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* रूपांतरण का सूत्रः साक्षी-भाव *
और ध्यान भी मंत्र-योग, क्रिया-योग इत्यादि नहीं। ध्यान भी झेन | पर पड़ा है, उसे आप निकाल रहे हैं। आपको प्रयोजन नहीं है कि जैसा, शून्यता का भाव। सात्विक व्यक्ति हलका है और शून्य हो दूसरे व्यक्ति को इससे कुछ लाभ होगा। दूसरे से आपको कोई सकता है सरलता से। .
| मतलब ही नहीं है। अब स कोई भी हो; सिर्फ बहाना है दूसरा। और बुद्ध की सारी चेष्टा कि तुम. शून्य होओ, सिर्फ सात्विक लोगों आपके सिर में जो घूम रहा है बवंडर, उसे आप निकाल रहे हैं। पर सार्थक हो सकती है, सभी पर नहीं। तो बुद्ध ने जोर दिया है कि इसलिए लोग एक-दूसरे की बातचीत से ऊबते हैं। ऊब तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी नहीं है। क्योंकि आत्मा का खयाल भी | इसीलिए पैदा होती है कि वे आए थे अपना कचरा निकालने, आप तुम्हें भरे हुए रखेगा। कोई भी नहीं है। भीतर तुम एक विराट शून्य | उनको मौका ही नहीं दे रहे हैं। और आप ही कचरा डाले जा रहे हैं। हो, खाली आकाश।
__ जिस आदमी से आप ऊबते हों, उसका मतलब सिर्फ इतना ही इसी धारणा को गहरा करता जाए अगर कोई व्यक्ति और | है कि वह आपको मौका नहीं दे रहा है। और जो उबाने वाले, सात्विक वृत्ति का हो, तो वह परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाएगा। | पक्के बोर होते हैं, वे आपको मौका देंगे ही नहीं। वे संध भी नहीं राजसी व्यक्ति को तपश्चर्या और क्रियाओं से गुजरना होगा। और | | छोड़ते बीच में। दो बातों के बीच संध भी नहीं छोड़ते कि आप क्रियाओं और तपश्चर्या के साथ साक्षी-भाव को जगाना होगा। | कुछ भी बीच में उठा दें और सिलसिला अपने हाथ में ले लें। वे
आलसी व्यक्ति क्रियाओं और तपश्चर्या में नहीं जा सकता। कहे ही चले जाते हैं! उसको अपनी अकर्मण्यता को ही अपनी क्रिया माननी होगी और | यह जो बोलना है, यह कोई संबंध नहीं है। और यह बोलने का अपनी अकर्मण्यता के प्रति साक्षी-भाव को जगाना होगा। | जो कृत्य है, यह सात्विक नहीं रहा, राजसिक हो गया। आपको एक
साक्षी-भाव तीनों के साथ काम करेगा। लेकिन सात्विक शून्य | | कर्म करने का पागलपन है भीतर; आप बिना किए नहीं रह सकते के साथ साक्षी को जोड़ेगा। राजसिक कर्म के साथ साक्षी को हैं। इसलिए मजबूरी है, कर रहे हैं। कुछ लोग सेवा में लगे हैं। जोड़ेगा। तामसिक आलस्य के साथ साक्षी को जोड़ेगा। और साक्षी | - मेरे पास एक मित्र आए। और उन्होंने कहा कि बीस साल से सूत्र है, जिससे भी आप जोड़ दें, वही पुल बन जाएगा, वही सेतु | | सेवा कर रहा हूं। हरिजनों की सेवा की; आदिवासियों की सेवा कर बन जाएगा।
रहा हूं। स्कूल खोले, अस्पताल खोले। लेकिन शांति नहीं मिलती। अब सूत्र।
तो मैंने उनसे कहा, इतना कम से कम अच्छा है कि तुम काम में सात्विक कर्म का तो सात्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्य | | लगे हो बीस साल से। शांति नहीं मिल रही, लेकिन अगर तुम यह आदि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, संताप, | उपद्रव इतना न करते-हरिजन की सेवा, आदिवासी की सेवा और पीड़ा; एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। सत्वगुण से ज्ञान | यह सब अस्पताल और स्कूल-तो तुम इतनी अशांति इकट्ठी कर उत्पन्न होता है; रजोगुण से निस्संदेह लोभ उत्पन्न होता है; तमोगुण | लेते कि तुम पागल हो जाते। और तुम यह मत सोचना कि तुम से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। . | हरिजन के कारण सेवा कर रहे हो। तुम्हें सेवा करनी ही पड़ती।
सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और | हरिजन न हों, तो किसी और की करनी पड़ती। वह तो हरिजन हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य अर्थात मनुष्य लोकों में होते हैं | सौभाग्य! आदिवासी हैं, कृपा प्रभु की। अगर न हों, तो तुम किसी एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित | | न किसी की सेवा करते ही। सेवा तुम्हें करनी ही पड़ती। यह तुम्हारी हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। | भीतरी मजबूरी है। यह हरिजन तो खूटी है, जिस पर तुमने टांगा है सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान और वैराग्य है।
अपने को। एक-एक शब्द को ठीक से समझें। सात्विक कर्म का अर्थ है, | इसलिए आप यह मत सोचें कि दुनिया अच्छी हो जाएगी, तो जो कर्म आपके करने के पागलपन से पैदा न हुआ हो; पहली बात। | सेवा करने वालों को कोई अवसर न रहेगा। वे अवसर खोज ही
आप लोगों से बात करते हैं। अक्सर बात आप इसलिए करते | लेते हैं। वे खोज ही लेंगे। वे कोई न कोई उपाय खोज लेंगे, क्योंकि हैं कि अगर आप बात न करें, तो आपको भीतर बेचैनी मालूम | उन्हें कुछ करना है। होगी। आप लोगों से बात नहीं कर रहे हैं, एक कचरा आपके सिर | | अगर करने की बीमारी से आपका कर्म निकल रहा है, तो वह
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