते हैं कि अगर तुम्हें जानना है परमात्मा __हमें दिखाई पड़ता है, हम बीज बोते हैं, वृक्ष ऊपर की तरफ | क्या है, तो तुम खुद को जान लो उस क्षण में, जब तुम्हारा जन्म उठता है। पर हमारी दृष्टि तो बहुत सीमित है। सच में वृक्ष ऊपर | नहीं हुआ था। लौट जाओ पीछे। की तरफ उठता है? कहना जरा मुश्किल है। क्योंकि इस विराट __ अभी अमेरिका में एक नई चिकित्सा, मनोचिकित्सा का बड़ा ब्रह्मांड की दृष्टि से ऊपर और नीचे कुछ भी नहीं है। और फिर बहुत प्रभाव है, प्राइमल थेरेपी का। इस सदी में खोजी गई कीमती से बातें समझने जैसी हैं। | कीमती चिकित्साओं में एक है। और उसका प्रभाव रोज बढ़ता वैज्ञानिकों ने एक नियम खोजा है, उसे वे कहते हैं, ग्रेविटेशन, जाएगा, क्योंकि उसमें एक मौलिक सत्य है। गुरुत्वाकर्षण। पत्थर को हम फेंकते हैं; पत्थर नीचे गिर जाता है। प्राइमल थेरेपी का ऐसा दृष्टिकोण है कि अगर व्यक्ति को पूर्ण अगर पृथ्वी सभी चीजों को नीचे की तरफ खींचती है, तो वृक्ष स्वस्थ होना हो, तो उसकी चेतना में पीछे की तरफ लौटने की गति ऊपर की तरफ उठता कैसे है! गुरुत्वाकर्षण के विपरीत कोई नियम शुरू होनी चाहिए। और जिस दिन व्यक्ति अपने बचपन की होना चाहिए, जो ऊपर की तरफ खींचता हो। एक। या फिर वृक्ष अवस्थाओं को उपलब्ध करना शुरू कर देता है पुनः, उसी दिन का ऊपर की तरफ उठना हमारी भ्रांति है; वृक्ष भी नीचे की तरफ स्वस्थ होना शुरू हो जाता है। और जिस दिन कोई व्यक्ति ठीक ही जा रहा है। लेकिन हमारी सीमित दृष्टि में हमें ऊपर की तरफ | अपनी गर्भ की चेतना-दशा को उपलब्ध हो जाता है, उस दिन वह दिखाई पड़ता है। | परम शांत और परम स्वस्थ हो जाता है। और अनेक बीमारियां मैंने सुना है कि न्यूयार्क के एक सौ मंजिल भवन के ऊपर, | अचानक, मानसिक बीमारियां अचानक विलीन हो जाती हैं। आखिरी मंजिल की सीलिंग पर कुछ चींटियां भ्रमण कर रही थीं। इसमें सत्य है और सैकड़ों लोगों पर इसके परिणाम प्रभावकारी और उनमें से एक दार्शनिक चींटी ने अन्य चींटियों को कहा कि हुए हैं। प्राइमल थेरेपी जिस व्यक्ति ने खोजी है, जेनोव ने, वह आदमी भी बड़ा अजीब जानवर है। इतने-इतने बड़े मकान बनाता | अपने मरीजों को एक ही काम करवाता था। उन्हें लिटा देता, आंख है, फिर भी चलता हमेशा नीचे है। जब ऊपर चलना ही नहीं है, | बंद करवा देता, कमरे में अंधेरा कर देता। और उनसे कहता है कि सीलिंग पर जब चलना ही नहीं है, हमेशा फ्लोर पर ही चलना है, | तुम पीछे लौटने की कोशिश करो, सिर्फ स्मृति में नहीं, पीछे लौटो तो इतना ऊंचा मकान बनाने की जरूरत भी क्या! ऊंचाई पर चलते | और पीछे को जीयो। आखिरी पकड़ो स्मृति में खयाल, जो तुम्हें हम हैं। आता है; पांच वर्ष के थे तुम, तो उस घड़ी को जीने की कोशिश चींटियां निश्चित ही सोचती होंगी। उनका अपना एक सापेक्ष | करो फिर से। 1711 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * तो बहुत अनूठा अनुभव हुआ। जेनोव एक बूढ़ी महिला की प्रथम को उपलब्ध होने से। चिकित्सा कर रहा था। उसकी उम्र थी अस्सी वर्ष। उसकी आंखें मेरी यह पूरी चेष्टा है कि ध्यान में पहली, प्राइमल स्क्रीम पैदा खराब हुए बीस साल हो गए थे। उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता हो जाए और आपका रो-रोआं चीख उठे। और उस चीख में था। और जब जेनोव ने उसे याद दिलाया और वह वापस लौटने सारा उपद्रव विलीन हो जाए, जैसे तूफान के बाद सब शांत हो जाता लगी और उसने याद किया कि जब मैं छः वर्ष की थी, तब की मुझे | है, ऐसे पीछे सब शांत हो जाए। तो आपको मूल का पहली दफा एक घटना याद आती है। जैसे ही उस घटना को उसने स्मरण करना दर्शन होगा। और वह मूल परमात्मा है। आंख की शक्ति वापस लौट आई। वह खद आगे दौडते जाने में नहीं पीछे प्रथम जो आप थे. उसे फिर से हैरान हो गई, क्योंकि उसे दिखाई पड़ने लगा। उसका चित्त ही छः | पा लेने में उपलब्धि है। यह विरोधाभासी लगेगा। जो आप सदा से वर्ष का नहीं हुआ, उस क्षण में उसका पूरा शरीर भूल गया कि वह रहे हैं, उसी को पा लेना गंतव्य है। और कुछ भी पाने की दौड़ व्यर्थ अस्सी साल की बूढ़ी स्त्री है। लेकिन चिकित्सा के बाद उसकी | | है। और कुछ भी पाने की दौड़ सिवाय संताप और चिंता के कुछ आंख फिर अस्सी साल की हो गई। सिर्फ धारणा...। भी न लाएगी। व्यक्ति जो पैदा हुआ है, उसी को पा ले। जो सदा जेनोव कहता है कि जैसे-जैसे व्यक्ति पीछे लौटते हैं, उनका से था, उसको पुनः अनुभव कर ले। जो उसके होने के भीतर छिपा चेहरा बदलने लगता है। शांत हो जाता है, निर्दोष हो जाता है, जैसे | ही है, जिसे पाने को रत्तीभर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है, जो बीच की सारी धूल हट गई, बीच का सारा कचरा कट गया। और | वह है ही, उसके पुनः दर्शन, उसकी पुनः उपलब्धि करनी है। जब कोई व्यक्ति उस क्षण में पहुंचता है, जिसको वह प्राइमल । हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की स्क्रीम कहता है. पहली जो रुदन की आवाज बच्चे को जन्म के ओर हैं. ऐसे संसाररूप पीपल के वक्ष को अविनाशी कहते हैं। समय हुई थी, जब बच्चा पैदा होता है, वह जो चीख की पहली और यह संसार कभी नष्ट नहीं होता, यह कभी विनष्ट नहीं होता। आवाज थी, जो पहली स्क्रीम थी, उसको जब कोई व्यक्ति फिर से लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि यह प्रतिपल विनष्ट भी होता है। याद कर लेता है, और याद ही नहीं कर लेता, उसको पुनः जीता है, | यह विनष्ट होता है और बनता है, मिटता है और बनता है। और ठीक उसी तरह की चीख फिर से निकलती है...। परमात्मा सदा है, वह भी अविनाशी है। लेकिन उसका इस चीख को लाने में महीनों लग जाते हैं। कोई तीन महीने. छः अविनाशी होना और ही अर्थ रखता है। वह कभी बनता नहीं, वह महीने निरंतर प्रयोग करने पर वह चीख निकलती है। पर जिस दिन सदा है; वह कभी मिटता नहीं। संसार भी अविनाशी है, लेकिन वह चीख निकलती है, उस चीख के साथ ही व्यक्ति के सारे दोष | बिलकुल दूसरे अर्थों में। यह सदा बनता और मिटता रहता है। यह विलीन हो जाते हैं। उस चीख के बाद वह व्यक्ति दूसरा ही हो जाता बनने और मिटने की प्रक्रिया का कभी अंत नहीं होता। यह संसार है-सरल, भोला, निर्दोष, जैसा वह पैदा हुआ था। जैसे उस चीख वर्तुलाकार घूमता ही रहता है। के साथ सारा जीवन विलीन हो गया, सारा पतन खो गया, मूल गंगोत्री से गंगा बहती है, सागर में गिरती है। लंबी यात्रा है, फिर उपलब्ध हो गया। हजारों मील का फासला है। सागर में गिरकर फिर सूरज की किरणें इधर मैं ध्यान में निरंतर अनुभव कर रहा हूं कि जो लोग भी उस उसे आकाश में उठा लेती हैं। फिर भाप बनती है। फिर बादल गहरी चीख को ध्यान की अवस्था में उपलब्ध हो जाते हैं, उनके | उमड़-घुमड़कर हिमालय की तरफ जाना शुरू हो जाते हैं। फिर जीवन में पहली किरण समाधि की उतर जाती है। हिमालय पर वर्षा हो जाती है। फिर गंगोत्री में पानी आ जाता है। मुझसे लोग पूछते हैं कि इतना चीखना-चिल्लाना ध्यान में क्यों | फिर गंगा बहने लगती है। फिर सागर; फिर बादल; फिर गंगोत्री; है? क्योंकि उन्हें खयाल है एक ही ध्यान का कि लोग चुप बैठे हैं। | फिर गंगा; फिर सागर। आप चुप भी बैठ जाएं, कुछ भी न होगा। क्योंकि आपका पागल ___ वर्तुलाकार संसार घूमता ही रहता है। इसलिए हमने इसे गाड़ी आदमी भीतर दौड़ रहा है; आपके चुप बैठने से कुछ होने वाला | के चाक की भांति कहा है। संसार शब्द का ही अर्थ होता है, चाक, नहीं। आप जीवनभर चुप बैठे रहें, आप बिलकुल पत्थर की मूर्ति | दि व्हील, जो घूमता ही रहता है। यह भी अविनाशी है। यह भी हो जाएं, तो भी बुद्धत्व फलित नहीं होगा। श्रेष्ठ उपलब्ध होगा | कभी मिटेगा नहीं। यह मिटेगा और बनेगा, बनेगा और मिटेगा, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूल-स्रोत की ओर वापसी * लेकिन प्रक्रिया जारी रहेगी। छोड़ देता है, जो समझ लेता है कि यह चलती ही रहेगी; मेरे ठहराने संसार की प्रक्रिया अविनाशी है और परमात्मा का सत्व | से ठहरने वाली नहीं; जो अपने को ठहरा लेता है और इस प्रक्रिया अविनाशी है। परमात्मा का होना अविनाशी है और संसार की गति की चिंता छोड़ देता है, उसे हम ज्ञानी कहते हैं। अविनाशी है। परमात्मा की स्थिति अविनाशी है और संसार की हम सब की कोशिश यही है कि प्रक्रिया ठहर जाए। आप सुख गति अविनाशी है। में हैं, तो आप सोचते हैं, सुख ठहर जाए, रुक जाए। आप संसार घूमता ही रहता है। इस घूमते संसार को बदलने की बिलकुल छाती से लगाकर बैठ जाते हैं कि सुख कहीं छूट न जाए; कोशिश व्यर्थ है। इस घूमते संसार को ठहराने की कोशिश व्यर्थ | जो मिला है कहीं खो न जाए। है। वह उसका स्वभाव नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें। लेकिन यहां कोई चीज टिकती नहीं। इसमें कोई आपकी क्योंकि आधुनिक सारा चिंतन इस बात पर जोर देता है कि यह कमजोरी नहीं है, यहां वस्तुओं का स्वभाव ऐसा है कि यहां कोई संसार रोका जा सकता है, बदला जा सकता है। मार्क्स, एंजिल्स, | चीज टिकती नहीं। जैसे आग गरम है, इसमें आग का कोई कसूर लेनिन, उन सबका खयाल है कि आज नहीं कल समाज में समता | नहीं है। आग को पकड़ेंगे, तो जलेंगे। इसमें आग का कोई कसर आ जाएगी। मार्क्स से लोगों ने पूछा कि समता के बाद फिर क्या नहीं है; पकड़ने के मोह में भूल है। संसार का स्वभाव है कि वह होगा? मार्क्स ने कहा, फिर कुछ भी नहीं होगा; समता ठहरेगी। बदलेगा। इसलिए यहां जो भी आप पा लेते हैं, उसको ठहराना फिर समता के बाद कोई परिवर्तन नहीं होगा। चाहते हैं। यहां मार्क्स बिलकुल भ्रांत है। यहां कृष्ण की बात बहुत गहरी __ मेरे पास निरंतर लोग आते हैं। थोड़ा ध्यान करते हैं; मन थोड़ा है। यहां कुछ भी चीज ठहरती नहीं। यहां समता भी नहीं ठहरेगी। । | शांत होता है; वे कहते हैं कि यह शांति ठहर जाए। यहां कोई भी स्थिति स्थिर नहीं हो सकती; कभी नहीं हुई, कभी | | इस संसार में कुछ भी ठहरेगा नहीं। यह शांति भी नहीं ठहरेगी। होगी भी नहीं। यहां हर चीज बनेगी और मिटेगी। घूमना इसका यह भी संसार का ही हिस्सा है, यह भी कुछ करने से मिली है। यह स्वभाव है। खो जाएगी। एक और शांति है, जो ठहरेगी; लेकिन वह संसार का मार्क्स जैसा प्रगाढ़ चिंतक भी कमजोर हो जाता है अपने सिद्धांत | हिस्सा नहीं है। वह शांति इस समझ से पैदा होती है कि जहां सब के मामले में। मार्क्स कहता है, हर चीज बदलेगी। पूंजीवाद टिक बदलता है, वहां ठहराने का पागलपन मैं न करूंगा। बदलता जाए। नहीं सकता; जाएगा; क्रांति होगी। सामंतवाद टिका नहीं; क्रांति सुख आए, दुख आए; शांति हो, अशांति हो; मैं दूर खड़ा देखता हुई; गया। संसार बदलता रहा है। ही रहूंगा। मैं इनमें से किसी को भी पकडूंगा नहीं और किसी को मार्क्स खुद कहता है, डायनैमिक, डायलेक्टिकल संसार है। धकाऊंगा नहीं। मैं सिर्फ द्रष्टा रह जाऊंगा। गत्यात्मक है और द्वंद्वात्मक है। यहां हर चीज बदल रही है। | ऐसा जो सुख-दुख को देखने में लग जाता है, वह इस संसार पूंजीवाद भी बदलेगा। लेकिन तब अपने ही सिद्धांत से उसको बड़ा | | के चक्र से बाहर छलांग ले लेता है। संसार तो चलता ही रहता है। मोह है। फिर जब साम्यवाद आ जाएगा, तब कोई गति नहीं होगी! वह इसके बाहर हो जाता है। गति संसार का स्वभाव है। यहां कोई भी चीज ठहरेगी नहीं। यहां तो दो बातें हैं। या तो आप संसार को बदलने में लगें; इसको हम जो आज ऊपर आएगा, कल नीचे जाएगा। जाना ही पड़ेगा। | मूढ़ता कहे। और या आप अपने को बदल डालें, इसे हम ज्ञान कहे। अन्यथा औरों के ऊपर आने का कोई उपाय नहीं होगा। और यह | आधुनिक चिंतन पूरी तरह संसार को बदलने पर जोर देता है और ऊपर आ सका इसीलिए, क्योंकि कोई नीचे चला गया। जो सत्ता | चीजों को ठहरा लेने पर जोर देता है। इसलिए इतना दुख है और में आएगा, वह सत्ता से नीचे जाएगा। जो अमीर होगा, वह गरीब | दुख रोज बढ़ता जाता है। आज का मन सुखी हो ही नहीं सकता, होगा। जो आज सफल है, कल असफल होगा। जो आज जिंदा है, | | क्योंकि उसकी सारी दृष्टि संसार पर है। कल मरेगा। लेकिन यह प्रक्रिया जारी रहेगी। जैसे कोई आदमी नदी के किनारे खड़ा है और सोचता है कि नदी और अगर कोई इस प्रक्रिया को ठहराने की कोशिश में लग ठहर जाए। और नहीं ठहरती, इसलिए परेशान है। और जब तक न जाए, तो उसको हम अज्ञानी कहते हैं। जो इस प्रक्रिया की फिक्र ही ठहरेगी, तब तक वह दुखी होगा। क्योंकि उसकी धारणा है कि नदी 173| Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और गीता दर्शन भाग-7 ठहरे, तो ही मैं सुखी हो सकता हूं। | मरे और सूखे पत्ते हैं। उनसे तो वासना भी कहीं ज्यादा जीवंत है। कृष्ण कहते हैं, नदी का स्वभाव बहना है; नदी को तुम बहने दो। इसलिए अक्सर यह होता है कि वासनाओं में डूबा हुआ साधारण रोकने में न शक्ति व्यय करो और न समय खोओ। तुम नदी नहीं हो, | | मनुष्य भी परमात्मा के ज्यादा निकट होता है, बजाय उन लोगों के, इतना जान लेना काफी है। और नदी बहती रहे, न बहती रहे, इससे जो केवल वेद के पत्तों में ही डूबे रहते हैं। उनका मूल से संबंध तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं है। तुम नदी को भूल जा सकते हो, नदी बिलकुल ही टूट जाता है। विस्मृत की जा सकती है। तुम अपना स्मरण कर सकते हो। वासना के पार जाना है, लेकिन वासना के पार जाने के दो उपाय और आदमी पर दोनों का मिलन है, वह जो अविनाशी है | | हैं। अगर आप वृक्ष की शाखा पर बैठे हों, तो शाखा से पार जाना परमात्मा, वह; और वह जो अविनाशी संसार है, वह; दोनों आदमी | | है, लेकिन पार जाने के दो उपाय हैं। या तो शाखा के पीछे जाएं, की रेखा पर मिलते हैं। वहां सीमा दोनों की मिलती है। आपके | जहां मूल है; और या शाखा की तरफ आगे जाएं, जहां पत्ते हैं। दोनों भीतर दोनों अविनाशी हैं। वह जिसकी स्थिति कभी नाश नहीं होती। हालत में आप शाखा से हट जाएंगे। है, वह; और जिसकी प्रक्रिया कभी नाश नहीं होती है, वह; दोनों | इसलिए ज्ञान को पकड़ लेने वाले लोग भी संसार से एक अर्थ की बाउंड्री आप हैं। दोनों की सीमा, दोनों का मिलन आप हैं। | में दूर हो जाते हैं। लेकिन परमात्मा के निकट नहीं हो पाते। परमात्मा सीमा से संसार शुरू होता है, नीचे की तरफ; ऊपर की तरफ के निकट होने के लिए शाखा का छूटना जरूरी है, लेकिन पत्तों की परमात्मा शुरू होता है। आगे की तरफ संसार शुरू होता है, पीछे दिशा में नहीं, मूल की दिशा में। की तरफ परमात्मा शुरू होता है। मूल की तरफ परमात्मा है, | और इस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता शाखाओं की तरफ संसार है। है, वही वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। मल ऊपर की ओर शाखाएं नीचे की ओर हैं. ऐसे संसाररूप तो वेद का तात्पर्य वेद में नहीं छिपा है. इस संसार की परी पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं; तथा जिसके वेद पत्ते कहे अभिव्यक्ति में छिपा है। और जो व्यक्ति इस वृक्ष को मूल सहित गए हैं, उस संसाररूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता | तत्व से जानता है, जो इस वृक्ष के मूल को, शाखा को, पत्तों को, है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। | फूलों को, बीजों को, सबको पूरी तरह जान लेता है तत्व से, वही यह बहुत ही अदभुत वचन है। इस संसार के पत्तों को कृष्ण कह | व्यक्ति वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। रहे हैं वेद। परमात्मा है मूल, ये शाखाएं हैं संसार, और इन ___ आप ऋग्वेद कंठस्थ कर सकते हैं। और कंठस्थ करने में यह हो शाखाओं पर लगे हुए पत्ते हैं ज्ञान। ज्ञान बहुत दूर है परमात्मा से। सकता है कि आपको संसार जानने का न समय मिले, न उपाय रहे। यह जरा जटिल लगेगा। मैंने सुना है एक यहूदी फकीर बालशेम के संबंध में। उसका वासना भी परमात्मा के ज्यादा निकट है, ज्ञान उससे भी ज्यादा बड़ा आश्रम था और दूर-दूर से खोजी उसके आश्रम में वर्षों आकर दूर है। क्योंकि वासना शाखाएं है, ज्ञान तो बहुत ही दूर है; पत्ता तो रुकते थे। एक युवक वर्षों पहले आया था और अब तो बूढ़ा हो आखिरी बात है। पत्ते के बाद फिर कुछ भी नहीं है। पत्ता अंत है। गया था। उसने सारे यहूदी शास्त्र कंठस्थ कर लिए थे। तालमुद जिसको हम वेद कहते हैं, ज्ञान कहते हैं, जिसको हम बड़ी उपलब्धि | उसकी जबान पर बैठा था। उसकी ख्याति काफी फैल गई थी। यहां मानते हैं, उसको कृष्ण कह रहे हैं, वह पत्तों की भांति है। तक कि लोग आश्रम में आते, तो बालशेम से न मिलकर, उस जैसे कोई आदमी पत्तों को गिनता रहे और सोचे कि मूल को युवक, उस बूढ़े-जो कभी युवक था, और शास्त्रों को कंठस्थ उपलब्ध हो गया। ऐसे कोई वेद को कंठस्थ कर ले; उसने पत्ते करते-करते बढ़ा हो गया था-उससे जाकर मिलते। इकट्ठे कर लिए; मूल से उसका कोई संबंध नहीं। और अगर एक दिन एक आदमी ने आकर बालशेम को कहा कि यह बासनाओं का दुश्मन हो, तो पत्ते काट ले, तो मुर्दा पत्ते इकट्ठे हुए। व्यक्ति इतना जानता है शास्त्रों को, यह व्यक्ति अनूठा है; आप वे पत्ते जिंदा भी नहीं हैं। इसके संबंध में कभी कुछ भी नहीं कहते! बालशेम ने कहा, किसी ___पुराने शास्त्र वृक्षों के पत्तों पर लिखे गए थे; बड़ी अच्छी बात को कहना मत; वह शास्त्रों के संबंध में इतना जानता है कि मैं सदा थी। मुर्दा पत्ते, सूखे पत्ते, उन पर शास्त्र लिखे गए थे। सभी शास्त्र | | चिंतित रहता है कि वह संसार को कब जानेगा? और जो संसार को Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूल-स्रोत की ओर वापसी * ही नहीं जान सकेगा, वह परमात्मा से कैसे उसका कोई संबंध होगा। | बड़ा होने लगे त्याग के साथ। दिशा बदल गई, आयाम बदल गया, मूल सहित इस पूरे संसार को जो जान लेता है, वह वेद के | | ढंग-ढांचा बदल गया, लेकिन माली कुशल है और शाखा की मूल तात्पर्य को जानता है। धारा नहीं बदली; शाखा अब भी वही है। यह हो भी सकता है, उसे वेद पता ही न हों, लेकिन तात्पर्य पता ___ आसान है दिशा बदल लेना। स्वयं को बदल देना कठिन है। होगा। यह हो सकता है, उसे वेदों से कोई परिचय न हो। वह | और यह भी हो सकता है कि अगर आप स्वयं को बदल लें, तो संस्कृत का ज्ञाता न हो, वह व्याकरण का अधिकारी न हो, लेकिन | | दिशा को बदलने की चिंता करनी भी आवश्यक नहीं है। स्मरण आ तात्पर्य उसके पास होगा। जाए मूल का, तो शाखा नीचे की तरफ बढ़ती रहे, इससे कोई फर्क तात्पर्य बड़ी अलग बात है। तात्पर्य वैसे है, जैसे फूल में सुगंध | नहीं पड़ता। लेकिन अब आप मूल की तरफ सरकने शुरू हो गए। होती है। फूल से चाहे मिलना न भी हुआ हो, हवा में तैरती हुई | | तो त्याग अपरिहार्य नहीं है। भोग में भी कोई रह सकता है। सुगंध से मिलना हो जाता है। और वही सार है। वेद फूल की तरह | लेकिन मूल का स्मरण आना शुरू हो जाए। होंगे। उनकी सुगंध सब तरफ विस्तीर्ण है। संसार के कण-कण से | कृष्ण खुद भी वैसे ही व्यक्ति हैं, जिन्होंने शाखाओं की दिशा वेद का जन्म हो रहा है, प्रतिपल। नहीं बदली है। शाखाएं जिस तरफ बढ़ रही हैं, बढ़ रही हैं। लेकिन वेद शब्द हिंदुओं का बड़ा अनूठा है। उसका मतलब होता है, | शाखाओं के भीतर जो प्राण की धारा बह रही है, उसका रुख बदल ज्ञान, जानना। यहां प्रतिपल ज्ञान की संभावना है, लेकिन खुली गया है। वह अब मूल की तरफ बह रही है। उसको स्मरण अब आंखें चाहिए। अक्सर शास्त्र आंखों को बंद कर देते हैं। | उदगम का है, स्रोत का है, प्रथम का है। अंतिम की तरफ यात्रा नहीं इस संसार को जो मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के हो रही है। शाखाएं बढ़ती रहें, संसार चलता रहे, लेकिन चेतना तात्पर्य को जानने वाला है। | अब प्रथम की ओर जा रही है। उस संसार-वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं | ___ इससे उलटा अक्सर हो जाता है। लोग शाखाएं भी काट डालते विषय-भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि | | हैं इस डर से कि कहीं नीचे पतन न हो जाए। इंद्रियां काट डालते योनिरूप शाखाएं नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं। तथा हैं, आंखें फोड़ लेते हैं, कान फोड़ डालते हैं, इस डर से कि कहीं मनुष्य-योनि में कर्मों के अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और कोई इंद्रिय भटका न दें। लेकिन चेतना की धारा आंखें फोड़ने से वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। नहीं बदलती। नहीं तो सभी अंधे परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाते। कुछ और बातें, फिर यह सूत्र का दूसरा हिस्सा खयाल में आ सारी दुनिया में इस तरह के वर्ग रहे हैं, जिन्होंने शाखाओं को सकेगा। | काटने की कोशिश की, इस आशा में कि न होंगी शाखाएं, न होगी . यह जो वृक्ष है, यह जो संसार है, इसमें वासनाएं नीचे की तरफ शाखाओं की तरफ गति। यह आशा भ्रांत है, यह तर्क भूल भरा है। ले जाती हैं। लेकिन इससे आप इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि अगर | शाखा न हो, तो भी गति हो सकती है। क्योंकि गति भीतर की आप ऊपर की तरफ जाना शुरू कर दें, तो वासनाओं से छुटकारा | धारणा है। शाखा हो, तो भी गति न हो, यह भी हो सकता है। हो जाएगा। क्योंकि यह भी हो सकता है, एक शाखा पहले नीचे | आप बिलकुल घर में रहकर संन्यस्त हो सकते हैं। और पूरी तरह की तरफ यात्रा करे-अक्सर हो जाता है; और अगर माली कुशल संन्यासी होकर गृहस्थ हो सकते हैं। इसमें दूसरी बात के प्रतीक हो, तो हर शाखा के साथ हो सकता है-शाखा पहले नीचे की आपको जगह-जगह मिल जाएंगे। संन्यासियों को जाकर गौर से तरफ यात्रा करे, फिर मोड़ दी जाए, और शाखा ऊपर की तरफ | देखें, तो आप पाएंगे कि वे नए ढंग के गृहस्थ हैं। दूसरी बात जरा उठने लगे। शाखा वही रहे, उसका प्राण वही रहे, उसकी दिशा कठिन है। उस गृहस्थ को खोजना जरा कठिन है, जो संन्यस्त हो। बदल जाए, लेकिन उसका सत्व न बदले। लेकिन वह भी मिल जाएगा। अगर आंखें आपके पास खुली हों तो यह हो सकता है, एक आदमी धन के साथ अपने अहंकार | | और आप तीक्ष्णता से जांच-परख कर रहे हों, धारणा पहले से न को जोड़ रहा हो; फिर धन छोड़ दे और त्याग के साथ अहंकार को बना रखी हो, निर्णय पहले से न ले लिया हो, तो आपको ऐसे बांध ले। कल उसका अहंकार बड़ा होता था धन के साथ, अब गृहस्थ भी मिल जाएंगे जो बिलकुल संन्यस्त हैं। चेतना के प्रवाह 175 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * की बात है। अनुभव करें कि आप झुक रहे हैं। फिर आपका सिर जमीन को उस संसार-वक्ष की तीनों गणरूप जल के द्वारा बढी हई एवं छने लगे। विषय-भोगरूप कोंपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक आदि | तो आप ठीक उस अवस्था में आ गए जिस अवस्था में बच्चा योनिरूप शाखाएं नीचे की ओर हैं। ऊपर सर्वत्र भी फैली हुई हैं। | गर्भ में होता है। ऐसा ही बच्चा सिकुड़ा हुआ गर्भ में होता है। घुटने नीचे-ऊपर दोनों तरफ फैली हुई हैं। तथा मनुष्य-योनि में कर्मों के | उसके छाती से लगे होते हैं, सिर नीचे झुका होता है, पैर उसके पीछे अनुसार बांधने वाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे | | मुड़े होते हैं। और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। इसलिए मुसलमानों का नमाज पढ़ने का ढंग बड़ा वैज्ञानिक है। वासना नीचे की तरफ भी बह रही है, ऊपर की तरफ भी बह रही वह पद्मासन और सिद्धासन से भी ज्यादा कीमती है। क्योंकि कोई है; सभी दिशाओं में बह रही है। इसलिए ज्यादा इस बात का विचार बच्चा गर्भ में पद्मासन और सिद्धासन लगाकर नहीं बैठता। इसलिए करना जरूरी नहीं है कि वासना कहां बह रही है, ज्यादा विचार पद्मासन और सिद्धासन में वह सरलता नहीं है, वह स्वाभाविकता करना इस बात का कि वासना उदगम से संबंधित है! नहीं है, वह सहजता नहीं है, जो नमाज की क्रिया में है। आप अपने संबंध में सोचें, शायद ही आपको कभी खयाल फिर नमाज पढ़ने वाला नमाजी बार-बार झुकता है, और झुकने आता हो उदगम का। शायद ही आप कभी बैठकर सोचते हों कि का अभ्यास करता है। फिर-फिर नीचे झुकता है। फिर उठता है, गर्भ की अवस्था में मैं कैसा था! सोचें आप, तो जो भी सुनेगा वह फिर झुकता है। वह झुकने की कला है। इसलिए मस्जिद से आपको पागल कहेगा। आप खुद भी सोचेंगे, क्या व्यर्थ की बात निकलते हुए मुसलमान में जैसी विनम्रता दिखाई पड़ेगी, किसी हिंदू सोच रहे हैं! शायद कभी-कभार आपको मृत्यु का खयाल आ भी | में किसी मंदिर से निकलते वक्त दिखाई नहीं पड़ती। उसकी सारी जाता हो, लेकिन जन्म का कभी नहीं आता। नमाज ही झुकने की कला है। मृत्यु आगे है; वह शाखाओं का अंतिम हिस्सा है। जन्म पीछे कठिन था मोहम्मद को अरब के रेगिस्तान के खूखार लोगों को है; वह आपके गहन में छिपा है। इस तरफ थोड़ा प्रयोग करें। बड़े धार्मिक बनाना। नमाज की प्रक्रिया ने साथ दिया। हिंदुओं को प्राचीन समय में एक विशेष ध्यान की पद्धति सिर्फ इसके लिए ही | सहिष्णु बनाना, उदार बनाना बहुत कठिन नहीं है। प्रकृति बड़ी उदार खोजी गई थी, वह मैं आपको कहूं। उसे प्रयोग करें; आप बहुत है यहां। सब चीजें उपलब्ध हैं। आज नहीं हैं, तो कल थीं। जिंदगी चकित होंगे। बहुत बड़ा संघर्ष नहीं है। ऐसी जगह बैठ जाएं जहां बहुत प्रकाश न हो, धुंधलका हो या लेकिन जहां मोहम्मद ने लोगों को झुकना सिखाया, वहां जीवन अंधेरा हो। जगह शांत हो, कोई शोरगुल न हो। क्योंकि गर्भ बड़ा संघर्ष था, बड़ा भयंकर संघर्ष था। जीने का मतलब ही दूसरे बिलकुल शांत जगह है। वहां कोई शोरगुल प्रवेश नहीं कर सकता, को मारना, दूसरे को मिटाना था। और विस्तार रेगिस्तान का जलता कोई आवाज वहां प्रवेश नहीं कर सकती। सुख से बैठ जाएं। और हुआ, जहां हरियाली दिखाई भी न पड़े, वहां आदमी अगर अकड़ बैठे इस भांति कि धीरे-धीरे आपका सिर झुकता जाए, और जमीन | | जाए, अहंकारी हो जाए, क्रूर और कठोर हो जाए, तो स्वाभाविक छूने लगे। दोनों पैर मोड़कर बैठ जाएं, जैसा सूफी फकीर बैठते हैं, | है। वहां नमाज की प्रक्रिया ने और झुकने ने उन खूखार लोगों को या मुसलमान नमाज पढ़ते वक्त बैठते हैं; उनके बैठने का आसन | भी बहुत विनम्र बना दिया। गर्भासन है। दोनों घुटने मोड़ लें और जैसा मुसलमान नमाज पढ़ते आप देखें प्रयोग करके। कमरा अंधेरा हो, और ठीक इस हालत हैं, वैसे बैठ जाएं। फिर आंख बंद कर लें और सिर को | | में हो जाएं, जैसे आप फिर से छोटे बच्चे हो गए हैं और गर्भ में आहिस्ता-आहिस्ता झुकाते जाएं। प्रवेश कर गए हैं। श्वास धीरे-धीरे कम हो जाएगी। आसन ही ऐसा इतने धीमे-धीमे झुकाएं कि आप झुकाव को अनुभव कर सकें। है कि श्वास तेज नहीं हो सकती। पेट दबा होगा, छाती दबी होगी, क्योंकि झुकना बड़ी कीमती बात है। एकदम से झुक जाएंगे, तो सिर झुका होगा, श्वास तेज नहीं हो सकती; श्वास धीमी होती आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप झुके। बहुत धीमे, जितने धीमे जाएगी। उसको साथ दें, और धीमा हो जाने दें। ऐसी घड़ी आएगी कर सकें, उतने धीमे-धीमे सिर को झुकाते जाएं, और झुकने को जब श्वास बिलकुल लगेगी कि चलती है या नहीं चलती। क्योंकि 176/ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूल-स्रोत की ओर वापसी * बच्चा कोई श्वास नहीं लेता पेट में। निर्वाण और पतंजलि की समाधि, ये गर्भ की आकांक्षाएं हैं। गर्भ और जब ऐसी घड़ी आ जाएगी, जब आपको लगेगा कि श्वास | को पुनः पाने की आकांक्षा है। उसने तो विरोध के हिसाब से कहा चलती है या नहीं चलती, पता नहीं चलता, तब आप समझना कि है। उसका तो कहना है कि यह मार्बिड स्टेट, रुग्ण अवस्था है कि अब ठीक गर्भासन की अवस्था आ गई। कभी-कभी ऐसा भी होगा कोई आदमी अपने गर्भ को फिर से पाना चाहे। लेकिन उसने बात क्षणभर को, श्वास बिलकुल रुक जाएगी। उसी क्षण आपको तो, चोट तो ठीक जगह की है। बात तो सच है। झलक मिलेगी प्रथम मूल की। यह झलक आपको मिलनी शुरू हम सभी किस बात की खोज रहे हैं? एक सोचने जैसी बात है। जाए, आप दूसरे ही व्यक्ति होने लगेंगे। हम उसी को खोज सकते हैं, जिसे हमने कभी जाना हो। नहीं तो ___ खोजना है उदगम को; खोजना है उस बिंदु को जहां से हम आते खोजेंगे भी कैसे? खोजेंगे क्यों? हैं। क्योंकि जहां से हम आते हैं, वही हमारी अंतिम मंजिल होने आप कहेंगे, आनंद की खोज करना है। लेकिन आनंद आपने वाली है, और कोई उपाय नहीं। मंजिल को तो हम नहीं खोज कभी जाना हो तभी। जिसका स्वाद ही न हो, उसकी खोज कैसे सकते, क्योंकि मंजिल बहुत दूर है। लेकिन प्रथम को हम खोज होगी? उसकी वासना भी कैसे जगेगी? आपको याद हो या न हो, सकते हैं, क्योंकि प्रथम हममें छिपा है। वह मौजूद है अभी भी, आनंद आपने कभी जाना है। नहीं तो यह स्वाद कैसा? यह चेष्टा उसको आप अपने साथ लेकर चल रहे हैं। आपने जो भी गर्भ में | कैसी? यह दौड़ किसलिए? बिलकुल अपरिचित को कोई भी नहीं जाना था, वह ज्ञान आपके भीतर पड़ा है। उसे आप अभी भी लिए | खोज सकता है। चल रहे हैं। सूफी फकीर कहते हैं, हम ईश्वर को खोज रहे हैं, क्योंकि हम जानकर आप चकित होंगे कि गहरे सम्मोहन में, हिप्नोसिस में, | | ईश्वर को जानते हैं। लोग अपने गर्भ की घटनाएं भी याद करते हैं। अगर आपकी मां गिर __ ठीक कहते हैं। जानना कहीं भीतर होना ही चाहिए, नहीं तो खोज पड़ी हो, और उसको चोट लग गई हो, और उसका धक्का आपको | नहीं हो सकती। आपने कभी ऐसे आदमी को सुना है, जो कोई ऐसी लगा हो जब आप गर्भ में थे; तो सम्मोहन की अवस्था में, बेहोश चीज को खोजने निकल जाए, जिसे वह जानता ही न हो? तो अवस्था में, आप उसको याद कर सकते हैं। याद लोग करते हैं, कि निकलेगा भी कैसे? शुरुआत कैसे होगी? जब मैं पांच महीने का गर्भ में था, तब मेरी मां गिर पड़ी थी, और __ आनंद को हम खोजते हैं, क्योंकि आनंद हमने जाना है। वह मझे चोट लगी, धक्का लगा। उस धक्के की स्मति आपको अभी भी हमारा प्रथम अनभव था। और वह इतना गहन था कि उसके बाद है। उन नौ महीने में आपने जो जाना है, वह आपके भीतर पड़ा है। हमने उससे श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं जाना। उसके बाद वृक्ष नीचे ही और उस नौ महीने के पहले भी आप थे। उदगम और भी गहराई | जाता रहा है। इस आनंद को फिर पाना है। वह मूल की ही खोज है। में है। तब आप बिलकुल आत्मरूप थे, चाहे थोड़े ही क्षणों को। इस बात को बहुत गहराई से स्मरण में रख लें कि आपकी समाधि पिछला शरीर छूट गया था, नया शरीर मिलने में देर है, थोड़ा समय | आपके पुनः गर्भ में होने का अनुभव होगी। अगर आप पुनः गर्भ में लगा। उस बीच आप बिलकुल आत्मरूप थे, कोई देह न थी। होने का अनुभव कर लें, तो इस अवस्था को जापान के फकीरों ने उसकी भी स्मृति आ सकती है। सतोरी कहा है। यह पहली समाधि का अनुभव है, पहली झलक। फिर अनेक जन्मों की स्मृति। और फिर सारे जन्मों की स्मृति के | | और अगर आप बढ़ते ही जाएं पीछे-पीछे-पीछे, और उस जगह साथ ही इस बात का स्मरण, अतिक्रमण का, कि मेरा न तो कोई | | पहुंच जाएं, जहां यह पूरा ब्रह्मांड आपका गर्भ हो जाए और आप जन्म है और न कोई मृत्यु। इतने जन्म, इतनी मृत्युएं मेरे पड़ाव थे, | | इस गर्भ के हिस्से हो जाएं, तो उसे पतंजलि ने परम समाधि कहा मेरी यात्रा के ठहराव थे, और मैं यात्री हूं। जैसे ही यह स्मरण आता | | है। वह ब्रह्म समाधि, वह अंतिम समाधि है। पहली झलक और वह है, आप अपने मूल उदगम को उपलब्ध हो गए। और यही अंतिम | | अंतिम उपलब्धि है। जिस दिन सारा जगत गर्भ हो जाता है और लक्ष्य है। इसको बुद्ध निर्वाण कहते हैं, पतंजलि समाधि कहते हैं। आप उस गर्भ के भीतर लीन हो जाते हैं। ने बडी ही कीमत की बात कही है। किया है उसने | पर यह सूत्र बहुमूल्य है। गीता में भी इतने बहुमूल्य सूत्र कम हैं। कठोर व्यंग्य और आलोचना। उसने कहा है कि यह बुद्ध का और यह सूत्र साधक के लिए है। आगे को भूलें और पीछे को लेकि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 . खयाल करें। जो पाना है, उसकी फिक्र छोड़ें; जो पाया ही हुआ था | भरा है। उसी रास्ते से गुजरने में डर लगता है, फिर से उन्हीं बिंदुओं और जिसको हमने किसी तरह खोया है, जो विस्मृत हो गया है, को छूने में। उसकी पुनः स्मृति करें। और ध्यान रखें, आप पूरी पीड़ा से गुजरेंगे, गुजरना ही पड़ेगा। जितने आप पीछे जाएंगे, उतने ही आप आगे जाएंगे, क्योंकि आपके सारे दुख फिर से पुनर्जीवित होंगे, सब घाव फिर हरे होंगे। गति वर्तुलाकार है। और जिस दिन आप पीछे बिंदु पर पहुंच जाएंगे, | क्योंकि कोई घाव मिटता नहीं; वह बना है। उस दिन आप अंतिम मंजिल पर भी पहुंच गए। अगर आप दस वर्ष के थे और आपके पिता ने आपको पीटा था, ___जहां जड़ें हैं, वहीं वृक्ष के अंतिम फूल हैं। वृक्ष में जब फूल लगते तो वह चोट अब भी वहां बनी है। जब आप पीछे लौटना शुरू हैं, तो अंतिम क्या होता है? अंत में वृक्ष के फूल गिरने लगते हैं। करेंगे, गर्भ का प्रयोग करेंगे, आप पुनः दस वर्ष के होंगे, वह चोट वर्तुल पूरा हो गया। बीज हमने बोया था। बीज से वृक्ष बड़ा हुआ; | फिर हरी होगी। पिता फिर आपको पीटेंगे। फिर वही पीड़ा, फिर फिर फूल लगे, फल लगे, बीज फिर आ गए। वर्तुल पूरा हुआ। वही अहंकार को लगी चोट, असमर्थता, असहाय अवस्था, फिर और जैसे ही बीज फिर आ गए, फल टूटने लगते हैं, फूल टूटने | सब भीतर प्रकट होगा। फिर वही आंसू, फिर वही रोना, वह सब लगते हैं, बीज वापस जमीन में गिरने लगते हैं। फिर पैदा होगा। जहां से यात्रा शुरू हुई थी, यात्रा वहीं पूरी हो गई। बीज से लेकिन यह पैदा कर लेना बड़ा कीमती है। क्योंकि अब आप प्रारंभ, बीज पर अंत। परमात्मा से प्रारंभ, परमात्मा पर अंत। प्रथम सचेतन रूप से इससे गुजर रहे हैं। और एक बार जिस अनुभव से ही अंतिम है। आप सचेतन गुजर जाएं, वह आपकी स्मृति से मुक्त हो जाता है। हमारा मन लेकिन आगे की तरफ दौड़ता है। पीछे की तरफ | संस्कार इसी तरह क्षीण होते हैं, कर्म इसी तरह लय होते हैं। जिस रास्ता ही नहीं मालूम पड़ता। शायद हम भयभीत हैं। क्योंकि पीछे | पीड़ा को भी आप छिपाए हैं, उसको फिर से भोग लें; और आप की तरफ लौटने में जो हमने बहुत-से दुख छिपा रखे हैं, वे उभरेंगे। | हलके हो जाएंगे। यही भय है। जो दुख छिपा रखे हैं, वे उभरेंगे। उनसे हमें फिर | तो डरें मत। पीछे उतरने का डर छोड़ें। थोड़े दुख पीछे के भोगें। गुजरना होगा। उनसे गुजरने में पीड़ा है। और आप पाएंगे, आप हलके होते हैं। एक बार यह खयाल आ गया, मैंने सुना है, एक सांझ मुल्ला नसरुद्दीन अपने मकान के सामने | तो फिर आप सारे दुख भोगकर वापस गर्भ तक पहुंच सकते हैं। बहुत उदास बैठा है। उसकी पत्नी पूछती है कि नसरुद्दीन, इतने __मूल ऊपर की ओर, पीछे की ओर, प्रथम में छिपा है। लंबी यात्रा उदास! क्या बात है? नसरुद्दीन ने कहा कि सुबह जब मैं बाजार | की है आपने। और इस यात्रा से बचने का एक सुगम उपाय है कि गया, तो मेरे खीसे में सौ का नोट था। फिर मैंने एक खीसे को | | आप भविष्य में सपने देखते रहें। तो आपका अतीत बड़ा होता जाता छोड़कर सब खीसे देख लिए, नोट का कहीं कोई पता नहीं चल रहा | है। लौटना उतना ही मुश्किल होगा। जितनी देर करेंगे, उतनी ही है। तो उसकी पत्नी ने कहा, उस एक को क्यों छोड़ रखा है? कठिनाई होगी। नसरुद्दीन ने कहा कि डर लगता है; अगर उसको देखा और वहां | लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, अभी हमारी उम्र नहीं; अभी भी न पाया तो! एक ही आशा बची है। और हिम्मत नहीं पड़ती उस तो जवान हैं। अभी क्या ध्यान, अभी क्या समाधि, अभी क्या खीसे में हाथ डालने की। सोचना परमात्मा को! आएगा समय, रिटायर होंगे, काम-धंधे से आप भयभीत हैं खद के भीतर जाने में। भविष्य में आशाएं बांध छुटकारा होगा, फुर्सत होगी; तब! रखी हैं। वहां आशाओं की सुविधा है, क्योंकि कल्पना फैलाने का | उन्हें पता नहीं; जितनी देर होगी, उतना कठिन होता जाता है। कोई अंत नहीं है; सपने देखने में कोई कठिनाई नहीं है। सपनों को | | क्योंकि अतीत रोज बड़ा होता जा रहा है। उतना ही बोझ, उतने ही सुंदर बनाना आपके हाथ में है; उनको रंगते जाना, रंगीन करते दुख, उतनी ही पीड़ाएं, उतनी ही जलन, ईर्ष्याएं, इकट्ठी होती जाती जाना भी आपकी सुविधा है। अतीत—आप कुछ कर नहीं सकते। हैं। पीछे लौटना उतना ही मुश्किल हो जाएगा। दरवाजे उतने ही बंद अतीत ठोस है, सत्य है, वह हो चुका। और आप उससे गुजर चुके हो जाएंगे; भय और ज्यादा लगेगा। और आप जानते हैं कि पीड़ा थी, बड़ा दुख था। वह सब दुख वहां जितनी जल्दी ह्ये सके, उतना उचित है। और किसी दिन-अब | 1781 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मूल-स्रोत की ओर वापसी * तक ऐसा हो नहीं पाया पृथ्वी पर, कभी हो पाएगा, इसकी भी | चिकित्सक, मनोचिकित्सक भी उत्सुक और आतुर हो गया। संभावना कम है—किसी दिन अगर मां-बाप ज्यादा विचारशील | | उसने पूछा, कौन-सा स्वप्न है ? उसने कहा, रोज एक स्वप्न देखता होंगे, वस्तुतः धार्मिक होंगे, ऐसे धार्मिक नहीं जैसे कि सभी मां-बाप | | हूं। बैठा हूं अपने मकान के सामने, एक अति सुंदर युवती निकलती अभी हैं, वस्तुतः धार्मिक होंगे, तो वे बच्चे को आगे भी ले जाएंगे | है और मैं उसके पीछे भागता हं। और वह जाती है और अपने और निरंतर पीछे भी ले जाएंगे। वे बच्चे को कभी भी अतीत के | मकान में चली जाती है, और दरवाजा बंद कर लेती है। मैं दरवाजे बोझ से दबने न देंगे। वे उसके बचपन में लौटने की प्रक्रिया को, | पर खड़ा ठोंक रहा हूं दरवाजा, ठोंक रहा हूं। कई साल हो गए, रोज बचपन में बार-बार डूबने की प्रक्रिया को जिंदा रखेंगे। यही स्वप्न! अगर आप अपने छोटे बच्चों को रोज कह सकें कि वे रोज का | तो मनोचिकित्सक ने कहा, इस स्वप्न से आप मुक्त होना चाहते दिन पुनः जी लें रात सोने के पहले...। जब वे रात सोने जाएं, तो | हैं? नसरुद्दीन ने कहा, आप गलती समझे। मैं चाहता हूं, वह पीछे लौटें। सुबह से शुरू न करें, पीछे लौटें। बिस्तर पर लेटना दरवाजा बंद न कर पाए। आखिरी काम है, इससे पीछे लौटें। और एक-एक काम जो इसके मन दौड़ रहा है सपनों में। सपनों में भी महत्वाकांक्षाएं हैं, पहले किया है, उससे शुरू कर सुबह तक वापस जाएं! जब सुबह | उनकी पूर्ति की इच्छा है, दरवाजा बंद न हो पाए। सपने से छूटने वे जगे थे बिस्तर से, वहां तक पीछे लौटें। को कोई तैयार नहीं है। सपने को सुंदर बनाने की चेष्टा है। इसे __ अगर हर बच्चे को बचपन से सिखाया जा सके रोज पीछे | थोड़ा खयाल रखें। लौटना, तो धूल इकट्ठी न होगी; वह रोज ही अपने कर्म को झाड़ | । मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि छुड़ाएं इस संसार से। रहा है। तो जब जवान होगा, तब सच में ही जवान होगा, ताजा | | कोई छूटना नहीं चाहता। वे यह कह रहे हैं, बनाएं इस संसार को होगी। वह जब बूढ़ा होगा, तब भी ताजा होगा। उसके वार्धक्य में | जरा सुंदर, दरवाजा बंद न हो पाए। उनका मोक्ष, उनका स्वर्ग, सब एक गरिमा होगी। उसका वार्धक्य ताजगी से भरा होगा। उसके पीछे | इसी संसार के सुंदर रूप हैं, जहां दरवाजा सदा खुला है। साधारण कोई अतीत नहीं, कोई धूल नहीं है। वह रोज उसे झाड़ता रहा है। आदमी का नहीं; जिनको हम बहुत समझदार, बुद्धिमान कहते हैं, वह रोज साफ करता रहा है। उनका भी। सपने कैसे सफल हो जाएं। कैसे और सुंदर हो जाएं! घर तो हम साफ करते हैं, रोज करते हैं; स्वयं को हम कभी साफ | | पर जितने ही सुंदर होंगे सपने और जितने ही सफल होंगे, उतने नहीं करते। और धर्म स्वयं को साफ करने से ज्यादा कछ भी नहीं। ही आप खो जाएंगे. उतना ही स्मरण कम रह जाएगा। स्वप्न का है। उसका न कुछ परमात्मा से लेना-देना है, न मोक्ष से। स्वयं को अर्थ ही है स्वयं को खोना, विस्मरण कर देना। साफ करने से उसका संबंध है। क्योंकि स्वयं अगर आप साफ हैं, सारी प्रक्रियाएं स्वयं को स्मरण करने की प्रक्रियाएं हैं। स्वप्न तो आप परमात्मा हैं, आप मोक्ष हैं। शुरू नहीं हुए थे गर्भ में। वहीं लौट जाना है, जहां स्वप्न की पहली आपकी गंदगी, आप संसार हैं। आपका बोझ, आप संसार हैं। चोट भी नहीं पड़ी थी। आप निर्बोझ, आप परमात्मा हैं। इसलिए पतंजलि ने योग-सूत्र में कहा है कि समाधि सुषुप्ति की पीछे लौटना सीखें। आगे की दौड़ में ज्यादा शक्ति न गंवाएं। | ही अवस्था है, गहरी निद्रा की अवस्था है। जहां एक भी स्वप्न नहीं, लेकिन सपनों में रस है। एक भी विचार नहीं। पर सुषुप्ति और समाधि में इतना ही फर्क है मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोचिकित्सक के पास | कि सुषुप्ति में आप बेहोश हैं और समाधि में आप होश से भरे हैं। एक बार गया। और उसने कहा कि मैं बड़ा व्यथित हूं और जब | | होशपूर्वक पीछे लौट जाना है और उस बिंदु को पा लेना है, जहां बहुत थक गया और परेशान हो गया, तब आपके पास आया हूं। | से प्रारंभ है। उस मनोचिकित्सक ने पूछा कि क्या तकलीफ है? नसरुद्दीन ने ___ इस बात की चिंता मत करें कि संसार कैसे प्रारंभ हुआ! इस बात कहा, एक ही स्वप्न बार-बार आता है; रोज आता है। और अब मैं | | की फिक्र मत करें कि संसार को किसने बनाया! क्यों बनाया! थक गया हूं वर्षों से। अब मैं सो भी नहीं पाता। दिनभर भी लगता किसलिए बनाया! इस बात की फिक्र करें कि आप कब प्रारंभ हुए! है, वह स्वप्न रात आएगा; और रात उस सपने में बीतती है। कैसे प्रारंभ हुए! उस क्षण को पकड़ें, जब आप प्रारंभ हुए थे। 1179] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * सृष्टि के प्रारंभ को पकड़ने की बात व्यर्थ है। वह पकड़ा नहीं | की बात कही, क्योंकि उससे ही आपको दिखाई पड़ेगा कि आप जा सकता, क्योंकि सृष्टि सदा है। यह चक्र घूमता ही रहा है। आप एक उलटे वृक्ष हैं। इस चके पर कब सवार हो गए; आपने कब इससे जोर से गठबंधन __ संसार हो या न हो, आप हैं। और जब आप हैं, तब सारा रहस्य कर लिया; उस बिंदु को पकड़ें। | खुल गया। तब आपको लगेगा, आपका मूल ऊपर है, शाखाएं उस बिंदु के पहले आप परमात्मा थे, उस बिंदु के बाद आप | नीचे की तरफ हैं। और जिसको आप विकास कह रहे हैं, वह पतन शाखाओं में भटक गए और शाखाएं लंबी हैं और वृक्ष नीचे की है। और जिसको आप पीछे कह रहे हैं, वही अंत है, वहीं पहुंच तरफ बढ़ता जाता है। और जिस दिन आप यह समझ लेंगे कि एक जाना है। क्षण ऐसा भी था, जब आप इस चके को नहीं पकड़े थे, बाहर थे, | आज इतना ही। उसी क्षण यह चका छूट भी जाएगा। क्योंकि तब इसे पकड़ने का कोई सार नहीं है। जिस क्षण उस आनंद की झलक मिल जाएगी, जो इस संसार में उतरने के पहले थी, उसी क्षण संसार की दौड़ बंद हो जाएगी। क्योंकि हम उसी आनंद को इस संसार में खोजने का प्रयास कर रहे हैं। यह जो मैंने ध्यान का छोटा-सा प्रयोग कहा, इसे आप करें, तो कृष्ण का जो तात्पर्य है, वह समझ में आएगा। कृष्ण के शब्दों के तात्पर्य पर तो बहुत टीकाएं लिखी गई हैं। हजारों टीकाएं हैं। पर उन टीकाओं में से एक भी टीका नहीं है, जिसमें यह सझाव दिया हो कि आप अपने मल में लौट जाएं।। इसलिए मैं मानता हूं कि वे टीकाएं शाब्दिक हैं। और उनसे सत्य नहीं पकड़ा जा सकता। उनसे जो आप पकड़ेंगे, वह भी शाब्दिक ही होगा। मुल्ला नसरुद्दीन के घर में बड़े चूहे थे। और वह परेशान था। और कंजूसी की वजह से चूहादान भी नहीं खरीद सकता था। लेकिन फिर हिम्मत की और खरीद लाया। चूहादान तो खरीद लिया, लेकिन अब मुसीबत यह थी कि उसमें एक रोटी का टुकड़ा भी रखना है। वह भी कंजूसी की वजह से मुश्किल है। तो उसने तरकीब निकाली। होशियार आदमी था, मौलवी था, मुल्ला था, जानता था शास्त्रों को। उसने एक अखबार में से रोटी की फोटो काटकर अंदर रख दी। और रात निश्चित सोया। सुबह उसने अपना सिर पीट लिया। हुआ कुछ ऐसा कि जब उसने चूहादान खोला, तो रोटी की तस्वीर के पास एक कुतरा हुआ अखबार का टुकड़ा और पड़ा था, जिसमें एक चूहे की तस्वीर थी। अखबार में छपी रोटी ज्यादा से ज्यादा अखबार में छपे हुए चूहे को पकड़ सकती है, और तो कुछ उपाय नहीं। इन शब्दों की शब्दों से व्याख्या हो सकती है, लेकिन तब आप असली चूहे को नहीं पकड़ पाएंगे। इसलिए मैंने इस पहले ही सूत्र में ध्यान की प्रक्रिया Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 दूसरा प्रवचन दृढ़ वैराग्य और शरणागति Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * न रूपमस्येह तथोपलभ्यते -तीन बातें समझनी जरूरी हैं। नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा। | एक तो आपसे मैंने कहा कि अपने माता-पिता को प्रेम अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम् दें। प्रश्न जिन्होंने पूछा है, वे बच्चों से अपने लिए प्रेम असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।३।। मांग रहे हैं। वहीं भूल हो गई है। ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं सभी मां-बाप बच्चों से प्रेम मांगते हैं। आपके मां-बाप ने भी यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। | आपसे मांगा होगा और आप नहीं दे पाए। आप भी अपने बच्चों तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये से मांग रहे हैं और प्रेम पाने की संभावना बहुत कम है। आपके यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।।४।। बच्चे भी अपने बच्चों से मांगेंगे। निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा जो मैंने कहा था, वह कहा था बच्चों के लिए मां-बाप को प्रेम अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। देने के लिए। मां-बाप बच्चों से प्रेम मांगें, इसके लिए नहीं। और द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः | प्रेम कभी मांगकर मिलता नहीं; और मांगकर मिल भी जाए, तो गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।। ५।। | उसका कोई मूल्य नहीं है। जहां मांग पैदा होती है. वहीं प्रेम मर इस संसार-वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया जाता है। जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा दूसरी बात, मां-बाप का प्रेम बच्चे के प्रति स्वाभाविक, सहज, न अच्छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए इस अहंता, | प्राकृतिक है। जैसे नदी नीचे की तरफ बहती है, ऐसा प्रेम भी नीचे ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल की तरफ बहता है। बच्चे का प्रेम मां-बाप के प्रति बड़ी के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके अस्वाभाविक, बड़ी साधनागत घटना है। वह जैसे पानी को ऊपर उपरांत उस परम पद रूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार चढ़ाना हो। खोजना चाहिए कि जिसमें गए हुए पुरुष फिर पीछे संसार में | तो गुरजिएफ का जो सूत्र था, वह यह था कि जो लोग अपने नहीं आते हैं। मां-बाप को प्रेम दे पाते हैं, उन्हें ही मैं मनुष्य कहता हूं; क्योंकि और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति अति कठिन बात है। विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष के मैं शरण हूं, सभी मां-बाप अपने बच्चों को प्रेम देते हैं, वह सहज बात है। इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह | उसके लिए मनुष्य होना भी जरूरी नहीं है; पशु भी उतना करते हैं। जिनका तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिन्होंने और | मां-बाप से बच्चे की तरफ प्रेम का बहना नदी का नीचे उतरना है। परमात्मा के स्वरूप में है निरंतर स्थिति जिनकी तथा अच्छी | बच्चे मां-बाप को प्रेम दें, तो ऊर्ध्वगमन शुरू हुआ। अति कठिन प्रकार से नष्ट हो गई है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुख बात है। नामक द्वंद्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद __मां-बाप सोचते हैं, हम इतना प्रेम बच्चों को देते हैं, बच्चों से को प्राप्त होते हैं। | हमें प्रेम क्यों नहीं मिलता? सीधी-सी बात उनकी स्मृति में नहीं है। उनका अपने मां-बाप के प्रति कैसा संबंध रहा? और अगर आप अपने मां-बाप को प्रेम नहीं दे पाए, तो आपके बच्चे भी कैसे दे सूत्र के पहले कुछ प्रश्न। पाएंगे? और जैसा आप अपने बच्चों को दे रहे हैं, आपके बच्चे पहला प्रश्नः आपने कल माता और पिता के बारे में | भी उनके बच्चों को देंगे, आपको क्यों देंगे? जो भी कहा, वह बहुत प्रिय था। माता-पिता बच्चों यह प्राकृतिक पशु में भी हो जाता है। इसलिए मां-बाप इसमें को प्रेम देते हैं, लेकिन बच्चे माता-पिता को प्रेम क्यों | बहुत गौरव अनुभव म करें कि वे बच्चों को प्रेम करते हैं। यह सीधी नहीं दे पाते हैं? | स्वाभाविक. प्राकतिक घटना है। मां-बाप बच्चों को प्रेम न करें. तो अप्राकृतिक घटना होगी। बच्चे मां-बाप को प्रेम करें, तो 182 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** दृढ़ वैराग्य और शरणागति अस्वाभाविक घटना घटती है, बहुत बहुमूल्य । क्योंकि वहां प्रेम प्रकृति के चक्र से मुक्त हो जाता है; वहां प्रेम सचेतन हो जाता है। इसलिए सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए परम आदर का स्थापन करती हैं । और इसे सिखाना होता है। इसके संस्कार डालने होते हैं। इसके लिए पूरी संस्कृति का वातावरण चाहिए, पूरी हवा चाहिए, जहां कि यह ऊपर की तरफ उड़ना आसान हो सके। नीचे की तरफ उतरने में कुछ भी गौरव गरिमा नहीं है। कठिन और भी है। जब एक बच्चा पैदा होता है, तो बच्चा तो निर्दोष होता है, सरल होता है । और बड़ी बात है - वही उसका गुण है, जिसकी वजह से आपका प्रेम उसकी तरफ बहता है - असहाय होता है, हेल्पलेस होता है । असहाय को प्रेम देने में आपके अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। असहाय को बड़ा करने में आपको बड़ा रस आता है। फिर बच्चा निर्दोष होता है। उसको घृणा करने का तो कोई उपा भी नहीं। उस पर कठोर होने में आपको मूढ़ता मालूम पड़ेगी । पर जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे आपका प्रेम सूखने लगता है; वैसे-वैसे आप कठोर होने लगते हैं ! जैसे-जैसे बच्चा अपने पैरों पर खड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे आप और बच्चे के बीच खाई बढ़ने लगती है। क्योंकि अब बच्चा असहाय नहीं है। और अब बच्चे का भी अहंकार पैदा हो रहा है। अब बच्चा भी संघर्ष करेगा, प्रतिरोध करेगा, बगावत करेगा, लड़ेगा। अब उसकी जिद्द और उसका हठ पैदा हो रहा है। उससे आपके अहंकार को चोट पहुंचनी शुरू होगी। नवजात बच्चे को प्रेम करना बड़ा सरल है। लेकिन जैसे ही बच्चा बड़ा होना शुरू होता है, प्रेम करना मुश्किल, कठिन होने लगता है। ठीक इससे उलटी बात खयाल में रखें कि बच्चे के लिए आपको प्रेम करना बहुत कठिन है, घृणा करना सरल है। क्योंकि आप शक्तिशाली हैं । और निर्बल हमेशा शक्तिशाली को घृणा करेगा। शक्तिशाली दया बता सकता है निर्बल के प्रति, लेकिन निर्बल को दया बताने का तो कोई उपाय नहीं है। निर्बल शक्तिशाली को घृणा करेगा। बच्चा अनुभव करता है, असहाय है और आप शक्तिशाली हैं। बच्चा अनुभव करता है, वह परतंत्र है और सारी शक्ति, सारी परतंत्रता का जाल आपके हाथ में है। जैसे ही बच्चे का अहंकार बड़ा होगा - बड़ा होगा ही, क्योंकि वही गति है जीवन की —जैसे ही बच्चा सजग होगा और समझेगा मैं हूं, वैसे ही आपके साथ संघर्ष शुरू होगा। आप चाहेंगे आज्ञा माने, और बच्चा चाहेगा कि आज्ञा तोड़े। क्योंकि आज्ञा मनवाने में आपके अहंकार की तृप्ति है और आज्ञा | तोड़ने में उसके अहंकार की तृप्ति है। और बच्चे के मन में आपके लिए घृणा होगी, और आपका प्रेम सिर्फ जालसाजी मालूम होगी। | क्योंकि प्रेम के नाम पर आप बच्चे का शोषण कर रहे हैं, ऐसा बच्चे को प्रतीत होगा। और सौ में नब्बे मौके पर बच्चा गलती में भी नहीं है। प्रेम के नाम पर यही हो रहा है। यह सारी घृणा बच्चे में इकट्ठी होगी। अगर बच्चा लड़का है, तो पिता के प्रति घृणा इकट्ठी होगी, अगर लड़की है, तो मां के प्रति घृणा इकट्ठी होगी। कोई बेटा अपने बाप आदर नहीं कर पाता। | आदर करना पड़ता है, मजबूरी है, लेकिन भीतर से बगावत करना चाहता है। कोई लड़की अपनी मां को प्रेम नहीं कर पाती । दिखलाती है; वह शिष्टाचार है। लेकिन भीतर ईर्ष्या, जलन और संघर्ष है। इसलिए गुरजिएफ की बात मूल्यवान है कि जो व्यक्ति अपने | मां-बाप को प्रेम कर पाए, उसे ही मैं मनुष्य कहता हूं। क्योंकि यह बड़ी कठिन यात्रा है। इसलिए आप अगर अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, तो बहुत गौरव मत मान लेना। सभी अपने बच्चों को प्रेम करते हैं; आपके बच्चे भी करेंगे। इसमें कोई विशेषता नहीं है। लेकिन अगर आप अपने मां-बाप के प्रति आदर करते हैं, प्रेम करते हैं, सम्मान रखते हैं, तो जरूर गौरव की बात है, जरूर महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि | यह एक चेतनागत उपलब्धि है। और यह तब ही हो सकती है, जब आप मूल के प्रति श्रद्धा से भर जाएं। अन्यथा हर बेटे को ऐसा लगता है कि बाप मूढ़ है । और | जैसे-जैसे आधुनिक विकास हुआ है शिक्षा का, वैसे-वैसे यह प्रतीति और गहरी होने लगी है। शायद बाप उतना पढ़ा-लिखा न हो, जितना बेटा पढ़ा-लिखा | है | बाप बहुत-सी बातें नहीं भी जानता है, जो बेटा जान सकता है। रोज ज्ञान विकसित हो रहा है। इसलिए बाप का ज्ञान तो पिछड़ा हो जाता है; आउट आफ डेट हो जाता है। 183 तो बेटे के मन में स्वभाविक हो सकता है कि बाप कुछ भी नहीं जानता। श्रद्धा कैसे पैदा हो ? श्रद्धा किन्हीं तथ्यों पर आधारित नहीं हो सकती। श्रद्धा तो सिर्फ इस बात पर आधारित हो सकती है कि पिता उदगम है, स्रोत है; और जहां से मैं आया हूं, उससे पार जाने का कोई उपाय नहीं। मैं कितना ही जान लूं, मैं कितना ही बड़ा हो Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * जाऊं अपनी आंखों में, मेरा अहंकार कितना ही प्रतिष्ठित हो जाए, लौटो। हम क्या करें? लेकिन फिर भी मूल और उदगम के सामने मुझे नत होना है। क्योंकि कोई भी अपने उदगम से ऊपर नहीं जा सकता। पिने बीज से ज्यादा नहीं होता। हो भी नहीं सकता। व र्तमान में जीना तभी संभव है, जब अतीत से छुटकारा बीज में पूरा वृक्ष छिपा है। कितना ही विराट वृक्ष हो जाए, वह हो जाए। उसके पहले कोई वर्तमान में जी नहीं छोटे-से बीज में छिपा है। और उससे अन्यथा होने की कोई नियति | सकता। इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। वर्तमान नहीं है। और अंतिम फल जो होगा वृक्ष का, वह यह होगा कि उन्हीं | | में वही जी सकता है, जिसके मन पर अतीत का कोई बोझ नहीं। बीजों को वह फिर पुनः पैदा कर जाए। अतीत का बोझ हो, तो वर्तमान में जीने का उपाय नहीं। उदगम से आप कभी बड़े नहीं हो सकते। मूल से कभी विकास __ और अतीत का बोझ आपके ऊपर है। यह अतीत में लौटने की बड़ा नहीं हो सकता। वृक्ष कभी बीज से बड़ा नहीं है, कितना ही | प्रक्रिया उस बोझ को काटने का उपाय है। उससे छुटकारा चाहिए, बड़ा दिखाई पड़े। इस अस्तित्वगत घटना की गहरी प्रतीति । | वह गिर जाए। जैसे वस्त्रों को छोड़कर कोई नग्न खड़ा हो जाए, माता-पिता के प्रति आदर से भर सकती है। ऐसा अतीत छूट जाए और आप नग्न वर्तमान में खड़े हो जाएं, तो लेकिन आप माता-पिता की तरह इसको मत सुनना; इसको बेटे | | ही वर्तमान में जी सकेंगे, तो ही क्षण-क्षण होने का अनुभव होगा। और बेटी की तरह सुनना। यह आपके माता-पिता के प्रति आपकी | | ये दो बातें विरोधी मालूम पड़ सकती हैं। लेकिन अतीत में श्रद्धा के लिए कह रहा हूं। अब जाकर अपने घर में आप अपने | लौटना वर्तमान में जीने की कला है। बच्चों से श्रद्धा मत मांगने लगना। क्योंकि तब आप बात समझे ही | ___ अतीत में जीने को नहीं कह रहा हूं आपसे कि आप अतीत में नहीं, चूक ही गए। | जीएं। अतीत में जीने का कोई उपाय नहीं है। जो जा चुका वह जा और जिस समाज में भी माता-पिता के प्रति श्रद्धा कम हो| | चुका, वह अब है नहीं। उसमें जीएंगे कैसे? कल तो बीत गया। जाएगी, उस समाज में ईश्वर का भाव खो जाता है। क्योंकि ईश्वर | और कल को लाने का अब कोई मार्ग नहीं है। आदि उदगम है। वह परम स्रोत है। लेकिन कल की स्मृति भीतर टंगी रह गई है। वह अभी भी मौजूद अगर आप अपने बाप से आगे चले गए हैं तीस साल में, आपके | है। कल बीत चुका, सांप जा चुका; उसकी केंचुली आपके मन में और बाप के बीच अगर तीस साल की उम्र का फासला है, आप इतने अटकी रह गई है। आगे चले गए हैं बाप से, तो परम पिता से, परमेश्वर से तो आप वह जो कल की स्मृति आपके मन में आज भी मौजूद है, उस बहुत आगे चले गए होंगे। अरबों-खरबों वर्ष का फासला है। अगर | स्मृति से छुटकारा चाहिए। उस स्मृति से आपका रस समाप्त हो परमात्मा मिल जाए, तो वह बिलकुल महाजड़, महामूढ़ मालूम | जाए। उस स्मृति के न तो आप पक्ष में रहें, न विपक्ष में। न तो उस पड़ेगा। जब पिता ही मूढ़ मालूम पड़ता है, अगर परमात्मा से आपका | स्मृति से लगाव रहे और न घृणा। उस स्मृति से आपका सारा संबंध मिलन हो, तो वह तो आपको मनुष्य भी मालूम नहीं पड़ेगा। छूट जाए, जैसे वह हुई या नहीं हुई बराबर हो जाए। तो आप अतीत पीछे की ओर, मूल की ओर, उदगम की ओर सम्मान का बोध | | से मुक्त हो गए; तो आपने अतीत की स्लेट को पोंछकर साफ कर अत्यंत विचार और विवेक की निष्पत्ति है। वह प्रकृति से नहीं | | दिया। तब ही आप वर्तमान में जी पाएंगे। तब आपकी आंखें मिलती। विमर्श, चिंतन, ध्यान से उपलब्ध होती है। उज्ज्वल होंगी, ताजी होंगी, नई होंगी। और आप जो भी देखेंगे, ___ पर ध्यान रखना, जो भी मैं कह रहा हूं, वह आपसे बेटे और | उसमें आपकी आंखों पर पड़ी हुई अतीत की धूल बाधा नहीं देगी। बेटियों की तरह कह रहा हूं, पिता और माता की तरह नहीं। | वह धूल नहीं है वहां; दर्पण स्वच्छ है। | तो अतीत में लौटने की प्रक्रियाएं वर्तमान में जीने की विधियां हैं। और जो व्यक्ति अतीत में लौटने से डरता है. वह डरता ही दूसरा प्रश्न: आपने पहले कहा है, क्षण-क्षण जीयो, इसलिए है कि अतीत बहुत भारी है। अतीत का स्मरण ही उसको वर्तमान में जीयो। अब आप कह रहे हैं, अतीत में | बेचैन और विचलित कर देता है। उसका अर्थ है कि मन में भीतर 184 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * अतीत के घाव अभी हरे हैं। कैसे वर्तमान में जीएंगे? आपकी जिंदगी में कोई कांटे नहीं रह जाएंगे। कल किसी ने आपको गाली दी थी, वह आदमी आपको आज तब कल फिर कोई गाली आपको देगा—जिंदगी के रास्ते पर फिर सड़क पर दिखाई पड़ गया है। आपकी आंखें खाली नहीं हैं; बहुत कांटे हैं और जब कल आपको दुबारा कोई गाली दे, तो गाली से भरी हैं। आपका मन खाली नहीं है; कल की गाली अभी | आपका यह सचेतन गाली में लौटने का अनुभव सहयोगी होगा। तब भी अनुगूंज कर रही है; अभी भी गूंज रही है। और उस आदमी को | आप अतीत बनने ही मत देना; तब आप वहीं देख लेना। तब आप देखते ही गाली फिर से सजग हो जाएगी। और इस आदमी को आप | वहीं खड़े हो जाना शांत और इस घटना को ऐसे ही देखना, जैसे यह वैसा नहीं देखेंगे, जैसा वह अभी है। वैसा देखेंगे, जैसा वह कल | कोई स्मृति का एक खेल हो। वस्तुतः न घटती हो, सिर्फ मन में एक गाली देते समय था। कल्पना हो रही हो। तो फिर आपका अतीत निर्मित ही न होगा। और हो सकता है, वह आदमी क्षमा मांगने आ रहा हो। और हो | - अतीत के साथ दो काम करने हैं। जो बंधा हुआ अतीत है, सकता है, वह भूल ही चुका हो गाली। हो सकता है, उसने जिसको हम इस मुल्क में कर्म और संस्कार कहते रहे हैं, उसकी पश्चात्ताप कर लिया हो, अपने को दंड दे लिया हो। लेकिन यह निर्जरा करनी है, उसको झाड़ देना है। और दूसरा काम यह करना नया आदमी आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। आपके पास आंखें पुरानी | | है कि अब आगे अतीत निर्मित न हो पाए। तो रोज-रोज झाड़ देना हैं। आप आज देख ही नहीं रहे हैं; कल से देख रहे हैं। | है। जैसे ही धूल पड़े, उसी समय झाड़ देना है। इकट्ठा करने का और हमारा सारा देखना ऐसा है; हमारा सारा सुनना ऐसा है। | प्रयोजन भी क्या है? जिससे कल छूट ही जाना है, उसे आज बांध हम होते ही यहां हैं न के बराबर, निन्यानबे प्रतिशत अतीत बीच में | | लेने की जरूरत क्या है? और जो कल बोझ बन जाएगा, उसे हम खड़ा होता है। उसके कारण वर्तमान से वंचित हो जाते हैं। आज संग्रह क्यों करें? ' तो जो कल मैंने आपको कहा अतीत में लौटने के प्रयोग, वे | | तो जो संगृहीत है, उससे छूटना है। और जो संगृहीत हो सकता अतीत से छंटने के प्रयोग हैं। लौटकर वहां टिक नहीं जाना है। है. उसको संगहीत नहीं करना है। पिछले संस्कार को पोंछना है: लौटकर वहां रुक नहीं जाना है। लौटना है सिर्फ इसलिए, ताकि | नए संस्कार को निर्मित नहीं होने देना है। तब आप दर्पण की तरह अतीत को आप सचेतन रूप से जी लें। इस बात को थोड़ा खयाल स्वच्छ हो जाएंगे। तब जगत आपको वैसा ही दिखाई पड़ेगा जैसा से समझ लें। है। तब आप उसको बिगाड़ेंगे नहीं; तब आप उसमें जोड़ेंगे और अतीत में आप रहे हैं, लेकिन तब आप अचेतन थे। कल इस घटाएंगे नहीं। और अगर ऐसी दर्पण जैसी स्थिति मिल जाए, तब आदमी ने गाली दी थी, तब आपके पास होश नहीं था। तब गाली | जो हम जानते हैं, वह संसार नहीं है, वह परमात्मा है। तब जो हम इतने जोर से चोट की थी, आप इतने धुएं से भर गए थे, क्रोध इतना जानते हैं, वह मूल है, उत्स है, उदगम है। उसे जानते ही जीवन के उबल आया था कि आप देख नहीं सके क्या हुआ। उस क्रोध की | | सारे दुख तिरोहित हो जाते हैं। मूर्छा में आप सचेतन रूप से अनुभव से गुजर नहीं सके। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। एक है लक्ष्य, वर्तमान में जीना। लेकिन अब तो कल बीत गया। कल की गाली भी गई, आदमी | | और दूसरी है विधि, अतीत में उतरना, जिससे यह लक्ष्य पूरा हो भी गया, कल भी गया। अब आप बैठकर चुपचाप कल की घटना | | सकता है। लेकिन कठिन हमें मालूम पड़ता है। में फिर से उतर सकते हैं। और अब आप सचेतन रूप से, | सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन को गाली देने की सहज आदत कांशसली उतर सकते हैं। जो कल संभव नहीं हुआ, वह आज | | थी, अकारण भी, निर्जीव वस्तुओं को भी। अपनी बैलगाड़ी को संभव हो सकता है। | हांककर ले जाता खेत तक, तो बैलों को भी गाली देता। और आप चकित हो जाएंगे। अगर आप होशपूर्वक कल की | ___ गांव में एक फकीर आया हुआ था और नसरुद्दीन को उसने रास्ते घटना में गए, तो आप अचानक पाएंगे, उस घटना का दंश समाप्त | | पर बैलों को गाली देते देखा। उसने नसरुद्दीन को समझाया। और हो गया। उस घटना में कोई चोट न रही, उस गाली में अब कोई | बात तो सीधी थी; समझने का कोई खास कारण भी न था। बैलों कांटे न रहे। और अगर यह स्मृति में हो सकता है, तो इससे एक को गाली देने का कोई अर्थ नहीं है। और उनसे दूर के कामुक रिश्ते अनुभव मिलेगा कि अगर आप यह वस्तुतः भी कर सकें, तो जोड़ना-मां-बहन, उनकी मां और बहन से संबंध जोड़ना निपट 185 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * पागलपन की बात है। नसरुद्दीन को समझ में भी आ गया। तो उसने | | कह रहे हैं। स्वीकार करना पड़ता है कि ठीक कह रहे हैं। उस प्रतिज्ञा कर ली, कसम खा ली कि अब, अब दुबारा ऐसी भूल नहीं | स्वीकृति में आप निर्णय लेते हैं। करूंगा। लेकिन निर्णय किसके खिलाफ ले रहे हैं! न मालूम कितनी लंबी लेकिन कसमों से आदतें कभी टूटती नहीं। और कसमों से लकीरें भीतर हैं, गहरे खांचे हैं। उनमें चलने की आदत हो गई है। आदतें टूटती होती, तो सारी दुनिया कभी की बदल गई होती। और उनमें चलना सुगम है। वे खांचे बार-बार आपको खींचेंगे। सिर्फ बुद्धि को बात ठीक लगती है, उतना ही काफी नहीं है जीवन ___ अतीत में वापस उतरने का अर्थ यह है, इन खांचों को मिटाना रूपांतरण के लिए। क्योंकि जीवन बुद्धि से ज्यादा गहरा है। वहां | जरूरी है। इसके पहले कि आप कसम खाएं, बदलाहट का कोई अचेतन परतें हैं। और बुद्धि की खबर वहां तक नहीं पहुंचती। | निर्णय लें, जिससे आप छूटना चाहते हैं, उससे सचेतन रूप से पंद्रह दिन ही नहीं बीते होंगे कि फिर फकीर रास्ते पर मिल गया। गुजर जाना जरूरी है। आप प्रयोग करके देखें, कि चीज से भी आप फकीर दिखाई पड़ा, तो नसरुद्दीन उस वक्त बैलों को गाली दे रहा | सचेतन रूप से गुजर जाएंगे, उससे छुटकारा हो जाएगा। था और कोड़े मार रहा था। जैसे ही फकीर को देखा, तो उसने एक महिला मेरे पास लाई गई। उसके पति चल बसे हैं। तीन फकीर को अनदेखा कर दिया, और जोर से बैलों से कहा कि सुनो, महीने हो गए, लेकिन वह रोई भी नहीं। बुद्धिमान है; एक अगर पंद्रह दिन पहले की बात होती. तो जो बातें मैंने कहीं. वह मैं| यनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। पढी-लिखी है। किताबें लिखी हैं। तुमसे कहता। लेकिन चूंकि अब मैं कसम खा चुका हूं, इसलिए कविताएं लिखती है। प्रवचन करती है। और जब नहीं रोई, और प्यारे बच्चो, जरा जल्दी-जल्दी चलो। उसकी आंख से आंसू न गिरे, तो आस-पास के लोगों ने भी बड़ी वह गालियां दे रहा था, लेकिन बैलों से कहा कि अगर पंद्रह प्रशंसा की। उस प्रशंसा ने अहंकार को और बल दिया। उससे वह दिन पहले की बात होती, तो ये बातें मैंने तुमसे कही होती। अब और भी अकड़ गई। लेकिन तीन महीने के बाद उसे हिस्टीरिया के चूंकि कसम खा चुका...। फिट आने शुरू हो गए; मूर्छा आने लगी। तो मूर्छा की चिकित्सा ___ जो भी हमने पीछे किया है, सोचा है, उस सबके गहरे खांचे शुरू हो गई। हमारे मन पर होते हैं। और उन्हीं खांचों को हम रोज-रोज उपयोग लेकिन किसी ने भी यह फिक्र न की कि उसने दुख की एक गहरी करते हैं, तो खांचे और गहरे हो जाते हैं। आप निर्णय भी कर लें वेदना को बिना जीए दबा लिया। यह बिलकुल स्वाभाविक था कि कि अब ऐसा नहीं करूंगा, तो इस निर्णय का खांचा तो इतना गहरा वह रो लेती। और समझदार लोग आस-पास होते, तो उसे रोने में नहीं होता, यह तो निर्णय अभी पतली लकीर है। यह निर्णय कभी सहायता पहुंचाते। यह उचित था कि घाव जी लिया जाता। वह नहीं भी हार जाएगा, क्योंकि पुराने खांचे हैं, उनकी लीकें बन गई हैं। हो पाया। भीतर रोना भरा रहा। आंसू निकलना चाहते थे; रोक लिए जैसे गांव के कच्चे रास्तों पर गाड़ी की लीक बन जाती है। फिर | गए। उन सबका बोझ भारी हो गया। मन हलका न हो पाया। उस आप बैलगाड़ी चलाएं, उसी लीक में चके फिर पहुंच जाएंगे, फिर मन के बोझ का परिणाम होने ही वाला था कि कोई भी भयानक पहुंच जाएंगे। वे गड्ढे खाली हैं; चकों को उनमें जाना आसान है। बीमारी पैदा हो जाए। ठीक मन पर लीकें हैं। अतीत का अर्थ है, अनंत लीकें। तो आप उस स्त्री की पूरी बात सुनकर मैंने उसे कहा कि कुछ और इलाज कितनी ही बातें समझ लेते हैं; बुद्धि सहमत हो जाती है; निर्णय ले | की जरूरत नहीं है, तू जी भरकर रो ले। उसने कहा, लेकिन क्या लेते हैं; संकल्प कर लेते हैं। और जब संकल्प करते हैं, तब सोचते फायदा रोने से? रोने से क्या मरा हुआ व्यक्ति मिलेगा? । हैं कि कुछ होने-जाने वाला है। घड़ी भी नहीं बीत पाती कि जो ___ मैं भी नहीं कह रहा हूं कि रोने से मरा हुआ व्यक्ति मिलेगा। रोने आपने निर्णय लिया था, वह टूट जाता है। और तब सिर्फ से तू ठीक से जीवित हो सकेगी। मरा हुआ व्यक्ति तो नहीं मिलने आत्मग्लानि पैदा होती है, और कुछ भी नहीं। वाला है। लेकिन अगर नहीं रोई, तो तू भी मरी हुई हो जाएगी। मरी __ आपके संत, आपके फकीर, आपके पंडित-पुरोहित, आप में हुई हो ही गई है। तेरा हृदय भी पत्थर जैसा हो जाएगा। सिर्फ आत्मग्लानि पैदा करवा पाते हैं और कुछ भी नहीं। क्योंकि | उसने कहा, अब बड़ा मुश्किल है। जिस क्षण पति मरे थे, उस उनकी बातें तो तर्कयुक्त हैं। आप भी कह नहीं सकते कि वे गलत समय तो आसान था; अब तो समय भी काफी बीत चुका। 186 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * उससे कहा, तुझे लौटाना पड़ेगा; अतीत में वापस जाना पड़ेगा। | है, उसी को हिंदू सतयुग कहते हैं। और ठीक मालूम होता है, तुझे उस दिन से फिर कहानी शुरू करनी पड़ेगी, जिस दिन पति मरे | | वैज्ञानिक मालूम होता है। क्योंकि एक व्यक्ति की जीवन-कथा जो थे। तो तू आंख बंद कर ले और जिस क्षण पहला तुझे समाचार | है, वही जीवन-कथा सभी व्यक्तियों की जीवन-कथा है। मिला पति के मरने का, वहां से फिर से तू यात्रा शुरू कर। ये पीछे ___ बच्चा निर्दोष पैदा होता है और बूढ़ा सब दोषों से भरकर मरता के जो दिन बीते, इनको भूल जा और फिर से जी। है। सतयुग बचपन है समाज का। और कलियुग बुढ़ापा है समाज __वह मेरे सामने बैठी-बैठी ही विकल हो गई। उसके हाथ-पैर में | | का; वह अंतिम घड़ी है। जब सब तरह के रोग इकट्ठे कर लिए गए। कंपन आ गया। उसकी आंखें बंद हो गईं। उसके जबड़े भिंच गए। | जब सब तरह की बीमारियां संगृहीत हो गईं। जब सब तरह के चीख और रोना शुरू हो गया। कोई पंद्रह दिन गहन पीड़ा रही। | अनुभवों ने आदमी को चालाक और बेईमान बना दिया, भोलापन लेकिन तब हल्कापन आ गया। अब वह हंस सकती है। खो गया। इस फर्क को आप समझ लें। हालांकि उस बेईमानी और चालाकी से कुछ मिलता नहीं है। रोने से सचेतन रूप से गुजरी, तो अब हंस सकती है। रोने को | | क्योंकि मिलता होता, तो बूढ़े प्रसन्न होते और बच्चे दुखी होते। दबा लिया था, तो हंसना तो दूर, हिस्टीरिया परिणाम था। | खोता ही है, मिलता कुछ नहीं है। लेकिन मन समझाता है कि अतीत को सचेतन रूप से एक बार आप देख लें. तो आप हंस होशियारी....। सकते हैं। तब बोझ तिरोहित हो जाता है। और उसके बाद ही | | मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक फैक्टरी में काम करता था, वर्तमान में जीना संभव है। तो उसका हाथ कट गया। मशीन के भीतर आ गया बायां हाथ और कट गया। महीनों के इलाज के बाद जब वह अस्पताल से वापस लौटा, उसके मित्र उसे देखने आए। और उन्होंने कहा कि आखिरी प्रश्नः गीता की धारणा है कि संसार श्रेष्ठ | | नसरुद्दीन, परमात्मा को धन्यवाद दो कि अच्छा हुआ कि दायां हाथ से अश्रेष्ठ की ओर पतन है। उसके अनुसार हिंदुओं | | न कटा, नहीं तो जिंदगी बेकार हो जाती। नसरुद्दीन ने कहा कि की सतयुग से लेकर कलियुग के अवरोहण की | धन्यवाद देने की कोई जरूरत नहीं। हाथ तो मेरा भी मशीन में दायां धारणा भी सही लगती है। लेकिन ज्ञात इतिहास | ही गया था, वह तो मैंने वक्त पर चालाकी की, दायां तत्काल बताता है कि मनुष्य-जाति नरमेध, दासता और खींचकर बायां अंदर कर दिया। दरिद्रता से निकलकर क्रमशः समृद्धि और स्वतंत्रता | तो जिसे हम आदमी की समझदारी कहते हैं, वह इससे ज्यादा की ओर गतिमान रही है। इसमें तथ्य क्या है? | नहीं है। क्योंकि फल क्या है? सारी बुद्धिमत्ता कहां ले जाती है? हाथ में बचता क्या है? बच्चे को हानि क्या है? उसकी निर्दोषता से उसका क्या खो रहा है? निर्दोष चित्त का कुछ खो ही नहीं सकता। 1 हली बात, बच्चा पैदा होता है, तब वह निर्दोष है, तब | क्योंकि उसकी कोई पकड़ नहीं है। ५ उसकी स्लेट कोरी है। न उस पर बुरा है कुछ, और न ___ मनुष्य की जो, एक-एक व्यक्ति की जो कथा है, हिंदू विचार पूरे अच्छा है। बच्चा साधु नहीं है, निर्दोष है। असाधु भी | | जीवन की कथा को भी वैसा ही स्वीकार करता है। मनुष्य-जाति का नहीं है। अंसाधु तो है ही नहीं, साधु होने का दोष भी अभी उसके | | जो आदिम युग था, वह सतयुग है। जब लोग सरल थे और बच्चों ऊपर नहीं है। अभी उसने हां और न कुछ भी नहीं कहा है। अभी की भांति थे। और यह बात सच मालम पडती है। आज भी आदिम उसने बुरा और अच्छा कुछ भी चुना नहीं है। अभी निर्विकल्प है। जातियां हैं, वे सरल हैं और बच्चों की भांति हैं। अभी उसका कोई चुनाव नहीं है। अभी च्वाइसलेस है। अभी उसे फिर सभ्यता, समझ, गणित का विकास होता है। हृदय खोता पता भी नहीं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अभी भेद पैदा नहीं | | है और बुद्धि प्रबल होती है। भाव क्षीण होते हैं और हिसाब मजबूत हुआ। अभी बच्चा अभेद में जी रहा है। होता है। कविता खो जाती है और गणित ही गणित रह जाता है। यह जो बच्चे की दशा है, यही दशा पूरे समाज की भी कभी रही | | आज जैसा अमेरिका है। सब चीज गणित हो जाती है। आंकड़े सब 187 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * कुछ हो जाते हैं। सबसे ऊपर कैलकुलेशन, हिसाब हो जाता है। महावीर जैसे नग्न खड़े व्यक्ति के पास भी आत्मा है; सब कुछ चालाकी है। लेकिन हिंदू हिसाब से कलियुग है। आखिरी वक्त है; है। बाहर से कुछ भी नहीं है। कैसे नापते हैं! सबसे बुरा वक्त है। इस युग से ज्यादा दुखी कोई युग नहीं था। इस युग से ज्यादा इसे विकास कहें या इसे पतन कहें? बूढ़े को बच्चे का विकास | विक्षिप्तता किसी युग में नहीं थी। फिर भी हम कहे चले जाते हैं, कहें? या बूढ़े को बचपन का खो जाना कहें, पतन कहें? अगर | संपन्न हैं। फिर भी हम कहे चले जाते हैं, वैभवशाली हैं। आप से कोई पूछे, तो दोनों में क्या होना चाहेंगे? उससे निर्णय हो सच है, बात तो सच है। इतनी संपन्नता भी कभी नहीं थी। इतनी जाएगा। क्योंकि जो आप होना चाहेंगे, वही पाने योग्य है, वही विपन्नता भी कभी नहीं थी। पर दो अलग कोण हैं नापने के। एक श्रेष्ठ है। जो आप न होना चाहेंगे, वहीं कुछ भ्रांति, भूल, कहीं कुछ | कोण है, जो धन से नापता है, पदार्थ से नापता है। और एक कोण अंधकार है। है, जो चेतना से नापता है। कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता और कोई भी सिर्फ गणित में नहीं | चेतना की दृष्टि से मनुष्य का पतन हुआ है परमात्मा से। इसलिए जीना चाहता। क्योंकि जीवन के आनंद की कोई भी झलक मस्तिष्क | हम चेतना को फिर वापस उसी स्थिति में ले जाएं, जहां से परमात्मा में कभी नहीं उतरती। जीवन का आनंद, जीवन का नृत्य, जीवन की से हमारा संबंध छूटता है। फिर हमारी धारा वहीं मिरे, तो वही परम सुगंध तो हृदय ही अनुभव करता है। मस्तिष्क सब कुछ दे सकता निष्पत्ति होगी। है, सिवाय आनंद को छोड़कर। और हृदय के साथ शायद सब कुछ | लेकिन पदार्थ की दृष्टि से, साधन-सामग्री की दृष्टि से हम रोज खो जाएगा, सिर्फ आनंद बचेगा। लेकिन सब कुछ खोकर भी विकास कर रहे हैं। हम विकास कर रहे हैं, यह कहना भी शायद आनंद बचाने जैसा है। ठीक नहीं है; क्योंकि मशीनें खुद ही विकास कर रही हैं। अब तो जिसको हम वैज्ञानिक विकास कहते हैं, वह विज्ञान का विकास | | आदमी को उसमें हाथ बंटाने की भी जरूरत नहीं है। कंप्यूटर हैं; होगा। ज्यादा बड़ी मशीनें हमारे पास हैं, ज्यादा बड़े मकान हमारे | वे विकास करते चले जाएंगे। पास हैं। लेकिन वे आनंद का विकास तो नहीं हैं। क्योंकि उन बड़े __ और वैज्ञानिक कहते हैं, इस सदी के पूरे होते-होते हम ऐसी मकानों में भी दुखी लोग रह रहे हैं। झोपड़ों में भी इतने दुखी लोग | मशीनें पैदा कर लेंगे, जो मशीनों को जन्म दे सकें, अपने से बेहतर नहीं थे, जितने बड़े मकानों में दुखी लोग रह रहे हैं। और जिनके मशीनों को जन्म दे सकें। वह बिल्ट-इन हो जाएगा, कि मशीन जब पास कुछ भी न था, कोई औजार न थे, कोई शस्त्र-साधन न थे, टने के करीब आए. मिटने के करीब आए, तो अपने से बेहतर वे भी इससे ज्यादा आनंदित थे। हमारे पास एटामिक मिसाइल्स हैं, | मशीन को जन्म दे जाए। जैसे आप एक बच्चे को जन्म दे जाते हैं। चांद पर पहुंचने के उपाय हैं, लेकिन सुख का कोई कण भी नहीं है। | तब तो फिर आपकी बिलकुल भी जरूरत नहीं होगी। तब मशीनें __ कैसे हम नापते हैं, यह सवाल है। अगर आप सिर्फ रुपयों के | विकसित होती रहेंगी। आप अपने घर भी बैठे रहे, जैसे थे वैसे रहे, ढेर से नापते हैं कि आदमी का विकास हुआ कि पतन, तो विकास | तो भी मशीनें विकसित होती रहेंगी। हुआ है। अगर आप आदमी में देखते हैं और नापते हैं, तो पतन | | मशीन ही विकसित हो रही है। आदमी खो रहा है। इस हिसाब हुआ है। तो आपकी दृष्टि पर निर्भर करेगा। क्या दृष्टिकोण है? से पतन है। मापदंड क्या है? क्राइटेरियन क्या है ? नापते कैसे हैं? ___ इसमें पूरा पूरब सहमत है। बुद्ध, लाओत्से, कृष्ण, सब सहमत हिंदू चिंतन, उपनिषद के ऋषि या गीता के कृष्ण, मनुष्यता से हैं; जीसस, मोहम्मद, सब सहमत हैं; जरथुस्त्र, कनफ्यूसियस, नापते हैं। क्या आपके पास है, यह मूल्यवान नहीं है; आप क्या हैं, | | सब सहमत हैं कि बचपन श्रेष्ठतम है, शुद्धता की दृष्टि से। और यही मूल्यवान है। कितना आपके पास है, यह व्यर्थ हिसाब है। इसलिए जब कोई व्यक्ति, लाओत्से कहता है, पुनः बचपन को कितनी आत्मा है! कितना सत्व है! कितना चैतन्य है! आप क्या | उपलब्ध हो जाता है, तब वह संत हो गया। वर्तुल पूरा हुआ। उदगम हैं। बीइंग से नापते हैं, हैविंग से नहीं। आपके बैंक बैलेंस से आपके | से फिर मिलना हो गया। कृष्ण भी यही गीता में कह रहे हैं। होने का कोई नाता नहीं है। आप नग्न खड़े हों, तो भी कोई फर्क अब हम सूत्र को लें। नहीं पड़ता, तो भी आपके भीतर सत्व हो सकता है। इस संसार-वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया 188 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा न अच्छी | ठंडा हो जाएगा, क्योंकि उसकी गरमी रोज चुकती जाती है। लेकिन प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप कुछ दूसरे सूरज, जो ठंडे पड़े हैं, गरम होते जा रहे हैं। जैसे ही अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप हमारा सूरज ठंडा होगा, कोई सूरज दूसरा गरम हो जाएगा। इस शस्त्र द्वारा काटकर...। . सूरज के ठंडे होते ही इस पृथ्वी से जीवन तिरोहित हो जाएगा। यह जो उलटे वृक्ष की कल्पना कृष्ण ने दी, ऐसा हम खोजने | लेकिन किसी और पृथ्वी पर जीवन के अंकुरण शुरू हो जाएंगे। जाएंगे, तो हमें मिलेगा नहीं। उसके कई कारण हैं। वैज्ञानिक हिसाब से कोई पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन अभी पहला तो कारण यह है कि हम उस वृक्ष की एक छोटी शाखा है। होना चाहिए। वृक्ष की एक शाखा सूखती है, तो दूसरी शाखा हैं। हम खोजने जा नहीं सकते। हम उस वृक्ष से दूर खड़े होकर देख | | निकल जाती है। वृक्ष मुरझाए, कि नए अंकुर आ जाते हैं। पुराने नहीं सकते। हम उस वृक्ष के अंग हैं। इसलिए हम कैसे देख पाएंगे | | पत्ते गिर भी नहीं पाते कि नए पत्ते प्रकट होने लगते हैं। कि वृक्ष उलटा खड़ा है; जड़ ऊपर है और पत्ते नीचे हैं। हम पत्ते ही __ श्रृंखला अनंत है। इसलिए न पीछे खड़े होने का उपाय है, न हैं या हम शाखाएं हैं। हम वृक्ष के अंग हैं, उससे हम दूर नहीं हो आगे खड़े होने का उपाय है। न किनारे खड़े होने का उपाय है, सकते हैं। क्योंकि हम उसके हिस्से हैं; हम शृंखला हैं। इसलिए संसार के वृक्ष की यह उलटी जो अवस्था है, ध्यान की और इसलिए भी अच्छी प्रकार से नहीं समझा जा सकता, परम गुह्य स्थिति में ही दिखाई पड़ती है। उसके पहले नहीं। क्यों? क्योंकि इसकी कोई ठीक स्थिति नहीं है। यह शब्द समझ लेने जैसा क्योंकि ध्यान की उस गुह्य स्थिति में आप वृक्ष के हिस्से नहीं रह है। स्थिति केवल परमात्मा की है, संसार की केवल गति है, स्थिति जाते, आप संसार के हिस्से नहीं रह जाते। इसलिए सिर्फ समाधि नहीं है। में ही इस उलटे वृक्ष का पूरा रूप दिखाई पड़ता है। यह समाधिस्थ | यहां सब चीजें हो रही हैं; कोई भी चीज है की अवस्था में नहीं चित्त की अनुभूति है। | है। इसलिए बुद्ध ने तो कहा कि है शब्द का प्रयोग ही मत करना। आप इसे समझ लें बुद्धि से, उतना ही काफी है। आप इसे देख जैसे हम कहते हैं, वृक्ष है। तो बुद्ध कहते हैं, ऐसा कहना ही मत, न पाएंगे। वृक्ष विराट है। वैज्ञानिक कहते हैं, इसका हम कोई | क्योंकि है की कोई स्थिति नहीं है। वृक्ष हो रहा है। जब तुम कहते ओर-छोर नहीं उपलब्ध कर पाते हैं। जितनी खोज बढती है. उतना हो. वक्ष है. तब भी वह हो रहा है। हम कहते हैं. यह जवान है. तब ही यह वृक्ष विराट मालूम होता है। रोज नए तारे खोजे जाते हैं; नए | भी हम गलत कहते हैं। क्योंकि जब हम कहते हैं, जवान है, तब सूरज खोजे जाते हैं। वह जवान हो रहा है या बूढ़ा हो रहा है। लेकिन है की कोई स्थिति अब तक कोई चार अरब सूरज खोजे जा चुके हैं। और कभी ऐसा | नहीं है। हमेशा होने की स्थिति है, भवति। सभी कुछ बिकमिंग है। लगता था कि एक सीमा आ जाएगी, जब खोज समाप्त हो जाएगी | कहीं कुछ ठहरा नहीं है। हम पहुंच जाएंगे अंतिम सीमा पर। पर अब कोई सीमा नहीं मालूम । स्थिति का अर्थ है, ठहराव। परमात्मा के सिवाय और किसी की होती है। जितना आगे बढ़ते हैं, नई खोज होती चली जाती है। | कोई स्थिति नहीं है। बाकी सब बहाव है। जैसे नदी बह रही है, ऐसे वृक्ष बहुत बड़ा मालूम होता है, विराट मालूम होता है। और हम | | आप भी बह रहे हैं। ऐसी हर चीज बह रही है। उसके अंग हैं, इसलिए दूर खड़े होकर हम देख नहीं पाते हैं। देखने यह वृक्ष एक बहाव है, इसलिए भी देखना बहुत मुश्किल है। की कोई संभावना भी नहीं है। क्योंकि हर चीज बदल रही है। आप देख भी नहीं पाते कि बदल फिर न तो इसका कोई आदि है और न अंत है। अगर इसका कोई | जाती है। आप इसके पहले कि समझ पाएं, स्थिति बदल जाती है। प्रारंभ होता, तो भी देखना आसान था। अगर कभी यह अंत होता | इसके पहले कि आप पकड़ पाएं, जिसको आप पकड़ रहे थे, वह होता, तो भी देखना आसान था। यह एक अनंत श्रृंखला है। एक वहां मौजूद न रहा। कुछ और हो गया। यहां सब धुआं-धुआं है, तरफ एक ग्रह उजड़ता है, तो दूसरा ग्रह निर्मित हो जाता है। एक | बादलों की तरह है। जैसे बादलों में हम आकृति नहीं पकड़ पाते हैं। तरफ एक सूरज बुझता है, तो दूसरे सूरज में प्राण आ जाते हैं। । | आप देख रहे हैं कि एक हाथी बन रहा है बादलों में; और आप देख वैज्ञानिक सोचते हैं कि शायदे पांच हजार वर्ष बाद हमारा सूरज | भी नहीं पाए कि हाथी बिखर गया, कुछ और बन गया। 189 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* पूरा जगत धुआं-धुआं है। स्थिति केवल परमात्मा की है। और | बड़ी हूं। और जानने का उपाय भी नहीं। जब तक स्थिति उपलब्ध न हो, तब तक कोई भी ठहराव समझ का, | __आप भी दर्पण से ही जानते हैं कि आप कौन हैं। और तो कोई बुद्धि का नहीं हो सकता। तब तक ज्ञान की कोई अवस्था नहीं है। उपाय नहीं। दर्पण यानी छाया! इसलिए हिंदुओं की सारी चेष्टा इस बात में रही है कि कैसे आप लोमड़ी बड़ी चिंतित भी हुई, क्योंकि कहां पाएगी हाथी? और गति से मुक्त हों और स्थिति को प्राप्त हों। कैसे दौड़ना बंद हो और भूख बढ़ने लगी और खोजती रही, खोजती रही। दोपहर हो गई, ठहरना आए। कैसे प्रवाह रुके, थम जाए। नदी बहते-बहते कैसे | सूरज ऊपर आ गया; अभी तक भोजन भी नहीं मिला। और हाथी एकदम जम जाए, बर्फ हो जाए। सब चीजें ठहर जाएं। को पाने का खयाल, तो भूख भी हाथी जैसी, हाथी को पचाने जैसी ___ इस भीतर के चित्त की दौड़ के रुक जाने का नाम ही ध्यान है। भीतर हो गई। क्योंकि सारा मन का खेल है। भीतर कुछ भी न दौड़े, कोई गति न रहे, कोई प्रवाह न रहे, सब लेकिन हाथी मिला नहीं; भोजन मिला नहीं। नीचे झुककर उसने चीजें फ्रोजन हो जाएं, जड़ हो जाएं, ठहर जाएं, सब कंपन समाप्त | फिर छाया देखी। सूरज अब ऊपर आ गया, तो छाया करीब-करीब हो जाएं; उसी क्षण आप परमात्मा हो गए। जब तक आप बहते हैं, खो गई। तो लोमड़ी ने कहा, अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो तब तक संसार है। जब आप ठहरते हैं, तब आप परमात्मा हैं। भी काम चलेगा। __ परमात्मा ही समझा जा सकता है। यह बड़ा विरोधाभासी ___ संसार छाया की तरह है। और बचपन में हर आदमी सोचता है लगेगा। क्योंकि विज्ञान कहता है, संसार समझा जा सकता है; | कि हाथी नहीं मिला, तो काम नहीं चलेगा। और बुढ़ापे में हर परमात्मा को समझने का कोई उपाय नहीं। परमात्मा का पता ही नहीं | आदमी जानता है कि चींटी भी मिल जाए, तो भी काम चलेगा। चलता है कि वह कहां है! समझना दूर, यह भी तय करना मुश्किल छाया छोटी होती जाती है। है कि है भी या नहीं। और गीता कहती है कि सिर्फ परमात्मा ही | सभी बच्चे सिकंदर होना चाहते हैं। सभी बूढ़े कहने लगते हैं, समझा जा सकता है, क्योंकि वह थिर है। वह जाना जा सकता है; | अंगूर खट्टे हैं। सभी बच्चे संसार को जीतने निकलते हैं। सभी बूढ़े उस पर भरोसा किया जा सकता है; वह रिलाएबल है। ऐसा नहीं | | वैराग्य की बातें करने लगते हैं। इसलिए नहीं कि वैराग्य आ गया। ख उठाकर देखेंगे और जब दुबारा आंख खोलेंगे, इसलिए कि छाया सिकुड़ गई। और अब इतने से भी काम चल तो वह बदल गया। वह वही होगा—इस जन्म में, अगले जन्म में, जाएगा। और कुछ न भी मिला, तो भी काम चल जाएगा। कल्पों-कल्पों बाद, युगों-युगों बाद-आप जब भी लौटकर वैराग्य का मतलब है, छाया सिकुड़ गई। यह वैराग्य कोई आएंगे, वह वही होगा। | वास्तविक नहीं है। अगर यह वैराग्य वास्तविक हो, तो जवानी में वह कूटस्थ है, वह ठहरा हुआ है, वहां कुछ भी बदलता नहीं। | भी आ सकता था। इसके लिए बुढ़ापे तक रुकने की कोई जरूरत आप कितना ही परिभ्रमण करें, कितना ही समय व्यतीत करें, जब न थी। भी आप लौटेंगे, आप पाएंगे, घर वैसा का वैसा है, सब वही है। यह जो लोमड़ी का कहना है कि चींटी से भी काम चल जाएगा, वहां रत्तीभर कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। यह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। अगर यह बुद्धिमत्ता होती, तो सुबह भी यह अपरिवर्तित ही समझा जा सकता है। क्योंकि यह भरोसे | | छाया की भ्रांति में आने का कोई प्रयोजन न था। सिर्फ छाया सिकुड़ योग्य है। इस पर श्रद्धा की जा सकती है। संसार तो भरोसे योग्य नहीं है। वह तो छाया की भांति है। इस संसार को समझने का ठीक-ठीक उपाय नहीं है, क्योंकि खलील जिब्रान की एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है। एक लोमड़ी प्रतिपल बदल रहा है। इसकी कोई स्थिति नहीं है। इसलिए इस सुबह-सुबह उठी। भोजन की तलाश पर निकली। सूरज उगता था | | अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप उसके पीछे। बड़ी लंबी छाया लोमड़ी की बनी। लोमड़ी ने अपनी | | पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य शस्त्र द्वारा काटकर...। छाया देखी और सोचा, आज तो एक हाथी मिले, तभी पेट भर | | इसको जानने में उलझने की भी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि पाएगा! इतनी लंबी छाया कि एक हाथी के बिना भोजन का कोई | इसको जान-जानकर भी कोई कभी जान नहीं पाता। उपाय नहीं। और छाया से ही लोमड़ी जान सकती है कि मैं कितनी विज्ञान सोचता था, इसी सौ वर्ष पहले, कि जल्दी ऐसा दिन आ 190 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * जाएगा, जब हम सब जान लेंगे। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि वह | वृक्ष उससे निकल आता है। लेकिन जो बीज आप बोते हैं, उससे दिन कभी भी नहीं आएगा। क्योंकि जितना हम जानते हैं, उतना पता यह वृक्ष निकलता है ? क्योंकि वह बीज तो सड़ जाता है, गल जाता चलता है कि और भी जानने को शेष है। जितना हम जानते हैं, उतने है, मिट्टी में मिल जाता है। उस बीज से यह वृक्ष निकलता नहीं। उस ही अनजान तथ्य सामने आ जाते हैं जिनको जानने की चुनौती मिल बीज को कभी तोड़कर आपने देखा है? कहीं आप इस वृक्ष को खोज जाती है। एक समस्या हल नहीं होती, पचास खड़ी हो जाती हैं। पाएंगे? उस बीज में कहीं यह वृक्ष मिलता भी नहीं है खोजने से। उसको हल करने के कारण ही पचास समस्याएं उठ आती हैं, वैज्ञानिक, वनस्पतिशास्त्री भी कहते हैं कि बीज में कोई शून्य से पचास प्रश्न उठ आते हैं। ही वृक्ष निकलता है। बीज तो केवल उस शून्य को अपने भीतर अब विज्ञान का भरोसा डगमगा गया है। अब विज्ञान भी मानता | छिपाए हुए है। बीज तो सिर्फ खोल है; भीतर कोई शून्य छिपा है। है कि कोई अंतिम ज्ञान उपलब्ध हो सकेगा, इसकी आशा नहीं है। बीज की खोल टूटकर मिट्टी में मिल जाती है; उस शून्य से ही वृक्ष सब कामचलाऊ ज्ञान है। रिलेटिविटी का यही मतलब है कि सब | निकलता है। ज्ञान कामचलाऊ है। हम जितना जानते हैं, उतने तक ठीक है। तो बीज के भीतर जो छिपा शून्य है, वही उदगम है। और जब बाकी जितना हम और ज्यादा जानेंगे, सब गड़बड़ हो जाएगा। तक हम उस शून्य में प्रवेश न कर जाएं, तब तक मूल का, सत्य परमात्मा ही जाना जा सकता है। उसकी स्थिति है। इसलिए धर्म | का कोई अनुभव संभव नहीं है। के अतिरिक्त ज्ञान का कोई भी द्वार नहीं है। इसलिए बुद्ध ने तो अपने सारे धर्म को शून्यता की छाया दे दी, विज्ञान कामचलाऊ उपयोगिता का द्वार है, ज्ञान का नहीं। उससे शून्यता का रंग दे दिया। और कहा कि शून्य में प्रवेश कर जाओ, जो भी हम जानते हैं, वह करीब-करीब सत्य है, एप्राक्सिमेटली। | तो ब्रह्म की उपलब्धि है। और कोई ब्रह्म नहीं है। लेकिन करीब-करीब सत्य का कोई मतलब नहीं होता।। | जो भी दिखाई पड़ता है, वह खोल है। उस खोल के भीतर न करीब-करीब सत्य का असत्य ही मतलब होता है। या तो कोई चीज | दिखाई पड़ने वाला छिपा है। उस अदृश्य को जानने की दो बातें सत्य होती है या नहीं होती। करीब-करीब सत्य का कोई अर्थ नहीं कृष्ण कह रहे हैं। पहले तो वैराग्य से अहंकार, ममता और वासना होता। पर उपयोगिता विज्ञान की है। को काट डालें। ज्ञान धर्म के माध्यम से उपलब्ध होगा। और ज्ञान तभी उपलब्ध वैराग्य का क्या मतलब है? वैराग्य का मतलब है, यह बोध कि होगा, जब हम स्थिति को उपलब्ध हो जाएं। अगर परमात्मा की जहां-जहां मुझे सुख का खयाल होता है, वहां सुख नहीं है। यह स्थिति है और हमारी गति है, तो मिलन नहीं हो सकता। समान शास्त्र से पढ़कर नहीं आ जाएगा। संसार को ही उसके पूरे तत्व में समान का ही मिलन संभव है। जब हम भी स्थित होंगे. तो उससे समझने से आएगा। मिलन हो जाएगा। उस जैसे जब होंगे, तब हमारा उससे मिलन हो आपने बहुत प्रयोग किए हैं। जहां-जहां सुख की छाया दिखी है, जाएगा। | वहां-वहां दौड़े हैं। फिर वहां सुख पाया या नहीं? अगर नहीं पाया, ठहरते ही उस ठहरे हुए का अनुभव शुरू हो जाता है। और | कभी भी नहीं पाया...। जहां भी प्रतिबिंब दिखा, वहीं गए और ठहरने का एक ही उपाय है। इस संसार के वृक्ष को समझने से कुछ | मृग-मरीचिका मिली। जहां भी ध्वनि मिली, वहीं गए, लेकिन पाया न होगा, वरन अहंता, ममता और वासना, इन तीनों को वैराग्यरूपी | | कि सिर्फ खाली घाटियों में गूंजती आवाज थी। इंद्रधनुषों की खोज शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस परम पद परमेश्वर को | की। बड़े रंगीन थे दूर से; पास गए, खो गए। हाथ में कुछ भी न अच्छी प्रकार खोजना चाहिए। आया। इन सारे जीवन के अनुभवों का जो निचोड़ है, वह वैराग्य है। वृक्ष को खोजने में न पड़ें। वृक्ष को तो काट ही दें। और उसको | | तो किसी शास्त्र को पढ़ने से वैराग्य नहीं आ जाएगा; कि आप खोजने में चलें, जिसका पतन वृक्ष है। जिससे गिरकर वृक्ष पैदा हो | | भर्तृहरि का वैराग्य-शतक पढ़ लें और सोचें कि वैराग्य आ जाएगा। रहा है, उस मूल उदगम को खोजने चलें। उस बीज को पकड़ें, उस भर्तृहरि को वैराग्य-शतक का अनुभव आया गहन भोग से। मूल स्रोत को पकड़ें। भर्तृहरि ने दो किताबें लिखी हैं। एक का नाम है, श्रृंगार-शतक। कभी आपने बीज को तोड़कर देखा? बीज आप बोते हैं; एक वह उसका पहला अनुभव है, संसार का अनुभव। तब उसने भोगा। 191 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * साहा! उसने सब भूलें कीं, जो कोई भी समझदार आदमी करेगा। जो कोई | मेरे लिए नए घर न बनाने पड़ेंगे। क्योंकि मैंने आधार ही गिरा दिया, भी हिम्मती आदमी करेगा, उसने वे सब भूलें कीं। उसने अपने को | अब कोई बुनियाद ही न रही। भूलों से बचाया नहीं। क्योंकि भूलों से जो बचता है, वह अनुभव वैराग्य के शस्त्र का अर्थ है, भीतर एक सजगता। वासना से भी बच जाता है। वह संसार के सब गली-कूचों में भटका। उसने | जहां-जहां धोखा देने लगे, वहां-वहां सजगता रुकावट बन जाए। संसार की सब पगडंडियां छान डालीं। उसने बुरे और भले का भेद वहां-वहां हम पुनः स्मरण कर सकें कि इस तरह की वासना में हम भी नहीं किया। जहां उसकी वासना ले गई, गया। लेकिन होश बार-बार उतर चुके हैं। सजग रखा और इस बात को जांचता रहा कि जहां-जहां वासना ले .. मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरने के करीब थी। तो उसने मुल्ला जाती है, वहां कछ मिलता है या नहीं। से कहा कि मुल्ला, शादी तो तुम करोगे ही मेरे मरने के बाद। शादी हर बार असफलता मिली। सुख कभी भी न पाया। सदा ही भ्रांति तो तुम करोगे ही, यह निश्चित है। नसरुद्दीन ने कहा, जल्दी नहीं सिद्ध हुई। वासना ने जहां-जहां मार्ग दिखाया, वहीं-वहीं व्यर्थता करूंगा। पहले कुछ दिन आराम करूंगा। हाथ आई, वहीं-वहीं विषाद मिला। यह विवाह काफी थका दिया है। इस विवाह ने काफी दुख दे हजारों वासनाओं के मार्गों पर चलकर जब एक ही अनुभव होता | दिया है। लेकिन इससे कोई वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ है। थोड़े दिन है निरपवाद रूप से, तो वैराग्य का जन्म होता है। वैराग्य वासना आराम करके वासना फिर सजग हो जाएगी। वासना फिर ताजी हो की असफलता का सतत अनुभव, उसका सार-निचोड़ है। और | जाएगी। विश्राम के बाद वासना की मांग फिर खड़ी हो जाएगी। तब यह बात कठिन नहीं रह जाती; अहंकार को, ममता को, वासना | आप भी बहुत बार वैराग्य की हलकी झलक से भरते हैं। हर को काट देना जरा भी कठिन नहीं रह जाता। वासना के बाद वैराग्य की झलक हर आदमी को आती है। हर __ वैराग्य की प्रतीति का अर्थ है, जहां-जहां वासना कहती है सुख | संभोग के बाद क्षणभर को प्रत्येक स्त्री-पुरुष को यह प्रतीति होती है, वहां-वहां सुख नहीं है। जहां-जहां वासना कहती है सुख है, | है कि बस, बहुत हुआ; व्यर्थ है। लेकिन थोड़ी देर आराम के बाद वहां-वहां दुख है; और जहां-जहां वासना कहती है दुख है,। | फिर वासना सजग हो जाती है। तो वह जो क्षणभर का अनुभव था, वहां-वहां सुख है। वासना धोखा देती है, प्रवंचक है, दि ग्रेट वह शस्त्र नहीं बन पाता। वह जो अनुभव था, संगृहीत नहीं होता। डिसीवर। इस प्रतीति का नाम वैराग्य है। और तब सुख में खोजना वह बूंद-बूंद की तरह खो जाता है, कभी गागर भर नहीं पाती। बंद, और दुख में खोज शुरू होती है। साधक बूंद-बूंद अनुभव को इकट्ठा करता है और गागर को भरता दुख की खोज को हम तप कहते हैं। तपश्चर्या का अर्थ है, अब | है। वह बूंद-बूंद को खो जाने नहीं देता। मैं सुख में नहीं खोजता; सुख में खोजा और नहीं पाया; अब मैं दुख __ आपके अनुभव में और बुद्ध के अनुभव में बहुत फर्क नहीं है। में खोजूंगा। क्योंकि अगर सुख में खोजने से दुख मिला, तो बस, इतना ही फर्क है कि आपके पास कोई गागर नहीं है, जिसमें संभावना है कि शायद दुख में खोजने से सुख मिल सके। विपरीत | आप अपनी बूंदें भर लेते। आपको उतने ही अनुभव हुए हैं, ज्यादा यात्रा करूंगा। हो गए होंगे, क्योंकि बुद्ध को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। बुद्ध वैराग्य अनुभव है वासना की विफलता का। और जैसे ही यह से ज्यादा अनुभव आपको हो चुके हैं। लेकिन बूंद-बूंद होते हैं, खो अनुभव गहरा हो जाता है, यह अनुभव शस्त्र बन जाता है। तब जाते हैं। इकट्ठे नहीं हो पाते हैं; उनकी चोट नहीं बन पाती। शस्त्र साधक अपने भीतर वैराग्य के शस्त्र को लिए रहता है। जैसे ही निर्मित नहीं हो पाता। वासना उससे कहती है वहां सुख, वहीं वह शस्त्र से गिराकर काट __ अपने अनुभवों को इकट्ठा करें। अनुभवों को खो जाने मत दें। डालता है। वह कहता है, मैं जानता हूं; यह बहुत बार हो चुका। क्योंकि उनके अतिरिक्त ज्ञान का और कोई मार्ग नहीं है। बूंद-बूंद बुद्ध को जब पहली समाधि उपलब्ध हुई, तो उन्होंने जो पहले इकट्ठा करके आपके पास इतनी अनुभव की क्षमता हो जाएगी कि शब्द अपने भीतर कहे-किसी और से नहीं, खुद से कहे-वे ये | वासना कमजोर पड़ जाएगी। काटना भी नहीं पड़ता, अनुभव ही थे कि बस, हे काम के देवता, अब तुझे मेरे लिए कष्ट न करना काफी होता है। अनुभव ही काफी होता है, वासना से लड़ना भी पड़ेगा। मैं भी दौड़ा और मेरे कारण तू भी काफी दौड़ा। अब तुझे नहीं पड़ता। वासना धीरे-धीरे निर्वीर्य हो जाती है। 192 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * इस वृक्ष को वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस | और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति परम पद परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिए कि जिसमें गए | विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष के मैं शरण हूं, इस हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते। और जिस परमेश्वर से यह प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह जिनका पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि | तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिन्होंने और परमात्मा के पुरुष के मैं शरण हूं, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके...। | स्वरूप में है निरंतर स्थिति जिनकी तथा अच्छी प्रकार से नष्ट हो इस प्रक्रिया को थोड़ा सजगता से समझ लें। | गई है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुख नामक द्वंद्वों से विमुक्त हम सब बार-बार जन्मते हैं, बार-बार मरते हैं। लेकिन हर मरण हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं। मूर्छा में है, और हर जन्म भी मूर्छा में है। इसलिए आपको कुछ ___ यह सूत्र, कि मैं उस आदि पुरुष, उस आदि उदगम के शरण हूं, याद नहीं कि पहले भी आप थे। यह जन्म आपको पहला मालूम बहुमूल्य है। शरण का भाव बहुमूल्य है। क्योंकि वासना भी काटी पड़ता है, और यह मौत जो आती है, आखिरी मालूम पड़ती है। | जा सकती है वैराग्य से, फिर भी अहंकार शेष रह जाता है। वासना क्योंकि दोनों तरफ अंधकार है। स्मृति खो गई है। होशपूर्वक मर तोड़ी जा सकती है वैराग्य से, लेकिन तब वैराग्य का अहंकार सघन सकें, तो होशपूर्वक जन्म होगा। हो जाता है कि मैं विरागी हूं, कि मैं त्यागी हूं, कि मैंने इतना छोड़ा, लेकिन मरना अभी दूर है, भविष्य में है। पीछे लौटा जा सकता | कि मैंने वासना नष्ट कर दी। एक गहन अग्नि जलने लगती है। है। और जो जन्म हो चुका है आपका चालीस, पचास, साठ साल अहंकार नए रूप ले लेता है, सूक्ष्म, पर और भी प्रगाढ़। पहले, उस जन्म को होशपूर्वक फिर से देखा जा सकता है। उसकी __इसलिए कृष्ण एक शर्त जोड़ते हैं, वैराग्य के शस्त्र से काटकर पूरी फिल्म आपके भीतर संगृहीत है। जैसे मैं बोल रहा हूं और टेप | | मैं उस आदि पुरुष के शरण हूं, ऐसा दृढ़ भाव करें। रिकार्ड कर रहा है। मैं बोल चुनूंगा, फिर आप टेप को लौटा लें, ___ यह वैराग्य कहीं मेरे अहंकार को भरने का कारण न बने। क्योंकि तो फिर से सुन सकेंगे। जब तक मैं हूं, तब तक मूल उदगम में खोना आसान नहीं; तब तक आपका मस्तिष्क बिलकुल टेप का यंत्र है। वह सब रिकार्ड कर | बूंद अपने को पकड़े है, सागर में खोने को राजी नहीं है। रहा है। वहां कुछ भी नहीं खोया है। जो भी आपने कभी जाना है,। | मूल उदगम में मैं मैं नहीं रह जाऊंगा, मेरी अस्मिता खो जाएगी। वह वहां अंकित है। आप पीछे इस रिकार्ड का उपयोग करना सीख | | मेरा सत्व बचेगा, मेरी चेतना बचेगी, लेकिन मैं का रूप खो जाएं, इसे लौटाकर बजाना सीख जाएं, तो आप उन अनुभवों से | जाएगा, मैं का नाम खो जाएगा। सभी नाम-रूप विलीन हो जाएंगे। फिर गुजर सकते हैं, जिनसे आप बेहोशी में गुजर गए हैं। आप | यदि साधक वैराग्य को साधते-साधते साथ में शरणागति के पिछले जन्म में वापस जा सकते हैं, और पिछले जन्म के पीछे मृत्यु | भाव को न साधे, तो भटक जाता है। तब वैसा साधक हो सकता में जा सकते हैं। और तब यात्रा का द्वार खुल जाता है। | है शुद्ध हो जाए, लेकिन उसकी शुद्धि में भी जहर होगा। पवित्र हो इस भांति जो व्यक्ति पीछे लौटता है होशपूर्वक, उसकी आगे के | | जाए, लेकिन उसकी पवित्रता निर्दोष न होगी। उसकी पवित्रता में लिए भी होश की क्षमता निर्मित हो जाती है। वह मरेगा. लेकिन | भी दोष होगा। शुभ हो जाए, सच्चा हो जाए, नैतिक हो जाए; होशपूर्वक मरेगा। वह जन्मेगा, लेकिन होशपूर्वक जन्मेगा। वह | लेकिन उसकी नीति, उसकी सचाई, उसकी शुभ्रता, भीतर एक मूल जीएगा, लेकिन होशपूर्वक जीएगा। और जो व्यक्ति होशपूर्वक | गलत भित्ति पर खड़े होंगे। वे अस्मिता की भित्ति पर खड़े होंगे। मैं जीने लगा, संसार उसे नहीं बांध पाता। बांधती है हमारी मूर्छा। | शुद्ध हूं, मैं शुभ हूं, मैं नैतिक हूं, यह भाव बना ही रहेगा। और यह वैराग्य के द्वारा ममता, अहंता और वासना को काटकर जो | | आखिरी दीवार हो जाएगी। मैं हूं, यह बना ही रहेगा। और जब तक व्यक्ति परमेश्वर को खोजता है, मूल उदगम को खोजता है, वह | | मैं हूं, तब तक परमात्मा नहीं है। व्यक्ति फिर संसार में वापस नहीं आता। __ लोग मुझसे पूछते हैं कि परमात्मा को हम खोजते हैं, मिलता नहीं फिर संसार में वापस आने का कोई कारण नहीं रह जाता। संसार है। मैं उनसे कहता हूं, तुम जब तक खोजोगे, तब तक मिलने का में हम वापस होते हैं बार-बार मूर्छा के कारण, सोए हुए होने के | | कोई उपाय भी नहीं है! क्योंकि तुम ही बाधा हो। यह खोजने वाला कारण। ही उपद्रव है। और जब तक यह खोजने वाला न खो जाए, तब तक 193] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * मिलने की कोई आशा नहीं है। और वहां से सहायता करेंगे, तो परमात्मा बन गया। बुद्ध ने परमात्मा को अस्वीकार किया है। और कहा कि कोई | | तो संघ शरणं गच्छामि। इसलिए दूसरा सूत्र जोड़ना पड़ा कि यह परमात्मा नहीं है। जो भिक्षुओं का संघ है, साधकों का, सिद्धों का, इसकी शरण लेकिन तब एक मसीबत शरू हुई। दार्शनिक रूप से कोई जाओ। यह रहेगा। अड़चन नहीं है परमात्मा को अस्वीकार करने में, लेकिन तब | लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि सदा हो। हिंदुस्तान से खो गया, साधक में शरणागति का भाव कैसे पैदा करोगे? परमात्मा हो या न बुद्धों का कोई संघ न रहा। तो किसकी शरण जाओ? तो बुद्ध को हो, यह मूल्यवान भी नहीं है। है, इसको सिद्ध करने की कोई | तीसरा सूत्र खोजना पड़ा, धम्मं शरणं गच्छामि-धर्म की शरण जरूरत भी नहीं है। | जाओ। धर्म सदा रहेगा। द्ध ने कह दिया कि नहीं कोई परमात्मा है। लेकिन तब एक । लेकिन क्या फर्क पड़ता है। शरण जाना ही पड़ेगा। क्योंकि शरण अड़चन शुरू हुई। और वह अड़चन यह थी कि शरणागति कैसे जाए बिना साधक का अहंकार नहीं खोता। इसलिए पतंजलि ने अनूठी हो? व्यक्ति अपने अहंकार को कैसे खोएगा? तो उसके लिए नए बात कही है, और वह यह कि परमात्मा स्वयं को खोने की एक विधि सूत्र खोजने पड़े। वे नए सूत्र फिर वही के वही हो गए; उससे कोई है। परमात्मा है या नहीं, यह सवाल ही नहीं है। यह परमात्मा तो सिर्फ फर्क न पड़ा। एक तरकीब है खुद को खोने की। इस दार्शनिक विवेचन का कोई भी तो बुद्ध-भिक्षु कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं | मूल्य नहीं है हिंदुओं के लिए कि ईश्वर है या नहीं। गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। पर शरणं गच्छामि, उससे बचने - ईसाइयों ने बड़ी मेहनत की ईश्वर को सिद्ध करने की कि वह है। का कोई उपाय नहीं है। मगर उनकी मेहनत से कुछ सिद्ध नहीं होता। क्योंकि जिन दलीलों बुद्ध कहते हैं, कोई भगवान नहीं है। लेकिन बुद्ध के साधक को से सिद्ध करो, वे दलीलें काटी जा सकती हैं। कट जाती हैं। उनमें बुद्ध को ही भगवान कहना पड़ता है। और बुद्ध भी इनकार नहीं कोई बड़ी दलील ऐसी नहीं है, जो न काटी जा सके। करते कि मुझे भगवान मत कहो। क्योंकि बुद्ध को एक अड़चन | - हिंदुओं ने कभी कोशिश नहीं की ईश्वर को सिद्ध करने की। साफ दिखाई पड़ती है। बुद्ध कह सकते हैं, मुझे भगवान मत कहो।। क्योंकि वे कहते हैं, यह तो सिर्फ एक ट्रिक है; यह तो सिर्फ एक क्योंकि बुद्ध को कोई रस आता होगा किसी के भगवान कहने से, | | युक्ति है; यह तो सिर्फ एक उपाय है। उपाय है कि तुम शरण जा यह धारणा ही मूढ़तापूर्ण है। सको। फिर बुद्ध इनकार क्यों नहीं कर देते? और जब कोई बुद्ध के | इसलिए जब पहली दफा ईसाई भारत आए या इस्लाम भारत सामने आकर कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि-हे बुद्ध, तुम्हारी | | आया, तो उनको बड़ी हैरानी हुई कि हिंदू भी कैसे मूढ़ हैं! कोई शरण जाता हूं, तब वे क्यों नहीं कहते कि मैं कोई भगवान नहीं हूं। | पत्थर को रखकर पूज रहा है, कोई झाड़ को पूज रहा है, कोई नदी मेरी शरण क्यों जाते हो! को पूज रहा है। पत्थर! कोई मूर्ति भी नहीं है। ऐसे ही अनगढ़ पत्थर कारण है। बुद्ध को कोई रस नहीं है कि कोई उन्हें भगवान कहे, | पर सिंदूर पोत दिया है, उसको पूज रहे हैं। हनुमान जी हैं! बहुत न कहे। लेकिन यह जो जा रहा है शरण, इसके शरण जाने का कोई | अजीब लगा उनको कि यह सब क्या हो रहा है! मार्ग खोजना पड़े। और परमात्मा को इनकार कर दिया है तो । लेकिन उन्हें पता नहीं कि हिंदुओं ने बड़े गहन तत्व को खोज परमात्मा को जिस झंझट से छुटकारा दिला दिया, उसी झंझट में | | लिया है। वे यह कहते हैं कि इससे फर्क ही नहीं पड़ता कि तुम खुद को बैठ जाना पड़ा। वह परमात्मा की जगह खाली कर दी। किसको पूज रहे हो। तुम पूज रहे हो, यह सवाल है। तुम कहां झुक और कोई चाहिए, जिसकी शरण जा सकें। रहे हो, यह बेमानी है। तुम झुक रहे हो, बस इतना काफी है। लेकिन बुद्ध तो कल मर जाएंगे। परमात्मा तो कभी नहीं मरता; तो तुम पीपल के वृक्ष के सामने झुक जाओ। यह तो बहाना है। बुद्ध कल मर जाएंगे। फिर क्या होगा? फिर किसकी शरण जाएंगे? यह पीपल का वृक्ष बहाना है। परमात्मा भी बहाना है। है या नहीं, क्योंकि लोग पूछेगे, बुद्ध अब कहां हैं? अगर कहते हो, आकाश | | इससे हमें कोई प्रयोजन भी नहीं है। हमें झुकने में सहयोगी है, तो में हैं, तो फिर परमात्मा बन गया। अगर कहते हो, कहीं भी बुद्ध हैं | झुक जाओ। क्योंकि झुकने से तुम उसे जान लोगे, जिसे बिना झुके |194 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दृढ़ वैराग्य और शरणागति * तुम कभी नहीं जान सकते हो। और वह तुम्हारे भीतर छिपा है। | नेहरू जिंदा थे और मोरारजी सत्ता में थे। मोरारजी ने नमस्कार किया इसलिए दुनिया में हिंदू धर्म को समझने में बड़ी अड़चन हुई है। आचार्य तुलसी को। आचार्य तुलसी तो नमस्कार किसी को कर हिंदू धर्म सबसे कम समझा गया धर्म है। क्योंकि उसके रूप ऐसे नहीं सकते, सिर्फ आशीर्वाद दे सकते हैं। अनगढ़ दिखाई पड़ते हैं। पर उनके अनगढ़ होने का कारण है। मोरारजी किसी साधु से कम साधु नहीं हैं। कोई जैन साधु उतना कारण है कि बड़ी गहरी बात हिंदुओं की पकड़ में आ गई। ईश्वर अहंकारी नहीं हो सकता। वे भी पक्के नैतिक पुरुष हैं; बिलकुल महत्वपूर्ण नहीं है; झुकता हुआ साधक, झुका हुआ साधक, शरण | पत्थर की तरह। चोट तत्काल लग गई। और जो पहला सवाल में गया हुआ साधक। उन्होंने पूछा वह यह कि मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार किया; आपने तो जहां शरण मिल जाए, जिसके माध्यम से मिल जाए। वह है हाथ जोड़कर जवाब क्यों नहीं दिया? और आप ऊपर क्यों बैठे हैं; या नहीं, यह भी गौण है। शरण मिल जाए, तो सब हो जाता है। और मुझे नीचे क्यों बिठाया है? कृष्ण कह रहे हैं, उस आदि पुरुष के मैं शरण हूं, इस प्रकार दृढ़ दोनों साधु पुरुष हैं! और बड़ी अड़चन खड़ी हो गई। और निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह जिसका...। दस-बीस विद्वान सारे मुल्क से बुलाए गए थे गोष्ठी के लिए; उसी स्वाभाविक है; जो भी शरण जाएगा, उसका मान और मोह नष्ट में मुझे भी निमंत्रित किया था उन्होंने। मैं समझा कि गोष्ठी तो हो जाएगा। और जो शरण नहीं गया, उसका मान और मोह कभी | समाप्त हो गई। क्योंकि अब वह कैसे चलेगी! यह पहला ही प्रश्न नष्ट नहीं होता। है। और मोरारजी ने कहा, जब तक इसका जवाब न मिले, आगे इसलिए मैं कई दफा चकित होता हूं। जैन या बौद्ध भिक्षु गहन कुछ बात करने का प्रयोजन नहीं है। मान से भर जाते हैं। जैनों को तो शरण जाने का और भी उपाय नहीं। तुलसीजी चुप रहे। अब क्या कहें! क्योंकि जैन साधु को आज्ञा बौद्धों ने तो बुद्ध को ही शरण जाने का उपाय बना लिया। महावीर नहीं है कि नमस्कार करे किसी को। कोई नमस्कार योग्य है भी ने कहा, अशरण रहो; किसी की शरण मत जाओ। नहीं। शरण किसी की जाना नहीं है। बात में कुछ गलती नहीं है। अगर अशरण रहकर भी मैंने कहा कि अगर यह नियम है, तो दूसरे को भी नमस्कार करने निरअहंकारी हो सको, तो इससे बड़ी और कोई बात नहीं है। फिर | से रोकना चाहिए। जैसे ही कोई दूसरा नमस्कार करे, कहना जरूरत भी नहीं है शरण जाने की। लेकिन कौन रह सकेगा बिना चाहिए, रुको! उसका नमस्कार ले लेना और फिर अपनी तरफ से शरण जाए निरअहंकारी? कभी करोड़ में एकाध कोई व्यक्ति, जो नमस्कार न देने का नियम जरा बेईमानी है। या उसको कहना चाहिए न गया हो और निरअहंकारी हो जाए। शरण जा-ज़ाकर भी कि सावधान! आप करो; आपकी मरजी। हम लौटाएंगे नहीं। अहंकार नहीं मिटता। झक-झककर भी नहीं झकता. तो बिना झके और मोरारजी को मैंने कहा कि आपको उनका ऊपर बैठना बहत कठिन है। महावीर का झक गया होगा: महावीर के पीछे अखर रहा है कि अपना नीचे बैठना अखर रहा है. यह साफ हो चलने वालों को मुश्किल खड़ी है। वह झुक नहीं पाता। | जाना चाहिए, फिर कुछ बात आगे चले। क्योंकि ऊपर तो एक इसलिए जैन साधु बड़ी साधना करता है। वैसी साधना संभवतः | छिपकली भी चल रही है; उससे आपको कोई एतराज नहीं है। आप दुनिया में कोई भी धर्म का साधु नहीं करता है। उसकी साधना प्रगाढ़ नीचे बिठाए गए हैं, इससे अड़चन है। अगर आपको भी ऊपर है। लेकिन उसका अहंकार भी उतना ही प्रगाढ़ है। इसलिए जैन बिठाया गया होता, तो कोई अड़चन न थी। साधु जिस अकड़ से चलता है, वैसी अकड़ की हम सूफी फकीर नैतिक पुरुष कितना ही नैतिक हो जाए, धार्मिक नहीं हो पाता। में कल्पना भी नहीं कर सकते। सूफी फकीर तो सोचकर चकित ही | मोरारजी की नैतिकता में संदेह नहीं है। आचार्य तुलसी की नैतिकता हो जाएगा कि क्या कर रहे हो तुम! इतनी अकड़! जैन साधु किसी | में कोई संदेह नहीं है। दोनों साधु पुरुष हैं। पर अहंकार सघन है। को नमस्कार नहीं कर सकता। क्योंकि कोई है ही नहीं जिसकी शरण | और जब साधु का अहंकार सघन हो, तो असाधु से भी खतरनाक जाना है। | होता है। उसको झुकाया नहीं जा सकता। असाधु तो थोड़ा डरता मैं एक बड़े जैन साधु आचार्य तुलसी के साथ मौजूद था; कई | | भी है कि मैं असाधु हूं; साधु डरता ही नहीं। उसको झुकाएंगे कैसे? वर्ष पहले। मोरारजी देसाई उनको मिलने आए। तब वे सत्ता में थे। । असाधु तो खुद अपने डर के कारण झुका रहता है। साधु की अकड़ [195] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * तो सख्त है। वह टूट जाएगा, झक नहीं सकता। लेकिन हिंदुओं ने मौलिक तत्व को पकड़ लिया है, कि कहीं से भी झुकना आ सके, और किसी भी तरह शरण जाने का भाव पैदा हो सके, तो वही परम साधना है। स्वभावतः. मान और मोह नष्ट हो जाएगा। और जैसे-जैसे मान-मोह-आसक्ति नष्ट होते हैं, वैसे-वैसे परमात्मा के स्वरूप में स्थिति बनने लगेगी। क्योंकि ये ही हिलाते हैं। इनकी वजह से कंपन होता है। इनकी वजह से बेचैनी और अशांति होती है। इनकी वजह से गति होती है। परमात्मा में जिसकी स्थिति बनने लगती है, सुख-दुख नामक द्वंद्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी पद को, परम पद को प्राप्त होते हैं। वह परम पद छिपा है भीतर। जैसे ही हमारा हिलन-डुलन बंद हो जाता है, कंपन शांत हो जाता है, ज्योति थिर हो जाती है, वह परम पद हमें उपलब्ध हो जाता है। जो सदा से हमारा है, जो सदा से हमारा रहा है, हम उसके प्रति प्रत्यभिज्ञा से भर जाते हैं। हम पहचान जाते हैं कि हम कौन हैं! मैं के मिटते ही मैं कौन हूं, इसकी पहचान आ जाती है। आज इतना ही। 196 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 तीसरा प्रवचन संकल्प-संसार का या मोक्ष का Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । अहंकार की भाव-दशा का अर्थ है कि मैं साध्य हूं और सभी यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। ६ ।। | कुछ साधन है। सब कुछ मेरे लिए है और मैं किसी के लिए नहीं ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। | हूं। मैं ही लक्ष्य हूं; मेरे लिए ही सब घटित हो रहा है। सभी कुछ मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। ७ ।। | मेरी सेवा का आयोजन है। यह अहंकार भाव है। शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्यत्क्रामतीश्वरः।। | शरणागति का भाव ठीक इससे विपरीत है; कि मैं कुछ भी नहीं गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् । । ८।। हूं। मेरा होना शून्यवत है और केंद्र मुझसे बाहर है। वह केंद्र आप श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च। कहां रखते हैं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। कोई उसे बुद्ध में रखे, अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।९।। | कोई उसे क्राइस्ट में रखे, कोई उसे राम में, कृष्ण में, यह बहुत उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर | महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे होने का केंद्र मैं नहीं हूं, मुझसे बाहर है; और सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है मैं उसके लिए जी रहा हूं। मैं साधन हूं, वह साध्य है। तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में ___ अति कठिन बात है। क्योंकि अहंकार बिलकुल स्वाभाविक नहीं आते हैं, वहीं मेरा परम धाम है। | मालूम होता है। लेकिन इस क्रांति के बिना घटे कोई भी व्यक्ति और हे अर्जन. इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश सत्य को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि सत्य यही है कि आपका केंद्र है और वहीं इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित आपके भीतर नहीं है। पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है। इस सारे जगत का केंद्र एक ही है। सभी का केंद्र एक है। जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले। इसलिए प्रत्येक के भीतर अलग-अलग केंद्र होने का कोई उपाय जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस नहीं है। हम संयुक्त जीते हैं, वियुक्त नहीं। व्यक्ति होना भ्रांति है। पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों को | सारा अस्तित्व जुड़ा हुआ इकट्ठा है। यह विश्व एक इकाई है, एक ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता | | यूनिट है। यहां खंड-खंड अलग-अलग नहीं हैं। यहां कोई एक पत्ता भी अलग नहीं है। और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और हमने सुन रखा है कि राम की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके । हिलता। और हमने जो उसको अर्थ दिए हैं, वे नासमझी से भरे हैं। अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों को सेवन करता है। | राम की बिना मरजी के पत्ता भी नहीं हिलता, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि इस संसार में दो मरजियां काम नहीं कर रही हैं। पत्ते की मरजी और इस अस्तित्व की मरजी, दो नहीं हैं। यह पूरा पहले कुछ प्रश्न। | अस्तित्व इकट्ठा है। और जब पत्ता हिलता है, तो पूरे अस्तित्व के पहला प्रश्नः शरणागत-भाव को कैसे उपलब्ध हुआ | हिलने के कारण ही हिलता है। जा सकता है? अकेला पत्ता हिल नहीं सकता है। हवाएं न हों, फिर पत्ता न हिल सकेगा। सूरज न हो, तो हवाएं न हिल सकेंगी। सब संयुक्त है। और एक छोटा-सा पत्ता भी हिलता है, तो उसका अर्थ यह हुआ जीवन में सर्वाधिक कठिन, सब से ज्यादा दुरूह अगर कि सारा अस्तित्व उसके हिलने का आयोजन कर रहा है। उस क्षण Oil कोई भाव-दशा है, तो शरणागति की है। | में सारे अस्तित्व ने उसे हिलने की सुविधा दी है। उस सुविधा में मन अहंकार के आस-पास निर्मित है। मन को मानना | | रत्तीभर भी कमी हो और पत्ता नहीं हिल पाएगा। आसान है कि मैं ही केंद्र हूं सारे जगत का। जैसे पृथ्वी और सूर्य, | | राम की बिना मरजी के पत्ता नहीं हिलता है, इसका केवल इतना तारे, सब मेरे आस-पास घूमते हों, मेरे लिए घूमते हों; पूरा जीवन ही अर्थ है। ऐसा कुछ अर्थ नहीं कि कोई राम जैसा व्यक्ति ऊपर साधन है और साध्य मैं हूं। बैठा है और एक-एक पत्ते को आज्ञा दे रहा है कि तुम अब हिलो, है। 1981 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प-संसार का या मोक्ष का * तुम अब मत हिलो। वैसी धारणा मूढ़तापूर्ण है। रात उत्तेजित हो जाते हैं। लेकिन अस्तित्व एक है। दर, अरबों प्रकाश वर्ष दर जो तारे हैं. पागलों के लिए पराना शब्द है. चांदमारा। अंग्रेजी में शब्द है. उनका भी हाथ आपके बगीचे में हिलने वाले पत्ते में है। उनके बिना लूनाटिक। लूनाटिक लूनार से बना है। लूनार का मतलब चांद है। ये पत्ते नहीं हिल सकते। . पागलपन में चांद का हाथ है। समुद्र में लहर उठती है, चांद का हाथ उसमें है। चांद के बिना और अगर पागलपन में चांद का हाथ है, तो बुद्धिमत्ता में भी वह लहर नहीं उठ सकती। चांद में रोशनी है, क्योंकि सूरज का हाथ चांद का हाथ होगा। और अगर बुद्ध को पूर्णिमा की रात बुद्धत्व उसमें है। चांद के पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज से उधार प्राप्त हुआ, तो चांद के हाथ को इनकार नहीं किया जा सकता। प्रतिबिंब है, प्रतिफलन है। चांद से सागर हिलता है। और जब सब जुड़ा है, सब संयुक्त है। हम अलग-अलग नहीं हैं। सागर हिलता है, तो आपके भीतर भी कुछ हिलता है। क्योंकि सारा शरणागति का अर्थ है, इस तथ्य को समझ लेना कि मेरे जीवन जीवन सागर से | का केंद्र मेरे भीतर नहीं है, अस्तित्व में है। फिर उस केंद्र को भक्त आपके भीतर पचहत्तर प्रतिशत सागर का पानी है। आप पचहत्तर भगवान कहता है; ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं। जो बहुत तार्किक ज्ञानी हैं, प्रतिशत सागर हैं। और आपके भीतर जो जल है, उसका स्वाद वे सत्य कहते हैं। यह सब शब्दों का फासला है। क्या आप कहते ठीक सागर के जैसा स्वाद है। उतनी ही नमक की मात्रा है, उतना हैं, यह सवाल नहीं है। अपने से बाहर केंद्र को समझ लेना ही खारा है, उतने ही रासायनिक द्रव्य हैं उसमें। मछली ही सागर शरणागत हो जाना है। में नहीं जीती, आप भी सागर में जीते हैं। फर्क इतना है कि मछली और जब केंद्र मेरे भीतर नहीं, तो अकड़ किस बात की है? जब के चारों तरफ सागर है; आपके भीतर सागर है। आपके भीतर | मैं सिर्फ एक लहर हूं, और खुद सागर नहीं हूं, तो अकड़ किस बात नमक कम हो जाए, आपकी मृत्यु हो जाएगी। ज्यादा हो जाए, आप | की है? इतना अहंकार किस बात का है? अपने आपको इतना अड़चन में पड़ जाएंगे। ठीक सागर की जितनी मात्रा है, उतनी ही समझ लेना पागलपन है। ठीक से जो अपने को समझेगा, वह शून्य आपके भीतर होनी चाहिए। समझेगा। गलत जो अपने को समझेगा, वह अपने को बहुत कुछ वह जो बच्चा पहली दफा मां के गर्भ में पैदा होता है, तो मां के | समझेगा। गर्भ में ठीक सागर की स्थिति हो जाती है। ठीक सागर जैसे पानी तो जितना ज्यादा आप अपने को समझते हों, उतने ही कम में ही बच्चे का पहला जन्म होता है। बच्चा पहले मछली की तरह धार्मिक होने की संभावना है। जितना कम आप समझते हों अपने बड़ा होता है। आपको, उतने धार्मिक होने की संभावना ज्यादा है। और जिस दिन जब सागर हिलता है, तो आपके भीतर भी कुछ हिलता है। अगर | आप समझ लें कि आप शून्य हैं, उस दिन आप स्वयं भगवान हैं। सागर के पास बैठकर आपको सुख मालूम होता है, तो आपने कभी शून्य होते ही शरणागति घटित हो जाती है। सोचा नहीं होगा, क्यों? वह जो सागर का कंपन है, जीवन है, वह ___ इसलिए शरणागति के दो उपाय हैं। और दुनिया में दो ही तरह आपके छोटे-से सागर को भी कंपाता है, जीवंत करता है। के धर्म हैं। क्योंकि शरणागति के दो ही उपाय हैं। __ अगर रात चांद को देखकर आपको अच्छा लगता है, सुखद एक तो उपाय यह है कि आप शून्य हो जाएं। बुद्ध, महावीर जो मालूम होता है, एक शांति मिलती है, तो वे चांद की किरणें हैं, जो कहते हैं, अशरण हो जाओ, वह आपको शून्य होने के लिए कह आपके भीतर के सागर को कंपित कर रही हैं, जीवंत कर रही हैं। | रहे हैं। वे कह रहे हैं, बिलकुल शांत हो जाएं, शून्य हो जाएं। शून्य पूर्णिमा की रात दुनियाभर में सबसे ज्यादा लोग पागल होते हैं; होते से वही घटना घट जाती है, केंद्र आपके भीतर नहीं रह जाता। अमावस की रात सबसे कम। पागलपन में भी एक ज्वार-भाटा है। दूसरा मार्ग है कि आप अपने को विचार पूर्णिमा की रात दुनिया में सबसे ज्यादा अपराध होते हैं; अमावस चरणों में रख दें सिर, कि कृष्ण के चरणों में रख दें। कृष्ण अर्जुन से की रात सबसे कम। आप शायद उलटा सोचते होंगे कि अमावस कहते हैं, सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज-सब छोड़, सब की अंधेरी रात सबसे ज्यादा अपराध होने चाहिए। अपराध नहीं होते धर्म; मेरी शरण आ जा। आप किसी के चरण में सिर रखते हैं। हैं। क्योंकि अमावस की रात लोग उत्तेजित नहीं होते हैं। पूर्णिमा की ___ या तो आप शून्य हो जाएं, तो केंद्र मिट गया भीतर से। और या 199 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * आप किसी को पूर्ण मान लें, तो भीतर से केंद्र मिट गया। दोनों ही | | से चले हैं, तो आपको पता होगा कि आपने कई दफा धोखा दिया। अवस्था में आप मिट जाते हैं। किसको धोखा दे रहे हैं। लेकिन अकेले ताश खेलने में भी लोग जैन-बौद्ध पहली धारणा को मानकर चलते हैं। परिणाम वही है। धोखा देते हैं। शून्य हो जाना है, शांत हो जाना है, मौन हो जाना है। अहंकार को अड़चन है। अड़चन आदमी के साथ है। कोई भी विधि हो, भूल जाना है, विसर्जित कर देना है। इसलिए वे अशरण की बात अड़चन रहेगी। तो कृष्ण और जरथुस्त्र और क्राइस्ट की मान्यता है बोल सकते हैं। अशरण की इसलिए-थोड़ा समझ लेना जरूरी | | कि जो आदमी गुरु के सामने भी धोखा दे लेता है और अपने है क्योंकि महावीर कहते हैं कि अहंकार इतना सूक्ष्म है कि तुम | अहंकार को बचा लेता है, उसको अकेला छोड़ना खतरनाक है। जब शरणागति करोगे, तो उसमें भी बच सकता है। | कम से कम दूसरे की आंखें, दूसरे की मौजूदगी सम्हलने का मौका उनकी बात में सचाई है। महावीर कहते हैं कि जब तुम किसी की बनेगी। और इसमें सचाई है। शरण में जाओगे, तो तुम ही जाओगे। यह तुम्हारा ही निर्णय होगा। जैन साधना ने बड़े अहंकारी साधु पैदा किए। जैन साधु में तुम ही सोचोगे, तय करोगे, कि मैं शरण जाता हूं। तो यह तुम्हारे विनम्रता दिखाई नहीं पड़ती, अकड़ दिखाई पड़ती है। अकड़ का मैं का ही निर्णय है। इसमें डर है कि मैं छिप जाएगा, मिटेगा नहीं। कारण भी है, क्योंकि साधना करता है, सचाई से जीता है, ब्रह्मचर्य क्योंकि तम सदा मालिक रहोगे। जब चाहो. अपनी शरण वापस ले साधता है, उपवास करता है, तप करता है। अकड़ का कारण भी सकते हो। है। अकारण नहीं है अकड़। लेकिन कारण हो या अकारण हो, अर्जुन कृष्ण से कह सकता है कि बस, बहुत हो गया। अब मैंने अकड़ रोग है। और चूंकि शरण जाने का कहीं कोई उपाय नहीं है, आपके चरणों में जो सिर रखा था, वापस लेता हूं। तो कृष्ण क्या | इसलिए मैं कर रहा हूं, यह धारणा मजबूत होती है। करेंगे? दोनों के खतरे हैं। दोनों के लाभ हैं। जिस व्यक्ति को लगे कि आप किसी व्यक्ति को गुरु चुनते हैं, वह आपका ही चुनाव है। | खतरा कहां है, वहां वह न जाए। कल आप गुरु को छोड़ देते हैं, तो गुरु क्या कर सकता है। अगर अगर आप बहुत धोखेबाज हैं और बहुत बेईमान हैं, और अपने आप शरण जाने के बाद भी छोड़ने में समर्थ हैं, तो यह शरण झूठी | को भी धोखा देने में समर्थ हैं, सेल्फ डिसेप्शन आपके लिए आसान हई और धोखा हआ और आपने सिर्फ अपने को भलाया, विस्मत है, तो महावीर का मार्ग आपके लिए खतरनाक है। अगर आप किया, लेकिन मिटे नहीं। अपने को धोखा देने में असमर्थ हैं, तो महावीर का मार्ग आपके यह डर है। इस डर के कारण महावीर ने कहा, यह बात ही | लिए सुगम है। उपयोगी नहीं है। दूसरे की शरण मत जाओ; अपने को ही सीधा साधक को निर्णय करना होगा, कैसे जाए। लेकिन प्रयोजन एक मिटाओ। दूसरे के बहाने नहीं, सीधा। यह सीधा आक्रमण है। ही है कि साधक को मिटना पड़ेगा। या तो सीधा मिट जाए, शून्य कृष्ण, राम, मोहम्मद, क्राइस्ट, जरथुस्त्र, वे सब शरण को हो जाए; या दूसरे के चरण में जाकर खो जाए और लीन हो जाए। मानते हैं कि शरण जाओ। उनकी बात में भी बड़ा बल है। क्योंकि यह शरणागति कैसे आएगी? वे कहते हैं कि जब तुम शरण जाकर भी नहीं मिटते हो और अपने | अपनी स्थिति समझने से। अपनी वास्तविक स्थिति समझने से। को धोखा दे सकते हो, तो जो व्यक्ति दूसरे के बहाने अपने को यह ठीक-ठीक समझ लेने से कि मैं क्या हूं। धोखा दे सकता है, वह अकेले में तो धोखा दे ही लेगा। जो दूसरे | च्यांग्त्सू एक कब्रिस्तान से निकल रहा था। सुबह का अंधेरा था; की मौजूदगी में भी धोखा देने से नहीं बचता, जहां कि एक गवाह | | भोर होने में देर थी। एक आदमी की खोपड़ी से उसका पैर टकरा भी था, जहां कि कोई देख भी रहा था, वह अकेले में तो धोखा दे | गया। तो उस खोपड़ी को अपने साथ ले आया। उसे सदा अपने ही लेगा। | पास रखता था। अनेक बार उसके शिष्यों ने कहा भी, इस खोपड़ी आप ताश खेलते हैं, तो आप दूसरों को धोखा देते हैं। लेकिन | को फेंकें; यह भद्दी मालूम पड़ती है। और इसे किसलिए रखे हैं? लोग हैं, जो कि पेशेंस खेलते हैं, अकेले ही खेलते हैं, अपने को | तो च्वांग्त्सू कहता था, इसे मैं याददाश्त के लिए रखे हूं। जब भी ही धोखा दे देते हैं। अगर आपने अकेले ही ताश के पत्ते दोनों तरफ मेरी खोपड़ी भीतर गरम होने लगती है, मुझे लगता है कि मैं कुछ 200 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संकल्प-संसार का या मोक्ष का * हूं, तभी मैं इसकी तरफ देखता हूं कि आज नहीं कल मरघट में पड़े | नसरुद्दीन ने कहा, वह बेवा हो गई। तो भाई ने कहा, नालायक, मैं रहोगे; लोगों की ठोकरें लगेंगी। कोई क्षमा भी मांगने रुकेगा नहीं। जिंदा बैठा हूं, तो वह बेवा हो कैसे सकती है! तो नसरुद्दीन ने कहा जब मुझे कोई गाली देता है या जब कोई मुझे मारने को तैयार हो जाता | | कि तुम जिंदा बैठे हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। जब बुआ बेवा है, तब मैं उसकी तरफ नहीं देखता, इस खोपड़ी की तरफ देखता हूं। हुई थीं, तब भी तुम जिंदा थे। जब चाची बेवा हुईं, तब भी तुम जिंदा तब मेरा मन भीतर ठंडा हो जाता है कि ठीक ही है। इस खोपड़ी को | | थे। सैकड़ों औरतें गांव में बेवा हो गईं, तुम जिंदा थे। किसी को न कब तक बचाऊंगा? फिर अनंत काल तक यह पड़ी रहेगी, ठोकरें | रोक पाए बेवा होने से। तो अब तुम क्या कर सकते हो? किसी का खाएगी। तो क्या फर्क पड़ता है कि अभी कोई मार जाता है कि कल | बेवा होना, न होना, तुम पर निर्भर है क्या? कोई मार जाएगा, जब मैं बचाने के लिए मौजूद न रहूंगा! नसरुद्दीन ठीक ही कह रहा है। लेकिन वह जो भीतर मैं है. वह तो यह खोपड़ी भी शून्यता में ले जाएगी। परे समय अपने को केंद्र मानकर बैठा है। नसरुद्दीन का व्यंग्य अपनी वास्तविक स्थिति का स्मरण कि मैं मरणधर्मा हूं; कि यह बिलकुल ही ठीक है। तुम्हारे रहने से क्या होता है? लेकिन प्रत्येक देह थोड़ी देर के लिए है; कि मेरी सीमाएं हैं; कि मेरे ज्ञान की सीमा | | सोच रहा है कि उसके रहने से ही सब कुछ होता है। छिपकली भी है, मेरे सामर्थ्य की सीमा है; और मैं स्वतंत्र नहीं हूं, परतंत्र हूं; सब | | सोचती है कि उसका सहारा नहीं होगा, तो मकान गिर जाएगा। हम तरफ से मैं घिरा हूं और सब तरफ से परस्पर आश्रित हूं; मेरी कोई | सब भी उसी भाषा में सोचते हैं। स्वतंत्र इकाई नहीं है। ऐसी प्रतीति गहरी होती जाए, यह विचार | मेरे पास लोग आते हैं; कहते हैं, ध्यान करना चाहते हैं; शांत गहन होता जाए, यह ध्यान में उतरता जाए, यह हृदय में बैठ जाए, | | होना चाहते हैं। लेकिन अगर हम शांत हो जाएंगे, तो क्या होगा? तो शरणागति फलित होगी। परिवार है, पत्नी है, बच्चे हैं। कठिन इसलिए है, कि मैं कुछ भी नहीं हूं, यह मानने का मन हर एक को खयाल है कि सारा संसार उसकी वजह से चल रहा नहीं होता। मैं कुछ हूं, ऐसा मोह है। बहुत दीन मोह है, बहुत दुर्बल | है; उसके सहारे चल रहा है। और कब्रिस्तान भरे पड़े हैं इस तरह मोह है, किसी मूल्य का भी नहीं; दो कौड़ी उसकी कीमत नहीं है, | के लोगों से, जिनको सभी को यह खयाल था। जिस जगह पर आप लेकिन मैं कुछ हूं...। बैठे हैं, उस जगह पर कम से कम दस आदमी मर चुके और गड़ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन के बड़े भाई ने उसे अपनी पत्नी चुके। जमीन पर कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां दस-दस परतें लाशों को लेने ससुराल भेजा। और जाते वक्त कहा कि नसरुद्दीन, व्यर्थ की न बिछ चुकी हों। उन सभी को यही खयाल था जो खयाल की बकवास मत करना। ज्यादा उलटी-सीधी बात करने की तुम्हारी आपको है कि मैं कुछ हूं। आदत है, इसका उपयोग मत करना। तुम तो न या हां में ही जवाब __ यह भ्रांति टूट जाए, तो शरणागति आनी शुरू होती है। और इसे दे देना। तोड़ने के लिए कुछ करना नहीं है, सिर्फ आंख खोलनी काफी है। तो नसरुद्दीन ने गांठ बांध ली कि न और हां से दूसरा शब्द बोलेगा| | अपने चारों तरफ आंख भर खोलनी काफी है। ही नहीं। पहुंचा, तो भाई के ससुर ने पूछा कि तुम आए हो नसरुद्दीन, | स्थिति ही यही है कि आप कुछ भी नहीं हैं। छोटा-सा संयोग तुम्हारे बड़े भाई नहीं आए? तो नसरुद्दीन ने कहा, न। तो पूछा ससुर | है। वह भी पानी की लहर की तरह संयोग है। बन भी नहीं पाता ने कि क्या बीमार हैं? तो नसरुद्दीन ने कहा, हां। तो पूछा ससुर ने | और मिट जाता है। कोई पत्थर की लकीर भी नहीं है; पानी पर कि क्या बचने की कोई आशा नहीं? तो नसरुद्दीन ने कहा, हां। खिंची लकीर है। अपने को जो ठीक से सोचना-समझना, अपनी तो घर में कोहराम मच गया। लोग छाती पीटने लगे, रोने लगे। स्थिति को पहचानना शुरू करेगा, जागतिक संदर्भ में जो अपने को और फिर ससुर ने कहा कि जब तुम्हारे भाई आखिरी क्षण में हैं, तो रखेगा और पहचानने की कोशिश करेगा, वह अनुभव करेगा कि अब मेरी लड़की को लिवा ले जाकर क्या करोगे! मैं भेजने से मना | मैं एक पानी की बूंद हूं, सागर होने का भ्रम गलत है। करता हूं। वह तो बेवा हो ही गई। और जो अपनी तरफ सोच-विचार में लगेगा, विमर्श करेगा, तो नसरुद्दीन दुखी और रोता हुआ वापस लौटा। रोता हुआ चिंतन करेगा, उसे यह भी दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि जगत लौटा, तो भाई ने पूछा कि क्या हुआ? और भाभी कहां है? तो मुझसे बहुत बड़ा है। मेरे पीछे, मुझसे आगे, मेरे चारों ओर विराट 201] Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * जगत है। उस विराट जगत में मैं एक छोटा-सा कंपित होता हुआ | इन पत्रों को सम्हालकर रखना। इसमें नंबर एक का जो पत्र है, वह जीवन-कण हूं; केंद्र मैं नहीं हूं। | तू तब खोलना, जब तेरी कोई योजना इतनी असफल हो जाए कि शरणागति सहज हो जाएगी। और अगर कोई परमात्मा न दिखाई तेरा तख्ता डांवाडोल हो उठे। और दूसरा तब खोलना, जब कि कोई पड़ता हो, कोई ईश्वर की प्रतीति न होती हो, तो शून्यता सध जाएगी। | भरोसा ही न रह जाए तेरे बचने का, सब डूबने की हालत हो जाए दोनों के परिणाम एक हैं। या तो शून्यता सध जाए या शरण-भाव | और तुझे उतरने के सिवा कोई चारा न रहे, तब तू दूसरा खोलना। आ जाए। आपका मिटना जरूरी है। जैसे ही आप खोते हैं, वैसे ही जब खुश्चेव असफल हुआ...। जीवन का सत्य प्रकट हो जाता है। और सभी राजनीतिज्ञ असफल होते हैं। अब तक कोई राजनीतिज्ञ जमीन पर सफल नहीं हुआ। होंगे भी नहीं। क्योंकि सफलता से राजनीति का कोई संबंध भी नहीं है। दूसरा प्रश्नः अपने स्रोत की ओर लौटने के लिए | समस्याएं बड़ी हैं, और आदमी का अहंकार भर उसे खयाल देता प्राइमल स्क्रीम का होना आपने जरूरी बताया। पर हम है कि मैं हल कर लूंगा। समस्याएं विराट हैं। किसी से हल नहीं कैसे पहचानेंगे कि कौन-सी रेचन-प्रक्रिया वांछित होतीं। पर थोड़ी देर को यह वहम भी मन को बड़ा सुख देता है, प्राइमल स्क्रीम है? | अहंकार को बड़ी तृप्ति देता है कि मैं हल करने की कोशिश कर | रहा हूं। यह खयाल भी कि सारी समस्याओं के हल मुझ पर निर्भर हैं और लोगों की आशा मुझ पर लगी है, काफी सुख देता है। यापको पहचानने की जरूरत ही न पड़ेगी। उसके बाद जब खुश्चेव की योजनाएं असफल हुईं, तो उसने मजबूरी में Oil आप तत्क्षण दूसरे हो जाएंगे। आप बीमार हों, तो आप पहला पत्र खोला। उस पहले पत्र में स्टैलिन ने लिखा था कि सब कैसे पहचानते हैं जब आप स्वस्थ हो जाते हैं? कोई जिम्मेवारी मेरे सिर पर थोप दे। उपाय है आपके पास पहचानने का? नहीं; बीमारी जाती है, तो | __यह पुरानी तरकीब है राजनीतिज्ञों की कि जो ताकत में नहीं हैं, आप तत्क्षण अनुभव करते हैं कि स्वस्थ हो गए। जब आपका | | जो पीछे ताकत में थे, जो मर गए हैं, उन पर सारी जिम्मेवारी थोप सिरदर्द खो जाता है, तो आप कैसे पता लगा पाते हैं कि अब सिरदर्द | | देना कि उनके कारण...। नहीं है और सिर ठीक हो गया? | खश्चेव ने वही किया। थोडे दिन नाव और चली। फिर नाव के प्राइमल स्क्रीम का जो रेचन है, जो कैथार्सिस है, जिस क्षण हो डूबने के दिन फिर आ गए। तब उसने दूसरा पत्र खोला। दूसरे पत्र जाएगी, उसी क्षण आप फूल की तरह हलके हो जाएंगे, जैसे सारा | | में स्टैलिन ने लिखा था कि अब तू भी दो पत्र लिख। बोझ खो गया। बोझ है भी नहीं आप पर, सिर्फ आपको खयाल है। __ आदमी की बड़ी से बड़ी समस्या है और वह यह कि बिना पर इस बोझ को आप खींचते हैं, क्योंकि बिना बोझ के अहंकार | | समस्याओं के आपका अहंकार निर्मित नहीं हो सकता। लोग कहते नहीं चल सकता। हैं, हम कैसे शांत हों! लेकिन वे शांत होना नहीं चाहते। क्योंकि इसलिए जितना अहंकारी आदमी हो, उतना बड़ा बोझ ले लेता अगर आप शांत होंगे, तो आपका अहंकार खड़ा कैसे होगा? बड़ी है। अहंकारी हो, तो राष्ट्रपति हो जाना जरूरी है, प्रधानमंत्री हो समस्याएं चाहिए, चुनौती चाहिए, संघर्ष चाहिए, उसके मुकाबले जाना जरूरी है। क्योंकि पूरे मुल्क का बोझ चाहिए, पूरी पृथ्वी का अहंकार खड़ा होगा। बोझ चाहिए. तब अहंकार को लगता है कि मैं कछ हैं। हालांकि अहंकार को बडा करने के लिए लोग समस्याएं खडी करते हैं। कुछ राजनीतिज्ञ कर नहीं पाते हैं। बोझ को घटाते हैं, ऐसा लगता आप भी खड़ी करते हैं। और अगर दो-चार दिन कोई समस्या न नहीं, बढ़ाते भला हों। लेकिन बड़ा बोझ लेकर उन्हें अनुभव होता | | हो, तो बड़ी बेचैनी शुरू हो जाती हैं। खाली लगते हैं। कुछ करने है कि हम कुछ हैं। को नहीं सूझता। पृथ्वी पर होना न होना बराबर मालूम पड़ता है। __ मैंने सुना है कि स्टैलिन ने मरने के पहले खुश्चेव को दो पत्र जिंदा अगर हैं, तो कुछ उपद्रव चाहिए। जितना ज्यादा उपद्रव, उतने दिए। और कहा कि जब मैं मर जाऊं और तू ताकत में आ जाए, तो आप जिंदा मालूम होते हैं। 202 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प-संसार का या मोक्ष का * मनसविद कहते हैं, अपराधी और राजनीतिज्ञ एक ही कोटि के | और चेहरे पर ऐसे भाव जैसे कांटे चुभ रहे हों। उसने कहा कि जूते लोग हैं। अपराधी भी बिना अपराध किए नहीं रह सकता। क्योंकि | छोटे हैं, और पैरों में बड़ा कष्ट है। तो मित्र ने कहा, तुम इन्हें उतार अपराध करके वह उपद्रव खड़े कर लेता है, और उनके बीच में | क्यों नहीं देते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि वह मैं नहीं कर सकता। महत्वपूर्ण हो जाता है। और राजनीतिज्ञ भी बिना उपद्रव खड़े किए __ मित्र कुछ समझा नहीं। उसने पूछा कि कारण न करने का? तो नहीं रह सकता, क्योंकि उपद्रव के बिना उसका कोई मूल्य नहीं, | | नसरुद्दीन ने कहा, बस यही एक मेरे सुख का सहारा है। जब दिनभर कोई अर्थ नहीं। का थका-मांदा. हारा. पराजित. दकान-धंधे से उदास घर वापस इसीलिए युद्ध के समय में बड़े नेता पैदा होते हैं, क्योंकि युद्ध से | | लौटता हूं। पत्नी देखते ही टूट पड़ती है; बकने लगती है, बड़ा उपद्रव और किसी समय में पाना मुश्किल है। इसलिए जिसको | | चीखने-चिल्लाने लगती है। बच्चे अपनी मांगें मौजूद कर देते हैं। बड़ा नेता होना हो, उसे युद्ध को पैदा करवाना ही पड़ता है। | पास में पैसा नहीं है। पूरे दिनभर के इस दुख और पीड़ा के बाद जब आप भी यही कर रहे हैं। उपद्रव खड़े करते हैं, खोजते हैं, | घर जाकर मैं अपने पैर के जूते निकालता हूं, तो मोक्ष का आनंद निर्माण करते हैं; न हों, तो कल्पना करते हैं। ये सारे उपद्रव आपके | | उपलब्ध होता है। जूते उतारते से ही लगता है कि जिंदगी में सुख है। भीतर अपनी छाया, अपने दाग, अपने घाव छोड़ जाते हैं, अपना और कोई सहारा नहीं है सुख का। बस, यह एक जूता ही सहारा है। दुख छोड़ जाते हैं। आपके भीतर एक खंडहर निर्मित हो जाता है। | आप भी अपने दुख को पकड़े हैं। क्योंकि वह दुख ही आपके प्राइमल स्क्रीम, मूल रुदन इस सारे घाव का इकट्ठा रेचन है। जो सुख की छोटी-मोटी झलक है, बस। जब उसको आप उतारकर कुछ आपने इकट्ठा किया है-कूड़ा-कर्कट, दुख-पीड़ाएं, झूठ, | | रखते हैं, थोड़ा-सा लगता है अच्छा। असत्य, धोखे—वह जो आपने एक खंडहर अपने भीतर निर्मित नसरुद्दीन कहता है, ये जूते मैं उतार नहीं सकता। क्योंकि इनके किया है, वह पूरा का पूरा एक चीख में बाहर आ जाए। उसके बाद सिवाय तो जीवन में कोई सुख नहीं है। आप एकदम हलके हो जाते हैं। मन की सारी व्यथा खो जाती है। आप किस-किस बात को सुख कहते हैं, आपने कभी खयाल इतना ही कहना ठीक नहीं; मन ही खो जाता है। किया? लोग काम को, सेक्स को सुख कहते हैं; वह सिर्फ आपका पहचानने की जरूरत नहीं पड़ेगी; अचानक आप पाएंगे कि पंख जूता उतारने से ज्यादा नहीं है। तनाव इकट्ठे हो जाते हैं। दिनभर आप लग गए, आप उड़ सकते हैं। अचानक पाएंगे, ग्रेविटेशन समाप्त तनाव इकट्ठे करते हैं। शरीर से बाहर जाती ऊर्जा के कारण तनाव हो गया; जमीन आपको खींचती नहीं, वजन न रहा; आप निर्भार शिथिल हो जाते हैं। लगता है, सुख मिला। हो गए। कोई चिंता न आगे है. न पीछे है। यह क्षण पर्याप्त है। और महावीर या बद्ध कामवासना को जीतकर आनंद को उपलब्ध यह क्षण बहुत सुखद है। आनंद की अनुभूति आपको बताएगी कि | नहीं होते हैं। चूंकि आनंद को उपलब्ध होते हैं, इसलिए कामवासना रेचन हो गया है। दुख बताता है कि रेचन बाकी है। व्यर्थ हो जाती है। जूता उतारकर सुख अनुभव नहीं करते। सुख और आप रेचन भी नहीं होने देते। हृदयपूर्वक रो भी नहीं सकते, | अनुभव हो रहा है, इसलिए जूते के दुख को झेलने की और सुख चीख भी नहीं सकते। हृदयपूर्वक कुछ भी करने का उपाय नहीं है। | की आशा बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सब अधूरा-अधूरा, झूठा-झूठा करते हैं। और तब अगर पूरी दिनभर के तनाव से भरे हुए जाकर एक फिल्म में बैठ जाते हैं; जिंदगी एक उदास ऊब हो जाए, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। | सुख मिलता है। कैसा सुख मिलता होगा! आंखें और थकती हैं। इसलिए साधक को साहस चाहिए कि जो भीतर दबा है, उसे वह | | लेकिन कम से कम दो घंटे, तीन घंटे के लिए अपने को भूल जाते बाहर फेंक सके। और एक बार भी आप हिम्मत जुटा लें, तो बाहर | | हैं; व्यस्त हो जाते हैं कथा में। व्यस्तता ज्यादा हो जाती है, स्वयं का फेंकना बहुत कठिन नहीं है। और एक बार रस अनुभव होने लगे, | विस्मरण हो जाता है। जैसे ही बोझ अलग हो और रस अनुभव होने लगे...। __ लेकिन जिसको दिनभर स्वयं का विस्मरण रहा हो, जिसको ___ मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते से गुजर रहा है। | अहंकार ही न हो, विस्मरण करने को कुछ न हो, उसे तीन घंटा और बड़ी अश्लील, भद्दी गालियां दे रहा है अपने जूतों को। उसके | भुलाने के लिए किसी फिल्म में बैठने की कोई जरूरत नहीं है। एक मित्र ने पूछा कि क्या बात है? और इतने उदास, इतने दुखी, | | उसने जूते ही उतार दिए। 203] Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* शराब पीकर थोड़ी देर सुख मिलता है। वही अहंकार शराब तब तक अहंकार को रस नहीं आता। पीकर मिट जाता है। इसलिए शराब पीने वाले लोग विनम्र होते हैं। ___ आपने खयाल न किया होगा, जब आप डाक्टर की तरफ जाते जो लोग शराब छोड़े होते हैं, वे लोग अकडैल, दुष्ट प्रकृति के होते | | हैं सोचकर कि बड़ी बीमारी पकड़ गई है, और डाक्टर कहता है हैं। उन्हें अहंकार को हटाने का कोई उतना भी उपाय नहीं है। कुछ भी नहीं है, तो आपको अच्छा नहीं लगता। मन में थोड़ी-सी इसलिए अक्सर आप पाएंगे कि शराब पीने वाला मृदु होगा, चोट लगती है; शक होता है कि शायद यह डाक्टर ठीक नहीं है। मैत्रीपूर्ण होगा, भला होगा; वक्त पर काम पड़ सकता है। आप उस मुझ जैसे आदमी को और छोटी-मोटी बीमारी या कुछ भी नहीं! यह पर भरोसा कर सकते हैं। कंजूस नहीं होगा, कठोर नहीं होगा। उलटा मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर यह लगता है, कि बेकार क्योंकि थोड़ी शराब के द्वारा कम से कम अहंकार भूलता है; मिटता | आना-जाना हुआ। तो नहीं, लेकिन थोड़ी देर को भूल जाता है। तो जो बेईमान डाक्टर हैं या कुशल, वे आपको देखकर बड़ा इसलिए आप शराब पीएं, तो थोड़ी देर में चेहरे की उदासी खो | गंभीर चेहरा बना लेंगे। उससे आपका चित्त प्रसन्न होता है। और जाती है और एक प्रसन्नता प्रकट होने लगती है। पैरों में गति आ | जब आपका हाथ हाथ में लेते हैं, तो ऐसा लगता है कि बहुत गंभीर जाती है और नाच आ जाता है। यह वही आदमी है, थोड़ी देर पहले | | स्थिति है। आपको कोई बीमारी न भी हो, तो भी वे बीमारी को ऐसा मरा हुआ चल रहा था, चेहरा ऐसा था जैसे कि बस, जीवन बढ़ा-चढ़ाकर खड़ा करते हैं। उससे मरीज प्रसन्न होता है। में कोई अर्थ नहीं है। इसकी आंखों में रौनक आ गई, चेहरे पर किसी मरीज को कह दें कि आपको मानसिक खयाल है, बीमारी चमक आ गई, पैर में गति आ गई। । है नहीं। वह आपका दुश्मन हो जाता है। यह हलका-फुलका कैसे हो गया? शराब किसी को हलका- | कोई यह बात मानने को राजी नहीं है कि हम दुख को भी पकड़ते फलका नहीं करती। शराब केवल अहंकार को सला देती है। हैं, लेकिन हम पकड़ते हैं। दुख को भी हम बड़ा करते हैं। फिर वह इसलिए सफी फकीर कहते हैं कि जिन्होंने परमात्मा की शराब पी| | दुख बड़ा होकर हमारे सिर पर पत्थर की तरह, छाती पर पत्थर की ली, फिर इस शराब में उन्हें कोई भी अर्थ नहीं है। परमात्मा की शराब | तरह सवार हो जाता है। फिर हम उसको ढोते हैं। का मतलब इतना ही है कि जिन्होंने अहंकार ही छोड़ दिया, जिन्होंने रेचन का अर्थ है, दुख को उतार देना। प्राइमल स्क्रीम का अर्थ उसकी शरण पकड़ ली, उनको अब भुलाने को कुछ नहीं बचा। | है, दुख को प्रकट हो जाने देना, निकल जाने देना। एक भयंकर ___इसलिए फकीरों की मस्ती शराबियों की ही मस्ती है. पर बड़ी चीत्कार में वह बाहर हो जाए और छाती हलकी हो जाए: हृदय का गहन शराब की है। और शराबी की मस्ती बड़ी महंगी है। क्योंकि बोझ उतर जाए। पाता बहुत ना-कुछ है और बहुत-से दुख उठाता है। फकीर की तो कोई आपको पता नहीं लगाना पड़ेगा कि कैसे पता चले कि मस्ती बिना कुछ खोए बहुत कुछ पाने की है। यह प्राइमल स्क्रीम थी! ऐसे पता चलेगा कि उसके बाद एकदम हम दुख को पकड़े बैठे हैं और दुख को हम इकट्ठा करते हैं। हम आप हलके हो जाएंगे। आप पाएंगे कि जैसे आपके पास कोई दुख रस भी लेते हैं। कभी था ही नहीं। आप सदा ही आनंद में रहे। जैसे एक स्वप्न देखा लोगों को देखें, जब वे अपने दुख की कथा किसी को सुनाते हैं, | हो दुख का और नींद टूट गई। और अब कोई स्वप्न नहीं है। और तो कितने प्रसन्न मालूम होते हैं! यह बड़ी हैरानी की बात है। अगर आप हंस रहे हैं। कोई आपकी दुख की कथा न सुने, तो आपको दुख लगता है। सुने, आपको रस आता है। और हर आदमी अपने दुख की कहानी बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। तीसरा प्रश्नः कल आपने बताया कि वासनाओं की एक मेरे मित्र ने मुझसे कहा-उनकी पत्नी मेरे पास आती जड़ें गहरे अचेतन में हैं और केवल बौद्धिक तल पर थी-उन्होंने कहा, आप इसकी बातों में ज्यादा मत पड़ना। क्योंकि घटित वैराग्य का निर्णय अपर्याप्त है। वैराग्य का इसको फुसी हो जाती है, और कैंसर बताती है। और मैंने पाया कि | जागरण गहरी अचेतन जड़ों तक कैसे हो सकता है? वे ठीक कहते थे। फुसी भी कोई बीमारी है! जब तक कैंसर न हो, 1204 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संकल्प-संसार का या मोक्ष का * नुभव के अतिरिक्त कोई भी उपाय नहीं। और हम सब जाते हैं। आप मृत्यु का दुख नहीं भोगते। आप पूछने चले जाते हैं 07 चाहते हैं कि अनभव के बिना कळ हो जाए। अनभव पंडित से. परोहित से कि आत्मा अमर है? पत्नी मर गई है. या पति से बिना गुजरे कोई उपाय नहीं है, चाहे अनुभव कितनी मर गया, या बेटा मर गया; मौत सामने खड़ी है। आप ही पीड़ा दे, कितना ही जलाए। हमारी आकांक्षा ऐसी है, जैसे सोना साधु-संन्यासियों से पूछ रहे हैं कि आत्मा अमर है? सोचता हो कि बिना आग से गुजरे और मैं शुद्ध हो जाऊं। आग से | आप झुठलाना चाहते हैं मौत को, कि कोई कह दे कि आत्मा गुजरना ही पड़ेगा। पहली बात। अनुभव से गुजरना ही पड़ेगा। अमर है, भरोसा दिला दे, तो रोने की जरूरत न रहे, दुख की और दूसरे के अनुभव आपके काम न आएंगे, यह ध्यान में रखें। | जरूरत न रहे। क्यों? क्योंकि अगर आत्मा अमर है, तो कुछ बात बुद्ध कहते हैं, संसार दुख है। आप पढ़ लें, सुन लें। मैं कहता हूं, | नहीं। शरीर ही छूटा, वस्त्र बदले; लेकिन बेटा कहीं न कहीं जिंदा संसार दुख है। आप सुन लें, समझ लें। इससे कुछ होगा नहीं। है; कभी न कभी मिलना होगा। इससे खतरा है कि आप पाखंडी हो जाएंगे। ईसाई, मुसलमान, सभी सोचते हैं कि मरने के बाद फिर अपने यह अनुभव आपका ही होना चाहिए कि संसार दुख है। संबंधियों से मिलना हो जाता है। तो थोड़े दिन का फासला है, थोड़े इसीलिए इस तरह के सवाल उठते हैं कि वैराग्य कैसे गहरा हो? | दिन की बात है; झेल लो। और कोई मिटा नहीं, कोई मरा नहीं। वैराग्य को गहरा करने का सवाल नहीं है। जीवन के अनुभव को | आप दुख से बचने का उपाय खोज रहे हैं। पूरा का पूरा भोगने का है। लेकिन हम सब का मन यह होता है मौत सामने खड़ी है, इसके दुख को भोगो। झुठलाओ मत। कि...। तरकीबें मत खोजो। जिस पत्नी से सुख पाया है, उसका दुख भी बुद्ध तो दुख भोगकर वैराग्य को उपलब्ध हुए, फिर उन्होंने | | भोगो। जिस पति से आनंद अनुभव किया था, उस पति के जाने पर आनंद पाया। हम बुद्ध से भी ज्यादा कुशलता दिखाना चाहते हैं। अभाव का जो नरक है, उससे गुजरो। न तो शराब पीकर भुलाओ, दुख भोगने से भी बचना चाहते हैं; और जैसा वैराग्य बुद्ध को | न सिद्धांतों को पीकर भुलाओ। न भजन-कीर्तन करके अपने को हुआ, वैसा वैराग्य चाहते हैं; और वैसा आनंद चाहते हैं, जैसा | समझाओ; न गीता पढ़कर अपने मन को यहां-वहां लगाओ। दुख वैराग्य के बाद उन्हें हआ। सामने खड़ा है, दुख को सीधा भोगो। दुख को ही तुम्हारा ध्यान बन नहीं, यह नहीं होगा। वैराग्य का अपना गणित है। और कोई जाने दो। शार्टकट न कभी रहा है और न कभी होने वाला है। और अगर आप तो उस मृत्यु से तुम निखरकर बाहर आओगे। तुम आग से गुजर इतने लंबे दिनों से भटक रहे हैं, तो शार्टकट की तलाश की वजह | जाओगे, तुम्हारा सोना निखर जाएगा; वैराग्य का उदय होगा। फिर से। नहीं तो कभी का आपको भी...। तुम्हें मुझसे नहीं, किसी से भी नहीं पूछना पड़ेगा कि वैराग्य गहरा कितने जन्मों तक आप भी गुजरे हैं। पर आपकी आशा यह है कैसे हो? वैराग्य गहरा हो जाएगा। कि बिना दुख से गुजरे, बिना अनुभव से गुजरे और वैराग्य हो | एक मौत को भी तुम ठीक से देख लो, तो जिंदगी व्यर्थ हो जाती जाए। और फिर वैराग्य से मोक्ष मिले और परम आनंद की उपलब्धि | | है। एक सूखा पत्ता वृक्ष से गिरता हुआ भी तुम ठीक से समझ लो, हो। आप पहली सीढ़ी चूक रहे हैं। बुद्ध जैसे दुख से गुजरना पड़े, | तो जिंदगी में कुछ पाने जैसा नहीं रह जाता। तो ही बुद्ध जैसा वैराग्य उत्पन्न होगा। लेकिन नहीं, जब कोई मरता है, तब तुम अपने को समझाने में और ऐसा नहीं है कि दुख की आपको कोई कमी है। दुख काफी लग जाते हो। और जब कोई मर भी जाता है, तब भी तुम यही है। लेकिन आप उससे गुजरते नहीं, बचते हैं। आपने पलायन, सोचते हो कि दुर्घटना है। एस्केप को अपना रास्ता बनाया हुआ है। कैसे बच जाएं, इसकी __ मौत जीवन का वास्तविक तथ्य है, दुर्घटना नहीं। यह कोई फिक्र में रहते हैं। संयोग नहीं है। यह होने ही वाला है; यह जीवन की नियति है। जो दुख से बचेगा, उसे वैराग्य कभी उत्पन्न नहीं होगा। क्योंकि | जब कोई मरता है, तो तुम ऐसा सोचते हो कि कुछ भूल-चूक दुख की गहनता ही वैराग्य का जन्म है। हो गई, कहीं कुछ गड़बड़ हो गई, कुछ कर्म का फल रहा होगा। आपका प्रियजन मर जाता है, आप बचने की तलाश में लग तुम यह बात भूल रहे हो कि मौत हर जीवन के पीछे लगी ही है, 205 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 होगी ही, उससे ज्यादा निश्चित और कुछ भी नहीं है। वही एकमात्र निश्चित तथ्य है। फिर जब दूसरा मरता है, तब तुम्हें कभी खयाल नहीं आता कि यह मेरे मरने की भी खबर है। तब तुम दूसरे पर दया करने का विचार करते हो, कि बड़ा बुरा हुआ; बेचारा! तुम्हें यह खयाल कभी भी नहीं आता कि कोई भी जब मरता है, तब तुम ही मर रहे हो । लेकिन हर आदमी यह सोचकर चलता है कि हमेशा दूसरा मरता है, मैं तो कभी मरता नहीं। और एक लिहाज से आपका तर्क ठीक भी है। कम से कम अभी तक तो आप मरे नहीं। इसलिए...। मैं है एक आदमी एक पक्षियों की दुकान से एक तोता खरीदकर ले गया। दूसरे दिन ही वापस आया और तोता बेचने वाले पर नाराज होने लगा और कहा कि तुमने किस तरह का तोता दिया वह घर जाकर मर गया। तो उस दुकानदार ने कहा, लेकिन यह मैं मान ही नहीं सकता, क्योंकि ऐसी हरकत उसने इसके पहले कभी नहीं की। तोता यहां भी था, महीनों तक रहा, ऐसी हरकत उसने पहले कभी की नहीं। इसलिए मैं भरोसा कर ही नहीं सकता। आपका भी तर्क यही है। अभी तक आप मरे नहीं, तो भरोसा कैसे कर सकते हैं कि मर जाएंगे ! और जो अब तक नहीं हुआ, वह आगे भी क्यों होगा ! जब दूसरा मरता है, तब भी आप सोचते हैं, दूसरा मरता है। तब आपको खयाल नहीं आता है कि मैं भी मरूंगा या मैं भी मर रहा हूं या यह खबर मेरी मौत की खबर है। अगर आप दुख को ठीक से जीएं, तो हर मौत आपको अपनी मौत मालूम पड़ेगी। तब वैराग्य गहरा हो जाएगा। जब कोई दूसरा असफल होता है या जब आप खुद भी असफल होते हैं जीवन में, तो आप सोचते हैं, संयोग ठीक न थे, भाग्य साथ न था, दूसरे लोगों ने बेईमानी की, चालबाजी की, चार सौ बीस थे, इसलिए वे सफल हुए; मैं असफल हुआ। लेकिन आप यह कभी नहीं देख पाते हैं कि पूरा जीवन असफलता है। इसमें सफल होना होता ही नहीं। लेकिन कोई तरकीब आप निकाल लेते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन एक गांव से गुजर रहा है। कोई मर गया है; घर के आस-पास भीड़ है; लाश सामने रखी है। नसरुद्दीन भूखा है। छोटा गांव है। सारा गांव वहीं इकट्ठा है। कोई भोजन देने के लिए भी अभी उत्सुक नहीं होगा। अभी कोई मेहमान बनाने की भी तैयारी में नहीं है। और गांव इतने दुख में है कि वह यह बात भी करे कि मुझे भूख लगी है, कि मुझे भोजन चाहिए, तो भद्दा मालूम पड़ेगा। वह भी भीड़ में जाकर खड़ा हो गया और उसने पूछा कि क्या बात है ? क्यों रो रहे हो? तो उन्होंने कहा कि क्यों रो रहे हैं, यह भी पूछने की कोई बात है ? घर का आदमी मर गया है। गांवभर का प्यारा था । नसरुद्दीन ने कहा कि मैं उसे जिला सकता हूं। लेकिन अभी मैं भूखा हूं। पहले मेरा पेट भर जाए, मैं स्नान कर लूं, पूजा-पाठ कर लूं इसे मैं जिला सकता हूं। रोने की कोई भी जरूरत नहीं है। भूख में ऐसा कह गया। फिर जब पेट भर गया, हाथ-मुंह धोकर पूजा-पाठ जब उसने की, तब पूजा-पाठ कर नहीं सका, क्योंकि अब उसको झंझट मालूम हुई कि अब क्या करना ? कहीं मरा हुआ कभी कोई जिंदा हुआ है! फिर भी वह आया, लाश के पास बैठा; और उसने कहा कि यह आदमी कौन था? इसका धंधा क्या था? उन्होंने कहा कि यह आदमी! जाहिर आदमी है, यह बड़ा नेता था; राजनीति इसका धंधा था । नसरुद्दीन क्रोध से खड़ा हो गया और उसने कहा कि नालायको, मेरा समय खराब किया ! राजनीतिज्ञ मरकर कभी जिंदा नहीं होते। तुम्हें पहले ही बताना था; नाहक मेरा समय खराब करवा दिया। अब तक मैं दूसरे गांव पहुंच गया होता। आप भी जिंदगी में बहाने खोज रहे हैं। कभी यह, कभी वह । लेकिन हमेशा समझा लेते हैं अपने को कि असफलता का कोई कारण है। बुद्ध का वैराग्य गहरा हुआ, क्योंकि बुद्ध ने अपने को समझाया नहीं, बल्कि सीधा देखा और पाया कि जीवन पूरी की पूरी असफलता है; इसमें कारण की कोई जरूरत नहीं है। यहां कुछ भी करो, सफलता तो हो नहीं सकती। क्योंकि यहां कुछ भी करो, सुख तो मिल नहीं सकता। यहां कुछ भी करो, कहीं पहुंचना नहीं हो सकता। स्वप्नवत है। जो सीधा देखना शुरू करेगा, उसका वैराग्य गहरा हो जाता है। और वैराग्य के बिना गहरा हुए, कोई शास्त्र सहयोगी नहीं है, कोई गुरु अर्थ का नहीं है। वैराग्य गहरा हो, तो गुरु से संबंध हो सकता है । वैराग्य गहरा हो, तो शास्त्र का अर्थ प्रकट हो सकता है। और वैराग्य गहरा हो, तो गुरु भी न हो, शास्त्र भी न हो, तो पूरा जीवन ही गुरु और शास्त्र बन जाता है। लेकिन वैराग्य को गहरा करने की तरकीबें नहीं हैं। वैराग्य को गहरा करने का एक ही मार्ग है, आपका अनुभव पूरी सचाई में | जीया जाए। जो भी अनुभव हो - सुख का हो, दुख का हो; संताप 206 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प – संसार का या मोक्ष का हो, चिंता हो, असफलता हो - जो भी अनुभव हो, उसे पूरी तरह जीया जाए, होशपूर्वक जीया जाए। वह अनुभव ही आपको बताएगा कि जीवन व्यर्थ है, छोड़ देने योग्य है। पकड़ने योग्य यहां कुछ भी नहीं है। अब हम सूत्र को लें। उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही । तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। पहली बात, इस जगत में जो भी हम देखते हैं, वह दूसरे से प्रकाशित है। आप मुझे देख रहे हैं; बिजली बुझ जाए, फिर आप मुझे नहीं देख सकेंगे। मैं आपको देख रहा हूं; बिजली बुझ जाए, फिर मैं आपको नहीं देख सकूंगा । आप हैं, लेकिन कोई और चीज चाहिए, जिसके द्वारा आप प्रकाशित हैं। दिन में दिखाई पड़ता है, रात में दिखाई नहीं पड़ता। आंख तो होती है, चीजें भी होती हैं, लेकिन सूरज नहीं होता। सभी चीजें पर - प्रकाश चाहती हैं। कोई और चाहिए, जो प्रकाशित कर सके। कृष्ण कह रहे हैं, लेकिन मेरा परम धाम वहां है, जहां न तो सूर्य के प्रकाश की कोई जरूरत है; न चंद्र के प्रकाश की कोई जरूरत है; न अग्नि की कोई जरूरत है; जहां दूसरे प्रकाश की कोई जरूरत नहीं है। मेरा परम धाम स्व-प्रकाशित है, सेल्फ इल्युमिन्ड है। यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि यह बहुत गहरा और मौलिक आधार है समस्त साधना का । और इसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है। ऐसी कौन-सी घटना है जो स्व- प्रकाशित है ? ऐसा क्या अनुभव है जो स्व-प्रकाशित है ? आप आंख बंद कर लें, तो मैं नहीं दिखाई पडूंगा। आंख बंद करके लेकिन आप तो अपने को दिखाई पड़ते ही रहेंगे। शरीर दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन स्वयं का होना तो प्रतीत होता ही रहेगा। दीया बुझ जाए, मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा। लेकिन आप अपने को तो अनुभव करते ही रहेंगे कि मैं हूं। आपके होने के लिए तो किसी और प्रकाश की जरूरत नहीं है। तो आपके होने में कोई एक तत्व चेतना का है, जो स्वयं प्रकाशित है; जिसका होना अपने आप में काफी है। यह जो चेतना की हल्की-सी झलक आपके भीतर है, यही झलक जब पूरी प्रकट हो जाती है, तो कृष्ण कहते हैं, वह परम धाम मेरा है; वही मैं हूं। उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है— न करने की कोई जरूरत है-न चंद्रमा और न अग्नि, तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। यहां कृष्ण कह रहे हैं कि जितना ही व्यक्ति चेतन होता चला | जाता है, उतना ही वह परम धाम की तरफ गति करता है। और जिस दिन परम चैतन्य प्रकट होता है, उस परम चैतन्य को प्रकाशित करने के लिए किसी की भी कोई जरूरत नहीं है; वह स्व- प्रकाशित है। और एक ही बात इस जगत में स्व- प्रकाशित है, वह स्वयं का होना है। उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। उसको असिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर आप यह भी कहें कि मैं नहीं हूं, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके कहने से सिर्फ आपका होना ही सिद्ध होता है। और अंधा आदमी भी अपने को अनुभव करता है। अंधेरे में भी आप अपने को अनुभव करते हैं। आपकी आंखें चली जाएं, आपके कान खो जाएं, आपके हाथ काट दिए जाएं, आपकी जीभ काट दी जाए, आपकी नाक नष्ट कर दी जाए, तो भी आप अपना अनुभव कर सकते हैं; तो भी आप होंगे और आपकी प्रतीति में रत्तीभर का भी फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आंखों से दूसरे देखे जाते हैं, स्वयं नहीं | कानों से दूसरे सुने जाते हैं, स्वयं नहीं । सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भीतर के होने में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। वह जो भीतर का होना है, वहां कोई प्रकाश नहीं है, फिर भी आप जानते हैं कि आप हैं। और आप कभी भीतर नहीं गए हैं अभी । अगर आप भीतर जाएं, तो आपको वहां भी प्रकाश का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। ध्यान में जो लोग भी गति किए हैं, उन सभी का अनुभव प्रकाश का अनुभव है । वे किस प्रकाश को जानते हैं? कबीर कहते हैं कि जैसे आकाश में बिजलियां चमक रही हैं, ऐसा मेरे भीतर कुछ हो रहा है। दादू कहते हैं कि जैसे हजार सूरज एक साथ उग गए हों, ऐसा मेरे भीतर कुछ उग आया है। फिर चाहे मुसलमान फकीर हों, ईसाई फकीर हों, सभी फकीरों का अनुभव | है कि जब भीतर ध्यान की गहराई उतरती है, तो परम प्रकाश के अनुभव होते हैं। वह प्रकाश न तो सूरज का है, न अग्नि का है, न चांद का है। | वह प्रकाश कहां से आता है ? वह प्रकाश कहीं से भी नहीं आता; आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं। आपका होना ही वह प्रकाश है। 207 इस प्रकाश को कह रहे हैं कृष्ण कि वह मेरा परम धाम है । और जो उस स्थिति को उपलब्ध हो जाता है, वह इस संसार में वापस Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* नहीं लौटता। वही मूल-स्रोत है, वही उदगम है। वैज्ञानिक बड़ी खोज करते हैं कि कोई ऐसा प्रकाश उपलब्ध हो और हे अर्जुन, इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है | | जाए, जो बिना ईंधन के चले। क्योंकि सब ईंधन चुकते जाते हैं, और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों | सब ईंधनों की सीमा है। कोयला खत्म होता जाता है, पेट्रोल खत्म को आकर्षण करता है। | होता जाता है। आज नहीं कल सब ईंधन चुक जाएंगे। और आदमी उस स्व-प्रकाशित ज्योति-पुंज का एक हिस्सा ही प्रत्येक देह के बिना ईंधन के जी नहीं सकता। तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई है। भीतर छिपा है। | वैज्ञानिक सोचते हैं, ईंधनरहित कोई प्रकाश...। __ इसे हम ऐसा समझें। आप आंख बंद कर लें, तो आप अपने और कृष्ण उसी प्रकाश की बात कर रहे हैं। वह प्रकाश प्रत्येक विचारों को देख सकते हैं। आंख बंद है; विचार देखे जा सकते हैं। के भीतर है। लेकिन उसे यंत्र से पैदा करने का कोई भी उपाय नहीं कौन देखता है? भीतर क्रोध उठे, कामवासना उठे, आप उसे भी है। चैतन्य उसी प्रकाश का नाम है। देख सकते हैं। कौन देखता है? वह जो देखने वाला है, उसको आप इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है-उस परम नहीं देख सकते। | प्रकाश का ही अंश है-और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित जिस-जिसको आप देख सकते हैं, वह-वह आप नहीं हैं; यह हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है। गणित है। और जो सबको देखता है, लेकिन स्वयं नहीं देखा जा और यह जो चेतना का अंश आपके भीतर है, यही आपकी पांचों सकता, वह आप हैं। वही आपका मूल उत्स है। उससे पीछे जाने | इंद्रियों को अपने में आकर्षित किए हए है. सम्हाले हए है। यह का कोई उपाय नहीं। नहीं तो उसको भी आप देख लेते। उससे | थोड़ा समझने जैसा है। क्योंकि बड़ी भ्रांति है इस संबंध में। पीछे खड़े हो जाते, उसको भी देख लेते। लेकिन उसे आप नहीं | __आमतौर से आदमी सोचते हैं कि इंद्रियों ने आपको बांधा हुआ देख सकते। है। कृष्ण कह रहे हैं कि आप ही इंद्रियों को पकड़े हुए हैं। इंद्रियां सब देख सकते हैं। शरीर देखा जा सकता है; मन के विचार देखे | | आपको क्या बांधेगी! इंद्रियां जड़ हैं, वे आपको बांधे, इसका कोई जा सकते हैं; हृदय की भावनाएं देखी जा सकती हैं; कुंडलिनी के | | उपाय नहीं है। आप बंधे हुए हैं। और यह आपका ही संकल्प है; अनुभव देखे जा सकते हैं; सब देखा जा सकता है। जो भी देखा | यह आपका ही निर्णय है। इस निर्णय की बड़ी प्रक्रिया है। जा सकता है, वह आपका स्वभाव नहीं है। देखने वाला जो है, वही __आप रूप देखना चाहते हैं। रूप देखने की जो वासना है, वह आपका स्वभाव है। वह जो द्रष्टा है, वह इररिड्यूसिबल है। उसे | आपकी आंखों को आपसे बांधे रखती है। उस वासना के रज्जु से आप दृश्य नहीं बना सकते। उसको आप विषय नहीं बना सकते। आंख बंधी रहती है। अगर आपकी देखने की इच्छा खो जाए, आप वह हमेशा विषयी है। वह हमेशा सब्जेक्ट है; वह आब्जेक्ट नहीं इसी क्षण अंधे हो जाएंगे। हो सकता। ___ मेरे पास एक युवती को लाया गया। वह अचानक अंधी हो गई। जैसे ही सारे विषय खो जाते हैं, और सिर्फ जानने वाला ही रह और चिकित्सकों ने जांच की और पाया कि उसकी आंख में कोई जाता है, और जानने को कुछ नहीं बचता, परम प्रकाश का उदय शारीरिक भूल-चूक नहीं है। आंख बिलकुल ठीक है। इसलिए होता है। यह परम प्रकाश बाहर से नहीं आता, न सूरज से, न चांद इलाज का कोई उपाय नहीं है। और चिकित्सकों ने कहा कि यह तो से; यह आपके भीतर ही छिपा है। मानसिक अंधापन है; कुछ किया नहीं जा सकता। सुरज भी चुक जाएगा। उसकी गरमी भी कम होती है। यह | किसी ने सुझाव दिया; उसके मां-बाप उस युवती को मेरे पास बिजली भी चुक जाएगी। दीया जलता है; तेल चुक जाएगा, दीया ले आए। मैंने उससे पूछा कि कैसे हुआ? क्या हुआ? क्योंकि अगर बुझ जाएगा। सिर्फ एक ज्योति है, जो कभी नहीं बुझती, क्योंकि वह | | मानसिक घटना है, तो उसका इतिहास होगा। क्योंकि मन तो अतीत बिना ईंधन के जलती है, वह चेतना की ज्योति है। कोई तेल उसे | | से काम करता है, मन तो अतीत है। तो मैंने मां-बाप को कहा कि नहीं जलाता। कोई ईंधन, कोई पेट्रोल, कोई बिजली, कोई हीलियम आप जाएं; मैं उस युवती से अलग से ही बात कर लूं। गैस उसे नहीं जलाती। इसलिए उसके समाप्त होने का कोई उपाय| उससे पूछताछ की, खोजा-बीना, तो पता चला कि पड़ोस के नहीं है। वह शाश्वत है। युवक से उसका प्रेम है। और उसके बिना वह नहीं रह सकती। 2081 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प —– संसार का या मोक्ष का लेकिन वह ब्राह्मण की लड़की है। पड़ोस में जो व्यक्ति है, वह ब्राह्मण तो है ही नहीं, हिंदू भी नहीं है। यह प्रेम चलाया नहीं जा सकता। यह विवाह हो नहीं सकता। तो सब तरफ से मां-बाप ने रोक लगा दी और दोनों के मकान के बीच छत पर एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी, जिससे कि आर-पार देखा न जा सके। जिस दिन दीवार बनी है, उसी दिन से उसकी आंखें चली गई हैं। मैंने उसको पूछा कि तेरे भीतर क्या भाव है? उसने कहा कि जिसे देखने के लिए जीती हूं, अगर उसे न देख सकूं, तो इन आंखों का कोई अर्थ नहीं है। चिकित्सक इसका इलाज न कर सकेंगे। क्योंकि इसकी देखने की इच्छा वापस लौट गई है। आंखें निर्जीव पड़ी रह गई हैं। आंखों से देखने की इच्छा का जो प्रवाह है, वही आंखों में जीवन देता है। मैंने उनके मां-बाप को कहा कि उपाय एक ही है, वह दीवार बीच से गिरा दो। और जो-जो बंधन खड़े किए हैं; वह हटा लो । या फिर यह लड़की अंधी रहेगी, इसे स्वीकार कर लो। उनको बात समझ में आ गई, जो कि बड़ा चमत्कार है। क्योंकि मां-बाप की समझ में कुछ आ जाए ! वे राजी हो गए। दीवार नहीं गिरानी पड़ी; उनके राजी होते से ही, मेरे सामने ही बैठे-बैठे उस लड़की की आंखें वापस आ गईं। फिर से देखने की इच्छा प्रवाहित हो गई। आप आंखों को पकड़े हैं, क्योंकि देखना चाहते हैं। कान को पकड़े हैं, क्योंकि सुनना चाहते हैं। हाथ को पकड़े हैं, क्योंकि छूना चाहते हैं। आपकी चाह आपकी इंद्रियों के और आपके बीच सेतु है। इसलिए बुद्ध ने कहा है कि आंखें मत फोड़ो; कान बंद करने से कुछ भी न होगा। चाह को गिरा दो, चाह को हटा दो, तो इंद्रियों से संबंध धीरे-धीरे अपने आप छूट जाता है। ध्यान रहे, आप आमतौर से यही सुनते रहे हैं कि इंद्रियों ने आपको बांधा है, इंद्रियां दुश्मन हैं। और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं कि आपने इंद्रियों को चाहा है; उनका उपयोग किया है। आपने ही उनको खींचा और आकर्षित किया है, इसलिए वे हैं। और जिस दिन आप निर्णय करेंगे, जिस दिन आपका रुख बदल जाएगा, आपकी धारा भीतर बहने लगेगी, उसी दिन इंद्रियां तिरोहित हो जाएंगी। इंद्रियों को दोष मत । दोष किसी का भी नहीं है। आपका संकल्प है। आपकी चेतना ने इस शरीर में रहना चाहा है, इसलिए शरीर में है । जिस दिन नहीं रहना चाहेगी, उसी दिन शरीर छूट जाएगा। अगर यह बात खयाल में आ जाए, तो इंद्रियों से जो दुश्मनी चलती है, वह बंद हो जाए। वह मूढ़तापूर्ण है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और वह गलत है। उसके परिणाम भयानक हैं। क्योंकि आप इंद्रियों से लड़ने में शक्ति गंवा देते हैं। और लड़ाई वहां | अर्थहीन है। लड़ाई कहीं और होनी चाहिए। लड़ाई होनी चाहिए कि मेरा इंद्रियों को पकड़ने का रुख कम हो जाए। मन सहित पांचों इंद्रियों को वही आकर्षण करता है । जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होना है, उसमें जाता है। जब आप मरते हैं, तब भी आप सूक्ष्म इंद्रियों को अपने साथ ले जाते हैं। जैसे हवा फूलों की गंध को अपने साथ ले जाती है। फूल को तो नहीं ले जा सकती; फूल तो पीछे रह जाता है, लेकिन हवा का झोंका फूल की गंध को अपने साथ ले जाता है। आपकी चेतना शरीर को तो नहीं ले जा सकती, लेकिन शरीर को पकड़ने की जो | वासना है, उसको गंध की तरह अपने साथ ले जाती है। उसी वासना के आधार पर, उसको हिंदुओं ने सूक्ष्म इंद्रियां कहा | है। आंख स्थूल इंद्रिय है; देखने की वासना सूक्ष्म इंद्रिय है। जीभ स्थूल इंद्रिय है; स्वाद की आकांक्षा सूक्ष्म इंद्रिय है। फूल तो पड़े रह जाते हैं। आप जानकर चकित होंगे कि हिंदू मरे हुए आदमी के शरीर की हड्डियां जब मरघट से उठाकर लाते हैं, तो उनको फूल कहते हैं। | बिलकुल प्यारा शब्द है। फूल पड़े रह जाते हैं, लेकिन गंध आपके साथ चली जाती है। और वह जो गंध आपके साथ चली जाती है, वह नए जन्मों की तलाश करती है । वह नए शरीर खोजती है, नए गर्भ खोजती है। और जैसी आपकी वासना होती है, वैसा गर्भ आपको उपलब्ध हो जाता है। जो आप होना चाहते हैं, जो आप होना चाहने की कामना इकट्ठी करते रहे हैं, वही संगृहीभूत हो जाती है, वही क्रिस्टलाइज हो जाती | है। नई देह का निर्माण... आप नई देह को पकड़ लेते हैं। यह तब तक चलता रहेगा, जब तक हवा गंध को ले जाती रहेगी। यह उस दिन बंद हो जाएगा, जिस दिन हवा फूल को ही नहीं छोड़ेगी, गंध को भी छोड़ देगी। हवा खाली उड़ जाएगी। बुद्ध ऐसे ही उड़ते हैं। महावीर ऐसे ही उड़ते हैं। फूल भी छोड़ 209 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * जाते हैं. गंध भी छोड जाते हैं। फिर कोई देह उपलब्ध नहीं होती. अपने साथ फिर कोई गर्भ उपलब्ध नहीं होता। फिर किसी शरीर में प्रवेश का लेकिन यह तो हमारी समझ में आ जाता है कि इस तरह कोई उपाय नहीं रह जाता। प्रवेश का उपाय आपको साथ लेकर चलना | अपने को आत्मघात करे तो पाप है, बुरा है और इसके दुष्परिणाम पड़ता है। | होंगे। लेकिन छोटी-छोटी आत्महत्याएं लोग करते हैं, वे हमारी __ और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और समझ में नहीं आती हैं। त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन | | एक आदमी आंखें बंद करके बैठ जाता है। वह एक बटे पांच सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है। आत्महत्या हुई, क्योंकि पांच इंद्रियां हैं। एक आदमी ने पांचों को फिर यात्रा शुरू हो जाती है। फिर वही भोग शुरू हो जाता है। | जला लिया, और एक आंख बंद करके बैठ गया। फूल बदल जाते हैं, गंध की यात्रा चलती रहती है। इंद्रियां बदल सूरदास की हमने कथा सुनी है। अगर सूरदास ढंग के आदमी जाती हैं, वासना की यात्रा चलती रहती है। रहे हों, तो कथा झूठी होनी चाहिए। अगर कथा सच्ची हो, तो इंद्रियों को छोड़ना नहीं है, वासनाओं को छोड़ देना है। इंद्रियां सूरदास ढंग के आदमी नहीं हो सकते। कथा है कि एक सुंदर युवती अपने से छूट जाती हैं। लेकिन हमें इंद्रियां छोड़ना आसान मालूम को देखकर उन्होंने अपनी आंखें फोड़ ली। पड़ता है। कोई भोजन छोड़ देता है; कोई भोजन में नमक छोड़ देता यह तर्क तो समझ में आता है। इस तरह के बहुत सूरदास हैं। है; कोई भोजन में घी छोड़ देता है; कोई भोजन में शक्कर छोड़ देता | लेकिन सुंदर स्त्री की जो वासना उठती है, वह सुंदर स्त्री से नहीं उठ है; कोई आंखें नीची करके चलने लगता है; कोई स्त्री के स्पर्श से | रही है, वह मेरे भीतर से उठ रही है। वह मेरी आंखों से भी नहीं उठ भयभीत हो जाता है; कोई कीमती वस्त्र का स्पर्श नहीं करता। यह | रही। आंखों से मेरे भीतर से आ रही है; आंखों से गुजर रही है। सब इंद्रियों का छोड़ना है। उस सुंदर स्त्री को शायद पता भी न हो कि कोई उसके पीछे यह वैसे ही है, जैसे कोई जीवन से ऊबा हुआ आदमी आत्महत्या | सूरदास हो गया। और इन आंखों का कोई कसूर भी न था। आंखें कर ले। और आत्महत्या से जीवन समाप्त नहीं होता: सिर्फ देह तो वहीं गई. जहां मैं ले जाना चाहता था। आंखों ने वही देखा. जो बदलती है। मरे नहीं कि नया शरीर ग्रहण हो जाएगा। और मैं देखना चाहता था। आंखों ने वही चाहा, जो मेरी चाह थी। आंखें आत्महत्या करने वाले को और भी विकृत देह के उपलब्ध होने की | मेरा अनुसरण कर रही थी। और मैंने आंखें फोड़ दीं। संभावना है। क्योंकि जिसने अपने को नष्ट करना चाहा, उसका ___ यह आत्महत्या हुई, एक बटा पांच। इस तरह की आत्महत्या चित्त विकृत अवस्था में है। और इस विकृति की छाप उसके ऊपर | करने वाले को हम साधु कहते हैं। मगर यह भी विकृति है। और इस रहेगी, आत्महत्या की। | तरह की आत्महत्या करने वाला भी दुर्गति को उपलब्ध होता है। __ आपने अपने को आग लगाकर जला लिया। तो एक क्षण में तो सवाल इंद्रियों को नष्ट करने का है ही नहीं; सवाल इंद्रियों से नहीं जल जाएंगे। जलने के पहले सोचेंगे, विचारेंगे, सब विकृति मुक्त होने का है। और इंद्रियों ने आपको नहीं बांधा है, आपने भीतर इकट्ठी होगी। फिर आग लगाएंगे। फिर तड़पेंगे। फिर उस | उनको बांधा है। इसलिए इंद्रियों का कहीं भी कोई कसूर नहीं है। तड़पती हुई आग में बचना भी चाहेंगे, और बच भी न सकेंगे। | आपका भी कोई कसूर नहीं है। अगर आप चाहते हैं यही, तो कोई पुकारेंगे, चीखेंगे, सोचेंगे कि भूल हो गई; बड़ा विषाद उत्पन्न होगा, कसूर नहीं है। पर इसे होशपूर्वक होने दें। फिर इसमें प्रसन्न हों। फिर बड़ा संताप, बड़ी पीड़ा होगी। और उस पीड़ा में मरेंगे। | वैराग्य की कामना न करें। ___ इस पीड़ा की छाप, ये कुंठित वासनाएं, ये जलती हुई आग की राग की कामना कर रहे हैं और वैराग्य के सवाल उठाते हैं, तब लपटें, सब की गंध आपके साथ चली जाएगी। गंध तो जाएगी ही, आप दुविधा में पड़ जाते हैं। दुर्गंध भी जाएगी, उत्तप्तता भी जाएगी। और नया गर्भ आप लेंगे, रोज मेरे पास लोग आते हैं, जिनका कष्ट एक ही है, राग और वह गर्भ भी विकृत, उत्तप्त होगा। उसमें भी आप अपंग पैदा होंगे, वैराग्य की दुविधा। राग तो उनके जीवन का रस है और किन्हीं अंधे पैदा होंगे, टूटे-फूटे पैदा होंगे, खंडहर की तरह पैदा होंगे। सिरफिरों की बातें सुनकर वैराग्य उनको पकड़ गया है। तो वैराग्य क्योंकि खंडहर करने की जो चेष्टा आपने की, उसका संस्कार भी उनके सिर में घूम रहा है। और राग उनकी अवस्था है। अब 2101 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प-संसार का या मोक्ष का * इन दो झंडों के नीचे उनकी यात्रा चल रही है। इससे वे बड़े कष्ट चुनाव है। और अगर इस गुलामी को भी मैंने चुना है, तो जिस क्षण में हैं और खंडित हो गए हैं, टूट गए हैं, स्प्लिट। दो आदमी हैं। मैं चाहूं, उसी क्षण तोड़ सकता हूं। यह ध्यान आते ही रुख बदल उनके भीतर। एक राग की तरफ खींचता है, एक वैराग्य की तरफ | जा सकता है। खींचता है। इसलिए एक क्षण में समाधि लग सकती है, और एक क्षण में इस संताप से कोई आत्म-उपलब्धि होने वाली नहीं है। वैराग्य | | बोध उत्पन्न हो सकता है। बुद्ध होने के लिए अनंत जन्मों की जरूरत और राग साथ-साथ नहीं जी सकते हैं। जब तक राग है, तब तक नहीं है। एक क्षण में भी घटना घट सकती है। वैराग्य को पकड़ भी नहीं सकते आप; सिर्फ सोच सकते हैं शब्दों कृष्ण यही अर्जुन को कह रहे हैं कि मेरा ही अंश तेरे भीतर है, में। शब्दों में सोचने का कोई अर्थ नहीं है; वह निष्प्राण है। सबके भीतर है। उसी अंश ने इंद्रियों को पकड़ा है। और वही अंश ___ मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में कुछ खटापटी हो गई, उन इंद्रियों की गंध को ले जाता है नई यात्राओं पर। जिस क्षण तू बोलचाल बंद हो गया, जैसा पति-पत्नी में अक्सर हो जाता है। ऐसे जान लेगा कि तेरा संकल्प ही तेरी यात्रा है, उस क्षण तू चाहे तो तो बोलचाल चलता है, तब भी बंद ही रहता है। लेकिन यात्रा रुक सकती है। और अगर तू यात्रा करना चाहे, तो कर सकता कभी-कभी बिलकुल ही बंद हो जाता है। है। लेकिन तब यात्रा खेल होगी; तब यात्रा लीला होगी। क्योंकि तू __मुल्ला की पत्नी को सुबह कहीं जाना था जल्दी, सर्दी के दिन | ही कर रहा है; कोई करवा नहीं रहा है। तेरी ही मौज है। थे। तो वह कैसे पति को कहे? और जब भी बोलचाल बंद होता। ___ इस संबंध में यह बड़ी क्रांतिकारी बात है। क्योंकि ईसाई सोचते है, तो पति को ही शुरू करना पड़ता है। पत्नी कभी शुरू नहीं | | हैं कि ईश्वर ने दंड दिया आदमी को, इसलिए संसार है। अदम ने करती। वह स्त्री का स्वभाव नहीं है, पहल करने का, इनीशिएटिव | भूल की, पाप किया, गुनाह किया, तो निष्कासित किया अदम को। लेने का। मुसलमान भी वैसा ही सोचते हैं। जैन सोचते हैं कि आदमी ने कोई तो पत्नी बड़ी मुश्किल में पड़ी। सर्दी के दिन हैं, सुबह जल्दी | पाप किया, कोई कर्म-बंध किया, उसकी वजह से भटक रहा है। उठना है। तो उसने एक कागज पर लिखकर नसरुद्दीन को दिया कि | बुद्ध भी ऐसा ही सोचते हैं। - मुल्ला, सुबह पांच बजे मुझे उठा देना। नसरुद्दीन ने चिट्ठी खीसे में हिंदुओं का सोचना बहुत अनूठा है। हिंदू चिंतना यह है कि यह रख ली। तुम्हारा संकल्प है। न तुम्हारा पाप है, न किसी ने तुम्हें दंड दिया है, सुबह जब पत्नी की नींद खुली, तो वह चकित हुई; सूरज उग | न कोई दंड देने वाला बैठा है। और पाप तुम करोगे कैसे? कभी तो चुका था और कोई आठ बज रहे थे। कुछ कह तो सकती नहीं | | तुमने शुरुआत की होगी! कभी तो पहले दिन तुमने किया होगा नसरुद्दीन से, क्योंकि बोलचाल बंद है। आस-पास देखा; एक चिट बिना किसी पिछले कर्म के! आज हो सकता है कि मैं जो कर रहा रखी थी उसके बिस्तर पर, कि देवी जी, पांच बज गए हैं, उठिए। | हूं-पिछले कर्मों के कारण; पिछले जन्म में और पिछले कर्मों के बस, आपका वैराग्य ऐसा कागजी हो सकता है। उससे आप | कारण। लेकिन प्रथम क्षण में तो बिना किसी कर्म के मैंने कुछ किया उठेंगे नहीं; सोए ही रहेंगे राग में और वैराग्य की चिट्ठियां आपके | होगा। वह मेरा संकल्प रहा होगा। वह मैंने चाहा होगा। आस-पास तैरती रहेंगी। शास्त्र से आया हुआ वैराग्य कागजी होगा। ___ अगर यह मेरी चाह से ही संसार का वृक्ष है, तो मेरी चाह से ही अपने राग को ठीक से समझें। और यह भी समझें कि यह मेरा | | समाप्त हो जा सकता है। राग संसार में उतरने का संकल्प है. संकल्प है। यह मैंने ही तय किया है, चाहे अनंत जन्मों पहले तय | वैराग्य संसार से पार होने का संकल्प है। किया हो। यह मेरा ही निर्णय है कि मैं शरीर की यात्रा पर जाता है; आज इतना ही। इस संसार के सागर में उतरता हूं; इस संसार के वृक्ष में डूबता हूं; यह मेरा निर्णय है। मैं नियंता हूं। जिस दिन मैं यह निर्णय बदलूंगा, उसी दिन धारा बदल जाएगी। कोई मुझे ले जा नहीं रहा है। यह हिंदू विचार अनूठा है। कोई मुझे ले जा नहीं रहा है, मैं मालिक हूं; इस गुलामी में भी मैं मालिक हूं। मैं जा रहा हूं, यह मेरा 211 Page #240 --------------------------------------------------------------------------  Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 चौथा प्रवचन समर्पण की छलांग Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।। १० ।। यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः । । ११ । । परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं। क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्न : किसे समर्पण करें? किसे समर्पण करना चाहिए, इसकी कैसे तसल्ली हो ? और तब तक क्या जारी रखें ? सल्ली कभी भी न होगी। क्योंकि जो मन तसल्ली मांगता है, तृप्त होना उसका स्वभाव नहीं। वह भूल-चूक खोज ही लेगा। आप बुद्ध के पास से भी गुजरे हैं, कृष्ण के पास से भी, महावीर के पास से भी। आप पहली दफा पृथ्वी पर नहीं हैं। तसल्ली कोई आपको दे नहीं पाया। अगर किसी ने भी तसल्ली दी होती, तो आप यहां होते नहीं । त भूलें आपने सब में खोज ली हैं। इसलिए नहीं कि भूलें थीं। इसलिए कि भूल खोजने में आप पारंगत हैं, कुशल हैं। जहां भूल न हो, वहां भी आप देख ले सकते हैं। फिर व्याख्या आपके ऊपर निर्भर है। तथ्य तो केवल उन्हें दिखाई पड़ते हैं, जिनका मन खो गया। आप तो तथ्य की व्याख्या करते हैं। और आपको वही दिखाई पड़ता है, 'आप देखना चाहते हैं, जो आप देख सकते हैं। एक मित्र हाईस्कूल में ड्राइंग के शिक्षक थे। किसी कारण से उनको जेल हो गई। जब वे वापस लौटे और मैं गांव गया, तो मैंने उनसे पूछा कि जेल का जीवन कैसा रहा? उन्होंने कहा, और तो सब ठीक था, लेकिन जेल की मेरी जो कोठरी थी, उसके कोने नब्बे डिग्री के नहीं थे। ड्राइंग का शिक्षक उन्हें बड़ी तकलीफ रही होगी। वे जो दीवार के कोने थे, नब्बे डिग्री के नहीं थे ! आप पर निर्भर होता है, आप क्या देखेंगे। आप पर निर्भर है, आप कैसी व्याख्या करेंगे। महावीर के पास से आप गुजरें, हो सकता है उनका नग्न खड़ा होना आपको कठिनाई में डाल दे। शायद आपको लगे कि नग्न खड़ा आदमी भला कैसे हो सकता है? भले आदमी तो सदा अपने को वस्त्र से ढांके हुए हैं। इस पर भरोसा न आएगा, तसल्ली न आएगी। जीसस के पास से आप गुजरें, और यह जीसस दावा करता है कि मैं परमात्मा का पुत्र हूं। आपके अहंकार को चोट लगेगी कि आपके अतिरिक्त और कैसे परमात्मा का पुत्र होने का दावा कर सकता है! जरूर यह धोखेबाज है, बेईमान है। और फिर जब | जीसस को सूली लगेगी, तब भी आप व्याख्या करेंगे। आप कहेंगे, न मालूम किन कर्मों का फल भोग रहा है यह आदमी ! और अगर | सच में ईश्वर का पुत्र है, तो अब सूली पर चमत्कार दिखाना चाहिए। कोई चमत्कार नहीं हुआ। मोहम्मद के पास से आप गुजरेंगे, तो भी अपनी व्याख्या ही आप करेंगे। मोहम्मद ने नौ स्त्रियों से शादी कर ली थी । तसल्ली आपको. न होगी। आप अपने को ही बेहतर समझेंगे; कम से, एक से ही निबटारा कर रहे हैं। यह आदमी नौ स्त्रियों से शादी कर लिया है। महाकामी मालूम पड़ता है! तसल्ली आपको कोई भी न दे सकेगा। कृष्ण तो आपको बिलकुल तसल्ली न दे सकेंगे। आप में से एक भी तसल्ली उनके द्वारा नहीं पा सकेगा। इतनी सखियां हैं। इतना राग-रंग है ! नाच है; युद्ध है; धोखाधड़ी है; बेईमानी है; झूठ बोलना है। सब उनमें है। अगर आप तसल्ली की तलाश में हैं, तो आपके समर्पण का कोई उपाय नहीं है। सच तो यह है कि तसल्ली की खोज समर्पण से बचने का ढंग है । जिन्हें समर्पण करना है, वे पत्थर को भी समर्पण कर सकते हैं। और समझ लेने की बात यह है कि वह आदमी समर्पण के योग्य था या नहीं, यह बात ही व्यर्थ है । आपने समर्पण किया, आपको फल मिल जाएगा। वह आदमी गलत भी रहा हो, वह आदमी ठीक न भी रहा हो, योग्य भी नहीं था कि उसके चरणों में आप झुकें। लेकिन उस आदमी का सवाल भी नहीं है। आप झुके, आप झुक 214 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण की छलांग * सके, आप बदल जाएंगे। और अगर समर्पण की तलाश स्वयं को | की पत्नी को पूछा कि क्या करना चाहिए ? साल्जमन की पत्नी ने बदलने के लिए है, तो तसल्ली की बात ही मत सोचो। कहा, मैं नहीं जानती। मैंने दिए थे, वे मुझे वापस मिल गए। तो फिर एक और बात समझ लेने की है। अगर कोई व्यक्ति सच उसने सोचा, जब वापस ही मिल जाना है, तो डरना क्या? वह में ही आपको पूरी तसल्ली दे दे, तो आपके झुकने का अर्थ क्या गुरजिएफ को दे आई। उसने कभी वापस न किए। रह जाएगा? अगर परमात्मा आपके सामने खड़ा हो और सब भांति अब यह जो गुरजिएफ है, इसे कोई प्रयोजन हीरे और जवाहरात आपको तसल्ली हो जाए, तब आपका सिर झुके, तो आपका से नहीं है; लेकिन उस मन से तो प्रयोजन है, जो पकड़ता है, छोड़ अहंकार नहीं झुक रहा है। अगर सब तरह तसल्ली ही हो गई, तो नहीं सकता। जो छोड़ सकता है, उसके वापस लौटाए जा सकते सिर को झुकना ही पड़ रहा है, इसमें गुण क्या है ? इसका मूल्य क्या | हैं। जो छोड़ नहीं सकता, उसके वापस लौटाने असंभव हैं। है? इससे कोई आत्मक्रांति घटित न होगी। __ और गुरजिएफ यहां से पैसा लेता और दूसरी जगह बांट देता। इसलिए बहुत-से संत तो इस भांति जीते हैं, ताकि आपको | एक से मांगता और दूसरे को दे देता। उसके व्यवहार से लगेगा कि तसल्ली न हो सके। उनके पूरे जीवन की व्यवस्था यह है कि पैसे पर उसकी पकड़ है। आपको तसल्ली न होने देंगे। और गुरजिएफ ने अपने शिष्यों को कहा है कि मैं सब भांति गुरजिएफ के पास एक महिला थी, अलेक्जेंड्रा डि साल्जमन। अपने में अविश्वास पैदा करवाने की कोशिश करवाता हूं। और एक बड़ी संगीतज्ञ की पत्नी थी। और गुरजिएफ की आदत थी कि | उसके बाद भी अगर कोई विश्वास कर ले, तो समर्पण है; तो जब भी कोई व्यक्ति उसके पास आए, तो पहले वह उससे कहता | उसका अहंकार उसी वक्त खो जाता है। था, सारा रुपया-पैसा, जेवर, जायदाद, जो भी हो, मुझे दे दो। कई इसलिए जिनको आप साधारणतः संत पुरुष समझते हैं, जो सब तो इसीलिए भाग जाते थे कि हम यहां धर्म की तलाश में आए, और भांति आपके मापदंड में साधु हैं, उनके पास आपके जीवन में कोई यह आदमी सारा धन, जेवर पहले मांगता है! क्रांति कभी घटित नहीं होने वाली। आप सब भांति कसौटी पर ___ यह डि साल्जमन और उसकी पत्नी बड़े भक्त थे। और जब कसकर उनको समर्पण करते हैं। समर्पण आप करते ही नहीं। गुरजिएफ ने उनसे कहा कि तुम अपना सब जेवर पहले मेरे पास क्योंकि समर्पण तो वही कर सकता है, जो जानता है, मेरी योग्यता छोड़ दो, तुम खाली हाथ हो जाओ, क्योंकि तब ही मैं तुम्हें भर | क्या कि मैं कसौटी पर कसूं! सकूँगा। तो साल्जमन, पति तो राजी हो गया। लेकिन जैसा स्त्रियों जो आपकी कसौटी पर खरा उतरा और उस पर आपने समर्पण का मन होता है, साल्जमन की पत्नी का मोह अपने कुछ | किया, तो आपने समर्पण किया ही नहीं, आपकी कसौटी जिंदा है। हीरे-जवाहरातों में था। बड़े परिवार की महिला थी। एक हीरे में तो | यह आदमी आपसे छोटा है। आपने सब भांति इसे परख लिया। उसका बहुत ही लगाव था। और आपका मन राजी हो गया कि बिलकुल ठीक; तब आपने तो उसने अपने पति को कहा कि मैं क्या करूं? उसके पति ने समर्पण किया। समर्पण की कोई क्रांति घटित नहीं होगी। कहा, तेरे लिए दो ही उपाय हैं। या तो तू सब दे दे। वह एक हीरा समर्पण की क्रांति तो तब ही घटित होती है, जब मन डांवाडोल नहीं बचाने देंगे। और या कुछ भी मत दे। लेकिन तब तू निर्णय कर | है; जब मन डरता है, जब मन भरोसा भी नहीं कर पाता है। और ले। क्योंकि मैं तो सब छोड़कर उसके चरणों में जा रहा हूं। अगर जब अहंकार सब तरह के सुझाव देता है कि भाग जाओ, हट तू गुरजिएफ को छोड़ती है, तो मुझे भी छोड़ दे। जाओ, तब भी आप साहस करते हैं और छलांग लगाते हैं। उसी उसकी पत्नी ने हिम्मत की। अपना हीरा, अपने सब जवाहरात, | छलांग में अहंकार की मृत्यु हो जाती है। पक्के भरोसे के साथ, अपने सब गहने-लाखों रुपए के थे-वे सब एक पोटली में | | तसल्ली के साथ जब आप समर्पण करते हैं, तो समर्पण झूठा है। बांधे और गुरजिएफ के चरणों में जाकर रख दिए। दूसरे दिन समर्पण है ही नहीं। वहां कोई छलांग ही नहीं है। गुरजिएफ ने बुलाया और पूरी पोटली उसे वापस कर दी। | आपने सब भांति परख कर ली कि रास्ता साफ-सुथरा है; यहां कोई पंद्रह दिन बाद एक दूसरी महिला आई और गुरजिएफ ने कोई गड्ढे नहीं हैं। और यहां कोई छलांग का खतरा नहीं है; यहां उससे भी कहा कि तू सारे अपने जेवर मुझे दे दे। उसने साल्जमन किसी खाई में गिर जाने का डर नहीं है। रास्ता है पक्का पटा हुआ, 215 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * हाई-वे है। उस पर आप चल रहे हैं। को नाराज देखकर समझेगा कि यह आदमी योग्य नहीं है। इसको वे ही संत पुरुष आपके समर्पण में सफल हो पाते हैं, आपको | अभी ज्ञान नहीं हुआ। समर्पण करवाने में, जो आपकी कसौटी पर बंधने को राजी नहीं हैं। ___ क्राइस्ट इतने नाराज हो गए कि उन्होंने अपना कोड़ा हाथ में उठा लेकिन एक बड़े मजे की घटना घटती है, कि जैसे ही वैसा संत पुरुष | लिया, और यहूदियों के मंदिर में प्रवेश कर गए। और उन्होंने चल बसता है, उसके जीवन का ढंग उसके भक्तों के लिए आगे पुरोहितों को चोट मारी और जो ब्याज लेने वाले दुकानदार वहां बैठे आने वाले दिनों में फिर कसौटी बन जाता है। थे, उनके तख्ते उलट दिए, और उनको खदेड़कर बाहर कर दिया। महावीर नग्न खड़े हैं। यह नग्नता उस वक्त अड़चन की बात जो बुद्ध को मानता है आधार, वह कहेगा, यह आदमी थी। और जिन्होंने इस नंगे आदमी को समर्पण किया, वे क्रांतिकारी | क्रांतिकारी हो सकता है; लेकिन अभी शांत नहीं हुआ है। लोग थे। उन्होंने बडी हिम्मत जटाई होगी। लेकिन उसके बाद. । लेकिन जिसने क्राइस्ट को आधार माना है और उनके प्रेम में जो महावीर की मृत्यु के बाद, उन क्रांति पुरुष, जो उनके भक्त बने थे, | जीया है और जिसने उनको समर्पण किया है, वह बुद्ध को देखकर उनके बच्चे और बेटे, उनकी कोई क्रांति नहीं है। उनको अगर आप कहेगा, यह शांति निर्जीव है; यह आदमी नपुंसक है। जहां इतनी बुद्ध के पास ले जाएं, तो वे देखते हैं और सोचते हैं कि यह आदमी कठिनाई है समाज में, वहां यह चुपचाप वृक्ष के नीचे बैठा हुआ है! कपड़े पहने हुए है, इसलिए संत नहीं हो सकता। इसलिए उनका जहां इतनी पीड़ा, इतना दुख, इतनी दरिद्रता है, वहां इसकी शांति समर्पण बुद्ध के लिए नहीं होगा। में कुछ भी क्रांति पैदा नहीं होती, तो इसकी शांति का कोई भी मूल्य इसलिए अगर जैन को आप राम के मंदिर में ले जाएं, तो सिर नहीं है। नहीं झुका सकता। क्योंकि यह कैसा भगवान, जो गहनों से सजा कैसे कसौटी खोजिएगा? क्या रास्ता है? महावीर लात मार हुआ खड़ा है! और यह कैसा भगवान, जिसकी सीता पास में है! देते हैं धन पर; जनक साम्राज्य में सिंहासन पर बैठे हैं। दोनों बुद्ध यह असंभव है। तसल्ली नहीं होती है। पुरुष हैं। इसलिए जैन राम को भगवान नहीं मान सकता है। कोई उपाय प्रत्येक बुद्ध पुरुष अनूठा है, इसलिए कोई कसौटी बनती नहीं। नहीं उसके मन में मानने का। उसकी अपनी कसौटी है। और कोई सार निचोड़ा नहीं जा सकता है कि कैसे हम नापें! और नापने कसौटी उसने महावीर से ले ली है। लेकिन महावीर खुद अत्यंत वाला कभी नहीं सोचता कि मैं कहां हूं? कैसे मैं नापूंगा? क्रांतिकारी व्यक्ति थे। और जो लोग उनसे राजी हुए थे, उन्होंने किनारे पर आप खड़े हैं, और हिंद महासागर की गहराई को समर्पण किया था। नापने की कोशिश कर रहे हैं! उस गहराई में उतरना पड़ेगा। जमीन इसलिए हर बुद्ध पुरुष के पास समर्पित लोग इकट्ठे होते हैं, पर आप बैठे हैं, और एवरेस्ट की ऊंचाई नापने की कोशिश कर लेकिन उसकी मृत्यु के बाद परंपरा बन जाती है, लीक बन जाती| | रहे हैं। उस ऊंचाई पर चढ़ना पड़ेगा। है। फिर लीक से लोग चलते चले जाते हैं। फिर सबके पास अपनी | | बुद्ध हुए बिना बुद्धों को पहचानने का कोई उपाय नहीं। तसल्ली धारणाएं, मापदंड होते हैं। | कैसे होगी? तसल्ली कभी किसी को नहीं हुई है। अगर आप आपका कोई मापदंड होगा, इसलिए पूछते हैं, तसल्ली कैसे | तसल्ली के लिए रुके हैं, तो सदा ही रुके रहेंगे। करें? क्या है आपके पास मापदंड? कोई यंत्र नहीं है, जिससे जाना हिम्मत करें। और जहां थोड़ा-सा भी आकर्षण मालूम होता हो, जा सके कि कौन व्यक्ति जाग गया, कौन प्रबुद्ध हुआ, किसका मत रुकें कि जब सौ प्रतिशत तसल्ली होगी, तब छलांग लेंगे। वैसा ज्ञान प्रज्वलित हुआ। कौन हो गया कृष्ण, कौन हो गया क्राइस्ट, | कभी भी नहीं होगा। तो जहां मन आकर्षित होता हो और जिस व्यक्ति कोई जांचने का उपाय नहीं है, कोई व्यवहार की कसौटी नहीं है। के द्वार से आपको किसी अज्ञात की हवा का हलका-सा झोंका भी क्योंकि दुनिया में सैकड़ों बुद्ध पुरुष हुए हैं, सबका व्यवहार लगता हो; जिसकी उपस्थिति में आपके भीतर ऊंचाइयों के द्वार अलग-अलग है: सबकी निजता है, सबका व्यक्तित्व है। खलते हों: नए स्वप्न जगते हों. जिसकी मौजदगी आपको बदलती हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध नाराज हों। लेकिन क्राइस्ट हो; जिसके पास स्वाद आता हो किसी अनजान, अज्ञात का; वहां नाराज होते हैं। तो जिसने बुद्ध को कसौटी मान लिया, वह क्राइस्ट | साहस करें और तसल्ली की फिक्र मत करें। गणित मत बिठाएं। 216 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण की छलांग * यह काम जोखम का है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि खूटी है; कोट टांगा जा सकता है। कोट टंग जाएगा। कोट होना दुकानदार धर्म में असफल रहते हैं, जुआरी जीत जाते हैं। यह काम चाहिए टांगने को आपके पास। कोई हिसाब-किताब का नहीं है कि आप पूरा पक्का पता लगा लेंगे समर्पण चाहिए, तैयारी चाहिए अपने को खोने और मिटाने की, कि एक रुपया लगा रहे हैं, तो कितनी बचत होगी? कि नहीं होगी? | तो कोई भी गुरु काम दे देगा। यह दांव है। इसमें सब खो सकता है, सब मिल सकता है। इसमें । मगर यह जो सवाल है, यह सबके मन में उठता है, कि जब तक छोटे हिसाब से नहीं चलेगा। तसल्ली न हो...। तो आप भटकेंगे। तसल्ली कभी भी न होगी। और जिंदगी बड़ी बेबूझ है; गणित की तरह नहीं है, पहेली की यह मन ऐसा है कि तसल्ली होने ही नहीं देगा। मन की सारी प्रक्रिया तरह है। यह पहेली की तरह जो जिंदगी है, इसमें अगर आप बहुत अविश्वास पैदा करवाने की है। इसे समझ लें। हिसाबी-किताबी हैं, तो धर्म आपके लिए नहीं है, फिर व्यवसाय मन का ढांचा संदेह जन्माने का है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, आपके लिए है। ऐसे मन में संदेह लगते हैं। तो मन में कभी श्रद्धा तो लगती ही नहीं; यह बिलकुल जोखम का काम है। यहां कोई पक्की गारंटी नहीं वह उस वृक्ष के बीज में ही नहीं है। कोई व्यक्ति मन के द्वारा श्रद्धा है कि आप किसी को समर्पण करेंगे, तो वह योग्य होगा ही। भूल को उपलब्ध नहीं होता; मन के द्वारा सिर्फ संदेह को उपलब्ध होता हो सकती है। पर भूल से कोई खतरा नहीं है। क्योंकि समझने की है। मन यानी संदेह। बात यह है, जिसको आप समर्पण करते हैं, उसकी योग्यता से तो जिस मन से आप खोजने जाएंगे, उसमें आपको संदेह मिलते क्रांति घटित नहीं होती; समर्पण से क्रांति घटित होती है। चले जाएंगे। और जब संदेह आपको मिलेगा, तो कैसे समर्पण कर __इसलिए एक वृक्ष के नीचे रखे हुए पत्थर को आप समर्पण कर । सकते हैं? समर्पण तो वे ही लोग कर सकते हैं, जो अपने मन से दें और क्रांति घटित हो जाएगी। असली सवाल आपके झुकने, थक गए हैं। अपने को मिटाने का है। किसके बहाने मिटाया, यह बात गौण है। । तसल्ली के कारण नहीं किसी पर, अपने मन पर जिनकी श्रद्धा और मैं आपसे कहता हूं, ऐसा अक्सर हुआ है कि अज्ञानी गुरुओं उठ गई है; जो अपने मन से ऊब गए हैं और परेशान हो गए हैं; के पास भी कई बार शिष्य ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। | और जिन्होंने मन के सब रास्ते टटोल लिए हैं; मन के साथ सब यह बिलकुल उलटा लगेगा, क्योंकि यह गणित नहीं समझ में | मार्गों पर चलकर देख लिया है; मन की सब बातें मान ली और फिर आएगा। जब तक गुरु ज्ञानी न हो, तब तक कैसे शिष्य ज्ञान को भी कहीं कोई आनंद नहीं पाया; जो अपने मन से ऊब गए हैं, जो उपलब्ध हो सकता है? ज्ञानी गुरुओं के पास भी शिष्य वर्षों रहे हैं | अपने मन से विषाद से भर गए; वे लोग समर्पण करते हैं। और अज्ञानी रहे हैं! मन को छोड़ना समर्पण है। क्योंकि मन को छोड़ा कि श्रद्धा का . इसलिए मैं कहता हूँ; जीवन पहेली जैसा है। क्योंकि ज्ञानी गरु जन्म हुआ। जहां आपको कल संदेह दिखाई पड़ते थे, वहीं श्रद्धा के पास भी आप बैठे रहें बिना समर्पित, तो ज्ञानी गुरु कुछ भी नहीं | दिखाई पड़ने लगेगी। जहां कल आपको तसल्ली पैदा नहीं होती कर सकता। उसकी आंखें आपके काम नहीं आ सकतीं, और न थी, वहां अचानक तसल्ली हो जाएगी, ट्रस्ट हो जाएगा। एक गहरा उसका हृदय आपके लिए धड़क सकता है, न उसकी अनुभूति भाव पैदा हो जाएगा और आप मार्ग पर चलना शुरू कर देंगे। आपकी अनुभूति बन सकती है। और अज्ञानी गुरु भी कभी काम कौन मांगता है तसल्ली? आप! अगर आप कहीं पहुंच गए हैं, आ सकता है, अगर आप समर्पण कर दें। क्योंकि समर्पण करना | | तो तसल्ली की कोई जरूरत नहीं, समर्पण की कोई जरूरत नहीं। ही घटना है, गुरु तो सिर्फ बहाना है। अगर कहीं नहीं पहुंचे हैं...। जैसे आप कमरे में आते हैं; कोट निकालते हैं; खूटी पर टांग | तो धार्मिक व्यक्ति और अधार्मिक व्यक्ति में एक ही फर्क है। देते हैं। खूटी तो सिर्फ बहाना है। कोई भी खूटी काम दे जाएगी। | अधार्मिक व्यक्ति सब पर संदेह करता है, अपने को छोड़कर। और लाल रंग की है, कि हरे रंग की है, कि पीले रंग की है, कि बेरंग | धार्मिक व्यक्ति अपने पर संदेह करता है, सब को छोड़कर। की है; कि छोटी है, कि बड़ी है; कि लकड़ी की है, कि लोहे की, जो अपने पर संदेह करता है, उसको गुरु जल्दी मिल जाएगा, है, कि सोने की है; इसकी तसल्ली करने की बहुत जरूरत नहीं। क्योंकि वह तसल्ली कर सकता है। जो दूसरे पर संदेह करता है, 217] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उसे गुरु कभी भी नहीं मिल सकता। क्योंकि वह कहीं भी जाए, वह कुछ करना चाहता है। उसको बिठा देना कष्टपूर्ण है। उसको अपने पर उसका भरोसा है, जिसने कहीं भी नहीं पहुंचाया है। | बिठाने का एक ही उपाय है कि पहले उससे कहो कि घर के दस मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन बहुत नाराज था; चक्कर लगा। और जितनी तेजी से बन सके, उतनी तेजी से लगा। उछल-कूद रहा था, क्रोध में आगबबूला हो रहा था। उसके मित्र और जब वह थक जाए और हाथ-पैर जोड़ने लगे कि अब मैं नहीं पंडित रामचरणदास उसके पास बैठे थे। वे उससे पूछ रहे थे कि | दौड़ सकता; अब बस! तब उससे कहो कि बैठ जा। ।। नाराजगी क्या है? तो वह कह रहा था, मेरी पत्नी ने मुझे धोखा | इस मन को पहले दौड़ा लें। यह आधा-आधा दौड़ा हुआ होगा, दिया! बेईमान है, दुश्चरित्र है। घर से निकाल देने योग्य है। | तो यह कहीं रुकने न देगा। जहां भी आप जाएंगे, यह आपके लिए तो उसके मित्र ने पूछा कि आखिर क्या तुम्हारे पास प्रमाण है ? | | दौड़ के लिए कारण खोज लेगा। इसे दौड़ा ही लें अच्छी तरह। किस आधार पर कहते हो कि पत्नी दुश्चरित्र है? किस आधार पर | जितना संदेह करना है, संदेह कर लें। जितने तर्क करने हैं, तर्क इतने नाराज और पागल हुए जा रहे हो? कर लें। जितना विचार करना है, विचार कर लें। कुनकुने नहीं, नसरुद्दीन ने कहा, मेरे पास प्रमाण है। कल पूरी रात वह घर से | पूरे उबल जाएं। भाप बनने दें इसे। बड़ा कष्ट होगा; नर्क हो गायब रही। और सुबह जब आई और मैंने पूछा, तो उसने मुझे जाएगा खड़ा। धोखा दिया है। वह कहती है कि मैं अपनी सहेली तारा के घर पर यही अड़चन है। न तो समर्पण करते हैं कि सब शांत हो जाए; रात रुक गई। यह बात सरासर झठ है। तो पंडित रामचरणदास ने। और न उबलते हैं पूरे कि सब तरह से भाप पैदा हो जाए। कुछ भी पूछा कि इसका तुम्हारे पास प्रमाण है कोई? तो उसने कहा, पूरा नहीं करते। बीच में कुनकुनाते रहते हैं। यह जो कुनकुनापन है, यह प्रमाण है। क्योंकि तारा के घर तो रातभर मैं रुका था। आदमी मन पूरे समय दूसरे पर संदेह कर रहा है। मन अपने पर लौटता संदेह ही करना है, तो पूरा कर लें। पूरा संदेह भी श्रद्धा पर ले ही नहीं। | जाएगा। नर्क से गुजरना पड़ेगा। बड़ी पीड़ा होगी। लेकिन उस पीड़ा तो अगर आप इस मन को लेकर खोजने चले हैं, तो गुरु से से गुजरकर एक बात हाथ में आ जाएगी कि यह मन सिवाय दुख आपका मिलना कभी भी नहीं हो सकता। अगर इस मन से थक के और कहीं भी नहीं ले जाता है। यह द्वार है दुख का। यह प्रतीप्ति गए हैं या न थके हों, तो और थोड़ी मेहनत करें, और थक जाएं। हो जाएगी, तो आप इस मन के द्वारा तसल्ली नहीं खोजेंगे। आप जब थक जाएं, तो गुरु से मिलना हो जाएगा। इस मन को हटा देंगे और सीधा संपर्क साधेगे। फिर समर्पण और गुरु को खोजने कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। गुरु आसान है। हो सकता है आपके घर में मौजूद हो। लेकिन आपका मन उससे जब तक समर्पण न होता हो, तसल्ली खोजने का मन जारी रहता संबंध न जुड़ने देगा। हो, तब तक इसका दुख पूरी तरह भोगें। और धीमे-धीमे नहीं। आपका मन हट जाए, तो आंखें साफ हो जाएंगी, खोज सरल होमियोपैथी के डोज मत लें। पूरा जहर इकट्ठा पी लें। या इस पार हो जाएगी। और शायद आपको खोजने भी न जाना पड़े। वह | या उस पार। दो में से कहीं भी पार हो जाएं। बीच में मत उलझे रहें। व्यक्ति आपको खोजता आ जाए। लेकिन तसल्ली की खोज वाला तो मैं यहां देखता हूं, अनेक लोग थोड़ी तसल्ली भी करते हैं, मन कभी भी नहीं खोज पाता है। थोड़ी नहीं भी करते हैं। यह उनकी स्थिति है; नपुंसकता की स्थिति और पूछा है, तब तक क्या करें? है। इससे इंपोटेंस पैदा होती है। इससे कहीं जा नहीं सकते। मेरे पास तब तक इस मन के दुख जितने भोग सकें, भोगें। कोई और कोई आता है और वह कहता है कि थोड़ा आप पर विश्वास आता उपाय नहीं है। और जहां-जहां यह मन ले जाए और भटकाए, है, थोड़ा नहीं भी आता। भटकें। इस मन से पूरी तरह थक जाना है। थक जाएं। | मैं कहता हूं, दो में से तू कुछ भी चुन। यह थोड़ा विश्वास भी यह मन उसी तरह का है, जैसे एक छोटे बच्चे को कहें कि बैठ छोड़ दे, तो मुझसे छुटकारा हो। इस थोड़े विश्वास की वजह से तू जाओ एक कोने में; शांत बैठो; हिलो-डुलो मत! तो बड़ी मुश्किल मेरे से दूर भी नहीं जा सकता। अकारण समय खराब कर रहा है। में हो जाता है बच्चा। क्योंकि सब शक्ति उसकी ऊर्जा भागती है। और थोड़ा अविश्वास है, उसकी वजह से मेरे पास भी नहीं आ 218 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण की छलांग * सकता। थोड़ा अविश्वास है, तो मुझसे संबंध भी नहीं बनता। और गलत निर्णय भी बल देता है। कुछ तो तय हुआ। उस तय होने के थोड़ा विश्वास है, तो मुझसे संबंध टूटता भी नहीं। यह बड़ी दुविधा साथ आपके भीतर इंटीग्रेशन पैदा होता है, अखंडता आती है। की स्थिति है। मझसे संबंध टे, तो किसी और से बन सके। हो | | लेकिन अनिर्णय, कुछ भी तय नहीं, इनडिसीसिवनेस, तो आप सकता है, कहीं और विश्वास घटित हो जाए। वहां भी जाना नहीं धीरे-धीरे भीतर बिखर जाते हैं। भीतर आत्मा संगृहीत नहीं हो पाती; हो पाता, क्योंकि थोड़ा विश्वास यहां है। खंड-खंड हो जाती है। यह खंडित स्थिति छोड़ें। यह ऐसी हालत है, जैसे किसी वृक्ष की हम आधी जड़ें बाहर तो जब तक, पहली तो बात, तसल्ली की खोज बंद कर दें। न निकाल लें और आधी जमीन में रहने दें। तो न तो वृक्ष में फूल लगें, । बंद कर सकते हों, तो खोज को पूरा करें। समर्पण कर दें। न न फल आएं, न पत्तों में हरियाली रहे और न वृक्ष मरे। समर्पण होता हो, तो असमर्पण का पूरा दुख भोग लें। मध्य में मत कभी आप अस्पतालों में जाएं; हिंदुस्तान के अस्पतालों में भी | | रहें। मध्य से कोई कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है। छलांग अब वैसी हालत आती जाती है। यूरोप और अमेरिका में तो बहुत | केवल अति से ही लग सकती है। है। लोग सौ वर्ष के हो गए हैं, सवा सौ वर्ष के हो गए हैं; और लटके हैं अस्पतालों में। उनको मरने नहीं दिया जाता और जीने का उनका कोई उपाय नहीं रहा है। तो किसी को आक्सीजन दी जा रही | दूसरा प्रश्नः दूसरों के अनुभव काम नहीं आते, ऐसा है; किसी के हाथ-पैर उलटे बांधे हुए हैं; उनको दवाइयां पिलाई | आपने कहा। फिर आप जैसे पुरुषों के बोलने में जाती हैं। सार्थकता क्या है कि जिसके लिए लोक प्रार्थना वे मुरदा जिंदा हैं। न तो मर सकते हैं, क्योंकि ये डाक्टर मरने न | करता है? देंगे। और न जी सकते हैं, क्योंकि डाक्टरों के हाथ के बाहर है उनको जीवन देना। जीवन उनके भीतर से बह चुका है। पर मौत को भी नहीं आने दिया जा रहा है। न सरों के अनुभव काम नहीं आते, इसका अर्थ है कि इस अधूरी अवस्था में लटके लोग पश्चिम में आवाज उठा रहे ५ दूसरों के अनुभव आपके अनुभव नहीं बन सकते हैं, हैं अथनासिया की। वे कहते हैं कि हमें मरने का हक होना चाहिए। दूसरे की प्रतीति आपकी प्रतीति नहीं बन सकती है। और जब हम लिखकर दे दें कि हम मरना चाहते हैं, तो हमें बचाने | लेकिन दूसरे का संपर्क संक्रामक हो सकता है। दूसरे की सन्निधि की कोशिश बंद हो जानी चाहिए। लेकिन अभी तक कोई राज्य | संक्रामक हो सकती है। अगर आप दूसरे के प्रति खुले हों, तो जैसे इतनी हिम्मत नहीं कर पाता कि मरने का हक दे। बीमारियां पकड़ सकती हैं आपको, वैसे ही स्वास्थ्य भी पकड़ . डाक्टर भी जानते हैं कि यह आदमी मर जाए तो अच्छा। लेकिन | सकता है। फिर भी उसे दवाइयां दिए जाते हैं जिंदा रखने के लिए; क्योंकि अनुभव दूसरे के काम नहीं आते। अगर आप कृष्ण के पास हों, उनको उनके अंतःकरण की पीड़ा है। अगर हम दवा न दें और यह | तो कृष्ण के अनुभव आपके अनुभव नहीं बन सकते। लेकिन कृष्ण आदमी मरे, तो उनको जिंदगीभर लगेगा कि हमने मारा। की मौजूदगी में अगर आप समर्पित हों, तो आपके अपने जीवन का जो व्यक्ति थोड़ा-सा विश्वास करता है और थोड़ा-सा | | विकास शुरू हो जाता है। उस विकास में कभी अनुभव घटित अविश्वास, वह अस्पतालों में लटके हुए इन व्यक्तियों की भांति | | होंगे। वे अनुभव कोई दूसरा आपको नहीं दे सकता, लेकिन दूसरे हो जाता है; न जी सकता है, न मर सकता है; न दूर जा सकता है, | की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम कर सकती है। उससे न पास आ सकता है। स्फुरणा हो सकती है। वह प्रेरणा बन सकती है। उससे धक्का लग तो या तो छलांग लगा लें; या समझें कि यह खाई आपके लिए सकता है। नहीं है। कहीं और कोई खाई होगी। तो इस खाई से हट जाएं। लेकिन उसके लिए जरूरी है कि आप खुले हों। आपका हृदय निर्णायक होने की जरूरत है। अपना निर्णय लेने की जरूरत है। बंद न हो; आपके मस्तिष्क पक्षपात से न घिरे हों। आप राजी हों गलत निर्णय भी बुरा नहीं है; लेकिन अनिर्णय बुरा है। क्योंकि अनजान में जाने के लिए, अपरिचित में उतरने के लिए; जिसको 219 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* आपने कभी नहीं जाना है, उस रास्ते पर किसी के पीछे चलने के | जाना, खोजना, आकाश की तलाश ही बंद कर देंगे। यहीं बैठे सब लिए। अनहोना घटित हो सकता है। अनचाहा घटित हो सकता है। मिल गया। उस जोखम को उठाने की तैयारी भीतर हो। लेकिन मैं यहां आपके भीतर प्यास जगा सकता हूं, अनुभव नहीं इसीलिए तो हम अपने को बंद रखते हैं कि कहीं कोई जोखम न दे सकता। या मेरी मौजूदगी को अगर आप देखें, तो प्यास जग हो जाए। सकती है। और अगर मेरे साथ दो कदम चलने को राजी हों, तो एक मित्र मेरे पास आए। और उन्होंने मुझे कहा कि मैं शिविर में बाहर भी पहुंच सकते हैं। फिर जो आप देखेंगे, वह आपका ही आने से डरता हूं कि कहीं कुछ सच में ही हो न जाए। बच्चे हैं, पत्नी अनुभव होगा। है, घर-द्वार है। और अभी इन सबको बड़ा करना है, सम्हालना है। अनुभव निजी है और कभी भी हस्तांतरित नहीं हो सकता। अभी संसार का दायित्व है, उसे पूरा निभाना है। डर लगता है कि | इसलिए मैंने कहा कि अनुभव, दूसरे के अनुभव काम नहीं आते कहीं जाएं और कहीं कुछ हो ही न जाए! हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आप दूसरों से सीख नहीं उनका डर ऐसे स्वाभाविक है। और ठीक भी है। मगर इस डर सकते हैं। अनुभव नहीं सीख सकते, लेकिन कैसे वे अनुभव तक के कारण वे बंद हैं। तो मैंने उनसे कहा, मेरे पास भी क्यों आए हो? पहुंचे, वे सारी विधियां, वे सारे मार्ग आप सीख सकते हैं। क्योंकि आना फिजूल है। यहां भी डर तो भीतर होगा ही। उस डर | इसलिए बुद्ध पुरुष सिद्धांत नहीं देते, केवल विधियां देते हैं। की आड़ से अगर तुम मुझसे मिलोगे, तो मिलन हो ही न पाएगा। | निष्पत्ति नहीं देते, केवल मार्ग देते हैं। क्या होगा वहां पहुंचकर, यह वह डर भीतर बैठा है, कहीं कुछ हो न जाए। तो जब डर चला जाए, नहीं बताते; कैसे वहां पहुंच सकोगे, इतना ही बताते हैं। तब ही आना। बुद्ध ने कहा है, मैं मार्ग बताता हूं; चलना तुम्हें है, पहुंचना तुम्हें और जल्दी कुछ भी नहीं है। समय अनंत है। और इतने जन्म | है, जानना तुम्हें है। मैं सिर्फ मार्ग बता सकता हूं। आपके हुए हैं; और इतने ही जन्म हो जाएंगे; कोई जल्दी नहीं है। ___ जो उस मार्ग से गुजरे हैं, उस मार्ग की खबर आपको दे सकते मगर डर की दीवार अगर भीतर हो, तो फिर आप किसी के भी पास | हैं। उनके अनुभव काम नहीं आते, लेकिन उनकी मौजूदगी, उनका जाएं, जाने से कुछ न होगा। अकेली पार्थिव मौजूदगी कुछ भी नहीं | व्यक्तित्व, उनका प्रकाश, उनका मौन, अगर आप खुले हों, तो है। मेरा जो अनभव है, वह मैं आपको दे नहीं सकता। संक्रामक हो जाता है। जैसे मलेरिया पकड़ता है, वैसे ही बद्धत्व भी लेकिन अगर आप खुले हों, अगर आप मेरे साथ बहने को राजी पकड़ता है। हों, तो आपके अनुभव घटने शुरू हो जाएंगे। वे आपके ही होंगे। लेकिन मलेरिया के लिए हम खुले होते हैं, तैयार होते हैं। अभी लेकिन मैं आपका हाथ पकड़कर कहीं ले चलूं, कहूं कि आओ यहां एक आदमी खांस दे, दस-पंद्रह आदमी खांसेंगे। उसके लिए मकान के बाहर सूरज निकला है, और फूल खिले हैं, और हम तैयार हैं। रोग के लिए हम तैयार हैं! लेकिन अभी यहां एक आकाश में बड़ी रंगीनी है! तो मैं आपका हाथ पकड़कर बाहर ले आदमी शांत हो जाए, तो दस-पंद्रह आदमी शांत नहीं हो जाएंगे। जा सकता हूं, लेकिन जब आप आंख खोलेंगे और सूरज को दुख के प्रति हम संवेदनशील हैं। आनंद के प्रति ऐसी ही देखेंगे, तो वह अनुभव आपका ही होगा, वह मैं आपको नहीं दे संवेदनशीलता का नाम समर्पण है। सकता। इस कमरे में बैठा हुआ मैं आपको वह अनुभव नहीं दे सकता। मैंने कितना ही सूरज देखा हो, और कितने ही फूल खिले देखे हों, और कितना ही आकाश रंगीन हो, यहां बैठकर मैं आप | तीसरा प्रश्नः इस विराट विश्व के संदर्भ में अपनी से आकाश की बात कर सकता हूं, सूरज की बात कर सकता हूं, तुच्छता का बोध आदमी में हीनता की ग्रंथि को लेकिन अनुभव नहीं दे सकता। मजबूत बनाकर उसे पंगु बना सकता है। और शब्द अनुभव नहीं हैं। और अगर आप मेरे शब्दों से राजी हो हीनता-भाव निरअहंकारिता नहीं है। कृपया बताएं कि जाएं, तो मैं आपका दुश्मन हूं। क्योंकि आप समझ लें कि शब्द हीनता से बचकर अहंकार-विसर्जन के लिए क्या सूरज सूरज है, आकाश शब्द आकाश है, तो फिर आप बाहर । किया जाए? 220 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण की छलांग * 11 हली बात, हीनता की ग्रंथि, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स | - पूरब की स्त्रियों ने इतनी फिक्र नहीं की ऊंची एड़ी के जूतों की। - अहंकार का ही हिस्सा है। अहंकार के कारण ही हमें | क्योंकि उनमें अभी भी पुरुष के साथ बहुत प्रतिस्पर्धा नहीं है। हीनता मालूम होती है। | लेकिन पश्चिम में भारी प्रतिस्पर्धा है। यह जरा कठिन लगेगा। अगर आप में अहंकार न हो, तो आप | __दूसरा बड़ा है, उससे कष्ट शुरू होता है। लेकिन कष्ट की क्या में हीनता हो ही नहीं सकती। हीनता इसलिए मालूम होती है कि बात है! आप छः फीट के हैं, में पांच फीट का हूं। न तो एक फीट आप समझते तो अपने को बहुत बड़ा हैं और उतने बड़े आप अपने | बड़े होने से कोई बड़ा होता है, न एक फीट छोटे होने से कोई छोटा को पाते नहीं। जितना बड़ा आप अपने को समझते हैं, उतना बड़ा | होता है। कि आप बहुत अच्छा गा सकते हैं, मैं नहीं गा सकता हूं। पाते नहीं हैं। वास्तविक जगत में आप पाते हैं, छोटे हैं। उससे | तो अड़चन कहां खड़ी होती है! हीनता पैदा होती है। यह सब मुझमें भी होना चाहिए। यह मेरा अहंकार मान नहीं अहंकार जितना बड़ा होगा, उतनी ज्यादा हीनता मालूम होगी। | सकता कि कुछ है, जो मुझमें कम है। फिर जीवन में अनुभव होता अहंकार जितना कम होगा, हीनता उतनी ही कम होगी। अहंकार है, बहुत कम है। तो हीनता आती है, आत्म-अविश्वास आता है। नहीं होगा, हीनता खो जाएगी। हीनता और अहंकार एक ही सिक्के | फिर इससे दूर होने के लिए हम उपाय करते हैं और एड़ियों वाले के दो पहलू हैं। | जूते पहनते हैं; उनसे और कष्ट पैदा होता है; और सारा जीवन इसलिए जो आदमी विनम्र है, वह हीन नहीं होता। उसको हीनता विकृत हो जाता है। पकड़ ही नहीं सकती। जो आदमी दंभी है, उसको ही हीनता ___ इन सारे रोगों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, आप जैसे हैं, पकड़ती है। | वैसे अपने को स्वीकार करें। आपके पास दो आंखें हैं, तो आपने मेरे पास न मालूम कितनी बार तरह-तरह के लोग आते हैं। कोई | | स्वीकार किया। आंखों का रंग काला है या हरा है, तो आपने आकर कहता है कि मेरा आत्म-विश्वास ज्यादा कैसे हो? मुझमें | स्वीकार किया। किसी की नाक लंबी है, किसी की छोटी है, तो बड़ा आत्म-अविश्वास है, कोई आकर कहता है। कोई कहता है | उसने स्वीकार किया। ये तथ्य हैं; उन्हें स्वीकार कर लें कि ऐसा मैं कि मुझमें हीनता की ग्रंथि है, तो यह कैसे मिटे? ठीक बीमारी को | हूं। और जो मैं हं, इस मेरी स्थिति से क्या उपलब्धि हो सकती है, नहीं पकड़ पा रहे हैं वे, केवल लक्षण को पकड़ रहे हैं। उसकी चेष्टा, उस पर सृजनात्मक श्रम। अगर आत्म-अविश्वास है, तो इसे स्वीकार कर लें कि यह मेरा लेकिन दूसरे से स्पर्धा हो, तो आप पागल हो जाएंगे। और हिस्सा हुआ। जैसे आपकी छः फीट ऊंचाई है या पांच फीट ऊंचाई करीब-करीब सारे लोग पागल हो गए हैं। स्पर्धा विक्षिप्तता लाती है, तो आप क्या करते हैं? स्वीकार कर लेते हैं कि मैं पांच फीट है। और ऐसा तो कभी भी नहीं होगा...। .ऊंचा हूं ऐसी हालत है करीब-करीब। मैं एक यात्रा पर था। एक मेरे मित्र लेकिन आप सोचते हैं कि छः फीट होना था। कोई दूसरा छः फीट | | खुद ही ड्राइव कर रहे थे। तो जैसे ही कोई गाड़ी उनको आगे दिखाई है। तो फिर हीनता शुरू हुई। एक फीट आप कम हैं; अब इसको | पड़ती रोड पर, वे अपनी गाड़ी तेज कर देते। कोई गाड़ी उनसे आगे किसी तरह पूरा करना जरूरी है। तब आप पंजे के बल खड़े होकर | कैसे हो सकती है। मैं थोड़ी देर तो देखता रहा कि जैसे ही उनको चलना शुरू करेंगे। उससे कष्ट पाएंगे; उससे बड़ी पीड़ा होगी। गाड़ी दिखाई पड़ती कोई आगे कि वे पगला जाते। वे गाड़ी तेज सारी दुनिया में स्त्रियां बड़ी एड़ी का जूता पहनती हैं। वह सिर्फ | करके जब तक उसको पीछे न कर दें, तब तक उनको बेचैनी रहती। पुरुष की ऊंचाई पाने की चेष्टा है। उससे बड़ा कष्ट होता है, मैंने उनसे पूछा कि क्या तुम सोचते हो इस रास्ते पर कभी ऐसी क्योंकि चलने में वह आरामदेह नहीं है। जितनी ऊंची एड़ी हो, | हालत आएगी कि आगे कोई गाड़ी न हो? तुम पगला जाओगे। उतनी ही कष्टपूर्ण हो जाएगी। लेकिन फिर धीरे-धीरे उसी कष्ट की | रास्ते पर कोई न कोई गाड़ी आगे होगी ही। आदत हो जाती है। फिर हड्डियां वैसी ही जकड़ जाती हैं; फिर सीधे तुम अपनी रफ्तार से चलो। तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचना है, पैर से जमीन पर चलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन स्त्री के मन उसके हिसाब से चलो। मगर कोई भी गाड़ी आगे हो, तो उसे पार में थोड़ा-सा संकोच है। पुरुष से थोड़ी उसकी ऊंचाई कम है। करने की क्या तकलीफ है? [22]] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * कोई बहुत गहरी हीनता की ग्रंथि होगी कि मैं किसी दूसरे से पीछे | उसका हाथ पहुंच गया और मेरा नहीं पहुंचा। कैसे रह सकता हूं! और ऐसा जीवन के रास्ते पर भी यही है। आप | आप थोड़ा सोचें, नेपोलियन की जगह आप भी होते, तो ऐसी इसकी फिक्र में नहीं होते कि आपको कहां जाना है। इसकी भी कोई | | ही पीड़ा होती। रोज यही पीड़ा हो रही है। चिंता नहीं कि कहीं पहुंचना है। लेकिन कोई आपके आगे न हो! __ हीनता अनुभव होने लगती है, क्योंकि बड़ा अहंकार है। अगर वह चाहे नरक जा रहा हो, तो भी आपको उसको पीछे करना है! | | नेपोलियन स्वीकार करता कि मैं पांच फीट का हूं: ठीक है। और मैंने सुना है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक ओपेनहेमर यह छः फीट का है। तो इसका हाथ पहुंचेगा, मेरा नहीं पहुंचा। यह अमेरिकी प्रेसिडेंट को सलाह दिया कि जल्दी करें, क्योंकि रूसी चांद | | तथ्य की बात है; इसमें अड़चन क्या है? और हाथ पहुंच जाने से पर पहुंचने में हमसे आगे हैं। शुरू में वे थे भी। तो ओपेनहेमर ने | | कौन-सी ऊंचाई सिद्ध हो गई? तब फिर कोई हीनता नहीं है। कहा अमेरिका के प्रेसिडेंट को कि हम जल्दी करें, नहीं तो वे चांद | । और जब हम निरंतर जोर देते हैं समर्पण के लिए, शून्य होने के पर हमसे पहले पहुंच जाएंगे। प्रेसिडेंट ने ऐसे ही कहा कि लेट देम | लिए, तो हीनता पैदा करने के लिए नहीं, विनम्रता पैदा करने के गो टु हेल–जाने दो उनको नरक, जाने दो उनको दोजख।| | लिए। और विनम्रता हीनता से बिलकुल उलटी बात है। क्योंकि ओपेनहेमर ने कहा कि अगर इस रफ्तार से गए, तो वहां भी वे हमसे विनम्रता तब पैदा होती है, जब अहंकार जाता है। और जब अहंकार पहले पहुंच जाएंगे। और यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता! जाता है, तो हीनता अपने आप चली जाती है; वह उसकी छाया है। तो कोन कहां जा रहा है, यह बड़ा सवाल नहीं है आपको, आप | आप विनम्र आदमी को तो कभी हीन कर ही नहीं सकते।' से आगे भर न जा पाए। लाओत्से ने कहा है कि मुझे कभी कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि आपकी जिंदगी में कई बार आपके रास्ते इसीलिए बदल गए कि | मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। और मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर संयोग से आगे एक आदमी मिल गया, जो कहीं और जा रहा था। सका, क्योंकि मैंने कभी सम्मान चाहा नहीं। आपको खयाल में नहीं है। अगर आप विश्लेषण करेंगे, तो कहा जाता है, लाओत्से किसी सभा में जाता—अगर वह यहां आपको साफ दिखाई पड़ेगा कि आप चले जा रहे थे और एक आता सनने, तो वह बिलकल अंत में, जहां जूते उतारे जाते हैं, वहां आदमी और अच्छी कार में चला जा रहा था, आपकी जिंदगी बदल | | बैठता। क्योंकि वह कहता, वहां से कभी कोई उठा नहीं सकता। गई। क्योंकि आपको उससे अच्छी कार चाहिए। आप चले जा रहे __ आप लाओत्से को हीन नहीं कर सकते। कोई उपाय नहीं है उसे थे, किसी से मित्रता हो गई, जिसके पास आपसे बड़ा मकान था। | | हीन करने का। ओर ध्यान रखें, जो आदमी अंतिम बैठने में समर्थ अब आप मुश्किल में पड़ गए; आपके पास उससे बड़ा मकान | है. उसके पास बडी आत्मा चाहिए। वह इतना आश्वस्त है अपने होना चाहिए। होने से कि अंतिम बैठने से अंतिम नहीं होता हूं। और आप भूल ही जाते हैं कि आप कहां जाना चाहते हैं? क्या और जो आदमी पहले बैठने की कोशिश कर रहा है, वह होना चाहते हैं? यह अहंकार बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई | | आश्वस्त नहीं है। वह डरा हुआ है। वह जानता है कि अगर मैं मुझसे आगे हो; इससे हीनता अनुभव होती है। और कोई न कोई | | पहला बैठा नहीं, तो लोग समझेंगे कि मैं पहला नहीं हूं। उसे अपने आगे होगा। जीवन के रास्ते पर कभी किसी आदमी ने अनुभव नहीं | पर भरोसा नहीं है। जिसे अपने पर भरोसा है, वह कहीं भी बैठे, किया कि मैं सबके आगे हूं। इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। नेपोलियन सब कुछ जीत ले, तो भी छोटी-छोटी चीजों में दुखी विनम्रता हीनता नहीं है। विनम्रता अहंकार का विसर्जन है। हो जाता था। एक दिन उसकी घड़ी बि विनम्रता इस बात की घोषणा है कि मैं जैसा हं. वैसा हं। और मेरी कोशिश में उसने हाथ बढ़ाया। उसकी ऊंचाई ज्यादा नहीं थी, पांच किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं है। और अगर मुझे विकास करना है, ही फीट थी। तो उसका हाथ नहीं पहुंचा घड़ी तक, तो उसका जो तो वह मेरा विकास है; वह दूसरे से संबंधित नहीं है। वह दूसरे की अर्दली था, वह छः फीट लंबा जवान था। उसने जल्दी से आकर तुलना और कंपेरिजन में नहीं है। . ठीक कर दिया। नेपोलियन ने अपनी डायरी में लिखा है कि मुझे जैसे ही यह बोध आना शुरू हो जाता है, कि मैं मैं हूं, तुम तुम इतनी पीड़ा हुई कि जैसे मैं सारा संसार हार गया। अर्दली! और हो। तुम जैसे हो, तुम्हारे लिए भले हो; मैं जैसा हूं, मेरे लिए भला ET का |222] Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण की छलांग * हूं। न तुमसे कोई स्पर्धा है, न तुम्हारी जगह लेने की कोई आकांक्षा ___ मरने के पहले आदमी मूर्छित हो जाता है। इसलिए मृत्यु में जो है। मेरी अपनी जगह है; परमात्मा ने मुझे मेरी जगह दी है। मुझे मेरी | | भेद घटित होता है, शरीर अलग होता है, आत्मा अलग होती है; जगह पर अंकुरित होना है। और जैसे ही व्यक्ति दूसरों से प्रतिस्पर्धा | इंद्रियों के फूल पीछे पड़े रह जाते हैं, सुगंध, सूक्ष्म वासनाएं, छोड़ देता है, वैसे ही परमात्मा में उसका विकास शुरू हो जाता है। | संस्कार आत्मा के इर्द-गिर्द सुगंध की तरह लिपटे हुए नई यात्रा पर और जब तक व्यक्ति दसरों से उलझता रहता है. तब तक परमात्मा | निकल जाते हैं। यह घटना हमारी समझ में नहीं आ पाती; क्योंकि के जगत में उसका कोई विकास नहीं हो पाता। क्योंकि उसका ध्यान हम मूर्छित होते हैं। मूर्छित हम क्यों हो जाते हैं मरते क्षण में? दूसरों पर लगा है, परमात्मा पर तो ध्यान ही नहीं है उसका। एक जीवन की व्यवस्था है कि दुख एक सीमा तक झेला जा अगर तुम मंदिर में भी जाते हो, तो भी तुम इस बात की फिक | सकता है। जहां दुख असह्य हो जाता है, वहीं मूर्छा आ जाती है। करते हो कि प्रार्थना उस जगह पर बैठकर करो जो नंबर एक है! इसलिए जब आप कभी-कभी कहते हैं कि मैं असह्य दुख में हूं, तो प्रार्थना का क्या संबंध नंबर एक से! मंदिर में भी कतारें हैं। वहां भी | आप गलत कहते हैं। क्योंकि असह्य दुख में आप होश में नहीं रह अहंकारी आगे बैठा है! वह दूसरे को आगे नहीं बैठने देगा। सकते, आप बेहोश हो जाएंगे। तभी तक होश रहता है, जब तक ___ अभी कुंभ का मेला भरने को है, वहां अहंकारी पहले स्नान सहने योग्य हो। करेंगे। उस पर दंगा-फसाद हो जाता है, हत्याएं हो जाती हैं, लट्ठ इसलिए जब भी कोई पीड़ा बहुत हो जाएगी, आप बेहोश हो चल जाते हैं। और चलाने वाले संन्यासी हैं। क्योंकि वे कहते हैं, | जाएंगे। कोई भी आघात गहरा होगा, आप बेहोश हो जाएंगे। पहले हमारा हक है, पहले हम स्नान करेंगे। मूर्छा दुख का असह्य हो जाना है। और मृत्यु सब से बड़ा दुख धर्म का क्या संबंध है पहले से? धर्म का संबंध अगर कुछ है, है, हमारे लिए। हम डरते हैं मिटने से, इसलिए। मृत्यु के कारण तो अंतिम से है। आखिरी होने के लिए जो राजी है, वह परमात्मा | नहीं है दुख; मिटने से डरते हैं इसलिए; कि मैं मिट जाऊंगा; मैं का प्यारा हो जाता है। मिटा! इससे जो भय, पीड़ा और संताप पैदा होता है, उसके धुएं में प्रथम होने की जो दौड़ में है, वह परमात्मा से लड़ रहा है। प्रथम | चित्त बेहोश हो जाता है। होने की दौड़ नदी में उलटी धारा में तैरने की कोशिश है। अंतिम लेकिन जिन लोगों ने जीवन में ही समर्पण की कला साधी हो, होने के लिए राजी होने का मतलब है, धारा में बह जाना, धारा के मृत्यु उन्हें बेहोश नहीं कर पाएगी। क्योंकि मिटने के लिए वे पहले साथ एक हो जाना। जहां नदी ले जाए, हम वहीं जाने को राजी हैं। से ही तैयार हैं। वे तलाश कर रहे हैं। वे मिटने का ही विज्ञान खोज समर्पण बहने की कला है। और यह पूरा अस्तित्व परमात्मा है। रहे हैं। जिन्होंने योग साधा हो, तंत्र साधा हो, जिन्होंने ध्यान के कोई इसमें जो बहने की कला सीख लेता है, मंदिर उसके लिए दूर नहीं | प्रयोग किए हों, प्रार्थना की हो कभी, उनकी तलाश एक ही है कि है। मंदिर में वह पहुंच ही गया है। मैं कैसे मिट जाऊं, क्योंकि मेरा होना पीड़ा है। मृत्यु के क्षण में ऐसे अब हम सूत्र को लें। लोग सहर्ष मृत्यु के लिए राजी होंगे। परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को | । संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को | चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन | का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह ही तत्व से जानते हैं। मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा! शरीर छोड़कर जाते हुए को...। अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र जब शरीर छूटता है, और आपका बहुत बार छूटा है, लेकिन वह बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और घड़ी चूक-चूक जाती है। क्योंकि शरीर छूटने के पहले ही आप तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके बेहोश हो जाते हैं। जब भी कोई मरता है, मरने के पहले ही बेहोश हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है? हो जाता है। तो मौत का अनुभव नहीं हो पाता और मृत्यु की जो चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर रहस्यमय घटना है, वह अनजानी रह जाती है। | विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है। |223] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गीता दर्शन भाग-7 उस चित्रकार ने कहा, यह प्रतीक है कि मृत्यु की कुल्हाड़ी सभी में करवट कौन बदलवाए! और वजनी शरीर है, भारी; सैनिक हैं। को काट डालती है, तोड़ डालती है। अगस्तीन ने कहा, और सब | और बदलाओ उनको करवट, तो नींद टूट जाएगी। ठीक है; कुल्हाड़ी अलग कर दो और हाथ में चाबी दे दो। तो मैंने उसको कहा कि मैं तुझे एक मंत्र देता हूं; उनके कान में चित्रकार ने कहा, कुछ समझ में नहीं आया! चाबी से क्या अभ्यास करना। दूसरे दिन उसने अभ्यास करके मुझे कहा कि लेना-देना? अगस्तीन ने कहा, जो हमारा अनुभव है, वह यह है अदभुत मंत्र है! कि मृत्यु सिर्फ एक नया द्वार खोलती है; किसी को मिटाती-करती | छोटा-सा मंत्र था। मैंने कहा, उनके कान में कहना राइट टर्न। नहीं। इसलिए चाबी! नया द्वार खोलती है। मिलिट्री के आदमी। जिंदगीभर का अभ्यास। मंत्र काम कर लेकिन नया दार उनके लिए खोलती है. जो होशपर्वक मरते हैं। गया। जैसे ही उसने कहा राइट टर्न उन्होंने नींद में अपनी करवट जो बेहोशी से मरते हैं, उनकी तो गरदन ही काटती है। उनके लिए | बदल ली। तो मृत्यु के हाथ में कुल्हाड़ी ही है। मौत के क्षण में तो आप तभी होश रख पाएंगे, जब जिंदगीभर शरीर छोड़कर जाते हुए को हम नहीं जान पाते, क्योंकि हम | अभ्यास किया हो। और वह इतना गहरा हो गया हो कि मौत भी बेहोश होते हैं। और हम तभी जान पाएंगे, जब मृत्यु में होश सधे। | सामने खड़ी हो, तो भी चित्त बेहोश न हो। अचेतन तक, इसका अभ्यास करना होगा। इसका इतना अभ्यास करना होगा कि अनकांशस तक पहंच जाना जरूरी है। यह चेतन से उतरते-उतरते अचेतन में चला जाए। और जब तक इसलिए समर्पण का जितना से जितना प्रयोग हो सके, जितना यह अचेतन में न चला जाए अभ्यास...। | ज्यादा प्रयोग हो सके; जिन-जिन स्थितियों में आप अपने को खो इसलिए योग दो शब्दों का उपयोग करता है. वैराग्य और सकें.खोएं। अपने को सम्हालें मत। क्योंकि वह खोना इकट्ठा होता अभ्यास। बस, प्रक्रिया पूरी उन दो में समाई हुई है। वैराग्य की हमने | जाएगा। रत्ती-रत्ती इकट्ठा होते-होते उसका पहाड़ बन जाएगा। और बात की, क्या है वैराग्य। और दूसरा है कि उसका गहन अभ्यास, | जब मौत आएगी, तो आप होशपूर्वक जा सकेंगे। रोज-रोज साधना। ताकि मरने के पहले आपके भीतर इतना उतर | और जो व्यक्ति होशपूर्वक मर गया, उसका दूसरा जन्म जाए कि मृत्यु उसको हिला न सके। होशपूर्वक होता है। क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही द्वार के दो हिस्से मेरे एक मित्र हैं। मिलिट्री में मेजर हैं। उनकी पत्नी मेरे पड़ोस में हैं। इस तरफ से जब हम प्रवेश करते हैं, तो मृत्यु; और जब उसी रहती थीं। वे तो कभी-कभी आते थे। जगह-जगह उनकी बदलियां दरवाजे से उस तरफ निकलते हैं, तो जन्म। जैसे एक ही दरवाजे पर होती रहती थीं। पत्नी उनकी एक कालेज में प्रोफेसर थीं। लिखा होता है, भीतर। तो बाहर से जब हम प्रवेश करते हैं, तो जब भी मित्र आते. तो पत्नी थोडी परेशान हो जाती। क्योंकि भीतर. वह बाहर जब हम खडे थे दरवाजे के। लेकिन जैसे ही और तो सब ठीक था, बहुत प्यारे आदमी हैं, लेकिन रात में घुर्राते दरवाजे के भीतर गए, दूसरा जगत शुरू हो गया। बहुत थे। और पत्नी अकेली रहने की आदी हो गई थी वर्षों से। तो मृत्यु, इस शरीर से बाहर; और जन्म, दूसरे शरीर में भीतर। जब भी साल में महीने, दो महीने के लिए आते, तो उसकी नींद | लेकिन प्रक्रिया एक ही है। अगर आप होशपूर्वक मर सकते हैं, तो हराम हो जाती थी। आपका जन्म होशपूर्वक होगा। और तब आपको पिछले जन्म की उसने मुझे एक दिन कहा कि बड़ी अजीब हालत है। कहते भी याद रहेगी। और तब पिछले जन्म के अनुभव व्यर्थ नहीं जाएंगे। अच्छा नहीं मालूम पड़ता; वे कभी आते हैं। लेकिन मेरी नींद उनका निचोड़ आपके हाथ में होगा। और तब आपने जो भूलें मुश्किल हो जाती है। या में यह कहूं कि में दूसरे कमरे में सोऊं, तो पिछले जन्म में की, वे आप इस जन्म में न कर सकेंगे। अन्यथा हर भी अशोभन मालम पडता है. इतने दिन के बाद पति घर आते हैं। बार वही भल है। और यह चक्र दष्टचक्र है, विशियस सर्किल है। और रात में तो सो ही नहीं पाती। हर बार भूल जाते हैं; फिर वही भूल करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि मुझे पूरा ब्यौरा दो। ऐसा आप बहुत बार कर चुके हैं। यही काम जो आप आज कर तो उसने कहा कि जब भी वे बाएं सोते हैं, तो घुर्राते हैं। जब दाएं रहे हैं, इसको आप अनंत बार कर चुके हैं। यही शादी, यही बच्चे, बदल लेते हैं करवट, तो ठीक सो जाते हैं। पर रात में उनको सोते यही धन, यही पद-प्रतिष्ठा; यही लड़ाई-झगड़ा, कलह, अदालत, 224 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण की छलांग * दुकान; यह आप बहुत बार कर चुके हैं। भोजन कौन बनाएगा। एक का नाम आ गया। पर उसमें भी एक काश, आपको एक दफे भी याद आ जाए कि यह आप बहुत | | शर्त थी। वह शर्त यह थी कि जिसका नाम आ जाएगा, वह भोजन बार कर चुके हैं, तो इसमें जो आज आप इतना रस ले रहे हैं, वह बनाएगा; लेकिन बाकी दो में से कोई भी भोजन की शिकायत न एकदम खो जाएगा। यह पागलपन मालूम पड़ेगा। आप एकदम कर सकेगा। और जिसने शिकायत की, उसी दिन से भोजन उसको ठहर जाएंगे। बनाना पड़ेगा। मृत्यु में जो होशपूर्वक मरे, वह जन्म में भी होशपूर्वक पैदा होता _मुल्ला बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नाम तो दूसरे का आया, है। और जो मृत्यु और जन्म में होशपूर्वक रह जाए, वह जीवन में | इससे प्रसन्न हुआ। लेकिन भोजन उसने इतना रद्दी बनाना शुरू होशपूर्वक रहता है। क्योंकि मृत्यु और जन्म छोर हैं; बीच में जीवन किया कि वह खाया न जाए और शिकायत कर नहीं सकते। है। और हम तीनों में बेहोश हैं। शिकायत की, तो खुद बनाना पड़े। इसलिए हम कितना ही सुनें कि शरीर नहीं है, आत्मा है, यह एक दिन, दो दिन, तीन दिन, फिर उसने होश खो दिया। तीसरे बात बैठती नहीं है। कितना ही कोई कहे कि आप शरीर नहीं, आत्मा | दिन उसने कहा कि इट टेस्ट्स लाइक हार्स शिट-घोड़े की लीद हैं; मान भी लें, तो भी यह बात भीतर उतरती नहीं। क्योंकि हमारा जैसा इसका स्वाद है। लेकिन तभी उसको खयाल आया, तो उसने अनुभव नहीं है। लगता तो ऐसे ही है कि शरीर ही होंगे। यह आत्मा | कहा, बट डिलीशियस–पर बड़ा स्वादिष्ट है। क्योंकि कंप्लेंट हवा मालूम पड़ती है; हवाई बात मालूम पड़ती है। नहीं करनी है, शिकायत नहीं करनी है। ___ कृष्ण कहते हैं, परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर अगर आप खयाल रखेंगे, तो चौबीस घंटे ऐसे मौके आपको में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों |आएंगे, जब आधा वाक्य बेहोशी में निकलेगा, और तब आपको से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं। क्योंकि मूर्छा सतत खयाल आएगा; आधा तब आप पीछे से कहेंगे, बट डिलीशियस। है। केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व को जानते हैं। जीवन है हाथ में अभी, और अभी ही कुछ किया जा सकता है। कौन-सा है ज्ञान-नेत्र जो ज्ञानियों को मिल जाता है ? उसको ही | | वाणी, विचार, आचरण, सब पहलुओं पर होश की साधना। जो मैं अमूर्छा कह रहा हूं। होशपूर्वक घटनाओं को घटने देना, मृत्यु भी मैं कहूं, जो भी मैं सोचं, जो भी मैं करूं, वह होशपूर्वक हो, को, जन्म को, जीवन को। ये तीन घटनाएं हैं। अगर ये तीनों इतना भर काफी है। तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि बेहोशी टूटने होशपूर्वक घट जाएं, तो आपके पास ज्ञान-नेत्र उपलब्ध हो गया। लगी। और बेहोशी के टूटने के साथ ही दुख टूटने शुरू हो जाते जहां आप हैं, वहीं से शुरू करना पड़ेगा। जन्म तो पीछे छूट हैं। बेहोशी के कारण ही दुखों को हम निमंत्रण देते हैं। और बेहोशी गया। मौत आगे आ रही है। वह अभी दूर है। जीवन अभी है। | के कारण ही हम वे क्षण चूक जाते हैं जिनसे आनंद उपलब्ध हो जीवन के साथ शुरू करना जरूरी है कि हम जीएं, तो ज्ञानपूर्वक सकता था। जीएं। जो भी करें, होशपूर्वक करें। बार-बार होश छूट जाएगा; मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक गधा था। और गधे को अक्सर फिर उसे पकड़ें। सर्दी लग जाती, तो वह कंपने लगता, बुखार आ जाता। तो वह रास्ते पर चलें, तो होश से। भोजन करें, तो होश से। किसी लेकर गया उसको एक जानवरों के डाक्टर के पास। से बात करें, तो होश से। एक बात सतत बनी रहे कि मेरे द्वारा उस डाक्टर ने जांच-पड़ताल की और उसको दो गोलियां दीं मूर्छा में कुछ न हो। कोई गाली दे, तो पहले होश को सम्हालें, | और एक पोली नली दी। और कहा कि नली में गोलियों को रखना फिर उत्तर दें। . और एक छोर गधे के मुंह में डालना और दूसरे से फूंक मार देना, __ आप चकित हो जाएंगे, होश सम्हल जाए, तो उत्तर निकलेगा | | तो गोलियां इसके पेट में चली जाएंगी। गोलियां बहुत गरम हैं, एक नहीं। और होश न सम्हला हो, तो जो आप नहीं करना चाहते, वह | ही दिन में ठीक हो जाएगा। भी हो जाता है, वह भी निकल जाता है। ___ शाम को ही नसरुद्दीन लौटा, तो वह लट्ठ लिए हुए था। उसने ___ मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा पर गया। दो मित्र साथ थे। तीनों जाकर दरवाजे पर लट्ठ मारा और कहा, कहां है वह डाक्टर का बैलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे। तीनों ने चिटें डालकर तय किया कि बच्चा? डाक्टर भी डरा, क्योंकि उसकी आंखें लाल, चेहरा सुर्ख, 225 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * पसीने से भरा हुआ। चेहरा दिखाई दर्पण में पड़ रहा था, वहीं उसने पट्टियां लगा दीं। डाक्टर ने पूछा कि क्या हुआ? कृष्ण कह रहे हैं कि केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व उसने कहा, तूने पूरी बात क्यों न बताई? से जानते हैं। कौन-सी पूरी बात? केवल वे ही, जो होश से जगे हुए हैं और प्रतिपल जिनका ज्ञान नसरुद्दीन ने कहा, गधे ने पहले फूंक मार दी; गोलियां मेरे पेट | जाग्रत है, वे ही जन्म में, मृत्यु में, जीवन में, भीतर के तत्व को पूरी में चली गईं। तरह पहचानते हैं। उस डाक्टर ने पूछा, तुम करने क्या लगे? क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को उसने कहा, मैं जरा दूसरे सोच में पड़ गया, जरा देर हो गई। | यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं। और जिन्होंने अपने अंतःकरण गोली रखकर, मुंह में नली लगाकर मैं बैठा और कुछ दूसरा खयाल को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आ गया। आत्मा को नहीं जानते हैं। उतने खयाल में तो बेहोशी हो जाएगी। ___ यत्न ही काफी नहीं है। यत्न जरूरी है, पर्याप्त नहीं है। प्रयास तो हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। कुछ कर रहे हैं, कुछ खयाल आ रहा | करना होगा सघन, लेकिन अकेला प्रयास काफी नहीं है; हृदय की। है। कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है। कुछ सोचा था, कुछ शुद्धि भी चाहिए। परिणाम आते हैं। कभी भी वही नहीं हो पाता, तो हम चाहते हैं। ___ यहां थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि बहुत बार ऐसा वह होगा भी नहीं, क्योंकि वह केवल तभी हो सकता है, जब होश होता है कि लोग सिर्फ प्रयास ही करते रहते हैं, बिना इस बात की पूरा हो। फिक्र किए कि भाव शुद्ध नहीं है, हृदय शुद्ध नहीं है। तो उसके जिसका होश पूरा है, उसके जीवन में वही होता है, जो होना परिणाम भयानक हो सकते हैं। कोई आदमी हृदय को शुद्ध न करे चाहिए। उससे अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। जिसका जीवन | और एकाग्रता को साधे, कनसनट्रेशन को साधे। साध सकता है। मूर्छा में चल रहा है, वह शराबी की तरह है। जाना चाहता था घर, । | बुरे से बुरा आदमी भी एकाग्रता साध सकता है। एकाग्रता से पहुंच गया कहीं और। क्योंकि पैर का उसे कोई पता नहीं कि कहां | बुराई का कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि बुरा आदमी शायद जा रहे हैं। वह शराबी की तरह है। करना चाहता था कुछ और, हो | | एकाग्रता ज्यादा आसानी से साध सकता है। क्योंकि बुरे आदमी का गया कुछ और। एक लक्षण होता है कि वह जिस काम में भी लग जाए, पागल की ___ मैं पढ़ता था एक शराबी के संस्मरणों को। वह एक रात ज्यादा | | तरह लगता है। और बुरा आदमी जिद्दी होता है, क्योंकि बुराई बिना पीकर लौटा। पत्नी से बचने के लिए कि पत्नी को पता न चले...। जिद्द के नहीं की जा सकती। तो बुरे आदमी के लिए हठयोग और ज्यादा पी गया, तो रास्ते पर कई जगह गिरा था। तो चेहरे पर बिलकुल आसान है। उसको पकड़ भर जाए, उसके खयाल में भर कई जगह खरोंच और चोट लग गई। तो वह बाथरूम में गया और आ जाए। और बुरा आदमी दुष्टता कर सकता है, दूसरों के साथ उसने मलहम की पट्टियां अपने चेहरे पर लगाई। जाकर चुपचाप भी, अपने साथ भी। दुष्टता करने में उसे अड़चन नहीं है। बिस्तर में सो गया। और बड़ा प्रसन्न हुआ कि पत्नी को पता भी नहीं __ अगर आप हठयोग साधेगे, तो ऐसा लगेगा कि क्यों सताओ इस चला; शोरगुल भी नहीं हुआ; खरोंच वगैरह भी सुबह तक काफी | शरीर को! क्यों इतना आसन लगाकर बैठो! पैर दुखने लगते हैं; ठीक हो जाएगी; पता भी नहीं चलेगा। बात निपट गई। आंख से आंसू झरने लगते हैं। दुष्ट आदमी इनकी फिक्र नहीं लेकिन सुबह ही उसकी पत्नी चिल्लाती बाथरूम से बाहर आई | करता। वह दूसरे को भी सता सकता है, उतनी ही मात्रा में खुद को कि तुमने बाथरूम का दर्पण क्यों खराब किया है? पति ने पूछा, भी सता सकता है। कैसा दर्पण! इसलिए आप हैरान होंगे जानकर कि आपके तथाकथित योगियों क्योंकि वह रात बेहोशी में जो मलहम-पट्टी चेहरे पर लगानी थी, | | में, महात्माओं में आधे से ज्यादा तो दुष्टजन हैं। पर उनकी दुष्टता दर्पण पर लगा आया था। होश न हो, तो यही होगा। करेंगे कुछ, हो दूसरों की तरफ नहीं है। इतनी भी उनकी बड़ी कृपा है। अपनी ही जाएगा कुछ। और शराबी को होना बिलकुल आसान है। क्योंकि | | तरफ किए हुए हैं। इससे समाज को उनसे कोई हानि नहीं है। अगर 226 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण की छलांग * हानि है, तो उनको खुद को है। शरीर शुद्धि, आचरण शुद्धि, सब तरह से शुद्ध हो जाए व्यक्ति, अगर एक दुष्ट हत्यारा एकाग्रता साधे, तो साध सकता है। फिर वे कहते हैं, यत्न करो। नहीं तो खतरा है।। लेकिन उसकी एकाग्रता से खतरा होगा। क्योंकि एकाग्रता से शक्ति ऐसे खतरे कोई अतीत में कहानियों में घटे हैं, ऐसा ही नहीं है। आएगी, और हृदय शुद्ध नहीं है। उस शक्ति का दुरुपयोग होगा। अभी इस सदी के प्रारंभ में रूस में एक बहुत अदभुत व्यक्ति था, आपने दुर्वासा ऋषि की कहानियां पढ़ी हैं। बस, वह इस तरह का रासपुतिन। अनूठी प्रतिभा का आदमी था। ठीक उसी हैसियत का आदमी दुर्वासा हो जाएगा। उसके पास शक्ति होगी; क्योंकि अगर | | आदमी था, जिस हैसियत के आदमी गुरजिएफ या रमण। लेकिन वह कुछ भी कह दे, तो उसका परिणाम होगा। एक खतरा था कि हृदय की शुद्धि नहीं थी। अगर कोई व्यक्ति बहुत एकाग्रता साधा हो, तो उसके वचन में रासपुतिन गहन साधना किया था। और पूरब की जितनी एक शक्ति आ जाती है, जो सामान्यतः दूसरों के वचन में नहीं होती। पद्धतियां हैं, सब पर काम किया था। ठेठ तिब्बत तक उसने उसका वचन आपके हृदय के अंतस्तल तक प्रवेश कर जाता है। | खोजबीन की थी, और अनूठी शक्तियों का मालिक हो गया था। वह जो भी कहेगा, उसके पीछे बल होगा। हमारी जो कथाएं हैं. वे | लेकिन हृदय साधारण था। साधारण आदमी का हृदय था। इसलिए झूठी नहीं हैं; उन कथाओं में सच है। जो चाहता, वह हो जाता था। लेकिन जो वह चाहता. वह गलत ही अगर एकाग्रता साधने वाला आदमी कह दे कि तुम कल मर | चाहता था। वह ठीक तो चाह नहीं सकता था। जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है। इसलिए नहीं कि उसके कहने | | __पूरे रूस को डुबाने का कारण रासपुतिन बना, क्योंकि उसने ज़ार में कोई जादू है, बल्कि उसके कहने में इतना बल है कि वह बात को प्रभावित कर लिया। खासकर ज़ार की पत्नी ज़ारीना को आपके हृदय में गहरे तक प्रवेश कर जाएगी। उसका तीर गहरा है, प्रभावित कर लिया। उसमें ताकत थी। एकाग्र है, और उसने वर्षों तक अपने को साधा है। वह एक विचार | | और ताकत सच में अदभुत थी। उसके दुश्मनों ने भी स्वीकार पर अपनी पूरी शक्ति को इकट्ठा कर लेता है। तो उसका विचार | | किया। क्योंकि जब उसको मारा, हत्या की गई उसकी, तो उसको आपके लिए सजेशन बन जाएगा। | पहले बहुत जहर पिलाया, लेकिन वह बेहोश न हुआ। एकाग्रता वह कह देगा, कल मर जाओगे! तो उसकी आंखें, उसका | | इतनी थी उसकी। उसको जहर पिलाते गए, वह बेहोश न हुआ। व्यक्तित्व, उसका ढंग, उसकी एकाग्रता, उसकी अखंडता, उस | जितने जहर से कहते हैं, पांच सौ आदमी मर जाते, उनसे वह सिर्फ विचार को तीर की तरह आपके हृदय में चुभा देगी। अब आप लाख | बेहोश ही नहीं हुआ; मरने की तो बात ही अलग रही। कोशिश करो, उस विचार से छुटकारा मुश्किल है। वह आपका फिर उसको गोलियां मारी, तो कोई बाईस गोलियां उसके शरीर पीछा करेगा। कल आने तक, वह कल आने के पहले ही आपको | में मारी, तो भी नहीं मरा! तो फिर उसको बांधकर और पत्थरों से आधा मार डालेगा। कल आप मर जाएंगे। लपेटकर वोल्गा के अंदर उसको डुबो दिया। और जब दो दिन बाद अभिशाप इसलिए लागू नहीं होता कि परमात्मा अभिशाप पूरा उसकी लाश मिली, तो उसने पत्थरों से अपने को छुड़ा लिया था। करने को बैठा है; कि दुर्वासाओं का रास्ता देख रहा है कि अभिशाप बंधन काट डाले थे। और डाक्टरों ने कहा कि वह पत्थरों की वजह दें, और परमात्मा पूरा करे। लेकिन दुर्वासा ने एकाग्रता साधी है वर्षों से नहीं मरा है; उसके दो घंटे बाद मरा है। तक; पर हृदय शुद्ध नहीं है। अंदर भी वोल्गा में वह इतना सारा-इतना नशा, इतनी जहर, इसलिए कृष्ण कहते हैं, सिर्फ यत्न काफी नहीं है। अगर | इतनी गोलियां, पत्थर बंधे-फिर भी उसने अपने पत्थर छोड़ लिए अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, तो यत्न करते हुए भी अज्ञानीजन | थे और अपने बंधन भी अलग कर डाले थे। हो सकता था, वह आत्मा को नहीं जानते हैं। निकल ही आता। गहन शक्ति का आदमी था। लेकिन सारा प्रयोग इसलिए दो बातें हैं। प्रयत्न चाहिए और साथ-साथ हृदय की | उसकी शक्ति का उलटा हुआ। शुद्धि चाहिए। रूस की क्रांति में लेनिन का उतना हाथ नहीं जितना रासपुतिन तो बुद्ध और महावीर जैसे साधकों ने तो हृदय की शुद्धि को का है। क्योंकि रासपुतिन ने रूस को बरबाद करवा दिया। ज़ार के पहले रखा है, ताकि भूल-चूक जरा भी न हो पाए। आहार शुद्धि, ऊपर उसका प्रभाव था। उसने जो चाहा, वह हुआ। सारा उपद्रव Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 हो गया। उस उपद्रव का फल लेनिन ने उठाया। क्रांति आसान हो गई। आधा काम रासपुतिन ने किया, आधा लेनिन ने। अगर हृदय शुद्ध न हो, तो शक्ति तो यत्न से आ सकती है। लेकिन उससे आत्मा नहीं आ जाएगी। यह रासपुतिन के पास इतनी ताकत है, लेकिन आत्मा नहीं है। यह शक्ति भी मन और शरीर की है। हृदय की शुद्धि का अर्थ है, भावों की निर्मलता। बच्चे जैसा हृदय हो जाए। कठोरता छूटे, क्रोध छूटे, अहंकार छूटे, ईर्ष्या-द्वेष छूटे, घृणा-वैमनस्य छूटे और हृदय शुद्ध हो; और साथ में योग का यत्न हो। यल और शुद्ध भाव।। इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ योगी होना काफी नहीं है, भक्त होना भी जरूरी है। सिर्फ योगी खतरनाक है, सिर्फ भक्त कमजोर है। भक्त निर्बल है। वह सिर्फ दीनता-हीनता की प्रार्थना कर सकता है कि तुम पतित-पावन हो और मैं पापी हूं, मुझे मुक्त करो। यह सब कह सकता है। लेकिन निर्बल है। उसके पास कोई शक्ति नहीं है। योगी के पास बड़ी शक्ति इकट्ठी हो सकती है, लेकिन उसके पास भाव नहीं है। जहां भक्त और योगी का मिलन होता है, जहां भाव और यत्न दोनों संयुक्त हो जाते हैं, वहां आत्मा उपलब्ध होती है। आज इतना ही। 228 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 पांचवां प्रवचन एकाग्रता और हृदय-शुद्धि Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ।। १२ । । गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।। १३ ।। अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।। १४ । । सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।। १५ ।। और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान । और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस-स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं। मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय - विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्न: कल आपने रासपुतिन की जो घटना कही, वह विस्मयजनक है। हमने तो अब तक यही सुना था कि शक्ति जब जागती है— उसे चाहे कुंडलिनी कहें या त्रिनेत्र – तो उसकी अग्नि में मनुष्य के सभी मैल, सभी कलुष जल जाते हैं, और वह शुद्ध और पवित्र हो जाता है ! 230 इ स संबंध में कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं। एक, शक्ति स्वयं में निष्पक्ष और निरपेक्ष है। शक्ति तो शुभ है और न अशुभ। उसका शुभ उपयोग हो सकता है; अशुभ उपयोग हो सकता है। दीए से अंधेरे में रोशनी भी हो सकती है, और किसी के घर में आग भी लगाई जा सकती है। जहर से हम किसी के प्राण भी ले सकते हैं, और किसी मरणासन्न व्यक्ति के लिए जहर औषधि भी बन सकता है। शक्ति सभी भौतिक या अभौतिक – निष्पक्ष और निरपेक्ष है। क्या उपयोग करते हैं, इस पर परिणाम निर्भर होंगे। शुद्ध अंतःकरण न हुआ हो, तो भी शक्ति उपलब्ध हो सकती है। क्योंकि शक्ति की कोई शर्त भी नहीं कि शुद्ध अंतःकरण हो, तो ही उपलब्ध होगी। अशुद्ध अंतःकरण को भी उपलब्ध हो सकती है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि अशुद्ध अंतःकरण शक्ति को पहले उपलब्ध कर लेता है। क्योंकि शक्ति की आकांक्षा भी अशुद्धि की ही आकांक्षा है। शुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा नहीं करता, शांति की आकांक्षा करता है। अशुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा करता है, शांति की नहीं। शुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह प्रसाद है; वह परमात्मा की कृपा है, अनुकंपा है। वह उसने मांगा नहीं है; वह उसने चाहा भी नहीं है । वह उसने खोजा भी नहीं है । वह उसे | सहज मिला है। अशुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह उसकी वासना की मांग है। वह प्रभु का प्रसाद नहीं है। वह उसने चाहा है, यत्न किया है, और उसे पा लिया है। शक्ति की चाह ही हमारे भीतर इसलिए पैदा होती है कि हम कुछ करना चाहते हैं। शक्ति के बिना न कर सकेंगे। शुद्ध अंतःकरण कुछ करना नहीं चाहता। शक्ति की कोई जरूरत भी नहीं है। अशुद्ध अंतःकरण बहुत कुछ करना चाहता है। वासनाओं की पूर्ति करनी है; महत्वाकांक्षाएं भरनी हैं; मन की पागल दौड़ है, उस दौड़ के लिए सहारा चाहिए, ईंधन चाहिए। तो शक्ति की मांग होती है। और शक्ति मिलती है न तो शुद्धि से, न अशुद्धि से । शक्ति मिलती है यत्न, प्रयत्न, साधना से । अगर कोई व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र करे, तो शुभ विचार पर भी एकाग्र कर सकता है, अशुभ विचार पर भी । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि इस संबंध में महावीर की अंतर्दृष्टि बड़ी गहरी है। महावीर ने ध्यान के दो रूप कर दिए हैं। एक को वे धर्म- ध्यान कहते हैं; एक को अधर्म - ध्यान | ऐसा भेद मनुष्य जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया। यह भेद बड़ा कीमती है। हमें तो लगेगा कि सभी ध्यान धार्मिक होते हैं। लेकिन महावीर दो हिस्से करते हैं, अधर्म ध्यान और धर्म - ध्यान । तो ध्यान अपने आप में धार्मिक नहीं है। शुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो ही धार्मिक है, अशुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो अधार्मिक है। आपको भी अनुभव हुआ होगा । धार्मिक ध्यान का तो अनुभव शायद न हुआ हो, लेकिन अधार्मिक ध्यान का आपको भी अनुभव हुआ है। जब आप क्रोध में होते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। जब कामवासना से भरते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। परमात्मा पर मन को लगाना हो, तो यहां-वहां भटकता है। एक सुंदर स्त्री मन में समा जाए, तो भटकता नहीं है; सुंदर स्त्री में रुक जाता है। परमात्मा की मूर्ति पर ध्यान को लगाएं, तो बड़ी मेहनत करनी पड़ती है तो भी नहीं रुकता। एक नग्न स्त्री का चित्र सामने रखा हो, तो मन एकदम रुक जाता है; कहीं जाता नहीं। पास शोरगुल भी होता. रहे, तो भी मन विचलित नहीं होता। इसे महावीर अधर्म-ध्यान कहते हैं। यह भी ध्यान तो है ही । क्योंकि ध्यान का तो मतलब है, मन का ठहर जाना । वह कहां ठहरता है; यह सवाल नहीं है। जब आप क्रोध में होते हैं, तब मन ठहर जाता है। इसलिए आपको अनुभव होगा कि क्रोध में आपकी शक्ति बढ़ जाती है। साधारणतः हो सकता है आपमें इतनी शक्ति न हो, लेकिन जब क्रोध में आप होते हैं, तो अनंत गुना शक्ति हो जाती है। क्रोध की अवस्था में लोगों ने ऐसे पत्थरों को हटा दिया है, जिनको सामान्य अवस्था में वे हिला भी नहीं सकते। क्रोध की अवस्था में अपने से दुगुने ताकतवर आदमियों को लोगों ने पछाड़ दिया है, जिनको साधारण अवस्था में वे देखकर भाग ही खड़े होते । क्रोध में मन एकाग्र हो जाता है; शक्ति उपलब्ध होती है। वासना केक्षण में मन एकाग्र हो जाता है; शक्ति उपलब्ध होती है। एकाग्रता शक्ति है। कहां एकाग्र कर रहे हैं, यह बात... एकाग्रता के लिए आवश्यक नहीं है कि वह शुभ हो या अशुभ हो । रासपुतिन जैसे व्यक्ति बड़ी एकाग्रता को साधते हैं। लेकिन हृदय अशुद्ध है, तो उस एकाग्रता का अंतिम परिणाम अशुभ होता है | रासपुतिन ने अपनी शक्तिओं का जो उपयोग किया... । | ज़ार का एक ही लड़का था; रूस के सम्राट का एक ही लड़का था । और सम्राट और सम्राज्ञी दोनों ही उस लड़के के लिए बड़े चिंतातुर थे। वह बचपन से ही बीमार था, अस्वस्थ था। रासपुतिन की किसी ने खबर दी कि वह शायद ठीक कर दे। रासपुतिन ने उसे | ठीक भी कर दिया। रासपुतिन ने उसके सिर पर हाथ रखा और वह बच्चा पहली दफा ठीक स्वस्थ अनुभव हुआ। लेकिन तब से सम्राट के पूरे परिवार को रासपुतिन का गुलाम हो | जाना पड़ा। क्योंकि रासपुतिन दो दिन के लिए कहीं चला जाए, तो | वह बच्चा अस्वस्थ हो जाए । रासपुतिन का रोज राजमहल आना जरूरी है। और यह बात थोड़े दिन में साफ हो गई कि रासपुतिन अगर न होगा, तो बच्चा मर जाएगा। इलाज कम हुआ, इलाज बीमारी बन गया। पहले तो कुछ चिकित्सकों का परिणाम भी होता था, अब किसी का भी कोई परिणाम न रहा । अब रासपुतिन की मौजूदगी नियमित चाहिए। | और उस लड़के के आधार पर रासपुतिन जितना शोषण कर सकता था ज़ार का और ज़ारीना का, उसने किया। उसने जो चाहा, वह करवाया। मुल्क का प्रधानमंत्री भी नियुक्त करना हो, तो | रासपुतिन जिसको इशारा करे, वह प्रधानमंत्री हो जाए। क्योंकि वह लड़के की जान उसके हाथ में हो गई। जिस व्यक्ति ने चित्त को बहुत एकाग्र किया हो, यह बड़ा आसान है। वह बच्चा सम्मोहित हो गया। वह बच्चा हिप्नोटाइज्ड हो गया। अब यह सम्मोहित अवस्था उस बच्चे की, शोषण का आधार बन गई। जीसस ने भी लोगों को स्वस्थ किया है। जीसस ने भी लोगों के सिर पर हाथ रखकर उनकी बीमारियां अलग कर दी हैं। रासपुतिन के पास भी ताकत वही है, जो जीसस के पास है । रासपुतिन भी बीमारी दूर कर सकता है। लेकिन रासपुतिन बीमारी को रोक भी सकता है; जीसस वह न कर सकेंगे। रासपुतिन बीमारी का शोषण भी कर सकता है; जीसस वह न कर सकेंगे। हृदय शुद्ध हो, वही शक्ति सिर्फ चिकित्सा बनेगी । हृदय अशुद्ध हो, तो वही शक्ति शोषण भी बन सकती है। कठिनाई हमें समझने में यह होती है कि अशुद्ध हृदय एकाग्र कैसे हो सकता है! कोई अड़चन नहीं है। एकाग्रता तो एक कला है; मन को एक जगह रोकने की कला है। इसलिए अगर दुनिया में | बुरे लोगों के पास भी शक्ति होती है, तो उसका कारण यही है कि 231 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7* उनके पास भी एकाग्रता होती है। साधना के पूर्व शुद्ध हो; शक्ति की घटना घटने के पहले अंतःकरण हिटलर के पास बड़ी एकाग्रता है। जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति | | शुद्ध हो जाए। अन्यथा हित की जगह अहित की संभावना है। को इतने बड़े पागलपन में उतार देना सामान्य व्यक्ति की क्षमता नहीं | - आप सोचें, अगर आपको अभी शक्ति मिल जाए, तो आप क्या है। हिटलर ने जो भी कहा, वह जर्मन जाति ने स्वीकार कर लिया। करेंगे? अगर आपको एक शक्ति मिल जाए कि आप चाहें तो उसकी आंखों में जादू था। उसके कहने में बल था। उसके खड़े होते | किसी को जीवन दे सकें और चाहे तो किसी को मृत्यु दे सकें, तो से सम्मोहन पैदा हो जाता। आपके मन में सब से पहले क्या खयाल उठेगा? जर्मनी की पराजय के बाद जिन लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय अदालत में | | शायद यह आपके मन में खयाल उठे कि मित्र को मैं शाश्वत वक्तव्य दिए-उसमें बड़े बुद्धिमान लोग थे, प्रोफेसर थे, बना दूं। लेकिन शत्रु को नष्ट कर दूं, यह खयाल पहले उठेगा। वह युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे—उन्होंने यही कहा कि हम अब जो अंतःकरण भीतर है, जैसा है, वैसे ही खयाल देगा। सोच भी नहीं पाते कि हमने यह सब कैसे किया! जैसे कोई शक्ति | | अगर आपको यह शक्ति मिल जाए कि आप अदृश्य हो सकते हमसे करवा रही थी। | हैं, तो आपको यह खयाल शायद ही आए कि अदृश्य होकर जाऊं दुनिया में बुरे आदमी के पास भी ताकत होती है; भले आदमी | | और लोगों के पैर दबाऊं, सेवा करूं। मैं नहीं सोचता कि यह के पास भी ताकत होती है। ताकत एक ही है। बुरे आदमी के पास | खयाल भी आ सकता है। अदृश्य होने का खयाल आते ही से, हृदय का यंत्र बुरा है। वही ताकत उसके बुरे यंत्र को चलाती है। । | किसकी पत्नी को आप ले भागें, किसकी तिजोरी खोल लें, जहां यह बिजली दौड़ रही है। इससे बिजली भी चल रही है, पंखा | कल तक आप प्रवेश नहीं कर सकते थे, वहां कैसे प्रवेश कर जाएं, भी चल रहा है। पंखा खराब हो, बिजली वही दौड़ती रहेगी, लेकिन | | वही खयाल आएगा। पंखे में खड़-खड़ शुरू हो जाएगी। पंखा बहुत खराब हो, तो सोचने भर से कि आपको अगर अदृश्य होने की शक्ति मिल टूटकर गिर भी सकता है, और किसी के प्राण भी ले सकता है। | जाए, तो आप क्या करेंगे? एक कागज पर आप बैठकर आज ही कसूर बिजली का नहीं है। रात लिखना, तो आपको खयाल में आ जाएगा कि...अभी शक्ति मनुष्य तो एक यंत्र है। शक्ति तो सभी परमात्मा की है, चाहे बुरे | मिल नहीं गई है, सिर्फ खयाल है, लेकिन मन सपने संजोना शुरू आदमी में हो, चाहे भले आदमी में हो। शक्ति का स्रोत तो एक ही कर देगा कि क्या करना है। है। राम में भी वही स्रोत है; रावण में भी वही स्रोत है। रावण के | और शक्ति अशुद्ध को भी मिल सकती है। इसलिए शक्ति के लिए कोई अलग मार्ग नहीं है शक्ति को पाने का। उसी महास्रोत | | स्रोत छिपाकर रखे गए हैं। सीक्रेसी; योग, तंत्र और धर्म के से रावण भी शक्ति पाता है, जिस महास्रोत से राम शक्ति पाते हैं। | आस-पास इतनी गुप्तता का कुल कारण यही है। क्योंकि शक्ति शक्ति के स्रोत में कोई भी फर्क नहीं है, लेकिन दोनों के हृदय का स्रोत गलत आदमी को भी मिल सकता है; खतरनाक आदमी में फर्क है। एक के पास शुद्ध हृदय है; एक के पास अशुद्ध हृदय को भी मिल सकता है। और जब भी कोई विज्ञान-कोई भी है। उस अशुद्ध हृदय में से शक्ति विनाशक हो जाती है। शुद्ध हृदय विज्ञान, चाहे आंतरिक, चाहे बाह्य-ऊंचाइयों पर पहुंचता है, तो से शक्ति निर्मात्री, सृजनात्मक हो जाती है। शुद्ध से जीवन बहने खतरे शुरू हो जाते हैं। लगता है; अशुद्ध से मृत्यु बहने लगती है। शुद्ध से प्रकाश बन | अभी पश्चिम में विचार चलता है कि विज्ञान की जो नई खोजें जाता है, अशुद्ध से अंधकार बन जाता है। | हैं, वे गुप्त रखी जाएं; अब उनको प्रकट न किया जाए। क्योंकि लेकिन शक्ति का स्रोत एक है। दो स्रोत हो भी नहीं सकते; दो विज्ञान की नई खोजें अब खतरे की सीमा पर पहुंच गई हैं। वे बुरे स्रोत का कोई उपाय भी नहीं है। कितना ही बुरा आदमी हो, | | आदमी के हाथ में पड़ सकती हैं। पड़ ही रही हैं; क्योंकि राजनीतिज्ञ परमात्मा उसके भीतर वही है। के हाथ में पड़ जाती है सारी खोज। इसलिए जो सदगुरु वस्तुतः सैकड़ों लोगों पर साधना के प्रयोग | आइंस्टीन, जिसने हाथ बंटाया अणु शक्ति के निर्माण में, उसने किए हैं, करवाए हैं, उन्होंने अनिवार्यरूप से कुछ व्यवस्था की है | कभी सोचा भी नहीं था कि हिरोशिमा और नागासाकी में एक-एक जिससे कि अंतःकरण शुद्ध हो। या तो साधना के साथ शुद्ध हो या लाख लोग जलकर राख हो जाएंगे मेरी खोज से। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि * आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा कि तुम अगर दुबारा | | को, तिब्बतिओं को, चीनिओं को, पूरे पूरब को कुछ गहन सूत्र हाथ जन्म लो तो क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं एक प्लंबर होना पसंद में आ गए। और यह बात भी साफ हो गई कि ये सूत्र गलत आदमी करूंगा बजाय एक वैज्ञानिक होने के। क्योंकि वैज्ञानिक होकर देख | | के हाथ में जाएंगे, तो खतरा है। तो उन सूत्रों को अत्यंत गुप्त कर लिया कि मेरे माध्यम से, मेरे बिना जाने, मेरी बिना आकांक्षा के, मेरे दिया। जब गुरु समझेगा शिष्य को इस योग्य, तब वह उसके कान विरोध में, मेरे ही हाथों से जो काम हुआ, उसके लिए मैं रोता हूं। | | में दे देगा। सीक्रेसी, अत्यंत गुप्तता और गुह्यता है। और वह तब क्योंकि शक्ति तो खोजता है वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ के हाथ | | ही देगा, जब वह समझेगा कि शिष्य इस योग्य हुआ कि शक्ति का में पहुंच जाती है। और राजनीतिज्ञ शुद्ध रूप से अशुद्ध आदमी है। | दुरुपयोग न होगा। वह पूरा अशुद्ध आदमी है। क्योंकि उसकी दौड़ ही शक्ति की है। इसलिए जो भी महत्वपूर्ण है, वह शास्त्रों में नहीं लिखा हुआ है। उसकी चेष्टा ही महत्वाकांक्षा की है। दूसरों पर कैसे हावी हो जाए! | शास्त्रों में तो सिर्फ अधूरी बातें लिखी हुई हैं। कोई भी गलत आदमी तो आइंस्टीन ने अपने अंतिम पत्रों में अपने मित्रों को लिखा है | | शास्त्र के माध्यम से कुछ भी नहीं कर सकता। शास्त्र में मूल बिंदु कि भविष्य में अब हमें सचेत हो जाना चाहिए। और हम जो खोजें. | छोड़ दिए गए हैं। जैसे सब बता दिया गया है, लेकिन चाबी शास्त्र वह गुप्त रहे। | में नहीं है। महल का परा वर्णन है। भीतर के एक-एक कक्ष का यह खयाल पश्चिम को अब आ रहा है। लेकिन हिंदुओं को यह | वर्णन है। लेकिन ताला कहां लगा है, इसकी किसी शास्त्र में कोई खयाल आज से तीन हजार साल पहले आ गया। चर्चा नहीं है। और चाबी का तो कोई हिसाब शास्त्र में नहीं है। चाबी पश्चिम में बहुत लोग विचार करते हैं कि हिंदुओं ने, जिन्होंने | | तो हमेशा व्यक्तिगत हाथों से गुरु शिष्य को देगा। इतनी गहरी चिंतना की, उन्होंने विज्ञान की बहत-सी बातें क्यों न | जिसको हम मंत्र कहते रहे हैं और दीक्षा कहते रहे हैं, वह गुप्तता खोजी! | में, जो जानता है उसके द्वारा उसको चाबी दिए जाने की कला है, ___ चीन को आज से तीन हजार साल पहले यह खयाल आ गया | | जिससे खतरा नहीं है, जो दुरुपयोग नहीं करेगा; और चाबी को कि विज्ञान खतरनाक है। चीन में सबसे पहले बारूद खोजी गई। | | सम्हालकर रखेगा, जब तक कि योग्य आदमी न मिल जाए। और लेकिन चीन ने बम नहीं बनाए; फुलझड़ी-फटाके बनाए। बारूद | | अगर योग्य आदमी न मिले, तो हिंदुओं ने तय किया कि चाबी को वही है, लेकिन चीन ने फुलझड़ी-फटाके बनाकर बच्चों का खेल | | खो जाने देना; हर्जा नहीं है। जब भी योग्य आदमी होंगे, चाबी फिर किया, इससे ज्यादा उनका उपयोग नहीं किया। खोजी जा सकती है। लेकिन गलत आदमी के हाथ में चाबी मत यह तो बिलकुल साफ है कि जो फुलझड़ी-फटाके बना सकता | देना। वह बड़ा खतरा है। और एक बार गलत आदमी के हाथ में है, उसको साफ है कि इससे आदमी की हत्या की जा सकती है। चाबी चली जाए, तो अच्छे आदमी के पैदा होने का उपाय ही क्योंकि कभी-कभी तो फुलझड़ी-फटाके से हत्या हो जाती है। हर | समाप्त हो जाता है। साल दीवाली पर न मालूम कितने बच्चे इस मुल्क में मरते हैं; | तो ज्ञान चाहे खो जाए, लेकिन गलत को मत देना। यह जो अपंग हो जाते हैं; आंख फूट जाती है; हाथ जल जाते हैं। हिंदुओं ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था की, उस तो तीन हजार साल पहले चीन को फटाके बनाने की कला आ व्यवस्था में यह सारा का सारा खयाल था। ब्राह्मण के अतिरिक्त गई। बम बड़ा फटाका है। लेकिन चीन ने उस कला को उस तरफ चाबी किसी को न दी जाए। शूद्र के हाथ तक तो पहुंचने न दी जाए। जाने ही नहीं दिया, उसको खेल बना दिया। जैसे ही यूरोप में बारूद ___ शूद्र से कोई मतलब उस आदमी का नहीं, जो शूद्र घर में जन्मा पहुंची कि उन्होंने तत्काल बम बना लिया। बारूद की ईजाद पूरब | है। हिंदुओं का हिसाब बहुत अनूठा है। हिंदुओं का हिसाब यह है में हुई और बम बना पश्चिम में। | कि पैदा तो हर आदमी शूद्र ही होता है। शूद्रता तो जन्म से सभी को हिंदुओं को, चीनिओं को तीन हजार साल पहले बहुत-से विज्ञान | मिलती है। इसलिए ब्राह्मण को हम द्विज कहते हैं। उसका दुबारा के सूत्रों का खयाल हो गया। और उन्होंने वे बिलकुल गुप्त कर जन्म होना चाहिए। वह गुरु के पास फिर से उसका जन्म होगा। दिए। वे सूत्र नहीं उपयोग करने हैं। मां-बाप ने जो जन्म दिया, उसमें तो शूद्र ही पैदा होता है। उससे न केवल विज्ञान के संबंध में, बल्कि धर्म के संबंध में भी हिंदुओं कोई कभी ब्राह्मण पैदा नहीं होता है। और जो अपने को मां-बाप 233 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * से पैदा होकर ब्राह्मण समझ लेता है, उसे कुछ पता ही नहीं है। किसी व्यक्ति में डाला जा सकता है। ब्राह्मण तो पैदा होगा गुरु की सन्निधि में। वह दुबारा उसका जन्म बहुत बार ऐसा होता है; आपको पता भी नहीं होता है कि होगा, वह ट्वाइस बॉर्न होगा। इसलिए हम उसे द्विज कहते हैं, | बहुत-से विचार आप में किस भांति प्रवेश कर जाते हैं। बहुत बार जिसका दूसरा जन्म हो गया। और दूसरे जन्म के बाद वह अधिकारी ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति के पास आप जाते हैं और आपके होगा कि गुरु उसे जो गुह्य है, जो छिपा है, वह दे। जो नहीं दिया विचार तत्काल बदलने लगते हैं; बुरे या अच्छे होने लगते हैं। जा सकता सामान्य को, वह उसे दे। वह उसकी धरोहर होगी। । संतों के पास अक्सर अनुभव होगा कि उनके पास जाकर आपके इसलिए बहुत सैकड़ों वर्ष तक हिंदुओं ने चेष्टा कि उनके शास्त्र | विचारों में एक झोंका आ गया; कुछ बदलाहट होग लिखे न जाएं, कंठस्थ किए जाएं। क्योंकि लिखते ही चीज सामान्य | के पास जाकर भी एक झोंका आता है; कुछ बदलाहट हो जाती है। हो जाती है, सार्वजनिक हो जाती है। फिर उस पर कब्जा नहीं रह संत किसी भावना में जीता है। उस भावना में वह इतनी सघनता जाता। फिर नियंत्रण रखना असंभव है। | से जीता है कि जैसे ही आप उसके पास जाते हैं, आपके मस्तिष्क में और जब लिखे भी गए शास्त्र, तो मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। | उसकी चोट पड़नी शुरू हो जाती है। वहां एक सतत वातावरण है। इसलिए आप शास्त्र कितना ही पढ़ें, सत्य आपको नहीं मिल बुरा आदमी भी एक भावना में जीता है। वह उसकी एकाग्रता है। सकेगा। सब शास्त्र पढ़कर आपको अंततः गुरु के पास ही जाना | उसके पास आप जाते हैं कि चोट पड़नी शुरू हो जाती है। पड़ेगा। भीड़ में जब भी आप जाते हैं, तभी आप लौटकर अनुभव करेंगे तो सभी शास्त्र गुरु तक ले जा सकते हैं; बस। और सभी शास्त्र | कि मन उदास हो गया, थक गया; जैसे आप कुछ खोकर लौटे हैं। आप में प्यास जगाएंगे और बेचैनी पैदा करेंगे, और चाबी कहां है, क्योंकि भीड़ एक उत्पात है; उसमें कई तरह के मस्तिष्क हैं, कई इसकी चिंता पैदा होगी। और तब आप गुरु की तलाश में निकलेंगे, | तरह की एकाग्रताएं हैं। वे सब एक साथ आपके ऊपर हमला कर जिसके पास चाबी मिल सकती है। देती हैं। आध्यात्मिक विज्ञान तो और भी खतरनाक है। क्योंकि आपको | इसलिए सदियों से साधक एकांत की तलाश करता रहा है। खयाल ही नहीं कि आध्यात्मिक विज्ञान क्या कर सकता है। अगर | एकांत की तलाश, आप जानकर हैरान होंगे, जंगल और पहाड़ के कोई व्यक्ति थोड़ी-सी भी एकाग्रता साधने में सफल हो जाए, तो | लिए नहीं है। एकांत की तलाश आपसे बचने के लिए है। वह कोई वह दूसरे लोगों के मनों को बिना उनके जाने प्रभावित कर सकता जंगल की खोज में नहीं जा रहा है, न पहाड़ की खोज में जा रहा है। है। आप छोटे-मोटे प्रयोग करके देखें, तो आपको खयाल में आ | वह आपसे दूर हट रहा है। वह आपसे बच रहा है। नकारात्मक है जाएगा। खोज। पहाड़ क्या दे सकते हैं! पहाड़ कुछ नहीं दे सकते। लेकिन रास्ते पर जा रहे हों, किसी आदमी के पीछे चलने लगे; कोई आप बहुत कुछ छीन सकते हैं। तीन-चार कदम का फासला रखें। फिर दोनों आंखों को उसकी पहाड़ों के पास कोई मस्तिष्क नहीं है। इसलिए पहाड़ों के पास चेथी पर, सिर के पीछे थिर कर लें। एक सेकेंड भी आप एकाग्र आप निश्चित रह सकते हैं। वे न तो बुरा देंगे, न भला देंगे। जो नहीं हो पाएंगे कि वह आदमी लौटकर पीछे देखेगा। | आपके भीतर है, वही होगा। लेकिन आदमियों के पास आप किया नहीं; सिर्फ आंख...। निश्चित नहीं रह सकते। क्योंकि पूरे समय उनके विचार आप में लेकिन ठीक रीढ़ के आखिरी हिस्से से मस्तिष्क शुरू होता है। | प्रवाहित हो रहे हैं—वे न भी बोलें तो भी, वे न भी चाहें तो भी। मस्तिष्क रीढ़ का ही विकास है। जहां से मस्तिष्क शुरू होता है, | उनका कचरा आप में बह रहा है; आपका कचरा उनमें बह रहा है। वहां बहुत संवेदनशील हिस्सा है। आपकी आंख का जरा-सा भी | तो जब भी आप भीड़ में जाते हैं, आप कचरे से भरकर लौटते प्रभाव, और वह संवेदना वहां पैदा हो जाती है; सिर घुमाकर देखना हैं। एक कनफ्यूजन, एक भीतर भीड़ पैदा हो जाती है। जरूरी हो जाएगा। अगर आपको थोड़ी सी भी एकाग्रता अनुभव हो जाए, तो आप और अगर आप दस-पांच लोगों पर प्रयोग करके समझ जाएं किसी के भी विचार बदल सकते हैं। बड़ी ताकत है विचार बदलने कि यह हो सकता है, तो उस संवेदनशील हिस्से से कोई भी विचार | में। तर्क करने की जरूरत नहीं है। विवाद करने की जरूरत नहीं है। 234 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि * सिर्फ एक विचार सतत किसी की तरफ फेंकने की जरूरत है। उसके से गलत लोगों के पास भी सूत्र पहुंच गए हैं। कभी मोह के कारण विचार बदलने शुरू हो जाते हैं। | पहुंच जाते हैं; कभी भूल-चूक से भी पहुंच जाते हैं। कभी बाप मरता और अगर आप कोई अशुभ काम करवाना चाहें, तो कोई है और सिर्फ मोह के कारण कुछ जानता है, वह बेटे को दे जाता है। अड़चन नहीं है। उसकी जेब में हाथ डालकर उसके नोट निकालने बेटा योग्य नहीं भी होता है तो भी। कभी गुरु मरता है और सिर्फ इस की जरूरत नहीं है। उससे ही कहा जा सकता है कि निकालो नोट आशा में दे जाता है कि आज नहीं कल शिष्य योग्य हो जाएगा। और सड़क पर गिरा दो। वह खुद ही रूमाल निकालने के बहाने | । कई बार सूत्रों की चोरी भी हो जाती है। धन की ही चोरी नहीं हो रूमाल के साथ नोट भी गिरा देगा। और वह सोचेगा कि भूल से सकती, सूत्रों की भी चोरी हो सकती है। गिर गया। हिंदुस्तान में बहुत दिन तक वैसा हुआ। बौद्धों के पास कुछ सूत्र जीवन के गहन में प्रवेश किया जा सकता है एकाग्रता के सेतु | थे, जो हिंदुओं के पास नहीं थे। तो हिंदू बौद्ध भिक्षु बनकर वर्षों से। शुभ भी किया जा सकता है, अशुभ भी किया जा सकता है। | तक बौद्ध गुरुओं की शरण में रहे, ताकि कुछ सूत्र वहां से पाए जा इसलिए एकाग्रता की कला किसी शास्त्र में लिखी हुई नहीं है। और | | सकें। कुछ सूत्र हिंदुओं के पास थे, जो जैनों या बौद्धों के पास नहीं जो भी लिखा हुआ है, उसको आप वर्षों करते रहें, तो भी एकाग्र थे। तो जैन और बौद्ध, हिंदू बनकर वर्षों तक हिंदू गुरुओं की शरण न होंगे। | में रहे. ताकि कहीं से कछ पाया जा सके। और जैसे ही उन्होंने पा इसलिए बहुत लोग मेरे पास आते हैं; वे कहते हैं कि हम वर्षों लिया, वह दूसरी परंपरा को दे दिया गया। से एकाग्रता साध रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है! वे किताब हजारों साल से खोज चलती है। उस खोज में ठीक और गलत पढ़कर साध रहे हैं। कभी होगा भी नहीं। थोड़े दिन में थक जाएंगे। | सब तरह के लोग लगे हुए हैं। किताब भी फेंक देंगे, एकाग्रता को भी भूल जाएंगे। रासपुतिन ने भी सूत्र खोज लिए। और मनुष्य तो शक्तिशाली वह एकाग्रता तभी कोई उनको बता सकेगा, जब पाया जाएगा था। क्योंकि सूत्रों से ही कुछ नहीं होता। आपको अगर कुंजी भी दे कि उनका हृदय उस शुद्धि में है कि अब वे किसी को नुकसान नहीं दी जाए, तो आप इतने कमजोर हैं कि कुंजी हाथ में रखे बैठे रहेंगे, पहुंचा सकते हैं। बच्चों के हाथ में तलवार नहीं दी जा सकती। और ताले तक भी कुंजी नहीं पहुंचाएंगे। या भरोसा ही न करेंगे कि कुंजी जो दे, वह आदमी मंगलदायी नहीं है। | खोल भी सकती है कुछ। या कुंजी को कुछ और समझते रहेंगे। या रासपुतिन यां दुर्वासा, या उस तरह के लोग शक्तिशाली लोग जहां ताला नहीं कंजी लगाते रहेंगे। हैं। अदम्य उनके पास ऊर्जा है; लेकिन हृदय की शुद्धि नहीं है। | लेकिन रासपतिन अथक चेष्टा किया: और उसने कछ पाया रासपुतिन जैसे लोग कैसे सूत्र खोज लेते हैं? रासपुतिन भटका | और उसे पाकर उसने श्रम भी किया उस पर। और एक बड़ी अनूठी है। जैसे गुरजिएफ सूफी फकीरों, लामाओं, ईरान, तिब्बत, भारत, | | क्षमता बुराई की उसने पैदा कर ली। रासपुतिन प्रतीक बन गया इस मिस्र, सब जगह जैसे गुरजिएफ भटका कोई बीस साल तक सूत्रों | सदी में बुरे से बुरे आदमी का। लेकिन बड़ा शक्तिशाली था। की तलाश में, वैसे ही रासपुतिन भी भटका है। और आज की| ध्यान रहे, हृदय की शुद्धि अत्यंत अपरिहार्य है। नैतिकता इतनी कमजोर है कि जिनको आप साधारणतः साधु भी | इसलिए बुद्ध ने तो अपने शिष्यों को पहले चार ब्रह्मविहार साधने कहते हैं. वे भी खरीदे जा सकते हैं। और छोटी-मोटी बातें लीक | को कहा है। जब तक ये चार ब्रह्मविहार न सध जाएं-ब्रह्मविहार, आउट हो जाती हैं। | जब तक ब्रह्म में इनके द्वारा विहार न होने लगे तब तक कोई रासपुतिन भटका तलाश में कि कहां से सूत्र मिल सकते हैं। और | | योगिक साधना नहीं करनी है। तो करुणा पहले सध जाए; मैत्री पहले उसने जरूर कहीं से सूत्र खरीद लिए। उसने अथक मेहनत की। सध जाए; मुदिता पहले सध जाए; उपेक्षा पहले सध जाए। और वर्षों के श्रम के बाद उसने कुछ रास्ते निकाल लिए। कुछ | ये चारः करुणा, मैत्री, मुदिता, उपेक्षा। क्योंकि जिसकी करुणा छोटी-मोटी कुंजियां उसके हाथ में आ गईं। और उसने उनका | | गहन है, वह किसी को नुकसान न पहुंचा सकेगा। जिसकी मैत्री की उपयोग किया। भाव-दशा है, उसके लिए कोई शत्रु न रह जाएगा। और मुदिता का आज भी कुछ लोगों के पास छोटे-मोटे सूत्र हैं। अनेक कारणों अर्थ है, प्रफुल्लता, प्रसन्नता। जो प्रसन्न है और प्रफुल्ल है, वह 235] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * किसी को दुखी नहीं करना चाहता। सिर्फ दुखी आदमी ही दूसरे को | | उचित है; यह इसके कर्म का सहज परिणाम है। और यह अशांत दुखी करना चाहता है। रहे, पीड़ा भोगे, तो शायद हत्या से बचेगा। तो जब भी आप किसी को दुखी करना चाहते हों, समझना कि | | चोर को शांति मिलनी उचित नहीं है। उसके हृदय की धड़कन आप दुखी हैं। आनंदित आदमी किसी को दुखी नहीं करना चाहता। बढ़ी ही रहनी चाहिए। क्योंकि जैसे ही उसको शांति मिलती है, वह आनंदित आदमी चाहता है, सभी आनंदित हो जाएं। आनंदित | दुबारा चोरी करेगा। और करेगा क्या? बुरे आदमी को शांति मिलनी आदमी आनंद को बांटना और फैलाना चाहता है। जो हमारे पास उचित नहीं है। यह ऐसे ही है, जैसे बुरे आदमी को स्वास्थ्य मिलेगा, है, वही हम बांटते हैं; उसी को हम फैलाते हैं। तो वह करेगा क्या? इसलिए बुद्ध ने मुदिता को अनिवार्य कहा। क्योंकि जब तक तुम ___ जीसस के जीवन में एक बड़ी प्यारी कथा है। और वह यह है कि प्रसन्नचित्त न हो जाओ, तब तक तुम खतरनाक हो। जीसस एक गांव से गुजरे। उन्होंने एक आदमी को एक वेश्या के दुखी आदमी खतरा है। वह किसी को सुखी नहीं देखना चाहेगा। पीछे भागते हुए देखा। तो उन्होंने उस आदमी को रोका, क्योंकि दुखी आदमी चाहता है कि सब लोग मुझसे ज्यादा दुखी हों, तभी चेहरा उसका पहचाना हुआ मालूम पड़ा। और जीसस ने कहा कि उसको लगता है कि मैं थोड़ा सुखी हूं, तुलना में। अगर मैं भलता नहीं है. तो जब मैं पहली दफा आया. तम अंधे थे। और चौथा बुद्ध ने कहा, उपेक्षा, इनडिफरेंस। बुद्ध ने कहा, जब और मेरे ही स्पर्श से तुम्हारी आंखें वापस लौटीं। और अब तुम ऐसी उपेक्षा सध जाए कि जीवन हो या मृत्यु, बराबर मालूम पड़े। आंखों का क्या कर रहे हो! वेश्या के पीछे भाग रहे हो? .. सुख हो या दुख, समान मालूम पड़े। हानि हो या लाभ, सफलता ___ उस आदमी ने कहा, हे प्रभु, मैं तो अंधा था। तुमने ही मुझे आंखें हो या विफलता, कोई चिंता न रह जाए। इन चार ब्रह्मविहारों के सध दीं। अब मैं इन आंखों का और क्या करूं? आंखें रूप देखने के जाने के बाद साधक योग में प्रवेश करे। लिए हैं। और अगर मैं तुम्हारे पास आंखें मांगने आया था, तो इसलिए पतंजलि ने भी आठ यम-नियम की पहले ही व्यवस्था | इसीलिए मांगने आया था कि आंखों से रूप देख सकूँ। दी है। और इसके पहले कि धारणा, ध्यान और समाधि के अंतिम | | जीसस ने सोचा भी नहीं होगा कि जिसको आंखें दी हैं, वह तीन चरण आएं, पांच चरणों में हृदय का पूरा रूपांतरण है। वे जो आंखों का क्या करेगा। सभी आदमी आंखों का एक ही उपयोग पांच प्राथमिक चरण हैं, जब तक उनसे हृदय का रूपांतरण न होता | | नहीं कर सकते। उपयोग तो आदमियों पर निर्भर होगा। आंखें तो हो, तब तक तीन चरण, पतंजलि राजी नहीं हैं। उपकरण हैं। __ अभी पश्चिम में पूरब से कई कुंजियां पहुंच रही हैं। जैसे महेश तो अगर मंत्र-जाप से बेईमान को शांति मिले, तो वह बेईमानी योगी ध्यान की एक पद्धति पश्चिम ले गए। तो उन्होंने बाकी सारे | में और कुशल हो जाएगा। खतरनाक है यह बात। और मंत्र-जाप यम-नियम अलग कर दिए। सिर्फ मंत्र-योग। उसका परिणाम | से अगर धन की दौड़ में कोई आदमी लगा है, उसको शांति मिले, होता है; लेकिन खतरनाक है। आग के साथ खेलना है। और | | तो उसकी धन की दौड़ और कुशल हो जाएगी; और क्या होगा! लोग जल्दी उत्सुक होते हैं, क्योंकि न कोई नियम है, न कोई | | और महेश योगी से लोग पूछते हैं, तो वे कहते हैं, बिलकुल साधना है। बस, एक बीस मिनट बैठकर एक मंत्र-जाप कर लेना ठीक है। तुम जहां भी जा रहे हो, तुम जो भी कर रहे हो, उसमें ध्यान है: पर्याप्त है। तम चोर हो, तो अंतर नहीं पड़ता: तम बेईमान हो. से सफलता मिलेगी। तो अंतर नहीं पड़ता। तुम हत्यारे हो, तो अंतर नहीं पड़ता। बीस | निश्चित सफलता मिलेगी। लेकिन तुम कहां जा रहे हो, यह पूछ मिनट मंत्र-जाप कर लेना है। लेना जरूरी है। तुम क्या कर रहे हो, यह पूछ लेना जरूरी है। सभी उस मंत्र-जाप से शांति मिलती है, क्योंकि मंत्र मन को संगीत सफलताएं सफलताएं नहीं हैं। बुरे काम में विफल हो जाना बेहतर से भर देता है। लेकिन ध्यान रहे, हत्यारे को शांति मिलनी उचित | | है। बुरे काम में सफल हो जाना बेहतर नहीं है। तो सफलता अपने नहीं है। क्योंकि हत्यारे की पीड़ा क्या है? कि उसने हत्या की है! आप में कोई मूल्य नहीं है। यह उसकी पीड़ा है; यह अपराध उसके ऊपर है। इसको अगर लेकिन यह परिणाम पश्चिम में घटित होगा; क्योंकि कोई भी शांति मिल जाए, यह दूसरी हत्या करेगा। इसको अशांत होना यम और नियम के लिए तो राजी नहीं है। लोग चाहते हैं, जैसे वे 236 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि * इंस्टैंट काफी बना लेते हैं, वैसा इंस्टैंट मेडिटेशन हो! एक पांच वैराग्य तो आपको कई बार अनुभव होता है। लेकिन उसकी हल्की मिनट में काम किया; और उस काम के लिए भी कुछ करना नहीं झलक आती है। उसको अगर आप अभ्यास न बना सकें, तो वह है। आप हवाई जहाज में उड़ रहे हों, तो भी मंत्र-जाप कर सकते खो जाएगा। अभ्यास का अर्थ है कि जिस वैराग्य की झलक मिली हैं। कार में चल रहे हों, तो भी मंत्र-जाप कर सकते हैं। ट्रेन में बैठे है, वह झलक न रह जाए, उसकी गहरी लकीर हो जाए आपके हों, तो भी मंत्र-जाप कर सकते हैं। उसमें कोई कुछ आपको | भीतर। बदलना नहीं है। सिर्फ एक तरकीब है, जिसका उपयोग करना है। जैसे कि आप धन के लिए दौड़ते थे। और धन आपको मिल वह तरकीब आपको भीतर शांत करेगी। वह शांति आत्मज्ञान गया। धन के मिलने के बाद आपके मन में विषाद आएगा। क्योंकि नहीं बन सकती। वह शांति अक्सर तो आत्मघात बनेगी। क्योंकि आप पाएंगे कि कितनी आशा की थी; आशा तो कुछ पूरी न हुई! आपके पास जो व्यक्तित्व है, वह खतरनाक है। वह उस शांति का कितने सपने संजोए थे; वे सब सपने तो धूल में मिल गए! धन उपयोग करेगा। हाथ में आ गया। कितना नहीं सोचा था आनंद मिलेगा; वह आनंद इसलिए अगर पतंजलि और बुद्ध और महावीर ने ध्यान के पूर्व | तो कुछ मिला नहीं! कुछ अनिवार्य सीढ़ियां रखी हैं, तो अकारण नहीं रखी हैं। गलत तो जो भी धन को पा लेगा, उसके पीछे एक छाया आएगी, जहां आदमी के पास शक्ति न पहुंचे, इसलिए। और गलत आदमी अगर वैराग्य का अनुभव होगा। उसे लगेगा, धन बेकार है। लेकिन अगर चाहे, तो पहले ठीक होने की प्रक्रिया से गुजरे। और उसके हाथ में इसे अभ्यास न बनाया, तो यह झलक खो जाएगी। और मन फिर चाबी तभी आए, जब कोई दुरुपयोग, अपने लिए या दूसरों के कहेगा कि आनंद इसलिए नहीं मिल रहा है, क्योंकि धन आनंद के लिए, वह न कर सके। लिए पर्याप्त नहीं है, और चाहिए। दस हजार ही हैं, दस लाख ही ___ यही सवाल नहीं है कि दूसरों के लिए आप हानि पहुंचा सकते हैं, करोड़ चाहिए। हैं, खुद को भी पहुंचा सकते हैं। गलत आदमी खुद को भी | करोड़ भी मिल जाएंगे एक दिन; कुछ अड़चन नहीं है। तब फिर पहुंचाएगा। वैराग्य का उदय होगा। फिर लगेगा कि वे सब इंद्रधनुष खो गए। सच तो यह है कि बिना खुद को हानि पहुंचाए, कोई दूसरे को वह सब मृग-मरीचिका हाथ नहीं आई। फिर खाली के खाली हैं। हानि पहुंचा ही नहीं सकता। इसका कोई उपाय ही नहीं है। इसके और इतना जीवन गया मुफ्त! क्योंकि धन कोई ऐसे ही नहीं मिलता, पहले कि मैं आपको आग लगाऊं, मुझे खुद जलना पड़ेगा। इसके जीवन से खरीदना पड़ता है। खुद को बेचो, तो धन मिलता है। पहले कि मैं आपको जहर पिलाऊं, मुझे खुद पीना पड़ेगा। जो मैं जितना खुद को मिटाओ, उतना धन इकट्ठा होता है। दूसरों के साथ करता हूं, वह मुझे अपने साथ पहले ही कर लेना तो आत्मा नष्ट होती जाती है, सोने का ढेर लगता जाता है। फिर विषाद पकड़ेगा; फिर वैराग्य लगेगा; लेकिन उसकी झलक ही आएगी। मन फिर जोर मारेगा कि छोड़ो भी, एक करोड़ से कहीं दुनिया में सुख मिला है! यह वही मन है, जो दस लाख पर कहता दूसरा प्रश्नः साधन तत्व को अभ्यास और वैराग्य, ऐसे था, करोड़ से मिलेगा। यह वही मन है, जो दस हजार पर कहता दो भागों में बांटने का क्या कारण है? क्या वे एक | था, दस लाख पर मिलेगा। यह वही मन है, जो दस पैसे पर कहता ही चीज के दो छोर नहीं हैं? क्या सम्यक साधना था, दस हजार पर मिलेगा। पद्धति के अभ्यास से वैराग्य का उदय अवश्यंभावी नहीं ___ जब तक कोई पूरा अध्ययन न करे अपने जीवन की घटनाओं है? और वैराग्य क्या स्वयं एक साधन पद्धति नहीं है? का; और वैराग्य की जो झलकें आती हैं, उनको पकड़ न ले; और फिर उन वैराग्य की झलकों का अभ्यास न करे...। अभ्यास का मतलब है, उनकी पुनरुक्ति, उनका बार-बार स्मरण, उनकी चोट 27 भ्यास और वैराग्य बड़ी भिन्न बातें हैं। वैराग्य तो एक निरंतर भीतर डालते रहना। और जब भी मन पुराना धोखा दे, तो ग भाव है; और अभ्यास एक प्रयत्न, एक यत्न है। वैराग्य का स्मरण खड़ा करना। पड़ता है। 237 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * तो एक घटना बनेगी। जब वैराग्य पानी पर खींची लकीर न | | मर गया—कि पत्नी चल बसी, कि बेटा, कि पति, कि पिता-तो होगा. पत्थर पर खींची लकीर हो जाएगा। और उसी वैराग्य के थोडी चोट लगती है कछ दिन। यह हमने इंतजाम किया है। सहारे मन का अंत होगा; नहीं तो मन का अंत नहीं होगा। एक-एक | यह इंतजाम ऐसा ही है, जैसे ट्रेन में बफर लगे होते हैं। दो रेल बूंद वैराग्य इकट्ठा करना होगा। उसका नाम अभ्यास है। | के डब्बों के बीच में बफर लगे रहते हैं, ताकि धक्का बफर पी जाएं यह बड़े मजे की बात है कि वैराग्य तो सभी को आता है; ऐसा | और यात्रियों को धक्का न लगे। कार में स्प्रिंग लगे रहते हैं कि गड्डा आदमी ही खोजना मुश्किल है, जिसको वैराग्य न आता हो। हर आए, तो स्प्रिंग गड्ढे के धक्के को पी जाएं, भीतर बैठे यात्री को संभोग के बाद वैराग्य आता है। हर संभोग के बाद ब्रह्मचर्य की धक्का न लगे। आकांक्षा उठती है। हर बार ज्यादा खा लेने के बाद उपवास की तो हमने अपने चारों तरफ बफर लगा रखे हैं। चोट आए, तो सार्थकता दिखाई पड़ती है। हर बार क्रोध करके पश्चात्ताप उठता | बफर पी जाए। तो अगर मुसलमान मर गया, तो हिंदू के लिए बफर है। हर बार बुरा करके न करने की प्रतिज्ञा मन में आती है। पर है कि ठीक है, मुसलमान था; मर गया तो क्या हर्ज है! पहले ही क्षणभर को रहती है, यह बात। मन प्रबल है, क्योंकि मन का मर जाना चाहिए था। आदमी बुरा था। और होने से कोई लाभ भी अभ्यास जन्मों-जन्मों का है। नहीं था। हिंदू मर गया, तो मुसलमान के लिए बफर है। नीग्रो मर तो दो तरह के अभ्यास हैं जगत में। एक मन का अभ्यास और जाए, तो अमेरिकी को फिक्र नहीं। अमेरिकी मरे, तो नीग्रो को एक वैराग्य का अभ्यास। तो आप मन का अभ्यास तो पूरी तरह | प्रसन्नता है। ये हमने बफर पैदा किए हैं। शत्रु मर जाए, तो ठीक। करते हैं। वैराग्य मन का विपरीत है। वैराग्य का मतलब यह है कि इन सब बफर के बाद दो-चार लोग ही बचते हैं हमारे मन का एंटीडोट। वह मन जब भी नया धोखा खड़ा करे, तब आस-पास, जिनकी मौत से हमको थोड़ी-बहुत चोट पहुंचेगी। आपको वैराग्य की स्मृति खड़ी करनी है। यह तो मैं पहले भी सुन नहीं तो हर एक की मौत से चोट पहुंचती है। क्योंकि कौन मरता है, तो मैं पहले भी कर चका: यह तो मेरा अनभव है और इससे क्या फर्क पड़ता है। मौत घटती है। और मौत की चोट परिणाम क्या हुआ? पहुंचती है; और वैराग्य का उदय होता है। लेकिन हमने तरकीबें निरंतर परिणाम का चिंतन पुराने अनुभव की स्मृति है, और बना रखी हैं। पुरानी झलकों का संग्रह है। इसको जब कोई साधता ही चला जाता फिर जो हमारे बिलकुल निकट हैं, उनसे भी बचने के लिए हमने है, तो धीरे-धीरे मन के विपरीत एक नई शक्ति का निर्माण होता बफर बना रखे हैं। अगर पत्नी भी मर जाए, तो भी हम कहते हैं, है। जो मन के लिए नियंत्रण बन जाता है; और मन के लिए साक्षी | जल्दी ही मिलना होगा, स्वर्ग में मिलेंगे। थोड़े ही दिन की बात है। बन जाता है; और मन की जो पागल दौड़ है, उसे तोड़ने में सहयोगी और आत्मा अमर है, इसलिए पत्नी कुछ मरी नहीं है। यह तो सिर्फ हो जाता है। कई बार मन आपको पकड़ लेगा फिर-फिर। लेकिन शरीर छूट गया है। कोई रास्ता हम खोज लेते हैं। डा-सा संग्रह है. तो पनः स्मरण आ जाएगा बेटा मर जाए तो हम कहते हैं. परमात्मा. जो प्यारे लोग हैं. और आप रुक सकेंगे। उनको जल्दी उठा लेता है। यह बफर है। इससे हम अपने को राहत अभ्यास का केवल इतना ही अर्थ है, जीवन में जो सहज वैराग्य देते हैं, कंसोलेशन देते हैं। इससे सांत्वना बना लेते हैं कि ठीक है; की झलक आती है, उसको संजो लेना है, इकट्ठा कर लेना है; | परमात्मा के लिए प्यारा होगा, इसलिए बेटे को उठा लिया। आपका उसकी शक्ति निर्मित कर लेनी है। और अभ्यास के उपाय हैं। बेटा परमात्मा को प्यारा होना ही चाहिए! सिर्फ गलत लोग ज्यादा मृत्यु तो आपको कई दफा अनुभव होती है, लेकिन हमने ऐसी | | जीते हैं। अच्छे लोग तो जल्दी मर जाते हैं। कि अपना कोई कर्म व्यवस्था कर ली है कि उसके अनुभव की हमें चोट नहीं लगती। होगा, जिसकी वजह से दुख भोगना पड़ रहा है। कोई कहता है, कोई मर गया। अगर वह कोई बहुत निकट का मौत को बचाते हैं; कुछ और चीजें बीच में ले आते हैं। कर्म का नहीं है, तो हम कहते हैं, बुरा हुआ। बात समाप्त हो गई। उसके | फल है, इसलिए भोगना पड़ रहा है। अब फल है, तो भोगना बाद हमारे मन में कुछ भी नहीं होता। कोई बहुत निकट का मर | पड़ेगा। तो मौत को हटा दिया, डायवर्शन पैदा हो गया। अब हम गया, तो दिन दो दिन खयाल में रहता है। कोई बहुत ही निकट का कर्म की बात सोचने लगे। लड़का, मौत, अलग हट गई। थोड़े दिन 238 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाग्रता और हृदय - शुद्धि सब भूल जाएगा, हम अपने काम-धंधे में लग जाएंगे। इस तरह हमने बफर हर चीज में खड़े कर रखे हैं और वैराग्य उदय नहीं हो पाता। अभ्यास का अर्थ है, बफर का तोड़ना । और हर जगह से, जहां से भी सूरज की किरण मिल सके, वैराग्य की किरण मिल सके, वहां से उसे भीतर आने देना। सब तरफ खुले होना। बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, मरघट पर जाओ। पहला ध्यान मरघट पर। और तीन महीने मरघट पर रहो । भिक्षु कहते, लेकिन मरघट पर जाने की क्या जरूरत है? ध्यान यहीं कर सकते हैं! ! बुद्ध कहते, यहां न होगा। तुम मरघट पर ही बैठो दिन-रात । चिताएं जलेंगी; लोग आएंगे जाएंगे; तुम वहीं ध्यान करना । तीन महीने जो मरघट पर बैठकर ध्यान कर लेता, उसके मौत के संबंध में जितने बफर होते, सब टूट जाते। तब वह यह नहीं देखता, कौन मरा। मौत दिखाई पड़ती। कौन का कोई संबंध नहीं रह जाता। और चौबीस घंटे मरघट पर बैठे-बैठे यह असंभव है तीन महीने में कि आपको यह समझ में न आ जाए कि यह देह आज नहीं कल जलेगी। यह असंभव है कि आपको सपने न आने लगें कि आप जलाए जा रहे हैं चिता पर, तीन महीने मरघट में रहने पर। यह असंभव है कि मौत इतनी प्रगाढ़ न दिखाई पड़ने लगे कि जीवन का रस खो जाए। तो मौत का अभ्यास हो जाएगा मरघट पर। अभ्यास से वैराग्य उदय होगा, घनां होगा। जीवन के साथ जो हमारे राग के, लगाव के संबंध हैं, वे क्षीण और शिथिल हो जाएंगे। अगर बुद्ध के जमाने में एक्सरे रहा होता, तो वे कहते कि अपनी पत्नी का एक्सरे अपने साथ रखो। और जब भी पत्नी की याद आए, एक्सरे देखो, तो समझ में आएगा कि देह कितनी सुंदर है। लोग फोटो रखते हैं। फोटो रखना ठीक नहीं है। एक्सरे की कापी रख लेना एकदम अच्छा है। और जब भी मन में आ जाए, तो फिर-फिर उसको देख लेना उचित है। तो एक्सरे की फोटो अभ्यास बन जाएगी। उससे वैराग्य का जन्म होगा; सघन होगा। फिर धीरे-धीरे पत्नी को भी देखेंगे, तो आपके पास एक्सरे वाली आंखें हो जाएंगी। उसकी सुंदर चमड़ी के पीछे हड्डियां दिखाई पड़ने लगेंगी। जब उसको छाती से लगाएंगे, तो आपको अस्थिकंकाल छूता हुआ मालूम पड़ेगा। बफर तोड़ने हैं और वैराग्य को जन्माना है। और उसका निरंतर अभ्यास चाहिए। क्योंकि मन का पुराना अभ्यास है। और मन से | संघर्ष है। मन को काटना है। मन बहुत सबल है। आपने ही उसको सबल किया है। हम सूत्र को लें। और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान । और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस- स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं। मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप | होकर प्राण और अपान से युक्त अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, | ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय-विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं। कुछ बातें। पहली बात, कृष्ण के ये सारे सूत्र अर्जुन का समर्पण | संभव हो सके, इसके लिए हैं। कृष्ण ये सारी बातें कह रहे हैं उस एक केंद्र की ओर इशारा करने को, जो सबका आधार है। और अगर वह आधार हमें दिखाई पड़ने लगे, तो हम उस आधार की शरण सहज ही जा सकेंगे। अगर हमारी बुद्धि को उसकी झलक भी मिलने लगे, तो हम अपने होने का आग्रह, और अपने आपको कुछ समझने का आग्रह, अस्मिता और अहंकार की भ्रांति हमारी छूटनी शुरू हो जाएगी । तो कृष्ण जब बार-बार यह कहते हैं कि मैं यह हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं, तो बहुत-से पढ़ने वालों को गीता में ऐसा लगता है कि कृष्ण बड़े अहंकारी हैं। यह आदमी अजीब है। यह क्यों कहे चला जाता है कि सभी चांद - सूरज की रोशनी मैं हूं कि सभी रसों में छिपा हुआ रस मैं हूं! कि सभी प्राणों में धड़कता प्राण मैं हूं ! आज के जमाने में तो गीता जैसी किताब लिखनी बड़ी मुश्किल हो जाए; कहनी भी मुश्किल हो जाए। फौरन पत्थर पड़ जाएं। क्योंकि लोग कहें कि दिमाग खराब है आपका ! सभी कुछ आप हैं? 239 और अगर हिंदुओं को गीता पढ़ते वक्त यह खयाल नहीं आता, तो बफरों के कारण । उनको लगता है, कृष्ण भगवान हैं, इसलिए ठीक है। लेकिन मुसलमान जब गीता पढ़ता है, तो उसे फौरन खयाल आता है कि यह आदमी ठीक नहीं मालूम पड़ता। जैन जब पढ़ता है, तो उसे फौरन समझ में आता है कि यह आदमी अहंकारी है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * हिंदू सोच लेता है कि भगवान हैं, ठीक है। बाकी अगर वह भी लेकिन उसके पहले यह नहीं कहा जा सकता। यह बड़ी अड़चन विचार करेगा, तो उसको भी लगेगा कि यह बात क्या है? कृष्ण | की बात है। क्योंकि गुरु अगर यह कह दे, मैं भी नहीं हूँ, तुम भी क्यों इतना जोर देते हैं कि मैं ही सब कुछ हूं? नहीं हो, तो शिष्य यह तो मान लेगा कि तुम नहीं हो, यह नहीं मान और आपको अगर ऐसा लगे कि कृष्ण अहंकारी हैं, इतना जोर | | सकता कि मैं नहीं हूं। क्योंकि यह मानना बहुत कठिन बात है। यह अपने मैं पर देते हैं, तो समझना कि यह चोट आपके अहंकार को | तो कोई भी मान लेगा कि तुम नहीं हो; बिलकुल ठीक है; सच है। लग रही है। यह आपका अहंकार क्रुद्ध हो रहा है। | यह तो हम पहले ही जानते थे। इसलिए जो गुरु कहे, मैं नहीं हूं, कृष्ण का क्या प्रयोजन होगा? कृष्ण क्यों इतना जोर दे रहे हैं शिष्य बिलकुल राजी होगा। स्वयं पर? कृष्ण के जोर का कारण आप समझ लें। कृष्णमूर्ति के पास वैसी घटना रोज घट रही है। कृष्णमूर्ति कृष्ण का जोर स्वयं पर नहीं है; कृष्ण का जोर अर्जुन मिट जाए, | उलटा प्रयोग कर रहे हैं, ठीक कृष्ण से उलटा। लेकिन वह प्रयोग इस पर है। पर इसके लिए एक ही उपाय है कि अर्जुन का केंद्र अर्जुन सफल नहीं हो रहा है। वह सफल नहीं हो सकता। उस सफलता के बाहर हट जाए। अर्जुन का केंद्र अर्जुन के भीतर न हो, कहीं बाहर के लिए तो अर्जुन से भी श्रेष्ठ शिष्य चाहिए, जो कि बड़ा हो जाए। कष्ण की यह सारी चेष्टा इसीलिए है कि अर्जन देख पाए मश्किल मामला है। कि उसके भीतर जो मैं की आवाज है, वह व्यर्थ है; और वह संपूर्ण __ कृष्णमूर्ति कहते हैं, न मैं गुरु हूं, न मैं अवतार हूं; मैं कोई भी नहीं के केंद्र पर समर्पित हो जाए। हूं। वे जो शिष्य बैठकर सुनते हैं, वे बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, __ अर्जुन ने कहीं भी यह सवाल नहीं उठाया कि आप इतने अहंकार | बिलकुल ठीक है। लेकिन इससे यह खयाल नहीं आता उनको कि की बातें क्यों कर रहे हैं! यह भी जरा आश्चर्यजनक है। क्योंकि हम भी नहीं हैं। अपने मैं से भरकर लौटते हैं, घटकर नहीं। अर्जुन बुद्धिमान है; जैसा सोफिस्टिकेटेड होना चाहिए, उतना है। और एक खतरा हो जाता है कि अब जहां भी कृष्ण मिल जाएंगे सुशिक्षित है, सुसंस्कारी है। उस समय के प्रतिभावान व्यक्तियों में | | उनको, और कृष्ण कहेंगे कि मैं हूं प्राणों का प्राण; मैं हूं ज्योतियों एक है। मेधावी है। नहीं तो कृष्ण की मित्रता का कोई अर्थ भी न की ज्योति। वे कहेंगे, आपका दिमाग खराब है। क्योंकि कृष्णमूर्ति था। और कृष्ण जिसके सारथी बनने को राजी हो गए हैं, वह कोई ने कहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। ज्ञानी तो सदा यह कहते हैं कि मैं साधारण गंवार नहीं है। पर अर्जुन एक बार भी नहीं कहता कि आप कुछ भी नहीं हूं। क्यों अपने अहंकार की घोषणा किए जा रहे हैं! ज्ञानी सदा जानते हैं कि वे कुछ भी नहीं हैं। लेकिन अज्ञानियों से कृष्ण अर्जुन से कह सके, क्योंकि अर्जुन का एक प्रेम, एक बात करना जोखम का काम है। सतत प्रेम कृष्ण के प्रति है। और जहां प्रेम हो, वहां हम समझ पाते | कृष्ण इतने जोर से कह रहे हैं कि मैं यह हूं, ताकि अर्जुन को हैं कि यह जो कहा जा रहा है इसमें कोई अहंकार नहीं है। और प्रेम प्रतीति होने लगे कि वह कुछ भी नहीं है। हो, तो यह भी हम समझ पाते हैं कि यह मेरे लिए कहा जा रहा है। यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि एक बड़ी प्रसिद्ध घटना है, जो तो अर्जुन को पूरे समय यह लगा है कि मैं मिट जाऊं, इसकी | | आपने सुनी होगी कि अकबर ने एक लकीर खींच दी दीवाल पर चेष्टा के लिए कृष्ण अपने मैं को बड़ा कर रहे हैं। वे अपने मैं को | और अपने दरबारियों को कहा कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे खड़ा कर रहे हैं, ताकि मेरा मैं उस बड़े मैं में खो जाए। वे अपने मैं | | नहीं कर पाए, क्योंकि बुद्धि सीधी कहेगी कि बिना छुए कैसे छोटी के विराट रूप को मुझे दे रहे हैं, ताकि मैं एक बूंद की तरह उस | होगी? हाथ लगाना पड़े, पोंछना पड़े। लेकिन बीरबल ने एक बड़ी सागर में खो जाऊं। | लकीर उसके पास खींची। उस लकीर को नहीं छुआ, लेकिन वह यह सिर्फ एक उपाय है। अर्जुन मिट सके, राजी हो सके मिटने | | छोटी हो गई। को, इसके लिए यह सिर्फ एक सहारा है। ये कृष्ण इतना ही कर रहे हैं कि अर्जुन की लकीर के पास एक प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को यह सहारा देगा ही। जिस दिन | बहुत बड़ी लकीर खींच रहे हैं, कृष्ण की लकीर। वह अर्जुन का मैं शिष्य मिट जाएगा, उस दिन गुरु हंसकर उससे भी कह देगा कि | है, छोटा-सा टिमटिमाता दीया; और कृष्ण कह रहे हैं, सूर्यों का तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं है। | सूर्य मैं हूं। तू इधर देख, तू इस तरफ मुड़, तू कहां छोटे-से दीए 240 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि की टिमटिमाती लौ! और मिट्टी का तेल–वह भी मिलना | | मिलता है। मुश्किल—उसमें तू कब तक टिमटिमाता रहेगा, इस तरफ देख। यह बात काल्पनिक समझी जाती थी आज तक कि आयुर्वेद और और अर्जुन का प्रेम है इतना कृष्ण के प्रति, वह देख सकता है। हिंदुओं की यह जो रस-विद्या है, यह काव्य है, प्रतीक है। लेकिन इतना भरोसा है कि यह आदमी कह रहा है, तो कोई सूरज होगा इधर पचास वर्षों में जो खोजबीन हुई है, उससे सिद्ध हो रहा है कि उसमें। और सूरज सबके भीतर छिपा है, इसलिए अड़चन कुछ भी | चांद निश्चित ही प्राण देने वाला है। नहीं है। अगर अर्जुन भाव से देख ले, तो कृष्ण के भीतर का सूरज | __ और सूरज जो कुछ भी देता है, उसमें एक उत्तेजना है; और चांद दिख जाएगा। और जिस दिन कृष्ण के भीतर का सूरज दिखेगा, वह | जो भी देता है, उसमें एक शांति है। इसलिए जितनी शांत औषधियां अपने टिमटिमाते दीए को छोड़ देगा। हैं, उन सब में चांद छिपा है। और जो सर्वाधिक शांतिदायी औषधि टिमटिमाता दीया छूट जाए, तो अपने भीतर का सूरज भी | थी, इसी कारण वह दूसरा अर्थ है सोम का-उसे हम सोम-रस दिखेगा। लेकिन यह गुरु जो है, वाया मीडिया है। अपने ही भीतर | | कहते थे। के सरज को देखना अति कठिन है। क्योंकि अपनी नजर तो अपने पश्चिम में वैज्ञानिक बड़ी खोज में लगे हैं कि वेदों ने जिसको दीए पर ही लगी है। इस दीए का बुझना जरूरी है। यह गुरु के सहारे सोम-रस कहा है, वह क्या है? पच्चीसों प्रस्ताव किए गए हैं, बुझ जाएगा। और एक बार बुझ जाए, तो गुरु के सूरज को देखने | | पच्चीसों दावे किए गए हैं कि यह वनस्पति सोम-रस होनी चाहिए। की कोई जरूरत नहीं है; अपना सूरज भी दिखाई पड़ने लगेगा। | | कुछ लक्षण मिलते हैं, लेकिन पूरे लक्षण किसी वनस्पति से नहीं हम दीए से आविष्ट होकर बैठे हैं। हमारी हालत ऐसी है, सूरज | | मिलते। संभावना इस बात की है कि वह वनस्पति पृथ्वी से खो गई। निकला है खुले मैदान में, हम अपना दीया रखे उस पर आंख गड़ाए | या हिंदुओं ने उसे विलुप्त कर दिया। बैठे हैं। इतने जन्मों से आंख गड़ाए हैं कि हिप्नोटाइज्ड हो गए हैं। काफी काम इस समय विज्ञान में चलता है। बड़े ग्रंथ लिखे जाते वह दीया ही दिखाई पड़ता है। और दीया देखते-देखते आंखें भी हैं, बड़ी शोध की जाती है सोम की खोज के लिए। क्यों? क्योंकि इतनी छोटी हो गई हैं कि अगर एक दफे सूरज की तरफ देखें, तो | | पश्चिम में इधर तीस वर्षों में वनस्पति के द्वारा, औषधि के द्वारा, अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा। रसायन के द्वारा समाधि कैसे प्राप्त की जाए, इस संबंध में बड़ा कृष्ण का सहारा सिर्फ इतना है कि आहिस्ता से अर्जुन को उसके | आंदोलन है। तो एल.एस.डी., मारिजुआना, मेस्कलीन, इन सब दीए से हटा लें। और एक बार वह सूरज कृष्ण का देख ले, तो वह की बड़ी पकड़ है। और सारी गवर्नमेंट्स डर गई हैं, सारी दुनिया में कृष्ण का सूरज नहीं है, वह सभी का सूरज है; वह सभी के भीतर | | रुकावट लगा दी गई है कि कोई भी इन चीजों को न ले। बैठा है। इसे खयाल में रखें। और यह बड़े मजे की बात है कि शराब सबसे ज्यादा खतरनाक . और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हआ संपूर्ण जगत को है, लेकिन शराब सब जगह प्रचलित है। और ये औषधियां शराब प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज | | जैसी खतरनाक नहीं हैं, लेकिन इन पर भारी रोक है। और डर इस अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान। और मैं ही पृथ्वी में | बात का है कि ये औषधियां व्यक्ति में ऐसे क्रांतिकारी फर्क ले प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण किए हूं और आती हैं कि आज का जो समाज है, वह उस व्यक्ति का उपयोग रस-स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को नहीं कर सकेगा। अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं। जैसे अगर युवक एल.एस.डी., मारिजुआना, और इस तरह की सोम दो अर्थ रखता है। एक तो सोम का अर्थ है, चंद्रमा। चीजों का उपयोग करने लगे, तो उनको युद्ध पर नहीं भेजा जा हिंदुओं का जो रस-विज्ञान है, उसमें औषधियों को जो पुष्टि मिलती | सकता। वे इतने शांत हो जाएंगे कि उनको युद्ध पर नहीं भेजा जा है, वह चंद्रमा से मिलती है। सूर्य उनको प्राण देता है। सूर्य के बिना | | सकता। उनसे दंगे, उपद्रव नहीं करवाए जा सकते। उन्हें रस ही नहीं औषधियां बड़ी नहीं होंगी; वनस्पतियां बड़ी नहीं होंगी; वृक्ष बड़े | | रह जाएगा लड़ने का। नहीं होंगे। सूरज उन्हें प्राण देता है। लेकिन जो रस है, जो उनमें इन सारी औषधियों के कारण पश्चिम के एक बहुत बड़े जीवनदायी तत्व है, वह उन्हें चांद से मिलता है; वह चांद के द्वारा विचारक अल्डुअस हक्सले ने घोषणा की थी कि इस सदी के पूरे 241 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 होते-होते हम सोम का पता लगा लेंगे। क्योंकि सोम इन्हीं से सूरज भी मैं हूं। इस जगत में जो तेज है, वह भी मेरा है; और इस मिलती-जुलती कोई चीज होनी चाहिए। इनसे बहुत श्रेष्ठ, लेकिन जगत में जो शांति है, सन्नाटा है, वह भी मेरा है। इस जगत में जो इनसे मिलती-जलती। क्योंकि वेद में जो वर्णन है सोम का कि ऋषि तरंगें हैं. वे भी मेरी हैं। इस जगत में जो मौन है. वह भी मेरा है। सोम को पी लेते हैं और समाधिस्थ हो जाते हैं, और परमात्मा के | इस जगत का जो ताप-उत्तप्त व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं; और इस आमने-सामने उनकी चर्चा और बातचीत होने लगती है। इस लोक | जगत का जो शांत समाधिस्थ व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं। से रूपांतरित हो जाते हैं; किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हैं। | मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप हो सकता है, सोम इस तरह का रासायनिक रस रहा हो कि | होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ अन्न को पचाता हूं। और मैं समाज को उसे विलुप्त कर देना पड़ा हो। क्योंकि समाज उसके | ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं। सहारे नहीं चल सकता। अगर लोग बहुत आनंदित हो जाएं, ___ यह काफी महत्वपूर्ण बात है, सभी प्राणियों के हृदय में नाचने-गाने लगें और तल्लीन रहने लगें, तो समाज नहीं चल | अंतर्यामीरूप से स्थित हूं। सकता है। समाज के लिए थोड़े दुखी, परेशान लोग चाहिए; वे ही आपके भीतर कहां अंतर्यामी है? अगर आप अपने अंतर्यामी को चलाते हैं। उनके बिना नहीं चल सकता। पकड़ लें, तो कृष्ण के चरण हाथ में आ गए। कौन-सा तत्व है । अगर सभी लोग प्रसन्न हों, तो बहुत मुश्किल है काम। किसको | आपके भीतर जो अंतर्यामी है? कैसे उस तत्व को पकड़ें? । लगाइएगा दौड़ में कि तू फैक्टरी चला। वह कहेगा, ठीक है; रोटी | | अंतर्यामी का अर्थ होता है, भीतर का जानने वाला। भीतर जो मिल जाती है। किसको दौड़ में लगाइएगा कि तू दिल्ली जा! वह | | छिपा है जानने वाला। तो जिस तत्व को आप जान नहीं सकते और कहेगा, हम पागल नहीं हैं। हम जहां हैं, वहीं दिल्ली है। हम मजे जो सबको जानता है, धीरे-धीरे उसकी गहराई में डूबना है। __ शरीर को मैं जानता हूं। शरीर को देखता हूं। तो जिसे मैं जानता यह जो इतनी दौड़ चलती है, अर्थ की, राजनीति की, सब तरह हूं और देखता हूं, वह अलग हो गया, पृथक हो गया; वह मेरा की विक्षिप्तता की, इसके लिए दुखी लोग चाहिए। युद्ध चलते हैं, | | ज्ञाता न रहा, ज्ञेय हो गया; वह आब्जेक्ट हो गया। वह संसार का संघर्ष चलता है, और चैन नहीं है एक क्षण को; इसके लिए बेचैन | हिस्सा हो गया। लोग चाहिए। भीतर आंख बंद करता हूं, तो हृदय की धड़कन भी मैं सुनता हूं, हिप्पियों से अमेरिका डरा हुआ है। क्योंकि अगर सारे लड़के अपने हृदय की धड़कन भी सुनता हूं। तो यह हृदय की धड़कन मेरी और लड़कियां हिप्पियों जैसे हो जाएं, तो अमेरिका डूबेगा। इस | | न रही; यंत्रवत हो गई, शरीर की हो गई। मैं देखने वाला इसके पीछे अर्थ-तंत्र में उसकी कोई जगह न रह जाएगी। खड़ा हूं। इसको भी मैं सुनता हूं; इससे मैं अलग हो गया, फासला इनको लड़वाया नहीं जा सकता है। ये लड़ने से इनकार करते हैं। हो गया। और यह परिणाम है एल.एस.डी. और मारिजुआना और | | आंख बंद करता हूं, विचारों की बदलियां घूमती हैं। उनको भी मेस्कलीन का, तो सोम का क्या परिणाम रहा होगा! | मैं देखता हूं कि यह विचार जा रहा है; यह अच्छा, यह बुरा; यह सोम अदभुततम रस है। हिंदू धारणा से सभी वनस्पतियों में चांद क्रोध, यह लोभ। इन विचारों के पार मैं देखने वाला हो गया। उतरता है। लेकिन सोम नाम की जो वनस्पति है, उसमें चांद पूरा | समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं इतनी ही चेष्टा करती हैं कि तुम्हें यह उतरता है। वह चांद की पूरी शांति को पी जाती है। उसके पत्ते-पत्ते | समझ में आना शुरू हो जाए कि तुम क्या-क्या नहीं हो। नेति-नेति; में, उसके फूल में, उसकी जड़ों में चांद छिप जाता है। और उसका यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं। काटते जाओ। जो भी दिखाई पड़ अगर विधिवत उपयोग किया जाए, तो समाधि फलित होती है। । जाए, जो भी ज्ञेय बन जाए, जो भी आब्जेक्ट बन जाए, उसे छोड़ते _ निश्चित ही, उस पर रोक लगाई गई होगी; उसको छिपाया गया | | जाओ; इलिमिनेट करो, नकार करो। और उस जगह ही रुको, जहां होगा या नष्ट कर दिया गया होगा। इसलिए बहुत खोज करके सिर्फ जानने वाला ही रह जाए। वह अंतर्यामी है। वह जो भीतर हिमालय में भी सोम वनस्पति उपलब्ध नहीं होती। | छिपा और सब जानता है; और किसी के द्वारा कभी जाना नहीं लेकिन कृष्ण यहां कह रहे हैं कि मैं वही सोम हूं। चांद भी मैं हूं, जाता। क्योंकि उसके पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। वह सबसे 242 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि पीछे है। वह अंत है। वह मूल है। वह उत्स है। | है कि मैं कौन हूं। सेल्फ रिमेंबरिंग। मेमोरी नहीं, आत्म-बोध, कि अगर हम अपने भीतर के अंतर्यामी को पकड़ लें, वही हम हैं, | मैं कौन हूं! अगर उसमें हम खड़े हो जाएं और ठहर जाएं, तो हम कृष्ण में खड़े आप दुकानदार हैं, यह आत्म-बोध नहीं है। क्योंकि दुकानदार हो गए। और तब हम भी कह सकेंगे कि यह सूरज मेरी ही रोशनी | होना सांयोगिक है; कोई आपका स्वभाव नहीं है। है. और यह चांद मझसे ही चमकता है. औषधियां मझसे ही बडी | लेकिन हम उसको भी स्वभाव की तरह पकड लेते हैं। दकानदार होती हैं; और इस जगत में जो सोम बरस रहा है, वह मैं ही हूं। को दुकान से हटाओ, उसको लगता है, उसकी आत्मा जा रही है। अंतर्यामी को आप पकड़ लें, तो यही घोषणा जो कृष्ण की है, | नेता को पद से हटाओ, उसको लगता है, मरे; गए। पद के बिना आपकी घोषणा हो जाएगी। और तभी आप समझ पाएंगे कि कृष्ण वह कुछ भी नहीं है। अहंकार के कारण यह घोषणा नहीं कर रहे हैं, यह एक आंतरिक मैंने सुना है, एक गांव से चार चोर निकलते थे। उन्होंने देखा कि अनुभव के कारण कर रहे हैं। एक नट छलांग लगाकर बड़ी ऊंची रस्सी पर चढ़ गया। और रस्सी और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं | | पर नाचने के कई तरह के करतब दिखाने लगा। उन चोरों ने कहा, तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन, संशय-विसर्जन होता है। | यह आदमी तो काम का है! इसको उड़ा ले चलें। हमें बड़ी मेहनत और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता | पड़ती है मकानों में चढ़ने में रात। यह तो गजब का आदमी है! एक और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं। इशारा करो कि दूसरी मंजिल पर पहुंच जाए। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन। उस नट को उन्होंने उड़ा लिया। रात उन्होंने बड़े से बड़ा जो नगर तीन शब्दों का कृष्ण ने उपयोग किया है, स्मृति, ज्ञान और । | का सेठ था, उसकी हवेली चुनी; जिसको वे अब तक नहीं चुन पाए अपोहन। अपोहन का अर्थ है, संशय-विसर्जन। यह बड़ी समझने थे, क्योंकि हवेली बड़ी थी, चढ़ने में अड़चन थी। की बात है। अपोहन शब्द याद रखने जैसा है। नट को लेकर वे पहुंचे। बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने नट से कहा, अब आपके भीतर सदा ऊहापोह चलता है। ऊहापोह का मतलब है, | | तू देर न कर भाई। एक, दो, तीन, छलांग लगा; ऊपर चढ़। लेकिन यह ठीक कि वह ठीक। यह भी ठीक. वह भी ठीक। कछ समझ नट वहीं खडा रहा। उन्होंने फिर दबारा कहा: नट वहीं फिर खड़ा नहीं पड़ता, क्या ठीक। संशय! मन डोलता रहता है घड़ी के रहा। उन्होंने फिर तीसरी बार कहा। तीसरी बार एक चोर बिलकुल पेंडुलम की तरह, बाएं-दाएं; कहीं ठहरता नहीं मालूम पड़ता। यह | नाराज हो गया, उसने कहा, अभी तू खड़ा क्यों है? चढ़! हमारे ऊहापोह की अवस्था है। पास ज्यादा समय नहीं है। अपोहन का अर्थ है, इससे विपरीत अवस्था। जहां कोई ऊहापोह | __नट ने कहा, पहले नगाड़ा बजाओ। बिना नगाड़े के कैसे नट नहीं; जहां संशय चला गया; जहां असंशय आप खड़े हो गए। जहां चढ़ सकता है! नगाड़ा जब बजे, तब उसने कहा, मैं...नहीं तो मेरे पेंडुलम घूमता नहीं है; खड़ा हो गया है थिर। जहां कोई कंपन नहीं पैर में गति ही नहीं है। हम खड़े नहीं हैं, कोई उपाय ही नहीं है। है। जहां यह ठीक या वह ठीक, ऐसा भी कोई सवाल नहीं है। जहां | | अब चोर नगाड़ा तो बजा नहीं सकता। पर नट ठीक कह रहा आप सिर्फ खड़े हैं; जहां चुनाव न रहा। जिसको कृष्णमूर्ति था। लेकिन उसको भी खयाल नहीं है कि अगर वह छलांग लगा च्वाइसलेसनेस कहते हैं, वह अपोहन है। जहां सब चुनाव शांत हो | | सकता है, तो नगाड़े से कुछ लेना-देना नहीं है। गए; जहां मुझे चुनना नहीं कि यहां जाऊं कि वहां जाऊं। जहां आप दुकानदार होना आपका, कि डाक्टर होना, कि मजदूर होना, कि बिना चुनाव चुपचाप खड़े हैं; जहां चित्त थिर है। स्त्री होना, कि पुरुष होना, सांयोगिक है। वह कोई आपका स्वभाव कष्ण कहते हैं. स्मति मैं हं। क्योंकि आपके भीतर जिसको आप नहीं है। और आप वह नहीं रहेंगे, तो सब मिट गया, ऐसा कुछ नहीं स्मृति कहते हैं; उसको कृष्ण स्मृति नहीं कह रहे हैं। जिसको आप है। कुछ नहीं मिटता। उसकी जो स्मृति है, उसको कृष्ण नहीं कह मेमोरी कहते हैं, वह नहीं। कि आपको पता है कि आपका नाम क्या | | रहे हैं कि वह मैं हूं; नहीं तो आप सोचें कि कृष्ण...। है, आपकी तिजोरी में कितना रुपया जमा है, आपकी दुकान कहां कृष्ण कह रहे हैं, आत्म-स्मरण मैं हूं, सेल्फ रिमेंबरेंस मैं हूं। है, इससे प्रयोजन नहीं है स्मृति का। स्मृति से इस बात का प्रयोजन | जिस दिन आप स्मरण करेंगे इन सब संयोगों से हटकर आपका जो | 243 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7* स्वभाव है, आप कौन हैं! मैं कौन हूं! शस्त्रों से छिदता हूं, न अग्नि मुझे जला सकती है। और जरा-सा ये सारी सांयोगिक बातें हैं। मेरा नाम, मेरा घर, पता, ये सब दुख आ जाए और आप छाती पीटकर रो रहे हैं! सब गीता वगैरह कुछ मूल्य के नहीं हैं। मेरा न कोई नाम है, और न मेरा कोई घर है, | रखी रह जाती है! वहां पता चलता है कि यह प्रज्ञा है या नहीं। और न मेरा कोई रूप है। मेरी वह जो अरूप और अनाम स्थिति है. प्रज्ञा आपके अनभव में काम आती है। और ज्ञान केवल बद्धि उसको कृष्ण कहते हैं, वह स्मृति है। की बातचीत है। और बुद्धि की बातचीत तो हम कुछ भी इकट्ठी कर स्मृति शब्द बाद में बिगड़ा और कबीर और दादू के समय में ले सकते हैं। सुरति हो गया। नानक और दादू और कबीर सुरति का उपयोग करते | मैं एक प्रोफेसर के घर मेहमान था। ऐसे अचानक मेरे कान में हैं। वे कहते हैं, सुरति जगाओ। सुरति का मतलब है, जगाओ | पति-पत्नी की बात पड़ गई। मैं अपने कमरे में बैठा था, जहां उनके उसको, जो आपके भीतर परमात्मा है। घर में रुका था। पति बाहर से आए। पत्नी से कहा—कुछ जोर से और जब रमण कहते हैं, जानो कि तुम कौन हो-हू एम आई; | ही कहा, बड़े प्रसन्न थे—कि आज रोटरी क्लब में रात मेरा तो वे इसी कृष्ण के पीछे पड़े हैं। यही कह रहे हैं कि पीछे पहचानो। | व्याख्यान है तिब्बत के ऊपर। पत्नी ने कहा, तिब्बत? लेकिन तुम वह जो सब संयोगों के पार है; सब स्थितियों के पार है; सभी | तिब्बत तो कभी गए नहीं! पति ने कहा, छोड़ो भी। सुनने वाले ही स्थितियों से गुजरता है, फिर भी किसी स्थिति के साथ एक नहीं है; कौन से तिब्बत होकर आए हैं! सभी अवस्थाओं से गुजरता है...। यह मैं सुन रहा था। तब मुझे पता चला कि ज्ञान के लिए तिब्बत कभी आप बच्चे हैं; कभी जवान हैं; कभी बूढ़े हैं; लेकिन | जाने की कोई जरूरत नहीं है; न सुनने वाले को, न बोलने वाले को। आपके भीतर कोई है, जो न बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है; जो अक्सर अध्यात्म के नाम पर ऐसे ही तिब्बत के यात्री चलते रहे तीनों से गुजरता है। जैसे तीन स्टेशनें हों और आपकी ट्रेन तीनों से | | हैं। न सुनने वाले को कुछ पता है कि ब्रह्म क्या; न बोलने वाले को गुजर जाए। वह जो यात्री भीतर बैठा है, जो सदा चल रहा है, कहीं | कुछ पता है। जब दोनों को पता नहीं, तो कोई अड़चन ही नहीं है। भी ठहरता नहीं है; किसी भी अवस्था के साथ एक नहीं हो जाता । यहां जो कृष्ण कह रहे हैं ज्ञान, तो विजडम, प्रज्ञा से उसका संबंध है; सदा अवस्था-मुक्त है, उसकी स्मृति को कृष्ण कहते हैं, मैं हूं। | है। अनुभव में जिसके, जीवन में जिसका बोध सधा हुआ है; कैसी ज्ञान! यहां ज्ञान से अर्थ नालेज का नहीं है। विश्वविद्यालय ज्ञान भी अवस्था हो, जिसके बोध को डिगाया नहीं जा सकता, वह मैं हूं। देते हैं। कृष्ण उस ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं। शिक्षक ज्ञान देते स्मृति, ज्ञान और अपोहन, सब वेदों द्वारा जानने योग्य...। हैं! स्मृति इकट्ठी कर लेती है ज्ञान को। संग्रह हो जाता है आपके ये ही तीन बातें हैं। सारा वेदांत इन्हीं तीन की खोज करता है। पास; बड़ी सूचनाएं इकट्ठी हो जाती हैं। कृष्ण उसको ज्ञान नहीं कह और न केवल सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं, वरन | वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं। ज्ञान से अर्थ नालेज नहीं है। ज्ञान से अर्थ प्रज्ञा है। ज्ञान से अर्थ | ___ सारे वेद मुझे ही खोजते हैं। और सारे वेद मेरे ही अनुभव से विजडम है। बड़ी अलग बात है। क्योंकि यह हो सकता है, आप निकलते हैं। कुछ न जानते हों और ज्ञानी हों। और यह भी हो सकता है, बहुत सारे वेदों की खोज क्या है? कि वह अंतर्यामी मिल जाए। वह कुछ जानते हों और निपट अज्ञानी हों। आपके जानने से कोई संबंध जो भीतर छिपा हुआ राजों का राज है, वह मिल जाए। लेकिन वेद नहीं है। निकलते कहां से हैं? एक आदमी बहुत कुछ जान सकता है। सब शास्त्र कंठस्थ हों; जिनको वह मिल जाता है, उनकी वाणी वेद बन जाती है। जो तोते की तरह कंठस्थ हो सकते हैं; जरा भी भूल न करे। यंत्रवत | उसे पा लेते हैं, उनकी सुगंध वेद बन जाती है। जो वहां तक पहुंच स्मृति हो। और फिर भी जीवन में व्यवहार जो करे, वहां अज्ञानी जाते हैं उस अंतर्यामी तक, फिर वे जो भी कहते हैं, वही वेद बन सिद्ध हो। जाता है। वे न कहें, तो मौन उनका वेद हो जाएगा। वे चलें-फिरें, आपको वेद कंठस्थ हों; सारी बातें याद हों; और गीता आपकी | उठे, तो उनकी गतिविधि वेद हो जाएगी। जबान पर बैठी हो; और आपको मालूम है बिलकुल कि न तो | अगर बुद्ध को चलते हुए भी देख लो, तो भी उस चलने में 244 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकाग्रता और हृदय-शुद्धि * समाधि है; उसमें भी इशारा है। अगर कृष्ण को बांसुरी बजाते हुए देख लो, तो उस बांसुरी में वेद है; उसमें सारा वेदांत है; उसमें सारा इशारा है। कृष्ण कहते हैं कि मैं ही सबकी खोज, और मैं ही सब का मूल उत्स। और यह जो मैं है, तुम्हारे भीतर छिपा हुआ अंतर्यामी है। कृष्ण बाहर से बोल रहे हैं, लेकिन जिसकी तरफ इशारा कर रहे हैं, वह अर्जुन के भीतर है। गुरु सदा बाहर से बोलता है, लेकिन जिस तरफ इशारा करता है, वह शिष्य के भीतर है। इसलिए दो पड़ाव हैं यात्रा के। एक तो बाहर का गुरु, वह पहला पड़ाव है। और फिर भीतर का गुरु, वह अंतिम पड़ाव है। आज इतना ही। 245 Page #274 --------------------------------------------------------------------------  Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 छठवां प्रवचन पुरुषोत्तम की खोज Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। | ही शक्तिशाली हो जाती है। जितने विचार बिखरे हों, ऊर्जा उतने क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते । । १६ ।। अनेक मार्गों से बहती है; तब क्षुद्र शक्ति हाथ में रह जाती है। जिस ____उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहतः।। | विचार के प्रति भी आप एकाग्र हो जाते हैं, वह विचार शीघ्र ही यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। १७ ।। यथार्थ में परिणत हो जाएगा। जिस विचार में मन डांवाडोल होता ___ यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । | है, उसके यथार्थ में परिणत होने की कोई संभावना नहीं है। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।। १८।। एकाग्रता तो सांसारिक मनुष्य भी चाहता है। और सांसारिक हे अर्जुन, इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर | मनुष्य को भी अगर कहीं सफलता मिलती है, तो एकाग्रता के अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत | | कारण ही मिलती है। वैज्ञानिक भी एकाग्रता के माध्यम से ही खोज प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ | कर पाता है। संगीतज्ञ भी एकाग्रता के माध्यम से ही संगीत की गहरी जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। कुशलता को उपलब्ध होता है। लेकिन साक्षी-भाव में केवल तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों धार्मिक व्यक्ति उत्सुक होता है। लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं सांसारिक व्यक्ति की साक्षी-भाव में कोई भी उत्सुकता नहीं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसे कहा गया है। | होती। और अगर साक्षी-भाव उसे कहीं रास्ते पर पड़ा हुआ भी मिल क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और | जाए, तो भी वह उसे चुनना पसंद न करेगा। क्योंकि साक्षी-भाव माया में स्थित अक्षर, अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, | का परिणाम शांति है। और साक्षी-भाव का परिणाम शून्य हो जाना इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। | है। साक्षी-भाव का परिणाम मिट जाना है। वह महामृत्यु जैसा है। एकाग्रता से तो आपका ही मन मजबूत होता है और अहंकार प्रबल होगा। साक्षी-भाव से मन शांत होता है, समाप्त होता है, पहले कुछ प्रश्न। अंततः मिट जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। साक्षी-भाव पहला प्रश्नः कल एकाग्रता का आपने भारी मूल्य | मन के पीछे छिपी आत्मा की अनुभूति है। और एकाग्रता मन की बताया है, पर आप अपने ध्यान प्रयोगों में एकाग्रता ही बिखरी शक्तियों को इकट्ठा कर लेना है। की अपेक्षा साक्षी-भाव पर अधिक जोर देते हैं। ऐसा इसलिए एकाग्रता को उपलब्ध व्यक्ति जरूरी नहीं है कि धार्मिक किस कारण है? हो जाए। लेकिन साक्षी-भाव को उपलब्ध व्यक्ति अनिवार्यरूपेण धार्मिक हो जाता है। एकाग्रता परमात्मा तक नहीं ले जाएगी। और अगर आप 5 काग्रता शक्ति को उपलब्ध करने की विधि है। परमात्मा की खोज एकाग्रता के माध्यम से कर रहे हों, तो एक न ए साक्षी-भाव शांति को उपलब्ध करने की विधि है। एक दिन आपको एकाग्रता भी छोड़ देनी पड़ेगी। क्योंकि परमात्मा शक्ति उपलब्ध करने से जरूरी नहीं है कि शांति तभी मिलता है, जब आप ही बचे। इसे थोड़ा समझ लें। उपलब्ध हो। लेकिन शांति उपलब्ध करने से शक्ति अनिवार्यरूपेण । अगर दो मौजूद हों, आप और आपका परमात्मा, तो परमात्मा उपलब्ध हो जाती है। | की उपलब्धि नहीं होने वाली है। जब आप ही बचे, तब ही परमात्मा जो व्यक्ति शक्ति की खोज में हैं, उनका रस एकाग्रता में होगा। की उपलब्धि होने वाली है। या परमात्मा ही बचे, आप न बचें, तो जैसे सूरज की किरणें इकट्ठी हो जाएं, तो अग्नि पैदा हो जाती है। उसकी उपलब्धि हो सकती है। वैसे ही मन के सारे विचार इकट्ठे हो जाएं, तो शक्ति पैदा हो जाती । एकाग्रता में तो सदा दो बने रहते हैं। एक आप, जो एकाग्र हो है। थोड़े से प्रयोग करें, तो समझ में आ सकेगा। रहा है और एक वह, जिसके ऊपर एकाग्र हो रहा है। एकाग्रता में जब भी मन एकजुट हो जाता है, तब आपके जीवन की पूरी ऊर्जा द्वैत नहीं नष्ट होता; दुई तो बनी ही रहती है। साक्षी-भाव में द्वैत एक दिशा में बहने लगती है। और जितना संकीर्ण प्रवाह हो, उतनी नष्ट होता है, अद्वैत की उपलब्धि होती है। 2481 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोत्तम की खोज इसलिए मेरा जोर तो साक्षी भाव पर ही है। और अगर कोई व्यक्ति एकाग्रता में उत्सुकता भी रखता है, तो भी मैं उसे साक्षी - भाव की तरफ ही ले जाने की कोशिश करता हूं। एकाग्रता के माध्यम से भी साक्षी भाव की तरफ जाया जा सकता है। क्योंकि जिसका मन बिखरा है, उसे साक्षी भाव भी साधना कठिन होगा। जिसका मन एकजुट है, उसे साक्षी भाव भी साधना आसान हो जाएगा। इसलिए कुछ धर्मों ने भी एकाग्रता का उपयोग साक्षी भाव की पहली सीढ़ी की तरह किया है। लेकिन वह सीढ़ी ही है, साधन ही है, साध्य नहीं है। और ध्यान रहे, साक्षी भाव साधन भी है और साध्य भी । साक्षी भाव साधना भी है और साक्षी भाव पाना भी है। साक्षी भाव के पार कुछ भी नहीं है। इसलिए साक्षी भाव की साधना पहले चरण से ही मंजिल की शुरुआत है। एकाग्रता मंजिल की शुरुआत नहीं है। वह एक साधन है, एक रास्ता है। वह रास्ता वहां तक पहुंचा देगा, जहां से असली रास्ता शुरू होता है। और वह भी तभी पहुंचाएगा, जब आपको ध्यान में हो। अन्यथा खतरा है। एकाग्रता में भटक जाने की पूरी सुविधा है। ऐसा हुआ, विवेकानंद एकाग्रता की साधना करते थे । शक्तिशाली व्यक्ति थे और मन को इकट्ठा कर लेना शक्तिशाली व्यक्तियों के लिए बड़ा आसान है। सिर्फ कमजोरी के कारण ही हम मन को इकट्ठा नहीं कर पाते हैं। कमजोरी के कारण ही मन यहां-वहां भांगता है, हम उसे खींच नहीं पाते। हाथ कमजोर हैं, लगाम कमजोर है, घोड़े कहीं भी भागते हैं। और इसलिए कमजोरी में हमसे सब भूलें होती हैं। एक आदमी पर मुकदमा चल रहा था। उसने पहले एक आदमी को मारा, फिर दूसरे आदमी को धक्का देकर छत से नीचे गिरा दिया और तीसरे आदमी की हत्या कर दी। एक पंद्रह मिनट के भीतर तीन उसने किए। उससे पूछ रहा था कि तू इतने भयंकर काम पंद्रह मिनट में कैसे कर पाया? उस आदमी ने कहा, क्षमा करें, कमजोरी के क्षण में ऐसा हो गया। कमजोरी के क्षण में, मोमेंट्स आफ वीकनेस । आप जिनको कमजोरी के क्षण कहते हैं, वहीं आपकी ताकत दिखाई पड़ती है। आपकी ताकत गलत में ही दिखाई पड़ती है। और गलत में इसलिए दिखाई पड़ती है कि वहां आपको ताकत दिखानी नहीं पड़ती, मन ही आपको खींचकर ले जाता है। मन के विपरीत जहां भी आपको ताकत दिखानी पड़े, वहीं आप कमजोर हो जाते 249 हैं। वहीं फिर आपसे कुछ बनता नहीं। अगर आपसे कोई कहे कि पांच मिनट शांत होकर बैठ जाएं, तो बड़ी कठिन हो जाती है बात । पचास साल अशांत रह सकते हैं; उसमें जरा भी अड़चन नहीं है। पांच क्षण शांत होना कठिन है। जन्मों-जन्मों तक विचारों की भीड़ चलती रहे, आपको कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन एक विचार पर मन को क्षणभर को लाना हो, तो बस कठिनाई हो जाती है। थे। पर विवेकानंद शक्तिशाली व्यक्ति थे। एकाग्रता के प्रयोग करते । एकाग्रता सध भी गई। जैसे ही एकाग्रता सधी, जो खतरा होना चाहिए, वह हुआ। क्योंकि एकाग्रता के सधते ही आपको लगता है कि मैं महाशक्तिशाली हो गया। रूस में एक महिला है, जो पांच मिनट तक अपने को एकाग्र कर लेती है, तो फिर आस-पास की वस्तुओं को प्रभावित कर सकती है। बीस फीट के घेरे में पत्थर पड़ा हो, तो वह उसको अपने पास खींच ले सकती है, सिर्फ विचार से। टेबल रखी हो, तो सिर्फ विचार से हटा दे सकती है। टेबल पर सामान रखा हो, तो सिर्फ विचार से नीचे गिरा दे सकती है। रूस में उसके बड़े वैज्ञानिक परीक्षण हुए हैं। और उन्होंने अनुभव किया कि जब विचार बिलकुल एकाग्र हो जाता है, तो जैसे विद्युत के धक्के लगते हैं वस्तुओं को, ऐसे ही विचार के धक्के भी लगने शुरू हो जाते हैं। उसके फोटोग्राफ भी लिए गए हैं, और उसके वैज्ञानिक प्रयोग भी किए गए हैं। और सभी प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ कि उस स्त्री से कोई वैद्युतिक शक्ति प्रवाहित होती है, जो वस्तुओं को हटा देती है या पास खींच लेती है। पंद्रह मिनट के प्रयोग में उस स्त्री का तीन पाउंड वजन कम हो जाता है। इतनी शक्ति प्रवाहित होती है कि उसका तीन पाउंड शरीर से वजन नीचे गिर जाता है। तो दिखाई न पड़ती हो, लेकिन फिर भी शक्ति भौतिक है। नहीं तो तीन पाउंड वजन कम होने का कोई कारण नहीं है। अदृश्य हो, लेकिन मैटीरियल है, पदार्थगत है। इसलिए तीन पाउंड शरीर का वजन नीचे गिर जाता है। और वह स्त्री कोई एक सप्ताह तक अस्वस्थ अनुभव करती हैं। एक सप्ताह के बाद फिर प्रयोग कर सकती है, उसके पहले नहीं । जब भी कोई चित्त को एकाग्र करता है, तो बड़ी शक्ति प्रकट होती है। अगर उसका उपयोग किया जाए, शक्ति क्षीण हो जाती है। अगर उसका उपयोग न किया जाए और सिर्फ उसका साक्षी रहा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 सके। विवेकानंद जैसा व्यक्ति भी अगर शक्ति का ऐसा क्षुद्र उपयोग करने को तैयार हो जाए, तो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए तो बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए एकाग्रता पर मेरा जरा भी जोर नहीं है। पहले आपको एकाग्रता सधवाई जाए, फिर चाबी रखी जाए, इस सब अड़चन में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। साक्षी भाव सहज मार्ग है। और चूंकि शक्ति सीधी उपलब्ध नहीं होती, बल्कि शांति उपलब्ध होती है। जैसे-जैसे साक्षी सधता है, वैसे-वैसे आप परम शांत होते जाते हैं। उस परम शांति के | कारण ऐसे उपद्रवी खयाल आपमें उठेंगे ही नहीं। और दूसरे को कुछ करके दिखाना है, दूसरे के साथ कुछ करना है अपनी शक्ति से, ऐसी वासना नहीं जगेगी। जाए, तो वह शक्ति स्वयं में लीन हो जाती है। और वह जो स्वयं में शक्ति की लीनता है, वह साक्षी का आधार बनने लगती है। विवेकानंद ने एकाग्रता साधी और जैसा सभी को होगा, उनको भी हुआ, लगा कि मैं परम शक्तिशाली हो गया हूं। और कोई भी काम करना चाहूं, तो केवल विचार से हो सकता है। रामकृष्ण के आश्रम में एक बहुत सीधा-सादा आदमी था। कालू उसका नाम था, कालीचरण । वह भक्त आदमी था। अपने छोटे-से कमरे में उसने कम से कम नहीं तो सौ-पचास देवी-देवता रख छोड़े थे। सब तरह के देवी-देवताओं को नमस्कार करना...! उसको कोई तीन घंटे से लेकर छः घंटे तक पूजा में लग जाते। क्योंकि सभी को थोड़ा-थोड़ा राजी करना पड़ता। इतने देवी- देवता थे। और विवेकानंद उससे अक्सर कहते थे, क्योंकि विवेकानंद का मन वस्तुतः नास्तिक का मन था। शुरुआत से ही विचार और तर्क उनकी पकड़ थी। तो उस पर वे हंसते थे और उससे कहते थे, कालीचरण, फेंक। यह क्या कचरा इकट्ठा कर रखा है ! और इन पत्थरों के पीछे तू तीन-तीन, छः-छः घंटे खराब करता है! जैसे ही उनको एकाग्रता का पहला अनुभव हुआ, उनको खयाल आया कालीचरण का, कि वह पूजा कर रहा है बगल के कमरे में। तो उन्होंने अपने मन में ही सोचा कि कालीचरण, बस, अब बहुत हो गया। सारे देवी-देवताओं को एक कपड़े में बांध और गंगा में फेंक आ कालीचरण पूजा कर रहा था; अचानक उसे भाव आया कि सब बेकार है। सारे देवी-देवता उसने कपड़े में बांधे और गंगा की तरफ चला । रामकृष्ण अपने कमरे में बैठे थे। उन्होंने कालीचरण को बुलाया कि कहां जा रहे हो ? उसने कहा, सब व्यर्थ है; कर चुके पूजा-पाठ बहुत; इससे कुछ होता नहीं। ये सब देवी-देवताओं को गंगा में फेंकने जा रहा हूं। कालीचरण को रामकृष्ण ने कहा, एक दो मिनट रुक । और आदमी भेजा कि विवेकानंद को उनकी कोठरी से निकालकर बाहर ले आओ। कालीचरण को कहा कि यह तू नहीं जा रहा है। विवेकानंद घबड़ाए हुए आए। रामकृष्ण ने कहा कि देख, यह तूने क्या किया ! और अगर यही करना है एकाग्रता से, तो तेरी कुंजी सदा के लिए मैं रखे लेता हूं। अब मरने के तीन दिन पहले ही तुझे कुंजी वापस मिलेगी। विवेकानंद मरने के तीन दिन पहले तक फिर एकाग्रता न साध अन्यथा सभी तरह की शक्तियां भटकाव बन जाती हैं। धन की शक्ति से ही लोग बिगड़ते हैं, ऐसा मत सोचना आप; सभी तरह की शक्ति से बिगड़ते हैं। पद की शक्ति से लोग बिगड़ते हैं, ऐसा आप मत सोचना; सभी तरह की शक्ति से बिगड़ते हैं । सचाई तो यह है कि बिगड़ने की तो आपकी मनोदशा सदा सिर्फ आप कमजोर हैं और बिगड़ने के लायक आपके पास शक्ति नहीं है। मेरे पास अक्सर लोग आते हैं। वे कहते हैं, फलां आदमी इतना भला था; सेवक था, भूदान में काम करता था; गरीबों के चरण दबाता था; मरीजों का इलाज करता था; विधवाओं के लिए आश्रम खोलता था। वह जब से राजपद पर चला गया है, कि | मिनिस्टर हो गया है, तब से बिलकुल बदल गया है ! शक्ति ने उसे खराब कर दिया। शक्ति क्यों खराब करेगी? उस आदमी के भीतर खराबी के सारे मार्ग थे, लेकिन उन पर बहने की हिम्मत न थी; और कोई उपाय न था। जैसे ही हिम्मत मिली, उपाय मिला, साधन जुटे, वह आदमी बिगड़ गया। लोग कहते हैं, फलां आदमी कितना भला था जब गरीब था। जब से उसके पास पैसा आया है, तब से वह पागलपन कर रहा है। पागलपन सभी करना चाहते हैं, लेकिन पागलपन करने को भी तो सुविधा चाहिए। पाप सभी करना चाहते हैं, लेकिन पाप करने के लिए भी तो सुगमता चाहिए। बुरा सभी करना चाहते हैं, लेकिन आपकी सामर्थ्य भी तो बुरा करने की होनी चाहिए। जब भी सामर्थ्य मिलती है, बुराई तत्क्षण पकड़ लेती है। पर मैं आपसे कहता हूं कि धन और पद की ही शक्तियां नहीं, 250 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषोत्तम की खोज एकाग्रता की शक्ति भी बुराई के रास्ते पर ले जाएगी। क्योंकि बुरे तो आप होना ही चाहते हैं। वे बीज वहां पड़े हैं, वर्षा की जरूरत | है । शक्ति की वर्षा हो जाए, अंकुर फूट आएंगे। और जो बीज आप छिपे हैं, वे प्रकट होने लगेंगे। और हम सब जहर के बीज लिए चल रहे हैं। इसलिए मेरी पूरी चेष्टा रहती है निरंतर कि आपको शक्ति की दिशा में जाने का खयाल ही न पकड़े। आप मौन, शांति और शून्यता की दिशा में जाएं। क्योंकि जैसे-जैसे आप शांत होंगे, वे जोहर के बीज आपके भीतर पड़े हैं, उनके अंकुरित होने का कोई उपाय न रहेगा। आपके शांत होते-होते वे बीज दग्ध होने लगेंगे, जल जाएंगे । शक्ति आपको भी उपलब्ध होगी, लेकिन वह तभी उपलब्ध होगी, जब शांति इतनी घनी हो जाएगी कि सारे रोग के बीज जल चुके होंगे; तब आपको शक्ति उपलब्ध होगी। लेकिन उसका फिर कोई दुरुपयोग नहीं हो सकता है। और उस शक्ति का, सच पूछिए तो, आप उपयोग भी नहीं करेंगे। और जब कोई व्यक्ति शक्तिशाली हो जाता है और उपयोग नहीं करता, तब परमात्मा उस शक्ति का उपयोग करता है। इस कीमिया को ठीक से समझ लें । जब तक आप उपयोग करने वाले हैं, तब तक परमात्मा आपका उपयोग नहीं करता। जब तक आप कर्ता हैं, तब तक परमात्मा के लिए आप उपकरण नहीं बनते, निमित्त नहीं बनते। जैसे ही आपको खयाल ही मिट जाता है कि कुछ करना है और शक्ति आपके पास होती है, उस शक्ति का उपयोग परमात्मा के हाथ में चला जाता है। कृष्ण का पूरा जोर गीता में अर्जुन से यही है कि तू कर्तापन छोड़ . दे। और जैसे ही तेरा कर्तापन छूट जाएगा, वैसे ही परमात्मा तेरे भीतर से प्रवाहित होने लगेगा; तब तू निमित्त मात्र है। तो साक्षी का मार्ग और एकाग्रता का मार्ग बड़े भिन्न-भिन्न हैं । पर आपकी आकांक्षा क्या है? अगर आप अपने अहंकार को और बड़ा करना चाहते हैं, उसको और महिमाशाली करना चाहते हैं, तो साक्षी की बात आपको न जमेगी। तब आप चाहेंगे कि एकाग्रता, कनसनट्रेशन, सिद्धियां, शक्तियां आपको उपलब्ध हो जाएं। पर ध्यान रहे, वैसी खोज धार्मिक नहीं है। जहां भी आपको यह खयाल होता है कि मैं कुछ हो जाऊं, आप धर्म से हट रहे हैं। इस बात को आप कसौटी बना लें। यह भावना आपकी रोज गहरी होती जाए कि मैं मिट रहा हूं; मैं ना-कुछ हो रहा हूं। और अंततः मुझे उस जगह जाना है, जहां मैं खो 251 जाऊंगा, जहां बूंद को खोजने से भी न खोजा जा सकेगा; बूंद पूरी सागर में एक हो गई होगी। तो मुझे शक्ति की जरूरत भी क्या है ? शक्ति परमात्मा की है और मैं परमात्मा में खो जाऊंगा, तो सारा परमात्मा मेरा है। मुझे अलग से शक्ति की खोज की जरूरत क्या है ! अलग से शक्ति की खोज का अर्थ है, आप अपने अहंकार को बचाने में लगे हैं। और अहंकार ही संसार है। दूसरा प्रश्न : सबको शास्त्र पढ़कर गुरु की खोज में निकलना पड़ता है। क्या शास्त्रों को पढ़ने की कष्ट - साध्य प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य है? क्या सीधे ही गुरु की खोज में नहीं निकला जा सकता है? अ संभव है; क्योंकि गुरु की खोज शास्त्र की असफलता से शुरू होती है। जब आप शास्त्र में खोजते हैं, खोजते हैं, खोजते हैं और नहीं पाते हैं, तभी गुरु की खोज शुरू होती है। जहां बाइबिल, कुरान, गीता और वेद हार जाते हैं, वहीं से गुरु की खोज शुरू होती है। क्यों ? और सीधे गुरु की तलाश में जाना क्यों असंभव है? पहली बात, शास्त्र मुर्दा है। उससे आपके अहंकार को चोट नहीं लगती। गीता को सिर पर रखना बिलकुल आसान है। कुरान पर सिर झुकाना बिलकुल आसान है। लेकिन किसी जीवित व्यक्ति को सिर पर रखना बहुत कठिन है; और किसी जीवित व्यक्ति के चरणों में सिर रखना बहुत मुश्किल है। किताब तो मुर्दा है। मरे हुए से आपके अहंकार को कोई खतरा नहीं है। एक जिंदा व्यक्ति खतरनाक है । और उसके चरणों में सिर झुकाते वक्त पीड़ा होती है । आपका अहंकार बल मारता है । इसलिए पहले व्यक्ति शास्त्र से खोज करता है कि अगर किताब से मिल जाए, तो क्यों झंझट में पड़ना ! फिर किताब आप खरीद सकते हैं, गुरु आप खरीद नहीं सकते। किताब दुकान-दुकान पर मिल जाती है। गुरु को बेचने वाली कोई दुकानें नहीं हैं। किताब के अर्थ आप अपने मतलब से निकालेंगे। किताब की व्याख्या करने के आप ही मालिक होंगे; क्या मतलब निकालते हैं, यह आप पर ही निर्भर होगा। और हमारा जो अचेतन है, वह अपने ही हिसाब से अर्थ निकालता है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * इसलिए कोई किताब आपको बदल नहीं सकती। कोई किताब | सिर्फ चित्र होते हैं। और आई चिंग ऐसी रहस्यपूर्ण किताब है कि आपको रूपांतरित नहीं कर सकती। क्योंकि किताब का अर्थ कौन कोई भी वचन साफ नहीं है। किसी वचन का कोई साफ मतलब करेगा? आप गीता पढ़ेंगे, माना; लेकिन उस गीता से जो मतलब नहीं है; धुंधला-धुंधला है। निकालेंगे, वे आपके ही होंगे, वह आपका ही अहंकार होगा; ऐसे ही जैसे कि आप आकाश में देखें, बादल घिरे हैं; और उसका ही प्रक्षेपण होगा। बादलों में जो भी चित्र आप देखना चाहें, देख लें। आपको घोड़ा और हम किताब से वही निकाल लेते हैं, उस पर ही हमारा ध्यान बनाना हो, तो घोड़ा बन जाए; हाथी बनाना हो, तो हाथी बन जाए। जाता है, जो हमारी चित्त-दशा होती है। जो भी आपको बनाना हो। क्योंकि बादल तो-न वहां हाथी है, न ___ मैंने एक घटना सुनी है। पता नहीं सच है या झूठ। बंगला देश | वहां घोड़ा है-सिर्फ धुआं है उड़ता हुआ। रेखाएं प्रतिपल बदल में याह्या खान ने अपनी सारी ताकतें लगा दीं। और रोज-रोज | रही हैं। आप उनमें कोई भी कल्पना कर लें, वह आपको दिखाई सूर्यास्त होने लगा। तो वह बहुत घबड़ाया हुआ था। और उसने पड़ना शुरू हो जाएगा। अमेरिकी राजदूत को बुलाया कि हमें और शस्त्रास्त्रों की जरूरत चांद पर बच्चे देखते हैं कि बुढ़िया चरखा चला रही है। वह पड़ेगी। इसके पहले कि अमेरिकी राजदूत आए, उसने बाइबिल उनको दिखाई पड़ने लगता है। एक बार खयाल में आ जाए, फिर पलटनी शुरू की इस खयाल से कि कुछ बाइबिल से दो-चार वचन दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। याद कर ले, तो अमेरिकी राजदूत को बाइबिल के आधार पर आई चिंग को लोग पढ़ते हैं; उनका जो अपना प्रश्न है, उसके प्रभावित करना आसान होगा। | हिसाब से वे उत्तर निकाल लेते हैं। उत्तर उसमें मिल जाते हैं। लोग उसने किताब पलटी। जिस वाक्य पर पहली उसकी नजर पड़ी, | सोचते हैं, बड़ी अनूठी किताब है। अनूठी सिर्फ इसलिए है कि तो वह थोड़ा धक्का खाया। पहला वचन जो उसने देखा, वह था, | जिसने भी रची, वह आदमी मिस्टिफिकेशन में, चीजों को धुंधला और जुदास ने अपने आपको फांसी लगा ली। उसकी हालत उस | करने में महान कारीगर रहा होगा। कोई भी चीज का साफ रेखा में वक्त वही थी, फांसी लगाने जैसी। तो वह थोड़ा डरा। उसने जल्दी | | उत्तर नहीं है। इतना धुंधला है उत्तर कि आप जो भी मतलब से पन्ना पलटा। निकालना चाहें, निकल सकता है। तो हर आदमी अपने मतलब दूसरे पन्ने पर उसकी नजर पड़ी; एक वचन था कि और तुम भी का मतलब निकाल लेता है। उसी का अनुसरण करो। तब तो वह बहुत घबड़ा गया। उसने जल्दी सभी शास्त्र धुंधले हैं। उसका कारण है। इसलिए नहीं कि धुंधले से तीसरा पन्ना उलटा; उसकी नजर पड़ी कि समय क्यों खराब कर | | लोगों ने रखे हैं। लेकिन जिस सत्य की चर्चा है, शब्दों में आकर रहे हो? देर क्या है? सोच-विचार क्या है? इस पर शीघ्र अमल | वह सत्य धुंधला हो जाता है। सत्य को शब्द के माध्यम में डालते करो। उसने घबड़ाकर बाइबिल बंद कर दी। ही धुंधलापन पैदा हो जाता है। इस आधार पर कि आपका अचेतन काम करता है, चीन में एक | फिर शास्त्र से अर्थ आप अपना निकालते हैं। तो जो आदमी किताब है. आई चिंग। यह दनिया की अनठी से अनठी किताब है। पढता है. वही आदमी अपने को ही शास्त्र के माध्यम से पढ रहा है। और लाखों लोग हजारों वर्षों से इस किताब का उपयोग कर रहे हैं। | इसलिए कोई शास्त्र आपको आपके ऊपर नहीं ले जा सकते; आपके आई चिंग ज्योतिष की अनूठी किताब है। और आपका कोई भी भीतर ही रखेंगे। आपसे ज्यादा कोई शास्त्र आपको नहीं दे सकता। प्रश्न हो, आई चिंग में उसके उत्तर हैं। बस, आप अपना प्रश्न तैयार शास्त्र की हालत वैसी है, मैंने सुना है, एक आदमी, बूढ़ा कर लें और आई चिंग को उलटें। और उसके उलटने के हिसाब आदमी, गांव का ग्रामीण, आंख के डाक्टर के पास गया। आंखों हैं। पासे फेंकने का हिसाब है, उससे उसका पन्ना उलट लें। और से उसको दिखना करीब-करीब बंद हो गया था। तो डाक्टर ने आपको उत्तर मिल जाएगा। कहा, लेकिन आंखों में कोई मूलभूत खराबी नहीं है, चश्मा लगाने __ आई चिंग बड़ी अदभत किताब है। क्योंकि एक तो चीनी भाषा से सब ठीक हो जाएगा। में है। उसका अनुवाद भी हुआ है, तो भी चीनी भाषा अनूठी है,। | तो उस बूढ़े आदमी ने कहा, क्या आंखें इतनी ठीक हो जाएंगी उसमें एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। क्योंकि शब्द होता नहीं, कि मैं लिख-पढ़ भी सकूँ? डाक्टर ने कहा, बिलकुल। तुम लिख 252 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषोत्तम की खोज * सकोगे, पढ़ सकोगे। तो उसने कहा, तब तो जल्दी करो, क्योंकि | कर रहे हैं। अपने ही जूते के बंध पकड़े हैं और उठाने की कोशिश लिखना-पढ़ना मुझे आता नहीं। कर रहे हैं। इससे कुछ परिणाम नहीं है। लेकिन एक परिणाम हो __ अब जिसको लिखना-पढ़ना नहीं आता, वह चश्मा लगाने से सकता है कि इससे थक जाएं और गरु की तलाश शुरू हो जाए। भी लिख-पढ़ नहीं सकेगा। क्योंकि चश्मा उतना ही बता सकता है, इसलिए शास्त्रों की एक ही उपयोगिता है कि वे गुरु तक आपको जितना आपको आता हो, उससे ज्यादा नहीं। पहुंचा दें। मृत जीवित तक आपको पहुंचा दे, तो काफी काम है। शास्त्र में आप वह कैसे पढ़ सकते हैं, जो आपको आता ही और आप सोचते हों कि शास्त्र से बचकर हम गुरु तक पहुंच नहीं। आप वही पढ़ सकते हैं, जो आपको आता है। इसलिए शास्त्र | जाएं, तो बहुत कठिन है। क्योंकि वह असफलता जरूरी है। वह व्यर्थ हैं। शास्त्र आपको आपसे ज्यादा में नहीं ले जा सकता है; कोई | शास्त्र में भटकने की चेष्टा जरूरी है। वहां विषाद से, दुख से भर आत्म-अतिक्रमण नहीं हो सकता है। जाना जरूरी है। __पर शास्त्र सुविधापूर्ण है। आप जो भी मतलब निकालना चाहें, | दोनों तरह के लोग मेरे पास आ जाते हैं। ऐसा व्यक्ति भी आता निकालें। शास्त्र झगड़ा भी नहीं करता। वह यह भी नहीं कह सकता | | है, जो शास्त्र से थक गया है। तो मैं पाता हूं, उसके साथ काम बहुत कि आप गलत अर्थ निकाल रहे हैं, कि यह मेरा भाव नहीं है, कि | आसान है। क्योंकि वह व्यर्थ से ऊब चुका है। अब उसकी व्यर्थ में ऐसा मैंने कभी कहा नहीं है। शास्त्र कोई आज्ञा भी नहीं देता। सब बहुत उत्सुकता नहीं है। अब वह सार की ही बात जानना चाहता है, आप पर निर्भर है। | जो की जा सके। अब वह व्यावहारिक है। अब वह शास्त्रीय नहीं इसलिए पहले अहंकार शास्त्र में खोजने की कोशिश करता है। | | है। अब उसकी बौद्धिक चिंता नहीं है बहुत। अब उसकी साधनागत और जब नहीं पाता...। और अभागे हैं वे लोग, जो सोचते हैं कि चिंता है। शास्त्र से वह छूट चुका। अब साधना की प्यास उसमें उनको शास्त्र में मिल गया। सौभाग्यशाली हैं वे लोग, जिनमें कम जगी है। से कम इतनी बुद्धि है कि वे पहचान लेते हैं कि शास्त्र में हमें नहीं | जो लोग बिना शास्त्र को जाने आ जाते हैं, उनकी जिज्ञासा मिला। यह बुद्धिमान का लक्षण है। शास्त्रीय होती है। वे पूछते हैं, ईश्वर है या नहीं? संसार किसने अनेक तो बुद्धिहीन सोच लेते हैं कि उन्हें मिल ही गया। शास्त्र बनाया? यह काम तो शास्त्र ही निपटा देता, इनके लिए मेरे पास के शब्द कंठस्थ कर लेते हैं, और सोचते हैं, बात पूरी हो गई। | आने की जरूरत नहीं है। आत्मा कहां से आई? ब्रह्म कहां है? यह ___ शास्त्र से जो असफल हो जाता है, उसकी नजर व्यक्तियों की | | सब बकवास तो शास्त्र ही निपटा देता। इस सबके लिए किसी तलाश में जाती है। क्योंकि अब अहंकार एक पराजय झेल चुका।। | जीवित आदमी की कोई जरूरत नहीं है। और कोई जीवित गुरु इस और अब वह जीवित व्यक्ति में तलाश करेगा। तरह की व्यर्थ की बातों में पड़ेगा भी नहीं, क्योंकि समय खराब जीवित व्यक्ति के साथ अड़चनें हैं। पहली तो अड़चन यह है कि करने को नहीं है। उसके सामने झुकना कठिन है। और बिना झुके सीखने का कोई | तो जो लोग शास्त्र से नहीं गुजरे हैं, उनके साथ तकलीफ यह उपाय नहीं है। होती है कि उनकी जिज्ञासाएं शास्त्रीय होती हैं और वे व्यर्थ समय दूसरी अड़चन यह है कि आप अपना अर्थ न निकाल सकेंगे। जाया करते हैं। वह जीवित व्यक्ति अपना ही अर्थ, अपने ही अर्थ पर आपको | शास्त्र से गुजर जाना अच्छा है। आपकी जो बचपनी, बच्चों चलाने की कोशिश करेगा। जीवित आदमी को धोखा नहीं दिया जा | | जैसी जिज्ञासाएं हैं, उनका या तो हल हो जाएगा या आपको समझ सकता। अपनी मरजी उस पर थोपी नहीं जा सकती। और वह | | में आ जाएगा कि वे व्यर्थ हैं; उनका कोई मूल्य नहीं है। और आप जीवित आदमी आपको आपके बाहर और आपसे ऊपर ले जाने में | | जीवन में बदलाहट कैसे हो सके, इसकी प्यास से भर जाएंगे। यह समर्थ है। प्यास बड़ी अलग है। . शास्त्र के द्वारा आत्म-क्रांति करने की कोशिश ऐसे है, जैसे कोई | | और शास्त्रों को आपने समझा हो, तो गुरु को समझना आसान अपने जूते के बंधों को पकड़कर खुद को उठाने की कोशिश करे। | हो जाएगा। क्योंकि जो-जो शास्त्र में छूट गया है, वही-वही गुरु आप ही पढ़ रहे हैं; आप ही अर्थ निकाल रहे हैं; आप ही साधना | | में है। गुरु परिपूरक है। जहां-जहां इशारे थे, थोड़ी दूर तक यात्रा थी 253/ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * और फिर मार्ग छूट जाता था, वहीं से गुरु शुरू होता है। वह | | ये ग्यारह पंडित महावीर के चरणों में सिर रख दिए। इन्होंने अपने परिपूरक है। क्योंकि जहां तक शब्द ले जा सकते हैं, उसके आगे | | शास्त्रों में आग लगा दी। इन्होंने कहा, अब उनकी कोई जरूरत नहीं। ही गुरु का काम है। क्योंकि जिंदा आदमी मिल गया, जिसकी हम तलाश करते थे। महावीर के जीवन में उल्लेख है, बड़ी हैरानी का उल्लेख है। नक्शे की तभी तक जरूरत है, जब तक घर न मिल गया हो बुद्ध के जीवन में भी वही उल्लेख है। और सांयोगिक नहीं मालूम | जिसकी आप खोज कर रहे हैं। फिर आप नक्शे को फेंक देते हैं। होता। महावीर के जो बड़े शिष्य थे ग्यारह, वे ग्यारह के ग्यारह | फिर आप कहते हैं, मिल गई वह जगह, जिसकी ओर नक्शे में महापंडित ब्राह्मण थे। इशारा था; जहां हम चल रहे थे। महावीर ब्राह्मणों के शत्रु हैं, एक लिहाज से। क्योंकि वे एक नए | ___ तो महावीर ने जब इन गणधरों से कहा कि छोड़ दो वेद। उन्होंने धर्म की उदभावना कर रहे थे, जो ब्राह्मण और पुरोहित के विरोध | कहा, आपको देखकर ही छूट गए; छोड़ने को अब कुछ बचा नहीं में थी। वे मंदिर, पुराने शास्त्र, वेद, उन सब का खंडन कर रहे थे। ईश्वर, उसका इनकार कर रहे थे। खुद क्षत्रिय थे, लेकिन उनके जो जब बुद्ध ने कहा महाकाश्यप को कि छोड़ दो सब-कोई ग्यारह गणधर हैं, जो उनके ग्यारह विशेष शिष्य, जिनके आधार पर शास्त्र, कोई वेद, कोई ईश्वर। तो उसने कहा, छूट गया। आपको सारा जैन धर्म खड़ा हुआ, वे सब के सब महापंडित ब्राह्मण हैं। यह देखते से ही छूट गया। आपकी मौजूदगी काफी है। आप उस सब जरा हैरानी की बात है। के सिद्ध प्रमाण हैं, जिसको हम खोजते थे। अब तक पकड़ा था बुद्ध के साथ भी ठीक यही हुआ। बुद्ध क्षत्रिय हैं। उनके जो भी | | उसको, क्योंकि उसके सहारे खोज चलती थी। अब खोज पूरी हो महाशिष्य हैं, वे सभी ब्राह्मण हैं। और साधारण ब्राह्मण नहीं, | | गई, अब उसकी हमें कोई जरूरत नहीं। असाधारण पंडित हैं। __तो आप जानकर चकित होंगे कि शास्त्र अगर ठीक से समझा जब सारिपुत्त बुद्ध के पास आया, तो पांच सौ ब्राह्मण उसके | जाए, तो उसे छोड़ने में जरा भी कठिनाई नहीं आती। जिन्होंने ठीक शिष्य थे, उसके साथ आए थे। जब मौदगल्यायन बुद्ध के पास | से नहीं समझा है, उन्हीं को कठिनाई आती है। जिनको शास्त्र पचता आया, तो उसके साथ पांच हजार उसके शिष्य थे। वह पांच हजार नहीं है, उन्हीं की कठिनाई है। वे उसे पकड़े रहते हैं। जिनको शास्त्र शिष्यों का तो स्वयं गुरु था। पच जाता है, उन्हें छोड़ने में क्या अड़चन है! छूट ही गया; पचने ठीक ऐसा ही महावीर के जीवन में उल्लेख है। गौतम जब | में ही समाप्त हो गया। शास्त्र का काम पूरा हो गया। और जहां आया, सुधर्मा जब आया, तो ये सब बड़े-बड़े पंडित थे। और इनके शास्त्र पूरा होता है, वहां गुरु की तरफ आंख उठनी शुरू होती है। साथ बड़े शिष्यों का समूह था। और गुरु के बिना कोई उपाय नहीं है। शास्त्र से तो कुछ होने महावीर जिंदा गुरु हैं। ये ग्यारह जो उनके गणधर हैं, ये सब | वाला नहीं है। इतना ही हो जाए तो काफी है। इतना हो सकता है; शास्त्र जान चुके थे। ये सब वेद के ज्ञाता थे। पारंगत विद्वान थे। ये | | पर वह भी आपकी बुद्धिमत्ता पर निर्भर है। आप अगर अपने अर्थ महावीर को समझ सके तत्क्षण, क्योंकि जो-जो शास्त्र में छूट रहा | | निकालते रहें, तो शायद यह भी न हो पाए। था, वह-वह महावीर में मौजूद था। इनको पकड़ फौरन आ गई। | | मुल्ला नसरुद्दीन गुजर रहा था एक मंदिर के पास से। अपने ये महाकाश्यप, सारिपुत्त, मौदगल्यायन, ये सब के सब बैलों को लिए जा रहा था। मंदिर में पूजा हो रही थी; आरती चल महापंडित थे। इन्होंने सब शास्त्र तलाश लिए थे। शास्त्र में कहीं भी | | रही थी; ढोल बज रहे थे; घंटे का नाद हो रहा था। बैल बिचक कुछ नहीं बचा था, जो इन्होंने न खोजा हो। फिर भी सब जगह बात | | गए। मुल्ला बहुत नाराज हुआ। वह अंदर पहुंचा। और उसने अधूरी थी। बुद्ध को देखते ही सब बातें पूरी हो गईं। इस आदमी की | | कहा, यहां क्या हो रहा है? यह क्या कर रहे हो? तो लोगों ने मौजूदगी से शास्त्र में जो कमी थी, वह तत्काल भर गई। जहां-जहां | कहा, हम आरती उतार रहे हैं। तो नसरुद्दीन ने कहा, चढ़ाई ही शास्त्र का पात्र अधूरा था, वहां-वहां बुद्ध को देखकर पूरा हो गया। क्यों, जब उतारना नहीं आता? . जिस तरफ शास्त्रों ने इशारा किया था, यह वही आदमी था। यह अर्थ उसने निकाला! अर्थ तो बिलकुल साफ है कि जब तो अपने से विपरीत के प्रति भी समर्पण में कठिनाई नहीं आई। उतारना ही नहीं आता, इतना धूम-धड़ाका कर रहे हो, उपद्रव कर 254 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषोत्तम की खोज * हुआ है। रहे हो, उतर नहीं रही, तो चढ़ाई किसलिए? पहले उतारना सीख | ही जब कोई शास्त्र को पढ़ने वाला शब्दों का उपयोग करने लगता लो, फिर चढ़ाओ। है; आहिस्ते चलता है; धीमे से स्पर्श करता है; शब्द को फुसलाता आप शास्त्र पढ़ेंगे, क्या अर्थ निकालेंगे, वह अर्थ आपके भीतर है, ताकि उससे अर्थ निकल आए। शब्द को निचोड़ता नहीं; से आएगा। नसरुद्दीन को पता ही नहीं था कि आरती चढ़ाना क्या पकड़कर उसकी गर्दन ही नहीं दबा देता कि इसकी जान निकालकर है; आरती उतारना क्या है। वह समझा, कोई चीज चढ़ा दी; चढ़ देख लें। गई है, अब उतर नहीं रही है। अब ये इतना शोरगुल मचा रहे हैं, बहुत लोग वैसे ही हैं। आपने कहानी सुनी होगी; पुरानी यूरोप कूद-फांद रहे हैं, और इनसे उतर नहीं रही है। में प्रचलित कथा है। ईसप की कहानियों में एक है। कि एक आदमी शब्द कभी भी पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि शब्द कोई वस्तु तो के घर में एक मुर्गी थी, जो रोज एक सोने का अंडा दे देती थी। फिर नहीं है। शब्द तो सिर्फ संकेत है। संकेत पूरा नहीं हो सकता। संकेत लोभ पकड़ा। पति-पत्नी ने विचार किया कि ऐसे हम कब तक का अर्थ ही है कि वह सिर्फ इशारा है। वहां कुछ है नहीं, वहां सिर्फ जिंदगीभर, एक-एक अंडा रोज मिलता है। और जब अंडा तीर जाते हैं। एक-एक रोज मिलता है, तो इस मुर्गी के भीतर अंडे भरे हैं। तो हम __ सड़क के किनारे पत्थर लगा हुआ है, दिल्ली की तरफ। उस पर एक दफा इकट्ठे ही निकाल लें। यह रोज की चिंता, फिक्र, आशा, लिखा है दिल्ली और एक तीर लगा है। वहां दिल्ली नहीं है। सपना, फिर बाजार जाओ, फिर बेचो-क्या फायदा? नसरुद्दीन वहीं ठहर सकते हैं, कि आ गई दिल्ली; पत्थर पर लिखा उन्होंने मुर्गी मार डाली। एक भी अंडा न निकला उससे। तब बहुत पछताए, रोए-धोए; लेकिन फिर कोई अर्थ न था। क्योंकि ___आप भी अगर शास्त्र को देखकर समझते हों, आ गई दिल्ली, | | मुर्गी में कोई अंडे इकट्ठे नहीं हैं। मुर्गी अगर जीवित हो, तो एक-एक तो भूल में पड़ रहे हैं। वह सिर्फ पत्थर है, जहां एक तीर लगा हुआ | अंडा निकल सकता है। अंडा रोज बनता है। है कि यात्रा आगे की तरफ चलती है। अभी और आगे जाना है। शास्त्रों में जो शब्द हैं, वे भी आपकी सहानुभूति से जीवित हो जब दिल्ली सच में आएगी, तो पत्थर पर शून्य बना होगा, वहां | | सकते हैं। और उनमें अर्थ भरा हुआ नहीं है कि आपने निचोड़ लिया तीर नहीं होगा, जीरो होगा। और जिस दिन आपके भीतर भी जीरो और पी गए। वह कोई फलों का रस नहीं है कि आपने निचोड़ा और आ जाए, शून्य आ जाए, समझना कि दिल्ली आ गई! उस दिन पीया! शब्द से अर्थ निकल सकता है, अगर सहानुभूति और प्रेम आप पहंच गएं: मकाम आ गया। शन्य के पहले मकाम नहीं है। से आपने शब्द को समझा. शब्द को फसलाया. राजी किया। शास्त्र में खोजें। अगर समझ हो, तो शास्त्र बड़े प्यारे हैं। क्योंकि | इसलिए हिंदुस्तान में हम शास्त्रों का अध्ययन नहीं करते, पाठ जिनसे वे निकले हैं, वे अनूठे लोग थे। उनमें उनकी थोड़ी सुवास करते हैं। पाठ और अध्ययन में यही फर्क है। अध्ययन का मतलब तो है ही। जिस शब्द का उपयोग बुद्ध ने कर लिया, उसमें बुद्ध की | होता है, निचोड़ो; तर्क से, विश्लेषण से अर्थ निकाल लो। पाठ का थोड़ी सुवास तो आ ही गई। जो उनके होंठों पर रह लिया, जो इस | अर्थ होता, सिर्फ गाओ; भजो। गीत की तरह उपयोग करो; जल्दी योग्य समझा गया कि बुद्ध ने उसका अपनी वाणी से उपयोग कर नहीं है कुछ अर्थ की। शब्दों को भीतर उतरने दो, डूबने दो; तुम्हारे लिया, उसमें बुद्ध थोड़े समा तो गए ही। | खून में मिल जाएं, तुम्हारे अचेतन में उतर जाएं। तुम उनके साथ __ अगर आप में थोड़ी समझ हो, तो उतनी झलक उस शब्द से | एकात्म हो जाओ। तब शायद मुर्गी अंडा देने लगे। आपको आ सकती है। लेकिन उसके लिए बड़ा हल्का, बड़ा शांत | अति सहानुभूति से, सिम्पैथी से शास्त्र का थोड़ा-सा अर्थ और बुद्धिमत्तापूर्ण हृदय चाहिए। अत्यंत सहानुभूति से भरा हुआ | आपको मिल सकता है। और वह अर्थ आपको गुरु की तरफ ले जाने हृदय चाहिए। तब उस शब्द में से थोड़ी-सी गंध आपको पता | | में सहयोगी होगा। क्योंकि वह अर्थ यह कहेगा कि यह तो शास्त्र है; चलेगी। अगर जोर से झपट्टा मारकर शब्द को पकड़ लिया और | जिनसे शास्त्र निकला है, अब उनकी खोज करो। क्योंकि जब शास्त्र कंठस्थ कर लिया, तो वह मर गया। | में इतना है, तो जिनसे निकला होगा, उनमें कितना न होगा! शब्द बहुत कमजोर हैं। उनकी गर्दन पकड़ने की जरूरत नहीं है। बुद्ध के वचन पढ़े, धम्मपद पढ़ा। तो धम्मपद बड़ा प्यारा है, फूल की तरह हैं। तो जैसा कवि शब्दों का उपयोग करता है, वैसा लेकिन कितना ही प्यारा हो, इससे बुद्ध की क्या तुलना है! इससे 255 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * बुद्ध का अनुमान भी नहीं लगता कि बुद्ध क्या रहे होंगे! धम्मपद | मुझसे लोग पूछते हैं कि आप क्यों गीता पर बोल रहे हैं? प्यारा है, तो अब बुद्ध की खोज करो। वह एक तरह का जाल है। जो मैं गीता पर बोल रहा हूं, वह सीधे और बुद्ध कोई ऐसी बात थोड़े ही हैं कि एक दफा होकर नष्ट हो | ही बोल सकता हूं क्योंकि मैं ही बोल रहा हूं, गीता सिर्फ बहाना है। गए। रोज बुद्ध होते रहते हैं। अनेक लोगों में बुद्धत्व की घटना आखिर गीता का बहाना लेने की जरूरत भी क्या है? घटती है। इसलिए कभी पृथ्वी खाली नहीं होती। बुद्ध सदा मौजूद तुम्हारी वजह से वह मुसीबत उठानी पड़ रही है। वह मैं सीधे ही होते हैं। तो जरूरत नहीं है कि पच्चीस सौ साल पीछे अब जाओ, | | बोल सकता हूं। लेकिन तुम्हें पुराने नाम का मोह है; कृष्ण का मोह तब कहीं बुद्ध मिलेंगे। धम्मपद वाले बुद्ध न मिलें, तो कोई और | है। अगर कृष्ण मार्का लगा हो, तो तुम को लगेगा कि ठीक है। बात बुद्ध मिल जाएगा। उसी को हम गुरु कहते हैं। ठीक होनी चाहिए। धम्मपद पढ़ा; गीता पढ़ी। गीता पढ़कर रस आया, तो अब कृष्ण __ जो मैं कह रहा हूं, वह मैं कह रहा हूं। कृष्ण को किनारे रखकर की तलाश करो। कृष्ण सदा मौजूद हैं। वही गुरु का अर्थ है। कह सकता हूं। क्या अड़चन है! कृष्ण को भी बीच में लूं, तो भी गुरु का अर्थ है, अब हम उसको खोजेंगे, जिनसे ऐसे शास्त्र | जो मुझे कहना है, वही मैं कहूंगा। कृष्ण उसमें कुछ उपद्रव खड़ा निकले हैं। अब हम, जो निकला है, उससे राजी नहीं रहेंगे। अब नहीं कर सकते। पर उनके नाम का उपयोग तुम्हारी वजह से है। हम गंगोत्री की तलाश करेंगे, जहां से गंगा निकलती है। तुम्हें पुराने जालों का मोह है; और मुझे मछलियों से मतलब है। लोग गंगोत्री की यात्रा पर जाते हैं। पूरी गंगा का चक्कर लगाकर तुम पुराने में फंसते हो कि नए में, इससे क्या! तुम्हारा अगर पुराने गंगोत्री तक पहुंचते हैं। ऐसे ही शास्त्रों की पूरी यात्रा करके गुरु तक जाल से ही मोह है, तो ठीक है। पहुंचना होता है। गीता पर, कुरान पर, बाइबिल पर, ताओ तेह किंग पर, जो गुरु का अर्थ है, जहां से शास्त्र निकलते हैं। गुरु का अर्थ है, | हजारों वर्ष तक चर्चा चलती है, उसका प्रयोजन यही है कि लोग जिसने जाना, जिसने जीया सत्य को; और अब जिससे सत्य पुराने के मोह में हैं। ठीक है। उनको कष्ट भी न हो और धीरे-धीरे बहता है। उनको जब समझ में आ जाएगा, तो पुराने का मोह भी छूट जाएगा। और गुरु से कभी पृथ्वी खाली नहीं होती। कहीं न कहीं कोई न शास्त्र से गुरु, और गुरु से स्वयं-ऐसी यात्रा है। शास्त्र ले कोई बुद्ध है ही। कहीं न कहीं कोई न कोई कृष्ण है ही। कहीं न कहीं जाएगा गुरु तक; और गुरु पहुंचा देगा स्वयं तक। और जब तक कोई न कोई क्राइस्ट है ही। स्वयं का शून्य न आ जाए, तब तक समझना कि अभी मंजिल नहीं तकलीफ हमारी यह है कि आप पुराने लेबल से जीते हैं, कि उस आई। पर कृष्ण लिखा हुआ हो। वह नहीं मिलेगा। कि उस पर महावीर अब हम सूत्र को लें। लिखा हो, तो हम मानेंगे। महावीर जिस पर लिखा था, वह एक हे अर्जुन, इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात दफा हो चुका। अब गुरु तो मिल सकता है, लेकिन पुराने नाम से | अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के नहीं मिलेगा। शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कटस्थ जीवात्मा अक्षर अर्थात नाम भर मिटते हैं। नाम बदलते चले जाते हैं। और अगर शास्त्र | अविनाशी कहा जाता है। तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही को सहानुभूति से समझा हो, उसकी कविता को भीतर पच जाने | है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण-पोषण करता है दिया हो, उसका गीत आपमें गूंजने लगा हो, तो आप समझ जाएंगे एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है। कि नामों का कोई मूल्य नहीं है। तो फिर कृष्ण को पकड़ लेना कहीं । क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और भी आसान है। | माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए __ और गीता अगर कृष्ण तक न ले जाए, तो गीता का कोई भी सार | | लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। नहीं है। इसीलिए सदियों-सदियों तक गीता की, वेद की, कुरान यह सूत्र पुरुषोत्तम की व्याख्या है। पुरुषोत्तम शब्द हमें परिचित की. बाइबिल की हम चर्चा करते हैं। वह चर्चा इसीलिए है। वह है। लेकिन कृष्ण का अर्थ खयाल में लेने जैसा है। एक तरह का जाल है। कृष्ण कह रहे हैं कि तीन स्थितियां हैं। एक विनाशशील जगत 256 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषोत्तम की खोज है। उस विनाशशील जगत के भीतर छिपा हुआ एक अविनाशी तत्व है। और इस अविनाशी और विनाशी दोनों के पार, दोनों को अतिक्रमण करने वाला एक तीसरा तत्व है। इसे हम ऐसा कहें: शरीर, संसार, आत्मा और परमात्मा । शरीर क्षर है, प्रतिपल विनष्ट हो रहा है; प्रतिपल बह रहा है, परिवर्तन है। शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा अविनाशी है । इन दोनों के पार कृष्ण कहते हैं, मैं हूं; जो पुरुषोत्तम है। ये दो पुरुष, एक क्षर और एक अक्षर; और दोनों के पार मैं हूं। जो लोग भी दार्शनिक चिंतन करते हैं, उनको सवाल उठता है कि दोनों से काम हो जाता है; तीसरे की क्या जरूरत है? जैनों की यही मान्यता है। वे कहते हैं, संसार है और आत्मा है। बात खतम हो गई। जीव है और अजीव है। क्षर है और अक्षर है । यह तीसरे की क्या जरूरत है! इन दो से काम हो जाता है। दोनों अनुभव के हिस्से हैं। इसलिए जैन विचार द्वैत पर पूरा हो जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तीसरा हूं। जैन विचार में इसलिए परमात्मा की कोई जगह नहीं है, क्योंकि तीसरे की कोई जगह नहीं है। कृष्ण का यह जोर तीसरे के लिए क्यों है, यह समझना जरूरी है। क्योंकि अगर दो ही हैं, तो दोनों बराबर मूल्य के हो जाते हैं। दोनों का संतुलन हो जाता है। जैसे एक तराजू है; उस पर दो पलवे लगे हैं। और अगर एक तीसरा कांटा नहीं, जो दोनों का अतिक्रमण करता हो, तो तराजू बिलकुल व्यर्थ हो जाता है। एक कांटां चाहिए जो दोनों का अतिक्रमण करता है । और चूंकि दोनों के पार है, इसलिए हिसाब भी बता सकता है कि किस तरफ बोझ ज्यादा है और किस तरफ बोझ कम है । तौल . संभव हो सकती है। अगर पदार्थ है और आत्मा है, और इन दोनों के पार कुछ भी है, तब बड़ी अड़चन है। क्योंकि तब पदार्थ और आत्मा के कोई जोड़ने वाला है, न कोई तोड़ने वाला है। पदार्थ और आत्मा के बीच जो संघर्ष है, उससे पार जाने का भी उपाय नहीं है। इसलिए जैन चिंतन में एक पहेली सुलझती नहीं । जैन विचारकों से पूछा जाता रहा है कि आत्मा इस संसार में उलझी क्यों ? तो उनकी बड़ी कठिनाई है। वे कैसे बताएं कि उलझी । अगर वे कहें कि पदार्थ ने खींच ली, तो पदार्थ ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है । और अगर पदार्थ ज्यादा शक्तिशाली है, तो तुम मुक्त कैसे होओगे ? अगर वे कहते हैं, आत्मा खुद ही खिंच आई अपनी मरजी से, तो सवाल यह उठता है कि कल हम मुक्त भी हो गए, फिर भी आत्मा खिंच आए, तो क्या करेंगे? क्योंकि कभी आत्मा अपने आप खिंच आई बिना किसी कारण के; तो मुक्ति फिर शाश्वत नहीं हो सकती। मोक्ष में भी पहुंचकर क्या भरोसा, दस-पांच दिन में ऊब जाएं और आत्मा फिर खिंच आए ! इतनी मेहनत करें - तप, उपवास, तपश्चर्या, ध्यान, साधना - मोक्ष में जाकर पंद्रह दिन में ऊब जाएं, और आत्मा फिर पदार्थ में खिंच आए। फिर पूछा जाता है, इन दोनों के बीच नियम क्या है ? किस नियम से दोनों का मिलना और हटना चलता है ? तीसरे को चूंकि वे स्वीकार नहीं करते, इसलिए बड़ी अड़चन है। . और ध्यान रहे, गणित या तर्क की कोई भी चीज उलझ जाएगी, अगर दो के बीच तीसरी न हो। इसलिए हिंदू, ईसाई, मुसलमान, दो की जगह त्रैत में विश्वास करते हैं; ट्रिनिटी में, त्रिमूर्ति में । जहां दो हैं वहां तीसरा भी मौजूद रहेगा। क्योंकि दो को जोड़ना हो, तो तीसरे की जरूरत है; दो को तोड़ना हो तो, तीसरे की जरूरत है। दो के पार जाना हो, तो तीसरे की जरूरत है। दो के बीच जो | नियम है, जो शाश्वत व्यवस्था चल रही है, उसके लिए भी तीसरे की जरूरत है। 257 इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं तीसरा हूं। और गहरे अनुभव से भी यही सिद्ध होता है। एक तो शरीर है, जो दिखाई पड़ता है हमें। एक हमारा मन है, हमारी तथाकथित चेतना है, जो हमने अभी तक नहीं देखी। लेकिन अगर हम थोड़ा भीतर पीछे हटें और शांत हों, तो हमें मन भी दिखाई पड़ने लगेगा। और जब मन भी दिखाई पड़ेगा, तब हम तीसरे हो जाएंगे। तब एक तो शरीर होगा पदार्थ से निर्मित, और एक मन होगा चेतन कणों से निर्मित, और एक हम होंगे। और यह हमारा होना सिर्फ साक्षी का भाव होगा, द्रष्टा का भाव होगा। हम सिर्फ देखने वाले होंगे। ये दोनों का खेल चल रहा होगा, हम सिर्फ देखने वाले होंगे। यह जो तीसरा है, यह पुरुषोत्तम है। यह पुरुषोत्तम प्रत्येक में छिपा है । पर्त शरीर की ऊपर है, फिर पर्त मन की ऊपर है। इन दोनों परतों को हम तोड़ दें, तो यह पुरुषोत्तम हमें उपलब्ध हो सकता है। अब हम कृष्ण के सूत्र को खयाल में लें। इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 है, जो कि तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसा कहा गया है। क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अक्षर अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। ये तीन परतें दार्शनिक सिद्धांत नहीं हैं। ये तीन परतें आपके भीतर अनुभव की परतें हैं। जैसे-जैसे आप भीतर जाएंगे, वैसे-वैसे पर्त उघड़नी शुरू हो जाएगी । अधिक लोग पहली पर्त पर ही रुके हैं, जो अपने को मान लेते हैं कि मैं शरीर हूं। जिस व्यक्ति ने अपने को मान लिया कि मैं शरीर हूं, वह अपने भीतरी खजानों से अपने ही हाथ से वंचित रह जाता है । उसका तर्क ही गलत नहीं है, उसका पूरा जीवन ही अधूरा अधकचरा हो जाएगा। क्योंकि जो वह हो सकता था, जो उसके बिलकुल हाथ के भीतर था, वह उसने ही द्वार बंद कर दिए। जैसे अपने ही घर के बाहर आप बैठे हैं ताला लगाकर; और कहते हैं कि यही घर है। बाहर की जो छपरी है, उसको घर समझे हुए हैं। पोर्च में जी रहे हैं, उसको घर समझे हुए हैं। नास्तिक की, शरीरवादी की भूल तार्किक नहीं है, जीवनगत है, एक्झिस्टेंशियल है। और एक दफा आप पक्का जड़ पकड़ लें कि यही मेरा घर है, तो खोज बंद हो जाती है। फिर आप डरते हैं; फिर आप आंख भी नहीं उठाते; फिर प्रयत्न भी नहीं करते। आस्तिक के साथ संभावना खुलती है। क्योंकि आस्तिक कहता है, तुम जहां हो, उतना सब कुछ नहीं और भीतर जाया जा सकता है। इसलिए नास्तिक बंद हो जाता आस्तिक सदा खुला है और खुला होना शुभ है। है। अगर आस्तिक गलत भी हो, तो भी खुला होना शुभ है, क्योंकि खोज हो सकती है। जो छिपा है, उसको हम प्रकट कर सकते हैं। नास्तिक अगर ठीक भी हो, तो भी गलत है, क्योंकि खोज ही बंद हो गई; आदमी जड़ हो गया। उसने मान लिया कि जो मैं हूं बस, यह बात समाप्त हो गई। जैसे एक बीज समझ ले कि बस, बीज ही सब कुछ है; तो फिर अंकुरण होने का कोई कारण नहीं है । फिर अंकुरित हो, जमीन की पर्त को तोड़े, कष्ट उठाए, आकाश की तरफ उठे, सूरज की यात्रा करे - यह सब बंद हो गया। बीज ने मान लिया कि मैं बीज हूं। जो व्यक्ति मान ले कि मैं शरीर हूं, उसने अपने ही हाथ से अपने पैर काट लिए। पोर्च भी हमारा है, लेकिन घर के और भी कक्ष हैं। और जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही सुख, उतनी ही शांति, उतने ही आनंद में प्रवेश होता है। क्योंकि उतने ही हम घर में प्रवेश होते हैं। उतने ही विश्राम में हम प्रवेश होते हैं। कृष्ण कहते हैं, शरीर, वह क्षर, आत्मा, वह अविनाशी, शरीर के साथ जुड़ा हुआ; और इन दोनों के पार साक्षी - आत्मा है, दोनों से मुक्त। आत्मा और साक्षी - आत्मा में इतना ही फर्क है। वे दो नहीं हैं। एक ही चेतना की दो अवस्थाएं हैं। खयाल आत्मा का अर्थ है, शरीर से जुड़ी हुई। आत्मा का अर्थ है, जिसे का। आत्मा शब्द का भी अर्थ होता है, मैं, अस्मिता । जिस आत्मा को खयाल है शरीर से जुड़े होने का, उसको खयाल होता है। शरीर से मैं भिन्न हूं, तो मैं भी खो जाता है। और मैं के खोते ही सिर्फ शुद्ध चैतन्य रह जाता है। वहां यह भी खयाल नहीं है कि मैं हूं। उस शुद्ध चैतन्य का नाम पुरुषोत्तम है। ये आपके ही जीवन की तीन परतें हैं। और पहली पर्त से तीसरी पर्त तक यात्रा करनी ही सारी आध्यात्मिक खोज और साधना है। और तीसरी का लक्षण है कि वह दोनों के पार है। न तो वह देह न वह मन है । न वह पदार्थ है, न अपदार्थ है । वह दो से भिन्न, तीसरी है। आप अपने भीतर कभी-कभी उसकी झलक पाते हैं। और चेष्टा करें, तो कभी-कभी उसकी झलक आयोजन से भी पा सकते हैं। भोजन कर रहे हैं, तब एक क्षण को देखने की कोशिश करें। भोजन शरीर में जा रहा है, भोजन क्षर है और क्षर में जा रहा है। लेकिन जो उसे शरीर में पहुंचा रहा है, वह आत्मा है। और आत्मा मौजूद न हो, तो शरीर भोजन न तो कर सकेगा, न पचा सकेगा। भूख शरीर में लगती है, लेकिन जिसको पता चलता है, वह आत्मा है। आत्मा न हो, तो शरीर को भूख लगेगी नहीं, पता भी नहीं चलेगी। भूख शरीर में पैदा होती है, लेकिन जिसको एहसास | होता है, वह आत्मा है। भूख, भूख की प्रतीति, ये दो हुए तल। क्या आप तीसरे को भी खोज सकते हैं, जो देख रहा है दोनों को कि शरीर में भूख लगी और आत्मा को भूख का पता चला और मैं दोनों को देख रहा हूं। इस तीसरे की थोड़ी-थोड़ी झलक पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। कोई भी अनुभव हो, उसमें तीनों मौजूद रहते हैं। इन तीन के बिना कोई भी अनुभव निर्मित नहीं होता। लेकिन तीसरा छिपा है 258 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषोत्तम की खोज * पीछे। इसलिए अगर आप बहुत संवेदनशील न हों, तो आपको | | हम बाहर दौड़ पड़ते हैं। किसी ने गाली दी; व्याख्या की, हम बाहर उसका पता नहीं चलेगा। वह गुप्ततम है। गए। उस आदमी पर नजर पड़ जाती है, जिसने गाली दी। क्यों दी __ वह जो पुरुषोत्तम है, वह गुप्ततम भी है। जितनी संवेदना आपकी गाली? या उसको कैसे हम बदला चुकाएं? तो जब हमें भीतर जाना बढ़ेगी, धीरे-धीरे उसकी प्रतीति होनी शुरू होगी। था और तीसरे को खोजना था, तब हम बाहर चले गए। वह क्षणभर कोई आदमी आपको गाली दे रहा है। तत्क्षण गाली देने वाला का मौका था, खो गया। रोज ऐसे अवसर खो जाते हैं। और आप गाली सुनने वाले, गाली और आप, दो हो गए। अगर | तो जब भी आपके भीतर कोई घटना घटे. बाहर न दौडकर भीतर थोड़ी संवेदना को जगाएं, तो आपको वह भी भीतर दिखाई पड़ दौड़ने की फिक्र करें। तत्क्षण! ध्यान बाहर न जाए, भीतर चला जाएगा जो दोनों को देख रहा है। गाली दी गई, तो गाली भौतिक | जाए। और भीतर अगर ध्यान जाए, तो आप पाएंगे साक्षी को खड़ा है; कान पर चोट पड़ी; मस्तिष्क में शब्द घूमे; मस्तिष्क ने व्याख्या हुआ। और अगर साक्षी आपके खयाल में आ जाए, तो पूरी स्थिति की; यह सब भौतिक है। मस्तिष्क ने कहा, यह गाली बुरी है। । | बदल जाएगी, पूरी स्थिति का अर्थ बदल जाएगा। मुल्ला नसरुद्दीन को उसका पड़ोसी एक दिन कह रहा था कि । किसी ने गाली दी हो; आत्मा व्याख्या करती है कि बुरा है या तुम्हारा लड़का जो है फजलू, बहुत भद्दी और गंदी गालियां बकता | | भला है, कोई प्रतिक्रिया करती है। अगर उसी वक्त तीसरा भी है। नसरुद्दीन ने कहा, बड़े मियां, कोई फिक्र न करो; छोटा है, | | दिखाई पड़ जाए, तो भी आत्मा फिर व्याख्या करेगी। अब यह तीसरे बच्चा है, नासमझ है। जरा बड़ा होने दो, अच्छी-अच्छी गालियां | | की व्याख्या करेगी जो भीतर छिपा है। और हो सकता है, आपको भी बकने लगेगा। हंसी आ जाए। शायद आप खिलखिलाकर हंस पड़ें। ___ व्याख्या की बात है। कभी-कभी गाली अच्छी भी लगती है, जब । वह जो बाहर गाली आई थी, वह भी मस्तिष्क में आई, उसकी मित्र देता है। सच में मित्रता की कसौटी यह है कि गाली अच्छी | व्याख्या आत्मा ने की। फिर आपने पीछे लौटकर देखा और साक्षी लगे। अगर मित्र एक-दूसरे को गाली न दें, तो समझते हैं कि कोई | | का अनुभव हुआ, यह भी अनुभव मस्तिष्क में आएगा और आत्मा मित्रता में कमी है, मिठास नहीं है। | इसकी भी व्याख्या करेगी। शत्रु भी गाली देते हैं, वही गाली; मित्र भी गाली देते हैं, वही अगर आपको साक्षी दिखाई पड़ जाए, तो आपकी मुस्कुराहट गाली; शत्रु के मुंह से सुनकर बुरी लगती है; मित्र के मुंह से सुनकर | धीरे-धीरे सतत हो जाएगी। हर अनुभव में आप हंस सकेंगे। भली लगती है, प्यारी लगती है। तो नसरुद्दीन एकदम गलत नहीं | | क्योंकि हर अनुभव लीला मालूम पड़ेगा। और हर अनुभव एक कह रहा है। अच्छी गालियां भी हैं ही। व्याख्या पर निर्भर है। गहरी मजाक भी मालूम पड़ेगी कि यह क्या चल रहा है! क्या हो शरीर पर चोट पड़ती है, कान पर झंकार जाती है, मस्तिष्क | रहा है! और इतनी क्षुद्र बातों को मैं इतना मूल्य क्यों दे रहा हूं! व्याख्या करता है। यह सब भौतिक घटना है। व्याख्या जो करता __ मैंने सुना है कि एक स्त्री ने अपने घर के भीतर झांककर अपने है, वह चेतना है। इसलिए वही गाली भली भी लग सकती है कभी; | | पति को कहा कि बाहर एक आदमी पड़ा है। पागल मालूम होता वही गाली बुरी भी लग सकती है कभी। वह जो व्याख्या करने | | है। सामने सड़क पर लेटा है। पति ने भीतर से ही पूछा, लेकिन उसे वाली है, वह चेतना है। पागल कहने का क्या कारण है ? पत्नी ने कहा, पागल कहने का क्या आपके पास कोई तीसरा तत्व भी है, जो दोनों को देख सके? | | कारण यह है कि एक केले के छिलके पर फिसलकर वह गिर पड़ा इस घटना को भी देखे, इस बड़े यंत्र की प्रक्रिया को–गाली, कान है। उठ नहीं रहा है, केले को पड़ा-पड़ा गाली दे रहा है। में जाना, मस्तिष्क में चक्कर, शब्दों का व्याघात, ऊहापोह; फिर | | कोई भी सामान्य आदमी होता, तो पहला काम वह यह करता आत्मा का अर्थ निकालना। और क्या इनके पीछे दोनों को देख रहा है कि किसी ने देख तो नहीं लिया! कपड़े झाड़कर, जैसे कुछ भी हो कोई, ऐसी कभी आपको प्रतीति होती है? तो वही पुरुषोत्तम है। नहीं हुआ। केले को गाली भी देगा, तो भीतर और बाद में। न प्रतीति होती हो, तो उसकी तलाश करनी चाहिए। और हर अनुभव | | पत्नी ने कहा, आदमी बिलकुल पागल मालूम होता है। लेटा है में क्षणभर रुककर उसकी तरफ खयाल करना चाहिए। वहीं, जहां गिर गया है; और सामने केले का छिलका पड़ा है, लेकिन हमारी मुसीबत यह है कि जब भी कोई अनुभव होता है, उसको गाली दे रहा है! 259 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * दे रहा पति ने कहा, एक बात तय है, पागल हो या न हो, सामान्य नहीं। | आदमी के अहंकार को केले का छिलका भी गिरा देता है, उसे है। मैं आया। वह बाहर जाकर देख रहा है। वह आदमी गाली भी | देखकर हंसी आती है। है. मस्करा भी रहा है। तो उसने आदमी को पछा कि यह वह आदमी अकड़कर चला जा रहा था, हैट-वैट लगाए था, क्या कर रहे हो? उसने कहा, बाधा मत दो। | टाई वगैरह सब। ऐसा बिलकुल शक्तिशाली आदमी, अचानक वह एक सूफी फकीर था। वह केले पर से गिर पड़ा है। एक | | एक केले का छिलका उसको जमीन पर चारों खाने चित्त कर देता घटना घटी, एक भौतिक घटना। उसके मस्तिष्क में खबर पहुंची, | | है। उसकी सब सामर्थ्य खो जाती है। अकड़ खो जाती है। क्षणभर जो सामान्य आदमी के सभी के पहुंचेगी। और जो केले पर नाराजगी | | में पाता है कि दीन है, सड़क पर पड़ा है। इस दीनता से एकदम हंसी आएगी, वह भी आई। लेकिन वहां से भागा नहीं वह। क्योंकि वह | आती है। आदमी की इस असहाय अवस्था पर। उसके अकड़पन चूक जाएगा क्षण। वह वहीं लेट गया। क्योंकि यह मौका खो देने की स्थिति और फिर एकदम जमीन पर पड़े होने में इतना अंतराल जैसा नहीं है। है, इतना फर्क है, कि यह आप पहचान ही नहीं सकते थे कि यह एक केले का छिलका क्या कर रहा है? भीतर क्या हो रहा है? | आदमी केले के छिलके से गिरने वाला है। गिरने वाला नहीं है। यह तो मस्तिष्क जो भी करना चाहता है, वह गाली भी दे रहा है। लेकिन | | सम्राट हो सकता है। एक तीसरी घटना वहां घट रही है। वह इन दोनों को देख भी रहा इसलिए आप खयाल रखें, अगर एक भिखारी गिरेगा, कम हंसी है, अपनी इस पागलपन की अवस्था को, इस पड़े हुए छिलके को। | आएगी। अगर एक सम्राट गिरेगा, ज्यादा हंसी आएगी। आप इस पूरी घटना में वह पीछे है, और धीमे-धीमे मुस्कुरा भी रहा है। | सोचें, एक भिखारी गिर पड़े; आप कहेंगे, ठीक है। एक छोटा इसलिए अक्सर संत पागल भी मालूम पड़ सकते हैं। एक बात | | बच्चा गिरेगा, तो शायद हंसी न भी आए। क्योंकि बच्चे को हम तो पक्की है कि वे सामान्य नहीं हैं। एबनार्मल तो हैं ही। असाधारण | समझते हैं, बच्चा ही है, इसकी अकड़ ही क्या है अभी! लेकिन तो हैं ही। क्योंकि आप यह नहीं कर सकेंगे। मगर अगर कर सकें, | अगर एक सम्राट गिरेगा, तो आप बिलकुल पागल हो जाएंगे तो जो हंसी आएगी भीतर से...। हंस-हंसकर। आप कभी एक बात को सोचते हैं कि जब दूसरा आदमी कुछ जिस-जिस स्थिति में हंसी आती है आपको देखकर, करता है, उसमें आपको हंसी आती है। जैसे एक आदमी केले के कभी-कभी उस स्थिति में अपने को देखें। तब भी एक हंसी छिलके से फिसला और गिर पड़ा। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, आएगी; और वह हंसी ध्यान बन जाएगी; और उस हंसी से आपको जिसको देखकर हंसी न आ जाए। अगर दूसरे को देखकर आपको | | साक्षी की झलक मिलेगी। इतनी हंसी आती है, कभी आपने खुद फिसलकर गिरकर और फिर | कोई भी अनभव हो. तीसरे को पकड़ने की कोशिश करें। हंसकर देखा? तब आपको तीसरे तत्व का थोड़ा-सा अनुभव | पुरुषोत्तम की तलाश जारी रखें। और हर अनुभव में वह मौजूद है। होगा। क्योंकि उस वक्त गिरने वाले आप होंगे; गिरने वाले की जो | | इसलिए न मिले, तो समझना कि अपनी ही कोई भूल-चूक है। प्रतिक्रिया है, वह भी आप होंगे; और देखने वाले भी आप होंगे। | | मिलना चाहिए ही। क्षुद्र अनुभव हो कि बड़ा अनुभव हो, कैसा भी दूसरे को गिरते देखकर आप हंसते हैं, क्योंकि स्थिति पूरी की | अनुभव हो, पुरुषोत्तम भीतर खड़ा है। पूरी मजाक जैसी मालूम पड़ती है। पर कभी आपने इस पर विचार | स्वामी राम को कुछ लोगों ने गाली दी, तो वे हंसते हुए वापस किया है कि ऐसा होता क्यों है? आखिर केले में, उसके छिलके पर | लौटे। लोगों ने कहा, इसमें हंसने की क्या बात है? लोगों ने से गिर जाने में ऐसा क्या कारण है जिससे हंसी आती है? इसमें अपमान किया है। राम ने कहा कि मैं देख रहा था। और जब राम हंसने योग्य क्या है? को गाली पड़ने लगीं, और राम भीतर-भीतर कुनमुनाने लगा, तो मनोवैज्ञानिक बड़ी खोज करते हैं। क्योंकि इसमें हंसी सभी को | | मुझे हंसी आने लगी। मैं भीतर कहने लगा कि ठीक हुआ, अब आती है, सारी दुनिया में आती है। इसका कारण क्या है? इसमें भुगतो राम! अब भोगो फल! । ऐसी कौन-सी बात है जिसको देखकर हंसी आती है? यह जो भीतर से अपने को भी दूर खड़े होकर देखना है, यही मेरी जो दृष्टि है, मुझे जो कारण दिखाई पड़ता है, वह यह है कि पुरुषोत्तम तत्व है। और जिस व्यक्ति को यह धीरे-धीरे सध जाए, 12601 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुरुषोत्तम की खोज वह जीवन-मुक्त है। आप भिखारी नहीं रहे, आप सम्राट हो गए। कृष्ण का इतना जो जोर है अर्जुन को, वह इसीलिए कि यह जो पुरुषोत्तम की प्रतीति एकमात्र साम्राज्य है, जो पाने जैसा है। और युद्ध हो रहा है, यह क्षर है। इसमें जो मरेगा, मिटेगा, वह मरने | उसकी प्रतीति के बिना हम सब भिखमंगे हैं। वाला, मिटने वाला ही है। उसमें तू परेशान मत हो। इसमें एक मैंने सुना है, एक भिखमंगा भीख मांग रहा था एक द्वार पर। अक्षर भी छिपा है, वह जो यहां आत्माएं छिपी हैं लोगों में, वही गरमी के दिन थे, मकान का मालिक भीतर खस की टट्टियों की अक्षर तेरे भीतर बेचैन हो रहा है। वही सोच रहा है कि इतनी हत्या आड़ में आराम कर रहा था। उस भिखारी ने कहा, कुछ मिल जाए। मैं करूं? हिंसा होगी, पाप लगेगा, भटकूँगा। और फल क्या है? | भीतर से आवाज आई, आगे बढ़ो। उसने कहा, दो-चार आने से फायदा क्या है? परिणाम क्या है? राज्य भी मिल गया, तो क्या | भी चलेगा। भीतर से आवाज आई, कुछ भी नहीं है आने-वाने। लाभ है ? इतनों को मारकर लिए गए राज्य में इतना खून सन जाएगा | कहीं और जाओ। उसने कहा, तो कुछ कपड़ा-लत्ता ही मिल जाए। कि इसमें सुख तो रहेगा ही नहीं। यह तेरे भीतर जो बात कर रहा है, | | भीतर से और नाराजगी की आवाज आई कि कह दिया बार-बार सोच रहा है, विचार कर रहा है, यह जो तेरा चेतन है, यह दूसरा | कि आगे बढ़ो। कपड़ा-लत्ता यहां कुछ भी नहीं है। तत्व है। मैं तीसरा हूं। भिखारी भी जिद्दी था। और आदमी जिद्दी न हो, तो भीख मांगने __तो वहां अर्जुन के रथ पर सब मौजूद है। वहां क्षर तत्व मौजूद | | की नौबत भी न आए। पर जिसको भीख मांगना हो, उसको जिद्द है; वह जो अर्जुन का रथ है, वे जो घोड़े हैं। वहां अर्जुन मौजूद है | | रखनी ही चाहिए, नहीं तो भीख मिले भी नहीं। वह चिंतनशील, जो बुद्धि है, आत्मा। और वहां पुरुषोत्तम मौजूद | तो उसने कहा, न सही, रोटी ही मिल जाए, रोटी का टुकड़ा ही है; वह जो दोनों के पीछे साक्षी है। और वह हर रथ पर मौजूद है। | मिल जाए। अंदर से आदमी बहुत ज्यादा तेजी से चिल्लाया कि कह हर शरीर रथ है। और हर शरीर के भीतर यह सवाल उठते ही | दिया, कुछ भी नहीं है। तो उसने कहा, जब कुछ भी नहीं है, तो हैं, कि ऐसा करूं तो क्या होगा? वैसा करूं तो क्या होगा? करना | अंदर बैठे क्या कर रहे हो? चलो, मेरे साथ ही हो जाओ। जो उचित है या अनुचित है? शुभ है या अशुभ है? यह चिंतना उठती | | मिलेगा, आधा-आधा कर लेंगे। है। यह आत्मा का लक्षण है। लेकिन यह आखिरी तत्व नहीं है। जब तक पुरुषोत्तम का स्वर न हो. तब तक पछने जैसा है कि इसलिए आत्मा जो भी निर्णय लेगी. वह अंतिम नहीं है। अंतिम भीतर छिपे क्या कर रहे हो? तब तक अवस्था भिखमंगे की है। निर्णय तो तभी उठ सकता है, जब पुरुषोत्तम खयाल में आ जाए। | चाहे खस की टट्टी में ही छिपे आप बैठे हों। कुछ है नहीं आपके और तब बड़े मजे की बात है, तब कोई निर्णय लिया नहीं जाता। | पास। उसका स्वर मिलते ही सब मिल जाता है। क्योंकि फिर कुछ जैसे ही पुरुषोत्तम खयाल में आया, आदमी जिंदगी में बहना शुरू | | पाने की चाह भी नहीं रह जाती। कर देता है; फिर निर्णय नहीं लेता। क्योंकि वह जानता है, जो मिटने | ___ एक जवान लड़का एक लड़की के प्रेम में था। उसकी सोलहवीं वाला है, वह मिटेगा; जो नहीं मिटने वाला है, वह नहीं मिटेगा; और | वर्षगांठ थी। तो वह बड़ी चिंता में था रातभर से कि क्या भेंट करे। जो देखने वाला है, इस पूरे खेल को देखे चला जाता है। तब यह | सब सोचा, कुछ जंचता नहीं था। प्रेमी को कभी नहीं जंचता कि सारा जीवन, सारे जीवन का चक्कर परदे पर चलती फिल्म से ज्यादा | | प्रेमिका को भेंट देने योग्य कुछ भी हो सकता है। ताजमहल भी भेंट नहीं रह जाता। और वह जो देखने वाला है, देख रहा है। | कर रहे हों, तो भी लगेगा, क्या है! कुछ भी नहीं है। सब सोचा, इस तीसरे की खोज करें। तीसरा ज्यादा दूर नहीं है, बहुत पास | लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। और वक्त करीब आने लगा, जब है। जरा-सी चेष्टा से उसका स्वर सुनाई पड़ने लगता है। एक बार | जाना है और वर्षगांठ का भोज होने वाला है, तो उसने सोचा कि उसका स्वर सुनाई पड़ जाए, तो फिर आप वही आदमी नहीं हैं, जो अपनी मां से पूछ्। कल तक थे। तब आपकी हालत ऐसी हो गई, जैसे कल तक आप | __उसने अपनी मां से पूछा कि मां, एक बात पूछू ? जिस लड़की भिखारी थे; और अचानक खीसे में हाथ डाला और हीरे पा गए। से मेरा प्रेम है, उसकी सोलहवीं वर्षगांठ है और मुझे कुछ भेंट देने दुनिया भला देखती रहे कि अभी भी भिखारी हो, क्योंकि अभी जाना है। मैं तुझसे पूछता हूं कि अगर तेरी उम्र सोलह साल हो जाए, दुनिया को कुछ पता नहीं है कि आपके खीसे में क्या है। लेकिन | | तो फिर तू क्या पसंद करेगी? 261 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उसकी मां ने आंख बंद कर लीं। उसके चेहरे पर एक समाधि का भाव आ गया। उसने कहा, बेटे, अगर सोलह साल की हो जाऊं, तो फिर कुछ चाहने को बचता भी नहीं है। उतना काफी है। उतना बहुत है; फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है। जैसे ही किसी को भीतर के पुरुषोत्तम का स्वर सुनाई पड़ता है, फिर कुछ चाहने को बचता नहीं है। वह पा लेना सब पा लेना है। लेकिन उसकी तलाश करनी होगी। पास ही है बहुत, फिर भी खोदना पड़ेगा। और जितनी त्वरा से खोदेंगे, जितनी तीव्रता से, उतना ही निकट उसे पाएंगे। अगर तीव्रता परिपूर्ण हो, सौ प्रतिशत हो, तो बिना खोदे भी मिल सकता है। धीरे-धीरे बेमन से खोदेंगे, तो बहुत दूर है। ऐसे ही खोदेंगे कि चलो देख लें, शायद हो, कभी न मिलेगा। क्योंकि खोदने की भावना क्या है, इस पर सब निर्भर है। अगर कोई तीव्रता से, पूर्ण तीव्रता से चाहे, तो किसी भी क्षण उसके द्वार खुल जाते हैं। और हमें अगर जन्मों-जन्मों से नहीं मिला पुरुषोत्तम, तो उसका कारण यह नहीं है कि वह दूर है। उसका एक कारण है कि एक तो हमने खोजा ही नहीं। कभी खोजा भी, तो बेमन से खोजा। कभी गहरी प्यास से न पुकारा। कभी पुकारा भी, तो ऐसा कि लोगों को दिखाने के लिए पुकारा। प्रार्थना भी की, तो वह हार्दिक न थी; ऊपर-ऊपर थी; शब्दों की थी। अगर इतना स्मरण रहे, तो उसे किसी भी क्षण पाया जा सकता है। हाथ बढ़ाने भर की बात है। आज इतना ही। 262 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 15 सातवां प्रवचन प्यास और धैर्य Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-73 यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । | और अगर गुरु-भाव भ्रांत हो, मिथ्या हो, सिर्फ खयाल हो, पैदा स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। १९ ।। | न हुआ हो, तो ज्यादा देर टिकेगा नहीं। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । | है। वह ऐसे ही है, जैसे फूल को किसी ने बीज के ऊपर रख दिया एतबुद्ध्वा बुद्धिमानस्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।। २० ।। | हो; बीज से निकला न हो। हे भारत, इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को __यदि गुरु-भाव वस्तुतः पैदा हुआ है, तो जीवन बदलना शुरू हो पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर | जाएगा। वही लक्षण है कि गुरु-भाव वास्तविक है या नहीं। क्योंकि मुझ परमेश्वर को ही भजता है। गुरु-भाव एक बड़ी क्रांतिकारी घटना है। किसी के प्रति समर्पण की हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र | भावना जीवन को आमूल बदलना शुरू कर देती है। समर्पित होते मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान ही आप दूसरे होने शुरू हो जाते हैं। वह जो व्यक्ति समर्पित हुआ और कृतार्थ हो जाता है। था, मर ही जाता है। नए व्यक्ति का ही उदभव हो जाता है। अगर समर्पण की, शरण जाने की भावना वास्तविक हो और वास्तविक का अर्थ यह है कि पिछले जन्मों के अनुभव से निकली पहले कुछ प्रश्न। हो-तो आपके जीवन में क्रांति शुरू हो गई। वह अनुभव आने पहला प्रश्नः कल आपने कहा कि बिना शास्त्रों को | लगेगी। पढ़े गुरु की तलाश नहीं करनी चाहिए, मगर मैंने कभी आपकी वृत्तियों में फर्क होगा; आपके लोभ में, क्रोध में, काम शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया और आपको पहली | में फर्क होगा। आपकी करुणा गहन होगी, मैत्री बढ़ेगी। सुख-दुख बार सुनकर ही गुरु मान लिया है। तो क्या मेरा रास्ता | के प्रति उपेक्षा आनी शुरू होगी। भविष्य बहुत मूल्यवान नहीं गलत है? कल से मुझे सूझ नहीं पड़ता; क्या मैं सदा | मालूम होगा; वर्तमान ज्यादा मूल्यवान मालूम होगा। और जो ही भटकता रहूंगा? | दिखाई पड़ता है, उससे भी ज्यादा, जो नहीं दिखाई पड़ता है, उसकी | तरफ आंखें उठनी शुरू हो जाएंगी। ऐसे जीवन में सब तरफ से फर्क पड़ने शरू होंगे। ल हुत-सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली बात, यह जन्म | अगर गुरु-भाव, गुरु के प्रति समर्पण का भाव, अतीत के प आपका पहला नहीं है। आप जमीन पर नए नहीं हैं। अनुभवों से निकला हो, तो पहचानने में अंतर नहीं पड़ेगा, कठिनाई बहुत बार हुए हैं; बहुत बार खोजा है; बहुत बार | नहीं पड़ेगी। लेकिन अगर ऐसे ही पैदा हो गया हो—ऐसे भी कभी शास्त्रों में भी खोजा है; बहुत बार गुरुओं के चरणों में भी बैठे हैं। | पैदा हो जाता है—तब आपमें गुरु के प्रति भाव पैदा नहीं होता, गुरु सारे जन्मों का सार-संचित आपके साथ है। के प्रभाव में आपके ऊपर फूल रख जाता है। यदि कभी ऐसा घटित होता हो कि किसी के निकट गरु-भाव | प्रभावशाली व्यक्ति हैं। उनके व्यक्तित्व में प्रभाव हो सकता है; पैदा हो जाता हो, तो उसका केवल एक ही अर्थ है कि पिछले जन्मों | | उनकी वाणी में प्रभाव हो सकता है; उनके अस्तित्व में प्रभाव हो की अनंत यात्रा में गुरु के प्रति समर्पित होने की पात्रता अर्जित की | सकता है। उस प्रभाव की छाया में आपको लग सकता है कि आप है। अगर वैसा न हो, तो गुरु-भाव पैदा होना संभव नहीं है। | समर्पित हो रहे हैं। लेकिन वह ज्यादा देर टिकेगा नहीं। वह सम्मोहन जैसे फूल तो तभी लगेंगे वृक्ष पर, जब वृक्ष बड़ा हो गया हो, से ज्यादा नहीं है। जल्दी ही वर्षा, एक वर्षा भी उसे धुला देने के शाखाएं फैल गई हों, पत्ते लग गए हों, और फूल लगने का समय | लिए काफी होगी। आ गया हो। बीज से सीधे फूल कभी नहीं लगते। तो यही कसौटी है कि अगर समर्पण आपको बदल रहा हो, तो पहली बात तो यह खयाल रखनी चाहिए कि यदि सच में टिकता हो और धीरे-धीरे स्थिर भाव बनता हो, तो समझना कि गुरु-भाव पैदा हुआ हो, तो शास्त्रों की खोज पूरी हो गई होगी। वह | | शास्त्रों की कोई जरूरत नहीं है; शास्त्रों का काम पूरा हो चुका चाहे ज्ञात न भी हो; चाहे आपके चेतन मन को उसका पता भी न हो। होगा। अगर समर्पण-भाव कई बार आता हो, अनेक के प्रति आता 264 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * हो, टिकता न हो; आता हो, चला जाता हो; जरा-सा पानी और | इसकी भी जांच निरंतर रखनी चाहिए कि हम केवल प्रभावों से तो सब बह जाता हो; तो समझना कि वह व्यक्तियों के प्रभाव में | | नहीं जीते? अपने भीतर भी खोज करते रहना चाहिए कि हम सिर्फ आपको लगता है कि समर्पण हो रहा है। सम्मोहित तो नहीं हैं? हमारे भीतर कुछ अंतर हो रहा है या नहीं? वह समर्पण आपका नहीं है। उससे कोई रद्दोबदल, कोई क्रांति रोज लोग मंदिर में जाते हैं। मंदिर में उनके चेहरे देखें; कभी भी नहीं होगी। आप जैसे थे, आप वैसे ही रहेंगे। नुकसान भी | भक्ति-भाव से भरे हुए मालूम पड़ते हैं। मंदिर से बाहर निकलते ही हो सकता है। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं बिना बदले प्रभावित हो चेहरे बदल जाते हैं। उस मंदिर को वे जन्मों से जा रहे होंगे, लेकिन जाता है, उसके जीवन की सारी व्यवस्था ऊपर-ऊपर, सतह पर | | मंदिर कहीं भी उनको बदल नहीं पाता। वे वही के वही हैं। मंदिर में होने लगती है। वह किसी से भी प्रभावित हो सकता है। वह जहां जाकर एक चेहरा ओढ़ लेते हैं। उसकी भी आदत हो गई है! तो जाएगा, वहीं प्रभावित हो जाएगा। लेकिन प्रभाव होगा ऊपर लहरों | मंदिर में प्रवेश करते ही से भक्ति का भाव धारण कर लेते हैं। पर; उसके प्राणों की गहराई में कुछ भी नहीं होगा। लेकिन धारण किए हुए भाव का कोई मूल्य नहीं है। भाव भीतर प्राणों की गहराई में तो जो घटना घटती है, वह आपके ही से आना चाहिए। और अगर भीतर से आएगा, तो मंदिर में ही क्यों, अनुभव से घटती है। आपका अनुभव तैयार हो और गुरु का मिलन | | मंदिर के बाहर भी रहेगा, मंदिर के भीतर भी रहेगा। हो जाए, तो समर्पण, शरणागति पैदा होती है। तो जब आप मुझे सुनते हैं, तभी अगर ऐसा लगता हो कि . आपका अनुभव भीतर न हो और गुरु का मिलना हो जाए, तो समर्पण कर दें, उसका बहुत मूल्य नहीं है। जब मुझे सुनकर चले प्रभाव पैदा होता है। लेकिन प्रभाव क्षण में आता है, क्षण में चला | | जाते हैं, और अगर वह भाव आपके भीतर गूंजता ही रहता हो; जाता है; उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। वह वैसे ही है, जैसे आप | | उठते-बैठते, सोते-जागते, उसकी धुन आपके भीतर बजती रहती चित्र देखने गए; फिल्म देखी और थोड़ी देर को प्रभावित हो गए। | हो, वह आपका पीछा करता हो; न केवल पीछा करता हो, बल्कि हैं। और बाहर निकलते ही बात समाप्त हो गई है। उसकी मौजूदगी के कारण आपके जीवन में फर्क पड़ता हो; कि यह भी हो सकता है कि फिल्म देखते क्षण में करुणा उमड़ आई आप किसी की जेब में हाथ डालकर रुपया निकालने ही वाले थे, हो, आंख आंसुओं से भर गई हो। लेकिन जैसे ही परदे पर प्रकाश | कि वह जो भाव आपके भीतर उठा था, वह आपको रोक देता हो; होता है, घंटी बजती है, स्मरण आ जाता है कि सिर्फ फिल्म थी, कि गाली बस निकलने को ही थी मुंह से, कि वह जो भाव भीतर प्रकाश-छाया का खेल था; रोने जैसा कुछ भी न था; और आप उठा है, बाधा बन जाता हो; कि कोई गिर पड़ा था, उसको उठाने हंसते हुए बाहर आ जाते हैं। हो सकता है अभी भी आंखें गीली हों, | के लिए हाथ बढ़ जाता हो; वह भाव कृत्य बनता हो; तो समझना लेकिन वह सब ऊपर-ऊपर था; भीतर उसके कोई परिणाम नहीं है। कि वह आपके भीतर है। मझे सनकर भी प्रभाव हो सकता है। मेरी बात अच्छी लग अगर भाव कत्य बनने लगे. तो उसका अर्थ है कि वह आचरण सकती है, तर्कयुक्त मालूम हो सकती है। मेरी बात का काव्य मन | को बदलेगा। अगर भाव कृत्य न बने, तो आप तो वही रहेंगे। हो को पकड़ ले सकता है। लेकिन उसका बहुत मूल्य नहीं है; | | सकता है, बुद्धि में थोड़ी अच्छी बातें संगृहीत हो जाएं। अच्छी बातों मनोरंजन से ज्यादा मूल्य नहीं है। बाहर आप जाएंगे, वह सब खो | | का कोई भी मूल्य नहीं है। अच्छी बातें अच्छे सपनों जैसी हैं। सपना जाएगा; धुआं-धुआं उड़ जाएगा। कितना ही अच्छा हो, तो भी सपना है। और सपने में आप सम्राट लेकिन अगर आपके भीतर अनुभव भी पका हो और फिर मेरी | | भी हो जाएं, तो सुबह आप पाते हैं कि आप भिखारी हैं। उससे कुछ बात का उससे मेल हो जाए; बीज भी पड़ा हो जमीन में और वर्षा | | अंतर नहीं पड़ता। हो, तो अंकुरण होगा। बीज आपको अपने साथ लाना है। ___ तो मैं अगर कहूं कि आप स्वयं ब्रह्म हैं; और भीतर छिपा है कोई भी गुरु आपको अनुभव नहीं दे सकता। गुरु वर्षा बन अविनाशी अंतर्यामी; और मेरी बात सुनकर आपको लगे कि ठीक, सकता है। अनुभव का बीज भीतर हो, तो अंकुरित हो सकता है। | और इससे जीवन में, कृत्य में कहीं कोई अंतर न पड़ता हो; तो गुरु की मौजूदगी माली का काम कर सकती है। लेकिन कोई भी । | इसका कोई भी मूल्य नहीं है; और इसे आप धोखा समझना। और गुरु बीज नहीं बन सकता आपके लिए। उसका कोई उपाय नहीं है। इस धोखे से जितने जल्दी आप बाहर हो जाएं, उतना अच्छा है। 265/ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * क्योंकि इस धोखे में आपने न मालूम कितना समय गंवाया होगा। जा सकेंगे; न गुरु के वचन काम आएंगे; न आपने जो प्रभाव इकडे लोग हैं, जो एक गुरु से दूसरे गुरु की यात्रा करते रहते हैं; एक | किए हैं, वे काम आएंगे। मरते क्षण में, आपने क्या किया आश्रम से दूसरे आश्रम में चलते रहते हैं। कोई आश्रम उनको बदल जीवनभर, वही बस आपके साथ होगा। मरते क्षण के कृत्यों नहीं पाता। और तब वे क्या सोचते हैं, कि सभी आश्रम बेकार हैं; का सार-निचोड़ आपके साथ यात्रा पर निकलेगा। मरते क्षण में कहीं कोई सार नहीं है। कोई गुरु उनको नहीं बदल पाता। तब वे सिर्फ आप ही बचेंगे; और आपके अपने सारे कृत्यों का संग्रह, सोचते हैं कि सब गुरु बेकार हैं, सदगुरु कोई है ही नहीं। जो-जो आपने किया, उसकी सब लकीरें आपके ऊपर हैं। कठिनाई सदगुरु की नहीं है, कठिनाई आपकी है। आप बदलने तो निरंतर यह सोचें कि आपके जीवन की धारा कैसी चल रही को तैयार हों, तो एक छोटा बच्चा भी आपको बदल दे सकता है। है। वही पहचान है। और आप बदलने को तैयार न हों; तो खुद कृष्ण भी आपके पास खड़े रहें, तो कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। इसे खयाल रखें। जो भी प्रभाव हो, वह आपका कृत्य बनने | - दूसरा प्रश्नः इतने दिन से आपको बड़ी उत्कंठा से लगे, इसका स्मरण रखें। और मौका दें कि वह कृत्य बने। जहां भी सुनकर भी मैं अपने आपको वहीं पा रहा हूं जहां मैं अवसर मिले, तत्क्षण जो आपका भाव है, उसे कर्म में रूपांतरित | था! फिर मैं क्या आशा रख सकता हूं? होने दें। जब भी कोई भाव कर्म बनता है, तो उसकी लकीर आपके भीतर गहरी हो जाती है। जो आप सोचते हैं, उसका बहुत मूल्य नहीं है। जो आप करते किससे आप आशा रख रहे हैं, मुझसे या अपने से? हैं, उसी का बहुत मूल्य है। क्योंकि जो आप करते हैं, वह आपके पिा प्रश्न से ऐसा लगता है कि मुझसे कुछ आशा रख रहे अस्तित्व से जुड़ता है। जो आप सोचते हैं, वह बुद्धि में भटकता हैं। जैसे मुझे सुनकर आप वहीं के वहीं हैं, तो कसूर रहता है। | मेरा है! मैंने कहा कब आपको कि आप सुनकर कुछ और हो बहुत लोग हैं जिनके पास अच्छे-अच्छे विचार हैं। उन अच्छे | जाएंगे? काश, इतना आसान होता कि लोग सुनकर बदल जाते; विचारों का कोई भी मूल्य नहीं है। समय पर काम नहीं आते। और तो इस दुनिया में बदलाहट कभी की हो गई होती! जो वे करते हैं, उस करने से उनके विचारों का कोई संबंध नहीं | ___ लोग सुनकर नहीं बदलते हैं, यह तो साफ ही है। और सच तो जुड़ता। | यह है कि जितना ज्यादा सुनते हैं, उतना ही जड़ हो जाते हैं। क्योंकि मैं जो भी आपसे बोलता हूं, उसका प्रयोजन आपको प्रभावित | सुनने की उनको आदत हो जाती है। तो पहली दफे सुनकर शायद करना नहीं है। बच्चों का खेल है प्रभावित करना। आप तो मदारी | थोड़ी-बहुत उनकी बुद्धि में गति भी आई हो, बार-बार सुनने से से प्रभावित हो जाते हैं, इसलिए उसका कोई मूल्य भी नहीं है। उतनी गति भी खो जाती है! फिर सुनने के आदी हो जाते हैं! फिर सड़क पर एक मदारी डमरू बजा रहा है। आप वहीं खड़े हो जाते उनको लगता है, यह तो सब परिचित ही है। फिर सुनना भी एक हैं। तो आपको प्रभावित करने का कोई मूल्य नहीं है, न कोई अर्थ | नशा हो जाता है। तो उसकी तलब होती है। है। आप तो किसी से भी प्रभावित हो जाते हैं! अगर आप मुझे सुनते हैं उत्कंठा से और कोई फर्क नहीं हो रहा, ___ आपके भीतर जीवन का संचरण शुरू हो जाए! आपकी तो आठ बजे कि आप चले। वह तलब है। वह जैसे किसी को जीवन-धारा नई गति ले ले! सिगरेट पीने की तलब है, कि आठ बजे और सिगरेट न पीए, तो तो न शास्त्रों की फिक्र करें, न प्रभावों की फिक्र करें; फिक्र इस उसको तकलीफ होती है। तो यह एक व्यसन हुआ, नशा हुआ। बात की करें कि आपके भीतर क्या घटित हो रहा है। इसका सतत नशे का एक मजा है। करो, तो कुछ मिलता नहीं; न करो, तो निरीक्षण चाहिए। और आपके भीतर जो घटित होगा, वही संपदा | | तकलीफ होती है। जाओ सुनने, कुछ फायदा नहीं; न जाओ, तो बनेगी। बेचैनी होती है। जब भी ऐसा हो, तो समझना कि यह व्यसन हो मरते क्षण में न तो आप शास्त्र ले जा सकेंगे, न गुरु को साथ ले गया। यह रोग है। इस रोग से कुछ उपलब्धि होने वाली नहीं है। 266 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * पर निराश किससे होना है? यह सोचकर सुनना बंद कर दें, तो वृक्ष खड़े हैं, उनको देखते रहें। लेकिन प्यास न बुझेगी। भी कुछ फर्क नहीं हो जाएगा। सुनने से नहीं हुआ, तो सुनना बंद और नदी कुछ भी नहीं कर सकती आपकी प्यास बुझाने को। करने से कैसे होगा! फर्क करने को कुछ आपको अपनी तरफ आप झुकें, चुल्लू से पानी भरें और पीएं। और आपकी तैयारी हो, सोचना पड़ेगा। सुनने में बड़ी सुगमता है, क्योंकि आपको कुछ तो पीने की क्या बात है, नदी में डूब सकते हैं, नदी के साथ एक करना ही नहीं है; सिर्फ बैठे हैं। हो सकते हैं। लेकिन सिर्फ नदी की मौजूदगी से यह नहीं हो जाएगा; मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपकी किताब पढ़ने से आपको कुछ करना पड़ेगा। तो आपको सुनने में ज्यादा आनंद आता है! क्योंकि पढ़ने में कम आप कहते हैं, यहां सुनते हैं, उत्कंठा से सुनते हैं। से कम आपको थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है, पढ़ना पड़ता है, उतना यह कुछ करना नहीं है। इस नदी की धारा में से कुछ चुनना कष्ट! सुनने में वह भी कष्ट नहीं है। और सुनने में मन लीन हो | पड़ेगा, जो आप पीएं। कोई विचार जो आपको लगता है सार्थक है, जाता है, तो उतनी देर को आपको शांति भी मिलती है। उतनी देर | तो उसको सार्थक ही मत लगने दें, उसको सार्थक बनाएं। कोई को कम से कम दूसरे उपद्रव आप नहीं कर पाते। कम से कम उतनी | | विचार आपको लगता है कीमती है, तो सिर्फ ऐसा सोचते ही मत देर को आपका मन व्यस्त हो जाता है। तो मन की जो निरंतर की रहें कि कीमती है। अगर कीमती है, तो उसका उपयोग करें, उसको चलती धारा है, वह नहीं चल पाती। चखें, उसका स्वाद लें। उसको पी जाएं; कि वह आपके खून में यह सब ठीक है, लेकिन इससे आप बदल नहीं जाएंगे। और | बहने लगे, आपकी हड्डियों के साथ एक हो जाए। अगर कोई सोचता हो कि सुनने से बदल जाएंगे, तो गलती सोचता __ अगर विचार इतना प्रीतिकर लगता है, तो जिस दिन वह आपका है। वह तो कभी बदलेगा ही नहीं। अगर बदलना है, तो सुनने से | अंतस बन जाएगा, उस दिन कितनी मधुरिमा पैदा होगी, इसकी सूत्र खोजे जा सकते हैं, जो बदलने के काम आ जाएं। सिर्फ सुनने आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। जो मैं कह रहा हूं, अगर वह से कोई नहीं बदलेगा। | प्रीतिकर लगता है, तो जहां से वह कहना निकलता है, उस स्रोत वह करीब-करीब बात, पुरानी कहावत है, कि आप घोड़े को | | पर जब आप डूब जाएंगे, एक हो जाएंगे, तो आपके जीवन में जाकर पानी दिखा सकते हैं, पिला नहीं सकते। घोड़े को ले जाकर प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा। नदी के किनारे खड़ा कर सकते हैं। पिलाएंगे कैसे? पानी तो घोड़े लेकिन खतरा यही है कि बात अच्छी लगे, तो हम उसे स्मरण को ही पीना पड़ेगा। वही मैं कर सकता हूं, घोड़े को नदी के किनारे कर लेते हैं, वह हमारी बुद्धि में समा जाता है। उसका हम उपयोग खड़ा कर सकता हूं; पिला नहीं सकता। भी करते हैं, तो एक ही उपयोग, किसी और से बात करने के लिए अब आप कहें कि घोड़े की तरह मैं खड़ा हूं इतने दिन से और उपयोग कर सकते हैं। किसी और को बता देंगे; किसी और को प्यास मेरी अभी तक नहीं बुझी! समझा देंगे; बस इतना ही उपयोग है। नदी बह रही है, घोड़ा खड़ा है। अब क्या करना है? और करना | | तो जो सुना है, उसे आप ज्यादा से ज्यादा अगर कुछ करेंगे, तो किसको है? वह जो घोड़े को नदी तक ले आया है, उसको कुछ | | वाणी बना लेंगे। वह आपका जीवन नहीं बनेगा। और जीवन न करना है कि घोड़े को कुछ करना है? | बने. तो सनने का कोई सार नहीं। वह व्यर्थ ही गया। जन्मों तक खड़े रहें। नदी बहती रहेगी। नदी हर पल बह रही है। तो अगर आपको लगता हो कि सुनते हैं और कहीं जा नहीं लेकिन थोड़ा झुकना पड़ेगा घोड़े को। थोड़ी गर्दन झुकाकर पानी | | रहे-कैसे जाएंगे? जाना आपको पड़ेगा। जाना शुरू करें। तक मुंह को ले जाना पड़ेगा। __ और एक कदम भी उठाएं, तो भी बड़ा है। क्योंकि पहला कदम तो मैं जब बोल रहा हूं, कुछ कह रहा हूं, तो नदी आपके पास | उठ जाए, तो दूसरे के उठने में आसानी हो जाती है। और एक कदम बह रही है। आप बैठे रहें किनारे पर। कितने ही दिन तक बैठे रहें। से ज्यादा तो एक समय में कोई उठा नहीं सकता। एक कदम उठा नदी को देखने का मजा लेते रहें। नदी के बहने की ध्वनि आ रही | लिया, तो पूरी मंजिल भी एक अर्थ में हल हो गई। क्योंकि है, उसका संगीत सुनते रहें। नदी पर सूरज की किरणें बिछी हैं, नदी एक-एक ही कदम उठाकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। सुंदर है, उसके सौंदर्य को देखते रहें। नदी के पास पक्षी उड़ रहे हैं, लेकिन कदम उठाएं। 267 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 3 इसे नियम बना लें कि जो प्रीतिकर लगे, उसके अनुभव की | | बातें करते हो, तो तुम अपना हाथ मेरी नाड़ी पर रखते हो। कोशिश करें। जो मन को आच्छादित कर ले, उसके अनुभव की | वह जांच करता था कि जब मैं प्रेम की बात करता हूं, तो उसकी कोशिश करें। फिक्र करें कि इसे मैं भी जानने की कोशिश करूं, नाड़ी में कोई फर्क पड़ता है कि नहीं! प्रेम भी थीसिस की बात थी! क्या! उसे कुछ प्रेम में उतरने का कोई कारण नहीं था; सिर्फ जांच रहा था मेरे पास एक युवक आते थे। ध्यान पर बड़ी उत्सुकता रखते थे। | कि जब मन प्रभावित होता है, तो शरीर प्रभावित होता है कि नहीं! ध्यान के शिविरों में भी आते थे। लेकिन कभी मैंने उनको ध्यान | होता तो जरूर है। क्योंकि जब आप गहरे प्रेम में हों, तो आपकी करते नहीं देखा। दो-चार शिविर में देखा; अनेक बार मुझसे मिलने | | नाड़ी तेजी से चलेगी। जिसको आप प्रेम करते हैं, जब आप उसके आए; अनेक प्रश्न लेकर आए। प्रश्न भी अच्छे लाते थे। सुनते भी। | पास होते हैं, तो आपका पूरा शरीर ज्यादा ज्वलंत हो जाता है। खून बड़ी उत्सुकता से थे। | तेजी से बहता है। नाड़ी तेजी से चलती है। हृदय तेजी से धड़कता मैंने पूछा कि कर क्या रहे हो? उन्होंने कहा, मैं ध्यान पर शोध | | है। आप जीवित हो जाते हैं। और जब आपका प्रेमी आपसे दूर कर रहा हूं, रिसर्च कर रहा हूं। एक थीसिस लिखनी है। हटता है, तो आप मुर्दा हो जाते हैं, कुम्हला जाते हैं; सब चीजें तो यह व्यक्ति ध्यान को समझने की बड़ी चेष्टा कर रहा है, शिथिल हो जाती हैं। लेकिन ध्यान से इसे कोई प्रयोजन नहीं है। ध्यान से इसका निजी यह तो ठीक है। लेकिन उस लड़की ने ठीक ही किया। उसने कोई संबंध नहीं है। थीसिस लिखकर बात समाप्त हो जाएगी। कोई कहा, यह बात खतम हो गई। क्योंकि प्रेम कोई वैज्ञानिक जिज्ञासा युनिवर्सिटी इसको डिग्री दे देगी। बात खतम हो गई! ध्यान एक की बात नहीं है। और उसने कहा कि शक तो मुझे कई बार होता था। विषय है, जिस पर एक बौद्धिक व्यायाम करना है। लेकिन प्रयोग क्योंकि तुम बात करते-करते कुछ और भी कर रहे हो। लेकिन आज नहीं करना है। मैंने बिलकुल साफ देख लिया कि तुम मेरी नाड़ी पकड़े बैठे हो। यह करीब-करीब ऐसी हालत है, जैसे कहीं अमृत का सरोवर पहले वह लड़की समझती रही होगी कि मेरा हाथ प्रेम से पकड़े भरा हो, और कोई आदमी उस सरोवर के आस-पास खोज-बीन | हुए है, और वह उसकी नाड़ी की जांच कर रहा है! .. करता रहे कि अमृत पर उसको एक थीसिस लिखनी है और उसे अब यह आदमी जरूर ही खोज लेगा संबंध मन के और शरीर पीए न! तो उस आदमी को हम महामूढ़ कहेंगे। क्योंकि थीसिस के, लेकिन एक अनूठे अनुभव से वंचित रह जा सकता है। प्रेम से लिखने का काम तो पीकर भी हो सकता था: और पीकर ज्यादा ढंग वंचित रह जा सकता है। से होता। क्योंकि जिसे खुद नहीं जाना, उसके संबंध में हम क्या आप ध्यान में उत्सुक हो सकते हैं, एक बौद्धिक ऊहापोह की कहेंगे! जो भी कहेंगे, वह उधार होगा। और जो भी कहेंगे, वह तरह। तब आप छिलके लेकर लौट आए जहां कि आपको फल बासा और बाहर-बाहर का होगा। वह भीतर की प्रतीति नहीं है। मिल सकते थे। एक वैज्ञानिक हुआ मैक्स प्लांक, उसने अपना एक संस्मरण मेरी बात जब आप सुनते हैं और आपको अच्छी लगती है, और लिखा है। उसने लिखा है कि वह जीवशास्त्र का अध्ययन कर रहा प्रीतिकर लगती है, और उत्कंठा जगती है; इतना काफी नहीं है। इतना था और मनोविज्ञान का भी अध्ययन कर रहा था; और कोशिश कर | जरूरी तो है, क्योंकि इसके बाद कुछ और हो सकता है; लेकिन रहा था कि मनोविज्ञान में और जीवशास्त्र में क्या भीतरी संबंध है। इतना काफी नहीं है। यह केवल प्राथमिक है। दसरा कदम उठाएं। और जब मन प्रभावित होता है, तो शरीर कैसा प्रभावित होता है। विचार से अनुभव की तरफ चलें। विचार पर मत ठहर जाएं। __एक युवती से उसका प्रेम था। लेकिन एक दिन युवती एकदम | नहीं तो आप सोचते ही रहेंगे, सोचते ही रहेंगे और समाप्त हो झटके के साथ खड़ी हो गई। उसके पास बैठी थी; चांद था आकाश जाएंगे। और सोचने पर जो समाप्त हो गया, उसने जीवन को जाना में; वे दोनों बड़े प्रेम की बातें कर रहे थे। अचानक वह झटके से खड़ी ही नहीं। एक अपूर्व संपदा पास थी, वह उसे खो दिया अपने ही हो गई। और उसने कहा कि क्षमा करो; यह बात खतम; अब मुझसे | | हाथों से। और विधि आपके पास भी रखी रही, तो भी आप उपयोग दुबारा मत मिलना। मैक्स प्लांक ने कहा, बात क्या है ? उसने कहा | न कर सके! कि मैं कई दिन से अनुभव कर रही हूं कि जब भी तुम मुझसे प्रेम की | | एक रात मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर वापस लौटा, बदहवास, 268 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * पसीने से तरबतर, घबड़ाया हुआ। जल्दी से भीतर घुसकर दरवाजा | जो नियम आप देते हो, उसका मूल्य कितना है? बंद कर लिया। ईश्वर भी चौंका; क्योंकि वह यह पूछ ही नहीं रहा है कि नियम __ पत्नी ने कहा, इतने घबड़ाए हुए हो! बात क्या है? कहां से आ | | क्या है! वह कहता है, मूल्य कितना है! तो ईश्वर ने कहा, मूल्य रहे हो? उसने कहा कि दुकान से ही लौट रहा हूं। लेकिन एक | तो बिलकुल नहीं है; मुफ्त दे रहे हैं! तो उसने कहा, देन आई विल बदमाश मिल गया। उसने मेरा चश्मा भी छीन लिया; फाउंटेन पेन | | टेक टेन। मूसा ने कहा, तो फिर हम दस ले लेंगे। जब मुफ्त ही दे भी खीसे से निकाल ली; रुपए भी खीसे से ले लिए; कोट भी उतार | | रहे हैं, तो क्या दिक्कत है। इसलिए टेन कमांडमेंट्स, दस आज्ञाएं लिया। यहां तक कि मेरे जूते उतार लिए। | ईश्वर की! मगर वे किताब में रखी हैं। उसकी पत्नी ने कहा, और तुम तो पिस्तौल रखे हुए हो! तो आप भी मुफ्त कुछ मिल रहा हो, तो एक की जगह दस ले लेंगे। नसरुद्दीन ने कहा, वह तो भाग्य की बात कहो कि बदमाश की नजर | | कुछ करना न पड़ रहा हो, कुछ आपके जीवन में रूपांतरण न होता पिस्तौल पर नहीं पड़ी; नहीं तो क्या वह छोड़ देता! हो, कोई क्रांति न होती हो, बैठे-ठाले कुछ मिल जाता हो, तो एक अब पिस्तौल किस लिए रखे हुए है वह! की जगह दस ले लेंगे। लेकिन वह किताब में रखा रह जाएगा; आपको ध्यान की विधि पता है। वह रखी रह जाएगी ऐसे ही जैसे | | उसका कोई मूल्य नहीं है। पिस्तौल रखी है। उसको भी बचाने में लग जाएंगे और उसका | | आप यहां बैठकर सुन रहे हैं। आपको कुछ करना नहीं पड़ रहा उपयोग तो कभी कर ही न पाएंगे। आप क्या जानते हैं इसका मूल्य है। बल्कि घंटे, डेढ़ घंटे के लिए कुछ करना पड़ता, उससे भी आप नहीं है, क्योंकि जाना हुआ तो पड़ा रह जाएगा। जिस-जिस ज्ञान | बच गए। राहत है! सुख लगता है। को आपने जीवन बना लिया, वही बस आपके हाथ है। | इस सुख को आप व्यसन मत बना लें। अगर सुख लगता है ___ मैंने सुना है, एक बहुत पुरानी यहूदी कथा है, कि परमात्मा ने | बातों में, तो जहां से बातें आती हों, उस दिशा में यात्रा शुरू करें। जब संसार बनाया, तो उसने हिंदुओं के नेता से पूछा-शायद कृष्ण और जो मैं कह रहा हूं, वह अगर आपको भी किसी दिन दिखाई से पूछा हो—कि कुछ नियम हैं मेरे पास। ये उपयोगी होंगे। अगर पड़ सके, तभी रुकें, तभी समझें कि मंजिल आई। उसके पहले तुम चाहो, तो मैं तुम्हें नियम दे दूं। तो कृष्ण ने, या हिंदुओं के नेता | | रुकना उचित नहीं है। और यह मैं न कर सकूँगा; यह आपको खुद ने पछा कि जरा नमने के लिए: कौन से नियम हैं? तो उसने कहा ही करना पड़ेगा। कि जैसे, व्यभिचार पाप है। तो हिंदुओं के नेता ने कहा, यह बात | कोई दूसरा आपके लिए नहीं चल सकता। कोई दूसरा आपके तो ठीक होगी, लेकिन संसार से सब रस चला जाएगा। कोई | | लिए देख नहीं सकता। कोई दूसरा आपके लिए अनुभव नहीं कर उत्सुकता न दिखाई नियम लेने की। सकता। और अच्छा ही है कि कोई दूसरा नहीं कर सकता। अन्यथा . मुसलमानों के नेता से पूछा-शायद मोहम्मद से पूछा । | आप सदा के लिए वंचित रह जाते; आप पंगु रह जाते। होगा—उन्होंने भी कहा, लेकिन पहले मैं जान लूं कि कौन से | | अगर दूसरा आपके लिए चले, तो आपके पैर नष्ट हो जाएंगे। नियम हैं, फिर लूं। तो ईश्वर ने यह सोचकर कि पहला नियम तो | और दसरा आपके लिए अनभव करे. तो आपका हृदय नष्ट हो पसंद नहीं किया गया, तो उसने दूसरा नियम बताया कि हत्या मत | | जाएगा। और दूसरा आपके लिए देख सके, तो आपकी आंखों की करो। तो मोहम्मद ने कहा, यह बात तो बिलकुल ठीक है। लेकिन | | कोई जरूरत नहीं। और दूसरा अगर आपके लिए आत्म-अनुभव अगर हत्या बिलकुल न की जाए, तो दूसरे हमारी हत्या कर देंगे। | कर सके, तो आपकी आत्मा सदा के लिए खो जाएगी। और दुष्टों के हाथ में संसार चला जाएगा। और फिर बिना युद्ध के | | इसलिए परमात्मा के गहरे नियमों में से एक नियम यह है कि शांति कैसे स्थापित हो सकती है? दूसरा आपके लिए, जो भी मूल्यवान है, वह नहीं कर सकता। वह ऐसा ईश्वर घूमता रहा। आखिर में वह मूसा को मिला, यहूदियों आपको ही करना पड़ेगा। क्योंकि करने से ही विकास होता है। के नेता को मिला। और जैसे कि यहूदी होते हैं, व्यापारी; ईश्वर भी करने से ही आप निर्मित होते हैं। करने से ही आपका वास्तविक चौंका। क्योंकि उसने और लोगों से पूछा था, सब ने नमूने मांगे। जीवन और जन्म होता है। मूसा ने पूछा, हाऊ मच इट कॉस्ट्स, इसकी कीमत कितनी है? वह 269| Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * तीसरा प्रश्नः आपने कहा कि प्राण यदि प्रभु के लिए धैर्य के लिए राजी है, क्या वह दुखी होगा? क्योंकि दुखी तो अधीर समग्ररूपेण आतुर हो जाएं, तो एक क्षण में मिलन होता है। घटित हो सकता है। और आप यह भी कहते हैं कि दुखी जल्दी में होता है। सिर्फ जो आनंद में है, वह धीरे चलता इस मिलन के लिए अनंत धैर्य अपेक्षित है। ये दोनों है। सम्राट जब चलता है, तो तेजी से नहीं चलता। सम्राट अगर अति स्थितियां हैं! तेजी से चले, तो उससे पता चलता है कि सम्राट होने की कला उसे नहीं आती। तेजी से तो वह भागता है, जिसको कुछ पाना है। जिसके पास नहीं ; ये दोनों एक ही स्थिति के दो रूप हैं। या एक ही | सब है, वह क्यों भागे? भाग-दौड़ कमी की खबर देती है। अनंत UI स्थिति के दो चरण हैं। धैर्य का अर्थ है कि मेरे पास सब है, जल्दी कुछ भी नहीं है। अगर समझें! निरंतर मैं कहता हूं कि उसे पाने के लिए अनंत | प्रभु भी मिलेगा, तो वह अतिरिक्त है। इसे थोड़ा समझ लें। धैर्य चाहिए। और निरंतर यह भी कहता हूं कि उसे एक क्षण में पाया । मेरे पास सब था और अगर प्रभु मिलेगा, तो वह अतिरिक्त है। जा सकता है। दोनों बातें विपरीत मालूम पड़ती हैं। क्योंकि अगर वह न मिलता तो कोई कमी न थी। वह मिल गया, तो मैं पूरे से भी उसे एक ही क्षण में पाया जा सकता है, तो अनंत धैर्य की जरूरत ज्यादा पूरा हो जाऊंगा। लेकिन पूरा मैं था, क्योंकि मुझे कोई जल्दी क्या? तब तो क्षणभर भी धैर्य रखने की जरूरत नहीं है। जिसे एक न थी; न कोई प्रयोजन था; न कोई भाग-दौड़ थी। क्षण में ही पाया जा सकता है, उसे हम अभी ही पा लें। पूरे धैर्य का अर्थ यह होता है कि आप जैसे हैं, उससे राजी हैं। __ और जब मैं कहता हूं कि उसको अनंत धैर्य रखें, तो ही पा | वह तथाता की घड़ी है। आप पूरी तरह राजी हैं कि ठीक, सब ठीक सकेंगे, तब आपको लगता है कि अनंत धैर्य रखने का मतलब ही है। और यह सब ठीक किसी सांत्वना के लिए नहीं कि अपने को यह हुआ कि एक क्षण में पाना तो संभव नहीं; अनंत जन्म में भी | समझाने के लिए। ठीक तो कुछ भी नहीं है, लेकिन अपने को पा लें, तो जल्दी पाया। समझा रहे हैं कि सब ठीक है। जानते हैं, ठीक कुछ भी नहीं है। दोनों बातें विपरीत लगती हैं, पर ये दोनों बातें विपरीत नहीं हैं। | लेकिन कह रहे हैं कि सब ठीक है, ताकि मन माना रहे। और जीवन का गणित पहेली जैसा है। ये दोनों बातें परिपूरक हैं। नहीं, वैसा सब ठीक नहीं। कुछ भी गैर-ठीक मालूम नहीं होता। समझने की कोशिश करें! सब ठीक है। कहीं कोई असंतोष नहीं है। और कुछ पाने की दौड़ __उसे एक क्षण में पाया जा सकता है, अगर आप में अनंत धैर्य | भी नहीं है। और प्रभु जब मिले, तब उसकी मरजी पर हम छोड़ हो। और अगर आप में धैर्य की कमी हो, तो उसे अनंत काल में सकते हैं समय को। हमारी तरफ से समय हम देते नहीं। आज न भी नहीं पाया जा सकता। क्योंकि आपका धैर्य ही उसे पाने की | | मिले, तो हम सांझ को पश्चात्ताप न करेंगे, रोएंगे न, धोएंगे न, योग्यता है। तो जितना धैर्य हो, उतने जल्दी वह घटित होता है। । | चिल्लाएंगे न, कि दिन निकल गया और आज तक...। एक दिन अनंत धैर्य का अर्थ है. एक ही क्षण में घटित हो जाएगा। क्योंकि खराब हुआ। कोई कमी नहीं रही; आप पूरा धैर्य रखे हुए हैं। अनंत धैर्य का अर्थ - कल फिर राह देखेंगे। उस राह में कहीं भी धूमिलता न आएगी; है कि अगर वह कभी भी न घटे, तो भी मैं धीरज खोने वाला नहीं उस प्रतीक्षा में हम कहीं भी चाह को न जुड़ने देंगे, जल्दबाजी न हूं। अनंत धैर्य का मतलब यह है कि वह कभी भी न घटे—कभी जुड़ने देंगे, अधैर्य न जुड़ने देंगे। ऐसा अनंत धैर्य हो, तो परमात्मा भी-तो भी मैं प्रतीक्षा करूंगा। ऐसा जिसका मन हो, उसके लिए क्षणभर में मिल जाता है। इसी क्षण घट जाएगा। क्योंकि इसको अब प्रतीक्षा कराने का कोई मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आप कहते हैं क्षणभर में प्रयोजन ही न रहा। बात ही खतम हो गई। यह तैयार है। मिल जाता है, लेकिन मिलता क्यों नहीं? और जो इतने धैर्य के लिए तैयार है, क्या वह अशांत होगा? | उनका जो कहना है, मिलता क्यों नहीं? वही बाधा है। अगर क्योंकि अशांत तो अधैर्य के साथ जुड़ा है। इतना धैर्य वाला व्यक्ति | क्षणभर में मिल जाता है, तो अभी मिलना चाहिए! और जो इतनी तो परिपूर्ण शांत होगा, तभी इतना धैर्य रख सकेगा। और जो इतने | जल्दी में है कि अभी मिलना चाहिए. उसका मन इतने तनाव से भरा 2701 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * है, वह इतने दुख से भरा है, वह इतने असंतोष से भरा है, इतनी |बेटा हूं और बाप बूढ़ा है; उसकी सेवा करनी जरूरी है। लेकिन अशांति से भरा है कि परमात्मा से मिलना हो कैसे सके? | ध्यान मुझे सीखना है। रिझाई ने कहा कि कोई तीस साल लगेंगे, और जो कहता है, अभी मिलना चाहिए, वह परमात्मा को बहुत | | क्योंकि तुम इतनी जल्दी में हो! वह युवक कुछ समझ नहीं पाया। मूल्य भी नहीं दे रहा है। वह कह रहा है, मिलना हो तो अभी मिल उसने कहा, जल्दी में हूं तो जल्दी करवाइए, कि तीस साल! मेरे जाओ, नहीं तो दूसरे काम हजार पड़े हैं; और अगर देरी हो, तो पिता चल ही बसे होंगे। पहले हम उनको निपटा लें। परमात्मा उसके लिए कोई बहुत मूल्य ___ उस युवक ने कहा कि अगर मैं दुगुनी मेहनत करूं, तो क्या की बात नहीं कि वह उसके लिए समय देने को तैयार हो! | होगा? रिझाई ने कहा, तब साठ साल लग जाएंगे। क्योंकि मैं तो जितनी मूल्यवान चीज हो, आप उतना ज्यादा समय देने को | | यह मानता था कि तू पहले ही पूरी मेहनत करने को तैयार है। तू तैयार होते हैं। मौसमी फूल हम लगाते हैं, तो वे महीनेभर में आ कह रहा है, दुगुनी करूंगा; मतलब तूने आधी पहले ही बचा रखी जाते हैं, लेकिन महीनेभर में समाप्त भी हो जाते हैं। थी। तू आदमी भी बेईमान है। वह तीस तो मैंने सोचकर बताए थे __ अगर आकाश को छूने वाले वृक्ष हमें लगाने हैं, तो प्रतीक्षा | | कि तू अगर पूरी मेहनत करे। तू कहता है, अगर मैं दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है वर्षों तक। एक पीढ़ी लगाती है, दूसरी पीढ़ी उनके करूं। साठ लग जाएंगे। फल पाती है। अगले जन्म में आपको फल मिलेगा, इस जन्म में | उस युवक ने कहा कि अब मैं आगे नहीं पूछता। क्योंकि यही नहीं मिल सकता। | ठीक है. साठ ही ठीक है। पता नहीं. तम एक सौ बीस कर दो। परमात्मा का जिनकी नजर में मूल्य है, वे तो कभी भूलकर भी | | और वह युवक रुक गया। तीन वर्ष तक वह रिझाई के पास था। यह न कहेंगे कि अभी मिल जाए। क्योंकि वे जानते हैं, यह बात ही | | रिझाई ने उससे फिर पूछा ही नहीं कि तुम कैसे आए? क्या सीखना बेहूदी है। यह बात ही मुंह से निकालनी अधार्मिक है। यह सोचना भी कि अभी मिल जाए अधार्मिक है। कई दफा उस युवक को भी खयाल उठा कि क्या करना? क्या इतनी बड़ी घटना, इतना विराट विस्फोट, प्रतीक्षा से होगा। और | | नहीं करना? साल निकले जा रहे हैं! बाप बूढ़ा हुआ जा रहा है। जब इतनी बड़ी घटना है, तो जब भी घटेगी, मानना कि वह जल्दी | | और अभी तो कुछ शुरू भी नहीं हुआ! पर उसने कहा कि पूछना घटी, क्योंकि देर का तो कोई कारण नहीं है। जब भी घटे, तभी खतरनाक है। यह आदमी तो बड़ा उपद्रवी है! अगर पूछा और कहीं भक्त कहेगा कि जल्दी घट गई; अभी मेरी पात्रता न थी और घट यह कहने लगे कि सौ साल लगेंगे! इसलिए उसने कहा कि चुप ही गई। इतनी बड़ी घटना, इतनी जल्दी घट गई! अपात्र कहता है, | रहो। देखें, क्या होता है। अभी घटे। और अभी नहीं घटती, तो फिर छोड़ो। __तीन साल बाद उसने कहा, अब तेरा पहला पाठ शुरू होता मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, शाम की ट्रेन से हम जा रहे | | है—रिंझाई ने कहा—और तू योग्य है। अगर तू तीन साल में हैं। कुछ ऐसा बता दें कि बस, जीवन बदल जाए। पूछता, तो मैंने तेरे एक सौ बीस साल कर दिए थे। फिर मुझसे यह __पता नहीं जीवन का क्या मूल्य समझते हैं! कोई मूल्य भी है काम पूरा होने वाला नहीं था। क्योंकि मैं भी बूढ़ा हो रहा हूं। आधा जीवन का या नहीं है! भागे हुए हैं। और ऐसा पूरा जीवन खो ही मैं करता, आधा मेरे शिष्य करते साल नहीं जाएगा, कुछ भी उनको मिलेगा नहीं। पूछा; अब मैं काम शुरू करता हूं। बुद्ध के पास कोई आता, तो बुद्ध कहते थे, एक साल तो बिना | ___ पांचवें वर्ष रिझाई का शिष्य समाधि को उपलब्ध हो गया। जब पूछे मेरे पास बैठ जाओ। एक साल बाद तुम पूछना शुरू करना। वह समाधि को उपलब्ध हुआ, तो उसने रिझाई को कहा, इतने जो जल्दी में होता, वह कहता, तो फिर मैं एक साल बाद ही आ | जल्दी! मैं तो सोच भी नहीं सकता था! रिझाई ने कहा, चूंकि तू साठ जाऊं! बुद्ध कहते, तब तुझे दो साल बिठाऊंगा। क्योंकि एक साल | | के लिए राजी हो गया। वह तेरा राजीपन साठ साल के लिए, तेरी तो यह जो तूने गंवाया, और एक तो बाकी रहा ही। प्रतीक्षा की तैयारी थी। झेन फकीर रिझाई के पास कोई आया। और उसने कहा कि मेरा साठ साल का मतलब होता है, पूरा जीवन गंवाने की तैयारी। वह पिता बूढ़ा है; और ज्यादा समय मेरे पास नहीं है। मैं अकेला ही युवक कम से कम पच्चीस साल का था, जब आया था। साठ साल 2711 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 का मतलब है कि मरेगा अब; अब लौटने का कोई उपाय नहीं है। जमीन पर आप बैठे हैं, वह गोल है; आप उस पर कोई भी रेखा साठ साल के लिए तेरी तैयारी...। | खींचें, अगर उसको बढ़ाए चले जाएं, तो वह पूरी जमीन को घेर अनंत प्रतीक्षा का अर्थ ही यह होता है कि हमारी तैयारी इतनी है | लेगी, बड़े वर्तुल का हिस्सा हो जाएगी। कि कभी भी न घटे, तो भी हम शिकायत न करेंगे। भक्त का अर्थ तो सभी रेखाएं किसी बहुत बड़े वर्तुल का हिस्सा हैं। इसलिए ही यह होता है, जो शिकायत न करे। और जिसकी शिकायत है, कोई रेखा सीधी नहीं है। सभी रेखाएं तिरछी हैं, घूमती हुई हैं; वर्तुल वह भक्त नहीं है। का अंग हैं। सीधी रेखा जैसी कोई चीज है ही नहीं जगत में। ___ पर आप हैरान होंगे, नास्तिक तो मिल जाएंगे आपको जिनकी ___ इसलिए सभी चीजें गोल घूमती हैं। चांद, पृथ्वी, तारे, सूरज, कोई शिकायत नहीं है; आस्तिक खोजना मुश्किल है बिना मौसम, आदमी का जीवन, सब वर्तुलाकार घूमता है। और जब दो शिकायत के। और आस्तिक का लक्षण यह है कि उसकी कोई अतियां एक रेखा की करीब आती हैं, तो वर्तुल पूरा होता है। किसी शिकायत न हो। भी रेखा को, उसकी अतियों को पास ले आएं; जहां दोनों अतियां तो दुनिया में दो तरह के नास्तिक हैं। एक तो नास्तिक हैं, जो | मिलती हैं, वहीं वर्तुल पूरा होता है। घोषणा किए हैं कि ईश्वर नहीं है। इसलिए शिकायत करने का उपाय __ अनंत धैर्य रेखा का एक कोना है। और क्षण में घट सकती है भी नहीं है; किससे शिकायत करें? इसलिए जो है, ठीक है। दूसरे घटना, सडेन, यह रेखा का दूसरा कोना है। जहां ये दोनों कोने नास्तिक वे हैं, जो माने हुए हैं कि ईश्वर है। लेकिन माने सिर्फ मिलते हैं, वहां वर्तुल पूरा होता है। और इन दोनों के बीच जरा-सा इसीलिए हैं, ताकि शिकायत करने को कोई हो। बस, उनका ईश्वर | भी फासला नहीं है। ये अतियां जरूर हैं, लेकिन अतियां मिलती हुई सिर्फ शिकायत के लिए है; कि वे कह सकें कि देखो यह नहीं हो | अतियां हैं। रहा; यह नहीं हो रहा; यह करो; यह क्यों नहीं किया? इतनी देर _और यह भी ध्यान रहे कि जीवन में जो भी छलांग लगती है, वह क्यों हो रही है ? बिना ईश्वर के किससे शिकायत करिएगा? हमेशा अति से लगती है, मध्य से नहीं लगती। इस कमरे के बाहर आपका ईश्वर सिर्फ आपकी शिकायतों का पंजीभत रूप है। जाना हो, तो या तो इस तरफ की खिड़की खोजनी पड़े या उस तरफ और भक्त का शिकायत से कोई संबंध नहीं है। की खिड़की खोजनी पड़े। लेकिन यहां कमरे के मध्य में खड़े होकर यह जो मैं कहता हूं अनंत प्रतीक्षा, यह शिकायत-शून्य, बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। मध्य से कोई द्वार जाता ही नहीं। शर्तरहित धैर्य है। इसे जरा सोचें। अगर ऐसी आपके पास चित्त की | मध्य का मतलब ही यह हुआ कि द्वार से दूरी है। परिधि पर जाना दशा हो, तो कोई कारण नहीं है कि अभी क्यों घटना न घट जाए। पड़ेगा। अति को पकड़ना पड़ेगा। अनंत धैर्य खुले आकाश की तरह हो जाता है। फिर हृदय के इसलिए दुनिया की सभी साधना-पद्धतियां अतियां हैं। अति का कहीं कोई द्वार, सीमाएं कुछ भी न रहीं। सब खुला है, कुछ बंद न | मतलब है, आखिरी छोर। वहां से छलांग लग सकती है। मध्य से रहा। अब और ज्यादा परमात्मा को उतरने के लिए चाहिए भी क्या? कहां कूदिएगा? कमरे में ही उछलते रहेंगे। किनारे पर जाना पड़े। इतना ही चाहिए। ___एक अति है कि क्षण में घटना घट सकती है। सडेन इसलिए इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, पहली बात। ये दोनों एनलाइटेनमेंट को मानने वाला वर्ग है। विशेषकर जापान में झेन एक ही साधना के हिस्से हैं। फकीर, तत्क्षण मानते हैं कि घटना घट सकती है, एक क्षण में घट रह गई दूसरी बात, निश्चित ही ये दोनों अतियां हैं, एक्सट्रीम्स सकती है। और इसी के लिए तैयार करते हैं साधक को कि वह एक हैं। लेकिन एक ही रेखा की दो अतियां हैं। और इस जगत में कोई क्षण के लिए तैयार हो। तैयारी में वर्षों लगते हैं। घटना एक ही क्षण भी रेखा रेखा नहीं है सीधी। सभी रेखाएं वर्तुलाकार हैं। सभी रेखाएं। | में घटती है, लेकिन तैयारी में वर्षों लगते हैं; कभी-कभी जन्म भी बड़े वर्तुल का हिस्सा हैं। लगते हैं। यूक्लिड कहता था, जिसने ज्यामिति खोजी, कि सीधी रेखा होती। ऐसे ही जैसे हम पानी को गरम करते हैं, तो पानी भाप तो एक है। लेकिन फिर आइंस्टीन और बाद के खोजियों ने सिद्ध किया कि क्षण में बन जाता है, सौ डिग्री पर पहुंचा कि भाप बनना शुरू हुआ। सीधी रेखा होती नहीं, स्ट्रेट लाइन होती ही नहीं। क्योंकि जिस लेकिन सौ डिग्री तक पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। और इस पर |272 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * निर्भर करता है कि कितना ताप नीचे है, कितनी आग नीचे है। लंबी यात्रा है। बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पानी गरम होगा, गरम अगर आप राख रखे बैठे हों, तो कभी नहीं पहुंचेगा। अंगारे हों, होगा, गरम होगा; कभी अंत में भाप बनेगा। प्रोसेस, प्रक्रिया पर लेकिन राख से ढंके हों, तो बड़ी देर लगेगी। ज्वलित अग्नि हो, | | जोर दें। और अगर अंत पर जोर देना हो, तो कहें कि पानी कभी भभकती हुई लपटें हों, तो जल्दी घटना घट जाएगी। भी भाप बने, कितनी ही देर लगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, भाप तो कितनी त्वरा है भीतर, कितनी अभीप्सा है, कितनी आग है | | तो क्षणभर में बन जाती है। पानी छलांग लगा लेता है। घटना को घटाने की, उतने जल्दी घट जाएगी। लेकिन घटना एक | पर ये दोनों एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। इसलिए मैं दोनों को ही क्षण में घटेगी। जोड़कर इकट्ठा कहता हूं। अनंत हो प्रतीक्षा, तो क्षणभर में घट जाता पानी गरम होता रहेगा, गरम होता रहेगा, निन्यानबे डिग्री पर भी है। क्षण में घटाना हो, तो अनंत की तैयारी चाहिए। और इनमें पानी पानी ही है। अभी भाप नहीं बना। एक सेकेंड में सौ डिग्री, विरोध नहीं है। पानी छलांग लगा लेगा। छलांग कीमती है। जब तक पानी था. पानी नीचे की तरफ बहता है। जैसे ही भाप बना, ऊपर की तरफ उठना शुरू हो जाता है। सारी दिशा बदल जाती है। चौथा प्रश्न: क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना, जब तक पानी था, तब तक दिखाई पड़ता था, पदार्थ था। जैसे ही | मर जाना, रूपांतरण की प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं? छलांग लगती है, अदृश्य हो जाता है, वायवीय हो जाता है, आकाश में खो जाता है। जब तक दिखाई पड़ता था. जमीन उसको नीचे की तरफ खींच सकती थी। गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव था। जैसे ही भाप + श्चित ही। फंसना पड़े, तड़पना भी पड़े और मरना भी बना, गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाता है; आकाश की तरफ उठने IUI पड़े। लेकिन जिस अर्थ में आपने पूछा है, उस अर्थ में लगता है। कोई दूसरे जगत के नियम काम करने शुरू कर देते हैं। नहीं। पूछने वाले को तो ऐसा लगता है, बेचैनी है, एक क्षण में घटना घटती है, लेकिन तो भी झेन फकीरों को | भय है; फंसने से भय है, डर है। जन्मों-जन्मों तक और एक जीवन में भी वर्षों तक गरमी पैदा करने | ___ डर किस बात का है ? डर किसको है? वह जो अहंकार है हमारे के उपाय करने पड़ते हैं। भीतर, सदा डरता है कि कहीं फंस न जाएं। और यह जो अहंकार दूसरे फकीर हैं, सूफियों का एक समूह है इस्लाम में, वे अनंत | है, कहीं भी नहीं फंसने देता। लेकिन तब हम पूरे जीवन से वंचित प्रतीक्षा में मानते हैं। वे क्षण की बात ही नहीं करते हैं। वे कहते हैं, रह जाते हैं। अनंत प्रतीक्षा करनी है। बैठे रहो, प्रतीक्षा करो। जागते रहो, प्रतीक्षा एक यवक ने मझे आकर कहा कि प्रेम तो मझे करना है, लेकिन करो। कभी अनंत जन्म में घटेगी। | फंसना नहीं है। कोई झंझट में नहीं पड़ना चाहता हूं। अब यह बड़े मजे की बात है। ये दोनों बिलकुल विपरीत प्रेम करना हो, तो फंसना ही पड़े। क्योंकि वह प्रेम घटेगा ही तब, साधना-पद्धतियां हैं, अतियां हैं। लेकिन झेन फकीर भी पहुंच जाता जब आप डूबेंगे। आप ऐसे दूर अपने को सम्हालकर खड़े रहे संतरी है और सूफी फकीर भी पहुंच जाता है। और मजे की बात यह है | की तरह, तो वह घटना ही घटने वाली नहीं है। कि झेन फकीर जब पहुंचता है, तो उसको भी वर्षों तक श्रम करके और बचेगा भी क्या! बचाने को है भी क्या आपके पास? यह क्षणभर की घटना पर पहुंचना पड़ता है। और जब सूफी फकीर | | जो बचने की तलाश चल रही है, यह कौन है जो बचना चाहता है ? पहुंचता है, तो वह भी अनंत प्रतीक्षा करके क्षणभर की घटना पर | | यह जो इतना डरा हआ प्राण है. इसको बचाकर भी क्या करिएगा? पहुंचता है। घटना तो वही है। इसको स्वतंत्र रखकर भी क्या प्रयोजन है ? और जो स्वतंत्रता इतनी तो दो बातें हो गईं। पानी को हम गरम करते हैं, सौ डिग्री पर भयभीत हो, वह स्वतंत्रता है भी नहीं। पानी भाप बन जाता है; एक। और पानी को गरम करना पड़ता है; | - मुल्ला नसरुद्दीन एक रात देर से घर लौटा। पत्नी ने शोरगुल दो। इनमें से जिस पर आप जोर देना चाहें। शुरू कर दिया। और उसने कहा कि फिर देर से आए? और हजार अगर आपको गरमी पर जोर देना है, तो आप कह सकते हैं, बार कह दिया कि देर से आना बंद हो! कहां थे? तो नसरुद्दीन ने 273 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 कहा कि समझदार पत्नियां इस तरह के प्रश्न नहीं पूछतीं। पत्नी आगबबूला थी; उसने कहा, और समझदार पति...? वह आगे कुछ कहे, उसके पहले ही नसरुद्दीन बोला कि ठहर ! समझदार पति सदा कुंआरे रहते हैं। वह जो डरा हुआ है, वह कितना ही समझदार मालूम पड़ता हो, लेकिन जीवन के अनुभव से वंचित रह जाएगा। एक अनुभव है। और उसमें उतरने से ही पता चलता है। और उसका फंसना उपयोगी है। क्योंकि उस फंसने के भीतर भी अगर तुम बिना फंसे रह सको, तो तुम्हारे जीवन में अमृत बरस जाएगा। उस कारागृह में प्रवेश करके भी तुम्हारी मुक्ति नष्ट न हो, तुम्हारी भीतरी मुक्ति तुम कायम रख सको, वही कला है। तो एक तो प्रेम है जीवन में। गुरु और शिष्य का संबंध भी प्रेम का आखिरी संबंध है। वह और भी बड़ा फंसाव है । क्योंकि पत्नी के साथ रहकर स्वतंत्र रहना आसान है, गुरु के साथ रहकर स्वतंत्र रहना और भी मुश्किल है, और भी जटिल है, क्योंकि उसका जाल और भी बड़ा है। वह हृदय तक ही नहीं जाता, उसका जाल आत्मा तक चला जाता है। पर वहां भी स्वतंत्र रहने की संभावना है। और मजा यही है कि वहां जितने पूरे मन से कोई अपने को छोड़ देगा, उतना ही स्वतंत्र रहेगा। परतंत्रता पैदा इसलिए होती है कि तुम छोड़ नहीं पाते। अगर तुम छोड़ दो, तो परतंत्र रहने का कोई अर्थ ही नहीं है । जेलखाना जेलखाना मालूम पड़ता है, क्योंकि तुम जेलखाने में रहना नहीं चाहते। और अगर तुम जेलखाने में रहना ही चाहते हो, तब ? तब जेलखाना समाप्त हो गया। फिर अगर जेल के लोग तुम्हें बाहर निकालने लगें, तो वह परतंत्रता होगी। जिस बात से हमारा प्रतिरोध है, विरोध है, रेसिस्टेंस है, वहीं फंसना मालूम होता है। अगर एक युवक एक युवती को सच में ही प्रेम करता है, तो फंसना मालूम होता ही नहीं। युवती अगर सच में प्रेम करती है, तो फंसना मालूम नहीं होता; तब प्रेम मुक्ति मालूम होता है। और अगर प्रेम न हो, डर हो, भय हो, बचाव की चेष्टा हो, तो फंसना मालूम होता है; तो बंधन और कारागृह मालूम होता है। मैं यह कह रहा हूं आपसे कि वहीं आपको बंधन मालूम होता है, जहां आप लड़ते हैं। भूमिदान आंदोलन असफल हुआ, तो सारे मुल्क में भूमि हथियाओ आंदोलन चला। तो मैंने एक घटना सुनी है कि उसकी नकल पर एक गांव में – निश्चित ही गांव गुजरात में रहा होगा - पत्नियां हथियाओ आंदोलन लोगों ने चला दिया । और | उन्होंने कहा कि समाजवाद में जब कि सभी के पास एक-एक पत्नी नहीं है, तो कुछ लोगों के पास दो-दो हैं, यह नहीं हो सकता। यह बर्दाश्त के बाहर है। तो जिन युवकों के पास पत्नियां नहीं थीं, उन्होंने एक जुलूस निकाला और कहा कि पत्नियां हथियाओ। जिनके पास दो हैं, उनसे एक छीनो, और उनको दो जिनके पास एक भी नहीं है। और यह समाजवाद के लिए बिलकुल जरूरी है। मुल्ला नसरुद्दीन बाहर गया था; उसकी दो पत्नियां थीं। वह घर |पहुंचा, तो हाय-तोबा मची थी। जुलूस उसकी एक पत्नी को लेकर आगे बढ़ गया था। मुल्ला भागा; जाकर नेता के हाथ पकड़ लिए | और कहा कि अन्याय मत करो। उस नेता ने कहा, अन्याय कौन | कर रहा है? तुम अन्याय कर रहे हो जनता पर कि हम ? जब कि | गांव में सौ आदमी मौजूद हैं जिनके पास एक भी पत्नी नहीं; और तुम दो-दो पर कब्जा जमाए बैठे हो ? तुम दो-दो का सुख ले रहे हो? और ज्यादा हमारे पास समय नहीं। अभी हमें और कोई पचास पत्नियां हथियानी हैं। उसने घड़ी देखी, उसने कहा,' हटो रास्ते से । नसरुद्दीन ने फिर भी हाथ पकड़ लिया और बिलकुल कंपने लगा और कहा कि नहीं, ऐसा अन्याय मत करो।' को भी दया आ | गई और नेता ने कहा, मर्द जैसे मर्द होकर भी इस तरह रिरिया रहे हो औरतों की तरह ! ले जा अपनी पत्नी को । नसरुद्दीन एकदम जमीन पर गिर पड़ा और पैर पकड़ लिए और कहा कि आप समझे नहीं; दूसरी को भी लेते जाइए। बंधन! जहां प्रेम समाप्त हुआ, वहां विवाह बंधन बन जाता है, परतंत्रता बन जाता है। जहां श्रद्धा खो गई, वहां गुरु जेलखाना हो जाता है। श्रद्धा हो, तो गुरु मुक्ति है। प्रेम हो, तो प्रेम का संबंध स्वतंत्रता है और प्रेमी एक-दूसरे को और स्वतंत्र कर देते हैं, जितने अकेले होकर वे कभी भी नहीं हो सकते थे। क्योंकि दो स्वतंत्रताएं मिलती हैं। और गुरु तो परम मुक्त है। उसके मोक्ष से जब आपका मिलना होता है या उसके जाल में जब आप फंसते हैं, तो अगर आपका | विरोध न हो तो आप परम मुक्त हो जाएंगे। और अगर विरोध हो, | तो ही आपको लगेगा कि जाल में फंसे हैं। जाल में फंसा हुआ होना जाल के कारण नहीं लगता; मुझे फंसना नहीं है, इसलिए लगता है। नदी में एक आदमी तैर रहा है, तो उसको लगता है, नदी मेरे 274 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * खिलाफ बह रही है। क्योंकि वह नदी से उलटा जाने की कोशिश | मार न सके, वह गुरु नहीं; जो आपको मिटा न सके, वह गुरु नहीं। कर रहा है। उसको लगता है, नदी मेरी दुश्मन है। और एक आदमी वह आपको काटेगा ही। और जब आप बिलकुल समाप्त हो नदी में बह रहा है; जहां नदी जा रही है, उसी में बह रहा है। उसको जाएंगे, तभी आपको छोड़ेगा कि बस, अब काम पूरा हुआ। बिना लगता है, नदी मेरी मित्र है, नदी मेरी नाव है। और नदी मुझे ले जा | | मिटे परमात्मा को पाने की कोई व्यवस्था नहीं है। बिना खोए उसकी रही है; जरा भी श्रम नहीं करना पड़ रहा है। खोज पूरी नहीं होती। ___ अगर गुरु के साथ आप उलटी धारा में बह रहे हों, तो फंसना | इसलिए पुराने सूत्रों में कहा है कि आचार्य, गुरु मृत्यु है। और वह लगेगा। और अगर गुरु के साथ बह रहे हों, तो मुक्ति अनुभव जो कठोपनिषद में नचिकेता को भेजा है यम के पास, वह गुरु के होगी। आप पर निर्भर है, शिष्य पर निर्भर है कि गुरु परतंत्रता बन पास भेजा है। यम गुरु का प्रतीक है। वहां जाकर आप मर जाएंगे। जाएगा कि स्वतंत्रता। इसलिए गुरु से लोग बचते हैं। पच्चीस तरह की युक्तियां खोजते तड़पना भी पड़ेगा। क्योंकि यह खोज बड़ी है और यह खोज | | हैं कि कैसे बच जाएं; रेशनलाइजेशन खोजते हैं कि कैसे बच जाएं। गहन है। और मिलने के पहले बहुत पीड़ा है। पानी मिले, उसके | गुरु को सुन भी लेते हैं, तो कहते हैं, बात अच्छी है, लेकिन अभी पहले गहन प्यास से गुजरना होगा। और जैसे ही आप किसी गुरु | अपना समय नहीं आया! करेंगे कभी जब समय आएगा! हजार के पास पहुंचेंगे, आपकी तड़प बढ़ेगी, घटेगी नहीं। अगर घट | | तरकीब आदमी करता है अपने को बचाने की। जाए, तो समझना कि यह गुरु आपके काम का नहीं है। क्योंकि | ___ जैसे आप मृत्यु से बचते हैं, वैसे ही आप गुरु से बचते हैं। और घटने का मतलब यह हुआ कि आग ठंडी हो रही है। | जिस दिन आप ठीक से समझ लेंगे...। गुरु के पास जाने का गुरु के पास पहले पहुंचकर तो प्यास बढ़ेगी, क्योंकि गुरु को | मतलब ही यह है कि मैं गलत हूं और गलत को जला डालना है। देखकर आपको पहली दफा पता चलेगा कि पानी पीए हुए लोग और मैं भ्रांत हूं और प्रांत को मिटा देना है। और मैं जैसा अभी हूं, किस आनंद में हैं। पहली दफा तुलना पैदा होगी, तकलीफ पैदा | मरणधर्मा हूं; इस मरणधर्मा को मर जाने देना है, ताकि अमृत का होगी। पहली दफा तृषा गहन होगी। पहली दफा लगेगा कि ऐसा मैं | उदय हो सके। भी कब हो जाऊं? कैसे हो जाऊं? यह मुझे भी कब हो? . मृत्यु द्वार है अमृत का। और जो मिटने को राजी है, वह उसको __ आनंद की पहली झलक आपके दुख को बहुत गहन कर | उपलब्ध हो जाता है, जो कभी नहीं मिटता है। एक तरफ गुरु मारेगा जाएगी। ऐसे ही जैसे रास्ते से आप गुजर रहे हों, अंधेरे रास्ते से, | और दूसरी तरफ जिलाएगा। वह मृत्यु भी है और पुनर्जन्म भी, लेकिन अंधेरे में ही गुजर रहे हों, तो अंधेरे में भी दिखने लगता है। नव-जीवन भी। फिर एक कार गुजर जाए तेज प्रकाश को करती हुई, तो कार के क्या गुरु के जाल में फंसना, तड़पना, मर जाना, रूपांतरण की गुजरने के बाद रास्ता और भी भयंकर अंधकार मालूम होता है। प्रक्रिया के अनिवार्य अंग हैं? तुलना पैदा होगी। बिलकुल अनिवार्य अंग हैं। और इसके पहले कि फंसो या तो गुरु के पास आकर पहली दफा तुलना पैदा होगी। पहली दफा | भाग खड़े होना चाहिए; फिर लौटकर नहीं देखना चाहिए। गुरु आपको लगेगा, आप कहां हैं! किस नरक में हैं! किस पीड़ा में हैं! खतरनाक है। जरा भी रुके, तो डर है कि फंस जाओगे। और फंस तो तड़प तो पैदा होगी। और गुरु की कोशिश होगी कि और जोर गए, फिर तड़पना पड़ेगा। तड़पे, कि फिर मरना पड़ेगा। वे एक ही से तड़पाए। क्योंकि जितने जोर से आप तड़पें, उतनी ही आग पैदा | मार्ग की सीढ़ियां हैं। होगी, उतना ही उबलने का बिंदु करीब आएगा। और जितने आप लेकिन जो व्यक्ति स्वयं का रूपांतरण चाहता है, वह चाहता तड़पें, उतनी ही खोज जारी होगी, सरोवर के निकट पहुंचना आसान क्या है? वह चाहता यही है कि मैं गलत हूं, जैसा हूं। जो मुझे होना होगा। अगर आप पूरी तरह तड़प उठें, तो सरोवर उसी क्षण प्रकट | चाहिए, वह मैं नहीं हूं। और जो मुझे नहीं होना चाहिए, वह मैं हूं। हो जाता है। तो वह मिटने के लिए तैयार है, वह बिखरने के लिए तैयार है, वह इसलिए तड़पना भी होगा और मरना भी होगा। क्योंकि वह शून्य होने को राजी है। और जो व्यक्ति शून्य होने को राजी है, उसी आखिरी है। गुरु का काम ही वही है। गुरु यानी मृत्यु। जो आपको का गुरु से मिलन हो पाता है। |275] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 अब हम सूत्र को लें। हे भारत, इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को भा हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है। एक-एक शब्द समझें। इस प्रकार से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है। जिसको भी यह स्मरण आ गया कि परिधि पर शरीर है, मध्य में चेतना है और अंत में केंद्र पर अंतर्यामी पुरुषोत्तम है; जिसको भी यह स्मरण आ गया कि केंद्र परमात्मा है, फिर उसकी परिधि भी परमात्मा के ही गुणगान करने लगती । फिर उसकी परिधि पर भी परमात्मा का ही स्वर गूंजने लगता है। फिर उसके बाहर भी वही प्रकट होने लगता है, जो भीतर है। फिर वह उठता भी है, तो परमात्मा में बैठता भी है, तो परमात्मा में। फिर परमात्मा उसके लिए कुछ पृथक नहीं रह जाता, उसके अपने होने का अभिन्न अंग हो जाता है। फिर वह जो भी करता है, वह सब परमात्मा में ही घटित होता है। जैसे मछली सागर में होती है, ऐसा फिर वह परमात्मा में होता है । भजने का यही अर्थ है। भजने का यह अर्थ नहीं कि आप बैठे हैं, कभी-कभी राम-राम, राम-राम कर लिया। भजने का यह अर्थ है कि आपके जीवन की कोई भी गतिविधि परमात्मा से शून्य न हो। आप जो भी करें, जो भी न करें, सब में परमात्मा का स्मरण सतत भीतर बना रहे। आपके जीवन के कृत्य माला के मनके हो जाएं और परमात्मा आपके भीतर का धागा हो जाए। हर मनके में दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े, वह धागा भीतर समाया रहे। सभी मनके उसी धागे से बंध जाएं, भजन का यह अर्थ है। पर हम तो हर चीज को विकृत कर लेते हैं। तो हम काम करते जाते हैं और सोचते हैं, भीतर राम-राम करते जाओ। लोग अभ्यास कर लेते हैं उसका । तो वे कार ड्राइव करते रहेंगे और भीतर राम-राम करते रहेंगे ! वह अभ्यस्त हो जाता है। मन जो है, आटोमैटिक किया जा सकता है। तो मन स्वचालित यंत्र बन जाता है। आप अपना काम करते रहें, वहां राम-राम, राम-राम, राम-राम चलता रहे। उसका कोई मूल्य नहीं है। वह मन का एक कोना दोहराता रहता है। भजन का अर्थ है, आपके जीवन में डूब जाए स्मृति परमात्मा की। कैसे यह हो ? किसी मित्र की आंख में झांकें, तब आपको मित्र तो दिखाई पड़े, वह परिधि रहे, लेकिन उसमें पुरुषोत्तम भी दिखाई पड़े, तो वह भजन हो जाएगा। फूल को देखें, फूल तो परिधि रहे और फूल में जो सौंदर्य प्रकट हुआ है, वह जो खिलावट, वह जो जीवन की अभिव्यक्ति हुई है, वह जो पुरुषोत्तम वहां मौजूद है, उसका स्मरण आ जाए। चाहे फूल देखें, चाहे आंख देखें, चाहे आकाश देखें, जो भी देखें वहां आपको पुरुषोत्तम की स्मृति बनी रहे । ऐसा नहीं कि फूल देखें, तो भीतर राम-राम, राम-राम करने लगें। उसमें तो फूल भी चूक जाएगा। राम-राम करने की शाब्दिक | बात नहीं है। फूल के अनुभव में पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। भोजन करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। स्नान करें, पुरुषोत्तम | का अनुभव मौजूद रहे। लोग नदी में स्नान करने जाते हैं। मेरे गांव में नियम से लोग सुबह नदी में स्नान करने जाते हैं। सर्दी के दिनों में भी जाते हैं। सर्दी के दिनों में वे ज्यादा भजन करते और राम-राम, जय शिव शंकर...! पानी में ठंड लगती है, भुलाने के लिए वे जोर से भगवान का नाम लेते हैं। इधर मन भगवान के नाम में लग जाता है, एक डुबकी लगाई और बाहर निकल आए। फिर वे भगवान का नाम नहीं लेते। जैसे ही बाहर हुए, वे भूले। तो वे जब भगवान का नाम ले रहे हैं, ऐसा लगेगा सुबह नदी के किनारे कि बड़े भक्त आए हुए हैं। वह सिर्फ ठंड से बचने का उपाय है। 276 वह वैसे ही जैसे आप अकेले गली में जा रहे हों, तो जोर से सीटी बजाने लगें; उससे ऐसा लगता है कि अकेले नहीं हैं। सीटी सुनाई पड़ती है, अपनी ही सीटी! जो नहीं हैं धार्मिक, वे फिल्मी गाना गाकर भी स्नान कर लेते हैं। उसमें भी फर्क नहीं पड़ता । भजन का अर्थ कोई शब्दों से राम की स्मृति नहीं है। क्योंकि वह धोखा भी हो सकती है; दुख से बचने का उपाय हो सकती है; ठंड से बचने का उपाय हो सकती है; अकेलेपन से बचने का उपाय हो सकती है। वह एक तरह की व्यस्तता हो सकती है। नहीं, भगवान को अनुभव में जानना है, अनुभव से पलायन करके नहीं। उससे बचना नहीं, उससे भागना नहीं। जैसा भी जीवन है, जहां भी जीवन ले जाए, वहां मेरी आंख परिधि पर ही न रहे, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य केंद्र पर सदा पहुंचती रहे। जो भी मैं देखू, उसमें मुझे केंद्र की प्रतीति | दिन तुम पुनः अपनी निष्पाप स्थिति को उपलब्ध हो जाओगे। उसे बनी रहे, वह धारा भीतर बहती रहे कि पुरुषोत्तम मौजूद है। ऐसी तुमने कभी खोया नहीं है, चाहे तुम भूल गए हो। अगर प्रतीति हो जाए, तो आपका पूरा जीवन भजन हो जाएगा। | तो ज्यादा से ज्यादा संसार एक विस्मरण है। ज्यादा से ज्यादा पाप वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को भजता है।। | अपनी निष्पाप दशा का विस्मरण है। हमने उसे खोया नहीं है; हम तभी निरंतर भजन हो सकता है। अगर राम-राम जपेंगे, तो | | उसे खो भी नहीं सकते। हमारी निर्दोषता, हमारी जो इनोसेंस है, वह निरंतर तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि दो राम के बीच में भी जगह | हमारी सहज अवस्था है, वह सांयोगिक नहीं है। उसे नष्ट करने का छूट जाएगी। एक दफा कहा राम, दूसरी दफा कहा राम, बीच में | | उपाय नहीं है। खाली जगह छूट गई; तो निरंतर तो हो ही नहीं पाया। __जैसे आग गरम है, ऐसे हम निष्पाप हैं। चेतना का निष्पाप होना __ फिर कब तक कहिए! जब तक होश रहेगा कहिए, रात नींद लग धर्म है। अर्जुन को इसीलिए कृष्ण निष्पाप कहते हैं। हे निष्पाप जाएगी, वह चूक जाएगा। कोई डंडा सिर पर मार देगा, क्रोध आ | | अर्जुन! जाएगा; वह निरंतर का चूक जाएगा, निरंतर नहीं रह पाएगा। अर्जुन को स्मरण नहीं है इस निष्पाप स्थिति का, इसलिए वह कितनी ही तेजी से कोई राम-राम जपे, तो भी दो राम के बीच में | भयभीत है। वह डरा हुआ है कि पाप हो जाएगा। युद्ध मैं लडूंगा, जगह छूटती रहेगी; उतनी खाली जगह में परमात्मा चूक गया। । काढूंगा, मारूंगा–पाप हो जाएगा। फिर इस पाप के पीछे भटकूँगा निरंतर तो तभी हो सकता है कि जो भी हो रहा हो, उसी में | | अनंत जन्मों तक। और कृष्ण कह रहे हैं, त निष्पाप है। परमात्मा हो। जो डंडा मार रहा है सिर पर, अगर उसमें भी पुरुषोत्तम | जैसे ही कोई व्यक्ति पहली पर्त से पीछे हटेगा, वैसे ही निष्पापता दिखे, तो भजन निरंतर हो सकता है। और जो राम-राम के बीच में की धारा शुरू हो जाती है। और तीसरी पर्त पर सब निष्पाप है। खाली जगह छट जाती है, उस खाली जगह में भी परुषोत्तम दिखे. - इसे मैं ऐसा समझ पाता हूं। पहली पर्त पर सभी पाप है। शरीर तभी पुरुषोत्तम निरंतर हो सकता है। के पर्त पर सभी पाप है। वह शरीर का स्वभाव है। पुरुषोत्तम के पर्त और जब तक भजन निरंतर न हो जाए, सतत न हो जाए, तब पर सभी निष्पाप है। वह पुरुषोत्तम का स्वभाव है, केंद्र का स्वभाव तक ऊपर-ऊपर है; तब तक चेष्टित है; तब तक वह हमारी सहज । है। और दोनों के बीच में हमारा जो मन है, वहां सब मिश्रित है; आत्मा नहीं बनी है। पाप, निष्पाप, सब वहां मिश्रित है। इसलिए मन सदा डांवाडोल है। __ हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्यमय-रहस्ययुक्त गोपनीय | वह सोचता है, यह करूं न करूं? पाप होगा कि पुण्य होगा? शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान अच्छा होगा कि बुरा होगा? और कृतार्थ हो जाता है। __ अर्जुन वहीं खड़ा है, दूसरे बिंदु पर। कृष्ण तीसरे बिंदु से बात ___ कृष्ण निरंतर अर्जुन को निष्पाप कहते हैं। कहे चले जाते हैं, कर रहे हैं। अर्जुन दूसरे बिंदु पर खड़ा है। भीम और दूसरे, पहले निष्पाप! क्योंकि यह हिंदू धारणा है और बड़ी मूल्यवान है कि बिंदु पर खड़े हैं। उनको सवाल भी नहीं है। निष्पापता हमारा स्वभाव है। उससे वंचित होने का उपाय नहीं है। उस महाभारत के युद्ध में तीन तरह के लोग मौजूद हैं। पहली पाप करके भी आपके निष्पाप होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह | पर्त पर सभी लोग खड़े हैं। वह पूरे युद्ध में जो सैनिक जुटे हैं, योद्धा हिंदू विचार की बड़ी गहन धारणा है। इकट्ठे हुए हैं, वे पहली पर्त में हैं। उनको सवाल ही नहीं है कि क्या पश्चिम, विशेषकर ईसाइयत इसको समझने में बिलकुल गलत और क्या सही! इतना भी उनको विचार नहीं है कि जो हम असमर्थ होती है। क्योंकि जब पाप किया, तो निष्पाप कैसे रहे? कर रहे हैं, वह ठीक है या गलत है! वह शरीर के तल पर कोई पाप किया, तो पापी हो गए। | विचार होता भी नहीं। शरीर मूर्छित है, वहां सभी पाप है। यहीं हिंदू चिंतन बड़ा कीमती है। हिंदू चिंतन कहता है, क्या तुम | | अर्जुन बीच में अटका है। उसके मन में संदेह उठा है। उसके मन करते हो, यह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। जो तुम हो, उसे तुम्हारा में चिंतना जग गई है; विमर्ष पैदा हुआ है। वह सोच रहा है। सोचने कोई भी करना नष्ट नहीं कर पाता। तुम्हारी निर्दोषता तुम्हारा स्वभाव से दुविधा में पड़ गया है। वे जो पहली पर्त में खड़े लोग हैं, उनकी है। तो जिस दिन भी तुम यह समझ लोगे कि कृत्य से मैं दूर हूं, उसी | | कोई दुविधा नहीं है, स्मरण रखें। वे निःसंदिग्ध लड़ने को खड़े हैं। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उनके मन में कोई संदेह, कोई सवाल नहीं है। लड़ने आए हैं, लड़ना | द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ उनका धर्म है, लड़ना नियति है; उसमें कोई विचार नहीं है। हो जाता है। ___ अर्जुन दुविधा में पड़ा है। उसकी बुद्धि अड़चन में है। बुद्धि सदा | - सुनकर नहीं; क्योंकि सुन तो अर्जुन ने लिया। अगर सुनकर ही अडचन में होगी. क्योंकि वह मध्य में खड़ी है। वह पाप के जगत होता होता, तो अर्जुन कहता कि बात खतम हो गई, कृतार्थ हो की तरफ भी जा सकती है और निष्पाप के जगत की ओर भी जा | | गया। सुन आपने भी लिया...। सकती है। वह दोनों की तरफ देख रहा है। और पीछे कृष्ण हैं, वे | तत्व से जानकर! ऐसा जो कृष्ण ने कहा है; जब अर्जुन ऐसा पुरुषोत्तम हैं, वहां सभी निष्पाप है। . स्वयं जान ले; जब यह उसकी अनुभूति बन जाए; जब उसकी एक बात मजे की है कि जो पाप के तल पर खड़े हैं, उन्हें भी | प्रतीति हो जाए; जब वह कह सके, हां, पुरुषोत्तम मैं हूं; तो कृतार्थ कोई संदेह नहीं। जो निष्पाप के तल पर खड़ा है, उसे भी कोई संदेह | | हो जाता है। तो फिर जीवन में अर्थ आ जाता है। फिर प्रत्येक क्रिया नहीं। क्योंकि वहां सभी निष्पाप है। कुछ पाप हो ही नहीं सकता। | अर्थवान हो जाती है। फिर व्यक्ति जो भी करता है, सभी में फल जो पाप के तल पर खड़े हैं, उसे निष्पाप का कोई पता ही नहीं है, | और फूल लग जाते हैं। फिर व्यक्ति जो भी, जिस भांति भी जीता इसलिए तलना का कोई उपाय नहीं है। अर्जन मध्य में खड़ा है। । | है, सभी तरह के जीवन से सुगंध आनी शुरू हो जाती है। उस अर्जुन शब्द का अर्थ भी बड़ा कीमती है। अर्जुन शब्द बनता है | | व्यक्ति में पुरुषोत्तम के फल लगने शुरू हो जाते हैं, पुरुषोत्तम के ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। अऋजु का अर्थ होता है, फूल आने शुरू हो जाते हैं। तिरछा, डांवाडोल, कंपता हुआ। अर्जुन का अर्थ है, कंपता हुआ, _और कृष्ण कहते हैं, इस रहस्यमय गोपनीय शास्त्र को मैंने लहरों की तरह डांवाडोल, इरछा-तिरछा। कुछ भी सीधा नहीं है। तुझसे कहा। और दोनों तरफ उसके कंपन हैं। वह तय नहीं कर पा रहा है। ___ यह रहस्यमय तो बहुत है, और गोपनीय भी है। रहस्यमय कृष्ण निष्पाप पुरुषोत्तम हैं। वहां कोई कंपन नहीं है। इसलिए | इसलिए है कि जब तक आपने नहीं जाना, इससे बड़ी कोई पहेली अर्जुन कृष्ण से पूछ सकता है और इसलिए कृष्ण अर्जुन को उत्तर | | नहीं हो सकती कि पाप करते हुए कैसे निष्पाप! संसार में खड़े हुए दे सकते हैं। कृष्ण की पूरी चेष्टा यह है कि अर्जुन पीछे सरक आए, कैसे पुरुषोत्तम! दुख में पड़े हुए कैसे अमृत का धाम! इससे ज्यादा निष्पाप की जगह खड़ा हो जाए; वहां से युद्ध करे। यही गीता का | पहेली और क्या होगी? स्पष्ट उलझन है। इसलिए रहस्यमय। पूरा का पूरा सार है। कैसे अर्जुन सरक आए निष्पाप की दशा में . और गोपनीय इसलिए कि इस बात को, कि तुम पुरुषोत्तम हो, और वहां से युद्ध करे! कि तुम निष्पाप हो, अत्यंत गोपनीय ढंग से ही कहा जाता रहा है। दो हालतों में युद्ध हो सकता है। एक तो अर्जुन सरक जाए शरीर क्योंकि पापी भी इसको सुन सकता है। और पापी यह मान ले के तल पर, जहां भीम और दुर्योधन खड़े हैं, वहां; वहां युद्ध हो सकता है कि जब निष्पाप हैं ही, तो फिर पाप करने में हर्ज क्या है? सकता है। और या वह कृष्ण के तल पर सरक आए, तो युद्ध हो | | और जब पाप करने से निष्पाप होने में कोई अंतर ही नहीं पड़ता, सकता है। तो किए चले जाओ। पहले तल पर सरक जाए, तो युद्ध साधारण होगा। जैसा रोज | | इसलिए कृष्ण कहते हैं, गोपनीय भी, गुप्त रखने योग्य भी। होता रहता है। तीसरे तल पर सरक जाए, तो युद्ध असाधारण | हम सब इसी तरह के लोग हैं। हम अपने मतलब का अर्थ होगा। असाधारण होगा, जैसा कभी-कभी होता है, सदियों में कभी | | निकाल ले सकते हैं। हम सोच सकते हैं, जब निष्पाप हैं, तो बात कोई एक आदमी तीसरे तल पर खड़े होकर युद्ध में उतरता है। और | खत्म हो गई। अब हम चोरी करें, बेईमानी करें, डाका डालें, हत्या अगर वह बीच में खड़ा रहे, तो वह कुछ भी न कर पाएगा; युद्ध | करें, कोई हर्ज नहीं। क्योंकि भीतर का निष्पाप तो निष्पाप ही बना होगा ही नहीं। वह सिर्फ दुविधा में नष्ट हो जाएगा। वह संदेह में | | रहता है; पुरुषोत्तम को तो कोई अंतर पड़ता नहीं है! डूबेगा और समाप्त हो जाएगा। अधिक लोग संदेह में ही | | इसलिए बात गोपनीय है। उन्हीं से कहने योग्य है, जो सोचने डूबते-उतराते रहते हैं। | को, बदलने को तैयार हुए हों। उन्हीं को समझाने योग्य है, जो उसे हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे ठीक से समझेंगे; जो उसे सम्यकरूपेण समझेंगे; जो उसका 278 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्यास और धैर्य * विपरीत अर्थ निकालकर अपने को नष्ट न कर लेंगे। क्योंकि सभी कुंजियां ज्ञान की खतरनाक हैं। उनसे आप नष्ट भी हो सकते हैं। जरा-सा गलत उपयोग, और जो अग्नि आपके जीवन को बदलती, वही अग्नि आपको भस्मीभूत भी कर दे सकती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह गोपनीय है शास्त्र, रहस्यमय है। क्योंकि जब तक तू अनुभव न कर ले, तब तक यह पहेली बना रहेगा। और इसको तत्व से जानकर ही मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है। सुनकर नहीं, समझकर नहीं; अनुभव करके। आपने भी सुना। उसमें से थोड़ा कुछ सोचना, पकड़ना, थोड़ा-सा, एक रंचमात्र। और उस रंचमात्र के आस-पास जीवन को ढालने की कोशिश करना। एक छोटा-सा बिंदु भी इसमें से पकड़कर अगर आपने जीवन को बसाने की कोशिश की, तो वह छोटा-सा बिंदु आपके पूरे जीवन को बदल देगा। छोटी-सी चिंगारी पूरे पर्वत को जला डालती है। चिंगारी असली हो, चिंगारी जीवंत हो। चिंगारी शब्द नहीं जंगल को नहीं जला देगा, चिंगारी जलाएगी। बहुत-सी चिंगारियां कृष्ण ने अर्जुन को दी हैं। अगर मनपूर्वक सहानुभूति से समझा हो, तो उसमें से कोई चिंगारी आपके मन में भी बैठ सकती है, आग बन सकती है। लेकिन सिर्फ मुझे सुन लेने से यह नहीं होगा। करने का खयाल मन में जगाएं। जल्दी परिणाम न आएं, घबड़ाएं मत। आपने शुरू किया, इतना ही काफी है। परिणाम आएंगे; परिणाम सदा ही आते हैं। परमात्मा की तरफ उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता। आज इतना ही। 279 Page #308 --------------------------------------------------------------------------  Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 पहला प्रवचन देवी संपढ़ा का अर्जन Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अथ षोडशोऽध्यायः गीता दर्शन भाग-7 श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् । । १ ॥ उसके उपरांत श्रीकृष्ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक-पृथक कहता हूं। दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं: अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धि, ज्ञान-योग में निरंतर स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, दृ स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता । म नुष्य एक दुविधा है, एक द्वैत । मनुष्य के पास इकहरा व्यक्तित्व नहीं है; जो भी है, बंटा हुआ और द्वंद्व में जैसे प्रकाश और अंधेरा साथ-साथ मनुष्य में जुड़े। हों । पशु और परमात्मा मनुष्य में साथ-साथ मौजूद हैं। मनुष्य जैसे एक सीढ़ी है, एक छोर नरक में और दूसरा छोर स्वर्ग में है; और यात्रा दोनों ओर हो सकती है। और प्रत्येक के हाथ में है कि यात्रा कहां होगी, कैसे होगी, क्या अंतिम परिणाम होगा। यात्रा के रुख को किसी भी क्षण बदला भी जा सकता है, क्योंकि सिर्फ रुख बदलने की बात है, दिशा बदलने की बात है। नरक जाने में जो शक्ति लगती है, वही शक्ति स्वर्ग जाने के लिए कारण बन जाती है। बुरे होने में जितना श्रम उठाना पड़ता है, उतने ही श्रम से भलाई भी फलित हो जाती है। शैतान होना जितना आसान या कठिन, उतना ही संत होना भी आसान या कठिन है। और र एक बात ठीक से समझ लें, एक ही ऊर्जा दोनों दिशाओं में यात्रा करती है। ऐसा मत सोचें कि बुरा आदमी तपश्चर्या नहीं करता । बुरे आदमी की भी तपश्चर्या है, उसकी भी बड़ी साधना है; उसे भी बड़ा श्रम उठाना पड़ता है। शायद भले आदमी की साधना से उसकी साधना ज्यादा दुस्तर है, क्योंकि मार्ग में दोनों को कष्ट मिलते हैं। भले आदमी को अंत में आनंद भी मिलता है, जो बुरे आदमी को अंत में नहीं मिलता। मार्ग दोनों बराबर चलते हैं; भला कहीं पहुंचता है, बुरा कहीं पहुंच भी नहीं पाता। एक अर्थ में बुरे आदमी की साधना और भी कठिन है। जितनी बड़ी बुराई हो, उतना ही ज्यादा दुख है। ऊर्जा एक, यात्रा की लंबाई एक, समय और जीवन का व्यय एक जैसा; फिर अंतर क्या है? अंतर केवल दिशा का है। इस जगह तक आने के लिए भी आप उसी रास्ते को चुनकर आए हैं, लौटते समय भी उसी रास्ते से लौटेंगे। उतना ही फासला होगा, सिर्फ आपकी दिशा बदली होगी। यहां आते समय मुंह मेरी तरफ था, जाते समय पीठ मेरी तरफ होगी। बस, इतना ही फर्क होगा। यात्रा वही की वही है। जिसे हम शुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ मुंह करके चलने वाली यात्रा है। जिसे हम अशुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ पीठ करके चलने वाली यात्रा है। वे ही पैर चलते हैं, वे ही प्राण चलते हैं; जरा भी यात्रा में भेद नहीं है। और यात्रा के ये जो दो पथ हैं; ये अगर आपके बाहर होते, तो बहुत आसानी हो जाती। ये दोनों पथ आपके भीतर हैं। चलने वाले भी आप हैं; जिस रास्ते से चलेंगे, वह भी आप हैं; और जिस मंजिल पर पहुंचेंगे, वह भी आप हैं। आपके भीतर मूर्ति को बनाने वाला, मूर्ति बनने वाला पत्थर, मूर्ति को निखारने वाली छेनी, सभी कुछ आप हैं। इसलिए दायित्व भी बहुत गहन है । और दोष किसी और को दिया नहीं जा सकता। जो भी फल होगा, सिवाय आपके अकेले के कोई और उसके लिए जिम्मेवार नहीं है। इसके पहले कि हम कृष्ण के सूत्र में प्रवेश करें, दो-तीन बातें खयाल में ले लें। पहली बात, जिन नरकों की चर्चा है शास्त्रों में, जिन स्वर्गों का | उल्लेख है, वे दो भौगोलिक स्थितियां नहीं हैं, मानसिक दशाएं हैं। | नरक भी प्रतीक है, स्वर्ग भी प्रतीक है। शास्त्रों में भगवान और शैतान की जो चर्चा है, वे केवल आपके ही दो छोर हैं। न तो शैतान कहीं खोजने से मिलेगा और न भगवान कहीं खोजने से मिलेगा। भगवान आपसे अलग होता, तो खोजने से मिल सकता था। शैतान भी अलग होता, तो खोजने से मिल जाता। वे दोनों ही आपकी संभावनाएं हैं। चाहें तो शैतान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है; और चाहें तो भगवान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है। और जिस दिन आप शैतान हो जाएंगे, तो कोई शैतान आपको नहीं मिलेगा; आप ही अपने को मिलेंगे। 282 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी संपदा का अर्जन * जिस दिन आप भगवान हो जाएंगे, तो भी कोई साक्षात्कार नहीं | समग्रता से ही डूबना जरूरी है। जब तक कोई ऐसा न घुल जाए कि होगा; कोई परमात्मा की प्रतिमा नहीं होगी; आप ही परमात्मा हो | | अनुभूति में और स्वयं में रत्तीभर का फासला न हो। जब तक आप गए होंगे। प्रार्थना न हो जाएं, तब तक प्रार्थना समझ में न आएगी। शैतान और भगवान आपकी संभावनाएं हैं। और जो बुरे से बुरा प्रार्थना कोई कृत्य नहीं है कि आपने कर लिया और मुक्त हुए। आदमी है, उसके भीतर परमात्मा की संभावना उतनी ही सतेज है, प्रार्थना तो एक जीवन की शैली है। एक बार जो प्रार्थना में गया, जितनी भले से भले आदमी के भीतर शैतान होने की संभावना है। वह गया; फिर लौटने का कोई मार्ग नहीं है। और गहरे तो जाना हो परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है। विपरीत भी सही | | सकता है, लौटने की कोई सुविधा नहीं है। है, परम असाधु के लिए क्षणभर में क्रांति घटित हो सकती है। __ और जिस दिन प्रार्थना पूरी होगी, जिस दिन भक्ति परिपूर्ण होगी, क्योंकि दोनों बातें दूर नहीं हैं; हमारे भीतर मौजूद हैं। | उस दिन आप भक्त नहीं होंगे. आप भक्ति होंगे। उस दिन आप जैसे हमारे दो हाथ हैं और जैसे हमारी दो आंखें हैं, ऐसे ही हमारे | | प्रार्थी नहीं होंगे, आप प्रार्थना ही होंगे। उस दिन आप ध्यानी नहीं दो यात्रा-पथ हैं। और उन दोनों के बीच हम हैं, हमारा फैलाव है। होंगे, आप ध्यान हो गए होंगे। उस दिन आपको योगी कहने का दूसरी बात, शास्त्र को समझते समय ध्यान रखना जरूरी है कि कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि योग कोई क्रिया नहीं है; आप योग हो शास्त्र कोई विज्ञान नहीं है; शास्त्र तो काव्य है। वहां गणित नहीं है। गए होंगे। योग एक अनुभव है। और अनुभव ऐसा, जहां वहां प्रतीक हैं, उपमाएं हैं। और अगर आप गणित की तरह शास्त्र | अनुभोक्ता खो जाता है और एक हो जाता है। को पकड़ लेंगे, तो भ्रांति होगी, भटकेंगे। काव्य की तरह समझने गीता काव्य है। इसलिए एक-एक शब्द को, जैसे काव्य को हम की कोशिश करें। | समझते हैं वैसे समझना होगा। कठोरता से नहीं, काट-पीट से नहीं, इसलिए इस ग्रंथ को श्रीमद्भगवद्गीता कहा है। यह एक गीत | | बड़ी श्रद्धा और बड़ी सहानुभूति से। एक दुश्मन की तरह नहीं, एक है भगवान का; यह एक काव्य है। टीकाकारों ने उसे विज्ञान प्रेमी की तरह। तो ही रहस्य खुलेगा और तो ही आप उस रहस्य के समझकर टीकाएं की हैं। साथ आत्मसात हो पाएंगे। कविता और विज्ञान में कुछ बुनियादी फर्क है। विज्ञान में तथ्यों __जो भी कहा है, वे केवल प्रतीक हैं। उन प्रतीकों के पीछे बड़े लंबे की चर्चा होती है; शब्द बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते; शब्द के पीछे अनुभव का रहस्य है। प्रतीक को आप याद कर ले सकते हैं, गीता तथ्य महत्वपूर्ण होता है। काव्य में तथ्यों की चर्चा नहीं होती; कंठस्थ हो सकती है। पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं। काव्य में अनुभूतियों की चर्चा होती है। अनुभूतियां हाथ में पकड़ी क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए। नहीं जा सकतीं, तराजू पर तौली नहीं जा सकतीं, कसौटी पर कसी | | जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता न रह जाएं, गीता नहीं जा सकतीं। . कष्ण का वचन न रहे, बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक विज्ञान के तथ्य तो प्रयोगशाला में पकड़े जा सकते हैं। कोई कहे, | आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं, और जो बोला आग जलाती है, तो हाथ डालकर देखा जा सकता है। लेकिन | | जा रहा है, वह मेरी अंतर-अनुभूति की ध्वनि है; वह मैं ही हूं, वह प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है; क्या करें? इस तथ्य को कैसे | | मेरा ही फैलाव है। तब तक गीता पराई रहेगी, तब तक दूरी रहेगी, पकड़ें? प्रार्थना को हाथ में पकड़ने का उपाय नहीं, जांचने का उपाय | | द्वैत बना रहेगा। और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक नहीं, कोई कसौटी नहीं। | होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते हैं, लेकिन प्रज्ञावान नहीं। लेकिन प्रार्थना है। प्रार्थना काव्य का सत्य है, अनुभूति का सत्य | अब इस सूत्र को समझने की कोशिश करें। है। अनुभूति के सत्य के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। उसके उपरांत श्रीकृष्ण फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन एक, जब तक आपको अनुभव न हो, तब तक बात हवा में पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण रहेगी; तब तक कोई लाख सिर पटके और समझाए, आपकी समझ पृथक-पृथक कहता हूं। में आएगी नहीं। स्वाद मिले, तो ही कुछ बने; और स्वाद अकेली | । दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं : अभय, अंतःकरण बुद्धि की बात नहीं है। स्वाद के लिए तो हृदय से, वरन अपनी की अच्छे प्रकार से शुद्धि, ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान 283 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * तथा इंद्रियों का दमन; यज्ञ, स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और | कहीं पहुंचूंगा भी नहीं। इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता। ___ इन दोनों का विभाजन बहुत जरूरी है। बहुत बार आप आसुरी कष्ण दो संपदाओं की बात करते हैं: दो तरह के धन मनष्य के संपदा से दिव्यता को खरीदने निकलते हैं। और न केवल आपको पास हैं। धन का, संपदा का अर्थ होता है, शक्ति। धन का अर्थ भ्रांति हो सकती है, आपको देखने वालों तक को भ्रांति हो सकती होता है, जिसे हम उपयोग में ला सकें, जिससे हम कुछ खरीद | सकें, जिससे हम कुछ पा सकें। धन का अर्थ है, विनिमय का इधर मेरा अनुभव है कि अगर कोई क्रोधी व्यक्ति है, तो उसके माध्यम, मीडियम आफ एक्सचेंज।। क्रोध का उपयोग बड़ी शीघ्रता से साधना में किया जा सकता है। __ आपके खीसे में एक नोट पड़ा है। नोट एक प्रतीक है। नोट को क्रोधी व्यक्ति जल्दी से साधक हो जाता है। क्योंकि क्रोध का लक्षण न तो आप खा सकते हैं, न पी सकते हैं। लेकिन नोट से विनिमय है, नष्ट करना, तोड़ना, कब्जा करना, मालकियत जमाना। क्रोध हो सकता है। नोट से खाने की चीज खरीदी जा सकती है. पीने की | दूसरे पर निकलता है, अपने पर भी निकल सकता है; इससे कोई चीज खरीदी जा सकती है। नोट भोजन बन सकता है; नोट जहर फर्क नहीं पड़ता। आप दूसरे का सिर तोड़ सकते हैं, अपना सिर भी बन सकता है। नोट से कुछ खरीदा जा सकता है। नोट एक शक्ति | | दीवार में मार सकते हैं। क्रोधी व्यक्ति खुद को सताने में लग जाता है विनिमय की। है। उसे वह साधना समझता है। __ कृष्ण कहते हैं, मनुष्य के पास दो तरह की संपदाएं हैं, विनिमय | तो कांटों पर सोए हुए लोग हैं; धूप में खड़े हुए लोग हैं; उपवास के दो माध्यम हैं। एक से आदमी खरीद सकता है और शैतान हो | करके भूख से मरते हुए लोग हैं। और आपको भी लगेगा कि बड़ी सकता है। और एक से आदमी खरीद सकता है और परमात्मा हो तपश्चर्या हो रही है। तपश्चर्या निश्चित हो रही है, लेकिन जानना सकता है। जरूरी है कि तपश्चर्या के पीछे संपदा कौन-सी है? नहीं तो हम और जब तक उन दोनों संपदाओं को हम ठीक से न समझ लें, | जानते हैं दुर्वासा और उस तरह के ऋषियों को। उनकी तपश्चर्या तब तक बड़ी भ्रांति रहेगी। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है, जिस | बड़ी थी, फिर भी तपश्चर्या की मौलिक संपदा आसुरी रही होगी। संपदा से केवल शैतान खरीदा जा सकता है, उससे हम परमात्मा | | तप के पीछे जो अग्नि है, वह आसुरी रही होगी। इसलिए तप को खरीदने निकल पड़ते हैं। तब हम धोखा खाएंगे। तब जो भी हम | अभिशाप बन गया, तप हिंसा बन गया। खरीदकर लाएंगे, वह शैतान ही होगा। __ अक्सर दिखाई पड़ेगा तपस्वी की आंखों में एक तरह का जैसे, जिस धन से हम संसार में सब कुछ खरीदते-बेचते हैं, | | अहंकार। तपस्वी में एक तरह की अकड़, न झुकने का भाव, स्वयं उसी धन से हम धर्म को भी खरीदने चल पड़ते हैं। तो कोई सोचता | को कुछ समझने की वृत्ति...। तप तो विनम्र करेगा, तप तो मिटा दर बनाए, धर्मशाला बनाए, दान कर दे, तो धर्म देगा, तप तो सारी अकड़ को जला देगा। लेकिन दिखाई पड़ता है उपलब्ध हो जाएगा। कि तपस्वी की अकड़ बढ़ती है, तो निश्चित ही संपदा आसरी लेकिन संसार जिससे खरीदा जाता है, उससे अध्यात्म के उपयोग की जा रही है। खरीदने का कोई उपाय नहीं। उनके मार्ग ही अलग हैं, बाजार अलग | एक आदमी धन इकट्ठा करता है, तो पागल की तरह इकट्ठा हैं। जो धन संसार में चलता है, वह धन अध्यात्म में नहीं चलता; करता है, जैसे जीवन बस धन इकट्ठा करने को है। फिर यह भी हो उस जगत से उसका कोई संबंध नहीं है। | सकता है कि धन के इस लोभी को किसी दिन त्याग का खयाल अ कृष्ण कहते हैं, दो संपदाएं हैं। एक को वे कहते हैं, आसुरी | जाए। त्याग के खयाल का एक ही अर्थ होगा कि इसको त्याग का संपदा: और एक को वे कहते हैं. दैवी संपदा। दैवी संपदा से अर्थ लोभ पकड जाए। यह कहीं शास्त्र में पढ़ ले, किसी गरु से सन ले है, जिससे दिव्यता खरीदी जा सके। कि जब तक धन न छोड़ेगा तब तक स्वर्ग न मिलेगा। तो यह सौदा तो ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि मैं जिस संपदा का कर सकता है, यह धन छोड़ सकता है। लेकिन छोड़ेगा लोभ के उपयोग कर रहा हूं, उससे दिव्यता खरीदी भी जा सकती है? नहीं कारण ही। तो मैं श्रम भी करूंगा, भटकंगा भी, समय भी व्यय होगा और तो यह सारे धन को लात मारकर सड़क पर नग्न भिखारी की 284 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैवी संपदा का अर्जन तरह खड़ा हो जाए, लेकिन अगर धन इसने लोभ के लिए छोड़ा है, स्वर्ग पाने को छोड़ा है, तो जिस संपदा का यह उपयोग कर रहा है, वह आसुरी है। आसुरी संपदा से स्वर्ग का कोई संबंध नहीं है। इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि आपकी अच्छी से अच्छी चर्या के पीछे भी आसुरी संपदा हो सकती है, तो सब विकृत हो जाएगा। तो आप महल तो बनाएंगे, लेकिन रेत पर उसकी नींव होगी। और वह महल गिरेगा और आपको भी गिराएगा और डुबाएगा। मेरा निरंतर अनुभव है कि गलत तरह का आदमी बड़ी शीघ्रता से अच्छे काम करने में लग सकता है। जो पागलपन गलत के करने में था, वही अच्छे में लग सकता है। लेकिन उसकी मौलिक संपदा नहीं बदलती। उसका क्रोध, उसका लोभ, उसका मान नहीं बदलता; नया नियोजन हो जाता है। मौलिक स्वर पुराना ही रहता है। इसलिए इसके पहले कि साधक यात्रा पर निकले, उसे ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि क्या आसुरी है, क्या दैवी है। स्पष्ट विभाजन भीतर साफ हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। क्योंकि गलत साधन से ठीक साध्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। अकेली आपकी मरजी काफी नहीं है, आकांक्षा काफी नहीं है, प्रार्थना काफी नहीं है; ठीक साधन ही ठीक साध्य तक पहुंचाएगा। और ठीक साधन का अर्थ है, दैवी संपदा का उपयोग। दोनों संपदाएं प्रत्येक के पास हैं। उन्हें कमाना नहीं पड़ता, उन्हें हम लेकर ही पैदा होते हैं। जन्म के साथ ही हम दोनों संपदाएं लेकर पैदा होते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति बराबर लेकर पैदा होता है। उस अर्थ में बिलकुल साम्यवाद है, उस अर्थ में जरा भी भेद नहीं है। गरीब से गरीब, अमीर से अमीर, बुद्धिमान या मूढ़, बराबर लेकर पैदा होते हैं। प्रकृति सबको समान देती है। और अगर इस जगत में इतने भेद दिखाई पड़ते हैं, तो हम उनका कैसा उपयोग करते हैं, इस पर निर्भर करते हैं। अगर इस जगत में साधु दिखाई पड़ता है और दुष्ट दिखाई पड़ता है, तो प्रकृति किसी को साधु नहीं बनाती और दुष्ट नहीं बनाती। परमात्मा बिलकुल कोरा चेक ही आपको देता है; उस पर कुछ आंकड़े लिखे नहीं होते। लिखना हम करते हैं; और जो हम लिखते हैं, वह हम बन जाते हैं। ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति बराबर संपदा लेकर पैदा होता है और दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं। बच्चे के भोलेपन का राज यही है कि वह दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। बराबर होने के कारण न तो वह साधु होता है, न असाधु होता है। दोनों संतुलित होती हैं। इसलिए बच्चा भोला होता है। बच्चे के भोलेपन में और साधु के भोलेपन में बड़ा फर्क है। | बच्चे का भोलापन अज्ञान से भरा हुआ है, साधु का भोलापन ज्ञान | से भरा हुआ है । साधु का भोलापन दैवी संपदा का पूरा उपयोग है। | बच्चे का भोलापन अनुपयोग है, अभी उसने कुछ उपयोग किया नहीं, अभी स्लेट खाली है। पर दोनों अक्षर लिखे जा सकते हैं, दोनों की क्षमता लेकर वह पैदा हुआ है। इसलिए परम साधु की आंखें बच्चों जैसी हो जाती हैं। एक पुनर्जन्म हो जाता है। फिर से सब सरल हो जाता है। लेकिन यह सरलता बड़ी गहरी है; बच्चे की सरलता बड़ी उथली है। बच्चे की सरलता दो विपरीत शक्तियों का संतुलन है; दोनों बराबर मात्रा में हैं। र अभी यात्रा नहीं हुई है। जल्दी ही यात्रा शुरू | होगी, और बच्चा एक तरफ झुकना शुरू हो जाएगा। जैसे-जैसे झुकेगा, वैसे-वैसे जटिलता बढ़ेगी। जैसे-जैसे झुकेगा, वैसे-वैसे भीतर कलह स्वभावतः टूटेगा, निर्मित होगा; दो हिस्से होने शुरू हो जाएंगे । और जो भी फिर बच्चा करेगा, दो आवाजें होंगी। चोरी | करेगा, तो दो आवाजें होंगी; किसी को दान देगा, तो दो आवाजें होंगी। दोनों संपदाएं पुकारेंगी। हर क्षण, जब भी आप कुछ निर्णय लेते हैं, दोनों शक्तियां आवाज देती हैं, कि मेरी तरफ । चोरी करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, बुरा है; मत करो। और प्रार्थना करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो! इतनी देर में | कुछ कमा लेते! अच्छा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। बुरा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। भीतर दो आवाजें हैं। बच्चे की दोनों आवाजें अभी शांत हैं। अभी बच्चे ने चुनाव नहीं किया है। इसलिए बच्चा निर्दोष है। लेकिन यह निर्दोषता टिकेगी नहीं टूटेगी ही। क्योंकि आज नहीं कल ये आवाजें उठेंगी। आज नहीं कल बच्चा संसार में जाएगा, विकल्प खड़े होंगे, चुनाव करना | पड़ेगा। इसलिए बच्चा तो विकृत होगा। साधु या परम साधु का अर्थ यह है कि वह सारी विकृतियों को पार करके संतुलन को उपलब्ध हुआ है। यह संतुलन किसी अज्ञान | के कारण नहीं है; यह संतुलन परिपूर्ण जानकारी और परिपूर्ण होश में साधा गया है। 285 बच्चा भोला है, बिना अपने कारण । यह भोलापन कोई उपलब्धि नहीं है। इसलिए सभी बच्चे भोले हैं। यह जानकर हैरानी Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * होगी कि सभी बच्चे प्यारे लगते हैं; कुरूप बच्चा वस्तुतः होता ही | बहुत-से लोग इसीलिए अपराधी नहीं हैं, क्योंकि उनमें निर्भयता नहीं। जो भी बच्चा है, प्यारा लगता है। की कमी है; और कोई कारण नहीं है। अपराध तो वे भी करना लेकिन सारे प्यारे बच्चे फिर कहां खो जाते हैं! मुश्किल से कोई चाहते हैं; भयभीत हैं। चोरी आप भी करना चाहते हैं, लेकिन भय सुंदर आदमी बाद में बचता है। सभी बच्चे सुंदर पैदा होते हैं; बच्चों | पकड़ता है। चोरी के लोभ से ज्यादा चोरी का जो परिणाम हो सकता को देखकर सभी को सौंदर्य का भाव होता है। लेकिन फिर यही सारे है-कारागह हो सकता है. बदनामी होगी, प्रतिष्ठा खो जाएगी, बच्चे बड़े होते हैं, फिर बड़ी कुरूपता प्रकट होती है। शायद ही | | पकड़े जाएंगे—वह भय ज्यादा मजबूत है। लोभ से भय बड़ा है; कभी कोई बच पाता है, जो बाद में भी सुंदर होता है। कहां खो जाती | | वही आप पर अंकुश है। हत्या आप भी करना चाहते हैं। कई बार हैं सारी बातें? मन में सोचते हैं, सपने देखते हैं। कई बार तो हत्या मन में कर ही बच्चे का सौंदर्य भी उसी संतुलन के कारण था। जैसे ही चुनाव देते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने जीवन में दो-चार हुआ, सौंदर्य खोना शुरू हो जाता है। बार मन में किसी की हत्या न कर दी हो। फिर परम संत को एक सौंदर्य उपलब्ध होता है, जिसके खोने ___ मनसविद कहते हैं कि हर आदमी अपने लंबे जीवन में, अगर का कोई उपाय नहीं। क्योंकि वह उपलब्धि है, वह स्वयं पाई गई वह सौ साल जीए तो कम से कम दस बार खुद की आत्महत्या करने बात है। वह प्रकृति का दान नहीं, अपनी अर्जित क्षमता है। और जो का विचार करता है, औसत। करते नहीं हैं आप, उसका कारण यह आपने कमाया है, वही केवल आपका है जो आपको मिला है, नहीं है कि आप करना नहीं चाहते हैं। उसका कारण सिर्फ इतना है वह आपका नहीं है। | कि उतना निर्भय भाव नहीं जुटा पाते हैं। भय पकड़े रहता है। ये दोनों संपदाएं बराबर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर हैं। ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बड़ा नाराज था पत्नी से, और उसके उपरांत कृष्ण बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों | | कलह कुछ ज्यादा ही बढ़ गई, तो आधी रात उठा और उसने कहा, को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण | | बहुत हो चुका; जितना सह सकता था, सह लिया। हर चीज की पृथक-पृथक कहता हूं। | सीमा आती है; और सीमा आ गई। मैं मरने जा रहा हूं इसी समय, लक्षण इसीलिए ताकि आप पहचान सकें, ताकि अर्जुन पहचान | | झील में डूबकर। दरवाजा खोलकर बाहर निकलता था, पत्नी ने सके। और यह पहचान अत्यंत बुनियादी है। कहा, लेकिन नसरुद्दीन, तैरना तो तुम जानते ही नहीं! तो वह वापस दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षणः अभय, फियरलेसनेस। लौट आया; उदास बैठ गया। उसने कहा, तो फिर मुझे कोई और अभय शब्द सुनते ही हमें जो खयाल उठता है, वह उठता है | | उपाय सोचना पड़ेगा। निर्भयता का। लेकिन अभय निर्भयता नहीं है, क्योंकि निर्भय तो । वे मरने जा रहे थे झील में, लेकिन तैरना नहीं आता तो कोई और आसुरी संपदा वाले लोग भी होते हैं; अक्सर ज्यादा निर्भय होते हैं। उपाय सोचना पड़ेगा! अपराधी हैं, निर्भय हैं, नहीं तो अपराध करना मुश्किल था। और । करना आप भी वही चाहते हैं, जो अपराधी करता है, लेकिन एक दफा जेल से लौटते हैं, तो भी भयभीत नहीं होते; दुबारा और फर्क शायद निर्भयता का है। तैयारी करके अपराध में उतरते हैं। कृष्ण अभय को दैवी संपदा का पहला लक्षण गिनाते हैं। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि कारागृह से तो किसी अपराधी सिर्फ कृष्ण नहीं, महावीर भी अभय को बुनियादी आधार बनाते हैं; को कभी ठीक किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि उसकी निर्भयता | बुद्ध भी। महावीर ने कहा है कि अहिंसक तो कोई हो ही नहीं और बढ़ती है। उसने यह भी देख लिया; वह इससे भी गुजर गया | | सकता, जब तक अभय न हो, क्योंकि भय से हिंसा पैदा होती है। यह तकलीफ भी बहुत ज्यादा नहीं है। यह भी सही जा सकती है। लेकिन ध्यान रहे, हिंसक निर्भय हो सकता है, होता है। आखिर इसलिए जो आदमी एक बार कारागृह जाता है, वह फिर | | युद्ध के मैदान में जाता हुआ सिपाही निर्भय तो होता ही है, लेकिन बार-बार जाता है। दुनिया में जितने कारागृह बढ़ते हैं, उतने | | हिंसक होता है। और महावीर कहते हैं, अभय का अंतिम परिणाम अपराधी बढ़ते चले जाते हैं। जितनी ज्यादा हम सजा देते हैं, उतना | | अहिंसा है। तो हमें निर्भयता और अभय में थोड़ा फर्क समझ लेना अपराधी निर्भय होता है। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। चाहिए। 286 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी संपदा का अर्जन * निर्भय का अर्थ है, जिसके भीतर भय तो है, लेकिन उस भय से | | हैं। बीमारी आए, मौत आए, तो कुछ उपाय किया जा सकता है। जो भयभीत नहीं होता और टिका रहता है। कायर वह है, उसके | पास कुछ भी न हो, तो कोई उपाय नहीं है, हम असुरक्षित मौत के भीतर भी भय है, लेकिन वह भय से प्रभावित होकर भाग खड़ा हाथ में पड़ जाते हैं। होता है। कायर में और बहादुर में फर्क भय का नहीं है, भय दोनों भय तो मृत्यु का है, सभी भय मृत्यु से उदभूत होता है। इसलिए में है। बहादुर भय के बावजूद भी खड़ा रहता है। कायर भय के उसको हम बहादुर कहते हैं, जो मौत के सामने भी अकड़कर खड़ा पकड़ते ही भाग खड़ा होता है। भय दोनों के भीतर है, लेकिन कायर | रहता है। कोई बंदूक लेकर आपकी छाती पर खड़ा हो, भाग खड़े भय को स्वीकार कर लेता है और जिसको हम बहादुर कहते हैं, वह हुए, तो लोग कायर कहते हैं; पीठ दिखा दी! अस्वीकार करता है। लेकिन भय भीतर मौजूद है। पश्चिम में युवकों का आंदोलन है, हिप्पी। हिप्पी शब्द बहुत निर्भयता का अर्थ है, भय तो भीतर है, लेकिन हम उसे स्वीकार | | महत्वपूर्ण है। हिप्पी शब्द का वही मतलब होता है, जो रणछोड़दास नहीं करते; हम उसके विपरीत खड़े हैं। अभय का अर्थ है, जिसके का होता है, जिसने हिप दिखा दिया, जिसने पीठ दिखा दी, जो भाग भीतर भय नहीं। इसलिए अभय को उपलब्ध व्यक्ति न तो कायर | खड़ा हुआ। जो युवक हिप्पी कहे जा रहे हैं पश्चिम में, लेकिन होता है और न बहादुर होता है; वह दोनों नहीं हो सकता। दोनों के | उनका फलसफा है, उनका एक दर्शन है। वे कहते हैं, लड़ना लिए भय का होना एकदम जरूरी है। भय हो, तो आप कायर हो | | फिजूल है। और लड़ना किसलिए? और लड़ने से मिलता क्या है? सकते हैं या बहादुर हो सकते हैं। भय न हो, तो आप अभय को इसलिए पीठ दिखाई है जान-बूझकर। उपलब्ध होते हैं। ये जो बहादुर और कायर हैं, इन दोनों की समस्या एक है। कायर अभय को कृष्ण कहते हैं पहला लक्षण दैवी संपदा का। क्यों? पीठ दिखाकर भाग जाता है। बहादुर पीठ नहीं दिखाता, खड़ा रहता अगर अभय दैवी संपदा का पहला लक्षण है, तो भय आसुरी संपदा है, चाहे मिट जाए। लेकिन दोनों के भीतर भय है। का पहला लक्षण हो गया। ___ अभय उस व्यक्ति को हम कहेंगे, जिसके भीतर भय नहीं है। भय किस बात का है? और जब आप निर्भयता भी दिखाते हैं, लेकिन यह तभी हो सकता है, जब मृत्यु के संबंध में हमारी समस्या तो किस बात की दिखाते हैं? थोड़ा-सा ही सोचेंगे तो पता चल हल हो गई हो। जब हमें किसी भांति यह प्रतीति हो गई हो कि मृत्यु जाएगा कि मत्य का भय है। बहाना कोई भी हो. ऊपर से कछ भी है ही नहीं: जब हमने किसी अनभव से यह रस पहचान लिया हो हो, लेकिन भीतर मृत्यु का भय है। मैं मिट न जाऊं, मैं समाप्त न | | कि भीतर अमृत छिपा है, कि मैं मरणधर्मा नहीं हूं। हो जाऊं। दूसरी चीजों में भी, जिनमें मृत्यु प्रत्यक्ष नहीं है, वहां भी | ___ आत्मभाव जगा हो, तो अभय पैदा होगा। इसलिए अभय आत्मा गहरे में मृत्यु ही होती है। का नाम है। जिसने आत्मा को जरा-सा भी पहचाना, उसके जीवन - आपका धन कोई छीन ले, तो भय पकड़ता है। मकान जल | | में अभय हो जाएगा। जाए, तो भय पकड़ता है। पद छिन जाए, तो भय पकड़ता है। इसे कृष्ण पहला आधार बना देते हैं। क्यों? सत्य की यात्रा पर, लेकिन वह भय भी मृत्यु के कारण है; क्योंकि पद के कारण जीवित ब्रह्म की यात्रा पर, दिव्यता के आरोहण में अभय पहला आधार होने में सुविधा थी; पद सहारा था। धन पास में था, तो सुरक्षा थी। क्यों? धन पास में नहीं, तो असुरक्षा हो गई। मकान था, तो साया था; | | अभय की संभावना बनती है, अमृत की थोड़ी-सी प्रतीति हो मकान जल गया, तो खुले आकाश के नीचे खड़े हो गए। तो। और अमृत की प्रतीति हो, तो आदमी छलांग ले सकता है ब्रह्म जिन-जिन चीजों के छिनने से भय होता है, उन-उन चीजों के | में; नहीं तो छलांग नहीं ले सकता। अगर भीतर डर समाया हो कि छिनने से मौत करीब मालूम पड़ती है। और जिन-जिन चीजों को | मैं मिट तो न जाऊंगा, तो ब्रह्म तो मृत्यु से भी ज्यादा भयानक है। हम पकड़ रखना चाहते हैं, वे वे ही चीजें हैं, जिनके कारण मौत | | क्योंकि मृत्यु में तो शायद शरीर ही मिटता होगा, आत्मा बच जाती और हमारे बीच में परदा हो जाता है। धन का ढेर लगा हो. तो हमारी | होगी। ब्रह्म में आत्मा भी नहीं बचेगी। महामृत्यु है। उस विराट में आंखों में धन दिखाई पड़ता है, मौत उस पार छूट जाती है। | तो मैं ऐसे खो जाऊंगा, जैसे बूंद सागर में खो जाती है, कोई प्रतिष्ठा हो, पद हो, तो शक्ति होती है पास में, हम लड़ सकते नाम-रूप नहीं बचेगा। | 2871 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * तो जिसको हम मृत्यु कहते हैं, यह तो अधूरी मृत्यु है। आत्मा | आपको शाकाहारी का अंतःकरण दिया। अगर मांस आपके सामने बच जाएगी, नए शरीर ग्रहण करेगी, नई यात्राओं पर निकलेगी। | आ जाए, तो आप सिर्फ ग्लानि से भरेंगे। आपकी जीभ से पानी लेकिन जो व्यक्ति ब्रह्म-ज्ञान को उपलब्ध हुआ, फिर उसकी कोई | | और रस नहीं बहेगा, सिर्फ ग्लानि; वमन हो सकता है, उल्टी आ यात्रा नहीं है, फिर वह महाशून्य में खो गया। इसलिए हम कहते सकती है। हैं, परम ज्ञानी वापस नहीं आता। यही मांस किसी दूसरे के सामने, जो मांसाहारी घर में पैदा हुआ बुद्ध से लोग बार-बार पूछते हैं, कि मृत्यु के बाद बुद्धत्व को | है, बड़े स्वाद को जगा सकता है। इसी मांस को देखकर उसकी सोई प्राप्त व्यक्ति का क्या होता है? तो बद्ध कहते हैं. जैसे दीए की हई भख जग सकती है भख न भी हो. तो भी भख लग सकती है। ज्योति को कोई फूंककर बुझा दे, तो फिर तुम पूछते हो या नहीं कि | एक दूसरे शाकाहारी घर में पैदा व्यक्ति को इसी मांस को देखकर दीए की ज्योति का क्या हुआ, कहां गई? ऐसा ही बुद्ध पुरुष खो बड़ी जुगुप्सा, बड़ी घृणा पैदा होती है। जाता है; जैसे दीए को कोई फूंककर बुझा दे, ऐसे ही बुद्ध पुरुष खो | निश्चित ही, यह अंतःकरण असली अंतःकरण नहीं है। यह जाता है। अंतःकरण सिखाया हुआ, शिक्षित अंतःकरण है। यह समाज ने तो बुद्धत्व तो महामृत्यु हुई। हमारी ज्योति तो थोड़ी-बहुत उपयोग किया हुआ है। गलत और सही का सवाल नहीं है। समाज बचेगी, नए दीए में जलेगी; और नए दीए खोजेगी; नए घर, नए। को एक बात समझ में आ गई है कि अगर व्यक्तियों को नियंत्रण शरीर ग्रहण करेगी। लेकिन बुद्ध की ज्योति? दीया भी मिट गया, में रखना हो, व्यवस्था में रखना हो, तो इसके पहले कि उनका ज्योति भी खो गई। वास्तविक अंतःकरण बोलना शुरू हो, हमें जो-जो धारणाएं डालनी कृष्ण अभय को पहला आधार बनाते हैं दैवी संपदा का। क्योंकि हों, उनमें डाल देनी चाहिए। दिव्यता में जिसे भी प्रवेश करना हो, उसे अपने को पूरी तरह मिटाने ___ मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सात वर्ष की उम्र तक आपका आधा का साहस चाहिए। कौन अपने को पूरा मिटा सकता है? वही मस्तिष्क निर्मित हो जाता है। आधा, पचास प्रतिशत, सात वर्ष में! जिसको पूरा भरोसा है कि मिटने का कोई उपाय नहीं। यह बात | फिर पूरी जिंदगी में शेष पचास प्रतिशत निर्मित होता है। और यह विपरीत मालूम पड़ेगी, विरोधाभासी लगेगी। जो पचास प्रतिशत सात वर्ष में निर्मित होता है, यह आधार है। वही व्यक्ति अपने को मिटा सकता है, जिसे भरोसा है कि मिटने इसके विपरीत जाना कठिन है। फिर पूरी जिंदगी इसके अनुकूल ही का कोई उपाय नहीं है; वह सहजता से छलांग ले सकता है। वह ले जाना आसान है। और अगर इसके विपरीत आप ले गए, तो अग्नि में उतर सकता है, क्योंकि वह जानता है कि अग्नि जलाएगी | बड़ी दुविधा और बड़ी कलह में जिंदगी बीतेगी। नहीं। वह शस्त्रों से छिद सकता है, क्योंकि वह जानता है कि शस्त्र __इसलिए सभी तथाकथित धार्मिक संप्रदाय बच्चों का शीघ्रता से छेदेंगे नहीं। इस आस्था पर ही अभय विकसित होगा। शोषण करने को उत्सुक होते हैं। जो धर्म भी अपने बच्चों को अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धि...। धार्मिक शिक्षा नहीं देता, फिर बाद में आशा नहीं रख सकता। सात अंतःकरण के साथ बड़ी भ्रांतियां जुड़ी हैं। समाज ने अंतःकरण वर्ष के पहले ही धारणाएं प्रविष्ट हो जानी चाहिए। धारणाएं मजबूत का बड़ा उपयोग किया है। समाज की पूरी धारणा ही अंतःकरण के भीतर बैठ जाएं, तो वास्तविक अंतःकरण की आवाज सुनाई ही नहीं शोषण पर निर्भर है। समाज सिखा देता है बचपन से ही हर बच्चे | पड़ती; समाज के द्वारा दिया गया अंतःकरण ही बीच में बोलता को, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है। और इस बात रहता है। को इतने जोर से स्थापित करता है, हृदय में इस बात को इतनी बार कृष्ण जब कहते हैं, अंतःकरण की अच्छे प्रकार से शुद्धि, तो वे पुनरुक्त किया जाता है कि कंडीशनिंग, संस्कारबद्ध धारणा बैठ | यही कह रहे हैं कि समाज ने जो धारणाएं दी हैं, उनसे जब तक जाती है। फिर जब भी आप उसके विपरीत जाने लगते हैं, कि छुटकारा न हो अंतःकरण का, तब तक वास्तविक आपकी आत्मा समाज का सिखाया हुआ अंतःकरण फौरन विरोध खड़ा करता है। बोल न पाएगी। हिंदू बोल सकता है भीतर से, मुसलमान बोलेगा, इसलिए हर समाज के पास अलग-अलग तरह के अंतःकरण | जैन बोलेगा, ईसाई बोलेगा, आस्तिक-नास्तिक बोलेगा। लेकिन हैं। अगर आप एक शाकाहारी घर में पैदा हए हैं, तो उस घर ने | | आप जो लेकर पैदा हुए हैं, वह जो दैवी स्वर आपके भीतर है, वह 288 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी संपदा का अर्जन * छिपा रहेगा। उसके प्रकट होने के लिए अंतःकरण की सारी परतें में पैदा हुए, लोगों ने उन्हें बुरा कहा, क्योंकि जिस यहूदी समाज में अलग हो जानी चाहिए। वे पैदा हुए, उसकी मान्यताएं उन्होंने नहीं मानीं। तो जीसस को क्यों कृष्ण अर्जुन से ऐसा कह रहे हैं? क्योंकि अर्जुन जो ज्ञान लोगों ने आवारा, उपद्रवी, अपराधी समझा, इसलिए यहूदियों ने की बातें कर रहा है, वे उसके अंतःकरण से नहीं आ रही हैं; वे | जीसस को सूली लगाई। सूली लगाते वक्त उन्होंने खयाल रखा कि सामाजिक धारणाएं हैं। वह कह रहा है, ये मेरे गुरु हैं; तो जिस गुरु जीसस को अपराधियों के साथ सली लगाई जाए। तो दोनों तरफ के मैंने चरण छुए, उसकी मैं हत्या कैसे करूं! कि ये मेरे सगे भाई दो चोरों को सूली पर लटकाया, बीच में जीसस को, ताकि समाज हैं, कि मेरे बंधु-बांधव हैं, ये मेरे मित्र, प्रियजन हैं। ये जो उस तरफ समझ ले कि एक अपराधी की तरह हम जीसस को सजा दे रहे हैं। खड़े हैं युद्ध में, इसमें अनेक मेरे संबंधियों के संबंधी या संबंधी हैं। इस आदमी ने समाज की धारणाओं का विरोध किया, यह बुरा भीष्म पितामह उस तरफ हैं, वे मेरे आदर योग्य हैं। इन सबके साथ आदमी है। मैं कैसे युद्ध करूं? ये मेरे अपने हैं, ये सगे-संबंधी हैं। लेकिन फिर जीसस के मानने वाले लोगों का समाज धीरे-धीरे कौन आपका अपना है? निर्मित हुआ और जीसस उनके लिए सबसे अच्छे आदमी हो गए। जीसस एक भीड़ में खड़े थे। और उन्होंने एक बड़ा कठोर वचन | तो जीसस से कोई अच्छा आदमी हुआ ही नहीं ईसाइयों के लिए। उपयोग किया है, जिसकी निरंतर आलोचना की गई है। क्योंकि बड़ी कठिनाई है। यहूदियों के लिए यह आदमी बुरा है, सूली लगाने जीसस जैसे व्यक्ति से ऐसे शब्द की आशा नहीं थी। किसी ने भीड़ | | योग्य है। ईसाइयों के लिए यह आदमी भला है, परमात्मा का में आवाज दी कि जीसस, तुम्हारी मां मरियम तुमसे मिलने बाहर आई | | इकलौता बेटा है, पूजने योग्य है। यही एकमात्र सहारा है मुक्ति है। तो जीसस ने कहा, मेरी न कोई मां है, न मेरा कोई पिता है। । का। यही मार्ग है, द्वार है; इसके बिना कोई द्वार नहीं है। कठोर वचन है। और जीसस जैसे अत्यंत करुणावान, महा इतनी भिन्न धारणा! करुणावान व्यक्ति से ऐसी बात की आशा नहीं है। निश्चित ही, | अंतःकरण का सवाल नहीं है। यहूदी के पास एक सामाजिक उनका प्रयोजन कुछ भिन्न है। धारणा है, उससे तौलता है। ईसाई के पास दूसरी सामाजिक धारणा जीसस यह कह रहे हैं कि कौन मां है! कौन पिता है! जहां तक | है, उससे तौलता है। शुद्ध अंतःकरण का सवाल है, न कोई पिता है, न कोई माता है। न | इस मुल्क में ऐसा निरंतर हुआ है, हर मुल्क में होगा, हर मुल्क कोई भाई है, न कोई बंधु है। जहां तक समाज के द्वारा दिए गए | में होता रहा है। जो आज हमें बुरा दिखाई पड़ता है, कल भला हो अंतःकरण का संबंध है, मां है, पिता है, भाई-बंधु हैं। ये सब सकता है। समाज की धारणा बदल जाए, तो मापदंड बदल जाता सिखावन हैं, से सब संस्कार हैं। है। जो आज हमें अच्छा लगता है, वह कल बुरा हो सकता है। . अर्जुन कह रहा है, यह बुरा है। और कृष्ण यह कह रहे हैं कि | धारणा बदल जाए, तराजू बदल जाता है, तौलने के उपाय बदल यह तेरे अंतःकरण की आवाज नहीं; तुझे जो-जो बुरा बताया गया जाते हैं। है, उसे-उसे तू बुरा कह रहा है। यह तेरी अपनी प्रतीति नहीं है, तेरी | अंतःकरण की शुद्धि से अर्थ अच्छे आदमी का अंतःकरण नहीं अंतःप्रज्ञा नहीं है, तेरा बोध नहीं है। यह तू नहीं कह रहा है, तेरे भीतर है। अंतःकरण की शुद्धि का अर्थ है, शुद्ध अंतःकरण। शुद्ध से समाज की धारणाएं बोल रही हैं। अंतःकरण का अर्थ अच्छा नहीं है। शुद्ध अंतःकरण का अर्थ है, और जब तक समाज की धारणाओं को हम हटा न सकें, तब | | जिसमें कुछ और मिलाया हुआ नहीं है। तक शुद्ध अंतःकरण का कोई पता नहीं चलता। शुद्ध अंतःकरण का __ और ध्यान रहे, दो शुद्ध चीजें भी मिल जाएं, तो अशुद्धि पैदा मतलब यह नहीं है कि भले आदमी का अंतःकरण। क्योंकि जिसको | | होती है। शुद्ध पानी और शुद्ध दूध को मिला दें, तो दोहरी शुद्धि हम भला आदमी कहते हैं, वह तो समाज की ही मान्यताओं को पैदा नहीं होती। पानी भी अशुद्ध हो जाता है, दूध भी अशुद्ध हो मानकर चलने वाला आदमी है; उसको हम भला कहते हैं। बुरा जाता है। अशुद्ध का मतलब है, कुछ अन्य मिला दिया गया, कुछ हम उसको कहते हैं, जो समाज की मान्यताएं नहीं मानता। | विजातीय मिला दिया गया। शुद्ध का अर्थ है, कुछ भी मिलाया मगर यह धारणा रोज बदल जाती है। क्योंकि जीसस जिस जमाने नहीं. खालिस. जैसा था वैसा। |289] Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * जैसा अंतःकरण हम लेकर पैदा हुए हैं, जो किसी ने हमें दिया | | एक पवित्र धारणा विकसित न हो पाएगी। और प्रेम का एक पवित्र नहीं, समाज ने जिसे निर्मित नहीं किया, जो हमारी भीतरी संपदा है, | रूप भी है, जहां यौन का कोई संबंध नहीं है। अगर भाई-बहन में उस शुद्ध अंतःकरण को, कृष्ण कहते हैं, अगर हम निखार लें, | वह विकसित न हुआ, तो फिर कहां विकसित होगा? उस पवित्र समाज की धारणाओं के रूखे-सूखे पत्ते अलग कर दें, भीतर छिपी | | प्रेम की लकीर फिर सदा के लिए खो जाएगी। उनकी बात में भी पानी की धार नजर में आ जाए, तो दैवी संपदा का दूसरा लक्षण है। बल है। फिर उसके ही सहारे, उस अंतःकरण के सहारे दिव्यता तक पहुंचा कह मैं यह रहा हूं कि जिस समाज ने भी जो धारणा मानी है, जा सकता है। उसके कारण हैं, उसके ऐतिहासिक विकास में आधार है; कुछ जिसको आप अभी अच्छा और बुरा कहते हैं, वह सिर्फ वजह से मानी है। उस धारणा को ही मानकर जो चलता है, वह सामाजिक मान्यता है। किसी दूसरे समाज में मान्यताएं बदल जाती अच्छा आदमी तो हो सकता है, बुरा आदमी हो सकता है। लेकिन हैं, तो दूसरी मान्यताएं हो जाती हैं। जमीन पर कोई हजारों तरह के जिसको शुद्ध अंतःकरण का आदमी कहें, वह उन धारणाओं को समाज हैं। ऐसी कोई मान्यता नहीं है, जो किसी न किसी समाज में मानकर कोई नहीं हो सकता। अच्छी न मानी जाती हो; और ऐसी भी कोई मान्यता नहीं है, जो इसका यह अर्थ नहीं कि शुद्ध अंतःकरण का आदमी सारी किसी न किसी समाज में बुरी न मानी जाती हो। सब तरह की बातें धारणाओं को तोड़ दे, समाज का दुश्मन हो जाए। यह अर्थ नहीं अच्छी मानी जाती हैं, सब तरह की बातें बुरी मानी जाती हैं। कि समाज की बगावत करे, उच्छृखल हो जाए। शुद्ध अंतःकरण ___ ऐसे समाज हैं, जहां सगी बहन से विवाह करना अच्छा माना | का आदमी अपने भीतर अंतःकरण को धारणाओं से मुक्त करने में जाता है। जहां पिता मर जाए, तो ऐसे समाज हैं, जहां बड़े बेटे को | लगेगा। और उस बिंदु पर अपने अंतःकरण को ले आएगा, जहां मां से विवाह करना अच्छा माना जाता है। ऐसे समाज हैं, जहां पिता समाज की कोई छाप नहीं है; जहां उसका अंतःकरण दपी बूढ़ा हो जाए, वृद्ध हो जाए, तो जीवित पिता को अग्निसंस्कार दे देना | शुद्ध है, जैसा वह जन्म के साथ लेकर पैदा हुआ था, जब समाज बड़े बेटे का कर्तव्य माना जाता है। और इन सबकी अपनी धारणाएं | ने कुछ भी लिखा नहीं था, खाली, शून्य। हैं, और अपनी धारणाओं के तर्क हैं। और अगर उनके तर्क को | उस अंतःकरण के माध्यम से ही दैवी संपदा को खोजा जा सकता सहानुभूति से समझें, तो उनकी बात भी सही मालूम पड़ सकती है। । है, दिव्यता को खोजा जा सकता है। क्योंकि उस अंतःकरण में जो जिन समाजों में भाई और बहन का विवाह प्रचलित है, अफ्रीका स्वर उठते हैं, वे दिव्यता के स्वर हैं। जिस अंतःकरण को हम के कुछ कबीले, उनका कहना यह है कि भाई और बहन ही पति अंतःकरण मानते हैं, उसमें जो स्वर उठते हैं, वे समाज के स्वर हैं। और पत्नी बन सकते हैं। क्योंकि उनमें इतना सामीप्य है, इतनी ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थिति...। निकटता है; उन दोनों के पास एक-सा स्वभाव है। किसी भी दूसरी ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थिति! एक तो हमारा जीवन है, जिसे स्त्री से विवाह करना, दो विपरीत संस्कारों में पले, दो विपरीत हम मूर्छा में दृढ़ स्थिति कह सकते हैं। जो भी हम करते हैं, सोए परिवारों में पले व्यक्तियों को कठिनाई होगी, अड़चन होगी, उपद्रव हुए करते हैं। हमें कुछ पक्का पता नहीं, हम क्यों कर रहे हैं; क्यों होगा। और भाई और बहन के बीच एक स्वाभाविक नैसर्गिक प्रेम हमने क्रोध किया, क्यों हमने प्रेम किया, क्यों हमने जीवन ऐसा है, इसी प्रेम को रूपांतरित किया जाए। बिताया, जैसा हमने बिताया, कुछ साफ नहीं है। उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। जिन मुल्कों में विरोध एक अंधेरे में शराब पीए हुए जैसे कोई आदमी चलता हो, और है, उनकी बात में भी बल मालूम पड़ता है। क्योंकि वे कहते हैं, कहीं भी पहुंच जाए; न रास्ते का कुछ पता है, न दिशा का कोई पता अगर भाई और बहन में विवाह हो, तो फिर भाई और बहन के बीच | है; यह भी हो सकता है कि गोल घेरे में चक्कर ही लगाता रहे और प्रारंभ से ही कामुक संबंधों को रोकने का कोई उपाय नहीं। तो सोचे कि बड़ी यात्रा हो रही है। ऐसी हमारी दशा है। मूर्छा में हमारी परिवार प्राथमिक रूप से ही कामुक संबंधों में उलझ जाएगा। दृढ़ स्थिति है। कामुक संबंध अगर बचपन से इस भांति खुले छोड़ दिए जाएं, तो | | ज्ञान-योग में दृढ़ स्थिति का अर्थ है, जागरूकता में दृढ़ स्थिति, जीवन प्राथमिक आधार से विलास की ओर बढ़ेगा और प्रेम की | अवेयरनेस में, होश में। उर्ले, बैलूं, चलूं, जो भी व्यवहार हो, Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी संपदा का अर्जन * आचरण हो, जो भी परिणमन हो, वह मेरे पूरे होश में हो। मेरे ज्ञान | स्तुति में पड़ना ठीक नहीं। लेकिन बस, कोई स्तुति करता है, तो का दीया जलता रहे। क्यों कर रहा हूं, इसकी मुझे पूरी प्रतीति हो। | फिर स्मरण नहीं रहता; फिर भीतर कुछ बल्ब जल जाते हैं। फिर बिना गहरे प्रत्यक्ष होश के कुछ भी मुझसे न निकले।। | भीतर कुछ काम शुरू हो जाता है, जो दसरे ने चालित किया। जिसको कृष्णमूर्ति अवेयरनेस कहते हैं, महावीर ने जिसको जो व्यक्ति अपने निर्णय से प्रतिपल नहीं जी रहा है, जिससे दूसरे सम्यक ज्ञान कहा है, बुद्ध ने जिसको सम्यक स्मृति कहा है, कबीर, | लोग निर्णय करवा रहे हैं, जिसे दूसरे लोग धक्के दे रहे हैं, नानक, दादू जिसको सुरति-योग कहते हैं, ज्ञान-योग में दृढ़ स्थिति मैनिपुलेट कर रहे हैं, जो दूसरों से परिचालित है, ऐसा व्यक्ति का वही अर्थ है। मूर्छित न हो व्यवहार; अचेतन शक्तियां मुझसे मूर्छा में दृढ़ ठहरा हुआ है। कुछ न करवा लें; मेरा कृत्य चेतन हो, कांशस हो। होश में ठहरे हुए व्यक्ति का लक्षण है कि वह स्वयं चल रहा है, किसी आदमी ने आपको धक्का दिया। इधर धक्का नहीं दिया | | स्वयं उठ रहा है; और जो भी कर रहा है, वह उसका अपना निर्णय कि उधर से क्रोध की लपट भभक उठती है। यह क्रोध का भभकना | | है, वह उसने सचेतन रूप से लिया है! कोई अचेतन शक्तियों ने वैसे ही है, जैसे किसी ने बटन दबाई और बिजली जली। बटन उससे निर्णय नहीं करवाया है। दबाने के बाद बिजली का बल्ब सोचता नहीं कि जलं या न जलं।। ___ चौबीस घंटे आपके भीतर बड़ा हिस्सा अचेतन है, जिसको यह भी नहीं सोचता कि इस आदमी ने जलाया, तो मैं कोई परवश | फ्रायड ने बड़ी कोशिश की विश्लेषण करने की। फ्रायड के हिसाब तो नहीं हूं; चाहूं तो जलूं, चाहूं तो न जलूं! न, कोई उपाय नहीं है। | से, जैसे हम बरफ के टुकड़े को पानी में डाल दें, तो नौ हिस्सा पानी यंत्रवत, यंत्र ही है। तो बिजली का बल्ब जल जाता है। में डूब जाता है और एक हिस्सा ऊपर होता है, ऐसा आपका एक ___ जब कोई आपको धक्का देता है, तो क्रोध भी आप में अगर | | हिस्सा केवल होशपूर्ण है, नौ हिस्से नीचे डूबे हुए हैं पानी में और ऐसा ही पैदा होता हो, जैसे बटन दबाने से बल्ब जलता है, तो | उनका आपको कुछ भी पता नहीं है। और वे नौ हिस्से आपसे आप भी यंत्रवत हो गए। तो जिस आदमी ने आपको धक्का दिया, | | चौबीस घंटे काम करवा रहे हैं। वे काम आपको करने ही पड़ते हैं। उसने आपको परिचालित कर लिया, वह आपका मालिक हो | और आप निर्णय भी ले लें कि नहीं करूंगा, तो भी कोई फर्क नहीं गया, स्वामित्व उसके हाथ में चला गया; उसने आप में क्रोध पैदा | पड़ता। क्योंकि निर्णय एक हिस्सा लेता है, उससे नौ गुनी ताकत करवा लिया। के मन के विचार भीतर दबे पड़े हैं, वे उसकी सुनते भी नहीं। और शायद आप कई दफा कसमें खा चुके हैं कि अब क्रोध न ___ आप तय कर लेते हैं, सुनते हैं ब्रह्मचर्य पर एक व्याख्यान, पढ़ते करूंगा; कई दफा निर्णय लिया है कि क्रोध दुख देता है। शास्त्र के | हैं कोई किताब, जंचती है बात बुद्धि को, वह जो एक हिस्सा पानी शब्द स्मरण हैं कि क्रोध अग्नि है, जहर है। वह सब है। लेकिन के ऊपर तैर रहा है, आप तय कर लेते हैं। लेकिन वे नौ हिस्से, जो किसी ने धक्का दिया, तो वह सब एकदम हट जाता है। भीतर से | | पानी के नीचे दबे हैं, उनको आपकी किताब का कोई पता नहीं, क्रोध उठ आता है। यह क्रोध मूर्छित है। | ब्रह्मचर्य का कोई पता नहीं; उन्होंने कोई यह बात सुनी नहीं कभी, बुद्ध को कोई धक्का दे, तो क्रोध ऐसे ही नहीं उठता; क्रोध उठता | | वे अपनी धारणा से चल रहे हैं। वे मिले हैं नौ हिस्से आपको ही नहीं। बुद्ध धक्के को देखते हैं कि धक्का दिया गया और अपने | जन्मों-जन्मों की लंबी यात्रा में। अनंत संस्कारों, पशुओं, पौधों, भीतर देखते हैं कि धक्के से क्या हो रहा है; और निर्णय करते हैं। | वृक्षों से गुजरकर उनको आपने इकट्ठा किया है। वे अब भी वही कि मुझे क्या करना है। आपका धक्का निर्णायक नहीं है। आपके | | हैं। उनको कुछ पता भी नहीं है। वे अपने ही ढंग से चलते हैं; उनकी धक्के के बाद भी बुद्ध ही निर्णायक हैं; वे निर्णय करते हैं कि मुझे ताकत नौ गुनी ज्यादा है। क्या करना है। ___जब भी कामना मन को पकड़ेगी, तो वह जो एक हिस्सा है, आप जब क्रोध करते हैं, तो निर्णय आपका नहीं है। दूसरा नपंसक सिद्ध होगा। वे जो नौ गने ताकतवर हैं. वे शक्तिशाली आपसे निर्णय करवा लेता है। एक खुशामदी आ जाता है और | | सिद्ध होंगे और वे आपको मजबूर कर लेंगे। और उनकी मजबूरी आपकी प्रशंसा करता है और आपसे काम करवा लेता है। आप भी | इतनी शक्तिशाली है कि वे आपके इस एक हिस्से को भी तर्क देंगे जानते हैं कि यह खुशामदी है और आप भी जानते हैं कि किसी की | और यह एक हिस्सा भी रेशनलाइज करेगा। यह भी कहेगा कि 291 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* छोड़ो, यह सब ब्रह्मचर्य वगैरह में कुछ सार नहीं है। और यह भी | तो महावीर अपने ज्ञान को बांट रहे हैं, कि बुद्ध अपनी करुणा कहेगा कि ब्रह्मचर्य साधना है, तो जल्दी क्या है; अभी जिंदगी बहुत | | | को बांट रहे हैं, कि जीसस अपनी सेवा को। यह सवाल नहीं है कि पड़ी है! क्या! बहुत गहरे में जो भी मैं हूं, वह मेरा न रहे, वह सबका हो हजार तर्क! वे नौ हिस्से धक्के देकर एक हिस्से को राजी करवा | | जाए। जो भी मैं हूं, मैं बिखर जाऊं और सबमें चला जाऊं; मेरा लेंगे। जब वे नौ हिस्से अपना काम पूरा करवा लेंगे, तब फिर एक | अपना कुछ बचे न। इसके स्वाभाविक बड़े गहरे परिणाम होंगे। हिस्सा बातें सोचने लगेगा भली-भली। फिर ब्रह्मचर्य वापस | जितना ही मैं छीनने का सोचता हूं, उतना ही मेरा अहंकार बढ़ता लौटेगा। लेकिन यह हमेशा कमजोर सिद्ध होगा नौ के मुकाबले। है। इसलिए जितनी मेरे पास संपदा होगी, जितनी मेरे पास यह अड़चन है प्रत्येक मनुष्य की। जो भी मनुष्य थोड़ा जीवन को सुविधा-साधन होंगे, उतना अहंकार होगा। जितना ही मैं बंटता हूं, बदलने की कोशिश में लगा है, उसकी यह कठिनाई है कि वह तय उतना ही मैं पिघलता हूं। जितनी ही मैं साझेदारी करता हूं, जितना करता है, लेकिन पूरा नहीं हो पाता। ही मेरा अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व में लीन होता है, उतना ही मेरा कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदा तभी सक्रिय होगी, जब कोई व्यक्ति अहंकार शून्य होगा। ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थित हो। दैवी संपदा के पास अस्मिता नहीं बचेगी, और आसुरी संपदा के होश इतना सधा हुआ हो...। जितना ज्यादा होश सधता है, पास सिर्फ अस्मिता ही बचेगी। अहंकार शैतान की आखिरी उतना ही पानी के ऊपर बर्फ आना शुरू हो जाता है। जितना ज्यादा उपलब्धि है। निरअहंकारिता परमात्म-भाव है। आप होश का प्रयोग करते हैं, उतना ज्यादा आपका अचेतन कम तो दान का अर्थ है, देना; और देने की वृत्ति को विकसित करना होने लगता है; चेतन बढ़ने लगता है। और एक ऐसी स्थिति भी है। | और उस घड़ी की प्रतीक्षा करना, जब मेरे पास कुछ भी न होगा देने टोटल अवेयरनेस की, परिपूर्ण प्रज्ञा की, जब आपका पूरा का पूरा | को। इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके पास कुछ भी न होगा। सब मन प्रकाशित होता है, होश से भरा होता है। कुछ होगा; जितना आप देंगे, उतना बढ़ेगा। जितना आप बांटेंगे, उस स्थिति में जो भी निर्णय लिए जाते हैं. उनका कोई विरोध उतना ज्यादा होगा। जितना आप अपने को शन्य करेंगे. उलीचेंगे. नहीं है। उस स्थिति में जो भी आप तय करते हैं, वह होगा ही, | उतना ही पाएंगे कि साम्राज्य बड़ा होता जाता है। देने का अर्थ यह क्योंकि उससे विपरीत आपके भीतर कोई स्वर नहीं है। उस स्थिति नहीं है कि आपके पास कुछ बचेगा नहीं, लेकिन देने का भाव कि में जो भी जीवन है, वहां कोई पश्चात्ताप नहीं है। उस जीवन में सभी कुछ आनंद है और सभी कुछ अद्वैत है। दान, प्रेम का सार है। छीनना, घृणा का आधार है। तो अगर प्रेम सारी साधना प्रक्रियाएं ज्ञान-योग में दृढ़ स्थिति के ही उपाय हैं। | में भी आप दूसरे से कुछ लेना चाहते हैं, तो वह प्रेम नहीं है। वहां सारे ध्यान, सारी प्रार्थनाएं, सारी विधियां, कैसे आप ज्यादा से सिर्फ प्रेम के नाम पर शोषण है। जहां मांग है, वहां प्रेम की कोई ज्यादा होश में जीने लगें, मूर्छा टूटे, अमूर्छा बढ़े...। | संभावना नहीं है। प्रेम निपट दान है, बेशते। वह कुछ पाने की और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तप एवं | | आकांक्षा से नहीं है. देना ही आनंद है। और जिसने लिया. उसके शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता। प्रति अनुग्रह है। दान, देने का भाव, बहुत आधारभूत है। आसुरी संपदा है लेने का दान तथा इंद्रियों का दमन...। भाव, छीनने का भाव। जो दूसरे के पास है, वह मेरा कैसे हो जाए। दान और इंद्रियों के दमन को कृष्ण ने एक साथ कहा। यह भी सारा सब मेरा कैसे हो जाए, पजेशन, सारी दुनिया का मैं मालिक | थोड़ा विचारणीय है। क्योंकि जितना ही आप देंगे, उतनी ही इंद्रियां कैसे हो जाऊं। और दैवी संपदा देने की भावना है। जो भी मेरे पास अपने आप विसर्जित हो जाती हैं। जितना ही आप लेंगे, इकट्ठा है, वह बंट जाए। जो भी मैं हूं, उसे मैं साझेदारी कर लूं। जो मेरे पास करेंगे, उतनी ही इंद्रियां मजबूत होती चली जाती हैं। इंद्रियां छीनना है, वह दूसरा भी उसमें रस ले पाए, वह दूसरे का भी हो सके। | चाहती हैं; और जो देने को राजी है, उसकी इंद्रियां धीरे-धीरे शून्य __ कृष्ण यह नहीं कहते, क्या दान–कि धन का दान, कि संपत्ति | | हो जाती हैं। इंद्रियों का दमन इंद्रियों से लड़कर नहीं उपलब्ध होता का दान, कि भूमि का दान—यह सवाल नहीं है। सिर्फ दान! भाव! है। इंद्रियों का दमन स्वयं की निजता को पूरी तरह बांट देने से कुछ भी न बचे। 1292 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी संपदा का अर्जन * उपलब्ध होता है। जो अपने भीतर अपने लिए बचाता नहीं, उसकी यह फर्क बारीक है, नाजुक है। और इसको आप प्रयोग करेंगे, इंद्रियां अपने आप शांत हो जाती हैं। | तो ही खयाल में आ सकता है। अपने को वंचित करना किसी को यह जो इंद्रियों की शांति है, जो दान से या प्रेम से फलित होती | देने के लिए, तब उस वंचित करने में एक सुख है। और सिर्फ अपने है, इस शांति में और इंद्रियों को दबा लेने में बड़ा फर्क है, बुनियादी को वंचित करना बिना किसी को देने के खयाल से, उसमें कोई रस विरोध है। कोई व्यक्ति अगर इंद्रियों को जोर से दबा ले, तो भीतर | नहीं है, कोई सुख नहीं है। उसमें पीड़ा होगी। अशांति पैदा होगी, शांति पैदा नहीं होगी। तो आप भूखे रह सकते हैं, और जो पैसा बचे, वह बैंक में जमा आप किसी भी इंद्रिय को दबाकर देखें। और आप पाएंगे कि उस | कर सकते हैं। उस भूख में सिर्फ भूख ही होगी। दबाने से और अशांति पैदा होती है, क्योंकि इंद्रिय निकलना चाहती __ भूखे रहना प्राथमिक न हो, किसी का पेट भरना प्राथमिक हो। है, बाहर आना चाहती है, भोग में जाना चाहती है। इंद्रिय आपको | | और अगर उसके पीछे भूखे रहना पड़े, तो भूखे रहने की स्वीकृति कहीं ले जाना चाहती है। हो। जो दबाएगा, वह तो और अशांत हो जाएगा। लेकिन अगर कोई | । दान से सारी इंद्रियां रूपांतरित हो सकती हैं। आप नग्न खड़े हो अपने को बांटने को राजी है, तो उसकी इंद्रियां अपने आप शांत | जाएं सड़क पर, यह एक बात है। यह नग्नता अधूरी है, और इस होती चली जाएंगी। नग्नता में अहंकार है। लेकिन कोई नग्न खड़ा हो और अपने वस्त्र इस फर्क को आप ऐसा समझें। आप उपवास करें एक दिन। तो | उसको ओढ़ा दें, उस नग्नता का रस और है। उस नग्नता में न क्या करेंगे? उपवास करेंगे, तो दबाएंगे भूख को। भूख रोज लगी | अहंकार है, न तप का कोई भाव है। उस नग्नता की पवित्रता और है, आज भी लगेगी; उसे दबाएंगे। दबाएंगे तो भूख और फैलेगी | पूर्णता और है। उसका गुणधर्म और है। रोएं-रोएं में भीतर। और चौबीस घंटे सिर्फ भोजन का स्मरण | .. लेकिन अक्सर यह हुआ कि जो भी धर्म दान के माध्यम से आपका स्मरण होगा। जीवन को रूपांतरित करने को पैदा हुए, दान तो भूल गया, वह जो लेकिन घर में एक मेहमान आया है। और घर में इतना ही भोजन | दान का आधा हिस्सा था, वह भीतर रह गया। उस आधे हिस्से का है कि या तो आप कर लें या मेहमान को करा दें। और आप प्रसन्न कोई अर्थ नहीं है। हैं कि मेहमान घर में आया, और आप आनंदित हैं। तो आपने | __ आप खूब उपवास कर सकते हैं, लेकिन आपका उपवास किसी मेहमान को भोजन कराया। यह उपवास बड़े और ढंग का होगा। के पेट भरने का हिस्सा होना चाहिए। आप बिलकुल दरिद्र हो इस उपवास में एक खुशी होगी, एक प्रफुल्लता होगी। भूख अब | | सकते हैं, उसका कोई मूल्य नहीं है। आपकी दरिद्रता किसी को भी लगी है, लेकिन आपने भूख को दबाया नहीं, आपने भोजन को | समृद्ध करने का हिस्सा होना चाहिए, तब बात पूरी होती है। और बांटा, आपने दान किया। तब जीवन में इंद्रियों का उत्पात जिस भांति शांत होता है, उस भांति इसलिए मां, अगर बेटा भूखा हो, तो उसे खिला देगी, खुद भूखी कोई भी दमन करके कभी उन्हें शांत नहीं कर पाया। सो जाएगी। इस उपवास का मजा और है। इस उपवास में जो आनंद यज्ञ, स्वाध्याय, तप, शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की है, वह किसी साधारण साध के, संन्यासी के उपवास में नहीं हो सरलता। सकता। क्योंकि वह केवल भूख को दबा रहा है। इसने भूख को __ यज्ञ एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का नाम है। उसके बाह्य रूप से तो दबाया नहीं है, भोजन को बांटा है। यहां बुनियादी फर्क है। यहां | हम परिचित हैं। लेकिन बाह्य रूप तो सिर्फ प्रतीक है। बाहर के किसी और की भूख को पूरा किया है। और उसकी भूख को पूरा | प्रतीक से कुछ भीतर की बात कहने की कोशिश की गई है। यज्ञ किया है, जिसके प्रति प्रेम है। एक तकनीक है, एक विधि है, कि भीतर कैसे अग्नि प्रज्वलित हो, दान, अगर जीवन के सब पहलुओं में समा जाए, तो सभी इंद्रियां | और उस अग्नि में मैं कैसे भस्मीभूत हो जाऊं।। अपने आप शांत हो जाती हैं। और दान से ही दमन आए, तो दमन, सारा जीवन अग्नि का खेल है। आप भी अग्नि के एक रूप हैं। में एक उत्सव है। बिना दान के दमन आए-लोभ से भी दमन | भोजन पच रहा है, खून बन रहा है, खून दौड़ रहा है, हृदय गति आता है-तब एक तरह की विकृति और कुरूपता है। करता है, श्वास चलती है, सब अग्नि का खेल है। शरीर से अग्नि 293 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 खो जाए, सब खो जाता है। आप ठंडे हुए, कि मौत आ गई। मौत सदा ठंडी है। जीवन सदा गर्म है। जीवन एक उष्णता है। हिंदुओं ने इस उष्णता के बड़े गहरे प्रयोग किए हैं। उन गहरे प्रयोगों का नाम यज्ञ है। यह जो जीवन की उष्णता है, जिससे साधारण काम चल रहा है, भोजन पच रहा है...। आप सोच भी नहीं सकते, वैज्ञानिक भी अभी तक राज को पूरा खोल नहीं पाए। इस छोटे-से शरीर में बड़ा विराट कार्य चल रहा है। भोजन आप करते हैं, पचता है, खून बनता है, मांस-मज्जा बनती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर एक आदमी के शरीर के भीतर जितना काम होता है – एक रोटी को हम डालते हैं, खून और मांस-मज्जा बन जाती है। अभी तक रोटी को मशीन में डालकर खून, मांस-मज्जा बनाने की कोई हम व्यवस्था नहीं खोज पाए हैं। वैज्ञानिक सोचते हैं कि कभी यह संभव होगा-पक्का नहीं कहा जा सकता कब, लेकिन कभी संभव होगा - तो एक आदमी का शरीर जितना काम करता है, इतना काम करने के लिए कम से कम चार वर्ग मील की यांत्रिक व्यवस्था करनी पड़ेगी। इतनी बड़ी फैक्टरी चार वर्ग मील के क्षेत्र पर फैले, तब हम आदमी के शरीर के भीतर जो काम चल रहा है पूरा, इतना काम उसमें कर पाएंगे। बड़ा अदभुत काम चल रहा है, और बड़े चुपचाप चल रहा है। लेकिन सबके भीतर – जैसा हिंदुओं की धारणा, योग की धारणा है— सबके भीतर एक अग्नि प्रज्वलित है; अग्नि सारा काम कर रही है। प्रदीप्त अग्नि है भीतर। श्वास हम लेते हैं, वह भी अग्नि ही है। दीया जलता है, वह भी अग्नि ही है। वैज्ञानिक उसको आक्सीडाइजेशन कहते हैं। एक दीया जल रहा हो, और जोर से हवा का झोंका आए, आप डर जाएंगे कि कहीं बुझ न जाए; बर्तन से ढंक दें, कांच के बर्तन से ढंक दें। थोड़ी देर, क्षणभर तो जलता रहेगा, फिर बुझ जाएगा। तूफान शायद न बुझा पाता, लेकिन ढंके हुए बर्तन में बुझ जाएगा, क्योंकि प्रतिपल जलने के लिए आक्सीजन चाहिए। वह जितनी आक्सीजन भीतर है, उतनी देर जल जाएगा, फिर बुझ जाएगा। चौबीस घंटे हम श्वास ले रहे हैं, उससे आक्सीजन भीतर जा रही है, वह अग्नि है, सूक्ष्म अग्नि है। श्वास बंद हुई कि आदमी श्वास ठीक से न ली, तो जीवन क्षीण हो जाता है। तो योग की प्रक्रियाओं के द्वारा भीतर की इस अग्नि को धू-धू करके प्रज्वलित करने की प्रक्रियाएं हैं। उनका नाम यज्ञ और | जब यह धू-धू करके भीतर की अग्नि पूरी जलती है, तो इससे सिर्फ भोजन ही नहीं पचता, शरीर ही नहीं चलता, जीवन के साधारण दैनंदिन कार्य ही नहीं होते, धू-धूकर जब अग्नि जलती है, तो उसमें हमारा अहंकार जल जाता है। और उस अग्नि से गुजरकर ही हमें पहली दफा पूरी दिव्यता का अनुभव होता है। और अहंकार के जलते ही कचरा जल जाता है, स्वर्ण निखरकर बाहर आता है। स्वाध्याय का अर्थ है, अपना सदा अध्ययन करते रहना । स्वाध्याय का अर्थ गीता पढ़ना नहीं है, वह गौण अर्थ है। वेद पढ़ना नहीं है, वह गौण अर्थ है। स्वाध्याय का अर्थ है, स्वयं का निरंतर अध्ययन, स्वयं को निरंतर देखते रहना। एक-एक छोटी-छोटी गतिविधि को पहचानते रहना, परखते रहना, विश्लेषण करते रहना । क्या कर रहा हूं, क्यों कर रहा हूं; क्या छिपे कारण हैं— उन सबकी पूरी जांच-परख करते रहना । स्वयं को एक अध्ययन की जीवंत प्रक्रिया बना लेना । स्वप्न भी भीतर पैदा हो, तो उसका भी अध्ययन करना कि वह क्यों घटा ! कोई स्वप्न ऐसे ही नहीं घटता । आप रात स्वप्न देखते हैं, किसी की हत्या कर देते हैं। ऐसे ही हत्या नहीं होती। स्वप्न में भी ऐसे ही नहीं होती । कहीं कुछ छिपा राज है; कुछ होना चाहता है, स्वप्न में उसको अभिव्यक्ति मिली है। स्वप्न से लेकर कृत्यों तक सभी कुछ अध्ययन करते रहना । स्वयं को एक शास्त्र बना लेना और उससे सीखना कि क्या हो रहा है। लिए गए परिणाम और नतीजों पर आगे उपयोग करने का नाम तप है। स्वाध्याय तथा तप... । जो स्वयं के अध्ययन से निष्कर्ष हों, उन निष्कर्षों के अनुसार चलने का नाम तप है। तप का मतलब इतना नहीं है कि अपने को अकारण सताना, परेशान करना, कि अपने को दुख देना। तप का अर्थ है, जो मेरे अध्ययन से नतीजे निकले हैं, उन नतीजों के अनुसार जीवन को चलाना । कठिन होगा, और दुख झेलना पड़ेगा, संकल्प का उपयोग करना पड़ेगा। क्योंकि पुरानी आदतें हैं, वे सुगम हैं। चाहे उनसे दुख मिलता हो अंत में, लेकिन वे सुगम हैं। उन्हें बदलना दुर्गम होगा, दुख उठाना पड़ेगा। लेकिन एक बार वे बदल जाएं, तो आनंद की मंजिल उनसे उपलब्ध होती है। सम्यकरूप से स्वयं के निरीक्षण से जो नतीजे हाथ आए हों, उन नतीजों को लिखकर रख देना नहीं, वरन उनके अनुसार जीवन को चलाना तपश्चर्या है। और शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता । 294 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवी संपदा का अर्जन * और जीवन के सब पहलुओं पर जटिलता की बजाय सरलता | सिर के बल खड़े हो जाएं रास्ते पर, पचास लोग भीड़ लगाकर खड़े को जगह देना। जो भी जटिल हो, उससे बचने की कोशिश करना। | हो जाते हैं। आप दोनों पैर के बल खड़े हों, फिर कोई भीड़ लगाकर जो भी सरल हो, उसको स्थापित करना। | खड़ा नहीं होता। सिर के बल खड़े होते से ही भीड़ लग जाती है, आमतौर से हम उलटा करते हैं। जो भी जटिल हो, वह हमें | | क्योंकि आप कुछ कर रहे हैं, जो कठिन है। हालांकि सिर के बल आकर्षित करता है। अगर एक पहेली सामने रखी हो, जो बहुत | खड़े होने से कुछ मिलता नहीं, लेकिन भीड़ इकट्ठी होती है। और उलझन वाली हो, तो हम पच्चीस काम छोड़कर उसको हल करने | भीड़ इकट्ठी हो, तो हमें रस आता है। में लग जाते हैं। जटिल हमें आकर्षित करता है। जटिल क्यों __ काफ्का, एक बहुत प्रसिद्ध कथाकार, उसने एक छोटी-सी आकर्षित करता है? कहानी लिखी है। एक आदमी उपवास करता था, उपवास का एवरेस्ट है वहां, तो आदमी का मन चढ़ने का होता है। एडमंड | प्रदर्शन करता था। वह चालीस दिन तक उपवास कर लेता था। हिलेरी से किसी ने पूछा कि तुम एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए इतने | | लोग बड़े प्रभावित होते थे। गांव-गांव वह जाता था और चालीस पागलपन से क्यों भरे रहे? तो उसने कहा, चूंकि एवरेस्ट है, दिन के उपवास करता था। फिर एक सरकस गांव में थी जहां वह इसलिए चढ़ना ही पड़ेगा; चुनौती है। | उपवास कर रहा था, तो सरकस वाले लोगों को जंच गई बात, तो जितनी जटिल हो चीज...। अब चांद पर जाने की कोई | | उन्होंने उसको सरकस में ले लिया। सरकस में भी उसको देखने जरूरत नहीं है, पर जाना पड़ेगा। मंगल पर भी जाने की कोई जरूरत | बड़ी भीड़ इकट्ठी होती थी। लेकिन यह धीरे-धीरे...। नहीं है, लेकिन जाना पड़ेगा, क्योंकि मंगल है और हमारा मन बेचैन ___ अगर आप रोज ही सिर के बल खड़े रहें, तो फिर भीड़ इकट्ठी है। हालांकि आप चांद पर पहुंच जाएं कि मंगल पर, आप ही रहेंगे! | नहीं होगी। फिर लोग कहते हैं, वह खड़ा ही रहता है; ठीक है। जो उपद्रव आप यहां कर रहे हैं, वहां करेंगे! मंगल आप में कोई वह जो आदमी उपवास करता था, वह करता ही था। तो पहले फर्क ला नहीं सकता। और यहां दुखी हैं, तो वहां दुखी होंगे! | तो लोगों को कठिन लगा, चालीस दिन! इधर करता, तो कोई पहुंचकर कुछ भी होगा नहीं। | कठिन भी नहीं लगता हमको। हमारे मुल्क में कई लोग कर ही रहे लेकिन जटिल आकर्षित करता है, क्योंकि जटिल में चुनौती है। हैं। जर्मनी में कर रहा था, तो बहुत कठिन बात थी; चालीस दिन चुनौती से अहंकार भरता है। तो जितना कठिन काम हो, उतना बहुत बड़ी बात है। पर धीरे-धीरे लोगों को लगा, यह करता ही है, करने जैसा लगता है। जितना सरल काम हो, उतना करने जैसा नहीं | | अभ्यासी है। लोगों ने उसकी झोपड़ी का टिकट लेना बंद कर दिया। लगता, क्योंकि सरलता से कोई अहंकार को भरती नहीं मिलती। फिर सरकस के लोगों को लगा, अब कोई ज्यादा उसकी टिकट कृष्ण कहते हैं, शरीर, इंद्रियों और अंतःकरण की सभी आयामों भी नहीं खरीदता, तो फिजूल उसको क्यों ढोना! तो उन्होंने उससे में सरलता। . | कहा कि अब तुम जाओ। पर उसने कहा कि अब मैं जा नहीं जो सरल हो, उसको चुनें। और धीरे-धीरे आप पाएंगे, आपका | | सकता, क्योंकि मैं बिना उपवास किए रह नहीं सकता। मुझे रहने अहंकार जाने लगा। जो कठिन है, उसको चुनें। और आप पाएंगे, दो। तो उन्होंने सबसे पीछे जहां जंगली जानवरों के कुछ कटघरे थे, आपका अहंकार बढ़ने लगा। | वहां उसका भी एक कटघरा बना दिया। ___ आदमी खुद भी अपने लिए कठिनाइयां पैदा करता है। क्योंकि लोग आते थे फिर भी, कोई शेर को देखने आता, कोई हाथी को कठिनाइयां पैदा करके जब उनको वह पार कर लेता है, तो वह | | देखने आता, तो उसके कटघरे से निकलते थे। वह इससे भी रस दुनिया को कह सकता है, देखो, इतनी कठिनाइयों को मैंने पार | | लेता था। वह अपने मन में यह सोचता था कि चलो, मुझे देखने किया! सरलता को आप किसको बताने जाइएगा कि पार किया! | | आते हैं। हालांकि उसको लगता था कि अब यहां मुझे देखने कोई उसमें पार करने जैसा कुछ था ही नहीं। आता नहीं। अगर आप जीवन में सरलता को नियम बना लें और जब भी । जब चालीस दिन का कोई परिणाम न रहा, तो उसने घोषणा की कोई विकल्प सामने हो, तो सरल को चुनें...। बहुत कठिन है यह, कि अब मैं सदा के लिए उपवास कर रहा हूं। कोई अस्सी दिन वह सरल को चुनना, क्योंकि अहंकार को इसमें कोई रस नहीं आता। टिक गया। जब अस्सी दिन की खबर पहुंची, तो लोग आने शुरू 295 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 हुए। नब्बे दिन के करीब पहुंच गया, तो एक पत्रकार ने उसके कान के पास जाकर पूछा, क्योंकि उसकी आवाज अब बिलकुल क्षीण हो गई थी, कि तू यह किसलिए कर रहा है? तो उसने बिलकुल क्षीण आवाज में कहा कि मैं सब रिकार्ड तोड़ देना चाहता हूं; मर जाऊ भला, मगर रिकार्ड तोड़ देना है। मुझसे ज्यादा बड़ा उपवास करने वाला दुनिया में कभी भी नहीं हुआ! ___जटिल में एक रस है, रिकार्ड तोड़ने का रस। सरल में कोई रिकार्ड ही नहीं है, सभी लोग उसको करते ही रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, दिव्यता की तरफ जिसे जाना है, उसे सरलता का चुनाव जीवन के सब पहलुओं पर...। जब भी चुनाव हो, तो सरल का, सरलतम का। और आप धीरे-धीरे पाएंगे, अहंकार बचा ही नहीं जिसको मिटाना है। और अहंकार खो जाए, तो आसुरी संपदा की जड़ कट गई। निरअहंकारिता आ जाए, तो दैवी संपदा का द्वार खुल गया। आज इतना ही। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 दूसरा प्रवचन दैवीय लक्षण Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7* अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । | अगर मैं चुप बैठा हूं, तो फिर कोई संबंध नहीं बनता, सेतु खो जाता दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ।।२।। है। फिर जब मैं चुप बैठा हूं, तब आप अपनी ही बातों को सोचते तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता। हैं; मुझसे संबंध नहीं बनता, आपका अपने से ही संबंध रहता है। भवन्ति संपदं देवीमभिजातस्य भारत ।।३।। जब मैं बोल रहा हूं, तब थोड़ी देर को आपका मन बंद हो जाता है। दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं : अहिंसा, सत्य, आपका अपने मन से संबंध टूट जाता है और मुझसे संबंध जुड़ अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना जाता है। तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा इसलिए सुनकर आपको जितनी शांति मिलती है, उतनी अगर मैं लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ शांत बैठा हूं, तो मेरे पास शांत बैठकर न मिलेगी। मिलनी चाहिए चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात ज्यादा। क्योंकि जब मैं मौन हूं, तब आप मेरे पास हैं ही नहीं। तब बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी। आप अपने पास हैं। आपका मन भीतर चल रहा है। आपका जो शत्रु-भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान निरंतर का उपद्रव है, उसमें आप डूबे हैं। जब मैं बोल रहा हूं, तब का अभाव-ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए बीच-बीच में आपका मन छिटक जाता है; आप थोड़े मेरे पास आ पुरुष के लक्षण है। जाते हैं। उस क्षण में कुछ प्रतीतियां आपको हो सकती हैं। लेकिन ध्यान रहे, जो मैं कह रहा हूं वह, शब्द में कहा जाने योग्य नहीं है। इसलिए शब्द से ही जो मुझे समझेंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। पहले कुछ प्रश्न। और उनकी समझ अधकचरी होगी; नासमझी ज्यादा होगी उससे, पहला प्रश्नः आश्चर्य है कि जब आप बोलते हैं, तभी | | समझदारी कम। मौन में भी मुझे समझने की कोशिश करनी होगी। वाणी के माध्यम से हमें आपका शिखर थोड़ा दिखाई | स्वभावतः, शब्द की तैयारी है; जीवनभर शब्द आपने सीखा है, पड़ता है। ऐसा क्यों? मौन आपने कभी सीखा नहीं। उसे भी सीखना होगा, उसके प्रशिक्षण से भी गुजरना होगा। ध्यान उसी का प्रशिक्षण है। । इसलिए आधा जोर मेरा मैं आपसे बोलता हूं उस पर है, और म नभावतः, शब्द समझ में आते हैं; मौन समझ में नहीं आधा जोर मेरा इस पर है कि आपके भीतर बोलने की प्रक्रिया बंद रप आता। शब्द तो बुद्धि से भी पकड़ लिए जाते हैं, मौन हो, आप ध्यानस्थ हों। जैसे-जैसे आप ध्यानस्थ होंगे, वैसे-वैसे को पकडे़ने के लिए तो हृदय चाहिए। बुद्धि का शिक्षण ही मेरा न बोलना आपकी ज्यादा समझ में आएगा। और बोलने में है आपके पास; बुद्धि की धारणाओं की, बुद्धि के तर्क की, बुद्धि | भी जो आप समझेंगे, वह शब्दों के पार है, उसकी झलक मिलनी की भाषा की पकड़ है। मौन, शून्य, ध्यान की कोई पकड़ नहीं है। | शुरू हो जाएगी। जिसे आप समझ सकते हैं, उसे आप समझ लेते हैं। उसे भी पूरा शब्द भी शून्य के संकेत बन जाते हैं, लेकिन उसके लिए हृदय समझते हैं, कहना कठिन है। क्योंकि जो केवल शब्द को ही समझता | | की तैयारी चाहिए। और हम एक ही तरह का संबंध जानते हैं, एक है और शून्य को नहीं, वह शब्द को भी पूरा नहीं समझ पाएगा। ही कम्युनिकेशन, एक ही संवाद का रास्ता जानते हैं कि बोलें। साधारण बोलचाल के शब्द, साधारण जीवन और काम और | | भाषा के अतिरिक्त हमारे बीच कोई संबंध नहीं है। भाषा न हो, चर्या के शब्द तो वस्तुओं के प्रतीक हैं। शास्त्रों के शब्द अनुभूतियों | हमारे सब संबंध खो जाएं। के प्रतीक हैं। और अनुभूतियां तो बड़ी सूक्ष्म हैं, आकार में उन्हें पश्चिम के मनसविद पति-पत्नियों को सलाह देते हैं कि जैसा बांधा नहीं जा सकता; नाम देना संभव नहीं है; परिभाषाएं बनती प्राथमिक क्षणों में पति और पत्नी ने एक-दूसरे से प्रेम के शब्द बोले नहीं हैं; फिर भी शब्द आपको सुनाई पड़ते हैं और सुनाई पड़ने से थे, उनको जारी रखना चाहिए। आपको लगता है कि समझ में आ गया। स्वभावतः, पति-पत्नी उन्हें छोड़ देते हैं। उनकी जरूरत नहीं रह थोड़ी-सी झलक मिलती है, तो उससे मुझसे संबंध बनता है। जाती। जब आप पहली बार किसी के प्रेम में पड़ते हैं, तो कुछ शब्द 298 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवीय लक्षण * बोलते हैं, जो कि निरंतर साथ रहने पर, विवाहित हो जाने पर, | पहला चरण है, प्रार्थना दूसरा चरण है, परमात्मा अंतिम चरण है। फिजूल मालूम पड़ेंगे। | फिर और गहरे चरण हैं; प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा एक से ज्यादा गहरे लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, उन्हें दोहराते रहना चाहिए, | हैं। परमात्मा को तो समझना बहुत ही कठिन है। उसके लिए भी अन्यथा प्रेम समाप्त हो जाएगा। क्योंकि शब्द ही हमारा कुल संबंध | | हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। है। तो पति चाहे वह बीस वर्ष से पत्नी के साथ हो, तो भी उसे रोज | इसलिए जब मैं बोलता हूं, तब आपको किसी शिखर की प्रतीति दोहराना चाहिए कि मैं तेरे प्रेम में पागल हूं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, | | हो सकती है, लेकिन वह शिखर वास्तविक शिखर नहीं है। जिस चाहे यह सत्य न भी मालूम पड़े, चाहे यह प्रतीति न भी होती हो, | | दिन मैं चुप बैठा हूं आपके पास और आपको कुछ अनुभूति हो, लेकिन प्रेम की भाव-भंगिमा, प्रेम के शब्द, प्रेम की मुद्राएं जारी| उसी दिन जानना कि किसी वास्तविक की प्रतीति का पहला, पहला रखनी चाहिए, अन्यथा संबंध टूट जाएगा। आघात, पहला संघात हुआ, पहली बिजली आपके भीतर कौंधी। अधिक पति-पत्नियों का जीवन उदास और ऊब से भर जाता मेरे बोलने का सारा प्रयोजन ही इतना है कि कुछ लोगों को उस है। उसका बहुत कारण यह नहीं है कि उनके जीवन का प्रेम समाप्त घड़ी के लिए तैयार कर लूं, जब मैं न बोलूं, तब भी वे समझ पाएं। हो गया। प्रेम था, तो समाप्त होता भी नहीं। शब्द थे पहले, अब वे | और अगर कुछ लोग उसके लिए तैयार नहीं हो पाते, तो बोलना शब्द छूट गए। और निरंतर उन्हीं शब्दों को दोहराना बेहूदा मालूम व्यर्थ गया जानना चाहिए। पड़ता है। शब्द छूट गए, संबंध छूट गया। बोलने की अपनी कोई सार्थकता नहीं है, सार्थकता तो मौन की __ मौन को तो कोई समझता नहीं। अगर कोई आपको प्रेम करता | | ही है। बोलना ऐसे ही है, जैसे छोटे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग हो और कहे न, तो आप पकड़ ही न पाएंगे कि प्रेम करता है। किसी | गणेश का। ग का गणेश से कुछ लेना-देना नहीं है। ग गधे का भी तरह प्रकट न करे-भाव-भंगिमा से, आंख के इशारे से, शब्दों | | उतना ही है। गणेश प्रतीक हैं; उसके सहारे हम ग को समझाते हैं। से, ये सभी शब्द हैं-चुप रहे, तो आप कभी भी न पहचान पाएंगे | | फिर समझ जाने के बाद गणेश को याद रखने की जरूरत नहीं है। कि कोई आपको प्रेम करता है। कहना पड़ेगा, प्रकट करना पड़ेगा। और जब भी आप ग पढ़ें, तो बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं कि __ और तब एक बड़े मजे की घटना घटती है। प्रेम न भी हो और ग गणेश का। और अगर यह दोहराना पड़े, तो आप पढ़ ही न अगर कोई कुशल हो प्रकट करने में, तो आपको लगेगा कि प्रेम | | पाएंगे। तब तो कुछ पढ़ना संभव न होगा; तब आप पहली कक्षा है। बहुत बार, जो अभिव्यक्ति में कुशल है, वह प्रेमी बन जाता है। के बाहर कभी जा ही न पाएंगे। जरूरी नहीं है कि प्रेम हो। क्योंकि प्रेम को आप समझते नहीं, आप | तो जो भी मैं कह रहा हूं, वह ग गणेश का है। सब कहा हुआ सिर्फ शब्दों को समझते हैं। प्रतीक है। तैयारी इसकी करनी है कि वह छूट जाए और आप चुप . पति-पत्नी उदास होने लगते हैं, क्योंकि उन्हीं-उन्हीं शब्दों को | होने में समर्थ हो जाएं, तब जो दर्शन होगा, वह दर्शन वास्तविक क्या बार-बार कहना! फिर उनमें कुछ रस नहीं मालूम पड़ता। शिखर का है। लेकिन शब्दों के खोते ही संबंध खो जाता है। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक नौकरी के लिए इंटरव्यू दे रहा था। और इंटरव्यू लेने वाले अफसर ने कहा कि क्या आप दूसरा प्रश्नः रात आपने कहा कि प्रार्थना परमात्मा तक शादीशुदा हैं ? उसने कहा कि नहीं, मैं वैसे ही दुखी हूं। पहुंचा देती है और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शादीशुदा आदमी की शक्ल दूर से ही पहचानी जा सकती है। शैली है। क्या इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश एक ऊब घेर लेती है। और इस ऊब का कुल कारण इतना है कि डालेंगे? धर्म-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है? जिन शब्दों के कारण प्रेम प्राथमिक रूप से संवादित हुआ था, वे शब्द आपने छोड़ दिए। प्रेम भी समझ में नहीं आता शब्द के बिना, तो प्रार्थना तो कैसे 1 र्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है, शायद यह कहना समझ में आएगी, परमात्मा तो कैसे समझ में आएगा। क्योंकि प्रेम | प्रा बिलकुल ठीक नहीं है। ज्यादा ठीक होगा कहना कि 2991 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * प्रार्थना परमात्मा बना देती है। प्रार्थना करते-करते ऐसा नहीं होता है। प्रार्थना की कला संयोग को काटना, स्वभाव को बचाना है। कि आप परमात्मा को पा लेते हैं; प्रार्थना करते-करते ऐसा होता है | जापान में झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं, एक ही चीज कि आप खो जाते हैं और परमात्मा बचता है। | खोजने जैसी है, वह है ओरिजनल फेस, तुम्हारा मौलिक चेहरा। प्रार्थना की परिपूर्ण उपलब्धि आपके भीतर परमात्मा का | शिष्य सदियों से पूछते रहे हैं गुरुओं से, कि क्या अर्थ है आपका? आविष्कार है। प्रार्थना एक विधि है, जिससे हम अपने भीतर को | मौलिक चेहरे का क्या अर्थ है? तो गुरुओं ने कहा है, जब तुम पैदा निखारते हैं; वह एक छेनी है, जिससे हम पत्थर को तोड़ते हैं। और | नहीं हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, या जब तुम मर जाओगे, तब पत्थर में मूर्ति छिपी है। सिर्फ व्यर्थ पत्थर को तोड़कर अलग कर | जो शेष बचेगा, वह तुम्हारा मौलिक चेहरा है, वह स्वभाव है, वह देना है, मूर्ति प्रकट हो जाएगी। ओरिजनल है। मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं, केवल उघाड़ता है। अनगढ़ पत्थर | प्रार्थना उसको बचा लेती है। और वही परमात्मा है। जो स्वभाव में छिपी जो पड़ी थी, मूर्तिकार उसे बाहर ले आता है। अनगढ़ पत्थर | | है, वही परमात्मा है। जिसे हमने कभी पाया नहीं, जिसे हमने कभी में जो-जो अंग व्यर्थ थे, गैर-जरूरी थे, उनको अलग करता है।। | अर्जित नहीं किया और जिसे हम चाहें भी, तो खो न सकेंगे; जिसे इसे थोड़ा ठीक से समझें। | खोने का कोई उपाय नहीं है; जो मेरी निजता है, जो मेरा होना है, मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं है, केवल उघाड़ता है, निर्वस्त्र | मेरा बीइंग है; वही परमात्मा है और प्रार्थना उसकी तलाश है। करता है; वह जो ढंका था, उसे अनढंका कर देता है। मूर्ति तो थी। | इसलिए मैंने कहा कि प्रार्थना परमात्मा को पहुंचने का मार्ग है। ही, उस पर कुछ अनावश्यक भी जुड़ा था, उस अनावश्यक को और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है। . तोड़ता है। निश्चित ही, प्रार्थना कोई एक कोने में नहीं हो सकती। ऐसा प्रार्थना आप में जो अनावश्यक है, उसको तोड़ती है; जो | नहीं हो सकता कि सुबह आप प्रार्थना कर लें और फिर भूल जाएं। अनिवार्य है, उसको बचाती है। जो आत्यंतिक है, वही शेष रह | ऐसा नहीं हो सकता कि एक दिन रविवार को चर्च में प्रार्थना कर जाता है; और जो भी सांयोगिक है, वह हट जाता है। लें, कि धार्मिक उत्सव के दिन प्रार्थना कर लें, और फिर विस्मरण __ आपके जीवन के सारे संबंध सांयोगिक हैं, कि आप पिता हैं, कर दें। प्रार्थना कोई खंड नहीं हो सकती, प्रार्थना जीवन की शैली कि पति हैं, या पत्नी हैं, या बेटे हैं; कि आप अमीर हैं कि गरीब हो सकती है। हैं; कि आप बच्चे हैं, कि जवान हैं, कि बूढ़े हैं; सब सांयोगिक है। जीवन की शैली का अर्थ यह है कि आप प्रार्थनापूर्ण होंगे, तो यह आपका होना वास्तविक होना नहीं है, कि आप गोरे हैं, कि आपके चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण होंगे। प्रार्थना अगर होगी, तो श्वास काले हैं; सुंदर हैं, कुरूप हैं। यह सब सांयोगिक है, यह जैसी होगी। आप ऐसा नहीं कह सकते कि सुबह श्वास लूंगा, ऊपर-ऊपर है; यह आपकी वास्तविकता नहीं है। यह सब छांट दोपहर विश्राम करूंगा; कि जब फुरसत होगी तब श्वास ले लेंगे, देगी प्रार्थना। केवल वही बच जाएगा, जो नहीं छांटा जा सकता। बाकी काम बहुत हैं। केवल वही बच जाएगा, जो आप जन्म के साथ हैं। केवल वही बच प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए, तो शैली बनी। उसका अर्थ यह जाएगा, जो मृत्यु के बाद भी आपके साथ रहेगा। हुआ कि प्रार्थना करने की बात न हो, प्रार्थना आपके होने का ढंग तो प्रार्थना मृत्यु की तरह है। वह आपके भीतर सब छांट | हो जाए। उठे तो प्रार्थनापूर्ण हों; बैठे तो प्रार्थनापूर्ण हों; भोजन करें डालेगी, जो व्यर्थ है, कचरा है, जो संयोग था, जो स्वभाव नहीं है। तो प्रार्थनापूर्ण हों। - ये दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, संयोग और स्वभाव। संयोग वह | हिंदू सदियों से भोजन के पहले ब्रह्म को स्मरण करता रहा है। है, जो आपको रास्ते में मिल गया है। एक दिन आपके पास नहीं | वह भोजन को प्रार्थनापूर्ण बनाना है। स्वयं को भोजन दे, इसके था, आज है, एक दिन फिर नहीं होगा। स्वभाव वह है, जो आपको | पहले परमात्मा को देता रहा है। उसका अर्थ है कि संयोग के पहले रास्ते में नहीं मिला: जिसको लेकर ही आप रास्ते पर उतरे हैं। जो स्वभाव स्मरणीय है। मैं गौण हं: मेरे भीतर जो छिपा. सबके भीतर जीवन के पहले था, वह स्वभाव है; जीवन के बाद भी होगा, वह | | छिपा जो परमात्मा है, वह प्रथम है। तो सबसे पहले उसका स्मरण। स्वभाव है। जो जन्म और मृत्यु के बीच में मिलता है, वह संयोग आप पूछेगे कि उठना-बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण हो सकता है? 300/ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैवीय लक्षण एक महाकवि रिल्के का जीवन मैं पढ़ता था। रिल्के के जीवन में उनके मित्रों ने उल्लेख किया है कि रिल्के अपना जूता भी उतारता था, तो इतने मैत्री भाव से, कि आप अगर देखते, तो लगता कि रिल्के अपने जूते के साथ प्रेम में है। वह अपने कपड़े भी उतारता, तो इस भाव से, जैसे कपड़े जीवंत हों, जैसे कपड़ों की आत्मा हो । ऐसा नहीं कि कपड़े उतारे और फेंक दिए। वह कपड़ों को सम्हालता। वह घर में पैर रखता, तो ऐसे जैसे कि जीवंत घर में प्रवेश कर रहा हो; जैसे जरा भी बेहूदे ढंग से चलेगा, तो घर को चोट पहुंचेगी। रिल्के फूल को पौधे से तोड़ नहीं सकता था। फूलों का प्रेमी था। फूलों के पास जाता, उनसे दो शब्द कहता, उनसे नमस्कार कर लेता, उनसे दो बातें भी कर लेता, लेकिन तोड़ना असंभव था । हमें यह आदमी पागल लगेगा, क्योंकि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! हम पूछेंगे कि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है ! जूते को उतारकर फेंका जा सकता है। मकान में प्रवेश करते समय मंदिर में प्रवेश कर रहे हों, ऐसे भाव रखने की क्या जरूरत है ! मकान मकान है; मंदिर मंदिर है। लेकिन ध्यान रहे, हम जो भी करते हैं, वह हमें निर्मित करता है। और जिंदगी में बड़े-बड़े काम ज्यादा नहीं हैं। चौबीस घंटे तो छोटे-छोटे काम हैं। जूता उतारना है, भोजन करना है, कपड़े पहनना है, स्नान करना है, मकान में आना है, दुकान में जाना है। मंदिर तो आप कभी-कभी जाते हैं। और ध्यान रहे, जो अपने मकान में निरंतर गैर- प्रार्थनापूर्ण ढंग से गया है, वह मंदिर में लाख कोशिश करे, प्रार्थनापूर्ण ढंग से नहीं ..जा सकेगा; उसकी आदत नहीं है। और जिसने अपने मकान को मकान समझा है, वह मंदिर को भी मकान से ज्यादा कैसे समझ सकता है। वस्तुतः मंदिर भी मकान ही है; नाम भर मंदिर है। अगर मंदिर को मंदिर बनाना हो, तो हर मकान को मंदिर बनाना होगा, तभी यह संभव है। तब मकान मिट जाएंगे, तब सभी मंदिर हो जाएंगे। और जब आप हर मकान में मंदिर की तरह प्रवेश करेंगे, यह प्रवेश आपकी वृत्ति को बदलेगा। यह प्रवेश आपके भाव बदलेगा। यह प्रवेश आपको निर्मित करेगा। फिर आप जहां भी जाएंगे, वह मंदिर हो, कि मस्जिद हो, कि गुरुद्वारा हो, कि साधारण मकान हो, कि एक झोपड़ा हो, कि महल हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल मकानों का है, सवाल आपका है। सवाल कहां आप प्रवेश करते हैं, इसका नहीं; कौन प्रवेश करता है, इसका है। अगर आपने जूते प्रेम से उतारे हैं, कपड़े सदभाव से रखे हैं, वस्तुओं से भी मैत्री का व्यवहार किया है, यह सारा व्यवहार आपको रूपांतरित करेगा। यह आपकी शैली बन जाएगी। जीवन के प्रति प्रेम का जो व्यवहार है, उस शैली को मैं प्रार्थना कहता हूं। और अगर हम चौबीस घंटे उसमें डूब सकें, तो ही, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। इसलिए प्रार्थना कोई खंड नहीं है, कोई अंश नहीं है, कि आपने किया और निपट गए। लोग प्रार्थना कर रहे हैं, पर उनके जीवन में प्रार्थना का कोई सुर सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि प्रार्थना को उन्होंने एक काम बना लिया | है । वे सुबह पांच मिनट बैठकर प्रार्थना कर लेते हैं। अगर जल्दी हो, तो पांच मिनट की प्रार्थना वे दो मिनट में कर लेते हैं। अगर फुरसत हो, कोई काम न हो, तो दस मिनट भी कर लेते हैं। लेकिन प्रार्थना उनके जीवन की आधारशिला नहीं है, हजार कामों में एक काम है। और अगर प्रार्थना हजार कामों में एक काम है, तो प्रार्थना हो ही नहीं सकती। और परमात्मा अगर हजार खोजों में एक खोज है, तो उस खोज का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन प्रार्थना ही जीवन की | विधि हो जाए...। कबीर को किसी ने पूछा है कि अब तुम सिद्ध हो गए, अब तुम | यह कपड़ा बुनना बंद कर दो। क्योंकि कबीर जुलाहे थे और जुलाहे बने रहे। और तुम कपड़ा बुनने में लगे रहते हो, फिर कपड़ा बुन | कर बेचने जाते हो बाजार में, तुम्हें समय कहां मिलता है ? प्रार्थना - पूजा...! तो कबीर ने कहा कि जो भी मैं कर रहा हूं, वह प्रार्थना है; जो भी मैं कर रहा हूं, वह पूजा है! जब मैं कपड़ा बुनता हूं, तो मैं परमात्मा को बुन रहा हूं। जब मैं कपड़ा बेचता हूं, तो मैं परमात्मा को बेच रहा हूं। जब मैं बाजार जा रहा हूं, तो मैं राम की तलाश में | जा रहा हूं, जिसको कपड़े की जरूरत है। इसलिए अलग से प्रार्थना करने का क्या अर्थ है ! 301 जब तक अलग से प्रार्थना करनी पड़े, तब तक जानना, प्रार्थना का स्वाद आपको लगा नहीं। जिस दिन प्रार्थना जीवन की शैली हो जाए; आप जो करें, वह प्रार्थनापूर्ण हो, प्रेयरफुल हो; जो करें, उसमें से परमात्मा की तरफ आपका बहाव हो; जो करें, उसमें परमात्मा का स्मरण हो; कुछ न भी कर रहे हों, तो उस न होने के क्षण में भी परमात्मा की मौजूदगी हो। ऐसी सुरति से जो जीएगा, वह एक दिन परमात्मा तक पहुंच जाता है, ऐसा नहीं; एक दिन Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 परमात्मा हो जाता है। इस चोर के साथ चलें, तो आप असाधु हो जाएंगे। इस चोर से आप यह प्रार्थना का सतत प्रवाह, जैसे पानी गिरता हो प्रपात से, | | लड़ें, इसकी आप न मानें, इसके विपरीत आप चलें, इससे उलटा पत्थरों को काट देता है। कोमल सा जल, सख्त से सख्त पत्थर को | चलना ही आपका ढंग हो जाए, तो आप साधु हो जाएंगे। तोड़ देता है और बहा देता है। ऐसे ही कोमल-सी प्रार्थना सतत अगर आप साध हो जाएंगे, तो भी चोर आपके बहती रहे जीवन में, तो आपका जो भी पथरीला हिस्सा है, वह जो मिट नहीं गया। सिर्फ आपने उसे दबाया है, उसकी मानी नहीं है। भी व्यर्थ है, सांयोगिक है, वह जो भी कूड़ा-कर्कट जन्मों-जन्मों में | अगर आप चोर हो गए, तो भी आपके भीतर अचोर छिपा है। इकट्ठा किया है, वह चाहे कितना ही कठोर हो, पाषाणवत हो, वह ___ जो कृष्ण कह रहे हैं दैवी संपदा, आसुरी संपदा, वे दोनों आपके सब प्रार्थना की धार उसे बहा देगी। और केवल वही बच रहेगा, | भीतर हैं। तो जो चोरी कर रहा है, उसके भीतर भी अचोर छिपा है, जो आपकी वास्तविकता है, जो आपकी आत्मा है। इसे पा लेना ही | वह भी नष्ट नहीं हो गया है, उसने उसे दबाया है। जब-जब चोर परमात्मा को पा लेना है। | चोरी करने गया है, तब-तब उसके भीतर छिपे साधु ने कहा है, मत कर, बुरा है, पाप है। छोड़; इससे बच। लेकिन इन आवाजों को उसने अनसुना किया है; इन आवाजों के प्रति वह अपने को बधिर तीसरा प्रश्नः रात आपने कहा कि परम साधु एक बना लिया है; इन आवाजों को उसने दबाया है; इन आवाजों की क्षण में परम असाधु हो सकता है, लेकिन आपने यह | उसने उपेक्षा की है। पर ये वहां भीतर मौजूद हैं। भी कहा है कि अस्तित्व में पीछे लौटने का कोई उपाय जो साधु हो गया है, अचोर हो गया है चोर को दबाकर, उसके नहीं। क्या इसे स्पष्ट करिएगा? | भीतर भी चोर मौजूद है। वह भी कह रहा है कि कहां तु उलझा है! क्या तू कर रहा है। जीवन हाथ से जा रहा है। यह आत्मा-परमात्मा का पक्का नहीं है। स्वर्ग है या नहीं, निश्चित नहीं है। मृत्यु के बाद OT द्वैत स्थिति से पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है, द्वैत | कोई बचता है, किसी ने लौटकर कहा नहीं है। यह सब 1 स्थिति से पीछे लौटने का सदा उपाय है। अद्वैत स्थिति कपोल-कल्पित हो सकता है। यह सब एक जागतिक गप्प हो अस्तित्व की स्थिति है; द्वैत स्थिति माया की स्थिति है। सकती है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने भी जीते-जी कहा है कि आत्मा इसे थोड़ा समझ लें। | अमर है। मरकर लौटकर उन्होंने भी नहीं कहा है। उनकी बात का साधु हम किसे कहते हैं? वह जो असाधु से उलटा है। साधु की | भरोसा क्या है? और उनकी बातों में उलझकर तू जीवन का रस खो परिभाषा कौन करेगा? साधु की परिभाषा असाधु से होगी। अगर रहा है। ये लाख रुपए सामने पड़े हैं, कोई देखने वाला नहीं है, इन्हें असाधु हिंसक है, तो साधु अहिंसक है। अगर असाधु चोर है, तो | तू उठा ले, इन्हें तू भोग ले। साधु अचोर है। अगर असाधु बुरा है, तो साधु भला है। अगर जगत | | साधु के भीतर भी चोर खड़ा है, असाधु के भीतर साधु खड़ा है; में कोई असाधु न हो, तो साधु के होने की कोई जगह नहीं है। | ये मिट नहीं गए हैं। और जो गणित की बात समझने की है, जो असाधु चाहिए साधु होने के लिए, द्वंद्व जरूरी है। | गहरे विज्ञान की बात समझने की है, वह यह कि जिसका हमने इसलिए साधुता, असाधुता दोनों ही माया के अंग हैं। अच्छा | | उपयोग किया है, वह थक जाता है। जैसे मेरे दो हाथ हैं; अगर मैं आदमी भी माया से भरा है, बुरा आदमी भी। दोनों ही अंधे हैं, | बाएं हाथ का उपयोग करूं दिनभर, तो बायां हाथ थक जाएगा; क्योंकि दोनों ने एक हिस्से को चुना है दूसरे के विपरीत। और | और दायां हाथ दिनभर विश्राम करेगा, ज्यादा शक्तिशाली होगा। जिसके विपरीत हम लड़े हैं, उसमें गिर जाने का डर सदा है। किसान जानते हैं कि अगर हमने इस वर्ष फसल एक जमीन पर अगर आपके भीतर चोरी है...सबके भीतर चोरी है; सबके भीतर ले ली है, तो वह थक गई जमीन। जो जमीन बंजर पड़ी रही, छीनने का मन है; सबके भीतर उसके मालिक हो जाने का मन है, जिसका हमने उपयोग नहीं किया, वह थकी नहीं है, वह ऊर्जा से जिसके हम मालिक नहीं हैं। तो चोरी की भावना सबके भीतर है; | | भरी है। सबके भीतर चोर छिपा है। इस चोर से अगर आप राजी हो जाएं, तो अगर आपने अपने भीतर के साधु का उपयोग किया है, तो 302 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवीय लक्षण असाधु शक्तिशाली है, साधु थक गया है। जिसका उपयोग करेंगे, | बिलकुल सस्ते लुटा दिए, चार रुपए में। कोई आ भी नहीं रहा था। वह थकेगा। जो नहीं थका है, जो बैठा विश्राम कर रहा है, वह | तभी अचानक बगल की गली से एक दूसरा आदमी आया एक ठेले शक्तिशाली है। | पर बर्तन लिए और उसने कहा, क्यों लूट रहे हो लोगों को! चार इसलिए मैं कहता हूं कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो | | रुपया? बर्तन तीन रुपए के हैं। सकता है, परम असाधु एक क्षण में परम साधु हो सकता है। दोनों __लोग ठहर गए। एक चिल्ला रहा था, चार रुपए! दूसरा कह रहा तरह की घटनाएं घटती रही हैं। घटने का पीछे विज्ञान है। क्योंकि था कि लूटो मत; बर्तन तीन रुपए के हैं। भीड़ तीन रुपए वाली जिसको आपने पकड़ा है, वह थक गया, ऊब गया। उससे आप दुकान पर लग गई। सब बर्तन थोड़ी ही देर में खाली हो गए। दूसरा बेचैन हो गए हैं। उसको कर-करके भी कुछ बहत पाया नहीं है। चिल्ला रहा है कि त् अपने समव्यवसायी को धोखा दे रहा है। त इसलिए बड़े मजे की बात है, भले लोग रात सपने बुरे देखते हैं; | क्यों मेरे पीछे पड़ा है? तू क्यों मेरे ग्राहक बिगाड़े दे रहा है? बुरे लोग बुरे सपने नहीं देखते, भले सपने देखते हैं। जो थका है, थोड़ी ही देर बाद जब दूसरे के बर्तन समाप्त हो गए, वह ठेले वह रात सोता है; जो नहीं थका, वह सक्रिय होता है। ब्रह्मचारी रात | को लेकर अंदर एक गली में चला गया। दूसरा भी पहुंचा और उसने कामुकता के सपने देखता है; कामी रात सपने देखता है कि उसने कहा, तूने तो कमाल कर दिया भाई। फिर जिसके बर्तन बिलकुल बुद्ध से दीक्षा लेकर वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गया है, वह | नहीं बिके थे, आधे-आधे फिर उन्होंने ठेले पर रख लिए। वे दोनों संन्यस्त हो रहा है। सहयोगी हैं, साझेदार हैं। फिर दूसरी सड़क पर वही शुरू हो गया ___आपका सपना बताएगा आपको कि कौन-सा हिस्सा अनथका | शोरगुल। एक चार रुपए चिल्ला रहा है। दूसरा कह रहा है कि तीन है, जो नींद में भी नहीं सोता। उसका मतलब है, बहुत सजग है। | रुपए! मत लूटो लोगों को। वे तीन रुपए वाले बर्तन बिक रहे हैं। तो जो सजग है, शक्तिशाली है, उसका खतरा है, वह किसी भी | | बाजार में दाम दो रुपए हैं। क्षण में आपको पकड़ ले सकता है। वह जो आपके भीतर चोर है और जो आपके भीतर अचोर है, लेकिन निरंतर मैं कहता हूं, अस्तित्व से लौटने की कोई विधि, । | | उन दोनों की कांस्पिरेसी है, दोनों साझीदार हैं। उनमें से किसी भी कोई व्यवस्था नहीं है। कोई पीछे नहीं लौटता अस्तित्व में। माया में | | एक की आपने सुनी, तो दूसरे के जाल में भी आप गिरे। तो पीछे लौटता है, क्योंकि द्वंद्व है। | यह जरा समझना कठिन है। और यहीं से धर्म की यात्रा शुरू ___ इसलिए हमारे पास एक और शब्द है, वह शब्द साधु का | | होती है। नीति और धर्म का यही फर्क है। पर्यायवाची नहीं है। वह शब्द है, संत। संत का अर्थ है, जो न साधु नीति कहती है, भीतर जो साधु है, उसकी सुनो। धर्म कहता है, है न असाधु। जिसने दोनों का ही उपयोग करना बंद कर दिया है, दोनों की मत सुनो; सुनो भी, तो साक्षी रहो। दोनों की मानो मत, जो दोनों में से किसी को भी नहीं चुनता; जो चुनावरहित, क्योंकि उन दोनों की सांठ-गांठ है। वे दोनों एक ही धंधे में साझीदार च्वाइसलेस है। जो न बाएं को चुनता है, न दाएं को। जो दोनों का हैं। एक की सुनी, तो दूसरे के चक्कर में तुम पड़े। जब तक एक साक्षी मात्र है। उसके भीतर चोर भी बोलता है, तो उसको भी सुनता तुम्हें चूसेगा, तब तक दूसरा विश्राम करेगा। जब तुम एक से थक है। उसके भीतर साधु बोलता है, उसको भी सुनता है। मानता किसी जाओगे, दूसरा तुम पर हावी हो जाएगा। और ये दिन और रात की की भी नहीं। द्वंद्व को खड़ा नहीं होने देता। क्योंकि जब आप एक तरह अनंत जन्मों तक चल सकती है यह प्रक्रिया। यह रोज चल की मानेंगे, तों द्वंद्व खड़ा होगा। जब आप दोनों की सुनते हैं, मानते | रही है। किसी की भी नहीं; जब आप दोनों के साक्षी बने रहते हैं, विटनेस ___ सुबह आप भले आदमी होते हैं, दोपहर बुरे आदमी हो जाते हैं, बने रहते हैं; और आप कहते हैं, दोनों द्वंद्व खेल है, और ये दोनों | | सांझ भले आदमी हो जाते हैं। आप गलती में हैं अगर आप सोचते की साजिश है, और ये दोनों साथी हैं...। हैं कि दुनिया में साधु कटे हैं और असाधु अलग हैं। ऐसा नहीं है। मैंने सुना है, एक सड़क पर एक आदमी बर्तन बेच रहा था। जो सभी के साधु क्षण हैं, सभी के असाधु क्षण हैं। बर्तन बाजार में दो रुपए में मिलते हैं, वह उनके चार-चार रुपए दाम, सुबह-सुबह आप उठे हैं, तब साधु क्षण आप पर भारी होता है; मांग रहा था। एक ठेले पर जोर से आवाज लगा रहा था कि | | भोर होती है, जीवन ताजा होता है, रातभर का विश्राम होता है, 1303 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उपद्रव इतनी देर शांत रहे होते हैं, साधु क्षण होता है। भिखमंगे | थोड़ा-सा खोजेंगे, तो पाएंगे, उसमें रस है। सुबह भीख इसीलिए मांगने आते हैं। सांझ को कोई उन्हें भीख देने __ किसी के मकान में आग लग गई है, तब आप अपना स्वाध्याय वाला नहीं है। सुबह साधु क्षण को फुसलाया जा सकता है। । | करना। जब आप जाकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं कि सबह-सबह एक आदमी उठा है. उसके सामने कोई भीख बहत बरा हआ. ऐसा नहीं होना चाहिए. तब अपना आप निरीक्षण मांगता है, तो इनकार करना मुश्किल है। सांझ एक आदमी दिनभर | | करना कि भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि अपना मकान नहीं दुकान में बेईमानी करके लौटा है। उससे दया पाने की आशा करनी | | जला, दूसरे का जला! भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि हम कठिन है। सहानुभूति बताने की स्थिति में हैं और तुम सहानुभूति लेने की स्थिति आपके भी क्षण होते हैं। दिन में आप कई बार साधु और कई | | में हो! कि अच्छा मौका मिला कि आज हमारा हाथ ऊपर है! बार असाधु होते हैं। और यह रूपांतर चलता रहता है। इस द्वंद्व के __ और वह आदमी अगर आपकी सहानुभूति न ले, तो आपको बाहर जाने का एक ही उपाय है कि हम दोनों में चुनना बंद कर दें। | पता चल जाएगा। वह कह दे, कुछ हर्जा नहीं, बड़ा ही अच्छा हुआ ___ संतत्व अस्तित्व है; साधुता, असाधुता माया है। संतत्व से कोई | | कि मकान जल गया; सर्दी के दिन थे, और ताप मिल रहा है; बड़ा पीछे नहीं गिरता। क्योंकि जिसका साक्षी सध गया. उसके पीछे कछ आनंद आ रहा है। तो आप दखी घर लौटेंगे. क्योंकि उस आदमी बचता ही नहीं, जहां गिर सके। द्वंद्व खो गया; स्वप्न टूट गया। वह ने आपको मौका नहीं दिया ऊपर चढ़ने का। एक मुफ्त अवसर जो षड्यंत्र था द्वैत का, वह शेष न रहा। गिरने की कोई जगह नहीं | मिला था, जहां आप दान कर लेते बिना कुछ दिए; जहां बिना कुछ है। संत को गिरने की कोई जगह नहीं है। कुछ बचा नहीं, जहां वह | बांटे आप सहानुभूति का सुख ले लेते, वह मौका उस आदमी ने गिर सके। नहीं दिया। आप उस आदमी के दुश्मन होकर घर लौटेंगे। साधु गिर सकता है, इसलिए साधुता कोई बड़ी उपलब्धि नहीं ध्यान रहे, अगर आप किसी को सहानुभूति दें और वह आपकी है। खेल से ज्यादा नहीं है। संतत्व उपलब्धि है, लेकिन बड़ी दूभर | | सहानुभूति न ले, तो आप सदा के लिए उसके दुश्मन हो जाएंगे, है। क्योंकि पहली ही शर्त, चुनना नहीं। पहली ही शर्त, ज्ञान में | आप उसको कभी माफ न कर सकेंगे। ठहरना, जागरूकता में रुकना। पहली ही शर्त, साक्षी हो जाना। इसको पहचानना हो, तो दूसरे छोर से पहचानना आसान है। अब हम सूत्र को लें। सभी को लगता है कि नहीं, यह बात ठीक नहीं। दूसरे के दुख में दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं: अहिंसा, सत्य, | हमें दुख होता है। इसे छोड़कर दूसरे छोर से पहचानें, दूसरे के सुख अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब में क्या आपको सुख होता है? भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र | अगर दूसरे के सुख में सुख होता हो, तो ही दूसरे के दुख में दुख के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज, | | हो सकता है। और अगर दूसरे के सुख में पीड़ा होती है, तो गणित क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह साफ है कि दूसरे के दुख में आपको सुख होगा, पीड़ा नहीं हो अर्थात किसी में भी शत्र-भाव का न होना और अपने में पज्यता के | सकती। अगर दूसरे का सुख देखकर आप जलते हैं, तो दूसरे का अभिमान का अभाव-ये सब तो, हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त दुख देखकर आप प्रफुल्लित होते होंगे। चाहे आपको भी पता न हुए पुरुष के लक्षण हैं। चलता हो, चाहे आप अपने को भी धोखा दे लेते हों. लेकिन भीतर एक-एक लक्षण को समझें। आपको मजा आता होगा। अहिंसा...। अखबार सुबह से उठाकर आप देखते हैं। अगर कोई उपद्रव न अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग। छपा हो, कहीं कोई हत्या न हुई हो, गोली न चली हो, तो आप थोड़ी हम सबको दूसरे को दुख पहुंचाने में रस आता है। दूसरे को दुखी | | देर में उसको ऐसा उदास पटक देते हैं। कहते हैं, कुछ भी नहीं है, कोई देखकर हममें सुख का जन्म होता है। यह जरा कठिन लगेगा, | | खबर ही नहीं! आप किस चीज की तलाश में हैं? आप कहीं दुख क्योंकि हम कहेंगे, नहीं, ऐसा नहीं। दूसरे में दुख देखकर हममें खोज रहे हैं, तो आपको लगता है, यह समाचार है, कुछ खबर है। सहानुभूति जन्मती है। लेकिन अगर आप अपनी सहानुभूति को भी जब भी आप दुखी आदमी को देखते हैं, तो तुलनात्मक रूप से 304 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवीय लक्षण * आप अनुभव करते हैं कि आप सुखी हैं। और न केवल साधारणजन, | | है। बोधपूर्वक अहिंसा के सार-तत्व को पकड़ने की बात है। बल्कि नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अगर तुम्हारा एक पैर | | मैं रोज देखता हूं, तो बड़ा जीवन विरोधों से भरा हुआ मालूम टूट गया है, तो दुखी मत होओ। देखो, ऐसे लोग भी हैं, जिनके दो | | पड़ता है। पैर टूटे हुए हैं। उनको देखो! तो निश्चित ही अगर आपका एक पैर | | एक क्वेकर साधु पुरुष था। क्वेकर ईसाइयों का एक संप्रदाय है, टूट गया है, तो दो पैर टूटे आदमी को देखकर आपके जीवन में | | जो अहिंसा में पक्का भरोसा करता है। जैनों जैसा संप्रदाय है अकड़ आ जाएगी। आपको लगेगा कि कुछ हर्जा नहीं, ऐसा कुछ | ईसाइयों का। किसी को मारना नहीं। तो क्वेकर अपने हाथ में बंदूक ज्यादा नहीं बिगड़ गया है; दुनिया में और भी बुरी हालतें हैं। या अस्त्र-शस्त्र भी नहीं रखते, अपने घर में भी नहीं रखते। लेकिन नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अपने से पीछे देखो; यह क्वेकर्स की मान्यता है कि जब किसी को मरना है, किसी की अपने से ज्यादा दुखी को देखो, तो तुम हमेशा सुखी अनुभव घड़ी आ गई, तो परमात्मा उसे खुद उठा लेगा, किसी को उसे मारने करोगे। अपने से सुखी को देखोगे, तो हमेशा दुखी अनुभव करोगे। की जरूरत नहीं है। अगर अपनी घड़ी मरने की आ गई, तो परमात्मा ___ पर यह बात ही बुरी है। इसका मतलब हुआ कि दूसरे को दुखी | हमें उठा लेगा। तो अस्त्र-शस्त्र का क्या प्रयोजन है! देखकर आपको कुछ सुख मिल रहा है। यह कोई बड़ी नैतिक शिक्षा लेकिन यह साधु पुरुष जब भी चर्च जाता-चर्च दूर था इसके न हुई। और यह कोई भला संदेश न हुआ। गांव से—तो वह एक पिस्तौल लेकर जाता। और वह जाहिर कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदायुक्त व्यक्ति का लक्षण होगा अहिंसा।। अहिंसक था। तो मित्रों ने पूछा कि तुम भाग्य को मानते हो, अहिंसा अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख न पहुंचाने की वृत्ति। और यह को मानते हो, तुम किसी को मारना भी नहीं चाहते, तुम यह भी तभी हो सकता है, जब दूसरे के दुख में हमें सुख न हो। और यह | जानते हो कि जब तक परमात्मा की मरजी न हो, तब तक तुम्हें कोई तभी होगा, जब दूसरे के सुख में हमें सुख की थोड़ी-सी भाव-दशा | | मार नहीं सकता, तो तुम पिस्तौल लेकर किसलिए जा रहे हो? बनने लगे। उस क्वेकर ने क्या कहा! उसने कहा कि मैं अपने बचाव के लिए तो अहिंसा कहां से शुरू करिएगा? पानी छानकर पीजिएगा, तो पिस्तौल लेकर नहीं जा रहा हूं। लेकिन इस पिस्तौल से अगर अहिंसा शुरू होगी? मांसाहार छोड़ने से अहिंसा शुरू होगी? ये | | परमात्मा को किसी को मारना हो, तो यह मौजूद रहनी चाहिए। सब गौण बातें हैं। छोड़ दें तो अच्छा है, लेकिन उतने से अहिंसा अगर मेरा उपयोग करना हो परमात्मा को...। शुरू नहीं होती। इस क्वेकर के घर में एक रात एक चोर घुस गया, तो उसने अहिंसा शुरू होती है, जब कोई सुखी हो, तो वहां सुख अनुभव | अपनी पिस्तौल उठा ली। चोर एक कोने में दबा हुआ खड़ा है। उस करें। दूसरे के सुख को अपना उत्सव बनाएं। और जब कोई दुखी | | कोने की तरफ धीमा-सा प्रकाश है; रात का नीला प्रकाश होता हो, तो दुख अनुभव करें; और दूसरे के दुख में समानुभूति में थोड़ा-सा, पांच कैंडल का बल्ब है। वह कोने में छिप उतरें। दूसरे की जगह अपने को रखें, चाहे सुख हो, चाहे दुख। इसने कोने की तरफ पिस्तौल की और कहा कि मित्र, तुम्हें मैं नहीं दूसरे की जगह स्वयं को रखने की कला अहिंसा है। कोई सुखी | | मार रहा हूं; लेकिन जहां मैं गोली चला रहा हूं, तुम वहीं खड़े हो! है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके सुख को अनुभव | __ लेकिन यह हमें हंसी योग्य बात लगती है, लेकिन सारी दुनिया करें, और प्रफुल्लित हो जाएं। कोई दुखी है, तो उसकी जगह अपने | | के अहिंसक इसी तरह के तर्क...। क्योंकि हिंसा तो बदलती नहीं, को रखें, और उसके दुख में लीन हो जाएं, जैसे वह दुख आप पर | ऊपर से आचरण थोप लिया जाता है! ही टूटा हो। तब आप पाएंगे कि जीवन में अहिंसा आनी शुरू हुई। क्वेकर पक्के अहिंसक हैं। दूध भी नहीं पीते। कहते हैं, दूध खून ___ पानी छानकर पीना और मांसाहार छूट जाना बड़ी सरल बातें हैं, | है, आधा खून है, इसलिए पाप है। दूध से बनी कोई चीज नहीं लेते। जो इस भाव-दशा के बाद अपने आप घट जाएंगी। लेकिन कोई क्योंकि वह एनिमल फुड है। कितना ही पानी छानकर पीए, सात बार छानकर पीए, तो भी अहिंसा । ये जो सोचने के ढंग हैं, इनमें से तरकीबें निकल आती हैं। अंडा नहीं होने वाली। मांसाहार बिलकुल न करे, तो भी अहिंसा होने वाली खाते हैं, क्वेकर अंडा खाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, अंडा, जब तक नहीं। ये सिर्फ आदतें हो जाती हैं। आदतों का कोई बड़ा मूल्य नहीं बच्चा उसके बाहर नहीं आ गया, तब तक उसमें कोई जीवन नहीं पा खडा है। 305 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * है। अंडे को खाने में कोई पाप नहीं है। दूध पीने में पाप है, क्योंकि बनिये ने कहा, एक दो मिनट रुक जा। क्योंकि मैं घर लौटकर वह खून है। | जाकर अपने बच्चे और पत्नी को समाप्त कर आऊं हो सकता ___ और जीवन की सारी व्यवस्था हम इस ढंग की कर ले सकते हैं है, मैं मर जाऊं; मेरे कारण मेरे बच्चे और पत्नी भूखे मरें, यह मुझे कि ऊपर से लगे कि सब अहिंसा है और भीतर सारी हिंसा जारी रहे। बरदाश्त के बाहर है। और मैं तुझे भी सलाह देता हूं, तू भी घर __ जैनों ने अहिंसा का बड़ा प्रयोग किया, लेकिन उनकी सारी हिंसा जा; बच्चे और पत्नी को खतम कर आ। क्योंकि हो सकता है, तू धन को इकट्ठा करने में जुट गई। तो उन्होंने खेती-बाड़ी छोड़ दी, मर जाए। क्योंकि उसमें हिंसा है। पौधा काटेंगे, तो हिंसा होगी; इसलिए जैनों | क्षत्रिय ने कहा, बात बिलकुल ठीक है। वह घर गया। वह साफ ने खेती-बाड़ी छोड़ दी। क्षत्रिय होने का उपाय न रहा उनका, | करके आ गया। बनिया घर गया, कापस लौटकर उसने कहा, मैंने क्योंकि वहां युद्ध में हिंसा होगी। इरादा बदल दिया; मैंने मूंछ नीची कर ली। तो उनके व्यक्तित्व की सारी हिंसा, जो युद्ध में निकल सकती यह जो बनिया है, हिंसक तो नहीं है, लेकिन इसकी हिंसा थी, खेती-बाड़ी में निकल सकती थी...। चालाकी बन जाएगी। __ आप जानकर हैरान होंगे कि किसान, माली भले लोग होते हैं, तो जैनों की सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में लगी; सब उपाय क्योंकि उनकी हिंसा निकल जाती है। एक किसान दिनपर काट रहा | | बंद हो गए। और धन सबसे सुविधापूर्ण साधन है दूसरे को दुख है जंगल में, लकड़ी काट रहा है, पौधे उखाड़ रहा है, तो उसकी | | देने का। इससे ज्यादा आसान कोई तरकीब नहीं है। किसी की छाती जितनी क्रोध की वृत्ति है, वह सब इस उखाड़ने, तोड़ने में, मिटाने | में छुरा मारो, वह भी उपद्रव है, क्योंकि उसमें खुद को भी छुरा में निकल जाती है। वह भला आदमी ह्येता है। किसान सरल | भोंका जाए, इसका डर सदा है। लेकिन धन चूस लो, दूसरा वैसे आदमी होता है। | ही मर जाता है बिना छुरा मारे। और दूसरे को इससे ज्यादा दुखी क्षत्रिय भी सरल आदमी होता है, क्योंकि युद्ध के मैदान पर लड़ करने की कोई सुविधापूर्ण व्यवस्था नहीं है कि तुम धन इकट्ठा कर लेता है। कुछ भी बचता नहीं, सब निकल आता है। इसलिए क्षत्रिय | लो। तुम धन इकट्ठा करते जाओ, दूसरा निर्धन होता जाए। वह भोले होते हैं। क्षत्रिय को आप जितनी आसानी से धोखा दे सकते मरता जाता है अपने आप। वह उसे इकट्ठा जहर देने की जरूरत हैं, दुकानदार को नहीं दे सकते, बनिया को नहीं दे सकते। होना नहीं है। एक-एक बूंद उसमें जहर उतरता जाता है। चारों तरफ सब चाहिए था उलटा; क्योंकि वह हिंसक है, दुष्ट है, उसको धोखा | | सूख जाता है। सारा जीवन तुम शोषित कर लेते हो। देना मुश्किल होना चाहिए। लेकिन ऐसी बात नहीं है। उसको धोखा ___ तो जैन बड़ी अहिंसा साधा। लेकिन वह अहिंसा चूंकि देना बिलकुल आसान है। ऊपर-ऊपर थी, नैतिक थी; वह अहिंसा मौलिक आधार से नहीं मैंने सुना है, राजस्थान की एक कथा है, कि एक गांव का एक जन्मी। वह महावीर की अहिंसा नहीं थी। इस जैन की, पीछे चलने क्षत्रिय राजपूत बड़ा अकड़ीला आदमी था। वह अपने गांव में किसी वाले की अपने मन की, गणित की, अपनी बुद्धि की खोज थी। तो को मुंछ सीधी नहीं करने देता था; सिर्फ अकेली अपनी मूंछ सीधी | जटिल हो गया। और शोषण के रूप में अहिंसा दब गई और हिंसा रखता था। दूसरा अगर उसके घर के सामने दूसरे गांव का भी | व्यापक हो गई। आदमी निकले, तो कहता था, मूंछ नीची कर। इससे झगड़े, | | अहिंसा लक्षण है इस अर्थ में कि आप अपने मन से दूसरे को दंद-फंद हो जाते थे, तलवारें खिंच जाती थीं। | दुख देने का भाव विसर्जित कर दें। शुरू करना होगा दूसरे के सुख एक नया बनिया गांव में आया, जवान था। और वह भी मूंछ | | में सुख लेना। क्योंकि सुख लेना आसान है, दुख लेना कठिन है। सीधी रखने का शौकीन था। क्षत्रिय के घर के सामने से निकला। अपना ही दुख झेलना मुश्किल होता है, दूसरे का दुख झेलना उस क्षत्रिय ने कहा, मूंछ सीधी नहीं चल सकती। इस गांव में एक तो और मुश्किल हो जाएगा। आप अपने ही दुख से काफी परेशान ही मूंछ सीधी रह सकती है; दो तलवारें एक म्यान में नहीं चलेंगी; हैं, अगर हर एक का दुख लेने लगें और हर एक का दुख झेलने तू मूंछ नीची कर ले। बनिये ने कहा, क्यों? मूंछ नीची नहीं होगी! लगें; हर घर में आदमी मरेगा, अगर आप हर घर में बैठकर रोने तलवारें खिंच गईं। आपका कोई मर गया हो-यह कठिन होगा। इससे 3061 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवीय लक्षण शुरुआत नहीं हो सकती। पहुंचाने का मौका हो, तो हम कहते हैं, हम झूठ कैसे बोल सकते इसलिए शुरुआत का सूत्र है, दूसरे के सुख से शुरू करें। जब हैं! सच बोलना ही पड़ेया। खुद पर चोट पहुंचती हो, तो हमारे तर्क दसरे के जीवन में फल खिले. तो आपके जीवन में नाच आए। यह | बदल जाते हैं। आसान होगा। हालांकि बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि अभी हमें | मैंने सुना है, एक सुबह मुल्ला नसरुद्दीन अपनी छपरी में बैठा सुख देखकर तो बड़ी पीड़ा होती है; दुरूहतम मालूम होगा। लेकिन | | हुआ है। अचानक वर्षा का झोंका आया। गांव का जो मौलवी है, साधना दुरूह है। वह ऊंचे पहाड़ चढ़ने जैसा प्रयोग है। और यह | | वह पानी की बूंदें पड़ी तो तेजी से भागा। नसरुद्दीन ने कहा, रुको, ऊंचे से ऊंचा पहाड़ है, दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना। तो | | यह परमात्मा का अपमान है। मौलवी भी घबड़ा गया; क्योंकि आपका जीवन एक तरफ उत्सव से भर जाएगा। नसरुद्दीन वजनी आदमी था। और गांव में खबर हो जाए। और और तब दूसरा प्रयोग है, दूसरे के दुख में दुख अनुभव करना, | | उससे कह रहा था, तो उसका कुछ मतलब होगा। उसने कहा, क्या तब आपके जीवन में अंधकार भी भर जाएगा, प्रकाश और | | मतलब? तो उसने कहा, जब परमात्मा वर्षा कर रहा है, तो तुम अंधकार दोनों। लेकिन चूंकि दूसरे के दुख में आप दुखी हो रहे हैं | उसका अपमान कर रहे हो भागकर। धीमे-धीमे जाओ। मौलवी को और दूसरे के सुख में आप सुखी हो रहे हैं, आपका साक्षी-भाव | भी बात समझ में आई। बेचारा धीरे-धीरे घर तक गया; भीग गया दोनों में निर्मित हो सकेगा। आप दोनों अनुभव में डूबकर भी बाहर | वर्षा में। बूढ़ा आदमी था, बुखार आ गया। रह सकेंगे। वह तीसरे दिन अपने बिस्तर में बुखार में बैठा हुआ था, तब जब आपका खुद का दुख आता है, तो आप एकदम भीतर हो | | उसने खिड़की से देखा कि वर्षा का फिर झोंका आया और नसरुद्दीन जाते हैं, आप उस दुख में लीन हो जाते हैं। जब आप दूसरे के दुख बाजार से भागा जा रहा है। तो उसने कहा, रुक, नसरुद्दीन! भूल में डूबेंगे, तो आप कितने ही लीन हो जाएं, आपका आंतरिक | | गया? तो नसरुद्दीन रुका नहीं, भीतर भागता हुआ घर में आया और आत्यंतिक हिस्सा बाहर खड़ा देखता रहेगा। जब आप पर सख उसने कहा कि नहीं, भला नहीं। इसीलिए भाग रहा है कि परमात्मा आता है, तो आप उसमें उत्तेजित हो जाते हैं। दूसरे के सुख में आप | पानी गिरा रहा है, उसके पानी पर कहीं मेरे नापाक पैर न पड़ जाएं। कितने ही डूबें, उत्तेजित न हो पाएंगे। वह एक धीमा, सौम्य उत्सव | | गंदा आदमी हं, नहाया भी नहीं। ये गंदे पैर उसके पानी पर न पड़ होगा, और आपके भीतर का साक्षी जगा रहेगा। जाएं, इसीलिए तो भाग रहा हूं। भूला नहीं हूं। और ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे के सुख-दुख में साक्षी हो गया, बस, यही हमारे सबके तर्क हैं। जब खुद पर चोट पड़ती हो, तो वह धीरे-धीरे अपने सुख-दुख में भी साक्षी हो सकेगा। क्योंकि | | हम झूठ को सच बना लेते हैं। जब दूसरे पर चोट पड़ती हो, तो हम थोड़े ही समय में उसे पता चलेगा, सुख-दुख न तो मेरे हैं, न दूसरे सच का भी झूठ की तरह उपयोग करते हैं, हिंसक उपयोग करते हैं। के हैं। सुख-दुख घटनाएं हैं, जिनका मेरे और तेरे से कुछ कुछ लोग सच बोलने में बड़ा रस लेते हैं, क्योंकि सच से काफी लेना-देना नहीं है। सुख-दुख बाहर परिधि पर घटते हुए धूप-छाया | |चोट पहुंचाई जा सकती है। तब मजे की बात यह है कि झूठ के खेल हैं, जो मेरे आंतरिक केंद्र को छूते भी नहीं, जिनसे मैं | | बोलकर भी हम दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं और सच बोलकर अस्पर्शित रह जाता हूं। भी नुकसान पहुंचाते हैं। हमारा लक्ष्य सदा एक है; हिंसा हमारा सत्य...। लक्ष्य है। सत्य से इतना ही अर्थ नहीं है कि सच बोलना। सत्य से अर्थ है,। | इसलिए सत्य का अर्थ केवल सच बोलना नहीं है। सत्य का प्रामाणिक होना, आथेंटिक होना। सत्य से अर्थ है, जैसे आप भीतर अर्थ है, प्रामाणिक होना। सत्य का अर्थ है कि जैसा मैं भीतर हूं, हैं, वैसे ही बाहर होना। लेकिन लोग सत्य का यह अर्थ नहीं लेते। | वैसा ही बाहर होना, परिस्थिति की बिना फिक्र किए कि क्या होगा लोग सत्य का अर्थ लेते हैं, सच बोलना। वह सिर्फ गौण हिस्सा है।। परिणाम। इसे थोड़ा समझ लें। और सच बोलना...हमारा मन जैसा चालाक है, उसमें हम सच | ___ जो व्यक्ति परिणाम की चिंता करता है, वह सत्य नहीं हो बोलने का भी दुरुपयोग कर लेते हैं। हम तब सच बोलते हैं, जब सकता। क्योंकि कई बार अच्छे परिणाम झूठ से आ सकते हैं। कम सच से दूसरे को चोट पहुंचती हो। और अगर दूसरे को चोट से कम जहां तक हमें दिखाई पड़ता है, वहां तक आ सकते हैं। 307 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* एक आदमी को फांसी लग रही है, आप झूठ बोल दें, बच | सकता है, जब आप दूसरे को दोष देना बंद कर दें। सकता है वह आदमी। झूठ बोलने से, आपके देखने में तो जहां | | क्रोध का तर्क क्या है? क्रोध का तर्क एक ही है कि दूसरा तक मनुष्य की बुद्धि जाती है, यह परिणाम हो रहा है कि एक | भूल-चूक कर रहा है, दूसरा गलत कर रहा है। दूसरा ऐसा कर रहा आदमी का जीवन बच रहा है। अगर परिणाम की आप चिंता करेंगे, | है, जैसा उसको नहीं करना चाहिए। इससे आप भभकते हैं। तो सौ में निन्यानबे मौकों पर लगेगा कि झूठ से अच्छे परिणाम आ | अक्रोध की भाव-दशा तब निर्मित होगी. जब आप समझेंगे कि सकते हैं, सत्य से बुरे परिणाम आ सकते हैं। दूसरा जो कर रहा है, वह वही कर सकता है। दूसरा उसको इससे सत्य का अर्थ है कि परिणाम की चिंता ही मत करना। जैसा हो, अन्यथा करने का उपाय नहीं है। अगर एक आदमी आपको गाली दे उसे बेशर्त, बिना आगे-पीछे देखे, वैसा ही रख देना। भविष्य को | रहा है, तो आप सोचते हैं, इसे गाली नहीं देनी चाहिए। यह आदमी सोचना ही मत, फल को सोचना ही मत। | गलती कर रहा है, बुरा कर रहा है। इसलिए क्रोध भभकता है। कृष्ण का बहुत जोर है इस बात पर कि जो फल को सोचेगा, वह | अगर आप इस आदमी का पूरा अनंत जीवन जानते हों अतीत भटक जाएगा। जैसा हो, वैसा उसे प्रकट कर देना; अपने को | का, तो आप कहेंगे, यह गाली इसमें ऐसे ही लग रही है, जैसे किसी बाहर-भीतर एक-सा कर देना, अपने को उघाड़ देना, सत्य है। | पौधे में फूल लगते हैं। वे बीज में ही छिपे थे। बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते और वह दैवी संपदा का अनिवार्य हिस्सा है। वृक्ष बड़ा होता है, फिर फूल आते हैं। वे फूल कड़वे होते हैं, कि अक्रोध...। | सुगंधित होते हैं, कि सुंदर होते हैं, कि कुरूप होते हैं, यह बीज में साधारणतः आप सोचते हैं कि कभी-कभी आप क्रोध करते हैं। ही छिपे थे। यह बात झूठ है, यह बात बिलकुल ही झूठ है। आप चौबीस घंटे | ये गालियां इस आदमी में लग रही हैं, इसका मुझसे कुछ क्रोध में रहते हैं। कभी-कभी क्रोध उबलता है और कभी-कभी लेना-देना नहीं है। यह इस आदमी का स्वभाव है. यह इस आदमी कुनकुना रहता है, बस। कुनकुने की वजह से पता नहीं चलता। | | के जीवन का ढंग है, यह इसकी उपलब्धि है कि गालियां बक रहा क्योंकि उसकी आपको आदत है। उतने में तो आप जी ही रहे हैं | | है। मैं सिर्फ बहाना हूं। अगर मैं यहां न होता, तो कोई दूसरा इसकी सदा से। | गाली खाता; वह भी नहीं होता, तो कोई तीसरा गाली खाता; कोई आप अपने को पहचानें, निरीक्षण करें, तो आपको समझ में | भी नहीं होता, तो यह शून्य में गाली देता; लेकिन गाली देता। यह आएगा कि चौबीस घंटे आप में हल्का-सा क्रोध बना रहता है। गाली इसके कर्मों की अभिव्यक्ति है। कभी इस चीज के प्रति, कभी उस चीज के प्रति। कभी कोई भी अक्रोध तब पैदा होगा, जब आप समझेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति कारण न हो, तो अकारण। अगर आपको चौबीस घंटे कमरे में बंद | अपनी नियति में चल रहा है। आपसे कुछ लेना-देना नहीं है। आपसे कर दिया जाए, जहां कोई कारण न दे आपको क्रोधित होने का, तो | रास्ते पर मिलना हो जाता है, इससे आप अकारण परेशान न हों। भी आप क्रोधित होंगे। तो आप इस पर ही क्रोधित होने लगेंगे कि ___ एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह अपने शिष्यों को नाव में ले कुछ भी नहीं हो रहा है; कोई भी नहीं है! कि मैं यहां बैठा क्या कर | जाता था। और जब वह नाव को ले जाता, तो एक किनारे पर उसने रहा है! कि मझे यहां क्यों बिठाया गया है! अकेले में क्यों छोड़ा | एक मल्लाह रख छोड़ा था। एक झाड़ी की आड़ में वह मल्लाह एक गया है! नाव को छिपाए रखता। जब इसकी नाव निकलती, तो खाली नाव क्रोध आपकी दशा है। हम सब सोचते हैं कि क्रोध घटना है। को वह झाड़ी के भीतर से धक्का देता। वह खाली नाव आकर इसलिए हम सोचते हैं, क्रोध कभी-कभी आता है, यह कोई ऐसी | | रिझाई की नाव को टकरा जाती। कोई भी कुछ नहीं बोलता, क्योंकि बात नहीं है कि सदा है। लेकिन क्रोध सदा है। कभी-कभी कोई | | खाली नाव से क्या गाली बकनी, क्या झगड़ा करना। शिष्य भी चिनगारी डाल देता है, तो आपकी बारूद भभक उठती है। लेकिन | हिल-डुलकर बैठकर रह जाते। फिर दुबारा कभी वह मल्लाह नाव बारूद सदा है। बारूद न हो, तो चिनगारी डालने से भी भभकेगी | | में बैठकर और टक्कर देता; तब वे सारे शिष्य उबल पड़ते। नहीं। | तो रिझाई कहता कि एक दफे पहले भी यह हुआ था, जब नाव अक्रोध का अर्थ है, चौबीस घंटे एक शांत स्थिति। यह तभी हो हमसे टकरा गई थी, तुम सब चुप रहे थे। वे कहते, तब यह आदमी 3081 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैवीय लक्षण उसमें नहीं था । और खाली नाव को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। खाली नाव से क्या कहना ! संयोग की बात है। लेकिन यह आदमी बैठा है, यह रिस्पांसिबल है, यह जिम्मेवार है, इससे झगड़ा किया जा सकता है। लेकिन रिझाई कहता कि आदमी बैठा हो, या न बैठा हो, यह संयोग की बात है कि नाव टकरा गई। और तुम दोनों स्थितियों में एक-सा व्यवहार करो, तो अक्रोध जन्मेगा ! कोई व्यक्ति क्या कर रहा है, वह उसकी अपनी नियति है । तुम अकारण उसे अपने ऊपर मत लो। तुम व्यर्थ ही मत समझो कि सारी दुनिया तुम पर हंस रही है; कि सारी दुनिया तुम्हारे संबंध में ही फुसफुस कर रही है; कि सारे लोग तुम्हारे संबंध में सोच रहे हैं, कि तुम्हें कैसे बरबाद कर दें; कि सब तुम्हारे दुश्मन हैं। किसी को तुम्हारे लिए इतनी फुरसत नहीं है । सब अपने-अपने गोरखधंधे में लगे हैं। तुम अकारण बीच में खड़े हो। तुम व्यर्थ ही बीच में चीजें झेल लेते हो। जैसे ही कोई व्यक्ति इस बात को ठीक से देखने लगता है कि हर व्यक्ति अपने ढंग से जा रहा है, और जो भी उसमें हो रहा है, वही उसमें हो सकता है, तब एक स्वीकृति पैदा होती है; तब क्रोध नहीं जन्मता; तब तथाता का भाव निर्मित होता है। तब हम कहते हैं कि जो होना था, वह हुआ है। इस व्यक्ति से जो हो सकता था, इसने किया है। तब अक्रोध । अक्रोध बहुमूल्य है; दैवी संपदा में बड़ा मूल्यवान है। और ये दैवी संपदा के जो सूत्र हैं, इनमें से एक सध जाए, तो दूसरे अपने आप सध जाते हैं। इसलिए ऐसा मत सोचना कि एक-एक को साधना पड़ेगा। एक भी सध जाए, तो उसके पीछे दूसरे गुण अपने आप चले आते हैं, क्योंकि वे सब गुण संयुक्त हैं। जो आदमी अक्रोध साधेगा, उसकी अहिंसा अपने आप सध जाएगी। जो आदमी अक्रोध साधेगा, वह अभय हो जाएगा। क्योंकि जो क्रोध ही नहीं करता, अब उसको भयभीत कौन कर सकता है? अगर वह भयभीत हो सकता था, तो क्रोधित होता । क्योंकि क्रोध भयभीत हो जाने के बाद अपनी रक्षा का उपाय है; वह डिफेंस मेजर है। उसके द्वारा हम अपना बल जगाते हैं और तत्पर हो जाते हैं कि आ जाओ, हम निपट लें। वह भय की सुरक्षा है। और जो आदमी अक्रोध को उपलब्ध हो गया, जो कहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति से चल रहा है, मैं भी अपनी नियति से चल रहा हूं, वह क्यों छिपाएगा कुछ ! किससे छिपाना है ? परमात्मा के सामने मैं उघड़ा हुआ हूं। और यहां किससे क्या छिपाना है। किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। तब वह आदमी खुली किताब की तरह हो जाएगा। ये सब गुण संयुक्त हैं। चर्चा के लिए अलग-अलग ले लिए हैं। इससे आप ऐसा मत समझना कि ये अलग-अलग हैं। और आपको इतने गुण साधने पड़ेंगे ! आप नाहक घबड़ा जाएंगे। आप सोचेंगे, इतने गुण ! अपने बस बाहर है। और इतनी छोटी जिंदगी ! यह होने वाला नहीं है। इनमें से एक साध लें, और आप | पाएंगे कि बाकी उनके पीछे आने शुरू हो गए हैं। त्याग...। एक तो रस है भोग का, जिसे हम जानते हैं। एक और रस है त्याग का, जिसे हम नहीं जानते हैं। या शायद कभी-कभी कोई क्षण में हम जानते हैं। कभी आपने देखा ; जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो एक खुशी आपको पकड़ लेती है। किसी को सहारा दे देते हैं, कोई रास्ते पर गिर रहा हो और आप हाथ बढ़ा देते हैं; एक अहोभाव, एक आनंद की थिरक आप में समा जाती है। हृदय में | कुछ संगीत बजने लगता है। 309 जब भी आप कुछ छोड़ते हैं, तभी आपके भीतर कुछ फैलता है। आप थोड़े विराट हो जाते हैं। इसकी झलकें सबको मिलती हैं। | उन झलकों को अगर हम समाहित करते जाएं, उन झलकों को अगर हम धीरे-धीरे विकसित करते जाएं, उनका अभ्यास गहन होने लगे, वे झलकें हमारे जीवन का पथ बन जाएं, तो उस पथ का नाम त्याग है। त्याग का अर्थ है, देने का सुख, छोड़ने का सुख । और यह कोई कल्पना नहीं है, यह कोई दार्शनिक बात नहीं है । छोड़ते ही सुख मिलता है। पर हम एक ही सुख जानते हैं, पकड़ने का सुख । और मजे की बात यह है कि हमने कभी दोनों की तुलना भी नहीं की है। दो फकीरों के संबंध में मैंने सुना है। उनमें बड़ा विवाद था। विवाद एक छोटी-सी बात को लेकर था कि एक फकीर कुछ पैसे पास रखता था, और एक फकीर कुछ भी पैसे पास नहीं रखता था। 1 पास पैसे नहीं रखता था, वह कहता था, छोड़ने में आनंद है, पकड़ने में दुख है। जो पास पैसे रखता था, वह कहता था कि थोड़ा तो पकड़ना ही पड़े, नहीं तो बड़ा दुख होता है। फिर वे एक नदी के किनारे पहुंचे। सांझ ढल गई, माझी नाव छोड़ने को था, उसने पैसे मांगे। इस तरफ रुकना खतरनाक था, जंगली जानवरों का डर था, उस तरफ जाना जरूरी था । तो जिसके पास पैसे थे, और जो पैसे का आग्रही था, उसने कहा, अब बोलो; Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * अब तुम्हारा त्याग चलाओ! अब तुम्हारे पास जो त्याग की संपदा । इस फर्क को आप ठीक से समझ लेना। धन से कोई दुखी नहीं है, उसका उपयोग करो; हमें उस तरफ जाना है। पैसे मेरे पास हैं, | होता। और थोड़ी अकल हो, तो धन से आदमी सुखी हो सकता अगर तुमसे कुछ न बन पड़े, तो मैं पैसे देता हूं, हम उस तरफ हो है। और बेअकल आदमी हो, तो निर्धन होकर भी दुखी होता है, जाते हैं। धनी होकर भी दुखी होता है। फकीर मुस्कुराता रहा, वह जो त्याग का पक्षपाती था। फिर | निर्धन का दुख समझ में आता है। मगर मजे की बात यह है कि जिसके पास पैसे थे, उसने पैसे दिए, वे नदी पार किए। नदी पार | | निर्धन का भी दुख निर्धनता का दुख नहीं है। उसका भी दुख यही करके जिसके पास पैसे थे, उसने कहा, अब बोलो! है कि पकड़ने को कुछ भी नहीं है। हाथ खाली है। धनी का दुख उस पहले फकीर ने कहा, लेकिन त्याग से ही हम पार हुए। तुम | | यह है कि हाथ भर गए हैं, छोड़ने की हिम्मत नहीं है। पैसे छोड़ सके, तुम पैसे दे सके, इसीलिए हम पार हुए हैं। पैसे होने | | जो भी छोड़ने की कला सीख लेता है-त्याग उस कला का नाम से हम पार नहीं हुए हैं; पैसा छोड़ने से ही पार हुए हैं। और अगर | है-जीवन के आनंद के द्वार उसके लिए निरंतर खुलते जाते हैं। मैं पार नहीं हो रहा था, तो उसका कारण यह नहीं था कि मेरा त्याग | जितना ज्यादा छोड़ सकता है, उतना ही ज्यादा हलका होता जाता बाधा था; मेरे पास और त्याग की सुविधा न थी, और छोड़ने को | है। जितना छोड़ सकता है, उतनी ही आत्मा विकसित होती है। नहीं था; बस। तकलीफ मेरे त्याग की नहीं थी, त्याग मेरा कम पड़ | क्योंकि जितना हम पकड़ते हैं, उतने पदार्थ हम पर इकट्ठे होते जाते रहा था, और मेरे पास छोड़ने को नहीं था; थोड़ा और त्याग करने | हैं, उसमें हम दब जाते हैं। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ढेर लग जाता है की जरूरत थी। तुम कर सके। लेकिन सही मैं ही हूं। हम छोड़ने से | वस्तुओं का; हमारा कुछ पता ही नहीं रहता कि हम कहां हैं! इस पार आए। त्याग देवी संपदा का हिस्सा है। लेकिन हमें एक ही अनुभव है, इकट्ठा करने का। जैसा मैं देखता | शांति और किसी की भी निंदादि न करना...। हं। देखता है. जैसे-जैसे लोगों का धन बढता है. वे दखी होते जाते शांत होना हम भी चाहते हैं। लेकिन हम तभी शांत होना चाहते हैं। तब वे सोचते हैं कि शायद धन में दुख है। और तब शास्त्रों में | हैं, जब हम अशांत होते हैं। उनको सहारा भी मिल जाता है कि धन से कोई सुख नहीं मिलता। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, बड़े अशांत हैं; शांति का मेरी धारणा बिलकुल भिन्न है। धन से सुख मिल सकता है, | कुछ रास्ता बताइए। ये लोग वे हैं, जिनके घर में जब आग लग अगर धन त्यागने की क्षमता हो। धन से दुख मिलता है, अगर | जाए, तब वे कुआं खोदना शुरू करते हैं। इनका घर बचेगा नहीं। पकड़े बैठे रहो। धन से कोई दुख नहीं पाता, कंजूसी से लोग दुख | कुआं पहले खोदना पड़ता है। पाते हैं। धन क्यों दुख देगा? लेकिन धन छोड़ नहीं पाते। __ जब आप पूरी तरह अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल है। और मजबूरी यह है कि जितना ज्यादा हो, उतना ही छोड़ना लेकिन जब आप अशांत नहीं हैं, तब शांत होना बहुत आसान है। मुश्किल हो जाता है। जिसके पास एक पैसा है, वह एक पैसा दान | और जब आप अशांत नहीं हैं, तब अगर आप शांत होना सीख लें, दे सकता है; लेकिन जिसके पास एक करोड़ रुपया हो, वह एक तो अशांत होने की कोई जरूरत ही न होगी। घर में कुआं हो, तो करोड़ दान नहीं दे सकता। हालांकि दोनों के दान बराबर हैं। क्योंकि | शायद आग लगेगी ही नहीं। लग भी जाए, तो बुझाई जा सकती है। एक पैसा उसकी कुल संपदा है। औसत बराबर है। एक करोड़ दूसरे तो आप जब अशांत हो जाएं, तब शांति की तलाश मत करें। की कुल संपदा है। लेकिन जिसके पास एक पैसा है, वह पूरा दान | यह तलाश ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जब बुखार आ जाए, तब दे सकता है; जिसके पास एक करोड़ रुपया है, वह पूरा दान नहीं | | आप चिकित्सक की खोज पर चले जाते हैं। अब तो दे सकता। चिकित्साशास्त्री भी कहते हैं कि यह ढंग गलत है, आदमी जब जितना ज्यादा धन हो, उतनी ही पकड़ने की वृत्ति बढ़ती है। | बीमार हो जाए, तब उसका इलाज करना; बड़ी देर कर दी। जितना हम पकड़ लेते हैं, उतना ही और पकड़ना चाहते हैं। फिर तो रूस में उन्होंने एक नई व्यवस्था ईजाद की है, वह यह कि दुखी होते हैं। अगर आज अमेरिका दुखी है, तो धन के कारण नहीं, डाक्टरों को तनख्वाह मिलती है बीमारों का इलाज करने के लिए धन की पकड़ के कारण। | नहीं, अपने मरीजों को बीमार न पड़ने देने के लिए। रूस में उन्होंने 3101 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैवीय लक्षण व्यवस्था बदली और सारी दुनिया में वह व्यवस्था आज नहीं कल हो ही जानी चाहिए। हर डाक्टर के हिस्से में मरीज हैं। मरीज का मतलब वे बीमार नहीं हैं; लेकिन उनको बीमार नहीं होने देना है। तो उनको चेक करते रहना है, उनकी फिक्र करते रहना है, बीमारी के पहले इलाज कर देना है। क्योंकि बीमारी के बाद इलाज करना अत्यंत जटिल हो जाता है। बीमारी अलग परेशान करती है, इलाज अलग परेशान करता है। कुछ लोग बीमारी से मरते हैं, ज्यादा लोग डाक्टरी से मरते हैं। किसी तरह बीमारी से बच गए, तो फिर डाक्टर से बचना बहुत मुश्किल है। औषधियां ! फिर जहर को काटना हो, तो और जहर डालना पड़ता है। सारी औषधियां जहर हैं। फिर दो जहरों की लड़ाई आपके भीतर होती है, और आप केवल कुरुक्षेत्र हो जाते हैं। आप कुछ नहीं रह जाते फिर, दो जहर लड़ते हैं। फिर आपकी जो मट्टी पलीद उन दो जहरों के लड़ने में होती है, आप स्वस्थ भी हो जाएंगे, तो भी कभी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे। बीमारी भी चली जाएगी, तो आपको मुर्दा छोड़ जाएगी। आप मरे हुए जीएंगे। जब आप अशांत हो जाते हैं, तब शांत होना कठिन है। लेकिन इतनी देर रुकने की जरूरत क्या है? शांति तो साधी जा सकती है। शांति को तो जीवन का उठते-बैठते, रोजमर्रा का भोजन बनाया जा सकता है। इसको ध्यान रखें कि आपको शांत रहना है। घर लौटे हैं, तो दरवाजे पर दो क्षण रुक जाएं, क्योंकि पत्नी कुछ कहेगी। वह दिनभर से अशांत है, वह अशांति आप पर फेंकेगी। दो क्षण रुक जाएं, तैयार हो जाएं। तैयारी का मतलब यह कि मैं शांत रहूंगा, चाहे पत्नी कुछ भी कहे; मैं इसको नाटक से ज्यादा नहीं समझंगा । दया करूंगा, क्योंकि बेचारी परेशान है। मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की का विवाह हुआ। तो लड़की दहाड़ मार-मारकर, छाती पीट-पीटकर रो रही थी। सब समझा रहे थे, वह सुन नहीं रही थी। फिर मुल्ला उसके पास गया। उसने कहा, बेटी, तू मत रो; तुझे ले जाने वाले रोएंगे। तू मेरी बेटी है; तू बिलकुल मत घबड़ा; थोड़ी देर की बात है। थोड़ा धैर्य रख! जीवन में चारों तरफ विक्षिप्त लोग हैं, दुखी लोग हैं। वे अपने दुख और विक्षिप्तता को फेंक रहे हैं। फेंकने के सिवाय उनके पास का कोई ढंग नहीं है, उपाय नहीं है। फेंकते हैं, तो थोड़ा जी लेते हैं। यह उनकी कैथार्सिस है। अगर आप उसके शिकार हो जाते 311 हैं, अगर आप उससे उद्विग्न होते हैं, अशांत होते हैं, तो फिर आपके जीवन में शांति का स्वर कभी भी नहीं बज पाएगा। क्योंकि चारों तरफ अशांत लोग हैं, तो आपको शांति साधनी होगी, और आपको सजग रहना होगा। चारों तरफ बीमार लोग हैं, आपको अपने चारों तरफ एक कवच निर्मित करना होगा, एक मिल्यू, एक वातावरण आपके चारों तरफ, कि चाहे कोई कुछ भी फेंके, आप अपनी शांति में थिर रहेंगे। थोड़े से होश की जरूरत है। यह हो जाता है। इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें। जब पत्नी नाराज हो रही हो, तब आप खड़े होकर देखें कि आप नाटक देख रहे हैं। इससे वह और भी नाराज होगी, यह भी ध्यान रखना। मगर तब आप और प्रसन्न होकर उसको देखना । अगर दो व्यक्तियों में एक व्यक्ति क्रोधित हो रहा हो और दूसरा नाटक की तरह देखता रहे, तो यह नाटक ज्यादा देर चल नहीं सकता। यह बढ़ेगा, उबलेगा, लेकिन फूट जाएगा, बिखर जाएगा, क्योंकि इसे बढ़ाने के लिए दोनों तरफ से सहारा चाहिए। समझदार पति-पत्नी निर्णय कर लेते हैं कि जब एक उपद्रव करेगा, तो दूसरा शांत रहेगा। मुल्ला नसरुद्दीन किसी को कह रहा था कि मेरे घर में कभी झगड़ा नहीं होता। दूसरे ने कहा कि यह मानने योग्य नहीं है। यह | असंभव है कि घर हो और झगड़ा न हो ! घर यानी झगड़ा । तुम झूठ बोल रहे हो । नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, हमने पहले ही दिन एक बात तय कर ली, और वह बात यह तय कर ली कि सब छोटे-छोटे मसले पत्नी तय करेगी, बड़े-बड़े मसले मैं तय करूंगा। बड़े-बड़े मसले आज तक आए नहीं और कभी आएंगे भी नहीं, क्योंकि पहले ही पत्नी तय कर देती है कि सब छोटे मसले हैं। तो वही तय कर रही है। इंग्लैंड में एक आदमी एक सौ बीस वर्ष तक जीया । तो उसकी एक सौ बीसवीं वर्षगांठ पर लोगों ने उससे पूछा कि कैसे तुम इतने स्वस्थ हो ? उसने कहा कि हमने एक निर्णय कर लिया शादी के वक्त कि जब भी पत्नी नाराज होगी, मैं घर के बाहर चला जाऊंगा। तो यह अस्सी साल की घर के बाहर की जिंदगी, यह मेरे स्वास्थ्य का कारण है ! क्योंकि मैं अक्सर बाहर ही घूमता रहा हूं। घर तो कभी-कभी भीतर जाता हूं, फिर ज्यादातर मुझे बाहर ही, आउट डोर! चारों तरफ विक्षिप्तता है सभी संबंधों में। और अगर आप अपने Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * को सम्हालकर नहीं चल रहे हैं, तो इतनी विक्षिप्त दुनिया में आप । मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके मित्र जो आपके संबंध शांत नहीं रह सकते। और दूसरे को जिम्मेवार मत समझें। दूसरा में पीठ पीछे कहते हैं, उस सबका आपको पता चल जाए, तो जिम्मेवार है नहीं; वह अपने से परेशान है। कोई आपको परेशान दुनिया में एक भी मित्र खोजना मुश्किल है। आपके मित्र आपकी करना नहीं चाह रहा है; वह अपने से परेशान है। परेशानी कोई कहां | | पीठ पीछे जो कहते हैं, अगर आपके सामने कह दें, आपको पता फेंके! जो निकट हैं, उन्हीं पर फेंकी जाती है। चल जाए, तो दुनिया में मित्रता असंभव है! तो जो व्यक्ति बिना अशांत हुए, सारी उपद्रवों की स्थिति में एक | लेकिन पता तो चल ही जाता है। और मित्रता सच में ही असंभव सूत्र ध्यान रखता है कि मुझे शांत रहना है चाहे कुछ भी हो, वह | | हो गई है। मित्र होना मुश्किल है। जो आदमी भी निंदा में रस लेता थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो जाता है। है, उसका इस जगत में कोई भी मित्र नहीं हो सकता। जो दूसरे को किसी की भी निंदादि न करना...। ओछा करने में, नीचा करने में, बुरा करने में शक्ति लगाता है, वह बड़ा रस आता है किसी की निंदा करने में, क्योंकि किसी की | भला अपने मन में सोच रहा हो कि अपने को अच्छा सिद्ध कर रहा निंदा परोक्ष में अपनी प्रशंसा है। जब भी आप कहते हैं, फलां | है, वह इस कोशिश में ही बुरा होता जा रहा है। आदमी बुरा है, तो आप भीतर से यह कह रहे हैं कि मैं अच्छा हूं। भले आदमी का लक्षण दूसरे में भलाई को खोजना है। और हम जब आप सिद्ध कर देते हैं कि फलां आदमी चोर है, आपने सिद्ध | जितनी भलाई दूसरे में खोज लेते हैं, उतना ही हमारे भले होने के कर लिया कि मैं अचोर हूं। आधार निर्मित होते हैं। और अक्सर चोर दूसरों को चोर सिद्ध करने की कोशिश करते सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक रहते हैं, क्योंकि यही उपाय है उनके पास। अगर यहां कोई किसी और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का की जेब काट ले, तो जेबकतरे को बचने का सबसे अच्छा उपाय | अभाव...। यह है कि वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाए कि बहुत बुरा हुआ; जो भी शास्त्र में कहा गया है, जो भी समाज की प्रचलित चोरी नहीं होनी चाहिए; पकड़ो, किसने चोरी की! यह सबसे अच्छा | व्यवस्था है, उस व्यवस्था में जहां तक दखल न बने। जब तक कि उपाय है। उसको तो आप भल ही जाएंगे कि यह आदमी चोरी कर आत्मा का ही कोई सवाल न हो. जब तक सकता है। पर ही कोई आघात न पड़ता हो, तब तक समाज और शास्त्र की जितने बुरे लोग हैं, वे दूसरे की निंदा में संलग्न हैं। वे इतना जो व्यवस्था है, उसको खेल का नियम मानकर चलना उचित है। शोरगुल मचा रहे हैं दूसरे की बुराई का कि कोई सोच भी नहीं __ खेल के नियम का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे सकता कि ये बुरे हो सकते हैं। इसलिए साधु भी जब दूसरे की निंदा | | रास्ते पर बाएं चलो; कोई दाएं चलने में पाप नहीं है। क्योंकि कुछ कर रहा हो, तब समझना कि साधुता खोटी है। मुल्कों में लोग दाएं चलते हैं, तो वहां बाएं चलना कठिन है। तो निंदा का एक ही प्रयोजन है, वह अपनी बुराई को छिपाना है। बाएं चलो या दाएं चलो, यह कोई मूल्य की बात नहीं है। लेकिन दूसरे की बुराई को हम जितना बड़ा करके बताते हैं, उतनी अपनी | एक नियम, खेल का नियम है। बाएं चलने में सुविधा है, आपको बुराई छोटी मालूम पड़ती है। अगर आपको पता चल जाए कि सब भी, दूसरों को भी। अगर सभी लोग अपना नियम बना लें, तो रास्ते बेईमान हैं, तो आपको लगता है, फिर अपनी बेईमानी भी स्वीकार | | पर चलना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि कोई नियम शाश्वत नहीं, योग्य है। इसमें हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं; हम कुछ ज्यादा बुरे सब सापेक्ष हैं, सबकी उपयोगिता है। नहीं हैं; दूसरों से हम बेहतर हैं। इस बड़े जगत में, जहां बहुत लोग हैं, मैं अकेला नहीं हूं, किसी दूसरे की निंदा का इसीलिए इतना रस है। जहां भी चार आदमी | व्यवस्था को चुपचाप मानकर चलना उचित है। इसका यह अर्थ मिलते हैं. बस. चर्चा का एक ही आधार है। उन चार में से भी एक नहीं है कि वह व्यवस्था कोई शाश्वत सत्य है; इसका केवल इतना चला जाएगा, तो वे तीन, जो चला गया उसकी निंदा शुरू कर देंगे। | अर्थ है कि हमने एक खेल का नियम तय किया है, उस नियम को और वे तीन फिर भी नहीं सोचते कि हममें से कोई गया यहां से, | हम पालन करके चलेंगे। कि बाकी दो हटते ही से यही काम करने वाले हैं। और ध्यान रहे, खेल नियम पर निर्भर होता है; नियम हटा कि 312 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दैवीय लक्षण * खेल गड़बड़ हो जाता है। अगर आप ताश के पत्ते खेल रहे हैं, तो | न कहने की शक्ति बचती नहीं कि बड़े मौके पर न कह सके। जो नियम है। चार खिलाड़ी खेल रहे हैं, तो नियम है। उनमें एक भी | | छोटी-छोटी बातों में हां भरता है, जब जरूरत हो, तो उसके पास नियम के विपरीत करने लगे, या कहने लगे कि मेरा अपना अलग | न कहने की शक्ति होती है। तो वह कह सकता है, नहीं। फिर नियम है, खेल खराब हो गया। उसकी नहीं को तोड़ा नहीं जा सकता। यह समाज भी पूरा का पूरा एक खेल है। वह ताश के पत्ते से | इसलिए जिसको वस्तुतः क्रांतिकारी होना हो, उसको विद्रोही नहीं कोई बड़ा खेल नहीं है। उसमें सब नियम हैं। कोई पति है, कोई होना चाहिए; उसे व्यर्थ के नियम तोड़ने में नहीं लगना चाहिए, पत्नी है; कोई बेटा है, कोई बाप है; कोई छोटा है, कोई बड़ा है;|| | जिसे अगर जीवन का कोई वास्तविक अतिक्रमण करना हो। कोई पूज्य है; कोई शिष्य है, कोई गुरु है-वे सारे खेल हैं। उस | तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि खेल को मानकर चलना दैवी संपदा का लक्षण है। लक्षण इसलिए एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना, अपने में कि अकारण ऐसा व्यक्ति उलझन में नहीं पड़ता, न दूसरों को | | पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा उलझन में डालता है। को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। कुछ लोग व्यर्थ ही उलझन में पड़ते हैं, उनका कोई सार भी नहीं | इन सारे लक्षणों में गहन भाव है, अहंकार-शून्यता। मैं पूज्य हूं, है। आप अगर बाएं को छोड़कर दाएं चलने लगें, तो कोई बड़ी दूसरे मुझे पूजें, दूसरे मुझे आदर दें, ऐसा सबके मन में होता है। क्रांति नहीं हो जाएगी; सिर्फ आप मूढ़ सिद्ध होंगे। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अहंकार इसके सहारे ही निर्मित होगा आसरी वृत्ति का जो व्यक्ति होता है, उसको हमेशा नियम तोड़ने और रक्षित होगा। मैं दूसरे को पूजं, यह कठिन है। गुरु होना एकदम में रस आता है. उच्छंखल होने में रस आता है. विद्रोह में रस आता आसान है. शिष्य होना बहत कठिन है। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है। उसे लगता है, जब भी वह कुछ तोड़ता है, तब उसका अहंकार है, किसी और की पूजा, किसी और के सामने समर्पण। सिद्ध होता है। उसे आज्ञा मानना कठिन है, आज्ञा तोड़ना आसान | इसलिए अगर आपसे कोई दिल से पूछे कि ठीक दिल की बात है। उससे अगर कोई काम करवाना हो, तो उलटी बात कहनी उचित बता दें, कि आप गुरु होना चाहते हैं कि शिष्य? तो भीतर से है। उससे अगर कहना हो कि सीधे बैठो, तो उससे कहना चाहिए आवाज आएगी, गुरु होना चाहते हैं। और यह आवाज अगर भीतर कि सिर के बल बैठो, तो वह सीधा बैठ जाएगा। | है, तो आप शिष्य कभी भी नहीं हो सकते। तो अगर आप किसी मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा है कि यह मत कर, के चरणों में भी झुकेंगे, तो भी झूठा होगा। और तरकीबें आप ऐसी वह मत कर। बेटा सुनता नहीं। वह नसरुद्दीन का ही बेटा है! करेंगे कि किसी भांति गुरु को ही झुका लें। कोई उपाय, कि किसी आखिर नसरुद्दीन उससे परेशान आ गया और उससे बोला, दिन गुरु आपके प्रति झुक जाए! अच्छा, अब तुझे जो करना हो कर। अब मैं देखू, तू कैसे मेरी आज्ञा | | अहंकार का स्वाभाविक लक्षण है कि सारा जगत मुझे पूजे। और का उल्लंघन करता है! जो तुझे करना हो कर, यह मेरी आज्ञा है। कठिनाई यह है कि जब तक अहंकार हो, तब तक कोई आपको अब मैं देखता हूं कि तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है! | | पूजेगा नहीं। पूजा हो सकती है, पर वह सदा निरहंकार भाव की है। वह जो आसुरी वृत्ति का व्यक्तित्व है, उसे तोड़ने का रस है। | जिस दिन अहंकार मिट जाएगा, उस दिन शायद सारा जगत पूजे, आप कुछ कहें, वह उसको तोड़ेगा। जो आपको न करवाना हो, लेकिन आपकी वह आकांक्षा नहीं है। और जगत पूजे या न पूजे, उससे कहें कि करो, तो वह नहीं करेगा। आपका समभाव होगा। दैवी संपदा का व्यक्ति व्यर्थ उलझन में नहीं पड़ेगा। जो __मैं मिटूं, ऐसा जिसका लक्ष्य है, वह व्यक्ति दैवी संपदा को कामचलाऊ है, उसे स्वीकार कर लेगा, हां भर देगा। खेल के नियम | | उपलब्ध हो जाता है। मैं बनूं, मैं रहूं, मैं बचूं; चाहे सारा जगत मिट हैं, उनको मान लेगा। जब तक कि उसके जीवन का ही कोई सवाल | जाए मेरे मैं के बचाने में, तो भी मैं मैं को बचाऊंगा, ऐसा व्यक्ति न हो, जब तक कि उसकी आत्मा का कोई सवाल न हो, तब तक | आसुरी संपदा को उपलब्ध हो जाता है। उसमें विद्रोह का स्वर नहीं होगा। आज इतना ही। और ध्यान रहे, जो छोटी-छोटी बातों में न कहता है, उसके पास 313 Page #342 --------------------------------------------------------------------------  Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 तीसरा प्रवचन आसुरी संपदा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * दम्भो दपोंऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। | होता; हम थोड़े अशांत होते हैं। जब हम समझते हैं कि हम बहुत अज्ञानं चाभिजातस्म पार्थ संपदमासुरीम् ।।४।। अशांत हैं, तब भी हम थोड़े ही अशांत होते हैं। जब हम सोचते हैं दैवी संपद्धिमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। कि असहनीय हो गई है दशा, तब भी सहनीय ही होती है, मा शुचः संपदं देवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।।५।। असहनीय नहीं होती। क्योंकि असहनीय का तो अर्थ है कि आप द्वौ भूतसगी लोकेस्मिन्दैव आसुर एव च।। बचेंगे ही नहीं। दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।६।। जिसको आप असहनीय अशांति कहते हैं, उसे भी आप सह तो और हे पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और लेते ही हैं। प्रियजन मर जाता है, बेटा मर जाता है, मां मर जाती है, कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पत्नी मर जाती है, पति मर जाता है, असहनीय दुख हम कहते हैं, पुरुष के लक्षण हैं। लेकिन उसे भी हम सह लेते हैं; और हम बच जाते हैं उसके पार उन दोनों प्रकार की संपदाओं में देवी संपदा तो मुक्ति के भी। दो-चार महीने में घाव भर जाता है; हम फिर पुराने हो जाते हैं; लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। फिर जिंदगी वैसी ही चलने लगती है। हमने कहा था असहनीय, इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा लेकिन वह सहनीय था। अशांति पूरी न थी। - __को प्राप्त हुआ है। अशांति पूरी होती, तो दो घटनाएं संभव थीं। या तो आप मिट और हे अर्जुन, इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के जाते, बचते न; और अगर बचते, तो पूरी तरह रूपांतरित होकर बताए गए हैं। एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के बचते। हर हालत में आप जैसे हैं, वैसे नहीं बच सकते थे। या तो जैसा । उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, आत्मघात हो जाता, या आत्मा-रूपांतरण हो जाता; पर आप जैसे इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक | हैं, वैसे ही बच नहीं सकते थे। मेरे से सुन। लेकिन देखा जाता है कि सब दुख आते हैं और चले जाते हैं, और आपको वैसा ही छोड़ जाते हैं जैसे आप थे; उसमें रत्तीभर भी भेद नहीं होता। आप वही करते हैं फिर, जो पहले करते थे वही पहले कुछ प्रश्न। जीवन, वही चर्या, वही ढंग, वही व्यवहार। थोड़ा-सा धक्का पहला प्रश्नः कल आपने कहा, पूरा अशांत होने पर लगता है, फिर आप सम्हल जाते हैं। फिर गाड़ी पुरानी लीक पर शांति की साधना कठिन हो जाती है। लेकिन आप चलने लगती है। यह भी कहते रहे हैं कि विपरीत ध्रुवीयता के नियम आत्महत्या हो जाएगी और या आत्मक्रांति हो जाएगी, दोनों ही के अनुसार अति पर पहुंचकर ही बदलाहट संभव होती | स्थिति में आप मिट जाएंगे। अति पर क्रांति घटित होती है। यदि है। इसे समझाएं। | कोई परा अशांत हो जाए, तो उसका अर्थ हआ कि अब और अशांत होने की जगह न बची। अब इसके आगे अशांति में जाने का कोई मार्ग न रहा। आखिरी पड़ाव आ गया। अब गति का कोई त्म-रूपांतरण, आत्यंतिक क्रांति तो अति पर ही संभव | उपाय नहीं। इस क्षण क्रांति घट सकती है। इस क्षण आप इस होती है। जब तक हम जीवन की एक शैली के व्यर्थता को समझ सकते हैं। यह अशांत होने का सारा रोग व्यर्थ आखिरी छोर पर न पहुंच जाएं, जब तक हम उसकी मालूम पड़ सकता है। पीड़ा को पूरा न भोग लें, उसके संताप को पूरा न सह लें, तब तक और ध्यान रहे, कोई और तो आपको अशांत करता नहीं, आप रूपांतरण नहीं होता। ही अशांत होते हैं। यह आपका ही अर्जन है, यह आपका ही लगाया __ अशांत अगर कोई पूरा हो जाए, तो छलांग लग सकती है शांति हुआ पौधा है, आपने ही सींचा और बड़ा किया है। ये जो अशांति में। लेकिन पूरा अशांत हो जाए, यह शर्त खयाल रहे। आधी| के फल और फूल लगे हैं, ये आपके ही श्रम के फल हैं। और अगर अशांति से नहीं चलेगा। और हममें से कोई भी पूरा अशांत नहीं आप पूरे अशांत हो गए, तो आपको दिखाई पड़ जाएगा कि सब 316 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** आसुरी संपदा व्यर्थ था; यह पूरा श्रम आत्मघाती था। आप इसे छोड़ दे सकते हैं। कोई और आपको पकड़े हुए नहीं है, और कोई आपको अशांत नहीं कर रहा है। एक क्षण में जीवन अशांति के मोड़ से शांति की दिशा में गति करता है। एक तो उपाय यह है। लेकिन जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका प्रयोजन दूसरा है। पहली तो बात यह कि जब आप अशांत हैं, तो मेरा अर्थ पूरी अशांति से नहीं है। आप आधे-आधे हैं। जैसे पानी को हम गरम करें; वह पचास डिग्री पर गरम हो, तो न तो वह भाप बन पाता है और न बर्फ बन पाता है। पानी ही रहता है। सिर्फ गरम होता है। या सौ डिग्री तक गरम हो जाए, तो रूपांतरण हो सकता है; पानी छलांग लगा ले, भाप बन जाए। और या शून्य डिग्री के नीचे गिर जाए, तो भी रूपांतरण हो सकता है; पानी समाप्त हो जाए, बर्फ बन जाए। दोनों हालत में पानी खो सकता है, लेकिन अतियों से। तो जब मैंने कल कहा कि जब आप अशांत हैं तब शांत होना मुश्किल होगा, उसका मतलब इतना ही है कि जब पानी गरम है, तो बर्फ बनानी मुश्किल होगी। पानी को ठंडा करना होगा, तो बर्फ बन सकती है। लेकिन दो उपाय हैं। या तो पानी को पूरा गरम कर लें, तो भी पानी खो जाएगा, आप एक नए जगत में प्रवेश कर जाएंगे। या फिर पानी को पूरा ठंडा हो जाने दें, तो भी पानी खो जाएगा और नई यात्रा शुरू हो जाएगी। अशांति से कूदने के दो उपाय हैं। या तो बिलकुल शांत क्षण आ और या बिलकुल अशांत क्षण आ जाए। आप जहां हैं, वहां से छलांग नहीं लग सकती। या तो पीछे लौटें और अपने को शांत करें या आगे बढ़ें और पूरे अशांत हो जाएं।' दोनों की सुविधाएं और दोनों के खतरे हैं। शांत होने की सुविधा तो यह है कि कोई विक्षिप्तता का डर नहीं है। इसलिए अधिक धर्मों ने शांत होने के छोर से ही छलांग लगाने की कोशिश की है। संन्यासियों को कहा गया है, घर-द्वार छोड़ दें, गृहस्थी छोड़ दें, काम-काज छोड़ दें। यह सब शांत होने की व्यवस्था है। उन परिस्थितियों से हट जाएं, जहां पानी गरम होता है। चले जाएं दूर हिमालय में, जहां कोई गरम करने को न होगा, धीरे-धीरे आप ठंडे हो जाएंगे। हट जाएं उन-उन स्थितियों से, जहां आप उबलने लगते हैं। बार-बार उबलने | लगते हैं, उबलने की आदत बन जाती है। हट जाएं उन व्यक्तियों से, जिनके संपर्क में आपको ठंडा होना मुश्किल हो रहा है। अधिक धर्मों ने, जहां आप हैं - मध्य में, अशांति में खड़े, | अधूरी अशांति में - वहां से पीछे लौटने की सलाह दी है। खतरा उसमें कम है। लेकिन कठिनाई भी है उसकी। क्योंकि आप परिस्थितियों से हट सकते हैं, लोगों से हट सकते हैं, दुकान - बाजार | छोड़ सकते हैं, लेकिन आपका मन आपके साथ हिमालय चला जाएगा। और जो मन यहां अशांत हो रहा था, वह मन तो आपके साथ होगा, सिर्फ अशांत करने वाली परिस्थितियां साथ न होंगी। तो हो सकता है कि आप थोड़े शांत होने लगें, लेकिन वह शांति धोखा भी सिद्ध हो सकती है। बीस साल हिमालय पर रहकर वापस लौटें, और जैसे ही नगर में आएं, अशांति वापस पकड़ सकती है। क्योंकि परिस्थिति से हट गए थे, आप शांत नहीं हुए थे; जहां अशांति होती थी, उस जगह से हट गए थे। तो खतरा भी है, सुविधा भी है। दूसरा उपाय कुछ धर्मों की विशेष शाखाओं ने किया है। जैसे बुद्ध-धर्म की झेन शाखा ने अशांत करने का पूरा प्रयोग किया है। | इस्लाम की सूफी शाखा ने अशांत करने का पूरा प्रयोग किया है। | वे कहते हैं, भागने से कुछ भी न होगा। चित्त को उसकी पूरी दौड़ | में चले जाने दें; उसको हो लेने दें जितना पागल होना है । उसको | उसके पूरे पागलपन को छू लेने दें और वहीं से छलांग लें। 317 इसके खतरे हैं, इसके लाभ हैं। खतरा तो यह है कि आप क्रमशः पाएंगे कि आप और भी पागल होते जा रहे हैं। खतरा यह है कि अगर आप पूरे छोर तक न पहुंचे, नब्बे डिग्री पर कहीं रुक गए, तो आप विक्षिप्त हालत में रह जाएंगे। बहुत से संन्यासी विक्षिप्त अवस्था में रह जाते हैं। सौ डिग्री तक पहुंचें, तो पानी भाप बन जाएगा, लेकिन जरूरी नहीं है कि आप पहुंच पाएं। अगर निन्यानबे डिग्री पर भी रह गए, तो आप सिर्फ पागल होंगे, उन्मत्त हो जाएंगे। उस उन्मत्तता की अवस्था में न तो पीछे लौटना आसान होगा, न आगे जाना आसान होगा। वह दुर्घटना घटती है। अगर बीच में अटके, तो कठिनाई बढ़ | जाएगी। और आप इस हालत में होंगे उबलने की कि फिर आप कुछ भी न कर पाएंगे। इसलिए यह जो दूसरा मार्ग है, अनिवार्यरूपेण किसी गरु के पास ही साधा जा सकता है। पहला मार्ग अकेला भी साधा जा सकता है, क्योंकि शांत होने Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 की प्रक्रिया है, कोई खतरा नहीं है। दूसरे मार्ग में खतरा है। कोई चाहिए, जो आपको सौ डिग्री तक पहुंचा दे। क्योंकि पचास-साठ डिग्री के बाद आपका होश आपके काम नहीं आएगा। आप इतनी उबलती हालत में होंगे कि फिर आप अपने नियंत्रण में नहीं होंगे। कोई और चाहिए, जो आपको आगे ले जाए। और आखिरी क्षणों में, जब सौ डिग्री पर आप पहुंचते हैं, तब तो गुरु भी चाहिए, ऐसा स्थान चाहिए, जहां और भी साधक आस-पास हों, जहां का पूरा वातावरण आपको सौ डिग्री तक पहुंचा दे और टूटने न दे। इसलिए ग्रुप, एक समूह, स्कूल, संप्रदाय, आश्रम, इसका उपयोग है। जहां बहुत-से लोग उस शांत अवस्था को पहुंच गए हैं, जहां बहुत से लोग इस उबलती हुई अवस्था को पार कर गए हैं, जहां बहुत-से लोगों ने सौ डिग्री का ताप और पागलपन जाना है, उनकी मौजूदगी आपको सम्हालेगी। और कई बार महीनों तक, वर्षों तक यह विक्षिप्त अवस्था बनी रह सकती है। उस वक्त कोई चाहिए, जो आपको देखे और सम्हाले । पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पश्चिम के पागलखानों में बहुत-से ऐसे पागल बंद हैं, जो पागल नहीं हैं, जो सिर्फ उन्माद की अवस्था में हैं। लेकिन पश्चिम में उनको सम्हालने वाला कोई नहीं है। ईसाइयों ने, मुसलमानों ने, हिंदुओं ने, बौद्धों ने मोनेस्ट्रीज खड़ी की थीं। आज भी ईसाइयों की कुछ मोनेस्ट्रीज पश्चिम में हैं, जहां व्यक्ति प्रवेश करता है एक बार, तो फिर मरने के पहले वापस नहीं निकलता है। बीस वर्ष, तीस वर्ष, चालीस वर्ष... । जो व्यक्ति एक बारद्वार के भीतर गया, वह फिर आश्रम के बाहर नहीं आता, जब तक कि वह अतिक्रमण न कर जाए। जब तक गुरु आज्ञा न दे, तब तक दुनिया से उसका कोई वास्ता नहीं है। और पूरा समूह सहयोगी होता है। इन मोनेस्ट्रीज में अनेक लोग विक्षिप्त अवस्था में वर्षों तक रहते हैं। तो दूसरे मार्ग का खतरा है, सुविधा भी है। सुविधा यह है कि धोखे का कोई उपाय नहीं है। एक बार पार कर गए, तो पार कर गए; फिर लौटकर गिरना नहीं होगा। फिर यह सारी दुनिया भी आपको अशांत नहीं कर सकती। फिर आप कहीं भी हों, आपको नरक में भी डाल दिया जाए, तो भी आप स्वर्ग में ही होंगे। आपके स्वर्ग को छीना नहीं जा सकता। यह तो सुविधा है। खतरा यह है कि बड़ी व्यवस्था चाहिए, योग्य निरीक्षण चाहिए, समर्पण का पूरा भाव चाहिए। क्योंकि अपने को पागल करने देना और किसी को शक्ति देना कि वह आपको पागलपन की तरफ ले जाए, पूरा उद्विग्न कर दे, बड़े समर्पण के बिना नहीं हो सकेगा। पूरा समर्पण चाहिए और अंधा अनुकरण चाहिए, तभी आप पागल हो सकेंगे। और एक बार आप पूरी तरह जल जाएं भीतर, तो छलांग | लग जाएगी। अति से ही रूपांतरण होता है। कृष्ण पहले मार्ग की बात कर रहे हैं, जो व्यक्ति अकेला भी साध सकता है। इसलिए मैंने कहा कि जब आप अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए जब आप शांत हैं, तभी शांति को साधें, ताकि अशांत होने का मौका न आए। और शांति आपके जीवन का आधार बन जाए। धीरे-धीरे वह इतना सुदृढ़ हो जाए कि आप पानी को भाप बनाकर क्रांति में न जाएं, वरन पानी को बर्फ बनाकर क्रांति में जाएं। पानी से तो हटना है। जहां आप हैं, वहां से तो चलना है। ये चलने के दो उपाय हैं। ज्यादा सुगम - अकेले भी चला जा सके, विक्षिप्तता का भय न हो—पहला मार्ग है। ज्यादा तीव्र, ज्यादा प्रामाणिक, जिससे लौटकर गिरने का कोई डर नहीं है, लेकिन | ज्यादा खतरनाक, दुस्साहस का दूसरा मार्ग है। और प्रत्येक व्यक्ति | को तय करना होता है कि उसका कितना साहस है, कितनी क्षमता है, कितना दांव पर लगाने की हिम्मत है। अगर दुकानदार का मन हो, तो पहला मार्ग ठीक है; अगर जुआरी का मन हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। अगर बूढ़ा चित्त हो, | तो पहला मार्ग ठीक है; अगर युवा चित्त हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। अगर स्त्री का चित्त हो, तो पहला मार्ग ठीक है; अगर पुरुष का चित्त हो, तो दूसरा मार्ग ठीक है। पर प्रत्येक को समझना होता है कि उसकी अपनी जीवन - दशा कैसी है। जहां वह खड़ा है, जैसा वह है, क्या उसके लिए सुगम होगा। क्योंकि आप अगर कुछ अपने से विपरीत मार्ग चुन लें, तो आपका समय शक्ति अपव्यय होगी । और इसीलिए गुरु की उपादेयता हो जाती है। क्योंकि न केवल वह मार्ग दे सकता है, बल्कि वह यह भी परख दे सकता है कि आपके लिए क्या उचित होगा। इसलिए पुराने दिनों में एक-एक साधक को गुरु उसके कान में ही उसकी साधना का सूत्र देता रहा है; उसके कान में ही मंत्र देता | रहा है। वह उसके लिए निजी था। वह उस व्यक्ति के लिए विशेष था। वह उसका मार्ग, पथ था। उस मंत्र को किसी को कहना भी नहीं है। क्योंकि आप नहीं जानते, वह किसी और के काम आ सकता है कि नहीं आ सकता है। और आपको पता नहीं है कि वह 318 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी संपदा * किसी को नुकसान भी पहुंचा सकता है; किसी के लिए | वाला नहीं है। कल्याणकारी हो सकता है। हिंदू इस बात को बड़े गहरे से समझ गए कि समाज बहता तो वह जो अतिक्रमण कर गया है जीवन की सारी स्थितियों को, | रहेगा, समस्याएं बनी रहेंगी। क्यों? क्योंकि समाज बनता है जो लौटकर देख सकता है सारे विस्तार को. जो आपके अंतःकरण | करोड़ों-करोड़ों, अरबों-अरबों लोगों से। और वे अरब-अरब में प्रवेश कर सकता है, जो आपके मन की आज की दशा जान | लोग अज्ञान से भरे हैं, वे अरब-अरब लोग पागलपन से भरे हैं, सकता है, जो आपके अतीत संस्कारों को ठीक से पहचान सकता | वे अरब-अरब लोग विक्षिप्त हैं। उन अरबों लोगों का जो समाज है और जो निर्णय ले सकता है कि भविष्य आपके लिए कौन-सा | है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता। बीमार होना उसका लक्षण सुगम होगा, उसके बिना मार्ग पर बढ़ जाना सदा ही जोखम का | ही रहेगा, जब तक कि ये सारे लोग प्रबुद्ध पुरुष न हो जाएं। काम है। बुद्धों का कोई समाज हो, तो समस्याओं के पार होगा। हमारा समाज समस्याओं के पार कभी हो नहीं सकता। और हम जो भी करेंगे...। एक तरफ हम सुधारेंगे, तो दस तरफ हम बिगाड़ कर दुसरा प्रश्नः कृष्ण ने गीता में लोक और शास्त्र के | लेते हैं। विरुद्ध आचरण का निषेध किया है। लेकिन इस आज से दो सौ साल पहले दुनियाभर के विचारकों का खयाल नियम से तो समाज लकीर का फकीर होकर रह | था, अगर शिक्षा बढ़ जाए जगत में, तो स्वर्ग आ जाएगा। अब जाएगा। शायद यही कारण है कि हिंदू समाज शिक्षा बढ़ गई है। अब सारा जगत शिक्षा के मार्ग पर गतिमान हुआ सदियों-सदियों से यथास्थिति में पड़कर सड़ रहा है। | है। अधिकतम लोग शिक्षित हैं। लेकिन अब शिक्षा के कारण जो इस प्रवृत्ति से तो दकियानूसीपन ही बढ़ेगा तथा | | परेशानियां आ रही हैं, वह दो सौ साल पहले के समाज-सुधारकों सुधार, परिवर्तन और क्रांति असंभव हो जाएंगे। इस को उनका कोई पता भी नहीं था। पर प्रकाश डालें। __ अब शिक्षा के कारण ही उपद्रव है। और बड़े विचारक, डी. | एच.लारेंस जैसा विचारक, यह सुझाव दिया कि सौ साल तक हमें सारे विश्वविद्यालय बंद कर देने चाहिए, सौ साल तक सारी शिक्षा र से समझना जरूरी है। बंद कर देनी चाहिए, तो ही हमारी समस्याओं का हल होगा, नहीं २. पहली बात, कृष्ण जो भी कह रहे हैं गीता में, वह कोई तो हल नहीं हो सकता। समाज-सुधार का आयोजन नहीं है, वह कोई| आज हमारे सारे पागलपन और उपद्रव का गढ़ विश्वविद्यालय समाज-सुधार की रूप-रेखा नहीं है। वह प्रस्तावना व्यक्ति की बन गया है। सब उपद्रव वहां से पैदा हो रहे हैं। सोचा था, शिक्षा आत्मक्रांति के लिए है। और ये दोनों बातें बड़ी भिन्न हैं। | स्वर्ग ले आएगी। लेकिन जिनको हमने शिक्षित किया है, वे समाज अगर व्यक्ति को आत्मक्रांति की तरफ जाना हो, तो यही उचित को और नरक बनाए दे रहे हैं! सोचा था कि शिक्षा से लोग सत्य, है कि वह व्यर्थ के उपद्रवों में न पड़े। क्योंकि शक्ति सीमित है, | | धर्म, नीति की तरफ बढ़ेंगे। लेकिन शिक्षा सिर्फ लोगों को बेईमान समय सीमित है, और जीवन और समाज के प्रश्न तो अनंत हैं। | और चालाक बना रही है। उनकी कभी कोई समाप्ति होने वाली नहीं है। शिक्षित आदमी के ईमानदार होने में कठिनाई हो जाती है, क्योंकि हजारों वर्षों से समाज है, हजारों रूपांतरण किए गए हैं, हजारों वह गणित बिठालने लगता है, चालाक हो जाता है। बुद्धि बढ़ेगी, सामाजिक क्रांतियां हो चुकी हैं, लेकिन समाज फिर भी सड़ रहा | | तो चालाकी भी बढ़ेगी। चालाकी बढ़ेगी, तो दूसरे का शोषण करने है। एक चीज बदल जाती है, तो दूसरी खड़ी हो जाती है। दूसरी | | में ज्यादा कुशल हो जाएगा। शिक्षा बढ़ेगी, तो महत्वाकांक्षा बढ़ेगी, बदल जाती है, तो तीसरा सवाल खड़ा हो जाता है। एक समस्या | | एंबीशन बढ़ेगी। महत्वाकांक्षा बढ़ेगी, तो वह संघर्ष करेगा। तृप्ति का हम समाधान करते हैं, तो समाधान से ही दस समस्याएं खड़ी | कम हो जाएगी, असंतोष घना हो जाएगा। हो जाती हैं। समस्याओं का समाज के लिए कभी कोई अंत आने | | वह देखता है कि दूसरा आदमी अगर एम.ए. पास है और चीफ 319 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * हुआ है। मिनिस्टर हो गया है और मैं भी एम.ए. पास हूं, तो मैं क्यों क्लर्क आदमी पर निर्भर है। अगर आप, जिसको आप कह रहे हैं कि रहूं! और यह भी हो सकता है कि थर्ड क्लास एम.ए. मिनिस्टर हो सारा जगत स्वस्थ हो जाए, ये सारे उपद्रवी लोग अगर स्वस्थ हो गया है और फर्स्ट क्लास एम.ए. क्लर्क है, तो वह कैसे बरदाश्त | जाएं, तो आप यह मत सोचना कि शांति आएगी दुनिया में। वह जो करे! तो उपद्रव खड़ा होगा। बीमार था, एक पत्नी से राजी था; वह जब स्वस्थ हो जाएगा, दस लोग सोचते थे, गरीबी कम हो जाएगी, तो समाज में सुख आ | | पत्नियों से भी राजी होने वाला नहीं। वह बीमार था, तो वह कभी जाएगा। अमेरिका से गरीबी काफी मात्रा में तिरोहित हो गई। कम | | बरदाश्त भी कर लेता था; सह भी लेता था; समझा लेता था अपने से कम आधे वर्ग की तो तिरोहित हो गई। लेकिन वह जो आधा | | को। वह स्वस्थ हो जाएगा, तो वह तलवार लेकर कूद पड़ेगा, वह वर्ग आज गरीबी के बिलकुल पार है, वह बड़े महान दुख में पड़ा | सह भी नहीं सकेगा, बरदाश्त भी नहीं करेगा। आदमी अगर गलत है, तो उसका स्वस्थ होना खतरनाक है। अब तक हम सोचते थे कि धन होगा, तो सुख होगा। अब | आदमी अगर गलत है, तो उसका शिक्षित होना खतरनाक है। जिनके पास धन है, उनका सुख इस बुरी तरह खो गया है, जितना आदमी अगर गलत है, तो उसका धनी होना खतरनाक है। और किसी गरीब का कभी नहीं खोया था। गरीब को एक आशा थी कि आदमी गलत हैं, समाज गलत आदमियों का जोड़ है। हमारे कभी धन होगा, तो सुख मिल जाएगा। जिनके पास आज धन है, हिसाब से समाज सदा ही गलत आदमियों का जोड़ रहेगा। क्योंकि उनकी यह आशा भी खो गई है। धन है, और सुख नहीं मिला। अब जो भी आदमी ठीक हो जाता है, हिंदुओं के गणित से, वह वापस भविष्य बिलकुल अंधकार है। कुछ पाने योग्य भी नहीं है। और नहीं लौटता। फिर जीने की कोई आशा भी नहीं रह गई है। कृष्ण या बुद्ध या महावीर, जैसे ही शुभ हो जाते हैं, यह उनका तो अमेरिका सर्वाधिक आत्मघात कर रहा है। अधिकतम लोग आखिरी जीवन है। फिर इस जीवन में वे वापस नहीं आते। तो शुभ अपने को मिटाने की हालत में हैं। जीकर भी क्या करें? गरीबी मिट आदमी तो जीवन से तिरोहित हो जाता है, अशुभ आदमी लौटता जाए, अशिक्षा मिट जाए, हम सोचते हैं, बीमारी मिट जाए, सभी आता है। लोग स्वस्थ हो जाएं। पर स्वस्थ होकर भी आदमी क्या करेगा? यह कारागृह, जिसको हम संसार कहते हैं, वह बुरे आदमी की मैंने सुना है, तैमूरलंग ने एक ज्योतिषी को बुलाया। तैमूरलंग को जगह है। उसमें से भला तो अपने आप छिटककर बाहर हो जाता काफी नींद आती थी। तो उसने ज्योतिषी से पूछा कि बात क्या है? है। बुरा उसमें वापस लौट आता है; और भी निष्णात होता जाता क्या मेरे तारों में, क्या मेरे भाग्य में, क्या मेरी जन्मकुंडली में कुछ है; और भी कुशल होता जाता है बुराई में। जितनी बार लौटता है, ऐसी बात है कि मुझे बहुत नींद आती है? रातभर भी सोता हूं, तो | उतना निष्णात होता जाता है। भी दिनभर मुझे नींद आती है। और यह तो बुरा लक्षण है। क्योंकि इसलिए समाज कभी शुभ हो नहीं सकेगा। यह बात निराशाजनक शास्त्रों में कहा है, इतना आलस्य तामसी प्रवृत्ति का सूचक है। लग सकती है, लेकिन तथ्य यही है। उस ज्योतिषी ने कहा कि महाराज, इससे ज्यादा स्वागत-योग्य __ और कृष्ण या बुद्ध या महावीर या जीसस की उत्सुकता समाज में कुछ भी नहीं है। आप चौबीस घंटे सोएं। यह बिलकुल शुभ लक्षण नहीं है, उत्सुकता व्यक्ति में है। क्योंकि वही बदला जा सकता है। है। शास्त्र गलती पर हैं। और व्यक्ति को अगर जीवन-क्रांति करनी है, तो उचित है कि वह तैमूरलंग को भरोसा नहीं आया। उसने कहा कि शास्त्र गलत | व्यर्थ की बातों में न पड़े। कि दहेज की प्रथा मिटानी है, इसमें लग नहीं हो सकते; तुम यह क्या कह रहे हो! उसने कहा कि शास्त्रों ने | जाए; आदिवासियों को शिक्षित करना है, इसमें लग जाए; हरिजनों आपके संबंध में लिखा ही नहीं है। आप जैसा आदमी चौबीस घंटे का सुधार करना है, इसमें लग जाए; कोढ़ी की सेवा करना है, इसमें सोए, यही सुखद है। आप जितनी देर जगते हैं, उतना ही उपद्रव | लग जाए। कुछ भी बुरे नहीं हैं ये काम, सब अच्छे हैं। लेकिन होता है। आपसे उपद्रव के सिवाय कुछ हो ही नहीं सकता। तो | आपके पास जिंदगी कितनी है? और आप इसमें लग जाएं, तो आप परमात्मा की बड़ी कृपा है कि आप सोए रहें। आपका जीवित होना समाप्त हो जाएंगे। न हरिजन मिटता है, न कोढ़ी मिटता है, न बीमार खतरनाक है। आपका मर जाना शुभ है। मिटता है, आप मिट जाएंगे। नए तरह के हरिजन पैदा हो जाएंगे। 3201 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी संपदा * रूस ने लाख उपाय किए, क्रांति कर डाली। पुराना मजदूर मिट लेकिन ये रुख यात्रा के बिलकुल अलग-अलग हैं। जो व्यक्ति गया, नया मजदूर पैदा हो गया। पहले अमीर आदमी था, गरीब | | समाज की तरफ उत्सुक हो जाएगा कि समाज को बदलना है, वह आदमी था; अब सरकारी आदमी है और गैर-सरकारी आदमी है। व्यक्ति अपने को बदलने में उत्सुक नहीं होता। अगर गहरे से फर्क उतना ही है। तब भी कोई छाती पर बैठा था और कोई जमीन समझना चाहें, तो असल में हम दूसरे को बदलने में इसलिए उत्सुक पर पड़ा था; अब भी कोई जमीन पर पड़ा है और कोई छाती पर | | होते हैं, क्योंकि हम अपने को बदलना नहीं चाहते। यह एक तरह बैठा है। नाम बदल जाते हैं, बीमारी कायम रहती है। का पलायन है, यह एक तरकीब है। जिस व्यक्ति को आत्म-क्रांति में लगना है. उसे व्यर्थ के उपद्रव | तो हम देखते हैं, कहां-कहां दुनिया में भूल-चूक है, उसको से अपने को बचाना चाहिए, यह कृष्ण का अर्थ है। तो वे कहते हैं, | बदलना है। सिर्फ अपने में कोई भूल-चूक नहीं देखते। और अपने शास्त्र और समाज का जो नियम है, उसमें वह जो दैवी संपदा का | | में भूल-चूक दिखाई भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि दुनिया में काफी व्यक्ति है, वह व्यर्थ की अड़चन नहीं डालता। उसे खेल का नियम भूल-चूकें हैं। मानकर पूरा कर देता है। वह कहता है, बाएं चलना है तो हम बाएं और अगर मैंने यह तय कर लिया कि जब तक दुनिया न बदल चल लेते हैं। वह इस पर झगड़ा खड़ा नहीं करता कि नहीं, दाएं जाए, तब तक मैं अपनी तरफ ध्यान न दूंगा, तो मैं अनंत जन्मों तक चलेंगे। इस पर जीवन नहीं लगा देता। इसका कोई मूल्य भी नहीं लगा रहूं, तो भी मुझे अपने पर ध्यान देने का समय नहीं मिलेगा। है। और ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का, अपनी ऊर्जा का सम्यक | | यह दुनिया कभी पूरी बदल जाने वाली नहीं है। उपयोग कर पाता है। इसलिए समाज को चुपचाप स्वीकार कर लेना दकियानूसीपन और बड़े मजे की बात, विरोधाभासी दिखे तो भी बड़े मजे की नहीं है, एक बहुत बुद्धिमत्ता का कृत्य है। और इसका यह अर्थ बात यह है कि ऐसे व्यक्ति के जीवन के द्वारा समाज में कुछ घटित | | कदापि नहीं है कि ऐसे व्यक्ति से क्रांति घटित नहीं होती। ऐसे ही भी होता है। लेकिन वह प्रत्यक्ष नहीं होता घटित। वह सीधा समाज | व्यक्ति से क्रांति घटित होती है। लेकिन वह क्रांति परोक्ष है। वह को बदलने नहीं जाता, वह अपने को बदल लेता है। लेकिन उसकी | क्रांति लेनिन और मार्क्स और माओ जैसी क्रांति नहीं है। वह क्रांति बदलाहट के परिणाम समाज में भी प्रतिध्वनित होते हैं। महावीर, कृष्ण और बुद्ध की क्रांति है। वह बड़ी चुपचाप घटित हजारों क्रांतिकारी जो फर्क समाज में नहीं कर पाते, वह एक होती है। आत्मा को उपलब्ध व्यक्ति कर पाता है। लेकिन वह उसकी इच्छा | और इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वह चुपचाप घटित होता नहीं है; वह उसके लिए कोशिश में भी नहीं लगा है। उसकी | | है। और जो भी व्यर्थ है, कचरा-कूड़ा है, वह काफी शोरगुल करता मौजूदगी, उसके जीवन का प्रकाश अनेकों को बदलता है। लेकिन | है। इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, इतिहास उसको अंकित ही . वह बदलाहट बड़ी सौम्य है। वह कोई क्रांति नहीं है। वह बहुत | नहीं कर पाता। इस जगत में जो भी उपद्रव, उत्पात है, इतिहास सौम्य विकास है। उसका कोई शोरगुल भी नहीं है। वह चुपचाप | उसको अंकित करता है। घटित होता है। वह मौन ही घट जाता है। एक यहूदी फकीर के संबंध में मैं पढ़ता था। वह अक्सर लोगों बुद्ध कोई क्रांति नहीं करते हैं समाज में, लेकिन बुद्ध के बाद से कहता था कि मैं सिर्फ दो किताबें पढ़ता हूं, एक भगवान की और दुनिया दूसरी हो जाती है। बुद्धों की मौजूदगी, उनके ज्ञान की घटना, | | एक शैतान की। अनेक बार लोग उससे पूछते कि भगवान की मनुष्य की चेतना को कहीं गहरे में रूपांतरित कर जाती है; किसी किताब तो हम समझते हैं कि तालमुद यहूदियों का धर्मग्रंथ है, वह को पता भी नहीं चलता। यह ऐसे हो जाता है, जैसे चुपचाप कोई आप पढ़ते होंगे। लेकिन शैतान की किताब ? यह इसका नाम क्या फूल खिलता है और उसकी सुगंध हवाओं में फैल जाती है। न कोई | | | है? तो वह हंसता और टाल जाता। बैंड बजता, न कोई नगाड़े बजते; कोई शोरगुल नहीं होता, चुपचाप | जब उसकी मृत्यु हुई, तो पहला काम उसके शिष्यों ने यह किया सुगंध हवाओं में भर जाती है। फूल खो भी जाता है, तो सुगंध | | कि उसकी कोठरी खोलकर देखा कि वह शैतान की किताब! उसके तिरती रहती है। सदियों-सदियों तक उस सुगंध से लोग आप्लावित | वहां दो तख्तियां लगी थीं: एक तरफ भगवान की किताब-वहां होते हैं, रूपांतरित होते हैं। तालमद रखी थी, और शैतान की किताब-वहां रोज का 32] Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * अखबार। वहां कोई किताब नहीं थी, वह जो रोज का अखबार है! | | बचकाना लगता है, लेकिन जटिल है, और अब तक कुछ तय बस, दो ही किताबें वह पढ़ता था। नहीं हो पाया कि पहले अंडा या पहले मुर्गी। क्योंकि कुछ भी तय ___ अखबार इतिहास बन जाएगा। अगर जीसस के समय कोई करें, तो गलत मालूम होता है। कहें कि मुर्गी पहले होती है, तो अखबार होता, तो उसने जीसस की खबर छापी भी नहीं होती। गलत मालूम पड़ता है, क्योंकि मुर्गी बिना अंडे के कैसे हो किसी किताब में जीसस का कोई उल्लेख नहीं है। सिवाय जीसस | जाएगी! कहें कि अंडा पहले होता है, तो गलत मालूम होता है, के शिष्यों ने जो थोड़ा-सा लिखा है, बस वही बाइबिल, अन्यथा क्योंकि अंडा हो कैसे जाएगा जब तक मुर्गी उसे रखेगी नहीं! तो कोई उल्लेख नहीं है। क्या करें? प्रश्न में कहीं कोई भूल है, इसलिए उत्तर नहीं मिल पाता महावीर का इतिहास की किताबों में कोई उल्लेख नहीं है। वह | है। और जब प्रश्न गलत हो, तो सही उत्तर खोजना बिलकुल जो महान घटना है, इतिहास के जैसे बाहर घटती है। इतिहास असंभव है। कहां गलती है? उसकी चिंता ही नहीं लेता। क्योंकि वह इतनी सौम्य है, उसकी कोई मुर्गी और अंडा को दो मानने में गलती है। अंडा मुर्गी की एक चोट नहीं पड़ती। न किसी की हत्या होती है, न गोली चलती है, न | अवस्था है, मुर्गी अंडे की दूसरी अवस्था है। दोनों दो चीजें नहीं हैं। हड़ताल होती है, न घेराव होता है। कोई उपद्रव होता ही नहीं उसके अंडा ही फैलकर मुर्गी होता है, मुर्गी फिर सिकुड़कर अंडा होती है। आस-पास, इसलिए वह घटना चुपचाप घट जाती है। लेकिन | बीज से वृक्ष होता है, वृक्ष में फिर बीज लग जाते हैं; तो बीज उसके परिणाम सदियों तक गूंजते रहते हैं। और वृक्ष दो चीजें हैं नहीं। बीज का फैलाव वृक्ष है, वृक्ष का फिर इतिहास कचरा है। से सिकुड़ाव बीज है। एक रिदम है। चीजें फैलती हैं और सिकुड़ती अमेरिकी अरबपति हेनरी फोर्ड कभी-कभी बड़ी कीमत की बातें | | हैं। बीज सिकुड़ा हुआ वृक्ष है, वृक्ष फैला हुआ बीज है। और जैसे कहता था। कभी-कभी छोटे-छोटे वचन, लेकिन बडी कीमत की दिन के बाद रात है और रात के बाद दिन है. ऐसा फैलाव के बाद बातें कहता था। उसका एक बहुत प्रसिद्ध छोटा-सा वचन है। उसने | | सिकुड़ाव है, सिकुड़ाव के बाद फैलाव है। जन्म के बाद मृत्यु है, कहा है, हिस्ट्री इज़ बंक-बिलकुल कूड़ा-कर्कट है। और जो भी | मृत्यु के बाद जन्म है। ये दो घटनाएं नहीं हैं; एक वर्तुल है। महत्वपूर्ण है, वह इतिहास के बाहर है, वह समय के बाहर घट रहा तो मुर्गी और अंडा दो चीजें नहीं हैं; अंडा छिपी हुई मुर्गी है मुर्गी है; वह चुपचाप घटित हो रहा है। प्रकट हो गया अंडा है। और दोनों एक साथ हैं। इसलिए इस प्रश्न तो ऐसा नहीं है कि ऐसे व्यक्ति से क्रांति घटित नहीं होती, ऐसे | | को अगर किसी ने सोचना शुरू किया कि कौन पहले, तो वह पागल ही व्यक्ति से घटित होती है, लेकिन वह मौन क्रांति है। भला हो जाए सोचते-सोचते, वह इसका उत्तर नहीं पा सकेगा। और ऐसे बहुत-से प्रश्न हैं। यह प्रश्न भी वैसा ही है कि ये जो लक्षण हैं, इनके साधने से दिव्यता सधती है; या दिव्यता सध जाए, तीसरा प्रश्नः गीता में दैवी संपदा को प्राप्त व्यक्ति | तो ये लक्षण फूल की भांति खिल जाते हैं। के लक्षण या गुण बताए गए हैं। क्या उन्हें ये दो बातें अलग नहीं हैं। लक्षण सध जाएं, तो दिव्यता सध गई, अलग-अलग साधने से दिव्यता उपलब्ध होती है? क्योंकि उन लक्षणों में दिव्यता छिपी है। दिव्यता सध जाए, तो या दिव्यता की उपलब्धि पर उसके फूल की तरह ये | लक्षण आ गए, क्योंकि दिव्यता बिना उन लक्षणों के आ नहीं गुण चले आते हैं? | सकती। लक्षण और दिव्यता दो बातें नहीं हैं। लक्षण दिव्यता के अनिवार्य अंग हैं। तो आप कहीं से भी यात्रा करें। आप मुर्गी खरीद लाएं, तो घर टोनों ही बातें एक साथ सच हैं। दोनों बातें एक साथ में अंडे आ जाएंगे। आप अंडा ले आएं, तो मुर्गी बन जाएगी। पर | घटती हैं, युगपत। बैठकर सोचते ही मत रहें कि क्या लाएं। कुछ भी ले आएं। दो में प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई पूछे कि मुर्गी पहले होती से कुछ भी लाएं। कहीं ऐसा न हो कि आप सोचते ही रहें, मर्गी भी है कि अंडा! और सदियों से दार्शनिक विवाद करते रहे हैं। सवाल खो जाए, अंडा भी खो जाए। आप लक्षण साध लें, आप पाएंगे, 322 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी संपदा उनके साथ ही साथ दिव्यता खिलने लगी। आप छोड़े लक्षणों की | | पड़ेगा। बहिर्मुखी व्यक्ति कोई हो, तो उसे आचरण से शुरू करना चिंता। आप दिव्यता को साधने में लग जाएं। | पड़ेगा। दोनों संभावनाएं हैं। जो लोग लक्षणों को साधने चलते हैं, उन्हें तो आप लक्षण से शुरू करें या दिव्यता से; शुरू करें! दूसरी आचरण से अपने को बदलना शुरू करना पड़ता है। आचरण | | घटना अपने आप घट जाएगी। आचरण को बदलते-बदलते आप आपकी बहिर परिधि है। आप क्या करते हैं, उसमें बदलाहट करेंगे, | भीतर आने लगेंगे। क्योंकि आचरण की जड़ें तो भीतर हैं, सिर्फ तो लक्षण सध जाएंगे। जो लोग दिव्यता साधना चाहते हैं, उन्हें | शाखाएं बाहर हैं। अगर आप आचरण को बदलने लगे, तो आज अंतःकरण बदलने से शुरू करना पड़ता है। अंतःकरण आपका केंद्र | शाखाएं बदलेंगे, कल आप जड़ों को पकड़ लेंगे; जड़ें भीतर हैं। है। आप बदल जाएंगे, आपका आचरण बदल जाएगा। अगर आप अंतःकरण को बदलते हैं, तो अंतःकरण में जड़ें तो जहां से आपको सुगमता लगती हो, अगर आप बहिर्मुखी | | भीतर हैं, लेकिन शाखाएं बाहर हैं। आप जड़ों से शुरू करेंगे, यात्रा व्यक्ति हैं...। करते-करते आज नहीं कल बाहर पहुंच जाएंगे। मनसविद दो विभाजन करते हैं व्यक्तियों केः बहिर्मुखी, | ___ बाहर और भीतर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न तो बाहर एक्सट्रोवर्ट; और अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट। अगर आप बहिर्मुखी व्यक्ति | अलग है भीतर से, न भीतर अलग है बाहर से। बाहर और भीतर हैं, कि आपको बाहर की चीजें ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, तो आपके | एक का ही विस्तार है। कहीं से भी शुरू करें, दूसरा छोर प्रकट हो लिए उचित होगा कि आप लक्षण साधे। क्योंकि भीतर का आपको | जाएगा। लेकिन शुरू करें। जो शुरू नहीं करता...बहुत लोग हैं, कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। अगर आपसे कोई कह भी दे कि आंख | जो सोचते ही रहते हैं। बंद करो और भीतर देखो; तो आप कहेंगे, भीतर क्या है देखने | आज ही एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, मैं सोचता हूं, को? देखने को तो सब बाहर है। अगर भीतर आंख भी बंद कर | सोचता हूं, और सोचने में इतना खो जाता हूं कि निर्णय तो कुछ कर लें, तो भी बाहर की ही याद आएगी। मित्र दिखाई पड़ेंगे, मकान | | ही नहीं पाता। और जो भी निर्णय करता हूं, उससे विपरीत भी मेरी दिखाई पड़ेंगे, घटनाएं दिखाई पड़ेंगी, वह सब बाहर है। समझ में आता है कि ठीक है। और जब तक तय न हो जाए, तब __वैज्ञानिक है, वह बहिर्मुखी है। क्षत्रिय है, वह बहिर्मुखी है। कवि | तक निर्णय कैसे करूं! और तय कुछ होता नहीं। और जितना है, चित्रकार है, वह अंतर्मुखी है। उसे सब भीतर है। सोचता हूं, उतना ही तय होना मुश्किल होता जाता है। प्रसिद्ध डच चित्रकार हुआ, वानगाग। उसके चित्र बिक नहीं ___ अगर आप ज्यादा सोचेंगे, तो कठिनाई खड़ी होगी। अगर आप सके, क्योंकि उसके चित्र बिलकुल समझ के बाहर थे। वह वृक्ष | | सोचते ही रहेंगे, तो धीरे-धीरे सारी ऊर्जा सोचने में ही व्यतीत हो बनाएगा, तो इतने बड़े, कि आकाश तक चले जाएं। चांद वगैरह जाएगी। उसका कोई कृत्य नहीं बन पाएगा। और ध्यान रहे, जीवन बनाएगा, तो छोटे-छोटे लटका देगा, और वृक्ष चांद के ऊपर चले | की संपदा कृत्य से उपलब्ध होती है, सिर्फ विचार से नहीं! जा रहे हैं! वृक्षों को ऐसे रंग देगा, जैसे वृक्षों में होते ही नहीं रंग। | विचार सपनों की भांति हैं। जैसे समुद्र पर झाग और फेन उठती वृक्ष हरे हैं, उसके वृक्ष लाल भी हो सकते हैं। है, ऐसे चेतना की झाग और फेन की भांति विचार है। उनका कोई तो लोग कहते, यह तुम क्या करते हो। वह कहता, जब मैं आंख | मूल्य नहीं है। समुद्र की लहर पर लगता है, जैसे शिखर आ रहा है बंद करता हूं, तो जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं...। क्योंकि जब | | फेन का; लगता है, हाथ में ले लेंगे। लेकिन हाथ में पकड़ते हैं, तो भी मैं देखता हूं, तो मुझे वृक्ष पृथ्वी की आकांक्षाएं मालूम पड़ते हैं, | पानी के बबूले फूट जाते हैं, कुछ हाथ आता नहीं। ऐसा ही फेन और आकाश को छूने की आकांक्षाएं। जब भी मैं आंख बंद करता हूं, तो झाग है विचार आपकी चेतना का। वह लहर पर दूर से बड़ा कीमती मैं देखता हूं, पृथ्वी कोशिश कर रही है वृक्षों के द्वारा आकाश को | | दिखाई पड़ता है। सूरज की किरणों में बड़ी चमक मालूम होती है। छूने की, इसलिए मेरे वृक्ष आकाश तक चले जाते हैं। जो काम पृथ्वी घर में तिजोरी में सम्हालकर रखने जैसा लगता है। लेकिन हाथ में नहीं कर पाती, वह मैं करता हूं। पर वृक्षों को मैं ऐसे ही देखता हूं। | लेते ही पता चलता है, वहां कुछ भी नहीं है, पानी के बबूले हैं। __यह एक अंतर्मुखी व्यक्ति की, जिसका जगत भीतर है...। यह इस झाग से थोड़ा नीचे उतरना जरूरी है। उस लहर को पकड़ना अंतर्मुखी व्यक्ति अगर कोई हो, तो उसे दिव्यता से शुरू करना | | जरूरी है जिस पर यह झाग है। और लहर के नीचे छिपे सागर को 323 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 पकड़ना जरूरी है, जिसकी यह लहर है। और तभी जीवन में कोई रूपांतरण, कोई क्रांति संभव है। अब हम सूत्र को लें। और हे पार्थ, पाखंड, घमंड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। और हे अर्जुन, इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया, इसलिए अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन । पाखंड, हिपोक्रेसी...। पाखंड का अर्थ है, जो आप हैं, वैसा स्वयं को दिखाना । जो आपका वास्तविक चेहरा नहीं है, उस चेहरे को प्रकट करना । हम सबके पास मुखौटे हैं। जरूरत पर हम उन्हें बदल लेते हैं। सुबह से सांझ तक बहुत बार हमें नए-नए चेहरों का उपयोग करना पड़ता है। जैसी जरूरत हो, वैसा हम चेहरा लगा लेते हैं। धीरे-धीरे यह भी हो सकता है कि इस पाखंड में चलते-चलते आपको भूल ही जाए कि आप कौन हैं। यही हो गया है। अगर आप अपने से पूछें कि मैं कौन हूं, तो कोई उत्तर नहीं आता। क्योंकि आपने इतने चेहरे प्रकट किए हैं, आपने इतने रूप धरे हैं, आपने इतनी भांति अपने को प्रचारित किया है, कि अब आप खुद भी दिग्भ्रम में पड़ गए हैं कि मैं हूं कौन ! क्या है सच मेरा! मेरी कोई सचाई है, या बस मेरा सब धोखा ही धोखा है! सुबह से सांझ तक, हम जो नहीं हैं, वह हम अपने को प्रचारित कर रहे हैं। कृष्ण ने दैवी संपदा में गिनाया, सत्य, प्रामाणिकता, आथेंटिसिटी, व्यक्ति जैसा है, बस वही उसका होने का ढंग है, चाहे कोई भी परिणाम हो। आसुरी संपदा में उसके अनेक चेहरे हैं। हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद आपको अर्थ पकड़ में नहीं आया होगा । कि रावण दशानन है, उसके दस चेहरे हैं। राम का एक ही चेहरा है। राम आथेंटिक हैं, प्रामाणिक हैं। उन्हें आप पहचान सकते हैं, क्योंकि कोई धोखा नहीं है। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके बहुत चेहरे हैं। दस का मतलब, बहुत। क्योंकि दस आखिरी संख्या है। दस से बड़ी फिर कोई संख्या नहीं है। फिर सब संख्याएं दस के ऊपर जोड़ हैं। दस चेहरे का मतलब है, बस आखिरी । उसका असली चेहरा कौन है, यह पहचानना मुश्किल है। रावण असुर है । और हमारे | चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी बहुत चेहरे होते हैं। हम भी दशानन होते हैं। इससे हम दूसरे को धोखा देते हैं, वह तो ठीक है, इससे हम खुद भी धोखा खाते हैं। क्योंकि हमें खुद ही भूल जाता है कि हमारा स्वरूप क्या है। पाखंड का अर्थ है, दूसरे को धोखा देना और अंततः उस धोखे 'खुद' को भी धोखे में डाल लेना । झूठ का स्वभाव है, एक झूठ को बचाना हो, तो फिर हजार झूठ | बोलने पड़ते हैं। फिर इतनी अनंत श्रृंखला है झूठों की कि हमें याद भी नहीं रहता कि पहला झूठ क्या था, हमने बोला था। झूठ का एक दूसरा स्वभाव है, अगर बार-बार उसे पुनरुक्त किया जाए, तो निरंतर पुनरुक्ति के कारण हम आटो-हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं, हम सम्मोहित हो जाते हैं। और हमें खुद ही लगने लगता है कि यह ठीक है । आप एक झूठ बार-बार दोहराते रहें, फिर आपको खुद ही शक होने लगेगा कि यह सच है या झूठ है ! क्योंकि आपने इतनी बार दोहराया है कि उसकी छाप आपके ऊपर पड़ गई । मैं पढ़ रहा था, एक आदमी ने हत्या की थी, और उस पर मुकदमा चल रहा था। वर्षों तक कार्यवाही चली। बड़ा जटिल | उलझा हुआ मामला था। वकीलों के बयान हुए, गवाहों के बयान हुए, अदालत चलती रही। अंत में मजिस्ट्रेट भी थक गया, , क्योंकि सब स्थिति बिलकुल कनफ्यूज्ड थी। कुछ साफ नहीं होता था। कोई दो वक्तव्यों में मेल नहीं होता था। कोई दो गवाहों का बयान मिलता नहीं था। कुछ निर्णय होना मुश्किल था। आखिर जज ने थककर उस हत्यारे को पूछा कि तू कृपा कर और तू स्वयं कह दे कि बात | क्या है ? तो उसने कहा कि जब शुरू-शुरू में मैं आया था, तब मुझे भी साफ था। अब मुश्किल है। मैं भी कनफ्यूज हो गया हूं। अब मैं साफ-साफ कह नहीं सकता कि मैंने की हत्या या नहीं की। क्योंकि जब मैं अपने वकील की दलीलें सुनता हूं, तो मुझ को भी भरोसा आता है कि मैंने की नहीं। यह कुछ गलती हो गई। या मैंने कोई सपना देखा। इसलिए अब मेरी बात का कोई मूल्य नहीं है अब तो आप ही तय कर लें। 324 यह स्थिति है। आप भी अगर एक झूठ कई वर्ष तक बोलते रहें, तो आपको पीछे पक्का होना मुश्किल हो जाता है कि आप झूठ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसुरी संपदा बोले थे कि यह सच है। झूठ का यह दूसरा स्वभाव है कि उसको आप पुनरुक्त करें, तो वह सच जैसा मालूम होने लगता है। और हर झूठ को और झूठों की जरूरत है। I मैंने काशी में एक दुकान पर एक तख्ती लगी हुई देखी । घी की दुकान थी। उस पर तख्ती लगी है, असली घी की दुकान। नीचे लिखा है, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब का शुद्ध देशी घी यहां मिलता है। नकली सिद्ध करने वाले को पांच रुपया नकद इनाम और उसके नीचे लिखा है लाल अक्षरों कि इस तरह इनाम यहां कई बार बांटे जा चुके हैं। ऐसी हमारे चित्त की दशा हो जाती है। पाखंड का अर्थ है, आप कुछ हैं, कुछ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो आप हैं, वह आपकी सब कोशिश के भीतर से भी झांकता रहेगा। आप उसे बिलकुल छिपा भी नहीं सकते। उसे बिलकुल मिटाया नहीं जा सकता; वह आपके भीतर छिपा है। इसलिए भला आपको न दिखाई पड़े, दूसरों को दिखाई पड़ता है। अक्सर यह होता है कि आपके संबंध में दूसरे लोग जो कहते हैं, वह ज्यादा सही होता है; बजाय उसके, जो आप अपने संबंध में कहते हैं। नब्बे प्रतिशत मौका इस बात का है कि दूसरे जो आप में देख पाते हैं, वह आप नहीं देख पाते। क्योंकि आप अपने धोखे में इस भांति लीन हो गए हैं। लेकिन दूसरा आपको देखता है, तो आपकी जो झीनी पर्त है धोखे की उसके पीछे से आपका असली हिस्सा भी दिखाई पड़ता है। पाखंडी व्यक्ति की कई परतें हो जाएंगी। जितना पाखंडी होगा, उतनी परतें हो जाएंगी। और इन सारी परतों का कष्ट है। और हर पर्त को बचाने के लिए नई परतें खड़ी करनी पड़ेंगी। सत्य की एक सुविधा है, उसे याद रखने की जरूरत नहीं, उसको स्मरण रखने की जरूरत नहीं। झूठ को याद रखना पड़ता है। झूठ के लिए काफी कुशलता चाहिए। सत्य तो सीधा आदमी भी चला लेता है, क्योंकि याद रखने की कोई जरूरत नहीं । सत्य सत्य है। उससे दस साल बाद पूछेंगे, वह कह देगा। लेकिन झूठ आदमी को दस साल तक याद रखना पड़ेगा कि उसने एक झूठ बोला, फिर उसको सम्हालने के लिए कितने झूठ बोले । तो झूठ के लिए बड़ी स्मृति चाहिए। इसलिए छोटी-मोटी बुद्धि आदमी से झूठ नहीं चलता । झूठ चलाने के लिए काफी फैलाव चाहिए। इसलिए जितना आदमी शिक्षित हो, तार्किक हो, गणित का जानकार हो, उतना ज्यादा झूठ बोलने में कुशल हो सकता है। दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती है, उतना झूठ बढ़ता है इसीलिए, क्योंकि लोगों की स्मृति की कुशलता बढ़ती है। वे याद रख सकते हैं, वे मैनिपुलेट कर सकते हैं, वे नए झूठ गढ़ सकते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे से कह रहा है, तेरे झूठ को अब हम | बरदाश्त ज्यादा नहीं कर सकते । तू गजब के झूठ बोल रहा है! उस | लड़के ने कहा, मैं और झूठ ! नसरुद्दीन ने सिर्फ उसको दिखाने के लिए, मित्र एक साथ खड़ा था, तो उसको कहा कि अच्छा तू एक | झूठ अभी बोलकर बता, यह एक रुपया तुझे इनाम दूंगा । उसके | लड़के ने कहा, पांच रुपए कहा था ! वह कह रहा है, एक रुपया तुझे दूंगा, तू झूठ बोलकर बता । वह लड़का कह रहा है, पांच रुपया कहा है आपने झूठ बोलने की आगे कोई जरूरत नहीं है। यह जो हमारी चित्त की स्थिति है, इस स्थिति में अगर आप परमात्मा को खोजने निकले, तो खोज असंभव है। अगर परमात्मा भी आपको खोजने निकले, तो भी खोज असंभव है। क्योंकि आपको खोजेगा कहां ? आप जहां-जहां दिखाई पड़ते हैं, वहां-वहां नहीं हैं। जहां आप हैं, उस जगह का आपको भी पता नहीं है। और किसी को आपने पता बताया नहीं । यहूदियों में एक सिद्धांत है कि आदमी तो परमात्मा को खोजेगा कैसे ? कमजोर, अज्ञानी ! यहूदी मानते हैं, परमात्मा ही आदमी को खोजता है । यहूदी फकीर बालशेम से किसी ने पूछा कि यह सिद्धांत | बड़ा अजीब है। अगर परमात्मा आदमी को खोजता है, तो अभी तक हमें खोज क्यों नहीं पाया? हम खोजते हैं, नहीं खोज पाते, यह | तो समझ में आता है। परमात्मा खोजता है, तो हम अभी तक क्यों भटक रहे हैं? बालम ने कहा कि तुम्हें खोजे कहां ? तुम जहां भी बताते हो कि तुम हो। वहां पाए नहीं जाते। वहां जब तक वह पहुंचता है, तुम | कहीं और वह तुम्हारा पीछा कर रहा है। लेकिन तुम पारे तरह | हो; तुम छिटक-छिटक जाते हो। तुम्हारा कोई पता-ठिकाना नहीं है, कोई आइडेंटिटी नहीं है। तुम्हारी कोई पहचान नहीं है। तुम्हें कैसे पहचाना जाए ? मैंने सुना है, एक बैंक में बड़े कैशियर की जगह खाली थी। बहुत-से लोगों ने इंटरव्यू दिए। बड़ी पोस्ट थी, बड़ी तनख्वाह थी पोस्ट की। और बड़े दायित्व का काम था, बहुत बड़ी बैंक थी। फिर | जब डायरेक्टर्स की बैठक हुई और उन्होंने मैनेजिंग डायरेक्टर को पूछा कि किस आदमी को चुना है? तो जिस आदमी को खड़ा 325 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* किया, सारे डायरेक्टर परेशान हुए। उसकी दोनों आंखें दो तरफ जा | | आप उसको गलत भी सिद्ध नहीं कर सकते। उसका खतरा भारी रही थीं, दांत बाहर निकले थे, नाक तिरछी थी, चेहरा भयानक | है। और खतरा तो यही है कि मैं अपने को कुछ समझं और उसमें था, लंगड़ाकर वह आदमी चलता था। अकड़ जाऊं। ___ उन्होंने पूछा, तुम्हें कोई और आदमी नहीं मिला? उसने कहा कि आसुरी वृत्ति का व्यक्ति सदा अपने को कुछ समझता है, यही बिलकुल ठीक है। क्योंकि कभी भी यह भागे, तो इसको समबडी। वह हो या न हो। रावण का घमंड घमंड नहीं है, अभिमान पकड़ने में दिक्कत नहीं होगी। चीफ कैशियर! यह बिलकुल ठीक | है। क्योंकि वह आदमी कीमती है, इसमें कोई शक नहीं है। उस है। इसकी आइडेंटिटी कहीं भी, दुनिया के किसी कोने में भी जाए, जैसा पंडित खोजना मुश्किल है। उसकी अकड़ झठ नहीं है। उसकी इसे हम पकड़ लेंगे। अकड़ में सचाई है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! अकड़ में आपकी कोई आइडेंटिटी नहीं है। परमात्मा भी पकड़ना चाहे, तो सचाई है, तो अकड़ और मजबूत हो गई। और अकड़ के कारण ही आपको कहां पकड़े! आदमी परमात्मा से मिलने में असमर्थ हो जाता है। पाखंड का जो सबसे बड़ा उपद्रव है, वह यह है कि आपकी रावण का संघर्ष हो गया राम से। ये तो प्रतीक हैं, क्योंकि अकड़ पहचान खो जाती है, प्रत्यभिज्ञा मुश्किल हो जाती है। और आसुरी का संघर्ष हो ही जाएगा परमात्मा से। जहां भी अकड़ है, वहां आप व्यक्ति का वह पहला लक्षण है। राम से संघर्ष में पड़ जाएंगे। घमंड और अभिमान...। जहां अकड़ गई, वहां आप तरल हो जाते हैं। फिर आपकी यह थोडा सोचकर मश्किल होगी. क्योंकि हम तो घमंड और लहर पिघल जाती है, उस पिघलेपन में आपका सागर से मिलन अभिमान का एक-सा ही उपयोग करते हैं। घमंड और अभिमान हो जाता है। का एक ही अर्थ लिखा है शब्दकोशों में। पर कृष्ण उनका दो तो यह आप मत सोचना कभी कि मेरी अकड़ सही है या गलत उपयोग करते हैं। है। अकड़ गलत है। उस अकड़ के दो नाम हैं। अगर वह गलत हो घमंड उस अभिमान का नाम है, जो वास्तविक नहीं है। और तो घमंड, अगर सही हो तो अभिमान। पर कृष्ण कहते हैं, दोनों ही अभिमान उस घमंड का नाम है, जो वास्तविक है। लेकिन दोनों पाप आसुरी संपदा के लक्षण हैं। हैं और दोनों आसुरी हैं। मतलब यह कि एक आदमी, जो सुंदर नहीं क्रोध और कठोर वाणी...। है और अपने को सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। सुंदर है। संयुक्त हैं, क्योंकि कठोर वाणी क्रोध का ही रूप है। भीतर क्रोध नहीं, सुंदर समझता है; अकड़ा रहता है। यह घमंड है। दूसरा हो, तो आपकी वाणी में एक कठोरता, एक सूखापन प्रवेश हो जाता आदमी सुंदर है, सुंदर समझता है और अकड़ा रहता है। वह | है। भीतर प्रेम हो, तो आपकी वाणी में एक माधुर्य, एक मिठास अभिमान है। पर दोनों ही आसुरी हैं। | फैल जाती है। पहला तो हमें समझ में आ जाता है, क्योंकि वह गलत है ही; । । वाणी आपसे निकलती है और आपके भीतर की खबरें ले आती लेकिन दूसरा हमें समझ में नहीं आता, वह सही होकर भी गलत है। है। वाणी आपके भीतर से आती है. तो आपके भीतर की हवाएं इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप सुंदर हैं या नहीं! असली फर्क | और गंध वाणी के साथ बाहर आ जाती हैं। इससे पड़ता है कि आप अपने को सुंदर समझते हैं। जो आदमी कठोर वाणी का केवल इतना ही अर्थ है कि भीतर पथरीला हृदय बुद्धिमान है, वह अगर अकड़े कि मैं बुद्धिमान हूं, तो उतना ही पाप | है; भीतर आप कठोर हैं। मधुर वाणी का इतना ही अर्थ है कि जहां हो रहा है, जितना बुद्ध अकड़े और सोचे कि मैं बुद्धिमान हूं। इससे से हवाएं आ रही हैं, वहां शीतलता है, वहां माधुर्य है। कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि असली बात अकड़ की है। क्रोध लक्षण होगा आसुरी व्यक्ति का; वह हमेशा ऋद्ध है, हर और एक और खतरा है कि वह जो गलत ढंग से, जो है नहीं चीज पर क्रुद्ध है। नाराज होना उसका स्वभाव है। उठेगा, बैठेगा, बुद्धिमान, अपने को बुद्धिमान समझ रहा है, वह तो शायद किसी | तो वह क्रोध से उठ-बैठ रहा है। जहां भी देखेगा, वह क्रोध से देख दिन चेत भी जाए; लेकिन वह जो बुद्धिमान है और अपने को रहा है। वह सिर्फ भूल की तलाश में है कि कहीं भूल मिल जाए, बुद्धिमान समझ रहा है, उसका चेतना बहुत मुश्किल है। क्योंकि कोई बहाना मिल जाए, कोई खूटी मिल जाए, तो अपने क्रोध को 13261 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी संपदा * टांग दे। अगर उसे कोई बहाना न मिले, तो वह बहाना निर्मित कर | लिए निर्मित किया है। कारागृह ऐसा, जो आपने ही अपने लिए लेगा। अगर उसे कोई भी क्रोध करने को न मिले, तो वह अपने पर बनाया है। भी क्रोध करेगा। लेकिन क्रोध करेगा और उसकी वाणी में उसके __दैवी संपदा मुक्त करेगी; दीवारें गिरेंगी, खुला आकाश प्रकट क्रोध की लपटें बहती रहेंगी। वह जो भी बोलेगा, वह तीर की तरह होगा। पंख आपके पास हैं; लेकिन पंखों पर अगर आपने बंधन हो जाएगा, किसी को चुभेगा और चोट पहुंचाएगा। बांध रखे हैं, तो उड़ना असंभव है। और अगर बहुत समय से आप क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान, ये सब आसुरी संपदा को । उड़े नहीं हैं, तो आपको खयाल भी मिट जाएगा कि आपके पास प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। पंख हैं। अज्ञान का अर्थ ठीक से समझ लेना। अज्ञान का अर्थ यह नहीं चील बड़े ऊंचे वृक्षों पर अपने अंडे देती है। फिर अंडों से बच्चे है कि वह कम पढ़ा-लिखा होगा। वह खूब पढ़ा-लिखा हो सकता | आते हैं। वृक्ष बड़े ऊंचे होते हैं। बच्चे अपने नीड़ के किनारे पर है। अज्ञान का यह मतलब नहीं है कि वह पंडित नहीं होगा। वह | बैठकर नीचे की तरफ देखते हैं, और डरते हैं, और कंपते हैं। पंख पंडित हो सकता है। रावण पंडित है, महापंडित है। जानकारी उनके पास हैं। उन्हें कुछ पता नहीं कि वे उड़ सकते हैं। और इतनी उसकी बहुत हो सकती है। लेकिन बस, वह जानकारी होगी, ज्ञान नीचाई है कि अगर गिरे, तो प्राणों का अंत हुआ। उनकी मां, उनके न होगा। ज्ञान का अर्थ है, जो स्वयं अनुभूत हुआ हो। जानकारी का पिता को वे आकाश में उडते भी देखते हैं. लेकिन फिर भी भरोसा अर्थ है, जो दूसरों ने अनुभव की हो और आपने केवल संगृहीत नहीं आता कि हम उड़ सकते हैं। कर ली हो। तो चील को एक काम करना पड़ता है...। इन बच्चों को ज्ञान अगर उधार हो, तो पांडित्य बन जाता है। ज्ञान अगर आकाश में उड़ाने के लिए कैसे राजी किया जाए! कितना ही अपना, निजी हो, तो प्रज्ञा बनती है। समझाओ-बुझाओ, पकड़कर बाहर लाओ, वे भीतर घोंसले में अज्ञान का यहां अर्थ है कि वह चाहे जानता हो ज्यादा या न | जाते हैं। कितना ही उनके सामने उड़ो, उनको दिखाओ कि उड़ने का जानता हो, लेकिन स्वयं को नहीं जानेगा। सब जानता हो, सारे | आनंद है, लेकिन उनका साहस नहीं पड़ता। वे ज्यादा से ज्यादा जगत के शास्त्रों का उसे पता हो, लेकिन स्वयं की उसे कोई पहचान घोंसले के किनारे पर आ जाते हैं और पकड़कर बैठ जाते हैं। न होगी, आत्म-ज्ञान न होगा। तो आप जानकर हैरान होंगे कि चील को अपना घोंसला तोड़ना और जो भी वह जानता है, वह सब उधार होगा। उसने कहीं से | पड़ता है। एक-एक दाना जो उसने घोंसले में लगाया था, एक-एक सीखा है, वह उसकी स्मृति में पड़ा है। लेकिन उसके माध्यम से कूड़ा-कर्कट जो बीन-बीनकर लाई थी, उसको एक-एक को उसका जीवन नहीं बदला है। वह उस ज्ञान में जला और निखरा नहीं | | गिराना पड़ता है। बच्चे सरकते जाते हैं भीतर, जैसे घोंसला टूटता है। उस ज्ञान ने उसको तोड़ा और नया नहीं किया। वह ज्ञान उसकी | | है। फिर आखिरी टुकड़ा रह जाता है घोंसले का। चील उसको भी मत्य भी नहीं बना और उसका जन्म भी नहीं बना। वह ज्ञान धल छीन लेती है। बच्चे एकदम से खले आकाश में हो जाते हैं। एक की तरह उस पर इकट्ठा हो गया है। उस ज्ञान की पर्त होगी उसके क्षण भी नहीं लगता, उनके पंख फैल जाते हैं और आकाश में वे पास, लेकिन वह ज्ञान उसके हृदय तक नहीं पहुंचा है। वह ज्ञान को चक्कर मारने लगते हैं। दिन, दो दिन में वे निष्णात हो जाते हैं। दिन, ढोएगा, लेकिन ज्ञान उसका पंख नहीं बनेगा कि उसको मुक्त कर | | दो दिन में वे जान जाते हैं कि खुला आकाश हमारा है; पंख हमारे दे। उसका ज्ञान वजन होगा, उसका ज्ञान निर्भार नहीं है। पास हैं। अज्ञान का यहां अर्थ है, अपने को न जानना; अपने स्वभाव से ___ हमारी हालत करीब-करीब ऐसी ही है। कोई चाहिए, जो आपके अपरिचित होना। घोंसले को गिराए। कोई चाहिए, जो आपको धक्का दे दे। गुरु का उन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए है | वही अर्थ है। और आसुरी संपदा बंधन के लिए मानी गई है...। ___ कृष्ण वही कोशिश अर्जुन के लिए कर रहे हैं। सारी गीता अर्जुन आसुरी संपदा बांधेगी, आपको बंद करेगी। जैसे कोई कारागृह का घर, घोंसला तोड़ने के लिए है। सारी गीता अर्जुन को स्मरण में पड़ा हो। और यह कारागृह ऐसा नहीं कि किसी दूसरे ने आपके दिलाने के लिए है कि तेरे पास पंख हैं, तू उड़ सकता है। यह सारी | 327] Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* हुआ है? कोशिश यह है कि किसी तरह अर्जुन को धक्का लग जाए और वह | इनको मारने से मैं डरता हूं। यह आधी बात तो दैवी है और आधी खुले आकाश में पंख फैला दे। अज्ञान और आसुरी से भरी है। इन दोनों प्रकार की संपदाओं में दैवी संपदा तो मुक्ति के लिए | दैवी तो इतनी बात है कि हिंसा के प्रति उनके मन में उपेक्षा पैदा और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन, | हुई है, हिंसा में रस नहीं रहा। लेकिन कारण है, क्योंकि ये मेरे हैं। तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। | अगर ये पराए होते, तो अर्जुन उनको, जैसे किसान खेत काट रहा __अर्जुन को भरोसा दिला रहे हैं कि तू घबड़ा मत, तू दुख मत कर, हो, ऐसे काट देता। वह कोई नया नहीं था काटने में। जीवन में कई तू चिंता मत कर। तू दैवी संपदा को उपलब्ध हुआ है। बस, पंख बार उसने हत्याएं की थीं और लोगों को काटा था। काटना उसे खोलने की बात है, खुला आकाश तेरा है।। सहज काम था। कभी उसने सोचा भी नहीं था कि आत्मा का क्या क्यों अर्जुन को वे कह रहे हैं कि तू दैवी संपदा को उपलब्ध होगा, स्वर्ग, मोक्ष-कुछ सवाल न उठे थे। लेकिन वे अपने नहीं थे, ये सब अपने लोग हैं। उस तरफ गुरु खड़े हैं, भीष्म खड़े हैं, अर्जन की जिज्ञासा दैवी है। यह भाव भी अर्जन के मन में आना सब चचेरे भाई-बंध हैं। ये मेरे हैं। कि क्यों मारूं लोगों को, क्यों हत्या करूं, क्यों इस बड़े हिंसा के यह ममत्व अज्ञान है। न काटूं, यह तो बड़ी दैवी भावना है। हिंसा उत्पात में उतरूं! यह खयाल मन में आना कि इससे राज्य मिलेगा, | न करूं, यह तो बड़ा शुभ भाव है। लेकिन मेरे हैं, इसलिए न करूं, साम्राज्य मिलेगा, बड़ी पृथ्वी मेरी हो जाएगी, पर उसका सार क्या | यह अशुभ से जुड़ा हुआ भाव है। वह अशुभ मिट जाए, फिर भी है। लोभ के प्रति यह विरक्ति, साम्राज्य के प्रति यह उपेक्षा, हिंसा अर्जुन दिव्यता की तरफ बढ़े, यह कृष्ण की पूरी चेष्टा है। और हत्या के प्रति मन में ग्लानि! वह भाव मेरे का पाप है। तो कौन मेरा है, कौन मेरा नहीं है? या ___ अर्जुन कहता है, मैं यह सब छोड़कर जंगल चला जाऊं, संन्यस्त तो सब मेरे हैं, या कोई भी मेरा नहीं है! फिर अर्जुन कहता है, इनको हो जाऊं, वही बेहतर है। अर्जुन कहता है, ये सब मेरे अपने जन हैं। मारूं, यह उचित नहीं है, यह बात तो दैवी है। लेकिन मैं इनको मार इस तरफ, उस तरफ। इन सबको मारकर, मिटाकर अगर मैंने राज्य सकता हूं, यह बात अज्ञान से भरी है। यह थोड़ा जटिल है। भी पा लिया, तो वह खुशी इतनी अकेले की होगी कि खुशी न रह __ मैं किसी को न मारूं, यह भाव तो अच्छा है; लेकिन मैं किसी जाएगी, क्योंकि खुशी तो बांटने के लिए होती है। जिनके लिए मैं | को मार सकता हूं, आत्मा की हत्या हो सकती है, यह भाव अज्ञान राज्य पाने की कोशिश कर रहा हूं, जो मुझे राज्य पाया हुआ देखकर से भरा है। मैं चाहूं तो भी मार नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा आपकी आनंदित और प्रफुल्लित होंगे, उनकी लाशें पड़ी होंगी। तो जिस | देह को नुकसान पहुंचा सकता हूं। और देह को क्या नुकसान सुख को मैं बांट न पाऊंगा, जो सुख मेरे अपने जो प्रियजन हैं उनके | पहुंचाया जा सकता है! देह तो मुरदा है। उसको मारने का कोई साथ साझेदारी में नहीं भोगा जा सकेगा, उसके भोगने का अर्थ ही | उपाय नहीं। वह तो मिट्टी है। उसको काटने से कुछ कटता नहीं। क्या है? देह के भीतर जो छिपा है, उस चिन्मय को तो काटा नहीं जा सकता। यह भाव दैवी है। लेकिन इन दैवी भावों के पीछे जो कारण वह | | वह तो कोई मिट्टी नहीं है। उस अमृत को तो मारने का कोई उपाय दे रहा है, वे अज्ञान से भरे हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि पहली बार नहीं है। जब दैवी आकांक्षा जगती है, तो उसकी जड़ें तो हमारे अज्ञान में ही ___ अर्जुन कहता है कि हिंसा बुरी है। लेकिन क्या हिंसा हो सकती होती हैं। हम अज्ञानी हैं। इसलिए हममें अगर दैवी आकांक्षा भी है? यह भाव अज्ञान से भरा है। हिंसा तो हो ही नहीं सकती; हिंसा जगती है, तो उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान का हाथ होता है। का कोई उपाय नहीं है। हिंसा का भाव किया जा सकता है, हिंसा उस दैवी आकांक्षा में हमारे अज्ञान की छाया होती है। | नहीं की जा सकती। हिंसा का भाव पापपूर्ण है। हिंसा की जा सकती लेकिन कृष्ण पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह भरोसे से भर जाए; है, यह भाव अज्ञान से भरा है। वह अज्ञान को भी छोड़ दे। वह जिन कारणों को बता रहा है, उनको ___ अर्जुन में दिव्यता का जागरण हुआ है, लेकिन वह दिव्यता अभी भी गिरा दे। क्योंकि वे कारण अगर सही हैं, तो अर्जुन कठिनाई में | | आसुरी बिस्तर पर ही लेटी है। आंख खुली है, करवट बदली है, पड़ जाएगा। क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरे प्रियजन हैं, इसलिए लेकिन बिस्तर अभी उसने छोड़ा नहीं है। वह बिस्तर भी छूट जाए, 328 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी संपदा * यह घोंसला भी हट जाए और अर्जुन खुले आकाश में मुक्त होकर हैं, स्वतंत्र हों; और एक तरफ भीतर से हम चाहते हैं कि परतंत्र उड़ सके...। बनें। क्योंकि परतंत्रता के कुछ सुख हैं; उन सुखों को हम छोड़ नहीं हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ पाते हैं। परतंत्रता की कोई सुरक्षा है। है। और हे अर्जुन इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने कारागृह में जितना आदमी सुरक्षित है, कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गए हैं, एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा। उनमें देवों बाहर दंगा भी हो रहा है, बलवा भी हो रहा है, हिंदू-मुसलमान लड़ का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिए अब असुरों के | रहे हैं, गोली चल रही है, पुलिस है, सरकार है-सब उपद्रव बाहर स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन। चल रहा है। कारागृह में कोई उपद्रव नहीं है। वहां जो आदमी दो स्वभाव, एक ही चेतना के। एक आदमी बंधन में पड़ा है, हथकड़ी में बैठा है, वहां न कोई दुर्घटना होती है, न मोटर एक्सिडेंट हाथ में जंजीरें हैं, पैर में बेड़ियां हैं। फिर हम इसके बंधन काट देते | होता है, न हवाई जहाज गिरता है, न ट्रेन उलटती है; कुछ नहीं हैं; हाथ की बेड़ियां छूट जाती हैं, पैर की जंजीरें गिर जाती हैं, अब | होता। वहां वह बिलकुल सुरक्षित है। कारागृह की एक सुरक्षा है, यह मुक्त खड़ा है। क्या यह आदमी दूसरा है या वही? क्षणभर जो बाहर संभव नहीं है। पहले बेड़ियां थीं, जंजीरें थीं; अब जंजीरें नहीं, बेड़ियां नहीं। सुरक्षा हम सब चाहते हैं। सुरक्षा के कारण हम कारागृह बनाते क्षणभर पहले एक कदम भी उठाना इसे संभव न था। अब यह | हैं। स्वतंत्रता का खतरा है, क्योंकि खुला जगत जोखम से भरा हजार कदम उठाने के लिए मुक्त है। क्या यह आदमी वही है या है। स्वतंत्रता हम चाहते हैं, लेकिन खतरा उठाने की हमारी हिम्मत दूसरा है? नहीं है। एक अर्थ में यह आदमी वही है, कुछ भी बदला नहीं। क्योंकि एक बहुत बड़े पश्चिम के विचारक इरिक फोम ने एक किताब बेड़ियां इस आदमी का स्वभाव न थीं, इसके ऊपर से पड़ी थीं। हाथ | लिखी है, फिअर आफ फ्रीडम। बड़ी कीमती किताब है। से बड़ियां हट जाने से इसका हाथ तो नहीं बदला। इसकी पैर से । एक भय है स्वतंत्रता का। हम सबके भीतर सब डरते. जंजीरें टूट जाने से इसका व्यक्तित्व नहीं बदला। यह आदमी तो हैं। हम कहते हैं कि स्वतंत्रता हम चाहते हैं. लेकिन हम डरते हैं. वही है। हम कंपते हैं। हम भी अपने घोंसले को वैसे ही पकड़ते हैं, जैसे एक अर्थ में आदमी वही है; दूसरे अर्थ में आदमी वही नहीं है। चील का बच्चा पकड़ता है। उसको लगता है कि मर जाएंगे; इतना क्योंकि जंजीरों के गिर जाने से अब यह मुक्त है। यह चल सकता लंबा खड्डु है, इतना बड़ा आकाश, हम इतने छोटे हैं; अपने पर है, यह दौड़ सकता है, यह अपनी मरजी का मालिक है। अब भरोसा नहीं आता। इसकी दिशा कोई तय न करेगा। अब इसे कोई रोकने वाला नहीं है। इसलिए हम सब तरह की परतंत्रताएं खोजते हैं। परिवार की, अब एक स्वतंत्रता का जन देश की, जाति की, समाज की परतंत्रताएं खोजते हैं। हम किसी पर ये दोनों स्थितियां एक ही आदमी की हैं। ठीक वैसे ही स्वभाव की निर्भर होना चाहते हैं। कोई हमें सहारा दे दे। हम किसी के कंधे पर दो स्थितियां हैं। आसुरी, कृष्ण उसे कह रहे हैं, जो बांधती है; दैवी | | हाथ रख लें। कोई हमारे कंधे पर हाथ रख दे। हो सकता है, हम उसे कह रहे हैं, जो मुक्त करती है। ये दोनों ही एक ही चेतना की | दोनों ही कमजोर हों और एक-दूसरे का सहारा खोज रहे हों। अवस्थाएं हैं। और हम पर निर्भर है कि हम किस अवस्था में रहेंगे। | लेकिन दोनों को भरोसा आ जाता है कि कोई साथ है; हम अकेले यह बात संदा ही समझने में कठिन रही है कि हम अपने ही हाथ नहीं हैं। से बंधन में पड़े हैं। यह कठिन इसलिए रही है कि हम में से कोई | __ स्वतंत्रता को हम अपने ही हाथ से खोते हैं, परतंत्रता को हम भी चाहता नहीं कि बंधन में रहे। हम सब स्वतंत्र होना चाहते हैं।। अपने ही हाथ से खोजते हैं। तो यह बात समझना मन को मुश्किल जाती है कि हमने बंधन अपने | | मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में एक दिन निर्मित खुद ही किए हैं। लेकिन थोड़ा समझना जरूरी है। | विवाद चल रहा था। और पत्नी बहुत नाराज हो गई, तो उसने कहा हम चाहते तो स्वतंत्र होना हैं, लेकिन हमने कभी गहराई से | कि तुमसे कहा किसने था कि तुम मुझसे विवाह करो! मैं तुम्हारे खोजा नहीं कि स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है। एक तरफ हम चाहते | पीछे नहीं दौड़ रही थी। नसरुद्दीन ने कहा, वह तो जाहिर है, क्योंकि 329 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 चूहे को पकड़ने वाला पिंजड़ा कभी चूहे के पीछे नहीं दौड़ता। चूहा खुद ही उसमें आता है, वह तो साफ है। पिंजड़े को कभी किसी ने चूहे के पीछे भागते तो देखा नहीं ! जिंदगी में जितने पिंजड़े हैं आपके, वे कोई आपके पीछे नहीं भागे । आप खुद ही उनकी तलाश किए हैं। और कोई कारण है, जिसकी वजह से पिंजड़ा अच्छा लगता है। कुछ सुरक्षा है उसमें भय वहां कम है, सहारा वहां ज्यादा है; खतरा वहां कम है, जोखम वहां बिलकुल नहीं है। एक बंधा हुआ जीवन है। एक परिधि है, उस परिधि के भीतर प्रकाश है, परिधि के बाहर अंधकार है। उस अंधकार में जाने में भय लगता है। फिर अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा। स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने ही पैरों पर खड़ा होना। और स्वतंत्रता का अर्थ है, अपने निर्णय खुद ही लेना । दुनिया में जो इतने उपद्रव चलते हैं, उन उपद्रवों के पीछे भी कारण यह है कि बहुत से लोग गुलामी खोजते हैं। सौ में निन्यानबे लोग ऐसे होते हैं कि बिना नेता के नहीं रह सकते। कोई नेता चाहिए। इस मुल्क में, सारी जमीन पर सब जगह नेता की बड़ी जरूरत है ! नेता की जरूरत क्या है ? नेता की जरूरत यह है कि कुछ लोग खुद अपने पैरों से नहीं चल सकते। कोई आगे चल रहा हो, तो फिर उन्हें फिक्र नहीं है। फिर वह कहीं गड्ढे में ले जाए, और हमेशा नेता गड्ढों में ले जाते हैं। लेकिन पीछे चलने वाले को यह भरोसा रहता है कि आगे चलने वाला जानता है। वह जहां भी जा रहा है, ठीक है। और कम से कम इतना तो पक्का है कि जिम्मेवारी हमारी नहीं है। हम सिर्फ पीछे चल रहे हैं। दूसरे महायुद्ध के बाद जर्मनी के जो नेता बच गए, हिटलर के साथी, उन पर मुकदमे चले। तो जिस आदमी ने लाखों लोगों को जलाया था, आकमंड, जिसने वहां भट्ठियां बनाईं, जिसमें हजारों लोग जलाए गए। कोई तीन करोड़ लोगों की हत्या का जिम्मा उसके ऊपर था, आकमंड के ऊपर। पर आकमंड बहुत भला आदमी था। अपनी पत्नी को छोड़कर कभी किसी दूसरी स्त्री की तरफ देखा नहीं। रविवार को नियमित चर्च जाता था, बाइबिल का अध्ययन करता था। शराब की आदत नहीं, सिगरेट पीता नहीं था। रोज ब्रह्ममुहूर्त में उठता था। कोई बुराई नहीं थी। मांसाहारी नहीं था । हिटलर में भी यही खूबियां थीं; मांसाहार नहीं करता था, शराब नहीं पीता था, सिगरेट नहीं पीता था। भले आदमी के सब लक्षण उसमें थे। आकमंड पर जब मुकदमा चला, तो लोग चकित थे कि इस आदमी ने कैसे तीन करोड़ लोगों की हत्या का इंतजाम किया ! जब | उससे पूछा गया, तो उसने कहा कि मैं सिर्फ अनुयायी हूं, और | आज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य है । जिम्मेवारी मुझ पर है ही नहीं। ऊपर से आज्ञा दी गई, मैंने पूरी की। मैं सिर्फ एक अनुयायी हूं, एक सिपाही हूं। दुनिया में लोगों की कमजोरी है कि उनको नेता चाहिए। फिर नेता कहां ले जाता है, इसका भी कोई सवाल नहीं है। नेता को भी कुछ पता नहीं कि वह कहां जा रहा है। अंधे अंधों का नेतृत्व करते रहते हैं। बस, नेता और अनुयायी में इतना ही फर्क है कि अनुयायी को कोई चाहिए जो उसके आगे चले, और नेता को कोई चाहिए जो उसके पीछे चले। नेता भी निर्भर है पीछे चलने वाले पर। अगर पीछे कोई न चले, तो नेता को लगता है कि भटक गया। जब तक लोग पीछे चलते रहते हैं, उसे लगता है, सब ठीक चल रहा है। अगर मैं ठीक न होता, तो इतने लोग पीछे कैसे होते? जैसे ही पीछे से लोग हटते | हैं, नेता का विश्वास चला जाता है। जैसे ही अनुयायी हट जाते हैं, | नेता की आत्म-आस्था खो जाती है। उसे लगता है, बस, कहीं भूल हो रही है। अन्यथा लोग मेरे पीछे चलते। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान नेता हैं, उनकी तरकीब अलग है। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने गधे पर भागा | जा रहा है। कुछ मित्रों ने उसे रोका और पूछा कि कहां जा रहे हो | इतनी तेजी से ? उसने कहा, मुझसे मत पूछो, गधे से पूछो। क्योंकि मैं इसको चलाने की कोशिश करता हूं, तो यह अड़चन डालता है; और चार आदमियों के सामने बाजार में भद्द होती है । मैं इसको कहता हूं, बाएं चलो। तो यह चलेगा नहीं; दाएं जाएगा । तो लोग समझते हैं, इसका गधा भी इसकी नहीं मानता ! तो मैंने एक तरकीब निकाली, गधा जहां जाता है, मैं उसके साथ ही जाता हूं। इससे इज्जत भी बनी रहती है और गधे को भी यह खयाल नहीं आता कि मालिक का विरोध कर सकता है। 330 सभी नेताओं की कुशलता यही है। वे हमेशा देखते रहते हैं, अनुयायी कहां को जा रहा है, अनुयायी कहां जाना चाहता है, इसके पहले नेता मुड़ जाता है। तो ही नेता अनुयायी को बचा सकता है, नहीं तो अनुयायी भटक जाएगा, अलग हो जाएगा। सब नेता अपने अनुयायियों के अनुयायी होते हैं, एक विसियस सर्किल है। तो नेता तापमान देखता रहता है कि अनुयायी क्या Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी संपदा * चाहते हैं। अनुयायी समाजवाद चाहते हैं, तो समाजवाद। अनुयायी चाहते हैं गरीबी मिटे, तो गरीबी मिटे। अनुयायी जो चाहते हैं, वह कहता है। और अनुयायी सुनते हैं अपनी ही आवाज को उसके मंह से; सोचते हैं कि ठीक है। अनुयायी पीछे चलते हैं। कुछ लोग हैं, जब तक उनके आगे कोई न चले, तब तक वे चल नहीं सकते। कुछ लोग हैं, जब तक कोई उनके पीछे न चले, तब तक वे नहीं चल सकते। दोनों निर्भर हैं। स्वतंत्र व्यक्ति वह है, जो न आगे देखता है और न पीछे देखता है, जो अपने पैर से चलता है। पर बड़ी कठिन है बात, क्योंकि तब किसी दूसरे पर भरोसा नहीं खोजा जा सकता, किसी दूसरे पर जिम्मेवारी नहीं डाली जा सकती। सब जिम्मेवारी अपनी है। इतना जिसका साहस हो, वही केवल स्वतंत्र हो पाता है। न नेता स्वतंत्र होते हैं, न अनुयायी स्वतंत्र होते हैं। स्वतंत्रता इस जगत में सबसे बड़ा जोखम है। कृष्ण कहते हैं, जो आसुरी संपदा है वह बंधन के लिए और जो दैवी संपदा है वह मुक्ति के लिए मानी गई है। और हे अर्जुन, तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी संपदा को प्राप्त हुआ है। आज इतना ही। 33] Page #360 --------------------------------------------------------------------------  Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 चौथा प्रवचन आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।। ७ ।। असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहरनीश्वरम् । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् । । ८ । । एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।। ९।। और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य- कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य- कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है। तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्रयरहित है और सर्वथा झूठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है? इस प्रकार इस मिथ्या - ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सब का अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं। पहले कुछ प्रश्न | पहला प्रश्न : आश्चर्य की बात है कि पशुओं में पाखंड या मिथ्याचरण नाममात्र भी नहीं है और आदिवासियों में भी अत्यल्प है, जब कि तथाकथित शिक्षित व सभ्य समाज में सर्वाधिक है। तो क्या बर्बरता से सभ्यता की ओर मनुष्य की लंबी व कठिन यात्रा व्यर्थ ही गई ? और तब क्या आदिवासी व्यवस्था वरेण्य नहीं है ? प शुओं में मिथ्याचरण नहीं है, पाखंड नहीं है, इसलिए नहीं कि पशुओं की कोई उपलब्धि है, बल्कि इसलिए कि पशु असमर्थ हैं, पाखंडी हो नहीं सकते, होने का उपाय नहीं है; बुरे होने की कोई सुविधा नहीं है; पतित होने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन चूंकि पशु पतित नहीं हो सकते, पशु दिव्यता का आरोहण भी नहीं कर सकते। जो गिर नहीं सकता, वह ऊपर भी उठ नहीं सकता। और जिसके जीवन में पाप की संभावना नहीं है, उसके जीवन में परमात्मा की संभावना भी नहीं है। पशु मूर्च्छित है; प्रकृति उससे जैसा कराती है, वह करता है। यंत्रवत उसकी यात्रा है। उसकी कोई स्वेच्छा नहीं है। इसलिए बुरा भी पशु कर नहीं सकता; भला भी नहीं कर सकता । प्रकृति जो | कराती है, वही करता है। पशु की अपनी कोई निजता नहीं है। | इसलिए पशु न तो असाधु हो सकता है न साधु; न महापापी हो सकता है न महा संत। पशु पशु ही रहेगा। पशु पूरा का पूरा पैदा होता है। उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं है कि अपने को बदल ले, रूपांतरित कर ले। स्वभावतः, पशु पाखंडी नहीं है, लेकिन पशु यह भी स्मरण नहीं हो सकता कि वह पाखंडी नहीं है। और पाखंड को छोड़ने से जो जीवन में गरिमा आती है, वह भी पशु को नहीं हो सकती। मनुष्य की गरिमा यही है कि वह पाप कर सकता है, चाहे तो पाप करना छोड़ सकता है । छोड़ने की खूबी है, क्योंकि करने की सुविधा है। जहां आप कर ही न सकते हों, वहां छोड़ने का कोई | अर्थ नहीं है। नपुंसक ब्रह्मचारी हो, इसकी कोई सार्थकता नहीं है। ब्रह्मचर्य की सार्थकता तभी है, जब काम में उतरने की क्षमता हो । तो मनुष्य के लिए संभावना है कि गिर सके, और मनुष्य के लिए संभावना है कि उठ सके दोनों द्वार खुले हैं। मनुष्य परिपूर्ण स्वतंत्रता है । इसीलिए जिम्मेवारी आपकी है। अगर आप गिरते हैं, तो आप यह नहीं कह सकते कि प्रकृति ने मुझे गिराया। आप चाहते तो न गिरते। आप चाहते तो रुक जाते। आप चाहते तो जिस शक्ति से. | आपने पतन की यात्रा पूरी की, वही आपके स्वर्ग का मार्ग भी बन सकती थी । इसलिए मनुष्य स्वतंत्र है, और साथ ही जिम्मेवार है। 334 पश्चिम का बहुत बड़ा आधुनिक विचारक सार्त्र मनुष्य के लिए दो शब्दों का उपयोग करता है, एक है फ्रीडम, और दूसरा है रिस्पांसिबिलिटी। एक है परिपूर्ण स्वतंत्रता, और दूसरा है परिपूर्ण गहन दायित्व । जो स्वतंत्र है, उसका दायित्व भी है। जो स्वतंत्र नहीं, उसका कोई दायित्व भी नहीं है। हम किसी पशु को अच्छा नहीं कह सकते, बुरा नहीं कह सकते। जो पशु की दशा है, वही छोटे बच्चों की भी दशा है। जो पशु की दशा है, उससे ही मिलती-जुलती दशा आदिवासियों की है। वे कितने ही भले हों, उनके भलेपन में बहुत गौरव नहीं है। वे चोर न हों, तो भी हम उन्हें अचोर नहीं कह सकते। क्योंकि अचोर वे तभी हो सकते हैं, जब चोरी करने की उनको क्षमता हो, सुविधा हो, चोरी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं * करने का खयाल हो! | है, न रहस्य होता है, न गहराई होती है, न ऊंचाई होती है। जीवन का जो विकास है, वह आंतरिक संयम से संभव होता है। उपन्यासकार कहते हैं कि साधारण अच्छे आदमी के जीवन पर आप एक सपाट जमीन पर चलते हैं। तो कोई भीड़ आपको देखने कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती। अच्छे आदमी की कोई कहानी इकट्ठी नहीं होती, न ही लोग ढोल बजाकर आपका स्वागत करते होती ही नहीं। कहानी के लिए बरा आदमी चाहिए। और हैं, न तालियां पीटते हैं। लेकिन आप दो छतों के बीच में एक रस्सी | गहरी हो जाती है, अगर बुरा आदमी बुराई को पार करके अच्छाई बांधे, फिर उस रस्सी पर चलें, तो सारा गांव इकट्ठा हो जाएगा। | | में उतर जाए। तब कहानी बड़ी रहस्यपूर्ण हो जाती है; और कहानी चलने में कोई भी फर्क नहीं है। जैसा आप जमीन पर चलते थे, | में एक स्वाद आ जाता है, एक चुनौती, एक उत्तुंग ऊंचाई, एक उन्हीं पैरों से, उसी ढंग से रस्सी पर भी चलेंगे। लेकिन यह भीड़ पुकार दूर की। देखने इकट्ठी किसलिए हो गई? क्योंकि अब गिरने की संभावना ___ पापी के जीवन में कथा होती है। और अगर पापी संत हो जाए, है। आप गिर सकते हैं। चलना कठिन है, गिरना आसान है। और | | तो उससे ज्यादा जटिल और रहस्यपूर्ण कथा फिर किसी के जीवन गिरने की जो यह संभावना है कि हड्डी-पसली टूट जाए, कि जीवन | | में नहीं होती। भी समाप्त हो जाए, इस खतरे को लेकर आप जब रस्सी पर चलते ___ थामसमन ने एक अदभुत किताब लिखी है। किताब का नाम है, हैं, तो इस चलने में गौरव और गरिमा आ जाती है। दि होली सिनर, पवित्र पापी। मनुष्य चौबीस घंटे रस्सी पर है, पशु सदा समतल भूमि पर है। तो जहां पवित्रता और पाप दोनों घट जाते हैं, उस तनाव में, सभ्यता की खूबी यही है कि वह आपको मौका देती है, गिरने का रस्सी जैसे दो खाइयों के बीच खिंच जाती है, और उस रस्सी पर भी, उठने का भी। तो आदिवासी भले हैं, लेकिन कोई बुद्ध तो जो संतुलन को साध पाता है, वह गौरव के योग्य है। सभ्यता आदिवासी पैदा नहीं कर पाते। कोई रावण भी पैदा नहीं होता, कोई | | सुविधा देती है गिरने की; सभ्यता सुविधा देती है उठने की। राम भी पैदा नहीं होता। दोनों का उपाय नहीं है। नहीं, आदिवासीपन वरेण्य नहीं है, वरेण्य तो सभ्यता ही है। सभ्यता सुविधा है, नरक और स्वर्ग दोनों तरफ जाने की। जितना | लेकिन सभ्यता विकल्प देती है। सभ्यता वरेण्य है, और फिर सभ्य समाज हो, उतनी सुविधा बढ़ती जाती है। यह दूसरी बात है | सभ्यता के विकल्पों में स्वर्ग की तरफ जाने की यात्रा वरेण्य है। कि आप सुविधा का उपयोग नरक जाने के लिए ही करते हैं। यह अगर आप साधारण भले आदमी हैं, तो आप यह मत समझना आपका निर्णय है। | कि जीवन आपकी कोई उपलब्धि बन रहा है। आप कुनकुनेपर शायद स्वर्ग जाने के लिए नरक जाना भी जरूरी है। नरक कुनकुने जी रहे हैं। जीवन में कोई अति नहीं है। और अति न होगी, की पीड़ा का अनुभव न हो, तो स्वर्ग के आनंद का भी स्मरण नहीं तो जीवन में कोई आनंद की पुलक, कोई इक्सटैसी, कोई समाधि आता। नरक की अंधेरी पृष्ठभूमि में ही स्वर्ग की शुभ्र रेखाएं की दशा भी पैदा नहीं होगी। खिंचती हैं, उभरती हैं और दिखाई पड़ती हैं। वह जो पीड़ा को नीत्से ने एक बहुत महत्वपूर्ण वचन लिखा है। उसने लिखा है, भोगता है, उसे आनंद की खोज भी पैदा होती है। | जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, उसे अपनी जड़ें पाताल इसलिए जिनको हम साधारणतः भले आदमी कहते हैं, उनके | की गहराई तक भेजनी पड़ती हैं। अगर वृक्ष डरता हो कि अंधेरी जीवन में कुछ नमक नहीं होता; उनके जीवन में कुछ स्वाद नहीं | जमीन में कहां जड़ों को भेजूं, तो फिर उसकी शाखाएं भी आकाश होता। स्वादं तो उस आदमी के जीवन में होता है, जिसने बुरा होना | | में न जा सकेंगी। जितनी ऊंचाई वृक्ष की ऊपर होती है, उतनी नीचाई भी जाना है, और फिर भला होना भी जाना है। उसके जीवन में एक | वृक्ष की नीचे होती है; समान होता है। जड़ें उतनी ही गहरी जानी संगीत होता है, एक गहराई होती है, एक ऊंचाई होती है। | जरूरी हैं, जितना वृक्ष को ऊपर उठना हो। जो वृक्ष चार-चार सौ साधारणतः कोई आदमी भला है, न उसने कभी कुछ बुरा किया | | फीट ऊपर उठते हैं आकाश को छूने की आकांक्षा से, वे चार सौ है, न कभी कोई पाप किया है, न कभी अपराध में उतरा है, न कभी | फीट नीचे जमीन में अपनी जड़ों को भी भेजते हैं। भटका है रास्ते से, उस आदमी के जीवन में बहुत संगीत नहीं होता। यही नियम मनुष्य का भी है। जितने दूर तक गिरने का रास्ता है, इकहरा स्वर होता है। उसमें न रस होता उतने ही दूर तक उठने का उपाय है। गिरने के रास्ता का यह अर्थ 335 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* नहीं है कि आप गिरें ही। पर वह संभावना रहनी चाहिए। गिर सकते | | बाहर फेंक दिए जाएंगे। जैसे-जैसे संतत्व उभरेगा, आप संसार में हैं। गिर सकते हैं, यह संभावना आपको संतुलन देगी। आप होकर भी संसार में नहीं होंगे। फिर जैसे-जैसे संतत्व पूर्णता को प्रतिपल अपने को सम्हालेंगे। उस सम्हालने में ही आपकी आत्मा | पहुंचेगा, आप पाएंगे कि अब संसार में होना आपका स्वप्नवत रह का जागरण है। गिर ही न सकते हों, तो फिर सो जाएंगे; फिर न | | गया। अगर इस पूर्णता को उपलब्ध करके आप मर गए, मरेंगे, कोई चुनौती है, न कोई जागरण है। शरीर छूटेगा, तो फिर दुबारा लौटने का उपाय न रह जाएगा। इसलिए बुद्ध पुरुष बुद्धत्व के बाद वापस नहीं लौट सकता। एक जन्म, जब वह बुद्धत्व को प्राप्त करता है, तब टिकेगा, लेकिन नए दूसरा प्रश्नः रात आपने बड़ी निराशाजनक बात कही शरीर को ग्रहण करने का उपाय नहीं है। नए शरीर को ग्रहण करने कि संसार शायद सदा के लिए अज्ञान, दुख व संताप का अर्थ होता है, संसार में वापस लौटने का उपाय। वह वाहन है, में जीने के लिए अभिशप्त है। तो क्या धर्म विरले | जिससे हम संसार में वापस आते हैं। उसका कोई प्रयोजन न रहा, व्यक्तियों के लिए संसार छोड़कर परमात्मा या शून्य क्योंकि शरीर से जो सीखा जा सकता था. सीख लिया गया। और में विलीन होने के लिए निमंत्रण मात्र है? संसार में जो जाना जा सकता था, वह जान लिया गया, और संसार में कुछ पाने को न बचा। इसको ऐसा समझें कि विश्वविद्यालय अशिक्षित लोगों के लिए नराशाजनक मालूम हो सकती है, निराशाजनक है नहीं। | है। यह कोई अभिशाप नहीं है। क्योंकि जैसे ही कोई शिक्षित होगा, अगर कोई कहे कि अस्पताल सदा ही बीमारों से भरा | | विश्वविद्यालय के बाहर हो जाएगा। अशिक्षित ही विश्वविद्यालय रहेगा, तो इसमें निराशाजनक बात क्या है ? अस्पताल | | में होगा। जैसे ही शिक्षा पूरी हुई कि विश्वविद्यालय का अर्थ खो है ही इसलिए। निराशाजनक तो बात तब होगी, जब अस्पताल में | | जाता है। और अगर किसी विद्यार्थी को बार-बार विश्वविद्यालय हम स्वस्थ आदमियों को भरने लगें। और जैसे ही कोई व्यक्ति | | में लौटना पड़ता है, तो उसका अर्थ ही यह है कि वह उत्तीर्ण नहीं स्वस्थ हो जाएगा, अस्पताल से मुक्त होना पड़ेगा। अस्पताल का | हो पा रहा है। प्रयोजन यही है कि बीमार वहां हो। इसमें निराशा की कौन-सी बात | निराशाजनक बात नहीं, संसार का तथ्य यही है। है? इसमें अस्पताल की निंदा नहीं है। अस्पताल चिकित्सा की दूसरी बात, तो क्या धर्म संसार छोड़कर परमात्मा या शून्य में जगह है। वहां बीमार के लिए स्थान है; वहां स्वस्थ का कोई | | विलीन होने के लिए कुछ विरले व्यक्तियों के लिए निमंत्रण मात्र है? प्रयोजन नहीं है। और जैसे ही कोई स्वस्थ हुआ कि अस्पताल से | नहीं, सभी के लिए निमंत्रण है; विरले उसको स्वीकार करते बाहर हो जाएगा। | हैं, यह दूसरी बात है। निमंत्रण सार्वजनिक है। धर्म सभी के लिए संसार को भारत अस्पताल से भिन्न नहीं मानता, वह अस्वस्थ | है। स्वस्थ होने की संभावना सभी के लिए है। लेकिन जो स्वस्थ चित्त की जगह है। वहां आत्मा हमारी बीमार है, इसलिए हम हैं। होने की प्रक्रिया से गुजरेंगे, जो साधना का पथ लेंगे, वे विरले जैसे ही आत्मा स्वस्थ होगी, हमें संसार से बाहर हो जाना पड़ेगा। मुक्त हो पाएंगे। इसलिए यह कोई अभिशाप नहीं है कि संसार सदा ही विक्षिप्त तीसरी बात, धर्म कोई पलायन नहीं है और न संसार को छोड़कर रहेगा। जब तक विक्षिप्त आत्माएं हैं, तब तक संसार रहेगा, यह | शून्य में खो जाना है। धर्म की दृष्टि में तो संसार शून्य है, स्वप्नवत बात पक्की है। जब तक बीमार हैं, तब तक अस्पताल रहेगा। है, पानी का बबूला है। इस शून्यवत को छोड़कर सत्य में प्रवेश कर बीमार नहीं होंगे, अस्पताल खो जाएगा। जाने का निमंत्रण है। यह संसार के लिए कोई अभिशाप नहीं है; यह संसार का लेकिन अगर हम बीमार आदमी से कहें कि जब तक तू सारी स्वभाव है; यह संसार की नियति है। हम गलत हैं, इसलिए हम | | बीमारियां न छोड़ देगा, तब तक अस्पताल से बाहर न जाने देंगे। वहां हैं। वह एक बड़ा शिक्षण का स्थल है, एक बड़ा । | तो वह कहेगा, आप मुझे शून्य होने के लिए मजबूर कर रहे हैं! विश्वविद्यालय है। वहां जैसे-जैसे हम ठीक होंगे, वैसे-वैसे हम सभी बीमारियां छोड़नी पड़ेंगी? तो फिर मेरे पास बचेगा क्या? तो 336 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं मैं शून्य हो जाऊंगा ? बीमार के पास बीमारियों के सिवाय और कोई संपदा नहीं है; उसने स्वास्थ्य कभी जाना नहीं है। निश्चित ही, बीमारियां छूटें, तो स्वास्थ्य का जन्म होगा। धर्म की भाषा लगती है शून्यवादी है। क्योंकि धर्म कहता है, यह छोड़ो, यह छोड़ो, यह छोड़ो। क्योंकि हम बीमारियां पकड़े हुए हैं, इसलिए छोड़ने पर इतना जोर है, त्याग की इतनी उपादेयता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है हम शून्य में खो जाएंगे। बीमारियां शून्य में खो जाएंगी; हम तो को उपलब्ध हो जाएंगे। और जिस दिन आप सब छोड़ देते हैं वह जो गलत था, उस दिन जो सही है, उसका आपके भीतर उदय होता है। उस दिन दीया जलता है। उस दिन आप यह न कहेंगे कि अंधेरा छोड़ दिया, अब शून्य हो अंधेरा छोड़ा, प्रकाश जला। वह जो प्रकाश का जलना है, वह उपलब्धि है। लेकिन जिसने अंधेरा ही जाना हो, वह शायद यही समझेगा कि सब छूट गया, सब खो गया, सब नष्ट हो गया, कुछ भी न बचा। हाथ में लकड़ी थी, अंधेरे में टटोलते थे, वह भी छूट गई; अंधेरा भी छूट गया। टकराते थे – उस टकराने को लोग जिंदगी समझते हैं—जगह-जगह ठोकर खाते थे। अब कोई ठोकर नहीं लगती; जगह-जगह टकराते नहीं। हाथ की लकड़ी छूटी, अंधेरा छूटा, सब छूट गया। प्रकाश की जो उपलब्धि हुई है, वह धीरे से समझ में आएगी, कि जो छूटा, वह छूटने योग्य था, छोड़ने योग्य था, छोड़ ही देना था कभी का उसे । इतने दिन खींचा यही आश्चर्य है । • लेकिन प्राथमिक रूप से लगेगा कि धर्म शून्य में ले जाता है। जो आपके पास है, उसे छीनता है, इसलिए लगता है कि शून्य में जाता है। और जिसका आपको पता नहीं है, उस शून्यता से उस पूर्णका उदय होता है। धर्म आपको खाली करता है, ताकि आप परमात्मा से भर सकें। आपको मिटाता है, ताकि आपके भीतर जो नहीं मिटने वाला तत्व है, केवल वही शेष रह जाए। आपको जलाता है, ताकि कचरा जल जाए, केवल स्वर्ण बचे। आपकी मृत्यु में ही आपके परमात्म-स्वरूप का जन्म है। और ध्यान रहे, यह निमंत्रण विरले लोगों के लिए नहीं है ! निमंत्रण सबके लिए है, लेकिन विरले इसे स्वीकार करते हैं। क्योंकि निमंत्रण बड़ा कठिन है। यात्रा दुरूह है, बड़ी लंबी है। उतनी | देर तक सातत्य को बनाए रखना, धैर्य को रखना, बहुत थोड़े लोगों की क्षमता है। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि कितने दिन ध्यान करें तो | आत्मा उपलब्ध हो जाएगी ? कितने दिन ! और ऐसा लगता है उनकी बात से कि काफी कृपा कर रहे हैं ! कितने दिन ? और दो-चार दिन कोई ध्यान कर लेता है, तो वह मुझे लौटकर कहता है कि अभी तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए! विरले स्वीकार कर पाते हैं, क्योंकि धैर्य की कमी है। और सातत्य थोड़े दिन भी बनाए रखना मुश्किल है। आज करते हैं, कल छूट जाता है। दो-चार दिन करते हैं, हजार बहाने मन खोज लेता है न करने के। और दो-चार दिन में मन कहने लगता है, इतना समय नष्ट कर रहे हो! इतने में तो न मालूम कितना कमाया जा सकता था। न मालूम क्या-क्या कर लेते। यह प्रार्थना, यह पूजा, यह ध्यान, यह समय का अपव्यय मालूम होता है। हमारी दशा उन छोटे बच्चों जैसी है, जो आम की गुठली को | जमीन में गड़ा देते हैं। फिर घड़ीभर बाद जाकर उघाड़कर देखते हैं, पौधा आया या नहीं ? फिर घड़ीभर बाद जाकर खोदकर देखते हैं। • अगर हर घड़ी गुठली को खोदकर देखा गया, तो पौधा कभी भी न आएगा। क्योंकि गुठली को मौका ही नहीं मिल रहा है कि वह जमीन के साथ एक हो जाए, टूट जाए, मिट जाए, खो जाए। गुठली मिटे, तो पौधे का जन्म हो । और जो उसे हर घड़ी खोदकर देख रहा है, वह मौका ही नहीं दे रहा है। गुठली गुठली ही बनी रहेगी। और तब उसका तर्क कहेगा, फिजूल है यह बात । महीनों से देख रहा हूं, गुठली गड़ा रहा हूं, | उखाड़ रहा हूं, कुछ पौधा - वौधा आता नहीं। झूठी हैं ये बातें । ये कृष्ण और बुद्ध और क्राइस्ट जो कहते हैं, सब कपोल-कल्पित है। यह गुठली पत्थर है, इसमें कुछ पौधा है नहीं, इससे पौधा कभी आ नहीं सकता। और तब यह तर्क ठीक भी मालूम पड़ता है। क्योंकि महीनों का अनुभव यह कहता है कि रोज तो देख रहे हैं, कहीं से जरा-सी भी तो अंकुर के फूटने की कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती । गुठली | वैसी की वैसी है। यह पत्थर है । न कोई आत्मा है भीतर, न कोई पौधा है, न कोई फूल छिपे हैं। तब हम गुठली को फेंक देते हैं। धीरज की जरूरत है। और जब आम की गुठली के लिए महीनों 337 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, तो आपकी गुठली तो जन्मों-जन्मों से वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ घटनाएं घट रही हैं, उनमें से हम केवल सख्त है। वह पथरीली हो गई है। उसे पिघलाने में वक्त लगेगा, | | दो को पकड़ते हैं, अट्ठानबे छूट जाती हैं। उनसे हमारा कुछ श्रम लगेगा, सतत चोट करनी पड़ेगी। और तभी आपको पता लेना-देना नहीं है। हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। चलेगा कि कृष्ण और बुद्ध कल्पना की बात नहीं कर रहे हैं, वह __आप एक रास्ते से गुजरें; सैकड़ों वृक्ष लगे हैं। एक चित्रकार उनका अनुभव है। उनकी गुठली टूटी और उन्होंने वृक्ष को बढ़ता | गुजरे उसी रास्ते से, तो उसे हर वृक्ष की हरियाली अलग दिखाई हुआ देखा। उस वृक्ष की सुगंध उन्होंने अनुभव की, उस वृक्ष के | | पड़ती है। क्योंकि हर वृक्ष अलग ढंग से हरा है। हरा कोई एक रंग फूल उन्होंने पाए। उनका जीवन कृतकृत्य हआ है। | नहीं है, हरे में हजार रंग हैं। पर वह सिर्फ चित्रकार को दिखाई पड़त लेकिन चूंकि बहुत थोड़े लोग इतनी दूर तक जाने को राजी होते है, जिसको रंगों की सूझ है, जिसको रंगों में झुकाव है, जिसे रंगों हैं, इसलिए धर्म विरले लोगों के लिए रह जाता है। आमंत्रण सभी | || में रस है। आपको सब वृक्ष एक जैसे हरे हैं। के लिए है। आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखने चले हैं। जो आप तिब्बत में एक बहुत प्राचीन कथा है। एक दूर पहाड़ों में छिपा खोजने निकले हैं, उसकी पुकार आपको सुनाई पड़ जाती है। हुआ नया आश्रम निर्मित हुआ। तो जिस प्रधान आश्रम से उस | एक रास्ते से दो फकीर गुजर रहे थे। चर्च में घंटियां बजने लगीं। आश्रम का संबंध था, उस लामासरी का संबंध था, उस लामासरी | तो एक फकीर ने कहा...। बाजार था, बड़ा शोरगुल था। चीजें ली ने सौ लोगों का चुनाव किया जो जाकर उस आश्रम को सम्हालेंगे। | जा रही हैं, खरीदी जा रही हैं, बेची जा रही हैं, गाड़ियों से उतारी जा तो एक युवक शिष्य ने पूछा, लेकिन सौ की वहां जरूरत नहीं है। | रही हैं, चढ़ाई जा रही हैं। बड़ा शोरगुल था वहां; चर्च की घंटी का वहां तो पांच से काम चल जाएगा। तो गुरु ने कहा, सौ को | सुनाई पड़ना मुश्किल था। एक फकीर ने चर्च की घंटी सुनते ही बुलाओ, तो दस तो आते हैं। दस को भेजो, तो पांच पहुंच पाते हैं। | कहा, हम जल्दी चलें, प्रार्थना का समय हो गया, घंटी बज रही है। और इतने भी पहुंच जाएं, तो भी काफी है। उस दूसरे फकीर ने कहा, तुम भी अदभुत हो; इस शोरगुल में, इस धर्म तो सभी को बुलाता है। लेकिन सौ को बुलाओ, तो नब्बे | उपद्रव में तुम्हें चर्च की घंटी सुनाई पड़ गई! यहां किसी को सुनाई को तो सुनाई ही नहीं पड़ता निमंत्रण। क्योंकि हमें वही सुनाई पड़ता | नहीं पड़ रही है। उसने कहा, यहां भी कुछ चीजें सुनाई पड़ती हैं। है, जिसे सुनने को हम आतुर हैं। हमें सभी चीजें सुनाई नहीं पड़तीं। उसने एक रुपया खीसे से निकाला और सड़क पर गिरा दिया। खन्न अभी मैं यहां बोल रहा हूं। यदि आप मुझमें आतुर हैं, तो मैं जो | की आवाज हुई, पूरा बाजार देखने लगा। कह रहा हूं, वह सुनाई पड़ता है। लेकिन और बहुत-सी आवाजें चारों वे सब रुपए को सुनने को आतुर लोग हैं। चर्च की घंटी बज रही तरफ चल रही हैं. वे आपको सनाई नहीं पड़तीं। टेप रिकार्डर उनको थी. किसी के कान पर चोट न पड़ी। सब चौंक गए: सब ने भी पकड़ लेगा, क्योंकि टेप रिकार्डर का कोई चुनाव नहीं है। जब आस-पास देखा। वे सब रुपए की तलाश में निकले हुए लोग हैं। आप टेप सुनेंगे, तब आप हैरान होंगे कि ये इतनी आवाजें कोई रुपए की आवाज सुनाई पड़ जाएगी, चर्च की घंटी खो जाएगी। पक्षी बोला, कुत्ता भौंका, हवाई जहाज गया, ट्रेन आई-यह सब | चाहे चर्च की घंटी जोर से बज रही हो, तो भी खो जाएगी। पकड़ रहा है। उसका कोई चुनाव नहीं है। और अगर आप भी सब एक मां सो रही हो, रात तूफान हो, बादल गरज रहे हों, उसे पकड़ रहे हैं, तो उसका मतलब यह है कि आप भी चुन नहीं रहे हैं। सुनाई नहीं पड़ेगा। उसका छोटा-सा बेटा रात जरा-सा कुनमुना दे, जो हम चुनते हैं, वह हमें सुनाई पड़ता है; जो हम चुनते हैं, वह | जरा-सा रो दे, वह जग जाएगी। हमें दिखाई पड़ता है। अगर आप चोर हैं, तो रास्ते से गुजरते वक्त सौ को बुलाओ, नब्बे को सुनाई नहीं पड़ता। जिन दस को सुनाई आपको कुछ और दिखाई पड़ेगा, जो साहूकार को दिखाई नहीं पड़ पड़ता है, उनमें से भी शायद पांच समझ न पाएंगे। सुन भी लेंगे, सकता। अगर आप चमार हैं, तो रास्ते से गुजरते वक्त आपको लोगों | तो भी पकड़ न पाएंगे। सुन भी लेंगे, तो भी उनकी आत्मा के भीतर के जूते दिखाई पड़ेंगे, उनकी टोपियां दिखाई नहीं पड़ सकतीं। अगर | कोई झंकार पैदा न होगी, कोई प्रतिध्वनि न होगी। सुनेंगे कान से, आप दर्जी हैं, तो उनके कपड़े दिखाई पड़ेंगे, उनके चेहरे दिखाई नहीं | | बात खो जाएगी; कोई चोट न पड़ेगी कि जो सुना है, वह उन्हें पड़ सकते। आपकी जो रुझान है, वही दिखाई पड़ता है। | रूपांतरित कर दे। पांच सुनेंगे, समझेंगे। शायद उनमें से एक, जो 3381 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं उसने सुना है और समझा है, उसे करेगा भी। चार सुन लेंगे, समझ लेंगे, पंडित हो जाएंगे। सौ के साथ मेहनत करो, कभी कोई एक यात्रा पर जा पाता है। धर्म का निमंत्रण सबके लिए है, लेकिन विरले उसे सुन पाते हैं। तीसरा प्रश्नः गीता कहती है कि दैवी संपदा मुक्त करती है और आसुरी संपदा बांधती है। इस संदर्भ में क्या बताएंगे कि बंधन क्या है और मुक्ति क्या है? त की ऐसी दशा, जहां कोई संताप न हो, जहां कोई सीमा का अनुभव न हो, जहां कोई सीमांत न आता | हो; चित्त की ऐसी दशा, जैसे खुला आकाश हो; कोई | दीवारें चारों तरफ से घेरने को नहीं, कोई पीड़ा की रेखा नहीं, क्योंकि सब पीड़ा की रेखाएं घेरती हैं, बंद करती हैं; आनंद खोलता है; फैलाता है; जहां चित्त की दशा फैलती हो । हमारा जो शब्द है, इस देश में हम उपयोग करते हैं परम स्थिति के लिए, वह ब्रह्म है। ब्रह्म का अर्थ होता है, जो फैलता ही चला जाता है, एक्सपैंडिंग, इनफिनिटली एक्सपैंडिंग, जो फैलता ही चला जाता है, विस्तार जिसका गुणधर्म है। एक कंकड़ को फेंक दें पानी में, लहर उठती है, फैलती चली जाती है। अगर पानी असीम हो, तो वह लहर फैलती ही चली जाएगी; किनारा होगा, तो टूट जाएगी; किनारे पर जाकर बिखर जाएगी। अगर कोई किनारा न हो, तो फैलती ही चली जाएगी। आनंद का कोई किनारा नहीं है, क्योंकि इस अस्तित्व का कोई किनारा नहीं है। यह जो आकाश हमें दिखाई पड़ता है, यह कहीं है नहीं, यह सिर्फ हमारी आंखों की देखने की क्षमता कम है। जहां तक आंखें देख पाती हैं, वहीं आकाश हमें बंद होता मालूम होता है, अन्यथा आकाश कहीं भी नहीं है। आकाश का अर्थ है, जो है ही नहीं । अनंत फैलाव है। इस फैलाव की कोई सीमा नहीं है। जब चेतना ऐसी अवस्था में होती है कि उसमें उठते हुए आनंद की तरंगें फैलती ही चली जाती हैं, कहीं कोई किनारा नहीं है, तब मुक्त क्षण है, तब मुक्ति है। और जब चेतना तड़फड़ाती है, और एक भी लहर नहीं फैल पाती, और सब तरफ दीवारें आ जाती हैं; जहां बढ़ते हैं, वहीं बंधन आ जाता है, वहीं लगता है पैर में जंजीरें हैं, आगे नहीं जा सकते, उस दशा का नाम बंधन है। कई प्रकार से हमें बंधन का अनुभव होता है। कितने ही प्रसन्न होते हों हम, शरीर की सीमा बंधी है। शरीर कभी स्वस्थ है, कभी अस्वस्थ है; कभी जवान है, कभी बूढ़ा है; कभी प्रफुल्लित है, कभी उदास है। उसकी सीमा आपके ऊपर बंधी है। अगर शराब डाल दी जाए शरीर में, तो आपकी चेतना भी उसी के साथ बेहोश हो जाती है। शरीर से रक्त निकाल लिया जाए, तो उसी के साथ आपकी चेतना भी दीन-हीन हो जाती है। शरीर जीर्ण-जर्जर, बूढ़ा हो जाए, उसी के साथ आप भी भीतर झुक जाते हैं और टूट जाते हैं। शरीर की सीमा खड़ी है। दूर जरा आगे देखें, तो मौत की सीमा खड़ी है। मरना होगा, मिटना होगा। और प्रतिपल हजार तरह की सीमाएं हैं। क्रोध की, घृणा की, मोह की, लोभ की सीमाएं हैं। सब तरफ से बांधे हुए हैं। यह जो अवस्था है, यह बंधन की अवस्था है। 339 कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा का अर्थ है, इस तरह की संपत्ति को बढ़ाना और इकट्ठा करना, जिसमें हम बंधते हैं, जिसमें हम खुलते नहीं, उलटे उलझते हैं। दैवी संपदा का अर्थ है, ऐसी संपदा, इन बंधनों को तोड़ती है। ध्यान करें, अगर आप लोभ से भरे हैं, तो आपको हर जगह सीमा मालूम पड़ेगी। कितना ही धन आपके पास हो, लगेगा कम है। लोभी मन को कभी ऐसा लग ही नहीं सकता कि मेरे पास ज्यादा है। सोचें इसको आप, लोभी मन को कभी लग ही नहीं सकता कि मेरे पास ज्यादा है; उसे सदा लगेगा, मेरे पास कम है। कितना ही हो, तो लोभ सीमा बन जाएगी। अरब रुपए आपके पास हों, तो भी | लगेगा कम हैं, क्योंकि दस अरब हो सकते थे। लोभ की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि अलोभी व्यक्ति को सदा लगेगा कि जो भी पास है, वह भी ज्यादा है; वह भी न हो, तो भी कुछ हर्ज न था । अगर अलोभ पूरा हो जाए, तो आपकी सीमा मिट गई। तो लोभ आसुरी संपदा है, अलोभ दैवी संपदा है। क्रोधी व्यक्ति को प्रतिपल सीमा है; जहां देखेगा, वहीं से क्रोध पकड़ता है। जो करेगा, वहीं उपद्रव, झगड़ा और कलह खड़ा हो जाता है। अक्रोधी व्यक्ति के लिए कोई सीमा नहीं है। वह जहां से भी गुजरता है, वहीं मैत्री पैदा हो जाती है। तो क्रोध आसुरी हो | जाएगा, अक्रोध दैवी हो जाएगा। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * भयभीत व्यक्ति को हर पल खतरा है। आभूषणों को भी बंधन समझने लगेंगे, तभी मुक्ति के द्वार पर मैं एक गांव में रहता था। तो मेरे सामने एक सुनार रहता था, | पहली चोट पड़ती है। बहुत भयभीत आदमी। मैं अक्सर अपने दरवाजे पर बैठा रहता, तो | तो प्रत्येक व्यक्ति को निरीक्षण करते रहना चाहिए, उठते-बैठते, उसको बड़ी अड़चन होती। क्योंकि शाम को वह घर से निकलता, सुबह-सांझ, कौन-सी चीज मेरी सीमा बन रही है। सीमा के अकेला ही था, तो ताला लगाएगा; हिलाकर ताले को देखेगा | अतिरिक्त और कोई आपका दुश्मन नहीं है और असीम के चार बार। चंकि मैं सामने बैठा रहता. तो उसको बडा संकोच अतिरिक्त कोई और आपका मित्र नहीं है। तो अपने को असीम लगता। तो मैं आंख बंद कर लेता। वह हिलाकर देखेगा। फिर वह बनाने की चेष्टा ही ध्यान है; असीम बनाने की चेष्टा ही प्रार्थना है; दस कदम जाएगा, फिर लौटेगा। पसीना-पसीना हो जाएगा; | असीम बनाने की चेष्टा ही साधना है। क्योंकि उसको लग रहा है कि मैं देख रहा हूं। फिर आएगा, फिर शरीर बांधता है, तो साधक अपने को शरीर से मुक्त करता है। ताले को खटखटाएगा। तो वह निरंतर अनुभव करने की कोशिश करता है, क्या मैं शरीर मैंने उससे पूछा कि तू एक दफे इसको ठीक से खटखटाकर | | हूं? क्या सच में ही मैं शरीर हूं या शरीर से भिन्न हूं? देखकर क्यों नहीं जाता? कभी दो दफा, कभी तीन दफा! वह ___धीरे-धीरे, निरंतर चोट से यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि कहता, शक आ जाता है। दस कदम जाता हूं, फिर यह होता है, | मैं शरीर नहीं हैं। जिस दिन यह पता चलता है, मैं शरीर नहीं है, पता नहीं, मैंने ठीक से हिलाकर देखा कि नहीं देखा! | फिर शरीर जवान हो, बढा हो; जिंदा हो. मरे: स्वस्थ हो. अस्वस्थ अब यह भयभीत आदमी है। यह बाजार भी चला जाएगा, तो हो; तो बंधन नहीं बांधता। जो मैं नहीं हूं, उससे मेरे ऊपर कोई बंधन भी बाजार पहुंच नहीं पाएगा, इसका मन इसके ताले में अटका है।। नहीं है। और जैसे ही यह स्मरण आ गया कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे जो चार दफा लौटकर देखता है हिलाकर, वह कितनी ही बार देख | ही आपकी आत्मा इस खुले आकाश के साथ एक हो गई। फिर जाए, क्योंकि जो संदेह एक बार हिलाने के बाद आ गया, वह कोई परदा न रहा। दुबारा क्यों न आएगा? तिबारा क्यों न आएगा? मन बांधता है। तो साधक खोजता है, क्या मैं मन हूं? और यह जो भयभीत चित्त है, यह न रात सो सकता है, न दिन ठीक | | निरंतर एक ही तलाश में लगा रहता है कि मन से संबंध कैसे टूट से जग सकता है। यह चौबीस घंटे डरा हुआ है; सारा जगत जाए! वह संबंध टूट जाता है। क्योंकि जो हमारे भीतर साक्षी है, वह न तो शरीर है, न मन है, न भाव है। हम इन सब के साक्षी हो तो भय आसुरी संपदा है, बांधती है। अभय मुक्त करता है, तो | | सकते हैं। शरीर को भी देख सकते हैं अलग अपने से; मन को भी वह दैवी संपदा है। देख सकते हैं; विचार को भी देख सकते हैं। और जिसको हम देख मुक्त करने से केवल इतना ही अर्थ है कि जिससे आप पर सीमा सकते हैं, वह हमसे अलग हो गया, हम द्रष्टा हो गए। न पड़ती हो; आप खुले आकाश में पक्षी की तरह उड़ सकते हों। | | जिसको भी मैं देख सकता हूं-यह गणित है—वह मैं नहीं हूं। जिन-जिन चीजों से आपके चित्त पर सीमा पड़ती है, वहीं से मैं स्वयं को कभी भी नहीं देख सकता हूं। मैं सदा देखने वाला ही आपका कारागृह निर्मित होता है। और हम ऐसे पागल हैं कि हम रहूंगा। दृश्य बनने का कोई उपाय नहीं है; मैं द्रष्टा ही रहूंगा। द्रष्टा उनकी जडों को सींचते हैं. हम मजबत करते हैं। क्योंकि जो जंजीरें होना मेरा स्वभाव । आपको अपने सामने हैं, शायद हम सोचते हैं कि वे आभूषण हैं। हम उन्हें बचाते हैं। | रखकर देख नहीं सकता। सब देख लूंगा मैं, सिर्फ मेरा होना पीछे कोई अगर तोड़ना चाहे, तो हम नाराज होंगे। कोई हमारी जंजीरें रह जाएगा। और जब मैं सब देखी जाने वाली चीजों को छोड़ दूंगा, हटाना चाहे, तो हम उसे दुश्मन समझेंगे। क्योंकि उन्हें हमने जंजीरें सिर्फ वही बच रहेगा जो देखने वाला है, उस क्षण मेरी कोई सीमा कभी समझा नहीं: वे कीमती आभषण हैं, जो हमने बड़ी कठिनाई न होगी, उस क्षण मैं मुक्त हो जाऊंगा। से अर्जित किए हैं। ___बंधन वाला चित्त हर चीज से अपने को जोड़ता है। वह कहता जब तक कोई व्यक्ति अपनी जंजीरों को आभूषण समझता है, | है, यह शरीर मैं हूं; सीमा खड़ी कर ली। वह कहता है, यह धन मैं तब तक उसकी मुक्ति का द्वार बंद ही रहेगा। जब आप अपने ह:धन की सीमा खड़ी हो गई। अमीर ही नहीं बंधते. भिखमंगे भी दुश्मन है। पभावहादा 3401 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं * धन से बंधे होते हैं। को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है? एक रास्ते से मैं गजर रहा था. अचानक एक भिखमंगे की | इस प्रकार इस मिथ्या-ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है आवाज मेरे कानों में पड़ी। बात ही कुछ ऐसी थी कि मैं रुक गया, | स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित और सुनने जैसी बात थी। एक सज्जन गुजर रहे थे, भिखमंगा उनसे करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही भीख देने का आग्रह कर रहा था कि कुछ भी दे जाओ, दो पैसे उत्पन्न होते हैं। सही। भले आदमी थे, खीसे में हाथ डाला; लेकिन घूमने निकले बहुत-सी बातें इस सूत्र में समझने जैसी हैं और गहरे में जाने थे शाम को, कोई पैसे खीसे में थे नहीं। तो कहा, माफ करना, पैसे | | जैसी हैं। खीसे में हैं नहीं; दुबारा जब आऊंगा, तो खयाल से पैसे ले आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य में प्रवृत्त होने और अकर्तव्य आऊंगा। तो उस भिखमंगे ने कहा, मार जा, तू भी मार जा मेरे पैसे! से निवृत्त होने को नहीं जानते हैं...। इसी तरह वायदा कर-करके लोग लाखों रुपए मार चुके हैं। क्या करने जैसा है, क्या करने जैसा नहीं है, इसका उन्हें कुछ भिखमंगा है। वह कह रहा है, लाखों रुपए लोग मार चुके हैं इसी | | भेद नहीं होता, वे जो आसुरी संपदा वाले लोग हैं। क्या कर्तव्य है? तरह वायदा कर-करके कि फिर आ जाएंगे, फुटकर पैसे नहीं हैं, कर्तव्य की क्या परिभाषा है ? किसे हम कहें कि यह करने जैसा है ? अभी छुट्टे पैसे नहीं हैं, अभी कुछ खीसे में नहीं है। वह जो लाखों __ योग कर्तव्य की परिभाषा करता है, जिससे भी आनंद बढ़ता हो, उसके पास कभी नहीं रहे हैं. वह उनका दख है उसको कि लोग वही कर्तव्य है। और मजे की बात यह है कि जिससे हमारा आनंद मार गए हैं उससे। बढ़ता है, उससे हमारे आस-पास जो हैं, उनका भी आनंद बढ़ता ___ अमीर धन से बंधा हो, समझ में आ जाता है। गरीब भी धन से है। जिससे हमारे आस-पास जो हैं, उनका आनंद बढ़ता है, उससे बंधा है। और धन से हम ऐसे चिपट जाते हैं, जैसे वह हमारी आत्मा | हमारा भी आनंद बढ़ता है। आनंद एक संयुक्त घटना है। है। फिर इसी भांति हम सब तरह की चीजों से जुड़ जाते हैं, | दुख भी संयुक्त घटना है। जिससे हमारा दुख बढ़ता है, उससे तादात्म्य, आइडेंटिटी बना लेते हैं, यह मैं हूं। और जिससे भी हम हमारे आस-पास भी दुख बढ़ता है। जिससे हमारे आस-पास दुख जुड़ जाते हैं, वह हमारी सीमा बन गया। बढ़ता है, उससे हमारा दुख भी बढ़ता है। दुख भी एक संयुक्त तो अपने को जितनी ज्यादा चीजों से कोई जोड़ेगा, उतने बंधन घटना है। में होगा; और जितना चीजों से अपने को तोड़ेगा, उतना मुक्त __ आप किसी दूसरे को दुखी करके सुखी नहीं हो सकते। चाहे होगा। और जिस दिन सिर्फ यही अनुभव रह जाएगा कि मैं किसी क्षणभर को आप अपने को धोखा दें कि मैं सुखी हो रहा हूं, लेकिन से भी बंधा नहीं हूं, कुछ भी मेरा नहीं है, सिर्फ मैं ही हूं, मेरा स्वभाव यह असंभव है। यह नियम नहीं है। यह हो नहीं सकता। आप दूसरे ही बस मेरा होना है, उस दिन मुक्ति है। को दुखी करके सिर्फ दुखी ही हो सकते हैं। दैवी संपदा उस जगह ले जाती है, जहां आप अकेले बचते हैं। ___ यह तो हो भी सकता है कि आप दूसरे को दुखी करें और वह आसुरी संपदा वहां ले जाती है, जहां आपको छोड़कर और सब | | दुखी न हो, लेकिन आप तो दुखी होंगे ही। क्योंकि अगर वह कुछ बच जाता है। आदमी ज्ञानी हो, बोधपूर्ण हो, बुद्ध पुरुष हो, तो आपके दुखी करने अब हम सूत्र को लें। से दुखी नहीं होगा। लेकिन आपकी दुखी करने की जो चेष्टा है, और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य-कार्य में | वह आपको तो निश्चित ही दुखी कर जाएगी। प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य-कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं | जगत एक प्रतिध्वनि है। हम जो करते हैं, वह हम ही पर आकर जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ बरस जाता है, चाहे थोड़ी देर-अबेर हो जाती हो। उसी देर-अबेर के आचरण है और न सत्य भाषण ही है। कारण ही हम इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि इससे कोई संबंध नहीं है। तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत | लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि हम कुछ भी बुरा नहीं कर आश्चर्यरहित और सर्वथा झठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप रहे हैं, फिर भी दुखी हैं। स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों। उनकी गलती है। यह असंभव है। वे जरूर कुछ कर रहे हैं; वे 341 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * जरूर कुछ करते रहे हैं। शायद वे सोचते हैं कि वह बुरा नहीं है, | बढ़े, वही कर्तव्य है। और जिससे आनंद घटे, वही अकर्तव्य है। जो वे कर रहे हैं। आनंद को हम कसौटी बना सकते हैं। जैसे सोने को पत्थर पर ___ एक पिता मेरे पास आए। अपने बेटे से दुखी हैं। और कहते हैं कसकर देख लेते हैं कि सही या गलत, शुद्ध या अशुद्ध, वैसे कि मैं तो बेटे के भले के लिए सब-कुछ कर रहा हूं, पर वह मुझे आनंद पर आप कसकर देखते रहें आपने कर्मों को। दुख दे रहा है। सारी कथा मैंने जानी। तो पिता ठीक कहते हैं कि __ और जिस कर्म से आनंद बढ़ता हो, समझना वह कर्तव्य है। भले के लिए कर रहे हैं; इसमें कुछ झूठ नहीं है। लेकिन करने का | फिर उसको ज्यादा सींचें, बढ़ाएं, जीवन की सारी ऊर्जा उसमें लग जो ढंग है, वह ऐसा है कि वे बंद ही कर दें यह भला काम करना, | जाने दें। जिस कर्म से दुख मिलता हो, उसे छोड़ें, उससे,अपने को तो अच्छा है। करने का ढंग इतने दंभ से भरा है, करने का ढंग ऐसा हटाएं, उसकी तरफ जीवन की ऊर्जा को मत बहने दें। है कि खुद को वे देवता और बेटे को शैतान समझते हैं। करने का लेकिन कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जानता ही नहीं ढंग इतना अहंकारपूर्ण है कि बेटे के अहंकार को चोट लगती है। कि क्या करने योग्य है, न जानता है कि क्या करने योग्य नहीं है। न चाहते वे भला करना हैं, लेकिन बुरा हो रहा है। कर्तव्य में उसकी प्रवृत्ति है, न अकर्तव्य से निवृत्ति है। वह अंधे और इतने दंभ से जब कोई दूसरे व्यक्ति को बदलने की कोशिश आदमी की तरह कुछ भी किए चला जाता है। उस सब कनफ्यूजन, रचोट पहंचती है। वह चोट संघातक हो जाती उस सब उपद्रव को जैसे वह अपने जीवन में खडा कर लेता है। कभी है; उस चोट से बदला लेने की वृत्ति पैदा होती है। और करने में | बाएं, कभी दाएं भागता है; कभी सीधा, कभी उलटा। उनको जो मजा आ रहा है, वह मजा यह नहीं है कि वे बेटे का भला __ मैंने सुना है, दक्षिण में एक कथा है। दक्षिण का एक कवि हुआ, कर रहे हैं। वह मजा यह है कि मैं भला बाप हूं और बेटे के लिए | तेनालीराम। कुछ उलटी खोपड़ी का आदमी रहा होगा। कवि सब कर्बान कर रहा है। वह भी अहंकार का ही मजा है। अक्सर होते हैं। पर भक्ति का भी भाव था। तो उसने बड़ी साधना ___ मैंने उनसे कहा कि कभी आपने यह सोचा कि अगर बेटा सच की। काली का पूजक था। बड़ी साधना की। वर्षों के बाद काली का में ही भला हो जाए, तो आप दुखी हो जाएंगे। उन्होंने कहा, आप दर्शन हुआ, अनंत हाथों वाली, अनंत मुख वाली। सालों की क्या कहते हैं! कभी नहीं। तो मैंने कहा, आप बैठे आंख बंद करके मेहनत के बाद तेनालीराम ने पूछा क्या! का तो सारा जीवन का अर्थ ही खो जाएगा। एक उसने पछा कि बस. मझे यही पछना है: एक नाक हो. सर्दी हो ही अर्थ है, वह बेटे को ठीक करना। आप बिलकुल अनआकुपाइड | जाए, तो आदमी पोंछ-पोंछकर थक जाता है। तुम्हारी क्या गति हो एकदम, कोई काम न बचेगा; मरने के सिवाय कुछ काम न | होती होगी? बचेगा। वह बेटा आपको काम दे रहा है, रस दे रहा है। चौबीस काली भी चौंकी होगी। कहते हैं, काली ने कहा कि तुम्हें, घंटे आप उसी के पीछे पड़े हैं, उसी की कथा कह रहे हैं, और तेनालीराम, आज से विकट कवि कहा जाएगा। यह तुम्हारा नाम जगह-जगह प्रचार कर रहे हैं कि आप इतना कर रहे हैं और बेटा हुआ; और यही मेरा उत्तर है। तेनालीराम ने सुना तो उसने कहा कि आपको दुख दे रहा है। अगर बेटा सच में आज भला हो जाए, तो | बिलकुल ठीक। यह बिलकुल मुझसे मेल खाता है। विकट कवि आपको कल मरने के सिवाय कोई काम नहीं है। को उलटा पढ़ो या सीधा, एक-सा है। और मैं उलटा खड़ा होऊ थोड़े चौंके, धक्का खाया; लेकिन फिर सोचा। और कहने लगे| या सीधा, बिलकुल एक-सा है। कि शायद बात ठीक ही हो! यह वर्षों की साधना बस, इस चर्चा पर समाप्त हो गई! . __ अगर आप दुख पाते हैं, तो आपको जान लेना चाहिए कि आप | अगर मन उलझा हो, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं दुख दे रहे हैं। अगर आपको आनंद की कोई भी किरण मिलती है, | है, इसका बोध भी न हो, तो आपके सामने परमात्मा भी खड़ा हो, तो जान लेना चाहिए कि जाने या अनजाने आपने कुछ आनंद दिया तो भी हल न होगा। आप स्वर्ग में भी पहुंच जाएं, तो कोई न कोई है, बांटा है। जो हम बांटते हैं, वही हमें मिलता है। उपद्रव खड़ा कर लेंगे। आप जहां भी होंगे, वहां गलती अनिवार्य है। कर्तव्य क्या है? कर्तव्य निर्भर होगा लक्ष्य से। लक्ष्य तो एक है सवाल यह नहीं है कि आप कहां हैं। सवाल यह है कि आपके सभी का कि जीवन आनंद से भरपूर हो जाए। तो जिससे भी आनंद पास देखने की दृष्टि तीक्ष्ण, स्पष्ट है; विवेकपूर्ण है; बांट सकती 342 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं * है या नहीं कि क्या सार है, क्या असार है; क्या कर्तव्य है, क्या | में मेरी निष्ठा इतनी पूरी हो कि दूसरा स्वर बीच में डांवाडोल न अकर्तव्य है। करता हो। अक्सर लोग जीवनभर दौड़ते रहते हैं, बिना इसका ठीक से __ अगर व्यक्ति का जीवन एक-एक क्षण भी इस भांति शुद्ध होने उनको पक्का पता हुए कि वे कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं। अगर | लगे, तो परमात्मा का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन आप कुछ लोग थोड़ी देर रुक जाएं इसके पहले कि कदम उठाएं, चलें, सोच | भी कर रहे हों, एक काम कभी भी नहीं कर रहे हैं, हजार काम साथ लें कि कहां जाना है और सारी जीवन ऊर्जा को वहां नियोजित कर | कर रहे हैं! कुछ भी सोच रहे हों, एक विचार कभी नहीं है, हजार दें. तो जीवन में फल लग सकते हैं। | विचार विक्षिप्त की तरह भीतर दौड़ रहे हैं। आप एक बाजार हैं, एक अधिक लोग बेफल मर जाते हैं, निष्फल मर जाते हैं। ऐसा भी | | भीड़। और भीड़ भी पागल। इस स्थिति का नाम अशुद्धि है। नहीं कि श्रम कम करते हैं। श्रम बहुत करते हैं। आसुरी संपदा वाले ___ कृष्ण कह रहे हैं, उसमें न तो बाहर की शुद्धि है, न भीतर की। लोग दैवी संपदा वाले लोगों से ज्यादा श्रम करते हैं। बुद्ध ने क्या | न श्रेष्ठ आचरण है, न सत्य भाषण है। तथा वे आसुरी प्रवृत्ति वाले श्रम किया है! जो श्रम हिटलर और तैमूरलंग और चंगेज खां करते | मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित है। हैं! बुद्ध का श्रम क्या है! एक झाड़ के नीचे बैठे हैं, यही श्रम है! यह वचन बड़ा क्रांतिकारी है। तैमूरलंग को देखें, लंगड़ा है। वह लंग लंगड़े का ही हिस्सा है। आसुरी वृत्ति वाला व्यक्ति मानता है कि जगत में कोई रहस्य नहीं तैमर दि लेम। लंगड़ा है, लेकिन सारी जमीन को जीतने की | | है; मानता है कि जगत एक तथ्य है, जिसमें न कोई आश्चर्य है, न कोशिश में लगा है। और कोई आधी जमीन उसने जीत भी डाली। | कोई रहस्य है, कोई मिस्ट्री नहीं है। अगर हम विचार करें, तो कितने लाखों लोग उसने काट डाले। श्रम उसका भारी है, लेकिन बहुत-सी बातें साफ हो सकती हैं। परिणाम क्या है ? हिटलर के श्रम को कोई कम नहीं कह सकता। धार्मिक और अधार्मिक व्यक्ति में यही फासला है। धार्मिक फल क्या है? | व्यक्ति जीवन को एक रहस्य की भांति अनुभव करता है। यहां जो ठीक साफ न हो कि क्या कर्तव्य है, क्या मैं करूं, क्यों करूं, | | प्रकट है, वह सिर्फ सतह है; इस सतह के पीछे अप्रकट छिपा है। और इसका क्या अंत होगा, इसकी ठीक-ठीक रूप-रेखा साफ न | और वह अप्रकट ऐसा है कि कितना ही प्रकट होता जाए, तो भी हो, तो आदमी करता बहुत है और पाता कुछ भी नहीं। शेष रहेगा। आसुरी वृत्ति के लोग बड़ा श्रम उठाते हैं, पर उनकी सब साधना रहस्य का अर्थ होता है, जिसे हम पूरा कभी न जान पाएंगे, निष्फल जाती है। जिसका अंतस्तल सदा ही अनजाना रहेगा। हम कितना ही जान लें, इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण हमारी सब जानकारी बाहर ही बाहर रहेगी। भीतर की अंतरात्मा है, और न सत्य भाषण ही। सदा अनजानी छूट जाएगी। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति शुद्धि का विचार ही नहीं करता। वह अगर इसे ठीक से खयाल में लें, तो विज्ञान आसुरी मालूम उसके चिंतन में ही कभी नहीं आता, कि शुद्धि का भी कोई रस है, | पड़ेगा। क्योंकि विज्ञान मानता है, जगत में सभी कुछ जाना जा कि शुद्धि का भी कोई सुख है। जीवन उसका एक घोलमेल है, | सकता है-कम से कम मानता था। अभी नए कुछ वैज्ञानिक, उसमें सभी कुछ मिला-जुला है। वह प्रार्थना भी करता रहेगा, | आइंस्टीन के बाद, इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते। अन्यथा दुकान की बात भी सोचता रहेगा। वह मंदिर में भी बैठा रहेगा, और | विज्ञान की दृष्टि थी, सभी कुछ जाना जा सकता है। जो हमने जान वेश्याघर उसे पहुंच जाना है शीघ्रता से, उसकी योजना बनाता | लिया वह, और जो नहीं जाना है, वह भी अज्ञेय नहीं है, रहेगा। उसके जीवन में शुद्धि नहीं है। उसके जीवन में सब मिला अननोएबल नहीं है। अज्ञात है, उसको भी हम कल जान लेंगे, हुआ है, कचरे की तरह सब इकट्ठा है। कोई एक स्वर नहीं है। बहुत | परसों जान लेंगे। समय की बात है। सौ, दो सौ वर्षों में हम सब स्वर हैं, विपरीत स्वर हैं। | जान लेंगे, या हजार, दो हजार वर्षों में। लेकिन धारणा यह थी शुद्धि का अर्थ इतना ही है कि जीवन की धारा एक स्वर से भरी | | विज्ञान की कि जगत पूरा का पूरा जाना जा सकता है। हो, एक समस्वरता हो। और जब भी मैं जो कर रहा हूं, उस करने | अगर पूरा का पूरा जाना जा सकता है, तो परमात्मा की कोई |343 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* जगह नहीं बचती। क्योंकि जिस दिन आप परमात्मा को भी जान लें अगर दिदरो की बात सच है, उसका तो अर्थ यह हुआ कि अगर प्रयोगशाला में और पदार्थों की भांति, जैसा आक्सीजन और | हम कुछ ईंटों को फेंकते जाएं, तो कभी रहने योग्य मकान दुर्घटना हाइडोजन को जानते हैं, ऐसा परमात्मा को जान लें: जैसे से बन सकता है। सिर्फ फेंकते जाएं। या एक प्रेस को हम बिजली आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाकर पानी बनाते हैं, ऐसा से चला दें और उसके सारे यंत्र चलने लगे, तो केवल संयोग से परमात्मा का विश्लेषण कर लें, मेल-जोल करके टयूब में उसको गीता जैसी किताब छप सकती है। तैयार कर दें; जिस दिन आप परमात्मा को जान लेंगे पदार्थ की ___ दैवी संपदा वाला व्यक्ति देखता है कि जगत में एक तरह-विज्ञान की यही धारणा है कि सभी कुछ हम जान | | रचना-प्रक्रिया है। जगत के पीछे चेतना छिपी है। और जगत के लेंगे—उस दिन जानने को कुछ भी शेष नहीं बचेगा। प्रत्येक कृत्य के पीछे कुछ राज है। और राज कुछ ऐसा है कि हम कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जगत में कोई रहस्य उसकी तलहटी तक कभी न पहुंच पाएंगे, क्योंकि हम भी उस राज नहीं मानता। और दैवी संपदा वाला व्यक्ति मानता है कि जगत एक के हिस्से हैं; हम उसके स्रोत तक कभी न पहुंच पाएंगे, क्योंकि हम अनंत रहस्य है, एक पहेली, जिसे हम हल करने की कितनी ही उसकी एक लहर हैं। कोशिश करें, हम हल न कर पाएंगे। मनुष्य कुछ अलग नहीं है इस रहस्य से। वह इस विराट चेतना और वह जो सदा हल के बाहर छूट जाता है, वही परमात्मा है। में जो लहरें उठ रही हैं, उसका ही एक हिस्सा है। इसलिए न तो वह वह जो हमारी सब कोशिश के बाद भी अज्ञेय, अननोएबल रह | इसके प्रथम को देख पाएगा, न इसके अंतिम को देख पाएगा। दूर जाता है, जिसके पास जाकर हम अवाक हो जाते हैं, जिसके पास खड़े होकर देखने की कोई सुविधा नहीं है। हम इसमें डूबे हुए हैं। जाकर हमारा हृदय ठक से रुक जाता है, जिसके पास जाकर हमारे जैसे मछली को कोई पता नहीं चलता कि सागर है। और मछली विचार की परंपरा एकदम टूट जाती है, जिसके पास हम अपना | सागर में रहती है, फिर भी सागर का क्या रहस्य जानती है! वैसी सध-बध खो देते हैं. जिसके पास हम मस्ती से तो भर जाते हैं. | ही अवस्था मनुष्य की है। लेकिन जानकारी बिलकुल खो जाती है, उस तत्व का नाम ही | जितना ही ज्यादा दैवी संपदा की तरफ झुका हुआ व्यक्ति होगा, परमात्मा है। वही है मिस्टीरियम, रहस्यमय। उतना ही तर्क पर उसका भरोसा कम होने लगेगा, उतना ही काव्य तो कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति मानता है, कोई पर उसकी निष्ठा बढ़ने लगेगी, उतना ही वह जगत में सब तरफ रहस्य नहीं है। जगत तथ्यों का एक जोड़ है; सब जाना जा सकता उसे रहस्य की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगेगी। फूल खिलेगा, तो उसे परमात्मा का इंगित दिखाई पड़ेगा। इसलिए आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को न तो जीवन में कोई | वैज्ञानिक के सामने भी फूल खिलता है, तो वैज्ञानिक उसमें कुछ काव्य दिखाई पड़ता, न कोई सौंदर्य दिखाई पड़ता, न कोई प्रेम तथ्यों की खोज करता है। वह देखता है कि फूल में जरूर कोई दिखाई पड़ता: क्योंकि ये सभी तत्व रहस्यपर्ण हैं। आसरी संपदा कारण है! क्यों खिला है? तो फूल की केमिकल परीक्षा करता है, वाला व्यक्ति जीवन को गणित से नापता है, सभी चीजों को | जांच-पड़ताल करता है, उसके रसों की जांच-पड़ताल करता है, नापता-तौलता है। और सभी चीजों को पदार्थ की तरह व्यवहार | और एक नियम तय करता है कि इसलिए खिला है। करता है। इस जगत में उसे कोई व्यक्तित्व नहीं दिखाई पड़ता। यह धार्मिक व्यक्ति, दैवी संपदा का व्यक्ति फूल का विश्लेषण नहीं जगत जैसे एक मिट्टी का जोड़ है, पदार्थ का जोड़ है। और यहां जो करता, लेकिन फूल का जो संकेत है, जो सौंदर्य है, फूल का जो भी घट रहा है, यह सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है। खिलना है, वह जो जीवन का प्रकट होना है, उस इशारे को पश्चिम के एक बड़े नास्तिक दिदरो ने लिखा है कि जगत का न | पकड़ता है। और तब एक फूल उसके लिए परमात्मा का प्रतीक तो कोई बनाने वाला है, न जगत के भीतर कोई रचना की प्रक्रिया हो जाता है। तब एक छोटी-सी हिलती हवा में पत्ती भी उसके लिए है, न इस जगत का कोई सृजनक्रम है। जगत एक संयोग, एक परमात्मा का कंपन हो जाती है। तब यह सारा जगत परमात्मा का एक्सिडेंट है। घटते-घटते, अनंत घटनाएं घटते-घटते यह सब हो | नृत्य हो जाता है। गया है। लेकिन इसके होने के पीछे कोई राज नहीं है। परमात्मा से अर्थ है, रहस्य। परमात्मा से आप यह मत सोचना । 344 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं * कि कहीं आकाश में कोई बैठा हुआ व्यक्ति। परमात्मा का अर्थ है, | पहचाना जा सकता है। उसकी खंडित स्थिति हो, आत्मा खो गई। यह जगत रहस्यपूर्ण है। और जैसे ही यह जगत रहस्यपूर्ण होता है, यह जगत अखंडता है। इस अखंडता के भीतर जो छिपा हुआ वैसे ही हमारे हृदय में एक नया स्पंदन शुरू होता है। रहस्य है, उसका नाम परमात्मा है। आज अगर दुनिया में इतनी ऊब, इतनी उदासी, इतनी बोर्डम है, __ आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित और तो उसका कारण आसुरी संपदा वाली विचार-धारा का प्रभाव है। | सर्वथा झूठा है और बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री-पुरुष के संयोग क्योंकि जीवन में जब कोई रहस्य न हो, तो रस भी न होगा। और | से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए जब सब चीजें मिट्टी-पत्थर का जोड़ हो...। है। इसके सिवाय और क्या है! अगर दो व्यक्तियों में प्रेम हो जाए, वैज्ञानिक से पूछे, अगर कोई रहस्य नहीं, तो फिर कोई गंतव्य नहीं। अगर कोई बायोलाजिस्ट से पूछे, तो वह कहता है कि कुछ खास बात नहीं; | छिपी हुई नियति नहीं, तो पहुंचने का कोई अर्थ नहीं, कहीं जाने को सिर्फ हार्मोन्स की ही बात है। इन दोनों व्यक्तियों में जो भीतर शरीर | नहीं। फिर आप यहां हैं, और इस क्षण जिस बात में भी सुख मिलता में हार्मोन्स बन रहे हैं, वह जो रासायनिक प्रक्रिया हो रही है, उसमें हुआ मालूम पड़े, उसको कर लेना उचित है। आकर्षण है। उस आकर्षण की वजह से इनको प्रेम वगैरह का चार्वाकों ने कहा है कि उधार लेकर भी अगर घी पीना पड़े, तो खयाल पैदा हो रहा है। प्रेम सिर्फ खयाल है, असली चीज हार्मोनल | चिंता मत करना, उधार लेना। क्योंकि मरने के बाद न लेने वाला आकर्षण है। बचता है, न देने वाला। तब चोरी में कोई बुराई नहीं, अगर सुख विज्ञान सभी चीजों को समझा देता है। यह जानकर आपको | मिलता हो। तब किसी से छीनकर कोई चीज भोग लेने में कुछ हर्ज आश्चर्य होगा कि हम इस मुल्क में विज्ञान को अविद्या कहते थे। | नहीं, अगर सुख मिलता हो। क्योंकि जीवन की कोई परम गति नहीं पुराने दिनों में ऋषियों ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, विद्या और है और न कोई परम नियंत्रण है, और न जीवन का कोई अर्थ है, जो अविद्या। विद्या उस ज्ञान को कहा है, जो दैवी संपदा की तरफ ले | | आपको आगे की तरफ खींचना है। इस क्षण जो भोगने योग्य लगता जाता है। और अविद्या उस ज्ञान को कहा है, जो आसुरी संपदा की हो, उसे पागल की तरह भोग लेना ही आसुरी संपदा वाले व्यक्ति तरफ ले जाता है। के जीवन का ढंग और शैली होगी। विज्ञान अविद्या है। जानना तो वहां बहुत होता है, लेकिन फिर ___ इस सारी दौड़ के पीछे दौड़ता हुआ कोई सूत्र नहीं है। जैसे एक भी जानने का जो परम लक्ष्य है, वह चूक जाता है। | माला हम बनाते हैं, उसमें मनके हैं और भीतर हर मनके के दौड़ता अगर हम वैज्ञानिक को कहें, भीतर आदमी के आत्मा है। तो वह | हुआ एक धागा है। वह धागा दिखाई नहीं पड़ता, मनके दिखाई शरीर को काटने को तैयार है, वह काटकर शरीर को देखने को | पड़ते हैं। वह धागा सब मनकों को बांधे है, पर अदृश्य है। तैयार है। काटने पर आत्मा मिलती नहीं। यह वैसे ही है, जैसे कि दैवी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक कृत्य एक मनका पिकासो का एक सुंदर चित्र हो, और हम कहें, बहुत सुंदर है। और | है। और प्रत्येक मनके को वह भीतर के एक प्रयोजन से बांधे हुए वैज्ञानिक उसको काटकर, प्रयोगशाला में ले जाकर, सब रंगों को है, एक लक्ष्य, एक जीवन की दिशा, एक जीवन की परिपूर्ण करके, विश्लिष्ट करके और कह दे कि ये सब रंग कतकत्यता का भाव। जीवन कहीं जा रहा है, एक नियति, वह अलग-अलग रखे हुए हैं, सौंदर्य कहीं भी नहीं है। उसका धागा है। तो वह जो भी कर रहा है, हर मनके को उस धागे चित्र को काटकर सौंदर्य नहीं खोजा जा सकता। क्योंकि चित्र | में बांधता जा रहा है। कृत्य मनकों की तरह अलग-अलग हैं और का सौंदर्य चित्र की परिपूर्णता में है, वह उसकी होलनेस में था, वह | उसका जीवन एक धागे की तरह सारे मनकों को सम्हाले हुए है, रंगों के जोड़ में था। जैसे ही तोड़ लिया, जोड़ समाप्त हो गए, | एक इंटीग्रेशन। सौंदर्य खो गया। __ आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन में कोई धागा नहीं है। हर आदमी की आत्मा उसके अंग-अंग को काटकर नहीं पकडी जा | कृत्य टूटा हुआ मनका है। दो मनकों में कोई जोड़ नहीं है। इसलिए सकती। वह उसकी समग्रता में है, वह सौंदर्य की तरह उसकी आसुरी संपदा वाला व्यक्ति करीब-करीब विक्षिप्त की तरह जीता समग्रता में छिपी है। उसकी समग्रता अखंडित रहे, तो ही आत्मा को है। उसकी न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। बस, हर क्षण जहां अलग कर 3451 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * हवाएं ले जाएं. जो सझ जाए वासना को. जो भीतर का धक्का आ| | के करीब हो गया। और सूरज ने अपनी किरणों का जाल फेंक दिया जाए, या परिस्थिति जिस तरफ झुका दे, या लोभ जिस तरफ | जगत पर। और जब किरणों का जाल जगत पर सूरज फेंक देता है, आकर्षित कर ले, बस वह वैसा दौड़ता चला जाता है। तो संध्या होने में ज्यादा देर नहीं। जैसे आपके सामने एक सितार रखा हो और आप उसको ठोंकते वह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, उसे मृत्यु लगती है, बस जाएं, तार खींचते जाएं; और आपको सितार के शास्त्र का कोई भी | आ रही है। क्षणभर हाथ में है, इसे भोग लूं, निचोड़ लूं, पी लूं। ज्ञान न हो, संगीत की कोई प्रतीति न हो, दो स्वरों के बीच जोड़ का | | भोग ही लक्ष्य हो जाता है; योग बिलकुल खो जाता है। कोई अनुभव न हो, स्वरों का एक प्रवाह बनाने की कोई कला न | ध्यान रहे, योग का अर्थ ही है, दो मनकों को जोड़ देना। जब हो, स्वरों की सरिता निर्मित न कर सकते हों, तो आप सिर्फ एक | जीवन के सारे मनके जुड़ जाएं, तो आप योगी हैं। और जीवन के उपद्रव मचाएंगे। शोरगुल होगा बहुत, संगीत नहीं हो सकता। मनकों का ढेर लगा हो, कोई धागा न हो जोड़ने वाला, तो आप क्योंकि संगीत तो सभी सुरों को मनके की तरह जब आप धागे में | | भोगी हैं। बांधते हैं, तब पैदा होता है। । भोगी और योगी दोनों के पास मनके तो बराबर होते हैं। लेकिन दैवी संपदा वाला व्यक्ति जीवन में संगीत निर्मित करने की चेष्टा योगी ने एक संगति बना ली. योगी ने सब मनकों को जोड डाला। में लगा रहता है। वह जो काम भी करता है, सोचता है कि यह मेरे उसके सब अक्षर जीवन के एक संयुक्त काव्य बन गए, एक पूरे जीवन में कहां बैठेगा, यह मेरे पूरे जीवन को क्या रंग देगा, कविता बन गए। भोगी अक्षरों का ढेर लगाए बैठा है। उसके पास इससे मेरा आज तक का जीवन किस मोड़ पर मुड़ जाएगा, यह मेरे | | भाषाकोश है। सब अक्षरों का ढेर लगा हुआ है। लेकिन दो अक्षरों पूरे जीवन को मिलकर कौन-सा नया अर्थ, अभिव्यक्ति देगा। | को उसने जोड़ा नहीं, इसलिए कोई कविता का जन्म नहीं हुआ है। इसलिए प्रत्येक कृत्य एक अर्थ, एक अभिप्राय, एक प्रयोजन और | और जीवन के अंत में, वह जो हमने धागा निर्मित किया है, वही एक नियति के साथ मेल बनाता है। | हमारे साथ जाएगा, मनके छूट जाते हैं। मनके सब यहीं रह जाते हैं। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति इस क्षण में उसे जो सूझता है, कर इस प्रकार इस मिथ्या-ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है लेता है। उसका कृत्य टूटा हुआ है, आणविक है। और उसका | स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित लक्ष्य सिर्फ इतना है, आज भोग लूं, कल का क्या भरोसा है! करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उमर खय्याम की रुबाइयात, अगर उसके गहरे सूफी अर्थ उत्पन्न होते हैं। आपको पता न हों, तो आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का वक्तव्य । इस मिथ्या-ज्ञान का अवलंबन करके-कि भोग ही सब कुछ मालूम पड़ेगा। उमर खय्याम की रुबाइयात में बड़ी मधुर कल्पना | | है, योग जैसा कुछ भी नहीं; साधना कुछ भी नहीं है, पहुंचना कहीं है। अगर आपको उसका सूफी रहस्य पता हो, तब तो वह एक भी नहीं है; जीवन का कोई गंतव्य, लक्ष्य नहीं है; जीवन एक संयोग अदभुत ग्रंथ है। सूफी रहस्य का पता न हो, तो आपको लगेगा, है, एक दुर्घटना है, जिसके पीछे कोई अर्थ पिरोया हुआ नहीं है; भोग का एक आमंत्रण है। शब्दों की एक भीड़ है, कोई सुसंगत काव्य नहीं-ऐसा जिसका उमर खय्याम सुबह-सुबह ही पहुंच गया मधुशाला के द्वार पर। | मिथ्या-ज्ञान है और इसका अवलंबन करके नष्ट हो गया स्वभाव अभी कोई जागे भी नहीं; रात थके-मांदे नौकर सो गए हैं। सुबह | जिसका...। ब्रह्ममुहूर्त में, अभी सूरज भी नहीं निकला, वह दरवाजा खटखटा इस तरह की धारणाओं में जो जीएगा, वह अपने स्वभाव को रहा है। भीतर से कोई आवाज देता है कि अभी मधुशाला के खुलने | | अपने हाथ से तोड़ रहा है, क्योंकि स्वभाव तो परम संगीत को में देर है। उपलब्ध करने में ही छिपा है। स्वभाव तो परम नियति को प्रकट तो वह कहता है, लेकिन देर तक प्रतीक्षा करना संभव नहीं। एक | कर लेने में छिपा है। स्वभाव तो इस जगत का जो आत्यंतिक रहस्य क्षण के बाद का भरोसा नहीं। और यह क्षण चूक जाए पीने का, तो | है, उसके साथ एक हो जाने में छिपा है। मैं अपने स्वभाव को तभी कौन आश्वासन देता है कि अगले क्षण मैं बचूंगा और पीने की मुझे | | उपलब्ध होऊंगा, जब मैं बिलकुल शून्य होकर, शांत होकर इस सुविधा रहेगी! इसलिए द्वार खोलो। देर मत करो। सूरज निकलने | | जगत के पूरे अस्तित्व के साथ अपने को एक कर लूं। 346 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं * स्वभाव यानी परमात्मा। स्वभाव मिथ्या धारणाओं में नष्ट हो | जोर से कहना और इनकार करना, कोई कुछ भी कह रहा हो। जाएगा, खो जाएगा। वह हर चीज का खंडन करने लगा। और बड़ा मुश्किल है। आप और मंद हो गई है बुद्धि जिसकी...। कहें. यह चांद संदर है। मढ आदमी भी खडा होकर कह दे कि और इस तरह की बातें जिस पर बहुत प्रभाव करेंगी, उसकी सिद्ध करो! कैसे सिद्ध करिएगा कि चांद सुंदर है? क्या उपाय है? बुद्धि धीरे-धीरे मंद हो जाएगी। मंद होने का यह मतलब नहीं है कि | कोई उपाय नहीं है। अब तक दुनिया में कोई सिद्ध नहीं कर सका उसका तर्क क्षीण हो जाएगा। अक्सर तो आसुरी संपदा वाला | कि चांद सुंदर है। वह तो हम सुन लेते हैं चुपचाप, लोग कहते हैं। व्यक्ति बड़ा तार्किक होता है, बड़ी प्रखर उसके पास तर्क की | अगर आप न सुनें, बस कठिन हो गया काम। व्यवस्था होती है। उस आदमी ने सबको गलत सिद्ध करना शुरू कर दिया। लेकिन फिर भी कृष्ण कहते हैं, मंद हो गई है बुद्धि जिसकी...। | | क्योंकि जो भी कुछ कहे, ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि तर्क को हमने इस देश में कभी बुद्धि नहीं माना। तर्क | | मंत्र सीधा था। सिर्फ इनकार करना है तुझे; और तू कुछ सिद्ध करने को हमने बच्चों का खेल माना है। बुद्धि से तो हमारा प्रयोजन उस | की फिक्र ही मत करना। जो दूसरा कह रहा हो, उसको भर कहना क्षमता से है, जो जीवन को आर-पार देख लेती है; जो जीवन के कि सिद्ध करो। छिपे हुए रहस्य-परतों में उतर जाती है; जो जीवन के अंतःस्तल को ___न सौंदर्य सिद्ध होता है, न सत्य सिद्ध होता है, न परमात्मा सिद्ध स्पर्श कर लेती है, उसे हम बुद्धि कहते हैं। | होता है, सिद्ध तो कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन लोग समझे ___ आधुनिक युग में जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह केवल तर्क की | | कि यह आदमी महान विद्वान हो गया है। इसकी बुद्धि बड़ी प्रखर है। व्यवस्था है। अगर कोई व्यक्ति काफी तर्क कर सकता है, आर्म्य | | हम इस युग में इसी तरह के बुद्धुओं को बुद्धिमान कहते हैं। कर सकता है, विवाद कर सकता है, तो हम कहते हैं, बड़ा कष्ण उनको बद्धिमान नहीं कहते। कष्ण उसको बद्धिमान कहते हैं. बुद्धिमान है। . | जिसने अपनी चेतना-ऊर्जा में, जीवन के परम रहस्य में प्रवेश का तुर्गनेव ने एक छोटी कहानी लिखी है। उसने लिखा है, एक | | मार्ग खोज लिया है। जिसने अपनी चेतना को मार्ग बना लिया है, गांव में एक मूढ़ आदमी था, निपट गंवार था, और सारा गांव उस | वही बुद्धिमान है। पर हंसता था। उस गांव में एक फकीर का आगमन हुआ। तो उस | __ मिथ्या धारणाओं का अवलंबन करके नष्ट हो गया स्वभाव मूढ़ आदमी ने फकीर से कहा कि मुझ पर सारा गांव हंसता है, | | जिनका, मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे व्यक्तियों को कृष्ण ने कहा कि लोग मुझे मूर्ख समझते हैं। मुझे कुछ रास्ता बताओ। थोड़ी बुद्धि वे आसुरी संपदा वाले हैं। । फकीर ने कहा, यह तो जरा कठिन काम है तझे बद्धि इसकी अपने भीतर तलाश करना। और जहां भी आसरी संपदा देना, लेकिन तुझे एक तरकीब बता देता हूं, जिससे तू बुद्धिमान | का थोड़ा-सा भी झुकाव मिले, उसे उखाड़कर फेंक देना। हो जाएगा। उसने कहा, वही दे दो बस, और मुझे कुछ चाहिए ___ मजे की बात यह है कि जैसे कोई लान लगाए, दूब लगाए घर में, नहीं। तो उस फकीर ने उसके कान में कुछ मंत्र दिया; और कहा, | | तो उसमें व्यर्थ का कूड़ा-कचरा भी पैदा होना शुरू होता है। उसे बस, तू इसका उपयोग कर। उखाड़-उखाड़कर फेंकना पड़ता है। मजे की बात यह है कि दूब एक सप्ताह के भीतर गांव में ही नहीं, गांव के आस-पास, | | लगाते हैं आप, कूड़ा-कचरा अपने आप आता है। और अगर दूब दूर-दूर तक, राजधानी तक खबर पहुंच गई कि वह आदमी बड़ा को आप न बचाएं. तो वह मर जाएगी। और अगर कडे-कचरे को बुद्धिमान है। फकीर ने उससे क्या कहा? फकीर ने उससे कहा कि | न फेंकें, तो वह बिना मेहनत किए बढ़ता जाएगा। धीरे-धीरे वह सारी एक छोटा-सा सूत्र याद रख! अगर कहीं कोई कह रहा हो कि | दूब पर छा जाएगा, दूब को खा जाएगा। कूड़ा-कचरा ही रह जाएगा। बाइबिल महान पुस्तक है; तो तू कहना, कौन कहता है, बाइबिल | ___ आसुरी संपदा बड़ी सरलता से बढ़ती है। बढ़ने का कारण है। महान पुस्तक है! दो कौड़ी की है, उसमें कुछ भी नहीं है। अगर | | जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। ऊपर चढ़ाना हो, तो पंप करने कोई कहे, यह चित्र बड़ा सुंदर है; तो तू कहना, क्या है इसमें, रंगों की व्यवस्था बिठानी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है। नीचे अपने का पोतना; सौंदर्य कहीं भी नहीं है। कहां है? दिखाओ मुझे सौंदर्य! आप जाता है। | 347 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * वह जो आसुरी संपदा है, नीचे की तरफ उतरना है। उसमें चढ़ाव नहीं है, इसलिए श्रम नहीं पड़ता। हम सब उसमें ढलकते हैं अपने आप। और जब तक हम सचेत न हों, तब तक रुकना बहुत मुश्किल है। सचेत हों। तो ध्यान रखना, जब भी नीचे उतरने का मन हो, तब अपने को रोकना। चाहे श्रम भी पड़े, तो भी दैवी संपदा की तरफ कदम रखना। वह पहाड़ की चढ़ाई है। पसीना उसमें आएगा, थकान भी होगी। लेकिन उसके मधुर फल हैं। और उसका अंतिम फल मोक्ष की मधुरता है। आज इतना ही। 348 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 पांचवां प्रवचन शोषण या साधना Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः । सत्य नहीं है, इस जगत से ज्यादा सत्यतर कुछ और है। और उस मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ।। १० ।। सत्यतर की खोज की तरफ हम अग्रसर हो सकें, इसलिए वे इस चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । जगत को झूठा कहते हैं। इस जगत को झूठा सिद्ध करने का इतना कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ।। ११ ।। | ही प्रयोजन है, ताकि हम इसी को सत्य मानकर इसी की खोज में न ___ आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः । | उलझ जाएं। सत्य कहीं और छिपा है। और इसे हम असत्य ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ।। १२ ।। | समझेंगे, तो ही उस सत्य की खोज में जा सकेंगे। और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार लेकिन कृष्ण यहां कह रहे हैं कि आसुरी संपदा वाले लोग इस भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह - जगत को झूठा कहते हैं। इस वक्तव्य का प्रयोजन बिलकुल दूसरा से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त | है। आसुरी संपदा वाले लोग इस जगत को झूठा इसलिए नहीं कहते हुए संसार में वर्तते हैं। कि कोई और जगत है, जो सत्य है। वे कहते हैं, सत्य है ही नहीं। तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय इसलिए जो भी है, वह झूठ है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। किए हुए और विषय-भोगों को भोगने के लिए तत्पर हुए, शंकर कहते हैं, यह जगत मिथ्या है, असत्य है, माया है। इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं। क्योंकि सत्य कहीं और है और उस सत्य की तुलना में यह झूठा है। इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और आसुरी संपदा वाले लोग कहते हैं, यह संसार झूठा है, क्योंकि सत्य काम-क्रोध के परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए कुछ है ही नहीं। यह किसी तुलना में असत्य नहीं है, क्योंकि सत्य अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की । है ही नहीं है, इसलिए जो भी है, वह असत्य है। उनका ऐसा मानने चेष्टा करते हैं। और कहने का प्रयोजन समझने जैसा है। __ जगत को असत्य अगर कह दिया जाए, और कोई सत्य हो न, तो फिर जीवन में कोई मूल्य, जीवन में कोई लक्ष्य, कोई गंतव्य नहीं पहले कुछ प्रश्न। रह जाता; फिर बुरे और भले का कोई भेद नहीं रह जाता। . पहला प्रश्नः कल के सूत्र में कहा गया कि आसुरी | आप स्वप्न में देखें कि आप साधु हैं या स्वप्न में देखें कि असाधु संपदा वाले कहते हैं कि जगत आश्चर्यरहित है और हैं, क्या फर्क पड़ता है। दोनों ही स्वप्न हैं। स्वप्न में किसी की हत्या सर्वथा झूठा है। विज्ञान यह अवश्य सोचता था कि करें या स्वप्न में किसी को बचाएं, क्या फर्क पड़ता है। दोनों ही जगत में कुछ रहस्य नहीं है, लेकिन यह तो वह नहीं | स्वप्न हैं। दो स्वप्नों के बीच कोई मूल्य का भेद नहीं हो सकता। कहता कि जगत झूठा है। इसे समझाएं। सत्य और स्वप्न के बीच मूल्य का भेद हो सकता है। लेकिन अगर दोनों ही स्वप्न हैं, तो फिर कोई भी भेद नहीं। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति मानता है, यह सब असत्य है। सब 7 सुरी संपदा वाले लोग जगत को रहस्यशून्य और झूठा | | असत्य का उसके कहने का प्रयोजन इतना ही है कि यह जगत एक सा मानते हैं, ऐसा कहने का कृष्ण का प्रयोजन काफी गहरे संयोग है। यह जगत एक रचना-प्रक्रिया नहीं है। इस जगत के पीछे से समझेंगे, तो ही समझ में आ सकेगा। साधारणतः कोई प्रयोजन अंतर्निहित नहीं है। यह जगत कहीं जा नहीं रहा है। तो धार्मिक, दैवी संपदा वाले पुरुष जगत को माया कहते हैं, जगत इस जगत की कोई मंजिल नहीं है। हम सिर्फ दुर्घटनाएं हैं। न कुछ को झूठा कहते हैं। इसलिए बात थोड़ी उलझी हुई है। लेकिन दोनों | पाने को है यहां, न कुछ खोने को है। हमारे होने का कोई मूल्य नहीं के प्रयोजन अलग हैं। | है। हमारा होना मीनिंगलेस है. सर्वथा मल्यरहित है। __ शंकर या दूसरे अद्वैतवादी जब जगत को माया या असत्य कहते अगर जगत में थोड़ा भी सत्य है, तो मूल्य पैदा हो जाएगा; तब हैं, तो उनका प्रयोजन केवल इतना ही है कि इस जगत से भी | चुनाव करना होगा, असत्य को छोड़ना होगा, सत्य को पाना सत्यतर कुछ और है। यह एक सापेक्ष वक्तव्य है। यह जगत ही | | होगा। फिर असत्य और सत्य के बीच हमें यात्रा करनी पड़ेगी; | 3501 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * साधना-पथ निर्मित होगा। लेकिन अगर सभी कुछ असत्य है; कुछ है, कोई मूल्य नहीं है, इस बात की घोषणा करने के लिए आसुरी पाने योग्य नहीं, कछ खोने योग्य नहीं: बरा आदमी भी, भला संपदा वाला व्यक्ति कहता है, जगत झठा है। आदमी भी, असाधु, साधु, संत, अज्ञानी या ज्ञानी सब बराबर दैवी संपदा वाला व्यक्ति भी जगत को मिथ्या कहता है। यहां हैं—फिर कोई भेद नहीं है। यह बात खयाल में लेनी जरूरी है कि कभी-कभी हमारे एक से और अगर बुरे और भले का भेद मिट जाए, तो आसुरी संपदा वक्तव्य भी बड़े भिन्न अर्थ रखते हैं। वक्तव्य का बहुत कम मूल्य वाले व्यक्ति को जो सुख मिलता है, वह किसी और तरह से नहीं | है। वक्तव्य कौन देता है, इसी का मूल्य ज्यादा है। वही वक्तव्य मिलता। क्योंकि आसुरी संपदा वाले व्यक्ति की यही पीड़ा है कि | राम के मुंह से अलग अर्थ रखेगा; वही वक्तव्य रावण के मुंह से कहीं ऐसा न हो कि मैं जो कर रहा हूं, वह गलत हो। कहीं ऐसा न | अलग अर्थ रखेगा। वक्तव्य बिलकुल एक जैसे हो सकते हैं, हो कि जिस धारा के मैं विपरीत चल रहा हूं, उस धारा में ही सत्य | | लेकिन वक्तव्य के पीछे नजर क्या है? छिपा हो! कहीं ऐसा न हो कि प्रार्थना में, पूजा में, परमात्मा में कोई अगर राम कहते हैं, जगत मिथ्या है, तो इसका अर्थ यह है कि सत्य छिपा हो! मैं जैसा जीवन को चला रहा हूं, यह अगर असत्य | इस पर रुको मत; सत्य कहीं और है, उसे खोजो। रावण अगर कहे, है, तो फिर मैं कुछ खो रहा हूं। जगत मिथ्या है, तो वह यह कहता है कि कहीं जाने की कोई जरूरत लेकिन अगर सभी कुछ असत्य है, तो फिर खोने-पाने का कोई । नहीं, सत्य है ही नहीं, इसलिए यहां जो मिला है, उसे भोग लो। सवाल नहीं है। तब महावीर कुछ पा नहीं रहे हैं, बुद्ध को कुछ मिल | | यह क्षणभर का भोग है, न इसके पीछे कुछ है, न इसके आगे कुछ नहीं रहा है, वे भी भ्रम में हैं। जो धन कमाकर इकट्ठा कर रहा है, | | है। और परिणाम की बिलकुल चिंता मत करो। क्योंकि परिणाम वह भी भ्रम में है। वह जो स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है, वह भी भ्रम | | केवल सत्य जगत में ही घटित हो सकते हैं; असत्य जगत में कोई में है। जो परमात्मा के पीछे दौड़ रहा है, वह भी भ्रम में है। परिणाम घटित नहीं होते। आसुरी संपदा वाला यह कहता है कि जो भी यहां मंजिल खोज | ___ मैंने सुना है, एक आदमी ने रात स्वप्न देखा। फिर सुबह वह जब रहा है, जो भी यहां जीवन में निहित किसी प्रयोजन की तलाश कर बाजार की तरफ चला, तो बड़ा उदास था। किसी मित्र ने उसे पूछा रहा है, जो भी सोचता है कि यहां कोई सत्य मिल जाएगा, अमृत | कि इतने उदास हो, बात क्या है? उसने कहा, मैंने एक स्वप्न देखा मिल जाएगा, जीवन मिल जाएगा, कोई परम उपलब्धि होगी, कोई है। और स्वप्न में मैंने देखा कि मुझे बीस हजार रुपए पड़े हुए रास्ते मोक्ष मिल जाएगा, वह भ्रांति में है। यह पूरा जगत असत्य है। यहां पर मिल गए हैं। तो मित्र ने कहा, इसमें भी उदास होने की क्या बात कुछ पाने जैसा नहीं है। है! यह तो सपना है। सपने के रुपयों की क्या चिंता करनी, क्या एक बार यह साफ हो जाए कि सभी कुछ असत्य है, तो जीवन उदासी! उस आदमी ने कहा, उससे मैं परेशान नहीं हूं। मैंने यह में साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। साधना में अर्थ आता है | पत्नी को बता दिया और वह सुबह से ही रो-पीट रही है। वह कहती तभी, जब जीवन में कुछ चुनने को हो। कुछ गलत हो, जो छोड़ा है, उसी वक्त बैंक में जमा क्यों न कर दिए? जा सके; कुछ सही हो, जो पकड़ा जा सके। कोई दिशा भ्रांत हो, | स्वप्न में भी मोह तो हमारा पकड़ता है। वह जो झूठ है, उसमें जिस तरफ पीठ की जा सके कोई दिशा सही हो, जिस तरफ मुख भी आसक्ति बनती है। वह जो नहीं है, उसको भी हम सम्हाल लेना किया जा सके। कहीं पहुंचने की कोई मंजिल हो, कोई गंतव्य हो, चाहते हैं। कोई तारा हो–कितने ही दूर-लेकिन जिस तरफ हम चल सकें। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति यह कह रहा है कि ये स्वप्न में जो रुपए मिले हैं, इनको जमा कर ही देना। क्योंकि ये रुपए भी झूठ हैं, उपाय नहीं है। तुम यहां हो एक दुर्घटना की तरह। यह एक जमा करना भी झूठ है, बैंक भी झूठ है, जमा करने वाला भी झूठ आकस्मिक घटना है। जगत को न कोई चला रहा है, न कोई जगत | | है। स्वप्न ही झूठ नहीं है, जिसने स्वप्न देखा, वह भी झूठ है। जमा को सोच रहा है, न जगत के पीछे कोई चेतना है। जगत एक करने का मजा ले लेना। यद्यपि वह झूठ है; लेकिन नहीं जमा कर सांयोगिक घटना है। सांयोगिक घटना का अर्थ यह होता है कि पाए, उसका दुख लेने की बजाय बेहतर है। दोनों झूठ हैं। यहां सुख इसमें कुछ भी प्रयोजन खोजना व्यर्थ है। प्रयोजन नहीं है, अर्थ नहीं भी झूठ है, दुख भी झूठ है। इसलिए क्षणभर की बात है; जो आसी यहां चलन 351| Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* रुचिकर लगे, वह कर लेना। अज्ञेय है, वह धर्म की विशिष्ट कोटि है। अज्ञात ज्ञात हो जाएगा; इस भेद को खयाल में ले लें। ज्ञात फिर अज्ञात हो सकता है। क्योंकि बहत-से सत्य आदमी को आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, जो सुखपूर्ण मालूम पड़े, ज्ञात हो गए, फिर खो गए। वह कर लेना, झूठ तो सभी कुछ है। दैवी संपदा वाला व्यक्ति अभी काबुल के करीब कोई पंद्रह वर्ष पहले एक छोटा-सा यंत्र कहता है कि सुख-दुख की फिक्र मत करना; जो सत्य हो, उसकी | मिला। समझना ही मुश्किल हुआ कि वह यंत्र क्या है। बहुत फिक्र करना: जो असत्य हो. उसको छोडना। खोजबीन करने पर पता चला कि वह विद्यत पैदा करने की बैटरी दैवी संपदा वाले के लिए सत्य कसौटी है। आसुरी संपदा वाले | है, और कोई पांच हजार वर्ष पुराना है। पांच हजार वर्ष पहले विद्युत के लिए सुख कसौटी है। झूठ तो सभी है, इसलिए यह तो कोई | पैदा करने का उपाय किन्हीं ने खोज लिया था; वह ज्ञात हो गया उपाय ही नहीं है इसमें तौलने का कि कौन सा सच है, कौन सा झूठ था; फिर वह खो गया। है। एक ही उपाय है कि जिससे सुख मिलता हो। कुछ तीस वर्ष पहले पेरिस की एक लाइब्रेरी में सात सौ वर्ष नास्तिकों ने सदा एक दलील दी है, आस्तिक भी उस दलील का | पुराने पृथ्वी के नक्शे मिले। उन नक्शों में पृथ्वी गोल बताई गई है, उपयोग करते हैं; पर दोनों के प्रयोजन बड़े भिन्न हैं। आस्तिक कहता और उन नक्शों में अमेरिका भी अंकित है। तो यह खयाल गलत है, यह कहां तुम दौड़ रहे हो स्त्री के पीछे, धन के पीछे, | है कि कोलंबस ने अमेरिका खोजा। कोलंबस से बहुत साल पहले पद-प्रतिष्ठा के पीछे; ये सब झूठ हैं। नास्तिक भी कहता है कि ये अमेरिका नक्शे पर अंकित है। सब झूठ हैं। लेकिन कहीं और दौड़ने को कोई जगह भी नहीं है। न केवल यही, बल्कि वह जो नक्शा मिला है सात सौ वर्ष पुराना, इस झूठ को भी छोड़ दें, तो कोई सत्य तो है नहीं, जिसको हम पकड़ | वह और भी अनूठा है। वह ऐसा है कि बिना हवाई जहाज के वह लें। झूठ को हम खो सकते हैं, लेकिन सत्य को पा नहीं बन ही नहीं सकता। जब तक बहुत ऊंचाई से पृथ्वी न देखी जाए, सकते-नास्तिक की दृष्टि में। तब तक पृथ्वी का वैसा नक्शा बनाने का कोई उपाय ही नहीं है। इसलिए खोने का भी क्या अर्थ है? सपना भी अगर मधुर देखा तो न केवल वह नक्शा सिद्ध करता है कि अमेरिका पहले खोजा जा सकता है, तो देख लेना चाहिए। सिर्फ सपना होने से ही छोड़ने | | जा चुका था, फिर खो गया; वह यह भी सिद्ध करता है कि मनुष्य योग्य नहीं है। क्योंकि सत्य अगर कहीं होता, तो हम सपने को छोड़ के पास वायुयान थे। तभी वह नक्शा बन सकता है। उसके बनने भी देते। लेकिन सत्य कहीं है ही नहीं। इसलिए दो तरह के सपने हैं. का कोई और रास्ता ही नहीं है। और वह नक्शा नब्बे प्रतिशत वैसा सुखद और दुखद। जो सुखद सपनों को खोज लेता है, वह होशियार ही है, जैसा हम आज बनाते हैं। उसमें जरा-सा ही भेद है। है। जो दुखद सपनों में पड़ा रहता है, वह नासमझ है। और सपने के | तो पहले तो यह खयाल था कि भेद भूल-चूक की वजह से हो अतिरिक्त कोई सत्य नहीं है। यह आसुरी संपदा वाले की वृत्ति है। गए होंगे। कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि हो सकता है कि पृथ्वी विज्ञान निश्चित ही आसुरी संपदा वाले से राजी है। दोनों कारणों | ___ में, जब वह नक्शा बनाया गया-क्योंकि सात सौ साल पहले से राजी है। एक तो इस कारण राजी है कि जगत में कोई रहस्य नहीं | जिसने बनाया, उसने उस पर नोट लिखा है कि वह किसी पुराने है; जगत में कोई छिपा हुआ राज नहीं है। जगत एक खुली किताब | नक्शे की नकल कर रहा है तो इस बात की संभावना ज्यादा है है। और अगर हम न पढ़ पाते हों, तो उसका केवल इतना ही अर्थ | कि पृथ्वी में फर्क हो गए हैं, जब वह नक्शा बना होगा। इसलिए है कि हमें पढ़ने की कुशलता और बढ़ानी चाहिए। थोड़े से भेद हैं। लेकिन इतना तो बिलकुल ही स्पष्ट है कि वह बिना विज्ञान जगत को दो हिस्सों में तोड़ता है, नोन और अननोन, | हवाई जहाज के, पृथ्वी का चक्कर न लगाया गया हो, तो उस नक्शे ज्ञात और अज्ञात। वह जो अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जाएगा; जो को बनाया ही नहीं जा सकता। आज ज्ञात है, वह भी कल अज्ञात था। एक दिन ऐसा आएगा, जब | हिंदू तो बहुत समय से सोचते रहे हैं कि उनके पास पुष्पक सब ज्ञात हो जाएगा; अज्ञात की कोटि नष्ट हो जाएगी। | विमान थे। और दुनिया की हर जाति के पास आकाश में उड़ने की ___धर्म जगत को तीन हिस्सों में तोड़ता है, ज्ञात, अज्ञात और | | कथाएं हैं। अज्ञेय-नोन, अननोन और अननोएबल। वह जो अननोएबल है, जो ज्ञात है, वह अज्ञात हो जाता है; जो अज्ञात है, वह ज्ञात होता | 352| Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * रहता है। दिन और रात की तरह यह बदलाहट नोन और अननोन | नहीं। इसलिए वह तत्व सदा ही अज्ञेय बना रहता है, अननोएबल में होती रहती है। लेकिन धर्म कहता है, एक और चीज है, जो दोनों | बना रहता है। जाना भी जाता है, फिर भी जाना नहीं जाता। जान भी के पार है, वह अज्ञेय है। वह कभी ज्ञात भी नहीं होता, कभी अज्ञात | लिया जाता है, फिर भी ज्ञान का हिस्सा नहीं बनता, जानकारी नहीं भी नहीं होता। बन पाती। हम परमात्मा को वही तत्व कहते हैं। वह सदा अज्ञेय ही बना इसीलिए तो हम विज्ञान की शिक्षा दे सकते हैं, लेकिन धर्म की रहता है। हम उसे जान भी लेते हैं, तब भी हम उसे पूरा जान नहीं कोई शिक्षा नहीं दे सकते। पाते। और जो उसे जान लेता है, वह दावा नहीं कर पाता कि मैंने | एडिसन एक सत्य को जान लेता है, या न्यूटन एक सत्य को जान जान लिया। क्योंकि उसके जानने की एक अनिवार्य शर्त है कि | लेता है, या आइंस्टीन एक थिअरी खोज लेता है, एक सिद्धांत खोज जानने वाला उसे जानने में ही खो जाता है। इसलिए दावा करने को | | लेता है, फिर हर एक को खोजने की जरूरत नहीं है। एक दफा एक कोई पीछे बचता नहीं। आदमी ने खोज लिया, फिर वह किताब में लिख गया, फिर उसे उपनिषदों ने कहा है, जो कहे कि मैं जानता हूं, जानना कि उसे | | बच्चे पढ़ते रहेंगे। जिस काम को करने में आइंस्टीन को वर्षों अभी कुछ पता नहीं। जानने वाले की शर्त ही यही है कि वह कह | लगेंगे, उसे कोई भी व्यक्ति दो घंटे में समझ लेगा, घंटे में समझ नहीं सकेगा कि मैं जानता हूं। क्योंकि वहां कोई मैं नहीं बचता। | | लेगा। फिर साधारण बच्चे, जिनमें बुद्धि नहीं है, वे भी उसे समझ — कबीर ने कहा है कि मैं खोजता था; और बहुत खोजा और तू न | | लेंगे और परीक्षा देकर उत्तीर्ण होते रहेंगे। फिर दुबारा उसे खोजने मिला। और जब तू मिला तब बड़ी अड़चन हुई, क्योंकि तब तक की जरूरत नहीं। एक दफा विज्ञान जो जान लेता है, वह ज्ञान का मैं खो चुका था। हिस्सा हो जाता है। अगर ठीक से समझें, तो मनुष्य और परमात्मा का मिलन कभी | लेकिन धर्म के मामले में बड़ी अजीब बात है। हजारों लोगों ने . भी नहीं होता। क्योंकि जब तक मनुष्य होता है, तब तक परमात्मा | परमात्मा को जाना, फिर भी हम किताब में लिखकर उसको दूसरे को से मिलना नहीं हो पाता। और जब परमात्मा प्रकट होता है, तब तक | नहीं जना सकते। कृष्ण ने जाना होगा, बुद्ध ने जाना होगा, क्राइस्ट मनुष्य पिघलकर उसमें लीन हो गया होता है। इसलिए मिलन की ने जाना होगा, मोहम्मद ने जाना होगा। लेकिन फिर उस जानने से घटना नहीं घटती दो के बीच। या तो मनुष्य होता है, या परमात्मा | | कोई फर्क नहीं पड़ता। आप सिर्फ पढ़कर नहीं जान सकते। आपको होता है। भी जानना है, तो उसी जगह से गुजरना होगा, जहां से कृष्ण गुजरते एक अमेरिकी विचारक एलन वाट एक झेन फकीर के पास | हैं। और जब तक आप कृष्ण जैसे न हो जाएं, कृष्ण-चैतन्य का जन्म साधना कर रहा था। उस झेन फकीर ने एलन वाट को पूछा कि तुम न हो आपके भीतर, तब तक आप न जान सकेंगे। क्या खोज रहे हो? ध्यान तुम कर रहे हो किस लिए? तो एलन वाट आइंस्टीन की थिअरी आफ रिलेटिविटी समझने के लिए ने कहा कि परमात्मा की तलाश के लिए। तो वह झेन फकीर हंसने | आइंस्टीन होना जरूरी नहीं है, न आइंस्टीन की बुद्धि चाहिए। कोई लगा। उसने कहा कि तुम बड़े अजीब काम में लगे हो। यह काम | | आवश्यकता नहीं है। एक दफा सिद्धांत जान लिया गया, वह ज्ञान पूरा हो नहीं पाएगा। का हिस्सा हो गया। लेकिन धर्म के सत्य जाने भी जाते हैं, तो भी एलन वाट हैरान हुआ। उसने कहा कि हम तो सोचते थे कि कभी ज्ञान के हिस्से नहीं होते। वे सदा ही अज्ञेय बने रहते हैं। पूरब के लोग मानते हैं कि यही काम करने योग्य है। और तुम यह इसलिए विज्ञान आसुरी संपदा वाले व्यक्ति से राजी है। या हम क्या कह रहे हो! उसने कहा कि यह नहीं होगा; या तो तुम न ऐसा कह सकते हैं कि अभी जो विज्ञान है, वह आसुरी संपदा के बचोगे या परमात्मा न बचेगा। मगर मिलन नहीं हो सकता। या तो | | ही वर्तुल में काम कर रहा है। मनुष्य अगर और विकसित होगा, तो तुम खो जाओगे, तो परमात्मा बचेगा; या परमात्मा खो जाएगा, | हम दैवी संपदा वाले विज्ञान को भी विकसित करेंगे। तब विज्ञान तो तुम बचोगे। एक नए आयाम में गति करेगा। ___ जो उसे जानते हैं, वे जानने में ही शून्य हो जाते हैं। जितना जानते और दूसरी बात में भी विज्ञान राजी है आसुरी संपदा वाले व्यक्ति हैं, उतने ही शून्य हो जाते हैं। इसलिए दावा करने को कोई बचता से। क्योंकि विज्ञान भी मानता है कि जगत में कोई प्रयोजन नहीं है, | 353 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * कोई परपज नहीं है। यह सिर्फ घटनाओं का जोड़ है। इसलिए यहां | आप बाइबिल पढ़ेंगे, तो बाइबिल में जो अर्थ निकलेगा, वह प्रार्थना-पजा व्यर्थ है। यहां ध्यान करने से कछ भी न होगा। यहां आपकी ही मनोदशा का होगा। गीता पढ़ेंगे, जो अर्थ निकलेगा, वह प्रार्थना किससे करिएगा? यहां कोई है नहीं, जो प्रार्थना सुनेगा। | अर्थ आपका होगा, कृष्ण का नहीं हो सकता। तो शास्त्र में कितना और मनुष्य केवल संघात है, कुछ वस्तुओं का जोड़ है। अगर उन | ही छिपा हो, वह आपको प्रकट नहीं होगा। वस्तुओं को हम अलग कर लें, तो पीछे कोई आत्मा बचेगी नहीं। - प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजें। इसलिए गुरु का इस पूर्वीय विज्ञान जैसा आज तक विकसित हुआ है, वह आसुरी संपदा के परंपरा में इतना मूल्यवान स्थान रहा है। उसका केवल इतना अर्थ अंतर्गत ही विकसित हुआ है। भविष्य में द्वार खुल सकता है; दैवी है कि आप जीवंत सत्य को खोजें। क्योंकि उसे आप धोखा न दे संपदा का विज्ञान भी विकसित हो सकता है। या आप ऐसा समझ सकेंगे, और उसकी आप व्याख्या अपने हिसाब से न कर सकेंगे। सकते हैं कि आसुरी संपदा की जो विद्या है, उसका नाम विज्ञान है। वह आपको रोक सकेगा। जहां भूल होगी, वहां चेता सकेगा। और दैवी संपदा की जो विद्या है, उसका नाम धर्म है। प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि का नाम ही सत्संग है। उसका केवल ___धर्म विज्ञान है अंतर्जगत का, उस रहस्य लोक का, जिसे | इतना अर्थ है कि जो जानता है, उसके पास होना। क्योंकि बहुत-सी प्रयोगशाला में नहीं परखा जा सकता, जिसे हम अपने ही भीतर चीजें हैं, जो केवल संक्रमण से ही अनुभव में आती हैं, उन्हें कोई दे खोज सकते हैं। वह भीतर की डुबकी है। भी नहीं सकता। वे कोई भौतिक वस्तुएं नहीं कि उठाकर कोई आपको विज्ञान पदार्थों की खोज है और धर्म परमात्मा की खोज है। | दे दे। चुपचाप पास होने पर धीरे-धीरे उनका संक्रमण होता है। तो पहली बात तो आपको भी कैसे आसरीपन दिखाई पड़े, उसके लिए जरूरी है कि आप सन्निधि खोजें प्रज्ञावान पुरुष की, तो दूसरा प्रश्नः प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का जो धीरे-धीरे उसकी आंखों से आपको भी देखने का मौका मिलेगा। आसुरीपन दिखाई देता है, वह हमें भी दिखे, इसके उसके साथ उठते-बैठते, चलते-फिरते आपको एक नए जीवन की लिए हम क्या करें? प्रतीति होनी शरू होगी। तभी तलना पैदा होती है। नहीं तो तलना भी कैसे पैदा हो! आप जहां जी रहे हैं, जिनके बीच जी रहे हैं, जिनके साथ जी रहे हैं, वे सब एक से हैं। इसलिए पहचानना बहुत 7 श्न महत्वपूर्ण है; सभी के काम का है। जिन्हें भी | | मुश्किल है। प्र जीवन में थोड़ा-बहुत रूपांतरण करना हो, उन्हें इस पर | ___ एक पागलखाने में सभी पागल हैं, वहां कोई पागल यह कभी काफी सोच-विचार करना होगा। | भी नहीं समझ सकता कि मैं पागल हूं। वहां सारे पागल उसके ही प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का आसुरीपन दिखाई पड़ता है, जैसे हैं। अगर एक पागलखाने में ठीक आदमी पहुंच जाए, तो उस हमें भी दिखाई पड़े, इसके लिए हम क्या करें? ठीक आदमी को लगेगा कि मुझे कुछ गड़बड़ हो गई है, क्योंकि पहला काम तो यह है कि प्रज्ञावान पुरुष का सानिध्य खोजें। भीड़ और बहुमत पागलों का होगा। शास्त्र काफी नहीं है, क्योंकि शास्त्र मुर्दा है। शास्त्र बहुमूल्य है, | ऐसा अक्सर हआ है। इसलिए हमने बद्ध को. क्राइस्ट को, लेकिन पर्याप्त नहीं है। और शास्त्र में आप वही पढ़ लेंगे, जो आप | सुकरात को पागल कहा है। वह हमारे पागलों की भीड़ में एक पढ़ सकते हैं। शास्त्र को आप धोखा दे सकते हैं, शास्त्र आपको | आदमी अगर ठीक हो जाए, तो हमें उस पर शक आता है बजाय रोक नहीं सकता। शास्त्र की आप व्याख्या कर सकते हैं, वह | हम पर शक आने के। हम काफी हैं; हमारी संख्या बड़ी है। और व्याख्या आपकी अपनी होगी। शास्त्र यह नहीं कह सकता कि यह | संख्या हमें बड़ी सत्य मालूम पड़ती है। हम सभी चीजों को संख्या व्याख्या गलत है। और अर्थ और व्याख्या तो आप करेंगे। तो से तौलते हैं। करोड़-करोड़ लोग जिस बात को मानते हैं, वही हमें शास्त्र तो आपके हाथ में आप ही जैसा हो जाता है। कितना ही | ठीक मालूम पड़ती है। तो हमने जीसस को सूली पर लटका दिया, कीमती शास्त्र हो, पढ़ने वाले के हाथ में पड़ते ही पढ़ने वाले के सुकरात को जहर दिया, यही सोचकर कि ये पागल हो गए हैं, ढंग का हो जाता है। विक्षिप्त हो गए हैं। 354 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * इस भीड़ में आपको पहचान ही नहीं हो पाएगी, क्योंकि तुलना | कोई गवाह भी नहीं था। वह बात अकबर की अदालत तक कैसे पैदा हो! कहते हैं, ऊंट जब तक पहाड़ के नीचे न जाए, तब | | पहुंची। एक भी गवाह नहीं, उपाय भी नहीं कोई। यह आदमी कहता तक उसे पता ही नहीं चलता कि मुझसे ऊंचा भी कुछ है; तब तक | है, रख गया। और दूसरा आदमी कहता है, नहीं रख गया। अब ऊंट पहाड़ है। कैसे निर्णय हो? आप जब तक अपने से बिलकुल भिन्न जीवन चेतना के करीब । अकबर ने बीरबल से सलाह ली। बीरबल ने, जो आदमी रुपए न जाएं, तब तक आपको अपना आसुरीपन दिखाई पड़ेगा नहीं। | रख गया था, उससे कहा कि कोई भी तो गवाह हो! उसने कहा, उसके पास जाते ही आपको झलक होनी शुरू हो जाएगी, क्योंकि गवाह तो कोई भी नहीं है; सिर्फ जिस वृक्ष के नीचे बैठकर मैंने इसे विपरीत पृष्ठभूमि में आप दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। | संपत्ति दी थी, वह वृक्ष ही गवाह है। बीरबल ने कहा, तब काम तो प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजें। चल जाएगा। तुम जाओ, वृक्ष को कहो कि बुलाया है अदालत ने। दूसरी बात, प्रज्ञावान पुरुषों ने जो-जो कहा है-गीता है, लगा तो उस आदमी को कि यह पागलपन का मामला है, उपनिषद हैं, लाओत्से का ताओ तेह किंग है, महावीर के वचन हैं, | | लेकिन कोई और उपाय भी नहीं है। सोचा, पता नहीं इसमें कुछ राज. बुद्ध का धम्मपद है, और हजारों-हजारों वक्तव्य हैं सारी जमीन पर | हो। उसने कहा, मैं जाता हूं प्रार्थना करूंगा। फैले हए-प्रज्ञावान पुरुषों ने जो कहा है, उस पर तर्क मत करें, | वह आदमी गया। दसरा. जिसके पास रुपए जमा थे. वह बैठा उस पर प्रयोग करें। वही तर्क है। उस पर सोच-विचार मत करें । रहा. बैठा रहा। बडी देर हो गई। तो बीरबल ने कहा. बडी देर हो क्योंकि सोच-विचार करने का कोई उपाय नहीं है। जिस बात की गई. यह आदमी लौटा क्यों नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि आपको कोई प्रतीति नहीं है, आप सोच-विचार भी कैसे करिएगा? | जनाब, वह वृक्ष बहुत दूर है। तो बीरबल ने कहा, मामला हल हो उस पर प्रयोग करें, और प्रयोग करके देखें। | गया। तुमने रुपए लिए हैं, अन्यथा तुम्हें उस वृक्ष का पता कैसे चला प्रयोग ही तर्क है। क्योंकि प्रयोग से आपको लगेगा कि वे ठीक कि वह कितने दूर है! कह रहे हैं। उसका स्वाद आएगा, तो ही लगेगा कि वे ठीक कह | | हमारे भीतर भी हमें पता चलने के लिए कुछ संकेत चाहिए, रहे हैं। और जब तक आपको आपसे अन्यथा कोई चीज ठीक न | परोक्ष। प्रत्यक्ष तो कोई उपाय नहीं है। प्रत्यक्ष तो आप जैसे हैं, उससे लगने लगे, तब तक आप अपने को गलत न मान पाएंगे। गलत | | भिन्न होने का कोई उपाय नहीं है। परोक्ष कोई उपाय चाहिए। के लिए तुलना चाहिए। प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि में आपको परोक्ष झलकें मिलना शुरू सुना है मैंने कि अकबर के समय में एक धार्मिक व्यक्ति | | होंगी और लगेगा कि आप गलत हैं। क्योंकि जैसे ही आपको तीर्थयात्रा पर गया। उन दिनों बड़े खतरे के दिन थे। संपत्ति को पीछे लगेगा कि प्रज्ञावान पुरुष सही है, वैसे ही आपको लगेगा कि मैं छोड़ जाना और अकेला ही आदमी था, बच्चे-पत्नी भी नहीं थे, गलत हूं। काफी संपदा थी। तो एक मित्र के पास रख गया, जिस पर भरोसा __ और यहां एक बड़ी महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है। अगर था। और कहा कि अगर जीवित लौट आया, तो मुझे लौटा देना; | आप बहुत चालाक हैं, तो आप प्रज्ञावान पुरुष के पास भी बैठकर अगर जीवित न लौटूं, तो इसका जो भी सदुपयोग बन सके कर | यही सोचते रहेंगे कि वह गलत है। क्योंकि अपने को बचाने का लेना। यात्रा कठिन भी थी पुराने दिनों में, तीर्थ से बहुत लोग नहीं | | वही एक उपाय है, और कोई उपाय नहीं है। भी लौट पाते थे। इसलिए लोग गुरुओं के पास भी जाते हैं और गुरुओं की गलती वह लंबी मानसरोवर तक की यात्रा पर गया था। पर भाग्य से | | देखकर वापस लौट आते हैं। उन्होंने अपनी सुरक्षा कर ली। क्योंकि जीवित वापस लौट आया। मित्र ने तो मान ही लिया था कि लौटेगा दो ही रास्ते थे। अगर गुरु ठीक था, तो उनको गलत होना पड़ता। नहीं। लेकिन जब वह लौट आया, तो अड़चन हुई। संपत्ति काफी और अगर उनको ठीक ही बने रहना है जैसे वे हैं, तो गुरु को गलत थी और देना मित्र को भी मुश्किल हुआ। मित्र नट गया। उसने कहा | | सिद्ध कर लेना जरूरी है। कि रख ही नहीं गए! कैसी बातें करते हो? तुम्हारा दिमाग तो खराब | | लेकिन गुरु को गलत सिद्ध करने से गुरु का तो कुछ भी खोता नहीं हो गया? नहीं; आपको एक परोक्ष मौका मिला था-सोचने का, विमर्श 3551 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * का, तुलना का-वह खो गया। | जा सकता है, उतनी आसानी से बिना अपने को ढंके लीन होना अगर प्रज्ञावान जीवित पुरुष मिल सके, तो भाग्यशाली हैं। और कठिन है। प्रज्ञावान पुरुषों की कभी भी कमी नहीं है। अगर नहीं मिलता, तो __भागा हुआ घर गया, प्रार्थना की शाल उठाई, जाकर सिनागाग आप आंख बंद किए हैं, इसलिए नहीं मिलता। अगर नहीं मिलता, | पहुंचा। लेकिन उत्सव का दिन था और उस उत्सव के दिन नास्तिक तो आप कुछ चालाकी अपने साथ कर रहे हैं, कुछ धोखा कर रहे से नास्तिक यहूदी भी मंदिर आता है। बिलकुल भरा हुआ था। कोई हैं, इसलिए नहीं मिलता। अन्यथा प्रज्ञावान पुरुष की कोई भी कमी | आशा नहीं थी उसे कि भीतर जगह मिल जाएगी। लेकिन वह नहीं है। उनकी एक निश्चित मात्रा हमेशा पृथ्वी पर है। उस मात्रा चकित हुआ कि द्वार पर ही उसका स्वागत किया गया और उसे ले में कोई अंतर नहीं पड़ता। एक प्रज्ञावान पुरुष खोता है, तो तत्क्षण | जाकर विशिष्ट अतिथियों के स्थान पर बिठाया गया। वह और भी दूसरा प्रज्ञावान पुरुष उसकी जगह हो जाता है। | हैरान हुआ कि यह क्या हो रहा है! उसने अपनी चादर ओढ़ ली एक यहूदी फकीर मेरे पास आया। वह बड़ा चिंतित और परेशान | और चादर ओढ़ते ही उसे सुनाई पड़ा...। था। और बहुत जगह घूमकर आया था, और अनेक लोगों को कुछ ___ अभी कोई बीस साल पहले की घटना है, जब उसे सुनाई पड़ा। कहना चाहता था, लेकिन कोई उसे मिला नहीं जिससे वह कहे या सालभर पहले आकर उसने मुझे सारा ब्योरा दिया। कोई उसका भरोसा करेगा! उसने मुझसे संन्यास लिया, दीक्षा ली, उसे सुनाई पड़ा कि तू चुना गया है! छत्तीस में से एक मर गया ध्यान में लगा। फिर बाद में एक दिन उसने कहा कि अब मैं आपसे | है, उसकी जगह तुझे चुना गया है। वह कई लोगों से बताना चाहता कह सकता हूं। है कि क्या मामला है! छत्तीस कौन हैं ! कौन मर गया है! मुझे किस उस यहूदी ने मुझे कहा कि मुझे धर्म में कोई भी रुचि न थी और | लिए चुना गया है! लेकिन बस, उस आवाज के बाद उसका जीवन मैं धार्मिक आदमी भी न था। इतना ही नहीं, बल्कि मेरा स्पष्ट | बदल गया। विरोध भी रहा है। तो मैं कभी यहूदियों के मंदिर में, सिनागाग में | यहूदियों में पुराना एक नियम है। छत्तीस यहूदी सदा ही प्रज्ञावान कभी गया नहीं। मैंने कभी तालमुद पढ़ी नहीं। और कभी कोई धर्म | | पुरुष होंगे। उनमें से जब भी एक समाप्त होगा, तब तत्क्षण बाकी की बात करे, तो मुझे सिर्फ ऊब ही पैदा होती थी। किसी रबाई, | पैंतीस एक व्यक्ति को चुन लेंगे। तो छत्तीस की संख्या उनकी सदा किसी फकीर को मैंने कभी सुना नहीं। पूरी रहेगी। यहूदियों के उत्सव का दिन था एक, धार्मिक उत्सव का दिन, सभी धर्मों के भीतर उस तरह के अंतर्वतुल हैं, इनर सीक्रेट और यह युवक लौट रहा था बाजार से घर की तरफ अचानक उसे सर्किल्स हैं। उनकी संख्याओं में कभी कोई कमी नहीं होती। वे एकदम बेचैनी हुई, और उसे लगा कि मुझे सिनागाग जाना चाहिए। | हमेशा मौजूद हैं। और जब भी कहीं कोई साधक उनको खोजने को उसे खुद भी हैरानी हुई। कुछ ऐसा लगा, जैसे कोई खींचता हो, जैसे तैयार हो, तब वे खुद उस साधक की तलाश में आ जाते हैं। परवश हो गया। भागा हुआ घर गया, अपनी प्रार्थना की शाल | | तो जरूरत भी नहीं कि आप हिमालय जाएं। अगर आकांक्षा उठाई, जिसको सिर पर डालकर यहूदी प्रार्थना करते हैं...। | प्रबल हो, तो जहां आप हैं, वहीं जिस प्रज्ञावान पुरुष से आपको यह प्रार्थना की शाल यहूदियों की बड़ी कीमती है। दूसरे धर्मों के सन्निधि चाहिए, वह मौजूद होगा; वह वहीं चला आएगा। लोगों को भी इसका उपयोग करना चाहिए। पूरे शरीर को ढंक लेते | | लेकिन हम अपने ही हाथ से दरिद्र बने रहते हैं। हम हाथ भी नहीं हैं एक चादर से और भीतर प्रार्थना की धुन, आप चाहें ओंकार की फैलाते। अगर स्वर्ण की वर्षा भी हो रही हो, तो हमारी झोली बंद धुन या कोई भी धुन को भीतर पैदा करते हैं। वह धुन न केवल शरीर रहती है। के भीतर गूंजती है, बल्कि उस चादर के भीतर भी एक वातावरण ___ यह जो प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजने की बात है, इसके लिए निर्मित करती है, और शरीर के चारों तरफ एक ऑरा निर्मित हो हमें अपनी सुरक्षा की, बचाव की पुरानी आदतें छोड़ना जरूरी हैं, जाता है। और वह धुन शरीर को चारों तरफ से घेर लेती है और | अपने को थोड़ा खोलना जरूरी है। जोखिम तो है, खतरा तो है। आप जगत के साधारण वातावरण से बिलकुल कट जाते हैं। उस | | लेकिन बिना खतरे के जीवन में कोई क्रांति भी नहीं होती। प्रार्थना की शाल के भीतर जितनी आसानी से प्रार्थना में लीन हुआ फिर प्रज्ञावान पुरुषों का साहित्य है, उनके वचन हैं, जिनको हम 356 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * वेद कहते हैं। वेद कोई किताब नहीं है; सभी प्रज्ञावान पुरुषों के कमजोर शरण में जा ही नहीं सकता, क्योंकि वह डरता है कि वचन वेद हैं। इन वचनों को अगर हम मनन करें, विचार नहीं! और | शरण में गए तो दूसरा कब्जा कर लेगा। वह कमजोरी का डर है। विचार और मनन का फर्क ठीक से समझ लेना चाहिए। शक्तिशाली चला जाता है। शक्तिशाली ही समर्पण करता है। विचार का तो मतलब होता है, मैं अपनी बुद्धि लगाऊं कि क्या कमजोर तो सदा डरता है, भयभीत रहता है कि कहीं किसी के हाथ ठीक है, क्या गलत है; पक्ष-विपक्ष में सोचूं। मेरे पास बुद्धि ही | में अपने को सौंप दिया, फिर पता नहीं, क्या हो। सिर्फ शक्तिशाली होती, तो फिर क्या था! और मैं जानता कि क्या ठीक है और क्या | सौंपने की हिम्मत करता है कि सौंप दिया, अब जो भी हो। गलत है, तो वेद की कोई जरूरत न थी। फिर मैं खुद ही प्रज्ञावान __ और ध्यान रहे, जो सौंपने की हिम्मत जुटाता है, उसके पास था। वह मेरे पास नहीं है। प्रज्ञावान पुरुष अनिवार्य रूप से प्रकट हो जाते हैं। अगर तुमने मनन! मनन बड़ी अलग बात है। मनन का अर्थ है, प्रज्ञावान गलत आदमी के भी चरणों में अपने को सौंपा और सौंपना बेशर्त पुरुष के वचन को अपने हृदय में उतार लेना, उसका रस चूसना, रहा, तो गलत आदमी हट जाएगा और ठीक आदमी प्रकट हो उसका स्वाद लेना। सोचना नहीं कि ठीक है कि गलत है। उसको | जाएगा। और अगर तुम ठीक आदमी के पास भी अपने को पीना। इसको हम पाठ कहते हैं। सिकोड़कर बैठे रहे, बचाते रहे, तो ठीक आदमी भी तुम्हारे लिए इसलिए एक आदमी रोज गीता का पाठ करता है। पश्चिम के गलत आदमी ही है। लोग पूछते हैं कि यह क्या पागलपन है! एक दफा किताब पढ़ ली, यह न हो सके, मन बहुत कमजोर हो, निर्बल हो, तो फिर शास्त्र बात खतम हो गई। और किताब को दुबारा पढ़ने का क्या अर्थ है! खोजना चाहिए। गुरु शक्तिशाली के लिए, शास्त्र कमजोर के तिबारा पढ़ने का क्या अर्थ है! और फिर जिंदगीभर रोज सुबह उठकर | | लिए। मगर हिम्मत तो वहां भी जुटानी पड़ेगी। क्योंकि वहां भी पढ़ने का तो कोई भी अर्थ नहीं है। वही किताब है, उसको बार-बार शास्त्र को मौका देना होगा कि आपके भीतर जा सके, रोएं-रोएं में पढ़कर क्या फायदा? इससे तो बुद्धि और जड़ हो जाएगी! डूब जाए, उतर जाए, श्वास-श्वास में समा जाए, जगह-जगह उनकी बात थोड़ी दूर तक सही है। अधिक लोगों की बुद्धि जड़ आपके कण-कण में उसकी ध्वनि गूंजने लगे। हो गई है। लेकिन जड़ हो जाने का कारण है कि उन्हें पाठ का रहस्य | स्वामी राम अमेरिका से वापस लौटे, तो पंजाब के एक बहत मालूम नहीं है। गीता रोज सुबह पढ़ने का अर्थ पढ़ना है ही नहीं। बड़े विचारक सरदार पूर्णसिंह उनके साथ थे। तो एक ही कोठरी में वह तो जैसे रोज आदमी भोजन करता है, पानी पीता है, श्वास लेता एक रात हिमालय में सोए थे। चारों तरफ सन्नाटा था, हिमालय का है, ऐसे रोज सुबह प्रज्ञावान पुरुष के वचनों को आत्मसात करना सन्नाटा। न कोई पास गांव, न कोई आवाज, न कोई शोरगुल। है, अपने में डुबाना है, उनको अपने में फेंकना है, उलीचना है। अचानक पूर्णसिंह को लगा कि कोई राम-राम की रट लगाए हुए क्योंकि वे वचन बीज की तरह भीतर पड़ जाएंगे और किसी सम्यक | है। तो नींद न आए। उठकर वे बाहर गए, बरांडे में चारों तरफ क्षण में और हम नहीं जानते वह सम्यक क्षण कब आएगा, | | घूमकर देखा, सन्नाटा है। कोई नहीं है वहां। हैरानी तो तब हुई कि इसलिए रोज करना है-किसी भी दिन वह सम्यक क्षण आ जब बाहर गए, तो आवाज कम आने लगी। और जरा दूर जाकर जाएगा, तो बीज ठीक जगह पहुंच जाएंगे। उनसे अंकुरण होगा। बरांडे में घूमे, तो और कम आने लगी। नीचे के कंपाउंड में उतरकर और उस अंकुरण में हमको पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होगा कि दरवाजे तक गए, तो आवाज बिलकुल खो गई। फिर जैसे वापस क्या आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले दिखाई नहीं पड़ सकता। लौटे करीब, आवाज बढ़ने लगी। कोठरी में आए, तो आवाज फिर तो दो उपाय हैं। अगर हिम्मत हो, तो जीवित प्रज्ञावान पुरुष की | सुनाई पड़ने लगी। तब वे चकित हुए। क्योंकि सिवाय राम और शरण में चले जाना चाहिए। अगर कमजोर आदमी हो. हिम्मत न हो, तो शास्त्र की शरण में चले जाना चाहिए। आपको उलटा | | तो राम की खाट के पास गए। जैसे पास गए, तो आवाज और लगेगा। आप अक्सर सोचते हैं कि जो ताकतवर है, वह किसी की बढ़ने लगी। तब उन्हें खयाल आया कि यह तो कुछ अनूठा घट शरण में नहीं जाता। और मैं आपसे कह रहा हूं कि ताकत हो, तो | | रहा है! राम के शरीर के अंग-अंग से राम की आवाज निकल रही शरण में चले जाना चाहिए। | है। तो पैर के पास कान रखकर देखा, तो आवाज; हाथ के पास सा 357 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 कान रखकर देखा, तो आवाज; सिर के पास कान रखकर देखा, | है; पर क्या करें, मजबूरी है, क्रोध हो जाता है। तो मैं उनसे कहता तो आवाज। | हूं, तुम गलती कर रहे हो, तुम पूरी बात को ही उलटा समझ रहे जब कोई व्यक्ति ठीक से स्मरण करता है, पाठ करता है, वेद के | हो। तुम्हें मालूम ही नहीं कि क्रोध बुरा है। यह तुमने सुना है; और वचन को अपने में डूब जाने देता है, तो रोएं-रोएं से वही प्रतिध्वनित तुम सोचते हो, सुना हुआ तुम्हारा ज्ञान हो गया। तुम्हें पता हो जाए होने लगता है। उस प्रतिध्वनि के क्षण में आपको समझ आएगा, क्या | | कि क्रोध बुरा है, तो जैसे आग में हाथ डालना मुश्किल है, वैसे ही आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले समझ नहीं आ सकता। क्रोध में भी हाथ डालना मुश्किल हो जाएगा। शायद ज्यादा ये दो उपाय हैं। हिम्मत हो, तो जीवित पुरुष खोज लेना चाहिए; | | मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि आग तो केवल शरीर को जलाती है, हिम्मत कमजोर हो, तो प्रज्ञावान पुरुषों के मरे हुए वचन शास्त्रों में | | क्रोध तो भीतर तक झुलसा देता है। संगृहीत हैं, उनकी शरण चले जाना चाहिए। लेकिन फिर भी दोनों में हिम्मत की तो जरूरत है ही, क्योंकि शरण जाए बिना कोई भी उपाय नहीं है। कहीं अपने को खोना होगा, आखिरी प्रश्न ः मंजिल पर पहुंचकर प्रज्ञावान पुरुष को छोड़ना होगा; कहीं अपनी अस्मिता को हटाकर रख देना होगा। तब यही पता चलता है कि स्वयं को जानना असंभव है, जैसे बिजली कौंध जाए और अंधेरे में रास्ता दिखाई पड़ने लगे, क्योंकि वहां ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सब एक हो जाते ठीक ऐसे ही, क्या दैवी है, क्या आसुरी है, उसकी प्रतीति होने हैं। इस हालत में वे हमें क्यों समझाते हैं कि स्वयं लगती है। को जानो? इसमें उनका अभिप्राय क्या है? और ध्यान रखें, जैसे ही प्रतीत होता है कि यह आसुरी और यह दैवी, वैसे ही जीवन में परिवर्तन शुरू हो जाता है। क्योंकि जिसको प्रतीत हो जाए कि यह आसुरी वृत्ति है, फिर उस वृत्ति में रहना श्चित ही, उस परम अवस्था में ज्ञाता भी खो जाता है, असंभव है। ज्ञान भी खो जाता है, ज्ञेय भी खो जाता है। यह जो हम तभी तक आसुरी वृत्ति में रह सकते हैं, जब तक हमें लगता त्रिवेणी है, यह खोकर एक ही धारा बन जाती है। हो कि यह दैवी वृत्ति है। हम तभी तक असत्य में जी सकते हैं, जब | गंगा, यमुना, सरस्वती तीनों खो जाती हैं, सागर ही रह जाता है। तक हमें लगता हो कि यह सत्य है। और हम तभी तक दुख में जी | | वह जो खोजने चला था, वह भी नहीं बचता; जिसे खोजने चला सकते हैं, जब तक हमने दुख को सुख माना हो। | था, वह भी नहीं बचता। फिर भी कुछ बचता है। और जो बचता दुख दुख दिखाई पड़े, छुटकारा शुरू हो गया। असत्य असत्य | है, वह तीनों से बड़ा है। जो बचता है, वह तीनों से ज्यादा है। जो मालूम पड़े, क्रांति शुरू हो गई। आसुरी है हमारी संपदा, ऐसा बोध | खो जाता है, वह तो कचरा था। जो बचता है, वही सार है। हो जाए, उस संपदा से हमारे हाथ अलग होने लगे। हम उसे ही फिर भी प्रज्ञावान पुरुष आपसे कहते हैं, स्वयं को जानो। क्या पकड़ते हैं, जिसे हम ठीक समझते हैं। वह गलत हो, पर हमारी | | मिटाने के लिए आमंत्रण देते हैं? समझ में ठीक है, तो हम पकड़ते हैं। जैसे ही समझ आ जाती है कि __ अगर मिटना ही मिटना होता और कुछ पाना न होता, तो यह गलत है, छूटना शुरू हो जाता है। आमंत्रण न दिया जाता। एक तरफ से मिटना है और दूसरी तरफ से सुकरात का प्रसिद्ध वचन है, नालेज इज़ व→, ज्ञान सदाचरण | होना है। जो आप हैं, वह खो जाएगा। और जो आपका वास्तविक होना है, वह बचेगा। जो आपका झठा-झठा होना है, वह तिरोहित जैसे ही कोई जान लेता है कि ठीक क्या है, ठीक करना शुरू हो हो जाएगा। और जो आपकी शाश्वत सत्ता है, जो आपका सनातन जाता है। जब तक हम सोचते हैं कि हमें पता है कि ठीक क्या है; स्वरूप है, वह बचेगा। आप खो जाएंगे, जैसा आप अपने को अभी फिर भी क्या करें, हम गलत करते हैं! तब तक जानना कि हमें पता | | समझते हैं। और जैसा आपने कभी अपने को नहीं समझा, लेकिन ही नहीं है कि ठीक क्या है। | आप हैं, वह बच रहेगा। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें मालूम है कि क्रोध बुरा । तो प्रज्ञावान पुरुष आपको बुलाते हैं कि मिटो, ताकि हो सको। है। | 358| Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * लेंगे। खो जाओ, ताकि बच सको। वे कहते हैं, बूंद सागर में गिर जाए, एक गरीब आदमी के पैर में कांटा उतना नहीं चुभता; पैर उसके खो जाएगी। अगर आप बंद की तरफ से देखें, तो खो जाएगी। आदी हैं। अमीर आदमी के पैर में कांटा और बुरी तरह चुभता है; लेकिन खोएगी कहां? खोना हो कैसे सकता है? जो भी है, वह | पैर उसके आदी नहीं हैं। जैसे-जैसे आदमी अमीर होता है, खोएगा कैसे? अगर होने की तरफ से देखें, तो बूंद खोएगी नहीं, | | वैसे-वैसे दुख एक घाव, एक नासूर भीतर हृदय में बनता चला सागर हो जाएगी। एक तरफ से बूंद का क्षुद्रपन चला जाएगा, दूसरी जाता है। तरफ से सागर की विराटता उसमें उतर आएगी। प्रज्ञावान पुरुष बुलाते हैं आपको कि मिट जाओ; कहते हैं कि __ कबीर ने कहा है कि पहले तो मैं सोचता था जब मिलन हुआ स्वयं को जान लो। क्योंकि स्वयं को जानते ही आप मिट जाओगे। कि बूंद सागर में गिर गई और खो गई। प्रथम तो ऐसा ही अनुभव यह जरा उलटा लगेगा, विरोधाभासी। क्योंकि जब हम कहते हैं, हुआ कि बूंद सागर में गिरकर खो गई। बाद में समझ में आया कि | स्वयं को जान लो, तो हमें ऐसा लगता है कि अपने को हम बचा यह तो उलटा कुछ हुआ है, सागर बूंद में गिरकर खो गया। ये दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं। चाहे हम एक बूंद को सागर स्वयं को जानने की शर्त ही यह है कि जब तक आप हो, तब में गिराएं, चाहे एक सागर को बूंद में गिराएं; दोनों हालतों में घटना | तक आप स्वयं को जान न सकोगे। आप बाधा हो। वह जो अहंकार एक ही घटती है। तो चाहे आप कहें कि आप खो गए और चाहे | है कि मैं हूं, वही रुकावट है। वह मिटेगा, तो स्वयं का जानना हो आप कहें कि परमात्मा आप में खो गया, एक ही बात है। सिर्फ दो | जाएगा। स्वयं का मिटना ही स्वयं का ज्ञान है। और उसके साथ ही कोने से कहने की बात है। कांटा खो जाता है। बुद्ध ने पहली बात पसंद की। उन्होंने कहा, तुम खो जाओगे, बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो उन्होंने पहला उदघोष किया कि अब मुझे निर्वाण हो जाएगा, सब शून्य हो जाएगा। शंकर ने दूसरी बात पसंद दुख में कोई भी डाल न सकेगा। अब मुझे दुख में डालने का कोई की. ब्रह्म हो जाओगे, कुछ खोएगा नहीं, सब कुछ पा लिया। 1. कछ खोएगा नहीं. सब कछपा लिया जाएगा। उपाय न रहा। तो कथा है कि ब्रह्मा ने उनको पछा कि आप ऐसा चाहे कहो शून्य, चाहे कहो पूर्ण। शून्य का अर्थ है, बूंद खो गई। क्यों कहते हैं? तो बुद्ध ने कहा, चूंकि अब मैं हूं ही नहीं। मुझे दुख पूर्ण का अर्थ है, सागर बूंद में उतर आया। पर दोनों एक ही बात | में डालने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि अब मैं हूं ही नहीं। जब तक को कहने के दो ढंग हैं। एक विधेय का ढंग है, एक निषेध का ढंग | मैं था, तब तक मुझे दुख में डाला जा सकता था। है; जो भी प्रीतिकर हो। बुद्ध शून्य की भाषा पसंद करते हैं। अगर आपको पूर्ण की भाषा प्रज्ञावान पुरुष बुलाते हैं कि मिटो, क्योंकि उन्होंने अपनी तरफ | पसंद हो, तो समझें पूर्ण की तरफ से। शून्य की भाषा पसंद हो, तो से अनुभव किया है कि जब तक वे मिटे नहीं, तभी तक दुख में | शून्य की तरफ से। लेकिन सिर्फ भाषा में मत खोए रहें; कुछ करें। रहे। जब वे मिटे, तब आनंद हो गया। या तो बूंद को मिटाएं सागर में या सागर को बुलाएं बूंद में। जब आपका होना ही कष्ट है। आप ही कांटा हो, जो चुभता है। और | तक यह महामिलन न हो, तब तक दुख बना ही रहता है। जब तक आप हो, कांटा चुभता ही रहेगा। आप लाख उपाय करो अब हम सूत्र को लें। सुख की व्यवस्था के, वे असफल होंगे, क्योंकि कांटा आप हो। | और वे मनष्य दंभ मान और मद से यक्त हए किसी प्रकार भी आप कितना ही सुखद बिस्तर तैयार कर लो और सुंदर भवन बना न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्या लो, लेकिन वह कांटा चुभता ही रहेगा। | सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में ___महल बड़े होते जाते हैं, दुख नष्ट नहीं होता। संपत्ति के ढेर लगते बर्तते हैं। जाते हैं, दुख नष्ट नहीं होता। संपदा, यश, कीर्ति मिलती जाती है, | तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए दुख नष्ट नहीं होता, बल्कि कांटा चुभता ही चला जाता है। शायद हुए और विषय-भोगों के भोगने में तत्पर हुए इतना मात्र ही आनंद और जोर से चुभता है। जितना सुख का आप इंतजाम करते हैं, | है, ऐसा मानने वाले हैं। कांटा उतने जोर से चुभता है। क्योंकि सुख में पृष्ठभूमि बन जाती । इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम-क्रोध है, और कांटा और भी ज्यादा पीड़ादायी मालूम होता है। के परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक 359 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं। आसुरी संपदा वाले व्यक्तियों के लक्षणों में कृष्ण और भी प्रवेश करते हैं। दंभ, मान और मद से युक्त...। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सदा ही अपने को ठीक मानता है, सदा ही दूसरे को गलत मानता है। दूसरे का दूसरा होना ही उसकी गलती है। यह सवाल नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को उसका स्वयं का वक्तव्य सही है, दूसरे का वक्तव्य गलत है। कभी-कभी आपको भी खयाल आता होगा कि अगर दूसरा व्यक्ति वही बात कह रहा हो, जो कल आप कह रहे थे, तो भी आप विवाद करते हैं। क्योंकि सवाल यह है नहीं कि क्या सही है। सवाल तो यह है कि आप सही हैं और दूसरा गलत है। हमेशा आप इस कोशिश में होते हैं कि मैं सही हूं। दुनिया में जो इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य की कोई तलाश नहीं है। उन विवादों में सिर्फ अहंकार की घोषणा है। चाहे कोई कुछ भी कहे, सही मैं ही हूं। और इस मैं के सही होने को हम हजार तरह से सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का यह आंतरिक लक्षण है। दैवी संपदा वाला व्यक्ति, इसके पहले कि दूसरे को गलत कहे, अपने को गलत सोचने की चेष्टा करता है। और इसीलिए दैवी संपदा वाला व्यक्ति सीख पाता है, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सीख नहीं पाता। क्योंकि सीखना तो तभी संभव है, जब हम गलत हों, दूसरा सही हो। जब हम सदा ही सही होते हैं और दूसरा गलत होता है, तो सीखने की कोई गुंजाइश नहीं है। शिष्यत्व, डिसाइपलशिप पैदा ही नहीं हो सकती। इसलिए आसुरी संपदा का व्यक्ति कभी भी शिष्य नहीं बनता । हालांकि कहेगा वह यही कि कोई गुरु है ही नहीं। मिले कोई गुरु, तो हम शिष्यत्व ग्रहण करें। लेकिन वह शिष्यत्व ग्रहण नहीं कर सकता। वह बुद्ध के पास से भी कुछ भूल-चूक निकालकर आगे बढ़ जाएगा। शिष्यत्व के लिए झुकना जरूरी है। और मैं गलत हूं, दूसरा सही होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। मैं अज्ञानी हूं और दूसरा जानता होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। और जो व्यक्ति को ऐसा भाव हो कि मैं अज्ञानी हूं, वह एक छोटे से बच्चे से भी सीख लेता है। वह पौधों, पक्षियों से भी सीख लेता है। उसके लिए सारा | जगत गुरु हो जाता है। और जो व्यक्ति सोचता है, मैं सही हूं, उसके लिए इस जगत में सीखने का कोई उपाय नहीं। वह अटका रह जाता है, ठहरा रह | जाता है। उसका हृदय पत्थर की तरह हो जाता है; फूल की तरह वह कभी भी खिल नहीं पाता है। आप भी सोचें कि जब आप विवाद करते हैं कि यह ठीक है, | तब सच में ही आपको सत्य की तलाश होती है? या आपका वक्तव्य है, तो उसके साथ आपका अहंकार जुड़ गया। वक्तव्य टूटेगा, तो अहंकार टूटेगा। तो आप लड़-मर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, हजार तर्क खोज ले सकते हैं। लेकिन उन तर्कों से आप कभी बदलेंगे नहीं। क्योंकि वे तर्क सत्य के लिए दिए ही नहीं गए। सत्य का तलाशी हमेशा तैयार है कि वह गलत हो सकता है। और जो व्यक्ति जितना तैयार है अपनी गलती स्वीकार करने को, उसके जीवन में विकास की उतनी ही ज्यादा संभावना है। वह जीवन के अंतिम क्षण तक सीखता रहेगा, मरते क्षण तक सीखता रहेगा। उसके सीखने का कोई अंत नहीं है; उसके ज्ञान का कोई पारावार नहीं होगा। आसुरी संपदा वाला अज्ञानी रह जाता है, क्योंकि सीख नहीं सकता। दैवी संपदा वाला सीखता चला जाता है, उसके पास सागर जैसा ज्ञान हो जाता है। किसी भी प्रकार न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर... । और आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपने जीवन की गति को उन वासनाओं के सहारे चलाता है, जिनका कभी कोई अंत नहीं है; जो | कभी पूरी नहीं हो सकतीं, जो कभी पूरी हुई नहीं हैं, जिनका स्वभाव पूरा होना नहीं है। 360 बुद्ध ने कहा है, कामनाएं दुष्पूर हैं, उनको भरा ही नहीं जा सकता। इसलिए नहीं कि आपकी ताकत कम है, इसलिए भी नहीं कि जीवन का समय कम है, इसलिए भी नहीं कि दूसरे लोग बाधा डाल रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उनका स्वभाव ही दुष्पूर है। वासना का स्वभाव दुष्पूर है; उसे पूरा नहीं किया जा सकता। क्या कारण होगा कि वासना का स्वभाव दुष्पूर है ? अगर आप वासना को पूरा न करें, दमन करें, दबाएं, तो वासना धक्के मारती है कि मुझे पूरा करो और सदा धक्के मारती रहेगी जन्मों-जन्मों तक। अगर आप वासना को पूरा करें, तो हर बार पूरा करें, तो Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * वासना की आदत बनती है। और जितनी आदत बनती है, उतनी | | बिलकुल गलत है। यह साधु द्वैतवादी था। सोहम् अद्वैतवादी का मांग बढ़ती है। मंत्र है। इसने कहा, यह बिलकुल गलत है; यह पाठ ठीक नहीं है। बड़ी कठिनाई है, बड़ी दुविधा है। अगर वासना को दबाएं, तो | | इससे तुम भटक जाओगे। पीछा करती है; अगर पूरा करें, तो आदत बनती है। दोनों स्थितियों ___ उस गरीब सीधे आदमी ने कहा, आप सुधार कर दें। उस साधु में वासना उलझा देती है। और तीसरे का हम कभी प्रयोग नहीं | | ने कहा, दासोहम्, मैं तेरा दास हूं, यह पाठ करो। सोहम् नहीं, करते, कि हम वासना को सिर्फ देखें; न तो दबाएं, न पूरा करें; न | दासोहम्। उसमें दा और जोड़ दो। उस गरीब आदमी ने दा जोड़ तो उससे लड़ें, और न उसके गुलाम बनकर उसके पीछे चलें। । दिया। दो पंथ हैं जगत में। एक पंथ है वासना पूरे करने वालों का; | दो-चार महीने बाद फिर एक अद्वैतवादी साधु का गांव में उनको ही आसुरी संपदा वाले लोग कहा है। एक पंथ है वासनाओं | आगमन हुआ। लोगों ने खबर दी। उसने कहा कि बिलकुल गलत से लड़ने वालों का; उनको दैवी संपदा वाले लोग नहीं कहा है, वे | है। द्वैत तो आना ही नहीं चाहिए मंत्र में। यह दासोहम् ठीक नहीं भी आसुरी संपदा वाले लोग हैं। फर्क इतना ही है कि कुछ आसुरी | है। तुम इसमें एक स और जोड़ दो, सदा सोहम्, सदा मैं वही हूं। संपदा वाले लोग सीधे पैर के बल खड़े हैं; कुछ आसुरी संपदा वाले | गरीब आदमी ने कहा, अब जैसी आपकी मरजी! लोग सिर के बल खड़े हैं, शीर्षासन कर रहे हैं। थोड़ी-बहुत शांति पहले मिली थी, दूसरे में उससे भी कम हो एक तीसरा वर्ग है दैवी संपदा वाले व्यक्ति का। वह लड़ता ही गई। अब तीसरे में वह बहुत उलझ गया। वह भी कम हो गई। नहीं, वह वासना का सिर्फ साक्षी होता है। और जितना गहरा | | लेकिन अब साधु ने कहा, तो वह सदा सोहम् करने लगा। साक्षी-भाव होता है, वासना उसी तरह जड़-मूल से जलकर नष्ट | कुछ ही दिन बाद फिर एक द्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हो जाती है। न तो उसे दबाना पड़ता है, न उसे पूरा करना पड़ता है। हुआ। उसने कहा कि यह बिलकुल गलत है। अद्वैत की बात ही दोनों हालतों में कठिनाई है। और ये दोनों पंथ खड़े हैं और आप गलत है। तुम इसमें एक दा और जोड़ दो, दास दासोहम्। तो उस सब भी इन दोनों पंथों में डांवाडोल होते रहते हैं। सुबह सोचते हैं गरीब ने कहा कि मैं बिलकुल पागल हो जाऊंगा। थोड़ी-बहुत कि गलत; सांझ सोचते हैं सही। आज सोचते हैं, वासना पूरी कर | शांति मिलना शुरू हुई थी, सब नष्ट हो गई। और अब कब अंत लें; कल वासना से लड़कर दमन करते हैं। और ऐसा डोलते रहते | | होगा इसका! हैं और जीवन नष्ट होता चला जाता है। मनुष्य की अवस्था करीब-करीब ऐसी है। वहां दो वर्ग हैं हमारे हमारी अवस्था ऐसी है। मैंने सुना है, एक गांव में एक साधु का | | जीवन में। चारों तरफ दोनों वर्गों में बंटे हुए लोग हैं। कुछ हैं, जो आगमन हुआ। वह अद्वैतवादी साधु था। गांव में एक गरीब सीधा भोग की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो दमन की तरफ धक्का आदमी था। इस साधु ने उसे पकड़ लिया; रास्ते से जा रहा था। वह दे रहे हैं। कुछ हैं, जो जीवन के विषाद से भरे हैं और कह रहे हैं, सीधा आदमी अपने खेत जा रहा था, सो उसे पकड़ लिया और कहा | | सब तोड़ डालो। और कुछ हैं, जो जीवन के उत्साह से भरे हैं और कि रुको, क्या जिंदगी खेत में ही गंवा दोगे? कुछ स्मरण करो! यह कह रहे हैं, सब भोग डालो। और उन दोनों के बीच में मनुष्य जगत माया है। उस सीधे आदमी ने कहा, अब आपने शिक्षा ही दी, विक्षिप्त हुआ जाता है। तो कुछ रास्ता बता दें। तो साधु ने उसे एक मंत्र दिया। मंत्र था और इन दोनों को अगर आप रोज बदलते रहे, तो एक सोहम्, कि सदा सोहम्-सोहम् का जाप करते रहो; मैं वही हूं, आई | कनफ्यूजन, चित्त का खंड-खंड हो जाना, एक स्कीजोफ्रेनिक, एम दैट, सोहम्। कुछ दिनों बाद वह गरीब सीधा आदमी सोहम् का | | खंडित चित्त की दशा पैदा होती है। जहां फिर कुछ भी नहीं सूझता, जाप करता रहा। जहां कुछ ठीक नहीं मालूम पड़ता, कुछ गलत नहीं मालूम पड़ता। गांव में दूसरे साधु का आगमन हुआ। लोगों ने उस दूसरे साधु | | और कहां जाएं, और कहां न जाएं! एक पैर बाएं चलता है, दूसरा को बताया कि हमारे गांव में एक सीधा-सादा किसान है, लेकिन | दाएं चलता है। एक आगे जाता है, दूसरा पीछे जाता है। जीवन सोहम् का जाप करता है, और बड़ा प्रसन्न रहता है। साधु ने कहा, | । अस्तव्यस्त हो जाता है। बिलकुल गलत। उसे बुलाकर ले आओ। उससे कहा कि यह | लेकिन हमारी भी अड़चन है। और वह अड़चन यह है कि इन [36]] Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* दो के अतिरिक्त तीसरे का हमें कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ता।। की बूंदें हाथ लगती हैं, कुछ भी हाथ नहीं लगता। यहां सुख तीसरा एक स्वर है। और वह है वासनाओं की प्रक्रिया का | | बिलकुल नहीं है। जागरूक साक्षी-भाव से दर्शन। भोगी और त्यागी दोनों ही बंध जाते | तो आसुरी संपदा वाला तो किसी तरह असंतोष में भी थोड़ा-सा हैं, सिर्फ साक्षी मुक्त होता है। | संतोष खोज लेता है। दैवी संपदा वाला इसमें पूरी तरह असंतोष यह जो आसुरी संपदा से भरा हुआ व्यक्ति है, वह कभी न पूर्ण | पाता है। और इसी असंतोष के कारण वह किसी नए आयाम में, होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर चलता है, इसलिए सदा एक नई दिशा में, एक नए क्षितिज की खोज में निकलता है। दुखी होता है। क्योंकि जो पूरा नहीं होने वाला, उसके साथ चलने | वासनाओं में पाता है कि कुछ नहीं मिला। आभास भी झूठे थे। तो वाला दुख पाएगा ही। और सदा अतृप्ति, सदा असंतोष, और | फिर निर्वासना में, वासना के अतीत, अतिक्रमण में उसकी यात्रा सदा अनुभव करता है, कुछ पाया नहीं; और दौड़ो, और दौड़ो। शुरू होती है। और वह कहीं भी पहुंच जाए, वह जो और की आवाज है, वह दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो संसार से पूर्ण असंतुष्ट हो चलती ही रहेगी। जाता है, क्योंकि वही उसकी परमात्मा की खोज का आधार है, वही मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त स्रोत है। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानता है कि ठीक है, यह जो हुए संसार में बर्तते हैं। तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं थोड़ा-सा सुख मिल रहा है, बस यही सुख है, इससे ज्यादा जीवन को आश्रय किए हुए और विषय-भोगों के भोगने में तत्पर हुए, में पाने योग्य है भी नहीं, मिल भी नहीं सकता। इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं। आपको मैं याद दिलाना चाहूं, अनेक बार मेरे पास लोग आते जो भी छोटा-मोटा उच्छिष्ट मिल जाता है, इस भाग-दौड़ में, हैं, वे कहते हैं, हम संतुष्ट हैं। और वे सोचते हैं कि बड़ी कीमती असंतोष में, दुख में जो थोड़ी-बहुत सुख की आभास जैसी झलक बात मुझसे कह रहे हैं। जो भी भगवान ने दिया है, हम उससे राजी मिल जाती है, बस, आसुरी संपदा वाला मानता है, इतना ही आनंद | | हैं। भगवान ने दिया क्या है उनको? लोग मेरे पास आते हैं, वे है, यही सब कुछ है। कहते हैं, सब ठीक है। पत्नी है, बच्चा है, सब ठीक चल रहा है। ___आप भी सोचें, इतने दिन आप जीए हैं, कम से कम इस जीवन काम भी ठीक है, पैसा भी निकल आता है, रोटी-रोजी चल जाती के दिन का तो आपको स्मरण है ही। और जीवनों में जीए हैं, उसे है; हम संतुष्ट हैं। छोड़ दें। इस सारे जीवन में आपको कोई सुख मिला है? ऐसे व्यक्ति यह सोचकर मुझसे ये बातें कहते हैं कि मैं शायद __ अगर खोजबीन करेंगे, तो बड़ी मुश्किल होगी। जितनी सचेतता | उनकी प्रशंसा करूंगा; कहूंगा कि बड़े धार्मिक व्यक्ति हैं। पर यह से खोजबीन करेंगे, उतना ही खोजना मुश्किल होगा कि कोई सुख | | आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का लक्षण है। वह कहता है कि इतना मिला है। कभी-कभी शायद कोई झलक मिली हो, आभास लगा | | ही सुख है बस, इससे ज्यादा तो कुछ है भी नहीं। हो, इंद्रधनुष जैसा कुछ दूर दिखाई पड़ा हो। हाथ में तो पकड़ते से __ दैवी संपदा वाला व्यक्ति तो प्रखर आंखों से जीवन को देखता खो जाता है इंद्रधनुष। बस दूर से थोड़ा दिखाई पड़ा हो, तो उतना | है और पूरी तरह असंतुष्ट हो जाता है। अगर यही जीवन है, तो वह ही सुख है, ऐसा मानकर हम अपने जीवन को ढोते हैं। इसी समय मरने को तैयार है। कुछ सार नहीं है। दैवी संपदा वाला व्यक्ति इतने सस्ते में राजी नहीं होता। __लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति यह देखने में समर्थ होता है कि यह साधारणतः लोग कहते हैं कि दैवी संपदा वाला व्यक्ति संतुष्ट होता | सब व्यर्थ है, उसकी आंखों का रस इस जगत से अलग हो जाता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो | | है, उसकी आंखें मुक्त हो जाती हैं। और वह दूसरे जगत में अपनी बहुत असंतुष्ट होता है। वह इतना असंतुष्ट होता है कि आसुरी | आंखों को फैलाने के लिए समर्थ हो जाता है। ध्यान, जो इस जगत संपदा वाले व्यक्ति भी उसके सामने संतुष्ट मालूम पड़ेंगे। क्योंकि में लिप्त था, हट आता है। और फिर ध्यान को दूसरे जगत में ले आसुरी संपदा वाला कहता है, इतना ही सुख है; इस पर ही राजी जाना आसान हो जाता है। परिपूर्ण असंतुष्ट चेतना ही परमात्मा के होता है। दैवी संपदा वाला कहता है, इसमें सुख कुछ भी नहीं है। परम संतोष को खोज सकती है। यह दूर दिखाई पड़ने वाला इंद्रधनु है। और हाथ में आते ही पानी । इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम-क्रोध 62 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** शोषण या साधना** परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं। और जो व्यक्ति भी अपने को नहीं खोज रहा है, वह जाने-अनजाने पदार्थ खोजेगा। खोज तो जारी रखनी ही पड़ेगी। खोज से बचना असंभव है। कुछ न कुछ तो आप खोजेंगे ही। अगर स्वयं को न खोजेंगे, तो कुछ और खोजेंगे। और जो स्वयं को नहीं खोजेगा, उसके पास सिवाय पदार्थों की खोज के कुछ भी नहीं बचता। इस जगत में दो ही आयाम हैं। या तो मैं चेतना को खोजूं या पदार्थ को खोजूं । बस, दो ही इस जगत के तल हैं, पदार्थ है, चेतना है। अगर आप चेतना की खोज में नहीं हैं, तो क्या करेंगे? तो फिर पदार्थ का संग्रह। आपकी जीवन-ऊर्जा फिर धन इकट्ठा करने में, बड़े पद पर पहुंच जाने में, बड़ा साम्राज्य निर्मित करने में संलग्न हो जाएगी। यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, वह फिर पदार्थ इकट्ठे करने में लग जाता है। और पदार्थ का संग्रह समझ लेने जैसा है। उसके कुछ आधारभूत नियम हैं। पहला, जो व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करने में लगा हो, वह न्याय-अन्याय का विचार नहीं कर सकता। क्योंकि पदार्थ किसी का भी नहीं है। जिस जमीन को आज आप अपना कह रहे हैं, कल वह किसी और की थी, परसों किसी और की थी। अगर आप यह बैठकर सोचें कि जो मेरा नहीं है, उस पर मैं कैसे कब्जा करूं! तो फिर आप पदार्थ पर कब्जा कर ही नहीं सकते। इसलिए पदार्थ को इकट्ठा करने वाला तो येन केन प्रकारेण, कैसे भी हो, इकट्ठा करने में लग जाता है । और पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे से छीनना पड़ता है। परिग्रह शोषण के बिना संभव नहीं है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे को वंचित करना पड़ता है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो हिंसा करनी ही होगी, सूक्ष्म, स्थूल, लेकिन हिंसा करनी ही होगी। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दान, दया और करुणा से अपने को बचाना होगा। चाहे चोरी करनी पड़े, चाहे भीख मांगनी पड़े, कुछ भी उपाय करना पड़े। एक दिन एक स्टेशन पर मैं बैठा था, एक ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। और एक भिखारी ने मुझसे आकर भीख मांगी। चेहरे से वह आदमी पढ़ा-लिखा, ढंग से सुसंस्कृत मालूम होता था । तो मैंने उससे कहा कि बैठो, कुछ अपने संबंध में मुझे बताओ। तो काफी प्रसन्न हो गया। मैं एक किताब रखे हुए बैठा पढ़ रहा था । ट्रेन लेट थी। तो उसने कहा, आप किताब पढ़ रहे हैं, तो आपसे मैं बात कर सकता हूं। मैं भी कभी एक लेखक था; मैंने भी एक किताब लिखी थी। मैंने उससे पूछा कि कौन-सी किताब लिखी थी ? उसने बताया कि जीविका कमाने के बीस ढंग। मैं थोड़ा चौंका और मैंने उससे पूछा कि फिर भी तुम भीख मांग रहे हो! उसने कहा, हां, क्योंकि यह इक्कीसवां ढंग है, जो मैंने बाद में खोजा। और वे बीस तो असफल हो जाएं, मगर यह इक्कीसवां कभी असफल नहीं होता। यह बिलकुल रामबाण है। एक आदमी चोरी कर रहा है, वह भी जो दूसरे का है, छीन रहा है। एक आदमी भीख मांग रहा है, वह भी चोरी का ही एक ढंग है, लेकिन ज्यादा कुशल ढंग है। वह दूसरे को इस तरह से फांस रहा है कि दूसरा अगर न दे, तो आत्मग्लानि पैदा हो; अगर दे, तो दुख पाए। तो आप यह मत सोचना कि जब भिखमंगा आपसे भीख मांगता है और आप उसे भीख दे देते हैं, तो वह समझता है कि आप बड़े | दानी हैं। वह यही समझता है कि वह होशियार था, आप बुद्ध थे। जब आप भीख नहीं देते और बच जाते हैं; तभी वह सोचता है कि यह भी आदमी कुशल है । उसके मन में इज्जत आपकी तभी होती है, जब आप नहीं देते। देते हैं, तब तो वह जानता है कि ठीक है। लेकिन वह स्थिति ऐसी पैदा करता है कि आपको अड़चन हो जाए, और दो पैसे के लिए उस अड़चन से निकलने को आप दो पैसा देना ही उचित समझेंगे। चोर भी छीन रहा है, भिखारी भी छीन रहा है। जिसको हम व्यवसायी कहते हैं, जो दोनों के बीच है, वह भी छीन रहा है। और सबकी आकांक्षा एक है, संपदा का ढेर लग जाए। संपदा का कितना भी ढेर लग जाए, अंततः वह संपदा आपकी | कब्र बनती है, अंततः सिवाय उसके नीचे दबकर मर जाने के और कुछ प्रयोजन नहीं है। लेकिन एक नियम समझने का है कि मनुष्य की जीवन-ऊर्जा | बिना खोज के नहीं रह सकती। वह जीवन-ऊर्जा का स्वभाव है - खोज, सर्च | अगर आप कुछ भी नहीं खोज रहे हैं आंतरिक, | तो आपको बाहर कुछ न कुछ खोजना ही पड़ेगा। यह खोज तो तभी बाहर की बंद हो सकती है, जब भीतर की खोज शुरू हो जाए। जैसे ही भीतर की तरफ चेतना मुड़नी शुरू होती है, बाहर की खोज अपने आप खो जाती है । खो जाती है इसलिए कि अब आपको बड़ी संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि अब असली संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है 363 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 इसलिए कि आपको खुद हंसी आएगी, मैं भी किन बच्चों के खेल वह तैयार है। भीतर की खोज के लिए सब खो जाए, तो भी वह में उलझा था! तैयार है। वह पूरा दांव बाहर के जगत का भीतर के लिए लगाने के धन बच्चों के खेल से ज्यादा नहीं है। लेकिन चूंकि बूढ़े भी उसे लिए सदा उत्सुक है। उस क्षण की प्रतीक्षा में है, जब वह सब गंवा - खेल रहे हैं, हमें खयाल नहीं आता। खयाल नहीं आता, क्योंकि देगा, स्वयं को बचा लेगा। बूढ़े भी हमारे बच्चों से ज्यादा नहीं हैं। सिर्फ शरीर से बूढ़ा हो जाना | __ जीसस ने कहा है, जो स्वयं को बचाना चाहते हों, उन्हें सब कोई बहुत.मूल्य नहीं रखता। वृत्ति तो बचपन की ही बनी रहती है। गंवाने की तैयारी चाहिए। और जो सब बचाने को उत्सुक हैं, वे बच्चे डाक की टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, तितलियां इकट्ठी कर स्मरण रखें कि सब तो बच जाएगा, लेकिन स्वयं खो जाएंगे। रहे हैं, कंकड़-पत्थर जोड़ रहे हैं। बूढ़े हंसते हैं कि क्या पागलपन जगत में एक सौदा है, या तो आप पदार्थ बचा लें अपने को कर रहे हो! लेकिन डाक की टिकट में और हजार रुपए के नोट में बेचकर। तो आप जो भी कमाते हैं, वह अपने को बेच-बेचकर कोई फर्क है? दोनों ही छापाखाने का खेल है। और दोनों पर लगी कमाते हैं। आत्मा के टुकड़े निकाल-निकालकर बेच देते हैं। तिजोरी मुहर केवल सामाजिक स्वीकृति है। भरती जाती है, आत्मा खाली होती जाती है। एक दिन तिजोरी पास बच्चे टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, या सिगरेट के लेबल इकट्ठे कर में होती है, आप नहीं होते। यही समृद्ध व्यक्ति की दरिद्रता है, यही रहे हैं; बूढ़े नोट इकट्ठे कर रहे हैं! बाकी फर्क नहीं है। यह जो बूढ़ा समृद्ध व्यक्ति की भीतरी दीनता है, भिखमंगापन है। नोट इकट्ठे कर रहा है, यह बस शरीर से बूढ़ा हो गया है; भीतर मैंने सुना है, एक भिखारी एक दिन अमेरिका के एक अरबपति इसका बचकानापन कायम है; भीतर यह अभी भी जुवेनाइल है, एण्डु कार्नेगी के पास गया। सुबह ही सुबह जाकर उसने बड़ा अभी भी बाल-बुद्धि है। शोरगुल मचाया। __ यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, इसकी बाल-बुद्धि नष्ट तो एण्डू कार्नेगी खुद बाहर आया और उसने कहा कि इतना होती नहीं। यह मरते वक्त भी बाल-बुद्धि का ही मरता है। मरते | शोरगुल मंचाते हो! और भीख मांगनी हो तो वक्त से मांगने वक्त भी उसकी चिंता पदार्थ के लिए होती है। जो समझदार है, वह आओ! अभी सूरज भी नहीं निकला है, अभी मैं सो रहा था। शीघ्र ही पदार्थ की व्यर्थ दौड़ से अपने को मुक्त कर लेता है और उस भिखारी ने कहा, रुकिए; अगर मैं आपके व्यवसाय के परमात्मा की खोज में निकल जाता है। संबंध में कोई सलाह दूं, आपको अच्छा लगेगा? एण्डु कार्नेगी ने पदार्थ की खोज बाहर, परमात्मा की खोज भीतर। पदार्थ की कहा कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा। तुम सलाह दे भी क्या सकते खोज दूसरों से छीनकर, परमात्मा की खोज अपने को निखारकर। हो मेरे व्यवसाय के संबंध में! तुम्हारा कोई अनुभव नहीं है। पदार्थ की खोज में दूसरे का शोषण, परमात्मा की खोज में आत्मा उस भिखारी ने कहा, आप भी मत दें सलाह। आपको भी कोई की साधना। | अनभव नहीं है। जब तक हम उत्पात न करें. तब तक कोई देता है? और दो ही खोज हैं। और यह ध्यान रहे कि दोनों खोज कोई | | वक्त से आने पर आपसे मिलना ही मुश्किल था। सेक्रेटरी होता, सोचता हो कि मैं एक साथ साधूं, तो वह गलती में है। इसका यह | पहरेदार होते। अभी बेवक्त आया हूं, तो सीधा आपसे मिलना हो मतलब नहीं है कि आप संसार को छोड़कर भाग जाएं, तो ही | गया। सलाह आप मुझको मत दें, मेरा पुराना धंधा है, और बपौती परमात्मा को खोज सकते हैं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप है, बाप-दादे भी यही करते रहे हैं। परमात्मा को खोजें, तो आप दीन-दरिद्र, भिखारी ही हो जाएंगे। यह एण्डू कार्नेगी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं खुश हुआ कोई मतलब नहीं है। उस आदमी की बात से। मैंने उससे कहा कि तुम क्या चाहते हो? लेकिन जो परमात्मा को खोजता है, पदार्थ पर उसकी पकड़ नहीं उस आदमी ने कहा कि मैं ऐसे मुफ्त कभी किसी से कुछ लेता नहीं। रह जाती। पदार्थ उसके पास भी पड़ा हो, तो भी उसकी पकड़ नहीं | मैं कोई भिखारी नहीं हूं। लेकिन एक काम मैं कर सकता हूं, जो रह जाती। पदार्थ उससे छिन भी जाए, तो वह छाती पीटकर रोता आप नहीं कर सकते। और अगर कुछ दांव पर लगाने की इच्छा नहीं है। पदार्थ हो तो ठीक; पदार्थ न हो तो ठीक। वह उसका लक्ष्य हो, तो बोलिए! नहीं है। और अगर भीतर की खोज के लिए सब छोड़ना पड़े, तो एण्डू कार्नेगी ने लिखा है कि मुझे भी रस लगा कि वह क्या कह 364 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शोषण या साधना * रहा है। कौन-सा काम है, जो वह कर सकता है और मैं नहीं कर सकता! तो मैंने उससे कहा, अच्छा, सौ डालर दांव पर। वह कौन-सा काम है ? उसने कहा कि मैं एक सर्टिफिकेट ला सकता हूं कि मैं भिखारी हूं, पर आप सर्टिफिकेट नहीं ला सकते। एण्ड्र कार्नेगी ने अपने संस्मरण में लिखा है, सौ डालर मैंने उसे दिए, लेकिन फिर मैं सोचता रहा कि सर्टिफिकेट मैं ला सकू या न ला सकू, भिखारी तो मैं भी हूं। अरबों रुपए मेरे पास हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है! भीख तो जारी है, अभी भी मांग तो जारी है, अभी भी मैं खोज तो रहा ही हूं। कोई मुझे सर्टिफिकेट नहीं देगा, क्योंकि अगर मैं भिखारी हूं, तो इस जगत में कोई भी समृद्ध नहीं है। दस अरब रुपए एण्ड्र कार्नेगी छोड़कर मरा है। पर उसने लिखा है कि भिखारी तो मैं हूं, उस आदमी ने बात तो ठीक ही कही है। क्योंकि अभी भी मेरी मांग है, आकांक्षा है। मेरा भिक्षा का पात्र अभी भी हाथ में है। अभी भी मुझे कुछ मिल जाए, तो मैं सब खोने को तैयार हूं, कुछ मिल जाए तो अपने को और लगाने को तैयार हूं। एण्डू कार्नेगी जब मरा, तो मरने के दो दिन पहले जो आदमी उसकी जीवन-कथा लिख रहा था, उससे उसने पूछा कि अगर तुम्हें परमात्मा यह मौका दे, तो तुम एण्ड्र कार्नेगी के सेक्रेटरी होकर उसकी आत्म-कथा लिखना पसंद करोगे? या तुम एण्डु कार्नेगी बनना पसंद करोगे और एण्डू कार्नेगी तुम्हारी आत्मकथा लिखे ? तो उस सेक्रेटरी ने कहा, क्षमा करें; आप बुरा न मानें; एण्डू कार्नेगी बनना मैं कभी पसंद नहीं करूंगा। मैं ठीक हूं कि आपकी आत्म-कथा लिख रहा हूं। तो एण्ड कार्नेगी ने कहा, इसका क्या कारण है? तो उसने कहा कि देखें, मैं आता हूं ग्यारह बजे; पांच बजे मेरी छुट्टी हो जाती है। आपके दफ्तर के क्लर्क आते हैं दस बजे, पांच बजे उनकी छुट्टी हो जाती है। चपरासी आता है नौ बजे, पांच बजे उसकी भी छुट्टी हो जाती है। आपको मैं सुबह सात बजे से दफ्तर में रात ग्यारह बजे तक देखता हूं। चपरासी से गई बीती हालत आपकी है। एण्डू कार्नेगी भगवान मुझे कभी न बनाए। वह मैं नहीं होना चाहता। एण्डू कार्नेगी ठीक ही कह रहा है कि मैं भी भिखारी तो हूं ही। सब पाकर भी अगर आत्मा न मिले, तो भिखमंगेपन का अनुभव होगा। और सब खो जाए, आत्मा बच जाए, तो भीतर के सम्राट का पहली दफा अनुभव होता है। आज इतना ही। 365/ Page #394 --------------------------------------------------------------------------  Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 छठवां प्रवचन ऊर्ध्वगमन और अधोगमन TO Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । के दो चाक हैं। इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।। १३ ।। संसार चल रहा है, चलता रहा है, चलता रहेगा। उसके दोनों असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि । चाक बराबर हैं, इसीलिए। लेकिन फिर भी प्रश्न सार्थक है। क्योंकि ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।। १४ ।। साधारणतः देखने पर हमें यही दिखाई पड़ता है कि असुरों से तो आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया। पृथ्वी भरी है; देव कहां हैं? यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।। १५ ।। समझने की कोशिश करें। अनेकवित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः। हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं। पृथ्वी असुरों से भरी प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेशुचौ ।। १६ ।।। | दिखाई पड़ती है, वह हमारी अपनी आसुरी वृत्ति का दर्शन है। देव और उन आसुरी पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं, को तो हम पहचान भी नहीं सकते। वह दिखाई भी पड़े, मौजूद भी कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त हो, तो भी हम उसे पहचान नहीं सकते। क्योंकि जब तक दिव्यता होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह की थोड़ी झलक हमारे भीतर न जगी हो, तब तक दूसरे के भीतर . - भविष्य में और अधिक होवेगा। जागे हुए देव से हमारा कोई संबंध निर्मित नहीं होता। तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारी ही आंखों का फैलाव है, मैं मारूंगा। मैं ईश्वर अर्थात ऐश्वर्यवान हूं और ऐश्वर्य को वह हमारी दृष्टि का ही फैलाव है। हमें वह नहीं दिखाई पड़ता जो भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान है, बल्कि वही दिखाई पड़ता है जो हम हैं। और सुखी हूं। दैवी संपदा से भरे व्यक्ति को इस जगत में असुर कम और मैं बड़ा धनवान और बड़े कुटुंब वाला हूं; मेरे समान दूसरा देवता ज्यादा दिखाई पड़ने लगते हैं। संत को बुरा आदमी दिखाई कौन है। मैं यज्ञ कलंगा. दान देऊंगा.हर्ष को प्राप्त पड़ना बंद हो जाता है। हमें जो बरा दिखाई पड़ता है, संत को होऊंगा-इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित हैं। | वही...उसकी व्याख्या बदल जाती है। और व्याख्या के अनुसार वे अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन | जो हमें दिखाई पड़ता है, उसका रूप बदल जाता है। मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय-भोगों में अत्यंत लेकिन संत को दिखाई पड़ने लगता है, सभी भले हैं। असंत को आसक्त हुए महान अपवित्र नरक में गिरते हैं। दिखाई पड़ता है, सभी बुरे हैं। दोनों ही बातें अधूरी हैं। और जब आप परिपूर्ण साक्षी-भाव को उपलब्ध होते हैं, जहां न तो आप अपने को जोड़ते हैं साधुता से, न जोड़ते हैं असाधुता से, जहां बुरे पहले कुछ प्रश्न। | और भले दोनों से आप पृथक हो जाते हैं, उस दिन आपको दिखाई पहला प्रश्नः गीता के इस अध्याय में देवों और असुरों पड़ता है कि जगत में दोनों बराबर हैं। और बराबर हुए बिना जगत के गुण बताए गए। हम असुरों से तो धरती पटी पड़ी चल नहीं सकता, क्षणभर भी नहीं जी सकता। है, किंतु देव तो करोड़ों में कोई एक होता है। ऐसा तो यदि हमें दिखाई पड़ती है पृथ्वी असुरों से भरी, तो इसका क्यों है? केवल एक ही अर्थ लेना कि हम आसुरी संपदा में जी रहे हैं। इसका दूसरा कोई और अर्थ नहीं है। पृथ्वी से इसका कोई संबंध नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात भांग पी ली। भांग के नशे में जमीन 14वन में एक अनिवार्य संतुलन है। जितनी यहां बुराई | घूमती हुई दिखाई पड़ने लगी। तो सुबह उठकर जब वह होश में आ UII है, उतनी ही यहां भलाई है। जितना यहां अंधेरा है, | गया, उसने कहा, मैं समझ गया। जिस आदमी ने यह सिद्ध किया उतना ही यहां प्रकाश है। जितना यहां जीवन है, उतनी | कि पृथ्वी घूमती है, वह भंगेड़ी रहा होगा! ही यहां मृत्यु है। दोनों में से कोई भी कम-ज्यादा नहीं हो सकते।। ___ हमारा अनुभव ही हम फैलाते हैं, दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। दोनों की बराबर मात्रा चाहिए, तो ही जीवन चल पाता है। वे गाड़ी जो हमारे भीतर है, उसके माध्यम से ही हम दूसरे को देखते हैं। तो 368 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन दूसरे की वास्तविक स्थिति हमें दिखाई नहीं पड़ती, हमारा ही मन उस पर छा जाता है, हमारी छाया ही उसे आच्छादित कर लेती है । फिर जो हम देखते हैं, वह अपने ही मन का फैलाव है। दूसरा व्यक्ति जैसे परदा बन जाता है। हमारा ही चित्त उस परदे पर हमें दिखाई पड़ता है। दूसरे में हम स्वयं को ही देखते हैं। दूसरा जैसे दर्पण है। तो अगर लगता हो कि सारी पृथ्वी असुरों से भरी है, तो जानना कि आपका चित्त आसुरी संपदा से भरा है। इसके अतिरिक्त यह बान किसी और चीज का लक्षण नहीं है। इससे पृथ्वी के संबंध में कोई खबर नहीं मिलती, सिर्फ आपके संबंध में खबर मिलती है; आपकी आंखों के संबंध में खबर मिलती है; आंखों के पीछे छिपे मन के संबंध में खबर मिलती है। और अगर आपको कभी-कभी कोई एकाध देव भी दिखाई पड़ जाता है, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि आपके भीतर की दैवी संपदा भी थोड़ी-बहुत सक्रिय है। वह बिलकुल मर नहीं गई है; जीवंत है। उसकी भी कोई एक किरण इस अंधेरे में मौजूद है, इसलिए कभी-कभी आप झलक दूसरे में उसकी भी देख लेते हैं। जैसे-जैसे आप दैवी संपदा में लीन होंगे, वैसे-वैसे जगत आपको दिव्य मालूम पड़ने लगेगा। लेकिन ध्यान रहे, योग की जो परम दशा है, वह दोनों ही भावनाओं से मुक्त हो जाना है। जिस दिन जगत आपको उसकी वस्तुस्थिति में दिखाई पड़े, जिस दिन आपके भीतर से कोई भाव जगत पर न फैले, उस दिन आपको अनूठा अनुभव होगा कि जगत में सभी चीजें संतुलित हैं। यहां बुरा और भला बराबर है। यहां पापी और पुण्यात्मा बराबर हैं। यहां ज्ञानी और अज्ञानी बराबर हैं। उनकी मात्रा सदा ही बराबर है। उस मात्रा में जरा भी विचलन हुआ कि जगत नष्ट हो जाता है। वह संतुलन बना रहता है। जिस दिन आपको ऐसा दिखाई पड़ जाएगा, यह संतुलन की अवस्था अनुभव में आ जाएगी, उस दिन न तो आप जगत को बुरा कहेंगे, न भला कहेंगे। उस दिन बुरे आदमी को भी बुरा नहीं कहेंगे, भले आदमी को भी भला नहीं कहेंगे। उस दिन आप कहेंगे, बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उस दिन आप बुरे को मिटाना नहीं चाहेंगे, भले को बचाना नहीं चाहेंगे। क्योंकि उस दिन आप जानेंगे कि बुरा मिटे, तो भला भी मिटता है; भला बचे, तो बुरा भी बचता है। लाओत्से ने कहा है, जब दुनिया धार्मिक थी, तो न कोई भला आदमी था, न कोई बुरा आदमी था। जब आप भी परम धार्मिक होंगे, तो न कोई बुरा रह जाएगा, न कोई भला रह जाएगा। तब बुरा और भला एक जागतिक संयोग होगा। जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर पानी बनता है, वैसे बुरे और भले से मिलकर संसार बनता है। और वह मात्रा सदा बराबर है। जगत एक संतुलन है। पर हमें संतुलन दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि हम संतुलित नहीं हैं। हम साक्षी होंगे, तो संतुलित होंगे। तो जीवन में तीन दिशाएं हैं। एक दिशा है कि अपने भीतर जो आसुरी संपदा है, उसको हम अपना स्वभाव समझ लें, तो फिर सारा जगत बुरा है। दूसरी संभावना है कि हमारे भीतर जो दैवी संपदा है, हम उसके साथ अपने को एक समझ लें, तो सारा संसार भला है। और एक तीसरी परम संभावना है कि हम इन दोनों गुणों से, इस द्वैत से अपने को मुक्त कर लें और साक्षी हो जाएं, तो फिर | जगत बुरे और भले का संयोग है, रात और दिन का जोड़ है, अंधेरे और प्रकाश का मेल है, ठंडे और गरम का संतुलन है । और जिस दिन आप इस तरह चुनावरहित, विकल्परहित भीतर दोनों संपदाओं में से किसी को भी न चुनेंगे, उसी दिन आपकी परम मुक्ति है। हमारे पास तीन शब्द हैं। एक शब्द नरक है। नरक का अर्थ है, जिसने अपने को आसुरी संपदा से एक कर लिया। दूसरा शब्द स्वर्ग है। स्वर्ग का अर्थ है, जिसने अपने को दैवी संपदा से एक कर लिया । और तीसरा शब्द मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है, जिसने अपने को दोनों संपदाओं से मुक्त कर लिया। देव भी मुक्त नहीं है, वह भी बंधा है। उसके बंधन प्रीतिकर हैं। उसकी जंजीरें सोने की हैं। उसका कारागृह बहुमूल्य है; उसका कारागृह बहुत सजा है। उसका जीवन आभूषणों से लदा है। लेकिन | लदा है, वह निर्धार नहीं है। बुरा आदमी लोहे की जंजीरों से बंधा है; अच्छा आदमी सोने की जंजीरों से बंधा है। लेकिन बंधन में जरा भी कमी नहीं है। 369 सिर्फ भारत ने एक अनूठे शब्द का प्रयोग किया है, मोक्ष | दुनिया के किसी दूसरे धर्म ने, दुनिया की किसी जाति ने मोक्ष की कल्पना नहीं की है। स्वर्ग और नरक सारी दुनिया को पता हैं। | इस्लाम या ईसाइयत या यहूदी, स्वर्ग और नरक से परिचित हैं। मोक्ष की धारणा एकांतिक रूप से भारतीय है। मोक्ष का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो नरक से तो मुक्त हुआ ही, स्वर्ग से भी मुक्त है। जिसने बुरे को तो छोड़ा ही, भले को भी छोड़ा। इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि भला हमें लगता है, छोड़ने Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * का सवाल ही नहीं है। लेकिन तब हमें जीवन की गहरी व्यवस्था क्यों है कि इस जगत में आसुरी संपदा ही अधिक का कोई अनुभव नहीं है। भले के पीछे बुरा तो छिपा ही रहेगा। फलती-फलती नजर आती है? दैवी संपदा की फसल ___ अगर आप कहते हैं कि मैं सत्य ही बोलता हूं, सदा सत्य ही इतनी दुर्लभ क्यों है? बोलूंगा, और सदा सत्य को पकड़े रहूंगा! तो एक बात पक्की है, आपके भीतर झूठ भी उठता है। नहीं तो आपको सत्य का पता कैसे चलेगा! सत्य को आप बचाएंगे कैसे! सत्य को सम्हालेंगे कैसे! मसुरी संपदा फूलती-फलती नजर आती है, क्योंकि वही झूठ भीतर मौजूद है, उसके विरोध में ही सत्य उठता है। हमारी कामना है। एक चोर सफल होता हमें दिखाई अगर आप कहते हैं, मैं ब्रह्मचर्य का साधक हूं, मैं ब्रह्मचर्य को पड़ता है। एक चोर धन को इकट्ठा कर लेता है, प्रतिष्ठा पकड़े रहूंगा, मैं कभी ब्रह्मचर्य को छोडूंगा नहीं! तो उसका अर्थ है, बना लेता है। हमारे मन में कांटा चुभता है इससे। चाहते तो हम भी कामवासना आपके भीतर लहरें लेती है। जिसके भीतर कामवासना इसी तरह का महल, इसी तरह का धन, इसी तरह की पद-प्रतिष्ठा समाप्त हो गई, उसको ब्रह्मचर्य का पता भी नहीं चलेगा। हैं। चोरी करने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं और चोर ने जो जुटा जिसकी बीमारी बिलकुल मिट गई, उसे स्वास्थ्य का भी पता लिया है, उसकी भी आकांक्षा मन में है; उससे मन को चोट लगती नहीं चलेगा। इसलिए जब आप बीमार पड़ते हैं और स्वस्थ होते हैं, है। उससे मन कहता है कि चोर फल-फूल रहा है। हम साधु हैं और तब आपको स्वास्थ्य की थोड़ी-सी झलक मिलती है। बीमारी में | फल-फूल नहीं रहे हैं। गिरने के बाद जब आप पहली दफे स्वस्थ होना शुरू होते हैं, तब अगर आप साधु हैं, तो आपको दिखाई पड़ेगा कि-चोर दुख पा आपको पता चलता है, स्वास्थ्य क्या है। अगर आप सदा ही स्वस्थ रहा है। अगर आप असाधु हैं, तो दिखाई पड़ेगा कि चोर सफल हो रहें, आपको स्वास्थ्य भूल जाएगा; उसका आपको कोई स्मरण ही रहा है। नहीं रहेगा। दुनिया में दो तरह के चोर हैं बड़ी मात्रा में। एक वे, जो चोरी की दुख के कारण सुख का पता चलता है: बरे के कारण भले का | हिम्मत कर लेते हैं; और एक वे, जो चोरी की हिम्मत नहीं करते, पता चलता है। सिर्फ विचार करते हैं। मोक्ष का अर्थ है, अब मेरे दोनों ही बंधन न रहे; अब मैं मुक्त मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम अपना जीवन संतोष से इं; मेरा कोई चुनाव नहीं। न यह संपदा मेरी है, न वह संपदा मेरी | बिताते हैं, बुरा काम नहीं करते, किसी को चोट नहीं पहुंचाते, फिर है। संपदाएं ही मैंने छोड़ दी हैं। यह परम दशा है। यह परमहंस की भी असफलता हाथ लगती है। और देखें, फलां आदमी ब्लैक अवस्था है। मार्केटिंग कर रहा है, कि स्मगलिंग कर रहा है, कि चोर है, बेईमान अभी जहां आप खड़े हैं, अगर जगत आपको बुरा लगे, तो है, धोखाधड़ी कर रहा है, और सफल हो रहा है! समझना कि आसुरी संपदा आपकी आंखों पर छाई है। अगर जगत उसकी सफलता आपको सफलता दिखाई पड़ती है, क्योंकि अच्छा लगे. तो समझना कि दैवी संपदा ने आपको घेरा है। जगत | आप भी वैसी ही सफलता चाहते हैं। अगर सच में ही आपका दोनों लगे और दोनों में संतुलन दिखाई पड़े, तो समझना कि साक्षी साधु-चित्त होता, तो आपको उस आदमी की पीड़ा भी दिखाई के स्वर का जन्म हुआ है। पड़ती। भला उसने महल खड़ा कर लिया हो, लेकिन महल के उस तीसरे की खोज जारी रखनी है। जब तक वह न हो जाए, | भीतर वह जिस संताप से गुजर रहा है, वह आपको दिखाई पड़ता। तब तक समझना कि अभी हम धर्म के मंदिर के बाहर ही भटकते __उस संताप से आपको कोई प्रयोजन नहीं है। उसकी भीतरी पीड़ा हैं, अभी हमारा भीतर प्रवेश नहीं हुआ है। से आपको कोई प्रयोजन नहीं है। उसका बाहर जो ठाठ है, वह आपको दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि बाहर का ठाठ आप भी चाहते हैं! जो उसने पा लिया है, वह आप नहीं पा सके, इससे मन में कांटा दसरा प्रश्नः आपने कहा कि मनष्य दैवी और आसरीचभता है। इसलिए वह सफल लगता है और स्वयं आप असफल संपदा बराबर मात्रा में लेकर पैदा होता है। तब ऐसा लगते हैं। 370 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन * सिर्फ बुरा आदमी ही बुरे आदमी की सफलता को सफलता मान किया कि यह पागलों का गांव है, क्योंकि तुम लड़े नहीं, उलटे सकता है। भले आदमी को तो दया आएगी; भले आदमी को बुरे तुमने स्वागत किया। हम जीतने आए हैं; तुमने हमें फूलमालाएं आदमी पर दया आएगी। क्योंकि वह उसके भीतर देखेगा, झांकेगा, | पहनाई। शक तो मुझे तभी हुआ; लेकिन अब बिलकुल पक्का हो और पाएगा कि उसने धन तो इकट्ठा कर लिया, स्वयं को खो दिया। गया कि तम्हारे दिमाग खराब हैं। सोने की रो रोटी खाई नहीं जाती! वह पाएगा कि उसने संपदा तो इकट्ठी कर ली, लेकिन शांति नष्ट तो एक बूढ़े आदमी ने, जो गांव का सर्वाधिक बूढ़ा था, उसने हो गई। वह पाएगा कि उसके पास साधन तो काफी इकट्ठे हो गए, कहा, अगर गेहूं की रोटी ही खानी थी, तो वह तो आपको अपने लेकिन वह खुद भटक गया है। उसके जीवन की सफलता घर ही मिल जाती। हम सोचे कि इतनी तकलीफ उठाकर आ रहे हैं, साधु-चित्त व्यक्ति को आत्मघात जैसी मालूम पड़ेगी। उसने अपने तो सोने की रोटी की तलाश होगी। को सड़ा डाला, उसने अपने को बेच लिया। ___ वह जो चोर है, लुटेरा है, बदमाश है, आपको उसकी सोने की लेकिन हमें हो सकता है दिखाई पड़े कि आदमी सफल हो रहा | | रोटी दिखाई पड़ती है। लेकिन सोने की रोटी कोई खा तो पा नहीं है, बुरा आदमी सफल हो रहा है। रोज चारों तरफ लोगों को दिखाई सकता, भीतर भूखा मरता है। और आपको सोने की रोटी में पड़ता है, बुरे आदमी सफल हो रहे हैं। सफलता दिखाई पड़ती है, क्योंकि आकांक्षा वही आपकी भी है; बुरा आदमी सफल हो ही नहीं सकता। और अगर सफल होता आप वही खुद भी चाहते हैं। दिखाई पडे. तो समझना कि आपकी सफलता की व्याख्या में कहीं जो हम चाहते हैं. उससे ही हमारी संपदा का पता चलता है। कोई भ्रांति है। बुरा आदमी तो असफल होगा ही। अगर चोर आपको सफल होता दिखाई पड़ता है, तो आप चोर हैं। मैंने सुना है, सिकंदर अपने साम्राज्य को बढ़ाता हुआ नील नदी भला आपने कभी चोरी न की हो। अगर आपको चोर सफल होता के किनारे पहुंचा। रास्ते में उसने न मालूम कितनी सीमाएं तोड़ीं, हुआ मालूम होगा, तो साधु आपको असफल होता हुआ मालूम कितने राज्य नष्ट किए, कितनी सेनाओं को पराजित किया, लेकिन होगा। तो आप दया कर सकते हैं साधु पर। ईर्ष्या आपकी चोर से नील नदी के किनारे पहुंचकर उसको बड़े अचंभे का अनुभव हुआ। | है। साधु को आप कह सकते हैं कि भोला-भाला है, जाने भी दो। जगह-जगह उसे प्रतिरोध मिला, टक्कर मिली। लोग हारे, तो भी | समझ इसकी कुछ है नहीं। लेकिन ईर्ष्या आपकी चोर से है, आखिरी दम तक लड़े। लेकिन नील नदी के किनारे जब वह प्रतियोगिता चोर से है। आया, तो उसे स्वागत मिला-वंदनवार, फूलों की वर्षा, निमंत्रण, पहली बात तो यह समझ लें कि बुराई कभी भी सफल नहीं उत्सवः-लड़ने का कोई सवाल ही नहीं! वह चकित भी हुआ, | होती, सफल होती दिखाई पड़ सकती है। देखने में भूल है, भ्रांति हैरान भी हुआ। है। भलाई सदा सफल होती है, असफल होती दिखाई पड़ सकती जिस पहले नगर में उसने प्रवेश किया, नगर के लोगों ने पूरी | है। क्योंकि बुराई की सफलता बाहर-बाहर है, भलाई की सफलता सिकंदर की फौजों को निमंत्रण दिया, रात्रि-भोज का आयोजन | आंतरिक है। किया। सुंदरतम भोजन, शराब, नृत्य-संगीत की व्यवस्था की। ___ इस जगत में जिन्होंने थोड़ा भी आनंद जाना है, उन्होंने भलाई के सिकंदर चकित भी था, हैरान भी था। यह कौन-सा ढंग है दुश्मन | | कारण जाना है। जिन्होंने महा दुख झेला है, उन्होंने बुराई के कारण के प्रवेश पर स्वागत करने का! थोड़ा लज्जित भी था। क्योंकि वे | तलवार लेकर खड़े होते, तो सिकंदर उन्हें जीत लेता। लेकिन वे प्रेम ___ अगर हम हिटलर और चंगेज और तैमूर के हृदय उघाड़कर लेकर खड़े हुए, तो जीतना मुश्किल मालूम पड़ेगा। देख सकें, तो हमें महानरक का दर्शन होगा। लेकिन इतिहास में जब उसके सामने भोजन की थाली लाई गई, तो वह एकदम नाम उनके हैं; सदा रहेंगे। आप भी सोच सकते हैं कि सफल हुए; नाराज हो गया; उसने जोर से चूंसा मारा टेबल पर और कहा कि | बड़े साम्राज्य उन्होंने खड़े किए हैं, तो आप भी सोच सकते हैं, . यह क्या है? मेरा मजाक किया जा रहा है? क्योंकि थाली में सोने | सफल हुए। की रोटी थी. हीरे-जवाहरातों की सब्जियां थीं। सिकंदर ने कहा कि वस्ततः जो सफल हए हैं इस जमीन पर. शायद उनका नाम भी तुम मूढ़ तो नहीं हो? शक तो मुझे तभी हुआ। जब मैं गांव में प्रवेश | इतिहास में नहीं है, उनके नाम का आपको पता भी नहीं है। कौन झेला है। 371 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 सफल होता है जीवन में? जिसे शांति का अनुभव हो जाए, जिसे | मतलब है, वापस लौट जाना। होशियार से होशियार आदमी भी आनंद की प्रतीति हो जाए, जिसे समाधि की झलक मिल जाए। | क्रोध में आ जाए, तो नासमझी का व्यवहार करता है, जो बचकाना __ अगर मुझसे पूछे सफलता की परिभाषा, तो समाधि सफलता | है। बच्चों की तरह पैर पटक सकता है, सामान तोड़ सकता है, की परिभाषा है। जिन्हें समाधि का थोड़ा रस आ जाए, जो नाच उठे | चीख-पुकार मचा सकता है। यह रिग्रेशन है, पीछे लौटना है। समाधि में, जिनका हृदय पुलकित हो उठे समाधि में, वे ही केवल | पीछे लौटना हमेशा आसान है। क्योंकि पीछे लौटने का मतलब सफल हैं। है, वहां से हम गुजर चुके हैं, वह रास्ता परिचित है, उसे पाने के और बुरा कभी समाधिस्थ नहीं हो सकता। बुरा तो संतप्त ही | | लिए कोई खोज नहीं करनी है। होगा, चिंतित होगा। उसका मन धीरे-धीरे और नारकीय, और | | दैवी संपदा का अर्थ है कि हमें आगे बढ़ना है, ऊंचाई छूनी है। नारकीय होता चला जाएगा। | जितनी ऊंचाई छूनी है, उतना श्रम होगा। और जितनी ऊंचाई छूने तो पहली बात तो यह, आसुरी संपदा फूलती-फलती दिखाई की हम कोशिश करेंगे, उतनी भूल-चूक भी होगी, हम गिरेंगे भी। पड़ती है, क्योंकि उसी संपदा की चाह हमारे भीतर है। आसुरी - याद रखें, केवल वही गिरता है, जो ऊंचा उठना चाहता है। नीचे संपदा कभी फली-फूली नहीं है। जिनके मन में दैवी संपदा की चाह | गिरने वाले को तो गिरने का कोई कारण ही नहीं है। है, वे हमेशा देखेंगे कि आसुरी संपदा सदा भटकी है, दुखी हुई है; दैवी संपदा हमसे ऊपर है, उसके लिए हाथ बढ़ाने पड़ें, यात्रा कभी फली-फूली नहीं, सदा नष्ट हुई है। करनी पड़े, हिमालय के शिखर की तरह हमें गौरीशंकर की तरफ और दूसरी बात, दैवी संपदा की फसल इतनी दुर्लभ क्यों है? | बढना पडे। उसमें अडचन होगी ही. असफलता भी हो सकती है: दुर्लभ इसलिए है कि जीवन के कुछ नियम समझ लें, तो खयाल | गिरेंगे भी, कभी रास्ता भी खो जाएगा। नीचे उतरने के लिए न गिरने में आ जाए। का कोई डर है, न रास्ता खोने का कोई डर है; रास्ता परिचित है, एक, कि बुरा करने के लिए आपको कुछ भी करना नहीं पड़ता, जाना-माना है, उससे हम गुजर चुके हैं। और फिर नीचे उतरने में वह ढाल है। पानी को बहा दिया, पानी अपने आप गड्ढों में चला | कोई प्रतिरोध न होने से सुगमता है। ऊपर चढ़ने में सारे शरीर पर जाता है। गड्ढों में जाने के लिए पानी को कुछ करना नहीं पड़ता। जोर पड़ेगा। पहाड़ पर चढ़ना हो, तो बड़ी कठिनाई है। फिर पानी को चढ़ाने का | अमेरिका का बहत बड़ा वैज्ञानिक हुआ, थामस अल्वा आयोजन करना पड़ता है। आयोजन में श्रम होगा। आयोजन में एडिसन। उसने कोई एक हजार आविष्कार किए। दूसरे किसी असफलता भी हो सकती है। मनुष्य ने इतने आविष्कार नहीं किए। छोटे से लेकर बड़े तक, बुरा ढलान है। बुरे का मतलब यह है कि जो हमसे नीचे है। भले बिजली, रेडियो, टेलीफोन, अनेक आविष्कार उसने किए हैं। का अर्थ है कि जो हमसे ऊपर है। बुरे का अर्थ है, जहां से हम गुजर उसका घर आविष्कारों से भरा था। लोग उसके घर आते थे, तो चुके। हम पशु थे, पौधे थे। वहां से हम गुजर चुके। अगर आप चकित होते थे, क्योंकि सब चीजों में उसने कुछ न कुछ किया था। वापस लौटना चाहते हैं, तो बिलकुल आसान है। उसके पूरे घर में नए-नए आविष्कार थे। पानी की टोंटी के नीचे ऐसा समझें कि एक व्यक्ति स्कूल में परीक्षाएं पार कर-करके हाथ रखिए और पानी गिरने लगे, खोलने की जरूरत नहीं; हाथ मैट्रिक में पहंच गया है। अगर वह पहली की परीक्षा फिर से देना अलग करिए और पानी बंद हो जाए। चाहे, तो क्या कठिनाई होगी! कोई कठिनाई न होगी। अगर वह एक दिन अमेरिका का प्रेसिडेंट उसके घर उसके आविष्कार पहली कक्षा में प्रवेश पाना चाहे, तो कोई अड़चन नहीं है, कोई उसे | देखने गया था। हर चीज देखकर चकित हुआ। उसने अनूठे-अनूठे रोकेगा भी नहीं। और वह बड़ा सफल भी होगा पहली कक्षा में! | | यंत्र खोजे थे। चलते वक्त अमेरिकी प्रेसिडेंट ने कहा, और सब तो जहां से हम गुजर चुके हैं, विकास की जिन सीढ़ियों को हम पार | ठीक है, एक बात मेरी समझ में नहीं आई। तुम जैसा आविष्कारक कर चुके हैं, उनमें वापस उतरना हमेशा आसान है। बूढ़े से बूढ़े | बुद्धि का आदमी, जिसने घर को आविष्कारों से भर रखा है, आदमी को अगर आप क्रोध में ला दें, तो वह बच्चे के जैसा | जिसकी हर चीज अनूठी और तिलिस्मी है, लेकिन तुम्हारे मकान व्यवहार करने लगता है। वह बिलकुल आसान है। बच्चे का का जो बगीचे का दरवाजा है, वह इतना भारी है कि खोलने में बड़ी 1372| Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन ** ताकत लगती है। तुम्हें इसका खयाल नहीं आया? | हमने स्वीकार कर लिया। रातभर हमको विश्राम मिल जाता है। उसने कहा, आप समझे नहीं। खयाल मुझे है। जो आदमी भी | सुबह हम फिर खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं। मेरा दरवाजा एक बार खोलता है, पांच गैलन पानी मेरी टंकी में खड़े होने का मतलब संघर्ष है। और अगर आदमी उड़ना चाहे, पहंच जाता है। तो मैं नौकर नहीं रखे हए हैं। जो देखने आने वाले तो और बडा संघर्ष है. क्योंकि फिर जमीन से बिलकल उसको हैं दिनभर आते हैं वे खोलते, बंद करते हैं। बस, हर बार अपनी मुक्ति चाहिए। खोलो, बंद करो, तो पांच गैलन पानी दरवाजा ऊपर फेंक रहा है। आसुरी संपदा जमीन की कशिश जैसी है। सुगम है। बुरा होने जब भी कुछ ऊपर भेजना हो, तो थोड़ा श्रम तो होगा, थोड़ा भारी के लिए कोई बड़ी चिंतना नहीं करनी पड़ती। बुरा होने के लिए कोई भी लगेगा, क्योंकि हम नियम जीवन के तोड़ रहे हैं। बहुत बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। जमीन चीजों को नीचे की तरफ खींचती है; ग्रेविटेशन है। पत्थर | __अपराधियों के अध्ययन किए गए हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते को आप ऊपर की तरफ फेंकते हैं, तो आपका हाथ थकता है, चोट हैं कि अपराधियों में नब्बे प्रतिशत जड़बुद्धि होते हैं, ईडिआटिक लगती है। जितनी जोर से ऊंचा फेंकेंगे, उतनी ज्यादा शक्ति होते हैं, उनके पास कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। पर बड़ी हैरानी की बात खोएगी। लेकिन पत्थर फिर नीचे चला आता है। जैसे ही आपकी है कि वे बुद्धिहीन जो हैं, वे बुराई करके कई दफा हमें सफल होते भेजी हुई ऊर्जा पत्थर में चुक जाती है, जमीन उसे नीचे खींच लेती भी दिखाई पड़ते हैं। बुद्धिमान हारता दिखाई पड़ जाए, बुद्धिहीन है। नीचे खींचते वक्त किसी ताकत की जरूरत नहीं पड़ती, जमीन सफल होते दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि बुद्धिहीन में एक क्षमता तो है, स्वभावतः चीजों को नीचे खींच रही है। वह क्षमता है नीचे गिरने की। अगर नीचे गिरने में ही प्रतियोगिता आसुरी संपदा ग्रेविटेशन है, वह जमीन की कशिश है। हो, तो वह आपसे जीत जाएगा। और हम सभी उसके साथ • छोटा बच्चा एकदम खड़ा नहीं हो सकता मां के पेट से पैदा | प्रतियोगिता कर रहे हैं। इसलिए वह हमें जीतता मालूम पड़ता है। होकर। क्योंकि खड़े होने का मतलब है, ग्रेविटेशन से लड़ना, वह जो जितना नीचे गिर सकता है, उतने जल्दी सफल हो जाएगा। जो जमीन की कशिश है। इसलिए बच्चा पहले जमीन पर लेटकर चाहे धन की दौड़ हो, चाहे राजनीति की दौड़ हो, वह जो बुरा सरकता है। वह जमीन खींच रही है; अभी बच्चा खड़ा होगा, तो | | आदमी है, सफल हो जाता है, क्योंकि वह ज्यादा नीचे गिर सकता फौरन गिरेगा। तो सरकेगा, फिर घुटनों के बल अपने को | | | है। दो राजनीतिज्ञों में वह राजनीतिज्ञ जीत जाएगा, जो ज्यादा नीचे सम्हालेगा। वह जमीन की कशिश से ऊपर उठने की कोशिश कर | | गिर सकता है; उसको कम श्रम पड़ेगा। रहा है। फिर किसी का सहारा लेकर खड़ा होगा। फिर अपने भरोसे ___ मैंने सुना है कि विंसटन चर्चिल एक चुनाव में जिस क्षेत्र से लड़ पर दो कदम चलेगा; लेकिन गिरेगा, घुटने टूटेंगे, चोट लगेगी। | रहे थे, एक बूढ़े आदमी के पास वोट मांगने गए थे। उनके विरोध फिर धीरे-धीरे.धीरे-धीरे...। और पैर उसके समर्थ हैं. वह खडा में कोई खडा था। उस बढे आदमी ने कहा कि मैं सोचंगा। चर्चिल हो सकता है, शरीर उसका पूरा का पूरा तैयार है, लेकिन ग्रेविटेशन ने उस पर दबाव डाला और कहा, कुछ तो कहो; कुछ तो धारणा से संघर्ष करना होगा। फिर एक दिन आएगा कि वह अपने को बना ही लो; अब चुनाव करीब आ रहा है। संतुलित कर लेगा, खड़ा हो जाएगा। तो उस आदमी ने कहा, तुम मानते नहीं तो मैं कहूं कि मैं यही फिर आपको खड़ा होना आसान मालूम पड़ता है। लेकिन अभी प्रार्थना करता हूं भगवान से कि तेरी बड़ी कृपा है कि दो में से एक ही भी जब भी आप थक जाते हैं, तो लेटना ही पड़ता है। क्योंकि खड़े जीत पाएगा। क्योंकि दोनों उपद्रवी हैं, और इतना ही अच्छा है कि होने में, चाहे आपको कितना ही आसान हो गया हो, जमीन दोनों नहीं जीतेंगे, एक ही जीतेगा। कम से कम एक ही बुराई जीतेगी। आपको खींच रही है और थका रही है। इसलिए खड़े-खड़े हम थक मैंने सुना है, एक किसान एक बार स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा। उसे जाते हैं। जब भी थक जाते हैं, तब हमें जमीन पर लेटना पड़ता है। बड़ी उदासी हुई वहां, जो हाल उसने देखा। बड़ी देर तक दरवाजा रात सोकर हमें जो सुख मिलता है, वह जमीन की कशिश से | | खटखटाता रहा, किसी ने फिक्र ही न की। तब उसने देखा कि उसके लड़ाई छोड़ देने के कारण! तो हम समतल जमीन पर सो जाते हैं; | पीछे एक राजनीतिज्ञ है, जो उसके बाद में मरा और उसके बाद स्वर्ग फिर छोटे बच्चे हो गए, फिर जमीन से हमारी कोई लड़ाई नहीं है। | के द्वार पर पहुंचा। उसने जाकर दस्तक दी। दस्तक दी नहीं कि द्वार | 373| Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * खल गए। द्वारपाल ने उसे भीतर ले लिया। आप देखते हैं, तो आंखें सजग हैं। मत देखें, अंधेरे में रहे आएं, वह किसान तो खड़ा ही रहा। सोचने लगा मन में कि शायद यहां थोड़े दिन में आंखें अंधी हो जाएंगी। आप सुनते हैं, तो कान तेज भी मेरी कोई चिंता होने वाली नहीं है। राजनीतिज्ञ यहां भी जीत | | हैं। संगीतज्ञ के कान सबसे ज्यादा तेज हो जाते हैं। क्योंकि सुनने जाएगा। और भीतर बैंड-बाजों की आवाज आने लगी। राजनीतिज्ञ | के लिए वह इतना आतुर होता है, एक छोटी से छोटी ध्वनि के का स्वागत हो रहा है। | परिवर्तन को वह पकड़ना चाहता है। चित्रकार की आंखें सतेज हो फिर थोड़ी देर बाद जब बैंड-बाजे बंद हो गए, द्वार खुला; | जाती हैं। दार्शनिक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है। किसान को भीतर ले जाया गया। उसने सोचा कि शायद अब __ आप जो करते हैं, वह कुशल हो जाता है। आप जो नहीं करते बेंड-बाजे मेरे लिए भी बनेंगे। वे नहीं बजे! तो उसने द्वारपाल से हैं, उसमें आप अकुशल हो जाते हैं। अगर जन्म से ही हमारी आंखों पछा कि यह पक्षपात यहां भी है? द्वारपाल ने कहा. पक्षपात जरा | | पर पट्टियां बांध दी जाएं, और फिर जब हम जवान हो जाएं तब भी नहीं है। तुम्हारे जैसे लोग तो रोज यहां आते हैं। यह कोई हजारों | पट्टियां खोली जाएं, तो हम सब अंधे ही पट्टियों के बाहर आएंगे। साल के बाद राजनीतिज्ञ स्वर्ग में आया है। इसका विशेष स्वागत | वैज्ञानिक कहते हैं कि तीन साल तक कोई भी इंद्रिय काम न करे. होना ही चाहिए। | तो जड़ हो जाएगी। राजनीति में भला होना मुश्किल है; भला होने वाला हारेगा। | और आसुरी संपदा का तो हम उपयोग कर रहे हैं जन्मों-जन्मों क्योंकि वहां गिरने की प्रतियोगिता है, कौन कितना गहरा गिर | | से, दैवी संपदा का हमने उपयोग नहीं किया जन्मों-जन्मों से, सकता है! इसलिए कठिन मालूम पड़ती है। वहां भूमि सख्त हो गई है। उस धर्म राजनीति से उलटी यात्रा है। वहां ऊपर आकाश में उड़ने की | | पर हमने कभी न हल चलाया, न कुछ खेती की, न बीज डाले। सब प्रतियोगिता है, कौन कितना पृथ्वी के आकर्षण से दूर जा सकता सूख गया है। पठार हो गया है, पत्थर जैसा मालूम होता है। जिस है! वहां कठिनाई पड़नी शुरू हो जाएगी। जितने आप दूर जाएंगे, | | तरफ हम खेती करते रहे हैं, वहां आसानी मालूम होती है, वहां उतनी ही पृथ्वी खींचेगी और संघर्ष बढ़ेगा। लेकिन उसी संघर्ष से | | जमीन तैयार है, वहां जमीन फुसफुसी है, वहां बीज पकड़ना आत्मा का जन्म होता है। उसी तनाव से, उसी प्रतिरोध से, उसी | आसान है। संयम से आपके भीतर व्यक्तित्व निर्मित होता है, इंटीग्रेशन घटता लेकिन कितनी ही कठिन हो दैवी संपदा की फसल, एक बार जो है, आप केंद्रित होते हैं। करना शुरू कर देगा, वह पाएगा कि वह कठिनाई भी कठिन नहीं तो यह ठीक है। दैवी संपदा की फसल इतनी दुर्लभ इसलिए है। है। और एक बार स्वाद आ जाए, तो आपको पता चलेगा कि और इसलिए भी कि हमारे चारों ओर सभी लोग आसुरी संपदा को आसुरी संपदा बड़ी कठिन थी, पुरानी आदत की वजह से सरल पैदा करने में लगे हैं। और आदमी जीता है भीड़ से; भीड़ का मालूम पड़ती थी। कठिनाइयां उसमें बहुत थीं, दुख बहुत था, दुख अनुगमन करता है। भीड़ जहां जाती है, आप भी चल पड़ते हैं। ही दुख था। आपके मां-बाप, आपका परिवार, आपका समाज जो कर रहा है, | जहां फसल सरलता से हो जाती हो, लेकिन फल सदा दुख के बच्चा पैदा होता है, वही बच्चा सीख लेता है; वह भी करना शुरू | | ही हाथ लगते हों, उस सरलता का मूल्य भी क्या है? भला फसल कर देता है। कठिनाई की हो. लेकिन फल आनंद के लगते हों. तो उसे सरल आसुरी संपदा के लिए शिक्षण की काफी सुविधा है। दैवी संपदा | और सहज ही मानना होगा। के लिए शिक्षण की कोई सुविधा नहीं मालूम पड़ती। और जिस । जिन्होंने भी जाना है, उन सबने कहा है कि वह समाधि बड़ी चीज की सुविधा हो उस तरफ आसानी हो जाती है, हम उसमें | | सहज है, बड़ी सरल है; वह अंतिम उपलब्धि कठिन नहीं है। कुशल हो जाते हैं। जिस तरफ कोई सुविधा न हो, उस तरफ हमारे लेकिन हमें तो कठिन लगती है। क्योंकि हमने उस तरफ कोई कदम अंग पंगु हो जाते हैं। नहीं उठाया। हमने उस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। उस दिशा में आप चलते हैं, इसलिए पैरों में गति है, जान है। आप मत चलें, हमने कोई कदम ही नहीं उठाया है, कोई यात्रा ही नहीं की है; हमारे पैर सिकुड़ जाएंगे, पैरालाइज्ड हो जाएंगे, लकवा लग जाएगा। पैर उस तरफ पंगु हैं। 374 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन तो बैठकर सोचते मत रहें कि वह कठिन है, कुछ करें और उसे सरल बनाएं। करने से चीजें सरल होती हैं। आप कभी पानी में नहीं तैरे हैं, तो बहुत कठिन लगेगा । और आप यह भरोसा ही नहीं कर सकते कि आपको पानी में छोड़ दिया जाए, तो आप बच सकेंगे। लेकिन जो लोग तैरने की कला सिखाते हैं, वे कुछ भी नहीं करते; वे सिर्फ आपको पानी में छोड़ते हैं। पानी में छोड़ते से ही आप हाथ-पैर तड़फड़ाने लगते हैं बचाने के लिए खुद को। तैरना तो आपको आता नहीं, तैरने का तो आपको कोई पता नहीं, अपने को बचाने के लिए हाथ-पैर तड़फड़ाते हैं। यह हाथ-पैर तड़फड़ाना ही तैरने की शुरुआत है। फिर इसको ही थोड़ी व्यवस्था से फेंकने लगेंगे, तैरना हो जाएगा। थोड़ी व्यवस्था ही सीखनी है। अभी थोड़ा अस्तव्यस्त फेंकते हैं, अराजक । फिर सिस्टम हो जाएगी, फिर आप ढंग से फेंकने लगेंगे। एक दफा ढंग से फेंकना आ गया, तो आप पाएंगे कि तैरने से सरल और कुछ भी नहीं हो सकता। अभी तो तैरने में लगेगा कि जान जाने का खतरा है, अगर नहीं जानते तो। · शुरू करें! यह ऊपर की तरफ जो उड़ान है, यह भी एक तैरना है। शुरू में कठिनाई होगी; स्वाभाविक है। जैसे-जैसे अभ्यास गहन होगा, वैसे-वैसे कठिनाई बदलती जाएगी। और एक ऐसा क्षण आंता है, जब समाधि ही एकमात्र सरलता रह जाती है। तब बुरे होने से ज्यादा कठिन कुछ भी नहीं होता । अब हम सूत्र को लें। और उन आसुरी पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं, कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह भविष्य में और अधिक होवेगा । आसुरी संपदा के व्यक्ति को और की दौड़ होती है। उसके पास जो भी हो, उसे वह और बढ़ा लेना चाहता है। जो भी उसके पास हो, उतनी मात्रा उसे कभी काफी नहीं मालूम पड़ती। में आसुरी संपदा का व्यक्ति मात्रा में बड़ा उत्सुक होता है, क्वांटिटी उत्सुक होता है। दस रुपए हों, तो हजार हो जाएं; हजार हों, तो दस हजार हो जाएं; दस हजार हों, तो दस करोड़ हो जाएं; उसकी मात्रा बढ़ती जाती है। आंकड़ों में जीता है, कितने बड़े आंकड़ों का फैलाव हो जाए ! और उसकी पकड़ है। उसके पास जो भी है, वह कम है। दूसरी बात, उसके पास जो भी है, उसमें उसे कोई सुख नहीं है। सुख सदा वहां है, जो उसके पास नहीं है। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को सुख सदा आकाश में कहीं दूर है। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति आशा में जीता है। जो उसके पास है, उसमें तो कुछ खास रस नहीं है। ठीक है । जो नहीं है, आनंद वहां छिपा है। और जब तक वह उसे न पा ले, तब तक आनंदित | न हो सकेगा। वह दौड़ता रहता है। आज नष्ट करता है कल के लिए। कल को फिर नष्ट करेगा और आगे आने वाले कल लिए। ऐसे पूरे जीवन को वह नष्ट करता जाएगा और जीने को पोस्टपोन करता रहेगा। वह कहेगा कि कल जब सब मेरे पास होगा, तब मैं जीऊंगा। जर्मनी का एक विचारक हुआ। उसके पास बहुत धन था, और अध्ययन की बड़ी रुचि थी, और बड़ी आकांक्षा थी कि जितना ज्यादा से ज्यादा जान सकूं, जान लूं। तो उसने दुनियाभर से जो भी अनूठी से अनूठी पुस्तकें हों, दुर्लभ शास्त्र हों, अनेक भाषाओं के शास्त्र इकट्ठे करने शुरू कर दिए। उसके पास विशाल पुस्तकालय खड़ा हो गया । पचासों भाषाओं की पुस्तकें उसके पास इकट्ठी हो गईं। ऐसा कोई ग्रंथ नहीं था दुनिया में, जो उसने खोजकर इकट्ठा न कर लिया हो। लेकिन यह इकट्ठा करते-करते उसने पाया कि वह नब्बे वर्ष का हो गया है। जब उसे होश आया कि इकट्ठा तो मैंने कर लिया, लेकिन | इसको मैं पढूंगा कब ! और कहते हैं, यह धक्का उस पर इतना भारी पड़ा कि यह धक्का ही उसकी मृत्यु का कारण हुआ। और यह नब्बे वर्ष वह रोज सोच रहा था, कल! कल! और इकट्ठा हो जाए ! और इकट्ठा हो जाए ! पहले इकट्ठा कर लूं, फिर अध्ययन कर लूंगा, फिर ज्ञान को उपलब्ध हो जाऊंगा। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति भी ऐसे ही दौड़ता रहता है। धन | इकट्ठा करता है। पद इकट्ठा करता है। उसे सुविधा तो कभी मिल ही नहीं पाती कि वह उसका उपयोग कर ले। आगे की दौड़ उसे पकड़े रहती है। और रोज को वह कुर्बान करता है। भविष्य के लिए, वर्तमान को वह बलि चढ़ाता है भविष्य के लिए। और ध्यान रहे, वर्तमान के अतिरिक्त किसी चीज की कोई सत्ता नहीं है । भविष्य तो बिलकुल सपना है। जो आज को खो रहा है | कल के लिए, वह आज को व्यर्थ ही खो रहा है। और एक बार यह आदत बन गई आज को खोने की, तो मैं सदा आज को खोता रहूंगा। और जब भी समय आता है, वह आज की तरह आता है; कल तो कभी आता नहीं । 375 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * और यह जो और की दौड़ है, इसका कोई भी अंत नहीं हो | का फल नहीं है। सकता, क्योंकि यह हर चीज पर जुड़ जाएगी। जो भी आप पा लेंगे, तो यह विरोधाभासी बात आप समझ लें। आसुरी संपदा वाला आपका आसरी संपदा वाला मन कहेगा, और। आप सोच भी नहीं सोचता है. और। और। और। और जितना सोचता है उतना कम सकते कोई ऐसी स्थिति, जब आपका मन कहे कि बस, काफी! । | होता जाता है, क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है। दैवी संपदा वाला __आप सोचें, कभी एकांत में बैठकर यही सोचें कि कितना धन | | और का विचार नहीं करता, जो है, उसको पूरे के पूरे समस्त भाव आपको मिल जाए, तो आपका मन और नहीं कहेगा। तो आप | | से स्वीकार करके डूबता है। इस डूबने से और निकलता है, और अपने साथ ही खेल में पड़ जाएंगे। पहले सोचेंगे, दस करोड़। बहुत कुछ उसे मिलता है। लेकिन भीतर-अभी कोई दस करोड़ दे भी नहीं रहा है, मिल भी । जीसस से किसी ने पूछा कि क्या यह भी हो सकता है कि हम नहीं गए हैं लेकिन भीतर कोई कहेगा, इतने कम पर राजी क्यों | परमात्मा को भी खोजें और संसार के सुख भी हमें मिल जाएं? तो होते हो जब दस अरब हो सकते हैं! जीसस ने कहा, तुम संसार के सुखों की बात सोचो ही मत। फर्स्ट तो जो आपको आखिरी संख्या मालूम है, वहां तक तो आपका | यी सीक दि किंगडम आफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड मन दौड़ाएगा। और आखिरी संख्या पर भी आपको बेचैनी अनुभव अनट य। पहले तम परमात्मा को खोज लो. फिर सब उसके पीछे होगी कि और गणित क्यों न सीख लिया! और गणित जानते, तो चला आएगा। आज यह मुसीबत तो न होती। आज अटक गए यहां आकर, दस वह जो परमात्मा का तलाशी है, दैवी संपदा का जो व्यक्ति है, महाशंख या एक करोड़ महाशंख, कहां अब...जो संख्या आती | वह इसी क्षण में परमात्मा की तलाश कर रहा है। शेष सब भी आता है, वह भी छोटी मालूम पड़ेगी। सारी दुनिया आपको मिल जाए, | है, लेकिन उस शेष सबकी उसकी कोई मांग नहीं है। तो भी छोटी मालूम पड़ेगी। जितनी हो मांग कम, उतना ज्यादा मिलता है। जो मांगते हैं, सिकंदर को किसी ने कहा कि तू जीत तो रहा है दुनिया को, भिखारी रह जाते हैं। जो नहीं मांगते, सम्राट हो जाते हैं। जीवन बड़ा लेकिन अगर तूने दुनिया जीत ली तो मुश्किल में पड़ेगा। सिकंदर पहेली से भरा हुआ है! जो मांगते हैं, भिखारी रह जाते हैं। उनके ने कहा, कौन-सी मुसीबत होगी? जिसने कहा था, वह था | | पास जो है, वह भी छिन जाता है। जो नहीं मांगते, सम्राट हो जाते डायोजनीज, एक फकीर। उसने कहा, तब तुझे पता चलेगा कि | | हैं; जो उनके पास नहीं था, वह भी मिल जाता है। दूसरी दुनिया नहीं है; मुसीबत में पड़ जाएगा। एक दफे पूरी दुनिया | जीसस का एक बहुत विरोधाभासी वचन है। जीसस ने कहा है, जीत ली, तब तुझे पता चलेगा कि दूसरी दुनिया नहीं है। | अगर तुम मांगोगे, तो जो तुम्हारे पास है, वह भी छीन लिया और कहते हैं कि सिकंदर उसी क्षण उदास हो गया। और उसने | | जाएगा। और अगर तुम बांटोगे, तो जो तुम्हारे पास नहीं है, वह भी कहा कि ऐसी उदासी की बातें मत करो। पहले मुझे एक तो जीतने | दे दिया जाएगा। दो। लेकिन चित्त उसका उदास हो गया यह बात सोचकर ही कि | ऐसा ही है और ऐसा ही प्रतिपल हो रहा है। जो-जो आपने जीवन एक जीतने के बाद फिर दूसरी कोई दुनिया नहीं है। और कहीं भी | में मांगा है, वह कुछ भी आपके पास है नहीं। जो-जो आपने जीवन थकेगा नहीं, और की मांग चलती ही जाएगी। | में दिया है, छोड़ दिया है, वह सब आपके पास है। जिसे हम छोड़ दैवी संपदा वाला व्यक्ति आज, यहीं जो उसके पास है, जो वह | | देते हैं, वह सदा के लिए हमारा हो जाता है। और जिसे हम पकड़ है, उसको परिपूर्णता से जीता है। इसका यह अर्थ नहीं कि उसका | | लेते हैं, वह सदा के लिए बोझ हो जाता है, और छूटने की तैयारी विकास नहीं होता। उसका ही विकास होता है। और भी निकलता करता रहता है। है आज से, लेकिन वह उसकी मांग नहीं करता। वह आज को जीने | | मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा से उसका और निकलता है। और उसकी मांग नहीं है, उसके जीवन | | मेरे पास यह इतना धन है फिर भी यह भविष्य में और अधिक का फल है। होएगा। तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी संपदा वाला व्यक्ति आज तो जीता नहीं, और को मैं मारूंगा। मैं ऐश्वर्यवान हूं, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सोचता रहता है। उसका और केवल मन पर दौड़ रहा है; वह जीवन | | सब सिद्धियों से युक्त बलवान एवं सुखी हूं। | 3761 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन * यह बड़ा समझने जैसा है। शाह फारूख को भी लगा कि यह आदमी देखकर चकित हो रहा हमेशा आसुरी संपदा वाला व्यक्ति दूसरों को नष्ट करने की है, हैरान हो रहा है। तो उसने कहा, चकित होने की कोई बात नहीं कामना से भरा रहता है. कैसे दसरों को मिटा दं। क्योंकि वह है: ये सब मेरे नौकर हैं और मेरी आज्ञा मानना उनका फर्ज है। और सोचता है, जब कोई भी न होगा, तब मैं परिपूर्ण हो जाऊंगा। अगर | शाह फारूख ने अपने प्रधानमंत्री से, जो उसके साथ ताश खेल रहा इस पृथ्वी पर कोई न हो, तो मैं ही सम्राट होऊंगा। तो जो भी मेरे था, उससे कहा कि धोखा देने की कोई जरूरत नहीं, बस हार विपरीत है, उसको मिटा दं; जो भी मुझसे अन्यथा है, उसको नष्ट जाओ। उसी वक्त उसने पत्ते डाल दिए और हार गया। कर दूं ताकि मेरा साम्राज्य अबाध हो। यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, दुश्मनों को मिटा डालता दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे को मिटाने का विचार नहीं करता। | है, क्योंकि वे झुकने को तैयार नहीं होते। मित्रों को पोंछ डालता है, दैवी संपदा का व्यक्ति अपने को मिटाने का विचार करता है। इस | | उनके जीवन में कुछ सत्व नहीं बचने देता। आसुरी संपदा वाले फर्क को ठीक से समझ लें। क्योंकि वह कहता है, जब तक मैं हूं, व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा कि वह आपको चूस रहा तभी तक कष्ट रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा, शून्य हो जाऊंगा, तब है, नष्ट कर रहा है। आनंद हो जाएगा। दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा कि वह दैवी संपदा के व्यक्ति का साम्राज्य उसके अहंकार के खो जाने | आपको जीवन दे रहा है। आपकी कुम्हलाई हुई जिंदगी फिर से ताजी पर उपलब्ध होता है। आसुरी संपदा के व्यक्ति के साम्राज्य की हो रही है। दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा. आकांक्षा दूसरों को मिटाने में है, कितना मैं दूसरों को मिटा दूं। आपका भी मूल्य है; आप भी स्वीकार किए गए हैं, स्वागत है। आसुरी संपदा का व्यक्ति आपको जिंदा छोड़ सकता है, अगर | आप भी एक धन्यता हैं। छोटे से छोटे व्यक्ति को भी दैवी संपदा आप उसके सामने मुरदे की भांति हो जाएं। आसुरी संपदा का | | वाले व्यक्ति के पास बैठकर लगेगा, उसका कोई मूल्य है; जगत व्यक्ति विवाह करे, तो पत्नी को वस्तु बना देगा; वह मार डालेगा | में उसका भी कोई अर्थ है। वह व्यर्थ नहीं है, बोझ नहीं है। बिलकुल। उसको इस हालत में कर देगा कि उसमें कोई जीवन न | आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ व्यक्ति को बचे। वह कहे रात, तो रात। वह कहे दिन, तो दिन। आसुरी संपदा | भी बैठकर लगेगा, उसका जीवन तुच्छ है। जिसके पास पहुंचकर की स्त्री हो, तो पति को बिलकुल मिट्टी कर देगी। उसको छाया की आपको ऐसा लगे कि आपको तुच्छ किया जा रहा है, तो समझना भांति चलाना चाहेगी। आसुरी संपदा का पिता हो, तो बेटों को पोंछ कि आसुरी संपदा काम कर रही है। अगर आप दूसरों को तुच्छ देगा। उनको बड़ा करेगा, लेकिन ऐसे, जैसे वे मुरदे हैं। उनकी कोई करने की वृत्ति से भरे हों, तो समझना कि आप आसुरी संपदा से स्वतंत्रता, उसकी कोई गरिमा नहीं बचने देगा। भरे हैं। आसुरी संपदा का व्यक्ति दुश्मनों को मार डालता है। मित्रों को दूसरे की गरिमा और गौरव को स्वीकार करने का आपका मन मरे हुए कर देता है। उससे मित्रता रखनी हो तो मुरदा होना जरूरी है। | हो, दूसरे का निजी मूल्य है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य मैं आज ही इजिप्त के शाह फारूख के जीवन के संबंध में कुछ | है, वह कोई साधन नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में परम पढ़ रहा था। एक व्यक्ति ने संस्मरण लिखा है। वह व्यक्ति | मूल्य है, अल्टिमेट वैल्यू है। अगर दूसरे व्यक्ति के प्रति आपका जड़ी-बूटियों के द्वारा चिकित्सा करता है। तो शाह फारूख ने उसे | ऐसा सदभाव हो, तो आप में दैवी संपदा का जन्म होगा। अपने इलाज के लिए बुलाया था। जब वह पहुंचा, तो शाह फारूख ___ जर्मनी के बहुत बड़े विचारक इमेनुएल कांट ने अपने नीति-शास्त्र अपने मंत्रियों के साथ ताश खेल रहा था, जुआ खेल रहा था। | का एक आधार-स्तंभ रखा है। और वह आधार-स्तंभ है कि दूसरे उसका प्रधानमंत्री, उसके और मंत्री। यह व्यक्ति भी बैठकर | व्यक्ति को साधन की तरह मत देखो, साध्य की तरह देखो। चुपचाप देखता रहा। क्योंकि जब फारूख निपट ले, तब बात हो! दूसरा व्यक्ति आपका साधन नहीं है कि आप उसका उपयोग कर यह देखकर हैरान हुआ कि चाहे पत्ते मंत्रियों के पास अच्छे हों, | लो। दूसरा व्यक्ति अपने आप में साध्य है, उसका उपयोग करना तो भी शाह फारूख ही जीतता है। चाहे उसके पत्तों में कोई जानन गलत है। उसका उपयोग करने का ह हुआ कि आप उससे हो, तो भी वही जीतता है। वस्तु की तरह व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन हमारी हालत यह है कि 377] Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * हमें अपनी वस्तु, मुरदा वस्तु भी एक जीवित व्यक्ति से ज्यादा | पर जोर क्यों देते हैं? कुछ कारण है। और वह कारण यह है कि मालूम पड़ती है। जिस व्यक्ति को भी सृजन पकड़ लेता है, जो व्यक्ति भी अपने मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक ट्रेन में सफर कर रहा था। | जीवन में स्रष्टा हो जाता है, उसे परमात्मा का अनुभव शुरू होता बड़ी खचाखच भीड़ थी उस डिब्बे में और वह अपना लोहे का बड़ा | | है। इस अनुभव से यह प्रमाण मिलता है कि इस जगत की गहनतम वजनी संदूक ऊपर की सीट पर चढ़ाने की कोशिश कर रहा था। | स्थिति सृजनात्मक है। परमात्मा स्रष्टा है, यह स्रष्टा अगर हम हों, नीचे बैठी एक स्त्री ने कहा कि महानुभाव, वहां मत रखिए, ऊपर | | तो हमें पता चलता है। गिर पड़ेगा। वजनी बहुत है, और बहुत भारी और लोहे का है। | अगर आप एक गीत भी जन्म दे सकें, तो उस गीत को.जन्म देने नसरुद्दीन ने कहा, देवी जी, आप बिलकुल बेफिक्र रहिए; उसमें | के क्षण में आप में परमात्म-भाव प्रकट होता है। आप एक चित्र भी टूट जाने वाली कोई भी चीज नहीं। बना सकें, एक मूर्ति खोद सकें, एक बच्चे को निर्मित कर सकें, वह जो महिला बैठी है, उसका सिर टूट जाने का सवाल ही नहीं | बड़ा कर सकें-कुछ भी-एक पौधे को भी आप सम्हाल लें, है। उनके संदूक में टूटने वाली कोई चीज नहीं है। | और उसमें फूल आ जाएं, तो उन क्षणों में जो आपको प्रतीति होती हम सबकी जीवन-दशा ऐसी है। दूसरे का सिर भी कम कीमत | है, वह परमात्मा की छोटी-सी झलक है। का है, हमारा संदूक भी ज्यादा कीमती है। व्यक्ति का हमारे लिए विध्वंस परमात्म-विरोध है; सृजन परमात्मा की तरफ प्रार्थना है। कोई मूल्य नहीं है। | और जो प्रार्थना सृजनात्मक न हो, वह प्रार्थना बांझ है, उस प्रार्थना आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के लिए व्यक्ति है ही नहीं, व्यक्तित्व | का कोई भी मूल्य नहीं। मंदिर में बैठकर आप चीख-पुकार करते की कोई गरिमा नहीं है। शत्रुओं को वह नष्ट करना चाहता है। और | रहें, उससे कुछ बहुत हल होने वाला नहीं है। उतनी शक्ति सृजन निरंतर सोचता है, आज शत्रु को मारा; वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, में लग जाए, तो प्रार्थना सजीव हो उठेगी। जब आप स्रष्टा होते हैं, दूसरों को भी मैं कल मारूंगा! वह सदा मारने की तैयारी में लगा | | तभी आप परमात्मा के निकट होते हैं। है। उसकी चिंतना विध्वंस की है। वह मृत्यु का आराधक है। वह | आसरी संपदा वाला व्यक्ति. मैं ऐश्वर्यवान हं. ऐश्वर्य को यमदूत है। भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान हूं और ठीक उससे विपरीत सृजन की जो आराधना है, क्रिएटिविटी, कि सुखी हूं, ऐसी मान्यता रखता है। मैं कुछ निर्मित करूं, कुछ बनाऊं; जहां कुछ भी नहीं था, वहां कुछ । सुखी तो होता नहीं, लेकिन मान्यता ऐसी रखता है कि मैं सुखी निर्मित हो; जहां जमीन खाली पड़ी थी, वहां एक पौधा उगे; कुछ | हूं; ऐसा अपने को समझाता है। यह बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य है। बने-वह जो सृजन की आराधना है, वही ईश्वर की तरफ जाने का | हम जो नहीं होते, अपने को समझाने की कोशिश करते हैं। कमजोर मार्ग है। आदमी अपने को शक्तिशाली समझता है। कमजोर आदमी अपने इधर मैं आपको कहना चाहूं कि दुनिया के सभी धर्मों ने ईश्वर | | को समझाता है कि मैं महाशक्तिशाली हूं। को स्रष्टा कहा है। ईश्वर को स्रष्टा सिद्ध करना आसान नहीं। | मैं एक स्कूल में पढ़ता था। मेरे जो हिंदी के शिक्षक थे, वे कक्षा दुनिया की कभी सृष्टि हुई है, इसके लिए प्रमाण जुटाना आसान | में हमेशा, पहले दिन से ही आना शुरू हुए, तो अपनी बहादुरी की नहीं। और एक बात तो निश्चित है कि उस सृष्टि के क्षण में हममें | बातें करते थे, कि मैं इतना हिम्मतवर हूं, कि चाहे अमावस की रात से कोई भी नहीं था, इसलिए कोई गवाही नहीं दे सकता। और जो हो तो भी मरघट पर चला जाता हूं। भी हम कहेंगे, वह सिर्फ कल्पना होगी। क्योंकि अगर हम मौजूद दो-चार बार मैंने उनसे सुना, तो मैंने एक बार उनसे पूछा कि थे, तो सृष्टि उसके पहले ही हो चुकी थी। मुझे शक होता है। इसमें कोई बहादुरी की बात भी नहीं है। और तो सृष्टि के प्राथमिक क्षण का तो हमें कोई पता नहीं है। हम कहने की तो कोई जरूरत भी नहीं। आपके भीतर डर है। मरघट कल्पना कर सकते हैं कि परमात्मा ने बनाई, कि नहीं बनाई, कि | आप जा नहीं सकते। क्या हुआ। लेकिन वह सिर्फ मानसिक विलास होगा। ___ उनके चेहरे पर पसीना आ गया। उन्होंने कहा, तुम्हें कैसे पता लेकिन फिर भी दुनिया के अधिक धर्म परमात्मा के स्रष्टा होने चला? मैंने कहा, पता चलने की बात ही नहीं। आप इतनी दफा 378 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन * दोहराते हैं। यह दोहराना बताता है कि आप अपने को समझा रहे हैं। सौंदर्य की तलाश करने लगता है। कुरूप आदमी दोहराता रहता है कि मैं सुंदर हूं। मूढ़ समझाता एक आदमी खड़ा हो गया और उसने कहा कि क्या यह बात रहता है कि मैं बुद्धिमान हूं। कमजोर समझाता रहता है कि मैं | आप पर भी लागू है? एडलर कुछ समझा नहीं। वह आदमी बड़ी ताकतवर हूं, और इसको सिद्ध करने की जगह-जगह कोशिश भी गहरी मजाक कर रहा था। उसने कहा कि क्या इसका मतलब है कि करता है। क्योंकि अपने से कमजोर आदमी तो खोज लेना हमेशा | | जिसका मन कमजोर होता है, वह मनोवैज्ञानिक हो जाता है! आसान है। अपने से मूढ़ भी खोज लेना आसान है। जगत इतना लेकिन एडलर की बात में सचाई है। बड़ा है; आप अकेले नहीं हैं। काफी जगह है। कृष्ण भी वही बात कह रहे हैं; कह रहे हैं कि ऐसा आदमी सुखी तो वह जो कमजोर आदमी है, अपने से कमजोर खोज लेता है। होता नहीं, हो नहीं सकता, लेकिन मानता है कि मैं सुखी हूं। और उनकी छाती पर चढकर वह सिद्ध कर लेता है कि मैं निश्चित ही | गौरव से इसका प्रचार करता है कि मैं सुखी हूं। उसके प्रचार के बलवान हूं। आप अपने से मूढ़ को खोज लेते हैं! कारण आप भी धोखे में आ जाते हैं। और ध्यान रहे, हम सदा यही कोशिश करते हैं कि हमसे | ___ आपके राजनीतिज्ञ हैं, बड़े पदों पर हैं। उनको देखकर बाहर से कमजोर, हमसे मूढ़ हमें मिल जाए। क्योंकि उसके पास हम बड़े | | आपको ऐसा लगेगा कि बड़े प्रसन्न हैं, फूलमालाएं डाली जा रही मालूम होते हैं। लगता है, हम कुछ हैं। इससे प्रतीति हम अपने | हैं, और बड़ा आनंद ही आनंद है। काश, उनके जीवन में आपको भीतर कर लेते हैं कि सब ठीक है। झांकने का मौका मिल जाए, तो वे बड़े दुखी हैं और बड़े परेशान पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ, एडलर। उसने एक हैं। और किसी तरह अपनी फजीहत न हो जाए बिलकुल, इसको मनोविज्ञान को जन्म दिया, इंडिविजुअल साइकोलाजी। और उस | बचाने में लगे हुए हैं। और फजीहत पूरे क्षण हो रही है। लेकिन वे मनोविज्ञान का आधार-स्तंभ उसने हीनता की ग्रंथि बनाया। उसका | जब बाहर निकलते हैं, तो मुस्कुराते निकलते हैं। कहना है कि जिस व्यक्ति में जो चीज हीन होती है, वह उसके । उनकी मुस्कुराहट बिलकुल ऊपर से पोती गई है, पेंटेड है, विपरीत रूप अपने आस-पास खड़ा करता है, ताकि खुद भी भूल | | क्योंकि भीतर वे रो रहे हैं और परेशान हैं। और एक क्षण की उनको जाए, दूसरे भी भूल जाएं। उसने बड़ा गहरा अध्ययन किया और | सुविधा नहीं है, सुख नहीं है, शांति नहीं है। लेकिन बाहर वे उसने कहा कि जितने लोग दुनिया में जिन-जिन चीजों के पीछे | | दिखलाने की कोशिश करते हैं कि बड़े प्रसन्न हैं, बड़े आनंदित हैं। पागल होते हैं, वह पागलपन बताता है कि वही उनकी कमजोरी है। उससे आपको भी भ्रम पैदा होता है। हिटलर जैसा व्यक्ति, यह किसी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। आप भी जब घर से बाहर निकलते हैं, तो दूसरों को भ्रम पैदा और जब तक वह अपने को नहीं समझा लेगा कि मैं सारी दुनिया करवाते हैं कि बड़े प्रसन्न हैं। घर में कोई मेहमान आ जाए, तो . का मालिक हो गया, तब तक उसको शांति न मिलेगी। जो लोग | पति-पत्नी ऐसी प्रेमपूर्ण बातें करने लगते हैं, जैसी उन्होंने कभी नहीं पैर से कमजोर हैं, वे दौड़ने की कोशिश करते हैं। की। घर में कोई न हो, तब उनका असली रूप दिखाई पड़ता है। विपरीत की कोशिश चलती है, ताकि हम अपने को भी दिखा | | शिष्टाचार है, सभ्यता है। दें, दुनिया को भी दिखा दें कि नहीं, यह बात नहीं है। कौन कहता मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन अपने पति से बोली कि है कि हम कमजोर हैं! कौन कहता है हमारे पैर कमजोर हैं! कौन | | पच्चीस साल हो गए विवाहित हुए-कोई मेहमान घर आया था, कहता है हमारी आंख कमजोर है! उसके सामने ही उसने यह बात उठानी ठीक समझी, नसरुद्दीन वह एक जगह बोल रहा था, तो एक बड़ी मजेदार घटना घटी।। | शायद लज्जित हो जाए-पच्चीस साल हो गए, मैं इस घर में वह समझा रहा था कि जिन लोगों में जो-जो चीज की हीनता होती | बंदिनी होकर रह रही हूं। कभी हम एक बार भी एक साथ घूमने भी है, उस-उस की वे तलाश में जाते हैं। जैसे जिस आदमी को गरीबी घर के बाहर नहीं निकले! की बड़ी ग्लानि होती है, वह धन की कोशिश करता है। जिस | नसरुद्दीन ने कहा, फजलू की मां, बात का इतना बतंगड़ मत आदमी को अपने पद में हीनता दिखाई पड़ती है, वह पद-प्रतिष्ठा, | बनाओ। इतनी बात बढ़ा-चढ़ाकर मत कहो। अतिशयोक्ति की राष्ट्रपति होने की दौड़ में लग जाता है। जो कुरूप होता है, वह | | तुम्हें आदत हो गई है। जब एक बार घर में स्टोव फट गया था, तो 379 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * हम दोनों साथ-साथ बाहर निकले थे कि नहीं? जाती है। वह सुविधा यह है कि उसको लगता है कि मैं कोई बुरा घर-घर में वैसा है। लेकिन बाहर पति-पत्नी को देखें, सिनेमा आदमी नहीं हूं। की तरफ जाते, बाजार की तरफ जाते, तो ऐसा लगेगा कि परम सुख आप भी सब यह करते हैं। अच्छी-अच्छी बातें सोचते हैं, भोग रहे हैं। करेंगे! ऐसा सोचने से खुद को भी लगने लगता है कि जब करने हर कहानी कहती है, जहां शादी हो जाती है राजकुमारी और की सोच रहे हैं, तो कर ही रहे हैं। और देरी क्या है, आज नहीं तो राजकुमार की, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे। यहीं खतम हो जाती कल करेंगे, लेकिन करना तो निश्चित है! है। और इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता। यहीं से दुख की कभी आप करने वाले नहीं। क्योंकि पचास साल जी चुके, इस शुरुआत होती है। उसके पहले थोड़ा-बहुत सुख रहा भी हो कल्पना | पचास साल में कभी नहीं किए। आगे कैसे करेंगे? कौन करेगा? में, आशा में। लेकिन सब कहानियां यहीं बंद हो जाती हैं। यह आप ही करने वाले हैं, और आप रोज टालते जाते हैं। उचित भी है, क्योंकि इसके बाद आगे बात उठानी अशिष्टाचार की | | बुरे को आप आज कर लेते हैं, अच्छे को सोचते हैं, करेंगे। होगी। यहीं बंद कर देना ठीक है। | उससे मन में खयाल बना रहता है कि में कोई बुरा आदमी नहीं हूं। हम सब बाहर एक रूप बनाए हुए हैं। सुखी नहीं हैं, लेकिन | अगर मजबूरी की वजह से थोड़ा बुरा करना भी पड़ रहा है, तो यह दिखा रहे हैं कि सुखी हैं। दीन हैं, लेकिन दिखा रहे हैं कि दीन नहीं | | तो केवल अस्थायी है, यह तो परिस्थितिवश है। लेकिन भाव तो हैं। चाहे हमें उधार चीजें लेकर भी प्रभाव पैदा करना पड़े, घर में | | मेरा अच्छा करने का है। उस भाव के कारण बुरा आदमी अपनी कोई मेहमान आ जाए, तो पड़ोस से सोफा उठा लाना पड़े, तो भी | | बुराई को झेलने में समर्थ हो जाता है। उस भाव के कारण बुरा कोई बात नहीं, लेकिन हम दिखा रहे हैं। आदमी बुराई के कांटे को चुभने नहीं देता। वह भाव सुरक्षा बन आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपनी दीनता को छिपाकर उसका जाता है। विपरीत रूप प्रकट करता रहता है। तो वह कहता है, मैं ऐश्वर्यवान | मैं यज्ञ करूंगा, दान करूंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार हूं। वह कहता है कि मैं ऐश्वर्यों का भोगने वाला हूं। वह कहता है | | के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित है। यह उसकी आटो-हिप्नोसिस कि मैं सब सिद्धियों से युक्त हूं; कि मैं बलवान हूं, मैं सुखी हूं। है, यह उसका मोह है। ये कोई भी बातें सच नहीं हैं। ये बातें तो सच होती हैं दैवी संपदा | __यह मोहित शब्द समझ लेने जैसा है। मोहित का अर्थ है कि ऐसे वाले को, कि वह ऐश्वर्यवान हो जाता है, ईश्वर हो जाता है कि | भाव से वह अपने को समझा लेता है। और जो समझा लेता है, सारी सिद्धियां उसे सिद्ध हो जाती हैं; कि सारे सुख, सारी शक्तियां | | वैसा ही हो जाता है। वह मानने ही लगता है, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, उसके ऊपर बरस जाती हैं। यह घटना तो घटती है दैवी संपदा वाले | बिना दान किए मानने लगता है कि मैं दानी हूं; क्योंकि दान करने को। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानकर चलता है कि ऐसा है; और | का विचार करता है। बिना दिए दाता बन जाता है! क्योंकि इतनी इसका प्रचार भी करता है। और प्रचार अगर ठीक से किया जाए, तो | बार सोचा है, सोचते-सोचते हमारे मन में लकीरें पड़ जाती हैं। दूसरों को भी भरोसा आ जाता है। और अगर दूसरों को भरोसा आ पश्चिम में एक विचारक हुआ एमाइल कुए। वह लोगों को जाए, तो हो सकता है, जिसने प्रचार किया है, उसको भी भरोसा आ | कहता था, कुछ और करने की जरूरत नहीं; जो भी तुम होना चाहते जाए; कि इतने लोग मानते हैं, तो ठीक ही मानते होंगे। हो, उसको सोचो। अगर तुम स्वस्थ होना चाहते हो, तो निरंतर मैं बड़ा धनवान, बड़े कुटुंब वाला हूं, मेरे समान दूसरा कौन है! सोचते रहो कि मैं स्वस्थ हो रहा हूं, स्वस्थ हो रहा हूं, स्वस्थ हो मैं यज्ञ करूंगा, दान देऊंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा-इस प्रकार के गया हूं। अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित है। इसका परिणाम होगा। इसके परिणाम होते हैं। भला आप स्वस्थ यह कुछ करने वाला नहीं है; न वह यज्ञ करने वाला है, न वह | हों या न हों, लेकिन आपको प्रतीति होने लगती है कि आप स्वस्थ दान देने वाला है; लेकिन सोचता है कि मैं दूंगा। अच्छी बातें वह | हो गए। सदा सोचता है कि मैं करूंगा, करता तो सब बुरी बातें है, लेकिन । एक घटना है, एमाइल कुए का एक मित्र एक दिन रास्ते पर उसे सोचता हमेशा अच्छी बातें है। इस सोचने से एक बड़ी सुविधा हो | | मिला। तो कुए ने पूछा कि तुम्हारी मां की तबियत अब कैसी है? | 380/ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन * तो उसके मित्र ने कहा कि अब तो तबियत बड़ी खराब है। बीमारी | दान करूंगा। तो चोरी का पाप और जो दंश है, वह मिट जाता है। बढ़ती जा रही है; बुरी तरह बीमार है मेरी मां। बचने की कोई उम्मीद | | फिर आपको लगता है कि आप एक काम, एक धार्मिक काम ही नहीं है। एमाइल कुए ने कहा, गलत। यह सिर्फ उसका खयाल है। कर रहे हैं। अमीर से छीन रहे हैं, गरीब को देंगे। यह खयाल है उसका कि वह बीमार है। यह खयाल मिट जाए, वह | छीन आप अभी रहे हैं. देने की बात कल्पना में है। वह देना कभी ठीक हो जाएगी। होने वाला नहीं है। क्योंकि छीनने वाला चित्त देगा कैसे? वह मौका फिर कुछ दिन बाद दुबारा रास्ते पर मिलना हुआ, तो एमाइल लगेगा तो गरीब से भी छीन लेगा। सोचेगा, और भी गरीब हैं इससे कुए ने पूछा कि अब तुम्हारी मां की कैसी हालत है ? तो उसने कहा, ज्यादा, उनको दूंगा। और आखिर में वह पाएगा, अपने से ज्यादा अब उसका खयाल है कि वह मर गई है। पहले खयाल था, आपने गरीब कोई भी नहीं है। इसलिए जितना छीन लिया, उसे अपने काम बताया था, कि बीमार है। अब मर गई है, तब यही समझना चाहिए | में ले आना चाहिए। कि उसका खयाल है कि मर गई है! मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने पड़ोसी के घर में गया, और अगर आप एक विचार को बहुत बार दोहराते रहे हैं, तो उसकी | | उसने कहा कि क्या आप कुछ विचार करेंगे! एक बूढ़ी विधवा, जो एक तंद्रा आपके आस-पास निर्मित हो जाती है, वह सम्मोहन है। दस साल से मकान में रह रही है और दस साल से किराया नहीं और बुरा आदमी अपने को सम्मोहित किए रहता है भले विचारों चुका पाई है। और किराया चुकाने का कोई उपाय भी नहीं है। आज से, हर्ष को उपलब्ध होऊंगा, दान करूंगा...। उसे उसका मकान मालिक मकान के बाहर निकाल रहा है। कुछ सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जब मरा, तो उसने वसीयत सहायता करें। तो जिससे उसने सहायता मांगी थी, सोचकर कि यह लिखी। जब वह वसीयत लिखवा रहा था. उसने कहा कि इतना मेरी बढा आदमी बेचारा उस वद्धा की सहायता के लिए आया है. उसने पत्नी को, इतना मेरे बेटे को, इतना मेरी बेटी को। संपत्ति का | कहा, जो भी आप कहें, मैं सहायता करूंगा। कुछ रुपए उसने दिए। विभाजन किया कि आधा मेरी पत्नी को, फिर आधे का आधा मेरे | और उसने कहा, मित्रों को भी कहूंगा। लेकिन आप कौन हैं उस बेटे को, फिर उसके आधे का आधा लड़की को...। यह सब | वृद्धा के? बड़े दयालु मालूम पड़ते हैं। बांटकर और उसने कहा कि अब जो भी बचे, वह गरीबों को। नसरुद्दीन ने कहा, मैं! मैं मकान मालिक हूं। दस साल से वृद्धा वह जो वकील लिख रहा था, उसने कहा कि बचता तो अब बिना किराया दिए रह रही है। इसमें कुछ भी नहीं है। मल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि बचने का वह सोच रहा है कि वद्धा की सहायता करने चला है। सवाल ही नहीं है; वह तो मुझे पता है। है तो मेरे पास कुछ भी नहीं, यह जो हमारा चित्त है, यह बड़े प्रवंचक नुस्खे जानता है और इसीलिए तो कह रहा हूं, आधा मेरी पत्नी को; संख्या नहीं लिखवा | उनके उपयोग करता है। और बहुत दिन उपयोग करने पर आपको रहा हूं। है तो कुछ भी नहीं। मिलना तो पत्नी को भी कुछ नहीं है, उनका पता भी चलना बंद हो जाता है। बेटे को भी, लेकिन मरते वक्त अच्छे खयाल...। और फिर जो | वे अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप बच जाए, वह गरीबों को! और कहा है धर्मशास्त्रों में कि अच्छे | | जाल में फंसे हुए एवं विषय-भोगों में अत्यंत आसक्त हुए अपवित्र खयालों से जो मरता है, वह अच्छे लोक को उपलब्ध होता है। यह | नरक में गिरते हैं। तो अच्छे खयाल की बात है। नरक से कुछ अर्थ नहीं है कि कहीं कोई पाताल में छिपा हुआ बुरा आदमी निरंतर अच्छे खयाल सोचता रहता है। और एक कोई पीड़ागृह है, जहां उनको गिरा दिया जाता है। ये केवल प्रतीक तंद्रा निर्मित करता है अपने आस-पास। बार-बार पुनरुक्त करने से | | हैं। ऐसी भावनाओं में जीने वाला व्यक्ति नरक में गिर ही गया। वह सुझाव भीतर बैठ जाते हैं। वह सोचता है, हर्ष को प्राप्त होऊंगा, | नरक में जीता ही है। उसके भीतर प्रतिपल आग जलती रहती है दान दूंगा, यज्ञ करूंगा। लेकिन यह सब भविष्य, करूंगा। करता | विषाद की, दुख की, पीड़ा की। उसका संताप गहन है। क्योंकि नहीं। करता इनके विपरीत है, छीनता है। जिसने कभी सुख न बांटा हो, उसे सुख नहीं मिल सकता। और अगर आप चोरी करने जा रहे हों, और चोरी करते वक्त आप । | जिसने सदा दुख ही बांटा हो, उसे दुख ही घनीभूत होकर मिलता है। सोचें कि हर्ज क्या है, अमीर से छीन रहा हूं, गरीब को बांट दूंगा, वह दुख उस पर बरसता रहता है। उस दुख की वर्षा ही नरक है। 381| Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 जो हम देते हैं, वह हमारे पास अनंतगुना होकर लौट आता है। फिर हम सुख दें तो, हम दुख दें तो हम वही अर्जित कर लेते हैं, जो हम बांटते हैं। ऐसा व्यक्ति, जो दुख देता है और सुख देने की केवल कल्पना करता है, वह दुख पाता है और सुख की केवल आशा कर सकता है । उसे सुख मिल नहीं सकता। हमारे वास्तविक कृत्य ही हमारे जीवन में परिणाम लाते हैं, वे हमारी निष्पत्तियां हैं। जो हम करते हैं, वही हमारी निष्पत्ति बनता है। अगर आप दुख पा रहे हैं, तो आप निरंतर ऐसा ही सोचते हैं कि लोग बहुत बुरे हैं, इसलिए दुख दे रहे हैं। आप दुख इसलिए पा रहे हैं कि दुख आपने बांटा है आज, पीछे, कल और पीछे कल। आप वही पा रहे हैं, जो आपने बांटा है। बुद्ध को किसी पागल आदमी ने मारने की, हत्या करने की कोशिश की; एक पागल हाथी उनके ऊपर छोड़ा। एक पहाड़ के नीचे बैठकर ध्यान करते थे, तो चट्टान ऊपर से सरकाई । बुद्ध के शिष्यों ने बुद्ध को कहा कि यह आदमी महान दुष्ट है। बुद्ध ने कहा, ऐसा मत कहो। मैंने उसे कभी कोई दुख दिया होगा, वही दुख मुझ पर वापस लौट रहा है। और मैं इस खाते को बंद कर देना चाहता हूं। इसलिए उसे चट्टान गिराने दो; उसे पागल हाथी छोड़ने दो; और मैं कोई प्रतिक्रिया न करूं, मैं कुछ भी न कहूं इस संबंध में अब; अब इस चीज को आगे बढ़ाना नहीं है। क्योंकि इतना भी मैं कहूं कि वह दुष्ट है, तो फिर मैं उसे दुख देने का उपाय कर रहा हूं। यह बात भी उसको चोट पहुंचाएगी कि दुष्ट है, ऐसा मैंने कहा। यह बात भी उसको कांटा बनेगी, फिर इसका प्रतिफल होगा । तो वह जो कर रहा है, वह मैंने कुछ किया होगा, उसका प्रतिफल है। और इस खाते को मैं यहीं समाप्त कर देना चाहता हूं। यह किताब अब बंद कर देनी है। उसे कर लेने दो। और मैं अब कुछ भी न करूंगा, कोई भी प्रतिक्रिया, ताकि आगे के लिए कोई भी लेन-देन निर्मित न हो । जब भी हमें दुख मिलता है, हम सोचते हैं, लोग हमें दुख दे रहे हैं। वह हमारी भ्रांति है। कोई आपको क्यों दुख देने चला ? किसी को क्या प्रयोजन है? किसको फुरसत है ? लोगों को अपना जीवन ना है कि आपको दुख का उपाय करना है? नहीं, कहीं कोई आपने निर्मिति की है; कहीं कोई प्रतिध्वनि आपने फेंकी थी, वह आज वापस लौट रही है। उसे इस भांति जो चुपचाप स्वीकार कर लेता है, उसके दुखों के जो अतीत के बोझ 382 हैं, वे कट जाते हैं और नए बोझ निर्मित नहीं होते । और अगर कभी आपको कोई सुख मिलता है, तो भी आप जानना कि आपने कोई सुख बांटा होगा, जाने या अनजाने, उसका प्रतिफल है। अगर हम अपने सुखों और दुखों को अपने ही कर्मों का प्रतिफल समझ लें, तो कर्म का सिद्धांत हमारी समझ में आ गया। कर्म का सिद्धांत बस सार में इतना ही है कि मुझे वही मिलता है, जो मैंने किया है। मैं वही फसल काटता हूं, जो मैंने बोई है; अन्यथा कुछ भी हो नहीं सकता। ऐसी चित्त की दशा बनती चली जाए, तो आप धीरे-धीरे आसुरी संपदा से मुक्त होकर दैवी संपदा में प्रवेश कर जाएंगे। इससे विपरीत अपने को आप आदत बनाते रहें, तो आसुरी संपदा में धीरे-धीरे थिर हो जाएंगे। ऐसे थिर हो गए लोग, कृष्ण कहते हैं, महानरक में गिर जाते हैं। आज इतना ही Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 सातवां प्रवचन जीवन की दिशा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः। | चाहती है। साधना तो आपको दोनों का साक्षी बनाना चाहती है। यजन्ते नामयजैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ।। १७ ।। इस जगत में तीन दशाएं हैं। एक बुरे मन की दशा है, एक अच्छे अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः । मन की दशा है और एक दोनों के पार अमन की, नो-माइंड की मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः । । १८।। दशा है। साधना का प्रयोजन है कि अच्छे-बुरे दोनों से आप मुक्त तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् । | हो जाएं। और जब तक दोनों से मुक्त न होंगे, तब तक मुक्ति की क्षिपाम्यजसमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।। १९ ।। कोई गुंजाइश नहीं। आसुरी योनिमापना मूठा जन्मनि जन्मनि । अगर आप अच्छे को पकड़ लेंगे, तो अच्छे से बंध जाएंगे। बुरे माम्प्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।। २०।। को छोड़ेंगे, बुरे से लड़ेंगे, तो बुरे के जो विपरीत है, उससे बंध वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष बन और | जाएंगे। चुनाव है; कुएं से बचेंगे, तो खाई में गिर जाएंगे। लेकिन मान के मद से युक्त हुए, शास्त्र-विधि से रहित केवल अगर दोनों को न चुनें, तो वही परम साधक की खोज है कि कैसे नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं। वह घड़ी आ जाए, जब मैं कुछ भी न चुनः अकेला मैं ही बचूं; मेरे तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के ऊपर कुछ भी आरोपित न हो। न मैं बुरे बादलों को अपने ऊपर परायण हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और ओदं, न भले बादलों को ओढूं। मेरी सब ओढ़नी समाप्त हो जाए। दूसरों के शरीर में स्थित मुख्य अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। मैं वही बचुं, जो मैं निपट अपने स्वभाव में हूं। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को यह जो स्वभाव की सहज दशा है, इसे न तो आप अच्छा कह मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। सकते और न बुरा। यह दोनों के पार है, यह दोनों से भिन्न है, यह इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि दोनों के अतीत है। को प्राप्त हुए, मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच लेकिन साधारणतः साधना से हम सोचते हैं, अच्छा होने की गति को ही प्राप्त होते हैं। | कोशिश। उसके कारण हैं, उस भ्रांति के पीछे लंबा इतिहास है। समाज की आकांक्षा आपको अच्छा बनाने की है। क्योंकि समाज बुरे से पीड़ित होता है, समाज बुरे से परेशान है। इसलिए पहले कुछ प्रश्न। अच्छा बनाने की कोशिश चलती है। समाज आपको साधना में ले पहला प्रश्नः कल कहा गया कि दनिया में अच्छाई जाना नहीं चाहता। समाज आपको बुरे बंधन से हटाकर अच्छे और बुराई का संतुलन है। ये दोनों सदा ही सम बंधन में डालना चाहता है। परिमाण हैं। एक बुरा मिटता है, तो अच्छा भी कम समाज चाहता भी नहीं कि आप परम स्वतंत्र हो जाएं, क्योंकि होता है। अगर इस संतुलन में कभी बदल होने वाला परम स्वतंत्र व्यक्ति तो समाज का शत्रु जैसा मालूम पड़ेगा। समाज नहीं है, तो साधना का प्रयोजन क्या है? चाहता है. रहें तो आप परतंत्र ही: पर समाज जैसा चाहता है. उस ढंग के परतंत्र हों। समाज आपको अच्छा बनाना चाहता है, ताकि समाज को कोई उच्छृखलता, कोई अनुशासनहीनता, आपके द्वारा 7 श्न महत्वपूर्ण है। साधकों को गहराई से सोचने | | कोई उपद्रव, बगावत, विद्रोह न झेलना पड़े। प्र जैसा है। समाज आपको धार्मिक नहीं बनाना चाहता, ज्यादा से ज्यादा साधना के संबंध में हमारे मन में यह भ्रांति होती है कि | नैतिक बनाना चाहता है। और नीति और धर्म बड़ी अलग बातें हैं। साधना भलाई को बढ़ाने लिए है। साधना का कोई संबंध भलाई को | नास्तिक भी नैतिक हो सकता है; और अक्सर जिन्हें हम आस्तिक बढ़ाने से नहीं है; न साधना का कोई संबंध बुराई को कम करने से कहते हैं, उनसे ज्यादा नैतिक होता है। ईश्वर के होने की कोई है। साधना का संबंध तो दोनों का अतिक्रमण, दोनों के पार हो जाने जरूरत नहीं है आपके अच्छे होने के लिए; न मोक्ष की कोई जरूरत से है। साधना न तो अंधेरे को मिटाना चाहती है, न प्रकाश को बढ़ाना है। आपके अच्छे होने के लिए तो केवल एक विवेक की जरूरत 384 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन की दिशा * है। तो नास्तिक भी अच्छा हो सकता है, नैतिक हो सकता है। | मनोदशा के कारण, धर्म की यह जो परम आत्यंतिक धारणा है, ___धर्म कुछ अलग ही बात है। धर्म का इतने से प्रयोजन नहीं है कि दोनों के पार हो जाना, उससे हमें भय लगता है। आप चोरी नहीं करते। नहीं करते, बड़ी अच्छी बात है। लेकिन चोरी | | लेकिन अगर आप समझेंगे साधना का अर्थ, साधना का अर्थ न करने से कोई मोक्ष नहीं पहुंच जाता है। जब चोरी करने वाले को है, धीरे-धीरे बाहर से भीतर की तरफ जाना। कुछ नहीं मिलता, तो चोरी से बचने वाले को क्या मिल जाएगा! जब ___ अच्छाई भी बाहर है, बुराई भी बाहर है। अगर आप चोरी करते धन इकट्ठा करने वाले को कुछ नहीं मिलता, जब धन इकट्ठा | हैं. तो भी आपके अतिरिक्त किसी और का होना जरूरी है। अकेले कर-करके कुछ नहीं मिलता, तो धन छोड़कर क्या मिल जाएगा! | आप कैसे चोरी करिएगा? अगर इस पृथ्वी पर आप अकेले रह अगर धन इकट्ठा करने से कुछ मिलता होता, तो शायद धन छोड़ने जाएं, सारा समाज नष्ट हो जाए; युद्ध हो जाए तीसरा, सब नष्ट हो से भी कुछ मिल जाता। जब काम-भोग में डूब-डूबकर कुछ नहीं | | जाएं, आप भर अकेले बचें; आप चोरी कर सकिएगा फिर? मिलता, तो उनको छोड़ने से क्या मिल जाएगा! वह कचरा है, उसको किसकी चोरी करिएगा? चोरी का अर्थ ही क्या होगा? छोड़कर मोक्ष नहीं मिल जाने वाला है। यह थोड़ा कठिन है समझना। अगर आप अकेले हैं, तो चोरी नहीं कर सकते। अगर अकेले एक बात ध्यान रखें, जिस चीज से लाभ हो सकता है, उससे हैं, तो दान कर सकिएगा? दान के लिए भी दूसरे की जरूरत है। हानि हो सकती है। जिससे हानि हो सकती है, उससे लाभ हो | | तो चोरी हो या दान, नीति हो या अनीति, पुण्य हो या पाप, ये सकता है। लेकिन जिस चीज से कोई लाभ ही न होता हो, उससे | | सब बाहर की घटनाएं हैं। लेकिन सारी दुनिया नष्ट हो जाए और कोई हानि भी नहीं हो सकती। अगर धन के इकट्ठा करने से कोई | आप अकेले बचें, तो भी ध्यान कर सकते हैं। ध्यान का दूसरे से भी लाभ नहीं होता, तो धन के इकट्ठा करने से कोई हानि भी नहीं | | कुछ संबंध नहीं है। ध्यान आंतरिक घटना है। इसलिए ध्यान भीतर हों सकती। ले जाता है। धार्मिक व्यक्ति धन के इकट्ठा करने को मूढ़ता मानता है, बुराई | | पुण्य भी बाहर भटकाता है, पाप भी बाहर भटकाता है। अच्छाई नहीं। वह बाल-बुद्धि है। धर्म कामवासना में डूबे व्यक्ति को पापी भी बाहर, बुराई भी बाहर। अच्छाई भी समाज में, बुराई भी समाज नहीं कहता, सिर्फ अज्ञानी कहता है। उसे पता नहीं कि वह क्या कर में। उन दोनों का कोई अंतस्तल से संबंध नहीं है। रहा है। तो धर्म की कोई इच्छा नहीं है कि आप, जिन-जिन चीजों साधना का अर्थ है, ध्यान। साधना का अर्थ है, अंतर्मुखता। को समाज बुरा कहता है, उन्हें छोड़ देंगे, तो आप मुक्त हो जाएंगे। साधना का अर्थ है, उसे मैं जानूं जो मैं अपनी निजता में हूं; जिसका सज्जन पुरुष हमारे बीच हैं, फिर भी मोक्ष उनसे उतना ही दूर है, दूसरे से संबंधित होने का कोई संबंध नहीं है। साधना का संबंध जितना दुर्जन से; उस दूरी में कोई फर्क नहीं पड़ता। मोक्ष की दूरी रिलेशनशिप, संबंधों से जरा भी नहीं है। साधना का संबंध है स्वयं में तो तभी कमी होनी शुरू होती है, जब आप न दुर्जन रह जाते, न | | से; मैं उसे जान लूं, जो मैं हूं। सज्जन; न साधु, न असाधु; क्योंकि इन दोनों का द्वंद्व है। और जब तो न तो चोरी करके कोई उसे जान पाता है, न चोरी छोड़कर कोई तक द्वंद्व नहीं टूटता, तब तक परमहंस अवस्था नहीं आती। | उसे जान पाता है। चोर भी भटकते हैं, जो चोरी नहीं करते, वे भी साधना का प्रयोजन है, परमहंस अवस्था आ जाए। इससे हमें | | भटकते हैं। न तो बुरा करके उसे कोई कभी जाना है, न भला करके डर भी लगता है। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति बुराई-भलाई दोनों | | कभी कोई उसे जाना है। उसे जानने वाले को तो सभी करना छोड़ छोड़ दे, जैसे ही हम यह सोचते हैं, तो हमें डर लगता है कि वह | | देना पड़ता है, बुरा भी, भला भी। उसे तो भीतर अक्रिया में डूब जाना आदमी बुरा हो जाएगा। | पड़ता है। उसे तो बाहर से आंख ही बंद कर लेनी पड़ती है। __ अगर आपसे कहा जाए कि बुराई-भलाई दोनों छोड़ दो, तो उसके लिए कामवासना भी व्यर्थ है, उसके लिए ब्रह्मचर्य भी दो आपके मन में तत्क्षण बुरे करने के विचार आएंगे। भलाई तो छोड़ना | कौड़ी का है। क्योंकि ब्रह्मचर्य और कामवासना दोनों एक ही सिक्के बिलकुल आसान है। उसको तो कभी पकड़ा ही नहीं है, इसलिए | के दो पहलू हैं। वे अलग-अलग बातें नहीं हैं। आपको ब्रह्मचर्य छोड़ने का कोई प्रश्न नहीं है। आपको अगर पता चले कि दोनों मूल्यवान दिखाई पड़ता है, क्योंकि कामवासना में आपको रस है। बेकार हैं, तो आप तत्क्षण बुराई करने में लग जाएंगे। उस खुद की जिस दिन कामवासना में कोई रस न रह जाएगा, उस दिन ब्रह्मचर्य 385 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7** भी दो कौड़ी का है, उसका भी कोई मूल्य नहीं है। द्वंद्व से कोई संबंध नहीं है। और जगत एक संतुलन है। जगत में बुराई और भलाई सदा संतुलित है। साधना तो जगत के पार उठने की प्रक्रिया लेकिन यह खयाल में तभी आएगा, जब थोड़ा-सा अनुभव करेंगे। अभी तो हम कामों में ही चुनते हैं। यह काम बुरा है, छोड़ दें। यह काम भला है, कर लें। अभी एक्शंस पर, कर्म पर ही हमारा जोर है। वह जो कर्मों के पीछे छिपा हुआ हमारा स्वभाव है, उस पर हमारा कोई जोर नहीं है। उसे जान लें, जो बुरा भी करता है और भला भी करता है। उसे जान लें, जो दोनों के पीछे छिपा है। उसे जान लें, जो सब करके भी अकर्ता है। उसे जान लें, जो सबका द्रष्टा है। उससे कोई लेना-देना नहीं है आपके कर्म का । आप सुबह पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, स्नान करते हैं कि नहीं करते हैं, मंदिर में जाते हैं कि मस्जिद में – इससे कोई संबंध नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मंदिर मत जाएं। और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप अच्छाई मत करें। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि करने के पार जाना पड़ेगा, तभी धर्म से संबंध जुड़ेगा । वह अर्जुन भी इसी द्वंद्व से ग्रस्त है। उसका भी सवाल क्या है? उसकी भी चिंता क्या है? उसकी उलझन क्या है ? यही उलझन है। वह देखता है कि यह जो युद्ध है, बुराई है। इसमें सिर्फ लोग मरेंगे, सिर्फ हत्या होगी, खून बहेगा। न मालूम कितनी स्त्रियां विधवा हो जाएंगी। न मालूम कितने बच्चे अनाथ हो जाएंगे। घर-घर में दुख और हाहाकार छा जाएगा। यह बुरा है। तो वह कृष्ण से यही कह रहा है कि इस बुराई को मैं छोड़ दूं । यह बुराई करने जैसी नहीं लगती। इससे तो अच्छा है कि मैं जंगल चला जाऊं, संन्यास ले लूं, विरक्त हो जाऊं, छोड़ दूं सब। बुराई | को छोड़ दूं, अच्छाई को पकड़ लूं। और कृष्ण उसे क्या समझा हैं ? इसलिए कृष्ण का संदेश सरल होते हुए भी अति कठिन है। कृष्ण उसे यह समझा रहे हैं कि तू जब तक यह सोचता है कि यह बुरा है, इसे छोडूं यह भला है, इसे करूं; तब तक तू उलझन में रहेगा। तू कर्म की धारणा छोड़ दे । तू यह भाव छोड़ दे कि मैं कर्ता हूं। अगर तू युद्ध छोड़कर चला जाएगा, तो तू सोचेगा, मैंने संन्यास किया, मैंने त्याग किया, मैंने वैराग्य किया; पर कर्म का भाव तुझे बना रहेगा। युद्ध करेगा, तो तू समझेगा, मैंने युद्ध किया, मैंने लोगों को मारा, या मैंने लोगों को बचाया। दोनों ही धारणाएं भ्रांत हैं। तू करने वाला नहीं है। करने की बात तू विराट पर छोड़ दे। तू सिर्फ निमित्त हो जा। तू सिर्फ विराट को मौका दे कि तेरे भीतर से कुछ कर सके। तू सिर्फ देखने वाला बन | जा तू इस युद्ध में एक द्रष्टा हो । | 386 कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन बुरे और भले के द्वंद्व से छूट जाए, निर्द्वद्व हो जाए; दो के बीच चुने नहीं, तीसरा हो जाए; दोनों से अलग हो जाए। साधना का यही प्रयोजन है। दूसरा प्रश्न : कल के सूत्र में आपने कहा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि किसी भी इंद्रिय का यदि तीन साल तक उपयोग न किया जाए, तो वह इंद्रिय क्रियाशील नहीं रह जाती। और हम कामेंद्रिय का उपयोग बीस-पच्चीस वर्षों तक भी नहीं करते, फिर भी हम खुद को कामवासना से मुक्त नहीं पाते। । हम तो क्या, तथाकथित साधु-संन्यासी कई वर्षों की साधना के बाद भी कामवासना से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं। क्या यह सिद्धांत काम - इंद्रिय पर लागू नहीं होता ? इ स संबंध में दो-तीन बातें समझनी पड़ें। पहली बात, काम- इंद्रिय आपकी और इंद्रियों जैसी ही इंद्रिय नहीं है। सच तो यह है कि काम- इंद्रिय आपकी सभी इंद्रियों का केंद्र है, आधार स्रोत है। तो और इंद्रियां ऊपर-ऊपर हैं, परिधि पर हैं। कामेंद्रिय गहन अंतर में है, गहरे में है, जड़ में है। वृक्ष की शाखाओं को हम काट दें, तो वृक्ष नहीं मरता; नई शाखाएं निकल आती हैं। वृक्ष की जड़ों को हम काट दें, वृक्ष मर जाता है। पुरानी शाखाएं भी जो हरी थीं, वे भी सूखकर समाप्त हो जाती हैं। आंख ऊपर है, हाथ ऊपर है, कान ऊपर हैं, कामेंद्रिय बहुत गहरे में है। इसलिए अगर आप आंख का उपयोग तीन वर्ष तक न करें, तो आंखें क्षीण हो जाएंगी। कान का उपयोग न करें, तो आप बहरे हो जाएंगे। हाथ को न चलाएं, तो हाथ पंगु हो जाएगा। पैर का Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन की दिशा * उपयोग न करें, पैर पक्षाघात से भर जाएंगे। लेकिन कामेंद्रिय भिन्न __ आप पच्चीस वर्ष तक अपने को सब तरह की कामवासना से है। उसके कारण समझ लें। बचा लें, तो भी ऊपर-ऊपर ही बचाव हो रहा है, भीतर तो मन __ आपके शरीर का प्रत्येक कण कामवासना से निर्मित है। आंख | | कामवासना में ही चल रहा है। और वह जो भीतर कामवासना बह तो छोटा-सा हिस्सा है, कान तो छोटी-सी हड्डियों का जोड़ है। | रही है, चित्त में जो विचार चल रहे हैं, वे कामेंद्रिय को सजग रखेंगे, लेकिन काम-इंद्रिय आपके पूरे शरीर को घेरे हुए है। वह जो मां के | जीवित रखेंगे। गर्भ में पहला अणु निर्मित हुआ था, वह कामवासना से निर्मित हालत तो उलटी है। अगर आपको कामवासना का अतिशय हुआ। फिर उसी अणु के विस्तार से आपका पूरा शरीर निर्मित हुआ | उपयोग करने दिया जाए, तो कामवासना मर भी जाए; उपयोग न है। आपका प्रत्येक अणु कामवासना से भरा है। करने दिया जाए, तो नहीं मरेगी। इसलिए आंख फोड लें. कान तोड डालें. हाथ काट डालें. __ मैं एक फ्रेंच चिकित्सक मोरिस मैक्यू के संस्मरणों का एक कामवासना में अंतर नहीं पड़ेगा। जननेंद्रिय को लोग कामेंद्रिय | | संकलन पढ़ रहा हूं, आफ मेन एंड प्लांट्स। उसने अपने संस्मरणों समझ लेते हैं, उससे भूल हो जाती है। जननेंद्रिय कामेंद्रिय का शरीर | | की एक किताब लिखी है। वह जड़ी-बूटियों के संबंध में बड़े से के ऊपर सिर्फ अभिव्यक्ति है। जननेंद्रिय सिर्फ कामेंद्रिय के उपयोग | | बड़ा ज्ञाता है। और जड़ी-बूटियों के द्वारा उसने हजारों मरीजों को का द्वार है। लेकिन आपका पूरा शरीर कामवासना है। इसलिए ठीक किया है। और दुनिया के बड़े-बड़े लोग उसे निमंत्रण देते रहे जननेंद्रिय भी काट डालें, तो भी कामवासना नहीं मिटेगी। हैं। चर्चिल, बड़े अभिनेता, बड़े लेखक, बड़े कवि, राजा-महाराजा कामवासना तो तभी मिटेगी, जब आप अपनी आत्मा को शरीर उससे इलाज करवाते रहे हैं। तो उसने सारे संस्मरण लिखे हैं। उसने से बिलकुल पृथक अनुभव कर लें। उसके पहले नहीं मिटेगी। अगर प्रिंस अली खां का भी संस्मरण लिखा है, आगा खां के लड़के का। शरीर से रंचमात्र भी तादात्म्य है, अगर जरा-सा भी जोड़ है कि मैं | । प्रिंस अली खां ने उसे फोन किया और कहा कि कुछ निजी शरीर हूं, तो उतनी कामवासना कायम रहेगी। आंख नष्ट हो जाएगी | | बीमारी है, कुछ गुप्त बीमारी है, उसके लिए तुम्हें आना पड़े। प्रिंस बड़ी आसानी से, कामवासना इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगी। । | अली खां का निमंत्रण बड़ी बात है। चिकित्सक भागा हुआ उनके दूसरी बात, आप कामवासना से पैदा हुए हैं। आपके पैदा होने में | | महल पर पहुंचा। सबको विदा करके प्रिंस अली ने अपनी बीमारी कामवासना का प्रगाढ़ हाथ है। तो जब तक आप में जीवन की | | बतानी शुरू की। चिकित्सक को भी लग तो रहा था कि बीमारी आकांक्षा रहेगी, तब तक कामवासना से छुटकारा न होगा। जब तक | | कामवासना से संबंधित होगी, यौन की होगी, इसलिए इतनी गुप्तता आप चाहते हैं कि मैं बचूं, जीऊं, रहूं, तब तक आप कामवासना से | | रखी जा रही है। प्रिंस अली खां ने कहा कि मेरी कामवासना मुक्त न होंगे। क्योंकि जीवन पैदा ही कामवासना से हुआ है; और बिलकुल खो गई है, क्षुधा मेरी मर गई है, मुझे इच्छा ही नहीं होती। . आप जीना चाहते हैं, तो कामवासना को बल मिलता है। कुछ करो! जिस दिन आपकी जीवेषणा छूटेगी, और आप कहेंगे कि मैं | तो चिकित्सक ने पूछा कि आप महीने में कितनी बार संभोग मिटूं, खो जाऊं, समाप्त हो जाऊं, वही मेरा आनंद है; अब मैं | करते हैं? प्रिंस अली खां खिलखिलाकर हंसने लगा, और उसने बचना नहीं चाहता, अब मैं रहना नहीं चाहता, अब इस देह को घर | कहा, महीने में! हर रोज दिन में तीन बार करता हूं। लेकिन इच्छा नहीं बनाऊंगा, अब मैं मुक्त हो जाना चाहता हूं सब सीमाओं से; | | बिलकुल मर गई है। कोई वासना नहीं पैदा होती। बस, एक यांत्रिक जिस दिन जीवन की जगह मृत्यु आपका लक्ष्य हो जाएगी, उस दिन | कृत्य की तरह कर रहा हूं। कामवासना मिटेगी। उसके पहले कामवासना नहीं मिटेगी। । ___ अब यह कोई बीमारी न हुई। अगर दिन में कोई तीन बार संभोग इसलिए पच्चीस वर्ष, पच्चीस जन्म भी कामवासना को दबाए | | कर रहा है, तो इच्छा मर ही जाएगी। इच्छा क्या, वह खुद भी मर रखने से उसका अंत नहीं होता। फिर जितना आप उसे दबाते हैं, | | जाएगा जल्दी। उतनी ही वह बढ़ती है। क्योंकि भला आप कामेंद्रिय का उपयोग न | ___ कामवासना का अगर ज्यादा उपयोग किया जाए, तो मर जाती करें, जननेंद्रिय का उपयोग न करें, लेकिन चित्त कामवासना में लगा | | है। अगर बिलकुल उपयोग न किया जाए, दबाकर रखा जाए, तो ही रहता है। तो आपका शरीर तो संलग्न है। सजीव रहती है, जीवित रहती है। लेकिन न तो बहुत उपयोग करने 387 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता दर्शन भाग-7 * से उससे छुटकारा होता है...। मृत्यु कामवासना का विरोध है। जन्म कामवासना से होता है, क्षुधा मर गई है, लेकिन और भी गहरी वासना है कि न मरे।। | मृत्यु कामवासना का विरोध है। जिन साधना-प्रक्रियाओं ने—जैसे वासना क्षीण हो गई है, लेकिन भीतर से मन कह रहा है, इसे | | बुद्ध की साधना-प्रक्रिया ने-कामवासना पर अनूठे प्रयोग किए जिलाए रखो, कुछ उपाय करो। हैं, तो मृत्यु को उन्होंने साधना का आधार बनाया। अक्सर ऐसा हो जाता है कि व्यभिचारियों की कामवासना | बुद्ध जब किसी व्यक्ति को ब्रह्मचर्य में दीक्षा देते थे, तो उससे शिथिल हो जाती है और ब्रह्मचारियों की नहीं शिथिल हो पाती। | कहते थे, तीन महीने पहले मरघट पर तू मृत्यु का ध्यान कर। क्योंकि व्यभिचारी तो अति कर देते हैं, थक जाते हैं। | एकदम से तो सुनकर हमें हैरानी होगी कि ब्रह्मचर्य से और मरघट गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि काकेशस में पैदा | और मृत्यु का क्या लेना-देना? होने वाला एक खास फल उसे बचपन में बहुत प्रिय था। इतना ___ लेकिन बुद्ध कहते कि तीन महीने तू मरघट पर सुबह से सांझ, ज्यादा प्रिय था कि उसकी वजह से वह अक्सर बीमार पड़ जाता | रात, जब भी मुरदे जलते हों, बैठा रह। तेरा वही ध्यान-स्थल है। था। इतना ज्यादा खा लेता था। और वह नुकसानदायक भी था, लाशें आएंगी-बच्चे आएंगे, जवान-बूढ़े, सुंदर-कुरूप, स्वस्थऔर बहुत भारी और वजनी था। अस्वस्थ-सब तरह के लोग आएंगे। बस, तू उनको देखता रह। उसने लिखा है कि मेरे दादा ने मुझे कहा कि इससे छूटने का एक | उनकी जलती चिताएं, उनकी टूटती हड्डियां, उनके गिरते सिर, ही उपाय है : एक दिन तू जितना खा सके आखिरी दम तक, मौत उनका शरीर हो गया राख, सब खो गया धुएं में, उसे तू देखता रह। करीब मालूम होने लगे, तब तक तू इसको खाता जा। गुरजिएफ ने तीन महीने जलती हुई चिताओं पर ध्यान कर। . कहा, इससे कैसे छुटकारा होगा! बल्कि उसे रस भी आया कि बात और मुझे लगता है, यह बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। क्योंकि तो बड़ी गजब की है। क्योंकि घर में सभी उसे रोकते थे अब तक | | मृत्यु अगर बहुत साफ हो जाए, तो कामवासना तत्क्षण खो जाएगी। कि इसे मत खाओ, इसे मत खाओ, यह ठीक नहीं है, इससे | इसे आप ऐसा समझें कि एक सुंदरतम स्त्री खड़ी हो और आप नुकसान है। | वासना से भरे खड़े हों, उसी वक्त एक तार आए कि राज्य ने तय लेकिन दादा ने जब कहा, तो फिर वह बड़ी मात्रा में फल जाकर | किया है कि आज सांझ आपको फांसी लगा देंगे। संदर स्त्री तत्क्षण बाजार से ले आया। दादा उसके सामने बैठ गए और कहा कि तू | आंखों से खो जाएगी। शरीर से वासना का प्रवाह बंद हो जाएगा। खा जितना तुझे खाना है। वह खाता गया। वह थक गया और एक फिर कोई कितना ही समझाए, आपका रस अब वासना में नहीं रह कौर भी भीतर ले जाने का उपाय न रहा। लेकिन दादा ने कहा, अभी जाएगा। सांझ मौत आ रही है! भी तू थोड़ा खा सकता है। तू और खा ले। तो जिस साधक को कामवासना से मुक्त होना हो, उसे समझना फिर उसे उल्टियां होनी शुरू हुईं, दस्त लगने शुरू हुए। वह कोई | चाहिए कि यह क्षण आखिरी है, मौत दूसरे क्षण हो सकती है। और तीन महीने बीमार रहा। लेकिन वह कहता है, उसके बाद उस फल | | सच भी यही है, मौत दूसरे क्षण हो सकती है। जो क्षण मैं जी रहा में मेरा कोई रस नहीं रह गया। हूं, यह आखिरी है, मौत आने वाली है, इस शरीर से मैं टूट जाने कामवासना से मुक्त होने के लिए दमन तो कतई मार्ग नहीं है; | वाला हूँ। लेकिन कामवासना इस भांति हो जाए कि आप उससे पीड़ित हो | 1. जितनी मौत की धारणा गहरी हो जाए, और जितना यह शरीर मैं उठे, वह दुख बन जाए, विषाद हो जाए, तो शायद जागरण आए। नहीं हूं, यह प्रतीति स्पष्ट हो जाए, उतने ही आप कामवासना से लेकिन उतने से भी कुछ न होगा। क्योंकि फल का छूट जाना मुक्त होंगे। यह मुक्ति न तो दमन से फलित होती है, न भोग से। एक बात है, कामवासना का छूटना बड़ी अलग बात है। फिर थोड़े यह मुक्ति समझ से, अंडरस्टैंडिंग से फलित होती है। दिन में वापस लौट आएगी। दबाएं तो बनी रहेगी, भोगें तो थोड़े पर यह स्मरण रखें कि कामवासना साधारण इंद्रिय नहीं है। यह दिन शिथिल हो जाएंगे. फिर वापस लौट आएगी। कहना उचित होगा कि सभी इंद्रियों का केंद्र कामेंद्रिय है। आंखें भी कामवासना से मुक्त होना हो, तो दो बातें मैंने कहीं। एक तो मैं | | इसीलिए देखती हैं कि कामवासना आंखों के द्वारा रूप को खोज शरीर नहीं हूं, यह दृष्टि थिर हो। दूसरा, जीवन की मेरी कामना नहीं। रही है। कान इसीलिए सुनते हैं कि कामवासना कानों के द्वारा ध्वनि 388 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की दिशा को खोज रही है। संगीत में इतना रस आता है, क्योंकि संगीत कानों के द्वारा कामवासना की तृप्ति है। सौंदर्य को देखकर - सुंदर चित्र, सुबह का उगता सूरज, पक्षियों का आकाश में उड़ना, वृक्षों पर खिले फूल, एक सुंदर चेहरा, सुंदर आंखें, सुंदर रंग आनंदित करते मालूम पड़ते हैं, क्योंकि आंखों के द्वारा यह जगत के साथ संभोग है। आंख रूप को खोज रही है। इसलिए कुरूप व्यक्ति दिख जाए, तो आपकी वासना सिकुड़ती है । कुरूप व्यक्ति सामने आ जाए, तो आप आंख फेरकर चल पड़ते हैं। सुंदर व्यक्ति सामने आ जाए, आप अपना होश खो देते हैं। तो आप यह मत सोचना कि जननेंद्रिय से ही कामवासना प्रकट होती है; सभी इंद्रियों से प्रकट होती है। हाथ से जब आप कुछ छूना चाहते हैं, तो हाथ के माध्यम से कामवासना स्पर्श खोज रही है। यह पूरा शरीर कामेंद्रिय है। इसका रो-रोआं कामवासना से भरा है। इसलिए जब तक शरीर से तादात्म्य न छूट जाए, तब तक कामवासना से छुटकारा नहीं है । और कुछ भी आप करते रहें, तो उससे सिर्फ समय व्यय होगा, शक्ति व्यय होगी और चित्त आत्मग्लानि से भरेगा। क्योंकि आप बार-बार तय करेंगे छोड़ने का, और छूटेगा नहीं। और जब बार-बार आप असफल होंगे, छोड़ न पाएंगे वासना को, तो धीरे-धीरे आपको आत्मग्लानि आएगी, आत्म-अविश्वास आएगा, और ऐसा लगेगा कि मैं किसी भी योग्य नहीं हूं। मैं बिलकुल पात्र नहीं हूं। मैं पापी हूं, अपराधी हूं। और किसी भी व्यक्ति को, मैं पापी हूं, अपराधी हूं, ऐसी धारणा गहरी हो जाए, तो उसके जीवन में साधना-पथ अति कठिन हो जाता है। तो इस तरह के छोटे-मोटे प्रयोग करने में मत पड़ जाना । कामवासना से छूटा जा सकता है। लेकिन कामवासना जीवन-वासना का पर्यायवाची है। जब आप जीवन की वासना से छूटेंगे ... । इसलिए बुद्ध ने जगह-जगह कहा है, जीवेषणा जब तक है, तब तक मुक्ति नहीं है। जब तक तुम चाहते हो, मैं जीऊं ! बुद्ध के पास लोग पहुंचते हैं। वे कहते हैं कि मान लिया कि सब इच्छाएं छोड़ देंगे, शरीर छूट जाएगा, तो फिर हम मोक्ष में बचेंगे या नहीं? मैं रहूंगा न? आत्मा तो बचेगी, शरीर छूट जाएगा। और बुद्ध कहते हैं कि यह फिर वही की वही बात है। तुम मिटना नहीं चाहते, तुम बचना ही चाहते हो । शरीर मिट जाए, तो भी तुम राजी हो । क्योंकि तुम देखते हो, शरीर तो मिटेगा, उसे बचाने का कोई उपाय नहीं है। तो फिर आत्मा ही बच जाए। इसलिए बुद्ध ने एक अनूठी बात कही कि कोई आत्मा नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं कि आत्मा नहीं है। यह बात सिर्फ इसलिए कही कि वे जो आत्मा के नाम से अपने को बचाना चाहते हैं, वे उस बचाने की बात को भी छोड़ दें। जीवेषणा वासना है। मैं जीऊं, यही हमारा पागलपन है । और | मजा यह है कि जीकर हम कुछ पाते भी नहीं, लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। जीकर कुछ हाथ में भी नहीं आता, फिर भी कैसी ही | कठिनाई हो, तो भी जीना चाहते हैं। जीवन को छोड़ने को हम राजी नहीं होते। इस सूत्र को याद रख लें, जो जीवन को छोड़ने को स्वेच्छा से राजी है, महाजीवन उसका हो जाता है। और जो जीवन को दरिद्र की तरह पकड़ता है, भिखारी की तरह, उसके हाथ में कुछ भी आता नहीं। सिर्फ जंजीरें ही उसके हाथ में आती हैं। तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि सृजनात्मकता दैवी स्वभाव है और विध्वंस व विनाश आसुरी हैं। लेकिन अस्तित्व में तो दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं। और सिर्फ युद्ध में ही विध्वंस होता हो, ऐसा नहीं है। दैवी विपदाएं कम विध्वंस नहीं करती हैं। दै वी संपदा सृजनात्मक है, इसका यह अर्थ नहीं कि जो सृजन करता है वह मिटाता नहीं। बनाना हो, तो मिटाना पड़ता है। अगर मूर्ति बनानी हो, तो पत्थर को मिटाना पड़ता है। अगर वृक्ष निर्मित करना हो, तो बीज को मिटाना पड़ता है। अगर परमात्मा को खोजना हो, तो अपने को मिटाना | पड़ता है। सृजनात्मकता भी बिना मिटाए तो नहीं होती। कुछ मिटता है, तो कुछ बनता है। मिटना बनने का ही प्रयोग है। फिर फर्क क्या हुआ? क्योंकि दैवी संपदा भी मिटाती है, आसुरी संपदा भी मिटाती है। दोनों में फर्क क्या है? 389 फर्क लक्ष्य का है। दैवी संपदा सदा ही बनाने को मिटाती है। | आसुरी संपदा सदा ही मिटाने को मिटाती है। आसुरी संपदा बनाती भी है, तो सिर्फ मिटाने को । फर्क यह है, आसुरी संपदा अगर बनाती भी दिखाई पड़ती हो, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* तो भी समझना कि वह मिटाने को ही बना रही है। वह बनाना वैसे ही है, जैसे आप घर में एक बकरा पाल लें। और उसे खूब खिलाएं, उसकी सेवा करें, क्योंकि उसको बलि के दिन काटना है। उसकी सेवा भी चले. धलाई भी चले. भोजन भी चले। ऐसे बकरे की कोई इतनी पूजा नहीं करता, जैसी आप करें। लेकिन बलि के दिन उसको काटकर फिर भोजन कर लेना है, वह तैयारी चल रही है। आप बना रहे हैं मिटाने के लिए। लक्ष्य मिटाना होगा, आसुरी संपदा में। लेकिन जिसको मिटाना है, उसे भी बनाना पड़ता है। क्योंकि बिना बनाए मिटाइएगा कैसे? दैवी संपदा में लक्ष्य होगा बनाना। अगर मिटाना भी पड़ता है, तो यही नजर होती है कि बनाएंगे। अगर नया मकान बनाना हो, तो पुराना मकान गिरा देना पड़ता है। पुराने मकान से जमीन साफ हो जाए, तो नया बन सके। सभी सृजन में विध्वंस छिपा है; सभी विध्वंस में सृजन छिपा है। लक्ष्य का फर्क है। दैवी संपदा हमेशा सोचती है, निर्मित करने को। अगर मिटाना भी पड़ता है, तो सिर्फ इसीलिए, ताकि कुछ और श्रेष्ठतर बन सके। आसुरी संपदा सदा सोचती है मिटाने को। अगर बनाना भी पड़ता है, तो सिर्फ इसीलिए कि बनाएंगे, ताकि मिटा सकें। उस लक्ष्य को खयाल में रखें, तो बात आसान हो जाएगी और ठीक से समझ में आ जाएगी। रस कहां है आपका? तोड़ने में रस है कि निर्माण करने में रस है? वही रस ध्यान में रहे, तो फिर आप कितना ही तोड़ें, हर्ज नहीं। लेकिन हर तोड़ना एक कदम हो बनाने के लिए। फिर आपके विध्वंस में भी सृजन आ गया; फिर आपके युद्ध में भी शांति आ गई; फिर आप कुछ भी करें, अगर यह लक्ष्य सदा ध्यान में बना रहे, तो आप जो भी करेंगे, वह शुभ होगा। जगत द्वंद्व है। वहां विध्वंस भी है, निर्माण भी है। उन दोनों में किसको आप ऊपर रखते हैं, उससे आपकी संपदा निर्णीत होगी। साफ ही है। अपने प्रति लागू करना आसान है, क्योंकि सा प्रत्येक व्यक्ति सोचता है, मैं साध्य हूं और सभी मेरे साधन हैं। लक्ष्य मैं हूं, यह पूरा जगत मेरे लिए है। आकाश मेरे लिए, चांद-तारे मेरे लिए, वक्ष-पौधे, पश-पक्षी मेरे लिए। मैं केंद्र हूं। यह तो कोई भी सोचता है। इसमें दैवी संपदा का सवाल ही नहीं है। यही तो आसुरी संपदा का केंद्र है कि मैं जगत का केंद्र हूं; सब | कुछ मेरे लिए घूम रहा है। मेरे लिए सब भी मिट जाए, तो भी कुछ | हर्ज नहीं है। मैं बचूं। सब कुछ मेरा साधन है, यही तो आसुरी संपदा का केंद्र है। दैवी संपदा का केंद्र यह है कि दूसरा लक्ष्य है, दूसरा साध्य है, उसका मैं साधन की तरह उपयोग न करूं। वह परम मूल्य है। उसकी सेवा तो मैं कर सकता हूं, लेकिन शोषण नहीं। अगर जरूरत पड़े मिटने की, तो उसके लिए मैं तो मिट सकता हूं, लेकिन उसको नहीं मिटाऊंगा। कभी-कभी जीवन के कुछ क्षणों में ऐसा आपको लगता है किसी व्यक्ति के संबंध में, उसको हम प्रेम कहते हैं। जब आपको ऐसा | सारे जगत के संबंध में लगने लगे, तो उसको हम प्रार्थना कहेंगे। कभी एक व्यक्ति के संबंध में ऐसा लगता है कि चाहे मैं मिट जाऊं, लेकिन यह व्यक्ति बचे तो वह साध्य हो गया। मां मर सकती है बच्चे के लिए, या पत्नी मर सकती है पति के लिए, या पति अपने को खो सकता है पत्नी के लिए। कभी एक व्यक्ति के साथ आपको क्षणभर को भी ऐसा लग जाता हो कि मैं ना-कुछ, वह सब कुछ; मैं परिधि, वह केंद्र; तो प्रेम घटा। ___ इसलिए प्रेम एक आध्यात्मिक घटना है। छोटी-सी घटना है, पर बड़ी मूल्यवान। चिनगारी है, सूरज नहीं; लेकिन अग्नि वही है, जो सूरज में होती है। और यह चिनगारी अगर फैलने लगे, तो किसी | दिन सूर्य भी बन सकती है। जिस दिन ऐसा सारे जगत के प्रति लगने लगे, उस दिन समझना कि प्रार्थना है। महावीर जमीन पर पांव फूंककर रखते हैं। चींटी भी न मर जाए, | क्योंकि उसका भी परम मूल्य है। चींटी भी साध्य है, वह हमारा साधन नहीं है कि हम उससे इस तरह व्यवहार कर सकें। कणाद वृक्षों से फल तोड़कर नहीं खाते। जो कण खेत में अपने | आप गिर जाते हैं सूखकर, पककर, उनको बीन लेते हैं। इसीलिए उनका नाम कणाद है; कण-कण बीनकर जीते हैं। कच्चे फल को भी तोड़ते नहीं, क्योंकि वृक्ष हमारा साधन नहीं है। वृक्ष का अपना चौथा प्रश्नः आपने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है, परम मूल्य है। दैवी संपदा का यह सिद्धांत अपने प्रति तो आसानी से लागू किया जा सकता है, लेकिन दूसरों के प्रति उसे लागू करना बहुत कठिन है। ऐसा क्यों है? 390 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन की दिशा * जीवन है। वृक्ष अपने आप में मूल्यवान है। हम उसका शोषण नहीं | सम्राट, तुम सुखी हो। कर सकते। अहिंसा की धारणा इसी बात से निर्मित है। जीवन में सोलन ने कहा, झूठ मैं न कह सकूँगा। मृत्यु में कुछ हर्जा नहीं जो भी परम है, श्रेयस्कर है, वह सब इसी विचार से निकलता है। ।। है, क्योंकि मरना मुझे होगा ही; किस निमित्त मरता हूं, यह गौण है। लेकिन पहली बात तो बिलकुल आसान है। हम सभी को | तुमने मारा, कि बीमारी ने मारा, कि अपने आप मरा, यह सब गौण लगता है कि मैं ही केंद्र हूं; मेरा हित, मेरा स्वार्थ, मेरा अहंकार! है। मौत निश्चित है। झूठ मैं न कहूंगा। शाश्वत सुख ही सुख है। शेष सब...। क्षणभंगुर सुख दिखाई पड़ता है, लेकिन दुख है। सम्राट! तुम भूल मैंने सुना है, यूनान में एक सम्राट ने उन दिनों यूनान के एक महा में हो। मनीषी सोलन को अपने राजमहल बलाया। सोलन एक सकरात गोली मार दी गई। जैसा मनीषी था। सम्राट ने बुलाया सिर्फ इसलिए कि सोलन की फिर दस वर्षों बाद, यह सम्राट पराजित हुआ। विजेता ने इसे बड़ी ख्याति थी। उसके एक-एक शब्द का मूल्य अकृत था। तो अपने महल के सामने एक खंभे पर बांधा। जब वह खंभे पर लटका कुछ उससे ज्ञान लेने नहीं बुलाया था। कुछ उससे सीखने नहीं | था और गोली मारे जाने को थी, तब उसे अचानक सोलन की याद बुलाया था। सिर्फ सोलन को बुलाया था कि देख मेरे महल को! | | आई। ठीक दस वर्ष पहले ऐसा ही सोलन खंभे पर लटका था! तब मेरे साम्राज्य को! मेरी धन-संपदा को! और सम्राट चाहता था कि | | उसे उसके शब्द भी सुनाई पड़े, कि जो शाश्वत नहीं, वह सुख सोलन प्रशंसा करे कि आप जैसा सुखी और कोई भी नहीं है, तो | || नहीं। जो क्षणभंगुर है, उसका कोई मूल्य नहीं। यह चमकदार दुख इस वचन का मूल्य होगा। सारा यूनान, यूनान के बाहर भी लोग | है सम्राट! उसी चमकदार दुख को सुख मानकर यह सम्राट इस समझेंगे कि सोलन ने कहा है। खंभे पर लटक गया। सोलन आया, महल घुमाकर दिखाया गया। अकूत संपदा थी सम्राट की आंखें बंद हो गईं। वह अपने को भूल ही गया, सम्राट के पास, न मालूम कितना उसने लूटा था। बहुमूल्य पत्थरों | सोलन को देखने लगा। और जब उसे गोली मारी जा रही थी, तब के ढेर थे, स्वर्ण के खजाने थे, महल ऐसा सजा था, जैसे दुल्हन | | उसके होंठों पर मस्कराहट थी। और आखिरी शब्द जो उसके मंह हो। फिर सम्राट उसे दिखा-दिखाकर प्रतीक्षा करने लगा कि वह | से निकले, वे यह थेः सोलन, सोलन, मुझे क्षमा कर दो। तुम ही कुछ कहे। लेकिन सोलन चुप ही रहा। न केवल चुप रहा, बल्कि सही थे। गंभीर होता गया। न केवल गंभीर हुआ, बल्कि ऐसे उदास हो गया, विजेता सम्राट सुनकर चकित हुआ; कौन सोलन ? किसके जैसे सम्राट मरने को पड़ा हो और वह सम्राट को देखने आया हो।। | वचन सही? और इस मरते सम्राट के होंठों पर मुस्कुराहट कैसी? __ आखिर सम्राट ने कहा कि तुम्हारी समझ में आ रहा है कि नहीं? | उसने सारी खोज-बीन करवाई, तब यह पूरी कथा पता चली। मैंने तो सुना है कि तुम बड़े बुद्धिमान हो! मुझ जैसा सुखी तुमने | वह जो हमें सुख जैसा मालूम होता है, वह सुख नहीं है। और कहीं कोई और मनुष्य देखा है ? मैं परम सुख को उपलब्ध हुआ हूं। वह जो हमें सुख जैसा मालूम होता है, उसके लिए हम सबको दुख सोलन, कुछ बोलो इस पर! | देते हैं, सब का साधन की तरह उपयोग करते हैं, सब को चूसते हैं, सोलन ने कहा कि मैं चुप ही रहूं, वही अच्छा है, क्योंकि शोषण करते हैं। भंगर को मैं सख नहीं कह सकता। और जो शाश्वत नहीं है. हमारा जीवन हमें इतना मल्यवान होता है मालम कि अगर उसमें सुख हो भी नहीं सकता। सम्राट, यह सब दुख है। बड़ा सबकी मृत्यु भी उसके लिए घट जाए, तो भी कोई हर्ज नहीं। अगर चमकदार है, लेकिन दुख है। तुम इसे सुख समझे हो, तो तुम मूढ़ | हमें दूसरों के सिरों पर पैर रखकर, सीढ़ियां बनाकर राजमहल तक पहुंचने का उपाय हो, तो हम लोगों के सिरों का उपयोग सीढ़ियों सम्राट को धक्का लगा। जो होना था, वह हुआ। सोलन चुप ही | की तरह करेंगे। सभी महत्वाकांक्षी करते हैं। लोग उनके लिए रहता, तो अच्छा था। सोलन को उसी वक्त गोली मार दी गई। सीढ़ियों से ज्यादा नहीं हैं। धन की यात्रा करता हो कोई, पद की सामने महल के एक खंभे से लटकाकर, बंधवाकर सम्राट ने कहा, यात्रा करता हो, लोगों का उपयोग करता है सीढ़ियों की तरह। सभी अभी भी माफी मांग लो। तुम गलती पर हो। अभी भी कह दो कि राजनीतिज्ञ जानते हैं। 3911 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * राजनीतिज्ञों के सबसे बड़े दार्शनिक मेक्यावेली ने लिखा है कि इसलिए जीसस या उन जैसे महाप्रज्ञावान पुरुषों ने सेवा को, तुम जिस आदमी का सीढ़ी की तरह उपयोग करो, उपयोग करने के दूसरे की सेवा को धर्म की आधारशिला बनाया। उसमें मूल्य है। बाद उसे जिंदा मत छोड़ना। उसको काट-पीट डालना। क्योंकि तुम | उस बात का इतना ही मूल्य है कि दूसरे के लिए जरूरत पड़े, तो उसका सीढ़ी की तरह उपयोग कर सके हो, दूसरे भी उसका सीढ़ी | तुम मिट जाना, लेकिन किसी को भी अपने लिए मत मिटाना। की तरह उपयोग कर सकते हैं। पूछा है, यह कैसे संभव होगा कि हम दूसरे को साध्य समझ लें? इसलिए सभी राजनीतिज्ञ यही करते हैं। जिनके कंधे पर पैर | समझने का सवाल नहीं है, यह तथ्य है। यह वास्तविक स्थिति रखकर राजनीतिज्ञ पहुंचता है राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के पद पर, | है कि आप केंद्र नहीं हैं इस जगत के। आप एक छोटी-सी.लहर हैं। पहुंचते ही उस आदमी को गिराने में लगता है। क्योंकि वह आदमी | | इस विराट अस्तित्व में आप एक छोटा-सा कण हैं। यह विराट खतरनाक है, उसके कंधे पर दूसरा भी कल कोई आ सकता है। | अस्तित्व आपके लिए नहीं है, आप इस विराट अस्तित्व के लिए इसके पहले कि दूसरा उसके कंधे पर सवार हो, उसका विनाश कर हैं। जैसे ही यह खयाल में आ जाएगा...। देना जरूरी है। या उसे उस जगह पहुंचा देना जरूरी है, जहां वह और इसे खयाल में लाने के लिए कुछ सोचने की जरूरत नहीं सीढ़ी का काम न दे सके। | है, सिर्फ आंख खोलने की जरूरत है, और यह दिखाई पड़ जाएगा। इसलिए सब राजनीतिज्ञ, जिन सीढ़ियों से चढ़ते हैं, उनको जला आप कल नहीं थे, आज हैं, कल नहीं हो जाएंगे। यह अस्तित्व देते हैं। जिन रास्तों से गुजरते हैं, उनको तोड़ देते हैं। जिन सेतुओं | आपके पहले भी था, अब भी है, आपके बाद भी होगा। आप इस को पार करते हैं, उनको गिरा देते हैं, ताकि दूसरा पीछे से उन पर अस्तित्व में से उठते हैं, इसी अस्तित्व में डूब जाते हैं। यह अस्तित्व 'न आ सके। धन की यात्रा करने वाला भी वही करेगा। आपसे बड़ा है, विराट है। आप एक छोटे-से अंश हैं। अंश केंद्र महत्वाकांक्षी अपने को साध्य मानता है, दूसरे को साधन। | नहीं हो सकता, अंशी ही केंद्र होगा। अंश सब को मिटाकर अपने महत्वाकांक्षी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। एंबीशन, को बचाने की बात सोचे, तो पागलपन है। यह होने वाला नहीं है। महत्वाकांक्षा इस जगत में सबसे अधार्मिक घटना है। | वह खुद ही मिटेगा। लेकिन यह अंश अगर अपने को मिटाकर सारे धर्म का सूत्र तो कृष्ण कह रहे हैं; वह यह है कि दूसरा साधन | को बचाने की सोचे, तो कभी भी नहीं मिटेगा। क्योंकि समग्र उसे नहीं है, साध्य है। दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे को साध्य मानता | | स्वीकार कर लेगा। समग्र के साथ आत्मसात और एक हो जाएगा। है। कभी जरूरत पड़े, तो वह सीढ़ी बन सकता है, लेकिन दूसरे को जिनको हमने भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति कहा है-कृष्ण को, सीढ़ी नहीं बनाएगा। अपने सुख के लिए दूसरे के दुख का सवाल | | बुद्ध को, महावीर को-उनको भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति नहीं है। अगर अपना सुख दूसरे के सुख से ही मिल सकता हो, तो । | इसीलिए कहा है कि उन्होंने अपने अंश को अंशी में छोड़ दिया। ही दैवी संपदा का व्यक्ति उस सुख को स्वीकार करेगा। अब वे लड़ नहीं रहे; अब उनका कोई विरोध इस जगत से नहीं है। और यह समझ लेने जैसा है कि अगर आपके सुख से दूसरा भी | इस अस्तित्व से उनका रत्तीमात्र फासला नहीं है। उन्होंने अपने को सुखी होता हो, तो वह सुख आनंद है। यह आनंद का फर्क है। जिस | पूरा इसमें समर्पित कर दिया, लीन कर दिया। आपके सुख से दूसरा दुखी होता हो, वह आनंद नहीं है। और वह | जो व्यक्ति स्वयं को साध्य मानता है. वह लीन कैसे करे? सिर्फ दिखाई पड़ता है सुख है, वह सुख भी नहीं है। और एक दिन | | समर्पण कैसे करे? जो अपने को निमित्त और साधन मान लेता है, आप अनुभव करेंगे, तब आपके भीतर से भी आवाज आएगी कि वह तत्क्षण लीन हो जाता है। सोलन, सोलन, तू ठीक था। मुझे क्षमा करना। मैं गलती पर हूं।। कृष्ण की पूरी शिक्षा अर्जुन को यही है कि तू निमित्त बन जा। तू मेरा सुख अगर आस-पास सभी का सुख बनता हो, तो ही | | यह खयाल ही छोड़ दे कि तू है। तू यही समझ कि परमात्मा है और आनंद है। उसे फिर कोई भी छीन न सकेगा। तू केवल उसका एक मार्ग है, कि जैसे परमात्मा की बांसुरी है तू; दैवी और आसुरी संपदा, दूसरों का हम उपयोग करते हैं, कैसा परमात्मा बोल रहा है, उसकी वाणी है और तू सिर्फ बांस की पोली उपयोग करते हैं, इससे विभाजित होती है। दैवी संपदा का व्यक्ति | नली है। तू सिर्फ मार्ग दे, स्वरों को बहने दे, अवरोध मत कर। दूसरे का उपयोग ही नहीं करता, दूसरे के उपयोग आ सकता है। इसे हम कैसे उपलब्ध करें? 392 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *जीवन की दिशा कैसे उपलब्ध करने का सवाल नहीं है। यह स्थिति है। थोड़ा-सा कर सकते हैं। लेकिन यह भी उनके अहंकार की ही यात्रा है। उनके सजग और आंख खोलकर देखने की जरूरत है। ऐसा है। जैसे | | मंदिर का अर्थ है, उनसे बड़ा मंदिर और कोई खड़ा नहीं कर आपकी दो आंखें हैं, दो हाथ हैं; आप आंख बंद किए बैठे हैं और | सकता। उनके यज्ञ का अर्थ है कि ऐसा यज्ञ पृथ्वी पर कभी हुआ कहते हैं, मैं कैसे मानूं कि मेरे दो हाथ हैं! तो मैं यह कहूं, आंख | नहीं। उनका धर्म भी उनकी श्रेष्ठता को ही सिद्ध करे, इतना ही उनके खोलें और देखें, दो हाथ हैं। इसको मानने की जरूरत नहीं है, सिर्फ धर्म का प्रयोजन है। आंख खोलने की जरूरत है। शास्त्र-विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन जब भी आप थोड़ा-सा देखेंगे चारों तरफ, तो यह आपको करते हैं...। समझने में कठिनाई नहीं होगी कि आप केंद्र नहीं हो सकते। वे अगर शुभ भी करेंगे, तो सिर्फ इसलिए, ताकि वे पूजे जाएं। विक्षिप्तता है यह मानना कि मैं केंद्र हूं। वे अगर कुछ भला भी करेंगे, दान भी देंगे, तो सिर्फ इसलिए ताकि अब हम सूत्र को लें। वे जाने जाएं। उनके प्रत्येक कृत्य का लक्ष्य वे स्वयं हैं। वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष धन और मान | तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण के मद से युक्त हुए, शास्त्र-विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों | | हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर द्वारा पाखंड से यजन करते हैं। | में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के पारायण परमात्मा कहीं भी हो, उससे उन्हें द्वेष होगा। क्यों? क्योंकि हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर परमात्मा की स्वीकृति, अपने अहंकार का खंडन है। में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। नीत्से ने अपने एक वचन में लिखा है-जब वह पागल हो ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं | गया, तब उसने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं परमात्मा को संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। इसलिए हे | | स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि अगर परमात्मा है, तो फिर मैं नंबर अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए, मेरे | | दो हूं, इसलिए मैं परमात्मा को स्वीकार नहीं कर सकता। नंबर एक को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं। तो मैं ही हो सकता हूं और या यह हो सकता है कि नंबर एक कोई आसुरी संपदा के जो व्यक्ति हैं, वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने | | भी नहीं है। लेकिन परमात्मा कहीं भी है, तो फिर मैं पीछे पड़ता हूं। वाले हैं। उनके लिए श्रेष्ठता का एक ही अर्थ है कि जो भी मैं हूं, फिर मेरी स्थिति नीची हो जाती है। वही श्रेष्ठता है। अपना होना उनकी श्रेष्ठता की परिभाषा है। श्रेष्ठता इसलिए परमात्मा को स्वीकार करना आसुरी वृत्ति वाले व्यक्ति और अहंकार में उन्हें कोई भेद नहीं है। को अति कठिन है। इसलिए नहीं कि उसको पता है कि परमात्मा नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा है...। उसने कुछ कानून बनाए, नहीं है। इसलिए भी नहीं कि तर्कों से सिद्ध होता है कि परमात्म फिर उनको बदल दिया, फिर बदल दिया। तो उसके राजमंत्रियों ने नहीं है। वह तर्क भी देगा, वह सिद्ध भी करेगा। लेकिन न तो तर्कों कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं! कानून थिर होना चाहिए। और | से सिद्ध होता है कि परमात्मा है और न सिद्ध होता है कि परमात्मा इस तरह तो अराजकता हो जाएगी। तो नेपोलियन बोनापार्ट ने नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें। कहा, आइ एम दि लॉ-और कोई कानून नहीं है, मैं कानून हूं। जो | मनुष्य की बुद्धि न तो पक्ष में कुछ तय कर सकती है, न विपक्ष मुझसे निकलता है, वह कानून है। कोई कानून मेरे ऊपर नहीं है; में। अब तक हजारों-हजारों तर्क दिए गए हैं। जितने पक्ष में हैं, उतने ही विपक्ष में। बराबर संतुलन है। कोई आस्तिक किसी नास्तिक को यही आसुरी संपदा वाले का प्राथमिक लक्षण है, मैं श्रेष्ठ हूं। राजी नहीं कर सकता कि ईश्वर है; और कोई नास्तिक किसी और धन और मान के मद से युक्त हुए...। आस्तिक को राजी नहीं करवा सकता कि ईश्वर नहीं है। दोनों बातें ऐसे व्यक्ति अगर धर्म भी करते हैं. तो उनका धर्म भी धन और समतल हैं। तर्कों से कछ सिद्ध नहीं हआ है। मद का ही मान होता है। वे बड़ा मंदिर खड़ा कर सकते हैं, जो A. लेकिन फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर है। कुछ लोग आकाश को छुए। वे यज्ञ करवा सकते हैं, करोड़ों रुपए उसमें खर्च मानते हैं, नहीं है। तो किस आधार पर मानते होंगे, क्योंकि तर्क से मैं ही कानून हूं। 393' Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 कुछ भी सिद्ध नहीं होता। तब आधार दूसरे हैं; तब आधार का कारण आसुरी संपदा और दैवी संपदा है। वे जो समझते हैं कि मैं ही श्रेष्ठ हूं, मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, वे परमात्मा को नहीं मान सकते। फिर वे तर्क खोज लेते हैं। लेकिन वे तर्क पीछे आते हैं, वे तर्क रेशनलाइजेशंस हैं। वह अपनी ही मानी हुई बात को सिद्ध करने का उपाय है। और दूसरे वे लोग हैं, जो जानते हैं कि मैं कैसे केंद्र हो सकता हूं! वह हूं। वे परमात्मा को स्वीकार कर लेते हैं। उनकी स्वीकृति भी तर्क से नहीं आती, उनकी दैवी संपदा से आती है। और इन दोनों के बीच में अधिक लोग हैं, जिन्होंने कुछ तय ही नहीं किया। जिनको हम अधिकतर आस्तिक कहते हैं, वे बीच के लोग हैं; आस्तिक नहीं हैं। उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि परमात्मा है या नहीं। आप में से अधिक लोग उस तीसरे हिस्से में ही हैं। अगर आप कहते हैं कि होगा, तो उसका मतलब यह नहीं कि आप मानते हैं कि ईश्वर है । आप मानते हैं, सोचने योग्य भी नहीं है। लोग कहते हैं; होगा। और क्या हर्जा है, हो तो हो। और कभी वर्ष में एकाध बार अगर मंदिर भी हो आए, तो क्या बनता - बिगड़ता है! और होशियार आदमी दोनों तरफ कदम रखकर चलता है। अगर हो ही, तो मरने के बाद कोई झंझट भी नहीं होगी। न हो, तो हमने कुछ उसके लिए खोया नहीं। हमने संसार अच्छी तरह भोगा । और मानते रहे कि परमात्मा हम दोनों नाव पर सवार हैं। बहुत थोड़े-से लोग हैं, जो मानते हैं कि परमात्मा है। वे वे ही लोग हैं, जो अपने अहंकार को तोड़ते हैं, घमंड को छोड़ते हैं, गर्व को गिराते हैं। बहुत लोग हैं, जो मानते हैं परमात्मा नहीं है। उनका कुल कारण इतना है कि वे खुद अपने साध्य समझे हैं। इसलिए अपने से परम को स्वीकार करना उनके लिए आसान नहीं है। और अधिक लोग हैं, जिनको कोई चिंता ही नहीं है, जिनको कोई प्रयोजन नहीं है, जो उपेक्षा से भरे हैं। इसमें आप कहां हैं? और आप जहां भी होंगे, मजे की बात यह है कि वहीं के लिए आप तर्क खोज लेंगे। फ्रायड ने एक बहुत बड़ी खोज इस सदी में की। और उसने यह खोज की कि लोग तय पहले कर लेते हैं, तर्क बाद में खोजते हैं। आप एक स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं। कोई आपसे पूछे कि आप प्रेम में क्यों पड़े हैं इसके ? तो आप कहते हैं, वह इतनी सुंदर है। लेकिन फ्रायड कहता है, मामला बिलकुल उलटा है। वह स्त्री दूसरों को सुंदर नहीं दिखाई पड़ती। आप कहते हैं, सुंदर है, इसलिए प्रेम में पड़े। फ्रायड कहता है, आप प्रेम में पड़ गए, इसलिए सुंदर दिखाई पड़ती है। यह बात ज्यादा सही मालूम होती है, क्योंकि और किसी को सुंदर नहीं दिखाई पड़ती। और दूसरों को शायद कुरूप दिखाई पड़ती हो । शायद दूसरे चकित होते हों कि आपका दिमाग खराब हो गया है कि आप इस स्त्री के चक्कर में पड़े हैं! और आप अपने मन में सोचते हैं कि दुनिया भी कैसी मूढ़ है; अज्ञानीजन हैं। इनको इस स्त्री का असली रूप दिखाई ही नहीं पड़ रहा है। प्रेम में हम पहले पड़ते हैं, फिर तर्क हम बाद में इकट्ठा करते हैं। किसी व्यक्ति को आप देखते ही घृणा करने लगते हैं, फिर आप तर्क खोजते हैं, फिर आप कारण खोजते हैं। क्योंकि बिना कारण हमें अड़चन होती है। अगर कोई हमसे पूछे कि क्यों घृणा करते हो, और हम कहें कि बिना कारण करते हैं, तो हम मूढ़ मालूम पड़ेंगे। 'हम कारण खोजते हैं कि यह आदमी मुसलमान है; मुसलमान बुरे होते हैं। यह आदमी हिंदू है; हिंदू भले नहीं होते। कि यह आदमी मांसाहारी है; कि इस आदमी का चरित्र खराब है। आप फिर हजार कारण खोजते हैं। वे कारण आपने पीछे से खोजे हैं। भाव आपका पहले निर्मित हो गया। और भाव अचेतन है और कारण चेतन है। फ्रायड की खोज बड़ी बहुमूल्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अंधे की तरह जीता है और सिद्ध करने को कि मैं अंधा नहीं हूं, कारणों की तजवीज करता है । उनको उसने रेशनलाइजेशंस कहा है। फिर उनको वह बुद्धि-युक्त ठहराता है। ईश्वर के साथ भी यही होता है, गुरु के साथ भी यही होता है। मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास दो युवक गए। वे साधना में उत्सुक थे और सत्य की खोज करना चाहते थे। उस फकीर ने कहा, सत्य और साधना थोड़े दिन बाद; अभी मुझे कुछ और दूसरा काम तुमसे लेना है। लकड़ी चुक गई हैं आश्रम की, तो तुम दोनों जंगल चले जाओ और लकड़ियां इकट्ठी कर लो। और अलग-अलग ढेर लगाना। क्योंकि तुम्हारी लकड़ी का ढेर केवल लकड़ी का ढेर नहीं है, उससे मुझे कुछ और परीक्षा भी करनी है। तो दोनों युवक गए; उन्होंने लकड़ी के दो ढेर लगाए। फिर गुरु | सात दिन बाद आया, तो उसने पहले युवक के लकड़ी के ढेर में आग | लगाने की कोशिश की। सांझ तक परेशान हो गया। आंखों से आंसू बहने लगे। धुआं ही धुआं निकला, आग न लगी। सब लकड़ियां गीली थीं। शिष्य ने क्या कहा गुरु को ? कि मैं चला। जब तुमसे 394 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन की दिशा * लकड़ी में आग लगाना नहीं आता, तो तुम मुझे क्या बदलोगे! | जानते हैं कि चालाकी, शरारत, कोई धोखाधड़ी, कोई भाई-भतीजा दूसरे युवक की लकड़ियों में गुरु ने आग लगाई; लकड़ियां | वाद, कुछ न कुछ मामला होगा, तभी दूसरा आगे गया, नहीं तो भभककर जल गईं। सूखी लकड़ियां थीं। दूसरा युवक भी पहली हमसे आगे कोई जा कैसे सकता था! अगर दूसरा हमसे पीछे रह घटना देख रहा था। जाए, तो हम समझते हैं, रहेगा ही पीछे; क्योंकि हमसे आगे जाने __ और पहला युवक छोड़कर जा चुका था, और जाकर उसने गांव की कोई योग्यता भी तो होनी चाहिए। में प्रचार करना शुरू कर दिया था कि यह आदमी बिलकुल बेकार हम जो भी होते हैं, जहां भी होते हैं, उसके अनुसार तर्क खोज है। एक तो हमारे सात दिन खराब किए, लकड़ी इकट्ठी करवाई। लेते हैं। हम गए थे सत्य को खोजने! इसमें कोई तुक नहीं है, संगति नहीं | ईश्वर है या नहीं है, यह बड़ा सवाल नहीं। जो व्यक्ति ईश्वर को है। फिर हमने पसीना बहा-बहाकर, खून-पसीना करके लकड़ियां मान सकता है कि है, उसने अपने को झुकाया, यह बड़ी भारी बात इकट्ठी की। और इस आदमी को आग लगाना नहीं आता। तो उसने | है। ईश्वर न भी हो, तो भी जिसने स्वीकार किया कि ईश्वर है और लकड़ियां भी खराब की, धुआं पैदा किया, हमारी तक आंखें खराब | अपने को झुकाया, इसके लिए ईश्वर हो जाएगा। और जो कहता हुईं। और यह आदमी किसी योग्य नहीं है। भूलकर कोई दुबारा | है, ईश्वर नहीं है-चाहे ईश्वर हो ही-इसने अपने को अकड़ाया। इसकी तरफ न जाए। | ईश्वर हो, तो भी इसके लिए नहीं है, तो भी इसके लिए नहीं हो . दूसरा युवक भी यह देख रहा था कि पहला युवक जा चुका है। | सकेगा, तो भी क्योंकि इसके द्वार बंद हैं। दूसरे युवक की लकड़ियां जब भभककर जलने लगी, तो उसने | ___ वह जो आसुरी संपदा का व्यक्ति है, अहंकार, बल, घमंड, कहा कि बस, ठहरो। यह मत समझ लेना कि बड़े अकलमंद हो | कामना और क्रोधादि के परायण हुआ, दूसरों की निंदा करने वाला, तुम। लकड़ियां सूखी थी, इसलिए जल रही हैं, इसमें तुम्हारी कोई | | दूसरों के शरीर में मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाला है। ऐसे उन द्वेष कुशलता नहीं है। और मैं चला। अगर तुम इसको अपना ज्ञान | | करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में समझ रहे हो कि सूखी लकड़ियों को जला दिया तो कोई बहुत बड़ी | | बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। बात कर ली, तो तुम से अब सीखने को क्या है! यह वचन थोड़ा कठिनाई पैदा करेगा, क्योंकि हमें लगेगा कि दोनों युवक चले गए। गुरु मुस्कुराता हुआ वापस लौट आया। क्यों परमात्मा गिराएगा! होना तो यह चाहिए कि कोई आसुरी वृत्ति आश्रम में लोगों ने उससे पूछा, क्या हुआ? तो उसने कहा, जो होना | में गिर रहा हो, तो परमात्मा उसे रोके, बचाए, दया करे। क्योंकि था ठीक उससे उलटा हुआ। पहला युवक अगर कहता कि | | हम निरंतर प्रार्थना करते हैं कि हे पतितपावन ! हे करुणा के सागर! लकड़ियां गीली हैं, मैं गीला हूं, इसलिए तुम्हें जलाने में इतनी | | दया करो, बचाओ, मैं पापी हूं। और ये कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसे कठिनाई हो रही है, तो उसका रास्ता खुल जाता। दूसरा युवक अगर | | नराधम, क्रूरकर्मी को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही कहता कि तुम्हारी कृपा है कि मेरी लकड़ियों में आग लग गई, तो | गिराता हूं! उसका रास्ता खुल जाता। लेकिन दोनों ने रास्ते बंद कर लिए। और ___ जब ईसाई या इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग इस तरह के अब दोनों जाकर प्रचार कर रहे हैं; दोनों ने धारणा बना ली, अब वचन पढ़ते हैं, तो उनको बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि इस्लाम में दोनों उसके लिए तर्क जुटा रहे हैं। मुझसे उन्होंने पूछा नहीं। मेरी | | तो परमात्मा के सभी नाम-रहीम, रहमान, करीम-सब नाम तरफ देखा नहीं। मैं क्या कर रहा था. मेरा क्या प्रयोजन था. इसकी | दया के हैं कि वह दयालु है। यह कैसी दया! और जीसस ने कहा उन्होंने कोई खोज न की। सतह से कुछ बातें लेकर वे जा चुके हैं। | है कि तुम प्रार्थना करो, तो सब तरह की क्षमा संभव है। तुम पुकारो, आप भी, जहां भी आपको दूसरे को श्रेष्ठ मानना पड़ता है, वहां | | तो क्षमा कर दिए जाओगे। बड़ी अड़चन आती है। दूसरे को अपने से नीचा मानना बिलकुल | लेकिन कृष्ण का यह वचन! इसका तो अर्थ यह हुआ, और यही सुगम है। हम हमेशा तैयार ही हैं। हम पहले से माने ही बैठे हैं कि भारतीय प्रज्ञा की खोज है, कि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम दूसरा नीचा है। सिर्फ अवसर की जरूरत है और सिद्ध हो जाएगा। पुकारो और वह क्षमा कर दे। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम और अगर कोई दूसरा हमसे आगे भी निकल जाए कभी, तो हम | | उसे फुसला लो, राजी कर लो-प्रशंसा से, खुशामद से, स्तुति 395 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 . से-और वह बदल दे। परमात्मा एक नियम है, व्यक्ति नहीं। पहुंच जाता है। इसको थोड़ा समझ लें। जगत के नियम को समझकर उसके अनुकूल चलने का नाम परमात्मा एक व्यवस्था है, व्यक्ति नहीं। तो आग में कोई आदमी धर्म है। हाथ डाले, तो आग जलाएगी। आग जलाने को उत्सुक नहीं है। बुद्ध ने धर्म शब्द का अर्थ ही नियम किया है, दि लॉ। जब बुद्ध आग इस आदमी को जलाने के लिए पीछे नहीं दौड़ती। लेकिन यह कहते हैं, धम्मं शरणं गच्छामि; तो वह कहते हैं, धर्म की शरण आदमी आग में हाथ डालता है, तो आग जलाती है। क्योंकि आग | | जाओ; तो उसका यही अर्थ है कि नियम की शरण जाओ। और का स्वभाव जलाना है, वह उसका नियम है। अगर हम आग से नियम के अनुकूल चलोगे, तो तुम मुक्त हो जाओगे। नियम के पूछे, तो वह कहेगी, जो मुझमें हाथ डालेगा, उसे मैं जलाऊंगी। प्रतिकूल चलोगे, तो अपने हाथ से बंधते चले जाओगे। नियम के आग चूंकि बोलती नहीं, इसलिए हमें खयाल में नहीं है। | विपरीत जो जाएगा, वह दुख पाएगा। नियम के अनुकूल जो कृष्ण परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं। वह जो जागतिक नियम | जाएगा, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। है, युनिवर्सल लॉ है, वह जो जीवन का आधार-स्तंभ है, उसकी __इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि को तरफ से बोल रहे हैं। वह कहते हैं, जो व्यक्ति ऐसा कर्म करेगा, प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर उससे भी अति नीची गति को ही इस तरह की दृष्टि और धारणा रखेगा, ऐसा पाप में डूबेगा, उसे मैं प्राप्त होते हैं। गिराता हूं। गिराने का कुल मतलब इतना ही है, ऐसा करने से वह जब कोई व्यक्ति गिरना शुरू हो जाता है, तो वह मोमेंटम अपने आप गिरता है; कोई परमात्मा उसको धक्का नहीं देता। | | पकड़ता है, गिरने में भी गति आ जाती है। आप कभी सोचें, अगर धक्का देने की कोई जरूरत नहीं है। वह ऐसा करता है, इसलिए आप एक झूठ बोलें, तो फिर दूसरा और तीसरा और चौथा...। गिरता है। और दूसरा पहले से बड़ा, और तीसरा दूसरे से बड़ा, क्योंकि फिर इसलिए भारत की जो गहरी से गहरी खोज है, वह कर्म का और बड़ा झूठ बोलना जरूरी है पिछले झूठ को सम्हालने के लिए। सिद्धांत है। यह खोज इतनी गहरी है कि जैनों और बौद्धों ने फिर एक गति आ जाती है। फिर उस गति का कोई अंत नहीं है। परमात्मा को विदा ही कर दिया। उन्होंने कहा, यह सिद्धांत ही काफी एक पाप करें, फिर दूसरा, फिर तीसरा, और बड़ा, और बड़ा; है। परमात्मा को बीच में लाने की कोई जरूरत भी नहीं है। जैनों | | तब आप अपने ही हाथ से गिरते चले जाते हैं। और अगर आप और बौद्धों ने परमात्मा को इनकार ही कर दिया कि कोई जरूरत ही | | गिरना चाहते हैं, तो नियम सहयोग देता है। अगर आप उठना नहीं है परमात्मा को बीच में लाने की। कर्म से मामला साफ हो | | चाहते हैं, तो नियम सीढ़ी बन जाता है। गहरे में समझने पर, आप जाता है। और सच में ही साफ हो जाता है। जो करते हैं, उससे आपकी दिशा निर्मित होती है। लेकिन परमात्मा को इनकार करने की कोई भी जरूरत नहीं, | । सुबह आप उठे और आपने क्रोध किया। आपने दिन के लिए क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही वह महानियम है जो इस जीवन को चुनाव कर लिया। अब दूसरा क्रोध पहले से ज्यादा आसान होगा; चला रहा है। उसे हम कर्म का नियम कहें, या परमात्मा कहें, एक | तीसरा दूसरे से ज्यादा आसान होगा। सांझ तक आप अनेक बार ही बात है। | क्रोध करेंगे और सोचेंगे, न मालूम किस दुष्ट का चेहरा देखा! वह जो गिरता है अपने हाथ से, नियम उसे गिराता है। आप आईने में अपना ही देखा होगा। क्योंकि किसी दूसरे के चेहरे से जमीन पर चलते हैं, सम्हलकर चलते हैं, तो ठीक। उलटे-सीधे | | आपके जीवन की गति का कोई संबंध नहीं है; आपसे ही संबंध है। चलते हैं, तो गिर जाते हैं, हाथ-पैर टूट जाते हैं। कोई जमीन | | इसलिए सारे धर्मों ने फिक्र की है कि सुबह उठकर पहला काम आपको गिराती नहीं है। लेकिन उलटा-सीधा जो चलता है, नियम | | परमात्मा की प्रार्थना का करें। उससे मोमेंटम बदलेगा, उससे गति के विपरीत, उसके हाथ-पैर टूट जाते हैं। बदलेगी। प्रार्थना के बाद एकदम से क्रोध करना मुश्किल होगा। जमीन स्वेच्छा से, आकांक्षा से आपका हाथ-पैर नहीं तोड़ती। | और प्रार्थना के बाद और प्रार्थनापूर्ण होना आसान हो जाएगा। लेकिन जमीन का नियम है, उसके विपरीत जो जाता है, वह टूट ___ जो बात गलत के संबंध में सही है, वही सही के संबंध में भी जाता है। उसके अनुकूल जो जाता है, वह सहजता से मंजिल पर सही है। जो आप करते हैं, उसी दिशा में करने की और गति आती 396 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जीवन की दिशा * है। जिस तरफ आप चलते हैं, उस तरफ आप दौड़ने लगते हैं। कृष्ण कहते हैं, और भी मैं अति नीची योनियों में गिराता हूं। दिशा चुनना बड़ा जरूरी है। सुबह उठते ही प्रेम और प्रार्थना और वे गिराते नहीं। कोई गिराने वाला नहीं है, कोई उठाने वाला नहीं करुणा का भाव हृदय में भर जाए, तो आपके दिन की यात्रा है। आप ही गिरते हैं। नियम न पक्षपात करता है, न चुनाव करता बिलकुल दूसरी होगी। लेकिन सुबह अगर आप चूक गए, तो बड़ी है। नियम निष्पक्ष है। इसलिए जो भी आप हैं, अपनी ऊर्जा, दिशा कठिनाई हो जाती है। और नियम, तीन का जोड़ हैं। ___यही बात पूरे जीवन के संबंध में भी लागू है। अगर बचपन में | | नियम शाश्वत है, सनातन है; आपकी ऊर्जा शाश्वत है, दिशा प्रार्थना और परमात्मा की हो जाए, तो पूरे जीवन की यात्रा | | सनातन है; ये दोनों समानांतर हैं। इन दोनों के बीच में एक और आसान हो जाएगी। इसलिए हम अपने बच्चों को इस मुल्क में | तत्व है, आपका चुनाव, इस ऊर्जा को नियम के अनुकूल बहाना पुराने दिनों में, पहले चरण में गुरुकुल भेज देते थे कि पच्चीस वर्ष या नियम के प्रतिकूल बहाना। तक वे प्रार्थनापूर्ण जीवन व्यतीत करें। क्योंकि उससे गति बनेगी; नदी बह रही है; नाव आपके पास है, वह आपका जीवन है; एक यात्रा का पथ निर्मित होगा। फिर बहुत आसानी से आगे सब | नदी नियम है। अब इस नदी के साथ नाव को बहाना है या नदी के हो जाएगा। | विपरीत नदी से लड़ने में नाव को लगाना है? एक बार बचपन खो गया, गति बिगड़ गई, पैर डांवाडोल हो | जो नदी के विपरीत बहेगा, वह आसुरी चित्त-दशा को उपलब्ध गए, उलटी दिशा पकड़ गई, फिर उसी दिशा में दौड़ शुरू हो जाती होता जाएगा। जो नदी के साथ बह जाएगा—उस साथ बहने का है। जवानी दौड़ का नाम है। बचपन में जो दिशा पकड़ ली, जवानी नाम ही समर्पण है-वह दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है। उसी दिशा में दौड़ती चली जाएगी। फिर बुढ़ापा ढलान है। जिस आज इतना ही। दिशा में आप जवानी में दौड़े हैं, उसी दिशा में आप बुढ़ापे में ढलेंगे। क्योंकि शक्ति फिर क्षीण होती चली जाती है। अब तो मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि सात वर्ष की उम्र के बच्चे को हम जो दिशा दे देंगे, सौ में निन्यानबे मौके पर वह उसी दिशा में जीवनभर यात्रा करेगा। बहुत शक्ति की जरूरत है। फिर बाद में दिशा बदलने के लिए। शुरू में दिशा बदलना बिलकुल आसान है। कोमल पौधा है, झुक जाता है। फिर रास्ता पकड़ लेता है, फिर उस झुकाव को तोड़ना बहुत कठिन हो जाता है। . बचपन में जाने का तो अब कोई उपाय नहीं, लेकिन रोज सुबह आप फिर से थोड़ा-सा बचपन उपलब्ध करते हैं। कम से कम दिन को दिशा दें। दिन जुड़ते जाएं। और अनेक दिन जुड़कर जीवन बन जाते हैं। गलत कदम उठाने से रोकें। उठ जाए, तो बीच से वापस लौटा लें। सही कदम उठाने की पूरी ताकत लगाएं; आधा भी जा सकें. तो नजाने से बेहतर है। थोडे ही दिन में आपकी जीवन-ऊर्जा दिशा बदल लेगी। आसुरी दिशा, हम जो कर रहे हैं, क्रोध, मान, अहंकार, उसमें हमें बढ़ाती जाती है। उससे रुकेंगे नहीं, बदलेंगे नहीं, हाथ हटाएंगे नहीं, कुछ छोड़ेंगे नहीं गलत, खाली न होंगे हाथ, तो दैवी संपदा की तरफ बढ़ना बहुत मुश्किल है। और जिस तरफ आप जाते हैं, उस तरफ...। 397 Page #426 --------------------------------------------------------------------------  Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 16 आठवां प्रवचन नरक के द्वार : काम, क्रोध, लोभ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। | सकती है, जब व्यक्तिगत रूप से ईश्वर मौजूद हो। हमने अब तक कामः क्रोषस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। २१।। | ऐसा ही सुना और समझा है कि पूजा तभी हो सकती है, जब पूजा एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्धारैस्त्रिमिनरः । | लेने वाला मौजूद हो। आराधना और भक्ति तभी सार्थक है, जब आवरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ।। २२ ।। | भगवान हो; कोई व्यक्ति की तरह मौजूद हो, जो स्वीकार करे, यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । अस्वीकार करे; स्तुति से प्रसन्न हो, निंदा से नाराज हो। कोई नस सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।। २३ ।। | प्रतिक्रिया करने वाला मौजूद हो, तो ही हमारे प्रेम की पुकार का तस्माच्छात्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थिती।। कोई अर्थ है; कोई जबाब दे! हमने अब तक ऐसा ही समझा है, ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहाहसि ।। २४ ।। | इसलिए प्रश्न उठता है। और हे अर्जुन, काम, क्रोष तथा लोभ, ये तीन प्रकार के लेकिन हमारी समझ भ्रांत है; हमारी समझ में भूल है। नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात अधोगति ___प्रार्थना की उपादेयता परमेश्वर है, इससे जरा भी नहीं है। प्रार्थना में ले जाने वाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिए। | करने का सारा का सारा विज्ञान प्रार्थना करने वाले से संबंधित है। क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ भगवान हो या न हो, व्यक्ति की तरह कोई आकाश में बैठकर पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है। इससे वह परम | जीवन को चलाता हो या न चलाता हो, भक्ति का उससे कुछ गति को जाता है अर्थात मेरे को प्राप्त होता है। | लेना-देना नहीं है। भक्ति तो भक्त की अंतर्दशा है। और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से भक्त को कठिन होगा बिना भगवान के भक्तिपूर्ण होना, बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम | इसलिए सभी धर्मों ने भगवान की धारणा को पोषित किया है। यह गति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है। सिर्फ भक्त को सहारा देने के लिए है। लेकिन अगर समझ हो, तो इसलिए तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में | भक्ति अपने आप में पूरी है, भगवान की कोई भी जरूरत नहीं। शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र-विधि से नियत प्रार्थना अपने आप में पूरी है, कोई उसे सुनता हो कि न सुनता हो; किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है। सुनने वाला आवश्यक नहीं। आराधना पर्याप्त है, आराध्य जरा भी आवश्यक नहीं है। जब मैं यह कहता हूं, तो क्या मेरा अर्थ होगा! क्योंकि बात पहले कुछ प्रश्न। कठिन लगेगी। आराधना हमारे लिए तभी समझ में आती है, जब पहला प्रश्नः ईश्वर और धर्म यदि परम नियम के ही आराध्य हो; पूजा तभी समझ में आती है, जब कोई पूज्य हो। नाम हैं, उससे अन्यथा कुछ भी नहीं, तो प्रार्थना, | लेकिन मैं आपको कहना चाहूंगा कि पूजा चित्त की एक दशा है। भक्ति, आराधना, सब व्यर्थ हो जाते हैं। तब तो धर्म बुद्ध किसी भगवान को मानते नहीं, फिर भी उनकी आराधना में विज्ञान का पर्याय हो जाता है और उस परम नियम | रत्तीभर कमी नहीं है। किसी परमेश्वर की उनके मन में कोई धारणा की खोज में निकलना मात्र धर्म रह जाता है। इस पर | नहीं है, लेकिन बुद्ध से ज्यादा प्रार्थनापूर्ण हृदय आप खोज पाइएगा? कुछ और प्रकाश डालें। एच.जी.वेल्स ने लिखा है कि बुद्ध जैसा ईश्वररहित और ईश्वर जैसा व्यक्ति खोजना कठिन है—सो गॉडलेस एंड सो गॉड लाइक। इसे हम थोड़ा-सा अंतर्मुखी हों, तो खयाल में आ सकेगा। + सा प्रश्न मन में उठेगा। यदि धर्म मात्र नियम है, तो | क्या आप प्रेमपूर्ण हो सकते हैं बिना प्रेमी के हुए? क्या प्रेमपूर्ण स्वभावतः धर्म विज्ञान ही हो गया। फिर प्रार्थना कैसी? | होना आपके जीवन का ढंग और शैली हो सकती है? क्या प्रेमपूर्ण किससे? आराधना कैसी और किसकी? पूजा, भक्ति | होना आपकी भाव-दशा हो सकती है? सब व्यर्थ हो जाते हैं। | तो फिर आप उठेंगे भी तो प्रेम से. बैठेंगे भी तो प्रेम से. भोजन क्योंकि हमने अब तक ऐसा ही समझा है कि प्रार्थना तभी हो | | करेंगे तो भी प्रेम से, सोने जाएंगे तो भी प्रेम से। कोई प्रेमी नहीं 400 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * होगा, लेकिन आप प्रेमपूर्ण होंगे। फिर जो भी आपके मार्ग पर आ आपकी भक्ति होगी, वहां भगवान प्रकट हो जाता है। जहां से जाएगा, वही आपको प्रेमी जैसा मालूम पड़ेगा। एक पक्षी भी उड़ आपकी भक्ति विदा हो जाएगी, वहीं भगवान विदा हो जाएगा। जाएगा आपके आंगन से और आप प्रेमपूर्ण होंगे, तो पक्षी प्रेमी हो भगवान आपकी आंखों के देखने का ढंग है। जाएगा। कोई भी न होगा, सूना आकाश होगा आपके आंगन का | | धर्म तो नियम है। लेकिन उस नियम में उतरना, आपको अपने और आपका हृदय प्रेमपूर्ण होगा, तो सूना आकाश भी व्यक्तित्व | को बदलना पड़े, तभी हो सकता है। ले लेगा। प्रार्थना आपको बदलने के लिए है। आमतौर से हम प्रार्थना व्यक्ति की जरूरत नहीं है, हृदय प्रेमपूर्ण हो, तो प्रेमपूर्ण हृदय करते हैं परमात्मा को बदलने के लिए। आप बीमार हैं, तो आप जिस तरफ भी प्रकाश डालता है, वहीं व्यक्तित्व निर्मित हो जाता प्रार्थना करते हैं कि मुझे ठीक करो। परमात्मा का इरादा बदलने की है। भगवान नहीं है, भक्त है। और भक्त का हृदय जहां भी देखता चेष्टा है हमारी प्रार्थना। अगर आप बीमार हैं और सच में ही भक्त है, वहीं भगवान प्रकट हो जाता है। हैं, तो आपको स्वीकार करना चाहिए कि परमात्मा चाहता है कि मैं इसे थोड़ा समझने की जरूरत है। बीमार होऊं, इसलिए मैं बीमार हूं। यह भक्त के हृदय की सृजनकला है कि वह जहां भी आंख ___ परमात्मा का दृष्टिकोण बदलने की चेष्टा हम करते हैं कि मुझे डालता है, वहां भगवान पैदा हो जाता है। वह वृक्ष में देखेगा, तो स्वस्थ कर; कि मैं गरीब हूं, मुझे अमीर कर; कि मैं दुखी हूं, मुझे वृक्ष में भगवान प्रकट हो जाएगा। यह आपकी आंख पर निर्भर है | सुखी कर; अपनी दृष्टि बदल। हम परमात्मा का ध्यान आकर्षित कि आप क्या पैदा कर लेते हैं। भगवान भक्त का सृजन है। । | करते हैं कि बदलो; जो चल रहा है, वह ठीक नहीं; मैं उससे राजी धर्म तो नियम है। धर्म कोई व्यक्ति नहीं है, धर्म तो शक्ति है। | नहीं हूं। इसलिए भगवान शब्द ठीक नहीं है, भगवत्ता! डीइटी नहीं, __ और हम उसकी खुशामद करते हैं। क्योंकि हमने जीवन में सीखा डिविनिटी! कोई व्यक्ति की तरह बैठा हुआ पुरुष नहीं है ऊपर, जो है कि मनुष्य को हम खुशामद से प्रभावित कर सकते हैं, इसलिए चला रहा हो। लेकिन यह सारा जगत चल रहा है। चलने की घटना | हम सोचते हैं, जिस ढंग से आदमी प्रभावित होता है, उसी ढंग से घट रही है; कोई चलाने वाला नहीं है। यह जो चलने का विराट परमात्मा भी प्रभावित होगा। तो हम स्तुति करते हैं; हम उसका उपक्रम चल रहा है, यह जो चलने की महान ऊर्जा है, यह जो शक्ति | | गुणगान करते हैं। हम कहते हैं, तुम बहुत महान हो। लेकिन हमारी है, यह शक्ति ही भगवान हो जाती है, अगर हृदय में भक्ति हो। । | इस सारी चेष्टा में छिपा क्या है? मन की आकांक्षा क्या है? यह शक्ति ही प्रकृति मालूम पड़ती है, अगर हृदय में भक्ति न हो। | यही कि तुम जो कर रहे हो, वह ठीक नहीं। और हमारी इस प्रकृति और परमात्मा दो तरह के हृदय की व्याख्याएं हैं। जिसके स्तुति में एक तरह की धमकी है कि अगर तुम यह बंद नहीं करोगे, हृदय में कोई भक्ति नहीं, उसे चारों तरफ प्रकृति दिखाई पड़ती है, | तो यह स्तुति बंद हो जाएगी, तो यह प्रार्थना समाप्त हो जाएगी; फिर पदार्थ दिखाई पड़ता है। जिसके हृदय में भक्ति है, उसे चारों तरफ | तुम्हें कोई पूजने वाला नहीं है। अगर पूजा जारी रखवानी है, तो परमात्मा दिखाई पड़ता है, परमेश्वर दिखाई पड़ता है। परमेश्वर हमारी मरजी के अनुसार थोड़ा कुछ करो। और प्रकृति एक ही विराट घटना की व्याख्याएं हैं। और आपके | | हमारी सारी प्रार्थनाएं मांगें हैं; हम कुछ मांगते हैं। और हमारी हृदय पर निर्भर है कि व्याख्या आप कैसी करेंगे। आप वही देख | | मौलिक मांग यह है कि हम ठीक हैं और तुम गलत हो। लेंगे, जो आपके हृदय में आविर्भूत हुआ है। ___ एक बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने लिखा है कि प्रार्थना, पूजा, आराधना भगवान के कारण नहीं हैं। लेकिन | | परमात्मा से हम जब भी प्रार्थना करते हैं, हम चाहते हैं कि दो और प्रार्थना, पूजा, आराधना के कारण जगत भगवान जैसा दिखाई | दो चार न हों। पड़ना शुरू हो जाता है। भगवान है और इसलिए हम प्रार्थना करते हमारी सारी प्रार्थनाओं का रूप यही है कि दो और दो चार न हों। हैं, ऐसा नहीं। हम प्रार्थना करते हैं, इसलिए भगवान हो जाता है। हमने पाप किए हैं, उसके कारण हम दुख भोगते हैं। वह दो और लोग कहते हैं, भगवान ने आपको बनाया, और मैं आपको दो चार हो रहे हैं। हम चाहते हैं, दुख हमें न मिले। पाप हमने किए कहता हूं कि आपकी भक्ति भगवान को सृजित करती है। जहां | | हैं, क्षमा तुम कर दो। 401] Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गीता दर्शन भाग-7 * जो भी हम भोग रहे हैं, वह हमारे कृत्यों का जोड़ है। लेकिन | रे परमात्मा, एक रुपया थैली का तूने काट लिया! उसमें तुम बदलाहट कर दो। दो और दो तो चार होते हैं, लेकिन उसने निन्यानबे स्वीकार कर लिए। हम चाहते हैं, या तो तुम पांच करो या तुम तीन करो; चार भर न | हमारी बनाई हुई प्रार्थना; हमारी प्रार्थना; और हम हिसाब लगा हो पाएं। हमारी सारी प्रार्थनाएं गणित को डगमगाने के लिए हैं, रहे हैं। वहां कोई है या नहीं, इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। इसलिए नियम को तोड़ने के लिए हैं। अन्यथा प्रार्थना का हमारा क्या अगर आपको पक्का हो जाए कि परमात्मा नहीं है, तो आपकी प्रयोजन है? प्रार्थना टूट जाएगी, यह मैं जानता हूं। इसलिए प्रश्न सार्थक है। इस प्रार्थना की अगर आप धारणा रखते हैं, तब तो बिना | लेकिन जो प्रार्थना परमात्मा के न होने से टूट जाती है, वह परमात्मा के प्रार्थना व्यर्थ हो जाएगी। क्योंकि अगर वहां कोई है ही | | प्रार्थना थी ही नहीं। प्रार्थना का कोई भी संबंध परमात्मा को बदलने नहीं, सिंहासन खाली है, तो आप सिर पटकते रहो, बेकार है। आप से नहीं है; प्रार्थना आपको बदलने की कीमिया है। जब आप प्रार्थना तभी तक सिर पटक सकते हो, जब तक भरोसा रहे कि सिंहासन | | करते हैं, तो वहां आकाश में बैठा हुआ परमात्मा नहीं रूपांतरित पर कोई है, तो शायद हमारे सिर पटकने से बदलेगा। होता। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो उस प्रार्थना करने में आप और हम अपने मन को समझा लेते हैं, अगर कभी बदलाहट हो बदलते हैं। जाती है। हमारी प्रार्थनाओं के कारण कोई बदलाहट नहीं होती, न | तो प्रार्थना एक प्रयोग है, जिस प्रयोग से आप अपने अहंकार कोई परमात्मा बदलाहट करने वाला है। लेकिन जीवन के अनंत | को तोड़ते हैं, अपने को झुकाते हैं। वहां कोई नहीं बैठा है, जिसके संयोगों में कभी-कभी हमारी प्रार्थना संयोगों से मेल खाती है, आगे आप अपने को झुकाते हैं। झुकने की घटना का परिणाम है। बदलाहट हो जाती है, तो हम उसे धन्यवाद देते हैं। अगर बदलाहट | आप झुकते हैं। आपको कठिन है बिना परमात्मा के, इसलिए कोई नहीं होती, तो हम नाराजगी जाहिर करते हैं। हर्जा नहीं। आप मानते रहें कि परमात्मा है, लेकिन असली जो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम तो छोड़ने की स्थिति | घटना घटती है, वह आपके झुकने से घटती है। में आ गए थे, कि यह धर्म-वर्म सब व्यर्थ है। लेकिन प्रार्थना पूरी आप झुकना सीखते हैं, किसी के सामने समर्पित होना सीखते हो गई, तब से आस्था बढ़ गई। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते | हैं। कहीं आपका माथा झुकता है; जो सदा अकड़ा हुआ है, वह हैं, हम थक गए प्रार्थना कर-करके, कभी कोई फल न आया; कहीं जाकर झुकता है। कहीं आप घुटने के बल छोटे बच्चे की तरह आस्था उठ गई। हो जाते हैं; कहीं आप रोने लगते हैं, आंखों से आंसू बहने लगते आस्था किसी की भी नहीं है। प्रार्थना पूरी हो जाए, तो आस्था हैं, हलके हो जाते हैं। और मैं कर सकता हूं, यह धारणा प्रार्थना से जमती है। प्रार्थना न पूरी हो, तो आस्था उखड़ जाती है। टूटती है। तू करेगा! तू करेगा सवाल नहीं है; मैं कर सकता हूं, यह मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन रोज सुबह प्रार्थना करता था | | धारणा टूटती है। मैं नहीं कर सकूँगा, तभी हम प्रार्थना करते हैं। काफी जोर से। परमात्मा सुनता था कि नहीं, पड़ोस के लोग सुन | मुझसे नहीं हो सकेगा। लेते थे कि सौ रुपए से कम न लूंगा; निन्यानबे भी देगा, नहीं लूंगा। अगर इसके गहरे अर्थ को समझें, तो इसका अर्थ है, जहां भी जब भी दे, सौ पूरे देना। आपको समझ में आ जाता है कि कर्ता मैं नहीं हूं, वहीं प्रार्थना शुरू आखिर पड़ोसी सुनते-सुनते परेशान हो गए। एक पड़ोसी ने तय | हो जाती है। यह कर्तृत्व को खोने की तरकीब है। वह जो कर्तृत्व है किया कि इसको एक दफा निन्यानबे रुपए देकर देखें भी तो सही। कि मैं करता हं. वह जो अहंकार है, वह जो मेरी अस्मिता है कि वह कहता है कि निन्यानबे कभी न लूंगा, सौ ही लूंगा। उसने एक करने वाला मैं हूं, उसके टूटने का नाम प्रार्थना है। दिन सुबह जैसे ही मुल्ला प्रार्थना कर रहा था, एक निन्यानबे की | जब आप घुटने टेक देते हैं, सिर झुका देते हैं और कहते हैं, थैली उसके झोपड़े के आंगन में फेंक दी। | मुझसे कुछ भी न होगा, अब तू ही कर, मेरे बस के बाहर है। तू ही मुल्ला ने पहला काम रुपए गिनने का किया। वह आधी प्रार्थना | | उठा; अब मुझसे नहीं चलना हो सकेगा; तू ही चला। यह उससे आधी रह गई; वह पूरी नहीं कर पाया, नमाज पूरी नहीं हो सकी। | इसका कोई संबंध नहीं है; वहां कोई है भी नहीं, जो इसको सुन रहा उसने जल्दी से पहले गिनती की। निन्यानबे पाकर उसने कहा, वाह | है। लेकिन यह कहने वाला हृदय अपने अहंकार को विसर्जित कर 202 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * रहा है। और जो आनंद इस प्रार्थना से घटित होगा, वह किसी का प्रार्थना कर रहा है, महावीर से, ऋषभ से, नेमीनाथ से। इससे कोई दिया हुआ नहीं है; वह आपके ही अहंकार छोड़ने से आपको | फर्क नहीं पड़ता। मिलता है। लेकिन परमात्मा के बिना प्रार्थना करना बड़ा कठिन है; जो कर धर्म तो एक नियम है। जो झुकता है, उसकी समृद्धि बढ़ती चली | पाए, उसके जीवन में बड़े फूलों की वर्षा हो जाती है। लेकिन आप जाती है; जो अकड़ता है, उसकी समृद्धि टूटती चली जाती है। जो न कर पाते हों, तो परमात्मा से शुरू करें; कोई हर्जा नहीं है। जितना अकड़ जाता है, उतना मुर्दा हो जाता है। जो जितना झुक परमात्मा सिर्फ खिलौना है; असली चीज प्रार्थना घट जाए। जिस जाता है, जितना लोचपूर्ण हो जाता है, फ्लेक्सिबल हो जाता है, | दिन प्रार्थना घट जाएगी, उस दिन तो आप खुद समझ जाएंगे कि उतना ही जीवंत हो जाता है। परमात्मा के होने न होने का सवाल नहीं है। बच्चे में और बूढ़े में वही फर्क है। बूढ़े की हड्डी-हड्डी अकड़ गई ___धर्म नियम है, इसलिए मैंने कहा। और जो भी घटता है जीवन है। अब वह झुक नहीं सकता। बच्चा लोचपूर्ण है। | में, वह एक आत्यंतिक नियम के कारण घटता है। आपकी प्रार्थना आपको लोच देती है, फ्लेक्सिबिलिटी देती है, आपको | | प्रार्थनाओं के कारण कुछ भी नहीं घटता। आपकी पूजा के कारण झुकना सिखाती है। जो प्रार्थना नहीं करता, वह अकड़ जाता है; | कुछ भी नहीं घटता। हां, अगर पूजा आपकी, प्रार्थना आपकी असमय में बूढ़ा हो जाता है, असमय में मृत हो जाता है; जीते जी | | आपको बदल देती हो, तो आप नियम के अनुकूल बहने लगते हैं। मुर्दा हो जाता है। और जो प्रार्थना करना जानता है, उसे मृत्यु भी | उस नियम के अनुकूल बहने से घटना घटती है। नहीं मिटा पाती। मृत्यु के क्षण में भी वह लोचपूर्ण होता है, मृत्यु के ___ हम जीवन में करीब-करीब उन्हीं-उन्हीं भूलों को बार-बार क्षण में भी वह बच्चे जैसा जीवंत होता है। | दोहराते हैं। पिछले जन्म में भी आपने वही भूलें कीं, उसके पिछले 'जो व्यक्ति प्रार्थना की कला सीख लेता है, उसे परमात्मा से कोई | | जन्म में भी वही भूलें की, आज भी वही कर रहे हैं। और डर यह संबंध नहीं। परमात्मा सिर्फ बहाना है, ताकि प्रार्थना हो सके। है कि शायद कल और आने वाले जन्म में भी वही भूलें करेंगे। हर परमात्मा सिर्फ खूटी है, जिस पर हम प्रार्थना के कोट को टांग पीढ़ी उन्हीं को दोहराती है; हर आदमी उन्हीं को दोहराता है। सकें। असली बात प्रार्थना है। बड़ी से बड़ी भूल जो है, वह यह है कि हम अंतरस्थ भावों को इसलिए बुद्ध और महावीर जैसे महाज्ञानियों ने परमात्मा को | | भी बिना आब्जेक्टिफाइ किए, बिना उनको वस्तु में रूपांतरित किए बिलकुल इनकार ही कर दिया। लेकिन प्रार्थना को इनकार नहीं कर | स्वीकार नहीं कर पाते। भाव तो भीतरी है, लेकिन उस भाव को भी सके, प्रार्थना जारी रही। पूजा को इनकार नहीं कर सके, पूजा जारी | सम्हालने के लिए हमें बाहर के सहारे की जरूरत पड़ती है। यह रही। समर्पण को इनकार नहीं कर सके; समर्पण जारी रहा। इसलिए बुनियादी भूलों में से एक है। जैन धर्म बहुत ज्यादा जनता तक नहीं पहुंच सका, क्योंकि यह बात | अगर आप प्रसन्न हैं और कोई आपसे पूछे कि आप क्यों प्रसन्न ही समझ में नहीं आती। अगर भगवान ही नहीं है, तो फिर कैसी | हैं, तो आप यह नहीं कह सकते कि मैं बस, प्रसन्न हूं। क्यों का क्या आराधना? जब परमात्मा नहीं है, तो पूजा किसकी? | सवाल है? आप कारण बताएंगे कि मैं इसलिए प्रसन्न हूं कि आज तो जैन विचार बहुत थोड़े लोगों की पकड़ में आया, ज्यादा लोग मित्र घर आया। इसलिए प्रसन्न हूं कि धन मिला। इसलिए प्रसर उसके साथ नहीं चल सके। और जो थोड़े-से लोग भी प्रथम दिन | | कि लाटरी जीत गया। आप कोई कारण बताएंगे। आप इतनी हिम्मत चले थे, वे ही समझदार थे। पीछे तो उनकी संतान सिर्फ अंधेपन | | नहीं कर सकते कि कह सकें कि मैं प्रसन्न हूं, क्योंकि प्रसन्न होने में के कारण चलती है। क्योंकि उनके मां-बाप जैन थे, वे भी जैन हैं। | प्रसन्नता है। लेकिन उनकी भी समझ में नहीं आता। . और मूढ़ हैं, जो कारण खोजते हैं। क्योंकि कारण खोजने वाला __ और इसलिए उन्होंने फिर नए उपाय कर लिए। बिना परमात्मा | | बहुत ज्यादा प्रसन्न नहीं हो सकता। कितने कारण खोजिएगा? रोज के तो पूजा हो नहीं सकती, तो फिर महावीर को ही परमात्मा की कारण नहीं मिल सकते। और आज कारण मिल जाएगा, घड़ीभर जगह बिठा दिया; फिर पूजा जारी हो गई! अब कोई फर्क नहीं है। | बाद कारण चुक जाएगा। लाटरी मिल गई, एक धक्का लगा, खुशी जैन और हिंदू में। हिंदू प्रार्थना कर रहा है, राम से, कृष्ण से। जैन आ गई। फिर? मित्र आज घर आ गया, कल कोई और घटना घट | 4031 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * गई, अगर जिंदगी में कारण से प्रसन्नता आती हो, तो बहुत थोड़ी | हैं, वह नहीं है। जो परमात्मा आप निर्मित किए हैं, वह नहीं है। प्रसन्नता आएगी। | परमात्मा का तो एक ही अर्थ है, यह समग्र अस्तित्व, यह टोटेलिटी, इसीलिए लोगों के जीवन में सुख बहुत कम है, दुख बहुत ज्यादा | | यह जो पूर्णता है। ये जो वृक्ष हैं, पौधे हैं, पत्थर हैं, जमीन है, है। क्योंकि कारण से जब सुख मिलेगा, तब सुख; अन्यथा दुख ही चांद-तारे हैं, मनुष्य हैं, पशु-पक्षी हैं, यह जो सारा फैलाव है, यह दुख है। दुख अकारण हमने स्वीकार किया है; सुख के लिए हम | जो ब्रह्म है, यह जो विस्तार है, यह सब कुछ परमात्मा है। और जिस कारण खोजते हैं। दिन आपको अपने में झुकने की कला आ जाएगी, आपका मस्तक और अगर आप प्रसन्न हैं बिना कारण के. तो लोग समझेंगे. झक सकेगा. लोचपर्ण होगा. हृदय आनंदित. प्रफल्लित होगा. आप पागल हैं। बिना कारण के प्रसन्न हैं! कोई कारण तो चाहिए। | प्रार्थना के स्वर वहां गूंजते होंगे, पैरों में धुन होगी आराधना की, भक्त अगर आप प्रसन्न हो रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, नाच रहे हैं, बिना किसी | का भाव होगा, तब आप पाएंगे कि यह सब परमात्मा है। उस दिन कारण के; न लाटरी मिली, न पत्नी मायके गई, कोई खुशी का | आप देखेंगे, जीवन नियम से चल रहा है। और धर्म भी विज्ञान है। कारण नहीं है, और आप प्रसन्न हो रहे हैं, तो लोग समझेंगे कि आप वस्तुतः धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। पागल हैं। इस प्रश्न का दूसरा हिस्सा भी समझने जैसा है: तब तो धर्म ये जो, जिनको हमने संत कहा है, उनके जीवन का रहस्य यही | | विज्ञान का पर्याय हो जाता है और उस परम नियम की खोज में है कि उन्होंने बिना कारण प्रसन्न होने का रास्ता खोज लिया। संत | |निकलना मात्र धर्म रह जाता है। और संसारी में यही भेद है। संसारी कारण खोजता है पहले। पहले निश्चित ही, उस परम नियम की खोज में निकलना ही धर्म है। सब प्रमाण मिल जाएं, तब वह प्रसन्न होगा। संत प्रसन्न होता है, | लेकिन वह परम नियम अगर बाहर आप खोजते हैं, तो आप प्रमाण का कोई आधार नहीं खोजता। क्या फर्क हुआ? वैज्ञानिक हो जाते हैं। और अगर उस परम नियम को आप भीतर संत अंतरस्थ भाव में जीता है। बाहर आब्जेक्टिफिकेशन नहीं | खोजते हैं, तो धार्मिक हो जाते हैं। खोजता, बाहर वस्तु रूप में प्रमाण नहीं चाहता। तो संत कहता है, __ वैज्ञानिक भी धर्म ही खोज रहा है, लेकिन पदार्थ में खोज रहा प्रार्थना काफी है, परमात्मा हो या न हो। हो तो ठीक; न हो तो भी है, बाहर खोज रहा है। और अगर आप भी धर्म को मंदिर में खोजते उतना ही ठीक। इससे संत की प्रार्थना में कोई फर्क नहीं पड़ता। हैं, मस्जिद में खोजते हैं, तो आप भी बाहर खोज रहे हैं। आप में संत प्रेम करता है, प्रेमी की तलाश नहीं करता। प्रेम में ही इतना और वैज्ञानिक में बहुत फर्क नहीं है। आनंद है कि अब प्रेमी का उपद्रव लेने की कोई जरूरत नहीं है। संत धार्मिक उसी नियम को भीतर खोजता है। क्योंकि धार्मिक ध्यान करता है, लेकिन ध्यान के लिए कोई विषय नहीं खोजता। व्यक्ति की यह प्रतीति है, जिसे मैं भीतर न पा सकूँगा, उसे मैं बाहर विषय से मुक्ति हो, वस्तु से मुक्ति हो, पदार्थ से मुक्ति हो और कैसे पा सकूँगा। क्योंकि भीतर मेरा निकटतम है, जब भीतर ही मेरे अंतर्भाव में रमण हो, तो जीवन की परम समाधि अपने आप सध हाथ नहीं पहुंच पाते, तो बाहर मेरे हाथ कहां पहुंच पाएंगे? हाथ जाती है। बड़े छोटे हैं। लेकिन हमें सब जगह बाहर कुछ चाहिए। अगर बाहर हमें कुछ ___ अपने ही भीतर नहीं छू पाता उसे, तो फिर मैं आकाश में उसे न मिले, तो हम बिलकुल खाली हो जाते हैं। क्योंकि भीतर हमने | कैसे छू पाऊंगा? और जो मेरे हृदय के भी पास है, और जो मेरे कभी फिक्र नहीं की। और हमने भीतर की जड़ें नहीं खोजी. जिनसे | प्राणों से भी निकट है, जो मेरी धड़कन-धड़कन में समाया है, वहां सारे जीवन के फूल खिल सकते हैं, बाहर की कोई भी जरूरत नहीं नहीं सुन पाता उसे, तो बादलों की गड़गड़ाहट में कैसे सुन पाऊंगा? है। जब तक ऐसा समझ में न आए, तब तक बाहर का सहारा लेकर | | बहुत दूर हैं बादल। और जो ज्योति मेरे भीतर जल रही है, वहां चलें। लेकिन ध्यान रखें कि वह सहारा सिर्फ सहारा है; वहां कोई | उससे मेरा मिलन नहीं होता, तो सूरज, चांद, तारों की ज्योति में मैं है नहीं। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका क्या यह अर्थ हुआ कि मैं | | उसे नहीं पहचान पाऊंगा। कह रहा हूं परमात्मा नहीं है? जब सत्य इतना निकट हो और हम उसे वहां चूक जाते हों, तो नहीं, मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं जिस परमात्मा को आप सोचते हमारी दूर की सब यात्रा व्यर्थ है। भीतर मुझे वह दिखाई पड़ जाए, 404 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरक के द्वार : काम, क्रोध, लोभ * तो सब जगह मैं उसे पहचान लूंगा। निकट पहचान हो जाए, तो दूर पहचानता है। और आपके भीतर जहां लहर उठ रही है हृदय की, भी वह मुझे दिखाई पड़ने लगेगा। क्योंकि जिसे हम दूरी कहते हैं, वहीं से पहचानने की जरूरत है। और वहीं से जो पहचानेगा, वही वह भी निकटता का ही फैलाव है। पर पहली घटना, पहली क्रांति | पहचान पाएगा। भीतर घटेगी। ___ लेकिन जैसा मैंने कहा कि हम नियमित रूप से बंधी-बंधाई भूलें वैज्ञानिक दृष्टि का मतलब है, सदा बाहर। धार्मिक दृष्टि का | | दोहराते हैं। आदमी बड़ा अमौलिक है। हम भूल तक ओरिजिनल अर्थ है, सदा भीतर। नहीं करते; वह भी हम पुरानी पिटी-पिटाई करते हैं। वैज्ञानिक दूर से शुरू करता है और निकट आने की कोशिश | ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उस पर नाराज थी। करता है। यह कभी भी नहीं हो पाएगा, क्योंकि वह दूरी अनंत है; | बात ज्यादा बढ़ गई और पत्नी ने चाबियों का गुच्छा फेंका और कहा जीवन बहुत छोटा है। अनेक-अनेक जन्म खोते जाएंगे, तो भी वह | कि मैं जाती हूं। अब बहुत हो गया और सहने के बाहर है। मैं अपनी दूरी बनी रहेगी। मां के घर जाती हूं और कभी लौटकर न आऊंगी। धार्मिक उसे भीतर से शुरू करता है और फिर बाहर की तरफ नसरुद्दीन ने गौर से पत्नी को देखा और कहा कि अब जा ही रही जाता है। और भीतर जिसने उसे छ लिया, वह तरंग पर सवार हो हो, तो एक खुशखबरी सुनती जाओ। कल ही तुम्हारी मां तुम्हारे गया: उसने लहर पकड ली: उसके हाथ में नाव आ गई। अब कोई | पिता से लड़कर अपनी मां के घर चली गई है। और जहां तक मैं जल्दी भी नहीं है। वह दूसरा किनारा न भी मिले, तो भी कुछ खोता | | समझता हूं, वहां वह अपनी मां को शायद ही पाए। नहीं है। वह दूसरा किनारा कभी भी मिल जाएगा, अनंत में कभी | | एक वर्तुल है भूलों का। वह एक-सा चलता जाता है। एक बंधी भी मिल जाएगा, तो भी कोई प्रयोजन नहीं है। कोई डर भी नहीं है | | हुई लकीर है, जिसमें हम घूमते चले जाते हैं। हर पीढ़ी वही भूल उसके खोने का। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। लेकिन आप | | करती है, हर आदमी वही भूल करता है, हर जन्म में वही भूल ठीक नाव पर सवार हो गए। करता है। भूलें बड़ी सीमित हैं। जिसने अंतस में पहचान लिया, उसकी यात्रा कभी भी मंजिल | । धर्म की खोज की दृष्टि से यह बुनियादी भूल है कि हम बाहर पर पहुंचे या न पहुंचे, मंजिल पर पहुंच गई। वह बीच नदी में | से भीतर की तरफ चलना शुरू करते हैं। क्योंकि यह जीवन के डूबकर मर जाए, तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। अब उसके | विपरीत प्रवाह है, इसमें सफलता कभी भी मिल नहीं सकती। मिटने का कोई उपाय नहीं है। अब नदी का मध्य भी उसके लिए सफलता उसी को मिल सकती है, जो जीवन के ठीक प्रवाह को किनारा है। समझता है और भीतर से बाहर की तरफ जाता है। धार्मिक व्यक्ति भीतर से बाहर की तरफ फैलता है। और जीवन का सभी विस्तार भीतर से बाहर की तरफ है। आप एक पत्थर फेंकते हैं पानी में; छोटी-सी लहर उठती हैं पत्थर के किनारे; फिर फैलना दूसरा प्रश्नः आप कहते हैं कि सभी द्वैत से ऊपर शुरू होती है। भीतर से उठी लहर पत्थर के पास, फिर दूर की तरफ उठकर परम मुक्ति को उपलब्ध होने के लिए समस्त जाती है। आपने कभी इससे उलटा देखा कि लहर किनारों की तरफ | जीवेषणा की निर्जरा अनिवार्य है। आज के समय के पैदा होती हो और फिर सिकुड़कर भीतर की तरफ आती हो! अनुकूल मृत्यु-साधना की कोई सम्यक विधि बताएं? ___ एक बीज को आप बो देते हैं। फिर वह फैलना शुरू हो जाता है; फिर वह फैलता जाता है; फिर एक विराट वृक्ष पैदा होता है। और उस विराट वृक्ष में एक बीज की जगह करोड़ों बीज लगते हैं।। वेषणा, लस्ट फार लाइफ का अर्थ ठीक से समझ लें। फिर वे बीज भी गिरते हैं। फिर फूटते हैं, फिर फैलते हैं। UII हम जीना चाहते हैं। लेकिन यह जीने की आकांक्षा ___ हमेशा जीवन की गति बाहर से भीतर की तरफ नहीं है। जीवन | ___ बिलकुल अंधी है। कोई आपसे पूछे, क्यों जीना की गति भीतर से बाहर की तरफ है। यहां बूंद सागर बनती देखी चाहते हैं, तो उत्तर नहीं है। और इस अंधी दौड़ में हम पौधे, पक्षियों, जाती है; यहां बीज वृक्ष बनते देखा जाता है। धर्म इस सूत्र को पशुओं से भिन्न नहीं हैं। पौधे भी जीना चाहते हैं, पौधे भी जीवन 405 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 की तलाश करते हैं। जैसे ही पूछेगे कि मिल क्या रहा है, तो हाथ खाली मालूम पड़ते ___ मेरे गांव में मेरे मकान से कोई चार सौ कदम की दूरी पर एक हैं। मिल कुछ भी नहीं रहा है। इसलिए कोई भी विचारशील व्यक्ति वक्ष है। चार सौ कदम काफी फासला है। और मकान में जो नल उदास हो जाता है. मिल कछ भी नहीं रहा है। का पाइप आता है, वह अचानक एक दिन फूट पड़ा, तो जमीन - रोज सुबह उठ आते हैं, रोज काम कर लेते हैं; खा लेते हैं; पी खोदकर पाइप की खोजबीन करनी पड़ी कि क्या हुआ! चार सौ लेते हैं; सो जाते हैं। फिर सुबह हो जाती है। ऐसे पचास वर्ष बीते, कदम दूर जो वृक्ष है, उसकी जड़ें उस पाइप की तलाश करती हुई | और पचास वर्ष बीत जाएंगे। अगर सौ वर्ष का भी जीवन हो, तो पाइप के अंदर घुस गई थीं, पानी की खोज में। बस यही क्रम दौड़ता रहेगा। और अभी तक कुछ नहीं मिला, कल वैज्ञानिक कहते हैं कि वक्ष बड़े हिसाब से अपनी जड़ें पहंचाते | क्या मिल जाएगा? हैं-कहां पानी होगा? चार सौ कदम काफी फासला है और वह __ और मिलने जैसा कुछ लगता भी नहीं है। मिलेगा भी क्या, भी लोहे के पाइप के अंदर पानी बह रहा है। लेकिन वृक्ष को कुछ | | इसकी कोई आशा भी बांधनी मुश्किल है। धन मिल जाए, तो क्या पकड़ है। उसने उतने दूर से अपनी जड़ें पहुंचाईं। और ठीक उन | | मिलेगा? पद मिल जाए, तो क्या मिलेगा? जीवन रिक्त ही रहेगा। जड़ों ने आकर अपना काम पूरा कर लिया, कसते-कसते उन्होंने ___ जीवेषणा अंधी है, पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है। पाइप को तोड़ दिया लोहे के। वे अंदर प्रवेश कर गईं और वहां से | | और इसलिए जीवेषणा से उठने का जो पहला प्रयोग है, वह आंखों पानी पी रही थीं वर्षों से वे उपयोग कर रही होंगी। के खोलने का प्रयोग है कि मैं अपने जीवन को देखें कि मिल क्या ___ वृक्ष को भी पता नहीं कि वह क्यों जीना चाहता है। अफ्रीका के रहा है! और अगर कुछ भी नहीं मिल रहा है, यह प्रतीति साफ हो जंगल में वृक्ष काफी ऊंचे जाते हैं। उन्हीं वृक्षों को आप यहां लगाएं, | जाए, तो जीवेषणा क्षीण होने लगेगी। उतने ऊंचे नहीं जाते। ऊंचे जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है। | मैं जीना इसलिए चाहता हूं कि कुछ मिलने की आशा है। अगर अफ्रीका में जंगल इतने घने हैं कि वैज्ञानिक कहते हैं, जिस वृक्ष को | | यह स्पष्ट हो जाए कि कुछ मिलने वाला नहीं है, कुछ मिल नहीं बचना हो, उसको ऊंचाई बढ़ानी पड़ती है। क्योंकि वह ऊंचा हो । | रहा है, तो जीने की आकांक्षा से छुटकारा हो जाएगा, उसकी निर्जरा जाए, तो ही सूरज की रोशनी मिलेगी। अगर वह नीचा रह गया, तो | हो जाएगी। मर जाएगा। __पहली बात, आंख खोलकर देखना जरूरी है, सजग होना जरूरी वही वृक्ष अफ्रीका में ऊंचाई लेगा तीन सौ फीट की। वही वृक्ष | है कि जीवन क्या दे रहा है! भारत में सौ फीट पर रुक जाएगा। जीवेषणा में यहां संघर्ष उतना | फिर दूसरी बात, देखना जरूरी है कि मिल तो कुछ भी नहीं रहा और जीवन रोज मौत में उतरता जा रहा है। और आज नहीं कल वैज्ञानिक कहते हैं, जेब्रा है, ऊंट है, उनकी जो गर्दनें इतनी लंबी | | मैं मरूंगा। हो गई हैं, वह रेगिस्तानों के कारण हो गई हैं। जितनी ऊंची गर्दन । हालांकि कोई इसको सुनने के लिए राजी नहीं होता। हम सब होगी, उतना ही जानवर जी सकता है, क्योंकि इतने ऊपर वृक्ष की यही सोचते हैं कि सदा दूसरे ही मरते हैं, मैं तो कभी मरता ही नहीं। पत्तियों को वह तोड़ सकता है। सुरक्षा है जीवन में, तो गर्दन बड़ी जब भी कोई मरता है, और कोई मरता है; मैं तो कभी मरता नहीं। होती चली गई है। इसलिए भ्रांति बनी रहती है कि मैं नहीं मरूंगा। चारों तरफ जीवन का बचाव चल रहा है। छोटी-सी चींटी भी चीन का एक बहुत बड़ा कथाकार हुआ, लूसम। उसने एक अपने को बचाने में, खुद को बचाने में लगी है। बड़े से बड़ा हाथी छोटी-सी कहानी लिखी है। उसमें लिखा है कि एक युवक एक भी अपने को बचाने में लगा है। हम भी उसी दौड़ में हैं। | ज्योतिषी के पास ज्योतिष सीखता था। उसने अपने गुरु से एक दिन __ और सवाल यह है और यहीं मनुष्य और पशुओं का फर्क | | पूछा कि अगर मैं लोगों को सत्य-सत्य कह देता हूं उनकी हाथ की शुरू होता है कि हमारे मन में सवाल उठता है कि हम जीना क्यों | रेखाएं पढ़कर, तो पिटाई की नौबत आ जाती है। झूठ मैं कहना नहीं चाहते हैं? आखिर जीवन से मिल क्या रहा है जिसके लिए आप चाहता। झूठ कहता हूं, तो लोग बड़े प्रसन्न होते हैं। जीना चाहते हैं? __ एक घर में बच्चे का जन्म हुआ। लोगों ने मुझे बलाया। तो मैंने नहीं है। 4061 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * देखकर उनको बताया, झूठ बोला, कि महायशस्वी होगा। सभी हम इतने व्यस्त होते हैं जीवित होने में, जीवित बने रहने में, कि मां-बाप को भरोसा होता है. सभी बच्चे प्रतिभाशाली की तरह पैदा जीवन क्या है, उससे परिचित होने का हमें न समय होता है. न होते हैं। सभी मां-बाप को भरोसा होता है कि इसका तो कोई सुविधा होती है। उस मंदिर के द्वार अटके ही रह जाते हैं, बंद ही मुकाबला नहीं। रह जाते हैं। महायशस्वी होगा, बड़ा प्रतिभाशाली है। धन्यभाग हैं तुम्हारे। वे जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने जीवन का राज जाना। वे ही लोग बड़े खुश हुए, उन्होंने काफी भेंट दी, शाल ओढ़ाई, भोजन | | परम बुद्धत्व को प्राप्त हुए। और जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने कराया, सेवा की। | अमृत को पकड़ लिया, अमृत को पा लिया। जिन्होंने जीवेषणा मगर मैं झूठ बोला था, तो उससे मेरे मन में चोट पड़ती रही। पकड़ी, वे मौत पर पहुंचे। दूसरे घर में बच्चा पैदा हुआ, तो मैंने सत्य ही कह दिया कि बाकी | __ इतना तो तय है कि जो जीवेषणा से चलता है, वह मृत्यु पर तो और कुछ पक्का नहीं है, लेकिन यह एक दिन मरेगा, इतना भर | पहुंचता है। इससे उलटा भी सच है लेकिन वह कभी आपका पक्का है। तो मेरी वहां पिटाई हुई। लोगों ने मुझे मारा और कहा कि | अनुभव बने तभी–कि जो जीवेषणा छोड़ता है, वह अमृत पर तुम ज्योतिष तो दूर, तुम्हें शिष्टाचार का भी पता नहीं! | पहुंचता है। इसको हम निरपवाद नियम कह सकते हैं। अब तक तो उसने अपने गुरु से पूछा कि आप मझे कुछ रास्ता बताएं। इस जगत में जितने लोगों ने जीवेषणा की तरफ से दौड़ की, वे मृत्यु झूठ भी मुझे न बोलना पड़े और पिटाई की नौबत भी न आए। | पर पहुंचते हैं। कुछ थोड़े-से लोग जीवेषणा को छोड़कर चले, वे क्योंकि अब यह धंधा मैंने स्वीकार कर लिया है ज्योतिष का। | अमृत पर पहुंचे हैं। तो उसके गुरु ने कहा, अगर ऐसा अवसर आ जाए, तो मैं तुम्हें | उपनिषद, गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, वे उन्हीं व्यक्तियों अपना सार बता देता हं जीवनभर का, जो मैं करता है। अगर झूठ की घोषणाएं हैं जिन्होंने जीवेषणा छोड़कर अमृत को उपलब्ध भी न बोलना हो और पिटना भी न हो, तो तुम कहना, वाह-वाह, | | किया है। क्या बच्चा है! ही-ही-ही। तुम कुछ वक्तव्य मत देना, तो तुम झूठ ___ मृत्यु के पार जाना हो, तो जीवन की इच्छा को छोड़ देना जरूरी बोलने से भी बचोगे और पिटाई भी नहीं होगी। है। यह बड़ा उलटा लगेगा। जीवन बड़ा जटिल है। जीवन निश्चित सभी होशियार ज्योतिषी आपको देखकर यही करते हैं। | ही काफी जटिल है और विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल है। जीवेषणा की तरफ अगर थोडी-सी भी ध्यान की प्रक्रिया लौटे. इसका मतलब यह हआ कि जो जीवन को पकडता है. वह मत्य थोड़ा-सा आपका होश बढ़े, तो दूसरा सवाल साफ ही हो जाएगा | को पाता है। इसका यह अर्थ हुआ कि जो जीवन को छोड़ता है, वह कि यह जीवन कहीं नहीं ले जा रहा है सिवाय मौत के। यह कहीं | महाजीवन को पाता है। यह बिलकुल विरोधाभासी लगता है, . नहीं जा रहा है सिवाय मौत के। जैसे सभी नदियां सागर में जा रही | | लेकिन ऐसा है। यह विरोधाभास ही जीवन का गहनतम स्वरूप है। हैं, सभी जीवन मौत में जा रहे हैं। आप करके देखें। धन को पकड़ें और आप दरिद्र रह जाएंगे। तब दूसरा बोध स्पष्ट होना चाहिए कि जो जीवन मौत में ले जाता | | कितना ही धन हो, दरिद्र रह जाएंगे। धन को छोड़कर देखें। और है, जो अनिवार्यरूपेण मौत में ले जाता है, अपरिहार्य जिसमें मृत्यु | आप भिखमंगे भी हो जाएं, तो भी सम्राट आपके सामने फीके होंगे। है, मृत्यु से बचने का जिसमें कोई उपाय नहीं, वह आकांक्षा के योग्य | आप शरीर को जोर से पकड़ें। और शरीर से सिर्फ दुख के आप नहीं है, वह एषणा के योग्य नहीं है, वह कामना के योग्य नहीं है। | कुछ भी न पाएंगे। और शरीर से आप तादात्म्य तोड़ दें, शरीर को ये दो बातें अगर गहन होने लगें आपके भीतर, इनकी सघनता | पकड़ना छोड़ दें। और आप अचानक पाएंगे कि शरीर को पकड़ने बढ़ने लगे, तो जीवेषणा की निर्जरा हो जाती है। और जिस दिन | | की वजह से आप सीमा में बंधे थे, अब असीम हो गए। व्यक्ति जीने की आकांक्षा से मुक्त होता है, उसी दिन जीवन का द्वार | । यहां जो छीनने चलता है, उसका छिन जाता है। यहां जो देने चल खुलता है। क्योंकि जब तक हम जीवन की इच्छा से भरे रहते हैं, | पड़ता है, उससे छीनने का कोई उपाय नहीं। यह जो विरोधाभास तब तक हम इस बुरी तरह उलझे रहते हैं जीवन में कि जीवन का है, यह जो जीवन का पैराडाक्स है, यह जो पहेली है, इसको हल द्वार हमारे लिए बंद ही रह जाता है, खुल नहीं पाता। करने की व्यवस्था ही साधना है। 407 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-72 दो काम करें। जीवन ने क्या दिया है, इसकी परख रखें। क्या भूख इसलिए प्रबलतम है कि अगर भूख का होश आपको न मिला है जीवन से, क्या मिल सकता है, इसका हिसाब रखें। पाएंगे | | हो, तो आप मर जाएंगे, जी न सकेंगे। एक बच्चा पैदा हो और उसे ली हैं। आशा भी टूट जाएगी कि कल भी कुछ भूख का पता न चलता हो, तो वह जी नहीं सकेगा। भूख उसके मिल सकता है। क्योंकि जो अतीत में नहीं हुआ, वह भविष्य में भी | शरीर को बचाने के लिए एकदम जरूरी है। भूख इस बात की खबर नहीं होगा। जो कभी नहीं हुआ, वह आगे भी कभी नहीं होगा। और | है कि शरीर आपसे कहता है, अब मैं बच नहीं सकूँगा, शीघ्र मुझे फिर देखें कि सब जीवन मृत्यु के सागर में उंडलते चले जाते हैं। कुछ दो, मेरी शक्ति खोती है। कोई आज, कोई कल। हम सब क्यू में खड़े हैं। आज नहीं कल, | तो भूख बचाती है स्वयं के शरीर को। लेकिन अगर भूख ही बारी आ जाती है और मृत्यु में उतर जाते हैं। अकेली हो, तो भी आप कभी के खो गए होते, आप पैदा ही न तो यह सारा जीवन मृत्यु में पूरा होता है, निश्चित ही यह मृत्यु होते। क्योंकि भूख आपको बचा लेगी, लेकिन आपके बच्चों को का ही छिपा हुआ रूप है। क्योंकि अंत में वही प्रकट होता है, जो नहीं बचा सकेगी। और बच्चों को पैदा करने का कोई भाव नहीं पैदा प्रथम से ही छिपा रहा हो। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मोत होगा। भूख में वह कोई शक्ति नहीं है। इसलिए एक दूसरी भूख है, है। और जीवेषणा को छोड़ेंगे, तो ही यह मौत छूटेगी। तब हमें उस वह है यौन। जीवन का अनुभव होना शुरू होगा, जिसका मिटना कभी भी नहीं ___ पेट की भूख से आप बचते हैं, यौन की भूख से समाज बचता होता है। है। ये दो भूखें हैं। और जैसे ही व्यक्ति का पेट भर जाता है, दूसरा उस जीवन को ही परमात्मा कहें, उस जीवन को मोक्ष कहें, उस जो खयाल आता है, वह सेक्स का है। भूखे आदमी को खयाल जीवन को आत्मा कहें, उस जीवन को जो भी नाम देना हो, वह हम चाहे न आए। क्योंकि भूखा आदमी पहले अपने को बचाए, तब दे सकते हैं। समाज को बचाने का सवाल उठता है, तब संतति को बचाने को अब हम सूत्र को लें। सवाल उठता है। खुद ही न बचे, तो संतति कैसे बचेगी? और हे अर्जुन, काम, क्रोध तथा लोभ, ये तीन प्रकार के नरक ___ इसलिए धार्मिक लोगों ने सोचा कि उपवास करने से कामवासना के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात अधोगति में ले जाने | से मुक्ति हो जाएगी। वह तरकीब सीधी है, बायोलाजिकल है। वाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिए। क्योंकि जब आदमी भूखा हो, तो वह खुद को बचाने की सोचेगा। क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ पुरुष | भूखे आदमी को कामवासना पैदा नहीं होती। इसलिए अगर आप अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता लंबा उपवास करें, तो कामवासना मर जाती है। है अर्थात मेरे को प्राप्त होता है। | मरती नहीं, सिर्फ छिप जाती है। जब फिर पेट भरेगा. तब फिर और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से कामवासना वापस आ जाएगी। इसलिए वह तरकीब धोखे की है, बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को उससे कुछ हल नहीं होता। जैसे ही समाज समृद्ध होता है, वैसे ही तथा न सुख को ही प्राप्त होता है। कामवासना तीव्र हो जाती है। इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र लोग सोचते हैं, अमेरिका में बहुत सेक्सुअलिटी है। ऐसा कुछ ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र-विधि से नियत किए हुए कर्म भी नहीं है। अमेरिका का पेट भरा है, आपका पेट खाली है। जहां को ही करने के लिए योग्य है। | भी पेट भर जाएगा, वहां भूख का तो सवाल खत्म हो गया। एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करें। तीन शब्दों को | इसलिए पूरे जीवन की ऊर्जा सिर्फ सेक्स में दौड़ने लगती है। कृष्ण नरक का द्वार कह रहे हैं : काम, क्रोध और लोभ। जिसको आपकी दो में दौड़ती है, भूख में और सेक्स में। फिर अगर पेट मैंने जीवेषणा कहा, वह इन तीन हिस्सों में टूट जाती है। बिलकुल ही भूखा हो, तो सेक्स में दौड़ना बंद हो जाती है, फिर जीवेषणा का मूल भाव काम है, यौन है, कामवासना है। भूख में ही दौड़ती है, क्योंकि भूख पहली जरूरत है। आप बचें, तो वैज्ञानिक, जीवशास्त्री कहते हैं कि आदमी में दो वासनाएं प्रबलतम | फिर आपके बच्चे बच सकते हैं। जैसे ही पेट भरा कि जो दूसरा हैं, एक भूख और दूसरा यौन। खयाल उठता है, वह कामवासना का है। 408 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * जीवेषणा दो पहलुओं से चलती है, व्यक्ति बचे और संतति | काम, लोभ, क्रोध एक ही नदी की धाराएं हैं। जब भी आप जो बचे। इसलिए कामवासना बहुत गहरे में पड़ी है। और उससे चाहते हैं, उसमें कोई रुकावट डाल देता है, तभी आप में आग जल छटकारा इतना आसान नहीं. जितना साध-संत समझते हैं। उससे उठती है, आप क्रोधित हो जाते हैं। जो भी सहयोग देता है, उस पर छुटकारा बड़ी आंतरिक वैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा होता है; बच्चों | | आपको बड़ा स्नेह आता है, बड़ा प्रेम आता है। जो भी बाधा डालता का खेल नहीं है। नियम और व्रत लेने से कुछ हल नहीं होता, | | है, उस पर क्रोध आता है। मित्र आप उनको कहते हैं, जो आपकी कसमें खाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कि जीवन का | | वासनाओं में सहयोगी हैं। शत्रु आप उनको कहते हैं, जो आपकी रोआं-रोआं रूपांतरित न हो जाए, जब तक बोध इतना प्रगाढ़ न हो | | वासनाओं में बाधा हैं। कि आप शरीर से अपने को बिलकुल अलग देखने में समर्थ न हो | लोभ और क्रोध से तभी छटकारा होगा. जब काम से छटकारा जाएं, तब तक कामवासना पकड़ती ही रहती है। हो। और जो व्यक्ति सोचता हो कि हम लोभ और क्रोध छोड़ दें यह जो कामवासना है, अगर आप इसके साथ चलें, इसके पीछे | | काम को बिना छोड़े, वह जीवन के गणित से अपरिचित है। यह दौड़ें, तो जो एक नई वृत्ति पैदा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभ | | कभी भी होने वाला नहीं है। कामवासना के फैलाव का नाम है। एक स्त्री से हल नहीं होता, इसलिए समस्त धर्मों की खोज का एक जो मौलिक बिंदु है, वह हजार स्त्रियां चाहिए! तो भी हल नहीं होगा। | यह है कि कैसे अकाम पैदा हो। उस अकाम को हमने ब्रह्मचर्य कहा सार्च ने अपने एक उपन्यास में उसके एक पात्र से कहलवाया है | | है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है, कैसे मेरे जीवन के भीतर वह जो दौड़ है एक कि जब तक इस जमीन की सारी स्त्रियां मुझे न मिल जाएं, तब तक विक्षिप्त और जीवन को पैदा करने की, उससे कैसे छुटकारा हो। मेरी कोई तृप्ति नहीं। कृष्ण कहते हैं, ये तीन नरक के द्वार हैं। " आप भोग न सकेंगे सारी स्त्रियों को; वह सवाल नहीं है; लेकिन हमें तो ये तीन ही जीवन मालूम पड़ते हैं। तो जिसे हम जीवन मन की कामना इतनी विक्षिप्त है। | कहते हैं, कृष्ण उसे नरक का द्वार कह रहे हैं। जब तक सारे जगत का धन न मिल जाए, तब तक तृप्ति नहीं आप इन तीन को हटा दें, आपको लगेगा फिर जीवन में कुछ है। धन की भी खोज आदमी इसीलिए करता है। क्योंकि धन से | बचता ही नहीं। काम हटा दें, तो जड़ कट गई। लोभ हटा दें, फिर कामवासना खरीदी जा सकती है; धन से सुविधाएं खरीदी जा | क्या करने को बचा! महत्वाकांक्षा कट गई। क्रोध हटा दें, फिर कुछ सकती हैं, सुविधाएं कामवासना में सहयोगी हो जाती हैं। खटपट करने का उपाय भी नहीं बचा। तो जीवन का सब उपक्रम लोभ कामवासना का फैलाव है। इसलिए लोभी व्यक्ति शून्य हुआ, सब व्यवहार बंद हुए। कामवासना से कभी मुक्त नहीं होता। यह भी हो सकता है कि वह अगर लोभ नहीं है, तो मित्र नहीं बनाएंगे आप। अगर क्रोध नहीं लोभ में इतना पड़ गया हो कि कामवासना तक का त्याग कर दे। है, तो शत्रु नहीं बनाएंगे। तो न अपने बचे, न पराए बचे; आप एक आदमी धन के पीछे पड़ा हो, तो हो सकता है कि वर्षों तक | | अकेले रह गए। आप अचानक पाएंगे, ऐसा जीवन तो बहुत स्त्रियों की उसे याद भी न आए। लेकिन गहरे में वह धन इसीलिए घबड़ाने वाला हो जाएगा। वह तो नारकीय होगा। और कृष्ण कहते खोज रहा है कि जब धन उसके पास होगा, तब स्त्रियों को तो हैं कि ये तीन नरक के द्वार हैं! और हम इन तीनों को जीवन समझे आवाज देकर बुलाया जा सकता है। उसमें कुछ अड़चन नहीं। । | हुए हैं। यह भी हो सकता है कि जीवनभर उसको खयाल ही न आए, हमें खयाल भी नहीं आता कि हम चौबीस घंटे काम से भरे हुए वह धन की दौड़ में लगा रहे। लेकिन धन की दौड़ में गहरे में हैं। उठते-बैठते, सोते-चलते, सब तरफ हमारी नजर का जो कामवासना है। फैलाव है, वह कामवासना का है। सब लोभ काम का विस्तार है। इस काम के विस्तार में, इस | अगर अभी एक हवाई जहाज गिर पड़े, आप उसके टूटे लोभ में जो भी बाधा देता है, उस पर क्रोध आता है। कामवासना | | अस्थिपंजर के पास जाएं। उसमें जो यात्री मरे हुए पड़े होंगे, उन मरे है फैलता लोभ, और जब उसमें कोई रुकावट डालता है, तो क्रोध | हुए यात्रियों में भी आपको सबसे पहले जो चीज दिखाई पड़ेगी, वह आता है। यह कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष। 409] Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7* आप सब चीजें भूल जाते हैं। दस साल पहले कोई आपको यह जो हमारा क्रोध, लोभ और मोह है, इन्हें आप सिद्धांतों की मिला था। नाम भूल गया, शक्ल भूल गई, कुछ भी याद नहीं रहा। | तरह तो समझ ले सकते हैं, लेकिन जीवन व्यवहार में इनके स्वरूप लेकिन यह आप कभी नहीं भूलते कि वह स्त्री थी कि पुरुष-यह को पहचानना असली सवाल है। और हम उसमें इतने लिप्त होते कभी नहीं भूलते। आपको याद है कि आपको कभी ऐसा शक पैदा हैं कि उसे अपने जीवन में पहचानना अक्सर कठिन होता है। हुआ हो कि बीस साल पहले एक आदमी, एक व्यक्ति मिला था, __ मैंने सुना है कि एक कंजूस आदमी ने अपने बेटे को चश्मा वह स्त्री थी या परुष? यह शक आपको हो ही नहीं सकता। इसका दिलवाया। दसरे दिन सबह ही बेटा बाहर बैठा है अपनी किताबें मतलब क्या है? वगैरह लिए। उसके बाप ने भीतर के कमरे से पूछा कि बेटे, क्या इसका मतलब यह है कि आपके ऊपर गहरे से गहरा जो संस्कार कुछ पढ़ रहे हो? उस लड़के ने कहा कि नहीं। तो बाप ने पूछा, तो पड़ता है, वह स्त्री और पुरुष होने का पड़ता है। उसका चेहरा कैसा क्या कुछ लिख रहे हो? उसके लड़के ने कहा, नहीं। तो बाप ने था; भूल गया। उसका नाम क्या था; भूल गया। उसकी जाति क्या कहा, तो फिर चश्मा उतारकर क्यों नहीं रख देते! लगता है, तुम्हें थी: भूल गई। वह लंबा था कि ठिगना था: सब भूल गया। लेकिन फिजूलखर्ची की आदत पड़ गई है। उसका सेक्स, वह आपको याद है। इसका मतलब यह है कि सबसे वह जो चश्मा आंख पर रखा है, जब लिख भी नहीं रहे, पढ़ भी गहरी आपकी स्मृति इस बात को पकड़ती है। सबसे ज्यादा चेतना नहीं रहे, तो उसका फिजूलखर्च हो रहा है, चश्मे का। इसके आस-पास घूमती है। यह हमें हंसने योग्य लग सकता है। लेकिन लोभी आदमी की यह जो हमारा काम है, यह कोई क्षण दो क्षण की बात नहीं कि | यह दृष्टि है। वह सब जगह बचा रहा है। और कई दफे ऐसा हो कभी-कभी आपको पकड़ता है। यह चौबीस घंटे आपको घेरे हुए। | जाता है कि हम लोभ के नाम पर जो बचाते हैं, उसको भी हम अच्छे है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। शायद चौबीस घंटे आप काम हैं। सिद्धांत बता देते हैं। फिर इसमें जहां-जहां सहयोग मिलता है, वहां-वहां लोभ पैदा होता फ्रायड ने एक बहुत अनूठी बात कही है, उसने कहा है कि है। वह इस काम की धारा में ही लोभ का वर्तुल है। | आमतौर से जो लोग ब्रह्मचर्य में उत्सुक होते हैं, वे लोभी होते हैं, जैसे नदी बहती है, और उसमें छोटे-छोटे भंवर पैदा हो जाते हैं। ग्रीडी होते हैं। वीर्य खो न जाए, इसकी कंजूसी उनको ब्रह्मचारी बना तो आपकी काम की जो नदी बहती है, जिस-जिस से सहारा मिलता | देती है। है, वह आपके लोभ का भंवर हो जाता है। और जिस-जिस से ___ यह बड़ी सोचने जैसी बात है। और इधर जैसा मैंने अनेक लोगों बाधा मिलती है, वह आपके क्रोध का भंवर हो जाता है। फिर उन को अनुभव किया है, अक्सर यह बात सच है। सौ प्रतिशत सच नहीं दोनों की परतें हमारे ऊपर बैठ जाती हैं। है, क्योंकि ब्रह्मचर्य की दिशा में जाने वाला एक प्रतिशत वह आदमी उठते-बैठते, चलते-फिरते, आप खयाल लेते हों, न लेते हों, | भी होता है, जो कामवासना से मुक्त होकर ब्रह्मचर्य की तरफ जाता व्यवहार करते, आपका लोभ और क्रोध काम करता है। आप रास्ते | | है। सौ में निन्यानबे तो वे लोग होते हैं, जो सिर्फ लोभ के कारण पर चलते आदमी से नमस्कार भी तभी करते हैं, जब कुछ लोभ | ब्रह्मचर्य की तरफ जाते हैं कि कहीं शक्ति खर्च न हो जाए। उससे जुड़ा हो। कोई लोभ-अतीत में, आज या भविष्य आपने शायद इस दिशा से कभी सोचा न हो। और अक्सर में-कहीं न कहीं उससे कुछ लाभ मिल सकता होगा, तो ही आप आपके साधु-संन्यासी जो आपको समझाते हैं, वे समझाते हैं कि नमस्कार करते हैं। नहीं तो आप नमस्कार करने वाले भी नहीं। हाथ | | बचाओ अपनी शक्ति को। वीर्य का एक बिंदु खोने का मतलब है, जोड़ने तक का श्रम आप उठाएंगे नहीं। न मालूम कितना सेर खून खो गया। वीर्य का एक बिंदु खो गया, और आपकी नजर जहां भी जाती है, वहां तत्क्षण मित्र और शत्रु | तो न मालूम कितना नुकसान हो गया। वे जो समझा रहे हैं आपको, को पहचानती है। जिससे भी थोड़ी-सी भी विरोध की संभावना है, | | आपको डरवा रहे हैं; वे आपके लोभ को जगा रहे हैं, वे यह कह या थोड़ी-सी भी बाधा पड़ सकती, थोड़ी प्रतियोगिता हो सकती है, । रहे हैं कि शक्ति खो न जाए। उसके प्रति आपका क्रोध जलता ही रहता है। भभक सकता है, | इसलिए अक्सर जो मुल्क कंजूस होते हैं, वे ब्रह्मचर्य की बहुत किसी भी क्षण मौका मिल जाए तो। चर्चा करते हैं। और जो जातियां निपट कंजूस होती हैं, वे ब्रह्मचर्य 4101 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ को बड़े जोर से पकड़ लेती हैं। ये जो ब्रह्मचर्य की इस तरह की बात करने वाले निन्यानबे प्रतिशत लोग हैं, इनमें से अधिक लोग कब्जियत के शिकार होंगे। क्योंकि जैसा वे वीर्य को बचाना चाहते हैं, ऐसा वे सब चीजों को बचाना चाहते हैं। वे मल तक को इकट्ठा करना सीख जाते हैं। अभी आधुनिक विज्ञान बड़ी महत्वपूर्ण बातें कहता है। वह कहता है, जो व्यक्ति भी कब्जियत का शिकार है, वह यह बता रहा है कि वह मल को भी छोड़ने को राजी नहीं है। उसकी चित्त की दशा सब चीजों को पकड़ लेने की है। मनोवैज्ञानिक कई अनूठे नतीजों पर पहुंचे हैं, जो धर्म को और धर्म की खोज में जाने वाले लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब चीजें प्रतीकात्मक हैं। और एक बड़ी अनूठी बात है, जो एकदम से समझ में नहीं आती, लेकिन सही हो सकती है। वे कहते हैं, मल का जो रंग है, पीला रंग, वही सोने का रंग है। और सोने को जो लोग पकड़ते हैं, वे लोग कब्जियत के शिकार हो जाते हैं। वे मल को भी नहीं छोड़ सकते। और धन हाथ काल ही है, वह मैल ही है, उससे ज्यादा है भी नहीं। लेकिन हर चीज को पकड़ लेना है, रोक लेना; कुछ भी छोड़ते नहीं बनता उनसे । जीवन उनका महारोग हो जाता है। काम विक्षिप्तता लाता है। लोभ उस विक्षिप्तता को बढ़ाने के लिए दूसरों का सहारा मांगता है, फैलाव मांगता है। क्रोध उस विक्षिप्तता में कोई भी बाधा डाले, उसको नष्ट करने को तैयार हो जाता है। तीनों नरक के द्वार हैं। और हम जीवन में जितने दुख खड़े करते हैं, वह इनके द्वारा ही खड़े करते हैं। नरक कहीं कोई स्थान नहीं है, जहां द्वारों पर लिखा है कि काम, क्रोध, लोभ, कि यहां से भीतर मत जाइए। जहां-जहां ये तीन हैं, वहां-वहां नरक है, वहां-वहां जीवन दुख और संताप से भर जाता है। वहां-वहां जीवन की प्रफुल्लता कुम्हला जाती है; जीवन के फूल वहां नहीं लगते। आपने कभी कंजूस आदमी को प्रसन्न देखा है ? कंजूस प्रसन्न हो ही नहीं सकता। प्रसन्नता में भी उसे लगेगा, कुछ खर्च हो रहा है, कुछ नुकसान हुआ जा रहा है। वह प्रसन्नता तक को रोके रखता है। वह हृदयपूर्वक हंस नहीं सकता; वह कठिन है, मुश्किल है; वह उसके व्यक्तित्व का ढंग नहीं है। वह किसी चीज में शेयर नहीं कर सकता, भागीदार नहीं बना सकता। इसलिए कंजूस कभी प्रेम नहीं कर सकता, किसी को प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम में उसे डर लगता है कि जिससे प्रेम किया, उसको कुछ बांटना पड़ेगा, कुछ साझेदारी करनी पड़ेगी। कंजूस किसी चीज में बंटाव नहीं कर सकता। कंजूस अकेला जीता है, आइसोलेटेड । अपने में बंद हो जाता है, और उसके चारों तरह कारागृह खड़ा हो जाता है। और अपने चारों तरफ कारागृह खड़ा हो जाए; हम किसी चीज में साझेदारी न कर सकें, मुस्कुरा भी न सकें, बांट भी न सकें ... । जीवन के सब आनंद बंटने से जुड़े हुए हैं। जो आदमी जितना बांट सकता है, जो जितना अपने को फैला सकता है, जो जितना अपने को दूसरों को दे सकता है, उतना ही प्रफुल्लित होता है, उतना ही आनंदित होता है। अगर परमात्मा परम आनंद है, तो उसका इतना ही अर्थ है कि • परमात्मा ने अपने को पूरा का पूरा इस जगत को दे दिया है, इस पूरे अस्तित्व को अपने को दे दिया है। वह सब तरफ फैल गया है। उसे आप कहीं भी खोज नहीं सकते। आप अंगुली करके इशारा नहीं | कर सकते कि यह रहा परमात्मा । क्योंकि वह एक जगह होता, तो कंजूस होता, कृपण होता, बंधा होता । वह सब जगह है। इसलिए आप जहां भी कहें, वहां वह है । और जहां भी आप | इशारा करें, वहीं आप पाएंगे कि मुश्किल है, वह सब जगह है। उसने अपने को सब तरह फैला दिया है। वह पूरा बंट गया है कि अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा है, अपने जैसा कुछ भी नहीं बचा है, इसलिए परम आनंद है, इसलिए सच्चिदानंद है। मैंने सुना है कि नानक एक गांव में ठहरे। गांव बड़े भले लोगों | का था, बड़े साधुओं का था, बड़े संत सज्जन पुरुष थे। नानक के शब्द- शब्द को उन्होंने सुना, चरणों का पानी धोकर पीया । नानक को परमात्मा की तरह पूजा । और जब नानक उस गांव से विदा होने लगे, तो वे सब मीलों तक रोते हुए उनके पीछे आए और उन्होंने कहा, हमें कुछ आशीर्वाद दें। तो नानक ने कहा, एक ही मेरा आशीर्वाद है कि तुम उजड़ जाओ। सदमा लगा । नानक के शिष्य तो बहुत हैरान हुए, कि यह क्या | बात कही! इतना भला गांव। लेकिन अब बात हो गई और एकदम पूछना भी ठीक न लगा । सोचेंगे, विचार करेंगे, फिर पूछ लेंगे। फिर दूसरे गांव में पड़ाव हुआ। वह दुष्टों का गांव था। सब उपद्रवी जमीन के वहां इकट्ठे थे। उन्होंने न केवल अपमान किया, तिरस्कार किया, पत्थर फेंके, गालियां दीं, मार-पीट की नौबत खड़ी हो गई; रात रुकने भी न दिया । 411 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * जब गांव से नानक चलने लगे, तो वे तो आशीर्वाद मांगने वाले | तो पी ही रहा है; सूरज पूरा का पूरा मेरा हो सकता था, उसमें वह थे ही नहीं। शोरगल मचाते. गालियां बकते नानक के पीछे गांव के बंटाव कर रहा है। तब तक आकाश में पर्णिमा का चांद निकलता बाहर तक आए थे। गांव के बाहर आकर नानक ने अपनी तरफ से है, तो वह भी प्रसन्न होता है। उतनी मेरी प्रसन्नता खो रही है। आशीर्वाद दिया कि सदा यहीं आबाद रहो। वह जो आदमी काम, क्रोध, लोभ से भरा हुआ है, उसका तब शिष्यों को मुश्किल हो गया। उन्होंने कहा कि अब तो पूछना | | मौलिक आधार जीवन का यह है कि मैं अकेला रहूं और सब मिट ही पड़ेगा। यह तो हद हो गई। कुछ भूल हो गई आपसे। पिछले | जाएं। वह नहीं मिटा पाता, यह दूसरी बात है। कोशिश पूरी कर रहा गांव में भले लोग थे, उनसे कहा, बरबाद हो जाओ! उजड़ जाओ! है। हजारों दफे उसने प्रयोग किए हैं कि वह सबको पोंछकर समाप्त और इन गुंडे-बदमाशों को कहा कि सदा आबाद रहो, खुश रहो, | कर दे, अकेला रहे। कल्याण तो उससे हो ही नहीं सकता। सदा बसे रहो! कल्याण तो उसी व्यक्ति से हो सकता है, सब रहें, चाहे मैं मिट नानक ने कहा कि भला आदमी उजड़ जाए, तो बंट जाता है। | जाऊं। मैं चाहे खो जाऊं; चाहे मेरी कोई जगह न रह जाए, लेकिन वह जहां भी जाएगा, भलेपन को ले जाएगा। वह फैल जाए सारी | | शेष सब रहे। फल और जोर से खिलें, चांद और जोर से निकले. दुनिया पर। और ये बुरे आदमी, ये इसी गांव में रहें, कहीं न जाएं।। लोग और आनंदित हों, जीवन की बांसुरी बजती रहे; मेरे होने न क्योंकि ये जहां जाएंगे, बुराई ले जाएंगे। होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अगर मैं बाधा बनता हूं, तो हट लेकिन बंटना बुरे आदमी का स्वभाव ही नहीं होता, अच्छा है | | जाऊं। अगर सहयोग बन सकता हूं, तो ही रहूं। यह। वह सिकुड़ता है, यह बड़ी कृपा है। भला आदमी बंटता है। | लेकिन ये तीन द्वार जब बंद हो जाएं, तभी कल्याण का जीवन बांटना उसका स्वभाव है। दान उसके जीवन की व्यवस्था है। यह शुरू होता है। सवाल नहीं कि वह कुछ देता है कि नहीं देता है; यह उसके यह जो शब्द कल्याण है, मंगल है, यह बड़ा समझने जैसा है। रहने-होने का ढंग है कि वह साझेदारी करता है, वह शेयर करता है। | इसका अर्थ दूसरे का सुख है। और दूसरे के सुख को अगर आप ये जो तीन हैं, काम, क्रोध, लोभ, ये सिकोड़ देते हैं। और सोचना भी शुरू कर दें...। सिकुड़ा हुआ आदमी नरक बन जाता है।। हम तो कंसीडर भी नहीं करते। दूसरा है, यह भी विचार नहीं ये अधोगति में ले जाने वाले हैं, इन तीनों को त्याग देना चाहिए। करते। दूसरे के जीवन में भी सुख की कोई संभावना हो सकती है, क्योंकि हे अर्जुन, इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हुआ पुरुष अपने | | दूसरे को भी सुख मिलना चाहिए, यह तो हमारे मन में कभी कौंधता कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है ही नहीं। अर्थात मुझको प्राप्त होता है। महावीर ने कहा है, जैसे तुम जीना चाहते हो, वैसे ही सभी जीना इन तीन से जो मुक्त हुआ पुरुष है, वही केवल कल्याण का | | चाहते हैं। जैसे तुम सुख पाना चाहते हो, वैसे सभी सुख पाना आचरण करता है। कल्याण का अर्थ है, जिससे हित हो, मंगल हो; | | चाहते हैं। तो जो तुम अपने लिए चाहते हो, वह सबके लिए चाहो। जिससे आनंद बढ़े, फैले। __ जीसस ने कहा है, जो तू न चाहता हो कि लोग तेरे प्रति करें, वह लेकिन जो आदमी कामवासना से भरा है, लोभ और क्रोध से | | तू कभी भूलकर भी दूसरे के प्रति मत करना। यह कल्याण का सूत्र भरा है, उसका आचरण कल्याण का नहीं हो सकता। उसका | हुआ। और जो तू चाहता हो कि लोग तेरे प्रति करें, वही तू उनके प्रति आचरण अहंकार-केंद्रित होगा। वह अपने लिए सबको मिटाने की | करना। क्योंकि जो तेरे भीतर जीवन की छिपी चाह है, वही दूसरों के कोशिश करेगा। वह चारों तरफ विध्वंस फैलाएगा। उसकी | | भीतर भी जीवन की छिपी चाह है। और तेरे भीतर जो जीवन है और आकांक्षा यही है कि सब मिट जाएं, मैं अकेला रहूं। क्योंकि जब | | दूसरे के भीतर जो जीवन है, वह एक ही का विस्तार है। तक दूसरा है, तब तक मैं चाहे बाटूं या न बांटूं, वह इस जगत की कल्याण का अर्थ है कि मेरे भीतर और आपके भीतर जो है, वह संपत्ति में से बंटाव तो कर ही रहा है। जब तक दूसरा है, कम से | एक ही चेतना का फैलाव है। और अगर मैं आपका सुख चाहता कम श्वास तो ले ही रहा है। तो इतनी आक्सीजन जिस पर मैं कब्जा | हूं, तो वस्तुतः यही मैं अपने सुख का आधार रख रहा हूं। और अगर कर सकता था. वह कब्जा कर रहा है। तब तक सरज की रोशनी| मैं आपका दुख चाहता हूं, तो मैं अपने ही हाथ-पैर तोड़ रहा हूं, 412| Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * क्योंकि आप मेरे ही फैले हुए रूप हैं। अगर आपको मैं दुखी करता | | भी नहीं था। शास्त्रों पर किसी के नाम भी नहीं थे। वह कोई हूं, तो मैं अपने ही दुख का इंतजाम कर रहा हूं। देर-अबेर यह दुख | व्यक्तियों की संपदा भी नहीं थी। अनंत-अनंत काल में, मुझे पकड़ लेगा। आपको सुख दे रहा हूं, तो देर-अबेर यह सुख अनंत-अनंत लोगों ने जो जाना है, उस जानने को लोग निखारते मेरे पास आ जाएगा। गए। शास्त्र संपदा थी सबके अनुभव की। एक बार जिस आदमी को यह समझ में आ गया कि इस जगत __ वेद हैं, वे किसी एक व्यक्ति के वचन नहीं हैं। अनंत-अनंत में अलग-अलग कटे-कटे लोग नहीं हैं; हम अलग-अलग ऋषियों ने जो जाना है, वह सब संगृहीत है। उपनिषद हैं, वे किसी आयलैंड नहीं हैं, द्वीप नहीं हैं, हम एक महाद्वीप हैं। और अगर | एक व्यक्ति के लिखे हुए विचार नहीं हैं। वह अनंत-अनंत लोगों हमारे बीच में फासला दिख रहा है, तो वह फासला भी बीच में आ | ने जाना है, उनका सारभूत है। कुछ पक्का पता लगाना भी मुश्किल गए पानी की दीवार का है। नीचे हम जुड़े हैं, नीचे जमीन एक है। है कि किसने जाना है। व्यक्ति खो गए हैं. सिर्फ सत्य रह गए हैं। और उस पानी की दीवार का कोई बहुत मूल्य नहीं है। पानी की भी | | कृष्ण ने जब यह बात कही, तब शास्त्र का अर्थ था, जाने हए कोई दीवार होती है? | लोगों के वचन। इन वचनों को त्यागकर जो अपनी इच्छा से बर्तता यह जो मेरे और आपके बीच में दीवार है, यह पानी की भी नहीं, | | है, वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि एक व्यक्ति का अनुभव हवा की ही दीवार है। इस दीवार के दोनों तरफ जिस हवा से आप | ही कितना है! एक व्यक्ति की छोटी-सी बुद्धि कितनी है! वह ऐसे श्वास ले रहे हैं, उसी हवा से मैं श्वास ले रहा हूं, हम दोनों जुड़े ही है, जैसे सूरज निकला हो, और हम अपना टिमटिमाता दीया हैं। हम सब जुड़े हैं। इस संयुक्तता का बोध आ जाए, तो जीवन में | लेकर रास्ता खोज रहे हैं। कल्याण का भाव आता है। एक व्यक्ति का अनुभव बहुत छोटा है। एक व्यक्ति का होश • और जो काम, क्रोध, लोभ से भरा है, उसे यह संयुक्तता का | बहुत छोटा है। अपने ही अनुभव से जो चलने की कोशिश करेगा, भाव नहीं आ सकता। उसके लिए सब दुश्मन हैं, सब प्रतियोगी हैं। वह अनंत काल लगा देगा भटकने में। लेकिन जाने हुए पुरुषों का, जो चीजें वह छीनना चाह रहा है, वही दूसरे छीनना चाह रहे हैं। जागे हए परुषों का जो वचन है, उसका सहारा लेकर जो चलेगा, इसलिए दूसरों का सुख वह कैसे चाह सकता है! दूसरों के लिए | वह व्यर्थ के भटकाव से बच जाएगा। आशीर्वाद उससे नहीं बह सकता। अभिशाप ही दूसरों के लिए रास्ता छोटा हो सकता है, अगर थोड़ा-सा नक्शा भी हमारे पास उसके पास है। हो। शास्त्रों का अर्थ है, नक्शे। शास्त्रों को सिर पर रखकर बैठ जाने और जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से | से कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता। लेकिन वे नक्शे हैं, उन नक्शों का बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परम गति को | | अगर ठीक से उपयोग करना समझ में आ जाए, तो आप बहुत-सी और न सुख को ही प्राप्त होता है। भटकन से बच सकते हैं। जहां जो भूल-चूक जिन लोगों ने पहले इस बात को समझना बड़ा जरूरी है और गहरा है। | की, उसको आपको करने की जरूरत नहीं है। जो व्यक्ति शास्त्र की विधि को त्यागकर...। शास्त्र कोई बंधे-बंधाए उत्तर नहीं हैं; शास्त्र तो केवल मार्ग को शास्त्र की विधि क्या है? शास्त्र क्या है? इसे समझें। खोजने के इशारे हैं। और उन इशारों को जो ठीक से समझ लेता है शास्त्र का अर्थ है, सदियों-सदियों में, सनातन से जिन्होंने जाना और उनके अनुसार चलता है, वह सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। है, उनका सार निचोड़। जिन्होंने जीवन के आनंद को अनुभव किया | | और जो उनको त्याग देता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है, न है, जीवन के वरदान की वर्षा जिन पर हुई है, उन्होंने जो कहा है, | परम गति को, औल्न सुख को ही प्राप्त होता है। वह भटकता है। उसका जोड़। | यह आज के युग में बात और कठिन हो गई, क्योंकि आज आज कठिन हो गई है यह बात। ऐसी कठिन उस दिन बात न | | शास्त्र बहुत हैं। कोई पांच हजार शास्त्र प्रति सप्ताह लिखे जाते हैं। थी, जब कृष्ण ने यह कहा था। उस दिन हर कोई शास्त्र नहीं| पुस्तकें बढ़ती चली जाती हैं। और कुछ पक्का पता लगाना मुश्किल लिखता था। कोई सोच ही नहीं सकता था कि बिना जाने मैं लिखू। है, कौन लिख रहा है, कौन नहीं लिख रहा है। पागल भी लिख रहे वह सोचने के बाहर था। क्योंकि बिना जाने लिखने में कोई अर्थ | | हैं। उनको राहत मिलती है, केथासिस हो जाती है। उनका पागलपन 413 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * निकल जाता है, किताब में रेचन हो जाता है। फिर उन पागलों की | | बहुत-सी अड़चन, भटकन, व्यर्थ खोजबीन से बचना हो, लिखी किताबों को दसरे पागल पढ़ रहे हैं। उनका तो रेचन हो जाता| भूल-चूक में बहुत समय खराब न करना हो, तो जरूरी है कि है, इनकी खोपड़ी भारी हो जाती है। अब तय करना मुश्किल है। | जिसने जाना हो, उसकी बात समझें; जिसने पहचाना हो, उसकी क्योंकि बहुत-से सूत्र खो गए। बात समझें। पहला सूत्र तो यह खो गया कि बिना जागे कोई व्यक्ति न लिखे; | __ और आप कैसे पहचानेंगे किसी व्यक्ति को कि उसने जान बिना जागे कोई व्यक्ति न बोले; बिना जाग्रत हुए कोई किसी दूसरे लिया, पहचान लिया? एक ही कसौटी है कि जिस व्यक्ति को आप को सलाह न दे। यह पुराने समय में सोचना ही असंभव था कि कोई देखें कि उसकी कोई खोज नहीं अब, उसका कोई प्रश्न नहीं अब। बिना जागे हुए किसी को सलाह दे देगा। अब उसको पाने का कुछ, आपको दिखाई में न पड़ता हो। कोई लेकिन आज कठिन है। आज तो सोए आप कितने ही हों, इससे व्यक्ति लगता हो कि ऐसे जी रहा है, जैसे उसने सब पा लिया। जो कोई फर्क नहीं पड़ता, आप सलाह दे सकते हैं। सोया हुआ आदमी | सब तरफ से तृप्त हो, जिसकी तृप्ति का वर्तुल बंद हो गया हो, जो और भी उत्सकता से सलाह देता है। वह चाहे अपने सपने में | | कहीं से खुलता न हो अब। तो ऐसे व्यक्ति की सन्निधि खोजना बड़बड़ा रहा हो, लेकिन उसको अनुयायी मिल जाते हैं। लोग उसके | जरूरी है। आपके लिए वही शास्त्र होगा। उसके माध्यम से आपको पीछे चलने लगते हैं। जितने जोर से कोई चिल्ला सकता हो, उतना वेद, उपनिषद, कुरान और बाइबिल के द्वार भी खुल जाएंगे। ज्यादा पीछे अनुसरण करने वाले मिल जाते हैं। ___ इससे तेरे लिए उस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र आज कठिन है। लेकिन आज भी व्यक्ति अपनी ही खोजबीन से ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र-विधि से नियत किए हुए कर्म चले, तो बहुत समय व्यय होगा, बहुत जन्म खो जाएंगे। आज भी को ही करने के लिए योग्य है। व्यक्ति को शास्त्र की खोज करनी चाहिए। लेकिन आज की __अर्जुन क्षत्रिय है, योद्धा है। कृष्ण शास्त्र की बात कह रहे हैं, कठिनाई को ध्यान में रखकर मैं कहूंगा कि आज शास्त्र से ज्यादा | | क्योंकि शास्त्र उस दिन तय किया था, समाज चार हिस्सों में सदगुरु...। | विभाजित था। बड़ी कुशलता से विभाजित किया था। कुशलता कृष्ण ने जब कहा, तब शास्त्र सदगुरु का काम करता था, अनूठी है। हिंदुओं की खोज बड़ी गहरी है। क्योंकि सिर्फ सदगुरुओं के वचन ही लिपिबद्ध थे। आज मुश्किल आज पांच हजार साल हो गए। पांच हजार साल में दुनिया में है। छापेखाने ने पागलखाने के द्वार खोल दिए हैं। कोई भी लिख | | बहुत तरह के लोगों ने मनुष्यों को बांटने की कोशिश की है, कि सकता है, कोई भी किताबों का प्रचार कर सकता है, कुछ अड़चन | कितने प्रकार के मनुष्य हैं? अभी अत्याधुनिक कार्ल गुस्ताव जुंग नहीं है अब। आज शास्त्र उतना सहयोगी नहीं हो सकता। आज की कोशिश है, पश्चिम के बड़े मनोवैज्ञानिक की। वह भी मनुष्यों शास्त्र को भी पहचानना हो, तो भी सदगुरु के ही माध्यम से | | को चार हिस्सों में ही बांट पाता है। इन पांच हजार सालों में दुनिया पहचाना जा सकता है। के कोने-कोने में अलग-अलग जातियों ने, अलग-अलग एक बहुत पुरानी कहावत है, सतयुग में शास्त्र, कलियुग में | | विचारकों ने खोज की है कि आदमी कितने प्रकार के हैं। वह हमेशा गरु। उसमें बडा अर्थ है। क्योंकि कलियग में इतने शास्त्र हो जाएंगे | चार के ही आंकड़े पर आ जाते हैं। कि यही तय करना मुश्किल हो जाएगा, कौन-सा शास्त्र है और | | हिंदुओं ने बड़ी पुरानी खोज की थी कि व्यक्ति चार तरह के हैं। कौन-सा शास्त्र नहीं है! और कौन आपको कहे? अब तो कोई | और उन चार तरह के व्यक्तियों को बोट दिया था। और न केवल निजी आत्मीय संबंध बन जाए आपका किसी जाग्रत पुरुष से, तो ऊपर से बांट दिया था, बल्कि ऐसे समाज की संरचना की थी कि ही रास्ता बन सकता है। क्योंकि उसके माध्यम से शास्त्र भी मिल आप मर भी जाएं आज, तो कल आपकी आत्मा अपने ही टाइप सकेगा। और जीवित पुरुष मिल जाए, तो शास्त्र की जरूरत भी नहीं | | की जाति को खोज ले। वह बड़ी गहरे व्यूह की रचना थी। रह जाती। ब्राह्मण मरकर ब्राह्मण घर में जन्म ले सके और अनंत जन्मों में लेकिन शास्त्र का मतलब ही इतना है, जागे हुए पुरुषों के वचन; | | ब्राह्मण घरों में तैर सके, तो उसका ब्राह्मणत्व सिद्ध होता चला चाहे वे जिंदा हों. चाहे जिंदा न हों। अगर आपको जीवन की जाएगा। और किसी भी जन्म में शास्त्र ने ब्राह्मण के लिए जो कहा 414 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नरक के द्वारः काम, क्रोध, लोभ * है, वह उसका मार्ग होगा। | जाएगा और सिर्फ हंसी योग्य हो जाएंगे। अर्जुन क्षत्रिय है। आज के क्षत्रिय को तय करना मुश्किल है। कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू शास्त्र की तरफ देख, क्षत्रिय आज कौन क्षत्रिय है, तय करना मुश्किल है। क्योंकि शास्त्र की वह के लिए शास्त्र ने क्या कहा है! तू उससे यहां-वहां मत हट, क्योंकि व्यवस्था टूट गई। और समाज का वह जो ढंग था, चार विभाजन | वही तेरी सिद्धि है। क्षत्रिय होकर ही और क्षत्रिय के धर्म का स्पष्ट कर दिए थे, जिनमें कोई लेन-देन नहीं था एक तरह का, ठीक-ठीक अनुसरण करके ही तेरा मोक्ष तुझे मिलेगा। जिनमें आत्माएं एक-दूसरे में प्रवेश नहीं कर पाती थीं, वह आज तो क्षत्रिय की क्या सिद्धि होगी? और क्या उसका मार्ग होगा? संभव नहीं है। आज सब अस्तव्यस्त हो गया है। और कृष्ण कह रहे हैं, क्षत्रिय सोचता ही नहीं कि कोई मरता है; समाज-सुधार के नाम पर नासमझ लोगों ने बड़ी उपद्रव की बातें | क्षत्रिय सोचता ही नहीं कि भविष्य में क्या होगा। क्षत्रिय सोचता ही खड़ी कर दी हैं। उन्हें कुछ पता भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। नहीं। क्षत्रिय लड़ना जानता है। लड़ना उसका ध्यान है। वह युद्ध में लेकिन उस दिन जिस दिन अर्जुन से कृष्ण ने यह बात कही, सब ध्यानस्थ हो जाता है। वह न यह जानता है कि मैं मर रहा हूं कि स्थिति साफ थी। दूसरा मर रहा है; वह युद्ध में निर्भय हो जाता है। युद्ध के क्षण में अर्जुन क्या कह रहा है? अर्जुन ब्राह्मण की मांग कर रहा है। वह उसकी चित्त की दशा न तो मारने के, न तो मरने के विचार से इस ढंग का व्यवहार कर रहा है, जो ब्राह्मण को करना चाहिए। वह | डोलती। वह निश्चित खड़ा हो जाता है। कौन मरता है, यह गौण जो प्रश्न उठा रहा है, वे ब्राह्मण के हैं। यह हिंसा होगी, लोग मर है। युद्ध उसके लिए एक खेल है, वह अभिनय है, वह उसके लिए जाएंगे; इस राज्य को पाकर क्या करूंगा; किसके लिए पाऊं; इससे | | कोई बहुत गंभीरता का प्रश्न नहीं है। वह दोपहर लड़ेगा, सांझ तक तो बेहतर है, मैं सब छोड़ दूं और संन्यस्त हो जाऊं। वह प्रश्न उठा | | लड़ेगा, सांझ बात भी नहीं करेगा कि युद्ध में क्या हुआ। रात रहा है, जो ब्राह्मण-चरित्र के व्यक्ति के लिए उचित है। और अगर | | विश्राम करेगा। रात उसकी नींद में खलल भी नहीं पड़ेगी कि दिनभर अर्जुन ब्राह्मण होता, तो कृष्ण ने यह गीता उससे नहीं कही होती। | इतना युद्ध हुआ, इतने लोग कटे। वह रात मजे से सोएगा। सुबह कृष्ण यह गीता कहने को मजबूर हुए, क्योंकि अर्जुन का जो | | उठकर फिर युद्ध की तरफ चल पड़ेगा। युद्ध उसके लिए एक खेल टाइप था. उसके जो व्यक्तित्व का ढांचा था. वह क्षत्रिय का था। और अभिनय है। और वह कोई एक जन्म की बात न थी। अर्जुन अनंत जन्मों से कृष्ण कह रहे हैं कि तू इस पूरे युद्ध को एक नाटक से ज्यादा मत क्षत्रिय था। बहुत-बहुत बार क्षत्रिय रह चुका था। क्षत्रिय होना जान। और तेरी जो शिक्षा है, तेरी जो दीक्षा है, तेरा जो संस्कार है, उसका गहरा संस्कार था। वह उसके रोएं-रोएं में समाया था। शास्त्र जो कहता है, तू उसके हिसाब से चुपचाप चल। तू अपना उसकी आत्मा क्षत्रिय की थी। कर्तव्य पूरा कर। तू चिंता में मत पड़। यह चिंता तुझे शोभा नहीं इसलिए यह अगर ब्राह्मण भी बन जाए, तो इसका ब्राह्मण होना | देती। अगर इस चिंता में यह करूं या वह करूं; हां या न; अच्छा ऊपर-ऊपर होगा. धोखा होगा. पाखंड होगा। यह जनेऊ वगैरह या बरा–त उलझ गया, तो त अपने धर्म से च्यत हो जाएगा। और पहन ले और चंदन-तिलक लगा ले और बैठ जाए, तो भी यह | तब तुझे अनंत जन्म लग जाएंगे। और यहां इस युद्ध के क्षण में इसी जंचेगा नहीं। इसके भीतर जो ढंग है, वह योद्धा का है। यह ब्राह्मण क्षण तू मुक्त हो सकता है। बस इतना ही तुझे करना है कि तू अपने होने के योग्य नहीं है। यह ब्राह्मण हो भी नहीं सकता। क्योंकि | कर्ता का भाव छोड़ दे। ब्राह्मण होना कोई एक क्षण की बात नहीं है। इसके अनंत जन्मों के क्षत्रिय वही है, जो कर्ता नहीं है। संस्कार साफ करने होंगे, तब यह ब्राह्मण हो सकता है। यह कोई | जापान में क्षत्रियों का एक समूह है, समुराई। वह अब भी क्षत्रिय एक क्षण का निर्णय नहीं है कि हमने तय किया और हम हो गए। | है। और अनेक पीढ़ियों से समुराई तैयार किए गए हैं। क्योंकि हर जैसे आज आप तय कर लें कि स्त्री होना है, इससे कुछ फर्क | कोई समुराई नहीं हो सकता; बाप समुराई रहा हो, तो ही बेटा नहीं पड़ेगा आपके तय करने से। आप स्त्री के कपड़े पहन सकते | समुराई हो सकता है। हैं, चाल-ढाल थोड़ी सीख सकते हैं। लेकिन स्त्रियां भी आप पर | | हम, जैसा कि फलों की फसल तैयार करते हैं, तो अच्छे फलों हंसेंगी। रहेंगे आप पुरुष ही। वह स्त्री होना ऊपर का पाखंड हो | का बीज चुनते हैं। फिर और उनमें से अच्छे फल, फिर उनमें से 415| Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गीता दर्शन भाग-7 * अच्छे फल। फिर फल बड़ा होता जाता है, सुस्वादु होता चला | | उदबोधित किया है। जाता है। ___ तो चाहे इस अध्याय में, चाहे किसी और अध्याय में, आपके तो अनेक पीढ़ियों में समुराई चुने गए हैं। वह क्षत्रियों की जाति लिए भी कहे गए वचन हैं। इतनी थोड़ी-सी मेहनत आपको करनी है। समुराई का एक ही लक्ष्य है कि जब मैं युद्ध में लडूं, तो युद्ध तो पड़ेगी कि अपने को थोड़ा समझें और अपने योग्य, अपने अनुकूल हो, मैं न रहूं। मेरी तलवार तो चले, लेकिन चलाने वाला न हो। वचनों को थोड़ा पहचानें। और उचित ही है कि इतनी मेहनत आप तलवार जैसे परमात्मा के हाथ में आ जाए, वही चलाए; मैं सिर्फ करें। क्योंकि बिलकुल चबाया हुआ भोजन मिल जाए, तो निमित्त हो जाऊं। आत्मघाती है। थोड़ा आप चबाएं और पचाएं। और यहां उत्तर बंधे इसलिए कहते हैं कि अगर दो समुराई युद्ध में उतर जाएं, तो बड़ा | हुए नहीं हैं, उत्तर खोजने पड़ेंगे। मुश्किल हो जाता है कि कौन जीते, कौन हारे। क्योंकि दोनों ही अपने | | मैंने सुना है, एक अदालत में मुकदमा चला एक आदमी पर, को मिटाकर लड़ते हैं। दोनों की तलवारें चलती हैं; लेकिन दोनों की | | उसने हत्या की थी। और एक गवाह को मौजूद किया गया, गांव के तलवारें परमात्मा के हाथ में होती हैं। कौन हारे, कौन जीते। एक किसान को। और उस गवाह से वकील ने पूछा कि जब रामू ने समुराई-सूत्र है कि वही आदमी हार जाता है, जो थक जाता है | | पंडित जी पर कुल्हाड़ी से हमला किया, तो तुम कितनी दूर खड़े थे? जल्दी और वापस अपने अहंकार को लौट जाता है। जिसको भाव | उसने कहा कि छः फीट साढ़े छः इंच; उस किसान ने कहा। वकील आ जाता है मैं का, वह हार जाता है। जो आदमी धैर्यपूर्वक परमात्मा भी चौंका, अदालत भी होश में आ गई, मजिस्ट्रेट भी चौंका। और पर छोड़कर चलता जाता है, उसके हारने का कोई भी उपाय नहीं है। वकील ने कहा, तुमने तो इस तरह बताया है कि जैसे तुमने पहले से कृष्ण कह रहे हैं, तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की | | ही सब नाप-जोखकर रखा हो। छः फीट साढ़े छ: इंच! व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्र-विधि से उस किसान ने कहा, मुझे पता था कि कोई न कोई मूर्ख आदमी नियत किए हुए कर्म को ही करने के लिए योग्य है। यह सवाल मुझसे यहां जरूर पूछेगा; तो यहां आने के पहले पहला यह कर्तव्य और अकर्तव्य की व्याख्या कृष्ण ने की। क्या करने | काम मैंने यह किया। बिलकुल नापकर आया हूं। योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है! क्या त्याग देना है, और क्या | इस तरह बंधे हुए सवाल और उत्तर आपको गीता में नहीं मिल · जीवन में बचा लेना है! कौन-से नरक के द्वार हैं, वे बंद हो जाएं, | सकते। सब जवाब वहां मौजूद हैं, सब सवालों के जवाब मौजूद तो कैसे मोक्ष का द्वार खुल जाता है! हैं। लेकिन पहले एक तो आपको अपना सवाल पहचानना पड़ेगा, ये सारी बातें आपने सुनीं। ये बातें अर्जुन को कही गई हैं। इन | | फिर अपने सवाल को लेकर गीता में खोजना पड़ेगा। जवाब पर आप सोचना। अगर आपकी चित्त-दशा अर्जुन जैसी हो, तो ये | | आपको मिल जाएगा। और वह जवाब जब तक न मिले, तब तक बातें आपके लिए बिलकुल सीधा मार्ग बन जाएंगी। अगर आपकी | गीता को ऊपर से ओढ़ने की कोशिश मत करना, क्योंकि वह चित्त-दशा अर्जुन जैसी न हो, और आप कोई संबंध ही न जोड़ पाते | खतरनाक हो सकती है। हों अपने और अर्जुन में, तो आप इन बातों को अपने पर ओढ़ने । गीता एक आदमी के लिए कही गई है, लेकिन एक आदमी के की कोशिश मत करना। क्योंकि वह भूल हो जाएगी वही, जो बहाने सब आदमियों से कही गई है। इसलिए उसमें बहउत्तर हैं, अर्जुन कर रहा था। अनंत उत्तर हैं, आपका उत्तर भी वहां है। और आप अपने को इन बातों को समझना, सोचना, इनके साथ-साथ अपने स्वभाव | पहचानते हों, तो उस उत्तर को खोज ले सकते हैं। फिर वही उत्तर को समझना और सोचना। दोनों को समानांतर रखना। अगर उनमें आपके जीवन की साधना बन सकता है। कोई मेल उठता हो, अगर दोनों में एक-सी धुन बजती हो, अगर आज इतना ही। दोनों में संयोग बनता हो, तो ये सूत्र आपके काम आ सकते हैं। लेकिन गीता में करीब-करीब कृष्ण ने वे सारे सूत्र कह दिए हैं, जितने प्रकार के मनुष्य हैं। वे सारे सूत्र कह दिए हैं। इसलिए गीता इतनी लंबी चली। अर्जुन के बहाने कृष्ण ने पूरी मनुष्य जाति को 1416 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो का हिन्दी साहित्य उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सत्र) कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया मगन भया रसि लागा चूंघट के पट खोल न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में) मीरा कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति पद धुंघरू बांध झुक आई बदरिया सावन की महावीर दादू सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास महावीर-वाणी (दो भागों में) महावीर-वाणी (पुस्तिका) जिन-सूत्र (चार भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में) सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में) पलटू अष्टावक्र महागीता (छह भागों में) अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र) धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा अन्य रहस्यदर्शी भक्ति-सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चुरौं (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहं दिस मोती (गुलाल) प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलें तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहि पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी चेति सके तो चेति क्या सोवै तू बावरी एक एक कदम चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो मूलभूत मानवीय अधिकार Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया मनुष्यः भविष्य की एकमात्र आशा सत्यम् शिवम् सुंदरम् सो वै सः सच्चिदानंद पंडित-पुरोहित और राजनेता : मानव आत्मा के शोषक ॐ मणि पद्मे हुम् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः हरि ॐ तत्सत् एक महान चुनौती : मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं तंत्र संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (आठ भागों में ) पत्र - संकलन क्रांति - बीज पथ के प्रदीप अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल बोध कथा मिट्टी के दीये ध्यान, साधना, योग ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति रजनीश ध्यान योग हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् नेति नेति मैं कहता आंखन देखी पतंजलि: योगसूत्र ( दो भागों में) साधना शिविर साधना पथ ध्यान - सूत्र जीवन ही है प्रभु माटी है कुम्हार मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की) साधना-सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत कां शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज ओशो के संबंध में भगवान श्री रजनीश : ईसा मसीह के पश्चात सर्वाधिक विद्रोही व्यक्ति संपर्क सूत्र : ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पूना 411001 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशोटाइमस.. टरनेशनल विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र एक वर्ष में 24 अंक का AM हिंदी व अंग्रेजी में संयुक्त रूप से प्रति तीन माह में प्रकाशित होने वाली रंगीन पत्रिका संपर्क सूत्रः ताओ पब्लिशिंग प्रा. लि. 50, कोरेगांव पार्क, पूना-411001 फोनः 660963 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मैंने गीता पर इधर इन पांच वर्षों में कहा है, उससे गीता अत्याधुनिक हो जाती है; बीसवीं सदी की घटना हो जाती है। अब पिछले पांच हजार साल को हम भूल सकते हैं। जो मैंने कहा है, उसमें गीता के पुराने पड़ते रूप को एकदम अत्याधुनिक कर दिया है। इन पांच हजार सालों में जो भी घटा है, मनुष्य की चेतना ने जो नयी-नयी करवटें ली हैं, नयी-नयी विधाएं खोजी हैं, मनुष्य की चेतना ने जो नए अनुभव किए हैं, उन सब को मैंने समाविष्ट कर दिया है। अब गीता को नया खून मिल गया है। -ओशो Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो के साहित्य को पढ़ने के बाद ऐसा ही लगता है जैसे हम उस गंगा में स्नान कर रहे हैं जिसके नीचे रेती तो है लेकिन जल में भीगी हुई है। फिर चाहे वह दर्शन हो, फिर चाहे वह इतिहास हो, फिर चाहे वह कविता हो, फिर चाहे वह कुछ भी क्यों न हो—वह सब की सब ऐसी लगती है जैसे हम उसे अपने हाथों से छू लें, अपने माथे से लगाएं, अपनी आंखों को तृप्ति दें। डा. कुंवर बेचैन साहित्यकार एवं लेखक A REGEL BOOK 1220 ISBN 81-7261-096-8